डेल्ही बेली की अलबेली कथा

स्क्रिप्ट एक दिन लेट थी. मैं ऐसी कई स्क्रिप्टों से भरे रिचर्ड वॉल्टर के ऑफिस में था. रिचर्ड वॉल्टर यानी राइटिंग गुरु और स्कूल ऑफ थियेटर, फिल्म एंड टेलीविजन, यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया, लॉस एंजलस के स्क्रीनराइटिंग प्रोग्राम के निदेशकों में से एक. वे पन्ने पलटते जा रहे थे और बीच-बीच में कई जगहों पर अपनी अबूझ लिखावट में कुछ टिप्पणियां भी दे रहे थे. यानी मामला ठीक-ठाक नजर आ रहा था. थोड़ी देर बाद उन्होंने मुझे स्क्रिप्ट वापस कर दी. मन में उत्सुकता थी कि मुझे क्या ग्रेड मिला है. देखकर मेरी उम्मीदें भरभराकर गिर पड़ीं. रिचर्ड ने मुझे ए माइनस दिया था.

‘भले ही स्क्रीनराइटर के लिए कोई तय नौकरी न हो लेकिन वह भी इंसान होता है. उसे भी भूख-प्यास लगती है’

और यह हाल तब था जब सालों तक विज्ञान, गणित और अर्थशास्त्र जैसे विषयों में बेकार सिर खपाने के बाद मुझे लग रहा था कि अब आखिरकार मैं वही कर रहा हूं जो मुझे अच्छा लगता है जिसकी मुझमें समझ है, जो मैं सबसे अच्छी तरह से कर सकता हूं. यानी पढ़ना, लिखना और कहानियां सुनाना. मुझे लगता था कि यही मेरे लिए एक ऐसी चीज है जिसकी अगर कोई परीक्षा हो तो मार्कशीट पर मुझे उतने जीरो नहीं दिखेंगे जितने स्कूली दिनों में दिखते थे.

लेकिन यहां तो वही हाल था. ए प्लस या ए की बात तो छोड़िए ए माइनस. मुझे लगा कि शायद दुनिया में ऐसा कोई काम नहीं है जो मेरे बस का हो. जिसे मैं अच्छे से कर पाऊं. सिर्फ सोने के अलावा. दरअसल अपनी योग्यता को प्रमाणित करने के लिए मुझे ग्रेड चाहिए थे, जो मुझे और दुनिया को बताते कि मैं लिख सकता हूं. रिचर्ड को यह बात समझ में नहीं आती थी जो कि स्वाभाविक भी था. वे भला कैसे समझते कि मैं जिस दुनिया से आया हूं वहां मार्कशीट के नंबरों की कितनी अहमियत है. रिचर्ड ने मेरी तरफ देखा और बोले, ‘तुम्हें भले ही अभी पैसे नहीं मिल रहे हों लेकिन तुम अब एक प्रोफेशनल हो. लिखने का कोई मतलब नहीं अगर इसे कोई पढ़े ही नहीं.’

इसके बाद उन्होंने अपनी मेज से मुड़ा-तुड़ा कागज का एक छोटा-सा टुकड़ा उठाया और मुझे दे दिया. मैंने इसे खोला. इस पर अंग्रेजी के तीन अक्षर लिखे थे. ओ, डब्ल्यू, ई.रिचर्ड अब खड़े हो गए थे और जाने से पहले अपना सामान समेट रहे थे. ‘ओन वर्स्ट एनीमी’, वे बोले, ‘अपने रास्ते से हटना सीखो.’ संकेत यह था कि कभी-कभी अपने रास्ते की सबसे बड़ी बाधा आप खुद ही होते हैं. मैंने उस स्लिप को मोड़कर अपने बटुए में रख लिया. आज भी यह वहीं है

