Home Blog Page 1333

महफूज़ नहीं मासूम

coverweb1
फोटो- विजय पांडेय

जिस तरह सर्दी के मौसम में पुरानी चोट या जख्म की टीस ताजा हो जाती है, उसी तरह दिल्ली में सर्दी की दस्तक 16 दिसंबर 2012 की वीभत्स घटना का दर्द साथ ले आती है. निर्भया के साथ हुए हादसे ने महिलाओं के साथ हो रहे अपराधों के प्रति जागरूकता जगाई और हजारों संवेदनशील लोग उनकी सुरक्षा के लिए सड़कों पर उतर आए. उनका उद्देश्य था कि सरकार इस मुद्दे पर उनकी नाराजगी पर तुरंत संज्ञान ले और महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करे.

हालांकि दिल्ली की सड़कें अब भी सुरक्षित नहीं हो पाईं अलबत्ता अब घरों के आंगन भी सुरक्षित नहीं रहे. दरिंदों के वहशीपन की सारी हदें तब पार हो गईं जब चार साल की नेहा (परिवर्तित नाम) के साथ उसके घर से कुछ ही दूरी पर बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को अंजाम दिया गया.

इस दरिंदगी के बाद कूड़े के ढेर पर बुरी तरह से घायल पड़ी वह बच्ची अपने पिता को ही बुला पाने में असमर्थ थी तो अपने साथ हुई उस दर्दनाक घटना के बारे में कैसे बता पाती! इस हादसे के बारे में बच्ची के दादा किशन ने अपना दर्द बयां किया, ‘ब्लेड से यहां काटा (गाल पर), होंठ पर भी ब्लेड मारा. सिर पर पत्थर मार दिया और गला घोंटा.’ सिसकी रोकते हुए कहते हैं, ‘मेरी बच्ची से बलात्कार भी किया.’

ये अक्टूबर की शाम थी और वह बच्ची दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल के आईसीयू में भर्ती है. ये वही अस्पताल है जिसने निर्भया के जख्म भी देखे थे, जहां वो अपने जख्मों से लड़ते-लड़ते जिंदगी की जंग हार गई थी. सूत्रों ने ‘तहलका’ को बताया कि नेहा के गुप्तांग के जख्म बहुत गंभीर थे और डॉक्टरों को वहां क्षत-विक्षत त्वचा जोड़ने में दो घंटे का समय लगा. चोटें इतनी गंभीर थीं कि पेशाब और मलत्याग के लिए एक वैकल्पिक रास्ता बनाया गया. डॉक्टरों का कहना है कि बच्ची के शारीरिक रूप से पूरी तरह ठीक होने में करीब तीन महीने का वक्त लगेगा.

इस पीड़ित बच्ची का परिवार उत्तर-पश्चिम दिल्ली के केशवपुरम में रेल की पटरियों से सटी झुग्गियों में रहता है. उस बच्ची के घर पहुंचने में सीवेज से भरी और पानी के पाइपों की भूलभुलैया सरीखी गलियों के बीच से होकर गुजरना पड़ता है. एटीएम के गलियारे के जैसे एक कमरे में नेहा की बड़ी बहन (पांच साल) गुमसुम सी बैठी हुई है और उसका आठ महीने का भाई खेल रहा है. फूट-फूटकर रोते हुए नेहा की दादी रामश्री बताती हैं, ‘यहां जगह कहां है! इधर ही ट्रैक के पास बैठे रहते थे सब शाम में. उ (नेहा) यहीं धुरा-मिट्टी में खेलती रहती थी.’ घटना को याद कर वह बताती हैं कि खून से लथपथ अपनी पोती को पहचानना उनके लिए कितना मुश्किल था, जिसे उस रात बस्ती की एक औरत कूड़े के ढेर से उठाकर लाई थी. नेहा की दादी के अनुसार, ‘हमारे हाथ लग जाता तो यहीं बोटी-बोटी कर के गाड़ देते.’

सरकारें अपनी उपलब्धियों के बखान के लिए विज्ञापनों पर बजट का बड़ा हिस्सा खर्च रही हैं लेकिन यौन अपराधों की रोकथाम के लिए जागरूकता कार्यक्रमों पर ध्यान देने वाला कोई नहीं है 

इतने सब के बाद राहत की बात केवल इतनी है कि जब पुलिस द्वारा आरोपी को अस्पताल में चार और लोगों के साथ लाइन में खड़ा किया तब नेहा ने तुरंत उसे पहचान लिया, ‘राहुल भइया ने चोट लगाई मुझे.’ जिस व्यक्ति को वह मासूमियत से भइया कहकर पुकार रही थी, उसी ने इस दरिंदगी को अंजाम दिया था. हालांकि उसकी प्यारी गुड़िया अब भी कमरे में टंगी हुई है लेकिन उसके दिहाड़ी मजदूर पिता मनोज, उसके लिए अस्पताल में नए खिलौने लेकर आते हैं.

बच्ची के दादा किशन ने ‘तहलका’ को बताया कि आरोपी ने बलात्कार की जगह से ब्लेड लाकर दिया है और उस दिन पहने हुए खून से सने कपड़े अपने घर से लाया है. शराब पीने के लिए इस इलाके में रोज आने वाले राहुल ने अपने मकसद को अंजाम देने के लिए उस दिन बच्ची को चाऊमीन खिलाने और 10 रुपये देने का लालच दिया था.

किशन बताते हैं, ‘इस मामले की जांच जारी है और मुझे इस घिनौने काम में कुछ और लोगों के शामिल होने का पूरा यकीन है.’ वे आगे कहते हैं कि हम नहीं चाहते कि नेहा को उस भयानक पल के बारे में कुछ भी याद रहे. वे फरियाद करते हैं, ‘हम बस उसका बेहतर भविष्य चाहते हैं. मैं दिल्ली के मुख्यमंत्री से यही चाहता हूं कि उसकी आगे की पढ़ाई और बेहतर इलाज का प्रबंध करा दें बस.’

बहरहाल, लोग अभी अखबार में छपी इस घटना की सुर्खियां भूले नहीं थे कि पश्चिमी दिल्ली के निलौठी में एक ढाई साल की नौनिहाल के साथ भी ऐसी ही घटना घट गई. वह बच्ची अपने घर के बाहर दूसरे बच्चों के साथ खेल रही थी. कुछ ही दूर रामलीला चल रही थी. बच्ची की दादी जगवती बताती हैं, ‘रामलीला में उस वक्त गाना चल रहा था. गुडिया (बदला हुआ नाम) पीले कपड़े पहने हुए मेरे धोरे (पास) ही खेल रही थी. मेरा (घर के अंदर) दूध की बोतल धरना है कि इतने में गुड़िया गायब हाे चुकी थी.’

बच्ची की खोज रात में 11:30 बजे शुरू हुई. दुर्भाग्यवश जब तीन घंटे के बाद पुलिस और परिवार को बच्ची एक किलोमीटर दूर स्थित कर्मभूमि पार्क में मिली, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. खून से लथपथ गुड़िया बेहोश पड़ी हुई थी. गुड़िया के साथ सामूहिक दुष्कर्म भी उन्हीं लोगों ने किया था, जिन्हें वह भइया कहती थी. इस मामले में दो नाबालिगों लूची (16) और सनोज (17) को पकड़ा गया है.

दोनों किशोर अपने परिवार के साथ किराये के घर में रहते हैं. नौवीं कक्षा में पढ़ने वाला लूची गुड़िया के घर से पचास मीटर की दूरी पर रहता है और गुड़िया का चचेरा भाई उसे जानता था. दूसरा आरोपी सनोज गुड़िया के घर के पीछे बने नौ छोटे कमरों में से एक में अपनी मां और तीन भाइयों के साथ रहता है. वह कुछ साल पहले ही स्कूल की पढ़ाई छोड़ चुका है.

घटना की श्रृंखलाओं को जोड़ते हुए पुलिस कहती है कि दोनों नाबालिगों ने बच्ची का अपहरण बिजली कटने के दौरान किया. एक पड़ोसी ने ‘तहलका’ को बताया, ‘बिजली जाने के दौरान लूची अपनी मां का इंतजार कर रहा था. इसके बाद वो हमारे साथ वापस रामलीला आ गया था.’ इसका मतलब है कि लूची ने बच्ची का अपहरण कर सनोज को सौंप दिया था और वापस रामलीला में आ गया. फिर वह अपनी मां को घर छोड़ने के बाद सनोज के पास पहुंचा होगा.

चौंकाने वाली बात ये है कि दोनों नाबालिग उस रात उन लोगों के साथ थे जो गुड़िया को ढूंढ़ रहे थे. अगले दिन लूची रोज की तरह स्कूल गया और सनोज आस-पड़ोस में ही घूमता रहा. लूची के एक सहपाठी ने बताया कि वह पढ़ाई में कमजोर था और कक्षा 9 में दो बार फेल हो चुका है. जिस पार्क में बच्ची का रेप हुआ उस पार्क में लूची देर रात तक बीड़ी पीता रहता था और सनोज ही उसका इकलौता साथी था.

घटना के कुछ घंटों के अंदर पुलिस ने शक के आधार पर 250 से ज्यादा लोगों को हिरासत में लिया. देर रात छापे के दौरान पुलिस ने दोनों आरोपियों को दबोच लिया. पुलिस ने बताया कि कड़ी पूछताछ के दौरान दोनों टूट गए और इस वहशियाना हरकत को करना स्वीकार कर लिया. लेकिन ये भी एक सच्चाई है कि दबाव में किए गए कबूलनामे को अदालत स्वीकार नहीं करती. अदालत कानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुए ही अपराध में उनकी संलिप्तता मानेगी.

एक हफ्ते के अंदर घटी ये दोनों घटनाएं भी जैसे कम थी क्योंकि फिर राजधानी के दूसरे इलाके से ऐसी ही घटना की खबर आई. पूर्वी दिल्ली के आनंद विहार इलाके में पांच साल की मासूम के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. आरोपी उस बच्ची को उसी के घर की दूसरी मंजिल पर ले गया. वहां तीन लोगों ने कई बार उसे अपनी हवस का शिकार बनाया. यहां भी वही मामला था. पीड़िता बहुत कम उम्र की थी, अपना दुख भी सही तरह से बयान नहीं कर सकती थी. उन क्रूर अपराधियों ने सोच-समझकर एक आसान शिकार को पकड़ा था. यहां तसल्ली देने वाली बात ये हो सकती है कि दिल्ली पुलिस ने सभी आरोपियों को पकड़ लिया है. लेकिन कहानी क्या यहीं खत्म हो जाती है?

बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों की ऐसी स्थिति में अब इस बात का अंदाजा लगाना बेहद जरूरी है कि देश की राजधानी और पूरा देश किस तरफ बढ़ रहा हैं! ऐसी घटनाओं का बार-बार होना गहरी निराशा से भर देता है. दिल्ली में जिम्मेदार अधिकारियों और चौकन्नी मीडिया की वजह से ऐसी घटनाओं की रिपोर्ट तत्परता से हो जाती है पर देश के दूसरे हिस्सों में भी ऐसी जघन्य घटनाएं लगातार हो रही हैं लेकिन शर्म, बेबसी और समाज में लांछन लगने के डर से परदे में छुपी रह जाती हैं.

16 दिसंबर 2012 को घटा निर्भया कांड हमेशा एक संदर्भ के तौर पर रहेगा. जब मामला सामने आया तो लोगों में घटना को लेकर सामूहिक क्रोध था. त्वरित न्याय की मांग लिए लोग सड़कों पर उतरे थे. दिल्ली पुलिस पर सुस्त और संवेदनहीन होने के आरोप लगे. तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की ये  कहने पर खिंचाई की गई कि ऐसी घटनाओं को रोका नहीं जा सकता.

आज तीन साल बाद हम ऐसे मोड़ पर हैं जहां हमारे पास सख्त कानून के साधन हैं. जस्टिस जेएस वर्मा समिति की सिफारिशों के आधार पर विधायिका ने सख्त कानून पास किए और सरकारी मशीनरी ने उनको लागू करना शुरू किया. न्यायपालिका ने ऐसे मामलों के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट का निर्माण किया. लेकिन क्या स्थिति में कोई बदलाव आया है?

नेहा, गुड़िया और न जानें कितनी पीड़ित बच्चियां इस समस्या की गंभीरता का अंदाजा लगाने की गुहार लगा रही हैं. दिल्ली में घटीं बलात्कार की हालिया घटनाओं पर सवाल किया गया तो सीनियर स्पेशल कमीश्नर (लॉ एंड ऑर्डर) दीपक मिश्रा का जवाब था, ‘अमेरिका हो या लंदन, बलात्कार की घटनाएं सभी जगह होती हैं.’ लेकिन जब आप सरकार ने उनके बयान की निंदा की, तब उन्होंने जवाब दिया कि मामले को राजनीतिक रंग देना बंद होना चाहिए.

नेहा के दादा और मां का मानना है कि एक समाज के बतौर हम असफल हो चुके हैं. ये समाज चरमरा गया है, सब खत्म हो गया है. कोई अपनी जिम्मेदारी लेने को तैयार ही नहीं

तकनीकी रूप से दिल्ली की कानून-व्यवस्था संभालने वाली केंद्र सरकार भी महिला तो छोड़िए बच्चियों को बचाने के लिए भी राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करती नहीं दिख रही. दिल्ली भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सतीश उपाध्याय ने कहा कि इस मामले में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का सीधे-सीधे प्रधानमंत्री मोदी और उप-राज्यपाल नजीब जंग पर आरोप लगाना गैर-जरूरी था. सतीश उपाध्याय ने कहा, ‘पहले केजरीवाल अपने घर को संभाले और बाद में पुलिस और प्रधानमंत्री पर टिप्पणी करें. उनके सभी बयान राजनीतिक जुगलबंदी के अलावा और कुछ नहीं हैं.’

ऐसे में आश्चर्य होता है कि भाजपा ने कांग्रेस सरकार की इसी तरह की प्रतिक्रिया पर तब हमला क्यों बोला था. यहां जिम्मेदारी किसकी है? चुनाव के वक्त तो ऐसा लग रहा था कि नई सरकार शायद इन मामलों पर संवेदनशीलता दिखाएगी. चुनाव के वक्त भाजपा का एक नारा था, ‘बहुत हुआ महिलाओं पर अत्याचार, अबकी बार मोदी सरकार.’ भाजपा सरकार इस मामले में देश तो दूर, दिल्ली जैसे छोटे क्षेत्र में भी असफल रही है.

एक पीड़ित बच्ची की चाची का प्रधानमंत्री से सवाल है, ‘आप कहते हैं बेटी बचाओ, मगर किसलिए, उन्हें घर में बिठाने के लिए? या लोगों द्वारा छेड़ने, बलात्कार और हत्या किए जाने के लिए.’

पिछले नौ महीनों में प्रतिदिन औसतन बलात्कार के छह और छेड़खानी के 14 मामले दिल्ली पुलिस के सामने आए हैं. आश्चर्यजनक रूप से जून 2012 में लागू हुए पोक्सो (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस) एक्ट के प्रभावी होने के बाद राजधानी में 1,492 मामले में सामने आए. इस कानून के वजूद में आने के बाद 244 केस दर्ज किए गए, जिनमें से सिर्फ 20 प्रतिशत मामलों में ही सजा हो पाई है.

इतना ही नहीं, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार राजधानी दिल्ली में पिछले दो सालों में बलात्कार के मामले 200 प्रतिशत बढ़ गए हैं.

दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल का कहना है, ‘हमें अपराधियों में डर पैदा करने की जरूरत है. पिछले साल महिलाओं के विरूद्ध अपराध के 38,000 मामले दर्ज किए गए, जिनमें से केवल 11,000 मामलों में आरोपपत्र दाखिल हो पाए. इतना ही नहीं, 2014 में केवल 9 मामलों में दोषियों को सजा हुई थी.’ स्वाति का मानना है कि दिल्ली पुलिस को मामले की जांच, सबूत इकट्ठा करने और आरोपपत्र दाखिल करने की प्रक्रिया को तेज करने की जरूरत है. वे कहती हैं, ‘जब तक कोई मामला सुनवाई की स्थिति में पहुंचता है, तब तक पीड़ित पक्ष न्याय व्यवस्था में भरोसा खो चुका होता है. ऐसे में मामले कमजोर हो जाते हैं और आरोपी छूट जाते हैं.’

दूसरी ओर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, जो किसी समय दिल्ली में हर बलात्कार के बाद शीला दीक्षित के घर के बाहर यह कहते हुए प्रदर्शन करते थे, ‘हमें मजबूर मुख्यमंत्री नहीं चाहिए’, का लहजा बदल चुका है. खुद को जिम्मेदारी से अलग करते हुए वे अब कहते हैं, ‘मैं शीला दीक्षित नहीं हूं, अगर बलात्कार नहीं रुकते हैं, तो मैं प्रधानमंत्री को चैन से सोने नहीं दूंगा.’

सरकारें अपनी उपलब्धियों के बखान के लिए विज्ञापनों पर बजट का बड़ा हिस्सा खर्च रही हैं लेकिन लगातार बढ़ते यौन अपराधों की रोकथाम के लिए जागरूकता कार्यक्रमों पर बल देने कोई प्रयास नहीं किया जा रहा.

अलबत्ता जब मीडिया में इस तरह की घटनाओं पर जोर-शोर से बात होने लगती है तो कुछ फौरी किस्म के सुझाव जरूर उछाले जाते हैं. उदाहरण के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री ने हाल ही में कैबिनेट की मीटिंग के बाद घोषित किया कि उनकी सरकार इस बात के लिए प्रयासरत है कि 15 साल तक के बलात्कारियों को वयस्क माना जाए. इस पर सुप्रीम कोर्ट की वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता वृंदा ग्रोवर का कहना है, ‘हां, ये सही है कि नाबालिगों की अपराधों में भागीदारी बढ़ी है पर उतनी भी नहीं जितनी बताई जा रही है. उन्हें अदालत में बालिग मानने की बजाय उनको सुधारने की दिशा में कदम उठाना ज्यादा जरूरी है.’ दिल्ली सरकार के मंत्रिमंडल ने बलात्कार के सभी लंबित मामलों के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई करवाए जाने की संभावना पर भी विचार किया है. एक के बाद एक हो रहे ऐसे जघन्य अपराधों से परेशान आप सरकार ने दिल्ली में ‘जीरो डार्क एरिया इन सिटी’ यानी पूरे शहर में रौशनी के सुनिश्चित इंतजाम करने के लिए स्ट्रीट लाइट और सीसीटीवी कैमरे जल्द से जल्द लगाए जाने को प्राथमिकता दी है. पर ये सब सुरक्षा के सतही इंतजाम हैं. लिंग आधारित भेदभाव के विरूद्ध तथा महिलाओं के विरूद्ध होने वाले अपराधों के बारे में जागरूकता फैलाने के बारे में अभी सरकार को सोचना बाकी है. मोहल्ला सभाओं में इस विषय पर चर्चा शुरू कराने के बारे में आप सरकार ने अभी तक कोई पहल नहीं की है. दिलचस्प है कि सरकार में आने से पहले आप ने महंगाई, सरकार की नाकामियों जैसे मुद्दों को उठाने के लिए नुक्कड़ नाटकों का इस्तेमाल सफलतापूर्वक किया था पर इस मुद्दे पर नुक्कड़ नाटकों से जागरूकता फैलाने का कोई प्रयास अब तक नहीं किया गया है.

निर्भया कांड के बाद पूरी दिल्ली ऐसे विज्ञापनों और होर्डिंग्स से पट गई थी, जिनमें न केवल महिलाओं के लिए इमरजेंसी हेल्पलाइन नंबर और कानूनी कदमों के बारे में जानकारी दी गई थी बल्कि जन जागरूकता फैलाने का भी प्रयास किया गया था. वैसे विज्ञापन और पोस्टर अब दिल्ली की सड़कों से गायब हैं. वृंदा ग्रोवर ये बताती हैं कि अपराधों में लिप्त ज्यादातर किशोर स्कूल ड्रॉपआउट (पढ़ाई छोड़ चुके) हैं और ऐसे किशोरों की निगरानी की कोई व्यवस्था नहीं है. ‘15 साल के नाबालिग को बालिग माना जाए, किस्म के फौरी इलाज सुझाकर सरकार केवल अपनी जिम्मेदारी से बचना चाहती है. इस तरह के सुझाव देकर केजरीवाल साफ कर देते हैं कि उन्हें यौन अपराधों के कारणों की कोई समझ नहीं है. इसके बजाय उन्हें ये देखना चाहिए कि उन्होंने किशोर गृहों की हालत सुधारने के लिए क्या कदम उठाए हैं. इस तरह प्रतिक्रियात्मक तौर पर लागू किए गए कानून इस समस्या का समाधान नहीं हैं.’

अखबारों की खबरें और टीवी चैनल एक ओर दिल्ली को ‘रेप सिटी’ घोषित करते हैं, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि सारा देश जैसे ‘रेप हिस्टीरिया’ से ग्रस्त हो गया है. पिछले दो सालों में हर दिन 96 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए हैं. इनमें से 95 प्रतिशत मामलों में पुलिस ने आरोपपत्र दाखिल किए हैं. बलात्कार के मामलों में मध्य प्रदेश सबसे ऊपर है, उसके बाद राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और दिल्ली आते हैं. अगर आप गूगल पर खोजें तो और मलिन तस्वीर उभरती है. अगर आप सोचते हैं कि सिर्फ दिल्ली में बच्चियों के साथ बलात्कार हुआ है तो आप गलत हैं! सितंबर-अक्टूबर में ऐसी ही बर्बरता की खबरें कर्नाटक और महाराष्ट्र से भी आई हैं. इसी साल अगस्त में झारखंड उच्च न्यायालय ने एक खबर पर संज्ञान लिया जिसके अनुसार एक पिता बलात्कार की शिकार अपनी बेटी को इलाज के लिए रोज चार किलोमीटर दूर ले जाता था. उच्च न्यायालय ने उस पिता को राज्य द्वारा एक लाख रुपये का अनुदान देने तथा बच्ची का बेहतर इलाज करवाने का निर्देश दिया. आंकड़ों का कम या ज्यादा होना इस तरह के अपराधों की भयावहता को कम नहीं करता.

