Home Blog Page 131

बल्ब बड़ा या सूरज

मुझे छपने वाले साहित्य की दुनिया में सक्रिय हुए बमुश्किल ढाई-तीन साल हुए होंगे और करना चाहें तो आप मेरी सब बातों को कम अनुभव कहकर खारिज कर सकते हैं लेकिन यह तो शायद आप मानेंगे ही कि यह बताने के लिए पूरा समुद्र पीने की जरूरत नहीं होती कि उसके पानी का स्वाद कैसा है.

मैं शुरू से शुरू न करके बीच की एक दोपहर से शुरू करता हूं. तब मैं उतना नया नहीं था, जैसा नये स्कूल में दाखिले के वक्त बच्चे होते हैं. एक-दो कहानियां छप चुकी थीं और कोई पूछता था तो मैं उनके नाम गर्व से बताता था (अब भी बताता हूं). दिल्ली के प्रेस क्लब में मैं अपने एक साथी लेखक के साथ एक वरिष्ठ कवि और अनुवादक के सामने बैठा था. हम दोनों के लिए यह थोड़े से सौभाग्य वाली मुलाकात तो थी ही. वे थोड़ा देर से आए और आकर बताने लगे कि उन्होंने जो फिल्म लिखी है, उसे आमिर खान खरीदना चाहता था पर उन्होंने बेची नहीं. ऐसी ही दो-तीन बातों के बीच अचानक उन्होंने मुझसे पूछा- तुम राजपूत हो क्या? हिंदी का एक बड़ा कवि पहली ही मुलाकात में एक नये लेखक से यह नहीं जानना चाहता था कि वह क्या लिखता है और क्यों  लिखता है, बल्कि यह कि उसकी जाति क्या है. वे सब लोग, जो अपनी कहानियों-कविताओं में हर अल्पसंख्यक और शोषित के लिए दुखी होते हैं, बहुत मुमकिन है कि अपनी पत्रिकाओं में छपने के लिए आने वाली कुछ रचनाएं सिर्फ इसीलिए रद्दी में फेंक देते हों कि उन्हें लिखने वालों के उपनाम उनकी आंखों को नहीं सुहाते.

जब आप मनुष्य को बचाने की चिंता में पूरी कहानी में मरे जाते हैं, तब वे कुछ आलंकारिक शब्दों से बने वाक्य में आपको मनुष्यविरोधी बताते हैं और हंस देते हैं

हिंदी में लेखक बनने का रास्ता कुछ अलग-सा ही है, जिसकी खोज जाने किस विद्वान ने की. यहां वह रास्ता लगभग नहीं के बराबर है कि आप कुछ महीने या साल लगाकर एक अच्छी किताब लिखें और फिर किसी प्रकाशक से जाकर मिलें. वहां कोई हो, जो उसकी गुणवत्ता देखकर तय करे कि उसे छापा जाना चाहिए या नहीं. अव्वल तो कोई आपसे मिलेगा ही नहीं, जब तक कि आप कोई आईएएस अधिकारी या उसके रिश्तेदार या कोई पहुंच वाले व्यक्ति नहीं हैं या आपको हिंदी के किसी गॉडफादर ने उनके पास नहीं भेजा है.

जो शुरुआत मैंने शुरू में नहीं बताई, वह यही थी. चार-पांच साल पहले की एक जून में मैं एक किताब की पांडुलिपि लेकर इस उम्मीद में दरियागंज में घूम रहा था कि कोई इसके दो पेज भी पढ़ ले तो छापने को तैयार हो जाएगा. लेकिन किसी ने नहीं पढ़ा. मुझे सलाह दी गई कि इकलौता दरवाजा यही है कि आप पहले पत्रिकाओं में छपें. तभी आपकी किताब छपेगी. यानी पहले पत्रिकाओं के संपादक आपको पास करेंगे और सिफारिश करेंगे, तब आप इस लायक होंगे कि आप प्रकाशक का दरवाजा खटखटाएं तो वह ‘कम इन’ बोले.

लेकिन पत्रिकाओं में भी जब तक आप पहली बार नहीं छपते, तब तक भले ही आपने गोदान लिख दी हो, आपको रचना भेजकर अनंत धैर्य का कोई मंत्र पढ़ना होता है. बार-बार पत्रिका के दफ्तर में फोन करके अपनी रचना की स्थिति पूछनी होती है, हर बार अपना परिचय देना होता है और कभी-कभी अपमानित भी होना होता है. पिछले दिनों कोलकाता से छपने वाली एक नामी साहित्यिक पत्रिका के संपादक को फोन करके जब मैंने पूछा कि जो कविताएं मैंने पिछले महीने भेजी थी, क्या आपने पढ़ीं, तो उन्होंने कहा कि देखिए, आप कविताएं मत भेजा कीजिए, मेरे बहुत-से कवि दोस्त हैं, वही बहुत कविताएं भेज देते हैं. कितना अच्छा होता कि यही छोटा-सा नोट वे अपनी पत्रिका के संपादकीय के नीचे भी लगा दिया करते कि उनकी पत्रिका का कविता वाला सेक्शन उनके दोस्तों के लिए आरक्षित है!

पिछले साल ‘तहलका’ का साहित्यिक विशेषांक छपने के दौरान और बाद में हम सबने ऐसी कुछ चीजें देखीं जिनसे और ठीक से मालूम हुआ कि ज्यादातर युवा लेखक साहित्य की पूरी राजनीति से कितने खौफजदा हैं और उनमें से कुछ तो उन सिंहासनों के पाए ही बनते जा रहे हैं, ताकि बाद में उन पर बैठ सकें. विशेषांक के एक लेख में कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों ने युवा लेखकों को जी भर के कोसा था और बहुत नस्लवादी किस्म के बयानों में ऐसे अर्थ का कुछ कहा था कि युवा लेखक होने का मतलब है बुरा और बाजारू लेखक होना. उस लेख के लिए हमें कुछ युवा लेखकों की प्रतिक्रियाओं की भी जरूरत थी, लेकिन जब मैंने कुछ युवा साथियों से कहा कि अमुक महाशय के फलां बयान पर आपकी प्रतिक्रिया चाहिए तो वे बिल्कुल खामोश हो गए.

खेल कई परतों में चलता है. जब आप मनुष्य को बचाने की चिंता में पूरी कहानी में मरे जाते हैं, तब वे कुछ आलंकारिक शब्दों से बने वाक्य में आपको मनुष्यविरोधी बताते हैं और हंस देते हैं. और हास्यास्पद यह है कि ‘सर’ इस बात से कम दुखी दिखते हैं कि तुमने खराब लिखा, इस बात पर ज़्यादा नाराज़ दिखते हैं कि तुम उन्हें कभी फोन क्यों नहीं करते, क्यों उनके चरणों में बैठकर अच्छा लिखने के गुर नहीं सीखते. वैसे तो आप वे सब आलोचनाएं कभी पढ़ेंगे नहीं और पढ़ेंगे भी तो भी जान नहीं पाएंगे कि लेखक की अमुक किताब इसलिए बुरी है क्योंकि उसने उन आलोचक महोदय का फोन दो बार नहीं उठाया.

ऐसा भी होता है कि आपके हाथ में किसी पत्रिका का संपादन है और आपने अपनी पत्रिका में किसी महत्वाकांक्षी संपादक की कहानी नहीं छापी तो उसने अपनी पत्रिका में प्रेस में जा चुकी आपकी कहानी को भी वहीं का वहीं रोक दिया और फिर महीनों बाद किसी और मुद्दे पर कोई और विचारोत्तेजक लेख लिखते हुए वह सिद्ध करता है कि आपका पूरा रचनाकर्म असामाजिक, अनैतिक और अ-सबकुछ है.

दरअसल अपने लेखकों को देने के लिए हिंदी साहित्य के पास ज्यादा कुछ तो है नहीं. पाठकों से वह दूर हो ही रहा है और कभी-कभी लगता है कि पत्रिकाएं, संपादक और प्रकाशक चाहते भी यही हैं. या तो वे ऐसा लिखते हैं, जो किसी के समझ नहीं आए या फिर व्यक्तिगत हाथापाई में उलझे रहते हैं. यही कहा जाने लगा है कि हिंदी में बस लेखक ही एक-दूसरे के पाठक हैं और पाठकों की यही कमी साहित्य के मठों को बनाने में मदद करती है. अगर हिंदी के पास इतने पाठक होते कि वे किसी लेखक को बनाने या गिराने का माद्दा रखते, तब कोई भी महापुरुष इतना शक्तिशाली न होता कि लेखक उसके दरबार में हाजिरी लगाएं. तब उनमें से किसी के पास भी ऐसे मौके न होते कि लेखिकाओं की कहानी बाद में पढ़ें, फोन करके उन्हें चाय पर पहले बुलाएं. (स्त्री-विमर्श के बहाने पर्सनल-विमर्श का इरादा रखने वाले कई मशहूर संपादकों की पत्रिकाओं में छपने के लिए कई बार स्त्री होना ही काफी होता है और इस पूरे सिस्टम में यकीन न करने वाली नयी लेखिकाएं भी वही दोयम व्यवहार झेलती हैं, जो नये लेखक झेलते हैं).

हिंदी साहित्य जो लोकप्रियता और पैसा अपने लेखकों को नहीं दे पाता, उसकी भरपाई वह पुरस्कारों, पदों और नौकरियों से करने की कोशिश करता है और यही सत्ता के खेल को ईंधन देता है. पुरस्कार जुगाड़ से ही मिलेंगे, यह इतना आम हो गया है कि आपको अपने काम की वज़ह से भी मिले, तब भी लोग आपको उसी नज़र से देखेंगे. पिछले दिनों कविता के लिए मिलने वाला भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार आदिवासी कवि अनुज लुगुन को मिला तो सारी खुशी इसी बात पर मनाई जा रही थी कि सवर्णों के वर्चस्व वाले हिंदी साहित्य में यह कैसे मुमकिन हुआ. यही बताता है कि स्थितियां कैसी हैं. दुखद यह भी है कि बहुत सारे प्रतिभावान लेखक, जो साहित्य की राजधानियों से दूर हैं (चाहे शरीर से, चाहे मन से) और साथ ही अपना काम आगे लाने में थोड़ा सकुचाते भी हैं, किसी को फुरसत नहीं कि कुर्सियों की बहसों के बीच उनके काम को भी देखा जाए और उनके संकोच के दायरों को तोड़कर उन्हें गले से लगाया जाए. जो भी पैसा, जहाँ से भी आता है, वह आप अपने खातों में रखिए, प्रोफेसरी की नौकरियां अपनी जाति वालों को दीजिए लेकिन उन्हें कम से कम वह पहचान तो दीजिए जिसके वे हकदार हैं और आपके चहेते नहीं हैं.

सुकून यह है कि आप इन चीजों को देखते हुए भी लगातार अपना अच्छा काम दे सकें तो कोई भी ऐसी दीवार नहीं, जिसे तोड़ा ना जा सके. यह कोई वैसी झूठी आशावादी बात नहीं है, जिससे लोग लेख का अंत करना अच्छा समझते हैं. आप गीता देंगे तो मैं उस पर हाथ रखकर भी यह कहने के लिए तैयार हूं. वे दियों को अनदेखा कर सकते हैं लेकिन लपटों को नहीं. धीमे बोलने से कोई नहीं सुनता और अगर आपको यकीन है कि आपके पास कहने को कोई नयी बात है तो तब तक चिल्लाइए, जब तक पूरी सभा आपकी बात सुनने को तैयार न हो जाए.

