समाज के तानों के खिलाफ महादलित महिलाओं की तान

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फोटो- कुमारी सीमा

सोना देवी आज भी याद करके सिहर जाती हैं कि कैसे उनके पति ने दाहिने गाल पर बेरहमी से थप्पड़ मारा था, जब उनको पता चला कि उनकी बीवी महादलित बैंड पार्टी में शामिल होकर बाजा बजा रही है. उस थप्पड़ की गूंज आज भी सोना देवी के कानों में गूंज रही है. दरअसल थप्पड़ के जरिए एक पुरुष ने अपनी बीवी को आगाह किया था, ‘हमें यह काम पसंद नहीं है.’ दुर्भाग्य से अनपढ़ पतिदेव शकुनी राम इस सच्चाई से वाकिफ नहीं थे कि नारी के कई रूपों में से एक रूप दुर्गा का भी है जिसके आगे सभी नतमस्तक हैं. वे जिस काम को करने की ठान लेती हैं, उसे अंजाम तक पहुंचाकर ही चैन की सांस लेती हैं. सोना देवी ने भी वही किया. इस जज्बे ने उनका बखूबी साथ दिया कि आखिर मेहनत, ईमानदारी और लगन से काम करने में बुराई क्या है?

सोना देवी के साथ बिहार की राजधानी पटना के नजदीक स्थित दानापुर प्रखंड के ढीबरा गांव की 12 महादलित महिलाओं ने अगस्त 2013 में सामूहिक रूप से एक क्रांतिकारी निर्णय लिया, जो सदियों से चली आ रही सामाजिक वर्जनाओं की मुखालफत करता है. इन खेतिहर मजदूर महिलाओं ने अपना म्यूजिकल बैंड बनाया है जो पटना के अलावा अन्य शहरों तथा सुदूर गांवों में जाकर बड़े-बड़े समारोहों में मजबूती से अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है. कई बार इस टीम ने मुख्यमंत्री के कार्यक्रम में भी अपनी पहचान दर्ज कराई है. नारी गुंजन संस्था के आर्थिक सहयोग से बना यह संगीतमयी समूह ‘संगम बैंड’ के नाम से मशहूर है. हालांकि बाद में घरेलू कारणों से दो महिलाएं इससे अलग हो गईं.

अभी इस समूह में 10 महिलाएं हैं जो गाती हैं और साथ-साथ बैंड भी बजाती हैं. इनमें सविता देवी, अनिता देवी, लालती देवी, पंचम देवी, चित्रलेखा देवी, सोना देवी, विजयन्ती देवी, डोमनी देवी, छठिया देवी और मान्ती देवी शामिल हैं. ये सब की सब विवाहित होने के अलावा ‘लिख लोढ़ा, पढ़ पाथर’ (अशिक्षित) हैं. फिर भी साठ साल की सावित्री देवी फख्र से कहती हैं, ‘मेरे लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर है, लेकिन डरम पर बजने वाली धुन को झट से पकड़ लेती हूं.’ टीम की बाकी सदस्यों की समझ भी ऐसी ही है. 38 साल की सावित्री देवी इस समूह की मुखिया हैं.

रविदास समाज से आने वाली ये महिलाएं खेतों में 10 घंटे मजदूरी करके प्रतिदिन 100 रुपये अर्जित करती थीं. इनके पति भी खेतिहर मजदूर हैं. बाल-बच्चेदार हो जाने के बाद इन गरीबों को घोर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा था और कोई कमाऊ रास्ता नहीं दिख रहा था. इसी बीच सविता देवी की मुलाकात सामाजिक, शैक्षणिक व आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं के लिए काम करने वाली दक्षिण भारतीय सुधा वर्गीज से होती है. सुधा की सलाह पर सविता अपने गांव की 16 महिलाओं को नारी गुंजन संस्था के मुख्यालय दानापुर लाती हैं जहां पर यह तय होता है कि समय निकालकर रोज ड्रम बजाने की ट्रेनिंग लेने आना है. संस्था ने ही अपने पैसे से इन्हें ड्रम खरीद कर दिया है.

