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साहब के बाद…

‘नया थियेटर में उस ऐक्टर के लिए कोई जगह नहीं है जो टुन्न होकर तमाशा करना नहीं जानता. गांजा, भांग और शराब पीकर नौटंकी करने वाला ऐक्टर वहां अपने दिन मजे से काट सकता है. हबीब साहब ऐसे सभी खुर्राट लोगों को अपने ढंग से साध लिया करते थे, लेकिन अब मुझे नहीं लगता कि कोई किसी को डांटता- डपटता भी होगा. नया थियेटर का भगवान ही मालिक है.’

‘जैसे कवियों के बड़े अफसर मुक्तिबोध थे (हैं) वैसे ही रंगकर्मियों के सबसे बड़े साहब हबीब तनवीर थे. इधर-उधर, दिन- दुनिया की चर्चा के दौरान साहब अक्सर कहा करते थे, ‘एक रचनात्मक आदमी का क्रिएशन भी उसके दुनिया से कूच करने के साथ ही खत्म हो जाता है.’

छत्तीसगढ़ के दो वरिष्ठ रंगकर्मियों ओंकारदास मानिकपुरी एवं अनूपरंजन पांडे का यह बयान तेज-तर्रार प्रयोगों और लोक शैली के जरिए प्रगतिशील विचारों का बिगुल फूंकने के लिए प्रतिबद्ध रहे नया थियेटर की हालिया स्थिति को समझने के लिए काफी है. वैसे नया थियेटर रहेगा या नहीं? हबीब तनवीर के बाद कौन? ऐसे सवाल तभी से पूछे जाते रहे हैं जब कलाकारों के साहब यानी हबीब तनवीर जिंदा थे. इन सवालों के पैदा होने का एक कारण हबीब तनवीर का अपने आपको किंवदंती में बदल लेना भी माना जाता है. वर्ष 2005 के आसपास जब तनवीर ने पुराने नाटकों के विसर्जन के साथ ही अपनी आत्मकथा मटमैली चदरिया को लिखने का एलान किया था तो इस बात को हवा मिली कि यदि तनवीर नहीं रहे तब क्या होगा. उनके प्रयोगों का पीछा कौन करेगा? चर्चित संस्कृतिकर्मी मलयश्री हाशमी ने ऐसे तमाम सवालों को शामिल कर के  नुक्कड़ जनम संवाद नाम से एक पत्रिका निकाली और तनवीर साहब के नाटक अभ्यास की समय सीमा के साथ-साथ नया थियेटर की बनती-बिगड़ती स्थिति पर प्रकाश डाला. इस पत्रिका में एक साक्षात्कार के दौरान हबीब की पुत्री नगीन तनवीर ने माना था कि कलाकारों की कमजोर समर्पण भावना के चलते उनके पिता की ऊर्जा भी धीरे-धीरे कमजोर होने लगी है. एक दूसरे साक्षात्कार में चरनदास चोर का किरदार निभाने वाले अभिनेता गोविंदराम निर्मलकर ने नया थियेटर को बंद करने की वकालत की थी. एक अन्य अभिनेता रामशंकर ऋषि का भी वक्तव्य था कि नया थियेटर तब तक ही चल पाएगा जब तक हबीब साहब जिंदा रहेंगे.

‘नया थियेटर में स्थायी तौर से जुड़े छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों की संख्या सात-आठ तक सीमित हो गई है’

इधर उनके निधन के बाद पिछले कुछ समय के दौरान बार-बार यह सवाल पूछा जाने लगा है कि देश के सबसे पुराने कमला सर्कस की तरह नया थियेटर का अस्तित्व भी बचेगा या नहीं. रंगकर्म में रुचि रखने वाले जानकारों का यह मानना है कि नया थियेटर का जलवा मालाबाई, फिदाबाई, ठाकुरराम और मदन निषाद जैसे मूर्धन्य कलाकारों के निधन के साथ फीका पड़ने लगा था. तनवीर के साथ लंबी पारी खेलने के बाद छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में रंग छत्तीसा नाम की एक संस्था से जुड़ी पूनम विराट कहती हैं, ‘भले ही निर्देशक यह कहता फिरे कि किसी के आने-जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन सच्चाई हमेशा तल्ख होती है.’ पूनम बताती हैं, ‘मालाबाई जैसी दमदार अभिनेत्री के निधन के बाद तनवीर साहब भीतर तक हिल गए थे. जब थियेटर की दूसरी अभिनेत्री फिदाबाई आग से झुलसी और अभिनय छोड़कर अपने गांव सोमनी में सूअर पालने  लगी तब भी साहब को झटका लगा था. ठाकुरराम, लालूराम जैसे बेजोड़ कलाकारों की जोड़ी टूटने और नाचा के धुरंधर कलाकार मदन निषाद के बीमार होकर घर बैठ जाने के बाद से यह कहा ही जाने लगा था कि अब नया थियेटर की जान खत्म हो गई है.’

बीते आठ जून, 2011 को तनवीर के निधन के दो साल पूरे हो गए हैं, लेकिन अब भी थियेटर के कलाकार पुराने नाटकों का ही अभ्यास कर रहे हैं. संस्था के प्रबंधकीय और सृजनात्मक कार्यों के निदेशक क बनाए गए रामचंदर सिंह जेसी माथुर लिखित नाटक कोणार्क को भव्य तरीके से लांच करने की तैयारियों में जुटे हुए हैं. यह नाटक काफी पहले स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल किया जा चुका है. मजे की बात यह है कि इस नाटक को पांचवें दशक में तनवीर की धर्मपत्नी मोनिका मिश्रा भी बहुत बेहतर ढंग से प्रस्तुत कर चुकी हैं. इधर बाजारवाद के खतरनाक दौर में कोणार्क जैसे ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के नाटक की कोई उपयोगिता हो सकती है या नहीं इसे लेकर भी कलाकार कसमसा रहे हैं. रंगकर्म की अनेक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी निभाने वाले आशीष रंगनाथ का कहना है कि तनवीर के नाटकों में लोकरंजक तत्व तो होते थे लेकिन इन तत्वों में कही विसंगतियों के खिलाफ एक मुकम्मल आवाज भी छिपी होती थी. उनके नाटकों को देखने के बाद यह लगता रहा है कि विचारों को फांसी पर लटका देने का प्रचार पूरी तरह से गलत है. आशीष आगे कहते हैं, ‘नया थियेटर की तरफ से ऐसा नाटक तो खेला ही जाना चाहिए जो कलाकारों के साथ-साथ दर्शकों में भी ऊष्मा का संचार करने में सहायक हो. नाटक देखने के बाद तनवीर के दर्शकों को यह लगना चाहिए कि कलाकार आज भी प्रगतिशील विचारों से लैस हैं.’ इधर नया थियेटर के कलाकार मानते हैं कि रामचंदर के पास हबीब साहब के भीतर मौजूद रहने वाला खांटीपन एक सिरे से गायब है इसलिए नाटक की रीडिंग (वाचन) के दौरान भी दिक्कतें पेश आ रही हैं.

नया थियेटर में आए बदलाव से जुड़ा एक पहलू यह भी है कि इसकी पहचान पहले जहां छत्तीसगढ़ के दूरस्थ इलाकों में बसे हुए लोक कलाकारों की वजह से हुआ करती थी वहीं अब इसमें स्थायी तौर पर छत्तीसगढ़ के सात-आठ कलाकार ही रह गए हैं. आमिर खान की फिल्म पीपली लाइव में नत्था की भूमिका अदा करने वाले लोक कलाकार ओंकारदास मानिकपुरी की हाल ही में एक छत्तीसगढ़ी फिल्म किस्मत के खेल प्रदर्शित हुई है जबकि मुन्ना मांगे मेमसाहब, कसम से कसम से और आलाप प्रदर्शन के लिए तैयार हैं. फिल्मों में लगातार हासिल हो रही कामयाबी के चलते नत्था अब तनवीर के किसी भी नाटक में तब ही दिखाई देते हैं जब वे फुरसत में होते हैं. ओंकारदास कहते हैं, ‘फिलहाल थियेटर छोड़ा नहीं है लेकिन अब यदि कोई साठ- सत्तर रुपये की मजदूरी पर काम करने के लिए कहेगा तो थोड़ी मुश्किल होगी.’ मानिकपुरी नया थियेटर की आवास और वेतन व्यवस्था को बेहद कमजोर मानते हैं. वे अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘सभी कलाकारों को भोपाल के 12 नंबर बस स्टाप के पास स्थित अरेरा कालोनी में एक किराये के मकान में ठहरा दिया जाता है. पुराने कलाकार तो एडजस्ट कर लिया करते थे लेकिन नये कलाकार आवास और भोजन की असुविधा के चलते बोरिया-बिस्तर बांधकर वापस लौट जाते हैं.’  ओंकारदास के मुताबिक कुछ समय पहले कलाकारों की खोज के लिए नया थियेटर की तरफ से दुर्ग जिले के ग्राम अर्जुंदा में शिविर लगाया गया था. शिविर में कुछ लोगों का चयन बतौर कलाकार कर भी लिया गया, लेकिन थोड़े ही दिनों में सारे कलाकार भाग खड़े हुए.

तोला जोगी जानयो रे भाई… जैसे मधुर गीत के जरिए खेतिहर मजदूरों और किसानों की स्मृतियों में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले कलाकार भुलवाराम के बेटे चैतराम वैसे तो कई बार नया थियेटर को टाटा-बाय-बाय कर चुके हैं लेकिन पिछले आठ जून को उन्होंने एक बार फिर नया थियेटर से स्थायी तौर पर नाता तोड़ने की घोषणा की है. चैतराम बताते हैं, ‘हर बार तो कोई न कोई मान-मनौव्वल करके मुझे ले ही जाता था लेकिन इस बार मैंने जो फैसला लिया है वह अंतिम है.’ मानिकपुरी की तरह ही चैतराम भी नया थियेटर की वेतन व्यवस्था से नाखुश नजर आए. चैतराम ने बताया कि सन 76 में जब उन्होंने नया थियेटर का दामन थामा था तब तनवीर साहब की तरफ से प्रतिदिन आठ रुपये मेहनताना दिया जाता था, लेकिन काफी दिनों की रगड़घस के बाद भी अपेक्षित वेतन की राह आसान नहीं हुई. थियेटर में पुराने कलाकारों की तुलना में नए कलाकारों को ज्यादा वेतन दिया जाता है. ऐसा इसलिए भी होने लगा कि नये कलाकार अब गांवों की बजाए शहरी इलाकों से इंट्री लेने लगे हैं. राजनांदगांव जिले के बेलटिकरी गांव में रहने वाले उदयराम श्रीवास नया थियेटर से जुड़े हुए हैं लेकिन निर्देशकीय जिम्मेदारी नहीं मिल पाने से वे भी नाराज चल रहे हैं. श्रीवास कहते हैं, ‘जब तनवीर साहब जीवित थे तब वे किसी भी दृश्य की ब्लाकिंग करके छोड़ दिया करते थे. उनके द्वारा तय की गई ब्लाकिंग को ज्यादा व्यवस्थित और साफ करने का जिम्मा उन्हें दिया जाता था, लेकिन इधर पिछले दो साल में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.’ थियेटर में संगीत पक्ष की जिम्मेदारी संभालने वाले देवीलाल नाग भी मानते हैं कि तनवीर साहब के गुजर जाने के बाद परिस्थितियां बदल गई हंै. कुछ इसी तरह के विचार कोलिहापुरी गांव के रहने वाले तबला वादक अमरदास मानिकपुरी के भी हैं. वे कहते हैं, ‘नया थियेटर कलाकारों की कमी से जूझ रहा है. एक-एक कलाकार को कपड़े बदल-बदलकर तीन तरह के किरदारों को निभाना पड़ रहा है.’ तनवीर के एक विश्वसनीय सहयोगी समझे जाने वाले अनूपरंजन पांडे पुराने ही नाटकों के मंचन की बात स्वीकार तो करते हैं लेकिन वे मानते हैं कि कलाकारों के भीतर की आग अभी बुझी नहीं है. वैसे अनूप भी अब नया थियेटर में उस तरह से सक्रिय नहीं है जैसे पहले कभी हुआ करते थे. उन्होंने बस्तर के पुराने वाद्य यंत्रों को सहेजने के बाद बस्तर बैंड नाम की एक संस्था खोल ली है. थियेटर में बतौर ऐक्टर कार्यरत मनहरण गंधर्व को छोटी-मोटी भूमिकाओं से संतोष करना पड़ रहा है तो अमर को गायन व धन्नू सिन्हा को प्रकाश व्यवस्था की जिम्मेदारी दी गई है.

‘नया थियेटर के कलाकारों की स्वाभाविक संवाद अदायगी छूटने से अपनेपन की खुशबू गायब हो गई है’ 

तनवीर के नाटकों में सबसे बढ़िया कौन-सा है यह कहना थोड़ा मुश्किल है फिर भी संस्कृतिकर्मी यह मानते हैं कि विजयदान देथा की कहानी पर आधारित नाटक चरनदास चोर के जितने ज्यादा मंचन हुए हैं शायद उतने किसी और नाटक के नहीं हुए. इस नाटक की खास बात यह रही है कि इसके चोर बदलते रहे हैं. नाटकों में रुचि लेने वालों को कभी मदन निषाद का काम पंसद आता रहा है तो कभी दीपक तिवारी विराट का. वैसे ज्यादातर समीक्षकों की यह राय रही है कि चोर की भूमिका में सबसे ज्यादा फिट गोविंदराम निर्मलकर ही रहे हैं. खुद हबीब तनवीर ने एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया था कि गोविंदराम आत्मविश्वास से भरे हुए बेजोड़ ऐक्टर हंै. चोर की आंतरिक और बाह्य खूबियों से परिचित होने के साथ-साथ दर्शक यह जानने के लिए भी हॉल में प्रवेश करता रहा है कि कौन-सा चोर श्रेष्ठ है, किसका अभिनय ज्यादा पावरफुल था. इधर पिछले साल जब रायपुर में इंडियन पीपुल्स थियेटर ने चरनदास चोर के मंचन के लिए नया थियेटर के कलाकारों को आमंत्रित किया तो प्रतिक्रिया खास नहीं रही. नाटक में चोर की भूमिका ओंकारदास मानिकपुरी ने निभाई थी, लेकिन पीपली लाइव के नत्था का आकर्षण भी दर्शकों को बांधने में असफल रहा. अखबारों में ‘चोर ने किया बोर’ जैसी समीक्षाएं छपीं. लगभग सभी भाषाओं के नाटकों के लिए प्रकाश व्यवस्था का कामकाज देखने वाले प्रकाश व्यवस्थापक श्रवणकुमार कहते हैं,  ‘दर्शक तनवीर के नाटकों को इसलिए भी पंसद करते रहे हैं कि उन्हें लोक तत्वों में हंसी-खुशी की चीजें मिल जाया करती थीं, लेकिन अब ऐसा नहीं है. नया थियेटर के कलाकारों ने स्वाभाविक संवाद अदायगी का दामन छोड़ दिया है. स्वाभाविकता के खत्म होने से अपनेपन की खुशबू भी गायब हो गई है.’ श्रवण आगे बताते हैं, ‘अब से कुछ अरसा पहले नाटक के कलाकारों के साथ-साथ दर्शकों के बीच भी इस बात को लेकर चर्चाओं का दौर चला करता था कि हबीब साहब पाइप क्यों पीते हैं. साहब के पाइप पीने के कारणों का खुलासा वयोवृद्ध कलाकार रामचरण निर्मलकर ने बड़े ही रोचक अंदाज में किया था. एक बार रिहर्सल के दौरान उन्होंने डायलॉग मारा .. अरे बेटा ये धुआं कहां से आ रहा है रे.. लगता है ये हबीब साहब के पाइप का धुआं है.. अच्छा बेटा.. बीड़ी पीते हो तुम.. और बदनाम करते हो हबीब साहब को. एक बात बताओ बेटा साहब तो मजे के लिए पीते हैं, लेकिन तुम हम लोगों को सजा देने के लिए पीते हो क्या. जो भी हो बेटा धुआं लेना और देना अपराध नहीं तो हानिकारक जरूर है, पर जब मजा आए तो पीना चाहिए.. है न साबजी’ ( बताते हैं कि रामचरण के इस संवाद के बाद तनवीर साहब ने अपनी पाइप बुझा ली थी).

रामचरण वही कलाकार हंै जिन्होंने शेखर कपूर की फिल्म बैंडिट क्वीन में फूलनदेवी के पिता देवीदीन की भूमिका निभाई थी. वे इन दिनों राजधानी रायपुर से 27 किलोमीटर दूर अपने गांव बरौंडा में रहते हैं. नाचा के इस बेजोड़ कलाकार ने जब कुछ समय पहले मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाया तो उनकी आंखंे पूरी तरह खराब हो गईं. जिन पैरों में कभी घुंघरू बांधकर रामचरण पूरी दुनिया को थिरकने के लिए मजबूर कर देते थे, एक दुर्घटना के बाद उन पैरों ने भी साथ देने से इनकार कर दिया. अब रामचरण का सारा दिन एक टूटी-सी खाट में ही बीतता है. वे मन ही मन नाटक में निभाए गए किरदारों से बातचीत करते रहते हैं. कमोबेश यही स्थिति राजनांदगांव के मोहारा इलाके में रहने वाले पद्मश्री गोविंदराम निर्मलकर और अपने अभिनय से देश-विदेश में धूम मचा देने वाले कलाकार दीपक तिवारी की भी बनी हुई है. नया थियेटर को अलविदा कहने के बाद दोनों कलाकारों ने रोजी-रोटी की चिंता में इस बुरी तरह से तनावों का सामना किया कि लकवाग्रस्त हो गए.

छत्तीसगढ़ की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर कहानियां और उपन्यास लिखने वाले परदेशीराम वर्मा तनवीर को करिश्माई व्यक्तित्व का धनी तो मानते हैं किंतु वे यह भी कहते हैं, ‘छत्तीसगढ़ के पारंपरिक दाऊओं (गांव के अमीर आदमी)  की तरह हबीब साहब ने भी कभी यह नहीं सोचा कि कलाकारों का आर्थिक पक्ष किस तरह से मजबूत किया जा सकता था.’ युवा आलोचक सियाराम शर्मा छत्तीसगढ़ की संस्कृति और उसकी बोली का परिचय दुनिया-जहान में कराने के लिए तनवीर के काम को महत्वपूर्ण तो मानते हैं, लेकिन उनका भी कहना है कि तनवीर ने स्वयं के व्यक्तित्व को निखारने के चक्कर में अपने इलाके की जड़ों में खाद-पानी देने का काम ठीक ढंग से नहीं किया. यदि तनवीर साहब ने छत्तीसगढ़ की जनभावनाओं के अनुरूप संस्कृति के काम को आगे बढ़ाने वाली कोई एक पौध तैयार की होती तो शायद लोगों को यह कहने का मौका नहीं मिलता कि तनवीर के बाद नया थियेटर में क्या बचा. शर्मा कहते हैं, ‘तनवीर के नाटकों की चर्चा देश- विदेश में तो खूब हुई है लेकिन छत्तीसगढ़ का गांव अब भी उनके चमत्कार से अपरिचित ही है.’

नाटकों में कभी गायक, कभी अभिनेत्री तो कभी वेशभूषा विशेषज्ञ के तौर पर जुड़े रहने वाली हबीब तनवीर की पुत्री नगीन तनवीर भी मानती हैं कि नया थियेटर की स्थिति में बदलाव आ गया है. नगीन कहती हंै, ‘मेरे पिता नाटकों के उस्ताद थे. जब उस्ताद ही नहीं रहे तो फिर फर्क नजर आना स्वाभाविक था. वैसे भी परिवर्तन सृष्टि का शाश्वत नियम है. जो चीज आज है वह शायद कल नहीं रहने वाली है.’ क्या वे अपने पिता की विरासत संभालेंगी, इस सवाल पर नगीन का जवाब था, ‘मेरे पिता जानते थे कि मैं क्या करना चाहती हूं. मेरा रास्ता अलग है. मैं फिलहाल अपने पिता की शायरी, उनके लिखे हुए नाटकों को किताब की शक्ल देने में लगी हुई हूं. हां. मैं कोणार्क में काम नहीं कर रही हूं, लेकिन नाटकों को सपोर्ट देने का काम बंद नहीं होगा.’ 

इंडियन मुजाहिदीन : आतंक और गुत्थी

इंडियन मुजाहिदीन इस देश के लिए जितना बड़ा खतरा है उतनी ही जटिल पहेली भी. एक ऐसी पहेली जिसे सुलझाने की सुरक्षा एजेंसियों की कवायद उसे और उलझाती हुई लगती है. बीते जून के आखिर में गुजरात पुलिस ने इस संगठन के एक अहम सदस्य  दानिश रियाज से पूछताछ की रिपोर्ट जारी की थी. रांची के एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर 29 वर्षीय रियाज को क्राइम ब्रांच ने 22 जून को बड़ोदरा रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार किया था. वह सिकंदराबाद-राजकोट एक्सप्रेस में सवार था. उस पर आरोप था कि 2008 में दिल्ली और अहमदाबाद में हुए विस्फोटों के कथित मास्टरमाइंड अब्दुल सुभान कुरैशी को उसने रांची में पनाह दी थी. पूछताछ के दौरान रियाज ने बताया था कि संगठन से जुड़े तमाम लोगों के जेल में होने या फिर नेपाल और पाकिस्तान भाग जाने के चलते इंडियन मुजाहिदीन फिलहाल काफी पस्त हालत में है. उसने यह भी कहा कि कुछ ही सदस्यों के बचे होने के चलते संगठन के लिए खुद को सक्रिय बनाए रखना और अपनी गतिविधियों के लिए पैसे इकट्ठा करना काफी मुश्किल हो गया था.

