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मंदिर में ही रहे भगवान की माया

तिरुवनंतपुरम में सदियों पुराने श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर के हाल ही में खुले तहखानों में से ‘खोजा’ गया सोने, चांदी, हीरे और अनमोल सिक्कों से मिलकर बना खजाना लोगों को रोमांचित भी कर रहा है और उत्तेजित भी. आगे क्या हो, इसे लेकर हर कोई अपना सुझाव दे रहा है. केरल सरकार ने तो सीधे तौर पर कह दिया है कि यह पूरी संपत्ति मंदिर की है और उसको कहीं और ले जाने का सवाल ही नहीं उठता. हालांकि सरकार ने यह भी कहा है कि संपत्ति की सुरक्षा की जिम्मेदारी पूरी तरह से राज्य की है और इसलिए उसने मंदिर की सुरक्षा भी बढ़ा दी है.

इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट की कमेटी की पड़ताल को लेकर मीडिया में जिस तरह के उन्मादी अनुमान देखने को मिले उसकी कई लोगों ने आलोचना की है. आलोचना मीडिया की भी हुई है और कमेटी की भी. सवाल कई हैं. आखिर किसने बढ़ा-चढ़ा कर ये कहानियां लीक कीं? क्या मीडिया को यह बात इतनी सनसनीखेज बना कर दिखानी चाहिए थी? रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के सामने रखने से पहले उसके बारे में मीडिया से बात करने का अधिकार कमेटी को किसने दिया?

पूरा देश भले ही मंदिर में रखे खजाने का आंकड़ा सुनकर हैरान हो मगर शहर के पुराने लोगों और मंदिर के भक्तों के लिए यह रहस्योद्घाटन कोई हैरान कर देने वाली घटना नहीं है. वे पहले से ही जानते थे कि इस तरह के तहखाने (थिरू-अरस) वजूद में हैं और उनमें सोने, चांदी और अनमोल पत्थरों का बहुमूल्य खजाना है, जो तकरीबन 8वीं सदी से भगवान को चढ़ाया जाता रहा है. इन छह तहखानों को ए, बी, सी, डी, ई, एफ नाम से चिह्नित किया गया है. यह भी कहा गया है कि ए और बी नाम के तहखाने पिछले 150 साल से भी ज्यादा समय से नहीं खुले हैं. वहीं दूसरे तहखाने जहां भगवान के सोने के आभूषण, रत्न जड़ित श्रृंगार सामग्री और बर्तन रखे हैं, पूजा के खास मौकों पर खोले जाते रहे हैं.

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि इस खजाने में से तकरीबन 95 फीसदी संपत्ति त्रावणकोर के राजाओं और उनके शाही परिवार के लोगों ने अपने देवता श्री पद्मनाभ स्वामी को समर्पित की थी. यह बात माथीलकम् दस्तावेजों (पत्तों पर लिखी पांडुलिपि जिसमें मंदिरों से जुड़ी जरूरी जानकारियां उपलब्ध हैं और जो केरल के राज्य लेखागार में सुरक्षित है) से भी साबित होती है. अनिझम थिरूनाल मार्तंड वर्मा (1729-58) के शासनकाल में इस मंदिर में मरम्मत का भारी-भरकम कार्य हुआ जिसमें भव्य पूर्वी प्रवेशद्वार और शेवली पुरा या मंदिर के चारों तरफ़ से ग्रेनाइट पत्थरों की छतरियों से ढका गलियारा प्रमुख निर्माण था.

आधुनिक त्रावणकोर के संस्थापक कहे जाने वाले मार्तंड वर्मा ने अपने कई पड़ोसी राज्यों को जीतने के बाद अपना राज्य और उसकी सत्ता भगवान श्री पद्मनाभ स्वामी को समर्पित कर दी थी. उनका ऐसा आत्मसमर्पण इतिहास में त्रिपदीदानम (बिना शर्त आत्मसमर्पण) के नाम से जाना गया और इस तरह श्री पद्मनाभ स्वामी त्रावणकोर राज्य के महाराजा माने गए. इसके बाद से ही सभी शासकों को पद्मनाभ भगवान का दास माना गया जो उनकी तरफ से राज्य का शासन संभाल रहे थे. मार्तंड वर्मा लगातार मंदिर को सोना और अनमोल पत्थर समर्पित करते गए और यह परंपरा उनके बाद के शासकों ने भी जारी रखी. इन शासकों में महान संगीतज्ञ राजा स्वाति थिरूनाल राम वर्मा और आखिरी राजा श्री चिथिरा थिरूनाल बाला राम वर्मा भी शामिल थे. कहा जा रहा है कि तहखाने में मौजूद अमूल्य संपत्ति में ऐतिहासिक महत्व के सिक्कों का ढेर भी शामिल है. इन सिक्कों में त्रावणकोर शासकों के जमाने के सिक्कों के अलावा ग्रीक और रोमन सिक्के, विजयनागर और नायक सिक्के, वेनिस, हॅालैंड, फ्रांस और ईस्ट इंडिया कंपनी के भी सिक्के मौजू्द हैं.

राज्य के बाधारहित इतिहास और लू्ट-मार करने वाली सेनाओं से राज्य के अजेय रहने की वजह से ही मंदिर का यह खजाना सुरक्षित रह पाया है. पुराने दिनों में यह शहर इस संपदा को बड़ा सम्मान देता था. हालांकि आज हर कोई बिना इसका इतिहास जाने अपनी सलाह दे रहा है. कुछ लोग चाहते हैं कि इस खजाने को देश के लाखों भूखे लोगों में बांट दिया जाये, कुछ चाहते हैं कि संग्रहालय में इसकी प्रदर्शनी लगे और कुछ चाहते हैं कि रिजर्व बैंक इसको कुर्क कर ले. दुर्भाग्य से, ये सारी बातें मंदिर के संरक्षकों यानी त्रावणकोर शाही परिवार के उस समर्पण को नजरअंदाज करके कही जा रही हैं जो उन्होंने इस खजाने को संरक्षित करने में दिखाया था. इस राज्य के शासकों ने औपनिवेशिक भारत में कई क्रांतिकारी फसले भी लिए थे. यह पहला राज्य था जिसने फांसी की सजा को बंद किया और साथ ही 1936 में ऐसा कानून बहाल किया जिससे अछूतों को मंदिर में प्रवेश की इजाजत मिली.
अचानक से पड़ी मीडिया की यह तीखी नजर बिल्कुल ही असहनीय है. इसी का परिणाम है कि मंदिर के प्रांगण में अब खुफिया कैमरे भी भेजे जाने लगे हैं. सवाल यह उठता है कि खजाने के लिए श्री पद्मनाभ स्वामी की ‘योग निद्रा’ में विघ्न डालने की क्या जरूरत है. 

खोया हुआ भारत खोजने की चुनौती

पांच दिन तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई गांवों की खाक छानने के बाद कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने माना कि जमीन की समस्या के बारे में उनकी जो समझ गांववालों से बात करके बनी है वह संसद में बैठे-बैठे या फिर अफसरों से बात करके नहीं बनती. हालांकि अभी तक उन्होंने बताया नहीं है कि उनकी यह नयी समझ क्या है और उसके हिसाब से उनकी राजनीति कैसे बदलेगी, लेकिन इसमें शक नहीं कि राहुल गांधी की कोशिश में या उनके बयानों में एक निजी ईमानदारी दिखाई पड़ती है. जिस दौर में नेता औद्योगिक घरानों की, बड़े सौदों की और मीडिया-राजनीति की ज्यादा परवाह करते हैं, राहुल गांधी किसानों की, जमीन की, कायदे के मुआवजे की बात कर रहे हैं. बेशक, पिछले कुछ वर्षों में देश के अलग-अलग हिस्सों में जाकर जो संवेदना उन्होंने दिखाई है वह कुछ अपवादों के सिवा मूलतः जनपक्षीय जान पड़ती है. वे कांग्रेस शासित हरियाणा के मिर्चपुर में दलितों के घर जलाए जाने की खबर सुनकर वहां पहुंचते हैं और बाद में राज्य के दलित विधायकों के साथ अलग से बैठक करते हैं. वे नियामगिरि के जंगलों में जाकर खुद को आदिवासियों का सिपाही बताते हैं और घोषणा करते हैं कि उनकी जमीन देसी या विदेशी पूंजीशाहों के हवाले नहीं की जाएगी. वे जगह-जगह नौजवानों से मिलते हैं और उन्हें राजनीति में आने को प्रेरित करते हैं.

सवाल है, राहुल गांधी की इन कोशिशों को हम कितनी संजीदगी से देखें. यह सच है कि उन्हें गांधी-नेहरू परिवार की विरासत ने एक विशेषाधिकार वाली हैसियत दी है जो इस देश के दूसरे नेताओं को हासिल नहीं है. दूसरी बात यह कि संयोग से उनकी राजनीति ऐसे समय परवान चढ़ रही है जब केंद्र में यूपीए का शासन है जिसकी अध्यक्ष उनकी मां सोनिया गांधी हैं और जिसमें उस कांग्रेस का दबदबा है जिसके नेता बार-बार राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का चापलूसी भरा बयान देकर गांधी-नेहरू परिवार के प्रति अपनी वफादारी की होड़ लगाते हैं. लेकिन कमाल यह है कि सरकार पर सीधी पकड़ के बावजूद राहुल गांधी के बयानों और सरकार की नीतियों में गहरा फासला दिखाई पड़ता है. नियामगिरि में वेदांता पर लगी पहली रोक के बाद लगातार ऐसी परियोजनाओं को हरी झंडी दिखाई जा रही है जिनकी वजह से जंगल कटेंगे, खेत छिनेंगे, लोग उजड़ेंगे और उनके लिए बेदखली और विस्थापन की एक नयी और तकलीफदेह प्रक्रिया शुरू होगी. इसी तरह मिर्चपुर के दलित अब भी अपनी सम्मानजनक वापसी का रास्ता खोज रहे हैं और हरियाणा की कांग्रेस सरकार के मुखिया भूपिंदर सिंह हुड्डा के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं दिखती.

यह शक करने की पूरी-पूरी वजह है कि राहुल गांधी जो कुछ कर और कह रहे हैं, उसका वास्ता सिर्फ उनकी राजनीति से है, किसानों या लोगों की भलाई से नहींयानी यह शक करने की पूरी-पूरी वजह है कि राहुल गांधी जो कुछ कर और कह रहे हैं, उसका वास्ता सिर्फ उनकी राजनीति से है, किसानों या लोगों की भलाई से नहीं. या फिर उनकी राजनीति मूलतः सदाशय बयानों की राजनीति है जिसका कोई ठोस वैचारिक आधार नहीं है और जिसके साथ कोई संपूर्ण राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है. कुल मिलाकर उनकी राजनीति एक लोकप्रियतावादी राजनीति है जिसमें लुभावने वादों और कभी-कभी फौरी राहतों की गुंजाइश तो है, बदलाव की किसी मूलभूत परियोजना की नहीं.

लेकिन क्या लोगों और नेताओं को उनकी राजनीति ही बनाती और बदलती नहीं है? एक मध्यमार्गी कांग्रेसी नेता के तौर पर अपनी राजनीतिक पारी शुरू करने वाले और राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व में वित्त मंत्री रहते हुए उदारीकरण की बिल्कुल पहली ईंटें लाने-लगाने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह अगर बाद में मंडल के मसीहा और पिछड़ी जातियों के राजा नहीं फकीर के तौर पर उभरे तो इसके पीछे उनकी राजनीति ही थी. मूलतः आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष जीवनशैली के आदी और हामी मोहम्मद अली जिन्ना अपनी राजनीति की वजह से ही सांप्रदायिक नेता बन गए. अपनी राजनीति की सांध्य बेला में जिन्ना की तारीफ करके अपनी पार्टी की ही दुश्मनी मोल लेने वाले लालकृष्ण आडवाणी अपनी शुरुआती उदारता और खुलेपन के बावजूद राममंदिर आंदोलन की वजह से एक कट्टर हिंदूवादी नेता के तौर पर विकसित हुए.

यानी लोगों को उनकी राजनीति बदलती है. कबीर के दोहे की यह सच्चाई बड़े मार्मिक ढंग से हम सब पर लागू होती है कि कुम्हार ही मिट्टी को नहीं गढ़ता, मिट्टी भी कुम्हार को गढ़ती है. इस लिहाज से पूछा जा सकता है कि राजनीति की जिस मिट्टी को राहुल हाथ लगाने की कोशिश कर रहे हैं, क्या वह उन्हें बदल पायेगी? क्या दलित घरों में रात गुजारने के राहुल गांधी के जिस उपक्रम को नाटक कहा जाता है वह एक नयी हकीकत बनाएगा? क्या नाटक- अगर यह नाटक भी हो तो- का यह अभिनेता अपने किरदार के रंग में भी कुछ रंग जाएगा?

इस सवाल का जवाब ठीक-ठीक राहुल गांधी ही दे सकते हैं. लेकिन उनके राजनीतिक अश्वमेध की राह में रोड़े बहुत हैं. एक तो यह कि राज्यों में एक से एक क्षत्रप हैं जो उनका घोड़ा पकड़ने की ताकत रखते हैं. उत्तर प्रदेश में मायावती, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, बिहार में नीतीश कुमार और गुजरात में नरेंद्र मोदी अपने इलाकों में उन्हें आसानी से दाखिल नहीं होने देंगे. दूसरी मुश्किल यह है कि राहुल को अपना सेनापतित्व बाद में साबित करना है, सेना पहले जुटानी है. यानी इन तमाम राज्यों में कांग्रेस का सांगठनिक आधार इतना लुंजपुंज है कि राहुल गांधी भीड़ तो जुटा सकते हैं, लेकिन कांग्रेस इस भीड़ को किसी कार्यक्रम से जोड़ नहीं सकती, उसे चुनाव के वक्त मतदान केंद्रों तक आने की प्रेरणा नहीं दे सकती.

लेकिन सांगठनिक आधार न भाषण देने से बनेगा और न ही फॉर्म भराकर, रसीद कटवा कर सदस्यों की संख्या का आंकड़ा बढ़ाने से. वह ऐसे कार्यक्रमों से बनेगा जिस पर जनता भरोसा करे, जिनके लिए लोग कोई लड़ाई लड़ने को तैयार हों. दरअसल यह राहुल गांधी की महाचुनौती है. कांग्रेस अपने कार्यक्रम भी खो बैठी है अपना भरोसा भी. वह किसानों की बात करती है तो किसान यकीन नहीं करते, वह अल्पसंख्यकों की बात करती है तो अल्पसंख्यक बिदकते हैं, वह दलितों की बात करती है तो दलित दूसरी तरफ देखने लगते हैं. कभी कहा जाता था कि कांग्रेस एक राजनीतिक दल नहीं है, वह भारत की विशालता और विविधता का आईना है- एक विशाल सतरंगी छतरी जिसके नीचे हर रंग की विचारधारा के समूह इकट्ठा हो सकते हैं, जहां जर जमात के लिए पंगत लगती है और जो विरुद्धों के बीच सामंजस्य का काम करती है. वह सतरंगी छतरी भौगोलिक स्तर पर कट-छंट कर कई रंग-बिरंगे रुमालों में बंट चुकी है और वैचारिक स्तर पर एक ऐसी अवसरवादी राजनीति में जो पंख लगाकर चिड़िया बनना चाहती है और पांव लगाकर जानवर कहलाना चाहती है. अब तो इस छतरी का इतिहास भी छिन्न-भिन्न दिखता है. वह 1885 में एओ ह्यूम की पहल पर शुरू हुई भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नहीं है. 1969 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में अलग हुई इंदिरा कांग्रेस भी नहीं. यह 1991 में मनमोहन सिंह की नीतियों से साथ आगे बढ़ने वाली और 1998 से सोनिया के नेतृत्व में चलने वाली एक नयी कांग्रेस है जिसमें पुराना ढुलमुलपन तो है लेकिन पुरानी ताकत नहीं.

अगर राहुल गांधी कांग्रेस को उसकी पुरानी ताकत लौटाना चाहते हैं तो उन्हें अपनी राजनीति से ज्यादा अपने समाज पर नजर रखनी होगीअगर राहुल गांधी को इस कांग्रेस को उसकी पुरानी ताकत लौटानी है तो उन्हें काफी कुछ करना होगा. उन्हें तय करना होगा कि 1991 में मनमोहन सिंह द्वारा शुरू किए गए उदारीकरण को क्या वे उसी निर्बाधता से जारी रखेंगे या फिर जमीन और जंगल का खयाल रखते हुए विकास का कोई वैकल्पिक नक्शा बनाएंगे. उन्हें तय करना होगा कि गठजोड़ की राजनीति में वे भ्रष्टाचार के सामने घुटने टेकने की यथास्थितिवादी मजबूरी का सहारा लेंगे या अपने साथी सावधानी से चुनने का अपेक्षाकृत मुश्किल और जोखिम भरा रास्ता लेंगे. उन्हें तय करना होगा कि उन्हें बड़ी पूंजी के सहयोग से बड़े कारखाने लगवाने हैं या छोटी-छोटी योजनाओं के सहारे खेती और सामुदायिक उद्योगों का अब लगभग यूटोपियाई लगने वाला सपना पूरा करना है. उन्हें तय करना होगा कि नक्सलवादी समूहों का वे भरोसा जीतेंगे या उन पर गोली चलाएंगे.

ऐसे फैसले आसान नहीं होंगे. इसके लिए नीतिगत समीकरण बैठाने की जगह यह समझने की जरूरत पड़ेगी कि आखिर वे किस समाज के लिए, किस देश के लिए काम करना चाहते हैं. अगर उनके सामने इस देश का नक्शा साफ होगा, इस समाज की जरूरतें साफ होंगी तो अपने आप उनका कार्यक्रम बनता चला जाएगा, उनकी प्राथमिकताएं तय होती चली जाएंगी. अभी की मुश्किल तो यह है कि कांग्रेस के पास से अपने देश और समाज का नक्शा ही खो गया है- दुर्भाग्य से ऐसा नक्शा दूसरे दलों के पास भी नहीं बचा है. इसलिए जो सरकारी किस्म के कार्यक्रम बनते हैं, उनके लाभ कुछ गिने-चुने औद्योगिक घरानों, शासक समूहों, उनके कारिंदों और उनके दलालों तक चले जाते हैं, जिस किसान के नाम पर, जिस गरीब के नाम पर वे कार्यक्रम बनाए जाते हैं, वह और लुटता है, वह और ठगा जाता है, और गुस्से में बंदूक उठाकर कभी नक्सली हो जाता है और कभी अपराधी. वैसे भी सरकार दोनों को एक निगाह से देखती है.

दरअसल राहुल गांधी की पश्चिमी उत्तर प्रदेश यात्रा का एक लक्ष्य यह हो सकता था- अपने देश और समाज का खोया हुआ नक्शा खोजना. हालांकि इतने बड़े उद्यम के लिए यह यात्रा समय और सीमा- दोनों लिहाजों से छोटी है. राहुल को बड़ी पदयात्राएं करनी होंगी. क्या इतना धीरज उनमें है? अपने पिता राजीव गांधी की तुलना में राहुल ने जरूर ज्यादा धीरज दिखाया है जो महज दो साल के राजनीतिक अनुभव की पूंजी पर देश के प्रधानमंत्री बन बैठे थे. कम से कम 2009 में राहुल ने यह चूक नहीं दुहराई. निश्चय ही आज की तारीख में राजनीतिक अनुभव की संपदा उनके पास अपने पिता से ज्यादा है. लेकिन इस अनुभव को सच्चे सरोकार में बदलना और उस समाज की खोज करना जिसके लिए वे राजनीति करें, अभी शेष है. उत्तर प्रदेश का दौरा इसकी शुरुआत हो सकता है, बशर्ते राहुल गांधी अपनी राजनीति से ज्यादा अपने समाज पर नजर रखें.