इंटरनेट हम सबके लिए बहुत पारदर्शी माध्यम है जहां आप सीधे पाठकों से जुड़ते हैं और वही आपके पुरस्कार हैं. पिछले कुछ दशकों में हिंदी साहित्य की पाठकों और समाज से जो दूरी बनी थी, उसे इंटरनेट कम कर रहा है. वहां आप और आपकी रचना हैं-निष्कवच, और आपकी तारीफ में संस्कृतनिष्ठ शब्दों में झूठे कसीदे पढ़ने वाले आलोचक और आपको फलाना कुमार स्मृति पुरस्कार दिलवाने वाले संपादक वहां आपको नहीं बचा सकते. मैदान साफ होता जा रहा है और नियम सबके लिए बराबर. आप भी आइए, फिर देखेंगे.  

साहित्य के सामंत

1960 के आसपास लिखी अपनी प्रसिद्ध कविता ‘अंधेरे में’ में मुक्तिबोध ने कहा था – ‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे/उठाने ही होंगे/तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब.’ लेकिन जैसा कि कविताओं के साथ अक्सर होता है, उन्हें पढ़ाने वाले और उन पर बहस करने वाले लोग कई बार उनके वे अर्थ भी निकाल लेते हैं जिसके विरोध में कविता खड़ी थी. मुक्तिबोध की इस कविता को भी हिंदी साहित्य की दुनिया ने शायद इसी तरह पढ़ा है और जो मठ और गढ़ टूटने चाहिए थे, उन्होंने अपनी दीवारों पर सीमेंट और महंगे पेंट की एक-एक परत और चढ़ा ली. आज उनके बाहर वे महंगी गाड़ियां खड़ी मिलती हैं, जिनके नीचे गोदान का होरी महतो कभी का कुचला जा चुका है और उन मठों में वे सब लोग हाजिरी बजाते पाए जाते हैं जो हिंदी साहित्य के आसमान में सितारे बनकर चमकना चाहते हैं.

आजादी के बाद पत्रिकाओं के संपादकों ने रचनात्मकता को तरजीह देने की जगह अपने चेले-चमचों को छापना शुरू कर दिया

दरअसल आजादी के बाद के हिंदी साहित्य का इतिहास एक तरह से मठों और गढ़ों की आपसी टकराहट और इस प्रक्रिया में इनके बनने-बिगड़ने का ही इतिहास रहा है. इसीलिए यह हुआ है कि हिंदी की साहित्यिक दुनिया रचनाकारों की न रहकर गिरोहों और गुटों की दुनिया में तब्दील हो गई है. कहीं-कहीं अंडरवर्ल्ड के डॉनों या हिन्दी फिल्मों के शक्तिशाली कैंपों या धर्मगुरुओं की तरह, जिसमें आप एक जगह माथा नवाते हैं और दूसरी जगह को गाली देते हैं या गोली मारते हैं. हिंदी के लेखक अपनी रचनाओं से बाहर अब अक्सर उन्हीं लड़ाइयों में खड़े दिखाई पड़ते हैं जिनका अंत किसी सत्ता को उखाड़ने और अपनी सत्ता को जमाने से ही होता है और साहित्य की इस महाभारत में शकुनि बहुत ज्यादा हैं और कृष्ण एक भी नहीं. अगर है भी तो उसे हिंदी के संस्थानों में घुसने की इजाजत नहीं है.

दौर सबसे बुरा है, इसे कई बातों से समझा जा सकता है. एक ओर जहां हिंदी साहित्य आज पाठकों की कमी से जूझ रहा है तो लेखकों की दुनिया सिर्फ कुछ सैंकड़ा लोगों तक सिमट गई है. एक ठीक-ठाक स्थापित लेखक बताते हैं कि इनमें से बमुश्किल 50 ही ऐसे होंगे, वे भी दिल्ली, लखनऊ, बनारस, भोपाल जैसे शहरों में रहने वाले लेखक, जो कभी अपने काम से तो कभी अपनी फोन कॉलों के नेटवर्क से मुख्यधारा में बने रहते हैं. इन 50 में से भी 10 लोग ही मिलेंगे जिनका ज्यादा जिक्र होता है और जिन्हें दूसरे या जो स्वयं को कालजयी घोषित करते हैं. और इन 10 में से तीन-चार ही ऐसे हैं जिनकी हिंदी में ‘स्टार वैल्यू’ है. बहुत बार तो लेखक के रूप में इनके काम से इनकी इस ‘स्टार वैल्यू’ का कोई लेना-देना भी नहीं है.

सवाल यह उठता है कि समाज के इतना करीब रहने वाले साहित्य में कुछ व्यक्तियों के हाथ में सत्ता सौंपने की यह प्रवृत्ति कैसे बढ़ी? वरिष्ठ साहित्यकार गिरिराज किशोर इस  प्रवृत्ति की पहली वजह पर रोशनी डालते हैं, ‘दरअसल हिंदी साहित्य में जो आंदोलन हुए वे व्यक्ति केंद्रित अधिक हो गए थे. लेखक अपनी मान्यता के लिए उनके इर्द-गिर्द जमा होने लगे. इससे लगातार माहौल बिगड़ता गया और रचना की जगह व्यक्ति महत्वपूर्ण होता गया.’  जब दुनिया के अधिकतर आंदोलन मूलतः व्यक्ति को शक्ति का केंद्र बनाने के विरोध में ही होते हैं, तब हिंदी साहित्य में प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता, नयी कहानी आदि जितने भी साहित्यिक आंदोलन हुए, सभी ने व्यक्ति केंद्रीयता को बढ़ावा ही दिया. मतलब यह कि हिंदी के साहित्यिक आंदोलन शुरू कहीं से भी हुए हों, जब वे खत्म हुए तो उन्होंने एक और सत्ता केंद्र बनाने के अलावा कुछ नहीं किया.

हिंदी में स्वतंत्र पाठक वर्ग के नहीं रहने के कारण जो लोग सत्ता से जुड़े रहे वे महत्वपूर्ण हो गए

वरिष्ठ कवि विष्णु नागर एक और बेहद महत्वपूर्ण कारण के बारे में बताते हैं, ‘हमारा लेखक तमाम कारणों से पाठकों से कटता गया. पाठकविहीनता की स्थिति में जिनके पास ताकत होगी, वे महत्वपूर्ण हो जाते हैं. आज हिंदी में लेखकों का पाठकों से सीधा रिश्ता खत्म हो जाने के कारण एक छोटा-सा सत्ता समूह निर्णायक स्थिति में है. यह भी ध्यान देने योग्य है कि ये सत्ता केंद्र रचनात्मक रूप से कुछ भी नया नहीं दे रहे हैं. ये अपनी रचनात्मकता के कारण नहीं बल्कि इतर कारणों से साहित्य पर काबिज हैं. पिछले कई सालों से अशोक वाजपेयी ने क्या लिखा? कुछ भी सृजनात्मक नहीं किया. इसी तरह राजेंद्र यादव ने पिछले कई वर्षों में रचनात्मक रूप से क्या दिया? अब तो पत्रिका भी खराब निकाल रहे हैं. ऐसे माहौल में जो सचमुच कुछ नया और सृजनात्मक काम कर रहे हैं वे उपेक्षित रह जाते हैं.’

वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडेय एक दूसरी बात की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं, ‘हिंदी के बहुत सारे साहित्यकार और अधिकांश आलोचक विश्वविद्यालयों के अध्यापक होते हैं. ये प्रोफेसर और विभाग के अध्यक्ष बनते हैं. इस पद पर रहते हुए वे कई लिहाज से लाभ और हानि पहुंचाने की स्थिति में होते हैं. ऐसे में, वे एक सत्ता केंद्र बन जाते हैं. अब अगर कोई आलोचक है और उसके हाथ में सत्ता भी है तो वह साहित्य को निर्धारित करने की स्थिति में आ जाता है. इसमें जो जितना सफल होता है वह साहित्य को उतना ही भटकाता है. इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता आजादी के बाद पूरी तरह भटक गई. पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों ने रचनात्मकता को अधिक तरजीह देने की जगह अपने चेले-चमचों को छापना और ‘प्रमोट’ करना शुरू कर दिया. ये दो तरह के सत्ता केंद्र हिंदी में बने जिन्होंने हिंदी साहित्य का जबर्दस्त नुकसान किया.’

लगभग इसी तरह की राय प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव और ‘वसुधा’ के संपादक रहे स्वर्गीय कमला प्रसाद की भी थी. अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले इस लेखक के साथ बातचीत में उनका कहना था,  ‘साहित्य का काम समाज के अंतर्विरोधों और बुराइयों से पार पाना है. मगर साहित्य की यह क्षमता क्रमशः घटती गई और उलटा वही बुराइयां साहित्य में भी आ गईं. अपना हित, अपना प्रकाशन, अपना ‘रिव्यू’, और इस तरह उनके सब सरोकार और चिंतन अपने तक ही सिमटकर रह गए. आज अगर एक ही लेखक चार समीक्षाएं लिखता है तो चारों में एक मूल्य न होकर अपने हित और जरूरत के हिसाब से अलग-अलग मूल्य दिखाई देते हैं. दरअसल, अभिव्यक्ति की आजादी को सरकार से अधिक हमारे व्यक्तिगत स्वार्थ रोकते हैं. ऐसे माहौल में विकलांग चित्तवृत्तियां विकसित हुईं जिनके कारण कुछ सत्ता केंद्र उभर आए. इन सत्ता केंद्रों का एक ही काम है – प्रतिभा और साहस को रोकना. इसका एक उदाहरण हाल में तब देखा गया जब विभूतिनारायण राय प्रकरण के दौरान महिलाओं की लड़ाई में बड़े लेखक अपने खोल से बाहर ही नहीं निकले.’

नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी जैसे लोग हिंदी साहित्य की वर्तमान दुर्दशा के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हैं

विभूति प्रकरण हिंदी साहित्य के सबसे ताजा विवादों में से एक है जिसमें ‘नया ज्ञानोदय’ पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति वीएन राय ने हिंदी की महिला लेखिकाओं को छिनाल कहा था. इस पर भड़के हुए सैकड़ों लेखकों ने ऐसी टिप्पणी पर उन्हें पद से हटाए जाने की मांग की लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पदों को छोड़ने और पुरस्कारों को ठुकराने की वह नैतिकता भी हिंदी की सत्ता के गलियारों में अब नहीं है जिसमें आत्मसम्मान और कुर्सी को तराजू के दो पलड़ों में रखा जाए और आत्मसम्मान भारी पड़े. ऐसे मौके अपवाद हैं जब केदारनाथ सिंह ने 2009 का शलाका सम्मान और उनके साथ कई अन्य लेखकों ने भी हिंदी अकादमी से सम्मान लेने से इसलिए मना कर दिया कि 2008 का सम्मान कृष्ण बलदेव वैद को दिए जाने के निर्णय के बाद वह निर्णय बदल दिया गया था. सिर्फ इसलिए कि एक कांग्रेसी नेता ने हिंदी अकादमी की अध्यक्ष शीला दीक्षित को पत्र लिखकर कहा था कि वैद की किताब अश्लील है. पुरस्कार देने का फैसला बदल लिया गया लेकिन श्लीलता-अश्लीलता तय करने के लिए जिम्मेदार साहित्यकारों की एक समिति तक नहीं बनाई गई.

