बच्चों की सुरक्षा और परवरिश के लिए सरकार जो कुछ भी कर रही है, वह बिल्कुल पर्याप्त नहीं है. क्योंकि पूरे देश बच्चों की हालत बहुत खराब है. बच्चों के लिए इस बार का बजट बेहद खराब रहा. महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का बजट घटाकर आधा कर दिया गया. हालांकि सरकार का कहना है कि बजट कम नहीं किया गया है, बल्कि फिस्कल डिवोल्यूशन (राजकोषीय हस्तांतरण) किया गया है, जिसके तहत हर मद के लिए राज्यों को सीधे एकमुश्त रकम दिया गया है. संघीय ढांचे की मजबूती के लिए यह अच्छी बात है कि सीधे राज्यों को पैसा दिया जाए और वे उसे अपने तरीके से खर्च करें. लेकिन राज्यों में यह दिखाई नहीं दे रहा है. ऐसा नहीं हो सकता कि अचानक आप कहें कि ऐसा कीजिए और कल हो जाएगा. इसे धीरे-धीरे कई चरणों में पूरा करना चाहिए था.
बजट आवंटन के बाद असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने कहा, केंद्र ने अचानक यह फैसला कैसे कर दिया? हमें क्या करना है, यह स्थिति साफ नहीं है. बिना स्पष्ट योजना के अचानक राज्यों पर जिम्मेदारी डाल दी गई है. भाजपा शासित राज्यों को तो सवाल नहीं उठाना था, उन्होंने नहीं उठाया, लेकिन बाकी लगभग सभी राज्यों ने इसका विरोध किया. यह विरोध जायज भी है. 2014 तक बजट में बच्चों के लिए जितना पैसा आवंटित होता था, वह भी घट गया. राष्ट्रीय बजट में बच्चों का हिस्सा कम कर देना चिंताजनक स्थिति है. एक तो बजट पहले से पर्याप्त नहीं था, दूसरे वह घट रहा है.
यह बेहद शर्मनाक स्थिति है कि हम भारत को विश्वशक्ति बनाने की बात करते हैं, मेक इन इंडिया कार्यक्रम चलाते हैं, भारत को संयुक्त राष्ट्र में सदस्यता दिलाने की बात करते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा कुपोषित आबादी पर बात नहीं करते. बच्चे कुपोषण से मर रहे हैं. प्रधानमंत्री जितने का चश्मा पहनते हैं, उतने में तो कितने बच्चों का पेट पल सकता है. बताते हैं कि उनका चश्मा खास किस्म का है जो गिरने या दब जाने से टूटता नहीं. वह बहुत महंगा है.
बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित हो, इसके लिए पहली प्राथमिकता होनी चाहिए कि इसके लिए पैसा हो. यही नहीं पैसे देने के बाद यह भी निगरानी रखनी होगी कि उससे फायदा कितना होता है
हालांकि, हमारे देश में जो नीति है वह और देशों से काफी आगे है. बहुत कम देश हैं जहां पर बच्चों के लिए अलग से बजट का प्रावधान है. पंचवर्षीय योजनाओं में भी बच्चों और महिलाओं पर अलग से प्रावधान होता है. लेकिन आज आप जाकर मंत्रालय में पूछ लीजिए तो उनको ही इस बारे में नहीं पता. बच्चों के लिए क्या-क्या योजनाएं चल रही हैं, क्या प्रावधान थे, क्या नए प्रावधान रखे गए हैं, उन्हें कुछ नहीं मालूम रहता. सरकार और मंत्रालयों के पास इंस्टीट्यूशनल मेमोरी की कमी है. जो उन्हें जानना चाहिए, यह गैर-सरकारी संस्थाएं तो जानती हैं, लेकिन मंत्रालयों को उसके बारे में कुछ नहीं पता. यह दुखद है.
पिछली सरकार में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अधिकारियों ने गौर किया कि बच्चों की सुरक्षा के लिए जो बजट है, वह तब के लिए है, जब वे असुरक्षा में जा चुके होते हैं. होना यह चाहिए कि वे पहले से ही सुरक्षित जोन में रहें. इसलिए इंटीग्रेटेड चाइल्ड प्रोटेक्शन स्कीम (आईसीपीएस) लाई गई. चूंकि अब नई सरकार में मंत्री- अफसर सब बदल गए हैं तो उनको इसका इतिहास ही नहीं मालूम. उन्हें यह ध्यान देना चाहिए कि यह कार्यक्रम क्यों चलाया गया था. यह कार्यक्रम लागू होने के बाद हमें लगता था कि इससे बच्चों की समुचित निगरानी हो सकेगी. लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है. सारी योजनाएं कागजी कार्रवाई बनकर रह गई हैं. सरकार को आंतरिक समीक्षा करवानी चाहिए और उस हिसाब से फैसले लेने चाहिए.
बजट घटा देने और नई व्यवस्थाएं लागू करने की वजह से अभी बहुत उथल-पुथल की स्थिति है. यही नहीं पता है कि किसी मसले पर जिम्मेदारी किसकी है. केंद्र सरकार कहती है कि हमने राज्यों को सीधे पैसा दे दिया गया, लेकिन राज्य अपनी प्राथमिकता अपने हिसाब से तय करेंगे. ज्यादातर राज्यों के पास पैसे की कमी है. ऐसे में जाहिर है कि बच्चों पर गाज गिरेगी.
बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित हो, इसके लिए पहली प्राथमिकता होनी चाहिए कि इसके लिए पैसा हो. पैसा होगा तभी ढांचा विकसित होगा. पैसे ही संसाधन, संस्थाएं, ट्रेनिंग, मॉनीटरिंग आदि की उचित व्यवस्था हो सकेगी. दूसरी अहम बात है ये है कि सिर्फ पैसा जारी कर देने भर से भी बात नहीं बनती. वह बंदरबांट में चला जाता है. पैसे देने के बाद यह भी निगरानी रखनी होगी कि उससे फायदा कितना होता है.
फिलहाल हालात चिंताजनक हैं. हमारी चमक-दमक तो बढ़ रही है, लेकिन अंदर से बुरी स्थिति है. सिर्फ ‘चेहरे’ पर ‘मुखौटे’ लगाने से बात नहीं बनेगी. चेहरे चमकदार होने के साथ-साथ पूरे बदन की देखभाल करनी होती है. सरकार को ‘चेहरे’ और ‘बदन’ में सामंजस्य बनाने की कोशिश करनी चाहिए.
(लेखिका हक-सेंटर फॉर चाइल्ड राइट्स की सह-निदेशक हैं)
किशनगढ़, राजस्थान की रहने वाली 23 साल की अनु ने इसी साल बीएड का कोर्स खत्म किया है. उसका सपना है कि शिक्षा के जरिये वह समाज की इस सोच में बदलाव लाए जो बच्चों खासकर लड़कियों के सपनों को उभरने ही नहीं देता, उन्हें पूरे करने के अवसर देना या बनाना तो अलग ही बात है. अपनी तीन बहनों के साथ जब अनु का ब्याह हुआ तो वह सिर्फ तीन साल की थी. पढ़ाई को लेकर उसमें जिद थी और परिवार भी उसे पढ़ने से रोक नहीं पाए. इस बीच कई मौके आए जब उसके ससुरालवालों ने उसे ले जाने की जद्दोजहद की, समाज और पंचायत ने बहिष्कार कर दिया और परिवार पर एक लाख रुपये का जुर्माना दंड भी लगाया. मगर अनु जैसे-तैसे अपनी मन की करने में कामयाब रही. पर हजारों लड़कियां ऐसा चाहकर भी नहीं कर पातीं.
अनु की हमउम्र माया इस उम्र में तीन बच्चों की मां है. उसके पति दो-तीन साल पहले एक दुर्घटना में गुजर गए हैं, जबकि एक दूसरी हमउम्र धनेश्वरी 17 साल की उम्र में पति के जुल्मों और यौन हिंसा से गुजरकर वापस मायके लौट आई है. ये सभी पीड़िता नहीं हैं बल्कि समाज के तथाकथित ‘परंपरावादी’ चेहरे पर एक सवाल हैं. हमारी परंपराओं, मान्यताओं और संस्कारों ने आज के समाज को जितना पीछे धकेला हैं, शायद लोकतांत्रिक कही जाने वाली व्यवस्था की सबसे बड़ी चुनौती भी वहीं से निकलती है.
इसका सबसे दुखद पहलू है, अपने ही घर समाज में बच्चों के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया कहीं पर सीधे-सीधे दिखाई देता है और कहीं प्यार भरे वातावरण में जटिल पितृसत्ता के साथ गुंथा हुआ. इन युवा होते बच्चों के संबंधों और कमाई पर पूरी तरह नियंत्रण और उसका दोहन करने की परंपरा पर चुनौती कौन देगा?
अब जब भारत में लगभग 48% आबादी बाल और किशोर वर्ग से है, जो अगले सालों में उत्पादक वर्ग में आने वाले में हैं, यह चिंता का विषय है कि कैसे इन बच्चों को सुरक्षा और विकास के अवसर मुहैया कराए जाएं ताकि उनकी सारी क्षमताओं को उभरने का अवसर मिल सके. जिसका पूरा उपयोग विकास के तत्कालीन मॉडल में किया जा सके. विकास की राह में बाल विवाह एक बड़ी बाधा है. बाल विवाह पर कई नजरिये हैं. हाल ही में आर्थिक तरक्की पर हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में वर्ष 2030 तक के लिए ‘सतत विकास के लक्ष्य’ निर्धारित किए गए हैं. लड़कियों के लिए शिक्षा, किशोर वय में मातृत्व, जीवन कौशल और आजीविका से जुड़ी कुशलताएं बढ़ाने पर काफी जोर दिया गया है. इस प्रक्रिया में किशोर युवा लड़कों पर पहली बार ध्यान केंद्रित किया गया है. भारत और दुनिया के तमाम देशों में जारी बाल विवाह की परंपरा को लेकर चिंताएं जाहिर हुई हैं और इस पर काबू पाने के लिए कई तरह के कार्यक्रम भी बनाए जा रहे हैं. आशंका है कि यह सब ऊपर ही ऊपर किया जा रहा है, समाज के साथ बैठकर एक गंभीर चिंतन नहीं हो रहा. इसमें खतरा इतना ही है कि विकास के इस मॉडल में एक बड़ा वर्ग लगातार हाशिये पर जा रहा है, सवाल ये है कि उसे कैसे मुख्यधारा में लाया जाए कि वह स्वयं इस बदलाव को लाने के लिए उत्सुक हो.
दरअसल बच्चों से जुड़ी नीतियों, कानूनों और कार्यक्रमों से कई तरह के भ्रम फैले हैं. किस उम्र का व्यक्ति बच्चा कहलाएगा? शिक्षा का अधिकार एक उम्र पर निर्धारित है तो श्रम कानून एक अलग उम्र पर
वर्तमान समय में बाल विवाह के बने रहने का एक बड़ा कारण समाज का पिछड़ापन तो है ही, मगर इस पिछड़ेपन के बने रहने में हमारे विकास के मॉडल का भी बड़ा हाथ है. जिसके चलते सामाजिक-आर्थिक-वर्गीय विषमताएं बढ़ रही हैं, वहीं न्याय की परिभाषा सिकुड़ती जा रही है. आखिर अनु या माया या धनेश्वरी जैसी लड़कियां अपने लिए न्याय के मायने कहां खोजें, कैसे उसे प्राप्त करें? अनु जब 18 वर्ष की होकर अपनी शादी रद्द करवाने की अर्जी पारिवारिक न्यायालय में लगाती है तो उसका केस काउंसलिंग में चला जाता है और उसे समझाया जाता है कि शादी को जोड़कर रखना औरत की खूबी होती है. दरअसल यहीं से अपना बाल विवाह निरस्त करवाने के उसके कानूनी अधिकार की धज्जियां उड़ जाती हैं. देखा जाए तो इस तरह बाल विवाह को कानूनी दर्जा मिलता है और अनु को तलाक लेने में डेढ़ बरस का समय. मजदूर परिवार की होने के कारण केस के लिए आर्थिक भार भी पड़ता है यानी जब वे खुद निर्णय लें और न्याय मांगें तो उन्हें कानूनी सहायता के लिए काफी ठोकरें खानी पड़ती हैं.
आखिर इन जैसी कितनी लड़कियां हैं जो ऐसी जबरन की शादी नहीं चाहती या उससे निकलना चाहती हैं. किंतु राजनीतिक प्रतिबद्धता न होने के चलते जिस संख्या में बाल विवाह हो रहे हैं, उसके मुकाबले ‘बाल विवाह निषेध अधिनियम’ में दर्ज प्रकरणों की संख्या बहुत ही कम है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के बरक्स तमाम राज्यों को मिलाकर 2013 में 222 और 2014 में 280 बाल विवाह प्रकरण दर्ज हुए हैं. वहीं भारतीय दंड संहिता की धारा 366 में लड़कियों के अपहरण के 12,243 मामले दर्ज हुए हैं. इनमें से कई मामले लड़के-लड़कियों की आपसी पसंद की शादियों से संबंधित हैं, जिसमें परिवार की रजामंदी नहीं थी. बलात्कार से जुड़े मामलों में कई आपसी रजामंदी से यौन संबंध से हैं किंतु जहां कम उम्र की शादियों में लड़कियों पर परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा बलात्कार, यौन हिंसा आदि हैं, वे मामले परिवार के ‘सम्मान’ की रक्षा में कहीं दर्ज नहीं होते.
दरअसल बच्चों से जुड़ी नीतियों, कानूनों और कार्यक्रमों से कई तरह के भ्रम फैले हैं. किस उम्र का व्यक्ति बच्चा कहलाएगा? शिक्षा का अधिकार एक उम्र पर निर्धारित है तो श्रम कानून एक अलग उम्र पर. यह शादी के लिए 18:21 (लड़की और लड़के की उम्र) का मसला क्या है? और यदि इसे मान भी लें तो इससे कम उम्र की शादी और शादी में यौन संबंधों को वैधता क्यों? कई बार यह तस्वीर स्थानीय दायरे में सिमटी दिखाई देती है और उससे जुड़ी समस्याओं का हल उसी दायरे में ढूंढा जाता हैं. या फिर कभी बाल विवाह को ही हम मूल समस्या और उसके कारण के रूप में देखकर कार्रवाई करने लगते हैं.
बाल विवाह कहें या जल्द और जबरन शादियां, यह एक जटिल विषय है जिस पर सभी अपने तरीकों और अपनी समझ से जूझ रहे हैं. यह परंपरागत समाजों के अपने जीवन दर्शन और जिंदगी की समझ पर आधारित है जो अपनी तत्कालीन अर्थव्यवस्था के साथ जुड़ी रही है. आधुनिक समाज और बदलती अर्थव्यवस्था में अधिकारों के बढ़ते दायरे को जमीन पर लाने की जिम्मेदारी एक चुस्त राज्य को निभानी है. जिसमें सामाजिक न्याय और विकास को साथ-साथ चलाना जरूरी है. समय की मांग को देखते हुए इस विषय को समग्रता से देखने-समझने और उस पर एक नजरिया बनाने की जरूरत है. इसके लिए चिंतन और आपसी चर्चाओं के अवसर बढ़ाने की भी बेहद जरूरत है. यह भी बहुत जरूरी है कि किशोर किशोरियों, युवाओं को इन परिचर्चाओं में शामिल किया जाए, उनकी आवाज और विचारों को सुना जाए ताकि हम पूरी व्यवस्था को उनकी बातों के अंदर परख सकें; उनका परीक्षण कर सकें.