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फिर अगला ट्राइमेस्टर शुरू हो गया और अगली डेडलाइन के बीच डेल्ही बेली या से चीज (जो इसे तब कहा गया था) एक बिसरी चीज हो गई. यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया में स्क्रीन राइटिंग प्रोग्राम आपकी हिम्मत का इम्तहान लेता है. और अगर आप ठीक-ठाक महत्वाकांक्षी हैं जो कि हर कोई यहां होता ही है तो आप हर तीन महीने में एक स्क्रिप्ट लिखते हैं. यानी हर दस हफ्ते में एक फिल्म. इस रफ्तार का ही कमाल है कि यहां कागजों के छोटे-छोटे पहाड़ बनते रहते हैं. ढाई साल बाद जब मेरा कोर्स पूरा हुआ तो मेरे पास भी स्क्रिप्टों का एक पहाड़ था. मेरा छोटा एवरेस्ट. डेल्ही बेली इसके आधार शिविर वाली जगह पर थी यानी सबसे नीचे. मेरे पास फर्स्ट ड्राफ्टों के कई ढेर थे. लेकिन फर्स्ट ड्राफ्ट का कोई मतलब नहीं होता. इसमें किसी की दिलचस्पी नहीं होती. इस पर कोई फिल्म बने उससे पहले इसे कई बार सुधारा जाना होता है. यानी मेरे पास संभावनाओं के अलावा कुछ नहीं था.

स्क्रीनराइटर होने की अपनी कई समस्याएं हैं. पहली तो यही कि इसमें करियर का कोई तय ठिकाना नहीं होता. दफ्तर में काम करने वाले किसी आदमी की तरह ऐसा नहीं होता कि आप नौ से पांच बजे की शिफ्ट में काम करें और महीने के आखिर में एक तय तनख्वाह ले जाएं. अगर आप कॉपीराइटर या पत्रकार बन जाएं तो ऐसा हो सकता है, लेकिन स्क्रीनराइटर के साथ ऐसा नहीं होता. वह सिर्फ एक उम्मीद के भरोसे लिखता है.

आमिर अपनी पसंदीदा कुर्सी पर पैर मोड़कर बैठे हुए थे. उन्होंने पिछले कुछ मिनटों में कुछ नहीं कहा था 

यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया में कहावत थी कि कोर्स पूरा करने और चर्चित होने के बीच औसतन नौ साल का वक्त लग जाता है. नौ साल! वह भी अगर कामयाबी मिल जाए. तो हकीकत यह थी. अब भले ही स्क्रीनराइटर के लिए कोई तय नौकरी न हो लेकिन वह भी इंसान होता है और बाकी इंसानों की तरह उसकी भी अपनी जरूरतें होती हैं. भूख-प्यास उसको भी लगती है. यानी नौ साल तक जिंदा रहने के लिए मुझे एक नौकरी भी करनी थी. एक अदद नौकरी. स्कूल के दिनों में मैंने कई छोटे-मोटे काम किए थे जिनसे जेबखर्च जैसी रकम जुटाई गई थी. लेकिन अब मुझे उससे ज्यादा पैसे की जरूरत थी. नौकरी की तलाश करते हुए मुझे यह भी महसूस हुआ कि अगर सुदूर भविष्य में मुझे मोक्ष मिलने की कुछ भी गुंजाइश है तो वह तभी है कि जब मैं कोई फर्स्ट ड्राफ्ट पकड़ लूं और उसे तब तक सुधारूं जब तक वह कबाड़ से कुछ और न बन जाए. मैं समझ गया था कि अगर मैं अब भी फिल्में बनाना चाहता हूं तो इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए मेरे पास यही रास्ता है. अब मुझे एक कहानी की जरूरत थी जिस पर मैं काम कर सकूं और जिसे शूट करने के लिए शायद कुछ पैसा जुटा सकूं.

मैंने अपनी स्क्रिप्टों पर नजर दौड़ाने का काम शुरू किया. इनमें से ‘से चीज’ मुझे सबसे ठीक लगी. यह उस खांचे में फिट बैठती थी जो मैंने सोचा था. यानी एक कैरेक्टर बेस्ड फिल्म जिसका दायरा इतना हो कि उसे किसी की मदद के बगैर भी बनाया जा सके. अपना विकल्प चुन लेने के बाद मैंने इसे सुधारने की दिशा में गंभीरता से काम करना शुरू किया. उधर, नौकरी की तलाश के मोर्चे पर भी कई मुश्किलें थीं. मैं भारत में एक एडवरटाइजिंग कॉपीराइटर के तौर पर नौकरी कर चुका था और मुझे लगा कि इसी क्षेत्र में यहां यानी अमेरिका में भी नौकरी खोजनी चाहिए. लेकिन जल्द ही मुझे अहसास हो गया कि भारत में हासिल किया गया तजुर्बा यहां किसी काम का नहीं. अमेरिकी एजेंसियां उस बायोडेटा पर गौर करने के लिए तैयार नहीं थीं जिसमें अमेरिका में हासिल किए गए अनुभव का जिक्र न हो. मैंने अपना पोर्टफोलियो फिर से बनवाया, उसमें डेढ़ साल का अमेरिका का अनुभव जुड़वाया और आखिरकार काफी कोशिश के बाद मुझे कॉपीराइटर की नौकरी मिल ही गई. उधर, ड्राफ्ट सुधारने का काम भी ठीक चल रहा था. मैं दोनों मोर्चों पर ठीक-ठाक जम गया था.