हिंदी अकादमी इससे पहले भी विवादों में तब घिरी रही थी जब इसके कई सदस्यों के विरोध और इस्तीफे के बावजूद अशोक चक्रधर को उसका उपाध्यक्ष बना दिया गया था. विरोध करने वाले साहित्यकारों का कहना था कि एक हास्य कवि होने पर भी उन्हें इसीलिए गंभीर साहित्यकारों की एक संस्था का उपाध्यक्ष बनाया गया कि उन्होंने चुनाव में कांग्रेस के प्रचार के लिए गीत लिखे थे. विवाद जो भी हो, ऐसे सब विरोधों में अधिकांशत: जीत सत्ता की ही हुई है. और इसके भी मूल में कहीं न कहीं गुटों में बंटी हिंदी की साहित्यिक दुनिया ही रही है.

आम धारणा है कि हिंदी वालों का विरोध तात्कालिक ही होता है. बस आप उस समय अपनी जगह पर बने रहिए और धीरे-धीरे सब शांत हो जाएंगे. जल्दी ही फिर से वही वक्त आ जाता है, जब हिंदी साहित्य के इन मंदिरों में दर्शन के लिए आने वालों की भीड़ पहले की तरह ही बढ़ जाती है. ऐसा क्यों, यह पूछने पर उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल कहते हैं, ‘दरअसल, हिंदी का जो लेखक है वह अपने रचनात्मक संसार में असुरक्षित है. अधिकांश लेखक जो सत्ता केंद्रों से जुड़े वे स्थापित हुए. ये रचनात्मक रूप से उत्कृष्ट न होकर ‘प्रमोटी’ लेखक थे. जो ईमानदार, मेहनती और अन्वेषी लेखक थे, उनकी घोर उपेक्षा हुई, क्योंकि वे सत्ता केंद्रों में विश्वास नहीं करते थे. ऐसा माहौल बना दिया गया कि सत्ता केंद्रों से जुड़े बिना मुक्ति संभव नहीं है.’

हिंदी साहित्य में विभिन्न तरह के सत्ता केंद्रों का विश्लेषण करते हुए मोरवाल आगे कहते हैं, ‘हिंदी में मूलतः तीन सत्ता केंद्र हैं. पहला आलोचक नामवर सिंह का, दूसरा हंस के संपादक राजेंद्र यादव का और तीसरा ललित कला अकादमी के अध्यक्ष अशोक वाजपेयी का. लेकिन हिंदी में केवल व्यक्ति ही सत्ता के केंद्र नहीं हैं बल्कि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग, पत्रिकाओं के संपादक और लेखक संगठन भी हैं. लेखक संगठन जिन पर हम सबसे ज्यादा भरोसा करते थे, वे एकदम अप्रासंगिक हो गए.’ कुछ लोग नया ज्ञानोदय के संपादक और भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक रवींद्र कालिया को साहित्य का चौथा सत्ता केंद्र मानते हैं. किंतु कालिया उनकी इस धारणा को नकारते हुए कहते हैं, ‘साहित्य के सत्ताकेंद्रों के बारे में तो मैं सिर्फ ये कहूंगा कि आयुर्वेद में रोग के तीन ही कारण हैं – कफ, पित्त और वात. मैं सत्ताकेंद्र नहीं हूं क्योंकि आयुर्वेद में रोग का कोई चौथा कारण नहीं होता.’

हिंदी में यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं है कि जिनसे सत्ता केंद्रों को चुनौती मिलने की उम्मीद थी वही कुछ समय बाद नये सत्ता केंद्र बन गए. लघु पत्रिकाएं और लेखक संगठन सत्ता केंद्रों को चुनौती देने के लिए एक बेहतर मंच हो सकते थे. लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया. कथाकार व समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट कहते हैं, ‘हिंदी में स्वतंत्र पाठक वर्ग के नहीं रहने के कारण जो लोग सत्ता से जुड़े रहे, बस वही महत्वपूर्ण हो गए. दूसरी तरफ पहल, हंस आदि पत्रिकाएं सत्ता केंद्र के रूप में उभरीं. तीसरी तरफ लेखक संगठन भी एक सत्ता केंद्र बन गए जो मिलकर सामूहिक रूप से किसी को उठाने-गिराने के खेल में शामिल हो गए.’
लेकिन हिंदी साहित्य के पाठकों से दूर जाने की वजह क्या रही, यह पूछने पर सुप्रसिद्ध कवि राजेश जोशी कहते हैं, ‘इसका सबसे बड़ा कारण हिंदी का मीडिया है. इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट दोनों. वह मूलतः हिंदी-विरोधी है और अपने चरित्र में दोगला है. हिंदी मीडिया ने साहित्य को कोई तरजीह ही नहीं दी. ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘धर्मयुग’, ‘दिनमान’, ‘रविवार’ जैसी पत्रिकाएं घाटे के कारण नहीं बल्कि कम फायदे के कारण बंद कर दी गईं. साम्राज्यवाद और सांप्रदायिकता पर जितना तीखा हमला हिंदी के लेखकों ने किया, उतना किसी ने नहीं किया, लेकिन हिंदी मीडिया ने उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया. ‘आइकन’ तो मीडिया ही बनाता है. हिंदी मीडिया ने हिंदी साहित्य के लिए यह काम नहीं किया.साथ ही दूसरी बड़ी वजह हिंदी का प्रकाशन व्यवसाय है. किताबें पाठकों के पास पहुंचें,  इसके लिए हिंदी के प्रकाशकों ने कोई नेटवर्क नहीं बनाया. दूसरी तरफ किताबें और महंगी होती गईं.’

लगभग यही राय विष्णु नागर की भी है. वे कहते हैं, ‘साहित्य-विरोधी माहौल मीडिया ने बनाया. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अगर दूरदर्शन को छोड़ दें तो साहित्य के लिए कहीं कोई स्पेस ही नहीं है. जिन अखबारों और पत्रिकाओं पर साहित्य को पाठकों तक पहुंचाने का दायित्व था, उन्होंने उससे पल्ला छुड़ा लिया. दूसरी तरफ सरकारी खरीद के कारण किताबें बहुत महंगी हुईं. किताबों के मूल्य निर्धारण में लेखकों की कोई भूमिका नहीं रही.’

साहित्यकार गिरिराज किशोर इन सबके अतिरिक्त एक और बड़े कारण की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं, ‘सरकारों ने हिंदी को किनारे किया और अंग्रेजी को वर्चस्व की भाषा बनाया. इसमें सबसे महत्वपूर्ण योगदान नेहरू का था जिन्होंने हिंदी की जगह अंग्रेजी को स्थापित किया. दूसरी बात यह कि हिंदी के लेखकों में गुटबाजी बहुत बढ़ गई. गुटों के मुखियाओं ने अपने-अपने गुट के लोगों के साहित्य को महत्व दिया और बाकी को खारिज किया. इससे पाठक बहुत दिग्भ्रमित हुए जिसका परिणाम यह हुआ कि हिंदी में पठन-पाठन का माहौल कम हुआ.’ यानी गुटबाजी ने पाठकों को लेखकों से दूर किया और पाठकों की इस दूरी ने और ज्यादा गुटबाजी को जन्म दिया. कथाकार और ‘तद्भव’ के संपादक अखिलेश एक और बिंदु को रेखांकित करते हुए कहते हैं, ‘दरअसल हिंदी प्रदेशों में साक्षरता कम रही और सांस्कृतिक आंदोलनों का अभाव रहा. हर ताकत का पहला आखेट हिंदी जनता ही रही, चाहे वह पतनशील मुंबइया सिनेमा हो या कॉरपोरेट या राजनीति या फिर धर्म. सबने इसी भाषा को टारगेट किया. इससे भी हिंदी जनता साहित्य से विमुख होती गई.’

लेकिन हिंदी साहित्य के पाठक खत्म होते गए, क्या इसके लिए हिंदी का लेखक कतई जिम्मेदार नहीं है?  मैनेजर पांडेय कहते हैं, ‘हिंदी समाज में जो घट रहा है उससे अधिकांश लेखकों को कोई लेना-देना नहीं है. कविता, कहानी मध्यवर्ग तक सीमित होकर रह गई है. इसलिए रचना से भाव और विचार के स्तर पर व्यापक जनता जुड़ नहीं पाती. मैं पूछना चाहता हूं कि आज का हिंदी साहित्य हिंदी जनता के दुख-दर्द और उसके सरोकारों की कितनी खबर ले रहा है? पिछले दस साल में लगभग दो लाख किसानों ने आत्महत्या की है. यह अभूतपूर्व है. लेकिन इसपर कोई महत्वपूर्ण रचना नहीं लिखी गई. सिर्फ राजेश जोशी ने एक कविता लिखी. इसी तरह हिंदुस्तान की राजनीति की पूरी अमानवीयता आदिवासियों पर केंद्रित हो गई है. आदिवासियों के दुख-दर्द, शोषण, विस्थापन आदि को लेकर केवल एक उपन्यास ‘ग्लोबल गांव के देवता’ लिखा गया और चंद्रकांत देवताले ने एक कविता लिखी. यह समझने के लिए ये दो उदाहरण पर्याप्त हैं कि समकालीन हिंदी साहित्य की यात्रा मध्यवर्ग से निकलकर मध्यवर्ग तक सीमित हो गई है.’ स्वर्गीय कमला प्रसाद की भी लगभग यही राय थी. उनका कहना था, ‘समाज अपनी समस्या, उलझन आदि का समाधान ढूंढ़ने के लिए साहित्य के पास जाता है. इसीलिए हम बार-बार प्रेमचंद, तुलसी, कबीर आदि के पास लौटते हैं. इस समय के अधिकांश लेखक और कवि द्वंद्वहीन हैं. उनकी रचनाओं में वह सामर्थ्य ही नहीं कि वे खुद से व्यापक जनता के मनोभावों को जोड़ सकें.’

हिंदी में पाठकों के खत्म होने के अलग-अलग चाहे जितने कारण गिनाए जाएं, इन सबके मूल में सत्ता केंद्रों की ही भूमिका है, ऐसा मानने वालों की कमी नहीं. पंकज बिष्ट कहते हैं, ‘जो लोग ‘फोर फ्रंट’ थे, जैसे नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी आदि, वे लोग ही हिंदी साहित्य की वर्तमान दुर्दशा के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हैं. ये लोग विभिन्न जगहों पर रहे. इन्होंने साहित्य की स्वायत्त सत्ता बनाने की जगह सरकार पर इसकी निर्भरता को और बढ़ावा दिया. थोक सरकारी खरीद के कारण हिंदी में पुस्तकों का स्वाभाविक बाजार ही नहीं बना. इस थोक सरकारी खरीद संस्कृति के जन्मदाता अशोक वाजपेयी ही हैं जिसने हिंदी लेखकों का सबसे बड़ा अहित किया.’ पंकज बिष्ट आगे कहते हैं, ‘जो लोग साहित्य की नेतृत्वकारी भूमिका में थे, उन्होंने साहित्य को स्वाभाविक गति और मार्ग से भटका दिया. इन्होंने साहित्य में एक ट्रेंड सेट कर दिया कि रचनात्मक प्रतिभा की जगह जुगाड़ और सेटिंग से भी साहित्य में महत्वपूर्ण और प्रभावी बना जा सकता है.’