अनु जैसी लड़कियां शिक्षा के क्षेत्र को अपनाना चाहती हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि अनु मानती हैं, ‘एक शिक्षक चाहे तो बदलाव के लिए काफी कुछ कर सकता है, कम से कम वह हममें सोचने, प्रश्न और आलोचना करने के साथ सक्रिय बनने की समझ तो डाल ही सकता है.’
दुनिया को बच्चों के लिए दुरुस्त यानी फिट होना होगा और अगर हम सच्चे रूप में सतत विकास चाहते हैं तो पूरी प्रणाली को दुरुस्त करने पर ध्यान देने की जरूरत होगी. अपने में, अपने परिवार, कार्यस्थलों, सार्वजनिक स्थानों और राज्य के स्तर तक लोकतांत्रिकरण को अपनाना होगा. लैंगिक समानता और सशक्तिकरण भी तब ही टिक सकेगा.
दिल्ली में पिछले दिनों एक ढाई साल की बच्ची के साथ बलात्कार की घटना, जिसमें 16-17 के दो युवकों के शामिल होने का आरोप है, के बाद फिर से यह मांग जोर पकड़ने लगी थी कि किशोर न्याय अधिनियम में जघन्य अपराधों में लिप्त किशोर की उम्र 18 से घटाकर 16 साल कर दी जाए. मंगलवार को राज्यसभा में पारित ‘किशोर न्याय अधिनियम (बाल देखभाल और संरक्षण), 2015 के अंतर्गत अब जघन्य अपराध करने वाले 16-18 आयुवर्ग के बच्चों पर वयस्कों की तरह मुकदमा चलाए जाने का रास्ता साफ हो जाएगा. हालांकि उन्हें सजा 21 साल की उम्र के बाद ही दी जा सकेगी. यह मौजूदा किशोर न्याय अधिनियम, 2000 की जगह लेगा.
यह बहस दिल्ली में 16 दिसंबर को हुए सामूहिक बलात्कार कांड के बाद महिलाओं की सुरक्षा को लेकर शुरू हुई थी जो अब तक जारी रही. लगातार यह प्रश्न पूछा जाता रहा कि क्यों न वयस्कों जैसे अपराध करने वाले किशोरों को सामान्य कानून के अनुसार सजा दी जाए जिससे बाकी बच्चों को सबक मिल सके?
ऐसी मांग दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की ओर से भी उठी थी. ऐसा नहीं है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री बाल अधिकार विरोधी हैं. वह भी पीड़ित (जो एक बच्चा है) के दर्द से व्यथित हैं और उन्हें यह लगता है इन जैसे बच्चों को न्याय दिलाने के लिए कानून में बदलाव जरूरी है लेकिन ऐसा लगना तथ्यों पर नहीं भावनाओं पर आधारित है.
इस कानून में बदलाव की मुख्य वजह किशोरों द्वारा किए गए अपराधों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि बताई जा रही है. आइए एक नजर इन आंकड़ों पर डालकर देखते हैं कि इन दावों में कितनी सच्चाई है?
अगर नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) पर यकीन करें तो 2014 में दिल्ली में होने वाले कुल बलात्कारों की संख्या 2,096 थी और 2013 की तुलना में इसमें 28.12 प्रतिशत की वृद्धि हुई. इनमंे से 5.73 प्रतिशत यानी 120 बलात्कार किशोरों द्वारा किए गए थे. 2013 की तुलना में किशोरों द्वारा किए गए बलात्कारों में 12.41 प्रतिशत की गिरावट आई है. राष्ट्रीय स्तर पर संज्ञेय अपराधों में 18 वर्ष से कम के बच्चों का हिस्सा 2011 में 1.1 प्रतिशत था जबकि वह जनसंख्या का लगभग 42 प्रतिशत हैं. लेकिन नेता, मीडिया और समाज का एक वर्ग भ्रमित करने वाली तस्वीर पेश कर रहा है और इसके आधार पर कानून में बदलाव लाने की कोशिश हुई.
अगर आज आप कानून में बदलाव करके किशोर की उम्र 16 साल कर भी देते हैं और कल कोई 14 साल का बच्चा यह अपराध करता है तो क्या आप कानून में फिर से बदलाव करेंगे?
दिल्ली में लैंगिक अपराध करने वाले बच्चों से इन अपराधों से पीड़ित होने वाले बच्चों की संख्या कहीं ज्यादा है. बच्चों के शोषण की आठ घटनाएं रोज दर्ज होती हैं जिनमें से केवल 2.4 प्रतिशत में ही अपराधी को सजा हो पाती है. अगर सरकार कानून में बदलाव करने की बजाय कानून के क्रियान्वयन पर ज्यादा जोर दे तो हम बच्चों के लिए शायद ज्यादा सुरक्षित शहर बनने में सफल होंगे.
हम कानून में बदलाव करने का प्रस्ताव रखकर लोगों की उमड़ती भावनाओं को तो शांत कर सकते हैं पर एक सुरक्षित शहर बनने की अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते. कानून में बदलाव करने का प्रस्ताव एक आसान समाधान तो हो सकता है, और आप यह भी कह सकते हैं कि आपने महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिए कुछ किया लेकिन इससे समस्या का समाधान नहीं होगा. इस समय जरूरत कानून के प्रभावी क्रियान्वयन की है इसमें बदलाव की नहीं.
बाल मनोवैज्ञानिकों की राय में किशोरावस्था में जोखिम के परिणाम के आकलन की क्षमता कम होती है. इस उम्र के बच्चे ऐसे काम करना चाहते हैं जिससे ज्यादा से ज्यादा सनसनी का एहसास मिले. अक्सर ये देखा गया है कि इस उम्र के किशोर ऐसे कामों को अंजाम देते हैं, जिसमंे भारी जोखिम होता है पर पारितोषिक कम. सोलह से बीस साल की उम्र में बहुत से मानसिक परिवर्तन होते हैं और लगभग 20 साल तक ही किशोर/किशोरी परिपक्वता हासिल कर पाते हैं. इसलिए इससे ठीक पहले का आयुवर्ग (16-18) में बच्चों के अपराध की दुनिया में आने का खतरा बहुत ज्यादा होता है. इसी कारण साधारणतः अधिकतर कानूनों में किशोरावस्था के लिए 18 साल की उम्र को कट ऑफ के तौर पर लिया जाता है. अगर आज आप कानून में बदलाव करके किशोर की उम्र 16 साल कर भी देते हैं और कल कोई 14 साल का बच्चा यह अपराध करता है तो क्या आप कानून में फिर से बदलाव करेंगे? उम्र कम करने का यह सिलसिला कहां जाकर रुकेगा?
यह तर्क भी दिया जा रहा है कि आजकल इंटरनेट और सूचना के अन्य साधनों की वजह से बच्चे 16 साल की उम्र तक बहुत कुछ जान जाते हैं और जल्दी ही परिपक्व हो जाते हैं. अहम बात ये है कि जानकारी होना और मानसिक परिपक्वता दोनों अलग-अलग बातें हैं. बच्चों को तमाम जानकारियां हो सकती हैं पर ये जरूरी नहीं कि वे परिपक्व हो गए हैं और जानकारी का उपयोग कर सकते हैं. और फिर उस जानकारी का प्रयोग ऐसे कामों के लिए करना जिसके अंजाम को आप ठीक से नहीं समझते, परिपक्वता नहीं अपरिपक्वता का सबूत है.
किशोर न्याय अधिनियम की बुनियाद सुधारात्मक दंड प्रक्रिया पर आधारित है, प्रतिक्रियात्मक हिंसा पर नहीं. यह कानून इस मान्यता पर आधारित है कि बच्चों के अधिकतर मामलों में सुधार की गुंजाइश होती है और इसके लिए कोशिश की जानी चाहिए.
इस विषय पर किए गए विभिन्न अध्ययनों के अनुसार जघन्य अपराधों में लिप्त बच्चों को शैक्षणिक कार्यक्रम की जरूरत होती है ताकि वो अपने किए गए अपराध के परिणामों को अच्छी तरह समझ सकें. सख्त सजा बच्चों द्वारा किए गए अपराधों को रोकने में इतनी कारगर नहीं है जितने कि पेशेवर ढंग से चलाए गए शैक्षणिक कार्यक्रम. बल्कि पेशेवर अपराधियों के संपर्क में आने से उनके भी पेशेवर अपराधी बनने का खतरा बढ़ जाता है. हाल ही में आई मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक निर्भया सामूहिक दुष्कर्म और हत्या मामले में दोषी किशोर सुधार गृह में एक कश्मीरी किशोर अपराधी की सांगत में रहा, जिसने उसे कश्मीर में जिहाद में शामिल होने के लिए प्रेरित किया. किशोरों के मामले में यह भी देखना उतना ही महत्वपूर्ण है कि ऐसे कौन से हालात थे जो उनको इस स्थिति तक लेकर आए जहां उन्होंने इस तरह के अपराध को अंजाम दिया.
किशोर न्याय अधिनियम में बदलाव करके जघन्य अपराधों में लिप्त बच्चों के साथ व्यस्कों जैसा व्यवहार ना केवल हमारी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धता के खिलाफ है बल्कि इस तरह के प्रयोग दुनिया के किसी भी हिस्से में सफल नहीं हुए हैं. यह कहना कि इस कानून में बदलाव होना चाहिए कतई भी तर्कों पर आधारित न होकर अतार्किक भावनाओं पर आधारित है. याद रहे कि दिल्ली में दिसंबर 2012 के सामूहिक बलात्कार कांड के बाद बनी वर्मा कमेटी ने भी इस प्रस्ताव का विरोध किया था.
ज्यादातर किशोर अपराधी समाज के हाशिये पर रह रहे बच्चे होते हैं जिन्हें देखभाल और सुरक्षा (चाइल्ड इन नीड ऑफ केयर एंड प्रोटेक्शन) की जरूरत होती है और समय पर संरक्षण न मिलने पर वह कानून विवादित बच्चा (चाइल्ड इन काॅनफ्लिक्ट विद लॉ ) की श्रेणी में आ जाते हैं. किशोर न्याय अधिनियम के तहत सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि उन सभी बच्चों को जो जोखिम में हैं, संरक्षण एवं सुरक्षा प्रदान करे. इस एक्ट का मुख्य उद्देश्य बच्चों को अपराध करने से बचाना है. पर समस्या यह है कि इस कानून का ध्यान कानून विवादित बच्चों पर है पर उन बच्चों पर नहीं जिन्हें देखभाल और सुरक्षा की जरूरत है. इस कानून को ठीक से लागू करने की कभी कोशिश ही नहीं की गई और अब मांग उठ रही है कि इस कानून को बदला जाए? ये कितना उचित है कि जिस कानून को ठीक से क्रियान्वित करने का मौका भी नहीं दिया गया, उसमें बदलाव लाया जाए?
दिल्ली में 10 से 16 अक्टूबर 2015 के बीच तीन बच्चियों के साथ बलात्कार किया गया. इनमें से एक अपने घर के बाहर खेल रही थी. थोड़ी देर के लिए बिजली गई और बच्ची गायब थी. तीन घंटे बाद वह एक उद्यान में खून से लथपथ पाई गई. बच्चों के साथ लगातार हो रहे अपराधों ने हमारे समाज के सभ्य होने पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है.
देश में हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि बच्चे बाहर के साथ घर में भी अब सुरक्षित नहीं रह गए हैं. देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली में होने वाली घटनाओं का तो पता चल जाता है, लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में होने वाली ऐसी घटनाओं की न तो रिपोर्ट हो पाती है और न ही ऐसे पीड़ितों की कोई सुनने वाला होता है. उन्हें न्याय के लिए या तो लंबा इंतजार करना पड़ता है या फिर उन्हें न्याय मिल ही नहीं पाता. बलात्कार के संदर्भ में बात करें तो अधिकतर समय तो मामले दर्ज ही नहीं होते, अगर हो भी जाएं तो न्याय की उम्मीद बिन पतवार की नाव जैसी होती है, जो देर-सवेर डूब ही जाती है. बलात्कार की पीड़ा न्याय की आस से कम नहीं होती पर यदि मामला बलात्कार के परिणामस्वरूप ठहरे गर्भ का हो, तब ये पीड़ा दोगुनी जरूर हो जाती है.
ऐसा ही एक मामला मध्य प्रदेश के पन्ना जिले के एक गांव माझा में सामने आया. कुछ महीनों पहले 14 साल की शीलू (बदला हुआ नाम) के पिता की मृत्यु हो गई, जिसके बाद उसकी मां राधा ने जगत गोंड नाम के व्यक्ति से शादी कर ली. राधा पत्थर खदानों में मजदूरी करने जाती थी. उसके मजदूरी पर निकल जाने के बाद सौतेला पिता जगत गोंड डरा धमकाकर शीलू के साथ छेड़खानी किया करता था. डर के कारण वह मां से कुछ कह नहीं पा रही थी. छेड़खानी होने पर अपने स्तर पर तो वह उसका विरोध करती रही, मगर उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि यह बात अपनी मां को बता सके. इसी बात का फायदा उठाकर जगत ने उसके साथ बलात्कार करना शुरू कर दिया था, जिससे शीलू गर्भवती हो गई. तब जाकर उसकी मां को सच का पता चला और मामले में केस दर्ज हो सका.
राजधानी होने के नाते दिल्ली में बच्चों के खिलाफ होने वाली घटनाओं का तो पता चल जाता है, लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में होने वाली अधिकांश घटनाओं की न तो रिपोर्ट हो पाती है और न ही कोई सुनवाई
इसके बावजूद शीलू की मुसीबतों का अंत नहीं हुआ. जगत के जेल चले जाने के बाद मां भी नहीं समझ पाई कि वह क्या करे! ऐसे मामलों में सरकारी सहायता से ज्यादा समाज के सहयोग की जरूरत होती है, जो सामान्यतया कभी नहीं मिलता. इसी के चलते शीलू को पहले पन्ना से कटनी बाल संरक्षण गृह भेजा गया. डेढ़ महीने बाद जब प्रसव की तारीख नजदीक आने लगी तो उसे जबलपुर भेज दिया गया. कहीं भी कोई शीलू की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता था. मामला उच्च स्तर तक गया तो उसे वापस कटनी भेज दिया गया. अभी वह कटनी बाल संरक्षण गृह में ही रह रही है. अब उस बेचारी को यह समझ नहीं आ रहा है कि वह वास्तव में है कौन और आने वाले दिनों में उसके साथ क्या होने वाला है?
ऐसे ही मध्य प्रदेश के ही शिवपुरी जिले के सड गांव में रहने वाली छठवीं कक्षा की छात्रा गीतू (बदला हुआ नाम) को 18 सितंबर 2015 को अचानक पेट में तेज दर्द उठा. डॉक्टरी चेकअप में पता चला कि वह आठ महीने की गर्भवती है. तब गीतू ने बताया कि गांव के ही बंटी रावत और उसके भाई ने गीतू के साथ बलात्कार किया और ये बात किसी को बताने पर जान से मारने की धमकी भी दी, जिस वजह से उसने किसी को कुछ भी नहीं बताया और बंटी बार-बार उसके साथ बलात्कार करता रहा. 8 अक्टूबर 2015 को ग्वालियर के जयारोग्य अस्पताल में गीतू ने एक बच्ची को जन्म दिया. रोते हुए वह बस एक ही बात दोहरा रही थी, ‘मैं मां नहीं बनना चाहती.’
