बेहतर समाज बनाने की जिम्मेदारी हमारी ही है

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बच्चों के साथ होने वाले अपराध इन दिनों सुर्खियों में हैं. लोग आक्रोशित होते हैं, राजनीतिक लोगों में इस जनाक्रोश को भुनाने की होड़ लगती है, तरह-तरह की बयानबाजी की जाती है और फिर कुछ दिनों में सब कुछ शांत. यही होता आ रहा है. बात इससे आगे बढ़ ही नहीं पाती और यही हमारा दुर्भाग्य है. बच्चों के प्रति यौन अपराधों के बढ़ते मामले देखकर 2012 में पोक्सो कानून लाया गया. कानून आ गया और बस हो गया समाधान? लागू कौन करेगा? सारा आक्रोश, सारा उत्साह कानून बनते ही खत्म हो जाता है, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकल पाता. खास अदालतें बनीं… पहले से ही काम के बोझ से दबे जज को पोक्सो कोर्ट की अतिरिक्त जिम्मेदारी दे दी और इस तरह बनी खास अदालत. पुलिस और अदालतें बच्चों के बयान ऑडियो-वीडियों में रिकॉर्ड करेंगे. ये सब बहुत अच्छा है, लेकिन क्या ऐसा करने के लिए संसाधन उपलब्ध कराए गए? महिला पुलिस अधिकारी बच्चों के बयान लिखेगी. कहां से आएंगी ये महिला पुलिस अधिकारी? क्या नई भर्तियां की गईं? तीस दिन के अंदर मुआवजा दिया जाएगा. लोगों की एड़ियां घिस जाती हैं भागते-भागते तब कहीं जा के मुआवजा हाथ लगता है. ऐसे में नए-नए कानून बनाते रहना बेमानी हो जाता है. कानूनों को लागू करने की इच्छाशक्ति और इरादा भी तो होना चाहिए. अभी 2-3 साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने भी ‘नेशनल कोर्ट मैनेजमेंट सिस्टम’ नाम से जारी एक रिपोर्ट में सरकारों से कहा है कि अगर संसाधन न दे सको तो नए-नए कानून भी न बनाए जाएं.

अब अगर बच्चों के प्रति यौन अपराधों की बात करें तो थोड़ा और विस्तार में जाने की जरूरत है. जवान होते बच्चों के बीच यौन आकर्षण, भागकर शादी करना और स्वेच्छा से शारीरिक संबंध बनाना, इस तरह के मामलों को एक अलग नजरिये से देखे जाने की जरूरत है. ऐसे मामले तकनीकी तौर पर तो अपराध की श्रेणी में आते हैं, लेकिन इन मामलों में सख्त सजा देना बड़ा जुल्म है. अब अगर एक 16-17 साल की किशोरी और 17 साल का लड़का प्रेम संबंध या फिर सिर्फ आकर्षण के चलते भागकर शादी कर लें या न भी करें और शारीरिक संबंध बना लें या न भी बनाएं, जब लड़की के अभिभावक इस बारे में जान पाते हैं तो लड़की को मार-पीट के घर ले आते हैं और लड़के पर अपहरण और बलात्कार का मुकदमा दर्ज करा देते हैं. ज्यादातर मामलों में ये देखा जाता है कि किशोरियां अपराधबोध में आकर या माता-पिता की मानसिक पीड़ा देख लड़के के खिलाफ बयान दे देती हैं. किसी भी बच्ची के लिए स्वेच्छा या सहमति से सेक्स करने की बात स्वीकार करना एक बेहद मुश्किल काम होता है.

इस तरह के मामलों की संख्या कम नहीं है. नारी निकेतनों में जाकर देखिए, तमाम ऐसे मामले मिलेंगे जिसमें लड़कियां माता-पिता के पास वापस जाने को तैयार नहीं हैं और लड़के के जेल से छूटने का इंतजार कर रही हैं. बच्चों के प्रति यौन अपराधों की रोकथाम के लिए बने नए सख्त कानूनों के सबसे बड़े भुक्तभोगी इस तरह के बच्चे ही हैं. धीरे-धीरे लोग इस आंच को महसूस कर रहे हैं और दबाव और चूक का एहसास इस स्तर तक आ गया है कि आप जल्द ही इस दिशा में कोई ठोस पहल देखेंगे. कानून कहीं-कहीं तो इतने सख्त हैं कि जज भी अपने हाथ बंधे हुए पाते हैं. बच्चों के प्रति अपराधों का ये भी अहम पक्ष है, जिसे कतई नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए.

