‘बच्चों को न्याय दिलाने के लिए अभी भी बहुत काम बाकी है’

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जब मैं बच्चों की सुरक्षा से जुड़े अपने काम के बारे में सोचती हूं तो मेरे मन में तीन अलग-अलग मामले सामने आते हैं जिन्होंने मेरी जिंदगी पर गहरी छाप छोड़ी. इनसे मैंने सीखा कि बाल यौन उत्पीड़न के मामले में खुलासे से लेकर न्यायिक प्रक्रिया तक का माहौल कितनी जटिलताओं से भरा होता है.

पहला मामला एक लड़की मीरा (काल्पनिक नाम) का है. तीसरी कक्षा में पढ़ने वाली आठ साल की मीरा पढ़ाई में अच्छी होने के कारण शिक्षकों की चहेती थी. अचानक मीरा तीन विषयों में फेल हो गई. इससे परेशान शिक्षकों ने उससे बात की. तब घबराई और परेशान मीरा ने अपने सौतेले पिता द्वारा तीन महीने से उसका लगातार यौन उत्पीड़न करने की बात का खुलासा किया.

जब पहली बार सौतेले पिता ने उसका यौन उत्पीड़न किया तब बड़ी हिम्मत करके ये बात उसने अपनी मां को बताई, ये सोचकर कि मां उसकी सुरक्षा करेंगी. लेकिन मां ने उसे ये कहकर चुप करा दिया कि लड़कियों की जिंदगी की कहानी यही होती है. जितनी बार उसने अपने साथ हुए उस दर्दनाक अनुभव को बताया, उसी कष्ट और बेबसी को महसूस किया.

इसके बाद उसकी शिक्षक ने एक स्थानीय संगठन से संपर्क किया और फिर पुलिस को भी साथ लिया. आगे भी जांच के लिए एक अति आत्मविश्वासी और उत्साही जांच अधिकारी ने सीधे परिवार से संपर्क किया. लड़की को बचाने की जगह मामला उसकी मां और जांच अधिकारी के झगड़े पर खत्म हुआ. उसके बाद जो हुआ उसकी अपेक्षा किसी ने भी नहीं की थी. रातोंरात वह परिवार शहर से चला गया और अभी तक उनका कोई अता-पता नहीं है. पड़ोसियों का मानना है कि वह परिवार वापस बिहार चला गया है लेकिन जानकारी किसी को नहीं है.

पोक्सो के क्रियान्वयन के लिए राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और राज्यों के बाल अधिकार संरक्षण आयोग जवाबदेह हैं, लेकिन ज्यादातर राज्यों में आयोग बुनियादी ढांचे और संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं

दूसरा मामला दो बहनों नीता (6) और रेखा (4) का है जो कैब से स्कूल आया-जाया करती थीं. छोटी बहन रेखा 12 बजे ही घर आ जाती थी, जबकि नीता को 2 बजे घर वापस आना होता था. उसे सबसे आखिर में उतरना होता था इसी बात का फायदा उठाकर कैब का ‘अंकल’ अक्सर उसकी छाती दबाता, उसे गंदी नीयत से छूता था. कभी तो वहशीपन की सारी हदंे लांघते हुए वह अपनी उंगली उस बच्ची की योनि में भी डाल देता था. लेकिन नीता ने इसकी शिकायत किसी से नहीं की क्योंकि कैब चालक ने उसे इस बारे में किसी को भी बताने पर गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी थी. इस समय मासूम नीता को अपनी छोटी बहन की सुरक्षा का भी एहसास था.

बच्ची की चुप्पी से उस कैब ड्राइवर की हिम्मत और बढ़ गई और एक दिन उसने बच्ची के साथ बलात्कार किया. फिर बच्ची के शरीर से अपनी दरिंदगी के निशान धोकर साफ किए और उसे घर छोड़ दिया. नीता के माता-पिता को इस यौन उत्पीड़न के बारे में तब पता चला जब उसे तेज बुखार हुआ और उसने चलने-फिरने से भी मना कर दिया. उसके माता-पिता ने तुरंत इस बारे में पुलिस को सूचना दी. वे चाहते थे कि उनकी बेटी के साथ इस जघन्य अपराध को अंजाम देने वाला अपराधी किसी दूसरी बच्ची को अपनी हवस का शिकार न बना पाए.