वहीं दूसरी तरफ बलात्कार के एक मामले में पुलिस के सुस्त रवैये की वजह से एक किशोरी को कई बार उसी पीड़ा से गुजरना पड़ा. इसी साल जुलाई में महाराष्ट्र के जालना में 17 साल की एक किशोरी के साथ दो युवकों द्बारा गैंगरेप करने का मामला सामने आया था. गैंगरेप के समय युवकों ने उसका वीडियो बना लिया था. इसके बाद दोनों ने किशोरी का मोबाइल छीनकर उसके बदले में दो हजार रुपये लाने की मांग की. किशोरी मामले की रिपोर्ट दर्ज कराने थाने पहुंची तो पता चला कि दोनों युवक उसे मोबाइल लेने के लिए बुला रहे हैं. इसे देखते हुए पुलिस ने युवकों को पकड़ने के लिए योजना बना ली और किशोरी को महिला पुलिसकर्मी के साथ युवकों से मिलने के लिए भेजा. युवकों ने मामले को पहले ही भांप लिया और फरार हो गए. इस वजह से मामले की रिपोर्ट भी दर्ज नहीं हो सकी. बाद में युवकों ने मोबाइल लेने के लिए किशोरी को फिर बुलाया तो पुलिस ने फिर वैसी ही योजना बना ली. बदकिस्मती ये थी कि पुलिस समय से पहुंच ही नहीं सकी और युवकों ने किशोरी के साथ फिर सामूहिक दुष्कर्म किया. पुलिस की सुस्ती की वजह से युवक फिर पकड़ में नहीं आ सके. दोनों युवकों को बाद में पकड़ा गया.
छोटी उम्र में बलात्कार और उसके बाद ठहरे गर्भ की पीड़ा का एक और मामला सामने आया. गुजरात में 14 साल की किशोरी के साथ बलात्कार हुआ और वह गर्भवती हो गई. मामला गुजरात हाईकोर्ट पहुंचा, जहां वह गर्भपात करवाने की अनुमति चाहती थी, लेकिन उसे अनुमति नहीं दी गई, क्योंकि वह 24 सप्ताह की गर्भवती थी और गर्भपात कानून के अनुसार 20 सप्ताह की गर्भावस्था तक ही गर्भपात कराया जा सकता है. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो गर्भपात की संभावना जांचने के लिए पांच डाक्टरों का समूह बनाया गया. इसने अपना मत देते हुए कहा कि किशोरी का गर्भपात कराया जा सकता है. कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि बलात्कार पीड़ित का गर्भपात तभी करवाया जाएगा जब स्वयं उसका जीवन संकट में होगा. यहां अंतिम निर्णय लेने का अधिकार किशोरी के हाथ में न देकर डॉक्टरों के हाथ में दे दिया गया.
बहरहाल हमारी संवैधानिक व्यवस्था में गर्भपात कराने का कोई अधिकार परिभाषित नहीं है. मेडिकल टर्मिनेशन आॅफ प्रेगनेंसी एक्ट, 1971 में यह उल्लेख है कि कुछ खास परिस्थितियों में गर्भपात करवाया जा सकता है, किन्तु निर्णय में डाॅक्टरों की अहम भूमिका होगी. यह प्रमाण है कि हमारे समाज में महिलाओं और नाबालिग बच्चियों को सोच समझ कर निर्णय लेने लायक नहीं माना जाता है. बलात्कार की शिकार बच्ची या महिलाओं के संदर्भ में भी ठीक वही नियम कैसे लागू हो सकते हैं, जो एक सामान्य व्यवस्था में या लिंग परीक्षण आधारित गर्भपात के संदर्भ में लागू होते हैं? यहां कुछ अहम बिंदु हैं- एक बच्ची के साथ बलात्कार हुआ, यह पहला अपराध है. जिसमें आज इस बात पर विमर्श हो रहा है कि बच्ची या महिला को ही अपराध के लिए दोषी मानने की प्रवृत्ति को बदलने की कोशिश की जाए, लेकिन यदि वह बच्ची मां बन जाए, तो क्या उसके लिए ‘बलात्कार’ को भूल पाना संभव होगा? इसके बाद उस बच्ची का अपना जीवन क्या रूप लेगा? उसकी शिक्षा, उसके कौशल, उसके खुद के विकास के अधिकार का क्या होगा? किसी अपराधी द्वारा किए गए कृत्य की सजा में उसे क्यों बराबरी का साझेदार बनाया जाना चाहिए? इसके बाद सवाल यह भी है कि जन्म लेने वाले बच्चे का क्या होगा, उसकी पहचान क्या होगी? क्या हमारा समाज अभी इतना सभ्य और मानवीय हो गया है कि वह बेहद सहज और सामान्य रूप से उन दोनों को अपना लेगा? इसका जवाब है, नहीं! इस संदर्भ में एक मत बनाना बहुत आसान नहीं है- एक तरफ बलात्कार से प्रभावित बच्ची है और दूसरी तरफ गर्भ में जीवन पा चुका भ्रूण, जिसे जीवन का अधिकार दिए जाने की वकालत हम सब करते हैं. कुछ और हो न हो, किंतु बलात्कार से प्रभावित बच्ची या महिला को गर्भावस्था में रहने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए और उसे यह तय करने का अधिकार होना चाहिए कि वह गर्भपात करवाना चाहती है या नहीं.
भारत में बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की स्थिति पर महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार देश में 53.22 प्रतिशत बच्चे एक या एक से अधिक तरह के यौन दुर्व्यवहार के शिकार हुए हैं
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के सालाना प्रतिवेदनों के मुताबिक भारत में वर्ष 2005 से 2014 के बीच की दस वर्ष की अवधि में बच्चों के साथ बलात्कार के 71,872 प्रकरण दर्ज हुए. इन दस सालों में ऐसे मामलों में 341 प्रतिशत की बढ़ोतरी दिखाई देती है. साल 2005 में 4,026 प्रकरण दर्ज हुए थे, जो वर्ष 2014 में बढ़कर 13,766 हो गए. यह भी एक तथ्य है कि ये संख्या वास्तव में होने वाली घटनाओं से बहुत कम है, शायद ये वास्तविक मामलों का 5 प्रतिशत भी नहीं है. भारत में बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की स्थिति पर महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार देश में 53.22 प्रतिशत बच्चे एक या एक से अधिक तरह के यौन दुर्व्यवहार के शिकार हुए हैं. 21.90 प्रतिशत बच्चों के साथ गंभीर किस्म का यौन दुर्व्यवहार हुआ है. 50 प्रतिशत मामलों में इस तरह का व्यवहार परिचितों के द्वारा किया गया. ज्यादातर बच्चे इसके बारे में बात नहीं करते हैं और उस पीड़ा में रहते हैं.
झारखंड में वर्ष 2014 में एक भी प्रकरण दर्ज नहीं हुआ. वहां दस साल में 212 मामले दर्ज हुए. इसी तरह पश्चिम बंगाल में भी बहुत कम प्रकरण दर्ज होते हैं. हमने शीलू और गीतू के मामले में देखा कि ये घटनाएं तब तक सामने नहीं आईं, जब तक कि वे गर्भवती नहीं हो गईं. दूसरी बात यह है कि बच्चों के साथ बलात्कार की सबसे ज्यादा हरकतें परिजनों और परिचितों के द्वारा अंजाम दी जाती हैं. प्रतिष्ठा व नाते-रिश्तों के नाम पर इन घटनाओं को दबा दिया जाता है.
बच्चों के साथ होने वाले अपराध इन दिनों सुर्खियों में हैं. लोग आक्रोशित होते हैं, राजनीतिक लोगों में इस जनाक्रोश को भुनाने की होड़ लगती है, तरह-तरह की बयानबाजी की जाती है और फिर कुछ दिनों में सब कुछ शांत. यही होता आ रहा है. बात इससे आगे बढ़ ही नहीं पाती और यही हमारा दुर्भाग्य है. बच्चों के प्रति यौन अपराधों के बढ़ते मामले देखकर 2012 में पोक्सो कानून लाया गया. कानून आ गया और बस हो गया समाधान? लागू कौन करेगा? सारा आक्रोश, सारा उत्साह कानून बनते ही खत्म हो जाता है, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकल पाता. खास अदालतें बनीं… पहले से ही काम के बोझ से दबे जज को पोक्सो कोर्ट की अतिरिक्त जिम्मेदारी दे दी और इस तरह बनी खास अदालत. पुलिस और अदालतें बच्चों के बयान ऑडियो-वीडियों में रिकॉर्ड करेंगे. ये सब बहुत अच्छा है, लेकिन क्या ऐसा करने के लिए संसाधन उपलब्ध कराए गए? महिला पुलिस अधिकारी बच्चों के बयान लिखेगी. कहां से आएंगी ये महिला पुलिस अधिकारी? क्या नई भर्तियां की गईं? तीस दिन के अंदर मुआवजा दिया जाएगा. लोगों की एड़ियां घिस जाती हैं भागते-भागते तब कहीं जा के मुआवजा हाथ लगता है. ऐसे में नए-नए कानून बनाते रहना बेमानी हो जाता है. कानूनों को लागू करने की इच्छाशक्ति और इरादा भी तो होना चाहिए. अभी 2-3 साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने भी ‘नेशनल कोर्ट मैनेजमेंट सिस्टम’ नाम से जारी एक रिपोर्ट में सरकारों से कहा है कि अगर संसाधन न दे सको तो नए-नए कानून भी न बनाए जाएं.
अब अगर बच्चों के प्रति यौन अपराधों की बात करें तो थोड़ा और विस्तार में जाने की जरूरत है. जवान होते बच्चों के बीच यौन आकर्षण, भागकर शादी करना और स्वेच्छा से शारीरिक संबंध बनाना, इस तरह के मामलों को एक अलग नजरिये से देखे जाने की जरूरत है. ऐसे मामले तकनीकी तौर पर तो अपराध की श्रेणी में आते हैं, लेकिन इन मामलों में सख्त सजा देना बड़ा जुल्म है. अब अगर एक 16-17 साल की किशोरी और 17 साल का लड़का प्रेम संबंध या फिर सिर्फ आकर्षण के चलते भागकर शादी कर लें या न भी करें और शारीरिक संबंध बना लें या न भी बनाएं, जब लड़की के अभिभावक इस बारे में जान पाते हैं तो लड़की को मार-पीट के घर ले आते हैं और लड़के पर अपहरण और बलात्कार का मुकदमा दर्ज करा देते हैं. ज्यादातर मामलों में ये देखा जाता है कि किशोरियां अपराधबोध में आकर या माता-पिता की मानसिक पीड़ा देख लड़के के खिलाफ बयान दे देती हैं. किसी भी बच्ची के लिए स्वेच्छा या सहमति से सेक्स करने की बात स्वीकार करना एक बेहद मुश्किल काम होता है.
इस तरह के मामलों की संख्या कम नहीं है. नारी निकेतनों में जाकर देखिए, तमाम ऐसे मामले मिलेंगे जिसमें लड़कियां माता-पिता के पास वापस जाने को तैयार नहीं हैं और लड़के के जेल से छूटने का इंतजार कर रही हैं. बच्चों के प्रति यौन अपराधों की रोकथाम के लिए बने नए सख्त कानूनों के सबसे बड़े भुक्तभोगी इस तरह के बच्चे ही हैं. धीरे-धीरे लोग इस आंच को महसूस कर रहे हैं और दबाव और चूक का एहसास इस स्तर तक आ गया है कि आप जल्द ही इस दिशा में कोई ठोस पहल देखेंगे. कानून कहीं-कहीं तो इतने सख्त हैं कि जज भी अपने हाथ बंधे हुए पाते हैं. बच्चों के प्रति अपराधों का ये भी अहम पक्ष है, जिसे कतई नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए.
‘लल्ला-लल्ला लोरी से लेकर दारू की कटोरी’ तक का सफर तो हमने ही तय किया है! लड़ाई होने पर मां-बहन की गालियों का प्रयोग हमारी मानसिकता का ही प्रतिबिम्ब है. कानून क्या करेगा इसमें?
अपराध कोई वायरल बुखार नहीं है, जो किसी संक्रमण की वजह से फैल रहा हो. हम हकीकत को नजरअंदाज करने में लगे हैं, लेकिन वास्तव में समस्या की जड़ हम खुद हैं. आजकल अभिभावकों के पास बच्चों के लिए समय नहीं है. ऐसे में कोई कैसे जानेगा कि उनके बच्चों के जीवन में चल क्या रहा है? परिवार टूट कर ‘हम दो, हमारे दो’ के जुमले पर आकर सिमट गया है. समुदाय नाम की चीज मध्य वर्ग में अब रह नहीं गई. हमारा संगीत-सिनेमा, उत्तेजना और हिंसा से सराबोर है. हम एक ऐसा वातावरण बना रहे हैं, जहां बिखराव, हताशा, एकाकीपन और अलगाव को आना ही आना है. और यह भी सच है कि परिवार और समाज का सुरक्षा तंत्र टूट रहा है जिसका सीधा असर बच्चों पर पड़ता है. समाज में व्यभिचारी हमेशा से थे और आगे भी रहेंगे. चुनौती ये है कि बच्चे इनकी पहुंच से दूर रहें. अब हर घर में पुलिस बैठाना तो समाधान हो नहीं सकता तो ऐसे में सामाजिक-पारिवेशिक सुरक्षा बनाए रखना और उसको मजबूत बनाना ही कारगर उपाय है. जब ये कहा जाता है कि नया कानून बनाया जाए, तो बस वहीं से समाधान की दिशा भ्रमित हो जाती है.
मौजूदा कानूनों को लागू करने की जिम्मेदारी जिस प्रशासनिक तंत्र की है, उसको मजबूत करने पर ध्यान ही नहीं जाता, जो कि अपने आप में चुनौती भरा काम है और जिसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का होना बेहद जरूरी है. उदाहरण के लिए पुलिस को ले लीजिए. थानों में क्या हालात हैं? आप कानून चाहे जितना भी सख्त बनाकर पास करते रहिए, उसको लागू करने वाले तंत्र में ही अगर खामी है, तो वह कानून प्रभावी तरीके से कैसे लागू होगा? कॉमनवेल्थ खेलों के लिए पुलिस में ताबड़तोड़ भर्तियां की गई थीं लेकिन वही तत्परता महिला और बाल सुरक्षा के लिए दिखाई नहीं पड़ती. अपराधी को दंडित करने वाली न्याय प्रक्रिया और प्रणाली में अन्वेषण और दोष सत्यापन के मानदंड बहुत मजबूत हैं और काम के बोझ से पस्त, संसाधन विहीन पुलिस के लिए उस स्तर की विवेचना कर पाना बेहद दुष्कर होता है. नतीजा ये निकलता है कि अपराधी अदालत से भी बच निकलता है.