2008 में सुरक्षा एजेंसियों को पहली बार अहसास हुआ कि आतंकवाद अब घर में भी पनप चुका है

लेकिन मुंबई बम धमाकों के बाद आ रही खबरों पर यकीन किया जाए तो अब रियाज ने पूछताछ करने वाले अधिकारियों को बताया है कि 2008 के बटला हाउस एनकाउंटर के बाद  इंडियन मुजाहिदीन के जो सदस्य देश से बाहर निकलने में सफल रहे थे वे अब तालिबान के संपर्क में हैं और सऊदी अरब व पाकिस्तान में ट्रेनिंग हासिल कर रहे हैं. इंडियन मुजाहिदीन के पस्त हालत में होने के उसके पिछले बयान से यह आश्चर्यजनक रूप से भिन्न है. अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर सुधीर सिन्हा ने तहलका को बताया कि अभी तक रियाज ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा है, जिससे उसका संबंध मुंबई विस्फोटों से जोड़ा जा सके. सिन्हा का कहना था, ‘लेकिन हां, पूछताछ के दौरान हमें यह जरूर पता चला कि लोग कैसे भर्ती किए जाते हैं और इनके काम करने का तरीका क्या है. मुझे नहीं लगता कि उस पर इस मामले में सीधे आरोप लगाए जा सकते हैं.’

दानिश, सुभान और इंडियन मुजाहिदीन से जुड़े ज्यादातर लोगों में एक खास बात है. दिखने और जीवनशैली के मामले में वे उन खांचों में फिट नहीं होते जिनमें आम तौर पर एक आतंकवादी को रखकर देखा जाता है.   वे आधुनिक कपड़े पहनते हैं, अंग्रेजी बोलते हैं और दूसरे शब्दों में कहा जाए तो किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करने वाले किसी प्रोफेशनल जैसे दिखते हैं. 2008 में देश भर में हुए बम विस्फोटों के बाद इंडियन मुजाहिदीन के सदस्यों को पहली बार गिरफ्तार करने वाले मुंबई एटीएस के मुखिया स्वर्गीय हेमंत करकरे उन्हें देखकर हैरान थे. उन्होंने इस संवाददाता से कहा था, ‘इन्हें देखकर कौन कहेगा कि ये आतंकी हो सकते हैं. इनकी पृष्ठभूमि देखिए. इनकी पढ़ाई-लिखाई का शानदार रिकॉर्ड किसी को भी हैरान कर सकता है.’

इस तरह देखा जाए तो इंडियन मुजाहिदीन की कहानी सुरक्षा तंत्र के लिए एक पहेली है. इसलिए क्योंकि इससे जुड़े लोग इस्लाम की वहाबी या सलाफी शाखाओं को मानने वाले मदरसों में पढ़े कट्टरपंथी की छवि में फिट नहीं बैठते. न ही वे गरीब और पिछड़ी पृष्ठभूमि वाले परिवारों से आते हैं. वे ऐसे बेरोजगार मुसलिम नौजवान नहीं हैं, जिनका पालन-पोषण गरीब और बड़े परिवारों में हुआ हो और वे कुछ पैसों के लालच में आईएसआई एजेंटों के बहकावे में आ गए हों.

सिमी के इन सदस्यों का परिचय आमिर रजा से किसने कराया और इंडियन मुजाहिदीन कैसे बना?

2008 में गिरफ्तार किए गए इंडियन मुजाहिदीन के सदस्यों में से ज्यादातर कट्टर नहीं थे. उनका रिकॉर्ड बताता था कि उनकी शिक्षा सामान्य पब्लिक या कॉन्वेंट स्कूलों में हुई है. बल्कि इंडियन मुजाहिदीन में आने से पहले इनमें से ज्यादातर को इस्लामी विचारों और सिद्घांतों के बारे में खास पता भी नहीं था. इंडियन मुजाहिदीन में आने के बाद भी उनके जुनून की मुख्य वजह पूरी दुनिया में जेहाद करने वाली विचारधारा की बजाय 2002 के गुजरात दंगों और बाबरी मस्जिद विध्वंस का बदला लेना रही.
बटला हाउस एनकाउंटर में मारा गया आतिफ अमीन इंडियन मुजाहिदीन के संस्थापकों में से एक था. उसकी एक गर्लफ्रेंड भी थी. एनकाउंटर से एक दिन पहले इंडियन मुजाहिदीन के 12 सदस्य बटला हाउस अपार्टमेंट में इकट्ठा हुए थे और रात के खाने के लिए उन्होंने पिज्जा और कोक जैसी पाश्चात्य चीजें मंगाई थीं. उनमें से ज्यादातर सोशल नेटवर्किंग साइटों पर भी सक्रिय थे. बाद में उनके ट्विटर और फेसबुक अकाउंट उनसे जुड़ी सूचनाओं के महत्वपूर्ण स्रोत साबित हुए.

2005 में दिल्ली में दीवाली के दिन हुए विस्फोटों से लेकर 2008 के दिल्ली विस्फोटों तक की सारी घटनाएं कॉलेज के छात्रों, सॉफ्टवेयर इंजीनियरों, मैकेनिकों, डॉक्टरों, शिक्षकों और छुटभइये अपराधियों द्वारा अंजाम दी गईं. हर विस्फोट के बाद उनमें से ज्यादातर अपने सामान्य काम-काज में लग जाते थे. छात्र अपनी पढ़ाई में, प्रोफेशनल अपनी नौकरी में और कारोबारी अपने धंधे में.
इन सभी को आपस में जोड़ने वाली एक ही चीज थी-भारतीय समाज से अलग-थलग पड़ने का अहसास और सरकारी तंत्र से घृणा. बड़ी हद तक इसकी वजह मुसलिम-विरोधी दंगों में व्यवस्था की हिस्सेदारी भी थी जो कुछ हद तक वास्तविक थी और कुछ हद तक काल्पनिक.

कुछ सालों पहले तक तक जब बात विस्फोटों के सूत्र तलाशने की हो तो भारत में आतंकवाद-विरोधी एजेंसियों कुछ तय गतिविधियों तक ही सीमित रहती थीं. मसलन कश्मीरी आतंकवादियों और पाकिस्तान में उनके आकाओं के बीच होने वाली बातचीत और ई-मेलों का आकलन करना. या फिर ढाका या नेपाल में अपने कारिंदों से आईएसआई एजेंटों की बातचीत के टेपों और पाकिस्तान या बांग्लादेश की सीमा पर गिरफ्तार घुसपैठियों की पूछताछ की रिपोर्टों का विश्लेषण करना. आतंकवाद-विरोधी कवायदों के केंद्र में पाकिस्तान और वहां से काम कर रहे आतंकवादी संगठन थे. वैसे कभी-कभी उनके कुछ भारतीय सहयोगियों की पहचान और गिरफ्तारियां भी होती रही लेकिन ऐसे लोग चंद पैसों के लिए सामान या सूचनाएं पहुंचाने के काम तक ही सीमित रहे.

2006 में मुंबई में हुए सीरियल बम धमाकों के मामले में सात अज्ञात और काल्पनिक पाकिस्तानी नागरिकों के साथ-साथ स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) के कुछ पुराने सदस्यों पर भी मुकदमा चलाया गया. महाराष्ट्र पुलिस ने सिमी के सदस्यों पर आरोप लगाया था कि उन्होंने अज्ञात पाकिस्तानी आतंकवादियों को मदद पहुंचाई है.

पूर्व सिमी सदस्यों के फिर से इकट्ठा होने की गतिविधियों की निगरानी हो रही थी तो कोई पूर्व संकेत क्यों नहीं मिले?

लेकिन 2008 में इंडियन मुजाहिदीन के सामने आते ही भारत में इस्लामी आतंकवाद का परिचय बदल गया. बटला हाउस एनकाउंटर के बाद सुरक्षा एजेंसियों को अहसास हुआ कि पड़ोस से आने के साथ-साथ अब आतंकवाद घर में भी पनप चुका है.
इस आतंकी संगठन के केंद्र में जो नौजवान थे उन्हें पाकिस्तान की आईएसआई की तरफ से कुछ पैसों और संसाधनों की सहायता जरूर मिली थी लेकिन वे सीमा पार से किसी आतंकी संगठन के रिमोट द्वारा संचालित नहीं थे. लश्कर-ए-तैयबा और आईएसआई से जुड़ाव उनकी रणनीति के लिए जरूरी था, मगर उनके वजूद के लिए इसकी कोई अनिवार्यता नहीं थी. नयी पीढ़ी के इन जेहादियों का न तो कोई आपराधिक रिकॉर्ड था और न ही कट्टरपंथ की ओर ही कोई झुकाव. इसलिए ये बगैर किसी शक को जन्म दिए अपना काम करते रहे. सुरक्षा एजेंसियां अंधेरे में तीर चलाती रहीं और हर आतंकी हमले के बाद बांग्लादेश के हूजी और पाकिस्तान के लश्कर-ए-तैयबा का नाम उछलता रहा.

कम से कम तीन बड़े आतंकी हमले ऐसे थे (2005 में दिल्ली में दीवाली पर हुए विस्फोट,  2006 में बनारस में हुए धमाके और  7/11 मुंबई ट्रेन विस्फोट) जिनके बारे में सुरक्षा एजेंसियां गलत साबित हुईं. दीवाली विस्फोट मामले में एक कश्मीरी आतंकवादी और बनारस विस्फोट मामले में हूजी से संबंध रखने वाले एक मौलवी को अभियुक्त बनाया गया था. जबकि 7/11 विस्फोट के मामले में एजेंसियों ने सिमी के कुछ पूर्व सदस्यों को अभियुक्त बनाया था. बाद में जांच से पता चला कि इन तीनों ही विस्फोटों के पीछे इंडियन मुजाहिदीन का हाथ था. पहले इसे लेकर कैसे सतही आकलन हो रहे थे इसकी एक बानगी उस बयान से मिलती है जो 2008 के अहमदाबाद विस्फोटों के अभियुक्तों की गिरफ्तारी की घोषणा करते हुए तत्कालीन गुजरात पुलिस कमिश्नर पीसी पांडे ने दिया था. उनका कहना था, ‘आप सिमी (SIMI) से एस और आई हटा दीजिए और यह इंडियन मुजाहिदीन (IM) बन जाता है.’
लेकिन बात इतनी सरल नहीं है. अपने संस्थापकों की तरह ही इंडियन मुजाहिदीन भी एक जटिल सांप्रदायिक ताने-बाने की पैदाइश है.

इंडियन मुजाहिदीन लगभग तभी बना था जब दक्षिणपंथी हिंदू आतंकवादी संगठन अभिनव भारत बना था. दोनों संगठनों के मूल में नफरत है. जहां अभिनव भारत का लक्ष्य हिंदू राष्ट्र था वहीं इंडियन मुजाहिदीन का मकसद कथित तौर पर भारतीय मुसलमानों के खिलाफ होने वाली ज्यादतियों का बदला लेना था. इसका संस्थापक आमिर रजा खान था जिसे जैश-ए-मोहम्मद का करीबी माना जाता है. उसके भाई आसिफ ने अपहरण के मामलों को अंजाम देने के लिए एक छुटभइये अपराधी आफताब अंसारी से हाथ मिला लिया. दोनों ने मिलकर 2000 में भास्कर पारेख के पुत्र और कोलकाता के व्यवसायी पार्थो रॉय बर्मन का अपहरण भी किया. ये मामले काफी चर्चित रहे थे. एक सीबीआई रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि फिरौती में मिले चार करोड़ रुपयों का एक चौथाई हिस्सा मुल्ला उमर के जरिए मोहम्मद अत्ता को 9/11 के अमेरिकी हमले करने के लिए दिया गया था. रकम के कुछ हिस्से का इस्तेमाल संसद पर हमला करने के लिए किया गया.

जो लोग जेल में बंद हैं उनसे भी ऐसी कोई सूचना नहीं निकाली जा सकी है जिससे नये हमलों को रोका जा सके

2002  में राजकोट में आसिफ रजा खान के एनकाउंटर में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अहमदाबाद के एक उच्च पुलिस अधिकारी के मुताबिक यह संभव है कि मुल्ला उमर, आफताब अंसारी और आसिफ एक-दूसरे को जानते रहे हों. क्योंकि 1996 से 2000  के बीच तीनों तिहाड़ जेल की एक ही कोठरी में कैद रहे थे. आसिफ की गिरफ्तारी आरडीएक्स रखने के एक मामले में हुई थी जबकि अंसारी हत्या और मुल्ला उमर कुछ पश्चिमी पर्यटकों के अपहरण के आरोप में गिरफ्तार हुआ था. बाद में उमर को आईसी-814 के यात्रियों के बदले भारत सरकार ने कांधार में छोड़ दिया था. उमर को 2002 में अमेरिकी रिपोर्टर डेनियल पर्ल की हत्या के लिए मौत की सजा सुनाई गई.

आमिर रजा खान ने आफताब अंसारी के साथ 2002 में कोलकाता के अमेरिकन सेंटर पर अपने भाई की मौत का बदला लेने के लिए फायरिंग की. इसे इंडियन मुजाहिदीन द्वारा किया गया पहला हमला माना जाता है. हालांकि संगठन ने इसकी जिम्मेदारी नहीं ली.
उधर, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से लॉ ग्रेजुएट आफताब अंसारी का विवाह पाकिस्तानी महिला से हुआ है और उसके अंडरवर्ल्ड से मजबूत संबंधों की बात कही जाती है. अमेरिकन सेंटर पर फायरिंग के मामले में उसे गिरफ्तार कर लिया गया था और 2002 से वह कोलकाता में हिरासत में है. आफताब को हूजी के साथ बहुत करीब से काम करने के लिए जाना जाता है. उस पर भारत और नेपाल दोनों जगहों की गतिविधियों की जिम्मेदारी थी.

सादिक इसरार और अहमद बाशा की स्वीकारोक्तियों के अनुसार 2002 में ही आमिर ने सिमी के पूर्व सदस्यों के साथ संपर्क साधना शुरू किया था. ये दोनों दक्षिण भारतीय मुसलमानों के बाहुल्य वाले मुंबई के उपनगरीय इलाके टुर्भे के चीता कैंप के रहने वाले हैं. लेकिन अहम सवाल यह है कि सिमी के इन सदस्यों का परिचय आमिर रजा से किसने कराया और इंडियन मुजाहिदीन कैसे बना? यहां एक महत्वपूर्ण लिंक बनता दिखाई पड़ता है. खुफिया एजेंसियों के अनुसार रियाज और इकबाल शाहबंदरी भाइयों ने आमिर का परिचय 1993  के मुंबई दंगों के बाद बने संगठन सिमी से कराया. शाहबंदरी भाइयों को आजकल भटकल ब्रदर्स के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि ये कर्नाटक के भटकल कस्बे के निवासी हैं. इन भाइयों को ही इंडियन मुजाहिदीन के सबसे महत्वपूर्ण चेहरे के बतौर देखा जाता है.

रियाज अपने दोस्तों को बताता था कि सिमी बिना रीढ़ का संगठन है. कहा जाता है कि वह दूसरे युवाओं को सिमी के खिलाफ कर रहा था. उसका भाई इकबाल  हकलाता था और मुंबई में इत्र बेचता था. व्यवसायी परिवार से ताल्लुक रखने वाले भटकल ब्रदर्स बहुत धार्मिक नहीं थे. उनका एक दोस्त बताता है, ‘वे जींस पहनने वाले आम लड़के थे जो न तो दाढ़ी रखते थे और न ही नमाज पढ़ते थे. हकीकत तो यह है कि उनका मजहब से कोई खास लेना-देना ही नहीं था.’

सुरक्षा एजेंसियों के मुताबिक 2003 तक भटकल ब्रदर्स इंडियन मुजाहिदीन के ज्यादातर सदस्याओं के संपर्क में आ चुके थे. वे सिमी के मातृ संगठन जमात-ए-इस्लामी से नाराज थे कि वह उतना कट्टर नहीं है जितना उसे होना चाहिए. वे इस बात से भी नाखुश थे कि गुजरात दंगों के अपराधी खुले घूम रहे हैं. जल्दी ही एक योजना बना ली गई. सादिक शेख (मुंबई ट्रेन धमाकों का मुख्य अभियुक्त जो अभी जेल में है) और अब्दुल सुभान कुरैशी उर्फ तौकीर को हैदराबाद, आजमगढ़, मुंबई और अहमदाबाद के मुसलिम बहुल इलाकों से कुछ नौजवानों को चुनने की जिम्मेदारी दी गई. बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगों का बदला सबका साझा लक्ष्य बन गया था.

2007 में धमाके शुरू हुए. इंडियन मुजाहिदीन अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ रहा था. आरोप पत्र बताते हैं कि बटला हाउस एनकाउंटर में मारा गया आतिफ अमीन और उसके आजमगढ़ माड्यूल ने लोग मुहैया कराए, सादिक शेख ने संपर्क साधने वाले की जिम्मेदारी निभाई, इकबाल भटकल ने मीडिया सेल की जिम्मेदारी ली और रियाज भटकल ने बम बनाने के सामान और विस्फोटक मुहैया कराए. अलग-अलग ब्रिगेड बनीं. दक्षिण में हमले के लिए शहाबुद्दीन ब्रिगेड, उत्तर के लिए मोहम्मद गजनवी ब्रिगेड और वीवीआईपी पर हमलों के लिए शहीद अल-जरकावी ब्रिगेड. अभियुक्तों के बयानों और दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल, मुंबई की एटीएस, जयपुर की एसआईटी और आंध्र प्रदेश के ऑक्टोपस द्वारा जमा किए गए आधिकारिक दस्तावेजों के अनुसार आंकड़े इस तरह हैं- लुंबिनी पार्क और गोकुल चाट भंडार विस्फोट हैदराबाद ( 25 अगस्त, 2007), उत्तर प्रदेश की अदालतों में विस्फोट (20 नवंबर, 2007), जयपुर विस्फोट (13 मई, 2008), बेंगलुरु विस्फोट (25 जुलाई, 2008), गुजरात विस्फोट (26 जुलाई, 2008) और सितंबर, 2008 के दिल्ली विस्फोटों में 215  से अधिक लोग मारे गए. इन सभी विस्फोटों का आरोप इंडियन मुजाहिदीन पर है.

तब से पूरे देश में 65 लोगों की गिरफ्तारियां हुई हैं और उनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए गए हैं. करीब 50 लोग अभी भी फरार हैं. और करीब 1,000 लोग गवाही दे चुके हैं. सभी विस्फोटों में अमोनियम नाइट्रेट और सेलफोन अलार्म का इस्तेमाल हुआ. हाल के मुंबई विस्फोटों में भी ऐसा ही किया गया. लेकिन इस बार ई-मेल नहीं आए. इससे पहले तक विस्फोट के ठीक बाद किसी असंदिग्ध नागरिक के वाई-फाई अकाउंट को हैक करके ई-मेल भेजा जाता रहा था कि ‘हम इंडियन मुजाहिदीन के लोग इस हमले की जिम्मेदारी लेते हैं. यह देश में पुलिस की बर्बर गिरफ्तारियों और अन्याय को हमारा जवाब है.’

दो साल पहले तहलका को गुजरात बम विस्फोट केस के मुख्य गवाह ने, जिसकी गवाही के आधार पर  पुलिस ने 22 लोगों को गिरफ्तार किया था, बताया था कि इस मामले में उसकी गवाही पर गिरफ्तार किए गए ज्यादातर लोग बेगुनाह थे और ब्लास्ट में बाहर से आए मुस्लिम नौजवानों का हाथ था. तहलका ने इसकी तहकीकात के लिए साबरमती जेल में बंद आरोपितों से बात कर इसकी पुष्टि भी की थी. इसके बाद ही हमने सवाल उठाया कि अगर खुफिया विभाग पुराने सिमी सदस्यों पर निगरानी रख रहा था तो ये लोग विस्फोट करवाने में कैसे सफल रहे.

वही सवाल अब भी उठाया जा सकता है. मुंबई पुलिस ने इंडियन मुजाहिदीन के दो कथित सदस्यों को कुछ समय पहले हिरासत में लिया था. उनमें से एक, फैज उस्मानी की पिछले पखवाड़े पुलिस हिरासत में मौत हो गई (बॉक्स देखें). पूछताछ करने वाली एजेंसियों का मानना है कि फैज अपने भाई इकबाल उस्मानी, जो अहमदाबाद विस्फोट में शामिल होने की वजह से जेल में है, और रियाज भटकल के लिए काम करता था. अगर ऐसा था तो एजेंसियों के पास हालिया मुंबई धमाकों से पहले कोई सूचना क्यों नहीं थी? सादिक शेख भी हिरासत में है और उससे मिली जानकारी से भी दूसरों तक पहुंचा जा सकता था. तालिबान और पाकिस्तान को गुप्त सूचनाएं देने के इल्जाम में पिछले महीने गुजरात पुलिस द्वारा धरे गए दानिश रियाज से सूचनाएं क्यों नहीं निकाली गईं? पांच से 18 जून तक मध्य प्रदेश एटीएस ने भी इंडियन मुजाहिदीन के 18 सदस्यों को पकड़ा था. और अगर पूर्व सिमी सदस्यों के फिर से इकट्ठा होने की गतिविधियों की भी निगरानी हो रही थी तो कैसे कोई पूर्व संकेत नहीं मिल पाए?

तहलका ने जब 2009 में इंडियन मुजाहिदीन के बारे में जानकारी जुटाने के लिए एजेंसियों और पकड़े गए लोगों से तीन राज्यों में जाकर बात की थी तो ऐसा नहीं लगा था कि सिमी का इनसे कोई संबंध हो. सभी कथित सदस्य 20 से 30 साल के बीच के धार्मिक युवा थे. पुणे में इनमें से ज्यादातर वहां की कुरान फाउंडेशन का हिस्सा थे, सूरत में खिदमत ग्रुप के. दिल्ली में ये लोग आतिफ अमीन के करीबी दोस्त थे और आंध्र प्रदेश में सरानी नाम के एक ग्रुप का हिस्सा जिसे तकनीक में दिलचस्पी रखने वाले युवाओं ने बनाया था. कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि ये लोग पैसे के प्रलोभन में कुछ कर रहे हैं या फिर इनके पास कहीं से पैसा आ रहा है. ज्यादातर ने अपना मकसद सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाना बताया. बाबरी मस्जिद, चेचन्या और फिलिस्तीन इनके लिए पैमाने थे. इन नौजवानों ने खुद ये त्रासदियां नहीं झेली थीं मगर वे पीड़ितों से सहानुभूति रखते थे. 