लेकिन जुगाड़ की जीत के पीछे भी कहीं न कहीं पाठकों की कमी ही जिम्मेदार है. इसी वजह से ही हिंदी के लेखक की हैसियत भी कम है. उसके पीछे कम लोग हैं, इसलिए उसकी आवाज भी कमजोर है. उसके साथ अन्याय होगा तो इतना भी नहीं हो पाएगा कि मीडिया उसे वैसी तवज्जो दे, जैसी उसने चेतन भगत को ‘थ्री इडियट’ से जुड़े विवाद में दी थी. हिंदी न्यूज चैनलों पर भी कितनी बार ही हिंदी के लेखकों को किसी बहस में बुलाया जाता है? इसीलिए हिंदी का लेखक पुरस्कार, सम्मान, लोकार्पण, विदेश-यात्रा जैसी चीजों के पीछे भागता है और उन लोगों के पीछे भी भागता है जो उसे ये सब दे सकते हैं. मूल्य, प्रतिबद्धता, विचारधारा की बात उसकी रचनाओं में तो है, लेकिन जीवन में काफी कम. एक जाने-माने लेखक नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘यों तो हिंदी में सत्ता केंद्रों की राजनीति में अवसरवाद के उदाहरण हमेशा मिलते रहे हैं लेकिन इसकी सबसे ताजा मिसाल राय-कालिया का ‘छिनाल प्रकरण’ है. रवींद्र कालिया ने हर तरह से मेहनत करके थोक के भाव में जितने नये लेखकों को खड़ा किया, लगभग सभी ने निर्णायक मौके पर कालिया की हालत पतली देखकर उनसे किनारा कर लिया और कालिया लगभग अकेले पड़ गए.’ दरअसल आज हिंदी में जो माहौल बन गया है उसमें किसी का महत्व उसकी रचनात्मकता के कारण नहीं बल्कि उसकी सत्ता के कारण है. एक वरिष्ठ कवि कहते हैं, ‘पिछले 20-25 साल में रचनात्मक रूप से कुछ नया और महत्वपूर्ण न देने के बावजूद अगर नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी और राजेंद्र यादव स्टार बने हुए हैं तो इसका असल कारण उनकी सत्ता है. अगर आज उनके हाथ से सत्ता छिन जाए तो कोई उन्हें पूछेगा तक नहीं.’

स्थिति यह है कि आपके पास किसी भी तरह की सरकारी या गैरसरकारी ताकत है तो आप आसानी से लेखक या साहित्यकार बन सकते हैं. आज का फंडा यह है कि पहले ताकतवर बनिए,  फिर साहित्यकार खुद-ब-खुद बन जाएंगे. जानकार मानते हैं कि यह ताकत किसी सरकारी या गैरसरकारी संगठन में अच्छी नौकरी, विश्वविद्यालय के अध्यापक, प्रोफेसर, किसी संस्था के अध्यक्ष से लेकर ब्यूरोक्रेट, पत्रकार होने या किसी मठाधीश की चेलागीरी तक कुछ भी हो सकती है. जिसके पास जिस अनुपात में ताकत होगी वह हिंदी साहित्य के वर्तमान परिदृश्य में उतना ही बड़ा और महान साहित्यकार होगा. इसका कारण यह है कि रचना की उत्कृष्टता को न तो पाठक तय करता है और न ही कोई व्यापक समूह. यह साहित्य के छोटे-बड़े सत्ता केंद्रों द्वारा तय की जाती है. जिस लेखक के पास जितनी ताकत होगी वह उसी अनुपात में सत्ता केंद्रों को ‘मैनेज’ कर पाएगा, अपने पक्ष में उतनी समीक्षाएं छपवा पाएगा और उसी अनुपात में वह छोटा या बड़ा लेखक बनेगा. यह माहौल ताकतवर लोगों के लेखक बनने के लिए जितना अनुकूल है, ईमानदार, मेहनती और अपने रचना-कर्म पर भरोसा करने वालों के लिए उतना ही प्रतिकूल.

छपना तो मुश्किल है ही लेकिन छपने के बाद भी किसी नये लेखक के लिए अच्छा लिखकर अच्छी समीक्षाएं पाना और चर्चा में आ पाना कितना मुश्किल है, इस पर स्वर्गीय कमला प्रसाद का कहना था, ‘हिंदी में समीक्षा और चर्चा दोनों ही विशुद्ध लेन-देन का मसला हो गए हैं. जो लेने-देने की स्थिति में नहीं होगा उसे दरकिनार हो जाना ही होगा.’ तहलका ने जब इस सिलसिले में कुछ युवा साहित्यकारों से बात करने की कोशिश की तो अधिकांश ने चुप्पी साध ली. इससे और ठीक से पता चलता है कि ज्यादातर युवा लेखक साहित्य की पूरी राजनीति से कितने खौफजदा हैं और उनमें से कुछ तो उन सिंहासनों के पाए ही बनते जा रहे हैं, ताकि बाद में उन पर बैठ सकें.

हालांकि अधिकांश युवा कथाकारों से उलट चर्चित युवा कथाकार कैलाश बनवासी इस मुद्दे पर बोलते हैं और कहते हैं, ‘इनके हाथों में पद, संपादन, पुरस्कार समितियां और सरकारी-गैर सरकारी धनी संस्थान हैं, इसलिए स्वाभाविक है कि नये रचनाकार इनके प्रति न केवल आकर्षित होंगे बल्कि कृतज्ञ और वफादार भी रहेंगे. लेकिन ज्यादा बुरा यह है कि इस प्रवृत्ति के चलते साहित्य की स्वतंत्रता खत्म हो रही है. उसके सरोकार सत्ताकेंद्रों और बाजार की मांग पर तय हो रहे हैं.’ उनके उलट युवा कथाकार मनोज कुमार पांडे ऐसे मठों के अस्तित्व को मानते हुए भी इस बात से इनकार करते दिखते हैं कि ये मठ साम्राज्य बनाने की सोच के तहत बनाए जाते हैं. उनका मानना है कि समान विचारों और साहित्यिक रुचियों के लोग एक साथ आते हैं जिसे कुछ लोग मठ कहने लगते हैं.
लेकिन चीजें इतनी आसान दिखती नहीं. लेखक की तो फिर भी बात होती है, लेखन की बात तो सुनाई ही नहीं पड़ती. शोर और आरोप-प्रत्यारोप बहुत ज्यादा है और काम की बातें उतनी ही कम हैं. हिंदी की सड़क पर साहित्य के नाम से जो बस जा रही है, उसमें साहित्य पीछे के दरवाजे पर लटक रहा है, जिसे अपने या अपनों के लिए ज्यादा जगह पाने के फेर में कभी भी कोई मठाधीश नीचे गिरा सकता है. 

राजेंद्र यादव

अगस्त, 1986 में ‘हंस’के प्रकाशन के साथ राजेंद्र यादव एक साहित्यिक सत्ता केंद्र के रूप में उभरे. इसके पहले ‘नयी कहानी’ के महत्वपूर्ण रचनाकार के रूप में उनकी ख्याति थी. उनकी इस ख्याति की ‘हंस’ के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका रही. यह वही दौर है जब भारतीय राजनीति एक करवट ले रही थी. अस्मिता आधारित राजनीति की शुरुआत हो रही थी. इसका मुखर रूप 90 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद देखने को मिला. राजेंद्र यादव ने शीघ्र ही नयी सामाजिक शक्तियों के उभार को परख लिया और राजनीति के एजेंडे को साहित्य में लागू करना शुरू कर दिया. दलित, स्त्री, अल्पसंख्यक, पिछड़ा आदि की रचनाशीलता को ‘हंस’ के रूप में एक बड़ा प्लेटफॉर्म दिया. देखते-देखते राजेंद्र यादव दलित और स्त्री विमर्श के पुरोधा बन गए. हंस की लोकप्रियता भी बढ़ी और वह सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली हिंदी की अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रिका बन गई, जो अपने तमाम उतार-चढ़ाव और कमियों के बावजूद आज भी बरकरार है.
हंस की लोकप्रियता और प्रतिष्ठा के कारण राजेंद्र यादव इस स्थिति में आ गए कि वे किसी को रचनाकार बना सकें या किसी छोटे लेखक को बड़े लेखक के रूप में स्थापित कर सकें. यह काम उन्होंने बखूबी किया भी. हंस के अलावा राजेंद्र यादव के पास कोई अकादमिक या सांस्थानिक सत्ता नहीं है. वे एक पत्रिका के माध्यम से साहित्यिक सत्ता केंद्र बनने की अनूठी मिसाल हैं. आज भी हंस में छपने की इच्छा हर रचनाकार की होती है. इस तरह, राजेंद्र यादव की ताकत के मूल में उनका संपादक व्यक्तित्व है.

हंस के संपादक राजेंद्र यादव सत्ता केंद्रों के अस्तित्व को तो स्वीकार करते हैं पर वे खुद भी उनमें शामिल हैं ऐसा नहीं मानते. अवधेश त्रिपाठी से  उनकी बातचीत के अंश :

क्या आप मानते हैं कि साहित्य में कुछ सत्ताकेंद्र हैं?

देखिए, आप सत्ताकेंद्रों की बातें कर रहे हैं तो एक तरह से कह सकते हैं कि कुछ सत्ताकेंद्र हैं, जो विश्वविद्यालयों को चलाते हैं या जिनके इशारे पर विश्वविद्यालयों में रचनाएं होती हैं, नियुक्तियां होती हैं. उस अर्थ में लोग तीन सत्ता केंद्रों को मानते हैं.  पहला नामवर जी का, दूसरा अशोक वाजपेयी और तीसरा मैं खुद. उस अर्थ में मैं बिलकुल भी सत्ता केंद्र नहीं हूं जिस अर्थ में ये दोनों हैं. ये किन्हीं-न-किन्हीं बड़े संस्थानों से जुड़े हुए हैं. नामवर जी बीसियों कमेटियों में हैं और विश्वविद्यालयों में अक्सर भाषण करने जाते रहते हैं.  अशोक वाजपेयी के पास भी हमेशा से सत्ता रही है. आईएएस ऑफिसर थे, उसके अलावा भारत भवन जैसा प्रतिष्ठान था और इस समय ललित कला अकादमी है. उनके पास हमेशा बड़े शक्तिशाली संस्थान रहे.  मेरे पास तो कुछ भी नहीं है. इस मामले में यह समझिए कि मैंने मित्र नहीं शत्रु बढाये हैं. जिसकी भी रचना एक बार लौटा दो वह शत्रु हो जाता है. पहले बहुत खुशामदी किस्म के और मुझे महानतम साहित्यकार सिद्ध करते हुए पत्र आते हैं, फिर कोई रचना आती है. अगर वह हमें पसंद नहीं आती और हम उसे लौटा देते हैं, तो राष्ट्र के सबसे बड़े शत्रु बन जाते हंै. मुझे लेकर और मेरे विचारों को लेकर सबसे ज्यादा नाराज विश्वविद्यालय हैं. क्योंकि मैं यह मानता हूं कि साहित्यिक जड़ता के केंद्र विश्वविद्यालय हैं. वहां पर नयी चीजें नहीं आतीं. आज भी वहां जिसे नया कहा जाता है वह पचास साल पुराना है. उनके कुछ गिने-चुने मूर्धन्य साहित्यिकार हैं; उन्हीं पर वे किताबें लिखते हैं, उन्हीं पर लेख लिखते हैं, उन्हीं पर वे शोध कराते हैं. सारे प्राध्यापक किस्म के लोग ऐसे लोगों के बारे में ही लिखते हैं.

लेकिन आपके पास तो हंस की ताकत है. और आप पर आरोप है कि हंस के जरिए योग्य-अयोग्य लोगों को साहित्यकार बनाने के खेल में आप भी शामिल रहे हैं.