पुलिस को जब तक समुचित संसाधनों से लैस नहीं किया जाता, पुलिस-नागरिक अनुपात एक स्वीकार्य स्तर तक नहीं लाया जाता, अपराधी व्यवस्था की खामियों का फायदा उठा कर बच निकलते रहेंगे. दंड की मात्रा से कहीं ज्यादा प्रभावी है दंड मिलने की प्रक्रिया काे सुनिश्चित किया जाए. एक बार अपराधियों की समझ में ये आ जाए कि अपराध करके आप बचकर निकल नहीं पाएंगे, तब कहीं जाकर अपराधियों के दिल में डर आएगा. कानून की किताब में चाहे आजन्म कारावास ही क्यों न लिख दिया जाए, अगर वो सजा मिल पाना ही मुश्किल है तो ऐसे कानून का क्या फायदा? बलात्कारियों को बधियाकरण को अनुमति देने को लेकर मद्रास हाईकोर्ट ने हाल ही में टिप्पणी की है. हमारे स्वनामधन्य मुख्यधारा के सनसनीखेज मीडिया के चलते सारा ध्यान सिर्फ बलात्कारियों के बधियाकरण के प्रस्ताव पर चला गया है लेकिन उस फैसले में दस सलाह और दस निर्देश भी हैं जोकि दूरगामी और निश्चित परिणाम देने वाले हैं. उन पर भी तो कोई ध्यान दे.
एक सलाह है कि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को विखंडित करके बच्चों के लिए एक बिल्कुल अलग मंत्रालय बनाने की. राजस्थान सरकार ने कुछ समय पहले इस विचार की प्रभावशीलता को पहचाना और एक संबद्ध विभाग के अंदर ही एक अलग और लगभग स्वतंत्र और सक्षम बाल अधिकारिता निदेशालय का गठन किया है. बच्चों से जुड़े मामलों पर एक सतत और केंद्रित तरीके से नीति निर्माण और कार्यान्वयन की दृष्टि से ये अच्छा कदम है. रोकथाम और सुरक्षा को लेकर समुदाय के स्तर पर चेतना निर्माण पर काम होना चाहिए. पुलिस की क्षमता बढ़ाई जाए, उनको अच्छा माहौल और संसाधन दिए जाएं ताकि वो ठीक से अच्छी गुणवत्ता का काम कर पाए. निचली अदालतें, जहां ऐसे मुकदमे सुने जाते हैं वहां का माहौल और कार्यपद्धति बच्चों की सुविधा और सहजता के अनुरूप रखने पर गंभीरता से काम हो. इन सब उपायों के अलावा जो कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है वो है सामाजिक जिम्मेदारी. सारा ठीकरा हम सरकार और व्यवस्था के सिर ही नहीं फोड़ सकते. किस तरह का समाज हम बच्चों को दे रहे हैं, इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है. आजकल के गीत-संगीत की बात करें तो ‘लल्ला-लल्ला लोरी से लेकर दारू की कटोरी’ तक की स्वीकार्यता का सफर तो हम लोगों ने ही तय किया है न! लड़ाई झगड़े होने पर मां-बहन को विदूषित कर डालने की गालियों का प्रयोग हमारी मानसिकता का ही तो प्रतिबिम्ब है. कानून क्या करेगा इसमें?
बड़ों के द्वारा बच्चों की बात-बात पर पिटाई कर देना और बच्चों द्वारा उसे चुपचाप स्वीकार किया जाना तो हमें सामाजिक मूल्य की तरह ही सिखाया गया है. जब हम बच्चे को बड़ों की हिंसा स्वीकार करना सिखा रहे होते हैं तो ये नहीं ध्यान में आता कि बड़ों द्वारा लैंगिक अतिक्रमण भी बच्चे को हिंसा ही लगता है और फिर किसी और हिंसा की तरह ही बच्चा अपने को दोष देता है बजाय मुखर होने और प्रतिकार करने के. इसी तरह भाई जब बहन को मारना और बाल नोचना सीख रहा होता है तब हम उसमें बाल चंचलता देखते हैं और अगर बहन उलटकर एक थप्पड़ मार दे तो सब उस पर टूट पड़ते हैं. भाई यही देखता और करता बड़ा होता है. गौर करने वाली बात ये है कि उस समय हम उसे स्त्री-पुरुष का शक्ति समीकरण सिखा रहे होते हैं! ये हमारे ही तो भाई और बेटे होते हैं जो आगे चलकर दूसरों का अतिक्रमण करते पाए जाते हैं. शारीरिक, मानसिक और यौन हिंसा के बीज अलग-अलग नहीं होते.
जब मैं बच्चों की सुरक्षा से जुड़े अपने काम के बारे में सोचती हूं तो मेरे मन में तीन अलग-अलग मामले सामने आते हैं जिन्होंने मेरी जिंदगी पर गहरी छाप छोड़ी. इनसे मैंने सीखा कि बाल यौन उत्पीड़न के मामले में खुलासे से लेकर न्यायिक प्रक्रिया तक का माहौल कितनी जटिलताओं से भरा होता है.
पहला मामला एक लड़की मीरा (काल्पनिक नाम) का है. तीसरी कक्षा में पढ़ने वाली आठ साल की मीरा पढ़ाई में अच्छी होने के कारण शिक्षकों की चहेती थी. अचानक मीरा तीन विषयों में फेल हो गई. इससे परेशान शिक्षकों ने उससे बात की. तब घबराई और परेशान मीरा ने अपने सौतेले पिता द्वारा तीन महीने से उसका लगातार यौन उत्पीड़न करने की बात का खुलासा किया.
जब पहली बार सौतेले पिता ने उसका यौन उत्पीड़न किया तब बड़ी हिम्मत करके ये बात उसने अपनी मां को बताई, ये सोचकर कि मां उसकी सुरक्षा करेंगी. लेकिन मां ने उसे ये कहकर चुप करा दिया कि लड़कियों की जिंदगी की कहानी यही होती है. जितनी बार उसने अपने साथ हुए उस दर्दनाक अनुभव को बताया, उसी कष्ट और बेबसी को महसूस किया.
इसके बाद उसकी शिक्षक ने एक स्थानीय संगठन से संपर्क किया और फिर पुलिस को भी साथ लिया. आगे भी जांच के लिए एक अति आत्मविश्वासी और उत्साही जांच अधिकारी ने सीधे परिवार से संपर्क किया. लड़की को बचाने की जगह मामला उसकी मां और जांच अधिकारी के झगड़े पर खत्म हुआ. उसके बाद जो हुआ उसकी अपेक्षा किसी ने भी नहीं की थी. रातोंरात वह परिवार शहर से चला गया और अभी तक उनका कोई अता-पता नहीं है. पड़ोसियों का मानना है कि वह परिवार वापस बिहार चला गया है लेकिन जानकारी किसी को नहीं है.
पोक्सो के क्रियान्वयन के लिए राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और राज्यों के बाल अधिकार संरक्षण आयोग जवाबदेह हैं, लेकिन ज्यादातर राज्यों में आयोग बुनियादी ढांचे और संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं
दूसरा मामला दो बहनों नीता (6) और रेखा (4) का है जो कैब से स्कूल आया-जाया करती थीं. छोटी बहन रेखा 12 बजे ही घर आ जाती थी, जबकि नीता को 2 बजे घर वापस आना होता था. उसे सबसे आखिर में उतरना होता था इसी बात का फायदा उठाकर कैब का ‘अंकल’ अक्सर उसकी छाती दबाता, उसे गंदी नीयत से छूता था. कभी तो वहशीपन की सारी हदंे लांघते हुए वह अपनी उंगली उस बच्ची की योनि में भी डाल देता था. लेकिन नीता ने इसकी शिकायत किसी से नहीं की क्योंकि कैब चालक ने उसे इस बारे में किसी को भी बताने पर गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी थी. इस समय मासूम नीता को अपनी छोटी बहन की सुरक्षा का भी एहसास था.
बच्ची की चुप्पी से उस कैब ड्राइवर की हिम्मत और बढ़ गई और एक दिन उसने बच्ची के साथ बलात्कार किया. फिर बच्ची के शरीर से अपनी दरिंदगी के निशान धोकर साफ किए और उसे घर छोड़ दिया. नीता के माता-पिता को इस यौन उत्पीड़न के बारे में तब पता चला जब उसे तेज बुखार हुआ और उसने चलने-फिरने से भी मना कर दिया. उसके माता-पिता ने तुरंत इस बारे में पुलिस को सूचना दी. वे चाहते थे कि उनकी बेटी के साथ इस जघन्य अपराध को अंजाम देने वाला अपराधी किसी दूसरी बच्ची को अपनी हवस का शिकार न बना पाए.
शुरुआत में स्कूल प्रशासन ने इस घटना से इंकार किया लेकिन बाद में कैब चालक को निलंबित कर दिया. मीडिया में इस घटना की खबर पीड़िता के नाम के बिना चली लेकिन मामले की विस्तृत जानकारी सामने आने के बाद पीड़िता के बारे में अनुमान लगाना आसान हो गया. तब से पीड़िता ने खेलने के लिए घर से बाहर जाना और दूसरे बच्चों से बात करना बंद कर दिया. आरोपी की तरफ से मिलने वाली धमकियों ने पीड़ित परिवार पर इस इलाके को छोड़ने और बच्ची का स्कूल बदलने के लिए दबाव बनाया. सिविल सोसायटी के लोगों ने पीड़ित के इलाज के लिए वित्तीय सहायता जरूर मुहैया कराई है लेकिन कोर्ट केस अभी भी चल रहा है. फिर जैसा कि होता है, कुछ समय के बाद कोर्ट की बढ़ती हुई फीस और असंख्य सुनवाईयों की सुस्त चाल के चलते माता-पिता ने इस केस में दिलचस्पी लेना बंद कर दिया.
तीसरा मामला 12 साल के गणेश का है, जिसके साथ यौन उत्पीड़न की जघन्यतम घटना उसके पिता की उम्र के लोगों ने अंजाम दी थी. गणेश स्कूल की छुट्टियों में एक मोटर गैराज में काम करता था. उसके आत्मविश्वास को कुचलने की कोशिश के चलते उसके दो साथी कर्मचारियों ने उसके गुदाद्वार में हवा पंप कर दी. चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) के बाल हक अभियान ने इस मामले की 18 महीने तक लगातार निगरानी की और बच्चे के इलाज और पुनर्वास तक सहयोग किया. मामले में दोनों आरोपियों और गैराज मालिक के खिलाफ केस दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार किया गया.
गणेश के मामले में उसकी आपातकालीन सर्जरी के बाद भी ट्रायल खत्म नहीं हुआ है. गणेश दलितों के मतंग समुदाय से था, जिस कारण पूरी घटना का राजनीतिकरण हो गया. पिता के शराबी होने के कारण इलाज की पूरी जिम्मेदारी उसकी मां पर आ गई. काफी प्रयास के बाद बच्चे को महाराष्ट्र के समाज कल्याण बोर्ड की तरफ से सहायता राशि के तौर पर कुल 25 हजार रुपये मिले जिससे उसका अच्छा इलाज और आगे की पढ़ाई कराने को कहा गया.
अपने करिअर की शुरुआत से बच्चों की सुरक्षा विशेषज्ञ होने के नाते मैं प्रक्रिया से अनजान लोगों के विशाल संघर्ष और केस प्रबंधन से जुड़ी खामियों को पहचानती हूं. यहां उल्लिखित पहला मामला अवैध संबंधों से जुड़ा हुआ है, जिसके बारे में हमारे देश में पर्याप्त चर्चा इसलिए नहीं होती क्योंकि यह परिवार के सम्मान से जुड़ा है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक 2014 में सामने आए कुल 713 मामलों में से 46 प्रतिशत परिवार के अंदर हुए अवैध संबंधों से जुड़े थे, साथ ही उत्पीड़न के शिकार बच्चों की उम्र 12 से 18 साल के बीच थी. ये जो मामले सामने आए हैं, वे हकीकत से काफी कम हैं.
कानूनी रूप से दूसरा मामला काफी मजूबत था क्योंकि इस मामले में पीड़िता खुलकर सामने आई और कार्रवाई की गई लेकिन समुदाय और समाज ने उस मासूम बच्ची को हरा दिया, जिसने अपने ऊपर हुई ज्यादती के बारे में बोलने की हिम्मत दिखाई थी. वहां आर्थिक विसंगतियां थीं, उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा, साथ ही बच्ची की मां ने अपनी नौकरी भी गंवा दी. पीड़ित परिवार की सहायता के लिए कोई माहौल नहीं बन पाया, जिससे मामले का सही तरह से निपटारा हो सके.
उसी तरह तीसरे मामले में कानूनी तौर पर न्याय होता दिखा. हालांकि बच्चे की मानसिक पीड़ा उस कष्ट से और बढ़ी जो उसके समुदाय ने दिया. बच्चे को मिले मानसिक आघात से निकालने की बजाय लोग इस घटना के राजनीतिकरण में लगे रहे. बाल यौन उत्पीड़न के मामलों में बच्चे को सदमे से उबारने के लिए न्याय के अलावा सामाजिक स्थिरता, नियमित स्वास्थ्य सेवाओं और निरंतर परामर्श की जरूरत भी महत्वपूर्ण होती है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
सालों के संघर्ष के बाद बच्चों की यौन उत्पीड़न से सुरक्षा के लिए प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल अॉफेंस एक्ट (पोक्सो अधिनियम) 2012 लागू हुआ, जिसके तहत बच्चों के यौन उत्पीड़न को दंडनीय अपराध माना गया और न्याय की पूरी प्रक्रिया को पीड़ित बच्चे के अनुकूल रखने का प्रयास हुआ. पहले अश्लीलता और उत्पीड़न से जुड़े मामलों में मुकदमा चलाना काफी मुश्किल था क्योंकि सभी मामले भारतीय दंड संहिता के तहत ही दर्ज होते थे.
हालांकि इस कानून के अमल में आने के तीन साल बाद भी पीड़ित बच्चों की स्थितियों में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है. पोक्सो कानून के अनुसार ऐसे किसी भी मामले को विशेष किशोर संरक्षण इकाई में रिपोर्ट करना होगा. पोक्सो पीड़ित की सुरक्षा और विभिन्न सुविधाएं देने के लिए बाल कल्याण समितियों की भूमिका भी स्पष्ट करता है पर मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकती हूं कि ये बाल कल्याण समितियां भी बाल यौन उत्पीड़न के जटिल मामलों से निपटने के लिए बहुत योग्य नहीं हैं.
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ‘समेकित बाल संरक्षण योजना’ को लाने का उद्देश्य देश के सभी बच्चों के लिए संरक्षणपूर्ण वातावरण बनाना था, जहां उन्हें समुचित आर्थिक सुविधाएं और सहयोग दिया जा सके, पर भूमिकाओं की अस्पष्टता और संविदा कर्मियों की कम तनख्वाह के मुद्दे के चलते इसका क्रियान्वयन ठीक तरह से नहीं हो पाया. इन समस्याओं से पार पाना अभी तो मुश्किल लग रहा है.
