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सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज

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भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है. एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं. अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है. यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें. किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिंदुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है. यह मार-काट इसलिए नहीं की गई कि फलां आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलां आदमी हिंदू है या सिख है या मुसलमान है. बस किसी व्यक्ति का सिख या हिंदू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था. जब स्थिति ऐसी हो तो हिंदुस्तान का ईश्वर ही मालिक है.

ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य बहुत अंधकारमय नजर आता है. इन ‘धर्मों’ ने हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है. और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे. इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है. और हमने देखा है कि इस अंधविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं. कोई बिरला ही हिंदू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठंडा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डंडे लाठियां, तलवारें-छुरे हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सिर फोड़-फोड़कर मर जाते हैं. बाकी कुछ तो फांसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिए जाते हैं. इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डंडा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है.

यहां तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे सांप्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है. इस समय हिंदुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली. वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज-स्वराज’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाए चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मांधता के बहाव में बह चले हैं. सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो सांप्रदायिक आंदोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं. जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं. और सांप्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आई हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे. ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है.

दूसरे सज्जन जो सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं. पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था. आज बहुत ही गंदा हो गया है. यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौवल करवाते हैं. एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं. ऐसे लेखक बहुत कम हैं, जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शांत हो.

अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है. यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’

जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है. कहां थे वे दिन कि स्वतंत्रता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहां आज यह दिन कि स्वराज एक सपना मात्र बन गया है. बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है. जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गई, कल गई वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी है कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है.

यदि इन सांप्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है. असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्रकारों ने ढेरों कुर्बानियां दीं. उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गई थी. असहयोग आंदोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से सांप्रदायिक नेताओं के धंधे चौपट हो गए. विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है. कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धांतों में से यह एक मुख्य सिद्धांत है. इसी सिद्धांत के कारण ही ‘तबलीग’, ‘तनकीम’, ‘शुद्धि’ आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है.

बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है. दरअसल, भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है. भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धांत ताक पर रख देता है. सच है, मरता क्या न करता. लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होना अत्यंत कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती. इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिए और जब तक सरकार बदल न जाए, चैन की सांस नहीं लेना चाहिए.

लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है. गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं. इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए. संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं. तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों में लेने का प्रयत्न करो. इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जाएंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी.

जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहां भी ऐसी ही स्थितियां थीं, वहां भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे. लेकिन जिस दिन से वहां श्रमिक-शासन हुआ है, वहां का नक्शा ही बदल गया है. अब वहां कभी दंगे नहीं हुए. अब वहां सभी को ‘इंसान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं. जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी. इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे. लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गई है और उनमें वर्ग-चेतना आ गई है इसलिए अब वहां से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आती.

इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों में एक बात बहुत खुशी की सुनने में आई. वह यह कि वहां दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन सभी हिंदू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे. यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे. वर्ग-चेतना का यही सुंदर रास्ता है, जो सांप्रदायिक दंगे रोक सकता है.

यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से, जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं. उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से- हिंदू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन सभी को पहले इंसान समझते हैं, फिर भारतवासी. भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है. भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए. उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं.

1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था. वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं. न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सबको मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता. इसलिए गदर पार्टी जैसे आंदोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फांसियों पर चढ़े और हिंदू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे.

इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं. झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुंदर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं.

यदि धर्म को अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं. धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें.

हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताए इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमें बचा लेंगे.

(आरोही पब्लिकेशन की ओर से प्रकाशित संकलन ‘इंकलाब जिंदाबाद’ से साभार)

गई जमीन अब जान के लाले

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तीन साल के एक बच्चे के कंधे पर 12 टांके आए हैं. ग्रामीणों का आरोप है कि उसे पुलिस की गोली छूकर निकली है जबकि पुलिस का कहना है कि बच्चा ग्रामीणों के हमले में दराती से घायल हुआ है

इलाहाबाद जिले की करछना तहसील के कचरी गांव में करीब दो महीने से धारा 144 लागू है. पुलिस आैैर ग्रामीणाें में संघर्ष के बाद पूरे गांव में पीएसी तैनात है. गांव के कई घरों में ताले लगेे हैं. गांव सूना  पड़ा है. पुलिस की दहशत से गांव के 70 फीसदी लोग घरों में ताला लगाकर वहां से भाग गए हैं. जो घर खुले हैं, उनमें सिर्फ महिलाएं और बच्चे हैं. कई घरों के दरवाजे टूटे हैं. घरों के अंदर भी तोड़फोड़ की गई है. गांव वालों के मुताबिक इन्हें पुलिस ने तोड़ा है. गांव के सभी पुरुष पुलिस के डर से फरार हैं,  यहां सिर्फ महिलाएं, बच्चे और बूढ़े बचे हैं.

जमीन बचाने के लिए कचरी गांव के किसान 1,850 से ज्यादा दिनों से धरने पर हैं. इसी साल 9 सितंबर की सुबह 7 बजे किसान आंदोलनकारियों पर पुलिस ने धावा बोल दिया. ग्रामाणों और पुलिस के बीच जबर्दस्त संघर्ष हुआ. लाठीचार्ज हुआ, आंसू गैस के गोले छोड़े गए, जमकर पथराव हुआ, चापड़ चले और आगजनी भी हुई. ग्रामीणों का आरोप है कि पुलिस ने एक घर में आग भी लगा दी. कई राउंड गोलियां चलाईं. धरनास्थल पर मौजूद लोगों की पिटाई की और उन्हें गिरफ्तार कर ले गई. हालांकि पुलिस ज्यादातर आरोपों से इंकार कर रही है. पुलिस का कहना है कि उन्होंने गोली नहीं चलाई और घर में आग खुद ग्रामीणों ने लगाई थी.

गांव के एक घर में दो ग्रेनेड फेंके गए. घर के अंदर की दीवारें काली पड़ गई हैं. गांव वाले कह रहे हैं कि यह ग्रेनेड पुलिस ने फेंका है जबकि पुलिस का कहना है कि बम घर के अंदर से फेंका गया. अब सवाल ये है कि अगर बम घर के अंदर से फेंका गया तो अंदर ही कैसे फट गया? यदि अंदर से कोई बम फेंक रहा था और बम अंदर ही फट गया तो कोई हताहत क्यों नहीं हुआ? बहरहाल, ये बम आर्टिलरी (आयुध कारखाने) के बने हैं, जिन पर सितंबर 2010 एक्सपाइरी डेट है. पुलिस अधिकारियों ने सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों की एक जांच समिति के सवालों के जो जवाब दिए, उनमें हास्यास्पद किस्म का विरोधाभास है. अधिकारियों ने एक ही बातचीत में बार-बार बयान बदले हैं.

तीन साल के एक बच्चे के कंधे पर 12 टांके आए हैं. ग्रामीणों का आरोप है कि उसे पुलिस की गोली छूकर निकली है जबकि पुलिस का कहना है कि बच्चा ग्रामीणों के हमले में दराती से घायल हुआ है. जो भी हो, पुलिस को कम से कम ऐसे सवाल का जवाब देना चाहिए कि चारपाई पर पड़े 84 साल के बुजुर्ग से सरकार को क्या खतरा था, जिसे घर में से घसीट कर पीटा गया? सरकार या पुलिस को 13-14 साल के बच्चे से क्या खतरा हो सकता है जिसे जेल में डाल दिया गया?

बहरहाल, गांव के 41 किसान इलाहाबाद की नैनी जेल में बंद हैं. इन 41 लोगों में 13 साल से लेकर 17 साल तक के नाबालिग और 75 साल के बुजुर्ग भी शामिल हैं. ये सभी बिना किसी सुनवाई के जेल में बंद हैं. इन लोगों के अलावा पुलिस अन्य किसानों और 300 अज्ञात लोगों के खिलाफ गैंगस्टर और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) की कार्रवाई की तैयारी कर रही है. महिलाओं और बच्चों के साथ आंदोलन में उतरे किसानों को प्रशासन ने उपद्रवी मानते हुए उनके खिलाफ हत्या के प्रयास सहित विभिन्न गंभीर धाराओं में मुकदमे दर्ज कराए हैं.

आंदोलनकारियों के मुखिया किसान नेता राज बहादुर पटेल अब भी पुलिस की पकड़ से बाहर हैं. उन पर 12 हजार रुपये का इनाम है. उनके परिवार के 22 सदस्य जेल में बंद हैं. यह सब इसलिए हुआ है क्योंकि किसान अपनी जमीन किसी कंपनी को देने का विरोध कर रहे हैं, इसीलिए पुलिस उन्हें अपराधी मानती है. कचरी गांव के कई घरों में पुलिस ने तोड़फोड़ की है. राज बहादुर पटेल के घर की महिलाओं ने बताया, ‘नौ सितंबर को भारी संख्या में आई पुलिस ने पूरा गांव घेर लिया, जो सामने मिला, उसे पीटा, घरों में तोड़फोड़ की और 46 ग्रामीणों को पकड़ कर थाने ले गई. पुलिस दल के साथ डीएम भी थे.’

लगातार धारा 144 लागू होने, गांव में पुलिस की दबिश और उत्पीड़न के चलते गांववाले दहशत में जी रहे हैं. आठ अक्टूबर को एक किसान सहदेव (65) की मौत हो गई. ग्रामीणों का कहना है कि सहदेव की मौत पुलिस की प्रताड़ना और सदमे से हुई है. पुलिस गांव वालों को इतना प्रताड़ित कर रही है कि हर कोई भय में जी रहा है. इसी तरह से पास के कोहड़ार गांव में जय प्रकाश के घर पर बुलडोजर चलवाकर उसे ध्वस्त करा दिया है.

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पुलिस की दहशत से गांव के 70 फीसदी लोग घरों में ताला लगाकर वहां से भाग गए हैं. जो घर खुले हैं, उनमें सिर्फ महिलाएं और बच्चे हैं. कई घरों के दरवाजे टूटे हैं. घरों के अंदर भी तोड़फोड़ की गई है

इन किसानों का दोष बस इतना है कि वे अपनी जमीन जेपी समूह को नहीं देना चाहते. गौर करने लायक बात ये है कि सरकार भी ग्रामीणों से बातचीत करने को राजी नहीं है, वह कोर्ट का आदेश मानने को तैयार नहीं है कि किसानों की जमीन वापस की जाए. सरकार कोई भी यत्न करके ग्रामीणों से निपटने के मूड में है.

इलाहाबाद के पास के इलाके में 20 किलोमीटर की दूरी में तीन थर्मल पावर प्लांट लगाए जाने हैं. करछना और बारा में दो पावर प्लांट जेपी समूह के होंगे और बारा में एक प्लांट एनटीपीसी और यूपी पावर कॉरपोरेशन का होगा. इसके लिए भूमि अधिग्रहण की अधिसूचना 23 नवंबर, 2007 को अधिग्रहण अधिनियम की धारा 4, 17(1) और 17(4) के तहत जारी हुई थी. तत्कालीन प्रदेश सरकार ने अधिग्रहीत जमीन पावर प्रोजेक्ट के लिए जेपी समूह को हस्तांतरित कर दी थी.

जब अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू हुई तो कचरी के किसान नेता राजबहादुर पटेल की अगुवाई में दर्जनों किसानों ने अधिग्रहण के खिलाफ प्रशासन को आवेदन सौंपा लेकिन प्रशासन ने इसकी अनदेखी की और अधिग्रहण संबंधी कार्रवाई जारी रही. आखिरकार अप्रैल, 2008 में सात किसानों की ओर से इलाहाबाद हाईकोर्ट में अधिग्रहण की योजना को चुनौती दी गई. इस प्रोजेक्ट के लिए 2010 में 2200 बीघा जमीन अधिग्रहीत की गई. सरकार ने जमीन का मुआवजा बाजार दर से दस गुना कम तय किया, कुल तीन लाख रुपये प्रति बीघा, जबकि तब जमीन का बाजार भाव 30 लाख रुपये प्रति बीघा था. यहां के किसान ‘किसान कल्याण संघर्ष समिति’ के बैनर तले भूमि अधिग्रहण के विरोध में लामबंद हैं. किसानों का संघर्ष जारी है तो पुलिस का दमन भी. इस मुद्दे पर अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा दूसरे संगठनों के साथ मिलकर आंदोलन कर रही है. विरोध के चलते अभी तक अधिग्रहीत जमीन की घेराबंदी पूरी नहीं हो सकी है.