‘लल्ला-लल्ला लोरी से लेकर दारू की कटोरी’ तक का सफर तो हमने ही तय किया है! लड़ाई होने पर मां-बहन की गालियों का प्रयोग हमारी मानसिकता का ही प्रतिबिम्ब है. कानून क्या करेगा इसमें?

अपराध कोई वायरल बुखार नहीं है, जो किसी संक्रमण की वजह से फैल रहा हो. हम हकीकत को नजरअंदाज करने में लगे हैं, लेकिन वास्तव में समस्या की जड़ हम खुद हैं. आजकल अभिभावकों के पास बच्चों के लिए समय नहीं है. ऐसे में कोई कैसे जानेगा कि उनके बच्चों के जीवन में चल क्या रहा है? परिवार टूट कर ‘हम दो, हमारे दो’ के जुमले पर आकर सिमट गया है. समुदाय नाम की चीज मध्य वर्ग में अब रह नहीं गई. हमारा संगीत-सिनेमा, उत्तेजना और हिंसा से सराबोर है. हम एक ऐसा वातावरण बना रहे हैं, जहां बिखराव, हताशा, एकाकीपन और अलगाव को आना ही आना है. और यह भी सच है कि परिवार और समाज का सुरक्षा तंत्र टूट रहा है जिसका सीधा असर बच्चों पर पड़ता है. समाज में व्यभिचारी हमेशा से थे और आगे भी रहेंगे. चुनौती ये है कि बच्चे इनकी पहुंच से दूर रहें. अब हर घर में पुलिस बैठाना तो समाधान हो नहीं सकता तो ऐसे में सामाजिक-पारिवेशिक सुरक्षा बनाए रखना और उसको मजबूत बनाना ही कारगर उपाय है. जब ये कहा जाता है कि नया कानून बनाया जाए, तो बस वहीं से समाधान की दिशा भ्रमित हो जाती है.

मौजूदा कानूनों को लागू करने की जिम्मेदारी जिस प्रशासनिक तंत्र की है, उसको मजबूत करने पर ध्यान ही नहीं जाता, जो कि अपने आप में चुनौती भरा काम है और जिसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का होना बेहद जरूरी है. उदाहरण के लिए पुलिस को ले लीजिए. थानों में क्या हालात हैं? आप कानून चाहे जितना भी सख्त बनाकर पास करते रहिए, उसको लागू करने वाले तंत्र में ही अगर खामी है, तो वह कानून प्रभावी तरीके से कैसे लागू होगा? कॉमनवेल्थ खेलों के लिए पुलिस में ताबड़तोड़ भर्तियां की गई थीं लेकिन वही तत्परता महिला और बाल सुरक्षा के लिए दिखाई नहीं पड़ती. अपराधी को दंडित करने वाली न्याय प्रक्रिया और प्रणाली में अन्वेषण और दोष सत्यापन के मानदंड बहुत मजबूत हैं और काम के बोझ से पस्त, संसाधन विहीन पुलिस के लिए उस स्तर की विवेचना कर पाना बेहद दुष्कर होता है. नतीजा ये निकलता है कि अपराधी अदालत से भी बच निकलता है.

