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माटी मानस’ के पक्षधर मणि का जाना

बीती छह जुलाई की सुबह भारतीय सिनेमा के प्रमुख फिल्मकार मणि कौल नहीं रहे. 1960 में बने पुणे फिल्म स्कूल से निकले जिन कुछ फिल्मकारों ने अपनी अलग जगह बनाई उनमें मणि की खास जगह है. अपने गुरु ऋत्विक घटक से उन्होंने न सिर्फ सिनेमा की बारीकियां जानीं बल्कि साहित्य और संगीत को भी गहरे आत्मसात किया. वे संभवतया अकेले फिल्मकार हैं जिन्होंने हिंदी और विश्व साहित्य की कृतियों का इतना अधिक इस्तेमाल किया. नयी कहानी आंदोलन के प्रमुख कहानीकार मोहन राकेश की कहानी उसकी रोटी’ (1971) उनकी पहली कथा फिल्म थी.  फिर यह सिलसिला अनवरत चलता रहा. इस कड़ी में 1971 में मोहन राकेश के नाटक आषाढ़ का एक दिनका रूपांतरण, 1973 में विजयदान देथा की कहानी दुविधा’, 1979 में विजय तेंदुलकर के नाटक घासीराम कोतवाल’, 1980 में गजानन माधव मुक्तिबोध की कहानी सतह से उठता आदमी’, 1989 में फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की की कहानी द मीक वनपर नजर’, 1992 में फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की के उपन्यास इडियटपर अहमकऔर 1992 में विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास पर नौकर की  कमीजशामिल हैं. अपनी जानलेवा बीमारी से पहले वे विनोद कुमार शुक्ल के ही एक दूसरे महत्वपूर्ण उपन्यास दीवार में एक खिड़की रहती थीपर काम कर रहे थे, लेकिन बीमारी के कारण उन्होंने इसकी पटकथा लिखे जाने के बाद निर्माण शुरू नहीं किया. इन कथा फिल्मों के अलावा मणि कौल ने ध्रुपद’ (1982), ‘माटी मानस’ (1984) और सिद्धेश्वरी’ (1989) जैसे महत्वपूर्ण वृत्तचित्रों का भी निर्माण किया.

अगर फिल्म आपको वही सब कुछ दिखाए जो दर्शकों को ज्ञात हो तो यह नई रचना हमें किस ओर ले जाएगी

जोधपुर में जन्मे मणि को बचपन से ही फिल्मों का जबरदस्त जुनून था जो उन्हें पुणे फिल्म स्कूल तक खींच लाया. 1964 में जब उन्होंने फिल्म स्कूल में प्रवेश लिया तो संयोग से उस साल ही विख्यात फिल्मकार ऋत्विक घटक ने फिल्म स्कूल में पढ़ाना शुरू किया था. मणि कौल, कुमार शाहनी, अदूर गोपालकृष्णन, जी अरविंदन, के के महाजन, जाॅन अब्राहम जैसे शिष्यों से घटक ने एक ऐसा वृत्त बनाया जो सिनेमा में भारतीय नयी लहर का प्रतिनिधित्व कर सकता है. इन सबमें मणि सबसे अलग थे. वे भारतीय सिनेमा में चल रहे नैरेटिव फॉर्म की पुनरावृत्तियों से बिलकुल भी इत्तेफाक नहीं रखते थे. अपनी कथा फिल्मों में भी वे लगातार कथात्मकता को तोड़ते रहे. वे अक्सर कहते थे, ‘अगर फिल्म आपको वही सब कुछ दिखाए जो पहले से न सिर्फ फिल्मकार को ज्ञात हो, बल्कि दर्शकों को भी तो यह नयी रचना हमें किस ओर ले जाएगी? इसी कारण वृत्तचित्रों का नाॅन फिक्शनल फॉर्म उन्हें आकर्षित करता था. यही कारण है कि वे कथा फिल्मों के साथ उतने ही वजन के वृत्तचित्रों का भी निर्माण करते रहे जिनमंे सिद्धेश्वरीसबसे खास है. नैरेटिव से आक्रांत भारतीय दर्शक उन्हें आसानी से सराह नहीं सके. ज्यादातर दर्शक उनकी फिल्म की तुलना मूल रचना से करते रहे और पछताते रहे, जबकि मूल रचना मणि के लिए सिर्फ एक विचार से ज्यादा कभी कुछ नहीं थी. फिल्म के अंदर भी हर एक शाॅट उनके लिए महत्व रखता था. उनके लिए कुछ भी री टेक नही था. इसी महत्व के कारण वे अपनी शूटिंग में तथाकथित खराब शॉटों का भी प्रिंट तैयार करवाते और अक्सर संपादित फिल्म में उन्हीं शॉटों को प्रयोग में भी लाते. इस संदर्भ में उदयन वाजपेयी से हुई उनकी बातचीत का एक हिस्सा गौर करने लायक है, ‘अगर देखा जाए तो मैं कहानी के खिलाफ नही हूं. जैसे आप अपने बच्चों के बारे में बात कर रहे थे. उस कहानी का रूप अलग होता है. बच्चे जो आपस में बैठे दो घंटे तक कहानी कहते रहते हैं, यहां से आ गए , वहां चले गए, कहीं नीचे घुस गया, फिर दरवाज़ा खोला. बहुत अंधेरा था. मैं चलता गया, चलता गया, चलता गया, अंत में थोड़ी रोशनी नजर आई. लाइट के पास पहुंचा तो एकदम चकाचौंध हुई. अचानक कुछ लोग कूदकर अंदर आ गए. यह एक कहानी है क्योंकि इसमें कोई अर्थ नहीं है. यह चलता चला जाएगा. अगर कोई बच्चा कह रहा ह 

सिनेमा के उन नये और प्रयोगधर्मी कलाकारों और विद्यार्थियों को निश्चय ही मणि के इतनी जल्दी जाने का बहुत अफसोस होगा जिनको उनसे अभी दृश्यों और ध्वनियों की स्वतंत्र सत्ता व उनके संबंध, देश व काल के अंतर्संबंध, भारतीय संगीत और साहित्य परंपरा के बारे में बहुत कुछ जानना था.

 

मुक्ति का मिथक

जिस समाज में छायाकारों को आमंत्रित करके समारोहात्मक रूप से अपने यौनंागों की तस्वीरें उतरवाने  के लिए बेताब विदुषियां हों वहां एक पुलिस अधिकारी द्वारा स्त्री परिधान पर कर दी गई टिप्पणी से ऐसी और इतनी हलातोल मच सकती है कि उसकी अनुगूंजें पश्चिमी समाज की नारी स्वतंत्रता की पक्षधर बिरादरी में भी ऊंचे तारत्व पर सुनाई देने लगे. दरअसल ऑस्ट्रेलिया के एक पुलिस अधिकारी ने कुछेक स्त्रियों के ‘देह दर्शना परिधान में सार्वजनिक स्थल पर विचरण‘ को स्लट वॉक कह दिया. कथन का क्वथनांक इतना बढ़ा कि यहां के स्थानीय अखबारों के नारी केंद्रित पृष्ठों पर भी अभिव्यक्ति का तापमान बढ़ गया. नारीवादी चिंतक भी तैश में आ गए.

पश्चिमी वस्त्रों ने स्त्री पहनावे में ऐसा उलटफेर कर दिया कि परंपरागत जातीय परिधान को लेकर हीनताबोध छा गया है

विगत में कर्नाटक उच्च-न्यायालय के पूर्व और संप्रति उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति माननीय सीरिएक जोसेफ को भी उनके इस वक्तव्य पर चौतरफा घेर लिया गया था कि ‘ऐसे देह-दर्शना परिधानों में पूजास्थलों पर युवतियों का आगमन श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि ऐसे वस्त्रों से छेड़छाड़ की घटनाएं घटती हैं.’ यह निश्चय ही समाज के एक वरिष्ठ नागरिक की सामान्य और सदाशयी टिप्पणी थी. वह न्यायघर की कुर्सी पर बैठ कर दिया गया कोई फैसलाकुन कथन नहीं था. दरअसल उनका आशय कदाचित कम कपड़ों से स्त्री के स्त्रीत्व से कौन-सा काम लिया जा रहा है इसकी ओर ही उनका सहज संकेत था. बेशक वह कोई असावधान भाषा में की गई मर्दवादी टिप्पणी नहीं थी. लेकिन स्त्रीवादियों ने आपत्ति उठाते हुए प्रश्न किया कि आखिर स्त्री क्या पहने और क्या न पहने इसको तय करने वाले पुरुष कौन होते हैं. ऐसी टिप्पणियां स्त्री की स्वतंत्रता का हनन करती हैं.

अब हम थोड़ा-सा स्त्री परिधान की स्थिति का आकलन कर लें. हमारे यहां खासकर उदारीकरण के बाद पश्चिमी वस्त्रों ने स्त्री पहनावे में ऐसा उलटफेर कर दिया कि परंपरागत जातीय परिधान को लेकर उनमें हीनताबोध छा गया है. वह पूरा पहनावा ही उनके लिए लज्जास्पद बन गया है. अमूमन इस तरह के परिधान -प्रसंग में लगे हाथ प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कुरुक्षेत्र में कूद पड़ता है. वह परिधान के मुद्दे को लगे हाथ कट्टरवादियों की हरकत बताता हुआ आग उगलने पर उतारू हो जाता है. बहरहाल देह-दिखाऊ वस्त्रों को लेकर आपत्ति प्रकट करने वालों को लगे हाथ सीधे-सीधे ‘ड्रेस कोड के पक्षधर फासिस्टों’ की जमात में शामिल कर दिया जाता है.  इसमें उभर कर आया, फैशन की डगर पर तेजी से चलता नया पश्चिमी वस्त्र-व्यवसाय भी अपनी  ‘साम-दाम’ वाली अप्रत्यक्ष भूमिका अदा करने लगता है.

अंत में सारी उठापटक का ‘विसर्जन’ इस निष्कर्ष पर होता है कि स्त्री के परिधान और उसके ‘चयन की स्वतंत्रता को प्रश्नांकित करने वाला पुरुष कौन होता है.’ लेकिन, ऐसे सवाल खड़े करने वाले ‘स्त्री स्वतंत्रता’ के गुणीजन भूल जाते हैं कि आज स्त्री जो ‘पहन’ या ‘उतार’ रही है वह ‘बाजार-दृष्टि’ के इशारे पर ही हो रहा है और कहने की जरूरत नहीं कि समूची ‘बाजार-दृष्टि’ पुरुष के अधीन है. वही तय करता है और बताता है कि स्त्री का कौन-सा अंग कितना और कैसे खुला रखा जाए कि वह ‘सेक्सी’ लगे. मैन-ईटर लगे. वह ‘स्त्री की इच्छा’ का मानचित्र अपनी कैंची से काट-काट कर बनाता है.

‘ब्यूटी’ का अर्थ ‘चेहरे की सुंदरता‘ और ‘कमनीयता‘ से कम, उसकी अनावृत्त की जाने वाली ‘यौनिकता’ से ज्यादा है

दरअसल, आज समूचा बाजार और मीडिया ‘युवा केंद्रित’ है और गठजोड़ के जरिए वे यह प्रचारित करने में सफल हो चुके हैं कि जो कुछ भी वे ‘बता’ और ‘बेच’ रहे हैं वही ‘यूथ कल्चर’ है. वे युवाओं में एक मनोवैज्ञानिक भय उड़ेल देते हैं कि यदि उसने वैसा ‘उठना-बैठना’, ‘पहना-ओढ़ना’ या ‘पोशाक’ नहीं पहनी तो ‘लोग क्या कहेंगे’. माता-पिता उसे पिछड़े हुए और ‘तानाशाह’ लगते हैं. वे समझा पाने में असफल रहते हैं कि जिस पोशाक के न पहनने से उसके ‘जीवन-मरण’ का संकट खड़ा हो गया है वह अमेरिका की ‘एसयूजी क्राउड’ का गणवेश है और लो वेस्ट जींस का इतिहास समलैंगिकों (‘गे’ और ‘लेस्बियन’) के ड्रेस कोड से शुरू होता है, जो बाद में चलकर ‘जीएलबीटी समूह’ का पहनावा बन गया.

आज वस्तुस्थिति यह है कि ‘विज्ञापन’ की दुनिया आम तौर पर और ‘फैशन’ की दुनिया खास तौर पर स्त्री की ‘यौनिकता’ के व्यावसायिक दोहन पर आधारित है. यह भी कह सकते हैं कि फैशन का समूचा ‘समाजशास्त्र’ अब परंपरागत ‘सांस्कृतिक आधार’ को छोड़ कर केवल स्त्री की ‘यौनिकता’ के इर्द-गिर्द विकसित होता और चलता है. अब वस्त्र का रिश्ता पहनावे से नहीं, ‘कामुकता’ से है. इसलिए पोशाकें तन ढंकने की जिम्मेदारी की प्राथमिकता से पूर्णत: बाहर होकर, अब केवल तन के कुछ खास हिस्सों की तरफ पुरुष की आंख खींच कर, ‘स्त्री देह की सेंसुअसनेस’ को उभारने में लगी हैं. ‘फ्री साइज’ का फंडा विदा हो चुका है. अब तो उस ‘लापरवाही के सौंदर्य’ की सैद्धांतिकी के दिन भी लद गए. दरअसल, तब भारत में ‘वेस्टर्न गारमेंट ट्रेड’ अपनी जगह बनाने की जद्दो-जहद में था. ‘फिटिंग’ के लिए ग्राहक में क्रेज बनाने से उत्पाद की ‘फटाफट खपत’ में बाधा आती थी. ‘इंडिविजुअल वेरिएशंस’ इतने होते हैं कि हर रेंज का ‘माल’ बनाना और दुकान में रखना व्यापारी के लिए घाटे का सौदा बन जाता.

अब ‘फिटिंग’ वस्त्र विन्यास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मूल्य है. एक बार एशियाटिक सोसाइटी के बाहर सीढ़ियों पर एक ‘लो-वेस्ट जींस’ की ‘एड फिल्म’ की शूटिंग देखने का मौका मिला. वहां चार-पांच युवतियां हाथों में किताबें पकड़े सीढ़ियां चढ़ते हुए खिलखिलाती हुई ‘बैक शॉट’ में हंस रही थीं. पहले ‘टेक’ के बाद फिल्म निर्देशक कैमरामैन को समझाने लगा कि हमें लो-वेस्ट जींस की ‘बैक फिटिंग’ बतानी है. इसलिए, ‘लुक बैक शॉट’ को ऐसा होना चाहिए कि देखने वाले के मन में वह ‘डॉगी फक’ की ‘सेक्सुअल फैंटेसी’ पैदा करे.’ कहने की जरूरत नहीं कि अब यही वस्त्र की भूमिका है. और जींस निर्माता का अभीष्ट भी. न्यायमूर्ति श्री जौसेफ वस्त्रों के विन्यास पर जोर देकर बस यही तो बताना चाहते थे. 

बाद इसके उसी लोकेशन पर एक शीतलपेय का शूट था. युवतियां बदल गईं. फिल्म निर्देशक माॅडलों को भद्र भाषा में गंभीर-चिंतनपरक मुद्रा बनाकर समझा रहा था- ‘मैडम लिप्स को ऐसे गोल करिए कि ‘ओरल’ का ‘जेस्चर’ लगे और ‘फेस पर फक्ड का एक्सप्रेशन’ (दैहिक आनंद के चरम की चेहरे पर अभिव्यक्ति) आना चाहिए.’ अंग्रेजी में दिए जाने वाले अश्लील निर्देश भी गूढ़ता अर्जित कर लेते हैं.

बहरहाल, यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि फैशन अपने अभीष्ट में परंपरागत और पूर्व निर्धारित सामाजिकता के ध्वंस पर अपना आकाश रचता है. वह जहां एक ओर स्त्री की देह की उत्तेजना का दोहन करता है, वहीं दूसरी ओर पुरुष को ‘सांस्कृतिक’ नहीं, ‘शिश्न-केंद्रित’ बनाता है. याद करें, पुरुष में यौनिकता की ‘प्रदर्शन प्रियता’ जो पूर्व में व्यक्ति की सरासर लंपटई लगती थी, अब वह विज्ञापन की दुनिया के ‘माचो मैन’ की अदा में बदल गई है.

वस्त्रों में हेर-फेर करके ‘पुरुष’ को नया बनाने में वक्त जाया नहीं होता, जितना स्त्री को नया बनाने में. अब ‘ब्यूटी ऐंड बीस्ट’ का फंडा यहां भी गढ़ा जा रहा है. ‘ब्यूटी’ का अर्थ ‘चेहरे की सुंदरता’ और ‘कमनीयता’ से कम, उसकी अनावृत्त की जाने वाली ‘यौनिकता’ से ज्यादा है. इसलिए, कुछ ही वर्ष पूर्व जिन कपड़ों में ‘स्त्री’ घर के बाथरूम से बाहर नहीं आ पाती थी – वह उन्हीं कपड़ों में अब, चौराहों पर चहचहा रही है. अब देह पर वस्त्रों की न्यूनता स्त्री को ‘हॉट’ के विशेषण से अलंकृत करती है. उन्हें बताया जा रहा है कि माल के खरीदने में ‘चयन की स्वतंत्रता’ ही ‘स्त्री स्वतंत्रता’ है. फैशन के सिद्धांतकार कहते हैं ‘पर्सोना’ पढ़ाई नहीं, ‘परिधान’ से प्रकट होता है. इसलिए युवती जो परिधान पहनती है, वह उसका वक्तव्य है. मसलन वह रोमांटिक है. वह सेक्सी है. वह मैन-ईटर है. वैसे फैशन बाजार ने स्त्री के कई और भी वर्गीकरण और नाम आविष्कृत कर रखे हैं.