आदित्य गौतम के निर्देशन में रोज एक घंटे का प्रशिक्षण तीन महीने तक लगातार चलता रहा. इन महादलित महिलाओं को कदम-कदम पर विरोध का सामना करना पड़ रहा था. गांव के मर्दों के ताने सुनते-सुनते कान पक गए थे. घर में भारी विरोध का सामना पड़ता था. 65 वर्षीय चित्रलेखा देवी बताती हैं, ‘हमारे पति कहते थे कि बुढ़ापे में नगाड़ा बजाने चली हो, इससे पेट नहीं भरेगा. यह मर्दों का काम है तुम कभी सीख नहीं पाओगी. लेकिन अंततः हमने ड्रम बजाना सीख लिया और पहली बार पेशेवर रूप में बजाने पर मुझे 500 रुपये मिले तो जाकर अपने मरद के हाथों में दे दिया.’

पिछले दो वर्षों में संगम बैंड ने राज्य-भर में विभिन्न जगहों पर जाकर 200 से ज्यादा कार्यक्रम प्रस्तुत किए हैं. हर जगह इनको प्रशंसा मिली है. बीते 2 अक्टूबर को इनका कार्यक्रम पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हाल में सरकारी मुलाजिमों द्वारा कराया गया था. सविता देवी का दावा है कि दर्शक मंत्रमुग्ध हो गए थे. यहां पर इन्हें इनाम से भी नवाजा गया. शायद ये बिहार प्रदेश का एकमात्र म्यूजिकल बैंड है जिसकी सदस्य केवल महादलित समाज की महिलाएं हैं. इनके हर कार्यक्रम का मेहनताना 10,000 रुपये है. साथ ही मेजबान को एक जीप की व्यवस्था करनी होती है ताकि इस समूह को कार्यक्रम स्थल पर लाया जा सके और फिर वापस उनके घर छोड़ा जा सके.

आज सोना देवी के पति शकुनी राम को पछतावा होता है कि उन्होंने अपनी होनहार पत्नी को इसी वजह से कभी शारीरिक क्षति पहुंचाई थी. आज वे गर्व से कहते हैं, ‘मेरी सोना सचमुच की सोना है. उसके काम ने घर की आर्थिक तंगी पर विराम लगा दिया है. अब हमको अपने समाज में बहुत इज्जत मिलती है. अपनी पाखंडी भूल के लिए हमने उससे माफी मांग ली है और उसने मुझे माफ भी कर दिया है.’

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फोटो- कुमारी सीमा

इसी समाज के बुजुर्ग सीताराम दास का मानना है कि बैंड पार्टी की महिलाओं ने देश में ढीबरा गांव का नाम रोशन किया है. दास गदगद मन से फर्माते हैं, ‘गाने, बजाने और नाचने से कोई छोटा नहीं हो जाता है. मैं भी जवानी के दिनों में नौटंकी में नाचा करता था जिसकी कमाई से घर में छह सदस्यों का पेट भरता था. मैंने तो शुरू में ही इन सामंती मिजाज के पुरुषों को चेताया था कि अच्छे कार्य का कभी विरोध नहीं करना चाहिए वरना बाद में पछतावा होता है.’

संगम बैंड की ये दिलखुश महिलाएं नए पेशे से न केवल आत्मनिर्भर बनीं, बल्कि अपने और आसपास के गांवों की महिलाओं को घरेलू हिंसा के प्रति जागरूक भी करती हैं. गंभीर मिजाज की बैंड सदस्य लालती देवी कहती हैं, ‘मदिरा सेवन करके पत्नियों को प्रताड़ित करने वाले दर्जनों पतियों को हम लोगों ने सबक सिखाया है. जरूरत पड़ने पर हम ऐसे उत्पाती पतियों को शांत करने के लिए लप्पड़-थप्पड़ का डोज भी देते हैं.’

गांव के सुपन यादव को मलाल है कि उनके समाज में ऐसी क्रांतिकारी महिलाएं क्यों नहीं पैदा हुईं. वो खुलासा करते हैं कि उनके टोला में दारूबाजों की तादाद में इजाफा हुआ है जबकि रविदास समाज में इनकी संख्या में गिरावट हुई है. सुपन कहते हैं, ‘मैंने अपने समाज के अंग्रेजों को एक नेक सुझाव दिया है कि बैंड बजाने वाली महिलाओं की सहायता लेकर बेवड़ों पर नकेल कसी जाए.’

बहरहाल, महादलित वर्ग की इन महिलाओं को नीतीश सरकार से एकमात्र लेकिन उचित शिकायत है. सविता अपनी इस शिकायत को स्थानीय बोली में कुछ ऐसे बयां करती हैं, ‘भोटवा (वोट) तो हम नीतीशे कुमार को देबई, बाकी कोई मुख्यमंत्री से कहके हम गरीब के घर में पैखनवा (शौचालय) त बनवा देतई.’