पोक्सो के क्रियान्वयन और देखरेख के लिए राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और राज्यों के बाल अधिकार संरक्षण आयोग जवाबदेह हैं. इन आयोगों को राज्य सरकारों द्वारा प्रतिपादित दिशा-निर्देशों की भी निगरानी करनी होती है. पर ज्यादातर राज्य आयोग घटिया बुनियादी ढांचे, संसाधनों की कमी और स्वायत्तता और शक्ति की कमी से जूझ रहे हैं. उदाहरण के तौर पर, उत्तर प्रदेश राज्य आयोग ने पांच सदस्यों को एक साल के लिए नियुक्त किया लेकिन वर्तमान में आयोग में सिर्फ एक सदस्य है. इसी तरह हरियाणा और राजस्थान के आयोगों में भी सिर्फ एक -एक सदस्य ही है.
इस कानून की धारा 35, स्पेशल पोक्सो कोर्ट के लिए ये अनिवार्य करती है कि पीड़ित बच्चे के बयान और सबूत 30 दिन के अंदर रिकॉर्ड करे और एक साल के अंदर मामले का निपटारा करे. देश के कई भागों में या तो इन मामलों को सुनने के लिए कोई स्थायी कोर्ट नहीं है और अगर है तो फिर वे काम नहीं कर रहे हैं. पोक्सो के प्रावधानों को अमल में लाने के लिए फिर से समीक्षा की जरूरत है. इस कानून को सफल रूप से क्रियान्वित करने के लिए ऐसे मामलों का अनिवार्य रूप से रिपोर्ट होना और पीड़ित की क्षतिपूर्ति का जनता की नजर में आना बहुत जरूरी है.
एनसीआरबी के अनुसार, पोक्सो एक्ट के तहत 2014 में दर्ज मामलों की संख्या 9,712 थी, जिनमें से 6,982 मामलों को निपटा दिया गया. जो 8,379 मामले कोर्ट में चले उनमें से कुल 406 केसों का ट्रायल पूरा हो पाया, जिसमें सिर्फ 1.19 प्रतिशत (100 केस) मामलों में ही आरोपियों को सजा हो पाई. शहरों में हालत थोड़ी ठीक है लेकिन ग्रामीण इलाकों में अब भी इस योजना का प्रसार-प्रचार बाकी है.
सजा मिलने के खराब आंकड़ों और स्पेशल कोर्ट की भारी कमी को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि हमें अपने बच्चों को न्याय दिलाने के लिए अभी बहुत काम करना है. उसी से साबित होगा कि हम अपने बच्चों के खिलाफ किसी भी तरह का उत्पीड़न बर्दाश्त नहीं करते.
(लेखिका चाइल्ड राइट्स एंड यू की निदेशक (नीति एवं अनुसंधान) हैं)
सोना देवी आज भी याद करके सिहर जाती हैं कि कैसे उनके पति ने दाहिने गाल पर बेरहमी से थप्पड़ मारा था, जब उनको पता चला कि उनकी बीवी महादलित बैंड पार्टी में शामिल होकर बाजा बजा रही है. उस थप्पड़ की गूंज आज भी सोना देवी के कानों में गूंज रही है. दरअसल थप्पड़ के जरिए एक पुरुष ने अपनी बीवी को आगाह किया था, ‘हमें यह काम पसंद नहीं है.’ दुर्भाग्य से अनपढ़ पतिदेव शकुनी राम इस सच्चाई से वाकिफ नहीं थे कि नारी के कई रूपों में से एक रूप दुर्गा का भी है जिसके आगे सभी नतमस्तक हैं. वे जिस काम को करने की ठान लेती हैं, उसे अंजाम तक पहुंचाकर ही चैन की सांस लेती हैं. सोना देवी ने भी वही किया. इस जज्बे ने उनका बखूबी साथ दिया कि आखिर मेहनत, ईमानदारी और लगन से काम करने में बुराई क्या है?
सोना देवी के साथ बिहार की राजधानी पटना के नजदीक स्थित दानापुर प्रखंड के ढीबरा गांव की 12 महादलित महिलाओं ने अगस्त 2013 में सामूहिक रूप से एक क्रांतिकारी निर्णय लिया, जो सदियों से चली आ रही सामाजिक वर्जनाओं की मुखालफत करता है. इन खेतिहर मजदूर महिलाओं ने अपना म्यूजिकल बैंड बनाया है जो पटना के अलावा अन्य शहरों तथा सुदूर गांवों में जाकर बड़े-बड़े समारोहों में मजबूती से अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है. कई बार इस टीम ने मुख्यमंत्री के कार्यक्रम में भी अपनी पहचान दर्ज कराई है. नारी गुंजन संस्था के आर्थिक सहयोग से बना यह संगीतमयी समूह ‘संगम बैंड’ के नाम से मशहूर है. हालांकि बाद में घरेलू कारणों से दो महिलाएं इससे अलग हो गईं.
अभी इस समूह में 10 महिलाएं हैं जो गाती हैं और साथ-साथ बैंड भी बजाती हैं. इनमें सविता देवी, अनिता देवी, लालती देवी, पंचम देवी, चित्रलेखा देवी, सोना देवी, विजयन्ती देवी, डोमनी देवी, छठिया देवी और मान्ती देवी शामिल हैं. ये सब की सब विवाहित होने के अलावा ‘लिख लोढ़ा, पढ़ पाथर’ (अशिक्षित) हैं. फिर भी साठ साल की सावित्री देवी फख्र से कहती हैं, ‘मेरे लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर है, लेकिन डरम पर बजने वाली धुन को झट से पकड़ लेती हूं.’ टीम की बाकी सदस्यों की समझ भी ऐसी ही है. 38 साल की सावित्री देवी इस समूह की मुखिया हैं.
रविदास समाज से आने वाली ये महिलाएं खेतों में 10 घंटे मजदूरी करके प्रतिदिन 100 रुपये अर्जित करती थीं. इनके पति भी खेतिहर मजदूर हैं. बाल-बच्चेदार हो जाने के बाद इन गरीबों को घोर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा था और कोई कमाऊ रास्ता नहीं दिख रहा था. इसी बीच सविता देवी की मुलाकात सामाजिक, शैक्षणिक व आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं के लिए काम करने वाली दक्षिण भारतीय सुधा वर्गीज से होती है. सुधा की सलाह पर सविता अपने गांव की 16 महिलाओं को नारी गुंजन संस्था के मुख्यालय दानापुर लाती हैं जहां पर यह तय होता है कि समय निकालकर रोज ड्रम बजाने की ट्रेनिंग लेने आना है. संस्था ने ही अपने पैसे से इन्हें ड्रम खरीद कर दिया है.
आदित्य गौतम के निर्देशन में रोज एक घंटे का प्रशिक्षण तीन महीने तक लगातार चलता रहा. इन महादलित महिलाओं को कदम-कदम पर विरोध का सामना करना पड़ रहा था. गांव के मर्दों के ताने सुनते-सुनते कान पक गए थे. घर में भारी विरोध का सामना पड़ता था. 65 वर्षीय चित्रलेखा देवी बताती हैं, ‘हमारे पति कहते थे कि बुढ़ापे में नगाड़ा बजाने चली हो, इससे पेट नहीं भरेगा. यह मर्दों का काम है तुम कभी सीख नहीं पाओगी. लेकिन अंततः हमने ड्रम बजाना सीख लिया और पहली बार पेशेवर रूप में बजाने पर मुझे 500 रुपये मिले तो जाकर अपने मरद के हाथों में दे दिया.’
पिछले दो वर्षों में संगम बैंड ने राज्य-भर में विभिन्न जगहों पर जाकर 200 से ज्यादा कार्यक्रम प्रस्तुत किए हैं. हर जगह इनको प्रशंसा मिली है. बीते 2 अक्टूबर को इनका कार्यक्रम पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हाल में सरकारी मुलाजिमों द्वारा कराया गया था. सविता देवी का दावा है कि दर्शक मंत्रमुग्ध हो गए थे. यहां पर इन्हें इनाम से भी नवाजा गया. शायद ये बिहार प्रदेश का एकमात्र म्यूजिकल बैंड है जिसकी सदस्य केवल महादलित समाज की महिलाएं हैं. इनके हर कार्यक्रम का मेहनताना 10,000 रुपये है. साथ ही मेजबान को एक जीप की व्यवस्था करनी होती है ताकि इस समूह को कार्यक्रम स्थल पर लाया जा सके और फिर वापस उनके घर छोड़ा जा सके.
आज सोना देवी के पति शकुनी राम को पछतावा होता है कि उन्होंने अपनी होनहार पत्नी को इसी वजह से कभी शारीरिक क्षति पहुंचाई थी. आज वे गर्व से कहते हैं, ‘मेरी सोना सचमुच की सोना है. उसके काम ने घर की आर्थिक तंगी पर विराम लगा दिया है. अब हमको अपने समाज में बहुत इज्जत मिलती है. अपनी पाखंडी भूल के लिए हमने उससे माफी मांग ली है और उसने मुझे माफ भी कर दिया है.’
फोटो- कुमारी सीमा
इसी समाज के बुजुर्ग सीताराम दास का मानना है कि बैंड पार्टी की महिलाओं ने देश में ढीबरा गांव का नाम रोशन किया है. दास गदगद मन से फर्माते हैं, ‘गाने, बजाने और नाचने से कोई छोटा नहीं हो जाता है. मैं भी जवानी के दिनों में नौटंकी में नाचा करता था जिसकी कमाई से घर में छह सदस्यों का पेट भरता था. मैंने तो शुरू में ही इन सामंती मिजाज के पुरुषों को चेताया था कि अच्छे कार्य का कभी विरोध नहीं करना चाहिए वरना बाद में पछतावा होता है.’
संगम बैंड की ये दिलखुश महिलाएं नए पेशे से न केवल आत्मनिर्भर बनीं, बल्कि अपने और आसपास के गांवों की महिलाओं को घरेलू हिंसा के प्रति जागरूक भी करती हैं. गंभीर मिजाज की बैंड सदस्य लालती देवी कहती हैं, ‘मदिरा सेवन करके पत्नियों को प्रताड़ित करने वाले दर्जनों पतियों को हम लोगों ने सबक सिखाया है. जरूरत पड़ने पर हम ऐसे उत्पाती पतियों को शांत करने के लिए लप्पड़-थप्पड़ का डोज भी देते हैं.’
गांव के सुपन यादव को मलाल है कि उनके समाज में ऐसी क्रांतिकारी महिलाएं क्यों नहीं पैदा हुईं. वो खुलासा करते हैं कि उनके टोला में दारूबाजों की तादाद में इजाफा हुआ है जबकि रविदास समाज में इनकी संख्या में गिरावट हुई है. सुपन कहते हैं, ‘मैंने अपने समाज के अंग्रेजों को एक नेक सुझाव दिया है कि बैंड बजाने वाली महिलाओं की सहायता लेकर बेवड़ों पर नकेल कसी जाए.’
बहरहाल, महादलित वर्ग की इन महिलाओं को नीतीश सरकार से एकमात्र लेकिन उचित शिकायत है. सविता अपनी इस शिकायत को स्थानीय बोली में कुछ ऐसे बयां करती हैं, ‘भोटवा (वोट) तो हम नीतीशे कुमार को देबई, बाकी कोई मुख्यमंत्री से कहके हम गरीब के घर में पैखनवा (शौचालय) त बनवा देतई.’
विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार जहां शिशु मृत्यु दर का वैश्विक औसत प्रति एक हजार पर 32 है वहीं भारत का औसत 38 है. नवजात शिशु मृत्युदर (प्रति एक हजार पर 28) और जन्म के पहले पांच सालों में होने वाली मौतों (प्रति एक हजार पर 48) के मामले में भी भारत आगे है, जो कि चिंताजनक है. शिशु मृत्यु पर रोकथाम के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा तय न्यूनतम विकास लक्ष्य अभी भारत की पहुंच से कोसों दूर है. कुपोषण के मामले में भारत की स्थिति किसी से छिपी नहीं है.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में 5 साल से कम आयु के 42.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं और 69.5 प्रतिशत बच्चे खून की कमी से जूझ रहे हैं. दुनिया के 10 अविकसित बच्चों में से चार भारतीय होते हैं और पांच साल से कम उम्र के लगभग 15 लाख बच्चे हर साल भारत में अपनी जान गंवाते हैं. इस बारे में विशेषज्ञों की राय है कि इन मौतों का मुख्य कारण बच्चों में संक्रमण और उनका औसत से कम वजन का पैदा होना है. ऐसे ही बच्चे बाद में कुपोषण, निमोनिया, डायरिया जैसे रोगों के शिकार हो जाते हैं, जिसके चलते उनकी असमय मौत हो जाती है. इस स्थिति में एक बच्चे के लिए मां का दूध जीवनरक्षक साबित होता है. नवजात शिशुओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता मां के दूध से ही विकसित होती है. मां का दूध उसके लिए एंटीबॉयोटिक (प्रतिजैविक) का काम करता है, जो पूर्ण पोषण देते हुए भविष्य में होने वाले किसी भी संक्रमण से उसे बचाता है. जिन बच्चों को उनके जीवन के शुरुआती घंटे से छह माह तक अच्छी मात्रा में स्तनपान नसीब होता है, उन्हें उन अन्य बच्चों के मुकाबले मधुमेह, हाइपरटेंशन जैसी गैर-संक्रमणीय बीमारियां होने का खतरा काफी कम रहता है, जिन्हें स्तनपान पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पाता. पर्याप्त स्तनपान का लाभ बच्चों को बड़े होने के बाद भी यानी प्रौढ़ावस्था/वृद्धावस्था में भी मिलता है. लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि हर साल दुनियाभर में जन्म लेने वाले 13.5 करोड़ बच्चों में से 60 प्रतिशत को मां का दूध नसीब नहीं होता (ब्रेस्टफीडिंग प्रमोशन नेटवर्क ऑफ इंडिया के आंकड़ों के अनुसार). इसलिए उन्हें केवल बकरी, गाय के दूध या फिर फॉर्मूला मिल्क का ही सहारा होता है, जिससे उनमें बीमारियों, संक्रमण और असमय मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य परिवार कल्याण सर्वेक्षण 2005-2006 के अनुसार भारत में केवल 23% माताएं ही शिशु के जन्म के एक घंटे के भीतर उन्हें स्तनपान करा पाती हैं. अगर नवजात के जन्म के एक घंटे के भीतर स्तनपान करने की दर में वृद्धि कर दी जाए तो नवजात शिशुओं और 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु के अनुपात को कम किया जा सकता है. इस तरह हर साल भारत में करीब दस लाख शिशुओं की जान बचाई जा सकती है.