मैंने हंस निकाला और पच्चीस साल पूरे हो गए हैं. लेकिन इस दौरान मेरी अपनी रचना हंस में सिर्फ तीन या चार छपी हैं. मेरी किताबों की समीक्षा हंस में न छपे इसका मैं ध्यान रखता हूं. मैं अपने को प्रोमोट नहीं करना चाहता. हंस मेरे पास माध्यम है और मैं उसका दुरुपयोग नहीं करूंगा. ज्यादातर लोग आत्मप्रशंसा के लिए पत्रिकाएं निकालते हैं. उनके यहां पत्रों में भी यह बताया जाएगा कि वे कितने महान संपादक हैं. हमारे यहां घनघोर क्रिटिसाइज करने वाले पत्र छपते हैं. इस लिहाज से मैं कैसे कहूं कि मैं सत्ता केंद्र हूं. मैं तो जैसे-तैसे एक पत्रिका निकाल रहा हूं, जिसके पीछे न तो कोई संस्थान है, न कोई ट्रस्ट है, न कोई बड़ा हाउस है.

ये तो ठीक है लेकिन जिस दौर में यह माना जा रहा था कि ‘हंस में छपे बगैर आप कथाकार नहीं हो सकते’ क्या राजेंद्र यादव ने कुछ खास लोगों को प्रोमोट नहीं किया?

ऐसा बिलकुल भी नहीं है, मैं रचना देखता हूं व्यक्ति नहीं देखता.

तो क्या स्नोवा बार्नो के बारे में आपकी अब भी वही राय है?

देखिए मैं नहीं जानता कि स्नोवा बार्नों थीं या नहीं. मेरे सामने उनकी रचनाएं हैं, और वही मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं. मैं तो यह भी नहीं जानता कि प्रेमचंद थे या नहीं. लोग कहते हैं इसलिए मानते हैं, बाकी उनकी रचनाएं हैं. हमें रचनाओं तक सीमित रहना चाहिए.
आप खुद ही मान रहे हैं कि नौकरियों में, अकादमियों में, पत्रिकाओं और पुरस्कारों में कुछ खास लोगों का वर्चस्व है. ऐसे में जो नया

रचनाकार मठों के इस दायरे के बाहर पड़ता है, क्या उसके लिए कोई संभावना है?

एकदम है. इसलिए कि जितने भी सत्ता केंद्र हैं सबमें कोई कोआर्डिनेशन तो है नहीं. सब सहमत तो नहीं हर चीज पर. अगर कोई रचनाकार हंस में नहीं छपता तो ज्ञानोदय में छप जाएगा, बल्कि छपता है. ये दिखाने के लिए छापा जाता है कि देखो हमने हंस के लेखक को तोड़ लिया. दोनों प्रतिस्पर्धी पत्रिकाएं हैं. इसलिए संभावना है.

आप समेत तमाम सत्ताकेंद्रों ने कई ऐसे रचनाकारों को महान घोषित किया जो बाद में परिदृश्य से ही गायब हो गए?

हमें जो प्रतिभाशाली लगता है, या जिसमें संभावना लगती है, अगर किसी वजह से वह कल न रहे तो हम क्या कर सकते हैं. विजय प्रताप बहुत अच्छी कहानियां लिखते थे. हमारे यहां भी बहुत अच्छी कहानियां छपीं. असमय उन्होंने आत्महत्या कर ली. हम कह सकते हैं कि प्रतीकात्मक ढंग से या सचमुच कुछ लोगों की मृत्यु हो जाती है. सृंजय बहुत ढोल धमाके के साथ आए और फिर गायब हो गए. हम किसी के लेखन के बारे में आश्वासन नहीं दे सकते.

नामवर सिंह

चौरासी साल की उम्र में भी नामवर सिंह हिंदी साहित्य के केंद्र में बने हुए हैं. उन्होंने बौद्धिकता और सत्ता दोनों को एक साथ साधा. सत्ता के कारण उनकी स्थिति मजबूत होती गई और बौद्धिकता के कारण उनकी विश्वसनीयता भी एक हद तक कायम रही. अपने करियर के शुरुआती वर्षों  में वे हिंदी के तत्कालीन सत्ता केंद्रों से निरंतर संघर्ष करते हुए आगे बढ़े और कालांतर मे स्वयं एक बड़े सत्ता केंद्र में तब्दील हो गए. उनके इस संघर्ष में राजकमल प्रकाशन से जुड़ाव, आलोचना जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका का संपादन और जेएनयू में हिंदी के प्रोफेसर और अध्यक्ष बनने को काफी महत्वपूर्ण माना जा सकता है. जेएनयू से अकादमिक दुनिया में उनका निर्णायक वर्चस्व स्थापित हुआ. वे अनेक संस्थानों के निर्णायक निकायों में रहे. विभिन्न विश्वविद्यालयों में असंख्य नियुक्तियां कीं (जिनमें ज्यादातर अयोग्य व्यक्तियों के प्रति और कभी-कभी जाति के आधार पर भी स्नेह प्रदर्शित किया गया). आज देश भर में उनसे उपकृत लोगों की फौज है. उन्होंने प्रकाशन जगत, विश्वविद्यालय एवं विभिन्न अकादमिक संस्थानों पर अपने नियंत्रण को मजबूत बनाए रखा. इसके अतिरिक्त वे अनेक छोटे-बड़े साहित्यिक पुरस्कारों के निर्णायक रहे. कई वर्षों तक साहित्य अकादमी में रहे, जहां हिंदी के पुरस्कारों को लेकर इनकी निर्णायक भूमिका रही.

हिंदी साहित्य के अमिताभ बच्चन कहे जाने वाले नामवर सिंह की चारों तरफ मांग है. नये-पुराने अधिकांश रचनाकार उनसे वैधता हासिल करना चाहते हैं.  इसीलिए गोष्ठियों से लेकर लोकार्पण कार्यक्रमों तक हर जगह उनकी व्यस्तता है. कुल मिलाकर पिछले दो दशकों से अधिक समय से कुछ भी नया न लिखने के बावजूद नामवर सिंह हिंदी साहित्य के शीर्ष सत्ता-पुरुष बने हुए हैं.­

अशोक वाजपेयी

नामवर सिंह और राजेंद्र यादव से अलग अशोक वाजपेयी की ताकत सांस्थानिक अधिक है. हाल के वर्षों में वे एक मजबूत सत्ता केंद्र के रूप में उभरे हैं और उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ी है. अशोक वाजपेयी निरंतर सत्ता में रहे हैं और आज भी ललित कला अकादेमी के अध्यक्ष हैं. वे भूतपूर्व आईएएस हैं. प्रशासक के रूप में वे लंबे समय तक मध्य प्रदेश में साहित्य और संस्कृति को निर्धारित और नियंत्रित करते रहे. सत्ता का हिस्सा होने के कारण उन्हें संसाधनों की कभी कमी नहीं हुई. भोपाल में भारत भवन और दूसरी संस्थाओं के माध्यम से उन्होंने अनेक साहित्यिक गतिविधियों का संचालन किया. उन्होंने उदारतापूर्वक भिन्न मत वाले लोगों को भी सरकारी पैसे से उपकृत किया. बाद में वाजपेयी महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति बने और अनेक लोगों को लाभान्वित किया. वर्तमान समय में वे और भी शक्तिशाली हुए हैं. वे हाल ही में बनी ‘रजा फाउंडेशन के सर्वेसर्वा हैं. इस संस्था के पास काफी पूंजी लगभग (एक करोड़) है. इसके माध्यम से वे कई जगह साहित्यिक आयोजन कर रहे हैं या उन्हें प्रायोजित कर रहे हैं. अशोक वाजपेयी फिलहाल हिंदी के सर्वाधिक साधन संपन्न साहित्यिक व्यक्तित्व हैं. वे कई पुरस्कारों के निर्णायक मंडल में भी हैं. हाल ही में उदय प्रकाश को मिले साहित्य अकादमी पुरस्कार में भी उनकी निर्णायक भूमिका मानी जाती है.

रवींद्र कालिया

चर्चा में बने रहने और विवाद खड़ा करने के जरिए सत्ता केंद्र के रूप में खुद को स्थापित करने का जो रास्ता राजेंद्र यादव ने अपने लिए निकाला था, रवींद्र कालिया उसी रास्ते पर चलने की कोशिशें तो लंबे समय से करते आए थे, लेकिन ‘वागर्थ’ पत्रिका के संपादन के दौरान उन्हें पहली बार खुलकर अपना मठ बनाने का आधार मिला. साहित्य का सत्ताकेंद्र तभी तक मजबूत होता है, जब तक उसकी तरफ से युद्घ की हुंकार भरने वाली नयी पीढ़ी पीछे मौजूद है, जो उंगली के एक इशारे पर चरित्र हनन से लेकर किसी भी तरह के अभियान में उतर सकती है. नये कहानीकारों को तरजीह देने के नाम पर कालिया ने अपने पीछे कुछ प्रतिभाशाली और ज्यादातर अप्रतिभाशाली नये कहानीकारों को लामबंद किया. ज्ञानपीठ और उसकी पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ हाथ में आते ही उन्होंने अपने को एक मजबूत सत्ताकेंद्र के रूप में स्थापित कर लिया. फिर तो आलम धुंआ-धुआं हो गया. पुरस्कार दिलवाने, पत्रिका में प्रकाशित करने और पुस्तक प्रकाशित करने की ताकत हाथ में होने के साथ ही विभूति नारायण राय से मित्रता के चलते कम से कम एक विश्वविद्यालय के किसी भी विभाग में नियुक्ति कराने की उनकी क्षमता के बारे में पता लगते ही याचकों की भीड़ उनके पीछे हो ली. कालिया ने ‘विभूति राय विवाद’ के दौरान अपने कई लड़ाकों के जरिए मोर्चा संभालने की कोशिश की. लेकिन इस प्रक्रिया में कुछ सिपहसालार उनका साथ छोड़कर चले भी गए. कुल मिलाकर रवींद्र कालिया महत्वपूर्ण संस्थानों और शक्तिशाली व्यक्तियों से संपर्क के चलते प्रमुख सत्ताकेंद्र बने हुए हैं.

हिंदी में बस लेखक ही एक दूसरे के पाठक हैं और पाठकों की यही कमी साहित्य के मठों को बनाने में मदद करती है, इस रिपोर्ट से जुड़ा गौरव सोलंकी का आलेख पढ़ने के लिए क्लिक करें  बल्ब बड़ा या सूरज

‘बड़ी कमजोरी लगती है डॉक्टर सा’ब’

‘बड़ी कमजोरी-सी लगती (रहती) है डॉक्टर साहब, ताकत की कोई बढ़िया दवा लिख दीजिए’ – डॉक्टर के जीवन में यह वाक्य उसके द्वारा सुना जाने वाला सबसे पॉप्युलर वाक्य कहा जा सकता है. मरीज के लिए यह वास्तव में बड़ी भ्रामक, चमत्कारी, रहस्यवादी तथा (कई अर्थों में, कई लोगों के लिए) लाभकारी स्थिति है. दरअसल ‘कमजोरी’ एक ऐसा जनरल-सा बयान है जिसका अर्थ श्वास फूलना, भूख न लगना, वजन गिरना, मन न लगना, बुखार-सा लगना आदि कुछ भी हो सकता है. कई बार तो वह बड़ी बीमारी के कारण हो रही कमजोरी काे भी ‘सामान्य-सी कमजोरी’ मानकर स्वयं ही दवाई की दुकान पर चला जाएगा और लोकप्रिय ब्रांड का कोई टॉनिक  खरीद लाएगा. कितनी ही बार मरीज की डायबिटीज, थायरायड या कैंसर की बीमारी मात्र इस कारण बहुत लेट पकड़ में आई कि इसी बीच वह शख्स डॉक्टर के पास न जाकर अपनी कमजोरी का देसी-विदेशी इलाज खुद ही करता रहा.