रिहाई के बाद

बेतरतीब मूंछों और लंबी दाढ़ी वाले ब्रह्मेश्वर मुखिया बीती आठ जुलाई को आरा जेल से बाहर निकले तो प्रतिक्रियाएं दो तरह की थीं. एक तरफ हजारों लोगों की भीड़ उन्हें नायक जैसा स्वागत देने के लिए उमड़ रही थी तो दूसरी ओर दलित और शोषित तबके के एक बड़े वर्ग में मायूसी और दहशत थी. गौरतलब है कि 90 के दशक के उत्तरार्द्ध में ब्रह्मेश्वर सिंह, जिन्हें दुनिया ब्रह्मेश्वर मुखिया के नाम से जानती रही है,  और उनकी रणवीर सेना ने कथित रूप से कई नरसंहारों में वंचित और पिछड़े तबके के 277 लोगों की जानें ले ली थीं. फिलहाल ब्रह्मेश्वर अपराध के छोटे-बड़े 17 मामलों में बरी कर दिए गए हैं जबकि हत्या और जनसंहार जैसे आधा दर्जन मामलों में उन्हें जमानत मिल चुकी है.

‘हमारी पार्टी ब्रह्मेश्वर मुखिया की रिहाई को समाज के लिए खतरे की एक बड़ी आहट के रूप में देखती है. जिस व्यक्ति ने तीन सौ से ज्यादा दलितों और पिछड़ों के खून से होली खेली थी वह बाहर आ जाए, निर्दोष साबित कर दिया जाए यह नीतीश सरकार के लिए शर्मनाक है.’  

लक्ष्मणपुर बाथे और बथानी टोला समेत 29 जनसंहारों के अभियुक्त ब्रह्मेश्वर मुखिया के जेल से बाहर आने पर कुछ लोगों ने अपनी जीत का जश्न मनाया तो वहीं कुछ लोगों में दहशत और भय का माहौल दिखा. अनेक संगठन इस मामले को अपनी-अपनी दृष्टि से देख रहे हैं. ब्रह्मेश्वर की रिहाई पर कुछ संगठन गंभीर सवाल उठा रहे हैं. आरोप लग रहे हैं कि सरकार ने ब्रह्मेश्वर के प्रति सहानुभूति का रवैया अपनाया जिसकी वजह से अदालत को उनके खिलाफ साक्ष्य नहीं मिले जिसके चलते उन्हें कुछ मामलों में रिहा कर दिया गया और अनेक मामलों में जमानत भी मिल गई. कुछ लोग यह भी आशंका जता रहे हैं कि ब्रह्मेश्वर मुखिया के रिहा किए जाने के बाद समाज में फिर से अशांति फैलने का खतरा है.

ब्रह्मेश्वर के गृहजिले भोजपुर के एक स्थानीय पत्रकार मनीष कुमार सिंह आठ जुलाई को ब्रह्मेश्वर मुखिया के काफिले को कवर कर रहे थे. मनीष बताते हैं, ‘इस काफिले में दस हजार से ज्यादा लोग 60-70 गाड़ियों और सैकड़ों मोटरसाइकिलों के साथ शामिल थे. ये लोग ब्रह्मेश्वर मुखिया की जयकार कर रहे थे. काफिला जिन क्षेत्रों से गुजरा वहां के दलित समुदाय के लोगों में खौफ का माहौल था.’ मनीष तो इस काफिले के साथ कुछ दूर ही चले लेकिन एक स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता अमित कुमार बंटी ब्रह्मेश्वर मुखिया के पैतृक गांव खोपिरा का दृश्य बयान करते हुए बताते हैं,  ‘दर्जनों लोग आसमान में राइफल की गोलियां दागे जा रहे थे जिसकी वजह से दलित समाज के लोग उस रात चैन से नहीं सो सके.’ वे आगे बताते हैं, ‘1997-98 के दौर में जिन सैकड़ों दलित परिवारों ने खोपिरा के आसपास से पलायन किया था उनमें से कई बीते कुछ वर्षों के दौरान वापस भी आ चुके थे. पर कुछ लोग अभी तक नहीं लौटे थे. अब वे आशंकित हैं और लौटना नहीं चाहते.’ हालांकि खोपिरा गांव में ही रहने वाले कुंदन कुमार सिंह, जो ब्रह्मेश्वर मुखिया के करीबी माने जाते हैं, इस बारे में बात करने पर कहते हैं, ‘यह हमें बदनाम करने की कोशिश है. मुखिया जी की रिहाई पर जश्न मनाना स्वाभाविक था. इससे किसी वर्ग में दहशत फैली होगी ऐसा हम नहीं मानते.’

अगर राजनीतिक दलों की बात करें तो लगभग सभी पार्टियां रणवीर सेना के प्रमुख की रिहाई से सकते में हैं. यहां तक कि विपक्षी दलों के साथ-साथ खुद सत्तारूढ़ जनता दल यू के दलित समुदाय से आने वाले नेता भी दबे स्वर में इस मामले में सरकारी रवैये को ही दोषी ठहरा रहे हैं. हालांकि वे राजनीतिक कारणों से खुल कर सामने नहीं आ रहे हैं. जनता दल यू के एक दलित नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘रणवीर सेना अगड़ी जातियों द्वारा संचालित उग्रवादी संगठन है और सरकार अगड़ी जातियों के प्रति वफादारी दिखाती रही है. ऐसी स्थिति में यह सोचा भी नहीं जा सकता कि सरकार ब्रह्मेश्वर के खिलाफ साक्ष्यों को उचित ढंग से अदालत में रखती. नतीजा सामने है.’ दूसरी तरफ राष्ट्रीय जनता दल के प्रधान महासचिव रामकृपाल यादव  कहते हैं, ‘हमारी पार्टी ब्रह्मेश्वर मुखिया की रिहाई को समाज के लिए खतरे की एक बड़ी आहट के रूप में देखती है. जिस व्यक्ति ने तीन सौ से ज्यादा दलितों और पिछड़ों के खून से होली खेली थी वह बाहर आ जाए, निर्दोष साबित कर दिया जाए यह नीतीश सरकार के लिए शर्मनाक है.’ यादव सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘सरकार ने अमीर दास आयोग को क्यों भंग कर दिया? इस आयोग ने भाजपा के बड़े नेता डॉ सीपी ठाकुर, सुशील कुमार मोदी और शिवानंद तिवारी के बारे में रिपोर्ट दी थी कि रणवीर सेना को इन नेताओं का संरक्षण प्राप्त था. कुछ इसी तरह की बात भाकपा (माले) और सीपीआई जैसी पार्टियां भी कह रही हैं.’

सीपीआई के प्रदेश सचिव बद्री लाल मानते हैं कि नीतीश सरकार ब्रह्मेश्वर सिंह को बचाने का हर संभव प्रयास करती रही है, पर साथ ही उनका यह भी कहना है कि मौजूदा परिस्थितियों में ब्रह्मेश्वर सिंह हिंसा पर उतारू नहीं हो सकते. जबकि इसी बात पर माले के राज्य समिति के नेता संतोष सहर साफ कहते हैं कि ब्रह्मेश्वर सिंह के बाहर आ जाने के बाद भूमि और बटाईदारी कानून जैसे मुद्दों पर चल रहे उनके आंदोलन को दबाने की कोशिश होगी और यह भी संभव है कि रणवीर सेना इस मुद्दे पर हिंसक रुख अख्तियार कर ले.

सवाल यह है कि सीपीआई माले की आशंका किस हद तक सही साबित हो सकती है. भूमि और बटाईदारी जैसे मुद्दों पर पैनी नजर रखने वाले सत्यनारायण मदन, संतोष सहर की बातों को ब्रह्मेश्वर मुखिया के उस बयान की पृष्ठभूमि में देखने की कोशिश करते हैं जिसमें ब्रह्मेश्वर मुखिया तहलका से कहते हैं कि किसान परिवार को तोड़ने की कोशिश होगी तो वह इसका विरोध करेंगे. सत्यनारायण मदन कहते हैं, ‘ब्रह्मेश्वर मुखिया का कथन भले ही फिलहाल गंभीर न लगे पर आने वाले समय में किसानों और मजदूरों के बीच के संघर्ष की संभावना को नकारा भी नहीं जा सकता.’ 

 

पदयात्रा, पंचायत और पैंतरेबाजी

पदयात्राएं और रथयात्राएं बहुत उत्पादक होती हैं. चुनावी शुभ-लाभ के लिहाज से. अतीत इसका दस्तावेज है. जिन लोगों ने इस तरह के आयोजन किए उनमें से ज्यादातर लोगों को कालांतर में सत्ता सुख नसीब हुआ. चंद्रशेखर ने 1983 में भारत यात्रा की तो उन्हें आठ साल के भीतर ही प्रधानमंत्री की कुर्सी नसीब हुई, आडवाणी ने 1990 में रथयात्रा निकाली, बताने की जरूरत नहीं कि भाजपा और उन्हें इसका कितना लाभ हुआ. हालिया उदाहरण है स्वर्गीय वाईएसआर रेड्डी के पुत्र जगन मोहन की ओडारपू यात्रा का जिसका नतीजा कुछ महीनों में ही साढ़े पांच लाख के अंतर से उनकी चुनावी जीत के रूप में सामने आया. इस लिहाज से राहुल की पदयात्रा दो दशक से ज्यादा समय से उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर चल रही कांग्रेस के लिए उम्मीद का प्रकाश स्तंभ जैसी है. इन दो दशकों में कांग्रेस जिस हालत में पहुंच चुकी है उसमें उसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं और पाने के लिए उत्तर प्रदेश का सिंहासन है. ऐसे में गांधीजी की दांडी यात्रा जैसे किसी चमत्कार के जरिए वह इस सिंहासन पर कब्जा जमाने की जुगत में लगी हुई है.

चार दिन तक भट्टा पारसौल से लेकर यमुना एक्सप्रेसवे से लगते हुए गांवों की पदयात्रा करने के बाद अलीगढ़ में किसानों की ‘महापंचायत’ लगा कर राहुल गांधी ने अपनी यात्रा का समापन किया. मगर इस ‘महापंचायत’ का चाल-चरित्र और चेहरा देखने के बाद एक बच्चा भी कह सकता था कि अलीगढ़ में राहुल ने कोई महापंचायत तो दूर पंचायत या चौपाल भी नहीं लगाई थी. यह शुद्ध सात्विक चुनावी रैली थी जिसमें आधे से अधिक कांग्रेसी वक्ताओं के साथ बोलने का मौका पाए कुछ किसानों ने भी मंच से हाथ के पंजे पर मुहर लगाने और बटन दबाने की अपीलें जारी कीं. भट्टा पारसौल के किसान जसवीर सिंह की बात सुनिए, ‘राहुल ने हमारे गांव को बर्बाद होने से बचा लिया. रीता जी ने मेरी बेटियों की शादी करवाई. आप सभी लोग अगले चुनाव में हाथ के पंजे पर मुहर लगाना भूलिएगा मत.’

उत्तर प्रदेश में चुनावी बिसात बिछ चुकी है और राहुल गांधी ने अपनी तरफ से इसमें जो योगदान दिया है उसका कुछ फायदा तुरंत ही कांग्रेस के पक्ष में दिखने भी लगा है. एक राजनीतिक जुमला है परसेप्शन (छवि) की राजनीति का जिसका मोटा-सा मतलब है कुछ करो या न करो लेकिन करते हुए दिखने जरूर चाहिए. इस मामले में फिलहाल और पार्टियों से कांग्रेस ने बाजी मार ली है. राहुल गांधी और उत्तर प्रदेश प्रभारी दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ही पिछले दिनों प्रदेश में सबसे ज्यादा सक्रिय नजर आई है. मायावती के खिलाफ सबसे ज्यादा मुखर रहने का पहला फायदा यह दिखाई दे रहा है कि कांग्रेस ने 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा की सफलता की वजह रहे दलित-ब्राह्मण गठजोड़ को उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से में लगभग दरका दिया है. अब यह वोट में तब्दील होता है या नहीं यह इस बात पर निर्भर करेगा कि कुछ समय पहले इन वोटों की सवारी करती रही भाजपा क्या रणनीति अपनाती है. सबोता गांव की ब्राह्मण महिला ने राहुल के सामने ही जब खुलेआम मायावती और दलितों को जातिसूचक अपशब्द कहे तब ब्राह्मण बहुल गांव में देर तक मचता रहा गगनभेदी शोर इस इलाके में मायावती के जादुई फॉर्मूले के गड़बड़ा जाने की ओर इशारा कर रहा था. इसके अलावा उत्तर प्रदेश में अब तक बदलाव की हर बात इस सवाल पर आकर अटक जाती थी कि विकल्प क्या है. मुलायम सिंह फ्लॉप साबित हो चुके हैं, मायावती भी असफल रहीं, भाजपा और कांग्रेस की दशा जगजाहिर है. लेकिन पिछले एक साल के अभियान से कांग्रेस ने प्रदेश में सपा-भाजपा को एक प्रकार से दूसरे-तीसरे नंबर से विस्थापित करके खुद को एक विकल्प के रूप में पेश करने का काम किया है.

कांग्रेस जाटों के सबसे बड़े नेता अजित सिंह के साथ लेन-देन की प्रक्रिया में है. अलीगढ़ में शक्ति प्रदर्शन के पीछे अजित सिंह पर दबाव बनाना भी कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा थापश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस पूरे इलाके में जमीन का जो मसला है उसके बड़े पीड़ितों में जाट और उनसे थोड़ा कम ब्राह्मण हैं. दलित नाममात्र के हैं. अपनी पदयात्रा के दौरान राहुल ने इस इलाके में तीन रातें बिताईं. अब अगर इन्हें 2:1 के अनुपात में बांट दें तो राहुल की पदयात्रा का एक अलग ही सच उद्घाटित होता है. राहुल ने पदयात्रा में दो रातें तो सवर्णों (जाट और ब्राह्मण) के यहां बिताईं और एक दलित के यहां. दलित की बारी भी शायद तब आई जब इस बात की चर्चा होने लगी थी कि राहुल गांधी सिर्फ जाटों और ब्राह्मणों के घर पर ही रुक रहे हैं. यह अनुपात कोई अनजाने में अंजाम नहीं दिया गया बल्कि पूरी योजना के साथ बनाया गया था. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट और ब्राह्मण जमीन के सबसे बड़े हिस्सेदार हैं. और इन दिनों कांग्रेस जाटों के सबसे बड़े नेता अजित सिंह के साथ लेन-देन की प्रक्रिया में है. किसानों की भीड़ जुटाकर अलीगढ़ में शक्ति प्रदर्शन के पीछे अजित सिंह पर दबाव बनाना भी कांग्रेस की रणनीति का वह हिस्सा था जिसे माया विरोध के हल्ले में ज्यादातर लोगों ने बताना या समझना मुनासिब नहीं समझा. यह इत्तेफाक नहीं है कि इससे पूर्व राहुल ने उत्तर प्रदेश में जहां-जहां भी रात बिताई वे सभी दलित हुआ करते थे, जबकि इस बार हालात अलग रहे. हालांकि कांग्रेस अजित सिंह पर दबाव बनाने की रणनीति में कामयाब होती नहीं दिख रही है. अलीगढ़ की खैर तहसील के जिगरपुर गांव से आए 45 वर्षीय जाट चौधरी रजिंदर सिंह के साथ एक संवाद देखिए-

तहलकाः यहां क्या उम्मीद लेकर आए हैं?

रजिंदर सिंहः किसान हैं. क्या पता राहुल गांधी हम लोगों का कुछ भला कर दें.

तहलकाः आप मानते हैं कि वे आपका कुछ भला कर सकते हैं?

रजिंदर सिंहः 35 साल तक तो नहीं किया कांग्रेस ने. अब हमारे गांव में आए थे तो हमने सोचा क्या पता कुछ काम कर दें.

तहलकाः तो कांग्रेस को वोट देंगे?

रजिंदर सिंहः वोट क्यों देंगे, वोट तो चौधरी साब (अजित सिंह) को देंगे. चौधरी साब नहीं होते तो हम कब के खत्म हो गए होते. अगर कांग्रेस चौधरी
साब से समझौता कर लेती है तब कांग्रेस को वोट दे सकते हैं.

22 लोकसभा और 125 विधानसभा सीटों वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट सबसे प्रभावशाली समुदाय है. मायावती की यहां उतनी ही धमक है जितनी कि भाजपा और कांग्रेस की. सपा जरूर इनसे आगे है पर उसकी वजह उसका एमवाई समीकरण है. बाकी पर चौधरी अजित सिंह की निर्विवाद रियासत है. इस लिहाज से अलीगढ़ में राहुल की रैली प्रदेश में नये सियासी समीकरण बुन सकती है. इस रैली से जितनी चिंता बिल्डर-माफिया से गठजोड़ के चलते मायावती को होनी चाहिए उससे कहीं ज्यादा यह अजित सिंह के लिए भी चिंतन का विषय है. दो दिन के भीतर ही आगरा के चहारवाटी में अपनी किसान महापंचायत बुलाकर अजित सिंह द्वारा कांग्रेस के पैंतरे की हवा निकालने की कोशिश इसी का नतीजा है. हालांकि उनकी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल कांग्रेस के शक्ति प्रदर्शन को ज्यादा गंभीरता से नहीं लेती या कहें कि गंभीर होते हुए दिखना नहीं चाहती. रालोद सांसद संजय सिंह चौहान कहते हैं, ‘आपको क्या लगता है इससे राहुल गांधी किसानों के नेता बन जाएंगे? भारत में तमाशा देखने वालों की भीड़ लगना आम बात है. कोई पॉकेटमार भी पकड़ में आ जाए तो पांच सौ लोग भीड़ लगा लेते हैं. भीड़ तो इकट्ठा हो जाती है पर वोट पाने के लिए बूथ पर मेहनत करनी पड़ती है. करिश्मे से वोट नहीं मिलता. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का कुछ खास है नहीं. हां, हमारी बातचीत चल रही थी क्योंकि मायावती को हटाना है. लेकिन कांग्रेस हमारे ऊपर कोई दबाव नहीं बना सकती.’

चौहान की बात कुछ हद तक सही भी है. जैसे ही राहुल मंच पर आए उसके पांच मिनट के भीतर ही लोगों का हुजूम मैदान छोड़कर बाहर निकलने लगा. मैदान से बाहर निकल रहे एक युवक से जब तहलका ने पूछा कि राहुल ने तो अभी बोलना शुरू भी नहीं किया और आप जा रहे हैं तो उसका जवाब था, ‘देख लिया राजीव गांधी के बेटे को. अब इस गर्मी में जान दे दें क्या.’