देश की बाल मृत्युदर और कुपोषण से संबंधित इन भयभीत कर देने वाले आंकड़ों से रूबरू होने के बाद योग गुरु देवेंद्र अग्रवाल को अपने अनाथाश्रम के बच्चों के बिगड़ते स्वास्थ्य का कारण समझते देर नहीं लगी. जो फॉर्मूला मिल्क वह अपने आश्रम के बच्चों को दे रहे थे, वह मां के दूध का एक सर्वोत्तम विकल्प साबित नहीं हो पा रहा था. जिससे उनके अंदर रोग प्रतिरोधक क्षमता का समुचित विकास नहीं हो रहा था. इसका विकल्प केवल मां का दूध ही हो सकता था. इस दिशा में आगे बढ़ते हुए उन्होंने राज्य सरकार के पास एक प्रस्ताव भेजा जिसमें एक ऐसा बैंक खोलने की इच्छा जताई, जहां अपने शिशु को स्तनपान कराने के बाद बचे मां के अतिरिक्त दूध का संग्रह किया जा सके और उन बच्चों की मदद की जा सके जिन्हें मां का दूध नहीं मिल पाता. इस प्रस्ताव को राज्य सरकार द्वारा हरी झंडी मिलने पर उदयपुर जिले के आरएनटी मेडिकल कॉलेज स्थित शासकीय पन्ना धाय महिला चिकित्सालय के एक हिस्से में योग गुरु देवेंद्र अग्रवाल की स्वयंसेवी संस्था ने अपने खर्चे पर ‘दिव्य मदर मिल्क बैंक’ की स्थापना की. देवेंद्र अग्रवाल बताते हैं, ‘दो साल से संचालित हमारे बैंक में अब तक 2,911 महिलाएं 20,807 यूनिट यानी तकरीबन 624 लीटर (एक यूनिट में 30 मिलीलीटर दूध होता है) दूध दान कर चुकी हैं जिससे 1,661 नवजात और 1,793 मांएं लाभांवित हुए हैं. हमारे बैंक में पहली प्राथमिकता एनआईसीयू (नियोनेटल इंटेंसिव केयर यूनिट) में मौत से लड़ रहे शिशुओं को दी जाती है और बचा हुआ दूध आश्रम के बच्चों को मिलता है.’
दिव्य मदर मिल्क बैंक की तर्ज पर ही राज्य की राजधानी जयपुर के जेके लोन अस्पताल में चल रहे महिला चिकित्सालय में राज्य सरकार और नॉर्वे सरकार की भागीदारी से ‘जीवनधारा’ नाम का मदर मिल्क बैंक खोला गया है जो राज्य का पहला सरकारी और उत्तर भारत का दूसरा मदर मिल्क बैंक है. मदर मिल्क बैंकिंग पर प्रकाश डालते हुए ‘जीवनधारा’ की मिल्क काउंसलर ममता महावत बताती हैं, ‘शिशु और मां का नाता केवल भावनात्मक ही नहीं होता, यह दोनों के लिए जीवनदायी भी होता है. मां का दूध अपने शिशु के लिए अमृत से कम नहीं होता. स्तनपान के अभाव में एक शिशु के जीवनभर गंभीर रोगों से ग्रस्त रहने की आशंका बढ़ जाती है तो मां के अंदर भी स्तनपान न कराने से स्तन कैंसर की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. मां के दूध के विकल्प के तौर पर हम आज जिस फॉर्मूला दूध का इस्तेमाल करते हैं, उसे विशेषज्ञों द्वारा शिशु स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताया जा चुका है. स्तनपान का विकल्प केवल मां का ही दूध हो सकता है. वे अनाथ शिशु या वे शिशु जिनकी मां किसी कारणवश उन्हें दूध नहीं पिला पाती हैं, उन्हें मदर/ह्यूमन मिल्क बैंक के माध्यम से अस्पताल की नर्सरी में भर्ती उन दूसरी मांओं का दूध पिलाया जाता है जिनके पास अपने शिशु को स्तनपान करने के बाद भी प्रचुर मात्रा में दूध बनता है. इन महिलाओं के दूध को पॉश्च्युराइज कर माइनस 20 डिग्री सेल्सियस तापमान पर संग्रह किया जाता है. जिसे बाद में स्तनपान से वंचित शिशुओं को आवश्यकतानुसार पिलाया जाता है. इसके अलावा कुछ ऐसी महिलाएं भी बाहर से आती हैं जो अपना दूध दान करने की इच्छा जताती हैं.’
महिलाओं के दूध को पॉश्च्युराइज कर माइनस 20 डिग्री सेल्सियस तापमान पर संग्रह किया जाता है
वर्तमान में भारत के विभिन्न राज्यों में 20 ऐसे मिल्क बैंक हैं, जिनमें से अधिकांश हाल ही में खुले हैं. भविष्य में कई राज्य सरकाकों की इस तरह के और भी बैंक खोलने की योजना है. ‘जीवनधारा’ की शुरुआत के बाद राजस्थान सरकार ने राज्य के दस जिलों में भी मिल्क बैंक स्थापित करने की घोषणा की है. राज्य की इस योजना से बतौर सलाहकार जुड़े देवेंद्र अग्रवाल कहते हैं, ‘भारत में स्तनपान की स्थिति पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी बदतर है, जो शर्म की बात है. यही कारण है कि शिशु मृत्युदर के आंकड़े हमारे लिए चिंता का सबब हैं. मां के दूध का मोल तो बताया नहीं जा सकता पर यह हर नवजात को मिलना ही चाहिए. इससे नवजात शिशु मृत्युदर में 22 प्रतिशत तक की कमी लाई जा सकती है. इसके लिए मदर मिल्क बैंक की स्थापना एक क्रांतिकारी कदम साबित होगा.’
पिछले दिनों तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता द्वारा राज्य के सात जिला अस्पतालों में मदर मिल्क बैंक खोले हैं, जिसके बाद राज्य में इनकी संख्या आठ पर पहुंच गई है. हालांकि ब्रेस्टफीडिंग प्रमोशन नेटवर्क ऑफ इंडिया के केंद्रीस समन्वयक डॉ. अरुण गुप्ता शिशु मृत्युदर और कुपोषण के खिलाफ लड़ाई में मदर मिल्क बैंक को क्रांतिकारी कदम के तौर पर नहीं देखते. उनका मानना है, ‘केवल मिल्क बैंक बना देने से समस्या का हल नहीं हो जाएगा. यह महज स्वास्थ्य बजट के नाम पर आया पैसा खर्च करने की सरकारी कवायद है. बाकी चीजें जो इतने सालों से नहीं हो रही हैं पहले उन पर तो ध्यान दीजिए.’ वह जोर देते हैं कि भारत में स्तनपान के मामले में महिलाओं में काफी भ्रांतियां हैं. उन भ्रांतियों को दूर करने और स्तनपान कराने के लिए महिलाओं को प्रेरित करने हेतु प्रशिक्षित सलाहकारों की कमी है. वह कहते हैं, ‘समय पूर्व जन्मे अल्पविकसित और कम वजन के शिशुओं के लिए मिल्क बैंक लाभदायक तो हो सकते हैं पर स्तनपान की कमी, किसी अन्य मां का दूध पूरी नहीं कर सकता. मां के दूध में जीवित कोशिकाएं होती हैं जो स्तन से बाहर आते ही मृत हो जाती हैं. साथ ही मिल्क बैंक के दूध में हाइजीन की भी समस्या बनी ही रहती है, क्योंकि इसे पिलाने के लिए चम्मच आदि का ही प्रयोग किया जाता है. इसलिए स्तनपान को लेकर एक व्यापक रणनीति के तहत आगे बढ़ना होगा और ह्यूमन मिल्क बैंकिंग को एक सहयोगी रणनीति में रखना होगा. ब्राजील, जहां विश्व में सर्वाधिक मिल्क बैंक हैं वह यही तो कर रहा है. दूध बैंकों के अलावा वहां डाकियों को भी प्रशिक्षण दिया जाता है कि वो गर्भवती महिलाओं को स्तनपान से संबंधित जानकारी उपलब्ध कराएं. परिणाम सबके सामने है, आज वहां शिशु मृत्यु दर में 73 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है.’
मुंबई के लोकमान्य तिलक म्युनिसिपल जनरल अस्पताल में 1989 में स्थापित किए गए एशिया के सबसे पहले ह्यूमन मिल्क बैंक ‘स्नेहा’ को अब ‘सायन मिल्क बैंक’ के नाम से जाना जाता है. यहां की वर्तमान निदेशक डॉ. जयश्री मोंडकर कहती हैं, ‘मां का दूध तो शिशु का सर्वोत्तम आहार है ही लेकिन कई बार उच्च रक्तचाप, अधिक रक्तस्राव या तेज बुखार के चलते मां शिशु को दूध नहीं पिला पाती हैं. उस स्थिति में किसी दूसरी मां का दूध ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प होता है, लेकिन यह सीधा स्तन से निकालकर शिशु को नहीं दिया जा सकता है. उससे पहले कुछ सेफ्टी टेस्ट करने पड़ते हैं और सावधानियां भी बरतनी होती हैं. सबसे पहले तो डोनर मदर का स्वस्थ होना जरूरी है. उसे सर्दी, खांसी, टीबी या अन्य कोई बड़ी बीमारी न हो. उसके खून में एचआईवी, हेपेटाइटिस और बीडीआरएल टेस्ट रिपोर्ट निगेटिव हो. फिर ऐसी मांओं से इलेक्ट्रिक पंप की सहायता से दूध निकाला जाता है, जिसे बैंक में 62.5 डिग्री सेंटीग्रेड के तापमान पर 30 मिनट तक पॉश्च्युराइज करने के बाद 4 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर ठंडा किया जाता है. इसके बाद हर डिब्बे से एक मिलीलीटर दूध का नमूना माइक्रोलैब में टेस्टिंग के लिए भेजा जाता है. रिपोर्ट निगेटिव आने पर इसे शून्य से 20 डिग्री नीचे के तापमान पर बर्फ के गोले के रूप में बैंक के फ्रीजर में संग्रहित कर लिया जाता है. इस स्थिति में यह छह महीने तक प्रयोग किया जा सकता है. जब इसे किसी शिशु को पिलाना होता है तो उसे गर्म पानी में पतलाकर नली या चम्मच के सहारे पिला दिया जाता है. एक बार तरल रूप में आने पर यह अधिकतम चार घंटों तक ही उपयोगी होता है.’ आगे वह जो भी बताती हैं उससे डॉ. अरुण गुप्ता की बात को बल मिलता है. वह कहती हैं, ‘हम एक शिशु को मिल्क बैंक के सपोर्टिंग सिस्टम पर सिर्फ तब तक ही रखते हैं जब तक कि उसकी मां को इतना सक्षम नहीं बना देते कि वह खुद अपने शिशु को स्तनपान करा सके, क्योंकि पराई मां का यह दूध महज एक विकल्प है जो मां के स्तनपान की जगह नहीं ले सकता है.’
वर्तमान में मां का दूध हर मिल्क बैंक में निशुल्क उपलब्ध है पर इस संबंध में कोई ठोस सरकारी नीति का न होना भविष्य में इसे एक व्यापार में भी तब्दील कर सकता है. डॉ. अरुण गुप्ता भी ऐसी आशंका व्यक्त करते हैं. वह कहते हैं, ‘ठोस सरकारी नीति के अभाव में देश में जिसे देखो वो मदर मिल्क बैंक खोल रहा है. इस तरह तो एक दिन मां के इस अनमोल अमृत का मोल लगाया जाने लगेगा. इससे काफी समस्याएं खड़ी होंगी. ममता बिकने लगेगी. जो समाज का भी नैतिक पतन होगा. इसलिए एक सरकारी व्यवस्था बनाकर ही इस पर आगे बढ़ा जाए तो ठीक रहेगा. कहां ऐसे बैंक की ज्यादा जरूरत है यह भी देखना होगा.’ डॉ. अरुण गुप्ता की यह आशंका व्यर्थ नहीं है. विकसित देशों में आज मानव दूध का एक बड़ा ऑनलाइन बाजार सज चुका है. भारत अब तक इससे अछूता है तो शायद इसीलिए ही कि यहां अभी ह्यूमन मिल्क बैंक की उपलब्धता शुरुआती दौर में है.
ह्यूमन मिल्क बैंक में दूध दान करने वाली प्रमुख तौर पर तीन प्रकार की महिलाएं होती हैं. पहली वे जिनका दूध अधिक बनता है, दूसरी वे जिनके शिशु एनआईसीयू में होने के कारण दूध नहीं पी सकते और तीसरी वे जिनके शिशु की मृत्यु हो जाए. इनमें कुछ ऐसी महिलाएं भी होती हैं, जिन्हें दूध तो बनता है पर किन्हीं कारणों से वे शिशु को पिला नहीं पाती. ऐसी महिलाओं का दूध इलेक्ट्रिक पंप की सहायता से निकालकर उनके शिशु को पिलाया जाता है और बाकी बचा दूध बैंक में संग्रहित कर लिया जाता है. कुछ महिलाएं ऐसी भी हैं जो प्रसव के बाद कुछ दिन तक अपने शिशु को स्तनपान नहीं करा सकी थीं और विकल्प के अभाव में उनका बच्चा शुरुआती आवश्यक मां के दूध से वंचित रहा. ऐसी ही एक महिला सोनू नागदा से ‘तहलका’ ने बात की. सोनू की दोनों ही डिलीवरी सीजेरियन पद्धति से हुई थीं जिसके चलते उनके सामने दूध न बनने की समस्या आई. वह बताती हैं, ‘मैंने अपने बच्चों का दर्द महसूस किया था जब मैं उन्हें स्तनपान नहीं करा पाती थी. डॉक्टर कहा करते थे कि शिशु के उचित पोषण के लिए मां का दूध जरूरी है, पर मैं बेबस थी. जब सब सामान्य हुआ तो लगा कि उन बच्चों का क्या जिनकी मां ही नहीं हैं? जब मेरी दूसरी बेटी का जन्म हुआ था, उसके कुछ ही दिन बाद अखबार में मदर मिल्क बैंक के बारे में जाना, जहां माताएं अपने शिशु को पिलाने के बाद अतिरिक्त दूध दान कर सकती थीं, जिसका उपयोग ऐसे जरूरतमंद बच्चों के लिए किया जाना था जो किसी कारणवश मां के दूध से वंचित हों. मैनें तब ही ठान लिया था कि मुझे भी दूध दान करना है.’
हालांकि हकीकत ये है कि देश में मिल्क बैंक का नेटवर्क तेजी से बढ़ रहा है पर इन्हें दानदाताओं की कमी का भी सामना करना पड़ रहा है. मुंबई के सायन मिल्क बैंक में अस्पताल आधारित दान व्यवस्था है अर्थात जो महिलाएं अस्पताल में इलाज के लिए आती हैं वही दानदाता होती हैं. सालभर में ऐसी आठ से दस हजार महिलाओं से बैंक को 1000 से 1400 लीटर तक दूध प्राप्त हो जाता ह,ै जिसका हर साल औसतन चार हजार बच्चे लाभ उठाते हैं. किसी दिन दूध पर्याप्त रहता है तो किसी दिन कमी भी पड़ जाती है. इसी तरह सूरत म्युनिसिपल चिकित्सा शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान में 2011 से संचालित मिल्क बैंक भी दानदाताओं की समस्या से जूझ रहा है. उनकी वेबसाइट पर दिए आंकड़े मांग और आपूर्ति में बड़ा अंतर दिखा रहे हैं. अप्रैल से जुलाई 2015 के बीच मिल्क बैंक में 12.5 लीटर दूध दान में मिला है जबकि 21 लीटर से अधिक दूध जरूरतमंदों में बांटा गया है. लेकिन राहत की बात यह है कि अब महिलाएं दान के लिए खुद ही आगे आ रही हैं.