शशि थरूर ने एक बार अपने स्तंभ में लिख दिया था कि बाजार साड़ी को इसलिए बाहर कर रहा है चूकि उसमें स्त्री देह की ‘सनसनाती उद्दीप्तता’ ‌िछप जाती है. जबकि बाजार के लिए ‘सेक्सुुएलिटी’ ही प्रधान है. साथ ही उन्होंने साड़ी को भारतीय स्त्री की ‘सांस्कृतिक गरिमा’ से भी जोड़ दिया था. नतीजतन, तमाम ‘नारीवादी समूह’ संगठित हो कर शशि थरूर पर पिल पड़े. यह ‘बाजार-दृष्टि’ का प्रायोजित आक्रमण था. स्त्री की गरिमा की परिभाषा तय करने वाला ये कौन? कहने की जरूरत नहीं कि अब इस ‘फैशन-बाजार समय’ में युवतियों के लिए साड़ी एक निहायत ही ‘लज्जास्पद’ परिधान है. वह ‘इथनिक’ है. वह सेक्सी फीगर वाली युवती को भी ‘भैनजी’ बना देती है.

आज स्त्री यह नहीं जानती कि अंतत: वह पुरुषवादी व्यवस्था का विरोध करती हुई पुरुष के इशारे पर ‘पुरुष’ के लिए पुरुष के अनुरूप खुद ही खुल और खोल रही है. आज स्त्री के ‘निजता’ के क्षेत्र को तोड़कर उसे ‘सार्वजनिक संपदा’ में बदल दिया गया है. मसलन, भारतीय स्त्री के वक्ष पर रहने वाले दुपट्टे या पल्ले को देखें. जो दुपट्टे से ढांका जाता था वह स्त्री की ‘यौनिक निजता’ को बचाता था. अब दुपट्टे के विस्थापन ने उसकी ‘निजता’ को पूरी तरह खोलकर ‘पुरुष दृष्टि’ के उपभोग के अनुकूल और सुलभ बना कर रख दिया है. यह प्रकट ‘यौनिकता’ है जो पब्लिक प्रदर्शन के परिक्षेत्र में है. यह प्रकारांतर से पुरुष की ‘यौन-आकांक्षा के’ अनुरूप स्त्री की ‘यौनिक निजता’ का खुशी-खुशी करवा लिया गया नया लोकार्पण है. पहले चरण में उसने स्थान बदला. वह वक्ष से थोड़ा उठा और गले से लिपटा रहने लगा. फिर वह गले के बजाय कंधे पर आ गया. बाद में वह कंधे से भी उड़ गया.

यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि खुले समाजों में  फैशन व्यवसाय का ‘स्पेस’ कम हुआ है. चूंकि जो पहले से ही पर्याप्त खुला हुआ है उसके खोलने में ‘थ्रिल’ नहीं है, वहां अब न्यूडिटी में वृद्धि की मांग है. थ्रिल तो अब एक ‘बंद समाज’ को खोलने में है. भारतीय समाज में अभी भी ‘वस्त्रों’ के जरिए स्त्री की ‘सामाजिकता’ परिभाषित होती है. दुर्भाग्यवश वह अभी भी ‘मां’, ‘बहन’, ‘बेटी’ की पहचान से मुक्त नहीं है. फैशन तभी अपना विस्तार कर पाता है, जब स्त्री को इन पहचानों से पूरी तरह मुक्त कर दिया जाए. तभी वह अपनी सेक्सुएलिटी का संकोचहीन प्रदर्शन कर सकता है. भारतीय समाज में लोग अभी ‘बहन’ या ‘मां’ को ‘सेक्सी’ नहीं कह पा रहे हैं, लेकिन जिस तरह फैशन ‘परंपरागत सांस्कृतिक संकोच’ का ध्वंस कर रहा है, जल्दी पिता कह सकेगा, ‘वाउ! यू आर लुकिंग वेरी सेक्सी माय डॉटर. भाई अपनी बहन को कह सकेगा, ‘यू आर वेरी हॉट!’. कहना न होगा कि मीडिया से मिलकर ‘बाजार’ भारतीय पिताओं और भाइयों को इन संभावनाओं के लिए धीरे-धीरे तैयार कर ही रहा है. हालांकि महानगरीय अभिजन समाज में मां को बिच कहने का सांस्कृतिक साहस कुलदीपकों में आ चुका है.

बहरहाल, यह भारतीय समाज का पश्चिम के वर्जनाहीन खुलेपन की तरफ बढ़ने की प्रक्रिया का पूर्वार्द्ध है. परिधानों में खुलापन आया है, तो निश्चय ही धीरे-धीरे देह और दिमाग दोनों का भी खुलापन आ जायेगा और जब दोनों के खुलेपन बराबर हो जाएंगे, तब उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे यहां जल्द ही कस्बों में भी क्लासमेट्स सेक्समेट्स हो सकने की सामाजिक वैधता पा लेगें.  बस थोड़े-से धैर्य की जरूरत है. अभी तो हमारे भीतर उन्होने पश्चिम के सांस्कृतिक फूहड़पन (यूरो- अमेरिकी ट्रेश) के लिए केवल वस्त्रों के क्षेत्र में ही जबरदस्त भूख बढ़ाई है 

क्या मनमोहन सिंह उतने ही मासूम हैं जितने दिखते हैं?

हाल ही में लीक हुई नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट बताती है कि मुरली देवरा के नेतृत्व में तेल मंत्रालय और रिलायंस इंडस्ट्रीज की सांठ-गांठ से देश को अरबों रु का नुकसान हुआ. तहलका को मिले दस्तावेज बताते हैं कि इस घोटाले की जानकारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को तब से ही थी जब इसकी नींव पड़ रही थी. हिमांशु शेखर की रिपोर्ट

हाल ही में लीक हुई कैग की रिपोर्ट से पता चला कि रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल) ने केजी (कृष्णा-गोदावरी) बेसिन परियोजना में गैस निकालने की लागत को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया और जमकर मुनाफा कमाने का रास्ता साफ किया. इससे सरकार को राजस्व का भारी नुकसान हुआ. लाखों करोड़ रुपयों के घोटाले के जमाने में एक और बड़े घोटाले का उजागर होना उतना आश्चर्यजनक नहीं है जितना इस बात की जानकारी होते हुए भी ‘ईमानदार’ प्रधानमंत्री का चुप रह जाना है. तहलका को मिले दस्तावेज बताते हैं कि सीएजी की रिपोर्ट में सरकार और जनता को होने वाले नुकसान की जो बात अब सामने आ रही है इसकी जानकारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को तब भी थी जब इस नुकसान की नींव रखी जा रही थी.

सवाल यह उठता है कि क्या भ्रष्टाचार को संरक्षण देने और सब कुछ जानते हुए भी उसे रोकने के लिए कदम न उठाना ही वह ईमानदारी है जिसका प्रधानमंत्री की पार्टी और उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी रात-दिन गुणगान करते रहते हैं. आपका जवाब चाहे जो हो लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ईमानदारी की नयी परिभाषा गढ़ी है. राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटाले से लेकर स्पेक्ट्रम घोटालों तक हर बार संकेत मिले कि प्रधानमंत्री को अनियमितता और उससे सरकारी खजाने को होने वाले नुकसान के बारे में अंदेशा था. लेकिन प्रधानमंत्री ने अपनी कार्यशैली की पहचान बन चुकी ‘चुप्पी’ को सबसे कारगर हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और चारों ओर से जमकर लूटे जा रहे खजाने को लुटने दिया. अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री या तो आर्थिक नुकसानों को समझ नहीं सके या फिर उन्होंने इस ओर ध्यान देना ही उचित नहीं समझा.

गैस की आड़ में सरकारी खजाने को लूटने का यह खेल तब शुरू हुआ जब कुछ साल पहले देश में तेल और गैस की खोज के लिए केंद्र सरकार ने देश-विदेश की कंपनियों से आवेदन आमंत्रित किए. इसके बाद कुल 162 ब्लॉकों में तेल और गैस खोजने का ठेका कंपनियों को दिया गया जिनमें आरआईएल भी शामिल थी. आरआईएल ने कनाडा की कंपनी
निको रिसोर्सेज लिमिटेड के साथ मिलकर केजी बेसिन के डी-6 ब्लॉक में गैस की खोज करके उत्पादन शुरू कर दिया.

प्रधानमंत्री या तो आर्थिक नुकसानों को समझ नहीं सके या फिर उन्होंने इस ओर ध्यान देना ही उचित नहीं समझा

गैस उत्पादन और इसे बेचने की शर्तों को तय करने के लिए आरआईएल और केंद्र सरकार के बीच एक समझौता भी हुआ. इस समझौते के मुताबिक कंपनी को 2.47 अरब डॉलर की लागत लगाकर डी-6 से 40 एमएमएससीएमडी गैस का उत्पादन करना था. इसी समझौते में एक प्रावधान यह भी था कि गैस बेचने से होने वाली आमदनी में सरकार को तब तक हिस्सा नहीं मिलेगा जब तक आरआईएल इस पर होने वाले खर्च को पूरी तरह वसूल नहीं कर लेगी. इससे एक बात स्पष्ट थी कि आरआईएल की लागत जितनी ज्यादा होगी सरकार की आमदनी उतनी ही कम हो जाएगी. अगर कंपनी अपने खर्चे को कृत्रिम रूप से बढ़ा सकती हो तो सरकार का नुकसान उसका फायदा बन जाएगा. इसके बाद गैस के अकूत भंडार को देखते हुए कंपनी ने साल 2006 में सरकार के पास एक संशोधित प्रस्ताव भेजा. इस प्रस्ताव में उत्पादन को तो सिर्फ दोगुना (80 एमएमएससीएमडी) करने की बात थी लेकिन लागत को बढ़ा कर तकरीबन साढ़े तीन गुना यानी 8.84 अरब डॉलर कर दिया गया था. खर्चे साढ़े तीन गुना बढ़ाने के इस प्रस्ताव पर कोई भी सवाल उठाए बिना सरकार ने इसे दो महीने से भी कम समय में 12 दिसंबर, 2006 को मंजूरी दे दी.

संशोधित प्रस्ताव में लागत बढ़ाकर 8.84 अरब डॉलर करने का मतलब यह हुआ कि आरआईएल-निको पहले डी-6 से इतना रकम कमाएगी और उसके बाद होने वाले मुनाफे में से सरकार को हिस्सेदारी देगी. यदि उत्पादन क्षमता बढ़ने के अनुपात में ही खर्च में भी सिर्फ दोगुने की बढ़ोतरी होती तो आरआईएल को 4.94 अरब डॉलर की कमाई के बाद से ही रॉयल्टी देनी पड़ती. बनावटी तौर पर लागत बढ़ाने से सरकार को हुए आर्थिक नुकसान के बारे में कैग ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है, ‘संशोधित प्रस्ताव के जरिए लागत में की गई बढ़ोतरी से सरकार को आर्थिक नुकसान हुआ है. हालांकि, अब तक उपलब्ध जानकारियों के आधार पर हम नुकसान का आकलन नहीं कर पा रहे हैं. कंपनियों के 2008-09 के आंकड़ों के आधार पर आगे जो ऑडिट होगी उससे नुकसान का अंदाजालग पाएगा.’ यानी कैग का इशारा स्पष्ट है कि घोटाला बड़ा है.

आरआईएल-निको द्वारा बनावटी तौर पर लागत में की गई बढ़ोतरी से और भी कई नुकसान हुए. आरआईएल और सरकारी कंपनी एनटीपीसी के बीच 2.34 डॉलर प्रति यूनिट की दर से गैस आपूर्ति का समझौता हुआ था. मगर वैश्विक बाजार में बढ़ी कीमतों और बढ़ी लागत का वास्ता देकर आरआईएल ने ऐसा करने से मना कर दिया. बाद में यह मामला अदालत और अधिकार प्राप्त मंत्रिसमूह तक पहुंचा. आरआईएल की अर्जी पर सुनवाई करते हुए इस समूह ने यह व्यवस्था दी कि कंपनी 4.2 डॉलर प्रति यूनिट की दर पर एनटीपीसी को गैस बेचेगी. इससे एनटीपीसी को बिजली उत्पादन के लिए जरूरी गैस की करीब दोगुनी रकम चुकानी पड़ेगी. इसका नुकसान देश के आम लोगों को भी उठाना पड़ेगा क्योंकि यदि एनटीपीसी के बिजली उत्पादन की लागत बढ़ेगी तो वह उसकी कीमतें भी बढ़ाएगी.

आरआईएल की लागत जितनी ज्यादा होगी सरकार की आमदनी उतनी ही कम हो जाएगी

लागत में कृत्रिम बढ़ोतरी के परिणामस्वरूप गैस की कीमतें बढ़ने के कई दूरगामी परिणाम भी हैं. इसका खामियाजा आम बिजली उपभोक्ताओं के साथ-साथ औद्योगिक कंपनियों को भी भुगतना पड़ेगा. ऐसे में बिजली के इस्तेमाल से चलने वाली औद्योगिक गतिविधियों की लागत बढ़ेगी और यहां बनने वाले उत्पाद महंगे होंगे जिसका सीधा असर महंगाई दर पर दिखेगा जिसे नियंत्रण में करने के लिए देश के प्रधानमंत्री पिछले कई महीनों से दिन-रात एक किए हुए हैं.

डी-6 परियोजना में लागत बढ़ाने और इस वजह से गैस कीमतों में बढ़ोतरी की वजह से उर्वरकों की कीमतों में बढ़ोतरी भी तय है. कैबिनेट सचिव रहे केएम चंद्रशेखर ने गैस की कीमत तय करने के लिए बनी मंत्रियों की अधिकार प्राप्त समिति (जीओएम) को 31 पन्ने की एक रिपोर्ट भेजी थी. यह रिपोर्ट जुलाई, 2007 में सचिवों की समिति से चर्चा के बाद तैयार की गई थी. इसमें कहा गया था कि गैस की कीमतों में प्रति यूनिट एक डॉलर की बढ़ोतरी से सरकार को सब्सिडी के मद में 2,000 करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च करने पड़ते हैं. इसके बावजूद सरकार ने लागत में बनावटी बढ़ोतरी के आरआईएल-निको के खेल को नहीं रोका.

कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट तो जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है अभी हाल ही में लीक हुई है. मगर इस मामले की पड़ताल के दौरान ‘तहलका’ को जो दस्तावेज मिले हैं वे यह साबित करते हैं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आरआईएल द्वारा सरकारी खजाने को चूना लगाने की तैयारी की जानकारी साल 2007 के मध्य में ही दे दी गई थी. लेकिन उन्होंने इस मामले में कुछ नहीं किया. तेल और प्राकृतिक गैस पर स्थायी संसदीय समिति के सदस्य और माकपा के राज्यसभा सांसद तपन सेन ने 4 जुलाई, 2007 को प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर यह बताया था कि आरआईएल केजी बेसिन से गैस निकालने की लागत कृत्रिम तौर पर बढ़ा रही है. उन्होंने अपने पत्र में लिखा, ‘आरआईएल-निको ने संशोधित प्रस्ताव में कृत्रिम तौर पर लागत बढ़ाई है. गैस की कीमतों में हो रहे उतार-चढ़ाव के मूल में यही है. इसकी जांच होनी चाहिए.’ इसी पत्र में आगे लिखा गया है, ‘आरआईएल-निको द्वारा कृत्रिम तौर पर डी-6 परियोजना की लागत बढ़ाने का सीधा असर गैस की कीमतों पर पड़ेगा. आप इस बात से सहमत होंगे कि ऐसा होने से ऊर्जा और उर्वरक क्षेत्र के लिए गैस का इस्तेमाल करना आसान नहीं रहेगा.’ सेन ने लिखा, ‘मूल प्रस्ताव को 163 दिन में डीजीएच ने मंजूरी दी, जबकि बढ़ी लागत वाले संशोधित प्रस्ताव को डीजीएच ने 53 दिन में ही मंजूरी दे दी. इससे लगता है कि मंजूरी देने में काफी जल्दबाजी की गई.’

यह महत्वपूर्ण है कि सेन महज राज्य सभा सांसद ही नहीं, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस पर संसद की स्थायी समिति के सदस्य भी हैं. इस आधार पर कहा जा सकता है कि वे पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के मामलों में विशेषज्ञता रखते हैं.
13 जुलाई, 2007 को सेन ने प्रधानमंत्री को भेजे एक और पत्र में लिखा, ‘मेरी पिछली चिट्ठी के जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रधान सचिव ने मुझे बताया कि मेरे द्वारा उठाए गए मामलों को पेट्रोलियम मंत्रालय के पास भेज दिया गया है. आपको मालूम हो कि 2006 के दिसंबर से ही मैं मंत्रालय के सामने आरआईएल द्वारा लागत में बनावटी बढ़ोतरी का मामला उठाता रहा हूं लेकिन इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. इसलिए मैंने आपसे तत्काल हस्तक्षेप का अनुरोध किया था. मेरी मांग है कि इस मामले की स्वतंत्र जांच कराई जाए.’ मगर प्रधानमंत्री कार्यालय ने सेन के पत्र को एक बार फिर पेट्रोलियम मंत्रालय के पास भेज दिया.

कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट में पूरी गड़बड़ी के लिए पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय को दोषी ठहराया गया है. प्रधानमंत्री को पत्र लिखने से पहले सेन ने उस समय के पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री मुरली देवरा को पांच पत्र लिखे थे. देवरा ने सेन को दो जवाबी पत्र भी लिखे. इसके बाद सेन के पास हाइड्रोकार्बन महानिदेशक (डीजीएच) को भेजा गया. सेन बताते हैं, ‘डीजीएच की तरफ से परियोजना लागत में बढ़ोतरी को सही ठहराने की भरसक कोशिश की गई. उन्होंने कहा कि डीजल आदि की कीमतों में काफी बढ़ोतरी हो गई है, इसलिए परियोजना की लागत काफी बढ़ गई है.’ सेन और डीजीएच की मुलाकात के बाद देवरा ने एक और पत्र लिखकर सेन को बताया कि डी-6 परियोजना की जांच का काम सक्षम एजेंसी को सौंप दिया गया है. डीजीएच की तरफ से जांच का काम पेट्रोलियम और गैस मामलों के जानकार पी गोपालकृष्णन और इंजीनियरिंग कंसल्टेंट मुस्तांग इंटरनेशनल का सौंपा गया. इन्होंने भी सरकार की हां में हां मिलाते हुए कहा कि डी-6 परियोजना पर होने वाला खर्च वाजिब है.

मूल प्रस्ताव को 163 दिन में डीजीएच ने मंजूरी दी, जबकि बढ़ी लागत वाले संशोधित प्रस्ताव को डीजीएच ने 53 दिन में ही मंजूरी दे दी

12 दिसंबर, 2006 को राज्य सभा में आरआईएल द्वारा खर्च बढ़ाए जाने के मामले को सेन ने सबसे पहले उठाया था. इसके जवाब में केंद्रीय पेट्रोलियम राज्य मंत्री दिनशा पटेल का कहना था, ‘डी-6 से गैस निकालने वाली कंपनियों के समूह यानी आरआईएल और निको ने सरकार को संशोधित योजना का प्रारूप सौंपा है. इसके मुताबिक उत्पादन क्षमता को दोगुना किया जाना है और लागत 2.47 अरब डॉलर से बढ़कर 8.84 अरब डॉलर होने की बात कही गई है.’ आश्चर्यजनक यह है कि जिस दिन सरकार राज्य सभा में लागत बढ़ाने का प्रस्ताव मिलने की बात कह रही थी उसी दिन आरआईएल ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करके कहा कि डी-6 परियोजना के संशोधित प्रस्ताव को डीजीएच ने मंजूरी दे दी है. इससे सरकार का दोहरापन साफ तौर पर झलकता है. क्योंकि मंजूरी देने पर बातचीत तो  12 दिसंबर से पहले से चल रही होगी  आैर इसी वजह से संशोधित प्रस्ताव को अंतिम मंजूरी मिली लेकिन राज्य सभा में सरकार ने मंजूरी की बात नहीं करके सिर्फ संशोधित प्रस्ताव मिलने की बात कही. इससे लगता है कि इस मामले में सरकार की मंशा सही नहीं थी.

21 दिसंबर, 2006 को मुरली देवरा को लिखे पत्र में सेन ने कहा, ‘राज्य सभा में मेरे सवाल के जवाब में जो जानकारी दी गई उससे ऐसा लग रहा है कि परियोजना लागत को कृत्रिम रूप से बढ़ाने (गोल्ड प्लेटिंग) का काम चल रहा है. समझौते के मुताबिक कंपनी मुनाफा सरकार के साथ साझा करने से पहले अपनी लागत वसूलेगी.’ उन्होंने इसी पत्र में आगे लिखा, ‘अगर लागत को कृत्रिम रूप से बढ़ाने की बात सही निकलती है तो इससे सरकार को काफी घाटा होगा. इसलिए इस मामले की जांच करवाई जाए.’

5 जनवरी, 2007 को सेन ने देवरा को फिर से एक पत्र लिखा. इसमें उन्होंने पूछा, ‘आखिर बगैर जांच कराए आरआईएल-निको के प्रस्ताव को कैसे मंजूरी मिल गई? मैंने अपने पिछले पत्र में ही संशोधित प्रस्ताव की खामियों की बात उठाई थी. मेरी मांग है कि इस मामले में कोई और फैसला लेने से पहले सरकार मामले की जांच करे और डीजीएच के फैसले पर पुनर्विचार करे.’ इसके बाद सेन ने एक के बाद एक तीन पत्र प्रधानमंत्री को लिखे जिनका क्या हश्र हुआ, हम पहले ही जान चुके हैं. ये पत्र उन्हीं मुरली देवरा के पास भेज दिए गए जिनके मंत्रालय के बारे में कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट में कहा गया है कि पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस मंत्रालय और डीजीएच ने निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाया.

हाल ही में अखबारों के संपादकों के साथ बातचीत में प्रणब मुखर्जी के दफ्तर की जासूसी कराए जाने के बारे में प्रधानमंत्री का कहना था, ‘मुखर्जी की तरफ से मुझे शिकायत मिली थी. इसके बाद मैंने इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) को जांच के लिए कहा था. जांच के बाद आईबी ने बताया कि जासूसी का कोई प्रमाण नहीं है. जांच के आदेश की जानकारी गृहमंत्री को नहीं थी.’ अजब बात है. एक तरफ तो वित्त मंत्रालय में जासूसी से जुड़े मामले की जानकारी प्रधानमंत्री जांच करने वाले विभाग के मुखिया यानी गृहमंत्री चिदंबरम तक को नहीं देते हैं. वहीं दूसरी तरफ पेट्रोलियम मंत्रालय की मिलीभगत से लूटे जा रहे खजाने की लगातार खबर देने वाली चिट्ठियों को वे उचित कार्रवाई के लिए उसी मंत्रालय को भेज देते हैं.

जाहिर है, प्रधानमंत्री जी इतने मासूम नहीं हैं. अपनी तमाम शिकायतों का हश्र सेन ‘तहलका’ को कुछ इस तरह बताते हैं, ‘प्रधानमंत्री को मैंने तीन चिट्ठी लिखी. उन्हें पूरी स्थिति से अवगत कराया. पर कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला. प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहे.’ इससे लगता है कि अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को आरआईएल द्वारा देश को पहुंचाए जाने वाला आर्थिक नुकसान या तो दिखा नहीं या फिर उन्होंने आंखें मूंद लीं. इसका नतीजा यह हुआ कि लूट जारी रही और शायद आगे भी जारी रहने वाली है.

मुरली देवरा की जवाबदेही  तय करने के संदर्भ में सेन कहते हैं, ‘सिर्फ देवरा क्यों? मैंने प्रधानमंत्री को तीन पत्र लिखे. उन्होंने भी कुछ नहीं किया. इसलिए गड़बड़ी की जिम्मेदारी तो प्रधानमंत्री को भी लेनी पड़ेगी.’ सेन के वक्तव्य के आधार पर एक वाजिब सवाल यह उठता है कि भारतीय कानून के तहत अपराधियों को संरक्षण देने वाले को भी अपराध का दोषी माना जाता है. ऐसे में आरआईएल को भ्रष्टाचार करने देने के लिए मुरली देवरा समेत प्रधानमंत्री को भी क्यों नहीं दोषी माना जाना चाहिए?

कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट को आधार बनाकर सीबीआई ने इस मामले की जांच शुरू कर दी है

अब अगर इससे थोड़ा पहले जाएं तो जब 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला उजागर हुआ था तब भी पहले तो सरकार ने इसे घोटाला ही मानने से इनकार कर दिया था. बाद में कैग की रिपोर्ट आई जिसमें कहा गया कि स्पेक्ट्रम आवंटन में दूरसंचार मंत्री रहे ए राजा के फैसलों की वजह से सरकार को 1.76 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. काफी हो-हल्ले के बाद प्रधानमंत्री ने मुंह खोला और कहा कि उन्हें इतनी बड़ी गड़बड़ी के बारे में पता नहीं था. पर जनता पार्टी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी समेत कुछ और लोगों ने उन पत्रों को सार्वजनिक कर दिया जो प्रधानमंत्री को इस गड़बड़ी के बारे में आगाह करते हुए लिखे गए थे. धीरे-धीरे सार्वजनिक होती सूचनाओं ने यह साबित कर दिया कि स्पेक्ट्रम आवंटन के नाम पर जो लूट हुई उसे प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री समय रहते रोक सकते थे.
स्पेक्ट्रम घोटाला उजागर होने पर सरकार ने कहा कि पहले आओ और पहले पाओ के आधार पर स्पेक्ट्रम आवंटित करके सरकार ने कोई गलती नहीं की. यह नीति तो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने लागू की थी. हमने तो सिर्फ इस नीति का पालन किया. गैस मामले में भी पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी का कहना है कि जिस नीति के तहत आरआईएल को गैस की खोज और उत्पादन का ठेका मिला वह भाजपा की अगुवाई वाली सरकार ने 1999 में तैयार की थी. जाहिर है, उन नीतियों का पालन करने की बात कहकर सरकार पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रही है. अगर सरकार को यह लगा कि पुरानी नीति में कोई गड़बड़ी है तो उसके पास उन नीतियों की खामियों को दूर करने का विकल्प था. पर ऐसा नहीं किया गया. साफ है कि मामला नीति में खामी का नहीं बल्कि नीयत में खोट का है.

ए राजा के इस्तीफे के बाद दूरसंचार मंत्रालय संभालने वाले कपिल सिब्बल ने कहा था कि कैग ने अपनी रिपोर्ट में आर्थिक नुकसान की गलत व्याख्या की है और सही मायने में सरकार को स्पेक्ट्रम आवंटन में कोई नुकसान ही नहीं हुआ. पर जैसे-जैसे मामला उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर आगे बढ़ा, वैसे-वैसे घोटाले की परतें एक-एक कर खुलती गईं. अब केजी बेसिन मामले में भी वही कहानी दोहराई जा रही है. मौजूदा केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी को इस मामले में कोई गड़बड़ी ही नहीं दिख रही. कपिल सिब्बल कैग के औचित्य पर ही सवाल उठा रहे हैं. वहीं प्रधानमंत्री केजी बेसिन मामले में कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट पर कहते हैं, ‘मैंने पूरी रिपोर्ट नहीं पढ़ी है. इससे पहले कभी कैग ने किसी नीतिगत मामले में टिप्पणी नहीं की थी. कैग को संविधान के तहत तय दायरे में ही काम करना चाहिए.’ प्रधानमंत्री ने कहा कि निर्णय लेते वक्त हमें बहुत कुछ पता नहीं होता और अगर देश को प्रगति करनी है तो इस बात को संसद, कैग और मीडिया को समझना चाहिए.’ क्या इसका मतलब यह है कि प्रगति के लिए लूट जरूरी है और इसके खिलाफ किसी को भी नहीं बोलना चाहिए, चाहे वह कैग ही क्यों न हो.

2जी मामले में प्रधानमंत्री ने गठबंधन की मजबूरियों का हवाला देकर ए  राजा की छुट्टी करने में जानते-बूझते की गई देरी को जायज ठहराने की कोशिश की थी. यही बात दयानिधि मारन के बारे में भी कही जा सकती है. लेकिन देवरा के मामले में तो  उनके पास यह बहाना भी नहीं था. वे कांग्रेस के ही मंत्री थे. बीते दिनों प्रधानमंत्री ने मंत्रिमंडल में फेरबदल किया और नई टीम में देवरा नहीं हैं. जब कैग की रिपोर्ट लीक हुई और इस मामले पर काफी हो-हल्ला हुआ तो देेवरा ने  निजी कारणों का हवाला देते हुए इस्तीफा प्रधानमंत्री को सौंप दिया. अब उनकी जगह उनके बेटे मिलिंद देवरा को मंत्री बना दिया गया है.

जानकार मानते हैं कि इस कदम से एक साथ कई निशाने साधे गए हैं. मुरली देवरा के मंत्री रहते सरकार की छवि पर जो एक और दाग लगने की आशंका बन रही थी वह काफी हद तक खत्म हो गई है. दूसरी तरफ बेटे के मंत्री बन जाने की वजह से मुरली देवरा को भी इस्तीफा देने के लिए तैयार करने में कोई खास मशक्कत नहीं करनी पड़ी होगी.

प्रधानमंत्री को सेन ने तीन चिट्ठियां लिखीं, उन्हें पूरी स्थिति बताई. पर कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला. प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहे

यह विडंबना ही है कि देश का मुखिया लुटेरों और उनके सहयोगियों के ‘ईमानदार’ मुखिया में तब्दील हो गया है. तपन सेन कहते हैं, ‘इस सरकार को कॉरपोरेट ताकतों ने बंधक बना लिया है और उन्हीं के हितों के पोषण के लिए यह सरकार काम कर रही है. हम इस मसले को संसद के मानसून सत्र में जोर-शोर से उठाने जा रहे हैं. प्राकृतिक संसाधनों की लूट हर हाल में बंद होनी चाहिए.’
इस बीच खबर है कि कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट को आधार बनाकर सीबीआई ने इस मामले की जांच शुरू कर दी है. कहा जा रहा है कि जल्द ही सीबीआई पूर्व डीजीएच वीके सिब्बल, पेट्रोलियम मंत्रालय के अधिकारियों और इस मामले में संदेह के घेरे में आ रहे लोगों को तलब करने वाली है. जाहिर है कि इसमें आरआईएल के अधिकारी भी शामिल होंगे. सीबीआई से जो जानकारी मिल रही है उसके मुताबिक वह इन लोगों को तलब करने से पहले उस जवाब का इंतजार कर रही है जो तेल मंत्रालय द्वारा कैग को दिया जाना है. सीबीआई ने तेल मंत्रालय और डीजीएच से वे सारे दस्तावेज मांगे हैं जिनके आधार पर डी-6 के संशोधित प्रस्ताव को मंजूरी दी गई. तेल मंत्रालय जवाब देने में जितनी देर लगाएगी उतना ही समय कैग को अंतिम रिपोर्ट तैयार करने में लगेगा.

कहा तो यह भी जा रहा है कि तेल मंत्रालय देरी इसलिए लगा रही है ताकि कैग की अंतिम रिपोर्ट संसद का सत्र चलने के दौरान न आ पाए और सरकार की किरकिरी कम हो. l

‘जब आप अस्पताल में किसी को देखने जायें तब…’

मान लीजिए कि अस्पताल में आपका कोई सगा, मित्र या पड़ोसी भर्ती है. निश्चित ही, एक दिन, समय निकालकर आप उसे देखने जाएंगे. बीमारी में न पहुंचे तो दोस्ती या रिश्तेदारी ही क्या? मान लें कि आपका मरीज मेरी देखरेख में भर्ती है. मैं इस हैसियत से आपको कुछ सलाहें देना चाहूंगा. आप इन सलाहों को मानकर यदि अस्पताल में ‘विजिट’ करने जाएंगे तो न केवल आपको सुविधा होगी बल्कि अस्पताल के कर्मचारियों के काम में भी व्यवधान नहीं पड़ेगा जो अमूमन ऐसे में पड़ा करता है.

पहली सलाहः जब तक बिल्कुल जरूरी न हो गया हो, अस्पताल के ‘विजिटिंग’ समय में ही अपना मरीज देखने जाएं. अस्पताल का काम ‘विजिटिंग आवर्स’ के हिसाब से ही आयोजित किया जाता है. आप कभी-भी मुंह उठाकर वहां पहुंच जाएंगे तो तब डॉक्टरों के राउंड, ड्रेसिंग, मरीजों की साफ-सफाई, ड्रिप लगाने, दवाइयों का बांटना चल रहा हो सकता है. ऐसे में आप अपने मरीज के इलाज में अड़ंगा डालेंगे और दूसरे मरीजों में भी. ऐसा न करें. फोन करके पता कर लें और ‘विजिटिंग समय’ में ही अस्पताल पधारें.

दूसरी सलाहः बड़ी-सी टीम लेकर अस्पताल न पहुंच जाएं. पत्नी तक तो ठीक है परंतु जो मिला, उसी को बताया कि ‘बॉस, नरेंद्र बीमार है – चलते हो देखने?’ और साथ लेकर चल दिए, यह बात ठीक नहीं. आप अस्पताल जा रहे हैं पिकनिक मनाने नहीं.

तीसरी सलाहः बच्चों को कतई साथ न ले जाएं. लोग, कई बार बहुत छोटे, बल्कि गोद में उठाने वाले या बमुश्किल लुढ़क कर चलने वाले बच्चों तक को अस्पताल लेकर पहुंच जाते हैं. याद रहे कि अस्पताल बीमारियों का समंदर है. बच्चे मौके तथा स्थान की नजाकत भी नहीं समझते. वे बड़ा-सा बरामदा देखकर दौड़ जाते हैं, वार्ड में छुपा-छुपाई खेलने लगते हैं और वहां किसी भी मशीन या दवाइयों को उलट-पुलट सकते हैं. आप बाद में उन्हें ठोकें-पीटें, डांटें-फटकारें – इससे बेहतर है कि बच्चों को साथ लेकर ही न जाएं.