वहीं समाज के दूसरे सिरे पर खाप पंचायतें ‘गैंगरेप’ के आदेश देने के लिए जानी जाती हैं. इसके अलावा वहां पीड़िता को बलात्कारी से शादी करने के लिए भी कहा जाता है और अक्सर पीड़िताओं को ही उनके साथ हुए दुर्व्यवहार के लिए दोषी ठहराया जाता है. जहां इस तरह का सामाजिक दृष्टिकोण है, वहां यौन अपराधों के मामलों का बढ़ना स्वाभाविक है. जब एक नाबालिग बच्ची को दुराचार का शिकार बनाया जाता है तो इस तरह की सोच ही तह में होती है. दो बार पुलित्जर पुरस्कार विजेता अमेरिकी पत्रकार निकोलस क्रिस्टॉफ ने एक ऐसा ही मामला उठाया जो इस बात की ओर संकेत करता है कि किस तरह हमारा समाज जाति और धर्म के आधार पर बलात्कारियों को संरक्षण प्रदान करता है. ‘बिटिया’ नाम की 13 साल की दलित लड़की का न केवल उच्च जातियों के पुरुषों द्वारा गैंगरेप किया गया बल्कि उसकी वीडियो क्लिप भी तैयार की गई. अपराधियों ने बाद में उसकी इस वीडियो क्लिप को सार्वजनिक करने और पीड़िता को मार डालने की धमकी. कुछ दिनों बाद ही उसके पिता अवाक रह गए, जब उन्होंने गांव के एक लड़के को वह वीडियो क्लिप देखते पाया. वह वीडियो क्लिप एक स्थानीय दुकान को बेच दी गई थी. पुलिस ने तो कोई कदम नहीं उठाया लेकिन गांव के बुजुर्गों ने जरूर एक ‘कड़ा’ कदम उठाया और लड़की के स्कूल जाने पर रोक लगा दी. निकोलस तब चौंक गए जब एक गांव वाले ने उनसे कहा, ‘अगर उसने (लड़के ने) लड़की का बलात्कार किया है, तो जरूर वह लड़की को पसंद करता होगा.’ इस तरह जो हल निकाला गया वह यह है कि लड़की को बलात्कारी के साथ शादी कर लेनी चाहिए. सोचने वाली बात है कि इस तरह की मानसिकता से मासूमों पर हो रहे इन जुल्मों से मुक्ति कैसे संभव है!

एक स्पष्ट सवाल सामने आता है कि इस माहौल में लैंगिक संवेदनशीलता की उम्मीद कैसे की जा सकती है? कानून के संबंध में देखा जाए तो देश खासा मजबूत हुआ है, बात चाहे बलात्कार संबंधी कड़े कानून की हो, किशोर न्याय अधिनियम में संशोधन की या सरकार में बदलाव की. इसके बावजूद लैंगिक भेदभाव के विरूद्ध जागरूकता दूर की कौड़ी है. दिल्ली पुलिस आयुक्त बीएस बस्सी सरकार को कटघरे में खड़ा करते हैं और शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया से स्कूलों के पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा पर ज्यादा जोर देने के लिए कहते हैं. यहां स्वाति मालीवाल का सुझाव है कि यौन शिक्षा शुरू करने के साथ बड़े पैमाने पर लैंगिक भेदभाव के विरूद्ध जागरूकता फैलाने की जरूरत है. इतनी बड़ी समस्या को सुलझाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ना होगा. पुलिस, कानून निर्माता और समाज को एक साथ आकर योजना की रूपरेखा बनानी होगी और हफ्ते दर हफ्ते इसे लागू करने की जरूरत है.

ऐसे अपराधों की मानसिकता बनने में कहीं न कहीं समाज भी जिम्मेदार है. भारतीय समाज में सेक्स या उससे जुड़े किसी भी पहलू पर खुलकर बात करना वर्जित है. यहीं से एक खास उम्र में जन्मी यौन भावनाएं दमित होती हैं और कई बार हिंसक या आपराधिक प्रवृत्ति को जन्म देती हैं. ‘क्राई’ संस्था के ‘हक- सेंटर फॉर चाइल्ड राइट्स’ में अपराध में लिप्त बच्चों की काउंसलिंग के दौरान मिले ऐसे ही कुछ तथ्यों को एक रिपोर्ट में दर्ज किया गया है. ये रिपोर्ट कहती है, ‘ज्यादातर परिवारों में यौन जरूरतों या सेक्सुअलिटी पर बात करना वर्जित है, जिससे बच्चे में प्राकृतिक रूप से मौजूद यौन भावनाएं दमित होती हैं. उनके पास इस मुद्दे पर बात करने या अपनी यौनेच्छा जाहिर करने का कोई रास्ता नहीं होता.’ इस तरह की इच्छाओं का लगातार दमन कई बार हिंसा और अपराध की शक्ल में प्रकट होता है.

बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों की ऐसी स्थिति में अब इस बात का अंदाजा लगाना बेहद जरूरी है कि देश की राजधानी दिल्ली  और पूरा देश किस तरफ  बढ़ रहा है 

दूसरी ओर हर खौफनाक मामले के सामने आने पर अपराधी को नपुंसक बनाने या उसे भीड़ के हवाले कर देने जैसी मांगें जोर-शोर से उठने लगती हैं. हाल ही में मद्रास हाईकोर्ट ने बच्चों के साथ यौन हिंसा करने वाले दोषियों को रासायनिक तरीके अथवा सर्जरी द्वारा नपुंसक बनाए जाने का सुझाव सामने रखा है. न्यायमूर्ति एन. किरूबकरण ने सख्त शब्दों में कहा है, ‘वर्तमान कानून ऐसे अपराधियों से निपटने में नाकाम हैं. ऐसे में न्याय-व्यवस्था हाथ पर हाथ रखकर बैठे नहीं रह सकती, खासतौर पर तब, जब पूरे देश में बच्चों के साथ गैंगरेप की घटनाएं बढ़ रही हैं. नपुंसक बनाने का सुझाव बर्बरतापूर्ण लग सकता है लेकिन बर्बर अपराधियों को बर्बर सजाओं से ही रोका जा सकता है. सजा ऐसी हो कि अपराधी अपराध करते हुए डरे.’ इससे पहले दिल्ली में एडिशनल सेशन जज कुमारी कामिनी लाउ भी ऐसा ही सुझाव दे चुकी हैं. 20 वर्ष पहले एडिशनल सेशन जज एसएम अग्रवाल ने एक मामले में दोषी को यह प्रस्ताव दिया था कि यदि वह अपनी इच्छा से नपुंसक बनाए जाने की हामी भरे तो उसकी सजा कम की जा सकती है. एडिशनल सेशन जज के इस फैसले को पूरी तरह गैरकानूनी कहते हुए उच्च न्यायालय ने पलट दिया.

भारत में भले ही इस तरह के प्रस्ताव से बहुत से लोग चौंके हों, लेकिन जर्मनी, डेनमार्क, स्वीडन, पौलेंड और अमेरिका के कुछ देशों सहित रूस में भी बच्चों के यौन अपराधियों को सजा देने के लिए रासायनिक तरीके से नपुंसक बनाए जाने के तरीके को अपनाया जाता है. हालांकि एमनेस्टी इंटरनेशनल और अमेरिकन सिविल लिबर्टी यूनियन जैसी संस्थाएं इस सजा के खिलाफ हैं और इसे अप्राकृतिक और अमानवीय मानती हैं. दूसरी ओर एक पहलू ये भी है कि यदि इस तरह सर्जरी द्वारा नपुंसक बनाए जाने के बावजूद अपराधी की बुनियादी मानसिकता में बदलाव नहीं आता है तो अपराध तब भी जारी रह सकता है.

मनोविशेषज्ञ डॉ. अरुणा ब्रूटा का कहना है, ‘नपुंसक बनाए जाने की सजा इस तरह के अपराधों को रोक पाने में कितनी कारगर हो पाती है, इस पर अभी एक संजीदा अध्ययन की जरूरत है. प्रतिक्रिया स्वरूप भावुक होकर सोचने से काम नहीं चलेगा.  असल में ये ‘तेजी से बढ़ते मामले’ नहीं बल्कि ‘तेजी से सामने आते मामले’ हैं जो अब मीडिया की सक्रियता से चर्चा में आ रहे हैं. मीडिया की सक्रियता से जागरूकता आ रही है और शिकार बच्चों के अभिभावकों और खुद बच्चों में भी हौसला बढ़ रहा है और वे शिकायत या कम से कम विरोध करने के लिए ही सही, सामने तो आ रहे हैं.

मासूमों से बलात्कार की घटनाओं के बाद अक्सर समाज के एक तबके की ओर से आवाज उठती है, ‘सऊदी अरब जैसा सख्त कानून लाओ! काट डालो अपराधियों को!’ लेकिन इस तरह के कदमों से भविष्य में होने वाले बलात्कार शायद ही रुक पाएं. नेहा के दादा और मां का मानना है कि एक समाज के बतौर हम असफल हो चुके हैं. वे हमारे लिए एक सवाल छोड़ देते हैं, ‘ये समाज चरमरा गया है, सब खत्म हो गया है. कोई अपनी जिम्मेदारी लेने को तैयार ही नहीं.’

(निकिता लांबा और रजनी के सहयोग से)

अजनबी शहर के अनजान लोगों का कर्ज

Cउस रोज का वाकया जेहन में आज भी ताजा है. मौत एकदम करीब नजर आ रही थी. पहली दफा खुद के खर्च हो जाने का डर लग रहा था. इसका जिक्र बस इसलिए कि दुनिया में अब भी अच्छे लोगों की कमी नहीं है. जिन्होंने अनजान शहर में मुझ पर ऐसा स्नेह बरसाया, जिसका कर्ज मैं ताजिंदगी नहीं चुका सकता.

यह वाकया साल 2013 के नवंबर महीने का है. तारीख थी आठ. औरंगाबाद  में ऑफिस का काम निपटा कर रात तकरीबन 11 बजे घर (सतना) जाने के लिए निकला था, ताकि घरवालों के साथ फुलौरी (भतीजे) के जन्मदिन की खुशियों में शामिल हो सकूं. काफी दिन बाद घर जाने का मौका हाथ लगा था आैर मैं इसे किसी भी सूरत में गंवाना नहीं चाहता था.

औरंगाबाद से जलगांव जाने के लिए मैंने बस पकड़ी थी. वहां से सुबह 5:30 बजे सतना जाने वाली ट्रेन पकड़नी थी. औरंगाबाद से जलगांव तक का सफर उम्मीद के मुताबिक रात में तकरीबन 3:30 बजे खत्म हो गया. जलगांव रेलवे स्टेशन के अंदर दाखिल होने से पहले मैंने चाय के घूंट लेना मुनासिब समझा. गाड़ी का इंतजार प्लेटफॉर्म नंबर तीन पर कर ही रहा था कि अचानक सिर में कुछ तकलीफ सी महसूस हुई. ठंडे पानी से गला तर करते हुए मुंह धोया कि बेसिन के पास कदम लड़खड़ा गए. संभलते हुए अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश में था, तभी जेहन में एक सवाल गूंजा, ‘आज चुक जाओगे क्या?’

सर्दी की उस रात के कुछ ही पलों में मैं पसीने से तरबतर हो उठा था. स्टेशन छोटा होने और रात के कारण चहल-पहल कम थी. किसी तरह इर्द-गिर्द की चीजों के सहारे खड़ा हुआ तो पाया कि आंखों के सामने का अंधेरा और गहराता जा रहा था. ऐसा लग रहा था कि दिमाग सुन्न पड़ जाएगा. मन में बस यही दुआ उठ रही थी कि खुदा..! आज मत बुझा ये दीपक. एक दिन बाद मेरे भतीजे का पहला जन्मदिन था. कमबख्त उसे देखना भी नसीब नहीं होगा क्या..? मैं संभलता हुआ पास पड़ी कुर्सी पर बिछ सा गया. आसपास से गुजरते लोग धुंधले होते नजर आ रहे थे. यकायक मैं चिल्लाया मां… इस चीख ने कुछ ही दूर स्थित रेलवे की ओर से संचालित फूड कोर्ट में बैठे एक सज्जन का ध्यान खींच लिया था. अंधेरे और धुंध की परवाह छोड़कर मैं किसी तरह लड़खड़ाते हुए उसके पास पहुंचा.

‘क्या लोग थे यार..! स्टेशन मास्टर ने कहा कि आप इलाज कराकर आओ, ट्रेन रुकी रहेगी. हुआ भी ऐसा ही’

शरीर साथ नहीं दे रहा था. सिर दर्द से फट रहा था और अंधेरा बढ़ता जा रहा था. आंखों से आंसू रिसने लगे थे. फिर भी शायद हिम्मत अभी बची हुई थी. किसी तरह उसे समेटकर उस अजनबी से मैंने कहा, ‘मुझे लगता है जहरखुरानी का शिकार हो गया हूं, डॉक्टर चाहिए बचा लो. उस भले आदमी ने जीआरपी के दो जवानों को इत्तला देकर उन्हें बुलाया. टूटी-फूटी मराठी और हिंदी में उन जवानों से मैंने क्या कहा, कुछ याद नहीं. उसके बाद जीआरपी के जवान मुझे स्टेशन मास्टर के केबिन में ले गए. वहां हिम्मत के साथ उम्मीद थोड़ी और जागी. उन्हें उसी हाल में अपना सारा हाल सुनाया.

तब तक किसी भी परचित से बात नहीं की थी. बड़े भाई की तरह अपने एक वरिष्ठ साथी को भी फोन कर हाल बताया. घड़ी की सुईयां तेजी से भाग रही थीं और रात काली होकर बीत चुकी थी, सुबह के पांच बज रहे थे. स्टेशन मास्टर ने मुझे सिविल अस्पताल ले जाने के लिए कहा. मगर मैं किसी भी हाल में ट्रेन नहीं छोड़ना चाह रहा था. हालांकि फिर जो कुछ भी हुआ वह अप्रत्याशित था. क्या लोग थे यार..! स्टेशन मास्टर ने कहा कि आप इलाज कराकर आओ, ट्रेन रुकी रहेगी. हुआ भी ऐसा ही, ट्रेन तब तक रुकी रही जब तक कि मैं इलाज कराकर न आ गया. दरअसल यह जहरखुरानी नहीं थी बल्कि मेरी अस्त-व्यस्त दिनचर्या और खानपान का नतीजा था. बेसमय खाने और चाय की वजह से बनी गैस ने सिर पकड़ लिया था और अक्ल ठिकाने आ गई.

उस दिन उन भले लोगों ने अजनबी शहर में दिल खोलकर स्नेह लुटाया. शुक्रिया जलगांव..! जिंदगी उधार रही, कभी करम हुआ तो फिर तुम्हारे दर पर आऊंगा. तुम और तुम्हारे यहां के लाेग न होते तो पता नहीं क्या होता.

(लेखक पत्रकार हैं)

जेएनयू : देशद्रोहियों का गढ़?

DSC_7235web
फोटो- पारोमिता चटर्जी

कांग्रेसी राजकुमार की हैसियत से राहुल गांधी 2009 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पहुंचे थे. वे उत्तर प्रदेश की एक दलित बस्ती का दौरा करके सीधे यहां आए थे. राहुल दलित बस्ती में तो बिना किसी तामझाम के गए, लेकिन जेएनयू में उनके साथ कड़ी सुरक्षा थी. इस पर बीबीसी ने लिखा था, ‘राहुल को जेएनयू के बुद्धिजीवियों से कोई खतरा तो नहीं था? वैसे नेताओं को जेएनयू में हमेशा खतरा रहता है लेकिन जान का नहीं, बल्कि सवालों का और उस खतरे से सामना राहुल का भी हुआ.’ राहुल को जेएनयू में काले झंडे दिखाए गए. ठीक वैसे ही जैसे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या उनसे बहुत पहले पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दिखाए गए थे. राहुल बीच में भाषण छोड़कर मंच से नीचे आए और छात्रों से सवाल पूछने को कहा. छात्रों ने सवालों की झड़ी लगा दी. कॉरपोरेट को टैक्स में छूट, विदेश नीति, किसान आत्महत्या, गुटनिरपेक्षता, लैटिन अमेरिका पर भारत की नीति और कांग्रेस में मौजूद वंशवाद पर तीखे सवाल पूछे गए. यह संसद की समयबिताऊ बहस नहीं थी. यह हर दिन मार्क्स, एंगेल्स, गांधी, एडम स्मिथ और गॉलब्रेथ को पढ़ने वाले युवाओं के सवाल थे. राहुल गांधी छात्रों को माकूल जवाब देकर संतुष्ट नहीं कर पाए.

यह जेएनयू की परंपरा है जहां से राजनीति और लोकतांत्रिक प्रतिरोध की एक स्वस्थ धारा निकलती है. देश और दुनिया भर से छात्र यहां पढ़ने आते हैं और कम से कम एशिया में उसे एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के तौर पर जाना जाता है. हालांकि, जेएनयू के बारे में तरह-तरह की भ्रांतियां और आरोप भी सामने आते रहे हैं. हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ ने जेएनयू पर ‘दरार का गढ़’ शीर्षक से एक कवर स्टोरी प्रकाशित की, जिसमें आरोप लगाया गया, ‘जेएनयू को वामपंथियों का गढ़ कहा जाता है. भारतीय संस्कृति को तोड़-मरोड़कर गलत तथ्यों के साथ प्रस्तुत करना यहां आम बात है…यहां के लोग तमाम तरह की देशविरोधी बातों की वकालत करते हैं. यहां के ‘बुद्धि के हिमालयों’ को सिर्फ एक ही बात समझाई और घुट्टी में पिलाई जाती है कि कैसे भारतीय संस्कृति से द्रोह व द्वेष, भारतीय मूल्यों का विरोध, हिंदू विरोध, ​देश विरोधी कार्य, समाज विरोधी कार्य करना है.’ इसके अलावा पांचजन्य जेएनयू परिसर पर कुछ ऐसा आरोप लगाता है कि जैसे यहां पर देश तोड़ने वाले लोगों का कोई कैंप चलता हो.

पांचजन्य के ये आरोप गंभीर हैं. उन पर जरूर गौर करना चाहिए. क्या जेएनयू में सिर्फ नक्सली समर्थक या देश तोड़ने वाले लोग पाए जाते हैं? वहां वामपंथ, दक्षिणपंथ, समाजवाद, गांधीवाद, अंबेडकरवाद आदि सभी धाराओं के मानने वाले लोग भी मौजूद हैं, क्या आरएसएस इन सबको नक्सली या समाज तोड़ने वाला मानता है? और अगर जेएनयू नक्सलियों और देशद्रोहियों का गढ़ है तो उसे क्यों न बंद कर दिया जाए?

पांचजन्य में छपा लेख कहता है, ‘जेएनयू की नीति निर्माण इकाई में नव-वामपंथियों ने गहरी घुसपैठ की है और इसका परिणाम यह हुआ कि यहां की पाठ्य सामग्री में उनका पूरा हस्तक्षेप हो गया. इतना ही नहीं यहां मानवाधिकार, महिला अधिकार, पांथिक स्वतंत्रता, भेदभाव एवं अपवर्जन, लैंगिक न्याय एवं सेक्युलरिज्म से ओतप्रोत पाठ्यक्रमों को बढ़ावा दिया गया. साथ ही यहां एक षडयंत्र के तहत भेदभाव एवं अपवर्जन अध्ययन केंद्र, पूर्वोत्तर अध्ययन केंद्र, अल्पसंख्यक एवं मानवजातीय समुदायों और सीमांत क्षेत्रों का अध्ययन केंद्र सहित और भी कई अध्ययन केंद्रों की स्थापना की गई. लेकिन इनमें नव वामपंथी छात्र एवं छद्म ईसाई मिशनरियों से ओतप्रोत शिक्षकों को भर दिया गया. इन तमाम चीजों ने जेएनयू से शिक्षित पीढ़ी को वैचारिक रूप से भ्रष्ट बना दिया.’ इस लेख के मुताबिक, जेएनयू के छात्र और शिक्षक दोनों ही मिलकर ‘देश और समाज’ को तोड़ रहे हैं.

यह सोचने की बात है कि क्या मानवाधिकार, महिला अधिकार, पांथिक स्वतंत्रता, भेदभाव एवं अपवर्जन, लैंगिक न्याय एवं सेक्युलरिज्म जैसे मूल्यों का अध्ययन करने पर पीढ़ियां भ्रष्ट हो जाती हैं? क्या मानवाधिकारों का उल्लंघन, महिला उत्पीड़न, भेदभाव, लैंगिक अन्याय और सांप्रदायिकता से राष्ट्र मजबूत होता है? इन आधुनिक मूल्यों के प्रति युवाओं में जागरूकता फैलाना राष्ट्र को तोड़ना है या इनका विरोध करना राष्ट्र को तोड़ना है? उक्त सभी मूल्यों का विरोध करना क्या राष्ट्र को मध्ययुग में ले जाने का प्रयास करना नहीं है?

‘आरएसएस जिस समाज की कल्पना करता है, वह जेएनयू जैसे परिसर में ठोस तरीके से ध्वस्त हो जाती है. वे अपने राजनीतिक विरोधियों को ही राष्ट्रद्रोही कहते हैं. जो इनके खांचे में फिट न बैठे, वह इनके लिए देशद्रोही है’

जेएनयू के प्रोफेसर मणींद्र ठाकुर इन आरोपों के जवाब में कहते हैं, ‘यह बे​वकूफी भरे आरोप हैं. किसी जमाने में जेएनयू काफी रेडिकल हुआ करता था, आज तो वह वैसा भी नहीं रहा. ये जरूर है कि 60-70 प्रतिशत छात्र पिछड़े तबके से आते हैं. वे देखते हैं कि यह व्यवस्था अमीरों के लिए ज्यादा है. पूरा भारतीय गणराज्य कॉरपोरेट के लिए खोल दिया गया है. वे वामपंथ से प्रभावित होते हैं क्योंकि वह सबकी भागीदारी और सामाजिक न्याय की बात करता है. आप माओवादियों की लड़ाई के तरीके से मतभेद रख सकते हैं, लेकिन जिस गरीब जनता के लिए न्याय की लड़ाई की बात की जाती है, उससे इत्तेफाक रखने में क्या बुराई है? यह सही है कि कुछ लोगों को नक्सल आंदोलन से सहानुभूति है, लेकिन इन छात्रों को नक्सली कहना ज्यादती है. कॉरपोरेट व्यवस्था पर सवाल करना देशद्रोह कैसे हो गया? कॉरपोरेट हमारे लिए राष्ट्र कैसे हो सकता है? यह भाजपा, संघ और सुब्रमण्यम स्वामी जैसे लोगों की निजी दिक्कत है.’