ऐसा भी लगता है कि गिरफ्तार किए गए ज्यादातर लोग वे हैं जो इंडियन मुजाहिदीन में बहुत निचले स्तर पर काम करते हैं या फिर उन्हें आरोपितों को शरण देने के लिए गिरफ्तार किया गया. रियाज, यासीन और इकबाल भटकल, आमिर राजा खान, आलमजेब अफरीदी और सुभान कुरैशी जैसे मुख्य आरोपित फरार हैं. आरोपित और गवाहों के बयान बताते हैं कि कुरैशी अहमदाबाद धमाकों के एक महीने पहले तक गुजरात में ही था. इसके बावजूद वह पकड़ा नहीं जा सका.

\सादिक शेख का नाम भी अतीत में  आईएम के मास्टरमाइंड के रूप में सामने आ चुका है. उस पर मुंबई ट्रेन धमाकों के पीछे हाथ होने का आरोप है. साथ ही दिल्ली और गुजरात धमाकों के षड्यंत्र रचने के अलावा उस पर इन धमाकों के लिए लोगों को भर्ती करने का भी आरोप है. महाराष्ट्र एटीएस जो काफी समय तक मानती आ रही थी कि ट्रेन धमाकों में इंडियन मुजाहिदीन का हाथ नहीं है, को बड़ा झटका तब लगा जब 2009 में एक न्यूज चैनल ने गुजरात पुलिस का एक वीडियो दिखाया. इस वीडियो में यह सादिक कहते हुए दिखा कि ट्रेन में धमाके उसने आईएम के कहने पर किए थे. इसके बाद महाराष्ट्र एटीएस को अपना बचाव करते हुए कहना पड़ा कि सादिक ही ट्रेन ब्लास्ट के लिए जिम्मेदार है मगर यह काम उसने हूजी के कहने पर किया था. इसी विरोधाभास के चलते मुंबई हाई कोर्ट को ट्रेन ब्लास्ट केस में सादिक को छोड़ना पड़ा था. इसके बावजूद शेख गुजरात और दिल्ली ब्लास्ट केस में शामिल होने की वजह से अहमदाबाद की जेल में सलाखों के पीछे है. महाराष्ट्र के गृह विभाग के एक अधिकारी कहते हैं,’जांच एजेंसियों के इस केस में गलत तरीके से जांच-पड़ताल करने और आपस में सामंजस्य न होने की वजह से ही यह केस एजेंसियों के खिलाफ चला गया है. इसमें कोई शक नहीं है कि ये लोग हमलों में शामिल थे मगर गलत केसों में उन्हें गिरफ्तार करके उनकी गिरफ्तारी को सही करार देने की कोशिश करना अब जांच एजेंसियों को भारी पड़ रहा है.’

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ से आने वाला शेख अपने परिवार के साथ मुंबई के चीता कैंप में रहा था. रेफ्रिजेरेशन में कोर्स करने के बाद शेख ने पांच साल तक गोदरेज में काम किया और बाद में सीएमएस नाम की कंपनी से जुड़ गया. उसकी कंपनी का रिकॉर्ड दिखाता है कि गुजरात धमाकों के दिन वह शहर में ही था. मुर्गीपालन का काम करने वाले उसके भाई का कहना है कि जब से उसके पिता को शेख के बारे में पता चला है वे पूरी तरह खामोश हो गये हैं. असद कहता है, ‘हमसे कहा जाता है कि उसने ही मुंबई और गुजरात ब्लास्ट किया है और उसके बाद वह पाकिस्तान और बांग्लादेश चला गया…मगर वह बिना पासपोर्ट के कैसे जा सकता है? वह हमेशा या तो हमारे साथ रहा या फिर आजमगढ़ में. आजमगढ़ के लोग इसकी गवाही भी दे सकते हैं.’ 

परिवार के अनुसार, 17 अगस्त को जब सादिक काम के लिए निकला तभी उसे हिरासत में ले लिया गया था. उस दिन जब वह काम पर नहीं पहुंचा तो उसकी कंपनी ने दो बार फोन भी किया. कुछ समय बाद सादिक ने फोन करके कहा कि वह दो दिन के लिए बाहर जा रहा है. जब दो दिन बाद भी वह नहीं लौटा तो उसकी भाभी ने उसे फोन किया जो सादिक ने उठाया और कहा कि वह अभी व्यस्त है और दोदिन बाद घर लौट आएगा. उसके बाद उसका फोन नहीं लगा.

उसके परिवार को उसकी गिरफ्तारी की जानकारी क्राइम ब्रांच ने 24 अगस्त को दी. मुंबई पुलिस ने सादिक को एक विदेशी हाथ बताया जिसने लश्कर-ए-तैयबा की मदद से इंडियन मुजाहिदीन की स्थापना की थी. खबर लिखे जाने तक महाराष्ट्र के गृह सचिव ने तहलका से कहा था, ’अभी इंडियन मुजाहिदीन का नाम लेना काफी जल्दबाजी होगा. हम लोग बाकी सुरागों पर भी काम कर रहे हैं. लेकिन हां, इंडियन मुजाहिदीन हमारे लिए चिंता का विषय जरूर है. यह एक गंभीर खतरा है और हम लोग इन लोगों को पकड़ने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेंगे ’

लेकिन अभी पुरानी आतंकी घटनाओं की जांच-पड़ताल भी जांच एजेंसियों के आपसी विरोधाभास की वजह से विवाद के साये में है. ऐसा भी नहीं लगता कि जेल में इन हमलों का कोई मास्टरमांइड ही सलाखों के पीछे हो. सिर्फ वही लोग हैं जो ऊपर से आदेश लेकर हमलों को अंजाम देते हैं.

जहां तक जेल में बंद लोगों की बात है तो उन पर कई वर्षों से मामला चले जा रहा है क्योंकि न तो महाराष्ट्र एटीएस ने उनकेे खिलाफ कोई पुख्ता केस बनाया है और न ही गुजरात एटीएस ने. साथ ही इन लोगों के हिरासत में होने का भी कोई खास फायदा अभी तक नहीं मिला है क्योंकि इनसे ऐसी कोई सूचना नहीं मिली है जिससे नये हमलों को रोका जा सके. इसके अलावा पुख्ता खुफिया सूचनाएं हैं कि भगोड़े यासीन और रियाज भटकल कर्नाटक में अपने-अपने घर जाते रहते हैं. दरअसल जांच एजेंसियों में आसान शिकारों को पकड़ कर तसल्ली कर लेने की परंपरा बन गई है.  इसके चलते असल और बड़े अपराधी कानून के शिकंजे में नहीं आ पा रहे. इसका नतीजा पूरे देश को भुगतना पड़ रहा है. 

वस्तानवी की विदाई के मायने

छह महीने चले विवाद और जांच के बाद आखिरकार रविवार, 24 जुलाई को दारुल उलूम, देवबंद के मोहतमिम (कुलपति) गुलाम मोहम्मद वस्तानवी बरखास्त कर दिए गए. उनके पक्ष में कोई भी चीज काम न आई. इसके बावजूद कि उनके खिलाफ गठित तीन सदस्यीय जांच कमेटी ने उन्हें निर्दोष करार दिया था और इसके बावजूद कि जांच कमेटी के दो सदस्य वस्तानवी को कुलपति बनाए रखने के पक्ष में थे, दारुल उलूम की प्रबंधकीय परिषद मजलिस-ए-शुअरा की बैठक में उन्हें अपना पद छोड़ने को कहा गया. हालांकि यहां वस्तानवी ने थोड़ा संघर्ष करने की कोशिश की. उन्होंने खुद इस्तीफा देने से इनकार कर दिया. बदले में फैसला मतदान के जरिए हुआ जिसमें उनके खिलाफ नौ वोट पड़े. उनकी हिमायत में पड़े चार वोटों में से एक खुद वस्तानवी का था और दो जांच कमेटी के सदस्यों के. 

मजलिस के काम करने का तरीका बताता है कि वस्तानवी को हटाने के लिए उनके इंटरव्यू को महज एक बहाने के रूप में इस्तेमाल किया गया 

वैसे गौर से देखा जाए तो वस्तानवी की देवबंद से विदाई की वजहें वे नहीं जो सतही तौर पर दिखती हैं.  यानी वे आरोप जो उनकी नियुक्ति के कुछ समय बाद से ही उन पर लगने लगे थे. दरअसल यह सिलसिला वस्तानवी के इसी साल जनवरी में उनके कुलपति पद पर चुने जाने के कुछ समय बाद शुरू हुआ था. एक अंग्रेजी अखबार को दिए गए इंटरव्यू में उन्होंने गुजरात दंगों को ‘आठ साल पुराना मामला’ बताते हुए उससे आगे बढ़ने को कहा था. 19 जनवरी को दिए गए इस इंटरव्यू में उन्होंने यह भी कहा कि ‘गुजरात में उतनी मुश्किलें नहीं हैं जितनी बताई जाती हैं.’ इस इंटरव्यू को वस्तानवी द्वारा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हिमायत माना गया और देवबंद और देश के दूसरे हिस्सों से भी वस्तानवी को हटाए जाने की मांग उठने लगी. दारुल उलूम में भी छात्रों के एक गुट ने वस्तानवी के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किए. विरोध का दायरा बढ़ने पर 23 फरवरी को मजलिस की बैठक हुई जिसमें वस्तानवी से इस्तीफे की मांग की गई. वस्तानवी ने तब मजलिस से उन्हें सीधे नहीं हटाने का आग्रह किया. उन्होंने कहा कि उन पर लगाए जा रहे आरोपों की जांच कराने के लिए एक कमेटी गठित की जाए. कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद वे खुद ही इस्तीफा दे देंगे, भले ही कमेटी की रिपोर्ट उनके पक्ष में हो या उनके खिलाफ हो.

जांच के लिए बनी तीन सदस्यीय कमेटी ने लगभग पांच महीनों तक मामले की जांच की. तीनों सदस्यों, चेन्नई के मौलाना इब्राहीम कासमी, मालेगांव के मुफ्ती इस्माइल कासमी और मुफ्ती मंजूर कानपुरी ने दारुल उलूम का तीन बार दौरा किया. इसके बाद उन्होंने 23 जुलाई को मजलिस की बैठक में अपनी रिपोर्ट सौंप दी. एक नया विवाद तब खड़ा हुआ जब ऐसी खबरें सामने आईं कि जांच कमेटी के भीतर आम सहमति नहीं है. मौलाना इब्राहीम कासमी और मौलाना इस्माइल कासमी ने वस्तानवी के साथ सहानुभूति दिखाई जबकि मुफ्ती मंजूर कानपुरी ने कड़ा रुख अपनाया. मौलाना इस्माइल के मुताबिक वे और इब्राहीम कासमी तीन बार देवबंद आए और तीनों बार उन्होंने प्रदर्शनकारी छात्रों के बयान दर्ज करने चाहे. लेकिन हर बार मुफ्ती मंजूर ने आए हुए छात्रों को यह कह कर लौटा दिया कि उनके बयान की जरूरत नहीं है. इसका जिक्र इस्माइल कासमी ने अपनी रिपोर्ट में भी किया है. वे कहते हैं, ‘छात्रों का बयान इसलिए जरूरी था कि इसके बिना रिपोर्ट पूरी नहीं होती.’ लेकिन मुफ्ती मंजूर के मुताबिक उनकी नजर में छात्रों का बयान इसलिए जरूरी नहीं था क्योंकि वे किसी एक रुख पर कायम नहीं थे.

‘जिस तरह अंग्रेजों के जमाने में जमींदारों के तालुके हुआ करते थे, आज के जमाने में मदरसे ऐसे तालुके हो गए हैं. सारे देश में मुसलमानों का चाहे जो हो, लेकिन इनके मदरसे बने रहते हैं’ 

इस तरह बंटी हुई कमेटी ने जब मजलिस को रिपोर्ट सौंपी तो पाया गया कि उसने विवाद की मूल वजह पर अपनी कोई राय ही जाहिर नहीं की है. मजलिस के सदस्य मौलाना अलीम फारूकी के शब्दों में, ‘हमने रिपोर्ट की तह में न जाते हुए वस्तानवी के वादे को उनके निष्कासन का आधार बनाया. वस्तानवी ने कहा था कि रिपोर्ट आते ही वे इस्तीफा दे देंगे, चाहे रिपोर्ट में कुछ भी हो.’ इस तरह साफ-साफ दोष साबित नहीं होने के बावजूद वस्तानवी को उनके अपने ही बयान के आधार पर बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

हालांकि वस्तानवी का इस मामले में दूसरा ही रुख है. निष्कासन के बाद मीडिया से बातचीत करते हुए उनका तर्क था कि कमेटी ने जो रिपोर्ट शुअरा को सौंपी थी वह अधूरी थी. उनका कहना था, ‘तीनों सदस्यों ने काफी मेहनत से रिपोर्ट बनाई थी, लेकिन खुद उन्होंने ही यह स्वीकार किया है कि रिपोर्ट अधूरी है. अगर एक बाकायदा पूरी रिपोर्ट सौंपी गई होती तो मैंने खुद इस्तीफा दे दिया होता. इस पर मैं पहले भी राजी था और अब भी हूं.’

मजलिस के काम करने का तरीका बताता है कि वस्तानवी को हटाने के लिए उनके इंटरव्यू को महज एक बहाने के रूप में इस्तेमाल किया गया. जांच समिति के सदस्य इस्माइल कासमी इस फैसले पर दुखी होकर सवाल करते हैं, ‘हमारी 15 पन्नों की रिपोर्ट पर गौर भी नहीं किया गया. जब वस्तानवी को हटाने का इरादा बना ही लिया गया था तो कमेटी क्यों बैठाई गई थी?’
देवबंद के इस 145 साल पुराने मदरसे के इतिहास और इसके काम करने के तरीके पर नजर डालें तो वस्तानवी को हटाए जाने की पृष्ठभूमि सामने आ जाती है. दरअसल उन्होंने अपनी विदाई लगभग तभी पक्की कर ली थी जब वे इस साल 10 जनवरी को प्रभावशाली मदनी घराने के अरशद मदनी को हरा कर कुलपति चुने गए थे. देवबंद की इस उथल-पुथल की जड़ में मदनी घराने की ही राजनीति है. अपनी विदाई के बाद वस्तानवी ने इसका इशारा करते हुए कहा भी था, ‘जो लोग दारुल उलूम को अपने निजी और सियासी जागीर के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं उन्होंने मुझे सात महीनों तक काम नहीं करने दिया.’

देवबंद को करीब से जानने वालों का मानना है कि वस्तानवी में कई ऐसी बातें थीं जो उन्हें अब तक चले आ रहे कुलपतियों से अलग करती थीं और परंपरावादियों को खटक रही थीं. मसलन वे पहले कुलपति थे जिनके पास एमबीए की डिग्री थी. वे उत्तर प्रदेश से बाहर के पहले कुलपति थे. पहले के अधिकतर कुलपतियों की तरह वे कभी देवबंद के छात्र नहीं रहे. इसके अलावा मुसलिम बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र में उनका अपना स्वतंत्र योगदान था और वे महाराष्ट्र में लगभग दो दर्जन कॉलेज और सौ से अधिक मदरसे चलाते हैं जहां वे धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ मुसलिम बच्चों में आधुनिक शिक्षा की भी हिमायत करते हैं. इन सबको मिला कर वस्तानवी एक ऐसे शख्स के रूप में सामने आए जो देवबंद को पारंपरिक रास्ते से हटा कर एक नयी राह पर ले जा सकता था.

इसके साथ-साथ असुरक्षा की भावना भी उनकी राह का रोड़ा बनी. देवबंद पर स्थानीय मुसलिम राजनीतिक-धार्मिक नेताओं को एक बाहरी के प्रभाव में अपना प्रभुत्व घटने का खतरा सताने लगा था. दारुल उलूम पर अरसे से अपना नियंत्रण बनाए रखने वाले मदनी परिवार के लिए यह स्थिति माकूल नहीं थी. देवबंद से इस परिवार के संबंध का इतिहास लगभग एक शताब्दी पुराना है. इस संबंध की बुनियाद दारुल उलूम के संरक्षक रहे जाने-माने इस्लामी विद्वान मौलाना महमूद हसन के समय में पड़ी थी, जिनके ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष में उनके प्रमुख शिष्य हुसैन अहमद मदनी शामिल थे. इस संबंध की ओट में देवबंद मदरसे पर अपना दबदबा बढ़ाते हुए इस परिवार ने एक तरह से इस पर अपना नियंत्रण ही कायम कर लिया. इसके पीछे दो वजहें थीं. एक तो आजादी की लड़ाई में जिन्ना की मुसलिम लीग के उलट देवबंद ने राष्ट्रवादी रुख अपनाया. मुसलिम समुदाय में देवबंद की प्रतिष्ठा अंतत: राजनीतिक समर्थन के रूप में सामने आई. नतीजतन आजादी के बाद देवबंद की कांग्रेस से स्वाभाविक नजदीकी बनी. दूसरी वजह इससे होने वाली आर्थिक आय भी थी. देवबंद और मुसलिम राजनीति पर नजदीकी से नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार आतिक खान बताते हैं, ‘जिस तरह अंग्रेजों के जमाने में जमींदारों के तालुके हुआ करते थे, आज के जमाने में मदरसे ऐसे तालुके हो गए हैं. सारे देश में मुसलमानों का चाहे जो हो, लेकिन इनके मदरसे बने रहते हैं.’

पारंपरिक रूप से दारुल उलूम कांग्रेस का हिमायती रहा है. उत्तर प्रदेश में इसका लगभग एक चौथाई विधानसभा सीटों पर खासा असर है. वस्तानवी के बयान पर इतना बड़ा विवाद खड़ा हो जाने की वजह इसे भी माना जा रहा है. आने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर मदनी परिवार और दारुल उलूम के सियासी असर का फायदा उठाती रही पार्टियां नहीं चाहेंगी कि इसके शीर्ष पर एक ऐसा बाहरी आदमी बैठा रहे जो उनकी राजनीतिक गोटियों को गड़बड़ा सकता हो.

महमूद मदनी इस आरोप से इनकार करते हैं. वस्तानवी और अरशद के बीच पारिवारिक रिश्ते का हवाला देते हुए वे पूछते हैं, ‘वस्तानवी साहब अरशद मदनी के समधी हैं. वे बाहर के कहां हुए?’ इसके आगे वे कोई टिप्पणी करने से इनकार करते हुए कहते हैं, ‘मदनी परिवार और देवबंद से जुड़े बाकी के सवाल अरशद मदनी से किए जाने चाहिए जो वहां से जुड़े हुए हैं. मैं तो न देवबंद का अभी छात्र हूं न टीचर हूं न शुअरा में हूं.’

जवाब देने के लिए अरशद मदनी मौजूद नहीं हैं. वे अभी वस्तानवी को हटाए जाने के बाद उमरा (एक तरह का हज) करने गए हैं. 

बालकृष्ण की लीला

इस साल पतंजलि विश्वविद्यालय का पहला दीक्षांत समारोह होना था. 2006 में उत्तराखंड सरकार के अधिनियम से हरिद्वार में खोले गए इस निजी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति बाबा रामदेव हैं और कुलपति आचार्य बालकृष्ण. परंपरा के अनुसार दीक्षांत समारोह में कुलपति नवस्नातकों को शपथ दिलाते हैं जिनके लिए यह दिन जीवन के सबसे गरिमामयी दिनों में से एक होता है. इस दिन सारे स्नातक खड़े होकर अपने कुलपति द्वारा बोली जा रही शपथ को दोहराते हैं. यह शपथ मानवता की सेवा करने, अपनी शिक्षा का प्रयोग मानवता के लिए करने, उस शिक्षा की मर्यादा रखने और देश व मानवता के कानून को मानने आदि की होती है. फिर कुलपति दीक्षांत भाषण भी देते हैं जिसमें वे आदर्श जीवन जीने और विश्वविद्यालय की परंपराओं को आगे बढ़ाने की नसीहत देते हैं. पतंजलि विश्वविद्यालय में भी यही होना था.

पतंजलि के कई कार्यक्रमों में तब पार्टियों की सीमाओं से हटकर कई प्रदेशों के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री एक साथ शामिल होते थे. बाबा रामदेव जिस भी प्रदेश में जाते वहां उनके योग कार्यक्रम की शोभा बढ़ाने मुख्यमंत्री या कोई मंत्री जरूर होते थे

पर इस बीच काफी कुछ बदल गया. आज पतंजलि विश्वविद्यालय के कुलपति आचार्य बालकृष्ण फर्जी डिग्रियों को रखने और फर्जी प्रमाण पत्रों की सहायता से अपना भारतीय पासपोर्ट बनाने के आरोप में गिरफ्तारी से बचने के लिए भागे-भागे फिर रहे हैं. सीबीआई ने उन्हें सम्मन देकर 28 जुलाई, 2011 को अपने देहरादून कार्यालय में अपने मूल प्रमाण पत्रों के साथ बुलाया था. पर वे नहीं आए और उन्होंने सम्मन भी नहीं लिया. इसके बाद सीबीआई के कर्मचारियों और हरिद्वार की कनखल पुलिस ने सम्मन को दिव्य योग पीठ पर चस्पा कर दिया.