चौथी सलाहः बच्चों को तो फिर भी एक बार अम्ल है - क्या करें, बच्चे हैं – पर आप भी जब वहां जाकर यूं ही, बच्चों की तरह जिज्ञासावश बीपी यंत्र, स्टेथोस्कोप, मॉनीटर, आक्सीजन सिलेंडर, बेडपॉन इत्यादि से खेलने लगते हैं, तब उसका क्या किया जाये? मैं शुरू में ही बता चुका हूं कि अस्पताल की चीजों का बिना बात के छूने पर अस्पताल का ‘क्रॉस इन्फेक्शन’ भी आपको होने का डर रहता है.

पांचवीं सलाहः मरीज के कागजों (अस्पताल की ‘केस-शीट’ इत्यादि) को न उलटें-पलटें. वहां सब कुछ यूं भी डॉक्टरी भाषा में तकनीकी तौर पर दर्ज किया जाता है जिसे समझने में कई बार दूसरे डॉक्टर तक को नानी याद आ जाती है. सो आप कुछ भी नहीं समझेंगे बल्कि गलत समझकर कन्फ्यूज अलग होंगे. याद रहे कि मरीज की रिकॉर्ड-फाइल एक महत्वपूर्ण क्लीनिकल (तथा कानूनी) दस्तावेज है. आपकी छेड़छाड़ से इधर के पेज उधर हो गए, अथवा महत्वपूर्ण टेस्ट रिपोर्टें गुम गईं या अदल-बदल गईं तो मरीज के इलाज में गंभीर गड़बड़ियां तक हो सकती हैं.

छठवीं सलाहः मरीज के पास धरे एक्स-रे, ईसीजी आदि न देखने लग जाएं. पल्ले कुछ पड़ेगा नहीं. ऊपर से इधर-उधर कर देंगे तो बाद में डाॅक्टर रोता फिरेगा. गीले या गंदे हाथ लगा दिए तो एक्स-रे फिल्म को अलग खराब कर देंगे. फिर तो मरीज और डॉक्टर दोनों रोते फिरेंगे.

सातवीं सलाहः मरीज के पास थोड़ी देर बैठकर ही वापस चले जाएं. गप्पें मारने न बैठ जाएं. बेचारा बीमार है.  उसे आराम करने दें. वहां महफिल न लगा लें. याद रखें आप वहां पिकनिक पर नहीं आए हैं कि पूरा मजा वसूलकर ही वापस निकलेंगे.

आठवीं सलाहः आपके मरीज की बीमारी, इलाज तथा खान-पान इत्यादि के बारे में डॉक्टर ने उसको तथा उसके चौबीसों घंटे वहां रहने वाले परिवारजनों को पहले ही बताया होता है. आप अतिरिक्त उत्साह में तथा अपनी ‘तथाकथित चिंता’ जताने के लिए यह तय न कर लें कि मैं अभी डॉक्टर से पूछता हूं न कि इनका बुखार कल से उतरा क्यों नहीं है. यह चिंता हो तो साथ वालों से दरियाफ्त कर लें कि डॉक्टर लोग क्या बता रहे हैं. आखिर डॉक्टर कितने लोगों को वही बात बताएगा?

नौवीं सलाहः सलाह यह है कि जाकर मरीज को अपनी सलाह देने न बैठ जाइए. उन्हें अपने उन चाचा जी का किस्सा न सुनाने लगें जिनको ‘एकदम तेरी ही तरह’ बुखार आया था और बाद में ‘मेनिन्जाइटिस’ निकला तो मरते-मरते बचे थे. मरीज को डराएं मत. हमारे देश में पुराना मरीज डॉक्टर से भी ज्यादा समझदार होता है. कम से कम वह तो यही मानता है. अपने बीपी या हार्ट की दवाइयां मरीज पर न थोपें. वही बीमारी हर मरीज में अलग-सा इलाज का तरीका मांगती है. डॉक्टर का काम डॉक्टर को करने दें. अपने गैरजिम्मेदाराना ‘लूज कमेंेट्स’ से मरीज का विश्वास डाॅक्टर में न डिगाए.

दसवीं और अंतिम सलाह यह है कि यदि इनमें से कोई भी सलाह अस्पताल का कोई भी स्टाफ आपको देता है तो बुरा न मानें. वह आपके मरीज के लिए ही ऐसा कह रहा है. आप ये सलाहें मानेंगे तो अस्पताल की बड़ी मदद करेंगे.

हम साथ-साथ हैं

आगे-आगे युवराज, पीछे-पीछे न्यूज चैनलों की कतार. युवराज ग्रामीण पर्यटन, माफ कीजिएगा, किसानों का हालचाल पूछने निकले हैं. यात्रा का आंखों देखा हाल बताने के लिए चैनल भी उनके लाव-लश्कर में साथ हैं. बिलकुल ‘हम साथ-साथ हैं’ की तर्ज पर. युवराज अपनी किसान प्रजा का हालचाल ले रहे हैं. चैनल युवराज का हालचाल लेने में लगे हैं. युवराज किसानों की चिंता में परेशान दिख रहे हैं. चैनलों को युवराज की चिंता सता रही है. युवराज गांव-गांव घूमकर पसीना बहा रहे हैं. चैनल युवराज का पसीना दिखाने के लिए पसीना बहा रहे हैं.

चैनल युवराज यानी राहुल गांधी की अदाओं पर फिदा हैं. वे पल-पल का हाल बता रहे हैं. युवराज ने किस किसान के घर चाय पी, क्या खाया, उनके लिए क्या खास बना था, रात कहां और किस खाट पर गुजारी, कहां नहाए…यह भी कि उनमें कितना जबरदस्त स्टैमिना है, कैसे वे बिना थके दर्जनों किलोमीटर चल रहे हैं, कैसे उनके साथ के कांग्रेसी नेता गर्मी-उमस-थकान के कारण बेहोश तक हो जा रहे हैं जबकि राहुल फुर्ती के साथ आगे बढ़े जा रहे हैं.

युवराज जल्दी में हैं. उनकी जल्दबाजी समझी जा सकती है. उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव नजदीक हैं. कहते हैं कि दिल्ली जाने का रास्ता लखनऊ होकर गुजरता है. इसीलिए युवराज के एजेंडे में लखनऊ फतह सबसे ऊपर है. जाहिर है कि इस चुनाव पर उनका बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है. वे कोई भी कसर नहीं उठा रखना चाहते हैं. यही कारण है कि वे ‘नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे’ की खाक छान रहे हैं. वे कभी दलितों का हालचाल लेने उनके घर पहुंच जा रहे हैं और कभी बुंदेलखंड में सूखे का जायजा लेने निकल पड़ रहे हैं.

इसी कड़ी में इन दिनों उनका किसान प्रेम उफान मार रहा है. निश्चय ही, राहुल गांधी और उनके रणनीतिकारों को किसानों का राजनीतिक महत्व पता है. वे जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में जातियों की दलदली राजनीति में किसानों के कंधे पर चढ़कर चुनावी वैतरणी पार की जा सकती है क्योंकि किसान को आगे करके जातियों के विभाजन को ढका जा सकता है. मायावती सरकार की मनमानी भूमि अधिग्रहण नीति ने उन्हें यह मौका दिया है. उन्होंने उसे भुनाने में देर नहीं की है.

लेकिन राहुल गांधी की इस ‘राजनीतिक सफलता’ में मीडिया खासकर न्यूज चैनलों के उदार  योगदान को अनदेखा करना मुश्किल है. याद रहे, न्यूज मीडिया को ‘मैजिक मल्टीप्लायर’ माना जाता है. आश्चर्य नहीं कि न्यूज चैनलों के अति उदार और भरपूर कवरेज ने राहुल की पदयात्रा के प्रभाव को कई गुना बढ़ा दिया. राहुल जितने गांवों में नहीं गए और जितने किसानों से नहीं मिले, उससे अधिक गांवों और किसानों तक वे अख़बारों और न्यूज चैनलों के जरिए पहुंच गए.

समाचार चैनलों की ओबी वैन और उनके स्टार रिपोर्टर शायद ही कभी गांवों की धूल और कीचड़ भरे कच्चे-पक्के रास्तों का रुख करते होंवैसे भी भारतीय राजनीति में जैसे-जैसे मीडिया खासकर टीवी की गढ़ी हुई छवियों की भूमिका बढ़ती जा रही है, आश्चर्य नहीं कि आज राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता चैनलों को ध्यान में रखकर अपने बयानों, फैसलों और राजनीतिक कार्रवाइयों की टाइमिंग तय करते हैं. राहुल की पदयात्रा और किसान महापंचायत की योजना और टाइमिंग में भी न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों का पर्याप्त ध्यान रखा गया था.  वैसे भी चैनल हमेशा सेलेब्रिटीज, ‘घटनाओं’ (इवेंट), टकराव (कनफ्लिक्ट) और कार्रवाई (ऐक्शन) की तलाश में रहते हैं. इस पदयात्रा में वह सारा आकर्षण था. लेकिन सबसे बढ़कर यह युवराज की पदयात्रा थी. नतीजा, चैनलों पर इस पदयात्रा को अति उदार और मुग्ध कवरेज मिली. ऐसा लगा जैसे चैनल राहुल की पदयात्रा के साथ नत्थी हो गए हैं. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो उन्हें पूरी यात्रा में राहुल के अलावा कुछ नहीं दिखाई दे रहा था.

यह और बात है कि खुद राहुल इस पदयात्रा को किसानों और उनकी समस्याओं को समझने का माध्यम बता रहे थे. उनके मुताबिक, किसानों और गांवों की समस्याएं दिल्ली या लखनऊ में पता नहीं चलती हैं. यह भी कि जितना उन्होंने लोकसभा में नहीं सीखा, उससे ज्यादा किसानों के बीच जाकर सीखा है. लेकिन अफसोस कि चैनल इस यात्रा से भी नहीं सीख पाए. वजहें कई हैं. पहली यह कि उन्हें राहुल के अलावा और कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. आखिर वे किसानों के दुख-दर्द और उनकी समस्याएं देखने-सुनने और समझने गए भी नहीं थे. दूसरे, चैनलों की खुद गांवों, किसानों और उनकी समस्याओं में कोई दिलचस्पी नहीं है. अगर  होती तो वे उन गांवों और किसानों के बीच पहले जाते. लेकिन चैनलों की ओबी वैन और उनके स्टार रिपोर्टर शायद ही कभी गांवों के कीचड़ भरे कच्चे-पक्के रास्तों का रुख करते हों. उनकी दिलचस्पी दिल्ली और लखनऊ में है. वे वहीं से देश को देखते और दिखाते हैं या कहें कि उनका देश वहीं तक सीमित है.

यह और बात है कि चैनलों को मजबूरी में राहुल के पीछे-पीछे जाना पड़ा. लेकिन जब चले ही गए थे तो कम से कम इतना तो कर सकते थे कि इस यात्रा के दौरान युवराज को मिल रहे समय में से कुछ समय किसानों के दुख-दर्द और उनकी समस्याओं को भी देते. इससे दर्शकों को भी राहुल से इतर गांवों और किसानों की तकलीफों का कुछ अहसास होता.

क्या हमारे गांव और किसान इतने के भी हकदार नहीं हैं?

पदयात्रा से पंचम तल की तैयारी

तहलका संवाददाता हिमांशु शेखर ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राहुल के ‘जादुई प्रभाव’ के दावे की हकीकत की पड़ताल के लिए उन तीन गांवों की यात्रा की जहां राहुल गांधी अपनी पदयात्रा के दौरान रात में रुके थे. चूंकि राहुल ने सबसे ज्यादा वक्त इन्हीं गांवों में बिताया इसलिए उनका और उनकी पदयात्रा का स्वाभाविक तौर पर सबसे ज्यादा असर, यदि वह है तो, इन्हीं गांवों के लोगों पर दिखना चाहिए

5 जुलाई की सुबह बिना किसी पूर्व सूचना के कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ग्रेटर नोएडा से सटे भट्टा-पारसौल गांव पहुंचे और उन्होंने किसान संदेश यात्रा शुरू करने की घोषणा कर दी. इससे प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के साथ-साथ इलाके के किसान भी चौंक गए. जैसे-जैसे यह यात्रा आगे बढ़ी वैसे-वैसे दिल्ली से लेकर लखनऊ तक सियासत भी तेज होती गई. शाम होते-होते ऐसा माहौल बना जैसे राहुल की गिरफ्तारी हो जाएगी और यह यात्रा अधूरी रह जाएगी. लखनऊ से लेकर अलीगढ़ तक उत्तर प्रदेश प्रशासन के अधिकारियों ने जिस तरह से बयानबाजी शुरू की उससे 9 जुलाई को अलीगढ़ में प्रस्तावित किसान महापंचायत का आयोजन भी खटाई में पड़ता दिखा. पर न तो यात्रा थमी और न ही महापंचायत का आयोजन रुका.

चार दिन की अपनी किसान संदेश यात्रा में राहुल तकरीबन दो दर्जन गांवों में गए. उन्होंने अलग-अलग गांवों में तीन रातें भी स्थानीय लोगों के घरों में गुजारी. इस यात्रा के दौरान राहुल जहां भी गए वहां उन्होंने किसानों से हमदर्दी दिखाई और कंधे से कंधा मिलाकर उनकी लड़ाई को अपनी लड़ाई मानकर लड़ने का वादा भी किया. नतीजा यह हुआ कि राहुल के रास्ते में पड़ने वाले हर गांव में उन्हें देखने वालों की भीड़ उमड़ी. लोगों ने उनसे तीखे सवाल-जवाब भी किए. राहुल इस पदयात्रा के जरिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को आधार देने का सपना संजोए हुए हैं. दूसरी तरफ इलाके के किसान हैं जो पूरी यात्रा के दौरान उनके साथ तो बने रहे लेकिन उन्हें आजमाने को लेकर अभी संशय में हैं.

अगर अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस इस इलाके में मजबूती से नहीं उभरती है तो खतरा राहुल के ‘जादुई प्रभाव’ की पोल खुलने का है, यह कांग्रेस के लिए नेतृत्व के संकट की स्थिति होगीहालांकि कांग्रेस के तमाम छोटे-बड़े नेता यह दावा करते हुए नहीं अघा रहे हैं कि अगले विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ‘राहुल का जादू’ ही चलेगा और लखनऊ के पंचम तल (मुख्यमंत्री कार्यालय) से एक बार फिर सूबे को चलाने का मौका कांग्रेस को मिलेगा. राहुल के साथ-साथ कांग्रेस के रणनीतिकारों को यह विश्वास हो चला है कि सूबे की सत्ता में पहुंचने का रास्ता पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बुंदेलखंड से होकर गुजरता है. उनके विश्वास की वजह यह है कि राष्ट्रीय लोकदल के अजित सिंह के प्रभाव वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मायावती का कोई खास प्रभाव नहीं है और बुंदेलखंड फिलहाल राजनीतिक रिक्तता के दौर से गुजर रहा है. यही वजह है कि पहले कांग्रेसी रणनीतिकारों ने राहुल को बुंदेलखंड में उतारकर किसानों की आत्महत्या के मसले को हवा दी और अब वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जमीन के मुद्दे को सियासी एजेंडे में लाने की कवायद राहुल के जरिए कर रहे हैं. किसान संदेश यात्रा और किसान महापंचायत इसी कवायद के अहम हिस्से हैं.

रामपुर बांगड़ः जातिगत सियासत की जमीन

किसान संदेश यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने पहली रात इसी गांव में गुजारी. निर्माणाधीन यमुना एक्सप्रेसवे से महज एक किलोमीटर की दूरी पर 2,000 से ज्यादा की आबादी वाले इस गांव में टाटा सफारी जैसी महंगी गाड़ियां और अच्छे मकान तो दिखते हैं लेकिन बजबजाती नालियों के पानी में डूबी गलियां विकास के सरकारी दावे की हकीकत खुद-ब-खुद बयान करती हैं. गांव के निवासी गंगा प्रसाद कहते हैं, ‘राहुल जी को भी इसी गली से गुजरना पड़ा था.’

पश्चिमी उत्तर प्रदेश भी राहुल गांधी के लिए किसी सियासी दलदल से कम नहीं है. अगर अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस इस इलाके में मजबूती से नहीं उभरती है तो खतरा राहुल के ‘जादुई प्रभाव’ की पोल खुलने का है. यह कांग्रेस के लिए यह नेतृत्व के संकट की स्थिति पैदा करेगा क्योंकि राहुल के सहारे कांग्रेसी लखनऊ से लेकर दिल्ली तक लंबी पारी खेलने की आस लगाए हुए हैं. यह पूछने पर कि क्या राहुल गांधी ने गलियों की इस बदहाली को दूर करने के लिए कोई वादा किया, गंगा प्रसाद बोल पड़ते हैं, ‘अब गलियों की स्थिति सुधारने में राहुल गांधी क्या करेंगे. यह सब काम तो राज्य सरकार का है.’ आसपास खड़े लोग भी गंगा प्रसाद का समर्थन करते हैं.