शुरुआत में स्कूल प्रशासन ने इस घटना से इंकार किया लेकिन बाद में कैब चालक को निलंबित कर दिया. मीडिया में इस घटना की खबर पीड़िता के नाम के बिना चली लेकिन मामले की विस्तृत जानकारी सामने आने के बाद पीड़िता के बारे में अनुमान लगाना आसान हो गया. तब से पीड़िता ने खेलने के लिए घर से बाहर जाना और दूसरे बच्चों से बात करना बंद कर दिया. आरोपी की तरफ से मिलने वाली धमकियों ने पीड़ित परिवार पर इस इलाके को छोड़ने और बच्ची का स्कूल बदलने के लिए दबाव बनाया. सिविल सोसायटी के लोगों ने पीड़ित के इलाज के लिए वित्तीय सहायता जरूर मुहैया कराई है लेकिन कोर्ट केस अभी भी चल रहा है. फिर जैसा कि होता है, कुछ समय के बाद कोर्ट की बढ़ती हुई फीस और असंख्य सुनवाईयों की सुस्त चाल के चलते माता-पिता ने इस केस में दिलचस्पी लेना बंद कर दिया.

तीसरा मामला 12 साल के गणेश का है, जिसके साथ यौन उत्पीड़न की जघन्यतम घटना उसके पिता की उम्र के लोगों ने अंजाम दी थी. गणेश स्कूल की छुट्टियों में एक मोटर गैराज में काम करता था. उसके आत्मविश्वास को कुचलने की कोशिश के चलते उसके दो साथी कर्मचारियों ने उसके गुदाद्वार में हवा पंप कर दी. चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) के बाल हक अभियान ने इस मामले की 18 महीने तक लगातार निगरानी की और बच्चे के इलाज और पुनर्वास तक सहयोग किया. मामले में दोनों आरोपियों और गैराज मालिक के खिलाफ केस दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार किया गया.

गणेश के मामले में उसकी आपातकालीन सर्जरी के बाद भी ट्रायल खत्म नहीं हुआ है. गणेश दलितों के मतंग समुदाय से था, जिस कारण पूरी घटना का राजनीतिकरण हो गया. पिता के शराबी होने के कारण इलाज की पूरी जिम्मेदारी उसकी मां पर आ गई. काफी प्रयास के बाद बच्चे को महाराष्ट्र के समाज कल्याण बोर्ड की तरफ से सहायता राशि के तौर पर कुल 25 हजार रुपये मिले जिससे उसका अच्छा इलाज और आगे की पढ़ाई कराने को कहा गया.

अपने करिअर की शुरुआत से बच्चों की सुरक्षा विशेषज्ञ होने के नाते मैं प्रक्रिया से अनजान लोगों के विशाल संघर्ष और केस प्रबंधन से जुड़ी खामियों को पहचानती हूं. यहां उल्लिखित पहला मामला अवैध संबंधों से जुड़ा हुआ है, जिसके बारे में हमारे देश में पर्याप्त चर्चा इसलिए नहीं होती क्योंकि यह परिवार के सम्मान से जुड़ा  है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक 2014 में सामने आए कुल 713 मामलों में से 46 प्रतिशत परिवार के अंदर हुए अवैध संबंधों से जुड़े थे, साथ ही उत्पीड़न के शिकार बच्चों की उम्र 12 से 18 साल के बीच थी. ये जो मामले सामने आए हैं, वे हकीकत से काफी कम हैं.

कानूनी रूप से दूसरा मामला काफी मजूबत था क्योंकि इस मामले में पीड़िता खुलकर सामने आई और कार्रवाई की गई लेकिन समुदाय और समाज ने उस मासूम बच्ची को हरा दिया, जिसने अपने ऊपर हुई ज्यादती के बारे में बोलने की हिम्मत दिखाई थी. वहां आर्थिक विसंगतियां थीं, उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा, साथ ही बच्ची की मां ने अपनी नौकरी भी गंवा दी. पीड़ित परिवार की सहायता के लिए कोई माहौल नहीं बन पाया, जिससे मामले का सही तरह से निपटारा हो सके.

उसी तरह तीसरे मामले में कानूनी तौर पर न्याय होता दिखा. हालांकि बच्चे की मानसिक पीड़ा उस कष्ट से और बढ़ी जो उसके समुदाय ने दिया. बच्चे को मिले मानसिक आघात से निकालने की बजाय लोग इस घटना के राजनीतिकरण में लगे रहे. बाल यौन उत्पीड़न के मामलों में बच्चे को सदमे से उबारने के लिए न्याय के अलावा सामाजिक स्थिरता, नियमित स्वास्थ्य सेवाओं और निरंतर परामर्श की जरूरत भी महत्वपूर्ण होती है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

सालों के संघर्ष के बाद बच्चों की यौन उत्पीड़न से सुरक्षा के लिए प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल अॉफेंस एक्ट (पोक्सो अधिनियम) 2012 लागू हुआ, जिसके तहत बच्चों के यौन उत्पीड़न को दंडनीय अपराध माना गया और न्याय की पूरी प्रक्रिया को पीड़ित बच्चे के अनुकूल रखने का प्रयास हुआ. पहले अश्लीलता और उत्पीड़न से जुड़े मामलों में मुकदमा चलाना काफी मुश्किल था क्योंकि सभी मामले भारतीय दंड संहिता के तहत ही दर्ज होते थे.