22 अगस्त, 2010 से इलाके के किसान धरने पर बैठे. सरकार ने जब इस तरफ भी ध्यान नहीं दिया तो किसानों ने आमरण अनशन शुरू कर दिया. प्रशासन ने बातचीत करके मसला सुलझाने की जगह आंदोलन को कुचलने का रास्ता अपनाया. जनवरी 2011 में अनशनरत किसानों पर लाठीचार्ज हुआ, आंसू गैस के गोले दागे गए और फायरिंग की गई. इस संघर्ष में पुलिस की गोली से एक किसान गुलाब विश्वकर्मा की मौत हो गई थी, जिसके कारण किसानों का गुस्सा बढ़ गया. उस वक्त किसानों के उग्र हो जाने पर पुलिस को पीछे हटना पड़ा था. इसके बाद 22 अगस्त 2015 को भी कचरी के 122 ग्रामीणों के विरुद्ध शांति भंग की धारा 107/116 के अंतर्गत कार्रवाई करते हुए नोटिस तामील किया गया.

इस बीच 13 अप्रैल, 2012 को हाईकोर्ट ने करछना में प्रस्तावित जेपी समूह के थर्मल पावर प्लांट के लिए भूमि का अधिग्रहण रद्द करते हुए कहा था कि किसानों को मुआवजा लौटाना होगा, इसके बाद उनकी जमीनें वापस कर दी जाएं. वहीं बारा पावर प्रोजेक्ट के मामले में किसानों की याचिका खारिज कर दी गई. दोनों ही मामलों में भूमि अधिग्रहण को चुनौती देने वाली अवधेश प्रताप सिंह और अन्य किसानों की याचिकाओं पर एक साथ सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने यह फैसला सुनाया. बारा में जेपी के पावर प्रोजेक्ट के मामले पर कोर्ट ने कहा कि बारा प्लांट में निर्माण का कार्य काफी आगे बढ़ चुका है, इसलिए वहां भूमि अधिग्रहण रद्द किया जाना नामुमकिन है. नोएडा भूमि अधिग्रहण मामले में गजराज सिंह केस का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि अगर अधिग्रहण के बाद प्रोजेक्ट पर काम प्रारंभ हो चुका है तो वहां का अधिग्रहण रद्द नहीं किया जा सकता है. बारा के किसान मुआवजे को लेकर अपनी लड़ाई जारी रख सकते हैं. करछना के किसानों के मामले में कोर्ट ने कहा कि अभी तक  परियोजना का कार्य शुरू नहीं किया गया है.

मामले में प्रदेश सरकार की ओर से दाखिल जवाब में कहा गया कि किसानों के आंदोलन के कारण पावर प्लांट का कार्य प्रारंभ नहीं हो सका. तब कोर्ट ने कहा कि भूमि का अधिग्रहण मनमाने और मशीनरी तरीके से नहीं किया जा सकता. किसानों की आपत्तियों को सुनना जरूरी है. करछना मामले में कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को यह छूट दी है कि वह चाहे तो कानून के मुताबिक नए सिरे से अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू कर सकती है.

किसानों की मांग है कि पांच साल तक उनकी जमीनें सरकार के पास खाली पड़ी रहीं. अगर जमीनें उनके पास होतीं तो उस पर फसल पैदा की जाती. इसलिए सरकार पांच साल में उन जमीनों पर पैदा होने वाले अनाज की कीमत किसानों को दे लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने किसानों की बात पर गौर करने की बजाय उनके विरोध को कुचलने के लिए पुलिस ने दमन का सहारा लेना शुरू कर दिया. गांववाले बताते हैं कि नौ सितंबर को गांव में पुलिसिया हमला करवाने वाले डीएम कौशल राज शर्मा ने धमकी दी थी कि जिस तरह उन्होंने मुजफ्फरनगर में दंगा करवाया था, वैसे ही यहां भी करवा सकते हैं इसलिए सुधर जाओ. उनका अब कानपुर तबादला हो चुका है. संजय कुमार नए डीएम बनकर आए हैं. कनहर गोलीकांड के बाद इनको सोनभद्र में लगाया गया था. जांच टीम के सदस्याें के साथ एक अनौपचारिक बातचीत में उन्हाेंने पिछले डीएम कौशल राज को ‘दंगा स्पेशलिस्ट’ भी बताया.

कुछ स्थानीय पत्रकारों ने बताया कि जिन जमीनों को लेकर मामला फंसा है, वे सारी अधिग्रहण से पहले आला अधिकारियों की पत्नियों और सगे-संबंधियों के नाम कर दी गई थीं, इसलिए किसानों को मुआवजा वापसी का नोटिस नहीं दिया जा रहा कि बात कहीं खुल न जाए. यह आरोप सही भी लगता है क्योंकि जब कोर्ट ने किसानों की जमीन वापस करने का आदेश दे दिया है तो प्रशासन जमीन वापस क्यों नहीं कर रहा है? इस सवाल पर डीएम संजय कुमार का कहना है, ‘अखबारों में विज्ञापन दिया गया लेकिन गांववाले पैसा वापस नहीं कर रहे हैं.’ जबकि ग्रामीणों का कहना है कि कैसे करना है, क्या करना है, हमें कुछ मालूम ही नहीं है. प्रशासन ने जमीन वापस करने की प्रक्रिया के बारे में कोई सूचना नहीं दी है. प्रशासनिक अधिकारियाें का कहना है कि वे जो कर रहे हैं, वह सब ‘ऊपर’ के आदेश के मुताबिक कर रहे हैं.

पुलिस की रिपोर्ट में गांव के आधे से ज्यादा लोग अधिग्रहण से असहमत हैं और अपनी जमीन नहीं देना चाहते. दूसरी तरफ डीएम से फोन पर हुई बातचीत में उन्हाेंने कहा कि अस्सी फीसदी लोग जमीन देने के लिए सहमत हैं यानी ग्रामीणों की असहमति और कोर्ट के आदेश के बावजूद प्रशासन जमीन वापस करने की प्रक्रिया शुरू करने की बजाय अधिग्रहण की कोशिश में लगा है. प्रशासन का कहना है कि हम ग्रामीणों को सहमत करने का प्रयास कर रहे हैं. किसानों के इस आंदोलन से अलग ‘पावर प्लांट बचाओ आंदोलन’ भी चल रहा है जिससे सपा से पूर्व सांसद रेवती रमण सिंह भी जुड़े हैं. हाल ही में वे पावर प्लांट का काम पूरा कराने का संकल्प भी जता चुके हैं.

उधर, 26 सितंबर को नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर आंदोलन कर रहे किसानों से मिलने जा रही थीं, तभी इलाहाबाद पुलिस ने उनको समर्थकों के साथ हिरासत में ले लिया. मेधा भूमि अधिग्रहण का विरोध करने पर बच्चों और महिलाओं की जेल में डालने का विरोध कर रही हैं. वे किसानों से मिलना चाह रही थीं लेकिन जिलाधिकारी संजय कुमार ने उन्हें वहां जाने से रोक दिया. उन्होंने कहा, ‘गांव में धारा 144 लगी हुई है और किसी सभा की इजाजत नहीं है.’ प्रशासन ने मेधा को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में ही नजरबंद कर दिया था. उन्हें बाद में छोड़ दिया गया.

मेधा को नजरबंद किए जाने को लेकर पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की ओर से इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई कि मेधा पाटकर की नजरबंदी गैरकानूनी थी. याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने 15 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश सरकार से जवाबी हलफनामा तलब करके पूछा है कि मेधा और उनके समर्थकों को क्यों गिरफ्तार किया गया? पीयूसीएल की इस याचिका में कचरी गांव में धारा 144 लगाने को लेकर भी चुनौती दी गई है. गौरतलब है कि पुलिस ने 144 लागू करने का जो आदेश जारी किया है, उसमें कहा गया है कि प्रशासन को यह ‘आभास’ है कि क्षेत्र में अशांति की ‘संभावना’ है. सवाल यह भी है कि क्या ‘आभास’ और ‘संभावना’ के आधार पर किसी क्षेत्र में इतने लंबे समय तक धारा 144 लागू की जा सकती है?

गांव के एक घर में दो ग्रेनेड फेंके गए. घर के अंदर की दीवारें काली पड़ गई हैं. गांव वाले कह रहे हैं कि यह ग्रेनेड पुलिस ने फेंका है जबकि पुलिस का कहना है कि बम घर के अंदर से फेंका गया. बहरहाल, ये बम आर्टिलरी (आयुध कारखाने) के बने हैं, जिन पर सितंबर 2010 एक्सपाइरी डेट है
गांव के एक घर में दो ग्रेनेड फेंके गए. घर के अंदर की दीवारें काली पड़ गई हैं. गांव वाले कह रहे हैं कि यह ग्रेनेड पुलिस ने फेंका है जबकि पुलिस का कहना है कि बम घर के अंदर से फेंका गया. बहरहाल, ये बम आर्टिलरी (आयुध कारखाने) के बने हैं, जिन पर सितंबर 2010 एक्सपाइरी डेट है

अब इस आंदोलन में कई किसान संगठन शामिल हो गए हैं.  ‘कृषि भूमि बचाओ मोर्चा’ और ‘जन संघर्ष समन्वय समिति’ ने 27 अक्टूबर को बनारस में किसान-मजदूर संगठनों का एक राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया. इस सम्मेलन में तय किया गया कि पांच नवंबर को प्रदेश के सभी जिला मुख्यालयों पर सामूहिक धरना दिया जाएगा और 16 नवंबर को लखनऊ में धरना प्रदर्शन होगा.

उधर, जेल में बंद ग्रामीणों ने जमानत लेने से इनकार कर दिया है. उनका कहना है, ‘हमने कोई अपराध नहीं किया है. हमारी जमीन पर हमारा अधिकार है. सरकार जब तक चाहे, हमें जेल में रखे, पर हम जमानत नहीं लेंगे.’ गांव के एक बुजुर्ग ने एक लोकगीत गाकर अपनी भावनाएं कुछ इस तरह जाहिर कीं, ‘जब सर पर कफन को बांध लिया तब पांव हटाना न चाहिए…’ पर सवाल यह है कि जब सरकार ही इन गरीब ग्रामीणों को पांव पीछे हटाने पर मजबूर कर दे तो ये न्याय की अपेक्षा किससे करें?

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प्रशासन का सभी आरोपों से इंकार 

इलाहाबाद के जिलाधिकारी संजय कुमार ने इन आरोपों के मद्देनजर कहा, ‘ये सारे आरोप गलत हैं. हम जनता के दुश्मन नहीं हैं. हम जनता की सेवा के लिए हैं, अन्याय क्यों करेंगे? सबको साथ लेकर काम करना है.’ भारी संख्या में पुलिस बल तैनात करने या लाठी चार्ज करने की जरूरत क्या थी, इसके जवाब में उन्होंने कहा, ‘कुछ लोगों ने जनता को भड़काने की कोशिश की. रणनीति के तहत पुलिस पर हमला किया गया, जिसके बचाव में पुलिस को कार्रवाई करनी पड़ी.’

महिलाओं और बच्चों को भी जेल में डालने के बारे में उनका कहना है, ‘जिन लोगों ने माहौल खराब करने की कोशिश की, उन पर कार्रवाई की गई. कुछ और नाम भी प्रकाश में आए हैं, जिनके बारे में जांच की जा रही है.’ कोर्ट के आदेश के बावजूद जमीन वापसी की प्रक्रिया नहीं शुरू करने के सवाल पर उन्होंने कहा, ‘हमने प्रक्रिया शुरू की थी, अखबारों में विज्ञापन दिए थे, गांव में भी अधिकारियों को भेजा गया, लेकिन गांववालों ने कोई रुचि नहीं दिखाई. कोई अपनी जमीन वापस लेने नहीं आया.’ हालांकि, वे यह भी कह रहे हैं कि 80 फीसदी लोग जमीन देने के लिए सहमत हैं. बाकी को सहमत करने का प्रयास किया जा रहा है.

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‘सफेदपोशों को बचाने के लिए वीरप्पन को मारा’

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वीरप्पन से कथित संबंधों को लेकर कई लोग आपको खलनायक बता चुके हैं. क्या आप दस्यु सरगना वीरप्पन के साथ अपने संबंधों पर कुछ प्रकाश डालेंगे?

हम दोनों में समानता बस मूंछों तक ही सीमित है (हंसते हुए). खोजी पत्रकारिता करने के लिए हम लोगों ने 1988 में ‘नक्कीरण’ पत्रिका शुरू की. अगले ही साल डिवीजनल फॉरेस्ट ऑफिसर (डीएफओ) पी. श्रीनिवास की निर्मम हत्या के बाद तमिलनाडु में खौफ पसर गया. अखबारों ने खबर छापी कि इस जघन्य हत्याकांड के लिए चंदन तस्कर वीरप्पन जिम्मेदार है. उसने कथित तौर पर डीएफओ का सिर धड़ से अलग कर दिया था.

तब वीरप्पन के ठिकाने के बारे में किसी को जानकारी नहीं थी. इसलिए मैं उसकी खोज में निकल पड़ा. एक बार किसी ने मुझे मूछों वाले एक दुबले-पतले आदमी की तस्वीर दिखाई. शुरू में तो मुझे भी विश्वास नहीं हुआ कि इन अमानवीय हरकतों के पीछे ये दुबला-पतला आदमी था.