पर तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है. कई जातियों के लोगों का यह गांव मोटे तौर पर दो टोलों में बंटा हुआ है. एक टोला अगड़ी जातियों का है तो दूसरा पिछड़ी जातियों का. दोनों टोलों के लोगों की सियासी लाइन का फर्क भी साफ दिखता है. अगड़ी जातियों पर राहुल की खुमारी छाई हुई है तो पिछड़ी जातियां अब भी बहनजी को ही अपने उत्थान का जरिया मानती हैं. मजदूरी करके जीवन यापन करने वाले चेतराम कहते हैं, ‘राहुल गांधी से आखिर हम कैसे कोई उम्मीद लगाएं. 60 साल से तो देश में इनकी ही पार्टी राज करती रही है लेकिन हम गरीब अब भी बदहाल हैं. आज अगर किसानों पर गोलियां चल रही हैं तो यह भी कांग्रेस की गलत नीतियों का ही परिणाम है.’

राहुल भले ही मायावती के वोट बैंक में सेंध लगाने में नाकाम रहे हों लेकिन भाजपा को वोट देने वाली अगड़ी जातियों के वोट बैंक में सेंध लगाने में वे थोड़े कामयाब होते हुए दिख रहे हैंयह पूछे जाने पर कि विधानसभा चुनाव में किसे वोट देंगे, चेतराम सियासी अंदाज में कहते हैं, ‘हम तो उसे ही वोट देंगे जो विकास करेगा. बहनजी की वजह से हमारा विकास हुआ है, इसलिए हम तो उन्हीं का साथ देंगे.’ जमीन अधिग्रहण में मायावती सरकार की ज्यादती के मसले को सिरे से खारिज करते हुए शीशपाल कहते हैं, ‘सबको मुआवजा मिला है और यह जमीन बहनजी अपने लिए तो ले नहीं रही हैं. इस जमीन पर एक्सप्रेसवे बनना है और इससे अंततः क्षेत्र का विकास होगा और स्थानीय लोगों को फायदा मिलेगा.’ संकेत साफ है कि सियासी हो-हल्ले का आधार चाहे जो भी हो लेकिन वोट देने का आधार तो जाति ही है.

यमुना एक्सप्रेसवे में रामपुर बांगड़ गांव की 12.5 बीघा जमीन गई है. इसमें से अकेले कालीचरण शर्मा की नौ बीघा जमीन है. संभव है कि इसी वजह से राहुल गांधी ने रात गुजारने के लिए कालीचरण शर्मा के घर को ही चुना. गर्व भरे अंदाज में शर्मा कहते हैं, ‘हमारे घर भगवान आए थे.’ बगल में खड़ी उनकी पत्नी उषा देवी और उनकी दो बहुओं के चेहरे की खुशी कालीचरण शर्मा की इस बात की पुष्टि करती है. यह पूछे जाने पर कि क्या भगवान जमीन बचाने की आपकी मनोकामना पूरी करेंगे, शर्मा कुछ पल की चुप्पी के बाद कहते हैं, ‘राहुल के आने से हमारे मन में यह भरोसा पैदा हुआ कि अब राज्य सरकार हमसे जबरन जमीन नहीं लेगी. सड़क के लिए जमीन देने में हमें कोई दिक्कत नहीं है लेकिन टाउनशिप और दूसरे कामों के लिए हम जमीन नहीं देना चाहते.’ गंगा प्रसाद कहते हैं, ‘अगर राज्य सरकार ने हमसे जमीन लेने में जोर-जबर्दस्ती की तो यहां भट्टा-पारसौल से भी बुरा हाल होगा. हम लड़ेंगे और जरूरत पड़ी तो जान भी देंगे. अगर सरकार को जमीन चाहिए तो हमें हरियाणा की तरह 20 लाख रुपये प्रति बीघे की दर से मुआवजा मिले. अगर सरकार इतना मुआवजा नहीं दे सकती तो हमें खुद जमीन का सौदा करने दिया जाए.’ बताते चलें कि यमुना एक्सप्रेसवे के लिए ली गई जमीन के बदले इस गांव के किसानों को तकरीबन आठ लाख रुपये प्रति बीघा की दर से मुआवजा मिला है.

वोट देने के बारे में कालीचरण शर्मा कहते हैं, ‘हम तो कांग्रेस को इंदिरा गांधी के समय से ही वोट देते आए हैं और 2012 में भी कांग्रेस को ही वोट देंगे. हमारे गांव और पूरे इलाके के तकरीबन 80 फीसदी लोग आज कांग्रेस के पक्ष में हैं.’

उनके पड़ोसी रामगोपाल शर्मा भी इस दफा कांग्रेस को वोट देने का मन बना चुके हैं. उन्होंने पिछली दफा भारतीय जनता पार्टी को वोट दिया था. यमुना एक्सप्रेसवे में उनकी 1.5 बीघा जमीन गई है. वे कहते हैं, ‘हम सब भाजपा को वोट देते थे लेकिन इस बार राहुल की पार्टी को वोट देंगे.’ वजह पूछे जाने पर वे कहते हैं, ‘राहुल ने नयी जमीन अधिग्रहण नीति तैयार करवाने की बात कही है. इसलिए हम कांग्रेस का हाथ मजबूत करना चाहते हैं.’

संकेत साफ है कि राहुल भाजपा को वोट देने वाली अगड़ी जातियों के वोट बैंक में सेंध लगाने में  थोड़े कामयाब होते हुए दिख रहे हैं. यही वजह है कि अपने उम्र के आठवें दशक में पहुंच चुकी प्रेमवती राहुल गांधी पर पूरा भरोसा जताते हुए कहती हैं, ‘चाहे जो हो वोट तो कांग्रेस को ही देंगे.’ पर दुलारी की बात राहुल के लिए चेतावनी भी है. वे कहती हैं, ‘हम इस बार वोट तो कांग्रेस को देंगे लेकिन अगर हमारी समस्याएं नहीं दूर की गईं तो अगली बार उनकी सरकार हटा देंगे.’

सारौलः कांग्रेस का पुराना गढ

यात्रा के दूसरे दिन राहुल गांधी ने सारौल गांव के चौधरी हरेंद्र सिंह के यहां रात गुजारी. तकरीबन 14,000 की आबादी वाले इस गांव में कांग्रेस की जड़ें कितनी गहरी हैं इसका अंदाजा गांव के एक बुजुर्ग कर्मवीर सिंह की बातों से लगाया जा सकता है. जब इनसे यह पूछा जाता है कि राहुल के वादों पर आपको कितना यकीन है, वे उलटा सवाल करते हैं, ‘राहुल अकेला क्या करेगा? दिल्ली में 500 से ज्यादा सांसद बैठते हैं. राहुल उनमें से एक है. बेचारा कोशिश कर रहा है.’ अगले चुनाव में वोट देने के बारे में वे कहते हैं, ‘मैं तो जवाहरलाल नेहरू के समय से कांग्रेस को वोट देता रहा हूं. पर पिछले कई बार से हमने अजित सिंह को वोट दिया है. इस बार अगर कांग्रेस और अजित सिंह साथ आ गए तो हम निश्चित तौर पर इस गठबंधन को जिताएंगे.’

हरेंद्र सिंह की राय भी कुछ ऐसी ही है. वे कहते हैं, ‘हमारा गांव कांग्रेस का पुराना गढ़ रहा है. इसलिए हम तो कांग्रेस को ही वोट देंगे लेकिन अगर कांग्रेस को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जीतना है तो अजित सिंह के साथ हाथ मिलाना होगा.’ हालांकि, यमुना एक्सप्रेसवे में 14.5 बीघा जमीन देने वाले हरवीर सिंह राहुल गांधी की बातों पर बहुत ज्यादा यकीन करने को तैयार नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘नेताओं पर से भरोसा उठ गया है. हर बार नेता आते हैं और लंबे-चौड़े वादे करके जाते हैं. इनमें से ज्यादातर वादे खोखले ही साबित होते हैं. अगर राहुल चाहते हैं हम लोग कांग्रेस के पक्ष में वोट दें तो उन्हें संसद में ऐसी जमीन अधिग्रहण नीति पारित करवानी चाहिए जो किसानों के पक्ष में हो.’

इन लोगों की बातों से तीन सियासी संकेत मिल रहे हैं. पहली बात यह कि कांग्रेस का पुराना गढ़ होने और आगामी चुनाव में कांग्रेस को वोट देने में काफी फर्क है. राहुल की यात्रा के बावजूद आज भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोग कांग्रेस या यों कहें कि राहुल गांधी से कहीं ज्यादा भरोसा अजित सिंह पर कर रहे हैं. दूसरी बात यह है कि जिस तरह की सियासत अभी चल रही है उसमें कोरे वादों के जरिए लोगों को बार-बार छला गया है. इसका परिणाम यह हुआ कि नेताओं पर से लोगों का भरोसा उठ गया है. यहीं से तीसरी बात यह निकलती है कि अगर राहुल गांधी को 2012 के विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का वोट चाहिए तो दिल्ली में उनकी पार्टी की सरकार को ऐसी जमीन अधिग्रहण नीति को अस्तित्व में लाना होगा जो किसानों के हितों की रक्षा करे. मतलब साफ है कि सिर्फ वादों पर यकीन करने को लोग तैयार नहीं हैं बल्कि अब उन्हें नतीजा चाहिए.

इस गांव की तकरीबन 500 बीघा जमीन यमुना एक्सप्रेसवे में गई है. तीन फसल (गेहूं, मूंग और धान) देने वाली जमीन के बदले यहां के किसानों को 3.28 लाख रुपये प्रति बीघे की दर से मुआवजा मिला है. स्वाभाविक है कि बेहद उपजाऊ जमीन के मुआवजे की इस दर से किसान असंतुष्ट रहेंगे. हरेंद्र सिंह की 20 बीघा जमीन इस परियोजना में गई है. वे कहते हैं, ‘गांव के ज्यादातर लोगों की गुजर-बसर किसानी के सहारे ही होती है. ऐसे में सरकार अगर हमसे जमीन लेती रही तो वह एक तरह से हमारी जिंदगी लेगी. हम अब जमीन नहीं देना चाहते.’ यह पूछने पर अगर विकास की खातिर सरकार के लिए जमीन लेना बेहद जरूरी हो जाए तब भी आप जमीन नहीं देंगे, वे कहते हैं, ‘ऐसी स्थिति में हमें मुआवजा उसी दर से मिले जिस दर से ग्रेटर नोएडा के किसानों को मिल रहा है.’

इस गांव के लोग जमीन अधिग्रहण के नाम पर मायावती सरकार के छल से भी काफी आहत हैं. इस गांव में जमीन अधिग्रहण से उपजे असंतोष को दबाने के लिए सरकारी अधिकारियों ने अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति का अनुसरण किया. यहां जब पूरा गांव एक होकर जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रहा था तो अधिकारियों ने मुआवजे की तय दर 3.28 लाख रुपये प्रति बीघे के साथ एक लाख रुपये तक अतिरिक्त रकम देना शुरू किया. इस अतिरिक्त रकम का कहीं कोई लेखा-जोखा नहीं रखा गया.

मरोरगढ़ीः यहां मुद्दा बेरोजगारी है

दलितों के नाम पर सियासत करने वाली सूबे की मुख्यमंत्री मायावती को मात देने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहे राहुल गांधी अपनी यात्रा के तीसरे दिन  मरोरगढ़ी पहुंचे तो एक दलित रघुवीर बंजारा के यहां रात गुजारने का फैसला किया. हालांकि, इससे पहले की दो रातें जिन घरों में राहुल ने बिताई थीं वहां उन्होंने खाना भी खाया था लेकिन यहां उनका खाना बाहर से आया. रघुवीर कहते हैं, ‘उन्होंने हमारे घर में खाना नहीं खाया लेकिन हमारे घर रुके यही बहुत बड़ी बात है. ‘पर मायावती ने इस मसले पर आक्रामक रुख अपनाया और राहुल गांधी पर यह कहते हुए अगले दिन हमला किया कि उनका दलित प्रेम दिखावे से अधिक कुछ नहीं है.

पर हकीकत यह है कि राहुल ने भले ही दलित के घर खाना नहीं खाया हो लेकिन इस गांव के कुछ दलित इस बार कांग्रेस को वोट देने की बात कर रहे हैं. हालांकि, यहां भी एक अंतर स्पष्ट तौर पर दिखता है. 50 घरों के इस गांव की आबादी तकरीबन 250 है. इनमें से कुछ लोग काफी संपन्न हैं. इनके पास काफी जमीन है और यही लोग थोड़-बहुत कांग्रेस के पक्ष में हैं. दूसरी तरफ एक तबका ऐसा है जो इन लोगों के खेतों में मजदूरी करके पेट पालता है. यह वर्ग खुले तौर पर न तो राहुल का विरोध करता है और न ही मायावती का. संकेत साफ है कि दलितों के वोट बैंक में सेंध लगाने के राहुल के सपने को लंबा फासला तय करना है. अगर राहुल का जादू चला तभी कांग्रेस की तरफ दलितों के ‘क्रीमी लेयर’ का वोट जा सकता है.

मरोरगढ़ी में इसी तबके की नुमाइंदगी ब्रह्मजीत सिंह बंजारा करते हैं. गांव की कुल 150 बीघा जमीन यमुना एक्सप्रेसवे परियोजना में गई है और 3.08 लाख रुपये प्रति बीघे की दर से मुआवजा मिला है. इसमें से अकेले ब्रह्मजीत सिंह बंजारा की 90 बीघा जमीन है. वे कहते हैं, ‘हमें राहुल गांधी से काफी उम्मीदें हैं. जिस तरह से राहुल जी हमारे गांव में आए और हमारी जमीन की रक्षा करने की बात कही उससे साफ है अगले चुनाव में लोग कांग्रेस की ओर मुड़ेंगे.’ पर पास ही खड़े और मजदूरी करके जीवन यापन करने वाले श्रीपाल बंजारा असहमति जताते हुए कहते हैं, ‘हमें राहुल गांधी से कोई उम्मीद नहीं है. सभी नेता आते हैं और कई वादे करके जाते हैं. किसानों और मजदूरों का भला करने वाला कोई नहीं है. किसान जो अनाज उपजाता है उसे सिर्फ वही नहीं खाता बल्कि शहरों के लोग भी खाते हैं लेकिन हमारी चिंता करने वाला कोई नहीं है.’

दलितों के वोट बैंक में सेंध लगाने के राहुल के सपने और हकीकत के बीच लंबा फासला है. अगर राहुल का जादू चला तभी कांग्रेस की तरफ दलितों के ‘क्रीमी लेयर’ का वोट जा सकता हैवे कहते हैं, ‘हमने मेहनत-मजूरी करके बच्चों को पढ़ाया. पर किसी को रोजगार नहीं मिल रहा. हर जगह रिश्वत मांगी जाती है या फिर पहुंच  वालों को नौकरी दे दी जाती है.’ गांव का एक नौजवान नेम सिंह कहता है, ‘हमने तो राहुल गांधी को यह बात बताई कि पिछले छह साल से कोशिश करने के बाद भी हमें रोजगार नहीं मिल रहा. इस पर उन्होंने कहा कि हम आपकी मदद करेंगे. देखते हैं वे क्या करते हैं.’ इस गांव की आजीविका का मुख्य आधार किसानी और पशुपालन है. गांव के ज्यादातर लोग इन्हीं कामों पर निर्भर हैं. गांव से बाहर जाकर पैसा कमाने वाले इक्का-दुक्का ही हैं. राम किशन कहते हैं, ‘अगर गांव की जमीन चली गई तो बेरोजगारी का संकट और गहरा जाएगा. ऐसे में नौजवानों के सामने चोरी-डकैती के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचेगा. आत्महत्या के मामलों में भी तेजी आएगी.’

इस गांव पर यमुना एक्सप्रेसवे परियोजना से दोहरी मार पड़ी है. एक तरफ तो जमीन गई और दूसरी तरफ इसमें काम करने वाले लोगों की मजदूरी हड़पी जा रही है. मेहनत-मजदूरी करके पेट पालने वाली गुड्डी कहती हैं, ‘मैंने तकरीबन 100 दिन एक्सप्रेसवे में मजदूरी की है. बीच-बीच में दो-चार दिन की मजदूरी मिल जाती है. पैसा मांगने पर ठेकेदार कहता है कि तुम काम ठीक से नहीं करते. अगर राहुल गांधी हमारी मजदूरी दिला दें तो हम उन्हें वोट दे देंगे.’ नेम सिंह भी यही कहानी दुहराते हैं, ‘मजदूरी मांगने पर एक बार तो हम लोगों का ठेकेदार के साथ झगड़ा भी हो गया था. पर प्रशासन उनके साथ है, इसलिए हमारी कहीं कोई सुनवाई नहीं है.’