बालकृष्ण का 25 जुलाई, 2011 से कोई अता-पता नहीं था. गायब होने के एक दिन पहले सीबीआई ने उनके खिलाफ देहरादून में एफआईआर लिखाई थी. बालकृष्ण के गनर जयेंद्र असवाल ने उसी दिन हरिद्वार के कनखल थाने में उनके गायब होने की रिपोर्ट की थी. रिपोर्ट में कहा गया था कि बालकृष्ण और रामदेव के भाई रामभरत ने पतंजलि योग पीठ से उसे अलग गाड़ी में दिव्य योग मंदिर आने को कहा परंतु बालकृष्ण उसे दिव्य योग पीठ में नहीं मिले. सम्मन तामील न करा पाने के बावजूद कनखल थाने के थानाध्यक्ष प्रदीप चौहान बताते हैं कि आश्रम वासियों के अनुसार बालकृष्ण आश्रम में ही हैं. यह बात 27 जुलाई को प्रेस वार्ता में रामदेव ने भी कही. इससे पहले सीबीआई के सामने पेश होने की बजाय बालकृष्ण के वकीलों ने नैनीताल उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर सीबीआई द्वारा बालकृष्ण के विरुद्ध दायर की गई एफआईआर खारिज करने की मांग की. अदालत ने ऐसा तो नहीं किया लेकिन उन्हें थोड़ी राहत देते हुए उनकी संभावित गिरफ्तारी पर रोक जरूर लगा दी. मामले की अगली सुनवाई अब 29 अगस्त को होनी है और अदालत ने इस बीच बालकृष्ण को जांच में सहयोग करने के लिए कहा है.

वैसे सीबीआई अगर आचार्य को गिरफ्तार भी कर लेती तो भी प्रस्तावित दीक्षांत समारोह के कार्यक्रम पर कोई खास फर्क नहीं पड़ सकता था. बालकृष्ण चाहते तो जमानत लेकर दीक्षांत समारोह में नवस्नातकों को शपथ दिला सकते थे. देश में ऐसा कोई कानून नहीं है जो किसी फर्जी डिग्रीधारक को कुलपति बनने और उसके बाद दीक्षांत समारोह में भाग लेने से रोके. कोई नहीं जानता कि पतंजलि योग पीठ ने कुलपति के लिए शैक्षिक योग्यता का क्या प्रावधान रखा है. राज्य के अन्य सरकारी विश्वविद्यालयों में कुलाधिपति राज्यपाल हैं और कुलपति पद पर जाने-माने शिक्षाविद. गढ़वाल विश्वविद्यालय की कार्य परिषद के पूर्व सदस्य योगेंद्र खंडूड़ी का मानना है कि निजी विश्वविद्यालयों के कुलपति पदों पर नियुक्ति के लिए भी सरकार को नियम बनाने चाहिए क्योंकि निजी विश्वविद्यालय पारिवारिक कंपनियों की तरह चलाए जा रहे हैं. खंडूड़ी कहते हैं, ‘ये पद तो उच्च नैतिकता और श्रेष्ठ उदाहरणों वाले व्यक्तियों को ही दिए जाने चाहिए. अन्यथा भविष्य में इस तरह के कई और मामले सामने आएंगे.’ बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण को काफी समय से अति विशिष्ट व्यक्तियों वाली सुविधाएं मिली हुई हैं और उसी के अनुसार उन्हें सम्मान भी मिलता रहा है. कुछ समय पहले तक हर महीने पतंजलि योग पीठ में देश या दुनिया की कोई न कोई बड़ी और प्रसिद्ध हस्ती आती ही रहती थी.

रामदेव और उनके सहयोगी बालकृष्ण के सुखद और सम्मानित दिन 4-5 जून की अर्धरात्रि को रामलीला मैदान वाली घटना के बाद बदल गए. केंद्र सरकार ने उन दोनों और उनके संस्थानों की जांच शुरू कर दी. सबसे सरल निशाना आचार्य बालकृष्ण थे जो नागरिकता के मामले में आसानी से घिर सकते थे

लेकिन ऐसा नहीं था कि उन दिनों बालकृष्ण की नागरिकता और फर्जी डिग्रियों के मामले नहीं उठ रहे थे. तब इनके अलावा पतंजलि से जुड़े कई मामलों में आंदोलन तक हुए. सीटू की राष्ट्रीय समिति के सदस्य महेंद्र जखमोला बताते हैं, ‘मई 2005 में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सांसद वृंदा करात ने दिव्य योग पीठ में हो रही अनियमितताओं को सड़क से लेकर संसद तक उठाया था.’ उस समय उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार थी और नारायण दत्त तिवारी प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. फिर भी करात जैसी मुखर और प्रभावशाली सांसद द्वारा उठाए गए सही और जायज मुद्दों पर भी कुछ नहीं हुआ. जखमोला का आरोप है कि तब केंद्र के स्वास्थ्य मंत्रालय ने राज्य सरकार को दिव्य योगपीठ की दवाइयों की जांच करने के आदेश दिए थे पर उस जांच का क्या हुआ कोई नहीं जानता. मजदूरों के शोषण पर उच्च न्यायालय के आदेशों को भी तिवारी सरकार पचाती चली गई.

इन सब विवादों के बाद भी बाबा रामदेव की संपत्ति और शोहरत बढ़ती रही. कुछ न होता देख सितंबर, 2005 को सीटू ने  राष्ट्रपति को ज्ञापन भेज कर आचार्य बालकृष्ण की नागरिकता और फर्जी पासपोर्ट के मामले की जांच करने की मांग की थी. जखमोला तब राष्ट्रपति भवन से आए पत्र को दिखाते हुए कहते हैं, ‘राष्ट्रपति ने उनकी शिकायतों पर राज्य सरकार को जांच करने के लिए लिखा था. फिर भी कुछ नहीं हुआ.’
बालकृष्ण को पहला पासपोर्ट 29 अप्रैल, 1998 को जारी हुआ था. आरोपों और पुलिस की पहले की जांच रिपोर्टों में भारतीय नागरिक न होने की पुष्टि के बाद भी सात फरवरी, 2007 को बालकृष्ण को एक और  पासपोर्ट जारी हो गया. यह उन्हें पहले वाले पासपोर्ट की 10 साल की वैध अवधि के समाप्त होने से पहले पुलिस व जिला प्रशासन की नयी और सही जांच रिपोर्टों के आधार पर मिला.

बाबा रामदेव और बालकृष्ण का सब कुछ ठीक चल रहा था कि रामदेव ने भारत स्वाभिमान यात्रा शुरू कर  दी और विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने सहित अन्य मांगों को पूरा करने के लिए दिल्ली की तरफ कूच किया. चार-चार केंद्रीय मंत्रियों की अगवानी भी रामदेव के जोग हठ को संतुष्ट नहीं कर पाई और वे  अपने अनुयायियों के साथ रामलीला मैदान में योग और आंदोलन करने लगे.

बालकृष्ण की जांच का आधार बना 29 अप्रैल, 2011 को भारतीय संत संगठन के अध्यक्ष प्रमोद कृष्ण के नेतृत्व में संतों के प्रतिनिधिमंडल का राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को दिया ज्ञापन. इस प्रतिनिधि मंडल में माधवाश्रम के शंकराचार्य, अखाड़ा परिषद के प्रवक्ता और रामदेव के मुखर विरोधी बाबा हठयोगी सहित कई संत थे. संतों ने राष्ट्रपति को दिए ज्ञापन में रामदेव और बालकृष्ण पर गंभीर आरोप लगाते हुए आरोपों की जांच सीबीआई से करवाने की मांग की. उन्होंने  रामदेव द्वारा भारत के धन को नेपाल तथा दुबई के रास्ते विदेश भेज कर वहां संपत्ति खरीदने के मामलों की जांच करने की मांग भी की. ज्ञापन में छठे, सातवें और आठवें बिंदु बालकृष्ण से संबंधित शिकायतों के हैं जिनमें बताया गया है कि ‘पतंजलि योग पीठ, दिव्य योग पीठ और दिव्य फार्मेसी के महत्वपूर्ण सदस्य आचार्य बालकृष्ण नेपाल के नागरिक हैं.’ ज्ञापन के अनुसार कोई भी व्यक्ति जो भारत का नागरिक नहीं है वह भारत में किसी ट्रस्ट का सदस्य या कंपनी का निदेशक नहीं बन सकता. संतों ने ज्ञापन में आगे बालकृष्ण का नेपाल का पता देते हुए बताया कि नेपाल का निवासी होते हुए भी उन्होंने उत्तराखंड के हरिद्वार से अपना पासपोर्ट बनाया है. संतों ने इसे एक गंभीर अपराध बताते हुए जांच की मांग की. राष्ट्रपति ने संतों के शिकायती पत्र को कार्रवाई के लिए प्रधानमंत्री के पास भेज दिया. इसी बीच यह मामला तूल पकड़ते हुए केंद्र सरकार के गले की हड्डी बन चुका था. मामले की जांच के लिए प्रधानमंत्री ने यह पत्र सीबीआई को भेज दिया जिसने 26 जून, 2011 से मामले की जांच शुरू कर दी. आरंभिक जांच में बालकृष्ण के खिलाफ सबूतों के मिलने पर सीबीआई ने आचार्य बालकृष्ण के विरुद्ध एफआईआर दर्ज कर दी. इस तरह जो काम पहले लंबे आंदोलनों, जनप्रतिनिधियों की शिकायतों और संसद में मामला उठाने के बाद भी नहीं हुआ, संतों के एक प्रतिनिधिमंडल के पत्र से हो गया.

एफआईआर के अनुसार बालकृष्ण का वास्तविक नाम नारायण प्रसाद सुवैदी है. उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा नेपाल के श्री तेग प्राथमिक स्कूल में प्राप्त की. 1998 में  उन्होंने बरेली पासपोर्ट कार्यालय में भारतीय पासपोर्ट के लिए आवेदन किया, जहां उन्होंने आवासीय पते के प्रमाण के लिए इंडियन ऑयल कंपनी से मिले गैस कनेक्शन की फोटो प्रति जमा की. जन्मतिथि प्रमाण पत्र के लिए आचार्य बालकृष्ण ने संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, बनारस द्वारा उन्हें दिया गया पूर्व मध्यमा (हाई स्कूल के समकक्ष) का प्रमाण पत्र  लगाया. प्रमाण पत्र के अनुसार आचार्य बालकृष्ण ने पूर्व मध्यमा की यह परीक्षा विश्वविद्यालय के उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के खुर्जा स्थित राधाकृष्ण संस्कृत महाविद्यालय केंद्र से पास की थी. विश्वविद्यालय ने बालकृष्ण को 21 मई, 1987 को मध्यमा का प्रमाण पत्र जारी किया था. इस प्रमाण पत्र के अनुसार आचार्य बालकृष्ण की जन्मतिथि 25 जुलाई, 1972 है. शैक्षिक योग्यता के रूप में आचार्य बालकृष्ण ने संपूर्णानंद विश्वविद्यालय, बनारस के द्वारा जारी आचार्य (पोस्ट ग्रेजुएशन) की डिग्री की प्रति लगाई है. बालकृष्ण ने आचार्य की परीक्षा सांख्य दर्शन विषय से खुर्जा से ही पास की. विशेषज्ञों के अनुसार आचार्य ने मध्यमा और शास्त्री स्तर पर सांख्य दर्शन नहीं पढ़ा इसलिए वे सांख्य दर्शन से आचार्य परीक्षा पास नहीं कर सकते थे.

सीबीआई के हाथ नई दिल्ली के गौतम नगर स्थित  श्री मद्यानंद वेदर्षि महाविद्यालय न्यास से जारी एक प्रमाण पत्र भी लगा है जिसके अनुसार कृपालुबाग आश्रम, हरिद्वार के बालकृष्ण पुत्र जयबल्लभ सुवैदी ने उनके विद्यालय में 12 जुलाई, 1986 को प्रवेश लिया और वहां से छठी, सातवीं और आठवीं की परीक्षा पास की. इस प्रमाण पत्र में भी उनकी जन्म तिथि 25 जुलाई, 1972 दी गई है. इस प्रमाण पत्र पर यदि भरोसा किया जाए तो बालकृष्ण ने वर्ष 1986 में कक्षा छह में प्रवेश लिया और 1988 में वहां से कक्षा आठ की परीक्षा पास कर बाहर निकले . कक्षा आठ करने के बाद ही वे पूर्व मध्यमा में प्रवेश ले सकते थे. इस प्रमाण पत्र के अनुसार उन्हें पूर्व मध्यमा की परीक्षा वर्ष 1990 से पहले किसी भी हाल में पास नहीं करनी चाहिए थी. परंतु कक्षा छह में प्रवेश के अगले ही साल संपूर्णानंद विश्वविद्यालय ने उन्हें पूर्व मध्यमा का प्रमाण पत्र भी दे दिया.

शैक्षिक प्रमाण पत्रों के फर्जीवाड़े के अलावा हरिद्वार नगरपालिका ने बालकृष्ण को दो तरह के जन्म प्रमाण पत्र जारी किए हैं. मामला उठने पर नगरपलिका के अधिशासी अधिकारी बीएल आर्य ने ताल ठोककर कहा कि कोई भी व्यक्ति नगरपालिका से बालकृष्ण के जन्म प्रमाण पत्र की पत्रावलियों को सूचना अधिकार में ले सकता है. लेकिन जब मामले की जांच करने गई सीबीआई टीम को बालकृष्ण के जन्म प्रमाण पत्र से संबंधित पत्रावलियां नहीं मिली तो अधिशासी अधिकारी ने जन्म पत्रावलियों से संबंधित 17 फाइलों के गायब होने की रिपोर्ट दर्ज करा दी.

बालकृष्ण ने इसके अलावा दो हथियारों के भी लाइसेंस लिए हैं. इनके आवेदन में भी उन्होंने खुद को भारतीय बताया है. पतंजलि योग पीठ ट्रस्ट की उपमंत्री रही साध्वी कमला बहिन ने हाल ही में बताया कि बालकृष्ण और करमवीर पहले से ही कृपालु बाग आश्रम में रहते थे. रामदेव बाद में आए . पर गुरु शंकरदेव के आश्रम को ट्रस्ट में बदलकर रामदेव और बालकृष्ण शक्तिशाली हो गए. बाद में इन्होंने पतंजलि और अन्य ट्रस्ट भी शुरू किए. इन सभी ट्रस्टों में रामदेव अध्यक्ष हैं और बालकृष्ण सचिव. इसके अलावा रामदेव के भाई रामभरत और आचार्य बालकृष्ण तीन दर्जन के लगभग कंपनियों में निदेशक हैं. संतों के ज्ञापन के अनुसार इन सभी कंपनियों में ट्रस्टों का पैसा लगा है. इन कंपनियों और पैसे की जांच भी प्रवर्तन निदेशालय कर रहा है.

रामदेव के साम्राज्य में अब बालकृष्ण ही बाहरी हैं. बाकी सारे ट्रस्टों, उद्योगों और संपत्तियों का प्रबंधन और लेन-देन बाबा रामदेव के भाई रामभरत, जीजा यशदेव शास्त्री और नजदीकी रिश्तेदार करते हैं. आश्रम के सूत्रों के अनुसार इन रिश्तेदारों और बालकृष्ण के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. कुछ समय पहले रामभरत और उसके साथियों ने पतंजलि योग पीठ में बालकृष्ण की जमकर पिटाई भी की. बालकृष्ण, रामदेव के सभी राज जानते हैं, इसलिए आश्रम के सूत्रों के अनुसार अब बालकृष्ण को कभी भी अकेला नहीं छोड़ा जा रहा है.

बालकृष्ण ही नहीं बाबा रामदेव ने भी कभी यह नहीं बताया कि उन्होंने कब और कहां से शिक्षा प्राप्त की है. उनके द्वारा भी पासपोर्ट लेते वक्त गलत जानकारियां दी गई हैं. कभी दिन-रात आगंतुकों से भरा रहने वाला पतंजलि योग पीठ सूना-सूना है. बाबा की सेवा में तत्पर रहने वाले कर्मचारी आने वाले संकटों और जांच को देखकर नौकरी छोड़कर जा रहे हैं. हरिद्वार का संत समाज भी अब बाबा के साथ नहीं है. मदद में आने की बजाय संत समाज और अखाड़ा परिषद ने उनके कार्यों को संत मर्यादा के प्रतिकूल और निंदनीय बताया. बाबा को छींक आने पर भी पतंजलि पहुंचने वाले भाजपा नेताओं और राज्य सरकार ने भी उनसे दूरी बना ली है. अब देखना है राज्य सरकार और उसकी एजेंसियां इन जांचों में सीबीआई का कितना सहयोग करती हैं.

फिलहाल तो सीबीआई की तेजी से लगता है कि रामदेव और उनके साम्राज्य के लिए आने वाले दिन ठीक नहीं.

‘गर्भवती होने पर’

गर्भवती होना स्त्री के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना होती है.  लेकिन इसको लेकर जो ज्ञान आम  जन को है उसमें पचासों सलाहों, गलतफहमियों, अंधविश्वासों, मूर्खताओं तथा सामाजिक जिदों का ऐसा घालमेल हो गया है कि इसके चलते चाहे जब गर्भवती स्त्री की स्वयं की तथा उसमें पल रहे शिशु की जान तक खतरे में आ सकती है. इसीलिए आज हम गर्भवती स्त्री की देखभाल को लेकर समाज में फैली इन्हीं गलतफहमियों की बातें करेंगे.

पहली गलतफहमी तो यह है कि जब डॉक्टर ने एक बार देख लिया और सब ठीक बता दिया तो उसके पास अब डिलीवरी के समय ही जाएंगे. लेकिन गर्भ के इन नौ माहों में, अंदर ही अंदर बहुत कुछ हो सकता है. डॉक्टर ही जांच करके पकड़ सकता है कि बीपी बढ़ रहा है, गर्भाशय में बच्चा ठीक पोजिशन में है कि नहीं, पेशाब में प्रोटीन तो नहीं आ रहा इत्यादि. तो घर में न बैठे रहें. पहले छह महीने में हर माह, सातवें व आठवें महीने में हर 15 दिन पर तथा आखिरी माह में हर सप्ताह डॉक्टर को दिखाकर उसकी बताई सारी जांचें कराएं.

दूसरी गलतफहमी यह रहती है कि डॉक्टर तो अल्ट्रासाउंड इत्यादि जांचें पैसा कमाने के लिए कराते रहते हैं. पहले के जमाने में बिना इन जांचों के भी हमारी माता जी ने छह बच्चे पैदा किए थे कि नहीं? तब तो डॉक्टर मात्र नाड़ी पकड़कर ही सब जान लेता था… ऐसा नहीं है. पुराने जमाने में कितनी डिलीवरी बिगड़ जाया करती थीं, बच्चे मर जाते थे या विकृत पैदा हो जाते थे. आज अल्ट्रासाउंड मशीन द्वारा डॉक्टर देख सकता है कि बच्चा ठीक साइज का है, प्लासेंटा ठीक जगह है तथा उचित साइज का है, मां के गर्भाशय में उचित मात्रा में ‘एमनिओटिक’ द्रव है आदि. ये सूचनाएं स्वस्थ बच्चा पैदा होने की आश्वस्ति देती हैं. पांचवें माह का अल्ट्रासाउंड (जिसे टार्गेट स्कैन कहते हैं) बताता है कि गर्भ में पल रहे बच्चे में कोई पैदाइशी विकृति तो नहीं हैं. इसी तरह पहले तीन माह में, फिर छह माह तथा आठ माह पर यदि ब्लड शुगर जांच कराने को कहा जाए तो यह न सोचें कि मुझे या मेरे खानदान में तो आज तक डायबिटीज नहीं रही तो मैं यह सब क्यों कराऊं? गर्भ के दौरान होने वाली ‘गेस्टेशनल डायबिटीज’ ऐसे ही पता चलती है और न पता चले तो मां और बच्चे, दोनों को मुसीबत में डाल सकती है.

तीसरी गलतफहमी गर्भावस्था में खानपान को लेकर है. पचासों गलतफहमियां हैं. यह खाओ, इतना खाओ, यह कतई मत खाओ से लेकर स्पेशल किस्म के भोजन तक. कुछ बातें याद रखें. एक तो यह कि भूखे कभी न रहें. तनिक-सी भी भूख लगे तो तुरंत खा लें. थोडा-थोडा करके बार-बार खाते रहें. दो-दो घंटे पर खाएं. अलग से कुछ खाने को नहीं कहा जा रहा. वही दाल, सब्जी, रोटी, चावल, फल. भूख लगेगी तो अंदर पल रहा शिशु भी बेचैन होकर घूमता है जिसे आप लात चलाना कहते हैं. आम तौर पर एक घंटे में शिशु एक-दो बार ही पेट में घूमता है. यानि बच्चा तब भी घूमे तो तुरंत कुछ खा लें. न हो तो ग्लूकोज हीे घोलकर पी लें. यदि बच्चा तब भी बार-बार घूमे तो डॉक्टर को दिखाकर आएं. न घूम रहा हो तब भी. शुरुआत में उल्टियां होने के बावजूद खाना खाते रहें. फल सब््जियां पर्याप्त हैं. दूध भी. हमारे यहंा खाने को लेकर असली परेशानी तो डिलीवरी के बाद होती है. घर वाले ताकत वाले मेवे के लड्डू खिलाने पर जोर देते हैं और खाना रोक देते हैं. डिलीवरी के बाद उसी दिन से वही खाना खाने दें जो हम सब खाते हैं.

चौथी गलतफहमी को हम गलतफहमी न मानकर एक प्रश्न मानते हैं. आजकल प्राय: कामकाजी महिलाएं जब मां बनने वाली होती हैं तो प्रश्न उठता है कि अपने काम का क्या करें. क्या न करें?  इसका जवाब यह है कि पहले तीन माह तक दो पहिया वाहन से जहां तक हो न जाएं. वाहन में किक नहीं मार पाएंगी. कार, आरामदायक बस आदि से आखिरी सप्ताह तक काम पर जा सकेंगी. चौथे-पांचवे माह के बाद कार न चलाएं, स्टियरिंग से फंस कर बढ़े हुए पेट में चोट लग सकती है. दोपहर का खाना खाकर पांव दूसरी कुर्सी पर रखकर दो घंटे दफ्तर में ही आराम करें. बॉस को आपकी आराम की जरूरत को समझना होगा.