इसके बाद 1990 में कर्नाटक कैडर के पुलिस अधीक्षक हरिकृष्णा वीरप्पन को पकड़ने के लिए पुलिस बटालियन लेकर जंगल के अंदर गए. जंगल में जो मुठभेड़ हुई, उसमें एसपी हरिकृष्णा, एक इंस्पेक्टर और छह पुलिसवाले मारे गए. उसके बाद मैंने अपने सभी संवाददाताओं, फोटोग्राफर्स को इस चंदन तस्कर के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी जुटाने और उसकी फोटो भी हासिल करने को कहा.

हमारे ही एक संवाददाता सिवा सुब्रह्मणयम को उसकी तस्वीर हासिल करने में सफलता मिली लेकिन उसने फोटो देने वाले सूत्र का खुलासा नहीं किया. इसके फौरन बाद हमने अपनी पत्रिका में वीरप्पन के बारे में एक लेख प्रकाशित किया. उस लेख और तस्वीर ने स्पेशल टास्क फोर्स की काफी मदद की. उस समय के एसटीएफ चीफ वाल्टर देवराम ने ‘आउटलुक’ मैगजीन को दिए एक साक्षात्कार में माना कि उस लेख और फोटो से उन्हें पता चला कि जंगल में वीरप्पन नाम का कोई जंगली डाकू है. तब तक तो ये एक कोरी अफवाह की तरह था. इस तरह वीरप्पन के साथ हमारे संबंधों की शुरुआत हुई.

वीरप्पन ने जब कन्नड़ सुपरस्टार राजकुमार का अपहरण किया तब आपने एक दूत की भूमिका निभाई थी. ऐसी अफवाह थी कि वीरप्पन अभिनेता राजकुमार की रिहाई के लिए होने वाली बातचीत में तमिल सुपरस्टार रजनीकांत व स्व. सिवाजी गणेसन को शामिल कराना चाहता था. सच्चाई क्या है?

शुरुआत में जब वीरप्पन ने कुछ वन अधिकारियों का फिरौती के लिए अपहरण किया तब मुझे एक दूत बनाकर भेजा गया. उस मुलाकात के दौरान वीरप्पन ने मांग रखी कि बातचीत में रजनीकांत और सिवाजी गणेसन को भी शामिल किया जाए क्योंकि वह उन दोनों का प्रशंसक था. हालांकि उन बंधकों को छुड़ाने में मैं सफल हुआ लेकिन वीरप्पन की कई शर्तों को कर्नाटक और तमिलनाडु दोनों ही राज्य सरकारों ने स्वीकार नहीं किया. इसलिए जब राजकुमार का अपहरण हुआ तब मैंने दूत बनने से इंकार कर दिया.

हालांकि उस वक्त डीएमके सुप्रीमो करुणानिधि और कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री एसएम कृष्णा का मुझ पर काफी दबाव था. मेरे पास रजनीकांत और सिवाजी गणेसन की तरफ से भी कई बार फोन आए. कर्नाटक में रहने वाले तमिलों पर भी दबाव बढ़ रहा था. राजकुमार के अपहरण के कारण कर्नाटक में रहने वाले लाखों तमिलों पर भी हिंसा का खतरा बढ़ रहा था क्योंकि राज्य के लोग अभिनेता राजकुमार को भगवान की तरह पूजते थे.

उस वक्त कर्नाटक में रहने वाले तमिलों की संख्या करीब 65 लाख थी. इसलिए मैंने कर्नाटक में रह रहे लाखों तमिलों की जान बचाने की खातिर फिर से दूत बनना स्वीकार किया. मैं जंगल में गया लेकिन सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश की वजह से वीरप्पन के साथ बातचीत सफल नहीं हो पाई. फिर करुणानिधि ने मुझे बंगलुुरु जाकर कर्नाटक सरकार को ताजा हालात से अवगत कराने को कहा.

दो कारणों के चलते करुणानिधि ने रजनीकांत से भी मेरे साथ जाने का अनुरोध किया. पहला, रजनीकांत न सिर्फ तमिलनाडु के सुपरस्टार हैं बल्कि पूरे दक्षिण भारत में उनकी शख्सियत का बोलबाला है. दूसरा, वे कन्नड़ बोलना जानते हैं. इस तरह हम दोनों एक चार्टर्ड फ्लाइट से कर्नाटक में एक जगह पहुंचे, जहां पुलिस की गाड़ियों के विशाल काफिले ने हमारा स्वागत किया. जब हमें बुलेटप्रूफ गाड़ी में बिठाया गया तब मैं हक्का-बक्का रह गया. इस बारे में जब मैंने रजनी सर से पूछा कि ये सुरक्षा बंदोबस्त आपके लिए किया गया है तब उन्होंने जवाब दिया कि मेरी जिंदगी को भी खतरा है. इस तरह वीरप्पन के चंगुल से राजकुमार को निकालने में रजनी सर ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. सिवाजी गणेसन ने शायद तमिलनाडु सरकार से इस बारे में चर्चा की होगी.

वीरप्पन की भविष्य की योजना क्या थी? वह जिंदगी भर फरार रहना चाहता था या फिर आत्मसमर्पण करना चाहता था? क्या उसने इस बारे में आपको कुछ बताया?

वीरप्पन बातचीत के लिए रजनीकांत और सिवाजी गणेसन को शामिल करने का दबाव इस वजह से डाल रहा था ताकि पुलिस के सामने आत्मसमर्पण के वक्त उसकी जान की सुरक्षा हो सके. शायद उसका मानना था कि अपहृत अभिनेता राजकुमार समेत प्रभावशाली अभिनेताओं की मौजूदगी तमिलनाडु और कर्नाटक की सरकार को उसके जघन्य अपराधों के लिए माफ करने के लिए मजबूर कर सकती है. वह अपने परिवार के साथ तमिलनाडु में बसना चाहता था. वह हथियार त्यागने के लिए भी तैयार था. हालांकि मौजूदा कानून उस जैसे खूंखार भगोड़े के लिए किसी भी तरह उपयुक्त नहीं थे कि उसे पूरी तरह क्षमादान मिल सके.

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क्या ये सच है कि लोग और पुलिस जंगल में अभी भी उसकी दौलत की खोजबीन में लगे हैं? आपको क्या लगता है वीरप्पन की मौत के बाद उसकी दौलत का क्या हुआ होगा?

हां, ये मैंने सुना है कि स्थानीय लोग अभी भी उसके पैसों को जंगल में ढूंढ़ रहे हैं. वे इसके लिए काफी मेहनत भी कर रहे हैं. हालांकि मेरा मानना है कि वीरप्पन अपने पीछे कोई संपदा छोड़कर नहीं गया. पैसे को संभालने में वीरप्पन कमजोर था. जो भी उसे मिला उसने स्थानीय समुदाय के खाने-पीने और अन्य जरूरतों को पूरा करने में खर्च कर दिया.

एसटीएफ ने उसे जिंदा पकड़ने की बजाय गोली क्यों मारी? इस तरह की अफवाह है कि कुछ वीवीआईपी लोगों को बचाने के लिए उसे खत्म कर दिया गया जिनके उसके साथ संबंध थे. क्या ये सच है? 

ये सच है कि उसे जिंदा पकड़ा गया था और मारने से पहले दो दिनों तक यातनाएं दी गई थीं. मारे गए इस डाकू की बिना मूछों वाली तस्वीर इस बात की तस्दीक करने के लिए काफी है. उसे अपनी मूंछों पर बहुत गर्व था. काटने की तो छोड़ो, वह अपनी मूंछों को किसी को छूने भी नहीं देता. मैं ये भी मानता हूं कि वह कई वीवीआईपी लोगों के करीब था जिनके राजनीतिक संपर्क थे. अगर उसे जिंदा पकड़ा जाता तो कई सफेदपोश लोग बेनकाब हो सकते थे इसी वजह से उसकी हत्या कर दी गई. यही नहीं, एसटीएफ भी वीरप्पन को कुचलने की कुंठा से भरी हुई थी.

‘ये बहुत मुश्किल है कि वीरप्पन जैसा कोई दोबारा पैदा हो. वह दिल से अच्छा इंसान था. पुलिस के अत्याचारों ने ही उसे क्रूरता के दलदल में धकेला’

दो दशकों से भी ज्यादा समय तक वीरप्पन को किसने पनाह दी? तमिलनाडु और कर्नाटक की सरकारों को उसे पकड़ने में इतना वक्त क्यों लग गया?

राज्य सरकारों की राजनीतिक रस्साकशी और दोनों राज्यों की एसटीएफ के बीच तनातनी के कारण ही उसे पकड़ने में ज्यादा वक्त लगा. वीरप्पन जंगल के चप्पे-चप्पे से अच्छी तरह वाकिफ था और आसानी व बहुत तेजी के साथ जंगल के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंच सकता था. वह पलक झपकते ही गायब हो जाने में माहिर था. बंदूकें और अन्य हथियार होने के बावजूद जंगल में पुलिस असहाय थी. यही नहीं, उसे जंगल में रहने वाले स्थानीय लोगों का भी समर्थन प्राप्त था जो पुलिस और एसटीएफ के निरंकुश व्यवहार से चिढ़ते थे. वीरप्पन गांव वालों पर होने वाले अत्याचारों से कठोरता से निपटता था इसलिए गांव वाले भी उसकी रक्षा के लिए अपनी जान देने के लिए तैयार रहते थे.

क्या वीरप्पन का कोई उत्तराधिकारी बचा है?

नहीं. जहां तक मेरा मानना है उसका कोई उत्तराधिकारी नहीं है. ये बहुत मुश्किल है कि वीरप्पन जैसा कोई दोबारा पैदा हो. वह दिल से अच्छा इंसान था. पुलिस के अत्याचारों ने ही उसे क्रूरता के दलदल में धकेला. उसने पहले डीएफओ पी. श्रीनिवास की हत्या की जिसने उसकी बहन के साथ बलात्कार किया था. इस वजह से उसकी बहन ने आत्महत्या कर ली थी.

आप वीरप्पन का आकलन किस तरह करेंगे?

वीरप्पन एक हत्यारा था, जो खुद को सुधारना चाहता था.

वीरप्पन : राक्षस या रक्षक!

Veerappan, Photo by Tehelka

‘वीरम विधैक्का पट्टथु’ तमिल भाषा के इन शब्दों का हिंदी में अर्थ है, ‘यहां वीरता के बीज बोए गए हैं’. ये शब्द पत्थर के एक टुकड़े पर खुदे हुए हैं जो घने जंगल की झाडि़यों में स्थित एक कब्र का पता साफ तौर पर देते हैं. हालांकि इस स्मृतिलेख के लेखक के नाम की खबर नहीं मिलती. अपनी भव्यता में बहती कावेरी नदी के उस पार मेट्टूर बांध के पास चट्टानों से घिरे जंगल में दस्यु सरगना वीरप्पन की कब्र है जो  वीरान नहीं है.

इस चंदन तस्कर की मौत को हालांकि अब 11 वर्ष गुजर चुके हैं, लेकिन वीरप्पन की कब्र पर अब भी उसके चाहने वाले खिंचे चले आते हैं. विशेषकर पश्चिमी तमिलनाडु के जंगल में बसे गांवों और कर्नाटक के चमराजनगर इलाके के लोग यहां बड़ी संख्या में आते हैं. इन लोगों के लिए वीरप्पन एक रक्षक था. इसीलिए हर वर्ष 18 अक्टूबर को लोग वीरप्पन की पुण्यतिथि पर उसे श्रद्धांजलि देने पहुंच जाते हैं. चेन्नई से 350 किलामीटर दूर औद्योगिक नगर मेट्टूर के सीमांत इलाके में यह कब्र स्थित है.

श्रद्धांजलि अर्पित करने आए एक श्रद्धालु मुरूगेसन का कहना है, ‘11 वर्ष पहले हमने यहां वीरता के बीज बोए हैं. बाहरी दुनिया के लिए वे भले ही चंदन तस्कर और हाथी दांत चोर रहे हों लेकिन इस इलाके के गरीब लोगों, जंगल और पुलिस अधिकारियों के हाथों सताए हुए लोगों के लिए वे एक मसीहा थे. वीरप्पन सिर्फ एक बागी ही नहीं थे बल्कि हमारे लिए  अभिभावक और एक देवदूत की तरह थे जो हमें हर तरह के जुल्म और बर्बरता से बचाते थे. हमें यकीन है कि वीरता के ये बीज एक दिन फिर से अंकुरित होंगे.’ 18 अक्टूबर, 2004 को धर्मपुरी के नजदीक एक गांव में पुलिस अधिकारी के. विजय कुमार के नेतृत्व में तमिलनाडु स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) ने वीरप्पन और उसके दो साथियों को मार गिराया था.