मदर मिल्क बैंक में इलेक्ट्रॉनिक पंप की मदद से माताओं का अतिरिक्त दूध निकालकर फ्रीजर में संग्रहित किया जाता है
दिव्य मदर मिल्क बैंक के दो साल के इतिहास में रेखा चेदवाल सबसे ज्यादा दूध दान कर चुकी हैं. जब वह गर्भ से थी तो इलाज के लिए जाते वक्त उन्होंने अस्पताल परिसर में खुल रहे मदर मिल्क बैंक का विज्ञापन देखा था. वह बताती हैं, ‘जब मेरा पहला बच्चा हुआ तो मुझे काफी अतिरिक्त दूध बनता था. इसके बाद दूसरे बच्चे के समय मैं जब अस्पताल गई तो देखा कि अस्पताल में खुले मिल्क बैंक में माताएं अपना अतिरिक्त दूध दान कर सकती हैं. इससे अच्छी और क्या बात हो सकती थी कि मेरा दूध उन जरूरतमंद बच्चों के काम आ रहा था जो अनाथ हैं, अल्पविकसित हैं या जिनकी मां उन्हें स्तनपान कराने में सक्षम नहीं हैं. इसके बाद मैं अपना दूध दान करने लगी.’ डॉ. मोंडकर बताती हैं, ‘कई ऐसी महिलाएं हैं जो अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद भी दो से छह महीने तक अपना दूध मिल्क बैंक को दान करने आती रहीं. चूंकि हमने उन्हें बता दिया था कि वह अपना दूध निकालकर सात दिन तक घर के फ्रिज में बर्फ के गोले के रूप में जमाकर रख सकती हैं. तो वह यही करती और जैसे ही समय मिलता हमें आकर दे जातीं.’
वैसे दानदाताओं की कमी का एक कारण यह भी है कि हमारे रूढ़िवादी समाज में अगर कोई महिला कुछ नया करने निकले तो उसे तानों और टीका-टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है. उदयपुर के पास स्थित सज्जनगढ़ से गायत्री नागदा रोजाना 15-20 किलोमाटर की दूरी तय करके दिव्य मदर मिल्क बैंक जाया करती थीं. उनकी दिनचर्या कुछ ऐसी हो गई थी कि अलसुबह उठना और रोजमर्रा के कामकाज निपटाकर नौ बजे तक आरएनटी मेडिकल कॉलेज पहुंचना. गायत्री बताती हैं, ‘डिलीवरी के बाद मुझे जितना दूध बनता था, उतना मेरा बच्चा पी नहीं पाता था, इसलिए दूध बर्बाद हो जाता था. उस वक्त ख्याल आता था कि काश कोई ऐसी जगह होती जहां दूध का सदुपयोग हो सकता.’ उनकी पीड़ा समझते हुए उनके पति ने एक मिल्क बैंक ढूंढ निकाला. गायत्री बताती हैं, ‘जब मैं रोज-रोज वहां जाने लगी तो घर-परिवार वालों ने रोकना-टोकना शुरू कर दिया. पड़ोसी मजाक बनाने लगे, फब्तियां कसने लगे. टेम्पो में जाओ तो शोर वाले अश्लील गाने बजते थे. मेरा बच्चा 15 दिन का था, उसे शोर से दिक्कत होती थी. उस वक्त बहुत संघर्ष करना पड़ा था, लेकिन अब दिली सुकून मिलता है. मैंने 25 लीटर दूध दान किया. न जाने कितने ही बच्चों को उससे जीवन मिला होगा.’
शायद इन्हीं समस्याओं की आशंका के चलते मिल्क बैंक को ब्राजील की तर्ज पर व्यापक सरकारी रणनीति के तहत आगे बढ़ाने की बात कही गई है. एक रिपोर्ट के मुताबिक ब्राजील में अभी विश्व के सर्वाधिक 250 से अधिक ह्यूमन मिल्क बैंक संचालित हैं. अग्निशमन विभाग से जुड़े कर्मचारियों को अग्निशमन के साथ वहां महिलाओं का दूध एकत्रित करने के काम पर लगाया गया है. बाकायदा टीवी पर सूचना प्रसारित की जाती है कि इस निश्चित समय पर अग्निशमन विभाग आपके क्षेत्र में आएगा जिसे दूध दान करना हो वह कर सकता है. उसी समय महिलाएं अपना दूध कप में भरकर देती हैं.
भारत में मिल्क बैंकिंग को शुरू हुए भले ही ढाई दशक बीत गए हों पर अभी भी वह अपने शैशवकाल में ही है. स्तनपान का केवल शिशु को ही लाभ नहीं होता, यह स्तनपान कराने वाली मां को भी गठिया और स्तन कैंसर जैसे घातक रोगों से बचाता है. अगर यह बात ही भारत की महिलाओं को समझ आ जाए तो शिशु मृत्युदर और कुपोषण पर काफी हद तक लगाम कसी जा सकती है. बहरहाल ह्यूमन मिल्क बैंक भारत में शिशु स्वास्थ्य की बदहाली पर कहां तक लगाम लगा सकते हैं यह तो भविष्य ही बताएगा पर फिलहाल यह उन नवजातों के लिए वरदान साबित हो रहे हैं जो कि स्तनपान से वंचित हैं और रेखा, सोनू, गायत्री जैसी उन महिलाओं के चेहरे पर भी खुशी ला रहे हैं जो अपना अतिरिक्त दूध बर्बाद होने से नहीं रोक पाती थीं.
किन कारणों से इतनी बड़ी संख्या में सीरियाई नागरिक यूरोप की ओर पलायन कर रहे हैं? आप क्या सोचते हैं, इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
सबसे पहले मैं आपसे ये पूछना चाहता हूं कि इस समस्या के पीछे कौन है? शरणार्थी संकट की वजह क्या है? सीरिया में यह समस्या तब शुरू हुई जब अमेरिका, सऊदी अरब, तुर्की, कतर और कुछ दूसरे देशों ने मिलकर यहां हमारे लोगों को मारने और हमारे देश काे नष्ट करने के लिए भाड़े के सैनिक भेजे. तुर्की ने इन लोगों के समर्थन में अपनी सीमा खोल दी ताकि ये लोग सीरिया में प्रवेश कर सकें. सीरिया में यह समस्या आतंकवाद के कारण शुरू हुई और इस समस्या को बनाने में शीर्ष स्थान पर कौन हैं? ये वही देश थे, जिनके बारे में मैंने ऊपर बताया है.
अपना घर कौन छोड़ना चाहता है? कोई अपना देश नहीं छोड़ना चाहता. इससे पहले हमारे यहां यह समस्या (शरणार्थी संकट) नहीं थी. शरणार्थियों का इस तरह पलायन कोई सहज बात नहीं है. उन्होंने हमारे देश में समस्या खड़ी की, अब यह समस्या खुद उनके देशों की ओर बढ़ रही है. उनका उद्देश्य सीरिया को बर्बाद करना है और सैन्य शक्ति के दम पर यहां की सत्ता में परिवर्तन करना है. 2011 में जब युद्ध शुरू हुआ और उसके बाद जो कुछ भी हुआ, ये सारी गतिविधियां सीरिया के शासन को अस्थिर करने के लिए पश्चिम की चाल है. तुर्की ने अपनी सीमाओं को खुला छोड़ रखा है और वह भाड़े के सैनिकों को सीरिया में घुसने के लिए सहयोग कर रहा है. तुर्की पश्चिम को यह बता रहा है, ‘देखो, तुम्हें मुझसे मदद की गुहार लगानी पड़ेगी. अगर तुम मुझसे मदद के लिए नहीं कहते हो तो मैं सीमा खुली छोड़ दूंगा.’ तुर्की के राष्ट्रपति तैयप इरडोगन का उद्देश्य सीरिया में ‘नो फ्लाई जोन’ बनाना है. तो इस तरह उनकी मंशा है कि यदि आप मुझे ‘नो फ्लाई जोन’ बनाने में मदद नहीं करते तो मैं अपने दरवाजे (सीमा) खुले छोड़ दूंगा. पश्चिम सीरियाई शरणार्थियों का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करना चाहता है. धर्म को सीरिया के विरूद्ध इस्तेमाल करना पश्चिम का उद्देश्य है. सीरियाई लोगों के जेहन को वे इस कदर बदल देना चाहते हैं कि अगर भविष्य में सीरिया में राष्ट्रपति के चुनाव हों तो लोग बशर अल असद के खिलाफ वोट करें.
तुर्की के समुद्री किनारे पर बहकर आई ऐलन कुर्दी की लाश की तस्वीरों ने सारी दुनिया के लोगों को हिलाकर रख दिया. तो अगर मैं आपसे पूछूं कि ऐलन कुर्दी को किसने मारा तो आपका जवाब क्या होगा?
इसके लिए वही लोग जिम्मेदार हैं, जिन्होंने सीरिया समेत सारी दुनिया में अशांति फैला रखी है. सारी दुनिया में आत्मघाती बम धमाके वहाबियों (इस्लाम की एक शाखा, जिसका स्वभाव अत्यन्त कट्टर माना जाता है) के द्वारा ही किए जा रहे हैं. उन्हें समर्थन कौन दे रहा है? आतंक की एक भी घटना किसी गैर-वहाबी व्यक्ति द्वारा नहीं की गई है. चाहे वह न्यूयार्क में 9/11 का हमला हो, 2004 का मैड्रिड रेल धमाका हो, 2005 में लंदन बम धमाका या फिर 2015 में पेरिस में ‘चार्ली हेब्दो’ टेबलॉयड के दफ्तर पर किया गया हमला हो, ये सभी वहाबियों द्वारा किए गए हैं. आपको एक उदाहरण देता हूं. इसी साल जनवरी में पेरिस के सुपर मार्केट में हुए हमले में दशहतगर्द अमेदी कौलीबली की पत्नी हयात बौमेद्दीन के बारे में कथित रूप से खबर आई थी कि वह तुर्की के रास्ते सीरिया भाग गई थी. इसमें किसने उसकी मदद की? सीरिया सीमा पार आतंकवाद का सामना कर रहा है और इस वजह से भी पलायन बढ़ रहा है. शरणार्थी उन इलाकों से निकलकर आ रहे हैं जहां आतंकी समूह सक्रिय हैं. सभी शरणार्थी सीरियाई नहीं हैं. कुछ इराकी हैं, कुछ एरिट्रियाई (अफ्रीका महाद्वीप में स्थित एरिट्रिया देश के नागरिक) और कुछ दूसरे देशों से भी हैं. कुछ लोगों के बारे में खबर मिली है कि उन्होंने यूरोप में प्रवेश करने के लिए नकली सीरियाई पासपोर्ट का इस्तेमाल किया है. इनमें से तकरीबन 25 प्रतिशत आईएस के लोग हैं. पहले उन्होंने हमारे देश में खराब सामान भेजा, अब वे अपने देश में खराब सामान पा रहे हैं. सीरिया में उनके काम का यही प्रभाव या प्रतिक्रिया है.
इस्लामिक स्टेट का मूल सूत्र क्या है?
यह सब जानते हैं कि किस तरह अमेरिका और सऊदी अरब जैसे उसके साथी देशों ने मिलकर अफगानिस्तान में सोवियत संघ को हराने के लिए अलकायदा को खड़ा किया. उन्होंने इस्लामी देशों से लोगों को भर्ती किया और उन्हें नास्तिकों के खिलाफ लड़ाई में लगाया. यह तरीका उस समय सफल रहा. कुछ समय बाद इराक और अफगानिस्तान पर अमेरिका का कब्जा हो गया. जब इराक में बड़ी संख्या में अमेरिकी सैनिक अपनी जान गंवाने लगे और इराक पर अमेरिका अपना कब्जा जारी नहीं रख सका तो उसे एक नया विचार आया यह अफगानिस्तान मॉडल की ही तर्ज पर था और फिर उसने इस्लामिक स्टेट तैयार किया.
इस्लामिक स्टेट पश्चिमी एशिया में अलकायदा की ही एक शाखा है, जिसे अमेरिका का पूरा समर्थन है और सीधे सऊदी अरब से अनुदान मिल रहा है. इस्लामिक स्टेट वहाबीवाद ही है. दूसरी ओर पश्चिमी एशिया में किसी भी जमीन पर कब्जा करने के लिए, किसी भी सत्ता को बर्बाद करने, अमेरिकी नीतियों को लागू करने और अपने हित साधने के लिए अमेरिका भाड़े के सैनिकों की पूरी सेना का नेतृत्व कर रहा है. सीरिया एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जो पूरी तरह अमेरिकी योजनाओं के खिलाफ है और अमेरिकी कैंप का अनुयायी नहीं बनना चाहता. अगर अमेरिकी लोकतंत्र इराक और यमन को बर्बाद करता है तो हम ऐसे अमेरिकी लोकतंत्र में यकीन नहीं करते! इस वजह से सीरिया, इराक, ईरान के खिलाफ वह इस्लामिक स्टेट का इस्तेमाल कर रहा है. ये हर उस देश के खिलाफ हैं, जो अमेरिकी नीतियों के अनुयायी नहीं बनना चाहते. यही वास्तविकता है.
यह कैसे हुआ कि इस्लामिक स्टेट इतना मजबूत संगठन बन गया? इस्लामिक स्टेट को समर्थन कौन दे रहा है? यह वही देश है जो हमारा कच्चा तेल चुराता है और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में बेच देता है. आपको क्या लगता है, इस्लामिक स्टेट के प्रशिक्षण शिविर कहां हैं? ये तुर्की में हैं. आप यह क्यों नहीं देखते कि इस्लामिक स्टेट द्वारा अपहृत हर आदमी को मार दिया जाता है लेकिन तुर्की राजदूतों को नहीं मारा गया जिनका अपहरण इस्लामिक स्टेट ने इराक में किया था. ऐसा कैसे है कि इस्लामिक स्टेट ने सीरिया की सभी पुरानी मजारों को तोड़ दिया है, सिवाय सुलेमान शाह की मजार के, जो कि ऑटोमन साम्राज्य (तुर्की साम्राज्य) के संस्थापक ओसमान प्रथम के दादा थे. (इस साल की शुरुआत में तुर्की शासन ने सुलेमान शाह की मजार को उसके मूल स्थान से हटाकर तुर्की-सीरिया सीमा पर बनाया था). इस्लामिक स्टेट ने कथित रूप से एक नक्शा जारी किया है जिसमें भारतीय उपमहाद्वीप को शामिल किया गया है. इस्लामिक स्टेट भारत तक पहुंच चुका है लेकिन इसने तुर्की की एक सेंटीमीटर जमीन तक को नक्शे में शामिल नहीं किया है, क्यों? अगर यह इस्लाम और इसकी अस्मिता का मसला है तो इस्लामिक स्टेट अल अक्सा मस्जिद (इसी मस्जिद से इस्लाम धर्म की उत्पति मानी जाती है. माना जाता है कि इसी स्थान से इस्लाम धर्म के पैगम्बर मोहम्मद साहब ने जन्नत के लिए प्रस्थान किया था.) के लिए क्यों नहीं लड़ता, जिस पर इस्राइल का कब्जा है.
हम नहीं चाहते कि कोई देश इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़े. यदि पश्चिम सचमुच इस्लामिक स्टेट से टकराने के लिए गंभीर है तो उन्हें ये कदम उठाने चाहिए; पहला- आईएस को अनुदान देना बंद करें. दूसरा- सीरिया के साथ लगी तुर्की की सीमा को बंद करना चाहिए. एक बार ऐसा हो जाने पर सीरियाई सेना सीरिया की सीमा के भीतर इस्लामिक स्टेट को हराने की अपनी जिम्मेदारी को सफलतापूर्वक निभाएगी. यह बहुत सरल है. पश्चिम इस्लामिक स्टेट के खिलाफ अपनी लड़ाई को सीरिया की सरकार को अस्थिर करने के लिए इस्तेमाल कर रहा है.