खैर, पिछले कई चुनाव इस बात का सबूत हैं कि अजित सिंह ने जब भी किसी पार्टी के साथ समझौता किया तो वे स्वयं मजबूत होकर उभरे जबकि सहयोगियों को इससे नाममात्र का ही फायदा हुआ. 2002 में सपा के साथ समझौता करके रालोद के 15 विधायक जीते थे जबकि 2007 में अकेले दम पर लड़कर उन्हें सिर्फ दस सीटें हासिल हुईं. यही हाल 2009 के लोकसभा चुनाव में देखने को मिला. यहां उन्होंने भाजपा से हाथ मिलाकर अपने पांच सांसद दिल्ली पहुंचा दिए. इस इतिहास के मद्देनजर कांग्रेस ने अपनी रणनीति बनाई है और वह किसी भी सूरत में नहीं चाहती कि अजित सिंह उसका बेजा फायदा उठा ले जाएं.

इसके विपरीत बसपा और मायावती प्रदेश की सत्ता में होने के नाते खुद-ब-खुद किसी राजनीतिक यात्रा या प्रदर्शन का विपक्ष बन जाते हैं और बसपा में इस स्वाभाविक विरोध के अलावा राहुल की यात्रा को लेकर अन्य कोई खास चिंता नहीं है. पूरी यात्रा के दौरान राहुल ने बमुश्किल ही दलितों के साथ संवाद किया. यानी जब तक बसपा को अपने मूल वोटबैंक पर कोई खतरा नहीं महसूस होता तब तक वह कोई आक्रामक रवैया शायद ही अपनाए. पहले दिन से ही कहा जा रहा था कि मायावती राहुल को गिरफ्तार करवा सकती हैं लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार की सोच यह रही कि राहुल को पदयात्रा से रोककर उन्हें बेवजह रामदेव की तरह सहानुभूति का पात्र क्यों बनने दिया जाए और खुद को अलोकतांत्रिक क्यों साबित किया जाए. अलीगढ़ में नौ जुलाई तक बसपा के जोनल कोऑर्डिनेटर रहे केके गौतम कहते हैं, ‘भ्रष्टाचार, महंगाई से जनता का ध्यान भटकाने के लिए राहुल सारी नौटंकी कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश अकेला राज्य है जहां बहनजी ने तुरंत ही भूमि अधिग्रहण कानून को संशोधित करके किसानों को उनका वाजिब हक मुहैया करवाया है. बहनजी ने पूरे देश में भूमि अधिग्रहण के क्षेत्र में मिसाल कायम की है. कांग्रेस ने टप्पल कांड के बाद ही वादा किया था कि वे नया भूमि अधिग्रहण कानून लाएंगे. साल भर बीत गया अब भट्टा पारसौल पर राजनीति कर रहे हैं. उन्हें कानून बनाने से किसने रोका है.’ लेकिन गौतम उस सवाल पर फोन काट देते हैं कि भूअधिग्रहण के बाद लैंड यूज बदलना क्या गलत नहीं था और क्या इससे बसपा की बिल्डरों के साथ मिलीभगत साबित नहीं होती.

लोकतंत्र, बदलाव, नयी शुरुआत और युवा पीढ़ी जैसे लुभावने नारों से घिरी उदारीकरण के जमाने में जवान हुई पीढ़ी की राजनीति करने वाले राहुल गांधी ने जब महापंचायत की घोषणा की थी तब कई लोगों को लगा था कि अब तक भट्टा पारसौल से लेकर पदयात्रा तक राहुल ने जो काम किया है उसे एक कदम और आगे ले जाकर वे खुद को किसानों की वैध आवाज साबित करने की कोशिश करेंगे और जमीन की समस्या का कोई स्थायी हल सुझाएंगे या कम से कम कोई विकल्प तो देंगे. चौपाल में किसान होंगे, राहुल होंगे, कोई नयी बात निकलेगी, किसानों में महामारी की तरह फैल रही भूमिहीनता की बीमारी पर लगाम लगेगी. पर अलीगढ़ का नुमाइश मैदान कांग्रेस की चुनावी ताकत की नुमाइश का मैदान बन कर रह गया. अनेक जिलों से रैली की तर्ज पर बुलाए गए कार्यकर्ताओं ने भीड़ बढ़ाई, चार घंटे तक किसानों के नाम पर इकट्ठा हुए करीब दस हजार लोगों को उबलते मौसम और पानी से भरे हुए मैदान में चुनावी भाषण पिलाते नेता और बार-बार चुनाव में हाथ के पंजे पर मुहर लगाने की अपीलें इसका सबूत थीं. अलीगढ़ से दिल्ली लौटते समय कई ढाबों आदि पर हम सिर्फ इसलिए कुछ खा-पी नहीं सके कि वहां पचासों कांग्रेसी कार्यकर्ता पहले से ही आसन जमाए हुए खा और ‘पी’ रहे थे. जिलास्तरीय नेता स्वयं सबसे पूछ-पूछकर सुनिश्चित कर रहे थे कि सबको अपना हिस्सा मिल गया या नहीं. कहने का अर्थ है कि किसानों के नाम पर इकट्ठा किए गए पूरे आंदोलन में वे सब खामियां-खूबियां देखने को मिलीं जो इन दिनों अमूमन हर चुनावी सभा की पहचान मानी जाती हैं.

कथित महापंचायत में राहुल और उनके साथ पंचायत में शामिल होने आए किसानों के बीच कम से कम 50 मीटर की दूरी थी. राहुल गांधी एक मंच पर  कांग्रेसी नेताओं के साथ थे और कुछ चुनिंदा किसान करीब 50-60 मीटर दूर बने एक अन्य मंच पर. चार घंटे तक नेताओं का भाषण होने के बाद, बार-बार वादे के बावजूद किसानों को बोलने के लिए एक घंटा भी नहीं दिया गया. जिन किसानों को बोलने का मौका भी दिया गया ऐसा लगा मानो उनमें से ज्यादातर कांग्रेस के प्रतिनिधि के तौर पर बोल रहे हों. हाथरस से आए किसान धर्मवीर सिंह ने जब जमीन से जुड़ा एक अहम सवाल सबके सामने रखा तो उस पर किसी ने भी तवज्जो देना जरूरी नहीं समझा, ‘फ्रेट कॉरीडोर का निर्माण हो रहा है. हमारी जमीनें इसके जद में आ गई हैं. हमें नोटिस भी मिल गई है. इस पर निर्माण भी हो रहा है. पर हमारे मुआवजे और नौकरी के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं दे रहा है. हमसे वादा किया गया था कि प्रभावित परिवारों के एक व्यक्ति को नौकरी दी जाएगी. पर अभी तक कुछ नहीं हुआ.’ रेलवे केंद्र सरकार के अधीन है और केंद्र में राहुल गांधी की सरकार है शायद इसीलिए सबने एक सिरे से धर्मवीर सिंह के सवाल को नजरअंदाज कर दिया.

इस सबसे उकताई जनता जब मैदान छोड़ने लगी तब उन्हें रोकने और राहुल गांधी को शर्मिंदा होने से बचाने के लिए अचानक ही राहुल गांधी को माइक पकड़ा दिया गया. राहुल के भाषण के दौरान पिछले चार दिन से उनके साथ परछाईं की तरह चल रहे पत्रकारों का एक ही दुखड़ा था, ‘ये कुछ नया क्यों नहीं बोलते. एक ही बात टीवी पर भी कितनी बार दिखाएंगे.’  दरअसल संवाद स्थापित करने का अभाव और रटकर बोलने की आदत दस साल बाद भी राहुल के अधपके नेता होने का इशारा करती हैं. जब वे लोगों के साथ संवाद से बचते हैं तब लगता है कि वे राजनीति के लिए बने ही नहीं हैं बल्कि थोपे जा रहे हैं. उनके पूरे भाषण का इतना ही लब्बोलुआब रहा कि किसानों को उनका हक मिलना चाहिए और वे इसके लिए लड़ाई लड़ेंगे. इस बीच दिल्ली से लेकर लखनऊ तक शाहनवाज हुसैन और शिवपाल सिंह यादव एक ही सुर में बोल रहे थे, ‘राहुल गांधी नौटंकी कर रहे हैं. उन्हें भट्टा पारसौल की बजाय जैतापुर के किसानों के पास जाना चाहिए.’

जवाब में राहुल अलीगढ़ में कहते हैं, ‘उन्हें नौटंकी लगती है तो लगती रहे. मेरा मानना है कि नेता को जनता से बात करने की जरूरत है. उनसे जुड़ने की जरूरत है. ऐसा करने पर गोली चलाने की नौबत नहीं आएगी.’ और संयोग देखिए कि जब राहुल यह बात कह रहे थे ठीक तभी किसानों के लिए बने मंच पर एक अलग नौटंकी शुरू हो गई. वहां माइक के लिए छीनाछपटी हो रही थी. किसान इस बात से नाराज थे कि बिना आपस में बैठे-बात किए राहुल सिर्फ अपनी बात कह कर वापस कैसे जा सकते हैं. आयोजकों को किसानों के मंच का लाउडस्पीकर बंद करना पड़ा. बाद में राहुल को आश्वासन देना पड़ा कि भाषण खत्म होने के बाद वे किसानों से मिलेंगे. तब जाकर किसान शांत हुए. हालांकि बाद में सारी कवायद दो मिनट में निपटा कर राहुल रवाना हो गए. 

बहरहाल अपने पूरे भाषण में जो नयी बात राहुल ने कही उसने एक बार फिर से उनकी नेतृत्व की क्षमता पर सवाल खड़ा कर दिया. या फिर हो सकता है कि मौका देख कर उन्होंने ऐसा कह दिया हो. उन्होंने कहा, ‘हम चाहते हैं कि कानून बनाने से पहले किसानों से बातचीत होनी चाहिए. कोई भी कानून बनाने से पहले उसमें आपकी भागीदारी होनी चाहिए. कानून आप सबकी राय से बनना चाहिए.’ यह कहते हुए वे भूल गए कि महज महीने भर पहले ही अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों को कानून बनाने की प्रक्रिया में शामिल करने की मांग पर पूरी सरकार लोकतंत्र और संविधान की मौत हो जाने का विलाप कर रही थी.

तमाम चुनावी मजबूरियों के बावजूद ऐसे समय में  जब नेता और जनता के बीच दूरी बढ़ती जा रही है तब राहुल का गर्मी और बरसात में गांव की गलियों की खाक छानना, कीचड़-कूड़े के ढेर से गुजरना, आम जनता के घरों मेंं सोने  का श्रेय तो उन्हें दिया ही जाना चाहिए और शायद उन्हें ज्यादा नहीं तो इसका थोड़ा फायदा तो मिलना ही चाहिए.

नियति है मौत!

आंखों देखी-कानों सुनी

दोपहर करीब साढ़े तीन बजे का समय. मुजफ्फरपुर शहर का केजरीवाल मातृ सदन अस्पताल. एक बच्चे को लगी सलाइन वगैरह हटाकर कंपाउंडर अपने दूसरे काम करने में व्यस्त हो जाता है. बच्चा निढाल पड़ा रहता है. कुछ देर में दो महिलाएं आती हैं. बच्चे के शरीर से चिकित्सा के उपकरण और जिंदगी के सारे कनेक्शन कटे हुए देखती हैं. उसका पेट छूती हैं. छाती पर कान लगाकर धड़कन सुनने की कोशिश करती हैं. फिर दहाड़ें मारकर रोने लगती हैं – ‘साहील रे साहील. अब तोरा बिना कईसे रहेंगे रे साहील.’
अब पता चलता है कि बेफिक्री से खेलने-कूदने की उम्र में अपनी मां और इस दुनिया को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़कर चले जाने वाले इस बच्चे का नाम साहिल था. साहिल बंगरा गांव का रहनेवाला था. उसे बारी-बारी से गोद में लेकर चूमती-पुचकारती महिलाओं को कुछ ही मिनट बीतते हैं कि ठीक बगल वाले बेड पर भी लगभग यही प्रक्रिया दुहराई जाती है. वहां भी चीख-पुकार मच जाती है. इसी चीख-पुकार के मध्य पता चलता है कि साहिल के बगल में, दस मिनट के अंतराल पर ही जिसकी मौत हुई है, वह अर्चना थी. बहादुरपुर की रहनेवाली. मृत अर्चना को एक महिला जल्दी से पायजामा पहनाती है, उसे सीने से लगाती है. यह अर्चना की नानी माधो देवी हैं. अर्चना की मां सुशीला एक बार ही चिंघाड़ मार कर रो पाती हैं फिर बिस्तर पर गिर जाती हैं. माधो देवी रोते-रोते ही बार-बार कहती हैं, ‘470 रुपइया नाम लिखाई लगा था, 258 रुपइया सुईया का दाम, फिर भी नहीं बची मेरी बच्ची.’ 15 मिनट के अंदर ही साहिल को गोद में लेकर उसकी मां रोते-रोते अस्पताल की सीढ़ियां उतरती हैं. इसके कुछ देर बाद ही अर्चना की नानी भी अपनी नातिन की लाश के साथ अस्पताल से बाहर जाती नजर आती हैं.

जून खत्म होते-होते और जुलाई के चढ़ते-चढ़ते नन्हे-मुन्नों की मौतों का यह दुखद सिलसिला एक वार्षिक आयोजन की तरह धीरे-धीरे खत्म हो जाता है

यह घटना दो जुलाई की दोपहर की है. अस्पताल में दो नन्हे-मुन्नों की असमय मौत का गवाह बनने से कुछ घंटे पहले हम मणिका चांद टोला में पहुंचते हैं. यह मुसहरी के इलाके में बूढ़ी गंडक के तटबंध के नीचे बसा एक छोटा-सा मुसहरटोला है. यहां सबसे पहले हमारी मुलाकात मीना देवी से होती है. मीना के पति शंभू मजदूरी करने जा चुके हैं. सप्ताह भर पहले उनकी चार साल की बेटी राधा चल बसी थी. मीना अपनी बेटी की मौत से सदमे में हैं मगर उनसे ज्यादा सदमे में शंभू हैं. बकौल मीना, राधा की मौत के बाद से शंभू बगैर खाए-पीए रोज कुदाल उठाकर काम पर चले जाते हैं. मीना की सास नुनू देवी को अपने बेटे शंभू की चिंता है. बहू मीना की भी. पर काम पर जाए बिना कैसे काम चले? राधा के इलाज के लिए उनके बेटे ने तीन-चार हजार रुपये का जो महाजनी कर्ज ले लिया है वह कैसे चुकता होगा? रोते-रोते नुनू जो स्थानीय बोली में कहती हैं उसका हिंदी में अनुवाद कुछ इस तरह है- ‘मेरा बेटा अपनी बेटी को बहुत प्यार करता था. वह रोज रोते-रोते काम पर जाता है. लौटता है तो भी रोता है. हमें चिंता है कि वह जो कमाएगा उससे घर का खर्च चलेगा कि महाजन का कर्ज चुकेगा!’

शंभू के घर के पास दो झोपड़ी छोड़कर लखिंदर का घर है. लखिंदर का चार साल का बेटा राहुल भी कुछ रोज पहले ही मरा है. लखिंदर से भी हमारी मुलाकात नहीं हो पाती. वे घास काटने निकल गए थे. लखिंदर की पत्नी बताती हैं, ‘पिछले साल भी हमारी दस साल की बेटी मर गई थी. साइकिल से इलाज के लिए हम लोग उसे ले जा रहे थे, रास्ते में ही…इस साल अस्पताल तो पहुंच गए मगर कोई फायदा नहीं.’ जिस वक्त राहुल ने अंतिम सांस ली लखिंदर पैसे के इंतजाम के लिए महाजनों के पास दौड़-धूप में लगे हुए थे. पैसे का इंतजाम तो हो गया पर वह राहुल के किसी काम नहीं आया. राहुल की दादी श्रीपतिया कहती हैं, ‘महाजनी भी ले लिए, बेटे को बचा भी नहीं सके.’

मणिका चांद से चलते समय हमारी मुलाकात बुधन मांझी से होती है. ‘पांच साल पहले हमने भी अपने दो बच्चों को खोया है. तीन साल का बेटा संजय और पांच साल की बेटी सुनैना, दोनों एक दिन के अंतराल पर मर गए थे.’ बुधन कहते हैं, ‘चमकी’ हर साल कहर बरपाते रहता है. हम गांव के लोग हैं, गरीब हैं, हर साल मरते हैं, क्या फर्क पड़ता है.’
बुधन जिस चमकी की चर्चा करते हैं वह स्थानीय बोली में उस बीमारी का नाम है जो रहस्य की तरह 16 साल से मुजफ्फरपुर के आसपास के कुछ ग्रामीण इलाकों में कहर बरपा रही है. इस साल आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 60 से ज्यादा मासूम जिंदगियों की कहानी खत्म हो चुकी है इस चमकी से. लेकिन यह है क्या बला, न तो इसकी थाह 16 साल से लग पा रही है और न ही इसकी औकात प्रशासन की निगाहों में इतनी हो सकी कि वह इतने सालों के निरंतर सफर के बाद भी उसे पूरी तरह चौकन्ना कर सके.
 
एक बीमारी, सब पर भारी

दो जुलाई को जब हम साहिल और अर्चना की मौत के गवाह बन रहे थे उस वक्त मुजफ्फरपुर के इलाके में मासूमों की मौत का सालाना जलसा करीब एक महीने तक अपने चरम पर रहने के बाद ढलान का रुख कर चुका था. 1995 से हर साल अमूमन इसी दौरान मुजफ्फरपुर के मीनापुर, मुसहरी, कांटी समेत कई इलाकों के मासूम एक के बाद एक भगवान को प्यारे होते रहते हैं. जून खत्म होते-होते और जुलाई के चढ़ते-चढ़ते नन्हे-मुन्नों की मौतों का यह दुखद सिलसिला एक वार्षिक आयोजन की तरह धीरे-धीरे खत्म हो जाता है. जिनके बच्चे मरते हैं उनकी चीत्कार या तो उनके गांव में ही दफन होकर रह जाती है या अधिक से अधिक अस्पताल की परिधि में.

यदि यह गरीबी और गरमी की बीमारी है तो गया में कोई कम गरीबी नहीं और गरमी में तो उसका कोई सानी ही नहीं. तो फिर यह बीमारी वहां क्यों नहीं होती है?

मुजफ्फरपुर का इलाका लीची के लिए मशहूर रहा है. आम के लिए भी. एक तबके में चतुर्भुज स्थान रोड के रेड लाइट एरिया के लिए भी. लेकिन 1995 से साल दर साल रहस्यमयी बीमारी से होने वाली मासूमों की मौतें इस इलाके को नयी पहचान दे रही है. 1995 में इस बीमारी ने महामारी का रूप ले लिया था. उस समय हजार से अधिक बच्चे इसकी चपेट में आए थे, 100 से अधिक भगवान को प्यारे हो गए थे. उसके बाद से हर साल घटते-बढ़ते आंकड़ों के साथ यह सिलसिला जारी रहा. पिछले साल भी कागजी आंकड़ों के हिसाब से करीब 40 बच्चे इस बीमारी के शिकार होकर असमय काल के गाल में समा गए. 21 बच्चों की मौत तो सिर्फ केजरीवाल अस्पताल में ही हुई थी.