लेकिन मेरी जिंदगी में सब कुछ ठीक कैसे चल सकता था. जल्द ही अमेरिका में वित्तीय संकट आ गया. हाउसिंग मार्केट की रातों-रात हवा निकल गई. किस्मत मेरी ऐसी है कि गलत वक्त पर गलत जगह होने के मामले में मेरा रिकॉर्ड बिल्कुल बेदाग रहा है. यहां भी ऐसा ही हुआ. अपनी एजेंसी में मैं जिस क्लाइंट के साथ काम कर रहा था उसका ताल्लुक वित्तीय क्षेत्र से ही था. जाहिर है एक हफ्ते के भीतर ही वह गायब हो गया. और मेरी नौकरी भी. संकट बढ़ता ही जा रहा था और मेरी नयी-नवेली खुशहाली और मानसिक संतुलन दोनों ही संकट में थे.

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शुरुआती तीन दिन तक नौकरी चले जाना उतना नहीं खलता. उसके बाद समस्याएं दिखने लगती हैं मसलन खुद से नफरत, कई सवाल और अवसाद. तीन दिन हो चुके थे. ज्यादा फुर्सत मुझे रास नहीं आती. मेरे पास कोई काम नहीं था. दिन-रात सोने के सिवा. ऐसे ही एक दिन फोन बजा. मैं इतना अलसाया हुआ था कि घंटी बजती रही लेकिन मैं फोन तक भी नहीं पहुंच पाया. घंटी फिर बजी. मैंने खुद को धिक्कारा और फोन उठाया.

‘हैलो ड्यूड’, उधर से आवाज आई. यह जिम था, ‘मैंने सुना है तुम अपनी फिल्म बनाने की कोशिश में लगे हो. अगर कहो तो मदद करूं. मैं फिल्म बनवा सकता हूं.’ जिम और मैं यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया में साथ-साथ थे. रिचर्ड वॉल्टर की वर्कशॉप के दौरान भी वह मेरे साथ ही था जब मैं ‘से चीज’ का फर्स्ट ड्राफ्ट लिख रहा था. मैंने कहा, ‘सच में.’ फिर सोचा, वैसे भी मेरे पास खोने को क्या है. जिम अब भी लाइन पर था. मैंने कहा, ‘ठीक है.’

उस शाम जिम मेरे कमरे पर आया. उसने मुझे बताया कि हम फिक्की के एक आयोजन में शामिल होने भारत जा रहे हैं. उसका विचार था कि वहां जितने लोगों से हो सकता है मिला जाए और डेल्ही बेली का आइडिया प्रमोट किया जाए. मेरे पास मुंबई की फ्लाइट के लिए ना करने का कोई बढ़िया बहाना नहीं था. मैं बेरोजगार था यानी अगली सुबह मुझे दफ्तर नहीं जाना था. इसके अलावा उन दिनों मैं कुछ और भी नहीं कर रहा था. यानी समय ही समय था.

तो हम मुंबई के लिए रवाना हुए. हम काफी लोगों से मिले. किसी से स्क्रिप्ट पर चर्चा हुई, किसी को स्क्रिप्ट भेज दी गई. कुल मिलाकर हमने इसे हर उस जगह तक पहुंचाने की कोशिश की जहां मुमकिन हो सकता था. और इसी सिलसिले ने हमें एक दिन एक ऐसे दफ्तर में पहुंचा दिया जो सीढ़ियों के नीचे बना हुआ था. सचमुच सीढ़ियों के नीचे. हमारे सामने की कुर्सी पर बॉलीवुड का एक पुराना प्रोड्यूसर बैठा था. ऐसा लगता है कि उसने काम यहीं से शुरू किया होगा और भरपूर तरक्की के बावजूद उसने किसी टोटके के मारे यह जगह नहीं बदली होगी. हर वाक्य के आखिर में ‘ऊपर वाले की दया रही है’ बोलना उसका तकिया-कलाम था. तंग जगह के कारण जिम और मैं उसके सामने सिकुड़े-से बैठे थे. हमने उसे डेल्ही बेली का आइडिया दिया.