जेएनयू की प्रोफेसर अर्चना प्रसाद पांचजन्य के इस हमले को एक राजनीतिक हमले के रूप में देखती हैं. वे कहती हैं, ‘जेएनयू छात्रसंघ नॉन नेट फेलोशिप खत्म करने और शिक्षा के निजीकरण के विरोध में प्रदर्शन की अगुआई कर रहा है. विश्वविद्यालय में दक्षिणपंथ से प्रभावित कोर्स लागू करने के प्रयासों का विरोध किया गया. जेएनयू के छात्रों और शिक्षकों ने लेखकों, वैज्ञानिकों और कलाकारों के उस आंदोलन का समर्थन किया जो सांप्रदायिकता के खिलाफ और बोलने की आजादी के पक्ष में चलाया जा रहा है. आरएसएस के मुखपत्र का यह हमला इन्हीं राजनीतिक संदर्भों में देखना चाहिए. जेएनयू हमेशा ही प्रचलित स्थापनाओं के खिलाफ और प्रगतिशीलता के समर्थन में रहा है. यहां के अध्यापक और छात्र हमेशा राजनीतिक स्टैंड लेते हैं और सत्ताधारी वर्ग के शोषण के खिलाफ आवाज उठाते हैं.’

जेएनयू वह कैंपस है, जहां पर 1975 में आपातकाल का पुरजोर विरोध किया गया था. यहां के छात्रों ने 1984 में सिख विरोधी दंगों का विरोध किया तो बाबरी ध्वंस और गुजरात दंगे का भी यहां विरोध हुआ. मनमोहन सिंह और राहुल गांधी के अलावा प्रणब मुखर्जी भी जब जेएनयू आए तो उन्हें तीखे सवालों का सामना करना पड़ा. नवउदारवादी नीतियों का सबसे मुखर विरोध जेएनयू कैंपस में ही होता है. मुजफ्फरनगर दंगों का भी जेएनयू के छात्रों ने विरोध किया. हाल ही में मुजफ्फरनगर दंगे पर बनी डाक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग पुलिस ने रोकने की कोशिश की, लेकिन जेएनयू के छात्रों ने उसकी स्क्रीनिंग करवाई.

जेएनयू में एबीवीपी के प्रेसीडेंट रह चुके डॉ. मनीष कुमार का कहना है, ‘यह पहली बार नहीं है कि जेएनयू के बारे में ‘पांचजन्य’ और ‘ऑर्गनाइजर’ में ऐसी बातें लिखी गई हैं. 2013 में भी ऑर्गनाइजर लिख चुका है कि जेएनयू नक्सलवाद का बुद्धिजीवी मुखौटा है. किसी ने उसे महत्व नहीं दिया. लेकिन इस बार पांचजन्य के लेख को असहिष्णुता आंदोलन से जोड़ दिया गया. जेएनयू के विद्यार्थी हर विचारधारा से जुड़े हैं. यहां आरएसएस की विद्यार्थी परिषद भी चुनाव लड़ती है. इस बार भी उनकी एक सीट आई है. यहां की फैकल्टी में जरूर संघ की विचारधारा वालों के लिए निषेध है. लेकिन जेएनयू को देशद्रोहियों का अड्डा कहना अर्धसत्य है. यह एक वैचारिक दृष्टिकोण हो सकता है. ठीक उसी तरह जिस तरह भाजपा-संघ को वामपंथी फासिस्ट और न जाने क्या क्या कहते हैं. दोनों ही एक दूसरे को नीचा दिखाने में किसी से कम नहीं हैं.’

यहां के छात्रों और शिक्षकों पर नक्सलवादियों और अलगाववादियों से सहानुभूति रखने का आरोप मनीष कुमार भी लगाते हैं लेकिन वे कहते हैं, ‘विचारधारा चुनने की स्वतंत्रता होनी ही चाहिए. नक्सलवाद एक समस्या है. जो लोग इसे एक सामाजिक-आर्थिक समस्या मानते हैं उनके लिए ये छात्र देशभक्त हैं और जो लोग नक्सलवाद को देशद्रोह मानते हैं वो इन्हें देशद्रोही कहने के लिए स्वतंत्र हैं. लोगों को भारत में विचारधारा चुनने की आजादी है. विश्वविद्यालय के छात्र वैचारिक आदर्शवाद का आनंद नहीं लेंगे तो कौन लेगा? जेएनयू के ज्यादातर वामपंथी छात्र भी पढ़ाई के बाद प्रशासन और अन्य क्षेत्रों में जाते हैं या फिर यूरोप-अमेरिका जाकर जेएनयू का नाम रोशन करते हैं. इसलिए जेएनयू को देशद्रोहियों का अड्डा कहना उचित नहीं है.’

जेएनयू के कुलपति सुधीर कुमार सोपोरी से एक बार एक साक्षात्कार में पूछा गया कि जेएनयू में खास क्या है? उनका जवाब था, ‘यहां का माहौल और खुली सोच इस विश्वविद्यालय की ताकत है. आपको कहने और सुनने की क्षमता मिलती है. यहां के शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच एक संबंध है. कई छोटी जगहों और पिछड़े तबके के छात्रों से मिलना बहुत भावुकता भरा होता है. कई छात्र कहते हैं कि जेएनयू नहीं होता तो हम पढ़ नहीं पाते. अगर शांति भंग न हो तो यहां आपको जो विचार-विमर्श करना है कीजिए. हमें कोई समस्या नहीं. हमें विभिन्न अनुशासनों की दीवारें तोड़नी होंगी, तभी नई धारणाएं सामने आएंगी और नई अकादमिक लहर बनेगी.’

जेएनयू के बारे में वहां के छात्रों या शिक्षकों से अलग तमाम लोग ऐसे हैं जो वहां की आबो-हवा से बहुत प्रभावित रहते हैं और सिर्फ बहस-मुबाहसों का आनंद लेने के लिए वहां आते-जाते रहते हैं. जेएनयू पर दक्षिणपंथी हमले के बरअक्स साहित्यकार अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, ‘जेएनयू एक आधुनिक और लोकतांत्रिक शैक्षणिक माहौल के सृजन का प्रतीक है. देश के बाकी सभी विश्वविद्यालयों से इतर यहां सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक चेतना को विकसित करने का जो प्रयास लगातार किया गया है उसका परिणाम है कि इस विश्वविद्यालय ने न केवल ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में मौलिक तथा जनपक्षधर योगदान दिया है बल्कि करियरिज्म से ग्रस्त हमारी शिक्षा व्यवस्था के समक्ष एक समावेशी तथा लोकतांत्रिक मॉडल भी विकसित किया है. जेएनयू का छात्र सही मामले में वैश्विक चेतना से लैस होता है तथा देश-दुनिया के उन सभी मामलों में हस्तक्षेप की कोशिश करता है जो सत्ता और नागरिकों के द्वंद्व से उपजते हैं. धर्मनिरपेक्षता, जाति और लैंगिक समानता का संवैधानिक मूल्य यहां की शिक्षा व्यवस्था में ही नहीं बल्कि रोजमर्रा के व्यवहार में भी गहरे समाए हुए हैं. यही वजह है कि संविधान विरोधी, कट्टरपंथी, पुरोगामी और असहिष्णु शक्तियों को जेएनयू से हमेशा ही समस्या रही है. उनके विनाशकारी मंसूबों के खिलाफ यह विश्वविद्यालय हमेशा एक चुनौती प्रस्तुत करता रहा है. शिक्षा के निजीकरण से लेकर जल, जंगल और जमीन की लूट के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाला संस्थान उन्हें कैसे पच सकता है? यह राष्ट्र का नहीं, बल्कि उस हिंदू राष्ट्र का विरोधी संस्थान है जिसमें संविधान के नाम पर मनुस्मृति लागू करने की घृणित मंशा छिपी हुई है.’

इस साल सत्र की शुरुआत में भाजपा के छात्र संगठन एबीवीपी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का नाम बदल कर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम पर रखने की मांग की थी. इसी दौरान भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी का कहना था कि जेएनयू नक्सलियों, जेहादियों और राष्ट्र विरोधियों का अड्डा बन गया है. उन्हें यहां का उप-कुलपति बनाने की चर्चा चली तो उन्होंने कहा कि पहले जेएनयू कैंपस में एंटी नॉरकोटिक्स ब्यूरो और सीआईएसएफ कैंप लगाया जाना चाहिए. जेएनयू के पूर्व छात्र सुयश सुप्रभ कहते हैं, ‘हाल के वर्षों में जेएनयू में संघ का प्रभाव बढ़ा है. लेकिन उनकी राजनीति का तरीका अलग है. वे उपद्रव और आतंक के सहारे लोगों को भड़काने की राजनीति करते हैं. जेएनयू की परंपरा में बहुत सी चीजें कमजोर हुई हैं. लिंगदोह कमेटी के सहारे छात्र राजनीति को लगातार कमजोर किया जा रहा है. वे समाज का जैसा ढांचा चाहते हैं, उसी के अनुरूप राजनीति भी चाहते हैं. हम सामाजिक न्याय और लैंगिक समानता की बात करते हैं तो इससे उन्हें परेशानी होती है.’

भाजपा और संघ के जेएनयू विरोध पर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के शोधार्थी आशीष मिश्र कहते हैं, ‘भाजपा सोच-विचार की हर संभावना को नष्ट करते हुए नागरिक को मात्र भीड़ बना देना चाहती है. इस प्रक्रिया में सबसे बड़े प्रतिरोधी हैं सोचने-समझने व तर्क करने वाले लोग. जो लोग अपने ही देश के मानक विश्वविद्यालय पर इस तरह की बातें कह रहे हैं उनके बारे में क्या कहा जा सकता है! जिस पवित्र स्थान पर पैर रखने से बड़े-बड़े ज्ञानी-ध्यानी डरते हैं, मूर्ख वहां धड़धड़ा के घुस जाता है.’

‘जेएनयू की यही खास बात है कि यह हमें क्रिटिकल होना सिखाता है. हम कहते हैं कि एक वर्ग दूसरे वर्ग का शोषण न करे, अगर यह आपको देश तोड़ने वाला विचार लगता है तो आपकी देश की कल्पना ही गड़बड़ है’

जेएनयू में ही शोधछात्र और वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल इस विरोध के पीछे सवर्ण वर्चस्व की मानसिकता को रेखांकित करते हैं. वे कहते हैं, ‘जेएनयू का विरोध तमाम तरह से होता रहा है. लेकिन इस बार एक सत्ता प्रतिष्ठान की ओर से संगठित ढंग से यह हमला हुआ है, जो अपने आप में एक संदेश है. जेएनयू में रेडिकलिज्म पहले भी था, उससे उन्हें दिक्कत नहीं थी. अब इसमें सामाजिक विविधता भी जुड़ गई है. यह दोनों बातें एक साथ होना सत्ता प्रतिष्ठान को पसंद नहीं है. 2011 में पूरी तरह से आरक्षण लागू होने के बाद यहां पर लड़कियों और दलितों-पिछड़ों की भागीदारी खूब बढ़ गई है. वैसे भी दलित संगठनों का सामना करना दक्षिणपंथी संगठनों के लिए मुश्किल होता है क्योंकि वे सामाजिक न्याय का मसला उठाते हैं. इसकी जगह कोई मुस्लिम संगठन हो तो उनके लिए यह आसान हो जाता है. महिलाओं व दलितों की ज्यादा संख्या और रेडिकलिज्म का एक साथ होना उन्हें चुभता है, जबकि यह दोनों चीजें अलग-अलग और भी जगह हैं, लेकिन वहां पर विरोध नहीं होता.’

जेएनयू पर एक आरोप यह भी लगता है कि यह भारतीय मूल्यों को नष्ट करने पर तुला है और यहां पढ़ने वाली लड़कियां स्वच्छंद होती हैं, या फिर उनको सामाजिक-पारिवारिक मूल्यों को तोड़ना सिखाया जाता है. उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ से आकर यहां एमए कर रहीं अदिति मिश्रा किसी पार्टी या संगठन से जुड़ी नहीं हैं. वे कहती हैं, ‘एक लड़की के रूप में मुझे जेएनयू के कैंपस में जितनी आजादी मिली, उतनी और कहीं नहीं मिली. जेएनयू ही एक ऐसी जगह है, जहां पर कभी मुझे डर नहीं लगा. दिल्ली की सड़कों पर शाम सात-आठ बजे डर लगता है, लेकिन जेएनयू में रात के दो बजे भी डरने की जरूरत नहीं होती. मैं यहां पर आराम से रह सकती हूं, पढ़ती हूं, तो क्या मैं नक्सली या आतंकी हूं? जो आरोप लगा रहे हैं, उन्हें अपनी विचारधारा पर पुनर्विचार करना चाहिए कि लोग उन्हें क्यों नापसंद करते हैं.’

आरएसएस के सपनों के भारत में परंपराओं के साथ-साथ सामाजिक बुराइयों का बड़ा मजबूत स्थान है. वे खुले तौर पर दलितों और महिलाओं के पक्ष को खारिज तो नहीं कर पाते, लेकिन मनुस्मृति पर आधारित शोषणकारी वर्ण व्यवस्था और गैर-लोकतांत्रिक पारिवारिक मूल्यों को भी बनाए रखना चाहते हैं. इसीलिए दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श से आरएसएस के लोग खासे असहज हो जाते हैं. पत्रकार अरविंद शेष कहते हैं, ‘आरएसएस जिस समाज की कल्पना करता है, वह जेएनयू जैसे परिसर में बहुत ठोस तरीके से ध्वस्त हो जाती है. यहां की वैचारिकी का पूरे देश में एक खास असर है. संघ का आरोप उनकी जेएनयू जैसे बौद्धिक परिसर के बरअक्स खड़ा होने की कोशिश है कि हम आरोप लगाएं और वहां के लोग हमसे बहस करें. वे अपने राजनीतिक विरोधियों को ही राष्ट्रद्रोही कहते हैं. जो इनके वै​चारिक सामाजिक खांचे में फिट न बैठे, वह इनके लिए देशद्रोही हो जाता है.’

यह भी एक तथ्य है कि देश भर के विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति को कमजोर किया गया है. जर्मनी के मीडिया संस्थान डायचे वेले में काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार उज्ज्वल भट्टाचार्य ने बताया, ‘बीएचयू कैंपस  में छात्रों का राजनीतिक विमर्श में भाग लेने व संगठन बनाने का अधिकार छीन लिया गया है. हम सबको याद है कि किस तरह छात्र संघ व शिक्षक संघ के पूर्व अध्यक्ष प्रो. आनंद कुमार को छात्रों के साथ बातचीत करने से रोक दिया गया था. लेकिन आरएसएस की गतिविधियां जारी हैं. परिसर में अन्य छात्र संगठनों की गतिविधियां तो प्रतिबंधित हैं, लेकिन एबीवीपी खुलेआम काम कर रही है. विश्वविद्यालय परिसरों का अराजनीतिकरण किया जा रहा है. इसकी एक वजह यह भी है कि शिक्षा के क्षेत्र को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के लिए खोला जाना है. विरोध और विमर्श की संस्कृति उसमें बाधा बन सकती है. पूरे देश में शैक्षणिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विमर्श के मंच के रूप में विश्वविद्यालयों की भूमिका को खत्म किया जा रहा है.’ अब सवाल उठता है कि क्या जेएनयू पर हमला इसी योजना की कड़ी है?

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/open-mindedness-is-in-the-culture-of-jnu-campus-says-retired-professor-of-jnu-anand-kumar/” style=”tick”]पढ़ें प्रो.आनंद कुमार से बातचीत [/ilink]

जेएनयू छात्रसंघ में इस बार एबीवीपी के एक प्रत्याशी सौरभ शर्मा को भी ज्वाइंट सेक्रेटरी पद पर जीत हासिल हुई थी. उन्होंने कहा, ‘मैं पांचजन्य के आरोप से सहमत हूं. सब लोग यहां ऐसे नहीं हैं, लेकिन कुछ लोग हैं जो नक्सलवाद और देशद्रोही गतिविधियों के समर्थक हैं. जब दंतेवाड़ा में सुरक्षा बलों पर नक्सली हमला हुआ तो यहां पर खुशियां मनाई गईं. याकूब मेमन की फांसी पर उन्हें शहीद बताया गया और अब्दुल कलाम की मृत्यु पर उन्हें भला बुरा कहा गया. यहां के वामपंथी खास विचार की तरफ लोगों का ध्रुवीकरण करते हैं. वे महिषासुर दिवस मनाते हैं. आप रावण या महिषासुर की पूजा कीजिए, लेकिन वे लोग हिंदू देवी देवताओं को गालियां देते हैं. वामपंथी संगठन लोकतंत्र की बात करते हैं लेकिन जैसा स्पेस अपने लिए चाहते हैं, वैसा सबको क्यों नहीं देना चाहते? वे भारतीय संस्कृति का विरोध क्यों करते हैं? हम भी सबके लिए स्वतंत्रता चाहते हैं, लेकिन वे लोग जिस स्वतंत्रता की बात करते हैं, वह देश तोड़ने वाली है.’

जेएनयू वह कैंपस है, जहां 1975 में आपातकाल का पुरजोर विरोध किया गया. यहां के छात्रों ने सिख विरोधी दंगों, बाबरी ध्वंस और गुजरात दंगों का विरोध किया. जो भी नेता जेएनयू पहुंचा, उसे तीखे सवालों का सामना करना पड़ा

जेएनयू की छात्रा रह चुकीं साहित्यकार सुमन केशरी कहती हैं, ‘जेएनयू इस देश में एकमात्र ऐसा कैंपस है जहां पर लड़कियां सुरक्षित हैं. जेएनयू सही अर्थों में विश्वविद्यालय है जो विश्वदृष्टि देता है. वहां छात्रों में एक लोकतांत्रिक और समतामूलक दृष्टि विकसित होती है. वहां पढ़ने वाली लड़कियां सही अर्थों में अपने को मनुष्य मानती हैं, क्योंकि उनकी बहुत लोकतांत्रिक और चेतनासंपन्न ट्रेनिंग होती है. जेएनयू में ऐसा खुला वातावरण है कि वे अन्याय के खिलाफ खड़ी हो पाती हैं. अब इस बात से जिन्हें लगता है कि संस्कृति टूट जाएगी, यह उनकी और संस्कृति की समस्या है. किसी परिवार में अगर हर सदस्य लोकतांत्रिक और स्वतंत्रचेत्ता सोच का हो, तो इससे तो परिवार और मजबूत व लोकतांत्रिक होंगे. बाकी कैंपसों में जेएनयू जैसा खुलापन और वैचारिक माहौल क्याें नहीं है.’

गुजरात विश्वविद्यालय में पीएचडी के छात्र अर्श संतोष लिखते हैं, ‘विश्वविद्यालयी शिक्षा और शोध के हवाले से विश्व-स्तर पर जो थोड़ी-बहुत पहचान भारत की बनी थी वह जेएनयू के कारण ही थी. इसीलिए आरएसएस खेमे को वह देशद्रोहियों का अड्डा लगता है. हालांकि सच यह है कि केवल जेएनयू ही नहीं, हर वह विश्वविद्यालय जहां दलित, अल्पसंख्यक और आदिवासी छात्र पढ़ते हैं, वह इन्हें देशद्रोहियों का ही अड्डा लगता है. इन्हें वैज्ञानिक, तर्क आधारित शिक्षा ही राष्ट्रद्रोही लगती है. पढ़ाई-लिखाई का माहौल देखकर ही इन्हें परेशानी होने लगती है.’

जेएनयू में छात्रसंघ की उपाध्यक्ष शहला कश्मीर से हैं. उनके मुताबिक, जो कुछ भी जेएनयू ने उन्हें दिया है, वह कश्मीर में संभव नहीं था. वे कहती हैं, ‘सोचने के दो तरीके हो सकते हैं. एक कहता है कि समाज में जो भी हो रहा है, सब ठीक है. दूसरा है आलोचनात्मक ढर्रा ​जो हमेशा सवाल करता है. जेएनयू की यही खास बात है कि यह हमें क्रिटिकल होना सिखाता है. हम कहते हैं कि एक वर्ग दूसरे वर्ग का शोषण न करे, अगर यह आपको देश तोड़ने वाला विचार लगता है तो आपकी देश की कल्पना ही गड़बड़ है. जेएनयू कैंपस में ​जैसा वैचारिक माहौल है, वैसा दूसरे विश्वविद्यालयों में नहीं है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय राज्य विश्वविद्यालय जैसा है. यहां तक कि डीयू या जामिया भी जेएनयू जैसे नहीं है. यहां लड़कियों की अपनी आवाज है. यहां छात्रों की ट्रेनिंग बेहद लोकतांत्रिक है. यहां का माहौल समाज को नई कल्पना देता है. अगर कोई समाज शोषणकारी आधार पर टिका है तो उसे तोड़ा ही जाएगा. जेएनयू जैसा है, उसे लड़-लड़कर ऐसा बनाया गया है. जिन्हें लगता है कि यह देशद्रोहियों का गढ़ है, उनकी अपनी सोच जड़ हो चुकी है.’ बहरहाल अब सवाल उठता है कि जेएनयू की वैचारिक-बौद्धिक परंपरा से संघ और भाजपा को ही क्यों दिक्कत है?

जेएनयू अपनी विशिष्ट छात्र राजनीति के कारण भी जाना जाता है. छात्र राजनीति को लेकर गठित जीएम लिंगदोह कमेटी ने जेएनयू की छात्र राजनीति को आदर्श रूप में स्वीकार किया है. जेएनयू के शोध छात्र ताराशंकर कहते हैं, ‘यहां ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां चुनाव में हिंसा, धनबल या बाहुबल का प्रयोग नहीं होता है. जेएनयू के चार दशक के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई बाहुबली या दबंग उम्मीदवार चुनाव जीता हो. यहां हिंसा की जगह तर्कों, विचारों और बहस पर आधारित राजनीति होती है. जेएनयू में कम से कम खर्च में स्वस्थ राजनीति की परंपरा है. तमाम समस्याओं पर हाथ से बने रंगीन पोस्टर जेएनयू की राजनीति को अलग पहचान देते हैं. जेएनयू की दीवारें इन पोस्टरों से साल भर जीवंत रहती हैं. कितना भी गरीब छात्र हो, यहां आसानी से चुनाव लड़ लेता है. पूरी चुनाव प्रक्रिया छात्र अपने दम पर संपन्न कराते हैं. यहां की राजनीति कैंपस के बाहर जनहित के मुद्दों पर सड़कों पर संघर्षरत दिखाई देती है. देश भर में कहीं भी अन्याय हो, जेएनयू एक सशक्त आवाज बनकर खड़ा होता है. यहां ‘लड़ो पढ़ाई करने को, पढ़ो समाज बदलने को’ का नारा देते हुए कहा जाता है कि ‘जब राजनीति हमारा भविष्य तय करती है तो क्यों न हम राजनीति को तय करें’.