पहचान न होने की वजह से इस बीमारी को अब तक कोई नाम नहीं दिया जा सका है. कुछ लोग इन्सेफलाइटिस कहते हैं, कुछ जापानीज इन्सेफलाइटिस यानि जेई. इस साल जब बीमारी शुरू हुई तो इसके तार लीची से भी जोड़े गए, लेकिन तुरंत ही बीमारी के लीची कनेक्शन को खारिज भी कर दिया गया. खतरा यह था कि यदि लीची का नाम इससे जुड़ा तो इस इलाके के आर्थिक भविष्य का क्या होगा. यहां की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा लीची उत्पादन पर ही टिका हुआ है. इस बार भी यहां नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ कम्युनिकेबल डिजीज की टीमें पहुंचीं. मरीजों के ब्रेन टिश्यू के सैंपल लिए गए. पिछले नौ साल से सैंपल लेने- ले जाने का कार्यक्रम चल रहा है, किंतु अब तक कोई ठोस रिपोर्ट नहीं मिल सकी है. डॉक्टर अनुमान के आधार पर इलाज करते रहते हैं. बच्चे मरते रहते हैं.

राज्य के स्वास्थ्य मंत्री अश्विनी चौबे का कहना है, ‘पुणे की जांच टीम की रिपोर्ट का इंतजार कर रहे हैं, रिपोर्ट आने के बाद नये सिरे से विचार होगा. नीतियों का मूल्यांकन किया जाएगा.’ स्वास्थ्य मंत्री रिपोर्ट के इंतजार का हवाला देते हुए जापानीज इन्सेफलाइटिस से निपटने की नीतियों पर पुनर्विचार की बात करते हैं, डॉक्टर इस बात को सिरे से नकार देते हैं. मुजफ्फरपुर के श्री कृष्ण मेडिकल कॉलेज ऐंड हॉस्पिटल (एसकेएमसीएच) के डॉ गोपाल सहनी कहते हैं, ‘इस बीमारी का संबंध सीधे-सीधे गरमी और गरीबी से है. गरमी जब भी बढ़ती है, बच्चों के ब्रेन का थर्मोस्टेट डैमेज होता है, गरीब परिवारों के बच्चे ज्यादा कुपोषित होते हैं, इसलिए उनके बच्चों पर हीट स्ट्रोक का असर ज्यादा होता है.’ डॉ सहनी कहते हैं, ‘मैंने सात साल से इस बीमारी के ट्रेंड को देखा है. इस साल भी यह बीमारी 12 जून के करीब शुरू हुई, तब तापमान 42-44 डिग्री के करीब था. 18 जून को बारिश हुई, तापमान 30 पर पहुंच गया तो मरीजों का आना बंद हो गया. 22 जून से फिर तापमान में बढोतरी हुई तो 25-26 जून से फिर मरीज आने लगे’. डॉ सहनी का अध्ययन ठीक माना जाए तो सवाल उठता है कि यदि यह गरीबी और गरमी की बीमारी है तो गया जिले में कोई कम गरीबी नहीं और गरमी में तो उसका कोई सानी ही नहीं. या फिर मुजफ्फरपुर के ही दूसरे हिस्सों में क्या गरीबी या गरमी कोई कम है! तो फिर वहां यह बीमारी क्यों नहीं होती है? इस विरोधाभास को स्वीकार करते हुई डॉ सहनी कहते हैं, ‘हां, यह एक उलझन तो है.’
कुछ डॉक्टर चंडीपुरा वायरस की बात करते हैं, जिससे कुछ साल पहले महाराष्ट्र के विदर्भ और आंध्र प्रदेश में कई बच्चों की मौतें हुई थीं. लेकिन उसकी भी पुष्टि अब तक नहीं हो सकी है. केजरीवाल मातृ सदन के प्रशासक बीबी गिरी कहते हैं, ‘इस बीमारी से गांव के बच्चे पीड़ित होते हैं, जो गरीब होते हैं, हम उनका मुफ्त में इलाज कर रहे हैं. एक मरीज पर औसतन 12-13 हजार रुपये खर्च कर रहे हैं.’

मुजफ्फरपुर के इतने बड़े हिस्से में इस बीमारी का फैलाव हुआ, तब भी पीड़ित बच्चों के परिजन मेडिकल कॉलेज की बजाय एक निजी अस्पताल की ओर क्यों भागते रहे?

जापानीज इन्सेफलाइटिस है नहीं, गरमी की बीमारी जैसी बात भी ठीक नहीं लगती, तो फिर मुफ्त में और पूरी मुस्तैदी के साथ ही सही लेकिन इलाज किया किस बीमारी का जा रहा है? एसकेएमसीएच के उपाधीक्षक डॉ सुनील शाही कहते हैं, ‘हम यह मानकर चल रहे हैं कि इस बीमारी में ब्रेन का इनवॉल्वमेंट है, वायरल और बैक्ट्रियल डिजीज है, इसलिए उसी को रिकवर करने के लिए दवा चलाते हैं.’ डॉ गोपाल सहनी कहते हैं, ‘इस बीमारी के नाम पर एसाइक्लोवीर एंटीवायरल दवा का इस्तेमाल भी किया जा चुका है लेकिन यह जहां भी हुआ, उसमें खेल हुआ. चिकेन पॉक्स या हरपीज सिंपलेक्स वायरस से जनित बीमारियों में एसाइक्लोवीर देना चाहिए. इसके एक इंजेक्शन की कीमत 800 रुपये है. इसे दिन भर में तीन-तीन बार दिया गया, जिससे यह ब्लैक भी होने लगा था.’ यानी बीमारी मालूम नहीं तो इलाज के नाम पर जिसका अपनी सुविधानुसार जो मन आया उसने वही किया. डॉ सहनी की बातें यदि सही हैं तो गरीब बच्चों के इलाज के नाम पर पता नहीं किस-किस किस्म के खेल-तमाशे होते रहे हैं.
ये खेल सिर्फ इलाज के दौरान ही नहीं, उसके पहले और बाद भी खूब हुए. यह बीमारी जापानीज इन्सेफलाइटिस ही है, इसकी पुष्टि नहीं हो पा रही है लेकिन इसके टीकाकरण का काम बिहार में तेजी से चलता रहा. 2007-08 में दस लाख से अधिक बच्चों को टीका दिया गया. 2006 से जिलों में नियमित तौर पर जेई के टीकाकरण का अभियान परवान चढ़ना शुरू हुआ. हर जिले में लाखों बच्चों को जेई का टीका दिया गया. आखिर क्यों जेई का टीकाकरण अंधाधुंध जारी है, यह भी एक सवाल है.
 
गंवई व गरीब बच्चे मरते हैं, क्या घबराना…

दो जुलाई को ही केजरीवाल अस्पताल में दो बच्चों की मौत आंखों के सामने देखने के बाद शाम को  मेडिकल कॉलेज जाना हुआ. कथित तौर पर इन्सेफलाइटिस के शिकार बच्चों के लिए बने वार्ड में. 12-13 जून को बीमारी शुरू हुई थी, लेकिन हर साल होने वाली इस बीमारी के लिए अलग से वार्ड बनाने में मेडिकल कॉलेज को सप्ताह भर से ज्यादा का समय लग गया. जब पानी सर के ऊपर से गुजरने लगा तब जाकर ऑर्थोपेडिक वार्ड को इन्सेफलाइटिस वार्ड में बदला जा सका था. जब हम उस वार्ड में पहुंचे तब वहां सिर्फ तीन बच्चे सीतामढ़ी के एक गांव के विवेक, कांटी इलाके की निम्मी और सीतामढ़ी के ही कृष्णा भर्ती थे. कृष्णा की हालत गंभीर थी. वार्ड में एक तरफ कृष्णा की मां अपने बच्चे को बचाने के लिए गांव के ब्रह्म बाबा से लेकर देवी माई तक की दुहाई दे रही थीं तो दूसरी तरफ नर्सों और अस्पताल कर्मियों के बीच जबर्दस्त हंसी-ठहाकों का दौर चल रहा था. वार्ड में मौजूद रहे कुछ लोग बताते हैं कि मेडिकल कॉलेज में कथित इन्सेफलाइटिस के दौरान जब मासूमों की मौतें होती रहीं, तब भी कुछ-कुछ ऐसा ही हो रहा था. डॉ गोपाल सहनी तो टीवी कैमरों के सामने उस वक्त रो तक पड़े थे, जब यह सामने आया था कि इलाज के दौरान नर्सिंग की लापरवाही या देखभाल में कमी के कारण एक बच्चे की जान चली गई थी.

गौर करने वाली बात यह भी है कि मुजफ्फरपुर के इलाके में आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 63 गांवों में जब इस बीमारी का फैलाव हुआ, तब भी इतनी सुस्ती क्यों रही. क्यों पीड़ित बच्चों के परिजन मेडिकल कॉलेज की बजाय एक निजी अस्पताल -केजरीवाल अस्पताल –  की ओर भागते रहे? मेडिकल कॉलेज में तो फिर भी कुछ मरीज आ गए लेकिन जिले का सदर अस्पताल, जो गरीबों के लिए सबसे बड़ा आसरा होता है, वहां इस बदहवासी में भी किसी ने अपने लाड़लों को लेकर जाना मुनासिब नहीं समझा. इन सवालों के जवाब कई तरह से मिलते हैं. एसकेएमसीएच के उपाधीक्षक डॉ सुनील शाही, जो इस बीमारी के दौरान अधीक्षक के छुट्टी पर जाने के कारण यहां का प्रभार देख रहे थे, कहते हैं, ‘सब पेपरबाजी होते रहा है, कौन कहता है कि हम मरीजों के लिए तैयार नहीं थे या नहीं रहते. लेकिन सरकारी का ठप्पा होने की वजह से लोग ही नहीं आते तो क्या करें? 1995 से मौतें हो रही हैं, अस्पताल तो अपने स्तर से तैयार ही रहता है लेकिन हमारी तैयारी से क्या होगा? बीमारी का कुछ अता-पता ही नहीं चल पा रहा है, कुछ स्पष्ट भी तो हो! तैयारी प्रारंभिक स्तर पर करने की जरूरत है. हेल्थ एजुकेशन पर जोर देना होगा, छिड़काव वगैरह पर जोर देना होगा. हमारे यहां तो एक आदमी, तीन-तीन आदमी का ड्यूटी करता है. और रही-सही कसर पीडब्ल्यूडी, पीएचईडी और बिजली विभाग पूरा करता है. कई सालों से वार्ड कंस्ट्रक्शन वगैरह के लिए पैसा आया हुआ है, लेकिन उसका कोई अता-पता नहीं चला, अब जाकर टेंडर की प्रक्रिया शुरू हुई है. हमें जिनसे सहयोग चाहिए उन पर हमारा कोई वश ही नहीं.’

मुजफ्फरपुर से ही सटे सीतामढ़ी जिले के पुपरी ब्लॉक के टेम्हुआ गांव में कालाजार से पिछले चार-पांच साल में 44 मौतें हुई हैं. कालाजार भी एक रहस्यमयी बीमारी की तरह लगता है यहां

डॉ शाही की बातें कुछ हद तक सही भी हैं और अभाव से गुजरते संस्थान का प्रभारी होने की वजह से तनाव भी स्वाभाविक है. लेकिन गरीबों की उम्मीद तो सरकारी संस्थान ही होते हैं. डॉ शाही तो सिर्फ मेडिकल कॉलेज के प्रभारी थे, जिले की स्वास्थ्य व्यवस्था का जिम्मा तो सदर अस्पताल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर भी होता है. लेकिन अस्पताल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थिति देख साफ लगता है कि यहां मजबूरी न हो तो लोग आने से भी तौबा करें. मगर मजबूरी भी अगर साथ छोड़ दे तो गरीब तो बिलकुल अकेला हो जाएगा. सदर अस्पताल के एक कर्मचारी शशि कहते हैं, ‘ऐसी बात नहीं, हमारे यहां करीब 500 मरीज रोज ओपीडी में पहुंचते हैं.’

मुजफ्फरपुर के सिविल सर्जन डॉ अर्जुन प्रसाद सिंह कहते हैं, ‘डीडीटी स्प्रे और फॉगिंग का काम हो रहा है, हमने अस्पताल में वार्ड भी तैयार रखा था लेकिन यहां मेडिकल कॉलेज होने की वजह से मरीज  आए ही नहीं.’ यह पूछने पर कि जब बीमारी हर साल एक निश्चित समय पर दस्तक देती है तो स्प्रे और फॉगिंग का काम पहले क्यों नहीं किया गया, सिविल सर्जन सरकारी विभाग होने की दुहाई देते हैं. कहते हैं, ‘जब संभव होगा, तभी तो होगा न! सरकारी विभाग है, यहां एक दिन में सब कुछ नहीं हो सकता. बजट बनता है, ऐक्‍शन प्लान तैयार होता है, स्वीकृति ली जाती है, तब जाकर काम होता है.’ डॉ प्रसाद कहते हैं कि पटना में महकमे की बैठक होने वाली है, पूरी स्थिति को रखेंगे. तब योजना बनाएंगे, वैसे इस बीमारी के लिए अनुसंधान और अस्पतालों के सिविल वर्क पर ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत है. डॉ प्रसाद कहते हैं, ‘हम क्या करें, भवन निर्माण विभाग पैसा लेकर ही बैठा हुआ है.’

मेडिकल कॉलेज के उपाधीक्षक डॉ शाही या सिविल सर्जन डॉ प्रसाद जो मजबूरियां गिना रहे हैं वे पिछले और उससे पिछले साल भी गिनाई जाती रही हैं. और बीमारी गरीबों की नियति बन कर उनके मासूमों पर कहर बरपाती रही है. जिस तरह सिविल सर्जन दूसरे विभागों द्वारा सहयोग नहीं किए जाने की बात कहते हैं, उसी किस्म के हालात निचले स्तर पर भी नजर आते हैं. वरिष्ठ समाजवादी विचारक व लेखक सच्चिदानंद सिन्हा से जब मणिका में उनके आवास पर मुलाकात होती है तो वे बताते हैं कि कुछ दिनों पहले उनके गांव में छिड़काव करने वाले आए. वे कालाजार के लिए छिड़काव कर रहे थे. सिन्हा के यह कहने पर कि सामने जलजमाव है, उसमें भी छिड़काव कर दीजिए, जवाब मिला- ‘मलेरिया विभाग से नहीं आए हैं, उसका आदमी आएगा तो बोलिएगा.’

बिहार में जिले 38 हैं मगर जिला अस्पताल 25. यहां अनुमंडल 101 हैं पर अनुमंडलीय अस्पतालों की संख्या 25. राज्य में चिकित्सकों के 6,500 पद स्वीकृत हैं, लेकिन चिकित्सक करीब 3,500 ही हैं

जिले के सिविल सर्जन बीमारी से निपटने के लिए अनुसंधान कार्य पर जोर देने की बात कहते हैं लेकिन सदर अस्पताल का निरीक्षण किया जाए तो शायद सबसे पहले उसी पर अनुसंधान की जरूरत है. सदर अस्पताल जलजमाव का एक बेहतरीन स्थल है. वहां इन्सेफलाइटिस के लिए दो जुलाई के एकाध रोज पहले आइसोलेशन वार्ड को तैयार किया गया था. मगर इसके बिस्तरों की हालत ऐसी नहीं कि किसी मरीज को उन पर लिटाया जा सके. हमें इन पर कुत्तों का मल आदि भी नजर आता है. पूरे अस्पताल परिसर की बात तो दूर, अगर थोड़ी बारिश हो जाए तो सिविल सर्जन के चैंबर तक पहुंचना भी जंग लड़ने जैसा है.

सिर्फ एक बीमारी नहीं, स्वास्थ्य महकमा, समाजसेवी, राजनीतिबाज… सब रहस्यमय ही हैं

मुजफ्फरपुर जिले के साथ ही सीतामढ़ी, समस्तीपुर, पूर्वी चंपारण आदि के इलाके में विस्तारित होकर हर साल कहर बरपाने वाली यह बीमारी रहस्यमयी है, यह तो सभी बता रहे हैं लेकिन इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए गौर करें तो और भी बहुत कुछ है जो यहां रहस्यों से भरा हुआ है. बिहार में ज्ञात बीमारियों के शिकार होने को भी नियति मान लेने वालों की संख्या कम नहीं है. मुजफ्फरपुर से ही सटे सीतामढ़ी जिले के पुपरी ब्लॉक के टेम्हुआ गांव में कालाजार से पिछले चार-पांच साल में 44 मौतें हुई हैं. साल-दर-साल यह सिलसिला जारी है. कालाजार भी एक रहस्यमयी बीमारी की तरह लगता है यहां.

गया जिले के शेरघाटी के आमस प्रखंड का एक गांव है भूपनगर. वहां विकलांग पीढ़ियां वर्षों से जवान हो रही हैं. यह सब पानी में फ्लोराइड के कारण हो रहा है. नवादा में भी कई गांव भूपनगर की तरह हैं. फ्लूरोसिस भी एक रहस्य बना हुआ है यहां! राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल आपूर्ति कार्यक्रम की मई, 2011 में आई रिपोर्ट कहती है कि बिहार में 18,431 गांव शुद्ध पेयजल से वंचित हैं. 3,339 गांव फ्लोराइड की अधिकता से प्रभावित हैं. 1,112 गांव आर्सेनिक की अधिकता से त्रस्त हैं. इनकी अधिकता से त्वचा, खून और फेफडे़ की बीमारियां होंगी, बच्चों का कार्डियोवस्कुलर सिस्टम प्रभावित होगा, कैंसर की संभावना बनेगी, दांत और हड्डियों का रोग होगा लेकिन पेयजल का मामला पेयजल वाले जाने, स्वास्थ्य विभाग की योजनाएं दूसरी हैं. ऐसा क्यों, यह भी एक रहस्य ही है.
12वीं पंचवर्षीय योजना के तहत राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना के लिए एक एप्रोच पेपर तैयार होने वाला है. उसके लिए योजना आयोग ने एक वर्किंग टीम बनाई है. उस वर्किंग टीम में पटना के डॉ. शकील भी शामिल हैं. डॉ. शकील आंकड़ों की जबान में कुछ बातें बताते हैं. कहते हैं, ‘राज्य की आबादी अब 10 करोड़ हो गई है, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या 538 है. यानी औसतन दो लाख की आबादी पर एक, जबकि 30 हजार की आबादी पर एक स्वास्थ्य केंद्र होना चाहिए. राज्य सरकार 1,200 अतिरिक्त पीएचसी को भी उसमें जोड़ती है, तो भी संख्या काफी कम रह जाती है.’ डॉ शकील आगे बताते हैं कि बिहार में आबादी के अनुसार 20 हजार उपप्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र चाहिए लेकिन हैं 8,500 ही. यहां रेफरल अस्पताल एक लाख की आबादी पर एक होना चाहिए लेकिन कुल रेफरल अस्पतालों की संख्या 72 है. बिहार में कुल जिलों की संख्या 38 है मगर जिला अस्पताल 25 ही हैं. यहां अनुमंडल 101 हैं पर अनुमंडलीय अस्पतालों की संख्या 25 है. झारखंड के बंटवारे के बाद राज्य में चिकित्सकों के 6,500 पद स्वीकृत हैं, लेकिन अभी राज्य में करीब 3,500 चिकित्सक ही हैं. 1998 के बाद से रेगुलर डॉक्टरों की नियुक्ति नहीं हुई, कॉन्ट्रैक्ट पर डॉक्टर रहना नहीं चाहते. बिहार के डॉक्टर गुजरात- महाराष्ट्र आदि राज्यों में जा रहे हैं. स्टेट प्रोग्राम इंप्लीमेंटेशन प्रोग्राम की 2010-11 की रिपोर्ट कहती है कि बिहार में विशेषज्ञों के 68 प्रतिशत पद रिक्त हैं. फार्मासिस्ट, रेडियोग्राफर, लैब तकनीशियन आदि की कमी 60 से 92 फीसदी तक है. बिहार में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष 92 रुपये खर्च होते हैं, राष्ट्रीय औसत 216 रुपये हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि 1,700 रुपये खर्च करने से नागरिक स्वस्थ रहेंगे. ऐसे ही कई आंकड़े बताने के बाद डॉ शकील कहते हैं, समझ सकते हैं कि हालत और हालात कैसे रहेंगे?