चेंदरू चरित

जो लोग हरक्यूलिस साइकिल की सवारी को जानदार मानते हुए वाल्व वाले रेडियो से प्रसारित होने वाली खबरों पर यकीन करते रहे हैं वे थोड़ा -बहुत तो जानते हैं कि चेंदरू कौन है और उसने क्या कमाल किया था. बहुत दावे के साथ तो नहीं कहा जा सकता लेकिन उन लोगों का परिचय भी चेंदरू की दुनिया से हो सकता है जो कभी मधु मुस्कान या चकमक जैसी पत्रिकाओं के जरिए अपने ढंग की खूबसूरत दुनिया को तलाशने का यत्न करते रहे हैं. मधु मुस्कान और चकमक का जिक्र भी यहां इसलिए किया जा रहा है कि किसी समय चेंदरू कॉमिक्स का हिस्सा रह चुका है. वास्तव में प्यार उड़ेलने के लिए बनाए गए एक साहसी लड़के का नाम चेंदरू था.

पिछले साल आई एक भयानक बाढ़ में चेंदरू के घर के साथ-साथ उसकी बहु मंगनी और नाती प्यारी बह गए थे

लेकिन चेंदरू अब लड़का नहीं रहा. वह बूढ़ा हो चला है, और तो और अब उसकी स्मृति भी कमजोर हो चुकी है. बस्तर के नारायणपुर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर मौजूद एक गांव गढ़बेंगाल में रहने वाले चेंदरू पर स्वीडन के फिल्मकार अर्ने सक्सडोर्फ जंगलसागा नाम की एक फिल्म बना चुके हैं. यह फिल्म कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रदर्शित व प्रशंसित हो चुकी है.साठ के दशक में सक्सडोर्फ की पत्नी एस्ट्रिड बर्गमैन ने चेंदरू और उसके बाघ दोस्तों की गतिविधियों को लेकर ‘वाय सू अमिगो एल टाइगर’ नाम से एक पुस्तक भी लिखी थी. जब स्वीडिश भाषा में प्रकाशित इस पुस्तक को चहुं ओर प्रशंसा मिली तो न्यूयार्क के एक प्रकाशक हारकोर्ट ब्रेश ने विलियम सेनसोम के सहयोग से इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया. अंग्रेजी में पुस्तक का नाम ‘चेंदरू द ब्वॉय ऐंड द टाइगर’ रखा गया था. किताब के अंग्रेजी संस्करण को भी जंगल के जनजीवन से मुहब्बत करने वाले सैलानियों की जबरदस्त सराहना मिली थी.

आप एक बार फिर यह सोच सकते हैं कि चेंदरू में ऐसा क्या था जिसकी वजह से एक विदेशी फिल्मकार को फिल्म बनानी पड़ी और उनकी लेखिका पत्नी को अपनी कलम चलाने के लिए मजबूर होना पड़ा. दरअसल चेंदरू घने जंगलों से घिरे जिस गांव में रहता था (अब भी रहता है) वह गांव विकास की परछाइयों से कोसों दूर था. नौ साल का होते-होते चेंदरू धनुष चलाने की कला में माहिर हो चुका था. अपने परिवार के लिए खरगोश व बटेर तो वह यूं ही तीर फेंककर बटोर लिया करता था. बताते हैं कि नये विषयों की तलाश में भटकने वाले अर्ने जब एक रोज अपने कैमरे के साथ अबूझमाढ़ के जंगलों की खाक छान रहे थे तो उन्होंने एक विचित्र-सी घटना देखी. नदी में एक काला-कलूटा सा लड़का (चेंदरू) बगैर जाल लगाए मछलियों को दौड़ लगाकर पकड़ रहा था. अर्ने को लड़के की मछली पकड़ने की नयी शैली ने बहुत प्रभावित किया. उन्होंने लड़के की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया तो चेंदरू ने मां की बातों को याद करते हुए हाथ मिलाने से इनकार कर दिया. चेंदरू को उसकी मां ने यह बता रखा था कि जो लोग गोरे होते हैं उन्हें कोई न कोई बीमारी जरूर होती है. शायद ‘कोढ़’. अर्ने चेंदरू से हाथ मिलाए बगैर वापस नारायणपुर के डाक बंगले लौट गए, लेकिन उनके दिमाग में एक खूबसूरत कहानी ने आकार लेना प्रारंभ कर दिया. उन्हें लगा जो बच्चा निर्भीक तरीके से बड़ी-से बड़ी मछलियों को दौड़कर पकड़ सकता है वह कुछ भी कर सकता है. कुछ समय बाद अर्ने ने चेंदरू के पिता और कुछ स्थानीय लोगों से फिल्म निर्माण में सहयोग देने के लिए बात की. अबूझमाढ़ के लोगों ने कभी रेलगाड़ी नहीं देखी थी, वे भला यह कैसे जानते कि फिल्म क्या बला है. वे अर्ने की हर बात पर सिर हिलाकर हामी भरते रहे.

अर्ने वापस स्वीडन चले गए, लेकिन जब दोबारा लौटे तो उनके साथ सर्कस के शेर-चीतों के अलावा पूरी यूनिट थी. जिस दौरान यह फिल्म बन रही थी उस वक्त भारतीय सिने अभिनेताओं को भी प्रचार के स्तर पर शेर से दो-दो हाथ करने का गौरव हासिल नहीं हुआ था, इसलिए अर्ने की यूनिट से जुड़े कुछ लोगों ने जबरदस्त ढंग से इस बात का प्रचार-प्रसार किया कि अबूझमाढ़ के जंगलों में विचरण करने वाले कुछ बाघ एक आदिवासी बच्चे को उठाकर ले गए हैं. बाघों ने बच्चे को मारने कीे बजाय पाला-पोसा. बच्चा बड़ा होकर शेरों से बात करने लगा है. वह शेरों के साथ घूमता है, फिरता है और उन्हें डांटता है. वह शेरों को जहां उठने-बैठने के लिए कहता है शेर वहीं उठ-बैठ जाते हैं. यूनिट के लोगों का यह प्रचार इसलिए भी कामयाब हुआ कि सर्कस के शेर और तेंदुए भी चेंदरू से मुहब्बत करने लग गए थे. बताते हैं कि एक शेर तो चेंदरू से इस कदर घुलमिल गया था कि वह चेंदरू का आदेश मिलने के बाद ही खाना खाता था.

फिल्म ‘जंगलसागा’ में चेंदरू को झरने में लड़की को नहाता देखकर ओ.. ओ..वो चिल्लाने वाला टारजन बताने की चेष्टा तो नहीं की गई थी, लेकिन अर्ने ने उसे विश्वसनीय और स्वाभाविक ढंग से जीवन जीने वाला लिटिल टारजन दर्शाने में कोई कोर कसर भी नहीं छोड़ी थी. अर्ने का टारजन अपनी जातीय परंपराओं के बीच जीवन की बेहतरी के लिए जद्दोजहद करता हुआ नजर आता था.फिल्म में शेर के पिंजरे व अन्य सामानों को महज तीन रुपये की रोजी में इधर से उधर लाने का काम-काज करने वाले सत्येर सिंह बताते हैं, ‘हम सब छोटे थे लेकिन चेंदरू के साहस को देखकर अपने को बड़ा समझने लगते थे. वह भी उन लोगों के बीच जो विदेशी थे.’
गढ़बेंगाल के इक्का-दुक्का लोग जो चेंदरू के समकालीन हैं, वे अपनी याददाश्त पर जोर डालने के बाद सिर्फ इतना बता पाते हैं कि देश आजाद होने के आठ-नौ साल बाद एक गोरा-सा आदमी फुलपैंट और टोपी पहनकर जंगल-जंगल मंडराने वाली मेम के साथ उनके गांव पहुंचा था. अपने बीच किसी गोरे को पाकर काले लोग थोड़ा भयभीत रहते थे, लेकिन जल्द ही उनका भय दूर हो गया क्योंकि गोरा आदमी उनकी हथेलियों पर कुछ सिक्कों को रखने के साथ-साथ सम्मान भी देने लगा था. बाकी गांव के लोगों को यह नहीं मालूम कि चेंदरू ने कौन- सी पिक्चर में काम किया था. उसका डायरेक्टर कौन था. वास्तविकता तो यह भी है कि अबूझमाढ़ के थोड़ा विकसित मसलन किराना दुकान खुल जाने वाले शहरी इलाके के लोगों ने भी अब तक वह फिल्म (जंगल सागा) नहीं देखी है जिसमें चेंदरू ने मुख्य भूमिका निभाई है. ऐसा शायद इसलिए भी हुआ कि फिल्म के प्रदर्शन को लेकर अविभाजित मध्य प्रदेश की सरकार ने भी रुचि नहीं दिखाई थी और छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग ने इस दिशा में कोई कदम उठाया है.फिल्म नेट पर मौजूद है जिसे देखने के लिए कुछ डॉलर खर्च करने पड़ते हैं, और तो और जंगलसागा बनाने वाली फिल्म कंपनी ने फिल्म के ओरिजिनल पोस्टरों की कीमत भी 15 डॉलर तय कर रखी है.

अर्ने वर्ष 1954 में अबूझमाढ़ पहुंचे थे. काफी रिचर्स के बाद उन्होंने वर्ष 1955 में फिल्म की शूटिंग प्रारंभ की थी. पांच रील और 88 मिनट की फिल्म में प्रसिद्ध सितारवादक रविशंकर ने संगीत दिया था. फिल्म का पहला प्रदर्शन 26 दिसंबर 1957 को स्वीडन के एक सिनेमाघर में हुआ था. बाद में यह सिलसिला चलता रहा. वर्ष 1958 में इसे केंस के फिल्म फेस्टीवल में भी प्रदर्शित किया गया था. फिल्म के प्रचार के लिए अर्ने ने एक जोरदार तकनीक अपनाई थी. वे अंतरराष्ट्रीय मीडिया को पहले फिल्म दिखाते बाद में उसके हीरो चेंदरू से रूबरू करवाते थे. आधुनिक उपकरणों और जीवन पद्धति के बीच जीने वाला मीडिया अपने बीच आदिम युग का प्रतिनिधित्व करने वाले बालक को देखकर हतप्रभ हो उठता था. विदेश में चेंदरू को लेकर खूब खबरें प्रकाशित हुई. किसी ने उसे रियल टारजन बताया तो किसी ने जंगल का असली मोंगली. चेंदरू लगभग सात महीनों तक अर्ने के घर पर ही रहा. इस बीच अर्ने ने चेंदरू को घुड़सवारी का प्रशिक्षण दिया और बंदूक चलाने की कला भी सिखाई. बदले में चेंदरू ने भी अर्ने के बच्चों को पेड़ के पत्तों में तंबाकू भरकर सुट्टा मारने का हुनर सिखाया. फिल्म के प्रदर्शन के कुछ महीनों के बाद जब फिल्म की चमक धुंधली पड़ी तब एक रोज अचानक अर्ने को यह लगा कि वे अपने फायदे के लिए स्वाभाविक जिंदगी जीने वाले बच्चे को अपने साथ रखकर अन्याय कर रहे हैं. कुछ समय पहले जब दिल्ली के प्रमोद और नीलिमा माथुर ने उनकी फिल्म जंगलसागा के निर्माण संबंधी पहलुओं को लेकर जंगल ड्रीम्स नाम से एक वृतचित्र बनाया तब यूरोपीय सिनेमा की इस बड़ी हस्ती ने अपने साक्षात्कार में यह स्वीकारा कि चेंदरू बहुत आकर्षक, प्यारा और इंटलीजेंट लड़का था. उसके साथ किसी भी भाषा में बातचीत करना बहुत आसान था. अर्ने ने यह माना कि वे चेंदरू से बेइंतहा मुहब्बत करने लगे थे और उसे गोद लेने का मन बना चुके थे लेकिन…..
लेकिन… शायद यह तय था कि चेंदरू गोरे बच्चों के बीच बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकता था. उसे तो वापस लौटना ही था.चेंदरू जब वापस लौटा तो उसके पास एक चमचमाती साइकिल थी. रेडियो था और भी बहुत कुछ. धीरे-धीरे सारी चीजें नष्ट हो गईं.स्वीडिश फिल्मकार अर्ने भी फिर कभी दोबारा यह देखने के लिए अबूझमाढ़ नहीं लौटे कि उनका चेंदरू कैसा है. चलिए अब आपको यह बताया जाए कि चेंदरू कैसा है और क्या कर रहा है.

चेंदरू की हालत बहुत अच्छी नहीं है. वह गढ़बेंगाल में उसी कुकुर नदी के किनारे रहता है जहां वह बचपन में दौड़-दौड़कर मछलियां पकड़ा करता था. कुकुर नदी वही नदी है जहां पिछले साल बाढ़ आई थी. इस बाढ़ में चेंदरू के घर के साथ-साथ उसकी बहू मंगनी और नाती प्यारी बह गए थे. बाढ़ से उपजी भीषण तबाही के बावजूद चेंदरू ने नदी का साथ नहीं छोड़ा है. काफी जोर देने पर वह सिर्फ इतना कहता है, ‘नदी उसकी मां है.’ चेंदरू ने अपनी मेहनत से एक नयी झोपड़ी तैयार कर ली है. इस झोपड़ी में वह अपनी पत्नी जाटा के साथ रहता है. चेंदरू का एक लड़का शंकर काष्ठ शिल्पी है. उसने अपना चूल्हा-चौका अलग कर लिया है. जबकि दूसरा बेटा जयराम खेती-बाड़ी करता है. चेंदरू को मुख्यमंत्री खाद्यान योजना के तहत एक रूपये में वितरित होने वाला चावल भी फिलहाल नसीब नहीं हो रहा है. सामान्य तौर पर ऐसा तब होता है जब सरकार का खाद्य विभाग किसी गरीब की दिनचर्या में अमीरी ढूंढ़ लेता है. माना जा सकता है कि एक अंतरराष्ट्रीय फिल्म में काम करने वाले चेंदरू को सरकार ने ‘अमीर’ मान लिया है. चेंदरू अपने और अपनी पत्नी के भरण-पोषण के लिए अब भी मछलियां मारता है. बूढ़े चेंदरू को कुछ समय पहले क्षय रोग (टीबी) ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था. जब इस बात का हो-हल्ला मचा कि उसे टीबी हो गई है तब स्थानीय प्रशासन ने उसे इलाज के लिए एक हजार रुपए की आर्थिक सहायता दी थी. अब उसकी आंखों ने देखना भी लगभग बंद कर दिया है. फिर भीे वह पेट की भूख से लड़ने के लिए जंगल जाकर कंदमूलों की तलाश कर ही लेता है.

ग्लैमर और प्रसिद्धि के जादू में नहाने के बाद साधारण से असाधारण और फिर असाधारण से साधारण होने वाले एक बच्चे का नाम है चेंदरू. किसी ने शायद चेंदरू से यह नहीं पूछा कि वास्तव में वह क्या चाहता है. चेंदरू पहले फिल्म में काम ही नहीं करना चाहता था. जब वह तैयार हुआ तो उसकी इच्छा वापस लौटने की नहीं थी. चेंदरू आज जिंदा तो है लेकिन अब वह आकाश में मौजूद चांद और तारों से ही अपने मन की बात कहता है. कभी कोई पत्रकार जाकर उससे कुछ पूछता है तो वह बेमन से टुकड़ों-टुकड़ों में सिर्फ इतना बताता है, ‘हां,गया था. लौटकर आ गया.’ इस स्टोरी का रिपोर्टर भी चेंदरू से मुलाकात कर उसे अपना सलाम देकर लौट आया है. क्या आप कभी चेंदरू से मिलना चाहेंगे? हालांकि इलाके में नक्सलवाद की जड़ें अपना कब्जा जमा चुकी हैं. बावजूद इसके एक छोटे-से साहस के बूते आप उस चेंदरू तक तो पहुंच ही सकते हैं जो दुख के पहाड़ों के बीचोबीच एक सलीब पर लटककर अपनी जिंदगी गुजर-बसर कर रहा है.  

क से किस्मत नहीं, कलाम : आई एम कलाम

फिल्‍म  आई एम कलाम

निर्देशक  नील माधब पांडा           

कलाकार  हर्ष मायड़, हुसान साद, पितोबाश,  गुलशन ग्रोवर

यह उन फिल्मों में से है जिनके अंत चाहे थोड़े नाटकीय हो जाएं लेकिन जब खत्म होती हैं तो आप खड़े होकर उन सब लोगों को सलाम करना चाहते हैं जो इसके पीछे हैं. जो यह सपना देख सकते हैं कि डेल्ही बेली और दबंग का जश्न मनाने वाले देश में छोटी-सी ही सही, लेकिन एक सरोकारी और ईमानदार फिल्म की भी जगह है.

बच्चों की फिल्मों के लिए थोड़ा अच्छा समय तो आया है, जिनमें वे अक्सर नायक हैं और वह दुनिया खलनायक जो हमने उनके लिए बनाई है. यह उस बच्चे छोटू की कहानी है जिसके किसी हमपेशा बच्चे को शायद आपने ‘तारे जमीन पर’ में देखा होगा जो कुछ सेकंड के लिए फ्रेम में आता है और जिसे ढाबे पर बरतन मांजते देखकर आमिर उसे उसी ढाबे से चाय और बिस्किट खरीदकर देते हैं. हमारा पूरा समाज और ज्यादातर फिल्में भी उस बच्चे के लिए उतने ही दुखी हैं. ट्रैफिक लाइट पर शीशा नीचे करके दो रुपये देने जितना दुखी. इसके बाद हम उन्हीं बच्चों का दर्द देख पाते हैं जिन्हें उनके मां-बाप कार में बैठाकर बोर्डिंग में छोड़ने जा रहे हैं. ‘चिल्लर पार्टी’ या ‘स्टेनले का डब्बा’ भी सड़क पर पलने वाले बच्चों को सपने देखने का मौका नहीं देती, बस उन्हें जीते रहने की इजाजत देती हैं. हम उस ढाबे के मालिक जैसे ही हैं जो छोटू से कहता है कि बड़े सपने न देखे. हमारी दुनिया में उसे इतनी अनुमति है कि काम करे और खाए. चिल्लर पार्टी उस बच्चे को कॉलोनी में रहने देती है लेकिन हीरो की तरह नहीं. उसके हीरो वही बच्चे हैं जिनके मां-बाप हर रात उन्हें जिद करके दूध पिलाते हैं.   