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वीरप्पन की पुण्यतिथि पर उसके समाधि स्थल पर उमड़ी भीड़

तब वीरप्पन की पत्नी मुथुलक्ष्मी की तरह मेट्टूर के अधिकांश लोगों ने भी एसटीएफ के एनकांउटर की कहानी को नकार दिया था. उस वक्त वीरप्पन आंशिक रूप से अपनी दृष्टि खो चुका था और इलाज की उम्मीद लिए गांवों में घूमता रहता था. ऐसे ही किसी मौके पर वह एसटीएफ के बिछाए जाल में फंस गया. स्थानीय निवासी और वीरप्पन के रिश्तेदार के. संबथ का कहना है, ‘इडली उन्हें बेहद पसंद थी और मटन करी के साथ इडली वह बहुत चाव से खाया करते थे. उनकी इस पसंद से वाकिफ एक रिश्तेदार ने एसटीएफ के कहने पर उन्हें इडली में जहर मिला कर खिला दिया था. खाना देने वाले आदमी पर वीरप्पन को पूरा भरोसा था. जहर मिली इडली खाकर वीरप्पन बेहोश हो गए. बेहोशी की हालत में वीरप्पन को पुलिस के हवाले कर दिया गया, जिसने उन्हें प्रताडि़त किया और फिर मार डाला.’ इसमें कोई शक नहीं कि आर्थिक मदद करने के चलते सत्यमंगलम, मेट्टूर और थलावाड़ी के लोगों के लिए वीरप्पन राॅबिनहुड की तरह था. गांववालों से जानकारी निकलवाने के लिए एसटीएफ अधिकारियों द्वारा की गई हिंसा ने स्वाभाविक रूप से वीरप्पन को उस क्षेत्र के लोगों का हीरो बना दिया था. ‘चाहे वह तमिलनाडु हो या कर्नाटक, हर जगह गांव वाले बड़ी संख्या में वीरप्पन के समर्थक थे.’ ये कहना है मुथुलक्ष्मी का, जो उस आदमी (वीरप्पन) से शादी करने का खामियाजा भुगत रही है जो भारतीय इतिहास के सबसे लंबे अपराधी खोज अभियान के शुरू होने का जिम्मेदार है. मुथुलक्ष्मी दिल दहला देने वाली घटनाओं का भी जिक्र करती हैं. ‘दूसरे बच्चे के जन्म के समय घने जंगल के बीच मेरे आसपास तकरीबन 10 महिलाएं थीं जो पुलिस और एसटीएफ के जवानों से लोहा ले रही थीं.’

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गांववालों के अनुसार, वीरप्पन ने पक्षपात को कभी भी बर्दाश्त नहीं किया. पुलिस के मुखबिरों के लिए वह एक बुरे सपने की तरह थे. उनके साथ वे बहुत सख्त थे, किसी दानव की तरह. दुविधा के क्षणों में फंसे निर्दोष गांववालों ने हमेशा वीरप्पन को प्राथमिकता दी. वीरप्पन की पुण्यतिथि पर मेट्टूर के लोगों के बीच खाना बांटने के बाद ‘तहलका’ से बात करते हुए मुथुलक्ष्मी कहती हैं, ‘पुलिस अब भी मुझे डराती है और वीरप्पन की पुण्यतिथि पर कोई आयोजन करने के मेरे मूलभूत अधिकारों को छीनना चाहती थी. बाद में मद्रास हाईकोर्ट ने मुझे इसके लिए अनुमति दी. हालांकि पुलिस ने एक बार फिर इस आयोजन के लिए मुझे परेशान किया. आयोजन स्थल पर बैनर लगाने के लिए मेरे खिलाफ कानूनी कार्रवाई की गई.

मुथुलक्ष्मी का कहना है, ‘गांववालों को खाना खिलाना वीरप्पन के सम्मान में आयोजित पारिवारिक कर्मकांड का हिस्सा है. उन्हें गरीबों और जरूरतमंदों की मदद करने पर तसल्ली मिलती थी.’ जब मुथुलक्ष्मी से उनकी दोनों लड़कियों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने इस बारे में कुछ कहने से मना कर दिया. गांववाले उनके बारे में बताते हैं कि उन दोनों की शादी हो गई है और दोनों अब अपने-अपने परिवारों के साथ कहीं दूर रहती हैं. तमिलनाडु में सामाजिक सुधार के लिए कार्यरत ‘द्रविड़र विदुथलाई कषगम’ नाम के राजनीतिक संगठन के संस्थापक कोलाथुर मणि बताते हैं, ‘मेरे पिता लकडि़यों के ठेकेदार थे, हम नदी के रास्ते लकडि़यां लाते थे. फिर वीरप्पन के पिता बाद में मजदूरों के बीच लकड़ी ढोने की मजदूरी बांटते थे.’

वीरप्पन का परिवार कावेरी नदी के किनारे कर्नाटक की सीमा पर बसे गोपीनाथम गांव में रहता था. वीरप्पन बहुत कम उम्र से ही शिकार करने लगा था. बदला लेने के लिए एक खून करने के बाद से उसे जंगल में छिपकर रहना पड़ा. उसके बाद से ही वीरप्पन ने जानवरों का शिकार और चंदन की तस्करी शुरू कर दी. मणि का कहना है, ‘वह एक अच्छा इंसान था, लेकिन पुलिस की हिंसा ने उसे बर्बर बना दिया.’ वीरप्पन को 1980 में गिरफ्तार किया था, लेकिन वह जेल से भाग गया. बाद में फिरौती के लिए बड़े-बड़े लोगों के अपहरण और पुलिस व वन विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों की हत्या के लिए कुख्यात हुआ. मेट्टूर, गोपीनाथम और थलावाड़ी जैसे कुछ अन्य गांवों के लोग वीरप्पन से आज भी बेहद प्यार करते हैं. वीरप्पन की पुण्यतिथि पर वे श्रद्धाजंलि देते हैं और उसके लिए प्रार्थना करते हैं.

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वीरप्पन की पत्नी अपनों बेटियों के साथ (फाइल फोटो)

वीरप्पन एक अनुशासित इंसान था और महिलाओं का वह बहुत सम्मान करता था. बलात्कार या यौन अपराधों को वह बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं करता था. इसलिए महिलाएं अक्सर उसे ‘पेरियन्ना’ (बड़ा भाई) कहती थीं. 55 वर्षीय थंगमा अपने साथ हुई हिंसा को याद करते हुए बताती हैं, ‘वीरप्पन को पान के पत्ते बेचने के आरोप में पुलिस ने एक बार मुझे गिरफ्तार किया था. हिरासत में तत्कालीन एसटीएफ प्रमुख वाल्टर देवराम सहित कई पुलिस अधिकारियों ने मेरे साथ गैंगरेप किया था. इसके बाद मुझे अधमरा होने तक पीटा गया. आज वे अधिकारी खुलेआम घूम रहे हैं. सरकार उन लोगों को सजा क्यों नहीं देती, जिन्होंने मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी.’

महिलाओं के साथ ज्यादती करने वाले लोगों को वीरप्पन सजा देता था. वास्तव में भारतीय वन सेवा अधिकारी पी. श्रीनिवास का सिर काट देने की घटना से वीरप्पन काफी कुख्यात हुआ था. इस अधिकारी ने कथित रूप से वीरप्पन की बहन का बलात्कार किया था. जिसके बाद उसकी बहन ने आत्महत्या कर ली थी.

एसटीएफ की हिंसा की शिकार मुनियम्मा कहती हैं, ‘किसी भी तरह का दुर्व्यवहार जो हम झेलते हैं, वह बलात्कार की तुलना में कुछ भी नहीं होता.’ गांव के पुरुषों और महिलाओं को अक्सर पुलिस अपने कैंप में ले जाती थी जिसे वह ‘वर्कशाॅप’ कहती थी. वहां उनसे सवाल किए जाते थे और बुरी तरह उन्हें प्रताडि़त किया जाता था. इसमें बलात्कार करने के साथ गुप्तांगों पर इलेक्ट्रिक शाॅक दिया जाना, अपंग बना देना और बुरी तरह पीटना शामिल था.

अपने साथ हुई ज्यादती को याद करते हुए मुनियम्मा गहरी सांस लेते हुए बताती हैं, ‘मुझे हिरासत में लेने के बाद मेरे कपड़े उतार दिए गए थे. फिर मेरे ऊपर पानी फेंका गया और मेरे गुप्तांग और वक्षों पर इलेक्ट्रिक शाॅक दिया गया. वीरप्पन ने ऐसे अमानवीय अधिकारियों से बदला लिया था.’ बाहरी दुनिया वीरप्पन को एक जघन्य अपराधी मानती है लेकिन मेट्टूर और आसपास के इलाकों के गांव वाले अब भी उसकी पूजा करते हैं. पुलिस की धमकियों के बावजूद स्थानीय समुदाय के लोग आज भी वीरप्पन की याद को जिंदा रखने की कोशिश में लगे हुए हैं.

‘लड़कियों के साथ बदतमीजी करने वाला आज बिहार का प्रतिष्ठित नेता है’

RRRRRRबात तब की है जब पटना साइंस कॉलेज से इंटरमीडिएट पास कर ताजा-ताजा निकला था और पास ही स्थित बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग (आज का एनआईटी) पटना में एडमिशन लिया था. दोनों संस्थानों के बीच फासला महज चंद कदमों का ही था मगर वातावरण में जमीन-आसमान का फर्क था. ‘भावुक पढ़ाकू लड़कों’ से हम रातोंरात ‘भावी इंजीनियर’ में तब्दील हो चुके थे. अब हमारे पास करने के लिए सब कुछ था सिवाय पढ़ाई के. वहां प्रवेश लेते ही सीनियर छात्रों द्वारा जातिवाद की कुनैनी घुट्टी पिलाई जाती थी. खाने-पीने से लेकर रहना-सहना, हॉस्टल में रूममेट चुनने से लेकर दोस्ती करना, सब कुछ जातिवाद से संचालित होता था. किसी न किसी ग्रुप से जुड़कर रहना हर छात्र की मजबूरी थी. मजे की बात यह थी कि आपकी रैगिंग करने का अधिकार भी आपके ही ‘ग्रुप’ के सीनियर्स के पास था, किसी और की क्या मजाल जो आपको छू भी सके.

एकतरफा इश्क करने से तो कोई किसी को कभी रोक नहीं सका, मगर उस जमाने में  गर्लफ्रेंड भी बड़ा सोच-समझकर बनानी पड़ती थी. अपनी सीमाओं से बाहर की गई अनाधिकार चेष्टा प्रायः मारपीट पर खत्म होती थीं और दिल की कई दास्तानें दिल में ही दफन हो जाती थीं. चाहे-अनचाहे हमें भी फर्स्ट ईयर में एक जातिवादी ग्रुप से जुड़कर रहना पड़ा था. हमारा ग्रुप लीडर जबरदस्त महत्वाकांक्षी था. नेता बनने के सभी गुण उसमें कूट-कूट कर भरे हुए थे, मगर लड़कियों के सामने दाल नहीं गलती थी उसकी. लड़कों ने तो अपने लीडर को सिर-आंखों पर बैठा रखा था, पर लड़कियों की नजरों में उसे उपेक्षा ही दिखती. ज्यादा उपेक्षा प्रायः लोगों को सैडिस्ट (जिसे दूसरे को पीड़ा पहुंचा कर खुशी मिले) बना देती है. शायद यही हमारे लीडर के साथ भी हुआ.

एक रोज लीडर महाशय अपने दो खास गुर्गों के साथ क्लास शुरू होने से थोड़ा पहले ही क्लास में पहुंच गए और लड़कियों की बेंच पर चुपके से खुजली वाले पाउडर का छिड़काव कर दिया. हममें से अधिकांश ग्रुपवालों को यह बात पसंद नहीं आई लेकिन कायरता ने हमारी जुबान पर ताला जड़ रखा था. बेचारी लड़कियों की जो दशा हुई, उसका यहां जिक्र करना उन पर फिर से प्रताड़ना करने जैसा होगा. हालांकि सत्रह-अठारह वर्ष के हमारे बहुत सारे साथियों का उस दिन नेताओं के दोमुंहे चरित्र से साबका पड़ा. ओढ़ी हुई सहानुभूति, मदद का घिनौना प्रयास और जीत की खुशी से लीडर का चेहरा दमक रहा था, साथ-साथ वह अज्ञात अपराधियों को डांटने का दिखावा भी कर रहा था.