माओवादी और काॅरपोरेट ने पिछले 15 सालों में झारखंड को तिजोरी की तरह ही देखा

xavier dias web

झारखंड 15 साल का हो गया. आप जैसे लोग झारखंड आंदोलन से जुड़े रहे हैं. इस 15 सालों के सफर में झारखंड की दशा-दिशा पर क्या सोचते हैं?

झारखंड बनने के लिए लंबा आंदोलन चला. राज्य बनने के पहले भीतरी-बाहरी की लड़ाई थी. हम लोगों ने समझ लिया कि ऐसा तो होगा नहीं कि यहां जो रह रहे हैं, उन्हें भगा दिया जाए. तो नया नारा दिया- कमानेवाला खाएगा, लूटनेवाला जाएगा. लेकिन यह सपना भी पूरा नहीं हो सका. हुआ बस यही कि झारखंड का बनना एक सांस्कृतिक जीत की तरह रह गया.

सपना पूरा नहीं हो सका तो किसे दोषी माना जाए?

किसी एक को दोषी नहीं माना जा सकता. लेकिन यह दुखद है. झारखंड ही वह इकलौता राज्य था जहां आदिवासियों के लिए पहली बार आवाज उठी थी. इसके पहले देश में महिलाओं, किसानों, मजदूरों के लिए कई आंदोलन तो हुए लेकिन आदिवासियों के अधिकार व मानवाधिकार के लिए पहला आंदोलन झारखंड में ही हुआ और वहां आदिवासियों के सपने का पूरा न होना दुखद तो है ही, लेकिन दुर्भाग्य यह भी रहा कि झारखंड का निर्माण उस समय हुआ, जब भूमंडलीकरण का जोर दुनिया में था और जीडीपी जैसा शब्द अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन गया था और भारत की जीडीपी झारखंड जैसे राज्य पर ही आकर टिक गई. भारत की जीडीपी बढ़ाने में झारखंड 15 सालों में बर्बाद हो गया.

कहने का मतलब कि पिछले 15 सालों में जो सरकारें रहीं, झारखंड को बर्बाद करने में उनसे ज्यादा भूमिका भूमंडलीकरण की रही. पहले पूरे राज्य में सड़क बनाने, स्कूल-अस्पताल बनाने के लिए एक पैसा तक नहीं होता था. राज्य बनने के बाद से सिर्फ अपार्टमेंट ही बनते रहे और बन रहे हैं.  आप क्या कहेंगे ?

जो सरकार रही, वह तो भूमंडलीकरण के एजेंडे को ही आगे बढ़ाती रही. काॅरपोरेट हित में ही काम करती रही.

इसमें तो सबसे ज्यादा समय तक शासन करने वाली भाजपा के साथ झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसी पार्टियां भी शामिल रहीं ?

हां, किसी पार्टी की बात कर ही नहीं रहा. कांग्रेस भी रही. आजसू जैसी पार्टी रही. झामुमो भी रही. लालूजी की पार्टी भी रही. भाजपा तो लंबे समय तक रही ही.

इतने सालों तक आदिवासी ही मुख्यमंत्री रहे फिर भी उन्होंने आदिवासियों की पीड़ा नहीं समझी, क्यों ?

हां, यह बात सभी कहते हैं लेकिन यह भी तो सब जानते हैं कि इस देश की प्रधानमंत्री एक महिला भी हुई थी तो क्या देश में महिलाओं का विकास हो गया था. पुरुष सत्ता से महिलाओं को मुक्ति मिल गई थी. और जो ये सवाल उठाते हैं उनसे तो मैं यह कहता हूं कि सिर्फ आदिवासी सीएम की बात क्यों याद करते हैं. चार आदिवासी सीएम रहे तो चार बार राष्ट्रपति शासन भी रहा. आदिवासी सीएम सक्षम नहीं थे, गवर्नेंस चलाने में या राज करने में तो चार बार के राज्यपाल शासन में तो साबित करना चाहिए था झारखंड में विकास कराके. लेकिन सबसे बुरी स्थिति तो राष्ट्रपति शासन के दौरान ही रही.

झारखंड आंदोलन के आपके साथी शिबू सोरेन भी तो सत्ता में रहे, उनके बारे में क्या कहेंगे ?

हां. शिबू सोरेन रहे. वे झारखंड आंदोलन से जुड़े एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे. जब वे एमपी बने तो मैं उनके साथ दिल्ली में रहा था. उनके आवास पर. वे कहते थे कि शेर को तुम लोग पिंजरे में बंद कर दिया. शिबू स्थितियों को जान गए थे लेकिन वे कुछ कर नहीं सके. लेकिन दूसरे तो जान समझ भी नहीं सके. अर्जुन मुंडा आजसू आंदोलन के नेता थे लेकिन उनके समय में ही सबसे ज्यादा एमओयू हुए. बाबूलाल मरांडी के मुख्यमंत्री बनने के दो माह बाद ही कोयलकारो कांड हुआ था. नौ आदिवासी मारे गए थे और एफआईआर तक नहीं दर्ज हो सकी थी. मधु कोड़ा मुख्यमंत्री बने तो 4,500 करोड़ रुपये का घपला कर दिया. इसलिए सीएम कौन है, यह महत्वपूर्ण नहीं. झारखंड दूसरे किस्म के दुष्चक्र में फंसता गया. यहां अचानक पैसे की आवक बढ़ी. यह लूट का अड्डा बन गया. यहां जो भी सीएम बने वो इस्तेमाल होते रहे. आप देखिए कि दस साल पहले कोयले की कीमत क्या थी. दस साल में दस गुना बढ़ोतरी हुई. पिछले 15 सालों में झारखंड सिर्फ खनन का ही केंद्र बना रह गया. लेकिन वह भी अब ज्यादा दिन नहीं चलने वाला. झारखंड जल्द ही आॅस्ट्रेलिया की राह पर जाने वाला है.

मतलब?

मतलब यह कि आॅस्ट्रेलिया में आपने सुना होगा कि क्या हुआ. धीरे-धीरे वहां माइनिंग के काम बंद हो रहे हैं, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मांग घट रही है. वहां अभी 30 हजार कामगार काम से हटाए गए हैं. हमारे आपके हिसाब से यह संख्या ज्यादा नहीं लग सकती लेकिन आॅस्ट्रेलिया के लिए यह काफी है क्योंकि वहां का माइनिंग जाॅब पूरी तरह से तकनीक संचालित है. लोग कम काम करते हैं. खदानों में ट्रक तक बिना ड्राइवर चलते हैं.  झारखंड में भी वही होगा, वह मुझे दिख रहा है. आप सोचिए कि कोयले की डिमांड कम हो गई, जो होना ही है क्योंकि दुनिया के विकसित देश कोयले को ब्लैक लिस्ट में डाल रहे हैं. जो कोयले का कारोबार करते हैं, उन्हें अब यूरोपीय यूनियन से पैसा नहीं मिलता. ऊर्जा के लिए भी सौर से लेकर परमाणु तक के विकल्प पर तेजी से काम चल रहा है. अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जब कोयले की मांग कम होगी तो झारखंड पर उसका सीधा असर पड़ेगा. तब धनबाद, हजारीबाग जैसे शहरों की कल्पना कीजिए कि वहां क्या होगा. इसी तरह आयरन ओर की मांग में भी कमी आई है. टाटा कंपनी घाटे में है. अगर टाटा ने अपने दस प्रतिशत कर्मचारियों को भी हटा दिया तो सोचिए कि क्या होगा जमशेदपुर का ? यह अमेरिका का डेट्रायट शहर बन जाएगा. डेट्रायट का हाल तो जानते ही होंगे कि फोर्ड से लेकर तमाम दूसरी बड़ी कार कंपनियां वहां ही थी और वह सबसे गुलजार शहर था लेकिन अब वहां कोई नहीं रहना चाहता. जो हैं, उनके घरों में पानी नहीं. गैस नहीं. ऐसे में झारखंड का हाल और बुरा होगा, क्योंकि राज्य बनने के बाद तो सब कुछ सिर्फ माइनिंग जाॅब के भरोसे ही रह गया. कोई और फैक्ट्री वगैरह तो लगी नहीं. खेती, जो मूल कर्म था, उस पर तो कोई काम नहीं हुआ. लेकिन अफसोस की बात है कि झारखंड के जो साथी हैं, उनके आंदोलन में ये सब मसले अभी शामिल नहीं हैं. राज्य बनने के बाद से झारखंड के भविष्य के लिए जो आंदोलन चलना था, वह चला ही नहीं. सब सत्ता के लिए आंदोलन चलाने में सिमट गए.

झारखंड जैसे राज्य में माओवादी काॅरपोरेट के सिक्योरिटी एजेंट बनकर काम करते रहे हैं और अपना बचाव करने के लिए क्रांति वगैरह का नाम देते रहे हैं. सरकार और काॅरपोरेट, दोनों को यहां माओवादी सूट करते हैं

टाटा के बाद जिंदल और दूसरी कई कंपनियां भी राज्य में आईं. और कई को तो आने नहीं दिया गया यहां?

एक-दो कंपनी के आने से क्या होगा. और यह भी तो देखना होगा कि किस प्रकृति की कंपनी आई. देखिए मार्क्सवाद में एक धारणा है कि जब तक स्थानीय बुर्जुआ नहीं होंगे, तब तक उस इलाके का विकास नहीं होगा. झारखंड में स्थानीय बुर्जुआ ही नहीं रहे. जो बाहरी बुर्जुआ होते हंै, उन्हें आपके विकास से लेना देना नहीं होता. वे सिर्फ अपने लाभ को देखते हैं और पैसे को बाहर भेजते हैं. टाटा को तो हमने देखा है. 1972 के पहले तक टाटा ने झारखंड के लिए क्या किया. वह तो 1972 में टाटा का शताब्दी समारोह था तो टीआरटीसी जैसा एक फंड बनाकर कर्मचारियों के लिए कुछ किया गया, नहीं तो उसके पहले एक अस्पताल था तो उसमें स्थानीय लोगों को इलाज के लिए भर्ती तक नहीं किया जाता था. टाटा हो या कोल इंडिया या कोई और कंपनी, मैं एक की बात नहीं कर रहा. ये बाहरी कंपनियां हैं. झारखंड में किसी का मुख्यालय तक नहीं. सब पैसे बाहर जाते हैं. विकास के नाम पर आजकल ये युवाओं को टूजी, थ्रीजी मोबाइल पकड़वाते हैं. वह भी सोची समझी चाल है. ऐसा करने से आने वाली पीढ़ी उसी की खुमारी में डूबी रहेगी.

झारखंड के साथ ही बने उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में स्थितियां दूसरी रहीं. आप क्या सोचते हैं ?

झारखंड के साथ ही बने छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड की स्थितियों को देखना होगा. दोनों राज्यों के बनने के आधार को और उसके बाद की स्थितियों को भी. सिर्फ झारखंड ही लंबे सामाजिक आंदोलन के बाद राज्य पर बना. छत्तीसगढ़ के लिए तो कोई आंदोलन ही नहीं था और उत्तराखंड के लिए चार-पांच सालों तक सक्रिय आंदोलन चला होगा. राज्य बन जाने के बाद उन दोनों राज्यों के लिए सुखद यह रहा कि वहां स्थानीय बुर्जुआ भी थे, जिन्होंने राज्य का विकास किया. झारखंड में स्थानीय  बुर्जुआ नहीं रहे. जिसका मकसद सिर्फ लूटना होगा, वह विकास कैसे करेगा. झारखंड में लुटेरे ज्यादा रहे.

शुरू में बात हुई कि आदिवासी नेतृत्व रहते हुए भी इन सवालों को नहीं समझा गया.  तो क्या अब माना जाए कि एक गैर आदिवासी को जब राज्य की कमान मिली है तो वो समझेगा ? क्योंकि मुख्यमंत्री भाजपा से हैं और भाजपा राज्य में आदिवासियों की सियासत भी करती रही है.

दो बातें साफ कर दूं. आप जब-जब आदिवासी नेतृत्व और उनकी विफलताओं पर बात करेंगे तब-तब मेरे जैसा आदमी चार बार के राष्ट्रपति शासन में हुए कामों का हिसाब मांगेगा कि अगर आदिवासी नेतृत्व अक्षम था तो केंद्र सरकार को राज्य का विकास कर दिखाना चाहिए था, लेकिन वह नहीं हुआ. रही बात गैर आदिवासी के मुख्यमंत्री बनने की तो इससे मैं सहमत नहीं हूं. यह आगे के लिए और खतरनाक है. एक बार गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बन गया तो अब आगे आदिवासी मुख्यमंत्री बनने में परेशानी ही होगी. यह झारखंड से आदिवासियों को बेदखल करने की दिशा में बढ़ाया गया एक मजबूत कदम है. इसका असर दिखेगा. ब्यूरोक्रेसी और रूलिंग क्लास को आदिवासी पसंद नहीं. झारखंड का दुर्भाग्य है कि यहां जो आदिवासी नेतृत्व है, नेता हैं, आंदोलनकारी हैं, वे बहुत कमजोर हैं या बिखराव के शिकार हैं. रही बात भाजपा और आदिवासियों के रिश्ते की तो अब भ्रम में रहने की जरूरत नहीं. आपने देखा होगा कि कुछ दिनों पहले यहां आरएसएस की राष्ट्रीय बैठक हुई. तब आदिवासियों ने मोहन भागवत के पुतले जलाए थे. सार्वजनिक तौर पर. आप देखिए कि सिंहभूम जैसे इलाके में भाजपा अब जीत नहीं पाती, जो आदिवासियों का गढ़ है. भाजपा से आदिवासियों का तेजी से मोहभंग हुआ है.

झारखंड जैसे राज्य में एक मजबूत धारा तो नक्सलियों की भी रही. पिछले 15 सालों में यह रेडजोन बना रहा. उन्होंने शोषण या लूट रोकने के लिए कुछ सार्थक किया?

आप पहले उन्हें नक्सली मत कहिए. नक्सल आंदोलन से निकले नक्सलियों में तो एक सार्थक भावना थी. उद्देश्य था लेकिन अब तो भाकपा माओवादी हैं और उसके साथ ही सरकार द्वारा पोषित कई संगठन. झारखंड बनने के बाद यहां माओवादी भी काॅरपोरेट की तरह आए. बंगाल, बिहार , आंध्र प्रदेश से,  क्योंकि उनकी नजर भी यहां की तिजोरी पर थी. वे भी काॅरपोरेट की तरह लूटने आए. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि माओवादियों का एक आंदोलन तो दिखता जो आदिवासियों के हित में होता. कहां कोई एमओयू वाले इलाके में माओवादियों ने कुछ किया. आदिवासियों की जमीन न जाए, इसके लिए कभी काम करते हुए माओवादी दिखे ? माओवादी कहते हैं कि मजदूर और किसान के लिए काम करते हैं. मजदूर के लिए पिछले 15 सालों में माओवादियों ने झारखंड में क्या किया ? रही बात किसान की तो झारखंड के किसान आदिवासी नहीं हैं. वे खेती करते हैं. खेती करने वाले और किसान में फर्क होता है. अगर इनकी जमीन बचाने के लिए ही पिछले 15 सालों में माओवादियों ने कुछ किया होता तो एक बात होती. मैं दो साल पहले चाईबासा जेल में बंद था. माओवादी भी साथ थे. उनसे पूछता था कि क्या कर रहे हो. वे ख्वाबों की दुनिया में थे. लांग मार्च करेंगे, दिल्ली पर कब्जा करेंगे. हथियारों के सहारे अपनी सत्ता लाएंगे. अब उन्हें कौन समझाए कि पंजाब, कश्मीर से लेकर श्रीलंका तक में तो हथियारबंद आंदोलन खत्म हो गए, आप क्या कर लोगे. और क्या माओवादी भारतीय सेना जितनी फौज बना लेंगे. झारखंड जैसे राज्य में माओवादी काॅरपोरेट के सिक्योरिटी एजेंट बनकर काम करते रहे हैं और अपना बचाव करने के लिए क्रांति वगैरह का नाम देते रहे हैं. सरकार और काॅरपोरेट, दोनों को यहां माओवादी सूट करते हैं.

आदिवासियों का तेजी से भाजपा से मोहभंग हुआ है, झारखंड के दल दूसरे ही दुष्चक्र में फंस जाते हैं, कांग्रेस ने इतने सालों तक शासन ही किया और वाम दल, जिनके लिए यहां हमेशा संभावना थी, वे 15 सालों में अपनी जमीन नहीं बना सके तो फिर राजनीतिक तौर पर रास्ता कहां दिखता है?

आदिवासियों के लिए भाजपा का विकल्प कांग्रेस तो कभी नहीं हो सकती. भाजपा ने तो कम से आदिवासियों को अपने पाले में करने के लिए या अपनी पार्टी से जोड़ने के लिए अपना रंग-ढंग वेश भी बदला लेकिन कांग्रेस ने तो कभी वह भी नहीं किया. वाम दलों की तो बात ही मत कीजिए. केरल में उनका शासन रहा है, वहां अब आदिवासियों की आबादी सिर्फ चार लाख है. वाम दलों को अब बताना चाहिए कि कहां गए वहां के आदिवासी. वाम दलों को पहले बताना चाहिए कि इतने सालों तक केरल में सत्ता में रहे तो आदिवासियों और उनकी जमीन बचाने के लिए कोई विशेष कानून वगैरह क्यों नहीं बनाया? वाम दलों को आदिवासियों से कोई लेना-देना नहीं. उनके पोलित ब्यूरो या केंद्रीय कमेटी में देखिए, आदिवासी नदारद मिलेंगे. केरल छोिड़ए, बगल के बंगाल में क्या किया वामपंथियों ने. मैं खुद वामपंथी धारा से सरोकार रखता हूं, इसलिए यह बात अधिकार के साथ कह रहा हूं.

15 साल हो गए राज्य बने, झारखंड के लिए क्या रास्ता है ?

रास्ते  बहुत हैं लेकिन फिलहाल यही समझ लें लोग कि झारखंड और आदिवासियों को बचाना, इस देश ही नहीं दुनिया को बचाने जैसा है. देश अमेरिका के पदचिह्नों पर चल रहा है. उस अमेरिका के रास्ते पर जहां पिछले दो माह में सैैकड़ों लोग पुलिस की गोलियों से मारे गए हैं. उस अमेरिका के रास्ते पर जहां हर साल तीन हजार से ज्यादा नौजवान और किशोर आपसी खूनखराबे में मारे जाते हैं. उस अमेरिका के रास्ते, जहां एक डेट्रायट शहर बना तो दिख रहा है लेकिन कई डेट्रायट और भी बनने वाले हैं. जल्द ही वह समय आएगा, जब दुनिया उस माॅडल से तंग आएगी. तब मनुष्यता का बोध होगा. तब मनुष्यता की राह दिखाने के लिए आदिवासियों की जरूरत होगी, जिनका अपना समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, कलाशास्त्र, मनोविज्ञान रहा है. दुनिया तलाशेगी कि आदिवासियों से सीखा जाए कि अभाव में भी कैसे खुश रहा जाता है. धरती, जंगल और  नदी को कैसे बचाया जाता है. समुदाय बोध के साथ कैसे रहा जाता है, यह जाना जाए. लेकिन तब तक आदिवासी बचेंगे नहीं. रूलिंग क्लास, काॅरपोरेट, राजनीतिक पार्टियां, माओवादी, सब मिलकर उन्हें खत्म कर चुके होंगे.

असद अशरफ के साथ तहलका कविता

आत्महत्या की ‘तैयारी’

Bansal Classes

‘मम्मी-पापा…प्लीज मुझे माफ कर दीजिएगा… मैं नहीं कर सकी आप लोगों की डॉक्टर बनने की इच्छा पूरी… मैं कितना भी पढ़ लूं लेकिन मेरा चयन नहीं होगा…पिछला साल मेरा खराब हुआ पर इस साल मैं बहुत मेहनत कर रही थी… लेकिन फिर भी कोई अच्छे परिणाम नहीं मिल रहे, इसलिए मुझे माफ कर दीजिएगा मेरी हिम्मत नहीं होगी आप लोगों से नजर मिलाने की इसलिए मैं अपनी जिंदगी खत्म कर रही हूं…’

यह सुसाइड नोट 18 साल की अंजलि आनंद का है जिन्होंने 30 अक्टूबर की रात अपने हॉस्टल के कमरे में फांसी लगाकर जान दे दी. अंजलि कोटा के एक कोचिंग संस्थान से ऑल इंडिया प्री मेडिकल टेस्ट (एआईपीएमटी) की तैयारी कर रही थी. पिछले साल भी उसने एआईपीएमटी की परीक्षा दी थी पर अपेक्षित परिणाम नहीं मिले. इस बार फिर पिता से जिद कर उसने कोचिंग में दाखिला लिया था. पर समय के साथ अंजलि को अब यह एहसास हो चला था कि वह अपना और अपने माता-पिता का उसके डॉक्टर बनने का सपना शायद ही कभी पूरा कर पाए और इसी आत्मग्लानि में बढ़ते तनाव के चलते उसने अपना जीवन खत्म करने का फैसला कर लिया.

यह कहानी सिर्फ अंजलि की हो, ऐसा भी नहीं है. मुजफ्फरपुर (बिहार) के 17 साल के सिद्धार्थ रंजन ने भी पिछले दिनों आत्महत्या कर ली क्योंकि वह घर से इतनी दूर अकेले नहीं रहना चाहता था. आत्महत्या से दो दिन पहले ही उसने अपने माता-पिता को अपने साथ कोटा आकर रहने के लिए कहा था. रंजन भी मेडिकल क्षेत्र में जाने की तैयारी के लिए कोटा गया था, लेकिन मां-बाप से दूर रहना उसे रास नहीं आ रहा था. पढ़ाई में प्रतिस्पर्धा के दबाव और परिवार से दूर अकेले रहने से वह तनाव में था. जिससे बाहर निकलने के लिए उसने आत्महत्या का रास्ता चुना.