­­­पांचवी गलतफहमी यह है कि पोछा, झाड़ू तथा जमीन पर बैठकर ऐसे ही काम करने से पेल्विस की (कमर की) हड्डी में लचक आएगी जिससे नार्मल डिलीवरी की संभावना बढ़ जाएगी. यह गलत है. ऐसे कामों से उल्टा गर्भ को नुकसान पहुंच सकता है. हां खडे़ होकर या किचन के प्लेटफार्म के पास कुर्सी लगाकर बैठे-बैठे सारे काम किए जा सकते हैं.

छठवीं गलतफहमी यह है कि गर्भ के दौरान सहवास (सेक्स) नहीं करना चाहिए. ऐसा नहीं है. हां शुरू के तीन महीने तक संभोग बिल्कुल भी न करें. फिर आराम से कर सकते हैं. उचित तथा आपके पेट पर दबाव न डालने वाले आसन में संभोग करें.

सातवीं गलतफहमी यह है कि आजकल तो डॉक्टरों से बचकर चलना चाहिए वरना फालतू ही सीजेरियन ऑपरेशन कर डालते हैं. ऐसा नहीं है. ज्यादातर डॉक्टर जिम्मेदार और ईमानदार सलाह ही देते हैं. यदि बच्चा गर्भाशय में सिर की जगह ‘ब्रीच प्रेजेंटेशन’ या ‘तिरछा-आड़ा’ फंसा हो, यदि  पेल्विस की हड्डी संकरी हो, यदि बच्चा बड़े साइज का हो, यदि बच्चा अंदर किसी तकलीफ में होने के संकेत दे रहा हो या प्लासेंटा बच्चेदानी के मुंह के पास होने के कारण नार्मल डिलीवरी में बहुत खून बहने का डर हो तो सीजीरियन ऑपरेशन ही करना होगा. 

अनरियल एस्टेट

उत्तर प्रदेश के बिजनौर के रहने वाले विकास चौहान जब करीब एक दशक पहले दिल्ली आए तो उनके कई सपनों में से एक यह भी था कि देश की राजधानी में उनका एक अपना आशियाना हो. नौकरी मिली और आमदनी बढ़ने लगी तो उन्होंने अपने इस सपने को पूरा करने की कोशिश शुरू कर दी. प्रॉपर्टी की बढ़ती कीमतों की वजह से दिल्ली में तो कोई मकान उन्हें अपने बजट के अनुकूल नहीं दिखा लेकिन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में शुमार नोएडा में उन्हें अपने बजट का एक मकान जंच गया.

यहीं से चौहान की आपबीती का वह हिस्सा शुरू होता है जिसका ताल्लुक उनके जैसे दूसरे लाखों लोगों की पीड़ा से भी जुड़ता है. दरअसल भारतीय रियल एस्टेट सेक्टर का स्वास्थ्य काफी समय से ठीक नहीं चल रहा है. इस स्थिति का सबसे ज्यादा नुकसान उस आम आदमी को हो रहा है जो अपनी गाढ़ी कमाई से अपनी जिंदगी का सपना पूरा करना चाहता है.

चौहान की कहानी थोड़ी लंबी जरूर है मगर इसमें रियल एस्टेट सेक्टर में मौजूद कई समस्याओं के दर्शन हो जाते हैं. चौहान ने 2008 में नोएडा के सेक्टर-49 में एक बिल्डर द्वारा बनाए जा रहे अपार्टमेंट में एक फ्लैट बुक कराया. हरेराम सिंह नाम के इस बिल्डर ने उनसे कहा कि महीने भर में उन्हें अपने सपनों के घर की चाबी मिल जाएगी. कुल 17.21 लाख रुपये कीमत के इस फ्लैट के लिए चौहान ने बिल्डर को 2.5 लाख रुपये चुका दिए. इससे पहले बिल्डर ने उस इलाके के दो बैंकों के मैनेजरों से चौहान को यह भरोसा दिलवाया था कि उन्हें मकान खरीदने के लिए बैंक से कर्ज भी मिल जाएगा.

पर 2.5 लाख रुपये चुकाने के बाद स्थितियां अचानक चौहान के प्रतिकूल हो गईं. जिस क्षेत्र को बिक्री से पहले बिल्डर और बैंक अधिकृत कह रहे थे वह अचानक अनधिकृत हो गया. बैंक ने कर्ज देने से मना कर दिया और बिल्डर ने पहले से दिया पैसा लौटाने से. बकौल चौहान बिल्डर ने कहा कि वह तो मकान देने को तैयार ही है लेकिन अगर बैंक उन्हें कर्ज नहीं दे रहा तो इसमें वह क्या कर सकता है. चौहान का आरोप है कि बिल्डर और बैंक मैनेजर ने सांठ-गांठ करके उनसे पैसे ठगने का खेल खेला. इसके बाद चौहान ने सेक्टर-49 के थाने में शिकायत दर्ज कराई जिसके बाद बिल्डर ने उन्हें 2.5 लाख का एक चेक दिया. चौहान को लगा बला टली. पर हुआ उलटा. चेक बाउंस हो गया. काफी कहा-सुनी के बाद बिल्डर ने पांच हजार-दस हजार करके चौहान को डेढ़ लाख रुपये लौटाए लेकिन अब भी उनके एक लाख रुपये बिल्डर के पास फंसे हुए हैं. उनके मुताबिक पुलिस भी इस मामले में उनकी कोई मदद नहीं कर रही.

जिस क्षेत्र को बिक्री से पहले बिल्डर और बैंक अधिकृत कह रहे थे, वह पैसा चुकाने के बाद बैंक की नजर में अचानक अनधिकृत हो गयाअपने घर का सपना पूरा करने के लिए चौहान ने एक बार फिर 2010 में नोएडा एक्सटेंशन में आम्रपाली समूह की परियोजना में फ्लैट बुक कराया. पुरानी कहावत है कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है. चौहान ने भी सावधानी बरती. ‘मैंने सोचा कि पिछली बार अनजान और छोटे बिल्डर से फ्लैट लेने की वजह से मुझे परेशानी उठानी पड़ी इसलिए इस बार नामी कंपनी की परियोजना में मकान बुक कराता हूं’, चौहान कहते हैं. मकान बुक कराते समय कंपनी ने कहा था कि उन्हें 30 महीने में अपने फ्लैट की चाबी मिल जाएगी. पर बीते दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उस जमीन का आवंटन रद्द कर दिया जिसमें आम्रपाली अपनी रिहायशी परियोजना विकसित कर रही थी. इसके बाद कंपनी ने पूरी परियोजना को नोएडा एक्सटेंशन में ही विकसित की जा रही एक अन्य परियोजना में शिफ्ट कर दिया. उनसे एक बार फिर कहा गया कि अगले 30 महीने में उन्हें अपना मकान मिल जाएगा. हालांकि, इस परियोजना की जमीन भी अब विवादित हो चुकी है और मामला एक बार फिर से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में है. अब इसकी सुनवाई 17 अगस्त को होनी है.

मूलतः बिहार की राजधानी पटना के पास खगौल के रहने वाले और नोएडा में काम करने वाले रवि कुमार सिंह ने भी इसी परियोजना में फ्लैट बुक कराया था. अदालत का फैसला आने से पहले तहलका से उनका कहना था कि परियोजना शिफ्ट करने की वजह से उन्हें अपने फ्लैट की चाबी मिलने में एक साल की अतिरिक्त देरी होगी. उनका कहना था कि नोएडा सेक्टर-37 मेट्रो स्टेशन से पुरानी परियोजना की दूरी काफी कम थी लेकिन नयी परियोजना की दूरी ज्यादा है जिस वजह से उन्हें आने-जाने में खासी असुविधा का सामना करना पड़ेगा. मगर अब जैसा कि ऊपर लिखा है इस नयी परियोजना का क्या होगा इस बारे में भी कुछ कह पाना मुश्किल है.  

एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में ऊंचे ओहदे पर काम करने वाले अभिषेक जोशी ने 2006 में जयपुर की वाटिका इन्फोटेक सिटी परियोजना में एक प्लॉट 18 लाख रुपये में बुक कराया था. कंपनी ने यह परियोजना 2003 में शुरू की थी. जब जोशी इस परियोजना में बुकिंग करा रहे थे तो कंपनी ने उन्हें बताया कि उनका एचडीएफसी बैंक के साथ गठजोड़ है और इस वजह से उन्हें आसानी से कर्ज मिल जाएगा. कंपनी की बातों में आकर जोशी ने बतौर बुकिंग अमाउंट कुल रकम का 15 फीसदी हिस्सा जमा कर दिया. इसके बाद जब वे कर्ज लेने के लिए एचडीएफसी बैंक पहुंचे तो उन्हें यह कहते हुए कर्ज देने से मना कर दिया गया कि इस परियोजना को अभी अंतिम मंजूरी नहीं मिली है. इसके बाद जब जोशी ने कंपनी से संपर्क साधा तो  जवाब मिला कि बाकी की रकम अभी मत चुकाइए और जल्द ही बैंक से आपको कर्ज मिल जाएगा. 2008 में उन्हें कंपनी ने शेष रकम चुकाने के लिए लिखा और यह बताया कि अब बैंक कर्ज देने लगे हैं. पर एचडीएफसी ने पुरानी वजह को दोहराते हुए कर्ज देने से फिर मना कर दिया.

इसके बाद जोशी को कहा गया कि इस परियोजना के लिए एलआईसी से समझौता किया गया है और वहां से कर्ज लिया जा सकता है. इसके बाद जोशी को अन्य बैंकों की तुलना में ऊंची ब्याज दर पर एलआईसी से कर्ज लेना पड़ा. उस समय से जोशी तकरीबन 17,000 रुपये की मासिक किस्त भर रहे हैं. कंपनी ने उनसे वादा किया था कि उन्हें उनका प्लॉट बुकिंग के तीन साल के भीतर यानी 2009 में मिल जाएगा. पर बुकिंग के पांच साल बाद भी उन्हें अपना प्लॉट नहीं मिला है. जब भी वे कंपनी के अधिकारियों से इस बारे में बात करते हैं तो कहा जाता है कि बस छह महीने के अंदर प्लॉट मिल जाएगा. कंपनी के रवैये से तंग जोशी कहते हैं, ‘कुछ दिन और इंतजार कर लेता हूं. उसके बाद भी प्लॉट नहीं मिला तो फिर इस रियल एस्टेट कंपनी से आर-पार की लड़ाई लड़नी होगी.’

चौहान, सिंह और जोशी की आपबीती से रियल स्टेट सेक्टर की जो तस्वीर बनती है वह चिंता में डालने वाली है. इस तस्वीर के तीन अहम हिस्से हैं. एक उपभोक्ता यानी आम आदमी, दूसरा सेवा प्रदाता यानी बिल्डर और तीसरा यह सेवा ठीक से चले, इसके लिए एक उचित व्यवस्था बनाने वाली सरकार. कायदे से व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि उपभोक्ता को उचित मूल्य पर अच्छी सेवा मिले. उसके साथ वह न हो जो चौहान, सिंह या जोशी के साथ हुआ. हाल ही में एक प्रमुख समाचार समूह द्वारा करवाए गए सर्वे में 97 फीसदी लोगों का मानना था कि भारतीय रियल एस्टेट सेक्टर में पारदर्शिता का अभाव है जिसके चलते बहुत-से सवालों का ठीक-ठीक जवाब ही नहीं मिल पाता. इसकी सबसे ज्यादा मार आम आदमी पर पड़ रही है. सरकार द्वारा इस क्षेत्र के लिए अभी तक कोई नियामक इकाई नहीं बनाई गई है. इसका नतीजा यह है कि उपभोक्ता को यदि बिल्डर से कोई परेशानी हो तो उसके पास करने के लिए कुछ खास नहीं होता.

कोई नियामक नहीं होने की वजह से उपभोक्ता को यदि बिल्डर से कोई परेशानी हो तो उसके पास करने के लिए कुछ खास नहीं होतासमस्याओं को एक-एक करके समझते हैं. अपना आशियाना लेने की चाह रखने वाला कोई शख्स जब इसकी राह में पहला कदम बढ़ाता है तो वह पाता है कि फ्लैटों की कीमतें न सिर्फ आसमान छू रही हैं बल्कि हर गुजरते दिन के साथ उनमें असाधारण रूप से तेजी आ रही है. इंटरनेशनल रिसर्च जनरल ऑफ फायनांस एेंड इकोनॉमिक्स में कुछ समय पहले छपे एक अध्ययन के मुताबिक उत्तर प्रदेश के नोएडा में 2004 में जिस संपत्ति की कीमत 2000 रु प्रति वर्ग फुट थी वह 2008 में बढ़कर करीब 6,850 रु प्रति वर्ग फुट हो गई. यानी चार साल में तीन गुने से ज्यादा बढ़ोतरी.

अर्थशास्त्र का सामान्य सा नियम बताता है कि किसी उत्पाद की कीमत का लेना-देना उसकी मांग और आपूर्ति से होता है. मगर अपने यहां रियल एस्टेट क्षेत्र में यह फाॅर्मूला काम नहीं करता. प्रॉपर्टी कंसल्टेंट जोंस लांग लासाले के एक अध्ययन के मुताबिक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रियल एस्टेट कंपनियों ने जितने फ्लैट बनाए हैं उनमें से 16 फीसदी खाली पड़े हैं. वहीं मुंबई के 25 फीसदी, पुणे के 19 फीसदी और कोलकाता के 12 फीसदी तैयार मकानों को खरीददारों का इंतजार है. साफ है कि इस क्षेत्र में आपूर्ति तो पर्याप्त है लेकिन मांग उतनी नहीं है. इसके बावजूद प्रॉपर्टी की कीमतें बढ़ रही हैं.

एक प्रमुख रियल एस्टेट कंपनी के एक अधिकारी इस क्षेत्र में कीमत बढ़ाने के खेल को समझाते हुए कहते हैं, ‘कीमतों में बढ़ोतरी के दो आधार हैं. पहला आधार है अटकलबाजी. इसमें बड़े बिल्डरों का समूह शामिल है. यह समूह अपनी अटकलबाजी को हवा देने के लिए सकारात्मक खबरें प्लांट करता है. कुछ अखबारों में खबरें प्रकाशित होने लगती हैं कि आने वाले दिनों में प्रॉपर्टी की कीमतों में बढ़ोतरी होने वाली है. कुछ छोटे प्रॉपर्टी कंसल्टेंट्स से भी इस बात को मजबूती देने के लिए कोई सर्वे रिपोर्ट जारी करवा दी जाती है.’

कीमतों में बढ़ोतरी का दूसरा खेल बिल्डरों और डीलरों का गठजोड़ मिलकर करता है. जैसा कि ये अधिकारी हमें बताते हैं, ‘मान लें कि किसी परियोजना में 2000 फ्लैट हैं. कंपनी पहले चरण में 500 फ्लैट बुकिंग के लिए खोलती है. मान लें कि इसमें से 450 एक ही डीलर 2000 रुपये प्रति वर्ग फुट की दर पर खरीद लेता है. इसके बाद वह अपनी मर्जी से कीमतों में बढ़ोतरी करता है. पर ज्यादातर मामलों में लिखा-पढ़ी में सौदा 2000 रुपये पर ही होता है. जो अतिरिक्त पैसा आता है वह काले धन में बदल जाता है. अब कंपनी फिर अगले चरण में 500 फ्लैट बुकिंग के लिए खोलेगी और फिर यही खेल दोहराया जाएगा लेकिन हर बार प्रॉपर्टी की दर में 10 से 15 फीसदी की बढ़ोतरी हो जाएगी. इसी तरह से ये खेल तब तक चलेगा जब तक सारे फ्लैट बिक न जाएं.’

सरपट भागती कीमतों के बावजूद अगर आदमी जमीन-आसमान एक करके कुछ पैसा जुटा ले या बैंक से लोन का इंतजाम कर ले तो भी यह गारंटी नहीं कि उसे तय समय पर अपने फ्लैट की चाबी मिल जाएगी. दरअसल परियोजनाओं का समय पर पूरा न होना भी  एक बड़ी समस्या है. इस क्षेत्र में काम कर रही रिसर्च फर्म प्रॉपइक्विटी के मुताबिक देश में इस समय करीब नौ लाख 30 हजार आवासीय इकाइयां निर्माणाधीन हैं जिनके 2011 से 2013 के बीच पूरा होने का वादा किया गया है. लेकिन इसकी काफी संभावना है कि इनमें से आधी इकाइयों का निर्माण पूरा होने में 18 महीने तक की देरी हो जाए.

जानकारों के मुताबिक बिल्डरों द्वारा लालच में अपनी वित्तीय क्षमता से बड़े प्रोजेक्ट लांच कर देना, निर्माण की बढ़ती लागत, मजदूरों की कमी और वित्तीय स्रोतों का सूखा इसके मुख्य कारण हैं. हाल में नोएडा एक्सटेंशन मामले में अदालत द्वारा भूमि अधिग्रहण रद्द कर देने के बाद इसमें एक पहलू अदालती फैसलों का भी जुड़ गया है. हालांकि आम्रपाली समूह के चेयरमैन अनिल कुमार शर्मा तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘हमारी जिस परियोजना को शिफ्ट किया गया है उसके ग्राहकों को हमने पहले से भी कह रखा था कि अगर किसी वजह से इस परियोजना में कोई अड़चन आती है तो हम आपको बेहतर परियोजना में शिफ्ट कर देंगे. पहले से तय था कि इसके लिए ग्राहकों पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं डाला जाएगा.

जिस दस्तावेज पर फ्लैट खरीदते वक्त ग्राहक और बिल्डर दस्तखत करते हैं वह बिल्डर पूरी तरह से अपने हितों को ध्यान में रखकर तैयार करते हैंशर्मा के इस तर्क के बावजूद देरी से ग्राहकों को होने वाली परेशानी की बात तो अपनी जगह है ही. बिल्डरों के नजरिए से देखें तो उनका तर्क है कि मार उन पर भी पड़ रही है. यह बात एक हद तक सही भी लगती है. जानकार बताते हैं कि निर्माण की बढ़ती लागत, मजदूरों की कमी और फंड की किल्लत से उनके सामने भी मुश्किलें खड़ी हैं. पैसा जुटाने के उनके पास मुख्य रूप से तीन तरीके होते हैं. ग्राहकों से आने वाला पैसा, बैंक से मिलने वाला उधार और बाजार से जुटाई गई पूंजी. तीनों ही मोर्चों पर स्थिति खराब है. ग्राहक पास नहीं आ रहे, वित्तीय हालत को देखकर बैंक लोन नहीं दे रहे और बाजार का हाल तो यह है कि पिछले साल नवंबर से अब तक मुंबई शेयर बाजार के सूचकांक सेंसेक्स में अगर 13.7 फीसदी गिरावट आई है तो उसी बाजार का रियल्टी इंडेक्स 47 फीसदी फिसला है. इसके अलावा जानकार बताते हैं कि 2009 से 2011 के बीच स्टील, सीमेंट जैसी निर्माण सामग्री की कीमतों में भी 25 फीसदी का उछाल आया है. यानी काम पूरा करने के लिए पहले से ज्यादा पैसा चाहिए लेकिन उसके आने के रास्ते बंद हैं. बिल्डरों का तर्क है कि इसी वजह से प्रोजेक्टों के पूरा होने में देर हो रही है.

लेकिन वजह जो भी हो, इस देरी से चौहान और सिंह जैसे न जाने कितने लोग बेहाल हैं जिन्हें तय वक्त पर मकान तो नहीं मिलने वाला, मगर इसके लिए उन्होंने जो कर्ज लिया था उसकी ब्याज दरें पिछले कुछ समय में कई बार बढ़ चुकी हैं. नतीजतन ऐसे लोगों पर कर्ज की बढ़ती मासिक किस्त की मार भी पड़ रही है.

एक और मसला धोखाधड़ी का भी है. लेकिन कोई नियामक नहीं है इस वजह से धोखा खाने वाले लोगों के सामने कहीं शिकायत दर्ज कराकर न्याय पाने का विकल्प भी नहीं है. हालांकि, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बिल्डरों के शोषण से त्रस्त होकर इनके खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं.

दिल्ली से सटे गाजियाबाद के राज नगर एक्सटेंशन में भी कई छोटी-बड़ी रियल एस्टेट कंपनियां अपनी रिहायशी परियोजनाएं विकसित कर रही हैं. इन्हीं कंपनियों में से एक है श्रेया डेवलपवेल प्राइवेट लिमिटेड. इस कंपनी ने हिंडन हाइट्स के नाम से यहां एक परियोजना विकसित करने की घोषणा 2006 की शुरुआत में की थी. बाद में जब इस कंपनी ने अपने ग्राहकों के साथ धोखाधड़ी शुरू की तो इस परियोजना में फ्लैट बुक कराने वालों ने एक संगठन बनाकर बिल्डर के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी. संगठन का नाम है हिंडन हाइट्स फ्लैट अलॉटीज एसोसिएशन.

नोएडा की एक निजी कंपनी में काम करने वाले सुनील रस्तोगी ने भी इस परियोजना में एक फ्लैट बुक कराया था. बकौल रस्तोगी कंपनी ने यह वादा किया था कि बुकिंग के 18 महीने के अंदर उन्हें फ्लैट दे दिए जाएंगे लेकिन अब तक इस परियोजना पर कोई प्रगति नहीं हुई है. एसोसिएशन के सचिव पीसी गोयल थोड़ा विस्तार से बताते हुए कहते हैं, ‘कंपनी ने कुल 445 फ्लैट बेचे और वादा किया कि 2008 के दिसंबर तक ग्राहकों को उनके फ्लैट की चाबी सौंप दी जाएगी. पर ऐसा हुआ नहीं और वक्त निकलता गया.’