ऐसे माहौल में ‘आय एम कलाम’ हर्ष मायड़ जैसे विलक्षण अभिनेता के रूप में उस छोटू को लेकर आती है, जिसे आपकी सहानुभूति की जरूरत नहीं है. न वह खुद अपनी जिंदगी पर अफसोस करता है और न आपको करने की छूट देता है. जिस अमीर बच्चे से उसकी दोस्ती है और जो उसे दोस्ती के चलते किताबें देता है, अंग्रेजी बोलना सिखाता है, छोटू बदले में उसके स्कूल की एक प्रतियोगिता के लिए कविता लिखकर देता है. यह बराबरी का रिश्ता है, जिसका महत्व बड़े-बडे़ समाज-सुधारक भी कई बार नहीं समझ पाते.

इस फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार पा चुके हर्ष में गजब की परिपक्वता, जिंदादिली और वह सब कुछ है जो छोटू के चरित्र को चाहिए. बहुत बेपरवाह रहते हुए वे पूरी फिल्म को अपने कंधों पर उठाए रखते हैं. हां, फिल्म आखिरी बीस मिनट में ढीली पड़ती है और निर्देशक नील और लेखक संजय चौहान थोड़ी और मेहनत करते तो उसे रोचक बना सकते थे. बच्चों की कहानियों में जरूरी नहीं कि अंत बच्चों की कोर्स की किताबों की कहानियों की तरह ही हों. यह कमी पिछले सालों में आई लगभग सभी ऐसी फिल्मों में रही है. ‘तारे जमीन पर’ को ऐसे मोड़ों पर उसके गाने थोड़ा बचा लेते हैं.

लेकिन फिर भी ‘आय एम कलाम’ की पीठ उस आत्मविश्वास के लिए ठोकी जानी चाहिए जिससे यह कर्म में यकीन करती है.

गौरव सोलंकी     

एक मीडिया मुगल और सत्ता का नशा

ब्रिटेन में हुए हैकिंग प्रकरण के बाद भारतीय मीडिया को भी अपना अवलोकन करना चाहिए. मगर क्या पत्रकारों और नेताओं के बीच की बनावटी सीमा इसका जवाब हो सकती है? अशोक मलिक का विश्लेषण

ब्रिटेन में हुए न्यूज ऑफ द वर्ल्ड प्रकरण के रुपर्ट मर्डोक, उनके साम्राज्य, ब्रिटेन की राजनीति और मीडिया से संचालित हमारे इस युग के लिए क्या मायने हैं? यह जानने के लिए जरूरी है कि शुरुआत में थोड़ी देर के लिए हम इस सवाल को असल गुनाह यानी हैकिंग प्रकरण से अलग रखकर देखने की कोशिश करें.

लोगों के वॉयसमेल को गैरकानूनी तरीके से ऐक्सेस करना और साथ ही अपना नाम बदल कर उनका पासवर्ड जानना आपराधिक मामलों की श्रेणी में आता है. न्यूज आॅफ द वर्ल्ड को इसी अपराध की कीमत चुकानी पड़ी है. लंदन में अधिकारी इस बात की जांच कर रहे हैं कि इस हैकिंग प्रकरण में कौन-कौन शामिल था. भले ही रूपर्ट मर्डोक ने पिछले हफ्ते ब्रिटेन की संसदीय समिति के सामने अपना पक्ष रख दिया हो मगर यह मानना मुश्किल है कि न्यूज कॉरपोरेशन कंपनी के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों को यह जानकारी नहीं थी कि पुलिसवालों को रिश्वत दी जा रही है या प्राइवेट डिटेक्टिव इस्तेमाल किए जा रहे हैं या फिर लोगों के फोन मैसेज सुने जा रहे हैं.

मर्डोक ऐसा कर सके इसकी एक वजह मारग्रेट थेचर के बाद के दौर वाले ब्रिटेन में हो रही नीरस राजनीति भी है 

अभी जो जानकारियां बाहर आई हैं उनके मुताबिक ऐसे गैरकानूनी तरीके न्यूज ऑफ द वर्ल्ड और इसकी मातृकंपनी के दूसरे अखबारों तक सीमित हैं. शायद इस तरह के तरीके ब्रिटेन के दूसरे टैबलॉइड भी इस्तेमाल करते होंगे- जैसा कि मर्डोक संसदीय समिति को समझाना चाह रहे थे. जो भी हो, यह तय है कि खबर खोजने के लिए इस तरह के तरीकों पर कोई भी वैधता की मुहर नहीं लगा सकता. कोई भी समझदार व्यक्ति इसे सही नहीं कहेगा.

आम लोगों के लिए भी हैकिंग प्रकरण चौंकाने वाला है. इससे कई सवाल पैदा होते हैं. पहला सवाल यह कि आज के दौर में राजनेता मीडिया पर कितना निर्भर रहते हैं. न्यूज काॅरपोरेशन जैसे बड़े मीडिया काॅरपोरेशन के वे कितने ऋणी होते हैं? पत्रकारिता को उद्योग बनाने के क्या परिणाम हो सकते हैं? क्या पत्रकारिता राजनेताओं और सत्ता प्रतिष्ठान के ज्यादा करीब आ गई है? ये सारे सवाल आपस में जुड़े हुए हैं. कुछ इसी तरह के सवाल दुनिया के  कई दूसरे कोनों में भी पूछे जा रहे हैं जिनमें भारत भी शामिल है. ब्रिटेन और अमेरिका से लेकर भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों तक में लोग मीडिया की कई अतियों से परेशान हैं. भारत में भी नीरा राडिया विवाद के बाद जो सवाल खड़े हुए थे उन पर फिर से बहस होने लगी है.

लंदन में हुए हाल के घटनाक्रम और भारतीय मीडिया के व्यवहार की भी आसानी से तुलना की जा सकती है. लेकिन ब्रिटेन की संसद ने जिस तरह से न्यूज आॅफ द वर्ल्ड के अधिकारियों और मर्डोक से सवाल-जवाब किए और जिस तरह से उसका सीधा प्रसारण लोगों ने देखा, वह ब्रिटेन की लोकतांत्रिक प्रणाली का सबसे बेहतर उदाहरण था.

यह अलग बात है कि मीडिया और राजनीति के इस गठजोड़ के मामले में उसी ब्रिटेन ने भारत को काफी पीछे छोड़ रखा है. वहां यह कोई नयी बात नहीं है. इस तरह के घटनाक्रमों का ब्रिटेन में इतिहास भी रहा है और परंपरा भी. मर्डोक और उनकी टीम उस परंपरा का अनुसरण भर कर रही है. एक तरह से पत्रकार और राजनेता दोनों ही ब्रिटेन में साथ काम करते आए हैं. मैक्स एटकेन, जो  बाद में लाॅर्ड बीवरब्रुक हो गए, ब्रिटेन के पहले बड़े मीडिया उद्योगपति थे. साथ ही वे विंस्टन चर्चिल के दोस्त भी थे और युद्ध के दौरान चर्चिल के मंत्रिमंडल का हिस्सा भी.

बीस साल पहले लिखी जेरेमी पैक्समैन की विस्तृत किताब ‘फेंड्स इन हाई प्लेसिस: हू रन्स ब्रिटेन?’ में बताया गया है कि किस तरह संपादक, नेता और वरिष्ठ नौकरशाहों के बीच घनिष्ठ संबंध होता है जिसका कारण प्राय: स्कूल-कॉलेज के दौर की दोस्ती या फिर एक ही सामाजिक तबके का हिस्सा होना होता है. ये तीनों – संपादक, नेता और नौकरशाह – अपने आप को उस वर्ग का हिस्सा मानते हैं जो ब्रिटेन को चलाता है.

बीसवीं सदी का इतिहास देखें तो हम पाएंगे कि लगभग पूरी सदी के दौरान ही ब्रिटेन के अखबार किसी न किसी पार्टी और कुछ मामलों में किसी राजनेता के पीछे खड़े रहे हैं. उनकी खबरों से लेकर संपादकीय तक में इसकी झलक दिखती रही है. मर्डोक ने इस पतन को इसके चरम तक पहुंचा दिया. उन्होंने अपने हितों के हिसाब से कभी एक राजनेता को तरजीह दी तो कभी दूसरे को. वे भविष्य के प्रधानमंत्रियों पर ऐसे दांव लगाते रहे जैसे जुआरी रेस जीतने की क्षमता रखने वाले घोड़ों पर लगाते हैं.

मर्डोक ऐसा कर सके उसकी एक वजह मारग्रेट थेचर के बाद के दौर वाले ब्रिटेन में हो रही नीरस राजनीति भी है. गौर से देखा जाए तो इस राजनीति में न कोई खास वैचारिक मतभेद दिखता है और न ही वे तीखी बहसें जो नीतिगत मसलों पर देखने को मिलती थीं और जिन्हें उस दौर की पीढ़ी मंत्रमुग्ध होकर देखा और सुना करती थी. थेचर के बाद के ब्रिटेन में नेताओं को ब्रांड की तरह तैयार किया जाता रहा. इन ब्रांडों को स्थापित करने और मनचाही पब्लिसिटी देने में मीडिया की अहम भूमिका रही. मर्डोक को पहले टोनी ब्लेयर ने रिझाया और बाद में डेविड कैमरून ने. बदले में मर्डोक ने अपने अखबारों और खबरिया चैनलों का इस्तेमाल अपने उस केबल और टीवी व्यवसाय को कई रियायतें दिलवाने के लिए किया जहां से उन्हें अकूत कमाई होनी थी.

भारत इस मामले में कुछ अलग है और नहीं भी. शुक्र है कि यहां चुनाव में कौन जीतेगा और कौन हारेगा, इसे प्रभावित करने की क्षमता मीडिया में नहीं है. होती तो भाजपा 2004 में चुनाव नहीं हारती, नरेंद्र मोदी 2002 और 2007 में नहीं जीत पाते, ममता बनर्जी 2006 में ही परिदृश्य से गायब हो चुकी होतीं (जब वे सिंगूर में भूख हड़ताल पर बैठी थीं और अखबारों से लेकर न्यूज चैनलों तक ने उनका खूब मजाक बनाया था) और मायावती वहां नहीं होतीं जहां वे आज हैं.

हालांकि यह जरूर है कि किसी महत्वाकांक्षी उम्मीदवार की राजनीतिक छवि गढ़ने में मीडिया की खासी भूमिका होती है. प्राइम-टाइम न्यूज चैनलों के टाॅक शो उन कई मंचों में से एक हैं जिनका इसमें योगदान होता है. मगर राजनेताओं के पास यही एक मंच हो, ऐसा नहीं है. भाजपा की तरफ से जल्द ही गुजरात से राज्यसभा एमपी बनने जा रही स्मृति ईरानी को ही ले लीजिए. पार्टी की तरफ तकरीबन एक दशक तक वफादार रहने के बाद अब उन्हें इसका फल मिल रहा है. लेकिन देखा जाए तो इस मुकाम तक पहुंचने का उनका रास्ता किसी आम नेता से अलग रहा है. वे अपने साथ न किसी जाति के वोट लाती हैं, न किसी बिजनेस कॉरपोरेशन के संसाधन और न ही किसी नौकरशाह की प्रशासनिक सूझ-बूझ. उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाने में उस मध्यवर्गीय छवि का अहम योगदान है जो उनके टीवी धारावाहिकों ने उनके लिए गढ़ी है.

इस तरह से देखा जाए तो स्मृति ईरानी अपनी संसदीय सीट के लिए बालाजी टेलीफिल्म्स की एहसानमंद होंगी. ठीक उसी तरह जैसे ब्लेयर और कैमरन न्यूज कारपोरेशन के ऋणी होंगे. रेबेका ब्रुक्स की शादी में ये दोनों हस्तियां पहुंची थीं. क्या स्मृति ईरानी भी एकता कपूर की शादी में नाचेंगी?

क्या पत्रकारों का नेताओं और नौकरशाहों के साथ दोस्ती करना और किसी काम में सहभागी होना गलत है? पत्रकारिता एक बड़ा दायरा है. इसमें वे भी शामिल हैं जो झूठ का पर्दाफाश करने को तैयार रहते हैं और वे लोग भी जो नीतियां बनाते हैं और जिनके लिए पत्रकारिता यह जानने का जरिया है कि वे नीतियां कैसे बनें.

देखा जाए तो ये दोनों ही पत्रकारिता को मजबूती देने वाले खंभे हैं. अपने सबसे अच्छे रूप में पत्रकारिता इन्हीं दो स्तंभों के बीच एक संतुलन बनाती है. और अपने सबसे घिनौने रूप में वह एक 13 साल की मृत लड़की के संदेशों को बिना किसी को बताए चुपचाप सुनती भी है.

पत्रकारिता को आखिर क्या होना चाहिए, यह आखिर में पत्रकार को ही चुनना होगा. 

डेल्ही बेली की अलबेली कथा

स्क्रिप्ट एक दिन लेट थी. मैं ऐसी कई स्क्रिप्टों से भरे रिचर्ड वॉल्टर के ऑफिस में था. रिचर्ड वॉल्टर यानी राइटिंग गुरु और स्कूल ऑफ थियेटर, फिल्म एंड टेलीविजन, यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया, लॉस एंजलस के स्क्रीनराइटिंग प्रोग्राम के निदेशकों में से एक. वे पन्ने पलटते जा रहे थे और बीच-बीच में कई जगहों पर अपनी अबूझ लिखावट में कुछ टिप्पणियां भी दे रहे थे. यानी मामला ठीक-ठाक नजर आ रहा था. थोड़ी देर बाद उन्होंने मुझे स्क्रिप्ट वापस कर दी. मन में उत्सुकता थी कि मुझे क्या ग्रेड मिला है. देखकर मेरी उम्मीदें भरभराकर गिर पड़ीं. रिचर्ड ने मुझे ए माइनस दिया था.

‘भले ही स्क्रीनराइटर के लिए कोई तय नौकरी न हो लेकिन वह भी इंसान होता है. उसे भी भूख-प्यास लगती है’

और यह हाल तब था जब सालों तक विज्ञान, गणित और अर्थशास्त्र जैसे विषयों में बेकार सिर खपाने के बाद मुझे लग रहा था कि अब आखिरकार मैं वही कर रहा हूं जो मुझे अच्छा लगता है जिसकी मुझमें समझ है, जो मैं सबसे अच्छी तरह से कर सकता हूं. यानी पढ़ना, लिखना और कहानियां सुनाना. मुझे लगता था कि यही मेरे लिए एक ऐसी चीज है जिसकी अगर कोई परीक्षा हो तो मार्कशीट पर मुझे उतने जीरो नहीं दिखेंगे जितने स्कूली दिनों में दिखते थे.

लेकिन यहां तो वही हाल था. ए प्लस या ए की बात तो छोड़िए ए माइनस. मुझे लगा कि शायद दुनिया में ऐसा कोई काम नहीं है जो मेरे बस का हो. जिसे मैं अच्छे से कर पाऊं. सिर्फ सोने के अलावा. दरअसल अपनी योग्यता को प्रमाणित करने के लिए मुझे ग्रेड चाहिए थे, जो मुझे और दुनिया को बताते कि मैं लिख सकता हूं. रिचर्ड को यह बात समझ में नहीं आती थी जो कि स्वाभाविक भी था. वे भला कैसे समझते कि मैं जिस दुनिया से आया हूं वहां मार्कशीट के नंबरों की कितनी अहमियत है. रिचर्ड ने मेरी तरफ देखा और बोले, ‘तुम्हें भले ही अभी पैसे नहीं मिल रहे हों लेकिन तुम अब एक प्रोफेशनल हो. लिखने का कोई मतलब नहीं अगर इसे कोई पढ़े ही नहीं.’