एक रोज लीडर महाशय ने लड़कियों की बेंच पर खुजली वाला पाउडर छिड़क दिया और हमारी कायरता के चलते हम चुप रहे

तब तक शायद हमारी क्लास के ही किसी बंदे ने खबर फैला दी और फाइनल ईयर के एक दबंग सीनियर वहां आ गए. असलियत उन्हें मालूम थी, सो उन्होंने दोषियों को खूब खरी-खोटी सुनाई और चेतावनी दी कि ऐसी घटना दोबारा नहीं होनी चाहिए. लीडर को खून का घूंट पीकर माफी मांगनी पड़ी. इसे बदकिस्मती ही कहिए वे सीनियर महोदय जातिवादी नजरिये के हिसाब से प्रतिद्वंद्वी ग्रुप के थे. फिर क्या था! हमारे समूह के लीडर में जोश आ गया कि इस बेइज्जती का ऐसा बदला लेना है कि पूरा कॉलेज याद रखे. दबंग सीनियर की पिटाई का प्रोग्राम बन गया. किसी गुप्त क्रांतिकारी मिशन की तरह योजना बनी. खास-खास लोगों को उनकी भूमिका समझा दी गई. आखिर वह दिन आ गया जब सीनियर महोदय इलेक्ट्रिकल लैब में अकेले पाए गए. हमारे लीडर ने पहले तो उनका कॉलर पकड़ा, फिर जी-भरकर गालियां दीं. उस समय हमारे लीडर के हाथ में पिस्तौल भी थी. तब तक खासमखास गुर्गों ने अपने हाथ साफ करने शुरू कर दिए. हम दस-बारह थे, पिटनेवाला अकेला. किसी ने बेल्ट चलाई, किसी ने लोहे की चेन से मारा, एक ने तो वहां पड़ी ट्यूबलाइट की रॉड उनके सर पर फोड़ डाली. देखते ही देखते वे लहूलुहान हो गए.

मैंने ऐसा दृश्य सिर्फ फिल्मों में देखा था. उनकी पिटाई देख मेरी हिम्मत जवाब देने लगी. चक्कर खा कर गिर न जाऊं, सोचकर धीरे-धीरे मैं उस घेरे से बाहर निकलने लगा. मगर तब तक मेरे लीडर की निगाह मुझ पर पड़ गई. आंखें लाल कर वह चिल्लाया, ‘यह कायरता दिखाने का समय नहीं है राकेश! पीटो इसे.’ मेरे चेहरे की दुविधा पढ़ने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई. वह फिर गुर्राया, ‘या तो तुम इसकी पिटाई करो या हम लोग तुम्हें पीटेंगे.’

मरता क्या न करता! मैंने एक बार छह फुट के उस घायल सीनियर को देखा, एक बार अपनी पिद्दी सी काया को. फिर एक निर्मम घूंसा मैंने भी उस निरीह के पेट में जमा ही दिया. मेरे उस घूंसे से उस भले-मानुष को कितनी चोट पहुंची, वह तो मुझे नहीं पता, मगर उस घूंसे की चोट अपनी अंतरात्मा पर मैं आज भी महसूस करता हूं. कॉलेज छोड़ने के बाद फिर कभी उन सीनियर से मुलाकात नहीं हुई और माफी मांगने का सपना अधूरा ही रह गया. और हां! ये बता देना भी मैं अपना पुनीत कर्तव्य समझता हूं कि काॅलेज के हमारे लीडर महाशय आज बिहार के प्रतिष्ठित नेताओं में से एक हैं और भूतपूर्व मंत्री भी रह चुके हैं.

( लेखक कोल इंडिया लिमिटेड में मुख्य प्रबंधक हैं)

स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं दे रही मोदी सरकार

Modi222222ब्रिटेन के विश्व प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल ‘लैंसेट’ ने खराब स्वास्थ्य सेवाओं पर ध्यान नहीं देने को लेकर नरेंद्र मोदी सरकार की आलोचना की है. हाल ही में ‘लैंसेट’ के  संपादक रिचर्ड हॉर्टन ने एक अंग्रेजी दैनिक को दिए साक्षात्कार में कहा कि मोदी सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र पर पर्याप्त गौर नहीं कर रही है. उन्हाेंने आगाह किया है कि भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र बहुत खराब हालत में है और यह इस देश के वैश्विक नेता बनने की राह में एक रोड़ा है.

11 दिसंबर को प्रकाशित होने जा रहे ‘लैंसेट’ के ताजा अंक में भारत की स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में एक शोध पत्र शामिल किया गया है, जिसे दुनिया के कई मशहूर विशेषज्ञों ने लिखा है. इसमें मोदी सरकार द्वारा बजट में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को नजरअंदाज करने और उसके लिए पर्याप्त धन आवंटित न किए जाने पर गंभीर चिंता जताई गई है. इस शोध पत्र में मोदी के चुनावी वादों की भी याद दिलाई गई है.

रिचर्ड ने कहा, ‘भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र को लेकर मैं कोई भी नीति, नया आइडिया या महत्वपूर्ण जनप्रतिबद्धता नहीं देख रहा हूं. सबसे अहम तो यह कि इसे लेकर कोई वित्तीय प्रतिबद्धता भी नहीं दिखती है.’ रिचर्ड ने कहा, ‘जबसे नरेंद्र मोदी की सरकार आई है, स्वास्थ्य क्षेत्र इसकी प्राथमिकता से एकदम बाहर हो गया है. भारत के लिए स्वास्थ्य राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला है. यदि भारत में स्वस्थ जनसंख्या नहीं रहेगी तो सरकार भारत की संप्रभुता और स्थिरता सुनिश्चित नहीं कर पाएगी.’  संयुक्त राष्ट्र की भी एक रिपोर्ट में भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र पर चिंता जताई गई है.

‘मैं खुद को किसी खांचे में नहीं बांधना चाहता’

Chaitanya Tamhane12

आपकी फिल्म  ‘कोर्ट’  के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी?

जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक भेद और जातिगत राजनीति जैसे मुद्दे पश्चिमी दर्शकों की समझ में आएंगे. मैं ये भी जानता हूं कि भारत में इस तरह की फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसी फिल्मों का सिनेमाघरों तक पहुंच पाना लगभग नामुमकिन होता है. इसके बावजूद कई सारे सम्मान मिलने, फिल्म के कई देशों के अलावा और तमाम भारतीय सिनेमाघरों में सफल प्रदर्शन के बाद मैं इसे मिली प्रतिक्रिया से विस्मित हूं. कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म सबको अपनी तरफ खींचती है. बहरहाल, मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैंने जितनी उम्मीद की थी ‘कोर्ट’ उससे कहीं आगे निकल चुकी है. इसके लिए मैं सभी दर्शकों का आभारी हूं.

फिल्म में सरकारी वकील और गुजराती अभिजात्य कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि, कोर्ट में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के उलट हैं. क्या ये एक सोचा-समझा निर्णय था?

मैंने फिल्म के किरदारों को अपने आसपास देखे गए लोगों के आधार पर गढ़ा है, फिर इन किरदारों में कल्पना के रंग भरे हैं. दोनों किरदारों के बीच   आप जिस विषमता की बात कर रही हैं, वह मेरे दिमाग में एकदम से स्पष्ट नहीं थी. दोनों में तमाम समानताओं के साथ कई सारी असमानताएं भी हैं. मैंने दोनों किरदारों को मूलभूत तरीके से विकसित किया, इसलिए दोनों में विचारों के स्तर पर विषमता नजर आई.

ऑस्कर की दौड़ में  ‘कोर्ट’  ने  ‘मसान’ ,  ‘हैदर’ ,  ‘पीके’  और  ‘मैरीकॉम’  जैसी सराहनीय फिल्मों को पीछे छोड़ दिया. क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों को तो थिएटर मिलना ही मुश्किल होता है, ऑस्कर की तो बात ही जाने दें. ऐसे में क्या लगता है किस बात ने कोर्ट के पक्ष में काम किया?

वास्तव में मैं इस बारे में कुछ नहीं सोचना चाहता कि ‘कोर्ट’ ने दूसरी फिल्मों को कैसे पछाड़ा. इस तरह का फैसला जूरी (निर्णायक समिति) के सदस्यों की सोच को दर्शाता है. ऑस्कर के लिए ऐसा चयन विशेष रूप से किया जाता होगा. हां, मगर मैं इस बात को लेकर आश्वस्त हूं कि ऑस्कर के लिए फिल्म का चयन करते वक्त जूरी ने दूसरे पक्षों का भी ख्याल रखा होगा. वास्तव में कौन-सी बात ‘कोर्ट’ के पक्ष में रही, इस बारे में मैं यकीनी तौर पर कुछ नहीं कह सकता. अगर इस बारे में अंदाजा लगाना हो तो मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि फिल्म को मिली अंतर्राष्ट्रीय सराहना चयन के दौरान उसके पक्ष में रही होगी.

‘कोर्ट’  में कविताओं को शामिल किया है, जिन्हें अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम माना जाता है. हालांकि फिल्म के गीत और कविताएं मराठी में हैं, जो अंग्रेजी भाषा के किसी भी दर्शक के दिल को नहीं छू सकते. क्या आपको लगता है कि बहुभाषी फिल्म को इस बात का नुकसान उठाना पड़ता है कि दर्शकों तक वह  असल अभिव्यक्ति नहीं पहुंच पाती, जो फिल्म की मूल भाषा से पहुंचती है?

एक भाषा का मर्म उसके किसी और भाषा में अनुवाद होने के बाद हमेशा खत्म हो जाता है. किसी फिल्म के सबटाइटल लिखते वक्त ये एक बड़ी चुनौती है, जिसका सामना हमें करना पड़ता है. कभी कभी तो ये भाषा बनाम सिनेमा के टकराव जैसी स्थिति हो जाती है. ‘कोर्ट’ के गीत समेत संवादों को सबटाइटल करने का काम पत्रकार और नाटककार रामू रामनाथन ने किया. इस प्रक्रिया में हमारा बहुत समय भी खर्च हुआ. हालांकि आप सही हैं. इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि अनुवाद कितना अच्छा हुआ है. अनुवाद कितना भी अच्छा हो अंतर्राष्ट्रीय भाषा के दर्शकों तक पहुंचने में मूल भाषा की सुंदरता और उसकी संस्कृति हमेशा कहीं खो जाती है.

फिल्म को उसके निर्मम यथार्थवादी चित्रण की वजह से चुना गया. क्या आपको इस बात की चिंता थी कि कहीं इस तरह के चित्रण से दर्शक फिल्म से जुड़ नहीं पाएंगे, वे दर्शक जो अदालत की प्रक्रियाओं को नाटकीय अंदाज में देखने के अभ्यस्त हो चुके हैं?

नहीं, ऐसा नहीं है. मैं इस बात को लेकर ज्यादा सतर्क था. मैं ऐसा कुछ चाहता था जिससे अदालत की प्रक्रियाओं के नाटकीय होने को टाला जा सके. वास्तव में, मैं चाहता था कि फिल्म के किरदारों, दृश्यों और संवादों का यथार्थवादी चित्रण हो. एक फिल्म या तो पसंद की जाती है या फिर नहीं. निजी तौर पर मैं उन फिल्मों की ही सराहना करता हूं जिनमें वास्तविकता का अंश हो. फिल्म को लेकर दर्शकों का ध्यान खो देने का डर मुझे कभी नहीं रहा. हां, ये हमने महसूस किया कि इस तरह की समझ और शैली सबके बस की बात नहीं, लेकिन हमें इससे कोई दिक्कत नहीं थी.

‘कोर्ट’  में मशहूर लेखक फ्रांज़ काफ्का की एक विशेष झलक मिलती है. फिल्म के लिए किया गया आपका शोध किस तरह भारतीय न्याय व्यवस्था के करीब है?

फिल्म में दिखाई गई अदालत वास्तव में सिर्फ एक कल्पना है, एक ऐसी कल्पना जिसके दम पर इसकी कहानी कहने में मुझे आसानी हुई. अदालत की प्रक्रियाओं के संबंध में हमने अपनी ओर से कुछ स्वतंत्रता ली है. शुरू से ही मैंने तय कर लिया था कि मैं अपनी फिल्म की कहानी में वास्तविकता का गैरजरूरी दबाव नहीं आने दूंगा. इसलिए मैं कहूंगा कि फिल्म में भारतीय अदालतों को कुछ हद तक महसूस किया जा सकता है.

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बूढ़े लोकगायक की अदालती जद्दोजहद

‘कोर्ट’ चैतन्य तम्हाणे की पहली फिल्म है.  28 साल के चैतन्य ने मीठीबाई कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में डिग्री ली है. फिल्ममेकिंग की किताबों में गहरी दिलचस्पी रखने वाले चैतन्य इससे पहले एकता कपूर के प्रोडक्शन हाउस बालाजी टेलीफिल्म्स के साथ काम कर चुके हैं. साथ ही उन्होंने ‘सिक्स स्ट्रैंड्स’ नाम की एक शॉर्ट फिल्म भी बनाई थी, जिसे उन्होंने कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रदर्शित किया था. ‘कोर्ट’ एक बूढ़े लोकगायक की एक स्थानीय अदालत में चल रही जद्दोजहद दिखाती है, जहां उस गायक पर एक सफाई कर्मचारी को आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप है. फिल्म में सफाई कर्मचारियों और अदालतों की दुर्दशा भी दर्ज है. ‘कोर्ट’ फिल्म का प्रदर्शन पहली बार पिछले साल सितंबर में  71वें वेनिस फिल्म समारोह में किया गया था, जिसके बाद से विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर फिल्म ने कुल 18 अवॉर्ड जीते हैं. वेनिस फिल्म समारोह में इसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म और तम्हाणे को ‘लॉयन ऑफ द फ्यूचर’ सम्मान मिला, वहीं विएना अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में भी ‘कोर्ट’ सर्वश्रेष्ठ फिल्म घोषित की गई.