रहस्यों का सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता. मुजफ्फरपुर में इस बार बीमारी फैलने के बाद कुछ राजनीतिज्ञों और कुछ राजनीतिबाजों का भी जाना हुआ. कुछ ने पटना लौटकर बयानबाजी की, कुछ वहीं बोल लिये. सत्ता पक्षवालों ने कहा- ‘सरकार सक्रिय है, बीमारी को गंभीरता से ले रही है.’ विपक्षियों और विक्षुब्धों का कहना है- ‘नीतीश सरकार के राज में स्वास्थ्य विभाग और गरीबों की कैसी दुर्गति है, इसकी पोल खुल रही है.’ जो आज नीतीश सरकार की पोल-पट्टी खोलने की बात कर रहे हैं, कभी वे भी सत्ता मंे थे. कुछ नीतीश के साथ भी थे, तब भी मुजफ्फरपुर में बच्चे ऐसे ही मरते थे. दर्जनों की संख्या में. मौत ने सैकड़ा का आंकड़ा भी छुआ था. तब उनके लिए यह कोई मसला क्यों नहीं था यह भी किसी रहस्य से कम नहीं.

फिर सबसे बड़ा रहस्य खुद मुजफ्फरपुर ही है जिसे पटना के बाद बिहार का दूसरा सबसे अहम शहर माना जाता है. यहां की हर गली में जलजमाव, गंदगी का अंबार और सड़कों की खस्ता हालत के बाद भी यदि इस बात के गीत गाए जाएं कि पटना के बाद हमीं हैं, तो इसे क्या कहेंगे? इन्सेफलाइटिस के लिए जिम्मेदार मच्छर क्यूलेक्स की तलाश में जब शहर के आसपास के इलाकों में पिछले दिनों विशेषज्ञों ने जाल लगाए तो क्यूलेक्स को छोड़कर डेंगू, मलेरिया समेत कई बीमारियों के मच्छर यहां मिले. 497 मच्छरों की वेरायटी की तो पहचान ही नहीं हो सकी. इतने किस्म के मच्छरों का शहर है मुजफ्फरपुर.

मुजफ्फरपुर के मुसहरी में 1968 में जयप्रकाश नारायण ने नक्सलियों को आत्मसमपर्ण कराने के लिए अपना डेरा डाला था. यहीं रहकर उन्होंने आमने-सामने पुस्तिका लिखी थी. जेपी के लिए वह प्रयोगभूमि था. मुजफ्फरपुर में 1995 से बच्चों की मौत का सिलसिला जारी है बड़े व राष्ट्रीय सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए जल-जंगल-जमीन की तरह ही जीवन क्यों मुद्दा नहीं बन पा रहा है अब तक, यह भी कोई कम रहस्य नहीं. बच्चों पर काम करने वाली कई संस्थाएं भी हैं लेकिन एक मत होकर उन्होंने इसे मसला बनाया हो, ऐसा नहीं दिखा. इसके पीछे भी जरूर कोई रहस्य होगा! मुजफ्फरपुर के समाजसेवी रमेश पंकज कहते हैं, ‘हम अपने स्तर पर इसे मसला बनाने की कोशिश करते हैं लेकिन इसके लिए सबका साथ चाहिए.’ समाजसेवी डॉ एचएन विश्वकर्मा भी कुछ ऐसा ही कहते हैं. कई और मिलते हैं, जो इस रहस्यमयी बीमारी से चिंतित हैं लेकिन बिहार में स्वास्थ्य कोई राजनीति का मसला नहीं है, इसलिए सब कुछ स्थानीय स्तर पर दम तोड़ता है. बात सही भी है. अगर स्वास्थ्य राजनीति का मसला होता तो पांच दर्जन बच्चों की मौत पर बिहार के मुख्यमंत्री या कम से कम उपमुख्यमंत्री तो एक बार जरूर मुजफ्फरपुर पहुंचते.

मुजफ्फरपुर के इलाके में इस बीमारी के दौरान घूमते हुए बीमारी से इतर और भी कई रहस्यमयी बातें देखने को मिलीं. यहां कई पंचायतों में मुखिया की बजाय उपमुखिया बनने के लिए लाखों बहाए जाने की चर्चा है. उपमुखिया के यहां मुखिया की जिंदगी बंधक की तरह रहती है. जिन गरीबों के बच्चे बीमारियों से मरते हैं उनके लिए इंदिरा आवास के नाम पर जब 35 हजार आता है तो उन्हें सात हजार और एक ट्रॉली ईंट देकर चलता किया जाता है, यह भी बताया गया.  मुजफ्फरपुर के सिविल सर्जन जाली बहाली से लेकर अन्य मामलों में भी आरोपित हैं, इसके बावजूद मुजफ्फरपुर जैसे संवेदनशील जिले में उनका सिविल सर्जन जैसे अहम पद पर बने रहना भी यहां के कुछ लोगों को रहस्यमय लगता है.

मुजफ्फरपुर में बच्चों की मौत हर रोज हो रही थी, इससे बेपरवाह मुजफ्फरपुरवाले शहर के चौक-चौपालों पर उन मौतों की बजाय जिला परिषद के गुणा-गणित में ज्यादा मजा ले रहे थे. संवेदनाओं का इस कदर बदलना भी कोई कम रहस्य नहीं.  

तली पर तालीम

जिस राज्य में एक निर्दलीय विधायक मुख्यमंत्री बन सकता हो, प्रदेश का मुख्यमंत्री चुनाव हार सकता हो,  कुछ जनप्रतिनिधि चाहे किसी की भी सरकार हो मंत्री की कुर्सी से चिपके रह सकते हों और सरकार जाते ही मुख्यमंत्री सहित कई मंत्री सालों जेल की शोभा बढ़ा सकते हों, उस प्रदेश में कुछ भी होने पर आश्चर्य कैसे हो सकता है?

इस साल झारखंड में इंटर की परीक्षा में कुल 2.93 लाख छात्र-छात्राओं ने परीक्षा दी थी. रिजल्ट आया तो 1.25 लाख से भी कम प्रतिभागी सफल हो सके. यानी लगभग 55 प्रतिशत प्रतिभागी फेल हो गए. इस कुल रिजल्ट में यदि विशेष तौर पर साइंस के परीक्षार्थियों की बात करें तो इस साल परीक्षा पास करने वाले प्रतिभागियों की प्रतिशतता 28.05 पर जाकर सिमट गई. इंटर साइंस में कुल 1,04,333 परीक्षार्थी शामिल हुए, उनमें 75,067 फेल हो गये.

खैर इसमें कोई बड़ी बात नहीं. कहा जा सकता है कि परीक्षा में सख्ती की वजह से या प्रश्नपत्र थोड़ा कठिन आने की वजह से कमजोर छात्र फेल हो गए होंगे. मगर खास बात यह है कि इन फेल होने वाले विद्यार्थियों में करीब सोलह सौ ऐसे भी हैं जिन्होंने इंजीनियरिंग और मेडिकल की प्रतिष्ठित प्रवेश परीक्षाओं में अपनी सफलता का परचम लहरा दिया है. लेकिन इंटरमीडिएट की परीक्षा में वे अपनी नैया पार लगाने में कामयाब नहीं हो सके. यानी कि हाथी तो दरवाजे से बाहर निकल गया मगर उसकी पूंछ अटक गई. इसके अलावा इस वर्ष 12वीं कक्षा के तमाम विद्यार्थी ऐसे भी हैं जिन्होंने इंजीनियरिंग या मेडिकल की प्रवेश परीक्षा तो पास कर ली है लेकिन उनमें प्रवेश के लिए जरूरी न्यूनतम अंक पाने से चूक गए हैं.

2006 से लेकर 2011 के बीच सिर्फ दो साल ही ऐसे रहे जब इंटर साइंस में पास होने वाले परीक्षार्थियों की संख्या 50 प्रतिशत के करीब थी

इसे लेकर बवाल मचा, हंसी-मजाक भी बनाया गया और झारखंड एकेडमिक काउंसिल यानी जैक, जिसके जिम्मे परीक्षा का संपूर्ण संचालन का जिम्मा होता है, उसे कोसा भी गया. सरकार के खिलाफ बयानबाजी हुई तो राज्य के शिक्षा मंत्री के खासमखासों की ओर से जवाब आया, ‘जान-बूझकर थोड़े ही न किसी को फेल किया गया है, ऐसा होता तो शिक्षा मंत्री के बेटा-बेटी भी कैसे फेल हो जाते!’ जैक की अध्यक्ष व राज्य की पूर्व सचिव लक्ष्मी सिंह तहलका से बातचीत में कहती हैं, ‘यह जो इंजीनियरिंग मेडिकल की प्रवेश परीक्षाएं होती हैं, उसने तो सबसे ज्यादा न्यूसेंस क्रीयेट कर रखा है. इंटर की पढ़ाई होगी नहीं, कोई बच्चा इंटर का कोर्स साल भर  देखेगा नहीं, पढ़ेगा नहीं तो रिजल्ट तो गड़बड़ होगा ही. और उस पर ग्यारहवीं की परीक्षा भी देर से होती है जिससे बारहवीं के लिए पढ़ने का मौका ही नहीं मिलता.’

बात सिर्फ इस साल के रिजल्ट की नहीं है. इस बार जब सोलह सौ नये किस्म के परीक्षार्थी इंटर साइंस में फेल हुए तो पानी सिर के ऊपर से गुजरते हुए दिखने लगा. मगर झारखंड में हो ऐसा वर्षों से रहा है. 2009 में करीब 50 प्रतिशत विद्यार्थी ही इंटरमीडिएट (विज्ञान) में यहां सफल हो सके थे. उसके अगले साल 2010 में रिजल्ट का ग्राफ एक झटके में गिरा. सफल विद्यार्थियों की प्रतिशतता 30 पर पहुंच गई और अब 2011 में दो प्रतिशत की गिरावट के साथ ग्राफ 28 पर पहुंच गया है. सिर्फ तीन साल की ही बात नहीं, अगर उसके पहले के तीन साल को भी शामिल करें तो 2006 से लेकर 2011 के बीच सिर्फ दो साल यानी 2008 और 2009 ही ऐसे रहे जब इंटर साइंस में पास होने वाले परीक्षार्थियों की संख्या 50 प्रतिशत के करीब थी. यह उस शाखा में 12वीं की परीक्षा में सफल विद्यार्थियों का ग्राफ है जो छात्र-छात्राओं और अभिभावकों के बीच सबसे लोकप्रिय है. इंटर के बाद ही करियर की दृष्टि से संभावनाओं के द्वार खुलते हैं, लेकिन झारखंड में संभावनाओं के इस प्रवेश द्वार पर ही आज सबसे ज्यादा ब्रेक लग रहा है.
जैक ऑफिस में चतरा जिले के हंटरगंज से अपने बेटे के साथ पहुंचे एक अभिभावक रामेश्वर राम कहते हैं, ‘हो सकता है शिक्षा मंत्री ने अपनी पहुंच और पैरवी का असर न दिखाया हो लेकिन उनके बाल-बच्चों के फेल होने से हजारों और छात्र-छात्राओं का क्या वास्ता है? मंत्रियों के बेटे-बेटियों के पास तो करियर के हजारों विकल्प हैं, हमारे बच्चों के पास क्या है?’

आठ वर्षों में जिस तेजी से विद्यार्थियों की संख्या में इजाफा हुआ है, उस अनुपात में बजट में इजाफा बिलकुल भी नहीं हुआ है

कोरी बातें

24 जून को केंद्रीय शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल रांची पहुंचकर राजनीति और भ्रष्टाचार के अन्योन्याश्रय संबंधों को स्वीकार कर लेने के बाद शिक्षा के मसले पर शैक्षणिक प्रवचन देते हैं. वे कहते हैं कि शिक्षा का अधिकार लाकर केंद्र सरकार बड़ी क्रांति करने वाली है. हम आइडेंटिफिकेशन नंबर देंगे. तब यह पता चलेगा कि जब कोई बच्चा पांचवीं से छठी में गया तो वह क्या कर रहा है! सिब्बल कुछ घंटे के दौरे पर अपनी बात ही कहने आए थे, इसलिए कहे जा रहे थे. वे आंकड़ों की पोथी लेकर भी आए थे, सो आंकड़ों के हवाले से भी बात की. यह ज्ञानवर्द्धन भी किया कि अभी भारत में 100 में 14 बच्चे ही कॉलेज पहुंच पाते हैं, 2020 तक हम इस संख्या को बढ़ाकर 30 करेंगे. और भी कई आंकड़े बताए. उन आंकड़ों से सुनहरे भविष्य का तानाबाना रचकर शाम को विदा हो गए.

जिस समय सिब्बल यह सब रांची में कह रहे थे, उसी समय रांची के बाहरी हिस्से में बने झारखंड एकेडमिक काउंसिल के भवन के बाहर और अंदर परिसर में सैकड़ों की संख्या में दूर-दराज से आए छात्र अपने अधर में फंसे भविष्य को निकालने की कोशिशों में लगे थे. गिड़गिड़ाने के साथ कई वाक्य एक साथ निकल व आपस में टकरा रहे थे. इंटर का विद्यार्थी दशरथ कहता है – सर, मेरे रिजल्ट में एक भी सब्जेक्ट का मार्क्स नहीं चढ़ा है. प्लीज देख लीजिए न. दो दिन से ऑफिस में आ रहा हूं. सर, आवेदन तो ले लीजिए. बताइए न कब तक मार्क्स का पता चलेगा. एडमिशन का टाइम भी खत्म हो जाएगा. सर, प्लीज थोड़ी सी हेल्प करिए ना. वगैरह-वगैरह. जैक अधिकारियों और कर्मियों से सभी सवालों का एक ही रटा-रटाया जवाब मिलता है- सब कुछ प्रक्रिया से होगा न!
श्रीराम सिंह (रोल नं 10329) केमेस्ट्री में फेल है. उसे 51 नंबर मिले हैं. 24 नंबर प्रैक्टिकल में और 17 नंबर थ्योरी में. यदि 17 की बजाय उसे 18 नंबर मिले होते तो 5 नंबर का ग्रेस मिल जाता और वह सफल हो जाता. वह अपने घर का इकलौता चिराग है. पिताजी खेती करते हैं, बेटे को इंजीनियर बनाना चाहते हैं. लेकिन इस एक नंबर ने सारा खेल खराब कर रखा है. पिंटू, धनंजय, मोहित, रोहन सब के सब एक नंबर से फेल हुए हैं. दीपक को आईआईटी में 264वां स्थान मिला है. उसे 54 प्रतिशत अंक मिले हैं. वह विकलांग है और ग्रामीण इलाके से आता है. बिलख कर रोते हुए वह कहता है, ‘मैं हमेशा अव्वल रहा हूं, इंजीनियर की परीक्षा भी पास कर ली लेकिन सिर्फ एक प्रतिशत की वजह से मेरा सपना अब कभी पूरा नहीं हो पाएगा.’

कुछ अन्य विद्यार्थियों की किस्मत दीपक से भी बहुत बुरी है. इटकी कॉलेज, इटकी की आरती कुमारी को कंबाइंड इंजीनियरिंग परीक्षा उड़ीसा में 1025वीं रैंक मिली है लेकिन झारखंड इंटरमीडिएट बोर्ड की परीक्षा में गणित में उसके सिर्फ 4, और रसायन शास्त्र में शून्य अंक आए हैं. पीकेएम इंटर कॉलेज के मुकेश साहू की भी कंबाइंड इंजीनियरिंग परीक्षा उड़ीसा में 980वीं रैंक है पर झारखंड बोर्ड की परीक्षा के साइंस के सभी विषयों में आश्चर्यजनक रूप से उन्हें एक भी अंक प्राप्त नहीं हुआ है.

लगभग 900 माध्यमिक स्कूलों को ही उत्क्रमित करके हायर सेकंडरी का दर्जा दिया गया. शिक्षक वही रह गए, सुविधाएं वही रहीं लेकिन दर्जा बढ़ गया

दिल्ली से आए सिब्बल सपनों का तानाबाना बुनकर वापस दिल्ली चले जाते हैं. झारखंड के दूर-दराज के इलाकों से पहुंचे सैकड़ों छात्र अपने सपनों को टूटते हुए देखते रहते हैं. और इन दोनों के बीच झारखंड की सरकार जमशेदपुर के उपचुनाव में फंसी रहती है. राज्य के शिक्षा मंत्री बैद्यनाथ राम कहते हैं, ‘हम भविष्य में बदलाव के लिए मजबूत बुनियाद तैयार कर रहे हैं. सरकार बच्चों के भविष्य के लिए चिंतित है, अगली बार से सब कुछ ठीक दिखेगा. मन लगाकर पढाई करो.’ फिर बैजनाथ राम के चट्टे-बट्टे यह बात कहने लगते हैं कि मंत्रीजी ने खुद ही आज लगभग 150 कॉपियों को सरसरी तौर पर देखा है, वे गंभीर हैं, देखिएगा कुछ न कुछ सार्थक होगा. सार्थक क्या होगा, यह ठोस तौर पर बताने वाला कोई नहीं.

झारखंड में ऐसे ही चलता है सब कुछ. यह राज्य ही एक प्रयोगशाला की तरह है. यहां सिब्बल की तरह कई लोग बेमौसमी बरसात करते रहते हैं. यहां की राज्य सरकार हंसुआ की शादी में खुरपी का गीत गाती रहती है. सपनों के सौदागरों का राज्य है यह. इन सबके बीच झारखंड के हजारों छात्र अपने भविष्य को लेकर इधर-उधर मारे-मारे फिर रहे हैं. सब भविष्य में ठीक होने की बात कह रहे हैं लेकिन कोई यह नहीं बता रहा कि अगर वर्तमान की गतिविधियों पर ही भविष्य की बुनियाद टिकी हुई होती है तो वे वर्तमान में करें तो क्या करें!

कोई नीति नहीं है तो दुर्गति तय है !

झारखंड में तरह-तरह की नीतियों को लेकर बहस का दौर चलता रहता है. कभी एमओयू की बाढ़ आती है. कभी एंटी नक्सल मूवमेंट को लेकर दांव-पेंच खेले जाते हैं लेकिन पिछले दस साल में शिक्षा की बद से बदतर होती स्थिति पर सरकारों ने शायद ही कभी गंभीरता से बात की हो. दस साल राज्य बने हो गए, राज्य में शिक्षा नीति नहीं बन सकी. प्राथमिक शिक्षा जिसे प्रारंभिक बुनियाद कहते हैं, उसमें झारखंड  33वें स्थान पर है. बच्चों की शिक्षा और उससे जुड़ी आर्थिक नीति के विषय पर काम करने वाले अनुसंधानकर्ता कुमार संजय कहते हैं, ‘सरकार के पास शिक्षा को लेकर कोई विजन ही नहीं है. वर्ष 2003-04 में सरकार के कुल बजट का लगभग 14 फीसदी शिक्षा के लिए था, वह वर्ष 2010-11 में जरा-सा बढ़कर सिर्फ 17 फीसदी हुआ है. आठ वर्षों में जिस तरह से विद्यार्थियों की संख्या में इजाफा हुआ है, उस अनुपात में बजट में इजाफा कतई नहीं हुआ है.’