कोटा एक समय मेडिकल और इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षाओं में बेहतर परिणाम देने के लिए जाना जाता था, पर इन दिनों छात्रों द्वारा आत्महत्या के बढ़ते मामलों को लेकर सुर्खियों में है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, वर्ष 2014 में कोटा में 45 छात्रों ने आत्महत्या की जो 2013 की अपेक्षा लगभग 61.3 प्रतिशत ज्यादा थी. इस साल अक्टूबर तक यह संख्या 30 के करीब पहुंच गई है. अक्टूबर माह में ही ऐसे छह मामले सामने आ चुके हैं. सबसे पहले दो अक्टूबर की दोपहर राजस्थान के ही पाली जिले के रहने वाले ताराचंद ने अपने कमरे में फांसी लगा ली. उसके बाद जैसे आत्महत्या का सिलसिला चल पड़ा. 13 अक्टूबर को सिद्धार्थ चौधरी, 21 अक्टूबर को अमितेश साहू, 27 अक्टूबर को विकास मीणा और 30 अक्टूबर को हर्षदीप कौर और अंजलि आनंद ने भी खुद को मौत के हवाले कर दिया. इससे पहले भी इसी साल जून माह में भी एक हफ्ते के अंदर ऐसे चार मामले सामने आए थे.

कोचिंग संस्थान भले ही दबाव न डालने की बात कहें लेकिन यहां के प्रतिस्पर्धा भरे माहौल में तैयारी करने वाले बच्चे दबाव महसूस न करें ऐसा संभव नहीं

अधिकांश मामलों में देखा गया कि बच्चों पर पढ़ाई का दबाव तो था ही पर उससे ज्यादा दबाव अपने परिवार की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का था. अंजलि के इतर अगर ताराचंद की बात की जाए तो कोटा की प्रतिस्पर्धा का हिस्सा बनना उसका अपना ही फैसला था. लेकिन जब उसने कोटा की प्रतिस्पर्धा में खुद को पिछड़ता पाया तो वह यह दबाव सह न सका. खेती किसानी कर पेट पालने वाले ताराचंद के पिता सोहनलाल बताते हैं, ‘वह डॉक्टर बनना चाहता था. हमेशा स्कूल में अव्वल आया करता था. एक दिन उसने मुझसे कहा कि वह कोटा जाकर अपने इस सपने को पूरा करना चाहता है तो हमने उसे वहां भेज दिया. हम तो उसकी हर जरूरत का ख्याल रखा करते थे, फिर भी उसने न जाने क्यों ऐसा कदम उठाया.’ ताराचंद पर भले ही अंजलि की तरह अच्छे परिणाम देने के लिए माता-पिता का दबाव नहीं था पर वह कोटा आने के अपने फैसले के कारण अपने परिवार पर जो आर्थिक बोझ डाल चुका था, उसी वजह से दबाव में था. उसने अपने सुसाइड नोट में लिखा भी है ‘आपने मेरी पढ़ाई के लिए सब किया पर मैंने आपका विश्वास तोड़ा.’

डॉ. एमएल अग्रवाल कोटा में मनोचिकित्सक हैं और नियमित रूप से पढ़ाई के तनाव से जूझ रहे छात्रों से मिलते रहते हैं. उनका कहना है कि अभिभावकों को बच्चों के प्रदर्शन के प्रति थोड़ा सहयोगात्मक रवैया रखना चाहिए. वह बताते हैं, ‘अक्सर अभिभावक अपने बच्चे के जन्म से ही उसका भविष्य निर्धारित कर लेते हैं कि उसे बड़ा होकर डॉक्टर बनना है या इंजीनियर? ऐसा अक्सर इसलिए भी होता है क्योंकि अभिभावक अपने कुछ अधूरे सपने जो वे स्वयं पूरे नहीं कर सके, अपने बच्चों से पूरा करवाना चाहते हैं. दबाव का मुख्य कारण यही होता है कि एक बच्चे की रुचि-अरुचि जाने बिना ही उसे डॉक्टर, इंजीनियर बनाने की भट्टी में झोंक दिया जाता है. वह ना-नुकुर करे तो धमकाया जाता है, शादी कराने जैसे अनुचित दबाव बनाए जाते हैं, या फिर बच्चा अपनी मर्जी से भी करिअर के इन क्षेत्रों का रुख करे और बाद में कदम पीछे खींचना चाहे तो मां-बाप उसे फीस के बर्बाद होने की दुहाई देते हैं. एक तरफ बच्चों पर परिवार का यह दबाव होता है तो दूसरी तरफ प्रतिस्पर्धा का, जो तनाव का मुख्य कारण बनता है.’

‘तहलका’ से बातचीत में छात्रों ने भी मनोचिकित्सक की इस बात का समर्थन किया कि बच्चों पर संस्थान की पढ़ाई से ज्यादा, अभिभावकों की उम्मीदों पर खरा उतरने का दबाव होता है. 23 साल के आशीष मिश्रा अपने साथी के साथ हुए एक वाकये को याद करते हुए बताते हैं, ‘उसका चयन आईआईटी के केमिकल इंजीनियरिंग कोर्स में हो गया था, पर उसके माता-पिता चाहते थे कि वह एक और साल ड्रॉप करके कम्प्यूटर इंजीनियरिंग कोर्स के लिए तैयारी करे. आखिर में उसने खुदकुशी कर ली और एक चिट्ठी में अपने मां-बाप से माफी मांगते हुए लिख गया कि वह उनकी सब उम्मीदें पूरी नहीं कर सका.’

आशीष खुद भी माता-पिता के दबाव के कारण कोटा आए थे. वे गायक बनना चाहते थे. इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा में अंक अच्छे नहीं आए पर एक और साल कोचिंग में न गंवाते हुए उन्होंने देहरादून के एक कॉलेज में एडमिशन ले लिया. फिलहाल वे बेरोजगार हैं पर उनकी परेशानी यह नहीं है. अब उनके माता-पिता उन्हें आईआईएम में देखना चाहते हैं. जिसके लिए आशीष पर अब कैट (कॉमन एडमिशन टेस्ट) पास करने का दबाव है.

लेकिन अंजलि के पिता महेश कुमार अंजलि पर किसी भी प्रकार का दबाव न होने की बात कहते हैं और इसके लिए कोचिंग संस्थान को जिम्मेदार ठहराते हैं. वह कहते हैं, ‘मेरी बेटी ने खुद ही मेडिकल की पढ़ाई करने का फैसला किया था. वह एक बार असफल हुई तो हमने मना भी किया पर वो जिद पर अड़ गई. उसकी जिद के आगे हमने उसे फिर से कोटा भेज दिया. आत्महत्या से पहले उसका फोन आया था. कोचिंग के टेस्ट में उसके नंबर कम आए थे. वो निराशा में कह रही थी कि मैं पूरी मेहनत कर रही हूं फिर भी रिजल्ट सही नहीं आ रहे. तो मैंने उसे समझाया कि सिर्फ टेस्ट ही तो है क्या हुआ, अंतिम परीक्षा में अच्छा करना और नहीं भी हुआ चयन तो आप चाहो तो अगली बार भी तैयारी कर सकती हो, कोई दबाव नहीं है. इसके बाद भी उसने ऐसा कदम उठाया तो इसके लिए सिर्फ कोचिंग संस्थान जिम्मेदार है. वह पढ़ाई का इतना दबाव बना देते हैं कि अपेक्षित परिणाम न मिलने पर छात्र हताशा का शिकार हो जाता है. वहां छात्रों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता जिससे तनाव में आने पर वह आत्महत्या जैसा कदम उठा लेता है. अगर मेरी बेटी की ठीक ढंग से काउंसलिंग की गई होती तो वह कभी ऐसा कदम नहीं उठाती.’

उधर, कोटा के कोचिंग संस्थान इस बात को नकारते हैं कि वे बच्चों पर किसी तरह का दबाव डालते हैं. उनका मानना है कि संस्थान बच्चों पर दबाव नहीं डालते, ये अभिभावकों की उम्मीदें होती हैं जिससे बच्चे दबाव में आ जाते हैं. एक प्रमुख कोचिंग संस्थान के मीडिया और मार्केटिंग हेड नितेश शर्मा बताते हैं, ‘हम छात्रों पर किसी भी तरह का कोई दबाव नहीं डालते. हमारे यहां तो समय-समय पर मोटिवेशनल लेक्चर भी कराए जाते हैं, जिससे छात्र तनाव में न आए. साथ ही हमने अपने शिक्षकों से भी कहा है कि अगर कोई छात्र जल्दी तनावग्रस्त हो जाता है तो उस पर तुरंत ध्यान दें. वे आगे बताते हैं, ‘कोटा में देश के सर्वश्रेष्ठ कोचिंग संस्थान हैं और हर साल देशभर से लाखों बच्चे यहां आते हैं. ऐसे में यदि कोई छात्र किसी असफल निजी रिश्ते या किसी और वजह से भी आत्महत्या करता है, तब भी पढ़ाई के दबाव को ही जिम्मेदार बताया जाता है.’

कोचिंग संस्थान भले ही बच्चों पर दबाव न डालने की बात कह रहे हों लेकिन कोटा के प्रतिस्पर्धात्मक माहौल में तैयारी करने वाले बच्चे दबाव महसूस न करें ऐसा संभव नहीं. राजस्थान तकनीकी विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष के छात्र राज ने भी कोटा के एक प्रतिष्ठित कोचिंग संस्थान में पढ़ाई की है. छात्रों पर कोचिंग द्वारा पड़ने वाले दबाव के बारे में वे बताते हैं, ‘कोचिंग में प्रतिदिन डेढ़-डेढ़ घंटे की तीन क्लास लगती हैं. 5 घंटे कोचिंग में ही चले जाते हैं. कभी-कभी तो सुबह पांच बजे कोचिंग पहुंचना होता है तो कभी कोचिंग वाले अपनी सुविधानुसार दोपहर या शाम को क्लास के लिए बुलाते हैं. एक फिक्स टाइम नहीं होता जिस कारण एक छात्र के लिए अपनी दिनचर्या के साथ तालमेल बिठाना मुश्किल हो जाता है. वह अपने लिए पढ़ाई और मनोरंजन की गतिविधियों के लिए एक निश््चित समय निर्धारित ही नहीं कर पाता, जिससे उस पर तनाव हावी होता है. ऊपर से 500-600 बच्चों का एक बैच होता है, जिसमें शिक्षक और छात्र का तो इंटरेक्शन हो ही नहीं पाता. अगर एक छात्र को कुछ समझ न भी आए तो वह इतनी भीड़ में पूछने में भी संकोच करता है. विषय को लेकर उसकी जिज्ञासाएं शांत नहीं हो पातीं. तब धीरे-धीरे उस पर दबाव बढ़ता जाता है. इस स्थिति में जो अपने परिवार के साथ रहते हैं, उन्हें तो परिजनों के कारण दबाव से उबरने में सहयोग मिल जाता है पर जो परिवार से दूर बाहर से आकर कोटा में तैयारी कर रहे हैं उन पर अकेलेपन के कारण तनाव और नकारात्मकता हावी हो जाती है. ऐसे ही अधिकांश छात्र आत्महत्या करते हैं.’ राज का कहना ठीक जान पड़ता है क्योंकि इस साल कोटा में अब तक 30 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं जिनमें से 25 कोटा से बाहर के हैं.

DSC_0225 copy web

डॉ. राजश्री का बेटा कोटा के ही एक कोचिंग संस्थान से आईआईटी की तैयारी कर रहा है. वह बताती हैं, ‘मां-बाप का तो दबाव बच्चों पर रहता ही है पर कोचिंग संस्थानों का पढ़ाने का जो मॉडल है वह एक छात्र के अंदर हीन भावना को बढ़ावा देता है. इन कोचिंग संस्थानों में प्रवेश के लिए सबसे पहले तो एक प्रवेश परीक्षा ली जाती है, जिसमें आए अंकों के आधार पर बैच बनाए जाते हैं. उसके बाद हर महीने कठिन से कठिन पैटर्न पर छात्रों के टेस्ट लिए जाते हैं. दबाव की मूल वजह ये बैच और टेस्ट ही हैं. जिस छात्र के टेस्ट में कम अंक आते हैं उसे नीचे वाले बैच में भेज दिया जाता है. जो उसके मन में हीन भावना को बढ़ावा देता है. मेरे बेटे के साथ भी ऐसा हुआ और वह बहुत ही ज्यादा तनाव में आ गया था, लेकिन तब मैंने उसे समझाया कि टेस्ट नहीं मुख्य परीक्षा पर ध्यान लगाओ.’

डॉ. अग्रवाल कहते हैं, ‘2007 मे जिला प्रशासन की सहायता से हमने छात्रों की काउंसलिंग करने के लिए होप हेल्पलाइन की शुरुआत की थी. हर रोज 5-6 तनावग्रस्त छात्रों के फोन इस पर आया करते थे. जब उनसे बात करते तो अधिकांश समय तनाव की मूल वजह कोचिंग संस्थानों का टेस्ट पैटर्न ही हुआ करता था.’  डॉ. राजश्री कहती हैं, ‘मेरा बच्चा तनाव में था तब मैं तो उसके साथ थी, लेकिन जो छात्र अपने परिवार से दूर रह रहे हैं, समस्या उनके सामने खड़ी होती है.’

पूर्व छात्र नेता और वर्तमान में एक एनजीओ से जुड़े प्रमोद सिंह इन संस्थानों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘कोचिंग वाले एक छात्र से एक से डेढ़ लाख रुपये फीस वसूलते हैं लेकिन इन्हें यह तक पता नहीं होता कि जो छात्र इनके यहां दाखिला ले रहे हैं, वो बैच में उपस्थिति दर्ज करा भी रहे हैं या नहीं? इसका कोई सिस्टम ही नहीं है, जिसका लाभ उठाकर छात्र क्लास बंक कर सिनेमा और मॉल पहुंच जाते हैं. यही छात्र कई बार भटक जाते हैं और गलत संगत में पड़ खुद पर एक अनावश्यक दबाव बना बैठते हैं. पढ़ाई में पिछड़ते हैं वो एक अलग बात है. इसका एक और पक्ष यह है कि जब आपको पता ही नहीं कि कौन आपके यहां छात्र है तो आप काउंसलिंग किसकी और कैसे करेंगे? पैसे कमाना ही इन संस्थानों का ध्येय बन गया है बस.’

जो परिवार से दूर रहकर कोटा में तैयारी कर रहे हैं उन पर अकेलेपन के कारण तनाव हावी हो जाता है. ऐसे ही अधिकांश छात्र आत्महत्या करते हैं

आत्महत्या के अन्य कारणों पर बात करते हुए डॉ. अग्रवाल बताते हैं, ‘छात्रों की आत्महत्या के पीछे कम उम्र में प्रेम संबंध बन जाना या प्रेम संबंध बनाने की इच्छा भी एक बड़ा कारण है. कई बार इन संबंधों की असफलता भी आपको ऐसा कदम उठाने के लिए मजबूर कर देती है. आपका कोई पार्टनर न हो तब भी एक छात्र कुंठित महसूस करता है. मेरे पास ऐसी ही एक छात्रा का फोन आया था जिसने कहा कि मेरा  कोई बॉयफ्रेंड नहीं है. जबकि मेरे सारे दोस्तों के हैं. इसलिए वह खुद से नफरत करती है.’

छात्रों पर दबाव का एक अन्य कारण यह भी देखा गया है कि कोचिंग संस्थान सालभर की एकमुश्त फीस दाखिले के समय ही जमा करा लेते हैं. इसलिए छात्र कदम पीछे खींचना भी चाहे तो नहीं खींच पाते. इनकी रिफंड पॉलिसी होती भी है तो ऐसी कि पैसा वापसी के समय छात्रों का आधे से अधिक पैसा तो ये संस्थान डकार ही जाते हैं.

हालांकि इन सबके बीच राहत की बात यह है कि जिला प्रशासन ने छात्रों की समय-समय पर मनोचिकित्सक द्वारा काउंसलिंग, कोचिंग संस्थान में अनिवार्य मनोचिकित्सक की नियुक्ति, दाखिले के समय छात्र की स्क्रीनिंग, सप्ताह में एक अनिवार्य अवकाश, तनावपूर्ण बैच व्यवस्था और फीस जमा- वापसी आदि कारकों को ध्यान में रख एक 13 बिंदुओं का विस्तृत आदेश कोचिंग संचालकों को जारी किया है. कोचिंग संचालक भी छात्रों की काउंसलिंग को लेकर गंभीर होने का दावा कर रहे हैं. लेकिन प्रशासन और कोचिंग संचालक वाकई गंभीर हैं यह देखना होगा. क्योंकि इससे पहले भी  2007 में ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर प्रशासन ने तत्परता दिखाते हुए डॉ. एमएल अग्रवाल की सहायता से छात्रों की काउंसलिंग के लिए ‘होप’ हेल्पलाइन का शुभारंभ किया था. उस समय सभी कोचिंग संचालकों ने संयुक्त रूप से इस पर आने वाले खर्चे को उठाने की बात कही थी. डॉ. अग्रवाल बताते हैं, ‘लेकिन कुछ ही समय बाद न तो प्रशासन ने इस पर ध्यान दिया और कोचिंग संचालकों ने भी खर्चा देने से इंकार कर दिया. 2013 तक हम इसे अपने खर्च पर चलाते आए. एक दिन में औसतन हमारे पास 5-6 फोन आते थे. इस दौरान कोटा में छात्रों की आत्महत्या की दर एक तिहाई तक कम हो गई थी.’

देखा यह भी गया है कि कई बार अभिभावक बहुत ही छोटी उम्र से ही बच्चों को कोचिंग के लिए भेजने लगते हैं. यहां कक्षा छह से ही तैयारी करने वाले बच्चे मिल जाएंगे, पर ज्यादातर बच्चे दसवीं या बारहवीं के बाद ही यहां आते हैं. कोचिंग संस्थान ये स्वीकारते तो नहीं हैं पर जो बच्चे दसवीं के बाद कोचिंग शुरू करते हैं उन्हें स्कूल जाने की जरूरत नहीं होती. कुछ छात्रों के मुताबिक बाहर से आए बच्चों को संस्थान की तरफ से स्कूलों की सूची दी जाती है जिससे वे चुन सकें कि उसे किस स्कूल से शैक्षणिक सर्टिफिकेट चाहिए. एक छात्र बताता है, ‘ये सिर्फ एक औपचारिकता है, मुझे तो याद भी नहीं कि मैंने कौन सा स्कूल चुना है. हमें बस सीधे बोर्ड परीक्षाएं देनी होती हैं.’ इस छात्र का कोचिंग में दूसरा साल है और अगले मार्च में ये बोर्ड की परीक्षाएं देगा. हालांकि संस्थानों का कहना है कि बच्चे दिन में स्कूल जाते हैं और शाम को कोचिंग. इस पर विशेषज्ञों का कहना है कि स्कूल में बच्चे का सम्पूर्ण विकास होता है. स्कूल की दिनचर्या कुछ ऐसी होती है कि बच्चे सुबह मन की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं तो इंटरवल में वह खेलते भी हैं. साथ ही शिक्षक और अपने सहपाठियों से भी उनका जुड़ाव रहता है जिससे नकारात्मक विचार उनके दिमाग में नहीं आते. लेकिन कोचिंग संस्थानों की यह प्रतिस्पर्धा उन्हें इस सबसे अलग कर देती है.

कोटा के ही मोदी कॉलेज के प्रधानाध्यापक डॉ. एलके दधीच कहते हैं, ‘छात्र किसी प्रयोगशाला का कोई प्रयोग नहीं होता, जिसे चाहेे जिस रूप में ढाल लें. अभिभावकों को यह समझना चाहिए और प्रतिस्पर्धा में पिछड़ने के डर से मौत को गले लगाने वाले छात्रों को भी कि डॉक्टर-इंजीनियर बनना ही जिंदगी बनाने का एकमात्र विकल्प नहीं हैं. विकल्प और भी हैं.’ कोटा में साल के किसी भी समय अंदाजन 1.5 लाख छात्र मेडिकल या इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए मौजूद होते हैं. ये सभी अपने-अपने स्कूल अथवा बोर्ड में टॉप करके आए होते हैं. कोई बूंदी से टॉप करके आता है, कोई पटना से तो कोई मुरैना या जालौन से. टॉपर के बीच होने वाली इस प्रतिस्पर्धा में स्वाभाविक है सभी का तो चयन होना नहीं है, लेकिन हमेशा टॉप करने वाला एक छात्र जब खुद को पिछड़ा पाता है तो उसे यह स्वीकार नहीं होता. डॉ. दधीच कहते हैं, ‘जहां नौकरियां हैं वहां बच्चे नहीं हैं. कई ऐसे पाठ्यक्रम हैं जिनमें डॉक्टर और इंजीनियर के पेशे से ज्यादा पैकेज मिलने की संभावना होती है. जागरूकता के अभाव के चलते कोई उनकी ओर रुख नहीं करता. सरकारी स्तर पर अगर करिअर काउंसलिंग को बढ़ावा दिया जाए तो स्थिति में काफी हद तक सुधार लाया जा सकता है.’

शिवसेना को गुस्सा क्यों आता है?

IMG_0406web
फोटो- दीपक साल्वी

हाल ही में पाकिस्तानी गजल गायक गुलाम अली ने भारत में प्रस्तावित अपने सभी संगीत कार्यक्रम रद्द कर दिए. उन्होंने कहा कि वह भारत तब तक नहीं आएंगे, जब तक स्थितियां अनुकूल नहीं हो जातीं. गौरतलब है कि शिवसेना के विरोध के चलते ही मुंबई और पुणे में गुलाम अली का संगीत कार्यक्रम रद्द कर दिया गया था.  शिवसेना की उग्रता का यह सिर्फ इकलौता उदाहरण नहीं है, सूची काफी लंबी है. पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी की किताब के विमोचन के दौरान शिवसैनिकों ने भाजपा के पूर्व नेता सुधींद्र कुलकर्णी का मुंह काला कर दिया. पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के प्रमुख शहरयार खान के साथ बीसीसीआई अध्यक्ष शशांक मनोहर की बातचीत नहीं होने दी.

शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने बीसीसीआई मुख्यालय में घुसकर जमकर हंगामा काटा. शिवसेना ने पाकिस्तानी कलाकारों का विरोध करते हुए कहा कि वह उन्हें महाराष्ट्र में काम नहीं करने देगी. इसके अलावा जैन मंदिरों के सामने चिकन बेचने और पकाने का भी काम शिवसैनिकों ने बखूबी किया है. गौरतलब है कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद से ही शिवसेना के तेवर पूरी तरह से बदल गए हैं. पार्टी ने अपनी उग्रता और ताकत का खुला प्रदर्शन किया है. मजेदार बात यह कि शिवसेना राज्य और केंद्र में सरकार की सहयोगी पार्टी के रूप में शामिल भी है. अगर हम राजनीतिक दल के रूप शिवसेना की बात करें तो पिछले कुछ दशकों में उसकी पहचान राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और मराठी अस्मिता को लेकर बनी है. अब महाराष्ट्र के आज के हालात को देखें तो इन मसलों पर शिवसेना की जमीन तेजी से खिसक गई है. उनके चचेरे भाई राज ठाकरे मराठियों के बीच उग्र राजनीति करके खुद को मराठी मानुष का सच्चा हितैषी बताते हैं. दूसरी ओर उनकी वरिष्ठ सहयोगी भाजपा खुद राष्ट्रवादी पार्टी होने का दावा करती है और बेहतर तरीके से हिंदुत्व की राजनीति कर रही है. ऐसे में शिवसेना के सामने विकल्प ही नहीं रह गया था. दरअसल, महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद से जो हालात पैदा हुए उसने शिवसेना के लिए उग्रता को जरूरी बना दिया. पिछले ढाई दशक से छोटे भाई की भूमिका निभा रही भाजपा का बड़ी पार्टी बनकर उभरना शिवसेना को पचा नहीं. विधानसभा चुनाव से ठीक पहले शिवसेना ने पिछले 25 सालों से चले आ रहे गठबंधन को फायदे के लिए तोड़ा था. जानकारों की माने तो विधानसभा चुनावों के पहले भाजपा और शिवसेना का गठबंधन टूटने के पीछे बड़ी भूमिका युवा नेताओं खासकर आदित्य ठाकरे जैसों की थी. युवा नेता किसी भी कीमत पर ज्यादा सीटें लेने के पक्ष में थे. वे भाजपा से बड़ी जीत हासिल कर यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि चुनाव बाद महाराष्ट्र की सत्ता पर शिवसेना काबिज हो या फिर मुख्यमंत्री तय करने में उनकी अहम भूमिका हो, लेकिन चुनाव परिणाम उतने बेहतर नहीं आए जितनी उम्मीद थी. महाराष्ट्र में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की नाकामी का पूरा फायदा शिवसेना नहीं उठा पाई. विधानसभा चुनावों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. बदले हुए हालात में शिवसेना ने भाजपा का दामन तो थाम लिया, लेकिन यदि हम पार्टी की सोच और बाल ठाकरे की हनक को याद करें तो यह बिल्कुल अप्रत्याशित था. राज्य सरकार में भी शिवसेना का वर्चस्व कायम नहीं रहा. जूनियर पार्टनर के तौर पर शामिल होने के चलते कोई भी महत्वपूर्ण विभाग उसके हाथ में नहीं रहा. पार्टी ने आत्मसर्मपण करने जैसी हालत में भाजपा का समर्थन किया, क्योंकि भाजपा के पास एनसीपी के रूप में शिवसेना का एक विकल्प मौजूद था. ऐसे में शिवसेना की कमजोर होती स्थिति से कार्यकर्ताओं का भी मनोबल गिर गया. पार्टी के सामने सबसे बड़ी समस्या ऐसे मुद्दों की तलाश करना था जिससे अपनी खोई हुई लोकप्रियता और हनक फिर से हासिल की जा सके. मुंबई विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के विभाग के अध्यक्ष सुरेंदर जोंधाले बताते हैं, ‘शिवसेना जब पिछली बार सत्ता में आई थी तब उनका मुख्यमंत्री था. महाराष्ट्र में अब शिवसेना छोटी पार्टी की भूमिका में है. मंत्रिमंडल में भी उसे महत्वपूर्ण विभाग नहीं मिला, इसलिए सरकार के बडे़ फैसलों में वह शामिल नहीं हो पाती. इसकी निराशा उन्हें है. भाजपा के बड़े नेता बाल ठाकरे से मिलने आते थे, उनसे सलाह मशविरा करते थे, वैसा वे उद्धव के साथ नहीं कर रहे हैं, शिवसेना के कार्यकताओं को यह बात भी बहुत अखर रही है. ऐसे में खुद को हताशा से उबारने के लिए शिवसेना उग्र राजनीति का सहारा ले रही है.’

[box]

हमेशा उग्र रही है शिवसेना

शिवसेना हमेशा से उग्र पार्टी रही है. पाकिस्तान का हम 1990 से लगातार विरोध कर रहे हैं. इसमें अब तक कोई बदलाव नहीं आया है. हाल फिलहाल की घटनाएं उसी का नतीजा हैं. जब तक पाकिस्तान आतंकवाद को प्रश्रय देना बंद नहीं करेगा, हमारा विरोध जारी रहेगा. हम स्थानीय चुनावों में जीत के लिए ऐसा विरोध नहीं कर रहे हैं. शिवसेना ने हर समय जनता के मुद्दे पर सरकार का लोकतांत्रिक तरीके से विरोध किया है. जहां तक बात महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के मुखिया राज ठाकरे की है, तो उन्होंने हमेशा रिक्शा-रेहड़ी वालों को परेशान किया है. आप ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं दे सकते हैं, जब शिवसैनिकों ने आम आदमी को परेशान किया है. हमारे लिए राष्ट्र सबसे ऊपर है.

प्रेम शुक्ल, कार्यकारी संपादक, दोपहर का सामना

[/box]

मजबूरी है उग्र राजनीति करना

बाल ठाकरे के बाद शिवसेना की कमान संभालने वाले उद्धव ठाकरे पार्टी का एक नरम चेहरा माने जाते थे. बाल ठाकरे के तेवर उनके भतीजे राज ठाकरे में देखने को मिलते हैं, जिन्होंने उनके जीवित रहते समय ही 2006 में शिवसेना से अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) का गठन किया. वह बाल ठाकरे द्वारा शिवसेना की कमान अपने बेटे उद्धव को दिए जाने से नाराज थे. खैर, बाल ठाकरे से ही राजनीति का ककहरा सीखने वाले राज ठाकरे ने भी राजनीति की गली में उन्हीं की तरह की क्रिकेट खेली. मराठी मानुष के हक के नाम पर पूरबियों को महाराष्ट्र से बाहर निकालने और टोल टैक्स जैसे मुद्दों पर सरकार की नाक में दम करके राज ने यह दिखाना भी चाहा कि वही मराठियों के सच्चे हितैषी व बाल ठाकरे के असली राजनीतिक वारिस हैं. हालांकि महाराष्ट्र की जनता ने उन पर ज्यादा विश्वास नहीं जताया और चुनावों में उनकी पार्टी को कभी बहुत अच्छी सफलता नहीं मिली है. लेकिन अगर हम चुनावी गणित को समझे तो यह बिल्कुल साफ है कि महाराष्ट्र में शिवसेना की खराब हालत के लिए महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना जिम्मेदार है. विश्लेषकों का मानना है कि मनसे  ने खुद भले ही ज्यादा सीटें हासिल नहीं की, लेकिन वह शिवसेना को नुकसान पहुंचाने में सफल रही. ऐसे में महाराष्ट्र में अब शिवसेना के सामने यह मजबूरी है कि उसे अपना वोट बैंक बचाए रखने के लिए राज ठाकरे की पार्टी से ज्यादा खुद को मराठी अस्मिता का रक्षक दिखाना है. इसके चलते हाल ही में जैनों के पर्यूषण पर्व के दौरान मुंबई में कुछ समय के लिए मनसे के कार्यकर्ताओं के साथ शिव सैनिक भी चिकन बेचते नजर आए. आदित्य ठाकरे मुंबई में नाइटलाइफ के समर्थन में उतर गए. पार्टी ने फिल्म अभिनेता शाहरुख खान का भी समर्थन किया. ऐसे तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं. दरअसल शिवसेना कोई भी ऐसा मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहती है, जिससे ऐसा संदेश जाए कि वह मराठी मानुष के हित का ध्यान नहीं दे रही है. इसके अलावा वह मनसे से आगे दिखने के चक्कर में अधिक आक्रामक भी है. हालांकि शिवसेना के मुखपत्र ‘दोपहर का सामना’ के कार्यकारी संपादक प्रेम शुक्ल इसे दूसरा रंग देने की कोशिश करते हैं और कहते हैं, ‘जहां तक बात राज ठाकरे की है, तो उन्होंने हमेशा रिक्शा-रेहड़ी वालों को परेशान किया है. आप ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं दे सकते हैं, जब शिवसैनिकों ने आम आदमी को परेशान किया है. हमारे लिए राष्ट्र सबसे ऊपर है. मजेदार बात यह है कि शिवसेना का मराठी मानुष का हमदर्द होने का दावा सिर्फ मनसे विरोध तक ही सीमित रह गया है. वह मराठवाड़ा में सूखे की मार झेल रहे और विदर्भ में खुदकुशी कर रहे किसानों के मसले पर उग्रता नहीं दिखा रही है. आश्चर्यजनक रूप से उनकी राजनीति आम आदमी की रोजमर्रा की परेशानियों से हमेशा दूर ही रहती है.

अस्तित्व बचाए रखने के लिए पाक राग

राजनीति में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए खुद को चर्चा में बनाए रखना ही सबसे अच्छा उपाय है क्योंकि चर्चा के बाद ही प्रासंगिकता पर बात होती है. शिवसेना ने यही रास्ता अपनाया है. पार्टी ने खुद की अलग पहचान दिखाने के लिए पुराने पड़ चुके पाकिस्तान के मसले को रिचार्ज किया है. पाकिस्तान विरोध के चलते शिवसेना की चर्चा पूरे देश में होती रही है. प्रेम शुक्ल कहते हैं, ‘पाकिस्तान का हम 1990 से लगातार विरोध कर रहे हैं. इसमें अब तक कोई बदलाव नहीं आया है. हाल फिलहाल की घटनाएं उसी का नतीजा हैं. जब तक पाकिस्तान आतंकवाद को प्रश्रय देना बंद नहीं करेगा, हमारा विरोध जारी रहेगा.’ दरअसल, पाकिस्तान के उग्र विरोध के अलावा शिवसेना के बाकी मुद्दों पर उसकी सहयोगी भाजपा भारी पड़ रही है. विकास के मसले पर शिवसेना भाजपा की जूनियर पार्टनर होने के चलते पूरा श्रेय खुद नहीं ले पाएगी. हिंदुत्व का एजेंडा भाजपा की प्राथमिकता सूची में शामिल है. ऐसे में अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए शिवसेना ने आक्रामकता और उग्र राजनीति का पुराना पड़ चुका, लेकिन कारगर फाॅर्मूला पकड़ लिया. अब वह एक अलग पार्टी दिख रही है और हर मुद्दे पर विश्लेषक व जनता उसकी बातों पर ध्यान दे रहे हैं. हालांकि शिवसेना की मजबूरियां यहीं खत्म नहीं होती हैं. उसे सरकार में भी तब तक बने रहना है, जब तक कि यह सुनिश्चित न हो जाए कि अलग होने में उसका बड़ा फायदा है. शिवसेना भाजपा से अलग होने की गलती एक बार कर चुकी है. ऐसे में उसका नुकसान भी हुआ है. विश्लेषकों का मानना है कि अगर विधानसभा चुनाव में वह भाजपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ती तो उसकी हैसियत बड़े भाई की होती.

Cइसके अलावा स्थानीय निकायों में भी कई जगह शिवसेना ने भाजपा के समर्थन से अपनी सत्ता कायम की है. ऐसे में भाजपा का साथ छोड़ने का मतलब अपने असर को कम करना है. यही नहीं अपना स्वतंत्र अस्तित्व तलाश रही शिवसेना अगर भाजपा का साथ छोड़ती है तो महाराष्ट्र और देश के बाकी हिस्सों में यह संदेश जाएगा कि ऐसा करके वह राष्ट्रवादी और हिंदुत्ववादी ताकतों को कमजोर कर रही है. शिवसेना यह तमगा भी हासिल नहीं करना चाहती. इसी के चलते शिवसेना की परंपरागत दशहरा रैली को संबोधित करते हुए पार्टी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे भाजपा को सख्त संदेश देने में पीछे नहीं हटे और कहा कि भविष्य शिवसेना का है और अगर जरूरत पड़ी तो वह अकेले आगामी लड़ाईयां (चुनाव) लड़ने को तैयार है. लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि पार्टी सरकार में बनी रहेगी और महाराष्ट्र सरकार किसी भी तरह के खतरे में नहीं है. गौरतलब है कि विश्लेषकों का मानना था कि दशहरा रैली के दौरान शिवसेना भाजपा गठबंधन टूट सकता है. वैसे शिवसेना ने 19 जून 1966 को अपने गठन के बाद से ही कई बार अपने एजेंडे में बदलाव किया है. दरअसल शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे बहुत ही शातिर नेता थे. उन्हें यह बात अच्छी तरह से पता थी कि किस वक्त कौन सी चाल चलनी है और किसका विरोध करना है. शिवसेना ने पहले दक्षिण भारतीयों का विरोध किया, फिर वामपंथियों का, बाद में उत्तर भारतीयों का. कभी हिंदुत्व का एजेंडा इनके लिए सबसे ऊपर रहा, तो कभी पाकिस्तान का विरोध कर उग्र राष्ट्रवाद को हवा दी. समय के हिसाब से पार्टी ने हमेशा अपनी रणनीति बदली. लेकिन आज शिवसेना राजनीति के जिस चौराहे पर खड़ी है, वहां उसे पता ही नहीं है कि किस रास्ते को पकड़ना बेहतर होगा. ऐसे में घबराई और मजबूर शिवसेना को अपनी आक्रामक छवि को बनाए रखना ही एकमात्र विकल्प दिख रहा है.

[box]

नई पीढ़ी के आगे आने से बदला है तेवर

शिवसेना सिर्फ राजनीतिक दल नहीं है, बल्कि आंदोलन का नाम है. इसलिए प्रदर्शन करना इसका इतिहास रहा है. शिवसेना में जो नई पीढ़ी आई है, वह इसे आगे बढ़ा रही है. अभी हमें जो दिखाई दे रहा है, वह इसी का परिणाम है. सबसे अच्छी बात यह है कि यह सिर्फ राजनीतिक नहीं है. शिवसेना के कार्यकर्ता सामाजिक मामलों पर भी प्रदर्शन कर रहे हैं . मुझे नहीं लगता इसका कारण भाजपा के साथ किसी तरह की प्रतिद्वंद्विता है और न ही स्थानीय चुनावों को इसका कारण मानना चाहिए. यह बहुत ही स्वाभाविक है. नई पीढ़ी आक्रामक तरीके से आगे बढ़ती है और ऐसा हर पार्टी के लिए होना बहुत जरूरी भी है.

भरत कुमार राउत, पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनीतिक विश्लेषक

[/box]

भाजपा के अपने फायदे

इन सब बातों पर गौर करें तो यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि आखिर शिवसेना की आक्रामकता पर भाजपा चुप क्यों नजर आ रही है, जबकि शिवसेना ने अपनी बयानबाजी व आक्रामकता से केंद्र व राज्य में सहयोगी भाजपा के लिए कई बार असहज स्थिति पैदा कर दी है. दरअसल एनसीपी के रूप में विकल्प मौजूद होने के बावजूद चुप रहने में भाजपा का ही फायदा है, क्योंकि राज्य में एनसीपी की छवि बहुत साफ नहीं है, उसके नेताओं पर भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हैं. इसके अलावा सरकार में शामिल शिवसेना के उग्र होने के बावजूद भाजपा राज्य में अपना आधार तेजी से बढ़ा रही है. सरकार में शामिल होने के चलते भाजपा के हर निर्णय पर शिवसेना की मुहर लग ही जाती है. ऐसे में भाजपा के लिए यह गठबंधन घाटे का सौदा नहीं है. इस पर महाराष्ट्र भाजपा प्रभारी और राष्ट्रीय महासचिव सरोज पांडेय ने कहा, ‘भाजपा का शिवसेना के साथ गठबंधन सिर्फ विकास के लिए है. शिवसेना क्या कर रही है, इस पर हमे कुछ कहना नहीं कहना है. विकास हमारा लक्ष्य है. जिस दिन हमारे इस उद्देश्य पर आघात लगेगा, हम गठबंधन पर विचार करेंगे. इसके पहले तक भारतीय जनता पार्टी शिवसेना के साथ है.’ वैसे भी अगर हम बात शिवसेना की करें तो वह सिर्फ चुनावी फायदे के लिए उग्र है और इसमें सफलता मिलते ही उसके सुर नरम भी पड़ जाते हैं. इसका उदाहरण हाल ही में हुए कल्याण-डोबिंवली व कोल्हापुर महानगर पालिका के साथ ही 71 नगर परिषद चुनावों के परिणाम हैं. इन स्थानीय चुनावों में शिवसेना ने बेहतरीन प्रदर्शन किया, कई जगहों पर पहली बार उसके प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की. परिणाम आने के एक दिन बाद ही शिवसेना ने भाजपा के साथ संघर्ष विराम का संकेत देते हुए कहा है कि चुनावों के दौरान जो कुछ भी होता है, वह अस्थायी होता है और हमें पुरानी बातों को भूल जाना चाहिए. चुनाव से पहले शिवसेना के जिस आक्रामक रुख के कारण सहयोगी भाजपा के साथ उसके रिश्तों में गिरावट देखने को मिली थी, उसी आक्रामक रुख में नरमी के संकेत देते हुए शिवसेना ने कहा कि विकास सुनिश्चित करने के लिए हर किसी को साथ लेकर चलना चाहिए. ऐसे में विश्लेषकों का मानना है कि 2017 तक होने वाले स्थानीय चुनावों के कारण शिवसेना ऐसे उग्र हमले भाजपा पर जारी रखेगी और भाजपा उन्हें तब तक नजरअंदाज करती रहेगी, जब तक कि केंद्र या राज्य सरकार को कोई बड़ा नुकसान न उठाना पड़े.

[box]

राजनीतिक हताशा का परिणाम है शिवसेना की उग्रता

शिवसेना जब पिछली बार सत्ता में आई थी तब उनका मुख्यमंत्री था. महाराष्ट्र में अब शिवसेना  छोटी पार्टी की भूमिका में है. मंत्रिमंडल में भी उसे महत्वपूर्ण विभाग नहीं मिला, इसलिए सरकार के बडे़ फैसलों में वह शामिल नहीं हो पाती. इसकी निराशा उन्हें है. भाजपा के बड़े नेता बाल ठाकरे से मिलने आते थे, उनसे सलाह मशविरा करते थे वैसा वे उद्धव के साथ नहीं कर रहे हैं, शिवसेना के कार्यकताओं को यह बात भी बहुत अखर रही है. ऐसे में खुद को हताशा से उबारने के लिए शिवसेना उग्र राजनीति का सहारा ले रही है. हालांकि उसे इसका फायदा नहीं मिल रहा है. भाजपा ऐसे मसलों पर चुप्पी साधकर शिवसेना को तवज्जाे नहीं दे रही है. बस समय-समय पर उसके नेता शिवसेना को उसकी हद याद दिलाते रहते हैं.

सुरेंदर जोंधाले, अध्यक्ष, राजनीति शास्त्र विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय

[/box]