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Court-Indian-Posterआप कह चुके हैं कि आपकी फिल्म आलोचना नहीं है. हालांकि  ‘कोर्ट’  की सराहना इसलिए ज्यादा हुई क्योंकि इसमें भारतीय न्याय व्यवस्था पर टिप्पणी की गई है. इसे किस तरह से देखते हैं?

यह एक रोचक सवाल है. किसी संस्था से ज्यादा मेरा ध्यान मानवीय पहलू पर था. या यूं कह सकते हैं कि मेरी दिलचस्पी मशीन से ज्यादा उसके कलपुर्जों में है. वैसे भारतीय न्याय व्यवस्था की कमियां दिखाने के लिए आपको किसी काल्पनिक फिल्म की जरूरत नहीं. मेरे लिए सिनेमा अकादमिक होने से ज्यादा प्रयोगधर्मी और भावुक माध्यम है. इसलिए भारतीय न्याय व्यवस्था पर टिप्पणी के लिए जब भी फिल्म की सराहना होती है तो मैं सोचता हूं कि यह लोगों से प्रभावी तौर पर जुड़ने में नाकाम रही. फिल्म निश्चित रूप से कमियों को छूती है, लेकिन मेरे दिमाग में फिल्म का मूल अर्थ ये नहीं था.

गैर कलाकारों के साथ काम करने और उनके साथ लगातार लंबे दृश्य फिल्माने के अपने निर्णय के बारे में क्या कहेंगे ?

शुरुआत से ही मैं इस बात को लेकर स्पष्ट था कि मैं फिल्म के लिए जितना संभव हो सकेगा उतने गैर कलाकार लूंगा. समाज के कई तबकों से हमने लोगों को चुना, जिसमें शिक्षक, बैंकर, चपरासी, टैक्सी ड्राइवर और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थे. फिल्म के कलाकारों के लिए ऑडिशन लेने और उन्हें चुनने में ही एक साल का समय गुजर गया. कई बार यह प्रक्रिया काफी कठिन लगती थी. सबसे बड़ी चुनौती इन लोगों से चार से पांच मिनट के संवाद बिना किसी रुकावट के बुलवाना था. अगर कोई भी एक संवाद बोलने में गलती करता था तो हमें पूरी प्रक्रिया फिर से दोहरानी पड़ती थी. इस प्रक्रिया ने न सिर्फ हमारे धैर्य की परीक्षा ली बल्कि फिल्म की शूटिंग का समय और बजट भी बढ़ाया. लेकिन हां, मुझे लगता है कि इस मेहनत का प्रतिफल भी मिला. इन गैर कलाकारों ने फिल्म में अपनी जिंदगी के अनुभवों को समेटा है, जिसनेे फिल्म को एक अलग ही रंग दिया है. इसके अलावा इन गैर कलाकारों में दूसरे अभिनेताओं की तरह किसी भी तरह की असुरक्षा की भावना नहीं थी, इसलिए उनके साथ काम करना काफी आसान रहा. एक निर्देशक और कलाकार के संबंधों के अलावा इंसान होने के नाते भी यह एक तरह का समृद्ध अनुभव था. मुझे कभी भी ऐसा मौका नहीं मिलता कि मैं समाज के अलग-अलग तबकों से आने वाले लोगों से बातचीत करता और उनके साथ घुलमिल पाता.

क्या आप इस तरह के सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर काम जारी रखेंगे?

मैंने इस तरह की कोई कसम नहीं खाई है. न तो ऐसा मेरा एजेंडा है और न ही मैं इस तरह के खांचों में खुद को सीमित रखना चाहता हूं. ऐसा कहा जाता है कि मैंने इस तरह के सामाजिक-राजनीतिक तत्वों को महसूस करते हुए फिल्म की स्क्रिप्ट में शामिल किया था. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जब आप एक बार इस तरह की वास्तविकता से परिचित हो जाते हैं तो उन्हें नकारना कठिन होता है.

 

‘यह लोकतंत्र के रूप में नया राजतंत्र है’

svami mukteshvaranandबनारस अब तो शांत दिख रहा है लेकिन सुना जा रहा है कि अंदर ही अंदर अभी माहौल गर्म है. ये उपद्रव आपके नेतृत्व में निकली अन्याय प्रतिकार यात्रा के कारण हुआ, जिसमें पुलिस ने लाठीचार्ज किया और बाद में कर्फ्यू भी लगा. क्या आगे भी ऐसी कोई यात्रा निकालने की योजना है?

अन्याय प्रतिकार यात्रा और उसके बाद संतों का सम्मेलन दोनों ही ऐतिहासिक रहे. काशी में उस दिन वर्षों बाद दलगत और संगठनागत भावना से ऊपर उठकर सनातन समाज एक हो गया. साधु-संतों ने एकजुटता दिखाई. अब जब ऐतिहासिक कदम उठ गए हैं तो लड़ाई आगे भी जारी रहेगी लेकिन अब लड़ाई का तरीका बदल देंगे क्योंकि इस तरीके में सरकार को अराजकता फैलाने में सहूलियत मिल जाती है. मगर हम अपनी आवाज बंद नहीं करेंगे.

आपने 15 दिन पहले से ही अन्याय प्रतिकार यात्रा की घोषणा कर दी थी, फिर उस रोज इस यात्रा में हिंसा क्यों फैली? क्या आपकी तैयारी पूरी नहीं थी?

हमारे लोग तो वहां पहुंच भी नहीं सके थे, जहां से हंगामे की शुरुआत हुई. हंगामे की शुरुआत गोदौलिया चौक से हुई और तब तक हमारे लोग पीछे ही थे. वहां पहले से ही भारी संख्या में पुलिसवाले और हजारों लोग मौजूद थे. अब वे हजारों लोग कौन थे, जिन्होंने माहौल को इस कदर खराब कर दिया, ये तो जांच से ही पता चलेगा. हम चाहते हैं कि सरकार इसकी निष्पक्ष जांच करवाए.

आपके धुर विरोधी रहे विश्व हिंदू परिषद और दूसरे संगठन भी आपकी इस यात्रा में साथ थे और आपके अनुसार हिंसा में आपके लोग शामिल नहीं थे. ऐसे में आपको अराजकता फैलाने का संदेह किस पर है?

ये कैसे कहें. बिना जांच के कुछ कहना ठीक नहीं, लेकिन मैं बार-बार कहूंगा कि सरकार को जांच करवानी चाहिए कि ये कौन लोग थे, जिन्होंने एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन को हिंसा में बदल दिया. फिर पुलिस ने माहौल को और बिगाड़ दिया. हां, इतना जरूर कहूंगा कि राज्य सरकार का रवैया शुरू से सहयोगपूर्ण नहीं था.

सरकार उनसे बात कर ले, जिन पर लाठियां चली हैं ताकि उनके मन में पुलिस-प्रशासन के बारे में बनी धारणा टूटे वरना कल को वे बच्चे ही तो नक्सली बनेंगे

इस यात्रा में साध्वी प्राची भी आईं थीं, जबकि उस खेमे के लोग राम जन्मभूमि आंदोलन के समय से ही आपके विरोधी रहे हैं. ये कैसे संभव हुआ?

अन्याय प्रतिकार यात्रा के करीब एक पखवाड़े पहले मैं पुलिस के लाठीचार्ज का शिकार हुआ था. जाहिर है, चोट लगी थी और मैं अस्पताल में भर्ती था. तब एक संत साथी होने के नाते साध्वी प्राची मुझे देखने अस्पताल आई थीं. उसी समय उन्होंने कहा था कि वे भी यात्रा में शामिल होंगी. हमने तब ही शर्त रख दी थी कि अगर वे आएंगी तो मर्यादा में रहकर ही बोलेंगी. फिर जब वे मंच पर आईं और जैसे ही मुसलमानों के बारे में कुछ बोलने की शुरुआत की, मैंने उनसे माइक छीन लिया.

यह भी अजीब है कि आपकी अन्याय प्रतिकार यात्रा में तो साध्वी प्राची समेत विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों के कई नामी लोग शामिल हुए, जबकि कुछ दिन पहले जब आप पर पुलिस का लाठीचार्ज हुआ था तो स्वामी जीतेंद्रानंद और शंकराचार्य स्वामी नरेंद्रानंद जैसे लोगों ने आपके विरोध में बयान दिए थे. 

अब जिसने भी विरोध किया और जो भी बोला, उसे बनारस के लोगों ने गंभीरता से नहीं लिया और न ही काशी विद्वत परिषद ने उन बातों पर कुछ कहा.

गणेश चतुर्थी के बाद आपने धरना-प्रदर्शन इसलिए शुरू किया ताकि गणेश प्रतिमाओं को गंगा में विसर्जित करने दिया जाए और कोर्ट के साफ आदेश हैं कि गंगा में प्रतिमा विसर्जन नहीं होगा. तो क्या आप कोर्ट के आदेश को नहीं मानना चाहते? जब ये आदेश आया तब ही इसे चुनौती क्यों नहीं दी?

धरना-प्रदर्शन की शुरुआत हमने नहीं की थी. हमने तो दो दिनों तक देखा-सुना कि गणेशजी की प्रतिमा विसर्जित होने के लिए गई है और प्रशासन ने गोदौलिया और दशाश्वमेध घाट के बीच में उसे रोक दिया है. अधिकारी मेरी बात सुनते नहीं, जो उनसे आग्रह करता. नेता भी मेरी बात नहीं सुनते. मुझे यह ठीक नहीं लगा कि मैं अपने कमरे में सोया रहूं और गणेशजी की प्रतिमाएं सड़क पर विसर्जन का इंतजार करती रहें. तब मैं भी अपने मठ से बटुकों के साथ गया लेकिन वहां तो पुलिस ने लाठीचार्ज कर मामले को दूसरी ही दिशा में मोड़ दिया. रही बात कोर्ट के आदेश को चुनौती देने की तो इस मामले में कोर्ट के आदेश की कोई जानकारी ही नहीं थी. वह तो गणेशजी की प्रतिमा को बीच सड़क पर रोका गया, तब हम इस बारे में जान सके.

लाठीचार्ज के बाद ही आपने इस यात्रा का ऐलान कर दिया था, तब से लेकर अब तक काफी समय था. क्या इस बीच यात्रा रोकने के लिए सरकार ने आपसे बात नहीं की?

लाठीचार्ज कराना सीधे-सीधे राज्य सरकार का मामला था. हमने यही कहा भी था कि डंडा चलाने वाला दोषी नहीं बल्कि दोषी सरकार है, जिनके नियंत्रण में डंडा चलाने वाले हैं. वह इस विषय पर बात करें. हमने कभी नहीं कहा कि प्रदेश के मुखिया माफी मांगे, सिर्फ यह कहा कि संवाद स्थापित किया जाए. कम से कम उन बच्चों से, जो उस धरने में शामिल थे और जिन पर पुलिस ने बेरहमी से लाठियां चलाईं. उस लाठीचार्ज का वीडियो बना, यूट्यूब पर गया, जिसे देश ने और लाखों बच्चों ने देखा. हमारी शर्त तो सिर्फ यही थी कि सरकार उन बच्चों से बात कर ले, जिन पर लाठियां चली हैं ताकि उनके मन में पुलिस और प्रशासन के बारे में बनी धारणा तो टूटे, वरना कल को वे बच्चे नक्सली ही तो बनेंगे. लेकिन सरकार ने तो बात ही नहीं की.

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सुना तो यह गया है कि यात्रा के समय मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने आपसे बात करने की कोशिश की थी पर आपने मना कर दिया.

हम जब यात्रा पर निकल चुके थे तब उनके लोगों ने बताया कि मुख्यमंत्री बात करना चाहते हैं. हमने बातचीत के लिए दिन के 12 बजे तक का ही समय निर्धारित किया था, उसके बाद बात करने के लिए न तो समय था और न ही उसका कोई अर्थ होता.

मुख्यमंत्री ने इस मसले पर कुछ नहीं कहा पर बनारस तो प्रधानमंत्री मोदी का संसदीय क्षेत्र है. प्रधानमंत्री, जो दुनियाभर के मसलों पर ट्वीट करते रहते हैं, काशी में हुए इस बवाल पर वे भी चुप हैं. इस पर आपका क्या कहना है?