कुमार संजय की बातें सही दिशा में जाती हुई दिखती हैं और एक साथ कई सवालों का जवाब भी देती हैं. रिजल्ट के बाद शिक्षा मंत्री और जैक अध्यक्ष लक्ष्मी सिंह, दोनों ही प्रकारांतर से कहते हैं कि परीक्षार्थियों की संख्या भी बढ़ रही है, इसलिए फेल होने वालों की संख्या बढ़ती हुई दिख रही है. यह भी अजीब किस्म की बात है. क्या यह खुश होने वाली बात नहीं है कि राज्य में परीक्षार्थियों की संख्या बढ़ रही है? इस बढ़ोतरी के अनुपात में बजट और जरूरी संसाधन बढ़ाना शायद सबसे सार्थक कदम होता. लेकिन परीक्षा के परिणामों को तर्कसंगत ठहराने की कोशिश की जा रही है. आखिर परीक्षार्थियों की संख्या में बढ़ोतरी से असफल छात्रों की प्रतिशतता में अप्रत्याशित बढ़ोतरी को कैसे जायज ठहराया जा सकता है?

राज्य के 12 जिले शिक्षा के स्तर पर अति पिछड़े हैं. करीब 100 प्रखंडों में कोई सरकारी इंटर कॉलेज नहीं है. कुछ कॉलेजों के भवन हैं लेकिन शिक्षक नहीं हैं

बात इंटर के रिजल्ट की हो रही है, आज चिंता उस पर जताई जा रही है लेकिन बुनियाद इतनी कमजोर पड़ती है यहां कि आगे चलकर वैसे परिणाम आते ही रहेंगे. मसलन एक बात सर्व शिक्षा अभियान की करें. स्कूल चलें हम अभियान के तहत सरकार का दावा है कि उसने रिकॉर्ड संख्या में बच्चों को स्कूल तक पहुंचाया. लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आज भी छह से 14 साल के ढाई लाख से अधिक बच्चे स्कूल की पहुंच से बाहर हैं. कुमार संजय कहते हैं, ‘सरकार बजट में जो चौदह फीसदी में खर्च करती थी, उसमें 78 फीसदी प्राथमिक शिक्षा पर और सिर्फ 20 फीसदी माध्यमिक शिक्षा पर खर्च होता था.’ बजट के ये आंकडे़ भी कुछ हद तक सच्चाई बयान करते हैं. पहले तो पूरा बजट ही कम है उस पर माध्यमिक शिक्षा का बजट तो ऊंट के मुंह में जीरे सरीखा ही है. यानी एक तो बुनियाद ठीक नहीं और फिर ऊपर से संसाधनों का टोटा तो फिर इंटरमीडिएट का रिजल्ट 28 फीसदी न हो तो क्या हो?

बातें और भी हैं. सरकार ने 2005 तक सभी बच्चों  का स्कूलों में नामांकन का लक्ष्य रखा था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. 2010 तक सभी ड्राप आउट बच्चों को स्कूलों में वापस लाना था, यह नहीं हो सका. शिक्षा के प्रति सरकार की मंशा का पता इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 2003-04 में तो समाज कल्याण का 47 फीसदी बजट प्राइमरी और सेकेंड्री एजुकेशन के लिए था लेकिन 2010-11 में यह घटकर 36 फीसदी रह गया है. जब देश भर में शिक्षा की होड़ मची हुई है, रांची निजी स्कूलों का हब माना जाता है और कोचिंग संस्थानों का भी, तब झारखंड में शिक्षा को लेकर सरकारी रवैया ऐसा है. 12वीं का रिजल्ट इन सभी बातों का मिला-जुला परिणाम है. तहलका से बातचीत में पूर्व शिक्षा मंत्री बंधु तिर्की कहते हैं, ‘वर्तमान शिक्षा मंत्री के पास कोई विजन नहीं है. वे न कभी स्कूलों का निरीक्षण करने जाते हैं, न कुछ नया हो रहा है.’ तिर्की गर्व के भाव से कहते हैं कि मैं जब मंत्री था तो स्कूलों में जाता था लेकिन अब सब कुछ विभागीय अधिकारियों पर छोड़ दिया गया है तो उसके परिणाम तो भुगतने ही होंगे. तिर्की आज जब सत्ता में नहीं हैं तो ऐसी बातें कर रहे हैं लेकिन झारखंड में यह हर कोई जानता है कि किस मंत्री के कार्यकाल में शिक्षा विभाग में कैसे-कैसे खेल होते रहे हैं और जैक किस तरह भ्रष्टाचार का अखाड़ा भी बना रहा.

आरोप-प्रत्यारोप लगते रहते हैं, लग रहे हैं लेकिन इस बीच झारखंड में शिक्षा को लेकर कई सवाल हैं, जिन्हें न तो विरोधी पक्ष उठा रहा है और न ही सत्ता पक्ष वाले ही उसे लेकर चिंतित हैं. कारण भी वाजिब हैं, विरोधी दल वाले भी तो जो आज हो रहा है वह कभी कर चुके हैं. झारखंड में स्कूलों-कॉलेजों का अभाव व्यापक पैमाने पर है. स्कूलों पर ही पुलिस और माओवादियों की ताकत दिखाई जाती है. पुलिसवालों का कैंप स्कूल में ही लगता है, माओवादी भी निशाने पर सरकारी स्कूलों को ही लेते हैं. स्कूलों की प्रगति की दशा यह है कि लगभग 900 माध्यमिक स्कूलों को ही उत्क्रमित करके हायर सेकेंडरी का दर्जा दिया गया. शिक्षक वही रह गए, बिल्डिंग और सुविधाएं भी वही रहीं लेकिन दर्जा बढ़ गया. तो नतीजा यह होने लगा कि जिन शिक्षकों को प्राथमिक और माध्यमिक की कक्षा लेने में ही जद्दोजहद का सामना करना पड़ता था, वे उच्च माध्यमिक की कक्षाओं में जाकर पाठ पढ़ाते हैं. सरकार की अगंभीरता का पता इससे भी लग सकता है कि यहां अब तक कोई राज्य शिक्षक सेवा बोर्ड का गठन नहीं हो सका है, जो शिक्षकों की नियुक्ति करता है. झारखंड में एससीइआरटी का गठन नहीं हो सका है, जिसके जिम्मे पाठ्यक्रम तैयार करने का काम होता है. सब कुछ भगवान भरोसे छोड़कर बेहतर परिणाम की उम्मीद की जाती है. शिक्षाविद बीपी केसरी कहते हैं कि नेताओं की प्राथमिकता में शिक्षा है ही नहीं. उन्हें सिर्फ इस बात की चिंता रह गई है कि उनकी जेबें कैसे भरेंगी और अगला चुनाव कैसे जीतेंगे. अगर इस विभाग में भी पैसे का खेल करने को मिलेगा तो वे लोग शिक्षा को प्राथमिकता में शामिल कर लेंगे.

उधर जैक अध्यक्ष लक्ष्मी सिंह कहती हैं, ‘दलालों, कोचिंग संस्थानों और शिक्षकों का ऐसा गठजोड़ कायम हो गया था यहां कि वे मर्जी से सारा खेल करते थे. अब उस पर रोक लगाई जा रही है तो सभी चिल्ला रहे हैं कि यह क्या हो गया!’ लक्ष्मी सिंह पूछती हैं, ‘क्या यह सब एक दिन में ही हो गया. सभी जैक के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं, उनको क्या यह पता नहीं है कि जैक सिर्फ एक एजेंसी भर है, जिसका मुख्य  काम परीक्षा लेना, कॉपियों की जांच करवाना, परिणाम प्रकाशित करना होता है, छात्रों की शैक्षणिक स्थिति सुधरे, शिक्षक नियमित कक्षाएं लें और सभी गुणात्मक शिक्षा की दिशा में कदम उठाएं, इसके लिए समग्रता में शिक्षा विभाग की नीति काम करती है.’ लक्ष्मी सिंह का कहना भी ठीक है लेकिन परीक्षा परिणाम के बाद सबसे ज्यादा नारेबाजी उनके व जैक के खिलाफ ही हो रही है. जानकार मानते हैं कि जैक के खिलाफ आंंदोलन को हवा देने के कई और कारण भी हैं. जैक के मार्फत शिक्षा की दुकानदारी चलाने वाले कई गुटों का वर्चस्व खत्म हुआ है तो जाहिर-सी बात है, वे इस आंदोलन को परवान चढ़ाने का काम करेंगे ही.’

जैक के खिलाफ हमेशा आवाज उठाने वाले माले विधायक विनोद सिंह तहलका से बातचीत करते हुए सवालिया लहजे में कहते हैं, ‘जैक को सरकार की ओर से कोई अनुदान नहीं मिलता और न यहां काम करने वालों को सरकार वेतन देती है तो इतना  तामझाम मेंटेन कैसे होता है? आलीशान भवन कैसे बना? यह सब बच्चों की ट्यूशन फीस, परीक्षा फीस, प्रमाणपत्र आदि के नाम पर वसूली जाने वाली  रकम से होता है.’ विनोद सिंह आगे कहते हैं कि चाहे पूर्व शिक्षा मंत्री प्रदीप यादव हों या बंधु तिर्की सबने मनमाने ढंग से अपने-अपने लोगों की जैक में नियुक्तियां करवाई हैं. वे अपने हिसाब से उनसे काम भी करवाते रहे हैं. अब जब उसके परिणाम पराकाष्ठा की ओर दिखने लगे हैं तो सबको चिंता हो रही है.

विनोद सिंह जो कह रहे हैं उसे दूसरे रूपों में भी समझा जा सकता है. शिक्षा की स्थिति दिन-ब-दिन बद से बदतर होती गई लेकिन इस पर कभी कोई गंभीर बहस नहीं हुई. कोई बडा राजनीतिक आंदोलन नहीं चला. विनोद सिंह के मुताबिक राज्य की शिक्षा के स्तर पर यूजीसी का कहना है कि झारखंड के 24 में से 12 जिले ऐसे हैं जो शिक्षा के स्तर पर अति पिछड़े हैं. लगभग 100 प्रखंड ऐसे हैं जहां कोई भी सरकारी इंटरमीडिएट कॉलेज नहीं है. कुछ नये कॉलेजों के भवन तो तैयार हो गए हैं लेकिन वहां न कोई शिक्षक हैं न पढ़ाई की ही शुरुआत हुई है. शिक्षकों के अभाव में 1000-2000 रुपये देकर किसी को भी पढ़ाने का जिम्मा दिया जा रहा है. पूरी शिक्षा प्रणाली ही आज ठेके पर चल रही है. आने वाले समय में राज्य में 40 मॉडल स्कूल खुलने वाले हैंैं. इनके लिए 90 फीसदी अनुदान केंद्र सरकार से मिलेगा पर इसे चलाने के लिए फिर वही ठेका नीति अपनाई जाएगी. राज्य में कस्तूरबा विद्यालय, मॉडल स्कूल या ऐसे विद्यालय जिन पर सरकार गर्व करती है, ठेके पर ही हैं. तो फिर ऐसे में शिक्षा का क्या होगा?

आज रिजल्ट के बहाने रिजल्ट की बात की जा रही है, लेकिन समग्रता में शिक्षा की बात कोई नहीं कर रहा. यह कोई नहीं पूछ रहा कि पहले स्कूलों में मॉडल टेस्ट पेपर भी सरकार की तरफ से दिए जाते थे. लेकिन बाद में ऐसा करना बंद कर दिया गया. तब जिन बच्चों के पास पुस्तकें उपलब्ध नहीं हो पाती थीं वे इन्हें पढ़कर कम से कम पास हो जाते थे. इंटर की कक्षाओं में अलग-अलग संकाय में करीब 84 विषय व मैट्रिक में 24-25 विषय हैं पर इतने सारे विषयों के लिए न तो शिक्षक उपलब्ध हैं और न ही किताबें.

फिलहाल नया खेल यह है कि कॉपियों की विशेष स्क्रूटनी करवाई जा रही है जिसमें यह बात खुलकर सामने आई है कि पास विद्यार्थी को फेल और फेल को पास कर दिया गया है. वैसे तो काउंसिल अपनी गलतियों को छिपाने के लिए अधिकतर के अंकों में कोई बदलाव नहीं कर रही है लेकिन कुछ लोगों को स्क्रूटनी कराना महंगा भी पड़ा है. मसलन रोल नं 40071 को गणित में 35 अंक मिले थे जिन्हें घटाकर 12 कर दिया गया है और भौतिकी के 30 को 23 कर दिया गया. हालांकि कुछ ऐसे भी हैं जिनके नंबर बढ़े हैं. जैसे रोल नं 10537 को सीएमएस में पहले 34 अंक की जगह अब 54 अंक मिल गए हैं. इसी विषय में रोल नं 10349 को 06 के बदले 26 अंक मिले हैं.

इस तरह के रवैये पर राज्य के शिक्षा मंत्री का कहना है कि कॉपी जांचने में सख्ती बरती गई है और स्क्रूटनी से सच्चाई सामने आ गई है. पास करने लायक बच्चे पास होंगे ही, लेकिन पास बच्चों को फेल करने का कोई औचित्य नहीं है. इस तरह की घटना के बाद पूर्व शिक्षा मंत्री बंधु तिर्की को राजनीति करने का मुद्दा मिल गया है और वे मांग कर रहे हैं कि काउंसिल को सुपरसीड करके दोषियों पर कार्रवाई की जाए.

राजनीति होती रहेगी लेकिन बच्चों के भविष्य के साथ खेल करने वालों को नहीं बख्शा जाना चाहिए. छात्र नेता नाजिया कहती हैं कि आखिर सरकार को और कितने प्रमाण चाहिए. विशेष स्क्रूटनी ने कॉपियों की जांच में गड़बड़ी को खोल कर रख दिया है. 

साधो, वश नहीं भीड़ पर

रामदेव और उनके अनुयायियों के साथ पिछले महीने दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई सरकारी ज्यादती के प्रसंग में गांधी का व्यक्तिगत सत्याग्रह अनायास ही याद आ जाता है. राजसत्ता के पास युगों से भय, लालच और दंड नामक तीन अचूक अस्त्र रहे हैं, जिनका प्रयोग वह स्वयं को किसी भी शर्त पर कायम रखने के लिए आज भी बेहिचक करती है. बाबा रामदेव के पीछे उमड़ती-घुमड़ती भीड़ से भयातुर होकर दिल्ली की सत्ता ने ये तीनों हथियार बारी-बारी से चलाए और बाबा रामदेव भले ही इनके मारक प्रभाव से पूरी तरह भूलुंठित नहीं हुए हों, लेकिन घायल अवश्य हुए हैं. उनका तिलमिलाना, रो पड़ना और हुंकार भरना यही सिद्ध करता है.
आधी शताब्दी के प्रयोगों के बाद गांधी ने सत्ता के इन तीन अवैध हथियारों से निपटने का एक नुस्खा निकाला था, जिसमें वे सफल हुए और अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ी. वह था व्यक्तिगत ‘सत्याग्रह’ का कवच जिसके सामने अंग्रेजों के सारे आयुध भोथरे सिद्ध हुए थे.

मंत्रमुग्ध भीड़ को वे पहले अहिंसा के आयुध से लैस करके सत्याग्रह के महायुद्ध में पारंगत तो करें

1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में गांधी ने जब व्यक्तिगत सत्याग्रह की घोषणा की तो सारा देश चौंक उठा था. उस समय गांधी की स्वीकार्यता चरम पर थी. देश के किसी भी कोने से लगी उनकी एक हांक बगैर किन्हीं प्रचार माध्यमों के आनन-फानन देश भर में कौंध जाती थी. उनके एक इंगित पर देश के करोड़ों लोगों का एक साथ खड़ा होना बहुत स्वाभाविक, बल्कि अवश्यंभावी ही था. अंग्रेजों ने निषेधाज्ञा जारी की थी कि आंदोलन के नाम पर किसी भी सार्वजनिक स्थल पर चार या उससे अधिक व्यक्ति साथ इकट्ठा नहीं हो सकते.  इस पर गांधी का उत्तर था कि चार भी क्यों, दो व्यक्तियों को भी आंदोलन के लिए एक जगह पर इकट्ठा होने की भी जरूरत नहीं है. गांधी ने  ‘व्यक्तिगत सत्याग्रह’ का आह्वान किया. अर्थात हर व्यक्ति अकेले सत्याग्रह करेगा. उनकी दूसरी चौंकाने वाली घोषणा पहले व्यक्तिगत सत्याग्रह के रूप में विनायक नरहरि भावे (विनोबा) को चुनने की थी. तब तक प्रकारांतर से गांधी स्वयं ही जवाहर लाल नेहरू को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी चुन चुके थे. विनोबा का नाम तब तक लगभग अनचीन्हा-सा था. इसलिए गांधी की इन दोनों घोषणाओं पर अंग्रेजों समेत पूरे भारत का चौंकना स्वाभाविक ही था. लेकिन गांधी ने यह हथियार इतिहास का गहन उत्खनन करने के बाद हासिल किया था, इसलिए इसकी सफलता के प्रति वे पूरी तरह से आश्वस्त थे. इससे सदियों पहले ईसामसीह और सुकरात ‘व्यक्तिगत सत्याग्रह’ के सफल प्रयोग कर चुके थे.

जब सारा देश गांधी के साथ खड़ा था तब उन्होंने मजमा जुटाने की बजाय लाखों की अंग्रेज फौज के मुकाबले एक व्यक्ति को क्यों चुना? यह बाबा रामदेव के संदर्भ में फिर से विश्लेषण करने योग्य प्रश्न है. बाबा रामदेव के पास निस्संदेह अनुयायियों की भारी भीड़ है, लेकिन गांधी के मुकाबले तो नहीं हो सकती. गांधी जानते थे कि उद्वेलित, उत्तेजित, आतुर और मुग्ध भीड़ अपने नायक के वश में भी नहीं रहती. यह उदाहरण गांधी चौराचौरी की  सामूहिक हिंसा की घटना के रूप में देख चुके थे और हमारी पीढ़ी के लोग 20 साल पहले बाबरी विध्वंस के मामले में देख चुके हैं. बाबा रामदेव के भगवा ध्वज तले हजारों की भीड़ जुट चुकी थी, और लाखों की जुटने वाली थी. लेकिन आरोग्य का महामंत्र बांट कर लोकप्रिय हुए बाबा के आभामंडल से खिंचकर आए वे लाखों लोग राजनीतिक रूप से इतने परिपक्व होंगे कि अपने आवेश और उकताहट को दबा कर भी अनुशासित बने रहेंगे, यह कौन जान सकता है?