क्या सीरिया में गृहयुद्ध की समस्या का कोई शांतिपूर्ण हल निकलने के आसार हैं? यदि हैं तो आप कैसे इस दिशा में बढ़ेंगे?
यदि मीडिया की कुछ रिपोर्टों पर भरोसा किया जाए तो सीरिया के संकट का राजनीतिक हल निकालने के लिए चर्चा की जा रही है. रूस और अमेरिका के बीच कुछ बातचीत चल रही है. कोई भी युद्ध हमेशा नहीं चलता लेकिन सीरिया के भीतर आतंकवाद का जो असर पड़ा है उससे इस क्षेत्र के सभी देश प्रभावित होंगे.
आप ‘ब्रिक्स’ समूह की भूमिका को किस प्रकार देखते हैं, जिसमें ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं. रूस के विदेश मंत्री सरगेई लावरोव ने कहा है कि सीरिया को सैन्य हथियारों और सैनिकों समेत सैन्य सहयोग देते रहेंगे. आप सीरिया और रूस के बीच द्विपक्षीय संबंधों की वर्तमान स्थिति और सीरिया-रूस गठबंधन के भविष्य को कैसे देखते हैं?
इस संकट का राजनीतिक हल तलाशने और सैन्य शक्ति के इस्तेमाल के खिलाफ ब्रिक्स द्वारा लिए गए पक्ष का हम सम्मान करते हैं. हम भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वकतव्य की भी प्रशंसा करते हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि आतंकवादी अच्छे या बुरे नहीं होते.
सीरिया में शांति के लिए अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ, यूरोपियन यूनियन और लीग ऑफ अरब स्टेट जैसी स्थानीय संस्थाओं द्वारा निभाई गई भूमिका से संतुष्ट हैं?
लीग ऑफ अरब स्टेट एक बदतर संगठन है. यह अपने खुद के सदस्यों का बचाव नहीं करता. इसने इराक, यमन, लीबिया या सीरिया के लिए क्या किया है? इस लीग का सबसे सशक्त प्रभाव यही है कि इसके कारण अरब देश बर्बाद हो गए हैं. जहां तक संयुक्त राष्ट्र संघ का सवाल है, वह अमेरिकी नीतियों का ही अनुयायी है.
क्या सरकार नियंत्रित सीरिया और इस्लामिक स्टेट नियंत्रित सीरिया के बीच का विभाजन अब लगभग स्थायी हो चुका है? क्या यह विभाजन पूर्ण हो चुका है?
ऐसा एक भी इलाका नहीं है, जहां सीरिया की सेना प्रवेश नहीं कर सकती. सभी मुख्य शहर सीरियाई सेना के नियंत्रण में हैं. सेना जहां प्रवेश करना चाहती है, वहां प्रवेश कर सकती है. सीरिया के भीतर लगभग चालीस लाख लोगों ने इस्लामिक स्टेट और जभात अल नूसरा जैसे आतंकी समूहों के कारण अपना आवास स्थानांतरित किया है. आंतरिक रूप से विस्थापित ये लोग अब सीरियाई सेना द्वारा नियंत्रित इलाकों में जा रहे हैं.
बिहार में इस बार का चुनाव कई मायने में दिलचस्प है. 2010 से 2015 के बीच जो विधानसभा के सदस्य रहे, उनमें से सारे सत्ता और विपक्ष दोनों का मजा ले चुके हैं. जदयू सत्ता में भी रही है और एक दिन के लिए विपक्ष में भी, जब जीतन राम मांझी को बहुमत साबित करना था. कांग्रेस विपक्ष में भी रही है और सत्ता के समर्थन में भी. राजद और सीपीआई का भी वही हाल रहा. भाजपा तो सत्ता में रही ही और बाद में विपक्ष की भूमिका में आई. यह दिलचस्प है कि सभी सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों का मजा ले चुके लोग इस बार आपस में अलग-अलग खेमे में बंटकर एक-दूसरे की औकात नाप रहे हैं.
जब यह समाचार लिखा जा रहा है, तब बिहार की राजनीति में तंत्र-मंत्र वाला अध्याय परवान चढ़ा हुआ है. केंद्रीय राज्यमंत्री गिरिराज सिंह के सौजन्य से जारी नीतीश कुमार का वह वीडियो, जिसमें एक तांत्रिक उन्हें गले लगाए हुए दिख रहा है, उसे ही केंद्र में रखकर सारे आयोजन हो रहे हैं. नरेंद्र मोदी धुआंधार चुनावी प्रचार में हैं और सभी जगह नीतीश कुमार के नाम के पहले लोक-तांत्रिक नीतीश कुमार कहकर संबोधित कर रहे हैं. वे तांत्रिक प्रकरण को मुद्दा बनाने में पूरी ऊर्जा लगाए हुए हैं. संभव है, जब तक यह पत्रिका आपके हाथों में पहुंचे और आप इस लिखे से गुजर रहे हों, तब तक कोई और चुनावी बम बिहार में फट चुका हो. कोई और वीडियो या फिर कोई और नया बयान चर्चा के केंद्र में होगा, क्योंकि तब बिहार में आखिरी चरण का चुनाव हो रहा होगा और जनता बेसब्री से चुनाव परिणाम का इंतजार करने के मूड में आ रही होगी. कौन हारेगा, कौन जीतेगा, यह कह सकने की स्थिति में इस बार कोई नहीं है. पूरे चुनावी दौर में अनुमानों का युद्ध तो चलता रहा लेकिन कोई भी सटीक अनुमान नहीं लगा सका. जीत और हार का फैसला आठ नवंबर को होगा.
नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला महागठबंधन जीतेगा तो उसके अलग मायने होंगे, राज्य की राजनीति के संदर्भ में भी और देश की राजनीति के संदर्भ में भी. भाजपा हारती या जीतती है तो भी उसका असर पार्टी की राजनीति पर दोनों ही स्तरों पर पड़ेगा. केंद्रीय स्तर पर और राज्य स्तर पर भी. हालांकि, हार या जीत से पहले नीतीश और भाजपा- दोनों ने कुछ हद तक बाजी को अपने पाले में कर रखा है. चित भी अपनी ओर और पट भी अपनी ओर. भाजपा ने पूरी कोशिश कर लड़ाई को मोदी बनाम नीतीश की बजाय मोदी बनाम लालू कर दिया है. लड़ाई को मोदी बनाम लालू करने से भाजपा को नुकसान में भी राहत की उम्मीद है. बिहार में लड़ाई अगर मोदी बनाम नीतीश होती और अगर भाजपा हारती तो भाजपा को ज्यादा नुकसान होता. नीतीश से हार का मतलब विकास के मसले पर हुई हार माना जाता.
नीतीश और मोदी में सीधे टकराव के बाद नीतीश की जीत का मतलब राष्ट्रीय राजनीति में उनका कद बढ़ने का संकेत होता और नीतीश का कद बढ़ता तो फिर वे राष्ट्रीय स्तर पर बिखरे विपक्षी दलों की गोलबंदी की ताकत रखते. लेकिन लालू प्रसाद के नेतृत्व में महागठबंधन की जीत के बाद भाजपा यह कहकर खुद को तसल्ली दे सकने की स्थिति में रहेगी और लोगों को भी समझाएगी कि घृणित जात-पात की राजनीति से हार गई. जानकार बता रहे हैं कि इसलिए भाजपा ने आगे की पूरी राजनीति को संभाले रखने के लिए लड़ाई को लालू बनाम मोदी में बदल दिया है, नीतीश बनाम मोदी में नहीं रहने दिया. दूसरी ओर नीतीश ने भी इस पूरी लड़ाई में अपने को कंफर्ट जोन में रखा है. वे लालू प्रसाद के साथ रहते हुए भी लालू प्रसाद के सामाजिक न्याय के मसले को या अगड़े बनाम पिछड़े की लड़ाई वाले मसले को नहीं उठा रहे. क्योंकि नीतीश अपनी छवि का नुकसान नहीं चाहते, इसलिए वे जीत और हार दोनों की स्थिति में अपनी छवि को बनाए-बचाए रखना चाहते हैं. इस पूरे चुनाव में यह दिखा भी जब पूरी बिहार की राजनीति फिसलन के रास्ते चलती रही, रोजाना बयानों के वार चलते रहे और निचले पायदान तक पहुंचते रहे, नीतीश ने अपने आपको संभाले रखा. खैर, यह पूरी सियासत तो जीत और हार के बाद की है, जो आठ नवंबर के बाद तय होगा लेकिन बिहार में इस जीत-हार के बाद एक और बात चारों तरफ चर्चा में है और लोग यह मानने लगे हैं कि इस जीत-हार के खेल में जीत किसी की हो, हार बिहार की हो चुकी है.
नैराश्य का यह भाव उपजने की ठोस वजहें भी हैं. वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेश्वर कहते हैं कि बिहार में इस बार जो बयान चल रहे हैं, उसका असर चुनाव में वोट पाने में कितना होगा, वह तो नेता भी नहीं बता सकते लेकिन यह तय है कि इस चुनाव के बाद बिहार एक बार फिर अराजक दौर में पहुंचेगा और बड़े नेताओं द्वारा दिए गए बयानों का असर निचले स्तर तक पहुंचकर अराजकता को बढ़ावा देगा. ज्ञानेश्वर या उन जैसे लोग अगर ऐसी बात कर रहे हैं तो उसके पीछे कोई रहस्य नहीं. बिहार की राजनीति की शुरुआत इस बार चक्रवर्ती सम्राट अशोक की जाति का पता लगाने से हुई थी और उसके बाद विकास, बीफ, अगड़ा-पिछड़ा, डीएनए, नरपिशाच, नरभक्षी जैसे शब्दों से गुजरते हुए अब तांत्रिक और स्त्री के चरित्र हनन तक पहुंची है. उन बयानों पर एक बार गौर कर सकते हैं, जो इस बार बिहार के चुनाव में छाए रहे.
‘जितने भी गुंडे-बवाली-मवाली हैं, सब लालू यादव के दामाद हैं.’
‘अमित शाह नरभक्षी है.’
‘मोटा तोंदवाला अमित शाह इतना मोटा है कि लिफ्ट में फंस गया था.’
‘लालू प्रसाद यादव के रिश्तेदार शैतान हैं क्या?’
‘लालू यादव चाराखोर हैं.’
‘नरेंद्र मोदी ब्रह्मपिशाच है, हम ओझा हैं, बोतल में बंद कर लेंगे, लाल मिरचा के धुआं से भगाएंगे.’
‘जो हमारी ओर आंख उठाकर देखेगा, उसका छाती तोड़ देंगे.’
‘मटन पत्नी की तरह है, बीफ मां और बहन की तरह.’
‘नीतीशजी डाइवोर्सी दुलहा हैं.’
‘अगर जवानी में लालूजी बधिया करा लिए होते तो जनसंख्या कुछ कम रहती.’
यह सारे बयान कुछ उदाहरण हैं. इन बयानों के बीच नरेंद्र मोदी द्वारा घोषित सवा लाख करोड़ वाला विकास पैकेज और उसके जवाब में नीतीश कुमार द्वारा घोषित चार लाख वाला विकास पैकेज कहां दबकर रह गया, किसी को पता नहीं चला. नीतीश कुमार द्वारा विकास के सात सूत्र भी कहां गए, उसकी थाह नहीं मिल रही और भाजपा के विकास के एजेंडे कहां गए, यह भाजपा नेताओं को भी नहीं पता.
जो युवा वोटर इन नेताओं के अशालीन भाषणों को सुन रहे हैं, कल वे भी राजनीति में आएंगे. आज जो वे सीख रहे हैं, कल को वही आजमाएंगे
बिहार के इस चुनाव में विश्लेषक और जानकार देश का भविष्य देख रहे हैं. ज्ञानेश्वर कहते हैं कि जिन चीजों को लोग बिहार में भूल गए थे, उन्हें फिर से दोहराया जा रहा है. साफ दिख रहा है कि बिहार भयावह भविष्य के रास्ते बढ़ रहा है. विधानसभा चुनाव में यह भाषा है, संयम इस तरह जवाब दे गया है तो अगले साल बिहार में पंचायत और निकाय चुनाव भी होने हैं. उस चुनाव को करवाने की जिम्मेदारी उनकी ही होगी, जो आज तमाम किस्म की विकृत भाषा और वाणी का इस्तेमाल कर सत्ता पाएंगे. सत्ता किसे मिलेगी, यह भले न पता हो लेकिन यह तय है कि जो सत्ता में आएगा, उससे अपना बोया हुआ ही काटते नहीं बनेगा. क्योंकि ऐसी स्थिति ही नहीं होगी. विधानसभा चुनाव जिस तरह से लड़ा जा रहा है, जाहिर-सी बात है, पंचायत चुनाव में उसकी परछाईं पड़ेगी.
भयावह भविष्य सिर्फ इस रास्ते नहीं दिख रहा. खतरनाक पहलू दूसरा है. बिहार में इस बार के चुनाव को एक दूसरी वजह से भी खास माना जा रहा है. आंकड़ों का सहारा लेते हुए विभिन्न तरीके से रोजाना बताया जाता है कि यह जो अपना युवा देश है, उसे युवा बनाने में बिहार की युवा आबादी की बड़ी भूमिका है. बिहार में 18 से 39 साल वालों की आबादी 3.79 करोड़ है. यानी कुल आबादी में करीब 61 प्रतिशत. पांच साल पहले इस आयु समूह की हिस्सेदारी 51 प्रतिशत थी.
अगर हर विधानसभा क्षेत्र के हिसाब से देखें तो अमूमन हर क्षेत्र में औसतन करीब 84,651 मतदाता इस आयु समूह के हैं. पिछली बार बिहार विधानसभा में सभी सीटों पर जीत हार का अंतर औसतन 15 हजार का था. यानी साफ है कि यह आयु समूह इस बार जीत-हार तय करेगा. इनमें बड़ी आबादी उन युवाओं की है, जो पहली बार मतदान कर रहे हैं. इस युवा आबादी पर सभी दलों की टकटकी है. सबको उम्मीद है कि वे उनके साथ आएंगे और बाजी को पलट देेंगे. वे युवा मतदाता किसी न किसी के साथ जा रहे हैं, जाएंगे ही, लेकिन याद रखिए कि बिहार में कल को वे भी राजनीति में आएंगे. वे इस बार सिर्फ पहली बार वोट ही नहीं दे रहे, बहुत करीब से चुनाव को देख भी रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं- कल को इन्हीं बच्चों को बिहार की राजनीति में आना है. आज जो वे सीख रहे हैं, कल को उसे ही वे फिर से बिहार की राजनीति में आजमाएंगे. यह दुखद है. सुमन कहते हैं कि इस बार के चुनाव में दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि प्रधानमंत्री ने भी हल्की भाषा का इस्तेमाल किया, उन्हें संयम बरतना चाहिए था. महेंद्र सुमन की बातें सही हैं. संयम सबको बरतना चाहिए था लेकिन किसी ने नहीं बरता.