गोयल का कहना है कि ऐसा लग रहा था जैसे कंपनी की माली हालत खराब हो गई हो. उन्होंने बताया कि हमारी इस आशंका की पुष्टि तब हो गई जब यह पता चला कि कंपनी ने एक ही जमीन दो बैंकों के पास गिरवी रख दी है. कंपनी ने जीआईसी हाउसिंग फायनांस के पास 17 करोड़ रुपये के एवज में जमीन गिरवी रखी थी और पीएनबी हाउसिंग फायनांस से भी इसी जमीन को गिरवी रख 16 करोड़ रुपये लिए थे. ऐसा तभी हो सकता है जब बिल्डर और बैंक अधिकारियों की आपसी सांठ-गांठ हो. आम तौर पर बैंक कोई भी कर्ज देने से पहले संबंधित प्रॉपर्टी के कानूनों पहलुओं की जांच कराते हैं. इसके बावजूद अगर एक ही प्रॉपर्टी पर दो बैंक कर्ज दे रहे हैं तो इससे बैंकों की कार्यप्रणाली और इन बैंकों के प्रबंधकों की नीयत पर संदेह पैदा होना स्वाभाविक है. गोयल का आरोप यह भी है कि कंपनी ने 800 लोगों से भूखंड देने के नाम पर भी प्रति व्यक्ति 6 से 6.5 लाख रुपये वसूले पर अब तक किसी को कुछ नहीं मिला.

अब ऐसे मामलों में शिकायत के बाद कार्रवाई का जो ढर्रा होता है वह भी एक बड़ी मुश्किल है. जैसा कि गोयल बताते हैं, ‘जब बिल्डर ने काम रोक दिया और हमारी लगातार कोशिशों के बावजूद ठोस तौर पर हमें कुछ नहीं बताया तो हमने राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग का दरवाजा खटखटाया. दो साल आयोग में शिकायत दर्ज कराए हुए हो गए लेकिन इतने लोगों को अब तक न्याय मिलने की बात तो दूर अंतरिम राहत भी नहीं मिली.’ हालांकि, गाजियाबाद की एक अदालत ने इस मामले में कंपनी के तीन निदेशकों राजीव गुप्ता, मनोज कुमार शर्मा और अनुज सरीन के खिलाफ वारंट जारी कर दिया था. लेकिन ये लोग इलाहाबाद उच्च न्यायालय से इस वारंट के खिलाफ स्टे ऑर्डर ले आए.

एसोसिएशन ने कंपनी के खिलाफ दिल्ली पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा में भी शिकायत दर्ज कराई पर गोयल कहते हैं कि अब तक इस मामले में कोई प्रगति नहीं हुई. इस बीच एसोसिएशन ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय को भी पत्र लिखकर बिल्डर के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है. जब ‘तहलका’ ने इन आरोपों पर कंपनी की राय जानने की कोशिश की तो कंपनी का कोई भी अधिकारी जवाब देने को तैयार नहीं हुआ.

वैसे कई और भी चीजें हैं जिनके चलते मकान बुक कराने वाला एक आम ग्राहक खुद को ठगा हुआ महसूस करता है. इसकी व्यवस्था उसी दस्तावेज के जरिए हो जाती है जिस पर फ्लैट खरीदते वक्त ग्राहक और बिल्डर दस्तखत करते हैं. यह दस्तावेज बिल्डर पूरी तरह से अपने हितों को ध्यान में रखकर तैयार करते हैं. नोएडा में रिहायशी परियोजना विकसित कर रही एक कंपनी के बिक्री एग्रीमेंट से यह पता चला कि अगर कोई ग्राहक तय समय पर पैसा चुकाने में देर करेगा तो कंपनी उससे 18 फीसदी सालाना की दर से ब्याज वसूलेगी और अगर इसमें वह तीन महीने की देरी करता है तो उसके मकान का आवंटन रद्द हो जाएगा. जबकि अगर बिल्डर फ्लैट की चाबी देने में देरी करता है तो उसे छह महीने का अतिरिक्त समय मिलेगा और इसके बाद भी यदि वह फ्लैट नहीं सौंपता तो महज पांच रुपये प्रति माह प्रति वर्ग फुट की दर से ग्राहक को मुआवजा देगा.

अब ज्यादातर लोग बैंक से कर्ज लेकर ही मकान खरीदते हैं. मान लेते हैं कि किसी ने 3000 रुपये प्रति वर्ग फुट पर अपने मकान को खरीदा है और 12 फीसदी प्रति वर्ष की दर से बैंक से कर्ज लिया है. तो मकान मिलने में छह महीने से ज्यादा देरी होने पर बिल्डर तो उसे सिर्फ 5 रुपये प्रति वर्ग फुट प्रति माह दे रहा होगा मगर वह व्यक्ति बैंक को करीब 25 रुपये प्रति वर्ग फुट प्रति माह चुका रहा होगा. मकान मिलने में होने वाली देरी से उसे जो असुविधा होगी सो अलग. मगर बिल्डर ऐसा न कर सके ऐसा कोई नियम-कानून है ही नहीं. ग्राहक पहले ही बुकिंग की रकम बिल्डर को देकर फंस चुका होता है, इसलिए उसके पास किसी भी करार पर दस्तखत करने के सिवा कोई और चारा नहीं होता.

ग्राहकों को बेवकूफ बनाने के लिए कंपनियां और भी कई तिकड़म कर रही हैं. देश की प्रमुख आईटी कंपनी विप्रो के अमेरिकी कार्यालय में काम करने वाले सॉफ्टवेयर इंजीनियर चंद्रप्रकाश सिंह ने नोएडा के सेक्टर-70 में पैन ओएसिस की परियोजना में 39.10 लाख रुपये में फ्लैट बुक कराया था. उस वक्त उनसे बरामदे के नाम पर बिल्डर ने 2.25 लाख रुपये वसूल लिए. पर बाद में उन्हें पता चला कि कंपनी ने जो जगह बरामदे के नाम पर बेची है वह तो आग लगने की हालत में निकासी के लिए छोड़ी गई जगह थी. कानूनन यह जगह बिल्डर को छोड़नी ही पड़ती है. पर कंपनी ने सिंह को यह सच्चाई नहीं बताई. सिंह बताते हैं कि इस तरह से कंपनी ने 66 लोगों को बेवकूफ बनाया. परेशान सिंह ने नोएडा प्राधिकरण में इसकी शिकायत भी की लेकिन हुआ कुछ नहीं.

मुंबई रियल एस्टेट कारोबार का एक बड़ा बाजार है. देश के दूसरे हिस्सों की तरह यहां भी संबंधित प्राधिकरणों की मदद से बिल्डरों की मनमर्जी चल रही है. मुंबई में एक रियल एस्टेट कंपनी है आरएनए. इसने कुछ साल पहले ओशीवाड़ा के सोमानी ग्राम में आरएनए एक्जोटिका के नाम से एक परियोजना शुरू की. कंपनी ने जब बुकिंग शुरू की तो अपनी वेबसाइट पर यह जानकारी दी कि इस परियोजना में पार्किंग के लिए 12 मंजिलें होंगी, 2 मंजिलों पर स्वीमिंग पूल होगा और रहने के लिए 36 मंजिलें तैयार की जाएंगी. मुंबई में ऐसी किसी भी रिहायशी परियोजना के लिए मुंबई महानगर क्षेत्रीय विकास निगम (एमएमआरडीए) की मंजूरी जरूरी होती है. एमएमआरडीए ने आरएनए को ग्राउंड फ्लोर के अलावा पार्किंग के लिए दो मंजिल और रहने के लिए 14 और मंजिल की ही अनुमति दी थी. कंपनी को मिली मंजूरी से संबंधित जानकारी आरटीआई कार्यकर्ता सुलेमान भिमानी ने सूचना के अधिकार के तहत जुटाई. भिमानी कहते हैं कि इससे साफ हो जाता है कि किस तरह से कंपनी एमएमआरडीए से मिली मंजूरी का उल्लंघन कर रही थी. भिमानी बताते हैं, ‘हमें मंजूरी के जो दस्तावेज मिले उनमें से ज्यादातर पर कोई तारीख ही नहीं थी. इससे साफ है कि ऐसा इसलिए किया गया ताकि दस्तावेजों के साथ कभी भी छेड़छाड़ की जा सके’

कंपनी को जो जमीन मिली थी उस पर पहले से रहने वाले लोग आर्थिक तौर पर पिछड़े हुए थे. इनका पुनर्वास कंपनी को कराना था. कंपनी ने इसके लिए जो मकान बनाए उनमें कई तरह की खामियां हैं और बुनियादी सुविधाओं का भी टोटा है. इस आधार पर कंपनी पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगा. भिमानी कहते हैं कि इस शिकायत को आधार बनाकर ही इस परियोजना पर निर्माण कार्य रोकने का आदेश जारी हुआ. अभी यह मामला महाराष्ट्र मानवाधिकार आयोग के पास है. भिमानी बताते हैं कि अन्य एजेंसियों के पास दर्ज शिकायतों पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है. जिन लोगों ने इस परियोजना में फ्लैट बुक कराए थे वे अब हैरान-परेशान घूम रहे हैं. 

रियल एस्टेट क्षेत्र के जानकारों की मानें तो इस क्षेत्र में बिल्डरों की मनमर्जी इसलिए भी है कि यहां किसी परियोजना के पहले से आखिरी चरण तक भ्रष्टाचार और घूसखोरी का बोलबाला है. एक बिल्डर बताते हैं कि अगर किसी प्रस्तावित परियोजना की जमीन की कीमत 20 करोड़ रुपये हो तो इतना ही पैसा घूस में भी जाता है. इस बिल्डर के मुताबिक नोएडा में यह पैसा एक ही जगह देना होता है. फिर वहां से लेकर लखनऊ तक इसकी बंदरबांट होती है. बिल्डर की मानें तो सत्ता में शीर्ष पदों पर बैठे लोगों से लेकर प्राधिकरण के अधिकारियों के बीच यह पैसा बंटता है. घूसखोरी की इस प्रवृत्ति की पुष्टि करते हुए एक नामी रियल एस्टेट कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘जब भी उत्तर प्रदेश में सत्ता बदलती है तो नोएडा विकास प्राधिकरण में भी वरिष्ठ अधिकारी बदल जाते हैं.’ इस अधिकारी का यह दावा भी है कि पूरे देश में ही यह घूसखोरी चल रही है. कहीं कम है तो कहीं ज्यादा. हरियाणा का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि इस राज्य में घूस की रकम प्रति एकड़ के हिसाब से तय होती है. इसमें सबसे ज्यादा दर गुड़गांव की है. ये अधिकारी यह भी बताते हैं कि राज्य की हर परियोजना को अंतिम मंजूरी मुख्यमंत्री कार्यालय से ही मिलती है.

हरियाणा के कुछ शहरों में रिहायशी परियोजना विकसित करने वाले एक बिल्डर हरियाणा में संस्थागत घूसखोरी के बारे में विस्तार से बताते हैं. चूंकि हरियाणा में बिल्डर सीधे किसानों से जमीन खरीद सकते हैं, इसलिए वे यहां एकमुश्त खेती की जमीन खरीद लेते हैं. जब मास्टर प्लान बनने की कवायद शुरू होती है तो ये बिल्डर इस जमीन को रिहायशी की श्रेणी में डलवाने के लिए भागदौड़ शुरू करते हैं. लैंड यूज बदलते ही जमीन की कीमतें अचानक काफी बढ़ जाती हैं. लैंड यूज बदलवाने के लिए बिल्डरों को काफी पैसा खर्च करना पड़ता है. इसके बाद किसी भी परियोजना को संबंधित प्राधिकरण से मंजूरी दिलाने के लिए एक नक्शा तैयार करना पड़ता है. नक्शा तैयार करने का काम आर्किटेक्ट करते हैं. पर हर क्षेत्र के आर्किटेक्ट बंधे हुए हैं. ऐसा नहीं है कि कोई भी आर्किटेक्ट जाकर उस इलाके का नक्शा पास करा लेगा. जिस आर्किटेक्ट का जो इलाका है, उस इलाके का नक्शा वही पास कराएगा. आम तौर पर हर इलाके में चार से पांच आर्किटेक्ट होते हैं. इसके बाद फिर अन्य मंजूरियों के लिए प्राधिकरण का दरवाजा खटखटाना पड़ता है और यहां बिल्डर को काफी पैसा घूस के तौर पर खर्च करना पड़ता है.

अब नियम-कायदों की बात. केंद्र सरकार रियल एस्टेट कंपनियों द्वारा चलाई जा रही मनमर्जी पर नकेल कसने की योजना बना रही है. अभी एक बड़ी हद तक हालत यह है कि कंपनियां अपनी मनमर्जी चला रही हैं और कोई नियामक नहीं होने की वजह से इन पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हो पा रही है. सरकार की योजना मानसून सत्र में रियल एस्टेट नियमन विधेयक, 2011 संसद में पेश करने की है. विधेयक का मसौदा तैयार हो गया है. इस विधेयक को लाने की कोशिश 2007 से ही हो रही है. ऐसा ही एक विधेयक 2009 में संसद में पेश किया गया था, लेकिन उस वक्त इसे मंजूरी नहीं मिल सकी. मंत्रालय का दावा है कि इस मर्तबा जो मसौदा तैयार हुआ है उससे ग्राहकों के हितों का संरक्षण सुनिश्चित होगा. बिल्डरों के संगठन क्रेडाई (कन्फेडरेशन ऑफ रियल एस्टेट डेवलेपर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया) के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अध्यक्ष पंकज बजाज इस बारे में कहते हैं, ‘हम सरकार द्वारा इस विधेयक को लाए जाने का स्वागत करते हैं. इससे रियल एस्टेट क्षेत्र में पारदर्शिता बढ़ेगी जिससे ग्राहकों के साथ-साथ कंपनियों को भी फायदा होगा. हालांकि, हमारा मानना है कि इस विधेयक के कई मौजूदा प्रावधानों पर बातचीत करने की जरूरत है. कई प्रावधान इस उद्योग के लिए बेहद खतरनाक हैं.’

एक बड़ा सवाल काले धन का भी है. जानकारों के मुताबिक रियल एस्टेट क्षेत्र में काले धन का खेल कई तरह से होता है. इसमें सबसे पहला है किसी परियोजना में बड़े पैमाने पर काले धन का निवेश. कनॉट प्लेस में मुख्यालय वाली एक बड़ी रियल एस्टेट कंपनी के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘यह एक भ्रम है कि छोटी कंपनियां काले पैसे का खेल करती हैं. दरअसल, इस खेल को तो बड़ी कंपनियां ही अंजाम देती हैं. सरकार ने यह नियम बना रखा है कि विदेशी निवेश हासिल करने वाली रियल एस्टेट कंपनी का टर्नओवर 100 करोड़ रुपये से कम नहीं होना चाहिए. नियमों के मुताबिक प्रवासी भारतीय कुछ शर्तों के साथ रियल एस्टेट क्षेत्र में 100 फीसदी तक निवेश कर सकते हैं. इसी प्रावधान का लाभ बड़ी-बड़ी रियल एस्टेट कंपनियां उठाती हैं.’ अधिकारी के मुताबिक माना कि किसी कंपनी की परियोजना में कुल निवेश 1,000 करोड़ रुपये का होना है जबकि कंपनी के पास सिर्फ 200 करोड़ रुपये हैं. ऐसे में यह कंपनी कुछ कर्ज जुटाती है. कुछ पैसा परियोजना को मंजूरी मिलने के बाद एकमुश्त बुकिंग से आता है. आम तौर पर हर बड़ी रिहायशी परियोजना विशेष के लिए रियल एस्टेट कंपनियां एक अलग कंपनी बना देती हैं. इसे स्पेशल परपज व्हीकल कहा जाता है. अब इस कंपनी में निवेश के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को तलाशा जाता है जिसके पास काला धन हो. अगर यह व्यक्ति निवेश के लिए राजी हो जाता है तो फिर फटाफट किसी कर पनाहगाह देश में किसी प्रवासी भारतीय के नाम से फर्जी कंपनी बनवाई जाती है.

इसके बाद भारत से काला धन उस फर्जी कंपनी के खाते में पहुंचता है और फिर वह कंपनी भारत की रियल एस्टेट कंपनी में विदेशी निवेश के नाम पर पैसा लगा देती है. इस अधिकारी की मानें तो भारत में यह काम मॉरीशस रूट से ज्यादा हो रहा है. इसे सबसे अधिक सुरक्षित भी माना जाता है. हालांकि, इस उद्योग के लोग औपचारिक तौर पर काले धन के मसले पर सीधे-सीधे जवाब देने से परहेज कर रहे हैं. पंकज बजाज कहते हैं, ‘अगर काले धन का इस्तेमाल रियल एस्टेट क्षेत्र में हो रहा है तो संबंधित विभागों को कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए. मॉरीशस रूट से देश में बड़े पैमाने पर वैध तरीके से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ है. हमें इन्फ्रास्ट्रक्चर और रियल एस्टेट क्षेत्र के तेज विकास के लिए विदेशी पूंजी चाहिए.’

बहरहाल, कई डीलर ऐसे भी हैं जो फ्लैट की पूरी कीमत को दो हिस्से में करने का प्रस्ताव भी दे रहे हैं. इनमें एक हिस्सा तो यह होता है जो कागजों में दर्ज होता है, जिसके आधार पर स्टांप शुल्क और अन्य कर वसूले जाते हैं. वहीं दूसरा हिस्सा वह है जिसकी कहीं कोई लिखा-पढ़ी नहीं होती है. नोएडा एक्सटेंशन में बहुत बड़ी रिहायशी परियोजना विकसित करने वाली देश की एक जानी-मानी रियल एस्टेट कंपनी के एक परियोजना अधिकारी बताते हैं कि इस तरह से फ्लैट बुक कराने वालों में नौकरशाह और कारोबारी प्रमुख हैं. ये अधिकारी सार्वजनिक क्षेत्र की एक बड़ी कंपनी के उतने ही बड़े अधिकारी का नाम लेकर बताते हैं कि उन्होंने हमारी परियोजना में इसी तरह से चार फ्लैट बुक कराए हैं.

यानी अ से लेकर ज्ञ तक सब गोलमाल है और इस गोलमाल में आम आदमी का क्या हाल है इसकी चिंता फिलहाल तो किसी को नहीं.

ऐसे बनती है फर्जी कंपनी

नयी दिल्ली में एक रियल एस्टेट कंपनी चलाने वाले और कई चीजों के आयात-निर्यात कारोबार में सक्रिय एक महोदय बताते हैं कि फर्जी कंपनी कैसे बनाई जाती है. ऐसी कंपनियां उन देशों में बनाई जाती हैं जिन्हें कर पनाहगाह यानी टैक्स हैवेन कहा जाता है. इस कारोबारी ने इस संवाददाता को बताया कि अगर आप कहें तो आपके नाम से 12 घंटे के अंदर एक कंपनी मॉरीशस में बनवा देता हूं. यह पूरा खेल इंटरनेट के जरिए चलता है.

कर पनाहगाहों के तौर पर कुख्यात देशों की कमाई का एक अहम जरिया काले धन को सफेद करने की सुविधा मुहैया कराना है. इसलिए इन देशों में कई ऐसी एजेंसियां सक्रिय हैं जो कुछ ही घंटों में फर्जी कंपनी बनवा देती हैं. इंटरनेट के जरिए आपको अपनी जानकारी देनी होगी और प्रस्तावित कंपनी का नाम बताना होगा. ऑनलाइन ही ये एजेंसियां अपना शुल्क भी वसूल लेती हैं. ये एजेंसियां फर्जी कंपनी बनवाने वालों को कई सुविधाएं देती हैं. कंपनी बनवाने के साथ-साथ ये बैंक खाता भी खुलवा देती हैं. इसके बाद भारत से काला धन सीधे उस खाते में पहुंचता है और फिर फर्जी कंपनी के जरिए विदेशी निवेश के नाम पर भारत की कंपनी में दोबारा आकर लग जाता है.

खेल छिपे शुल्क का

रियल एस्टेट कंपनियों द्वारा लोगों को सबसे ज्यादा बेवकूफ बनाने का जरिया है हिडेन चार्ज यानी छिपे हुए शुल्क. इसके तहत कई तरह के शुल्क लोगों से वसूले जा रहे हैं. आम तौर पर जब एक आदमी मकान खरीदने जाता है तो उसे डीलर यह बताते हैं कि प्रति वर्ग फुट प्रॉपर्टी की क्या कीमत है. अक्सर यह देखा जाता है कि डीलर छिपे हुए शुल्कों की बात भी छिपा जाते हैं. इन बातों का पता तब चलता है जब मकान के लिए पूरा पैसा चुकाने की बारी आती है या फिर बिक्री एग्रीमेंट पर दस्तखत करना होता है.

दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में रियल एस्टेट कंपनियां पार्किंग शुल्क के नाम पर लोगों से दो-ढाई लाख रुपये तक वसूल रही हैं. वहीं प्रिफरेंशियल लोकेशन यानी पसंद की जगह पाने के नाम पर बिल्डर काफी पैसे वसूल रहे हैं. अगर किसी को भूतल पर फ्लैट चाहिए तो उससे कंपनियां प्रॉपर्टी की कीमत का 7.5 फीसदी तक अतिरिक्त रकम वसूल रही हैं. वहीं टॉप फ्लोर वाले को छत मिलने की वजह से उससे 5 फीसदी अतिरिक्त रकम वसूली जा रही है. कई बिल्डर बिजली के मीटर और फिनिशिंग के लिए जरूरी अन्य छोटे-मोटे कामों के लिए भी पैसे वसूल रहे हैं. जबकि क्लब सदस्यता और अन्य कई तरह की सदस्यताओं के नाम पर भी बिल्डर पैसे वसूल रहे हैं. किसी भी रिहायशी परियोजना में घर लेने के बाद रखरखाव के लिए हर महीने चार से आठ हजार रुपये चुकाने पड़ते हैं. पर बहुत कम लोगों को पता है कि फ्लैट की चाबी सौंपने से पहले बिल्डर इसके लिए 50,000 रुपये से एक लाख रुपये का सिक्योरिटी डिपॉजिट भी ले रहे हैं.