व्यक्तिगत सत्याग्रही के रूप में नेहरू की बजाय विनोबा को चुनने  के पीछे भी गांधी की सुविचारित और सुपरीक्षित रणनीति थी. विनोबा एक ऐसे संन्यासी थे, जो भगवा न पहनते हुए भी सांसारिक राग-द्वेषों से मुक्त थे और संन्यासी होते हुए भी एक व्यावहारिक व्यक्ति थे. क्रिकेट खिलाड़ियों और फिल्मी सितारों के पीछे आनन-फानन अपार भीड़ जुट जाती है. वे अपनी लोकप्रियता के सहारे किसी भी कथित आंदोलन का बवंडर खड़ा कर सकते हैं. लेकिन दिशाहीन तथा मंत्रमुग्ध जन समूह का वह बवंडर क्या-क्या ध्वस्त करेगा, यह  कोई नहीं जानता. कहने का आशय यह नहीं कि बाबा चूंकि योग-ध्यान साधना के विशेषज्ञ हैं इसलिए उन्हें भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे नहीं उठाने चाहिए. बल्कि बढ़-चढ़ कर उठाने चाहिए. लेकिन अपने योग से मंत्रमुग्ध भीड़ को वे पहले अहिंसा के आयुध से लैस करके सत्याग्रह के महायुद्ध में पारंगत तो करें. 11,000 युवकों को शस्त्र और शास्त्र से लैस करने की उनकी घोषणा भी चिंतातुर करने वाली है. यदि वे सचमुच ऐसा करते हैं, तो किसी भी सरकार को अपने खिलाफ हिंसा करने का एक सहज अवसर प्रदान करेंगे.
भ्रष्टाचार से इस समय सारा देश इसी तरह अकुलाया हुआ है, जैसे हम गर्मी से अकुलाते हैं. गर्मी बढ़ाने के लिए जो लोग जिम्मेदार होते हैं वे भी उससे परेशान होते हंै. जाने-अनजाने भ्रष्टाचार को सींचने वाले लोग भी भ्रष्टाचार से अघाए हुए हैं. ऐसे में भ्रष्टाचार को एक राष्ट्रव्यापी लेकिन अमूर्त मुद्दा बनते देर नहीं लगती. लेकिन भ्रष्टाचार के दानव से लड़ने के लिए आनन-फानन अनगिनत लोग झंडों-डंडों से लैस होकर सड़कों पर उतर आते हैं. कुछ दिनों में झंडे तो फट जाते हैं, सिर्फ डंडे बच जाते हैं, जो क्लेश का कारण बनते हैं.

नेहरू की बजाय विनोबा को पहला सत्याग्रही चुनने का गांधी का फैसला अब इतिहास की नजीर बनकर बाबा से प्रश्न कर रहा है कि संघ परिवार उनके यज्ञ में हवन समिधा डालने क्यों और कैसे आतुर सक्रियता के साथ कूद पड़ा है. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक और भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी उनके यज्ञ में प्रमुख यजमान कैसे बन गए? और वे जब अपनी राजनीतिक कामनाओं के संकल्पों के साथ उनके यज्ञ-हवन कुंड में  समिधा डालेंगे तो लपलपाती अग्नि जिह्वाएं किसे जलाएंगी और किसे बचाएंगी?

राजीव नयन बहुगुणा, वरिष्‍ठ पत्रकार

सत्ता के खेल में पत्ते पीसती पीस पार्टी

अगर आप सचमुच भारतीय राजनीति के दांव-पेंच देखना चाहते हैं तो उत्तर प्रदेश से बढ़िया जगह भला क्या होगी. और इसकी शुरुआत करने के लिए यह अच्छा वक्त भी है. अगले साल इस राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं और ऐसे में स्वाभाविक ही है कि इन दिनों यहां सियासी समीकरण कई तरह से बदलते हुए दिख रहे हैं. मेल-मुलाकातें हो रही हैं, बातचीत के दौर चल रहे हैं और अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए हरसंभव जगह तलाशी और बनाई जा रही है.  

पिछला पखवाड़े का एक दिन. गोरखपुर स्थित एक अस्पताल का छोटा-सा कमरा. बेड पर एक सज्जन लेटे हैं. उनके पैरों में प्लास्टर लगा है और हाथ में ड्रिप. उनका नाम है डॉक्टर मोहम्मद अय्यूब. 56 साल के अय्यूब पीस पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष हैं. उन्हें जो चोटें आई हैं वे उनकी पार्टी के मुताबिक अय्यूब की हत्या के प्रयास का नतीजा हैं. पार्टी का आरोप है कि यह कोशिश कुछ अज्ञात राजनीतिक दुश्मनों ने की थी जो पीस पार्टी को कामयाब होते नहीं देखना चाहते.

‘सभी दलों के प्रमुख लोगों, विधायकों, सांसदों और न्यायाधीशों का नारको टेस्ट होना चाहिए’

2008 में वजूद में आने के बाद पीस पार्टी ने कई बार लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है. पार्टी जिस अंदाज में काम कर रही है उसे देखकर लगता है कि वह बसपा सुप्रीमो मायावती के तरकश से ही एक तीर लेकर उसे वापस उनकी तरफ चलाने वाली है.
पार्टी कार्यकर्ता कहते हैं कि पीस पार्टी दबे-कुचले लोगों की नयी आवाज बनेगी. उनके मुताबिक मुख्य तौर पर यह पार्टी उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय यानी मुसलमानों के मुद्दे उठाएगी. लेकिन यह कोई इस्लामिक पार्टी नहीं है. जो गरीब ब्राह्मण भाजपा द्वारा ठगे गए हैं उनका भी इसमें स्वागत है. बनिया समुदाय के लोग तो इस पार्टी के सदस्य भी हैं और टिकट पाने की होड़ में भी शामिल हैं.

इस लिहाज से पीस पार्टी का उदय एक दिलचस्प घटना लगता है. कुछ समय पहले इसने उत्तर प्रदेश में हुए दो उपचुनाव लड़े. दोनों में यह हार गई. पार्टी ने 2009 के लोकसभा चुनाव में भी अपने उम्मीदवार उतारे थे. पार्टी के लोग गर्व से बताते हैं कि तीन साल की छोटी अवधि में ही उन्हें वोट काटने वाली पार्टी कहा जाने लगा है. सुनकर हैरानी होती है. मगर पीस पार्टी के पास इसका जवाब है. अगर आपकी पार्टी कुछ सीटों पर दूसरे, तीसरे या चौथे स्थान पर है तो इसका मतलब यह है कि आप राजनीति की सीढ़ी पर ऊपर चढ़ रहे हैं. यानी हम सीटों को लेकर मोलभाव करने की स्थिति में हैं. वाराणसी में हमें मिले पार्टी के एक नेता बताते हैं, ‘कुछ सीटों पर हम उन्हें अपने वोट देंगे और कुछ सीटों पर वे अपने वोट हमें दें. इस तरह अगले चुनाव में दोनों पार्टियों के लिए संभावनाएं कहीं बेहतर होंगी.’

इस गुणा-भाग में कोई नयी बात नहीं है. दिलचस्प यह है कि एक नयी पार्टी यह पुराना फॉर्मूला अपना रही है–यानी हर सीट को जातिगत और धार्मिक समीकरणों के हिसाब से देखना और उसके बाद तय करना कि कहां जीत की संभावनाएं ज्यादा हो सकती हैं. इसके बाद दूसरी पार्टियों में खारिज नेताओं को खुद से जोड़कर असंतुष्टों का एक सम्मिलित वोट बैंक हासिल करना. इसलिए स्वाभाविक ही है कि पीस पार्टी का एक तिहाई हिस्सा बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के असंतुष्टों से मिलकर बना है. ये ऐसे लोग हैं जिनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के पर उनकी पार्टी ने कतर दिए. पार्टी का दूसरा एक तिहाई हिस्सा ऐसे लोगों का है जो सामाजिक तौर पर पिछड़े हुए हैं. इनमें गरीब ब्राह्मण, पिछड़ी जातियां और मुसलिम समाज के लोग शामिल हैं.

डिस्पोजेबल सिरिंज कारोबार के बड़े खिलाड़ी डॉ अय्यूब की पीस पार्टी ने उन पुराने नेताओं को भी अपने साथ जोड़ने का काम किया है जो उत्तर प्रदेश की राजनीति में हाशिये पर हैं. इनमें इंडियन जस्टिस पार्टी के अध्यक्ष उदित राज शामिल हैं. कौमी एकता दल के मोहम्मद अंसारी भी हैं. कुछ समय पहले अंसारी बंधुओं ने सपा का साथ छोड़ बसपा से नाता जोड़ा था लेकिन वहां से भी बाहर निकाल दिए गए. पीस पार्टी के गठजोड़ में रामविलास पासवान और अजीत सिंह जैसे प्रमुख नेता भी हैं. आठ दलों के इस गठबंधन की योजना राज्य की सभी 403 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की है. पीस पार्टी का दावा है कि इनमें से कम से कम आधी सीटों पर वह खुद चुनाव लड़ेगी.

कहा जा रहा है कि ऐसे में पीस पार्टी प्रदेश में कई राजनीतिक पार्टियों का समीकरण बिगाड़ सकती है. राज्य में पहले से ही सपा, बसपा, भाजपा और कांग्रेस के रूप में चतुष्कोणीय मुकाबला है.  पीस पार्टी के पास भविष्य के लिए कुछ दिलचस्प योजनाएं हैं. अय्यूब कहते हैं, ‘मेरे अभियान का प्रमुख मुद्दा भ्रष्टाचार-मुक्त समाज के लिए संघर्ष करना है.’ उनकी खासियत उनके तरीके में है. वे कहते हैं, ‘मैंने अन्ना हजारे और बाबा रामदेव से काफी पहले भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए अपना समाधान रखा था. कठोर कदम उठाने की जरूरत है. सभी राजनीतिक दलों के प्रमुख लोगों, विधायकों, सांसदों और न्यायाधीशों का नारको टेस्ट होना चाहिए. इंजेक्शन लगाने के बाद व्यक्ति खुद ही एक घंटे तक सच बोलता है. इसलिए सभी नेताओं को नारको टेस्ट से गुजारा जाए और उनसे सवाल-जवाब किए जाएं. वे खुद ही सच बोलेंगे.’ उनके पास कुछ और योजनाएं भी हैं. उनका कहना है कि मुसलमानों की हालत सुधारने के लिए दो सरकारी समितियों की सिफारिशों को लागू किया जाए. बात सच्चर और रंगनाथ समिति की सिफारिशों की हो रही है. पार्टी प्रवक्ता एमजे खान कहते हैं, ‘मुसलिम नौजवान मौलानाओं और उलेमाओं से खुद को नहीं जोड़ पाते. वे शाहरुख खान और डॉ अय्यूब जैसे लोगों से जुड़ जाते हैं.’

हम उनसे पूछते हैं कि मतदाता उन पर क्यों यकीन करेंगे तो उनका जवाब आता है, ‘यह पेशेवर लोगों की पार्टी है. डॉ. अय्यूब के पास सर्जरी की मास्टर डिग्री है. आईएएस और आईपीएस अधिकारी पार्टी के सदस्य हैं. हम सब शिक्षित लोग हैं जो वंचित के लिए काम कर रहे हैं.’

फंडिंग के बारे में पार्टी के वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘उम्मीदवार को अपने अभियान के खर्च की व्यवस्था खुद ही करनी होगी.’ तो इसका मतलब यह नहीं हुआ कि वंचित लोग चुनाव नहीं लड़ पाएंगे? इस पर वे कहते हैं, ‘अपनी भलाई के लिए उन्हें अमीर उम्मीदवारों पर भरोसा करना होगा.’  पार्टी प्रवक्ता खान कहते हैं, ‘देखिए, पीस पार्टी वोट इधर से उधर कर सकती है. अगर कोई ब्राह्मण उम्मीदवार है तो हम ब्राह्मण वोटों को इधर से उधर कर सकते हैं. जीत के लिए हम यह उम्मीद करते हैं कि 25 फीसदी वोट उस समुदाय का मिल जाए और इसमें हमारे समुदाय का 75 फीसदी वोट जुड़ जाए. यही फॉर्मूला बसपा का है. फर्क बस इतना है कि हमारे समुदाय के लोगों की संख्या उस समुदाय के लोगों से ज्यादा है जिसकी नुमाइंदगी मायावती करती हैं.’

अय्यूब की जान लेने की साजिश के बारे में पार्टी कार्यकर्ताओं का दावा है कि जब वे गोरखपुर जिले में पार्टी के बड़हलगंज कस्बे में लौट रहे थे तो उन्होंने देखा कि कोई कार उनका पीछा कर रही है. वह कार आगे निकली और उसने अय्यूब की कार के आगे अचानक ब्रेक मार दिए. कार्यकर्ताओं के मुताबिक इससे कार का संतुलन गड़बड़ाया और पीछे चल रही पार्टी की गाड़ियां एक-दूसरे से टकरा गईं. अय्यूब और उनके समर्थकों ने राज्य सरकार से विशेष सुरक्षा की मांग की है. मांग नहीं माने जाने पर उन्होंने इस मसले को अपने राजनीतिक अभियान का हिस्सा बना लिया है. उत्तर प्रदेश में पीस पार्टी के कार्यकर्ता जोर देकर कहते हैं कि क्या अय्यूब जैसे नेता को विशेष सुरक्षा नहीं मिलनी चाहिए जो खुद डॉक्टर व राजस्व सेवा का अधिकारी रहा है? जिसने एक अस्पताल बनवाया और अपनी जिंदगी देश को समर्पित कर दी? देखना दिलचस्प होगा कि जनता उनके सवालों का क्या जवाब देती है. 

भययुक्त उत्तर प्रदेश

‘बहुजन समाज पार्टी की पूर्ण बहुमत से सरकार बनवाने के लिए उत्तर प्रदेश की महान जनता को धन्यवाद. जिसने भय, आतंक और जंगल राज समाप्त करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है. जनता को अहसास है कि वे अब सुरक्षित हैं और राहत की सांस ले सकते हैं’, मई 2007 को चौथी बार देश के सबसे बड़े सूबे की मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद ये शब्द मुख्यमंत्री मायावती ने जनता को संबोधित करते हुए कहे थे. आज स्थितियां एकदम उलट हैं. गाजियाबाद से लेकर गोरखपुर तक अकेले जून, 2011 में ही दो दर्जन से अधिक ऐसी घटनाएं हुईं जिनमें महिलाओं के साथ-साथ नाबालिग बच्चियों की आबरू भी तार-तार हुई. कुछ को अपनी जान तक गंवानी पड़ी. खाकी से लेकर खादी तक दागदार हुई. जिन तीन चीजों (भय, आतंक और जंगलराज) को मिटाने का दावा करके मायावती 2007 में लखनऊ की सत्ता पर काबिज हुई थीं वही तीन चीजें उनके शासन के अंतिम साल में उनकी पहचान बन गई हैं. आज कानून-व्यवस्था की हालत बेहद लचर है और सरकार इस पर काबू पाने में खुद को असमर्थ पा रही है. लिहाजा चुनावी दृष्टि से  महत्वपूर्ण समय में अपनी साख बचाने के लिए मुख्यमंत्री मायावती अपराध दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता में बदलाव करने की बात कर रही हैं. वे महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों को दुर्भाग्यपूर्ण बता रही हैं और इनके लिए खेद भी जता रही हैं.

मुख्यमंत्री जिस दिन महिलाओं के साथ हुई घटनाओं पर प्रदेश की जनता से दुख व्यक्त करते हुए नियम-कानूनों को और सख्त बनाने की अपनी मंशा जाहिर कर रही थीं उसी 21 जून की रात को बिजनौर से उनके विधायक शहनवाज राणा के भाइयों पर मुजफ्फरनगर में दिल्ली की दो युवतियों का अपहरण करके उनके साथ दुराचार का प्रयास करने के आरोप लगे. घंटों तक दोनों युवतियों को राणा के परिजनों और अंगरक्षकों ने बंधक बनाए रखा. महिलाओं के खिलाफ बलात्कार की ताबड़तोड़ घटनाओं से चौतरफा आलोचनाएं झेल रही मायावती को अपने विधायक को निलंबित करना पड़ा. देश के इतिहास में शायद यह पहली सरकार है जिसमें शामिल दर्जन भर से ज्यादा मंत्री और विधायक बलात्कार और हत्या के आरोपित हैं या सजा काट रहे हैं.

कभी अधिकारियों के बीच खौफ का पर्याय रही मायावती आज कानून-व्यवस्था के मामले में पूरी तरह से अक्षम साबित हो रही हैं

2007 के विधानसभा चुनाव में जब बसपा ने पूर्ण बहुमत हासिल किया था तब उसका चुनावी नारा था ‘चढ़ गुंडन की छाती पर, मुहर लगाओ हाथी पर’. आज मायावती के विरोधियों ने इस नारे को सर के बल खड़ा कर दिया है – ‘गुंडे चढ़ गए हाथी पर, गोली मारें छाती पर’. विरोधियों के इन आरोपों का जवाब मुख्यमंत्री अपने इस बयान से देती हैं कि हाल की कुछ घटनाओं में उनकी पार्टी को बदनाम करने के लिए विरोधियों की राजनीतिक साजिश नजर आती है. मुख्यमंत्री यह कहना भी नहीं भूलतीं कि पूर्ववर्ती सरकारों और विशेष रूप से सपा के शासन काल के दौरान महिलाओं, दलितों, पिछड़ों सहित सर्वसमाज के कमजोर व गरीब वर्ग के खिलाफ जुल्म की कोई सुनवाई नहीं होती थी. कानून-व्यवस्था के नाम पर चार साल तक चुप्पी साधे रहने के बाद मुख्यमंत्री का यह बयान केवल उनके खुद के दिल को ही बहला सकता है. असलियत तो यह है कि बिना नागा लगातार घट रही घटनाएं, उन पर मुख्यमंत्री का खेद जताना और कानूनों में बदलाव जैसे बड़े कदम उठाने की बात करना ही इस बात की पुष्टि करते हैं कि स्थितियां अब काबू से बाहर जा चुकी हैं.

यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि कानून-व्यवस्था को संभालने की जिम्मेदारी जिस गृह विभाग के पास है उसकी मुखिया स्वयं मुख्यमंत्री ही हैं. कभी अपनी प्रशासनिक धमक के कारण अधिकारियों के बीच खौफ का पर्याय रही मायावती आज कानून-व्यवस्था के मामले में पूरी तरह से अक्षम साबित हो रही हैं. अवकाशप्राप्त आईपीएस अधिकारी श्रीराम अरुण कहते हैं, ‘सरकार ने 2007 के बाद से पुलिस विभाग में इतने अधिक प्रयोग कर डाले हैं कि पूरा सिस्टम ही एक तरह से छिन्न-भिन्न हो गया है. विभाग में एक तरह की दुविधा का माहौल है. पहले जोन स्तर पर आईजी का पद होता था जिस पर वरिष्ठ आईपीएस स्तर का अधिकारी नियुक्त होता था. कई जिलों के कप्तान और उसके अधीन आने वाले डीआईजी हर मामले में उसके प्रति जवाबदेह होते थे. इस व्यवस्था को खत्म कर दिया गया.’ एक आईपीएस अधिकारी बताते हैं,  ‘आगरा, मेरठ, लखनऊ, गोरखपुर सहित कई बड़े शहरों में डीआईजी का पद समाप्त कर डीआईजी स्तर के अधिकारियों को ही एसएसपी का चार्ज दे दिया गया. बड़े शहरों के लिए एसपी (लॉ ऐंड ऑर्डर) का अलग से पद बना दिया गया जिससे कई बार जिले में एक ही रैंक व पद के दो अधिकारियों की तैनाती से आईपीएस अधिकारियों के बीच मनमुटाव की स्थिति भी पनपी.’ सूत्र बताते हैं कि थाने से लेकर एसपी स्तर तक के अधिकारियों की नजदीक से निगरानी का जिम्मा जिस आईजी के पास होता था उसे समाप्त किए जाने के बाद पुलिस-कर्मियों में एक तरह की निरंकुशता और उदासीनता देखने को मिली है.