प्रधानमंत्री से क्या उम्मीद करें, जबकि सब जानते हुए भी मुख्यमंत्री ही चुप्पी साधे रहे. यह दुर्भाग्यपूर्ण है. हम तो मुख्यमंत्री से ज्यादा उम्मीद लगाए हुए थे कि वे इस मामले का समाधान निकालेंगे. और फिर क्या मुख्यमंत्री, क्या प्रधानमंत्री! यह लोकतंत्र के रूप में नया राजतंत्र है, जहां लोगों को अपने लोगों से ही फुर्सत नहीं. सभी अपने परिवार में उलझे हुए हैं. राजतंत्र इसलिए खत्म हुआ कि तानाशाही खत्म होगी लेकिन ये लोकतंत्र तो और ज्यादा खतरनाक राजतंत्र बनता जा रहा है. पहले के राजा रात में वेष बदलकर प्रजा का सुख-दुख जानने भी निकलते थे, अब के राजाओं को तो प्रजा के सुख-दुख से कोई मतलब ही नहीं.

काल के गाल में नौनिहाल

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फोटो: विजय पांडेय

ओडिशा के व्यावसायिक केंद्र कटक स्थित सरदार वल्लभ भाई पटेल पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टिट्यूट ऑफ पेडियाट्रिक्स, जो कि शिशु भवन के नाम से मशहूर है, में पहुंचते ही आपको एक गंध घेर लेती है. ये वही गंध है जिससे देशभर के किसी भी सरकारी अस्पताल में आपका सामना होता है. दीवारों से उखड़ा रंग, लोगों से भरे वार्ड, इनक्यूबेटर में लेटे बच्चे और उनके बेबस, चिंतित व निराश मां-बाप जो अपने बच्चे की परेशानियों के खत्म होने का इंतजार कर रहे हैं. उपेक्षा और डर से भरे इन दृश्यों में झलकती कराह आपको भावुक कर देती है. ये अस्पताल बाल रोगों के इलाज के लिए जाना जाता है.

ये वही जगह है जहां अगस्त के दो हफ्तों में 69 नवजात बच्चों की मौत हुई है, जिसके विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं और बच्चों की मृत्यु का कारण जानने के लिए जांच की मांग भी की जा रही है. किसी भी राज्य, भले ही वो शिशु मृत्यु दर में सिर्फ एक प्रदेश (मध्य प्रदेश) से पीछे हो, के लिए भी ये आंकड़े डरावने ही होंगे. साथ ही दिलचस्प बात ये भी है कि 2013-14 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार मध्य प्रदेश और ओडिशा दो ऐसे राज्य हैं जहां गरीब ग्रामीण आबादी सबसे अधिक है और जो अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित रहते हैं.

जब ‘तहलका’ की ओर से इस अस्पताल का दौरा किया गया तो और भी क्षुब्ध करने वाले तथ्य सामने आए, जो दिखाते हैं कि कैसे एक प्रमुख सरकारी अस्पताल शिशु मृत्यु दर से लड़ने के लिए प्रयासरत है जबकि वहां भर्ती हुए शिशुओं की संख्या के कोई कम्प्यूटरीकृत मेडिकल रिकॉर्ड ही नहीं हैं.

गौर करने वाली बात ये है कि राज्य के गंभीर रूप से बीमार बच्चों को कटक के शिशु भवन में भेजा जाता है. राज्य में बेहतर बाल चिकित्सा के लिए मशहूर इस अस्पताल में नवजात से लेकर 14 साल तक के बच्चों का इलाज किया जाता है. 416 बिस्तरों वाले इस अस्पताल में 21 आईसीयू हैं. बताया जाता है कि अधिकतर शिशुओं की मौत ऐस्फिक्सिया यानी श्वास अवरोध (ये ऐसी अवस्था है जिसमें शरीर में ऑक्सीजन सही तरीके से नहीं पहुंच पाती, जिसकी वजह से सांस लेने में परेशानी होती है, कई अंग सही से काम नहीं कर पाते. बच्चों में अगर जन्म से ये बीमारी हो तो मस्तिष्क को भी खासा नुकसान होता है), समय से पहले जन्म, रक्त विषाक्तता और दिमागी बुखार से हुई है. हालांकि अस्पताल के अधिकारियों का दावा है कि जब बच्चों को दूसरे अस्पतालों से यहां लाया गया था तब ही उनकी हालत काफी गंभीर थी, तो ऐसे में उनके बच पाने की उम्मीद क्षीण ही थी. ये दावा अस्पताल और सरकार द्वारा बच्चों की मौत की जिम्मेदारी टालने से ज्यादा कुछ नहीं लगता.

यहां ये जानना जरूरी है कि आखिर ये बच्चे शिशु भवन आए ही क्यों? ये सबूत है कि सरकार राज्य भर में पर्याप्त और प्रभावी स्वास्थ्य सुविधाएं देने, साथ ही आसपास के इलाकों में नाजुक हालत के मरीजों की देखभाल में असफल रही है. अच्छे इलाज की आशा में अभिभावक विभिन्न रोगों से जूझ रहे अपने बच्चों को गंभीर हालत में शिशु भवन लेकर आते हैं.

अस्पताल में मिले मनोज कुमार साहू के मामले को देखा जाए तो पता चलता है कि कैसे जिला अस्पताल समय पर सही इलाज देने में नाकाम हैं. मनोज पुणे में प्लम्बर हैं. वह बताते हैं कि कैसे दक्षिणी ओडिशा के कोरापट जिले से वो अपनी लगभग मृतप्राय बेटी को लेकर शिशु भवन पहुंचे थे. उनके अनुसार, ‘बच्ची को जन्म के छठे दिन से ही बुखार आने लगा, हमने उसे जिला अस्पताल में भर्ती करवाया पर उसकी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ. तब डॉक्टरों ने हमें उसे शिशु भवन ले जाने को कहा. हमने एक हजार रुपये देकर एम्बुलेंस किराये पर ली जिससे हम बच्ची को शिशु भवन ले जा सकें. हमें कटक पहुंचने में पूरा दिन लग गया. तब तक मेरी बेटी लगभग मर ही चुकी थी, उसमें कोई हलचल नहीं हो रही थी. यहां डॉक्टरों ने उसे फौरन आईसीयू में भर्ती किया. अगर हमारे जिले में कोई अच्छा अस्पताल होता तो शायद मेरी बेटी बच जाती!’ मामला जितना दूरदराज का और जितने गरीब इलाके का होता है त्रासदी उतनी ही बड़ी होती है. अगर दूरी को छोड़ भी दें तो इलाज की कीमत (क्या आपको लगता है सरकारी अस्पताल सस्ते होते हैं?) देने में किसी परिवार, जो बमुश्किल दो जून की रोटी जुटाता है, की कमर टूट जाती है और कर्ज का कभी न खत्म होने वाला चक्र शुरू हो जाता है. उदाहरण के तौर पर देखें तो अभिभावक को पहले आईसीयू की 250 रुपये फीस देनी होती है, जो पांच दिनों के बाद बढ़कर 500 रुपये हो जाती है. इसके अलावा वेंटिलेटर के लिए भी 500 रुपये देने होते हैं. साथ ही ग्लूकोज आदि की बोतल के लिए भी 300-400 रुपये भरने पड़ते हैं. यहां उस राज्य की बात हो रही है, जहां इस साल के अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पर सरकार ने गैर प्रशिक्षित मजदूरों (इसमें खेतिहर मजदूरी भी शामिल है, जिस पर सबसे ज्यादा आबादी निर्भर है) की न्यूनतम मजदूरी 150 से बढ़ाकर 200 रुपये रोजाना की है, अर्द्ध-कुशल मजदूरों की 170  से बढ़ाकर 220 रुपये रोजाना और प्रशिक्षित मजदूरों की 190 से बढ़ाकर 240 रुपये रोजाना प्रतिदिन की गई है. चिकित्सा के ये खर्चे उस समय और घातक लगने लगते हैं जब ये पता चले कि ओडिशा की एक तिहाई ग्रामीण आबादी (35.79 फीसदी) 32 रुपये रोजाना (देश का आधिकारिक गरीबी रेखा पैमाना) की आय से भी कम पर गुजारा करती है. प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 1,003 रुपये है जो दिखाता है कि ग्रामीण ओडिशा देश में सबसे कम खर्चा करने वाला भाग है, जहां परिवारों की कुल आय का लगभग 57 फीसदी हिस्सा खाने पर व्यय होता है.

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प्रदीप प्रधान, ‘राइट टू फूड कैम्पेन’ के कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने हाल ही में अपनी रिपोर्ट ओडिशा के राज्यपाल को सौंपी है. इसमें साफ बताया गया है कि कैसे बीपीएल कार्ड धारकों को शिशु भवन में इलाज करवाने में परेशानियों का सामना करना पड़ता है. उदाहरण के लिए वो बताते हैं, ‘कोरापट जिले के जयपुर के एक बीपीएल कार्डधारक अपने तीन साल के बच्चे के इलाज के लिए शिशु भवन आए थे. बाहर काउंटर पर बैठे स्टाफ ने उनसे खून की जांच के लिए फीस मांगी, जब उन्होंने अपना बीपीएल कार्ड दिखाते हुए कहा कि उन्हें मुफ्त इलाज की सुविधा है, तब स्टाफ ने उन्हें गाली देते हुए कहा, या तो फीस भरो या निकल जाओ. आखिर में उन्हें 190 रुपये भरने पड़े.’

इस रिपोर्ट के अनुसार, अस्पतालों के अधिकारी इस बात से अनभिज्ञ हैं कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना और बीजू कृषक कल्याण योजना (वर्तमान मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के पिता और पूर्व मुख्यमंत्री बीजू पटनायक के नाम पर ओडिशा के किसानों के लिए शुरू की गई स्वास्थ्य बीमा योजना) के तहत मुफ्त इलाज की सुविधा दी गई है. इस तरह अस्पताल के अधिकारियों द्वारा गरीब लोगों की एक बड़ी आबादी को उनको मिले मुफ्त इलाज के अधिकार से वंचित रखा जाता है. वहीं इतना सब होने के बावजूद राज्य सरकार का दावा है कि उनके पास इन मौतों से निपटने के पर्याप्त संसाधन हैं. इससे भी खराब ये है कि चिकित्सा अधिकारी इस बात को कहते हुए बड़ा गर्व महसूस करते हैं कि कम से कम उनकी स्थिति मध्य प्रदेश से तो अच्छी है. सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुसार चाइल्ड केयर यूनिट में मृत्यु दर 15 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती. कटक के शिशु भवन में मृत्यु दर का आंकड़ा 13 प्रतिशत है जबकि जबलपुर मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल में ये आंकड़ा 24 प्रतिशत है. भोपाल और डिब्रूगढ़ (असम) में ये आंकड़ा क्रमशः 19 और 13 प्रतिशत है. प्रदीप प्रधान बताते हैं, ‘खराब प्रशासन के साथ यहां डाॅक्टरों और अन्य मेडिकल स्टाफ की भारी कमी है, जिससे इलाज का स्तर गिरता ही जा रहा है. पर अस्पताल और राज्य के अधिकारी इस बात को मानने को तैयार ही नहीं हैं.’

बच्चों की बढ़ती मौतों का कारण जानने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने तीन डॉक्टरों के एक जांच दल को शिशु भवन भेजा. स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है, ‘21 से 26 अगस्त 2015 के बीच हुई बच्चों की मौत के मामलों को जांच दल के सदस्यों ने देखा है, साथ ही वाॅर्ड, आईसीयू और लैब सुविधाओं का भी मुआयना किया.’

हालांकि भाजपा नेता बिजय मोहपात्रा का कहना कुछ और ही है. उनका आरोप है कि जब जांच दल भुवनेश्वर एअरपोर्ट पहुंचा तब राज्य सरकार के स्वास्थ्य सचिव ने उन्हें लौट जाने को कहा. बिजय बताते हैं, ‘सचिव ने दावा किया कि उनके पास इस समस्या से निपटने के पर्याप्त संसाधन हैं, साथ ही दल को इस मामले की विस्तृत रिपोर्ट भेजने को भी कहा, जो बाद में उन्होंने भेजी भी.’ स्वास्थ्य मंत्रालय की इस टीम ने अस्पतालों को गंभीर मामलों से और बेहतर तरीके से निपटने के लिए कई सुझाव भी दिए हैं. जैसे- बीमार बच्चों को मॉनिटर करने के लिए और ज्यादा वरिष्ठ डाॅक्टरों को लाया जाए, जिसमें शिशु रोग विभाग के लिए एक एमडी (डॉक्टर ऑफ मेडिसिन) भी हो, गंभीर मामलों और इमरजेंसी के समय अस्पताल के अंदर ही 24 घंटे लैब सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं, लैब टेक्नीशियनों की नियुक्ति की जाए, रेडियोग्राफर और पैरामेडिकल स्टाफ सुविधा चौबीस घंटे उपलब्ध हों, जीवन रक्षक और उच्च एंटीबायोटिक दवाएं मुफ्त दी जाएं, अधिक नर्सिंग स्टाफ तैनात किए जाएं, खासकर इमरजेंसी केसों में. साथ ही किसी भी प्रकार के संक्रमण से बचने और उसकी पहचान की व्यवस्था और एक कम्प्यूटरीकृत मेडिकल रिकॉर्ड सिस्टम, जहां डाटा और जांच रिपोर्टों को किसी भी समय देखा जा सके. अगर प्री-इंटेंसिव केयर यूनिट (प्री-आईसीयू) में जाकर देखें तो अभिभावक बच्चों के इनक्यूबेटर के पास बैठे हैं. उनका सामान मशीन के नीचे रखा है, वो नवजात बच्चों को छू भी रहे हैं, जो कि खतरनाक है क्योंकि इससे उनमें संक्रमण होने का खतरा रहता है. यहां ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जो अभिभावकों को बताए कि क्यों उन्हें बच्चों को छूना नहीं चाहिए. साथ ही बीमार बच्चों की संख्या ज्यादा होने की वजह से एक ही इनक्यूबेटर में दो बच्चे हैं जो कि ठीक नहीं है क्योंकि इससे भी बच्चों में संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है.