‘क्रियान्वयन में ईमानदारी से सुलझेंगी समस्याएं’

नोएडा एक्सटेंशन में रिहायशी परियोजनाएं विकसित करने के लिए हुए जमीन अधिग्रहण पर पैदा हुआ विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा. कुछ मामलों में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जमीन अधिग्रहण को अवैध ठहराया है और कुछ मामलों में किसानों की याचिका पर फैसला अभी टल गया है. अब अदालत की बड़ी पीठ इस मसले की सुनवाई 17 अगस्त को करेगी. अदालत ने प्राधिकरण, बिल्डरों और किसानों को 12 अगस्त तक का समय दिया है और कहा कि इस समय सीमा में आपस में समझौता कर सकते हैं तो कर लें. न्यायालय के मुताबिक जिन किसानों को मुआवजा लेना है वे 12 अगस्त तक ले सकते हैं. इस पूरे इलाके में तकरीबन एक लाख फ्लैट तैयार करने की योजना थी. बड़ी संख्या में फ्लैट बुक हो गए थे. खरीददारों की गाढ़ी कमाई इन परियोजनाओं में फंस गई है. उन्हें इसका ब्याज चुकाना पड़ रहा है. बिल्डर भी आर्थिक नुकसान का रोना रो रहे हैं.  किसानों के असंतोष की यह आग नोएडा में भी फैल चुकी है. इलाके के किसान अधिक मुआवजा, विकसित जमीन में हिस्सेदारी और आबादी की जगह को नियमित करने की मांग कर रहे हैं. कुछ किसानों का आरोप यह भी है कि उनसे उनकी जमीन जबरन ली गई थी. ऐसे में तमाम रिहायशी परियोजनाओं के भविष्य और अन्य संबंधित मामलों पर नोएडा विकास प्राधिकरण के नव नियुक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी बलविंदर कुमार से  हिमांशु शेखर की बातचीत के मुख्य अंशः

नोएडा में किसानों के असंतोष की वजहें क्या हैं?

जिन किसानों से जमीन ली गई थी उनसे यह वादा किया गया था कि उन्हें कुछ निश्चित सुविधाएं दी जाएंगी. ये सुविधाएं मुआवजे के अतिरिक्त थीं. किसानों को दी जाने वाली सुविधाओं में से एक है विकसित जमीन का पांच फीसदी हिस्सा किसानों को लौटाना और दूसरी आबादी की जगह को नियमित करना. ये दोनों काम नहीं किए गए. आज जो असंतोष दिख रहा है उसकी एक वजह इन दोनों वादों को नहीं पूरा किया जाना है.

अब मामला अदालत में भी चला गया है. ऐसे में सभी पक्षों के हितों को ध्यान में रखते हुए इस पूरे विवाद के सुलझने की कितनी संभावना है?

हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं. मैं खुद हर रोज प्रभावित गांवों का दौरा कर रहा हूं. हम विकसित जमीन का पांच फीसदी हिस्सा किसानों को लौटाने की शुरुआत कर रहे हैं. जिस तारीख में अधिग्रहण किया गया था उस समय की आबादी की जगह नियमित करने को प्राधिकरण तैयार है. पर कहीं न कहीं तो हर किसी को अपनी इच्छाओं की सीमा निर्धारित करनी होगी. किसान अब अधिक मुआवजा मांग रहे हैं. यह उचित नहीं है. क्योंकि जब जमीन ली गई थी तब उस समय की दर के हिसाब से किसानों को मुआवजा मिला था. हर रोज दो नयी मांग सामने आ रही हैं. आज की तारीख वाली आबादी की जगह को नियमित करने की मांग उठ रही है. फिर भी हमें पूरा भरोसा है कि विवाद सुलझेगा और सभी पक्षों के हितों की रक्षा होगी.

नयी जमीन अधिग्रहण नीति आने वाली है. आगे ऐसे विवाद पैदा नहीं हों, इसके लिए नीतियों में क्या बदलाव की जरूरत है?

नीतियों में कोई खामी नहीं है. समस्या अगर कहीं है तो वह है नीतियों के क्रियान्वयन में. अगर क्रियान्वयन ठीक ढंग से हो तो ऐसा कोई भी विवाद पैदा नहीं होगा.

भविष्य में ऐसी समस्याएं न खड़ी हों, इसके लिए प्राधिकरण के स्तर पर क्या करने की योजना है?

हम यह सुनिश्चित करने की योजना बना रहे हैं कि अब जब भी जमीन का अधिग्रहण हो उसके प्रभावितों को साथ-साथ उचित मुआवजा मिले, उन्हें विकसित जमीन का हिस्सा मिले और आबादी की जगह नियमित हो.

नोएडा में लैंड यूज बदलने के कई मामले सामने आए हैं और विवाद की एक वजह इसे भी बताया जा रहा है. आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है?

मास्टर प्लान और अन्य जरूरतों के हिसाब से लैंड यूज बदलने का अधिकार प्राधिकरण को है और समय-समय पर प्राधिकरण ऐसा करता है. यह हमारा संवैधानिक अधिकार है. यह काम किसी को फायदा पहुंचाने के मकसद से नहीं बल्कि विकास को ध्यान में रखकर किया जाता है.

जमीन अधिग्रहण समेत प्राधिकरण के अन्य कामों में पारदर्शिता की कमी को दूर करने की क्या कोई योजना है?

पारदर्शिता हमारी प्राथमिकता में सबसे ऊपर है. हम इस दिशा में तेजी से काम कर रहे हैं. हम ज्यादा से ज्यादा सूचनाओं को ऑनलाइन करने की योजना बना रहे हैं.

हाल ही में नोएडा में बिल्डरों को दी गई जमीन के पैसे उन्हें 10 साल में किस्तों पर चुकाने हैं. ऐसे में क्या बिल्डर मकानों की रजिस्ट्री खरीददारों को कर सकते हैं?

हां, प्राधिकरण की तरफ से बिल्डरों को मकान की रजिस्ट्री का अधिकार दिया गया है और वे खरीददारों को फ्लैट की रजिस्ट्री कर सकते हैं.

प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारी के खिलाफ सहारा का अभियान

हाल की कई घटनाओं पर गौर किया जाए तो लगता है जैसे भारत में कॉरपोरेट शुद्धिकरण का दौर चल रहा है. काले धन के मामले पर एसआईटी के गठन का आदेश देते वक्त सुप्रीम कोर्ट ने एक शब्द का इस्तेमाल किया था. यह शब्द था ‘लुटेरा पूंजीवाद’. अब ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे पूंजीवादी व्यवस्था में हुई लूट का हिसाब लेने की तैयारी हो रही हो. बड़े कॉरपोरेट घरानों की जवाबदेही तय हो रही है. उनकी कार्यशैली, व्यापारिक नैतिकता, वित्तीय सौदों और कानून बनाने वालों के साथ उनके गठजोड़ पर न सिर्फ सवाल उठाए जा रहे हैं बल्कि उनकी पड़ताल भी हो रही है. यह काम कैग, जांच एजेंसियां और मीडिया, सभी कर रहे हैं. इस प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट अगुवा की भूमिका में है. अनिल अंबानी और प्रशांत रुइया जैसे अरबपतियों को उन इंस्पेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों के सामने हाजिर होना पड़ा है, जिनकी महीने की तनख्वाह 50,000 रुपये से भी कम होती है. मुंबई के सबसे महंगे इलाकों में शानदार बहुमंजिला इमारतों के मालिक शाहिद बलवा और विनोद गोयनका महीनों से जेल की छोटी-छोटी कोठरियों में बंद हैं.

लेकिन कॉरपोरेट हेकड़ी के टूटने वाले इस दौर में भी एक कारोबारी समूह ऐसा है जिसने अब तक न सिर्फ अपने आप को किसी जांच की आंच से बचाए रखा बल्कि उल्टे एक जांच अधिकारी के खिलाफ ही कीचड़ उछालो अभियान छेड़ दिया. यह कारोबारी समूह है सहारा ग्रुप और ये अधिकारी हैं प्रवर्तन निदेशालय से जुड़े राजेश्वर सिंह

सिंह ने सहारा समूह के मुखिया सुब्रत रॉय को सम्मन जारी किया था कि वे पूर्व टेलीकॉम मंत्री ए राजा द्वारा आवंटित किए गए 2जी स्पेक्ट्रम में एकीकृत एक्सेस सेवा (यूएएस) लाइसेंस हासिल करने वाली एस-टेल कंपनी के साथ हुए वित्तीय सौदे के संदर्भ में व्यक्तिगत रूप से हाजिर हों. प्रवर्तन निदेशालय के साथ सहयोग करने की जगह सहारा मीडिया ने सिंह और उनके परिवार के खिलाफ कीचड़ उछालने का अभियान शुरू कर दिया. अन्य संवेदनशील जांचों का नेतृत्व करने के साथ-साथ सिंह प्रवर्तन निदेशालय की उस तीन सदस्यीय टीम का नेतृत्व भी कर रहे हैं जो एक दर्जन से ज्यादा देशों में फैले 2जी घोटाले के पैसे की खोज में लगी है. सुप्रीम कोर्ट ने अलग-अलग मौकों पर 2जी मामले की जांच में प्रवर्तन निदेशालय की इस टीम की सराहना की है.

बीती मई में सहारा समय के संवाददाता सुबोध जैन ने सिंह को उनकी निजी जिंदगी तथा उनकी और उनके परिवार की तमाम वास्तविक व काल्पनिक संपत्तियों के बारे में सवाल करती हुई एक प्रश्नावली भेजी. इसमें ज्यादातर सवाल ऐसे थे जिनका अंदाज देखकर उल्टे कई सवाल खड़े होते थे.

उदाहरण के लिए, सिंह के दफ्तर को भेजे गए तीन पन्नों के 25 सवालों की फेहरिस्त में चौथा सवाल इस तरह है, ‘आप सभी अंडे एक ही टोकरी में रखने में यकीन नहीं करते, इसलिए आप अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के नेताओं से करीबी संपर्क बनाकर रखते हैं. क्या आप सरकार में अपने आकाओं को इन मुलाकातों के बारे में बताते हैं?’
दूसरे सवाल में पूछा गया है, ‘अक्टूबर, 2010 में आपने अपने बच्चे के जन्मदिन पर एक भव्य पार्टी का आयोजन किया था. इस पार्टी का पैसा किसने दिया था?’ या फिर ‘आप तीन-चार सिमकार्ड इस्तेमाल करते हैं. इन्हें रीचार्ज कैसे कराते हैं?’

कुछ सवाल पहेली बुझाने वाले थे और कुछ से उनके पीछे का द्वेष साफ दिखाई दे रहा था. मसलन एक सवाल में पूछा गया, ‘क्या आप किसी ऐसे व्यक्ति से संबद्ध रहे हैं जो घोषित अपराधी हो?’ एक दूसरे सवाल में पूछा गया, ‘माना जाता है कि आप उन लोगों के संपर्क में थे जिनके खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय की जांचें लंबित थीं. ये लोग कौन हैं?’ एक अन्य सवाल इस तरह है, ‘आप पर आरोप है कि आपने प्रवर्तन निदेशालय से महत्वपूर्ण सूचनाएं लीक कीं. आपने उन्हें किन लोगों को बताया था?

मजेदार बात है कि इस प्रश्नावली के आने के छह महीने पहले सहारा के एक दूसरे वरिष्ठ पत्रकार ने प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारी शरद चौधरी को घूस देने की कोशिश की थी. शरद चौधरी, राजेश्वर सिंह के सहयोगी हैं और 2जी मामले की जांच कर रही टीम के सदस्य हैं. उन्हें सहारा से जुड़े मामलों को 2जी की जांच से बाहर करने के लिए दो करोड़ रुपये का प्रस्ताव दिया गया था. प्रवर्तन निदेशालय के वरिष्ठ अधिकारियों ने इसकी शिकायत सीबीआई से की और अब सीबीआई इस मामले की जांच कर रही है.

सिंह इस प्रश्नावली और उनके सहयोगी को कथित तौर पर घूस देने की कोशिश करने के मामले को मई में सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में ले आए. इसके बाद छह मई को सहारा के खिलाफ अवमानना का नोटिस जारी करते हुए न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और एके गांगुली की बेंच ने टिप्पणी की, ‘हम प्राथमिक तौर पर इस बात को लेकर संतुष्ट हैं कि 2जी घोटाले और उससे संबंधित मामलों में श्री राजेश्वर सिंह द्वारा की जा रही जांच को प्रभावित करने की कोशिश की गई है. इसके लिए उन पर कुछ व्यक्तियों के खिलाफ जांच आगे न बढ़ाने के लिए दबाव बनाया गया. हम इसका स्वतः संज्ञान लेते हैं और नोटिस जारी करने का निर्देश देते हैं.’

सिंह ने अदालत में दिए अपने हालिया शपथपत्र में लिखा है कि पिछले तीन महीने से उनका ज्यादातर समय 2 जी मामले में जांच को आगे बढ़ाने की जगह इन ओछी‘, ‘द्वेषपूर्णऔर धमकी भरीशिकायतों का जवाब देने में जा रहा है. तहलका द्वारा सहारा से संपर्क करने की कोशिशों के बावजूद इस खबर के लिखे जाने तक वहां से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली 

इसके बाद सहारा ने प्रश्नावली भेजने वाले पत्रकार को बर्खास्त कर दिया और चौधरी को घूस देने की कोशिश करने वाले वरिष्ठ पत्रकार का स्थानांतरण लंदन कर दिया है. लेकिन उत्पीड़न बंद नहीं हुआ है. जैन ने अपनी बर्खास्तगी के बाद से दर्जन भर सरकारी विभागों में सिंह के खिलाफ शिकायतें कर दी हैं. 12 जुलाई को वित्त मंत्रालय के राजस्व विभाग के एक अंडर सेक्रेटरी ने प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक को लिखा कि उनके विभाग को उस दिन तक जैन द्वारा सिंह के खिलाफ 50 से अधिक शिकायतें मिली हैं, जिनसे संबंधित कागजों का वजन 40 किलो से ज्यादा है. सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात तो यह है कि जैन ने सत्ता पक्ष और विपक्षी पार्टियों के दस से अधिक सांसद जुटा लिए हैं जो प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति, वित्त मंत्री, रक्षा मंत्री, कानून मंत्री के कार्यालयों और विभिन्न मंत्रालयों के सेक्रेटरियों के कार्यालयों को भेजी गई उनकी शिकायतों का समर्थन कर रहे हैं.

इस पूरे मामले की शुरुआत करीब एक साल पहले हुई जब सिंह ने सहारा के खिलाफ जांच की शुरुआत की थी. जुलाई, 2010 में उन्होंने एक दर्जन से ज्यादा बैंकों को निर्देश दिया कि सहारा समूह की विभिन्न कंपनियों द्वारा 2009 से जमा किए गए नगद पैसों का ब्योरा दिया जाये. सुप्रीम कोर्ट में सिंह द्वारा दिए गए शपथपत्र में लिखा है, ‘कार्यशैली कुछ ऐसी है कि विभिन्न खातों में अलग-अलग दिन देश के दूर-दराज के इलाकों से भारी नगद जमा कराया जाता है और तुरंत ही चेक के जरिए निकाल लिया जाता है. इससे प्राथमिक तौर पर यह लगता है कि यह पैसे को वैध बनाने की कोशिश है.’

सिंह को इस बात का अंदेशा था कि यह काले धन को सफेद बनाने की कवायद है. इस आशंंका के आधार पर उन्होंने सहारा की विभिन्न कंपनियों के कुल 334 बैंक खातों की जांच शुरू कर दी. लगभग उसी समय सहारा समूह द्वारा एस-टेल में किए गए निवेश की जांच भी शुरू कर दी गई. एस-टेल वही कंपनी है जिसने छह यूएएस लाइसेंस हासिल किए हैं और 2जी साजिश में उसकी संभावित भूमिका के बारे में जांच चल रही है. 28 सितंबर, 2007 को सहारा समूह की कंपनी सहारा प्राइम सिटी ने एस-टेल में 14 करोड़ का निवेश किया था. इसी दिन कंपनी ने टेलीकॉम लाइसेंस के लिए आवेदन किया था. सहारा समूह की ही एक दूसरी कंपनी स्काई-सिटी फाउंडेशन ने कथित तौर पर एस-टेल में 10 करोड़ रुपये का अतिरिक्त निवेश किया है. एस-टेल ने लाइसेंस की फीस देने के लिए अलग-अलग स्रोतों से धन इकट्ठा किया था, अब पैसे के इन स्रोतों के बारे में जांच चल रही है. सिंह ने दो फरवरी को सुब्रत रॉय को इस संबंध में पूछताछ के लिए सम्मन भेजा कि 17 फरवरी को वे व्यक्तिगत रूप से हाजिर हों. किसी तरह रॉय ने इस सम्मन पर चार हफ्ते तक कार्रवाई न होने का रास्ता निकाल लिया. 30 मार्च को दूसरा सम्मन जारी किया गया कि रॉय आठ अप्रैल को हाजिर हों. लेकिन वे हाजिर नहीं हुए. रॉय के आने की जगह सहारा के पत्रकार की तरफ से प्रश्नावली और शिकायतों का पुलिंदा आया.

अब चार अगस्त को सुप्रीम कोर्ट सुब्रत रॉय और उनके पत्रकार द्वारा दाखिल किए गए शपथपत्रों और सिंह द्वारा दिए गए जवाबों पर सुनवाई करेगा. अदालत के हालिया निर्णयों को देखते हुए लगता है कि उस दिन से सहारा का शुद्धिकरण भी शुरू हो सकता है.

खबरों के जिंदा होने की खबर

सुना है कि हिंदी न्यूज चैनलों पर ‘खबर’ की वापसी हो रही है. हालांकि ऐसी अफवाहें, माफ कीजिएगा, ‘खबरे’ काफी समय से चल रही हैं, लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश चैनलों पर अब भी ‘खबर’ के नाम पर सिनेमा, क्रिकेट, मनोरंजन, रियलिटी शो से लेकर ज्योतिष, बाबाओं, तांत्रिकों और असामान्य, पारलौकिक और बेसिर-पैर की ‘परा-खबरों’ का बोलबाला है. तमाम चर्चाओं-आलोचनाओं और आत्ममंथनों के बावजूद पिछले कुछ वर्षों में चैनलों पर हार्ड न्यूज की विदाई और ‘परा-खबरों’ का दबदबा बढ़ता ही गया है.

इसलिए इस ‘खबर’ पर भरोसा नहीं हो रहा है कि चैनलों पर ‘खबरों’ के दिन लौटने वाले हैं. ऐसे दावे कई बार किए गए लेकिन नतीजा, वही चैनल के तीन पात- मनोरंजन, क्रिकेट और पारलौकिक. याद कीजिए, कोई तीन साल पहले बहुत जोर-शोर से ‘न्यूज इज बैक’ (खबर लौट आई है) नारे के साथ न्यूज 24 चैनल शुरू हुआ था, लेकिन वहां खबरों को गायब होने में ज्यादा समय नहीं लगा. हालांकि कई खबर-जलों का तो यह भी कहना है कि वहां कभी ‘खबर’ थी  ही नहीं, इसलिए उसके लौटने या गायब होने की चर्चा बेकार है.

चैनलों को लगता है कि उनसे चतुर-सुजान कोई नहीं है, लेकिन लोगों को बेवकूफ बनाने के चक्कर में वे खुद बेवकूफ बनने लगे हैं  इसी आधार पर कुछ खबर-जलों ने चैनलों पर ‘इतिहास के अंत’ की तरह ‘खबर के अंत’ का एलान कर दिया. दूसरी ओर, चैनलों के कुछ तेज-तर्रार संपादकों ने यहां तक कहना शुरू कर दिया कि बदलते समय और समाज के साथ ‘समाचार’ की परिभाषा भी बदल रही है और चैनल जो दिखा रहे हैं और दर्शक जो देख रहे हैं, वही ‘खबर’ है. यह भी कि ‘खबर’ का दायरा बढ़ रहा है. इस पर भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी?

लेकिन ‘खबरों’ के इस बढ़ते दायरे में पर्यावरण, विज्ञान-तकनीक, स्वास्थ्य या विकास-विस्थापन संबंधी खबरें या उत्तर-पूर्व, उड़ीसा जैसे पिछड़े इलाकों की खबरें फिर भी गायब रहीं और चैनलों की ‘खबरों’ का दायरा बढ़ते हुए सीधे पारलौकिक ‘खबरों’ तक जा पहुंचा. नतीजा, हिंदी न्यूज चैनलों के सौजन्य से दर्शकों को दूसरे लोक (जैसे स्वर्ग की सीढ़ी) के साथ-साथ अपना परलोक सुधारने की और मौसम के हाल की बजाय सीधे प्रलय की संभावित तिथियों की ‘खबरें’ मिलने लगीं. इस मायने में खबरें सचमुच ‘स्वर्गवासी’ हो गईं.
इसके बावजूद मजा देखिए कि हर कुछ महीनों में ‘खबर’ के फिर से जिंदा होने की खबरें भी उड़ने लगती हैं. इधर पिछले कुछ महीनों से जी न्यूज ‘फाॅर द सेक आॅफ न्यूज’ यानी ‘खबरों की खातिर’ की पंचलाइन के साथ बाकायदा एक मीडिया अभियान चला रहा है जिसमें न्यूज चैनलों पर टीआरपी के लिए खबरों की पवित्रता से खिलवाड़ करने की शिकायत करते हुए ‘खबर’ को फिर से उसकी जगह पर बहाल करने की अपील की गई है. मीडिया वेबसाइटों के मुताबिक, अब ‘आज तक’ ने भी फैसला किया है कि वह टीआरपी की परवाह किए बगैर ‘खबरें’ दिखाएगा. कुछ खबर-जलों का कहना है कि यह फिसल पड़े तो हर गंगे वाली बात हो गई. यानी जब ऊलजुलूल दिखाकर भी टीआरपी की दौड़ में इंडिया टीवी से जीत नहीं पा रहे तो ‘खबर’ याद आने लगी. फिर भी अगर यह खबर सही है तो इसका स्वागत होना चाहिए. आखिर पिछले कुछ सालों में कंटेंट और खबरों के स्तर पर ‘आज तक’ में जितनी गिरावट आई है उसने मेरे जैसे बहुतेरे लोगों को बहुत निराश किया है. 