‘नाइस, नाइस गुड ओके, उसका जवाब था.

हम इंतजार करने लगे कि वह कुछ और बोलेगा. मगर उसने कुछ नहीं कहा.

आखिर जिम ने कहा, ‘क्या आप इसे हमारे साथ प्रोड्यूस करना चाहेंगे?’

‘इसके लिए मुझे तुम्हारी क्या जरूरत है?’

मैंने सवाल का मतलब समझने की कोशिश की. लेकिन मेरे पास आइंस्टाइन जैसा दिमाग नहीं था इसलिए कोशिश छोड़ दी.

मैंने कहा, ‘क्योंकि यह मेरी स्क्रिप्ट है.’

उसने कहा तो नहीं मगर वह कह सकता था कि ‘तो’ उसके चेहरे पर हैरानी के भाव थे. वैसे भी मुलाकात खत्म हो चुकी थी. इस बीच वह कई बार ऊपर वाले की दया वाला तकियाकलाम दोहरा चुका था. जिम और मैं खड़े हो गए और बाहर आ गए. झुककर बैठने की वजह से हमारी कमर दुख रही थी और आज जो हुआ था उसके बाद तो लग रहा था कि यह हमेशा के लिए टूट गई है. मैंने सोचा कि काश हमने विश्वास का जो यह रास्ता चुना है उसका अंत अच्छा होता. लेकिन कुछ खास नहीं हुआ था. मुंबई में अपने आखिरी दिन हमने आमिर खान से मिलने की कोशिश की ,लेकिन इसमें नाकामयाब होने पर हमने इसकी कॉपी आमिर खान प्रोडक्शंस के दफ्तर में भेज दी और वापस लॉस एंजलस रवाना हो गए.

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जिंदगी में कई बार खारिज किए जाने के बाद अंततः मुझे यह महसूस हुआ कि कई बार खारिज किया जाना भी आपके लिए अच्छा ही होता है. कुछ साल पहले मुझे देश के सभी नामी संस्थानों जैसे एफटीआईआई, एनआईडी और एमसीआरसी ने खारिज किया था. पहली बार खारिज किए जाने के बाद भी मैं नहीं संभला तो कुछ संस्थानों ने तो मुझे दोबारा भी खारिज किया. पर अगर यह नहीं होता तो मैं यूसीएलए के लिए आवेदन नहीं करता. यूसीएलए में पढ़ाई करना मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी बात थी. जब हम मुंबई में चक्कर काट रहे थे अगर उसी वक्त किसी ने डेल्ही बेली की स्क्रिप्ट पर फिल्म बनाई होती तो यह स्क्रिप्ट आमिर खान तक नहीं पहुंच पाती और पता नहीं वह कैसी फिल्म होती.

खारिज किया जाना बेहद तकलीफदेह होता है. पर अगर आप परिस्थितियों से लड़ते हैं और प्रतिकूल हालात में भी हौसला बनाए रखते हैं तो अंततः आपके लिए आगे बढ़ना आसान हो जाता है. काफी समय गुजरने के बाद अब मैं यह कह सकता हूं. मुझे जो कष्ट झेलने पड़े हैं उन्हें छिपाने की बजाय मैं गर्व से उन्हें याद रखता हूं. खारिज किए जाने का मतलब यह है कि प्रकृति आपके लिए कुछ अच्छा करने जा रही है. मुझे अब तक समझ में नहीं आया कि जिम ने उस दिन आखिर मुझे अचानक क्यों फोन किया था. जिम को भी यह नहीं पता. मुझे यह पता था कि किसी न किसी को तो यह स्क्रिप्ट पसंद आएगी. मैं और जिम आमिर खान के सामने एक बड़े सोफे पर बैठे हुए थे. यहीं वह हुआ जिसका मुझे इंतजार था. आमिर अपने कंप्यूटर पर मेल चेक कर रहे थे और उनकी पत्नी किरण आमिर का काम खत्म होने का इंतजार कर रही थीं. अचानक किरण ने स्क्रिप्ट के ढेर में से एक स्क्रिप्ट उठाई. वह मेरी स्क्रिप्ट थी.