हालांकि इस कानून के अमल में आने के तीन साल बाद भी पीड़ित बच्चों की स्थितियों में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है. पोक्सो कानून के अनुसार ऐसे किसी भी मामले को विशेष किशोर संरक्षण इकाई में रिपोर्ट करना होगा. पोक्सो  पीड़ित की सुरक्षा और विभिन्न सुविधाएं देने के लिए बाल कल्याण समितियों की भूमिका भी स्पष्ट करता है पर मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकती हूं कि ये बाल कल्याण समितियां भी बाल यौन उत्पीड़न के जटिल मामलों से निपटने के लिए बहुत योग्य नहीं हैं.

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ‘समेकित बाल संरक्षण योजना’ को लाने का उद्देश्य देश के सभी बच्चों के लिए संरक्षणपूर्ण वातावरण बनाना था, जहां उन्हें समुचित आर्थिक सुविधाएं और सहयोग दिया जा सके, पर भूमिकाओं की अस्पष्टता और संविदा कर्मियों की कम तनख्वाह के मुद्दे के चलते इसका क्रियान्वयन ठीक तरह से नहीं हो पाया. इन समस्याओं से पार पाना अभी तो मुश्किल लग रहा है.

पोक्सो के क्रियान्वयन और देखरेख के लिए राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और राज्यों के बाल अधिकार संरक्षण आयोग जवाबदेह हैं. इन आयोगों को राज्य सरकारों द्वारा प्रतिपादित दिशा-निर्देशों की भी निगरानी करनी होती है. पर ज्यादातर राज्य आयोग घटिया बुनियादी ढांचे, संसाधनों की कमी और स्वायत्तता और शक्ति की कमी से जूझ रहे हैं. उदाहरण के तौर पर, उत्तर प्रदेश राज्य आयोग ने पांच सदस्यों को एक साल के लिए नियुक्त किया लेकिन वर्तमान में आयोग में सिर्फ एक सदस्य है. इसी तरह हरियाणा और राजस्थान के आयोगों में भी सिर्फ एक -एक सदस्य ही है.

इस कानून की धारा 35, स्पेशल पोक्सो कोर्ट के लिए ये अनिवार्य करती है कि पीड़ित बच्चे के बयान और सबूत 30 दिन के अंदर रिकॉर्ड करे और एक साल के अंदर मामले का निपटारा करे. देश के कई भागों में या तो इन मामलों को सुनने के लिए कोई स्थायी कोर्ट नहीं है और अगर है तो फिर वे काम नहीं कर रहे हैं. पोक्सो के प्रावधानों को अमल में लाने के लिए फिर से समीक्षा की जरूरत है. इस कानून को सफल रूप से क्रियान्वित करने के लिए ऐसे मामलों का अनिवार्य रूप से रिपोर्ट होना और पीड़ित की क्षतिपूर्ति का जनता की नजर में आना बहुत जरूरी है.

एनसीआरबी के अनुसार, पोक्सो एक्ट के तहत 2014 में दर्ज मामलों की संख्या 9,712 थी, जिनमें से 6,982 मामलों को निपटा दिया गया. जो 8,379 मामले कोर्ट में चले उनमें से कुल 406 केसों का ट्रायल पूरा हो पाया, जिसमें सिर्फ 1.19 प्रतिशत (100 केस) मामलों में ही आरोपियों को सजा हो पाई. शहरों में हालत थोड़ी ठीक है लेकिन ग्रामीण इलाकों में अब भी इस योजना का प्रसार-प्रचार बाकी है.

सजा मिलने के खराब आंकड़ों और स्पेशल कोर्ट की भारी कमी को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि हमें अपने बच्चों को न्याय दिलाने के लिए अभी बहुत काम करना है. उसी से साबित होगा कि हम अपने बच्चों के खिलाफ किसी भी तरह का उत्पीड़न बर्दाश्त नहीं करते.

(लेखिका चाइल्ड राइट्स एंड यू की निदेशक (नीति एवं अनुसंधान) हैं)