पुलिस को जब तक समुचित संसाधनों से लैस नहीं किया जाता, पुलिस-नागरिक अनुपात एक स्वीकार्य स्तर तक नहीं लाया जाता, अपराधी व्यवस्था की खामियों का फायदा उठा कर बच निकलते रहेंगे. दंड की मात्रा से कहीं ज्यादा प्रभावी है दंड मिलने की प्रक्रिया काे सुनिश्चित किया जाए. एक बार अपराधियों की समझ में ये आ जाए कि अपराध करके आप बचकर निकल नहीं पाएंगे, तब कहीं जाकर अपराधियों के दिल में डर आएगा. कानून की किताब में चाहे आजन्म कारावास ही क्यों न लिख दिया जाए, अगर वो सजा मिल पाना ही मुश्किल है तो ऐसे कानून का क्या फायदा? बलात्कारियों को बधियाकरण को अनुमति देने को लेकर मद्रास हाईकोर्ट ने हाल ही में टिप्पणी की है. हमारे स्वनामधन्य मुख्यधारा के सनसनीखेज मीडिया के चलते सारा ध्यान सिर्फ बलात्कारियों के बधियाकरण के प्रस्ताव पर चला गया है लेकिन उस फैसले में दस सलाह और दस निर्देश भी हैं जोकि दूरगामी और निश्चित परिणाम देने वाले हैं. उन पर भी तो कोई ध्यान दे.

एक सलाह है कि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को विखंडित करके बच्चों के लिए एक बिल्कुल अलग मंत्रालय बनाने की. राजस्थान सरकार ने कुछ समय पहले इस विचार की प्रभावशीलता को पहचाना और एक संबद्ध विभाग के अंदर ही एक अलग और लगभग स्वतंत्र और सक्षम बाल अधिकारिता निदेशालय का गठन किया है. बच्चों से जुड़े मामलों पर एक सतत और केंद्रित तरीके से नीति निर्माण और कार्यान्वयन की दृष्टि से ये अच्छा कदम है. रोकथाम और सुरक्षा को लेकर समुदाय के स्तर पर चेतना निर्माण पर काम होना चाहिए. पुलिस की क्षमता बढ़ाई जाए, उनको अच्छा माहौल और संसाधन दिए जाएं ताकि वो ठीक से अच्छी गुणवत्ता का काम कर पाए. निचली अदालतें, जहां ऐसे मुकदमे सुने जाते हैं वहां का माहौल और कार्यपद्धति बच्चों की सुविधा और सहजता के अनुरूप रखने पर गंभीरता से काम हो. इन सब उपायों के अलावा जो कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है वो है सामाजिक जिम्मेदारी. सारा ठीकरा हम सरकार और व्यवस्था के सिर ही नहीं फोड़ सकते. किस तरह का समाज हम बच्चों को दे रहे हैं, इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है. आजकल के गीत-संगीत की बात करें तो ‘लल्ला-लल्ला लोरी से लेकर दारू की कटोरी’ तक की स्वीकार्यता का सफर तो हम लोगों ने ही तय किया है न! लड़ाई झगड़े होने पर मां-बहन को विदूषित कर डालने की गालियों का प्रयोग हमारी मानसिकता का ही तो प्रतिबिम्ब है. कानून क्या करेगा इसमें?

बड़ों के द्वारा बच्चों की बात-बात पर पिटाई कर देना और बच्चों द्वारा उसे चुपचाप स्वीकार किया जाना तो हमें सामाजिक मूल्य की तरह ही सिखाया गया है. जब हम बच्चे को बड़ों की हिंसा स्वीकार करना सिखा रहे होते हैं तो ये नहीं ध्यान में आता कि बड़ों द्वारा लैंगिक अतिक्रमण भी बच्चे को हिंसा ही लगता है और फिर किसी और हिंसा की तरह ही बच्चा अपने को दोष देता है बजाय मुखर होने और प्रतिकार करने के. इसी तरह भाई जब बहन को मारना और बाल नोचना सीख रहा होता है तब हम उसमें बाल चंचलता देखते हैं और अगर बहन उलटकर एक थप्पड़ मार दे तो सब उस पर टूट पड़ते हैं. भाई यही देखता और करता बड़ा होता है. गौर करने वाली बात ये है कि उस समय हम उसे स्त्री-पुरुष का शक्ति समीकरण सिखा रहे होते हैं! ये हमारे ही तो भाई और बेटे होते हैं जो आगे चलकर दूसरों का अतिक्रमण करते पाए जाते हैं. शारीरिक, मानसिक और यौन हिंसा के बीज अलग-अलग नहीं होते.

(लेखक अधिवक्ता हैं)