ओडिशा में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति और साफ तौर पर देखने के लिए ‘तहलका’ ने मध्य ओडिशा के कंधमाल जिले का भी जायजा लिया. यहां का सबसे बड़ा जिला अस्पताल फुलबनी में है, जहां कुछ महीनों पहले तक एक डॉक्टर भी नहीं था. भुवनेश्वर से 250 किमी दूर फुलबनी प्रमुख रूप से एक आदिवासी जिला है. कंधमाल में 14 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और 34 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं पर कहीं भी बाल रोग विशेषज्ञ नहीं है.

कुपोषण पर काम कर रहे एक स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता अशोक परिदा बताते हैं, ‘मौत के बहुत सारे मामले तो रिपोर्ट ही नहीं होते क्योंकि इन सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर रिकॉर्ड बनाने की कोई व्यवस्था ही नहीं है. अक्सर जिला अस्पताल तक पहुंचने से पहले ही बच्चे की मृत्यु हो जाती है. कंधमाल में सिर्फ पांच महीनों में 226 बच्चों ने जान गंवाई क्योंकि यहां कोई डॉक्टर ही नहीं था. जब इन मौतों की खबर सुर्खियों में आई तब जाकर एक बाल रोग विशेषज्ञ को यहां भेजा गया वरना यहां के अधिकारी तो इस तरह की मौतों के मामले को दबा देने में अभ्यस्त हैं.’ बच्चों की मृत्यु का कारण श्वास अवरोध और समय पूर्व जन्म है. शिशु मृत्यु दर का सीधा संबंध माता के स्वास्थ्य से है. जिन महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान संक्रमण या एनीमिया (खून की कमी) होती है, वो अक्सर कमजोर बच्चों को जन्म देती हैं जो ज्यादा नहीं जीते. इस समस्या की गंभीरता जानने के लिए ‘तहलका’ ने फुलबनी के पास सर्तगुड़ा गांव जाकर उन महिलाओं से मुलाकात की, जिन्होंने हाल ही में बच्चे को जन्म दिया है. इन महिलाओं में अधिकतर अंडरवेट यानी तय मानकों से कमजोर थीं, उनका विवाह 16 साल से भी कम उम्र में हो गया था, वे तीन से चार बार पहले भी मां बन चुकी थीं, जहां कई बार उन्हें मृत शिशु भी पैदा हुए. सरकार की स्वास्थ्य योजनाएं, जिनका प्रेस में तो व्यापक प्रचार हो रहा है, की जमीनी सच्चाई यहां देखी जा सकती है. राज्य के महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय द्वारा चलाई जा रही ममता योजना के हिसाब से एक उपयुक्त गर्भवती महिला को उनकी और नवजात के पोषण और देखभाल के लिए चार किश्तों में 5000 रुपये की धनराशि आर्थिक मदद के रूप में दी जाएगी. ये योजना सुनने में भले ही उत्कृष्ट लगे, इसका कार्यान्वयन उतना अच्छा नहीं है. एक गर्भवती सौदामिनी मलिक को पिछले दो महीनों में कोई धनराशि नहीं मिली है.

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परिदा बताते हैं, ‘गर्भवती और धात्री (दूध पिलाने वाली) माताओं को तकरीबन दो सालों से कोई धनराशि नहीं मिली है. दूसरी समस्या ये है कि जिले के स्वास्थ्य उपकेंद्रों पर बमुश्किल ही कोई एएनएम (सहायक दाई) है.’ गांव की महिलाओं ने बताया कि आशा कार्यकत्रियाें द्वारा बहुत ही कम महिलाओं को नियमित रूप से आयरन सप्लीमेंट मिल पाता है क्योंकि स्वास्थ्य कर्मचारियों द्वारा इसका ध्यान ही नहीं रखा जाता.

हालांकि राज्य सरकार द्वारा इन इलाकों में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं पर जमीन पर उनके पास दिखाने को कुछ नहीं है. इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों में मातृ-शिशु मृत्यु दर में थोड़े ही बदलाव देखे गए हैं. इन जिलों में खाद्य असुरक्षा अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा संकट है. सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं को इनके वांछित परिणामों को पाने में अभी और समय लगेगा. उदाहरण के लिए, यहां गांव वालों से सुनी जा सकने वाली सबसे सामान्य शिकायत ये है कि केंद्र सरकार के महिला एवं बाल विकास कल्याण मंत्रालय द्वारा चलाई जा रही समेकित बाल विकास सेवा के तहत बच्चों और महिलाओं को दिए जाने वाला सत्तू अच्छी गुणवत्ता का नहीं होता. इस साल जनवरी में, भोजन के अधिकार (राइट टू फूड) अभियान की टीम ने एक निश्चित इलाके के कई प्राथमिक विद्यालयों और आंगनबाड़ी केंद्रों का मुआयना किया. उन्होंने पाया कि एक गांव में कोई आंगनबाड़ी केंद्र नहीं था और नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र भी तकरीबन 2 किमी दूर था. ऐसे स्थानों पर छोटे आंगनबाड़ी केंद्र खोलने का प्रस्ताव रखा गया था पर सरकार इस पर सिर्फ विचार करती ही दिख रही है. कई आंगनबाड़ी केंद्रों के पास संचालन के लिए कोई इमारत ही नहीं है और यदि है तो बहुत ही जीर्ण-शीर्ण हाल में है.

गर्भवती और धात्री माताओं को जितना पोषण मिलना चाहिए, उतना उन्हें नहीं मिल रहा है. महीने में उन्हें आठ अंडों की खुराक मिलनी चाहिए पर उन्हें सिर्फ चार से छह अंडे मिल रहे हैं. बच्चों को सत्तू के दो पैकेट की बजाय सिर्फ एक ही पैकेट मिल रहा है. साफ है कि समेकित बाल विकास सेवा में समुचित पोषण देने में हो रही अव्यवस्थाओं और भ्रष्टाचार के चलते बच्चों पर असमय मौत का साया मंडराने लगता है. इन सब के बावजूद राज्य सरकार को गर्व है कि देशभर में शिशु मृत्यु दर के आंकड़े में मध्य प्रदेश ओडिशा से आगे है.

‘लालू सत्ता में वापस आते हैं तो यादव फिर शक्तिशाली हो जाएंगे’

Sibal gupta bi vijay pandey

पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार राजग के सहयोगी के बतौर उतरे थे, जबकि इस बार वे लालू प्रसाद के साथ मिलकर भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के सामने उतर रहे हैं. आपका इस बार के विधानसभा चुनावों के बारे में क्या कहना है?

इस बार का चुनाव कुछ हद तक अनोखा है. नीतीश कुमार के खिलाफ सत्ता विरोधी कोई लहर नहीं है. वो ऐसे व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं, जो अपने वादों पर खरा उतरा है. वहीं भाजपा को भी सांप्रदायिक दल नहीं माना जाता क्योंकि राजग के रूप में ही नीतीश सात साल शासन कर पाए हैं और इन सालों में भाजपा के राजनीतिक और सांस्कृतिक एजेंडे ने कहीं भी उनके शासन को प्रभावित नहीं किया. तो भाजपा के खिलाफ भी कोई सत्ता विरोधी लहर नहीं दिखती है.

पिछले डेढ़ साल में राष्ट्रीय स्तर पर मोदी की चमक फीकी पड़ी है. हालांकि मैं हैरान हूं कि इससे बिहार में उनकी लोकप्रियता पर कोई असर नहीं पड़ा है. वे काफी संख्या में लोगों को आकृष्ट कर रहे हैं. फिर भी, अन्य राज्यों में उनके सामने इतने कद्दावर नेता नहीं थे. बिहार में उनके सामने एक ऐसा सफल नेता (नीतीश) है, जो 2019 के लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री पद का दावेदार हो सकता है. ऐसे में मोदी के लिए बिहार में जीत का सफर थोड़ा मुश्किल भरा होगा.

आम तौर पर माना जाता है कि बिहार की राजनीति में जाति एक प्रमुख भूमिका निभाती है. क्या इस बार भी ये निर्णायक कारक साबित होगी?

बिहार की राजनीति में जाति हमेशा से ही महत्वपूर्ण रही है. अब सवाल ये है कि इसका विन्यास क्या होगा? नीतीश कुमार पहले ही उस गठबंधन से अलग हो चुके हैं जहां अन्य पिछड़ा वर्ग और दलितों के साथ सवर्ण निर्णायक भूमिका में थे. यहां गौर करने वाली बात ये है कि जब भी राज्य में ऊंची जातियां एक साथ आकर गठबंधन करती हैं तो इसे जातिगत गठजोड़ नहीं कहा जाता पर जब हाशिये पर पड़ी, गरीब जातियां साथ आती हैं तो इसे फौरन जातिवादी गठबंधन होने का नाम दे दिया जाता है.

जातिगत समीकरण के बारे में क्या आप थोड़ा विस्तार से बता सकते हैं?

भाजपा का राष्ट्रीय आधार ऊंची जातियां हैं, जो कभी कांग्रेस का आधार हुआ करती थीं. इतिहास देखें तो भाजपा का आधार बनिया हुआ करते थे. हालांकि बिहार में भाजपा अब पिछड़ी जातियों से समर्थन मांगते हुए नजर आ रही है. उदाहरण के तौर पर देखा जाए तो भाजपा ने सम्राट अशोक को कोईरी जाति का घोषित करते हुए उनके नाम पर डाक टिकट जारी किया है. भाजपा इससे पहले जातिगत रैलियों का आयोजन भी करती रही है पर फिर भी वे यही कहते हैं कि वे जातिवादी नहीं हैं. इसलिए चुनाव में जाति एक महत्वपूर्ण घटक है.

महादलित समुदाय के बारे में आपका क्या कहना है? जीतनराम मांझी खुद को एकमात्र महादलित नेता कहते हैं, इसे आप क्या कहेंगे?

भाजपा यहां हाशिये पर पड़ी जातियों से समर्थन पाने के लिए काम कर रही है. मांझी को साथ लेने का उद्देश्य महादलित वोटरों को अपनी तरफ करना है. वैसे मांझी भाजपा के साथ इसलिए हुए क्योंकि नीतीश परिस्थितियों को सही तरह से संभाल नहीं पाए. व्यावहारिक तौर पर नीतीश ने ही मांझी को भाजपा के खेमे तक पहुंचाया.

भाजपा के उन आरोपों पर आपका क्या कहना है, जिसमें वह कह रही है कि अगर लालू-नीतीश सत्ता में वापसी करते हैं तो बिहार में जंगलराज वापस आ जाएगा?

1991 में जब लालू सत्ता में थे, पिछड़ी जाति और सामाजिक न्याय व्यवस्था पर आधारित यह तब का सबसे बड़ा गठबंधन था. तब बिहार अविभाजित था, उन्हें 54 सीटों में से 53 मिल सकती थीं, लेकिन चारा घोटाले में लालू के खिलाफ कोर्ट केस हुआ जिसके बाद उनका आधार सिर्फ यादव जाति तक ही सीमित रह गया. हालांकि राज्य में लालू के शासन के समय ही लोकतांत्रिकरण की शुरुआत हुई, उसके बावजूद बिहार पतन की ओर ही बढ़ता चला गया. राज्य में कई स्तरों पर भारी अव्यवस्थाओं और कानून व्यवस्था की कमी के चलते ऊंची जातियों ने ‘बड़े’ अपराध करने शुरू किए, वहीं यादव ‘छोटे’ अपराधों में लिप्त हो गए. उस दौर में जनता के एक बड़े वर्ग की सामान्य सोच यही थी. इसलिए अब इस बात का डर है कि अगर लालू यादव सत्ता में वापस आते हैं तो यादव फिर से शक्तिशाली हो जाएंगे.