इसके बाद उन्होंने अपनी मेज से मुड़ा-तुड़ा कागज का एक छोटा-सा टुकड़ा उठाया और मुझे दे दिया. मैंने इसे खोला. इस पर अंग्रेजी के तीन अक्षर लिखे थे. ओ, डब्ल्यू, ई.रिचर्ड अब खड़े हो गए थे और जाने से पहले अपना सामान समेट रहे थे. ‘ओन वर्स्ट एनीमी’, वे बोले, ‘अपने रास्ते से हटना सीखो.’ संकेत यह था कि कभी-कभी अपने रास्ते की सबसे बड़ी बाधा आप खुद ही होते हैं. मैंने उस स्लिप को मोड़कर अपने बटुए में रख लिया. आज भी यह वहीं है

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फिर अगला ट्राइमेस्टर शुरू हो गया और अगली डेडलाइन के बीच डेल्ही बेली या से चीज (जो इसे तब कहा गया था) एक बिसरी चीज हो गई. यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया में स्क्रीन राइटिंग प्रोग्राम आपकी हिम्मत का इम्तहान लेता है. और अगर आप ठीक-ठाक महत्वाकांक्षी हैं जो कि हर कोई यहां होता ही है तो आप हर तीन महीने में एक स्क्रिप्ट लिखते हैं. यानी हर दस हफ्ते में एक फिल्म. इस रफ्तार का ही कमाल है कि यहां कागजों के छोटे-छोटे पहाड़ बनते रहते हैं. ढाई साल बाद जब मेरा कोर्स पूरा हुआ तो मेरे पास भी स्क्रिप्टों का एक पहाड़ था. मेरा छोटा एवरेस्ट. डेल्ही बेली इसके आधार शिविर वाली जगह पर थी यानी सबसे नीचे. मेरे पास फर्स्ट ड्राफ्टों के कई ढेर थे. लेकिन फर्स्ट ड्राफ्ट का कोई मतलब नहीं होता. इसमें किसी की दिलचस्पी नहीं होती. इस पर कोई फिल्म बने उससे पहले इसे कई बार सुधारा जाना होता है. यानी मेरे पास संभावनाओं के अलावा कुछ नहीं था.

स्क्रीनराइटर होने की अपनी कई समस्याएं हैं. पहली तो यही कि इसमें करियर का कोई तय ठिकाना नहीं होता. दफ्तर में काम करने वाले किसी आदमी की तरह ऐसा नहीं होता कि आप नौ से पांच बजे की शिफ्ट में काम करें और महीने के आखिर में एक तय तनख्वाह ले जाएं. अगर आप कॉपीराइटर या पत्रकार बन जाएं तो ऐसा हो सकता है, लेकिन स्क्रीनराइटर के साथ ऐसा नहीं होता. वह सिर्फ एक उम्मीद के भरोसे लिखता है.

आमिर अपनी पसंदीदा कुर्सी पर पैर मोड़कर बैठे हुए थे. उन्होंने पिछले कुछ मिनटों में कुछ नहीं कहा था 

यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया में कहावत थी कि कोर्स पूरा करने और चर्चित होने के बीच औसतन नौ साल का वक्त लग जाता है. नौ साल! वह भी अगर कामयाबी मिल जाए. तो हकीकत यह थी. अब भले ही स्क्रीनराइटर के लिए कोई तय नौकरी न हो लेकिन वह भी इंसान होता है और बाकी इंसानों की तरह उसकी भी अपनी जरूरतें होती हैं. भूख-प्यास उसको भी लगती है. यानी नौ साल तक जिंदा रहने के लिए मुझे एक नौकरी भी करनी थी. एक अदद नौकरी. स्कूल के दिनों में मैंने कई छोटे-मोटे काम किए थे जिनसे जेबखर्च जैसी रकम जुटाई गई थी. लेकिन अब मुझे उससे ज्यादा पैसे की जरूरत थी. नौकरी की तलाश करते हुए मुझे यह भी महसूस हुआ कि अगर सुदूर भविष्य में मुझे मोक्ष मिलने की कुछ भी गुंजाइश है तो वह तभी है कि जब मैं कोई फर्स्ट ड्राफ्ट पकड़ लूं और उसे तब तक सुधारूं जब तक वह कबाड़ से कुछ और न बन जाए. मैं समझ गया था कि अगर मैं अब भी फिल्में बनाना चाहता हूं तो इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए मेरे पास यही रास्ता है. अब मुझे एक कहानी की जरूरत थी जिस पर मैं काम कर सकूं और जिसे शूट करने के लिए शायद कुछ पैसा जुटा सकूं.

मैंने अपनी स्क्रिप्टों पर नजर दौड़ाने का काम शुरू किया. इनमें से ‘से चीज’ मुझे सबसे ठीक लगी. यह उस खांचे में फिट बैठती थी जो मैंने सोचा था. यानी एक कैरेक्टर बेस्ड फिल्म जिसका दायरा इतना हो कि उसे किसी की मदद के बगैर भी बनाया जा सके. अपना विकल्प चुन लेने के बाद मैंने इसे सुधारने की दिशा में गंभीरता से काम करना शुरू किया. उधर, नौकरी की तलाश के मोर्चे पर भी कई मुश्किलें थीं. मैं भारत में एक एडवरटाइजिंग कॉपीराइटर के तौर पर नौकरी कर चुका था और मुझे लगा कि इसी क्षेत्र में यहां यानी अमेरिका में भी नौकरी खोजनी चाहिए. लेकिन जल्द ही मुझे अहसास हो गया कि भारत में हासिल किया गया तजुर्बा यहां किसी काम का नहीं. अमेरिकी एजेंसियां उस बायोडेटा पर गौर करने के लिए तैयार नहीं थीं जिसमें अमेरिका में हासिल किए गए अनुभव का जिक्र न हो. मैंने अपना पोर्टफोलियो फिर से बनवाया, उसमें डेढ़ साल का अमेरिका का अनुभव जुड़वाया और आखिरकार काफी कोशिश के बाद मुझे कॉपीराइटर की नौकरी मिल ही गई. उधर, ड्राफ्ट सुधारने का काम भी ठीक चल रहा था. मैं दोनों मोर्चों पर ठीक-ठाक जम गया था.

लेकिन मेरी जिंदगी में सब कुछ ठीक कैसे चल सकता था. जल्द ही अमेरिका में वित्तीय संकट आ गया. हाउसिंग मार्केट की रातों-रात हवा निकल गई. किस्मत मेरी ऐसी है कि गलत वक्त पर गलत जगह होने के मामले में मेरा रिकॉर्ड बिल्कुल बेदाग रहा है. यहां भी ऐसा ही हुआ. अपनी एजेंसी में मैं जिस क्लाइंट के साथ काम कर रहा था उसका ताल्लुक वित्तीय क्षेत्र से ही था. जाहिर है एक हफ्ते के भीतर ही वह गायब हो गया. और मेरी नौकरी भी. संकट बढ़ता ही जा रहा था और मेरी नयी-नवेली खुशहाली और मानसिक संतुलन दोनों ही संकट में थे.

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शुरुआती तीन दिन तक नौकरी चले जाना उतना नहीं खलता. उसके बाद समस्याएं दिखने लगती हैं मसलन खुद से नफरत, कई सवाल और अवसाद. तीन दिन हो चुके थे. ज्यादा फुर्सत मुझे रास नहीं आती. मेरे पास कोई काम नहीं था. दिन-रात सोने के सिवा. ऐसे ही एक दिन फोन बजा. मैं इतना अलसाया हुआ था कि घंटी बजती रही लेकिन मैं फोन तक भी नहीं पहुंच पाया. घंटी फिर बजी. मैंने खुद को धिक्कारा और फोन उठाया.

‘हैलो ड्यूड’, उधर से आवाज आई. यह जिम था, ‘मैंने सुना है तुम अपनी फिल्म बनाने की कोशिश में लगे हो. अगर कहो तो मदद करूं. मैं फिल्म बनवा सकता हूं.’ जिम और मैं यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया में साथ-साथ थे. रिचर्ड वॉल्टर की वर्कशॉप के दौरान भी वह मेरे साथ ही था जब मैं ‘से चीज’ का फर्स्ट ड्राफ्ट लिख रहा था. मैंने कहा, ‘सच में.’ फिर सोचा, वैसे भी मेरे पास खोने को क्या है. जिम अब भी लाइन पर था. मैंने कहा, ‘ठीक है.’

उस शाम जिम मेरे कमरे पर आया. उसने मुझे बताया कि हम फिक्की के एक आयोजन में शामिल होने भारत जा रहे हैं. उसका विचार था कि वहां जितने लोगों से हो सकता है मिला जाए और डेल्ही बेली का आइडिया प्रमोट किया जाए. मेरे पास मुंबई की फ्लाइट के लिए ना करने का कोई बढ़िया बहाना नहीं था. मैं बेरोजगार था यानी अगली सुबह मुझे दफ्तर नहीं जाना था. इसके अलावा उन दिनों मैं कुछ और भी नहीं कर रहा था. यानी समय ही समय था.

तो हम मुंबई के लिए रवाना हुए. हम काफी लोगों से मिले. किसी से स्क्रिप्ट पर चर्चा हुई, किसी को स्क्रिप्ट भेज दी गई. कुल मिलाकर हमने इसे हर उस जगह तक पहुंचाने की कोशिश की जहां मुमकिन हो सकता था. और इसी सिलसिले ने हमें एक दिन एक ऐसे दफ्तर में पहुंचा दिया जो सीढ़ियों के नीचे बना हुआ था. सचमुच सीढ़ियों के नीचे. हमारे सामने की कुर्सी पर बॉलीवुड का एक पुराना प्रोड्यूसर बैठा था. ऐसा लगता है कि उसने काम यहीं से शुरू किया होगा और भरपूर तरक्की के बावजूद उसने किसी टोटके के मारे यह जगह नहीं बदली होगी. हर वाक्य के आखिर में ‘ऊपर वाले की दया रही है’ बोलना उसका तकिया-कलाम था. तंग जगह के कारण जिम और मैं उसके सामने सिकुड़े-से बैठे थे. हमने उसे डेल्ही बेली का आइडिया दिया.

‘नाइस, नाइस गुड ओके, उसका जवाब था.

हम इंतजार करने लगे कि वह कुछ और बोलेगा. मगर उसने कुछ नहीं कहा.

आखिर जिम ने कहा, ‘क्या आप इसे हमारे साथ प्रोड्यूस करना चाहेंगे?’

‘इसके लिए मुझे तुम्हारी क्या जरूरत है?’

मैंने सवाल का मतलब समझने की कोशिश की. लेकिन मेरे पास आइंस्टाइन जैसा दिमाग नहीं था इसलिए कोशिश छोड़ दी.

मैंने कहा, ‘क्योंकि यह मेरी स्क्रिप्ट है.’

उसने कहा तो नहीं मगर वह कह सकता था कि ‘तो’ उसके चेहरे पर हैरानी के भाव थे. वैसे भी मुलाकात खत्म हो चुकी थी. इस बीच वह कई बार ऊपर वाले की दया वाला तकियाकलाम दोहरा चुका था. जिम और मैं खड़े हो गए और बाहर आ गए. झुककर बैठने की वजह से हमारी कमर दुख रही थी और आज जो हुआ था उसके बाद तो लग रहा था कि यह हमेशा के लिए टूट गई है. मैंने सोचा कि काश हमने विश्वास का जो यह रास्ता चुना है उसका अंत अच्छा होता. लेकिन कुछ खास नहीं हुआ था. मुंबई में अपने आखिरी दिन हमने आमिर खान से मिलने की कोशिश की ,लेकिन इसमें नाकामयाब होने पर हमने इसकी कॉपी आमिर खान प्रोडक्शंस के दफ्तर में भेज दी और वापस लॉस एंजलस रवाना हो गए.

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जिंदगी में कई बार खारिज किए जाने के बाद अंततः मुझे यह महसूस हुआ कि कई बार खारिज किया जाना भी आपके लिए अच्छा ही होता है. कुछ साल पहले मुझे देश के सभी नामी संस्थानों जैसे एफटीआईआई, एनआईडी और एमसीआरसी ने खारिज किया था. पहली बार खारिज किए जाने के बाद भी मैं नहीं संभला तो कुछ संस्थानों ने तो मुझे दोबारा भी खारिज किया. पर अगर यह नहीं होता तो मैं यूसीएलए के लिए आवेदन नहीं करता. यूसीएलए में पढ़ाई करना मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी बात थी. जब हम मुंबई में चक्कर काट रहे थे अगर उसी वक्त किसी ने डेल्ही बेली की स्क्रिप्ट पर फिल्म बनाई होती तो यह स्क्रिप्ट आमिर खान तक नहीं पहुंच पाती और पता नहीं वह कैसी फिल्म होती.

खारिज किया जाना बेहद तकलीफदेह होता है. पर अगर आप परिस्थितियों से लड़ते हैं और प्रतिकूल हालात में भी हौसला बनाए रखते हैं तो अंततः आपके लिए आगे बढ़ना आसान हो जाता है. काफी समय गुजरने के बाद अब मैं यह कह सकता हूं. मुझे जो कष्ट झेलने पड़े हैं उन्हें छिपाने की बजाय मैं गर्व से उन्हें याद रखता हूं. खारिज किए जाने का मतलब यह है कि प्रकृति आपके लिए कुछ अच्छा करने जा रही है. मुझे अब तक समझ में नहीं आया कि जिम ने उस दिन आखिर मुझे अचानक क्यों फोन किया था. जिम को भी यह नहीं पता. मुझे यह पता था कि किसी न किसी को तो यह स्क्रिप्ट पसंद आएगी. मैं और जिम आमिर खान के सामने एक बड़े सोफे पर बैठे हुए थे. यहीं वह हुआ जिसका मुझे इंतजार था. आमिर अपने कंप्यूटर पर मेल चेक कर रहे थे और उनकी पत्नी किरण आमिर का काम खत्म होने का इंतजार कर रही थीं. अचानक किरण ने स्क्रिप्ट के ढेर में से एक स्क्रिप्ट उठाई. वह मेरी स्क्रिप्ट थी.

आमिर अपनी पसंदीदा कुर्सी पर पैर मोड़कर बैठे हुए थे. उन्होंने पिछले कुछ मिनटों में कुछ नहीं बोला था. किसी ने धीरे से दरवाजा खटखटाया. हमने देखा कि उनके सहयोगी सचिन एक थाली में ऑमलेट और ब्रेड लेकर आए. पिछले आधे घंटे में ऐसा दूसरी दफा हुआ था. हमें बाद में पता चला कि उस वक्त आमिर गजनी की तैयारी कर रहे थे और थोड़ी-थोड़ी देर में पूरे दिन कुछ-कुछ खाते रहते थे. जिम और मैंने एक-दूसरे को देखा. हम काफी लंबा हवाई सफर तय करने के बाद हवाई अड्डे से कोलाबा पहुंचे थे और वहां से पाली हिल. थकान का असर हो रहा था और मेरी आंखें बंद हो रही थीं. आमिर ने ऑमलेट को ब्रेड पर इस तरह से रखा कि वह नीचे न जाए और इसके बाद उन्होंने खाना शुरू किया. मुझे इतनी तेज नींद आ रही थी कि लगा इसी सोफे पर कुछ देर के लिए सो जाऊं और थोड़ी देर के बाद आगे की बातचीत की जाए.

‘यार, मैं यह सोच रहा था कि तुम लोगों को यह स्क्रिप्ट मुझे बेच देनी चाहिए.’

‘और’, मैंने कहा.

‘स्क्रिप्ट बेच दो. मैं इसे बनाऊंगा.’

‘आप बस यह चाहते हैं कि हम ये स्क्रिप्ट बेच दें? इसके बाद हमारी इस प्रोजेक्ट में कोई भूमिका नहीं रहेगी?’

‘हां, मैं इसे बनाऊंगा.’

मैंने सोचा कि क्या मैं यही करने के लिए इतनी लंबी हवाई यात्रा करके यहां आया था.

‘आमिर, क्या आप हमें कुछ मिनट का वक्त दे सकते हैं? हम आपस में बातचीत करना चाहते हैं.’

‘हां, हां, जरूर. बातचीत कर लो. जब हो जाए तो मुझे आवाज लगा देना.’

आमिर कमरे से बाहर चले गए.

‘क्या बकवास है, जिम?’

‘हमने जो भी तैयार किया है उसके लिए तलाश जारी रखेंगे. मैं मना करने जा रहा हूं.’

‘मैं यह जानना चाह रहा हूं कि तुम क्या जवाब देने जा रहे हो. मैं जानता हूं कि यह तुम्हारी स्क्रिप्ट है और अगर तुम इसे सिर्फ बेचना चाहते हो तो भी मैं समझ सकता हूं.’

‘जिम, क्या तुम पागल हो? मैं इसे बेचकर भागने वाला नहीं हूं.’

हमने आमिर को वापस बुलाया. जवाब देने से पहले मेरे दिमाग में यह चल रहा था कि मैं मना करने जा रहा हूं.

‘आमिर, हम लोग आपके प्रस्ताव पर ना कहने जा रहे हैं. हम आपको स्क्रिप्ट बेचकर इसे छोड़ नहीं सकते.’

‘ठीक है, फिर इसे बनाते हैं.’

उनके चेहरे पर कोई असामान्य भाव नहीं था.

यह घटना 2006 की है. डेल्ही बेली रिलीज हुई एक जुलाई,2011 को. फिल्म से जुड़े लोगों की एक पार्टी में मैंने आमिर को वह किस्सा याद दिलाया. वे बोले, ‘मुझे पता है. मैं तो सिर्फ तुम्हारी परीक्षा ले रहा था. मैं यह देखना चाहता था कि तुम लोग क्या करते हो.’

‘आप परीक्षा ले रहे थे? परीक्षा? अगर मैंने हां कर दिया होता तो क्या होता? मेरी पूरी जिंदगी बर्बाद हो जाती और मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाता.’

आमिर मुस्कुराए. उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा, हमेशा की तरह उनकी आंखों में शरारत तैर रही थी. उन्होंने कहा, ‘तुम पास हो गए.’