आपकी फिल्म ‘कोर्ट’ के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी? जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक भेद और जातिगत राजनीति जैसे मुद्दे पश्चिमी दर्शकों की समझ में आएंगे. मैं ये भी जानता हूं कि भारत में इस तरह की फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसी फिल्मों का सिनेमाघरों तक पहुंच पाना लगभग नामुमकिन होता है. इसके बावजूद कई सारे सम्मान मिलने, फिल्म के कई देशों के अलावा और तमाम भारतीय सिनेमाघरों में सफल प्रदर्शन के बाद मैं इसे मिली प्रतिक्रिया से विस्मित हूं. कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म सबको अपनी तरफ खींचती है. बहरहाल, मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैंने जितनी उम्मीद की थी ‘कोर्ट’ उससे कहीं आगे निकल चुकी है. इसके लिए मैं सभी दर्शकों का आभारी हूं. फिल्म में सरकारी वकील और गुजराती अभिजात्य कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि, कोर्ट में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के उलट हैं. क्या ये एक सोचा-समझा निर्णय था? आपकी फिल्म ‘कोर्ट’ के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी? जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक भेद और जातिगत राजनीति जैसे मुद्दे पश्चिमी दर्शकों की समझ में आएंगे. मैं ये भी जानता हूं कि भारत में इस तरह की फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसी फिल्मों का सिनेमाघरों तक पहुंच पाना लगभग नामुमकिन होता है. इसके बावजूद कई सारे सम्मान मिलने, फिल्म के कई देशों के अलावा और तमाम भारतीय सिनेमाघरों में सफल प्रदर्शन के बाद मैं इसे मिली प्रतिक्रिया से विस्मित हूं. कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म सबको अपनी तरफ खींचती है. बहरहाल, मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैंने जितनी उम्मीद की थी ‘कोर्ट’ उससे कहीं आगे निकल चुकी है. इसके लिए मैं सभी दर्शकों का आभारी हूं. फिल्म में सरकारी वकील और गुजराती अभिजात्य कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि, कोर्ट में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के उलट हैं. क्या ये एक सोचा-समझा निर्णय था? आपकी फिल्म ‘कोर्ट’ के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी? जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक भेद और जातिगत राजनीति जैसे मुद्दे पश्चिमी दर्शकों की समझ में आएंगे. मैं ये भी जानता हूं कि भारत में इस तरह की फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसी फिल्मों का सिनेमाघरों तक पहुंच पाना लगभग नामुमकिन होता है. इसके बावजूद कई सारे सम्मान मिलने, फिल्म के कई देशों के अलावा और तमाम भारतीय सिनेमाघरों में सफल प्रदर्शन के बाद मैं इसे मिली प्रतिक्रिया से विस्मित हूं. कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म सबको अपनी तरफ खींचती है. बहरहाल, मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैंने जितनी उम्मीद की थी ‘कोर्ट’ उससे कहीं आगे निकल चुकी है. इसके लिए मैं सभी दर्शकों का आभारी हूं. फिल्म में सरकारी वकील और गुजराती अभिजात्य कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि, कोर्ट में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के उलट हैं. क्या ये एक सोचा-समझा निर्णय था? आपकी फिल्म ‘कोर्ट’ के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी? जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक भेद और जातिगत राजनीति जैसे मुद्दे पश्चिमी दर्शकों की समझ में आएंगे. मैं ये भी जानता हूं कि भारत में इस तरह की फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसी फिल्मों का सिनेमाघरों तक पहुंच पाना लगभग नामुमकिन होता है. इसके बावजूद कई सारे सम्मान मिलने, फिल्म के कई देशों के अलावा और तमाम भारतीय सिनेमाघरों में सफल प्रदर्शन के बाद मैं इसे मिली प्रतिक्रिया से विस्मित हूं. कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म सबको अपनी तरफ खींचती है. बहरहाल, मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैंने जितनी उम्मीद की थी ‘कोर्ट’ उससे कहीं आगे निकल चुकी है. इसके लिए मैं सभी दर्शकों का आभारी हूं. फिल्म में सरकारी वकील और गुजराती अभिजात्य कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि, कोर्ट में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के उलट हैं. क्या ये एक सोचा-समझा निर्णय था? आपकी फिल्म ‘कोर्ट’ के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी? जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक भेद और जातिगत राजनीति जैसे मुद्दे पश्चिमी दर्शकों की समझ में आएंगे. मैं ये भी जानता हूं कि भारत में इस तरह की फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसी फिल्मों का सिनेमाघरों तक पहुंच पाना लगभग नामुमकिन होता है. इसके बावजूद कई सारे सम्मान मिलने, फिल्म के कई देशों के अलावा और तमाम भारतीय सिनेमाघरों में सफल प्रदर्शन के बाद मैं इसे मिली प्रतिक्रिया से विस्मित हूं. कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म सबको अपनी तरफ खींचती है. बहरहाल, मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैंने जितनी उम्मीद की थी ‘कोर्ट’ उससे कहीं आगे निकल चुकी है. इसके लिए मैं सभी दर्शकों का आभारी हूं. फिल्म में सरकारी वकील और गुजराती अभिजात्य कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि, कोर्ट में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के उलट हैं. क्या ये एक सोचा-समझा निर्णय था? आपकी फिल्म ‘कोर्ट’ के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी? जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक भेद और जातिगत राजनीति जैसे मुद्दे पश्चिमी दर्शकों की समझ में आएंगे. मैं ये भी जानता हूं कि भारत में इस तरह की फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसी फिल्मों का सिनेमाघरों तक पहुंच पाना लगभग नामुमकिन होता है. इसके बावजूद कई सारे सम्मान मिलने, फिल्म के कई देशों के अलावा और तमाम भारतीय सिनेमाघरों में सफल प्रदर्शन के बाद मैं इसे मिली प्रतिक्रिया से विस्मित हूं. कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म सबको अपनी तरफ खींचती है. बहरहाल, मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैंने जितनी उम्मीद की थी ‘कोर्ट’ उससे कहीं आगे निकल चुकी है. इसके लिए मैं सभी दर्शकों का आभारी हूं. फिल्म में सरकारी वकील और गुजराती अभिजात्य कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि, कोर्ट में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के उलट हैं. क्या ये एक सोचा-समझा निर्णय था? आपकी फिल्म ‘कोर्ट’ के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी? जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक भेद और जातिगत राजनीति जैसे मुद्दे पश्चिमी दर्शकों की समझ में आएंगे. मैं ये भी जानता हूं कि भारत में इस तरह की फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसी फिल्मों का सिनेमाघरों तक पहुंच पाना लगभग नामुमकिन होता है. इसके बावजूद कई सारे सम्मान मिलने, फिल्म के कई देशों के अलावा और तमाम भारतीय सिनेमाघरों में सफल प्रदर्शन के बाद मैं इसे मिली प्रतिक्रिया से विस्मित हूं. कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म सबको अपनी तरफ खींचती है. बहरहाल, मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैंने जितनी उम्मीद की थी ‘कोर्ट’ उससे कहीं आगे निकल चुकी है. इसके लिए मैं सभी दर्शकों का आभारी हूं. फिल्म में सरकारी वकील और गुजराती अभिजात्य कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि, कोर्ट में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के उलट हैं. क्या ये एक सोचा-समझा निर्णय था? आपकी फिल्म ‘कोर्ट’ के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी? जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक भेद और जातिगत राजनीति जैसे मुद्दे पश्चिमी दर्शकों की समझ में आएंगे. मैं ये भी जानता हूं कि भारत में इस तरह की फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसी फिल्मों का सिनेमाघरों तक पहुंच पाना लगभग नामुमकिन होता है. इसके बावजूद कई सारे सम्मान मिलने, फिल्म के कई देशों के अलावा और तमाम भारतीय सिनेमाघरों में सफल प्रदर्शन के बाद मैं इसे मिली प्रतिक्रिया से विस्मित हूं. कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म सबको अपनी तरफ खींचती है. बहरहाल, मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैंने जितनी उम्मीद की थी ‘कोर्ट’ उससे कहीं आगे निकल चुकी है. इसके लिए मैं सभी दर्शकों का आभारी हूं. फिल्म में सरकारी वकील और गुजराती अभिजात्य कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि, कोर्ट में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के उलट हैं. क्या ये एक सोचा-समझा निर्णय था? आपकी फिल्म ‘कोर्ट’ के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी? जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक भेद और जातिगत राजनीति जैसे मुद्दे पश्चिमी दर्शकों की समझ में आएंगे. मैं ये भी जानता हूं कि भारत में इस तरह की फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसी फिल्मों का सिनेमाघरों तक पहुंच पाना लगभग नामुमकिन होता है. इसके बावजूद कई सारे सम्मान मिलने, फिल्म के कई देशों के अलावा और तमाम भारतीय सिनेमाघरों में सफल प्रदर्शन के बाद मैं इसे मिली प्रतिक्रिया से विस्मित हूं. कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म सबको अपनी तरफ खींचती है. बहरहाल, मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैंने जितनी उम्मीद की थी ‘कोर्ट’ उससे कहीं आगे निकल चुकी है. इसके लिए मैं सभी दर्शकों का आभारी हूं. फिल्म में सरकारी वकील और गुजराती अभिजात्य कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि, कोर्ट में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के उलट हैं. क्या ये एक सोचा-समझा निर्णय था? आपकी फिल्म ‘कोर्ट’ के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी? जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक भेद और जातिगत राजनीति जैसे मुद्दे पश्चिमी दर्शकों की समझ में आएंगे. मैं ये भी जानता हूं कि भारत में इस तरह की फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसी फिल्मों का सिनेमाघरों तक पहुंच पाना लगभग नामुमकिन होता है. इसके बावजूद कई सारे सम्मान मिलने, फिल्म के कई देशों के अलावा और तमाम भारतीय सिनेमाघरों में सफल प्रदर्शन के बाद मैं इसे मिली प्रतिक्रिया से विस्मित हूं. कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म सबको अपनी तरफ खींचती है. बहरहाल, मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैंने जितनी उम्मीद की थी ‘कोर्ट’ उससे कहीं आगे निकल चुकी है. इसके लिए मैं सभी दर्शकों का आभारी हूं. फिल्म में सरकारी वकील और गुजराती अभिजात्य कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि, कोर्ट में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के उलट हैं. क्या ये एक सोचा-समझा निर्णय था? आपकी फिल्म ‘कोर्ट’ के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी? जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक भेद और जातिगत राजनीति जैसे मुद्दे पश्चिमी दर्शकों की समझ में आएंगे. मैं ये भी जानता हूं कि भारत में इस तरह की फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसी फिल्मों का सिनेमाघरों तक पहुंच पाना लगभग नामुमकिन होता है. इसके बावजूद कई सारे सम्मान मिलने, फिल्म के कई देशों के अलावा और तमाम भारतीय सिनेमाघरों में सफल प्रदर्शन के बाद मैं इसे मिली प्रतिक्रिया से विस्मित हूं. कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म सबको अपनी तरफ खींचती है. बहरहाल, मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैंने जितनी उम्मीद की थी ‘कोर्ट’ उससे कहीं आगे निकल चुकी है. इसके लिए मैं सभी दर्शकों का आभारी हूं. फिल्म में सरकारी वकील और गुजराती अभिजात्य कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि, कोर्ट में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के उलट हैं. क्या ये एक सोचा-समझा निर्णय था? आपकी फिल्म ‘कोर्ट’ के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी? जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक भेद और जातिगत राजनीति जैसे मुद्दे पश्चिमी दर्शकों की समझ में आएंगे. मैं ये भी जानता हूं कि भारत में इस तरह की फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसी फिल्मों का सिनेमाघरों तक पहुंच पाना लगभग नामुमकिन होता है. इसके बावजूद कई सारे सम्मान मिलने, फिल्म के कई देशों के अलावा और तमाम भारतीय सिनेमाघरों में सफल प्रदर्शन के बाद मैं इसे मिली प्रतिक्रिया से विस्मित हूं. कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म सबको अपनी तरफ खींचती है. बहरहाल, मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैंने जितनी उम्मीद की थी ‘कोर्ट’ उससे कहीं आगे निकल चुकी है. इसके लिए मैं सभी दर्शकों का आभारी हूं. फिल्म में सरकारी वकील और गुजराती अभिजात्य कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि, कोर्ट में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के उलट हैं. क्या ये एक सोचा-समझा निर्णय था? आपकी फिल्म ‘कोर्ट’ के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी? जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक भेद और जातिगत राजनीति जैसे मुद्दे पश्चिमी दर्शकों की समझ में आएंगे. मैं ये भी जानता हूं कि भारत में इस तरह की फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसी फिल्मों का सिनेमाघरों तक पहुंच पाना लगभग नामुमकिन होता है. इसके बावजूद कई सारे सम्मान मिलने, फिल्म के कई देशों के अलावा और तमाम भारतीय सिनेमाघरों में सफल प्रदर्शन के बाद मैं इसे मिली प्रतिक्रिया से विस्मित हूं. कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म सबको अपनी तरफ खींचती है. बहरहाल, मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैंने जितनी उम्मीद की थी ‘कोर्ट’ उससे कहीं आगे निकल चुकी है. इसके लिए मैं सभी दर्शकों का आभारी हूं. फिल्म में सरकारी वकील और गुजराती अभिजात्य कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि, कोर्ट में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के उलट हैं. क्या ये एक सोचा-समझा निर्णय था? आपकी फिल्म ‘कोर्ट’ के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी? जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक भेद और जातिगत राजनीति जैसे मुद्दे पश्चिमी दर्शकों की समझ में आएंगे. मैं ये भी जानता हूं कि भारत में इस तरह की फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसी फिल्मों का सिनेमाघरों तक पहुंच पाना लगभग नामुमकिन होता है. इसके बावजूद कई सारे सम्मान मिलने, फिल्म के कई देशों के अलावा और तमाम भारतीय सिनेमाघरों में सफल प्रदर्शन के बाद मैं इसे मिली प्रतिक्रिया से विस्मित हूं. कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म सबको अपनी तरफ खींचती है. बहरहाल, मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैंने जितनी उम्मीद की थी ‘कोर्ट’ उससे कहीं आगे निकल चुकी है. इसके लिए मैं सभी दर्शकों का आभारी हूं. फिल्म में सरकारी वकील और गुजराती अभिजात्य कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि, कोर्ट में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के उलट हैं. क्या ये एक सोचा-समझा निर्णय था? आपकी फिल्म ‘कोर्ट’ के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी? जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक भेद और जातिगत राजनीति जैसे मुद्दे पश्चिमी दर्शकों की समझ में आएंगे. मैं ये भी जानता हूं कि भारत में इस तरह की फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसी फिल्मों का सिनेमाघरों तक पहुंच पाना लगभग नामुमकिन होता है. इसके बावजूद कई सारे सम्मान मिलने, फिल्म के कई देशों के अलावा और तमाम भारतीय सिनेमाघरों में सफल प्रदर्शन के बाद मैं इसे मिली प्रतिक्रिया से विस्मित हूं. कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म सबको अपनी तरफ खींचती है. बहरहाल, मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैंने जितनी उम्मीद की थी ‘कोर्ट’ उससे कहीं आगे निकल चुकी है. इसके लिए मैं सभी दर्शकों का आभारी हूं. फिल्म में सरकारी वकील और गुजराती अभिजात्य कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि, कोर्ट में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के उलट हैं. क्या ये एक सोचा-समझा निर्णय था? आपकी फिल्म ‘कोर्ट’ के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी? जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक

गुमशुदगी का तिलिस्म

ph-mag1308-fweb

बच्चों के खिलाफ होने वाले जघन्य अपराधों में गुमशुदा होने वाले बच्चों का मुद्दा कहीं गुम हो जाता है जबकि यह बात स्थापित हो चुकी है कि बच्चे केवल गुमते नहीं हैं बल्कि सुनियोजित ढंग से गुमाये जाते हैं. ऐसे बच्चे कहीं-किसी कारखाने में खट रहे हैं या फिर उनके अंग-भंग कर उनसे भीख मंगवाई जा रही है या फिर उन्हें देह व्यापार के धंधे में झोंक दिया जाता है. उनके अंग निकाल कर बेचे जा रहे हैं.

व्यथा कथा- 1

जून 2013 में गाजियाबाद जिले के मोदीनगर का 7 साल का वंश गुज्जर घर से एक किलोमीटर दूर रेल पटरी के आसपास खेल रहा था. अचानक एक ट्रेन आकर रुकी. वंश उसमें बैठ गया और ट्रेन चल दी. डर के कारण वह ट्रेन से उतर नहीं पाया. अंत में चेन्नई जाकर उतरा. घरवालों ने गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई. चेन्नई में घूमते-फिरते वंश को दो लोग मिले जो उसे सिलिगुड़ी ले आए और वहां से उसे पश्चिम बंगाल के सिंगला चाय बागान ले जाया गया. वहां से एक दंपति वंश को अवैध तरीके से गोद लेकर सिक्किम के दोदक गांव में ले गया. वहां दोनों उसके साथ मारपीट करने लगे. सितंबर 2015 में उनके पड़ोसी ने सूचना दी और चाइल्ड लाइन और स्थानीय स्तर पर काम कर रही संस्था ‘दृष्टि’ के प्रयास से बच्चे को वहां से बचाया गया.

‘दृष्टि’ संस्था के प्रमुख पासंग बूटिया बताते हैं, ‘वंश को उस परिवार के चंगुल से छुड़ाने के बाद हमने एक सप्ताह तक वंश को अपने आश्रय गृह ‘मंजुषा’ में रखा. बातचीत में उसने कई बार मोदीनगर का जिक्र किया था. हमारे काउंसलर ने इंटरनेट पर उसे मोदीनगर की कुछ जगहों की फोटो दिखाई. वंश ने उसमें से एक जगह ‘मोदी मंदिर’ काे पहचान लिया. इसके बाद हमने मोदीनगर के एसपी और एसएसपी को जानकारी दी. मेल भी किया लेकिन एक सप्ताह तक कोई जवाब नहीं आया. अंत में थक-हार कर संस्था ने वंश की पूरी जानकारी के साथ मोदीनगर थाने में फोन किया. यहां पर एसएचओ दीपक शर्मा ने जानकारी जुटाई और वंश को घर सौंपने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. आज वंश अपने घर पर है.’

व्यथा कथा- 2

14 अगस्त 2015 को सागर पब्लिक स्कूल, भोपाल में पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाला 11 वर्षीय निशांत स्कूल नहीं पहुंचा. गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई गई. गुम होने के तीन दिन बाद 50 लाख रुपये की फिरौती के लिए उसके घर फोन आया. मामला सुर्खियों में आया तो निशांत की जानकारी देने वाले व्यक्ति पर 50,000 रुपये का इनाम भी घोषित किया. मामले में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को  हस्तक्षेप करना पड़ा. इसके बाद पुलिस और प्रशासन की टीम खोजबीन में जुट गई. आखिरकार नौ दिन बाद निशांत की सकुशल घर वापसी हो गई. अपहरणकर्ताओं ने उसे रायसेन के जंगलों में छोड़ दिया था. लौटकर निशांत ने बताया कि उसे स्कूल जाते समय ही तीन अज्ञात लोगों ने अगवा कर लिया. कार में ही निशांत के कपड़े बदल दिए गए. इस घटना के डेढ़ माह बाद भी अपहरणकर्ता पुलिस गिरफ्त से बाहर हैं.

IMG-20151027-webFhhhhhhhhh
वंश

व्यथा कथा- 3

मध्य प्रदेश के मंडला जिले के पड़वार गांव की रविता अपने घर से एक दिन अचानक गायब हो गई. साल-दो साल उसकी खोज हुई और फिर घरवालों ने मान लिया कि अब वह नहीं आएगी या वो इस दुनिया में नहीं रही. इस वाकये के पांच साल बाद रविता अपने घर लौट आई. घरवालों की खुशी का ठिकाना न रहा, लेकिन यह खुशी तब काफूर हो गई जब उन्हें यह पता चला कि रविता के साथ एक बेटा भी है. रविता ने जब अपनी आप बीती सुनाई तो घरवालों के पांव तले जमीन खिसक गई. उसने बताया कि नौकरी दिलाने के नाम पर गांव की कमलावती नवल नाम के एक व्यक्ति के साथ उसे दिल्ली ले गई थी. वहां पर अच्छी नौकरी की जगह एक घर में झाड़ू-पोंछा करने की नौकरी मिली. दो महीने बाद उसे ईरान के एक व्यक्ति के हाथ बेच दिया गया.

रविता के अनुसार, ‘दिल्ली में काम करते-करते कब मेरा सौदा हो गया, मुझे पता ही नहीं चला. जहां मैं रहती थी उस परिवार ने मुझे बेच दिया. फिर जहाज में ईरान ले जाया गया. वहां डेढ़ वर्ष तक मुझे कमरे में बंद करके रखा गया. मुझसे कोई काम ताे नहीं कराया जाता था, लेकिन उस बीच लगातार शारीरिक शोषण होता रहा.’

इसके बाद रविता को गर्भ ठहर गया और वह मां बन गई. रविता के दुख से पड़ोस का एक व्यक्ति वाकिफ था. एक दिन उस व्यक्ति ने उसे आजाद करा दिया. वह व्यक्ति उसे अपने साथ कोलकाता लाया. फिर किसी तरह वह दिल्ली पहुंची. दिल्ली में उसे दो दिन भटकना पड़ा. उसे याद था कि महाकौशल एक्सप्रेस जबलपुर जाती है. वह उससे जबलपुर आ गई. फिर जबलपुर से मंडला तक ट्रैक्टर में बैठकर आई. मंडला से अपने गांव के नजदीक स्थित गुढ़ली कस्बे (50 किमी) तक का सफर पैदल तय किया और किसी तरह घर पहुंची. रविता अभी भी पड़वार में ही है लेकिन आज तक न तो नवल पर कोई कार्रवाई हुई, न ही कमलावती पर.

व्यथा कथा- 4

इसी साल अगस्त महीने में हरियाणा के फरीदाबाद के पास बाटा चौक स्टेशन के पास रहने वाली 10 साल की चुनचुन अचानक गायब हो गई. घरवालों ने थाने में गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई. इसके पांच दिन बाद चुनचुन मध्य प्रदेश के खजुराहो के एक होटल में मिली. इलाहाबाद की एक महिला चुनचुन को देह व्यापार के धंधे में उतारना चाह रही थी, इसलिए उसका सौदा करने खजुराहो ले गई थी. पुलिस और स्थानीय संस्था ‘अधर’ की कोशिशों से उस रैकेट का भंडाफोड़ किया जा सका.

chunchun web
चुनचुन

व्यथा कथा- 5

12 फरवरी 2009 की शाम नाबालिग नीता भोपाल स्थित अपने घर से शौचालय जाने के लिए बाहर निकली. उसके बाद दो महीनों तक वह वापस नहीं लौट सकी. वह इसके दो दिन पहले ही सिवनी जिले के गांव आमगांव से अपने छोटे भाई के साथ नौकरी करने भोपाल आई थी. तीसरे ही दिन उसके साथ काम करने वाले हीरा ने उसका अपहरण कर लिया. उसे राजस्थान के डोकरखेड़ा ले जाया गया. यहां उसे 60,000 रुपये में रमेश को बेचा गया. रमेश ने दो महीने तक उसे जबरदस्ती पत्नी बनाकर रखा. घर का सारा कामकाज कराने के साथ उससे मजदूरी भी कराई. नीता बताती है, ‘काम में जरा भी गलती हो जाने पर मारा-पीटा जाता था.’ एक दिन मौका मिलने पर एक स्थानीय व्यक्ति की मदद से नीता वहां से भाग निकली. यहां भी नीता का दुख कम नहीं हुआ. इस व्यक्ति ने भी नीता का सौदा करने की कोशिश की, लेकिन सौभाग्य से वह उसके चंगुल से भी बच निकली. फिर नीता को बालाघाट के समाजसेवी महेश चौरसिया की मदद से बचाया जा सका. फिलहाल नीता अपने गांव में है.

……………………………………………………………………………….

बच्चों और महिलाओं को गायब कर उनको बेचने का धंधा अब जिले/राज्य और राष्ट्र की परिधि को लांघ चुका है. यह जानकर आश्चर्य होगा कि मध्य प्रदेश के आदिवासी जिले से गायब हुई बालिका ईरान में मिली

ये पांचों प्रकरण तो बानगी हैं लेकिन सभी गुमशुदा बच्चे इतने खुशनसीब नहीं होते. ऐसा नहीं कि सारे गुमशुदा बच्चे मिलते ही नहीं हैं. इनमें से अधिकांश बच्चे जो खुद से गुमते हैं, कुछ नाराज होकर घर से भाग जाते हैं, वे देर-सबेर लौट आते हैं, लेकिन जो बच्चे नहीं मिलते, उनकी संख्या इनसे कहीं ज्यादा है.

भारत में गुमशुदा बच्चों के बाल-व्यापार में धकेले जाने का कोई प्रामाणिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. हालांकि स्थिति की गंभीरता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है जब केंद्रीय गृह मंत्रालय ने संसद में विगत वर्ष बताया कि 2011-14 के बीच 3.25 लाख बच्चे भारत से गायब हुए, इनमें से 55 फीसदी लड़कियां हैं और 45 फीसदी का कुछ पता नहीं चल पाया है. इसके मायने हैं कि हर साल 1 लाख और प्रतिदिन 296 बच्चे गायब हो रहे हैं. इन बच्चों में से सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश से गायब हुए. दूसरे नंबर पर मध्य प्रदेश और तीसरे नंबर पर महाराष्ट्र है. आखिर गायब हुए ये बच्चे जाते कहां हैं?