‘कमजोरी को कमतर न समझें यह कई बड़ी बीमारियों का लक्षण हो सकती है’

‘कमजोरी लगना’, हो सकता है कि यह अंततः कुछ भी बीमारी साबित न हो और हो यह भी सकता है कि किसी बड़ी बीमारी का लक्षण निकले. फिर? यूं समझें कि ‘कमजोरी लगना’ शरीर में तमाम तरह के जो अंग तथा मेकेनिज्म हैं – उनमें से किसी में भी गड़बड़ से हो सकता है. मैं आपको इसके कुछ महत्वपूर्ण कारण बताता हूं. डायबिटीज की बीमारी कई बार पता ही यूं चलती है. सो, यदि परिवार में मां-बाप-भाई-बहिन में से किसी को भी डायबिटीज हो (और न हो तब भी), यदि कमजोरी लगी रहती है तो ब्लड शुगर की जांच अवश्य करा लें. साथ में वजन गिर रहा हो, पेशाब बहुत होती हो, बहुत भूख लगती हो, बार-बार प्यास लगती हो – तब तो डायबिटीज के लिए देख ही लें. पर डायबिटीज से भी पूर्व…. अनीमिया या कहें, खून की कमी के कारण भी आपको कमजोरी लग सकती है. और आवश्यक नहीं कि खून की बहुत कमी हो. हल्के अनीमिया, बल्कि अनीमिया होने से पहले के वक्फे में ही आपको कमजोरी-सी लग सकती है. औरतों को तो विशेष तौर पर. हीमोग्लोबिन की एक साधारण जांच से यह बीमारी पकड़ी जा सकती है. वैसे प्रायः आयरन की गोलियों से ही यह ठीक हो जाता है परंतु डॉक्टर को ही तय करने दें कि अनीमिया का कारण आयरन की कमी है या कुछ और सो, स्वयं अंदाज से आयरन कैप्सूल न खाने लग जाएं. पूरी जांच कराएं. अनीमिया स्वयं में एक बीमारी न होकर किसी अन्य बड़ी बीमारी का लक्षण भी हो सकता है. आंतों से लेकर किडनी की बीमारियां तक मात्र अनीमिया के तौर पर प्रकट हो सकती हैं. एक बात और, अनीमिया की दवाइयां लंबे समय तक लेनी होती हैं. ‘हमारा हीमोग्लोबिन ठीक आ गया था सो हमने तो सारी दवाइयां बंद कर दीं’ ऐसा न करें. ऐसा करेंगे तो बार-बार अनीमिया होता रहेगा. और वह कोई बीमारी नहीं, आपकी मूर्खता ही कहलाएगी.

‘कमजोरी’ के ऐसे ही दसों कारण हो सकते हैं. इनमें कई जानलेवा कारण तक हैं पर लगभग हरेक का कोई इलाज भी मौजूद है. कई बार तो आप ही कई दिनों तक डॉक्टर को नहीं दिखाते कि यह ठीक हो जाएगी. ऐसे में बड़ी बीमारी और बढ़ सकती है. उदाहरणार्थ ‘क्रॉनिक किडनी फेल्योर’ का सबसे कॉमन लक्षण शुरू में थकान, कमजोरी और भूख न लगने जैसे सामान्य लक्षण ही होते हैं. शुरू में यह न पकड़ पाए तो बाद में जांच में पता चलेगा कि आपकी तो दोनों किडनी काम ही नहीं कर रहीं. थायरॉयड की एक बीमारी थायरोटोक्सिकोसिस भी मूलतः ‘कमजोरी’ पैदा करती है. कई साइलेंट से कैंसर भी यूं ही प्रकट होते हैं. बड़ी आंत के कैंसर (पुराने दारूखोर में) में लिवर का कैंसर, हड्डियों तथा रक्त के कैंसर ऐसी ‘कमजोरी’ के साथ सामने आ सकते हैं. कमजोरी लगती है और ‘बावल-हेविट’ बदल गई है, कमजोरी लगती है और वजन गिर रहा है, कमजोरी के साथ पेट गड़बड़ चल रहा है और चलता ही जा रहा है, कमजोरी है और कांख या जांघ में छोटी गिल्टी जैसी लग रही है – तुरंत डॉक्टर को दिखाएं. यह कैंसर हो सकता है. कमजोरी है और बुखार-सा लगता है – ऐसा न कहें डॉक्टर से. बाकायदा बुखार नापकर उसका रिकॉर्ड रखें. कमजोरी लगे तो अपना वजन भी नापते रहें. यह भी ध्यान दें कि जिसे आप कमजोरी कह रहे हैं वह वास्तव में क्या-क्या है. कहीं थकान है, या आप चलने पर सांस फूलने को या चलने पर चक्कर या अंधेरा-सा आने को कमजोरी तो नहीं कह रहे क्योंकि ये सारी चीजें दिल की बीमारी अनकंट्रोल बीपी पर किसी न्यूरोलॉजीकिल बीमारी के संकेत भी हो सकते हैं या फेफड़ों की कोई बीमारी भी. या किसी दवा के दुष्प्रभाव भी. टीबी से लगाकर डिप्रेशन तक कमजोरी का अहसास दे सकते हैं.

हां, डिप्रेशन से याद आया. मान लें कि ढेर-सी जांचों के बाद भी आपकी कमजोरी का कोई कारण खोज पाने में मेडिकल साइंस परास्त हो चुका हो तो कारण को स्वयं में तलाशें. कहीं यह सब आपके अवचेतन मन का खेल तो नहीं? ऐसे में किसी अच्छे मनोचिकित्सक से मिलना गलत नहीं होगा. आजकल जीवन इतना चकरघिन्नी है कि इंडोजीनस डिप्रेशन आदि मानसिक व्याधियां भी इसी तरह के अजीब-से लक्षणों से प्रकट हो सकती हैं. कुल संदेश यह कि कमजोरी-सी लगती हो तो सीधे टॉनिक पर न उतर जाएं. पहले उत्तर तलाशें कि यह कमजोरी क्या है. बेहतर होगा कि डॉक्टर को यह काम करने दें. मैं हर बार की तरह फिर कहूंगा कि अच्छे डॉक्टर के पास ही जाएं. आंखें तथा दिमाग खुला रखेंगे तो अच्छा डॉक्टर तुरंत पहचान लेंगे.  

बुलेट खबरों की बमबारी

न्यूज चैनलों पर सचमुच ‘खबरें’ लौट आई हैं. और क्या स्पीड के साथ लौटी हैं! सिर चकराने लगता है. कहीं स्पीड न्यूज है, कहीं फटाफट खबरें हैं, कहीं सुपरफास्ट खबरें हैं, कहीं 20-20 खबरें हैं और कहीं दो मिनट में 15 खबरें हैं. गोया खबरें न हों, बुलेट ट्रेन हों. एक चैनल पर सचमुच बुलेट खबरें हैं जिसका दावा है कि उसके बुलेटिन में खबरें बुलेट से भी तेज रफ्तार से दी जाती हैं. फटाफट और धड़ाधड़ खबरों का एक पूरा चैनल ‘तेज’ पहले से है.हालांकि यह कोई नया ट्रेंड नहीं है और हिंदी के न्यूज चैनलों पर पिछले दो-ढाई साल से स्पीड न्यूज के कई बुलेटिन चल रहे हैं, लेकिन इधर यह प्रवृत्ति कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है. चैनलों में अब कम से कम समय में अधिक से अधिक खबरें देने की होड़-सी शुरू हो गई है. हालत यह हो गई है कि हिंदी के सबसे शालीन माने जाने वाले चैनल एनडीटीवी-इंडिया पर सुबह से लेकर शाम तक हमेशा 20-20 खबरें चलती रहती हैं.

ऐसा लगता है, जैसे दर्शकों को खबरें बतायी या सुनाई नहीं जा रही हैं बल्कि उन पर खबरों की बमबारी की जा रही है

ऐसा लगता है, जैसे दर्शकों को खबरें बताई या सुनाई नहीं जा रही हैं बल्कि उन पर खबरों की बमबारी की जा रही है. माफ कीजिएगा, मजाक नहीं कर रहा हूं. सचमुच, चैनल स्पीड न्यूज के नाम पर खबरों की बमबारी कर रहे हैं. विश्वास न हो तो स्पीड न्यूज के साथ चलने वाले तेज बैकग्राउंड म्यूजिक को सुनिए, ऐसा लगता है जैसे मशीनगन से धड़ाधड़ गोली दागी जा रही हो या तोप से गोले दागे जा रहे हों. बिलकुल उसी अंदाज में एक के बाद एक खबरें भी दागी जाती हैं.

ऐसा लगता है कि चैनल दर्शकों को बिलकुल संभलने का मौका नहीं देना चाहते हैं. दर्शक जब तक एक खबर को देखता और समझने की कोशिश करता है, उसके सामने दूसरी, फिर तीसरी और फिर खबरों की बाढ़-सी आ जाती है. कहना मुश्किल है कि खबरों की इस भीड़ के बीच दर्शक कितनी खबरों को याद रख पाते हैं, कितने दर्शक खबरों की इस बमबारी के बीच उनके अर्थ और मायने समझ पाते हैं और कितने उन खबरों के राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक महत्व से परिचित हो पाते हैं.

सच पूछिए तो खबरों की इस भीड़ में हर खबर की अपनी पहचान, अपना व्यक्तित्व, महत्व और अर्थ गुम-सा हो जाता है. खबरें बेमानी-सी लगती हैं. नतीजा, संसद में 2जी और काॅमनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार पर होने वाली चर्चा और हंगामे की खबर या अमेरिकी अर्थव्यवस्था की डावांडोल स्थिति या ऐसी कोई और महत्वपूर्ण खबर और कई छोटी-मोटी खबरों में कोई फर्क नहीं रह जाता है.

सच पूछिए तो इससे किसी को शिकायत नहीं हो सकती है कि चैनल अधिक से अधिक खबरें दिखाएं. पूरे देश और उसके विभिन्न इलाकों की खबरों को बुलेटिन में जगह मिले. राजनीति ही नहीं बल्कि विदेश, बिजनेस, शिक्षा, स्वास्थ्य, खेल, मनोरंजन और मानवीय रुचि की खबरें भी दिखाई जाएं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सभी खबरों को एक ही बुलेटिन में घुसेड़ दिया जाए. खबरों को बिना उनकी पृष्ठभूमि और संदर्भ के और उनके महत्व और प्रभाव को अनदेखा करते हुए ऐसे प्रस्तुत किया जाए कि उनका कोई मायने-मतलब न रह जाए. यह और कुछ नहीं बल्कि खबरों की आत्मा को मारने जैसा है. यही खबरों का ‘डंबिंग डाउन’ है जिसका मतलब होता है कि खबरों को गूंगा-बहरा, बेमानी, सतही और हल्का-फुल्का बनाना. ऐसी खबरों की भीड़ में सिर्फ सूचनाएं और सूचनाएं होती हैं. यह कहने का यह मतलब कतई नहीं है कि दर्शकों को सूचनाएं नहीं चाहिए या सूचनाओं का कोई महत्व नहीं है. लेकिन खबर सिर्फ सूचना नहीं है. वह सूचनाओं को इकठ्ठा करने, उनकी छानबीन और उन्हें उनके महत्व के मुताबिक तरतीब देना है. सूचनाओं को संदर्भ और पृष्ठभूमि के साथ रखने और उन्हें मायने-मतलब देने के बाद ही खबर पूरी होती है. लेकिन फटाफट खबरों में न तो यह संभव है और न होता है.