आमिर अपनी पसंदीदा कुर्सी पर पैर मोड़कर बैठे हुए थे. उन्होंने पिछले कुछ मिनटों में कुछ नहीं बोला था. किसी ने धीरे से दरवाजा खटखटाया. हमने देखा कि उनके सहयोगी सचिन एक थाली में ऑमलेट और ब्रेड लेकर आए. पिछले आधे घंटे में ऐसा दूसरी दफा हुआ था. हमें बाद में पता चला कि उस वक्त आमिर गजनी की तैयारी कर रहे थे और थोड़ी-थोड़ी देर में पूरे दिन कुछ-कुछ खाते रहते थे. जिम और मैंने एक-दूसरे को देखा. हम काफी लंबा हवाई सफर तय करने के बाद हवाई अड्डे से कोलाबा पहुंचे थे और वहां से पाली हिल. थकान का असर हो रहा था और मेरी आंखें बंद हो रही थीं. आमिर ने ऑमलेट को ब्रेड पर इस तरह से रखा कि वह नीचे न जाए और इसके बाद उन्होंने खाना शुरू किया. मुझे इतनी तेज नींद आ रही थी कि लगा इसी सोफे पर कुछ देर के लिए सो जाऊं और थोड़ी देर के बाद आगे की बातचीत की जाए.

‘यार, मैं यह सोच रहा था कि तुम लोगों को यह स्क्रिप्ट मुझे बेच देनी चाहिए.’

‘और’, मैंने कहा.

‘स्क्रिप्ट बेच दो. मैं इसे बनाऊंगा.’

‘आप बस यह चाहते हैं कि हम ये स्क्रिप्ट बेच दें? इसके बाद हमारी इस प्रोजेक्ट में कोई भूमिका नहीं रहेगी?’

‘हां, मैं इसे बनाऊंगा.’

मैंने सोचा कि क्या मैं यही करने के लिए इतनी लंबी हवाई यात्रा करके यहां आया था.

‘आमिर, क्या आप हमें कुछ मिनट का वक्त दे सकते हैं? हम आपस में बातचीत करना चाहते हैं.’

‘हां, हां, जरूर. बातचीत कर लो. जब हो जाए तो मुझे आवाज लगा देना.’

आमिर कमरे से बाहर चले गए.

‘क्या बकवास है, जिम?’

‘हमने जो भी तैयार किया है उसके लिए तलाश जारी रखेंगे. मैं मना करने जा रहा हूं.’

‘मैं यह जानना चाह रहा हूं कि तुम क्या जवाब देने जा रहे हो. मैं जानता हूं कि यह तुम्हारी स्क्रिप्ट है और अगर तुम इसे सिर्फ बेचना चाहते हो तो भी मैं समझ सकता हूं.’

‘जिम, क्या तुम पागल हो? मैं इसे बेचकर भागने वाला नहीं हूं.’

हमने आमिर को वापस बुलाया. जवाब देने से पहले मेरे दिमाग में यह चल रहा था कि मैं मना करने जा रहा हूं.

‘आमिर, हम लोग आपके प्रस्ताव पर ना कहने जा रहे हैं. हम आपको स्क्रिप्ट बेचकर इसे छोड़ नहीं सकते.’

‘ठीक है, फिर इसे बनाते हैं.’

उनके चेहरे पर कोई असामान्य भाव नहीं था.

यह घटना 2006 की है. डेल्ही बेली रिलीज हुई एक जुलाई,2011 को. फिल्म से जुड़े लोगों की एक पार्टी में मैंने आमिर को वह किस्सा याद दिलाया. वे बोले, ‘मुझे पता है. मैं तो सिर्फ तुम्हारी परीक्षा ले रहा था. मैं यह देखना चाहता था कि तुम लोग क्या करते हो.’

‘आप परीक्षा ले रहे थे? परीक्षा? अगर मैंने हां कर दिया होता तो क्या होता? मेरी पूरी जिंदगी बर्बाद हो जाती और मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाता.’

आमिर मुस्कुराए. उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा, हमेशा की तरह उनकी आंखों में शरारत तैर रही थी. उन्होंने कहा, ‘तुम पास हो गए.’