एक पूर्व डीजीपी कहते हैं, ‘पुलिस विभाग का केंद्रीकरण कानून-व्यवस्था के पंगु होते जाने की सबसे बड़ी वजह है.’ वे कहते हैं, ‘पहले इंस्पेक्टर का तबादला कप्तान और सीओ से लेकर आईजी स्तर के अधिकारियों का तबादला डीजीपी के हाथ में ही होता था. लिहाजा निचले स्तर पर अधिकारी भी इस बात से डरते थे कि यदि उनकी कोई शिकायत ऊपर होती है तो कार्रवाई होगी. लेकिन अब ऐसा नहीं है. जिला स्तर पर तैनात पुलिस अधिकारियों को भी हटाने का अधिकार डीजीपी के पास नहीं बचा है. तबादलों में सरकार के चहेते चंद अधिकारियों की ही सुनी जा रही है, जिसका नतीजा है कि सभी बेलगाम हो गए हैं.’

जो मामले जिला या मंडल स्तर पर निपटाए जा सकते थे उनमें सर्वोच्च पुलिस अधिकारियों और मुख्यमंत्री तक को मोर्चा संभालना पड़ रहा है

पुलिसवालों के मनमानेपन का प्रमाण हाल ही में डीजीपी की एक बैठक में भी देखने को मिला. सूत्र बताते हैं कि कुछ दिनों पूर्व राज्य के डीजीपी जिले के कप्तानों के साथ मीटिंग कर रहे थे. एक जिले के कप्तान की शिकायत मिली थी कि उन्होंने एक दागी इंस्पेक्टर को विशेष जांच दल का प्रभारी बना दिया है. इस मामले में जब डीजीपी ने जब उक्त आईपीएस की खिंचाई शुरू की तो उन अधिकारी महोदय का का कहना था कि इंस्पेक्टर की तैनाती सत्ता से करीबी रखने वाले एक विधायक के कहने पर की गई है. इतना ही नहीं डीजीपी की डांट से खफा उक्त आईपीएस अधिकारी ने भरी मीटिंग में यहां तक कह दिया कि जो करना हो कर लीजिए लेकिन इस तरह की शब्दावली का प्रयोग न करिए. मीटिंग में एक जूनियर आईपीएस का डीजीपी के प्रति ऐसा बर्ताव देख कर वहां मौजूद दूसरे अधिकारियों को लगा कि शाम तक इसकी पोस्टिंग किसी महत्वहीन पद पर कर दी जाएगी लेकिन तबादला तो दूर डीजीपी दबंग आईपीएस से स्पष्टीकरण तक नहीं ले सके.

चंद पुलिस अधिकारी व्यक्तिगत तौर पर सरकार के प्रति कितने निष्ठावान हैं इसका उदाहरण 26 जून की देर रात राजधानी लखनऊ में उस समय भी देखने को मिला जब एएसपी बीपी अशोक आईबीएन चैनल के पत्रकार शलभ मणि त्रिपाठी को उनके कार्यालय के बाहर से यह कहकर हजरतगंज थाने उठा ले गए कि वे सरकार के खिलाफ काफी खबरें दिखा रहे हैं. इससे खफा पत्रकारों ने जब आधी रात को मुख्यमंत्री बंगले की ओर कूच किया तो सरकार को सफाई देनी पड़ी कि उक्त पत्रकार और एएसपी के मामले से सरकार का कोई लेना-देना नहीं है. मामला सीधे तौर पर सरकार और मीडिया से जुड़ा था लिहाजा बिना देर किए सरकार ने उक्त एएसपी व एक सीओ को निलंबित कर दिया.

राज्य में पुलिस की निरंकुशता का यह आलम है कि जो जनप्रतिनिधि राज्य सत्ता के केंद्र तक अपनी जबर्दस्त पहुंच नहीं रखता है या फिर सत्ताधारी पार्टी से नहीं है उसकी भी इस सरकार में सुनवाई मुश्किल से ही होती है. दो साल पूर्व सभी जिलों को शासन स्तर से यह निर्देश दिया गया था कि हर थाने पर इलाके के जनप्रतिनिधियों से संबंधित पट्टिका लगाई जाए और थाना प्रभारी उनकी गरिमा को ध्यान में रखकर वरीयता के आधार पर उनकी समस्याओं का निराकरण करें. सरकार को ऐसा हास्यास्पद फरमान इसलिए जारी करना पड़ा था कि विपक्ष के साथ-साथ उनकी अपनी पार्टी के लोगों ने भी मायावती तक यह शिकायत पहुंचाई थी कि थाने में उनकी सुनवाई नहीं हो रही.

पुलिस पर स्वाभाविक अंकुश की कमी का फायदा जब सामान्य अपराधी उठा रहे हैं तो इस तरह की प्रवृत्ति वाले सत्तासीन लोगों को भला कौन रोक सकता है. पिछले कुछ सालों के दौरान हुई घटनाओं से इस बात की पुष्टि होती है.  इंजीनियर मनोज गुप्ता हत्याकांड के बाद थानाध्यक्ष होशियार सिंह ने आरोपित बसपा विधायक शेखर तिवारी के पक्ष में पूरा मामला निपटाने का प्रयास किया और खुद ही शव जिला अस्पताल में छोड़ कर गायब हो गया. हाल ही में अदालत ने तिवारी के साथ सिंह को भी दोषी करार दिया है. बांदा में दुराचार की शिकार शीलू को पुलिस ने बसपा विधायक पुरुषोत्तम द्विवेदी के घर से मोबाइल चोरी के आरोप में जेल भेज दिया था. हद तो तब हो गई जब कैबिनेट सेक्रेटरी शशांक शेखर सिंह ने बिना देर किए विधायक को निर्दोष करार दे दिया. चौतरफा दबाव के बाद मुख्यमंत्री को अपने ही कैबिनेट सेक्रेटरी के बयान का खंडन करते हुए विधायक को बलात्कार का आरोपित मानना पड़ा. मुख्यमंत्री को यह सफाई तब देनी पड़ी जब हाई कोर्ट ने खुद शीलू को रिहा करने का निर्देश दिया.

इन घटनाओं से साफ होता है कि पुलिस किस तरह मनमानी कर रही है. जो मामले जिला या मंडल स्तर पर निपटाए जा सकते थे उनसे निपटने के लिए बार-बार लखनऊ में बैठे सर्वोच्च पुलिस अधिकारियों और मुख्यमंत्री तक को मोर्चा संभालना पड़ रहा है. इसका एक उदाहरण लखीमपुर के निघासन थाने में नाबालिग लड़की सोनम के साथ कथित दुराचार और हत्या को आत्महत्या बनाने की कोशिश का है. घटना पर जबर्दस्त शोर मचने के बावजूद जिला स्तर पर कुछ न किए जाने की हालत में खुद मुख्यमंत्री और पुलिस महानिदेशक को हस्तक्षेप करना पड़ा.

आखिर ऐसी स्थितियां बनी क्यों? इसके जवाब में कांग्रेसी नेता सुरेंद्र राजपूत कहते हैं, ‘हाथी की सवारी करने वालों में गुंडों के साथ-साथ दबंग पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी भी हैं जिनका काम किसी भी तरह सरकार को खुश करके अपना उल्लू सीधा करना है.’ कुछ ऐसी ही राय बीजेपी नेता कलराज मिश्र की भी है. मिश्र का आरोप है कि सरकार भ्रष्टाचार में डूबी है. उसके पास इतना समय ही नहीं है कि वह इस बात की निगरानी ठीक से कर सके कि अधिकारी क्या सही और क्या गलत कर रहे हैं. सरकार की कमजोरी का फायदा चंद अधिकारी उठा रहे हैं और खामियाजा पूरा प्रदेश भुगत रहा है. 

सेना की कठपुतली या एक उभरता सितारा?

हिना रब्बानी खार पाकिस्तान का विदेश मंत्री पद संभालने की तैयारी में हैं. जल्द ही भारत के साथ शांति-वार्ता करने आने वालीं हिना की शख्सियत पर रुबाब शिराजी की रिपोर्ट

अगर पाकिस्तान में सब कुछ ठीक-ठाक रहा और दिन-ब-दिन गहराती अस्थिरता की वजह से अचानक कोई बड़ी उथल-पुथल नहीं हुई तो वहां की जूनियर विदेश और वित्तीय प्रशासन मंत्री हिना रब्बानी खार इस महीने विदेश मंत्री के रूप में नई दिल्ली आएंगी. उन्हें यहां भारतीय विदेश मंत्री एस एम कृष्णा के साथ मंत्री स्तरीय वार्ता करनी है. उनकी पदोन्नति दोनों देशों के बीच की मंत्री स्तर की बातचीत के बीच प्रोटोकॉल की अड़चन को दूर करने के लिए जरूरी थी.

34 वर्षीया खार जब फरवरी में विदेश मामलों की राज्यमंत्री बनी थीं, तब शायद ही किसी को ही उनकी नियुक्ति पर हैरानी हुई हो. दरअसल यह प्रतीकात्मक पद 2004 से ही मंत्रिमंडल में प्रभावशाली परिवारों के सदस्यों को खपाने के लिए सुरक्षित रखा गया है. लेकिन प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी द्वारा उन्हें विदेश मंत्री नियुक्त करने का फैसला खासी आलोचना के घेरे में है क्योंकि विदेश मामलों की जटिलता को संभालने के लिए उन्हें कम उम्र का और अपरिपक्व माना जा रहा है. यह अलग बात है कि वे 2004 से ही मंत्रिमंडल का हिस्सा हैं. 2003 में नेशनल-एसेंबली के चुनाव से शुरू हुए अपने राजनीतिक करियर के दौरान ज्यादातर वे लाइमलाइट से दूर रहने वाली नेत्री ही रहीं.

खार की नियुक्ति उस वक्त हो रही है जब पाकिस्तान के दूसरे देशों के साथ संबंध अच्छे दौर में नहीं हैं

एक ऐसे देश में जहां पहले से ही एक अप्रत्याशित राष्ट्रपति(आसिफ़ अली ज़रदारी) और प्रधानमंत्री (यूसुफ़ रजा गिलानी) है, एक अप्रत्याशित विदेश मंत्री भी कोई अजूबे की बात नहीं होगी. अगर सभी चीजें योजना के मुताबिक हुईं तो खार इसी महीने पाकिस्तान की छब्बीसवीं विदेश मंत्री के तौर पर शपथ लेंगी और साथ ही पाकिस्तान की पहली महिला विदेश मंत्री होने का रुतबा भी हासिल करेंगी. मगर विदेश मंत्रालय के नौकरशाह, जो अकेले में खार को ‘लड़की’ कह कर संबोधित करते हैं, कहते हैं कि खार पहले के विदेश मंत्रियों के मुकाबले कहीं नहीं ठहरतीं.

खार एक रसूखदार और संपन्न घराने से आती हैं. वे जाने-माने राजनेता गुलाम नूर रब्बानी खार की बेटी और पंजाब के पूर्व राज्यपाल व अपनी रंगीनमिजाजी के लिए चर्चित गुलाम मुस्तफ़ा खार की भतीजी हैं. गुलाम मुस्तफ़ा खार की पत्नी तहमीना दुर्रानी ने एक किताब ‘मेरे आका’ लिखी थी, जिस पर काफी विवाद हुआ था. इसमें उन्होंने गुलाम मुस्तफा के साथ अपनी अपमानजनक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करने वाली शादी और एक पुरुष प्रधान समाज में अपने अनुभवों के बारे में लिखा है. सामंती पृष्ठभूमि के बावजूद, खार पाकिस्तान के सबसे उम्दा बिजनेस स्कूल, लाहौर यूनिवर्सिटी आॅफ मैनेजमेंट सांइस से पढ़ी हैं और यूनिवर्सिटी ऑफ मैसेच्यूसेट्स से हॉस्पिटैलिटी में मास्टर डिग्री हासिल की है. खार की नियुक्ति उस वक्त हो रही है जब पाकिस्तान के दूसरे देशों से संबंध अच्छे दौर में नहीं हैं. अमेरिका के साथ उसकी दोस्ती में तेजी से कड़वाहट घुल रही है. अफगानिस्तान के साथ बार-बार उसका कोई न कोई विवाद हो रहा है. और भारत-पाक संवाद भले ही आगे बढ़ रहा हो मगर मगर हाल में दोनों देशों की जो द्विपक्षीय बैठकें हुई हैं उनसे कोई खास उम्मीदें नहीं जग रहीं.

खार के यह पद पाने के बाद भी फैसला लेने की ताकत सेना के पास ही बनी रहने की संभावना है. खार के मंत्री होने से सेना को फायदा ही है क्योंकि वे सारे अहम फैसलों के लिए नौकरशाहों पर निर्भर रहेंगी और इससे रावलपिंडी में मौजूद सैन्य प्रतिष्ठान को विदेश नीति पर प्रभुत्व बनाने में मदद मिलेगी. खार के पूर्ववर्ती शाह महमूद कुरैशी को अपना पद इसलिए गंवाना पड़ा था कि उन्होंने सीआईए के एजेंट रेमंड डेविस के खिलाफ कड़ा रुख अख्तियार किया था. इसके उलट खार इस मामले पर स्वतंत्र राय रखने वाली के तौर पर नहीं जानी जातीं. डेविस जनवरी में दो युवाओं को गोली मारने के मामले में शामिल था.

विदेश विभाग में कोई भी यह नहीं जानता कि खार अहम मसलों जैसे अमेरिका, यूरोप, भारत और अफगानिस्तान के साथ रिश्ते और आतंक के खिलाफ लड़ाई के मामले में क्या राय रखती हैं. फरवरी से वे विदेश विभाग में हैं. लेकिन तब से अब तक उन्होंने विदेश नीति पर कोई बयान नहीं दिया है. हालांकि उनके बारे में काफी कुछ लिखा गया है, लेकिन अब भी वे पहेली बनी हुई हैं. विदेश राज्य मंत्री के बतौर उनके दो कार्यकालों के आधार पर ही विदेश मंत्रालय के अहम पद के लिए उन्हें योग्य माना गया है. आर्थिक मामलों में प्रधानमंत्री के विशेष सहयोगी के तौर पर भी उन्होंने काम किया है.

विदेश मामले उनके पसंदीदा विषयों में शामिल नहीं रहे हैं. उनकी दिलचस्पी वित्त, आर्थिक मामलों और कृषि विकास में रही है. इसके अलावा वे लाहौर में एक आला दर्जे का रेस्टोरेंट चलाती हैं. उनके पति फिरोज गुजराल कपड़ा कारोबारी हैं. अब तक खार अंतरराष्ट्रीय कर्ज और अनुदानों से संबंधित मसलों से जुड़ी रही हैं. विदेश सेवा के अधिकारी नाम न उजागर करने की शर्त पर कहते हैं कि असली कूटनीति बिल्कुल अलग काम है.

एक अन्य अधिकारी का कहना है कि सरकार द्वारा खार को विदेश विभाग में भेजे जाने के बाद यहां प्रशासनिक अव्यवस्था तेजी से बढ़ी है. जनरल मुशर्रफ के कार्यकाल में आर्थिक मामलों के लिए खार जिम्मेदार रही हैं. 2008 के चुनाव में उनकी पुरानी पार्टी पीएमएल (क्यू) की हार के लिए आर्थिक अव्यवस्था को खास तौर पर जिम्मेदार ठहराया गया था. उन्हें पार्टी ने टिकट न देने का फैसला किया था. लेकिन इसके कुछ हफ्तों के बाद ही खार पीपीपी में शामिल हो गईं.

यदि वे विदेश मंत्री का प्रतिष्ठित पद हासिल करने में कामयाब रहती हैं, तो यह कोई पहला मौका नहीं होगा जब उन्हें दूसरों की भूमिका में उतरना पड़ रहा है. 2003 में उन्हें चुनाव लड़ना पड़ा था क्योंकि उनके पिता ग्रेजुएट न होने के कारण चुनाव नहीं लड़ सकते थे. 2009 में वे बजट पेश करने वाली पहली महिला मंत्री बनीं, क्योंकि पूर्व वित्त मंत्री शौकत तरीन चुने हुए प्रतिनिधि नहीं थे.
उनकी पार्टी के लोग बताते हैं कि खार काफी चतुर और महत्वाकांक्षी हैं. वे उदाहरण देते हैं कि अनुभवहीनता के बावजूद कैसे उन्होंने पूर्व कानून मंत्री बरार अवान, पूर्व विदेश मंत्री सरदार आसिफ अली और नेशनल असेंबली की स्पीकर डॉ फहमीदा मिर्जा जैसे राजनीतिक दिग्गजों को विदेश मंत्री पद की दौड़ से बाहर कर दिया. मीडिया द्वारा उनको पसंद न किया जाना उनकी एक और कमजोरी है. अगर उनके ऑनलाइन इंटरव्यू खोजे जाएं तो कई साल पुराने सेटर्डे पोस्ट जैसे अज्ञात अखबार में एक लेख के अलावा और कुछ भी नहीं मिलता. इससे चलते देश की विदेश नीति को पेश करने के मामले में वे कमजोर और प्रभावहीन साबित होंगी. अमेरिकी अधिकारी थॉमस निडेस के साथ अपने पहले मीडिया संबोधन में खार एकदम प्रभावहीन थीं. विदेश सचिव सलमान बशीर ने पी टीवी कैमरा के सामने बोलने के लिए उनके लिए जल्दी में कुछ लाइनें लिख दी थीं. लेकिन अधिकारियों ने बताया कि उन्हें इन्हें पढ़ने में भी परेशानी हुई. 

कुछ दिनों बाद वे ब्रिटेन के विदेश सचिव के साथ मीडिया को संबोधित कर रही थीं. जब उनसे अफगान और तालिबान के बीच शांति समझौतों की संभावनाओं के बारे में पूछा गया तो वे स्वात में चरमपंथियों के साथ हुए एक ऐसे शांति समझौते के बारे में बोलने लगीं जो कब का टूट चुका है. शायद वे भूल गई थीं कि पाकिस्तान अफगान और स्थानीय तालिबान को एक ही नहीं मानता. पाकिस्तानी सरकार इन्हें दो अलग समूह मानती रही है.

उनकी संभावित पदोन्नति की ऑनलाइन खबरों पर नकारात्मक टिप्पणियों की भरमार है. पाकिस्तान डिफेंस नाम के ऑनलाइन डिस्कशन फोरम पर लगी एक टिप्पणी कहती है, ‘क्या विडंबना है. हम अपने विदेश मामलों में अब तक के सबसे नाजुक दौर से गुजर रहे हैं, शायद इसीलिए हमने इसकी जिम्मेदारी 34 साल की एक ऐसी महिला को सौंपी है जिसके पास हॉस्पिटैलिटी मैनेजमेंट की डिग्री है!’ उनके आलोचकों द्वारा लगाये जा रहे कर चोरी के आरोप तो किसी भी पाकिस्तानी राजनेता के लिए बहुत सामान्य हैं मगर हिना के पक्ष में एक बात जरूर जाती है कि उनका नाम अब तक किसी बड़े विवाद से नहीं जुड़ा है. l