साफ तौर पर यह दर्शकों को एक निष्क्रिय रिसीवर और बेवकूफ समझने जैसा है. गोया वह सिर्फ सूचनाओं का भूखा है. लेकिन सच यह है कि खबरों की यह बमबारी दर्शकों के लिए सूचना अपच का कारण भी बन रही है. आखिर इतनी सारी सूचनाएं उसके किस काम की हैं? यही नहीं, चैनलों पर स्पीड या बुलेट न्यूज के कारण न सिर्फ एंकर और रिपोर्टर अप्रासंगिक होते जा रहे हैं बल्कि खबरों का यह मशीनीकरण न्यूजरूम के सभी गेटकीपरों यानी संपादकों को बेमानी बना रहा है. आखिर संपादकों की भूमिका क्या है? क्या खबरों को मायने-मतलब और उनके समाचार मूल्य के मुताबिक महत्व और प्राथमिकता देने की जिम्मेदारी गेटकीपरों की नहीं है?
लेकिन चिंता की बात यह है कि स्पीड न्यूज या बुलेट खबरें धीरे-धीरे चैनलों की मुख्यधारा बनते जा रहे हैं. अगर एनडीटीवी-इंडिया जैसा चैनल सुबह 6 बजे से शाम 4 बजे तक सिर्फ 20-20 खबरें दिखा रहा है तो अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि अन्य बुलेटिनों में भी महत्वपूर्ण खबरों के पैकेजों को छोटा से छोटा करने का दबाव कितना अधिक होगा.

स्लटवॉक के बाद की सड़क

दिल्ली में स्लटवॉक की तैयारी की जितनी हलचल रही, वास्तविक स्लटवॉक की उतनी नहीं. क्या इसलिए कि यह स्लटवॉक उतना भड़कीला या उत्तेजक साबित नहीं हुआ जितनी मीडिया ने कल्पना की थी? इस वॉक में लड़कियां `स्लट’ की तरह नहीं आईं जैसा कई उत्साही लोग सोच रहे थे. वे बिल्कुल आम घरों की लड़कियों की तरह सड़क पर उतरीं- हाथों में तख्तियां और बैनर लिए- आग्रह करती हुईं कि उन्हें अपने ढंग के कपड़े पहनने का हक है और सिर्फ इस वजह से उन्हें प्रताड़ित न किया जाए. अखबारों की रिपोर्ट बताती है कि इस स्लटवॉक की तैयारी के सिलसिले में होने वाली बैठकों में बार-बार यह सवाल उठता रहा कि इसे क्या नाम दिया जाए और इसमें कपड़े कैसे पहने जाएं. शायद ऐसी ही उलझनों की वजह से दिल्ली के मोर्चे की तारीख आगे बढ़ती रही और वह भोपाल में पहले निकाल लिया गया.

टोरंटो में जिन महिलाओं ने स्लटवॉक किया, शायद उन्होंने यही कोशिश की कि स्ल्ट शब्द से उसके अर्थ को निचोड़ कर फेंक दिया जाएजाहिर है, मामला कपड़ों का नहीं, अवधारणा का है, उस मेल शॉवेनिस्ट- पुरुष-मदांध- नजरिये का है जो किसी लड़की को सिर्फ उसके कपड़ों के आधार पर `स्लट’ करार देने को तैयार रहता है और उसके साथ होने वाले अत्याचार के लिए उसके अपने हाव-भाव को जिम्मेदार ठहराता है. टोरंटो में एक पुलिस अफसर ने यही काम किया और वहां लड़कियां बिल्कुल उन्मुक्त कपड़े पहन कर सड़कों पर उतर आईं- बताती हुई कि यह तय करने का हक सिर्फ उन्हें है कि वे क्या पहनें और क्या न पहनें. टोरंटो से चला अभियान दूसरे शहरों से होता हुआ अगर दिल्ली तक चला आया तो किसी फैशन के तहत नहीं, उस दबाव के तहत जो नये जमाने की लड़की भारत में इन दिनों कुछ ज्यादा महसूस करने लगी है. लेकिन दिल्ली ने टोरंटो की नकल नहीं की, इस स्लटवॉक को अपने ढंग से अपनाया. सिर्फ कल्पना की जा सकती है कि अगर इस वॉक के उत्साही आयोजकों ने वाकई यह जिद पकड़ ली होती कि वे वैसे ही कपड़े पहनेंगी जैसे टोरंटो की प्रदर्शनकारियों ने पहन रखे थे तो उनके मार्च को शायद यह कामयाबी या स्वीकृति नहीं मिलती.

दरअसल इस मोड़ पर वह दुविधा झांकती है जो औरत की आजादी के सवाल पर आज की भारतीय लड़की के सामने उठ रही है. वह पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने घर से बाहर निकली है, लेकिन पुरुष उसका काम नहीं, उसके कंधे देख रहा है. वह घर में जिस गुलामी और उत्पीड़न की शिकार थी उसका तो उसे फिर भी अभ्यास था, लेकिन अब एक नया सवाल उसके सामने है कि आज़ादी के इस नये जोखिम से वह कैसे निबटे, रास्तों और दफ्तरों में घूरने वाली जानी-पहचानी और अजनबी निगाहों का क्या करे, वह कैसे साबित करे कि घर से बाहर निकल कर वह बेहयाई या बेशर्मी का परिचय नहीं दे रही, सिर्फ अपने लिए नौकरी या रोजगार-तरक्की के वैसे ही अवसर खोज रही है जैसे पुरुषों को चाहिए.

इन सवालों का या इनसे जुड़ी दुविधा का वास्ता नारीवाद की किसी सैद्धांतिकी से नहीं, भारतीय लड़की के रोजमर्रा के अनुभव से है

यह सवाल उसे अचानक स्लटवॉक जैसे किसी खयाल से जोड़ देता है. वह स्लट का मतलब खोजने निकलती है तो उसके सामने बेशर्म, बेहया, बदचलन और कुलटा से लेकर वेश्या तक के विकल्प सामने आते हैं. दिल्ली में स्लटवॉक के आयोजकों ने इसे बेशर्मी मोर्चा का नाम दिया- कहीं यह सफाई देते हुए कि यह पुरुषों की बेशर्मी के खिलाफ मोर्चा है. लेकिन सच तो यह है कि इससे बात बनती नहीं. सीधे-सीधे यह समझने की जरूरत है कि ‘स्लट’ या ‘कुलटा शब्द एक खास मर्दवादी मानसिकता का शब्द है जो स्त्री को पुरुष की संपत्ति मानता है. शादी या प्रेम या किसी और संबंध के जरिए यह स्त्री जब तक उसकी है, उसके कहे मुताबिक चल रही है, उसके दिए हुए आदर्शों को जी रही है, तब तक वह अच्छी लड़की है, लेकिन जहां वह अपनी लकीर बनाना शुरू करती है, अपनी मर्जी से नौकरी से लेकर साथी तक चुनने की कोशिश करती है, वहां वह अपने दुस्साहस के प्रकार के हिसाब से बेशर्म, बेहया, कुलटा, वेश्या कुछ भी कही जा सकती है.

तो बेशर्मी मोर्चे की पहली चुनौती तो यही है कि वह शब्द के इस अर्थ को, और इसके पीछे छिपी मानसिकता को खारिज कर दे. टोरंटो में जिन महिलाओं ने स्लटवॉक किया, शायद उन्होंने यही कोशिश की कि स्लट शब्द से उसके अर्थ को निचोड़ कर फेंक दिया जाए, यह बता दिया जाए कि पुरुष उसे स्लट या जो कुछ भी समझे, वह अपने ढंग से सड़क पर चलेगी. किसी शब्द को नकारने या खारिज करने की पहली प्रक्रिया शायद यही होती है.

इस लिहाज से देखें तो बेशर्मी मोर्चे ने बस अभी लड़की के हक की वकालत की है. निश्चय ही यह छोटा काम नहीं है, लेकिन इससे बड़ा काम यह समझाना है कि समाज ने अच्छी लड़की की जो एक छवि बना रखी है- चुप रहने वाली, सब कुछ सहने वाली, किसी का विरोध न करने वाली, शालीनता से मुस्कुराने वाली, प्रशंसा पर शर्मा जाने वाली, साथ चलने के आग्रह से सहम जाने वाली, अपने आंचल और दुपट्टों का खास खयाल रखने वाली- वह छवि लड़की के साथ न्याय नहीं करती. निश्चय ही आज की लड़की इस छवि से आगे निकल आई है और समाज लड़कियों को पहले से कहीं ज्यादा बराबरी के मौके दे रहा है. अब वह भाइयों के साथ पढ़ सकती है, सहेलियों के साथ घूम सकती है, डॉक्टर और लेक्चरर छोड़कर पत्रकार और मैनेजर भी बन सकती है, नौ से पांच की दफ्तर में बैठने वाली सुरक्षित नौकरी की जगह रात-बिरात का काम भी कर सकती है और फील्ड में भी जा सकती है.

लेकिन जब वह यह सब करती है तो समाज की अच्छी लड़की नहीं रह जाती, वह एक तेज-तर्रार कामकाजी महिला की तरह देखी जाती है, जो सीमाएं तोड़ने को तैयार है. इस बिंदु पर पहले उससे उम्मीद की जाती है, फिर जोर-जबरदस्ती और आखिरकार उसे स्लट- यानी बेशर्म, बेहया या कुलटा कुछ भी ठहरा दिया जाता है. शब्द शायद बदल जाते हों, मानसिकता नहीं बदलती. तो बेशर्मी मोर्चे को इस मानसिकता को बदलने के लिए कहीं ज्यादा सख्त शब्द ढंूढ़ने होंगे, कहीं ज्यादा तीखी लड़ाई लड़नी होगी. इसमें शक नहीं कि यह लड़ाई वह लड़ और जीत लेगा, क्योंकि ऐसे ही मोर्चों की मार्फत हासिल जीत ने उसे इस मोड़ तक पहुंचाया है.

लेकिन जो दूसरी चुनौती उसके सामने है वह कहीं ज्यादा बड़ी और कड़ी है. स्त्री को लेकर चला आ रहा पुराना नजरिया उस पर सामने से वार कर रहा है जिसकी चोट, जिसके चाबुक के निशान वह अपनी आत्मा और अपने बदन पर पहचानती है, लेकिन स्त्री के नाम पर आया तथाकथित नया नजरिया उस पर पीछे से हमला कर रहा है जिससे वह अगर बेखबर नहीं तो पूरी तरह बाखबर भी दिखाई नहीं पड़ती. जिस दौर में यह लड़की अपने छोटे-छोटे प्रयत्नों से, अपनी छोटी-छोटी कोशिशों से, अपने छोटे-छोटे मोर्चों से, अपने लिए बराबरी और सम्मान हासिल करने की सफल लड़ाई लड़ रही है, उसी दौर में बाजार उसे लगातार सिर्फ देह में बदल रहा है. दिलचस्प यह है कि यह बाजार अक्सर उसके हमदर्द और वकील की तरह उसके साथ खड़ा होता है, उसकी आजादी की लड़ाई में शामिल भी दिखता है. उसे नौकरियां देता है और आत्मनिर्भरता का एहसास भी, लेकिन इसी के साथ-साथ वह चुपचाप उसका इस्तेमाल करता चलता है. वह उसे साबुन से लेकर समंदर तक बेचने में लगा देता है और उसके बिना जाने उसे भी खरीद-फरोख्त की एक वस्तु में बदल डालता है. उपभोक्ता सामग्री का अनवरत विज्ञापन करते-करते वह खुद उपभोग की सामग्री में बदल दी जाती है. यह बाजार ही उसके कपड़े भी तय करता है और जिन्हें ये कपड़े मंजूर नहीं, उन्हें दकियानूस या परंपरावादी बताकर उनका मजाक भी बनाता है.