इन प्रकरणों में हम पाते हैं कि बच्चे गुमशुदा के रूप में दर्ज तो हुए लेकिन जब ये मिले, तब तक ये बाल व्यापार का शिकार हो गए थे यानी गुमशुदा बच्चे अब केवल एक पहेली नहीं हैं बल्कि अब यह स्थापित हो गया है कि अब बच्चे केवल गुमते नहीं हैं बल्कि सुनियोजित ढंग से गुमाये जाते हैं. गुम होने के बाद या तो इनसे किसी कारखाने में बंधुआ मजदूरी करवाई जाती है या फिर उनके अंग-भंग कर उनसे भीख मंगवाई जा रही है आैैर लड़की हुई तो उसे देेह व्यापार में धकेल दिया जाता है. उनके अंग निकाल कर बेचे जा रहे हैं. इतना ही नहीं ड्रग ट्रैफिकिंग के लिए भी बड़े पैमाने पर बच्चों के इस्तेमाल के मामले सामने आ रहे हैं.

neeta web
नीता

पिछले एक दशक से एक नए व्यवसाय ने पैर पसारे हैं और यह है विवाह. विवाह के लिए लड़कियों को खरीदा-बेचा जा रहा है. यह भी एक सुनियोजित व्यवसाय है और इसके लिए बाकायदा लड़कियों की बोली लगाई जा रही है. मध्य प्रदेश और देश के उन हिस्सों और उन समुदायों में जहां लिंगानुपात बहुत कम है, बड़े पैमाने पर लड़कियों को बेचा जा रहा है. ऐसे कुछ मामलों में परिवारवालों की भी सहमति होती है लेकिन न तो परिजनों को पता होता है और न ही लड़कियों को, कि उनकी शादी किससे हो रही है. सहमति से जा रही लड़की को भी शादी के मंडप में बैठकर या कई बार शादी के बाद में ही पता चलता है कि उसकी शादी किससे की जा रही है. मामले में झारखंड और असम जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों से लड़कियों को बेचा जा रहा है. हरियाणा में विवाह के नाम पर लड़कियों को बेचने के कई मामले सामने आए हैं. गुमशुदा बच्चे और इनका व्यापार अब संगठित गिरोंहों द्वारा संचालित किया जा रहा है. यह गिरोह बहुत ही व्यावसायिक तरीके से काम करता है. इनके चेकिंग पॉइंट्स और स्टेयिंग प्वाइंट्स (रहने की जगह) आदि हैं. इनकी एक सुव्यवस्थित प्रक्रिया है. सबसे पहले घरेलू काम के बहाने बड़े पैमाने पर बच्चों/महिलाओं को बाहर ले जाया जाता है और एक बार विश्वास जमने पर उन्हें बेच दिया जाता है. हाल ही में झारखंड से खरीदी गई तीन नाबालिग लड़कियों को दिल्ली के शकूरपुर की एक प्लेसमेंट एजेंसी के आॅफिस से बरामद किया गया है. बच्चों और महिलाओं को गायब कर उनको बेचने का यह धंधा अब जिले/राज्य और राष्ट्र की परिधि को लांघ चुका है. यह जानकर आश्चर्य होगा कि मध्य प्रदेश के ठेठ आदिवासी जिले, मंडला से गायब हुई बालिका ईरान में मिली. उसका कहना था कि दिल्ली से जब उसे बेचा गया तब वहां ऐसी कई लड़कियां और थीं.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने वर्ष 2004-05 में अपनी रिपोर्ट ‘एक्शन रिसर्च ऑन ट्रैफिकिंग इन विमेन एंड चिल्ड्रेन’ में यह जिक्र किया है कि जिन बच्चों का पता नहीं लगता वास्तव में लापता नहीं होते, बल्कि उनका अवैध व्यापार किया जाता है. रिपोर्ट इस तथ्य की ओर भी इशारा करती है कि 80 प्रतिशत पुलिस वाले गायब होने वाले बच्चों की तलाश में कोई रुचि नहीं दिखाते. आयोग के अनुसार भारत में हर साल लगभग 45 हजार बच्चे गायब होते हैं और इनमें से 11 हजार बच्चे कभी नहीं मिलते. नोबल पुरस्कार विजेता और बचपन बचाओ आंदोलन संस्था के अध्यक्ष कैलाश सत्यार्थी कहते हैं, ‘जो बच्चे गायब हो रहे हैं इन्हंे गुमशुदा बच्चे कहना सही नहीं है. ये गुम नहीं होते बल्कि इनको चुराया जाता है. मानव तस्करी दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा अवैध व्यापार है.’

देश में बच्चों के रहस्यमय ढंग से लापता होने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) का कहना है कि हर साल 30,000 से ज्यादा बच्चे वापस नहीं मिलते. ऐसे गुमशुदा बच्चों की तादाद निरंतर बढ़ रही है, जिनके बारे में पुलिस कोई सुराग नहीं ढूंढ पाती है. पिछले 3.5 साल के आंकड़ों पर नजर डालें तो गायब हुए बच्चों की संख्या 30 प्रतिशत से बढ़कर 58 प्रतिशत तक पहुंच गई है. इससे यही जाहिर होता है कि या तो मानव तस्करी में शामिल गिरोह ज्यादा सक्रिय हो गए हैं या फिर पुलिस की लापरवाही बढ़ती गई है. हालांकि सीबीआई ने इस साल की शुरुआत में ही एक ऐसे गिरोह को पकड़ने में कामयाबी हासिल की जो दिल्ली के रास्ते लगभग 8,000 नेपाली महिलाओं को दुबई भेज चुका था. सीबीआई ने इसके अलावा कई अन्य प्रकरणों में भी मुस्तैदी दिखाई है.

मानव तस्करी पर शिकंजा कसना सरकारों के लिए चुनौती बना हुआ है. हालांकि बाल अधिकारों की रक्षा और मानव तस्करी रोकने के लिए कई कड़े कानून हैं पर इन कानूनों के अमल में मुस्तैदी नहीं बरती जाती, जिसका फायदा मानव तस्करी करने वाले उठाते रहते हैं. एनसीआरबी की हालिया रिपोर्ट ‘भारत में अपराध’ कहती है कि वर्ष 2014 में देशभर में मानव तस्करी के 5,466 मामले सामने आए हैं. 2013 में बचपन बचाओ आंदोलन के ऐतिहासिक प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने गुमशुदा बच्चों की तलाश के लिए पुलिस को दिशानिर्देश दिए थे लेकिन इन निर्देशों को किसी राज्य की पुलिस ने जस का तस लागू किया हो, ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता. हर गुमशुदा बच्चे की थाने में प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज किया जाना अनिवार्य है लेकिन अभी भी अधिकांश प्रकरणों में ऐसा नहीं हो रहा है. राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने भी वर्ष 2012 में गुमशुदा बच्चों के मामले में पत्र लिखकर सभी राज्य सरकारों को कई सुझाव और निर्देश भेजे थे. इन सुझावों में प्रमुख थे:

  • प्रत्येक गुमशुदा बच्चे की 24 घंटे में ही अनिवार्य रूप से एफआईआर दर्ज करना.
  • रिपोर्ट दर्ज होने के 48 घंटे बाद तक बच्चा न मिलने की स्थिति में प्रत्येक गुमशुदा बच्चे की फाेटो और उसकी पहचान से जुड़े दस्तावेज समस्त आधिकारिक संस्थानों और एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट, प्रिंट व इलेक्ट्राॅनिक मीडिया को भेजा जाए.

हालांकि आंध्र प्रदेश को छोड़कर किसी भी राज्य सरकार ने इस पर ज्यादा तत्परता नहीं दिखाई थी. सवाल यह है कि इन तस्करों को सलाखों के पीछे भिजवाने की सरकार और प्रशासन की कितनी तैयारी है? पिछले कई सालों में सरकारें इस मसले पर थोड़ी चेती तो हैं लेकिन यह नाकाफी है. मध्य प्रदेश में 16 और देश के अन्य संवेदनशील क्षेत्रों में 100 से ज्यादा एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट बनाई गई हैं. इनसे कुछ आस तो बनती है लेकिन जिस स्तर की यह समस्या है उसके हिसाब से यह बहुत ही कम है. पुलिस तंत्र में सात साल तक ही गुमशुदा का प्रकरण सुरक्षित रहता है और उसके बाद वह प्रकरण स्वतः समाप्त हो जाता है. ध्यान रहे कि बच्चा मिले या न मिले, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है.

बाल संरक्षण का बजट बढ़ा है लेकिन बच्चों के कुल बजट का केवल .04 प्रतिशत ही बाल सुरक्षा के लिए है. इस आवंटन से यह स्पष्ट है कि सरकारों की प्राथमिकता में न तो बच्चे हैं और न ही उनकी समस्याएं

इस मसले पर सरकार की संवेदनशीलता कितनी है, इसका पता इस बात से चलता है कि गत जुलाई माह में ही सुप्रीम कोर्ट ने ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की याचिका पर सुनवाई करते हुए गुमशुदा बच्चों की गलत व भ्रामक संख्या देने पर केंद्र सरकार पर 25,000 रुपये का अर्थदंड लगाया था और फिर से रिपोर्ट मांगी है. कोर्ट ने कहा कि 2013-15 के दौरान गुमशुदा बच्चों के जो आंकड़े राज्यसभा (79,721) में पेश किए गए, वे महिला एवं बाल विकास विभाग की ओर से पेश किए गए आंकड़े (25,834) से काफी अलग हैं.

गुमशुदा बच्चों के मामलों को देखते हुए देश में पुलिस की स्थिति पर भी गौर करने की जरूरत है. एनसीआरबी की रिपोर्ट, ‘भारत में अपराध-2013’ के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ के मानकों के मुताबिक प्रति एक लाख की जनसंख्या पर 220 पुलिसकर्मी होने चाहिए, परंतु भारत में अभी 136 ही हैं. स्वीकृत पदों के आधार पर अभी भारत को 8.86 लाख पदों को सृजित करने की जरूरत है ताकि मानकों के मुताबिक 26.73 लाख पुलिसकर्मी हो सकें. पुलिस महानिदेशकाें से लेकर उप पुलिस महानिरीक्षकों के 1,432 में से 1,248 पद ही भरे हैं. जमीनी स्तर पर तो हालात और भी खराब हैं. देश भर में सहायक उपनिरीक्षकों के 15,13,311 पदों में से 3,63,505 पद खाली हैं, जिनमें से उत्तर प्रदेश में 60 फीसदी, छत्तीसगढ़ में 40 फीसदी, गुजरात में 25 फीसदी तथा मध्य प्रदेश में 20 फीसदी पद खाली पड़े हैं. केवल पंजाब में ही स्वीकृत पदों से एक फीसदी ज्यादा पुलिसकर्मी हैं.

‘हक- सेंटर फाॅर चाइल्ड राइट्स’ की ओर से ‘बजट विश्लेषण पाॅलिटिक्स, पैसा और प्रीऑरिटीज’ को देखने से यह पता चलता है कि मोदी सरकार ने अपने बजट का केवल 4.52 फीसदी ही बच्चों के लिए सुरक्षित रखा है. हालांकि बस यह बात ही सुकून देने वाली है कि बाल संरक्षण का बजट कुछ बढ़ा है लेकिन बच्चों के कुल बजट का केवल .04 प्रतिशत ही बाल सुरक्षा के लिए है. ‘हक’ की को-डायरेक्टर भारती अली कहती हैं, ‘इस आवंटन से यह तो बहुत हद तक स्पष्ट है कि सरकार की प्राथमिकता में न तो बच्चे हैं और न ही उनकी यह समस्या.’ सरकार और पुलिस तंत्र संवेदनहीन है. पुलिस की ओर से छानबीन का दायरा मौका-ए-वारदात पर मिले लोगों तक सीमित रखा जाता है जबकि मानव तस्करी में भर्ती करने वाले, सवारी ढोने वाले, दलाल, शरण देने वाले, शोषक, षड्यंत्रकारी, शह देने वाले जैसे अनेक लोग शामिल होते हैं. मानव तस्करी संगठित अपराध है और इसके बारे में हर प्रकार की खुफिया जानकारी एक-दूसरे को देने और सभी संपर्कों की गहराई से छानबीन करने की जरूरत होती है लेकिन अभी तक इसकी तैयारी कम ही दिख रही है जिसके चलते लाखों बच्चे हमारे बीच से गायब हो रहे हैं और सरकारें हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं. सरकारी हीलाहवेली पर ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की याचिका (75/2012, बचपन बचाओ आंदोलन बनाम भारत सरकार व अन्य) पर सुनवाई करते समय सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी बहुत ही मौजूं है. न्यायालय ने कहा था, ‘पुलिस बड़े लोगों के बच्चे खोजने में पूरी टीम लगा देती है जबकि गरीबों के बच्चों के लापता होने की एफआईआर भी दर्ज करने की जहमत नहीं उठाती.’

(सभी नाम परिवर्तित हैं)

‘ये हो सकता है तो कुछ भी हो सकता है’

anupam web
फोटोः जीनू राज

आत्मकथाएं लिखना चुनौती भरा काम होता है. अपने जीवन पर आधारित नाटक लिखने का विचार आपको किस तरह से आया?

12 या 15 साल पहले मैं अपने जीवन के एक बुरे दौर से गुजर रहा था. मेरे निर्देशन में बनी पहली फिल्म ‘ओम जय जगदीश’ का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा. उसके बाद मेरा चेहरा आंशिक तौर पर लकवे का शिकार हो गया और जो कंपनी मैंने शुरू की वह भी लगभग दिवालिया हो गई. तब दो जाने-माने पब्लिशिंग हाउस मेरे पास आत्मकथा लिखने का विचार लेकर आए. हालांकि मैं लेखक नहीं था. इसलिए उसके बाद जो भी मेरे दिमाग में आता मैं उसे रिकॉर्ड करना शुरू कर दिया. जब ये प्रक्रिया पूरी हुई तो मेरे पास करीब 8 या 10 घंटे की रिकॉर्डिंग थी. जब मैंने उन रिकॉर्डिंग्स को सुना तो मुझे लगा कि ये तो एक मजेदार कहानी बन सकती है. हालांकि इसके कुछ भाग प्रेरणादायक थे लेकिन मैं ये भी सोच रहा था कि मैंने इसको इस तरह से बयां क्यों किया है जैसे कोई खुद पर हंस रहा हो. तब मुझे लगा कि अपनी कहानी को स्टेज पर परफॉर्म कर सामने लाना चाहिए जो अभी तक दुनिया के किसी भी अभिनेता ने नहीं किया है.

 आठ घंटे लंबी रिकॉर्डिंग को आपने इस नाटक में कैसे समायोजित किया?

ये विचार मेरे दिमाग में आने के बाद ही मैंने काम शुरू कर दिया और लेखक अशोक पटोले की सेवा ली. उन्हें और मेरे निर्देशक फिरोज खान को उस टेप में से बहुत सी चीजें निकालनी पड़ीं. आज नाटक की जो समय सीमा है उस काम को पूरा करने में हमें दो से तीन महीने लगे. आप एक बात समझिए, जब हम पांच-दस लोगों को एक ड्रॉइंगरूम में बैठकर कहानी सुनाते हैं तब ये मजेदार हो सकता है क्योंकि आपकी बात सभी सुन-समझ सकते हैं. लेकिन जब बात 500 से ज्यादा दर्शकों की आती है तब उनका ध्यान आकर्षित करना एक बड़ी चुनौती होती है. मैंने अपने पहले मंचन के लिए नाटक में दिखने वाले लोगों को खुद ही निमंत्रित किया. दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन, मेरे माता-पिता, विजय सहगल सभी वहां मौजूद थे. तब से पूरे विश्व में मैंने इस नाटक का मंचन किया है. मेरा लक्ष्य लोगों तक यही बात पहुंचाना है कि ‘ये हो सकता है तो कुछ भी हो सकता है.’

इस नाटक ने मुझे आजाद कर दिया है. जब भी मैं इस नाटक का मंचन करता हूं तो दुनिया में सबसे बड़ा आदमी होने की अनुभूति होती है

 सार्वजनिक जीवन में रहते हुए अपनी जिंदगी की कहानी को मंच पर लोगों के सामने लाने का अनुभव कैसा रहा?

जब आप मंच पर अपनी जिंदगी के भेद खोलते हैं तो आपके मन में कोई डर नहीं रह जाता. मैंने ये पाया है कि जब आप अपनी कमियों को दुनिया के सामने लाते हैं तो आपको किसी चीज से डर नहीं लगता. मान लीजिए अगर मैं अपने गंजेपन को दुनिया से छुपाने की कोशिश करूंगा तो मुझे इस भेद के खुलने का डर सताता रहेगा. लेकिन इसकी जगह अगर मैं अपने दिवालिया होने की कहानी दुनिया के सामने रखूंगा तो मुझे यहां तक पहुंचने के अपने संघर्ष के लिए तारीफ ही मिलेगी. इस नाटक ने मुझे आजाद कर दिया है. जब भी मैं इस नाटक का मंचन करता हूं तो दुनिया में सबसे बड़ा आदमी होने की अनुभूति होती है.

2 घंटे 15 मिनट के आपके नाटक में सिर्फ आप ही नजर आते हैं. सिर्फ एक व्यक्ति पर केंद्रित नाटक करना कितनी बड़ी चुनौती होती है?

मैं इसको एक डराने वाली चुनौती मानता हूं. ये एक तरह से बिना हथियार के युद्ध में जाने जैसा होता है. आपको खाली हाथ ही लड़ना होता है. दूसरे नाटकों में तो मेरा सहयोग करने के लिए मेरे सह-अभिनेता होते हैं जो रिहर्सल, स्टेज के पीछे और मंच पर अभिनय के दौरान मेरे साथ रहते हैं. लेकिन यहां तो मैं एक गिलास पानी भी खुद नहीं ले सकता क्योंकि दर्शकों का ध्यान भटकने का डर रहता है. इस नाटक में तो 1 घंटा 20 मिनट गुजरने के बाद मुझे पहला ब्रेक मिलता है.

नाटक की शुरुआत दर्शकों के साथ संवाद से शुरू होती है. आपके, कहानी कहने वाले और दर्शकों के बीच एक लाइन खींचने की जरूरत आपको क्यों महसूस हुई?

मेरे निर्देशक नाटक को परंपरागत तरीके से शुरू करना चाहते थे, जिसमें लाइट धीरे-धीरे मद्धम होती और मैं मंच पर आता हूं. लेकिन मैंने जोर दिया कि जब मैं मंच पर आऊं तब दर्शकों को लगे वे मेरी ही जिंदगी का हिस्सा हैं. वे उस सच्चाई में खो जाएं जो मैं उनके सामने लाने वाला हूं. इस तरह मैं उनके साथ मजाक करता हूं, उनके साथ घुलता-मिलता हूं और जब नाटक शुरू होता है तब दर्शक बड़ी आसानी से मेरी जिंदगी के करीब आ जाते हैं. मेरी सोच थी कि दर्शक मेरी जिंदगी की यात्रा में मेरे साथ चलें ना कि सिर्फ कुर्सियों पर बैठकर दूरबीन के सहारे दूर से ही मुझे समझने की कोशिश करें.

anupam 2222
फोटोः जीनू राज

देश में थियेटर परंपरा के इतना धनी होने के बावजूद भी दर्शकों की संख्या घटती जा रही है. आपको इसके पीछे क्या कारण लगता है?

ये आपकी जगह पर भी निर्भर करता है. जब भी मैंने कोलकाता, बंगलुरु, चेन्नई और मुंबई जैसी जगहों पर मंचन किया है तब मैं अलग तरह के दर्शकों को महसूस करता हूं. पूरे सम्मान के साथ कहना चाहूंगा कि दिल्ली के दर्शक अपने मन मुताबिक समय का चुनाव करते हैं. थियेटर में अनुशासन का होना बहुत जरूरी होता है क्योंकि एक अभिनेता दर्शकों के सामने अपना जीवन खपा कर एक अद्भुत क्षण प्रस्तुत कर रहा होता है. मैं ये नहीं चाहूंगा कि नाटक देर से शुरू हो क्योंकि अगर ऐसा होता है तो ये उन दर्शकों की बेइज्जती करना होगा जो समय पर नाटक देखने आए हैं. मेरे निर्देशक शुरू करने के लिए कहते हैं लेकिन मैं देरी से आने वाले लोगों के लिए थोड़ा इंतजार कर लेता हूं.

आपकी जिंदगी में उतार-चढ़ाव के दौर आए हैं. इन सबसे  ‘कुछ भी हो सकता है’  कि अवधारणा कैसे पैदा हुई?

नाटक में अपने बुरे दौर पर हंसना आसान था. लेकिन उसका मंचन दुख के परिवेश में था इसलिए यह हंसने लायक नहीं था. मेरे नाटक की अवधारणा उस जिंदगी से आई है, जिस तरह से मैंने उसे जी है. हम तमाम चीजों के बारे में हमेशा शिकायत करते रहते हैं लेकिन मैं उनमें से नहीं हूं. मैं सोचने में नहीं करने में विश्वास करता हूं. मैं विपत्ति आने पर रोने की बजाय उसका समाधान खोजूंगा. शिकायत करना आपको थोड़े समय के लिए संतुष्ट कर सकता है लेकिन आपको उससे आजादी नहीं दिला सकता. मैंने अपने नाटक में इस विचार को इसलिए शामिल किया क्योंकि मैं पूरी तौर पर आशावादी हूं. मैं मानता हूं कि जीवन जीने के लिए आशावादी होना ही एकमात्र जरिया है. जिंदगी जीने के दूसरे तरीके निराशा और दुख से भरे हुए हैं. आपको ये मानना ही पड़ेगा कि दुनिया बेहद खूबसूरत है.

 अपने नाटक के आखिर में आपने बताया कि हर प्रदर्शन के बाद आप और मजबूत हुए हैं. क्या आप इस बारे में और कुछ बता सकते हैं?

एक अभिनेता के नाते ‘कुछ भी हो सकता है’ के मंचन के दौरान मुझे हमेशा चुनौती मिलती है क्योंकि मैं अपनी जिंदगी को बार-बार जी रहा होता हूं. मुझे अपनी जिंदगी के हर पल को दोबारा जीना पड़ता है, ताकि दर्शकों को वह विश्वसनीय लगे. लेकिन अगर मुझसे मेरी जिंदगी के बारे में कुछ बदलाव करने के लिए कहा जाए तो मैं अपनी कहानी में कोई छेड़छाड़ नहीं करूंगा. मैं आज जो भी हूं उस जिंदगी की बदौलत हूं जो मैंने जी है.