असल में, न्यूज चैनलों खासकर हिंदी चैनलों के भटकाव को लेकर काफी दिनों से खतरे की घंटी बज रही है. कई चैनलों में खबरों के नाम पर ‘खबर’ के साथ जो मजाक चल रहा है वह बेतुकी हदों तक पहुंच चुका है. खबर और कल्पना, खबर की प्रस्तुति और ड्रामा और न्यूज चैनल और मनोरंजन चैनल के बीच का फर्क मिट चुका है. नतीजा यह कि लोग न्यूज चैनलों का मजाक उड़ाने लगे हैं. उन्हें हल्के में लेने लगे हैं. उनके आलोचकों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है. उनका सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव घटने लगा है. यही नहीं, उनके खासकर हिंदी चैनलों के दर्शक भी ऊबने और घटने लगे हैं. टैम मीडिया रिसर्च के मुताबिक, 2008 की तुलना में 2010 में कुल टीवी दर्शकों में हिंदी न्यूज चैनलों के दर्शकों की संख्या 4.8 फीसदी से घटकर 3.4 फीसदी रह गई. यही नहीं, उनकी जीआरपी (दर्शकों तक पहुंच और चैनलों पर खर्च समय) में भी काफी गिरावट आई है.

कहते हैं कि आप कुछ लोगों को कुछ बार बेवकूफ बना सकते हैं लेकिन सभी लोगों को हर बार बेवकूफ नहीं बना सकते. सभी लोगों को सभी बार बेवकूफ बनाने की कोशिश में अब चैनलों के बेवकूफ बनने की बारी है. लोग हिंदी न्यूज चैनलों के नाटक (खींचो, तानो, खेलो) से तंग आ गए हैं. वे चैनलों की ट्रिक्स समझने लगे हैं. उन्हें पता चल गया है कि स्वर्ग का रास्ता किधर से है, पाताललोक कहां है, धरती कितनी तरह से और किन तारीखों को खत्म हो सकती है और शनिवार को क्या खाना-पहनना और दान देना है.
चैनल अब सुरंग के आखिर में पहुंच चुके हैं. वहां से आगे का रास्ता बंद है. उनके पास वापस लौटने के अलावा और कोई चारा नहीं है. जो लौटेंगे वे न्यूज चैनल के रूप में बचेंगे और जो सुरंग में फंसेंगे वे अंधेरों में खो जाएंगे.

चैनल मानें न मानें, उनके लिए उलटी गिनती शुरू हो चुकी है. हालांकि मनुष्य की कल्पनाशक्ति का कोई अंत नहीं है और चैनलों की कल्पनाशक्ति की कल्पना करना मेरे वश से बाहर है लेकिन ऐसा लगता है कि

ताकि सांप भी छिपा रहे, लाठी भी बची रहे

क्या 2जी स्पेक्ट्रम के घपले और नोएडा एक्सटेंशन के जमीन विवाद में कोई समानता है?  फिलहाल दोनों अखबारों की सुर्खियों में हैं.  यह न्यूनतम समानता भी कल को किसी दूसरी तथाकथित बड़ी और सनसनीखेज खबर द्वारा विस्थापित कर दी जाएगी. लेकिन 24 घंटे खबरें बनाने वाली और हर समय कुछ नया खोजने की कोशिश में पुराने को भूल जाने वाली इस नयी पत्रकारिता के दौर में लगातार बढ़ रहे सामूहिक स्मृतिलोप के बीच भी यह भूलना मुश्किल है कि दूरसंचार क्रांति और अबाध शहरीकरण मौजूदा अर्थव्यवस्था के वे दो पहिये हैं जिन पर उदारीकरण के बाद का हिंदुस्तान जैसे सरपट दौड़ रहा है. 2जी स्पेक्ट्रम इस दूरसंचार क्रांति की संतान है तो नोएडा एक्सटेंशन शहरीकरण का किलकारी मारता शिशु, जिसके भविष्य के साथ बहुत सारे लोगों ने अपना भविष्य जोड़ रखा है.

यह लाठी को बचाए रखने की कोशिश है और सांप को वह मोहलत और रास्ता देने की, जिसमें वह कुछ दिन के लिए अदृश्य या ओझल हो जाएदरअसल जिस दौर में नयी अर्थव्यवस्था के उच्चभ्रू कामगारों, जो खुद को एग्जिक्यूटिव कहलाना पसंद करते हैं, और किसानों के बीच सबसे ज्यादा दूरी है, उस दौर में इन दोनों को जोड़ने वाली ये दो क्रांतियां कई तरह के विद्रूप रच रही हैं. मोबाइल बेचने वाले अब जमीन और मकान खरीद रहे हैं और जमीन के सहारे गुजारा करने वाले मुआवजे के गुलाबी रैपर में लिपटे अपने कुछ कम तकलीफदेह विस्थापन के साथ तरह-तरह के मोबाइल खरीदने में जुटे हैं.

लेकिन स्पेक्ट्रम और एक्सटेंशन के मौजूदा दोनों विवादों ने इस रफ्तार पर एक लगाम लगा दी है और तरक्की व खुशहाली के तथाकथित सरकारी एजेंडे के सामने एक बड़ा सवाल पैदा कर दिया है. 2जी स्पेक्ट्रम का पूरा मामला बताता है कि किस तरह इस देश के कानूनों का इस्तेमाल एक छोटे से तबके को अकूत लाभ पहुंचाने के लिए किया जा रहा है और सरकार के माथे पर बल भी नहीं पड़ रहे. 2जी स्पेक्ट्रम की बिक्री पर आई सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक दूरसंचार मंत्रालय के फैसलों की वजह से सरकारी खजाने को एक लाख 76 हजार करोड़ का चूना लगा और इस देश के सबसे ताकतवर मंत्रियों में से एक कपिल सिब्बल बताते हैं कि कोई घपला या घाटा हुआ ही नहीं. दूसरे ताकतवर मंत्री पी चिदंबरम बताते हैं कि जिन कंपनियों को लाइसेंस बेचे गए उन्होंने अपनी हिस्सेदारी विदेशी कंपनियों को बेचकर किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया. प्रधानमंत्री सफाई देते हैं कि उन्होंने 2जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस बांटे जाने के समय मिल रही शिकायतों पर दूरसंचार मंत्रालय को चिट्ठी लिखी थी और अपने मंत्री की सफाई से संतुष्ट हो गए थे.

मगर सवाल 2जी स्पेक्ट्रम के घपले या घोटाले का नहीं है, इससे जुड़े न्याय का है. यह न्याय सिर्फ इस बात से हासिल नहीं होगा कि कुछ मंत्री या सांसद या अफसर कुछ दिन की जेल काट आएं. इससे न्याय का भ्रम तो पैदा होता है, यह असली सवाल पीछे छूट जाता है कि इन जिम्मेदार लोगों ने जो गलतियां कीं उन्हें कैसे दुरुस्त किया जाए.

दुरुस्त करने का एक ही तरीका है कि तब लिए गए फैसले पलटे जाएं. यानी कम से कम ए राजा के समय जो 122 लाइसेंस बांटे गए थे उन्हें रद्द कर दिया जाए. लेकिन क्या यह संभव है? अगर रातोंरात ये लाइसेंस रद्द कर दिए जाएं तो उस सूचना क्रांति का क्या होगा जिसके कंधों पर बैठकर आज का भारत सिर्फ बातें और बातें कर रहा है, संदेश भेज रहा है, चैटिंग में लगा है और अपने मोबाइल के सहारे दुनिया को मुट्ठी में करने का सपना देख रहा है? महज पिछले दस साल में इस सूचना क्रांति ने भारत में मोबाइल की जो नयी और अबूझ अपरिहार्यता पैदा कर दी है, क्या उसे वापस लौटाना मुमकिन है? जाहिर है, किसी भी न्यायालय को, किसी भी सरकार को ऐसा बड़ा और साहसिक फैसला करने के पहले बहुत ताकत जुटानी होगी या फिर कोई ऐसा रास्ता खोजना होगा जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

2जी स्पेक्ट्रम और जमीन अधिग्रहण मामले में एक समानता यह भी है कि अपरिहार्यता के तर्क से इंसाफ को रोकने की कोशिश हो रही है

लेकिन क्या ऐसा कोई रास्ता संभव है? और क्या वाकई हमारी व्यवस्था सांप को मारना चाहती है या उसकी दिलचस्पी सिर्फ अपनी लाठी को बचाने में है? दरअसल अभी जो कुछ हो रहा है वह लाठी को ही बचाए रखने की कोशिश है और सांप को वह मोहलत और रास्ता देने की, जिसमें वह कुछ दिन के लिए अदृश्य या ओझल हो जाए.

लेकिन विकास की इस सांप-सीढ़ी में सांप एक नहीं, कई हैं. ये मोबाइल क्रांति की आस्तीन में ही नहीं, उन खेतों में भी छिपे बैठे हैं जिन्हें गैरकानूनी ढंग से हथियाकर बिल्डरों के हवाले करते हुए शहरीकरण की नयी परियोजनाओं को आकार देने की कोशिश चल रही है. इस शहरीकरण के नक्शे में ऊंची-ऊंची इमारतें हैं, चमचमाते मॉल हैं और ऐसे एक्सप्रेसवे हैं जिन पर दिल्ली और आगरा के बीच की दूरी दो घंटे में तय की जा सके. किसी को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि यह सांस रोक देने वाला, तेज रफ्तार और चुंधिया देने वाला विकास कानून को रौंदकर, खेतों को पाटकर हासिल किया जा रहा है और पीढ़ियों से खेती कर रहे किसानों को दिहाड़ी के मजदूर में बदला जा रहा है. शहरीकरण की ऐसी ढेर सारी परियोजनाएं पूरे हिंदुस्तान में चल रही हैं और हर जगह कमोबेश इसी प्रक्रिया से- सरकारी धोखाधड़ी से, छल-कपट से और जोर-जबरदस्ती से चल रही हैं.

यह सिर्फ इत्तेफाक नहीं है कि दूरसंचार क्षेत्र में 2जी लाइसेंस लेने में कामयाब कई कंपनियां वही हैं जो रीयल एस्टेट, यानी जमीन के कारोबार में भी लगी हुई हैं. डीबी रियल्टी या यूनीटेक या ऐसी कई दूसरी कंपनियां हैं जिन्हें मालूम है कि इस व्यवस्था को कहां-कहां से दुहा जा सकता है और कौन-कौन इसमें साझेदार या मददगार हो सकते हैं. यानी एक लिहाज से यह चंद ताकतवर लोगों जिसमें औद्योगिक घराने, ठेकेदार, बिल्डर, माफिया और नेता सब शामिल हैं- का ऐसा कार्टेल है जो हर जगह गरीब को लूट रहा है, बेदखल कर रहा है.

शुक्र है कि भारतीय लोकतंत्र की जो बहुपरतीयता है उसमें ऐसे कार्टेल का प्रतिकार करने की थोड़ी-बहुत क्षमता अभी बाकी है. 2जी स्पेक्ट्रम और नोएडा एक्सटेंशन दोनों जगहों पर सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप ने विकास के नाम पर की जा रही इस अंधाधुंध लूटखसोट के सामने एक स्पीड ब्रेकर लगाया है. 2जी स्पेक्ट्रम में मामला अभी लाइसेंस के रद्द होने तक नहीं पहुंचा है, इसलिए बदहवासी का आलम नहीं है, लेकिन नोएडा एक्सटेंशन की जमीन किसानों को वापस करने का फैसला सबके हाथ-पांव फुला रहा है. इसकी वजह यह है कि इस प्रक्रिया में करोड़ों नहीं, अरबों की रकम दांव पर लगी है और अगर इस फैसले पर पूरी तरह अमल हुआ तो कई कंपनियों को अच्छा-खासा घाटा उठाना होगा. अब यह डर दिखाया जा रहा है कि यह फैसला बिल्डिंग उद्योग को जो नुकसान पहुंचाएगा वह विकास की पूरी प्रक्रिया के लिए घातक होगा.

एक स्तर पर यह अंदेशा सच है. इमारत उद्योग एक दोधारी तलवार है. जब वह फूलता-फलता है तो उसके साथ कई उद्योग फूलते-फलते हैं. इस्पात, सीमेंट, लोहे, शीशे सबका कारोबार बढ़ता है और छोटे-बड़े और नये रोजगार की ढेर सारी गुंजाइश पैदा होती है. लेकिन जब वह बैठ जाता है तो जैसे पूरी अर्थव्यवस्था अपाहिज हो जाती है. नोएडा एक्सटेंशन का फैसला इस पूरे इमारत उद्योग को संदिग्ध बना सकता है और अर्थव्यवस्था को एक नए मंदी की तरफ धकेल सकता है.

लेकिन क्या सिर्फ इसीलिए हमें 2जी स्पेक्ट्रम या नोएडा एक्सटेंशन की बेईमानियों को भुला कर सुलह-सफाई का रास्ता खोजना चाहिए? क्या हमें सांप को इसीलिए छोड़ देना चाहिए कि हम अपनी खोखली लाठी बचाए रख सकें? लेकिन ऐसी लाठी बचाकर क्या होगा जिससे सांप मारा भी न जा सके? इन फैसलों को पलटने के खतरे हैं, लेकिन इन्हें बनाए रखना कहीं ज्यादा खतरनाक है क्योंकि इससे खुशहाली का एक मिथ बनता है जो इस असलियत पर हावी हो जाता है कि यह खुशहाली बस चंद लोगों और घरानों की तिजोरियों में सिमट कर रह जा रही है और कहीं ज़्यादा बड़ा संकट- विस्थापन का, बेरोजगारी का, भूख का और अपराध का- समय के गर्भ में छिपा रह जा रहा है. नोएडा एक्सटेंशन में कुछ बढ़ा हुआ मुआवजा देकर किसानों को खुश कर देने की नीति अंततः उनके लिए घातक साबित हो रही है, यह अनुभव बता रहा है. वे कई नये सामाजिक-आर्थिक दबावों के शिकार हैं और उनकी युवा पीढ़ियां अपनी निठल्ली ऐयाशी में कई तरह की कुंठाओं का बोझ लेकर अपराध की गलियों में उतरती दिखाई पड़ती हैं.

दरअसल इंसाफ चाहे जितना भी तकलीफदेह हो, उस तक पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए. 2जी स्पेक्ट्रम और जमीन अधिग्रहण मामले में एक समानता यह भी है कि अपरिहार्यता के तर्क से इंसाफ को रोकने की कोशिश हो रही है. 2जी के लाइसेंस रद्द करने से एक बड़ा संकट पैदा होगा या नोएडा एक्सटेंशन के जमीन अधिग्रहण का फैसला पलटने से एक भयानक अराजकता पैदा होगी, यह डर वे लोग दिखा रहे हैं जो इन संकटों के लिए जिम्मेदार हैं. दरअसल यह अपनी खाल बचाने की कोशिश है. हालांकि जो लोग यह कोशिश कर रहे हैं वे सिर्फ दलीलों से नहीं, अपनी बाकी ताकत का इस्तेमाल करके भी यह काम कर रहे हैं. उनके पास पैसा है, पुलिस है, सरकार है- यानी व्यवस्था की पूरी ताकत है. हालांकि उनके विरुद्ध जो लोग खड़े हैं वे भी कोई क्रांतिकारी नहीं हैं- उन्हें भी अपने छोटे-छोटे फायदों की तलाश है. हो सकता है, इनमें से कई समूह कल समझौतों के लिए तैयार और तत्पर दिखें.

लेकिन इससे मूल सवाल खत्म नहीं हो जाता- वह सवाल जिसका वास्ता विकास के असली और ज्यादा मानवीय चेहरे से है, इंसाफ की कहीं ज्यादा जायज और तीखी लड़ाई से है और इस समझ से है कि हमारी मौजूदा व्यवस्था में कुछ है जो सड़ांध का शिकार है जिसे बदले जाने की जरूरत है.  क्या बदलाव की कोई असली लड़ाई ऐसी समझ से पैदा नहीं होती?

' किसी का भी नाम सिर्फ छोटू या लड़की कैसे हो सकता है '

 रोज की तरह उस दिन भी मैं दिल्ली मेट्रो के एक स्टेशन के नीचे खड़ी अपने दोस्तों का इंतजार कर रही थी. गर्मियों का वक्त था. कॉलेज में छुट्टियां पड़ी हुई थीं और पिछले कुछ समय से हम सबका इंटर्नशिप के लिए एक पत्रिका के दफ्तर आना-जाना हो रहा था. आम दिनों के उलट उस दिन मौसम मेहरबान था. झुलसाने वाली धूप नदारद थी और ठंडी-ठंडी हवा के साथ हल्की-हल्की बूंदाबांदी भी हो रही थी. यही वजह थी कि इंतजार का वक्त मौसम का आनंद लेते हुए कट रहा था.

 तभी मेरे पास दो छोटे-छोटे बच्चे  आए. हाफ पैंट, फटी कमीज पहने और धूल-मिट्टी से सने. एक लड़का और दूसरी लड़की. उम्र करीब तीन-चार साल रही होगी. धूप, धूल और दूसरे शब्दों में कहें तो अभावों की मार ने उन पर ऐसी चोट की थी कि उनकी शक्ल पर आंखों के अलावा कुछ नहीं दिख रहा था. सामने आते ही उन्होंने हाथ फैला दिए और भीख मांगना शुरू कर दिया.

  

पता नहीं मैंने ऐसा क्यों कहा. शायद मन में यह भाव रहा हो कि बच्चों को लगे कि पैसा उन्होंनेकुछ कोशिश करके हासिल किया है एक बार तो मन में ख्याल आया कि इन्हें यहां से भगा दूं. लेकिन दूसरे ही पल सोचा कि जब तक दोस्त नहीं आते क्यों न तब तक इनसे बात की जाए. ऐसा मैंने क्यों सोचा पता नहीं. चेहरे की मासूमियत को गंदगी में छिपाए दोनों बच्चे अब भी मेरे सामने खड़े थे. मैंने उनसे कहा, ‘हाथ नीचे करो और सीधे खड़े  हो जाओ.फिर मैंने उनका नाम पूछा.

 

लेकिन यह जानकर मुझे आश्चर्य हुआ कि उनमें से किसी का भी कोई नाम नहीं था. एक ने अपना नाम छोटू बताया और दूसरी ने लड़की. दोबारा पूछने पर भी वही नाम. छोटू और लड़की.

मैं हैरान थी. किसी का भी नाम सिर्फ छोटू या लड़की कैसे हो सकता है. ख्याल आए तो आते चले गए. बिना नाम के इनका जीवन कितना अजीब होता होगा? इन बच्चों से ऐसी कौन-सी भूल हुई है जो इन्हें इस तरह का जीवन मिला है? इनके माता-पिता ने इनको इतनी छोटी-सी उम्र में भीख मांगने में क्यों लगा दिया? नाम नहीं यानी कोई पहचान नहीं और जो उनकी हालत थी उसे देखते हुए लगता नहीं था कि उनके जीवन का कोई मकसद भी होगा.

 

दोनों बच्चे अब भी मेरे सामने हाथ फैलाए खड़े थे. मैंने उन्हें एक से दस तक गिनती सुनाने को कहा. हालांकि मुझे अंदाजा था कि वे नहीं सुना पाएंगे. ऐसा ही हुआ भी. उन्हें गिनती के बारे में कुछ पता ही नहीं था. मैंने उनसे कहा कि मैं बोलती हूं तुम मेरे साथ-साथ बोलना. शरमाते-सकुचाते हुए वे इसके लिए राजी हो गए. और काफी कोशिश के बाद उन्हें एक से पांच तक की गिनती याद भी हो गई.

तभी मेरे दोस्त पहुंच गए. जितनी हैरान मैं उन बच्चों को देखकर थी उतनी ही हैरानी के भाव उन बच्चों के साथ मुझे खड़ा देखकर मेरे दोस्तों के चेहरे पर भी आए. इस हैरानी में कुछ अंश उस घृणा का भी मिला हुआ था जिसके साथ हम लोग अक्सर ऐसे बच्चों को देखा करते हैं. मेरे एक दोस्त ने पूछा भी कि क्यों मैंने ऐसे मैले-कुचैले बच्चों को अपने पास खड़ा कर रखा है. उधर, वे दोनों इससे बेपरवाह अब भी टुकुर-टुकुर हम सभी को ताके जा रहे थे.

 

हम सभी जाने को हुए कि दोनों बच्चों ने एक बार फिर हाथ फैलाकर मांगना शुरू कर दिया. मेरे पास उनके लिए तरस और सद्भावना के अलावा कुछ नहीं था. तभी मेरे एक दोस्त ने जेब से पांच रु का नोट निकाला और उन्हें देने लगा. मैंने उसे रोका और बच्चों से कहा, ‘पहले पांच तक गिनती सुनाओ.

 

पता नहीं मैंने ऐसा क्यों कहा. शायद मन में यह भाव रहा हो कि बच्चों को लगे कि पैसा उन्होंने कुछ कोशिश करके हासिल किया है या दूसरे शब्दों में कहें तो अपने मानसिक श्रम से कमाया है. उन्होंने थोड़ी कोशिश की भी और टूटी-फूटी ही सही पर पांच तक गिनती सुना दी. हम लोग भी पांच का नोट उन्हें देकर चल दिए.

 

इस घटना को कुछ दिन हो गए हैं मगर उन बच्चों का चेहरा अब भी मेरे जेहन में है. सोचती हूं कि क्या उन बच्चों को जिंदगी में कभी कोई नाम या मकसद मिल पाएगा? क्या उनकी जिंदगी में कभी खुशी और रोशनी बिखरेगी? और सबसे अहम यह कि जब तक ऐसे लाखों बच्चों के जीवन को कोई अच्छी दिशा नहीं मिलती तब तक क्या हमें एक देश के रूप में खुद को महान कहने का वास्तव में हक है?