सूचना और मनोरंजन के तमाम माध्यमों में- अखबार के चमकीले पन्नों से लेकर फिल्मों के सुनहरे परदों और टीवी, इंटरनेट से लेकर मोबाइल तक- बाजार का अपना एक स्लटवॉक है, जो लगातार 24 घंटे चलता रहता है- इस मायने में कहीं ज्यादा खौफनाक कि वह ‘स्लट’ शब्द के अर्थ की स्मृति को बचाता और बेचता है और अंततः स्त्री की देह को एक ऐसे सामान में बदलता है, जिसका कारोबार और आयात-निर्यात हमारी इक्कीसवीं सदी के सबसे बड़े और मुनाफादेह धंधों में है.

दरअसल टोरंटो से दिल्ली तक लाया गया स्लटवॉक बाजार के कंधों पर भी होकर आया था- इस उम्मीद में कि यहां भी वह औरत की आजादी को उन्मुक्तता के रैपर में लपेट कर बेच लेगा. लेकिन शायद स्लट या बेहया या कुलटा शब्द की एक वाजिब सिहरन और स्मृति बाजार के फैशनेबल आग्रह से कहीं ज्यादा ताकतवर साबित हुई और दिल्ली के मोर्चे ने सनसनी की जगह सरोकार के प्रदर्शन को तरजीह दी. लेकिन यह मोर्चा यहां कायदे से खत्म नहीं, शुरू होना चाहिए, क्योंकि अभी स्त्री की आजादी और बराबरी के बहुत सारे सवाल बचे हुए हैं- यह दुविधा भी कि भारत में अगर स्त्री की आजादी का कोई आंदोलन चले तो वह पश्चिम से कितना अलग हो, कितना कुछ उससे ग्रहण करे और कैसे वह दोहरी लड़ाई लड़े जो उसे अपने परंपरावादियों से भी लड़नी है और बाजारवादियों से भी. निश्चय ही इन सवालों का या इनसे जुड़ी दुविधा का वास्ता नारीवाद की किसी सैद्धांतिकी से नहीं, भारतीय लड़की के रोजमर्रा के अनुभव से है जो यह पा रही है कि वह तो बदल रही है, उसके साथ चलने वाला मर्द नहीं बदल रहा है.

अच्छी बात यह है कि यह लड़की अब अपने समय और समाज को कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से पहचान रही है, वह इस सड़क पर कहीं ज्यादा आत्मविश्वास से चल रही है और अपनी मर्जी से स्लटवॉक के जोखिम मोल ले रही है. इसी से उम्मीद बंधती है कि वह अपने स्त्रीत्व से जुड़ी सामंती अपेक्षाओं को भी ठोकर मारने में कामयाब होगी और बाजार के प्रलोभनों को भी अंगूठा दिखाने में.  

 

सामंतों के गढ़ में नव-सामंती कहर

झारखंड स्थित पलामू जिले के मुख्यालय डालटनगंज में कंक्रीट का जंगल बनाने के लिए मुसहरों और भुइयां समाज के लोगों को अपनी ही जमीन से बेदखल किया जा रहा है. इस प्रक्रिया में उन्हें अपनी जान तक गंवानी पड़ रही है. अनुपमा की रिपोर्ट

जून का महीना मंगरू भुइयां के परिवारवालों के लिए जानलेवा साबित हुआ. 13 जून को मंगरू की हत्या कर दी गई. 85 साल के मंगरू को क्यों मार डाला गया, इसका सही-सही जवाब किसी के पास नहीं. लोगों से बात करें और चर्चाओं पर ध्यान दें तो उसका गुनाह सिर्फ यही पता चलता है कि उसकी जमीन का एक टुकड़ा, अंधाधुंध शहरीकरण के दौर में महंगा हो गया और महंगी जमीन पर गरीबों का कोई हक नहीं बनता, इसी नये सिद्धांत के तहत उसे मार दिया गया.

मंगरू की जमीन उस इलाके में थी, जो एक जमाने में बहुत ही पिछड़ा और उपेक्षित था. उसके पास सरकार द्वारा दी गई ढाई एकड़ जमीन वहीं पर थी. पिछले कुछ वर्षों में अंधाधुंध शहरीकरण की वजह से यह कीमती प्लांट में बदल गई थी. जमीन की कीमत बढ़ी तो जमीन के दलालों ने जैसे-तैसे करके उसकी दो एकड़ जमीन बिकवा दी जो अब बाजार भाव के हिसाब से लगभग एक करोड़ की परिसंपत्ति बताई जाती थी. इस एक करोड़ की परिसंपत्ति के बदले मंगरू की विधवा समुंदरी कुंवर के पास कहने लायक एक पक्का मकान है. जमीन के साथ उसकी कीमत अब करीबन पांच-सात लाख होगी. लेकिन वह पक्का मकान लेकर मंगरू की पत्नी क्या करेगी? मकान खाना थोड़े ही देता है! अब वह दाने-दाने को मोहताज है. समुंदरी कहती है, ‘जहर खाने तक को पैसा नहीं था. कुल जमा चार हजार रुपये थे. पिटाई से हुई मौत से पहले इलाज के दौरान वह भी दवा आदि में अस्पताल में खर्च हो गया.’ इससे पहले मंगरू के बेटे कृष्णा की भी हत्या हो गई थी और उसकी पत्नी ने दूसरी शादी कर ली. अब घर मंे अपनी किस्मत पर रोने के लिए समुंदरी के साथ एक 11 साल का पोता और 12 साल की पोती है. अब उसके पास 14-15 कट्ठा जमीन है. उस जमीन की कीमत अब करीब 40 लाख रु के आसपास होगी. समुंदरी उस जमीन के बारे में कुछ नहीं जानती. कोई बात भी नहीं करना चाहती. उसे चिंता इस बात की रहती है कि अगर उसे भी कुछ हो गया तो दोनों अभागे बच्चों का क्या होगा.

नया चलन बंदोबस्ती की जमीन खरीदी-बेची नहीं जा सकती, लेकिन पलामू में ऐसा होने के कई उदाहरण हैं

समुंदरी की यह कथा-कहानी पलामू के जिला मुख्यालय डालटनगंज शहर के एक बाहरी मोहल्ले बैरिया की है. भुखमरी, अकाल और जमींदारों के जुल्मो-सितम के लिए मशहूर पलामू में नये जमींदार जमीन के जरिए रोज ऐसी कहानियां बना रहे हैं. कभी बंधुआ बनाने से लेकर जिंदा मार देने पर आमादा रहने वाले पलामू के कुछ पुराने जमींदारों के जुल्मो-सितम से यहां के वासियों और बाहरी लोगों का रोआं सिहरता था. अब नये जमींदारों के जुल्म से फिर वही लोग मारे जा रहे हैं जिनका तड़प-तड़प कर मरना या जिन्हें मार दिया जाना इस इलाके में नियति की तरह है. फर्क सिर्फ यह है कि पहले आवाज भी उठ जाती थी, अब सब कुछ खामोशी से हो रहा है.

शहर से बाहर बसे हुए कुछ उपेक्षित मुहल्ले में आबादी भुइयां एवं मुसहरों की है. 1975 से 1980 के बीच वहां हदबंदी से फाजिल जमीन को गरीब हरिजनों में बांटने के लिए एक मजबूत लड़ाई लड़ी गई थी. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं, नेताओं ने इसमें सकारात्मक भूमिका निभाई थी. लोग बताते हैं कि तब वहां शहर की नगरपालिका के अध्यक्ष बाबू नरू सिंह, बोनू बोराल एवं संतोष ठाकुर जैसे जमींदारों का लगभग जमीन पर कब्जा था. एकीकृत बिहार था. मजबूती के साथ भूमि संघर्ष प्रदेश के अलग-अलग हिस्से में चल रहा था. उसकी धमक बैरिया जैसे सुदूरवर्ती इलाके में भी सुनाई पड़ी थी. संघर्ष और आंदोलन का नतीजा यह रहा कि हरिजनों को जमीन  (बासगीत) का पर्चा मिला. उनके नाम से जमीन की बंदोबस्ती हुई. राजीव कुमार जैसे राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने मुसहरों को संगठित करके उनको रहने के लिए जमीन देने का आंदोलन किया. 21 मुसहरों के लिए दो डीसमील के हिसाब से करीब 42 डीसमील जमीन का बासगीत के लिए बंदोबस्त हुआ. धीरे-धीरे गांव के सामाजिक ढांचे में बदलाव की वजह से सामंती ताकतों ने शहर का रुख किया. समय के साथ आंदोलन भी कमजोर पड़ा. बदलते सामाजिक परिवेश और जमीन के लिए कमजोर होते आंदोलन का फायदा नवसामंतों ने उठाना शुरू किया. बैरिया के हरिजन टोला जैसे इलाके जमीन की लूट का निशाना बने. कुछ पुराने जमींदारों के वारिसों ने और कुछ जमीन के दलालों ने उस इलाके की जमीन बेचनी शुरू कर दी. अब वहां चारों तरफ कंक्रीट का जंगल बन गया है.

नियम की बात करें तो बंदोबस्ती की जमीन किसी कीमत पर खरीदी-बेची नहीं जा सकती. लेकिन पलामू में नियम-कानून कागजों में दफन होते रहे हैं. अब भी होते हैं. तभी जमीन के उन टुकड़ों को, जिन्हें किसी भी हाल में नहीं बेचा जा सकता, धड़ल्ले से बेचा जा रहा है. और पलामू में इस बात को भी हैरतअंगेज नहीं माना जा सकता कि प्रशासन और भूमाफिया आपस में मिलकर इस जमीन का दाखिल खारिज (राजस्व रिकार्ड में जमीन के स्वामित्व का हस्तांतरण) भी कर या करवा रहे हैं. उदाहरण के तौर पर, खाता संख्या-72, प्लांट संख्या-307 के मनोज भुईयां, रघुनाथ भुईयां, टेबर भुईयां, सरोज भुईयां, प्रमोद भुईयां, रामजी भुईयां, मंगरू भुईयां आदि नाम से बंदोबस्त जमीन को देखा जा सकता है, जिसे बेचा जा चुका है. मुसहरों के 42 डीसमील जमीन के अगल-बगल की जमीन भी बिक चुकी है. मुसहरों की जमीन का प्रशासन द्वारा सीमांकन नहीं होने से ऐसे हालात बने हैं. हालात ये भी हैं कि उनकी जमीन पर कब दूसरे लोग काबिज हो जाएंगे यह कोई नहीं जानता. और फिर यह मामला कोई बैरिया मोहल्ले भर का नहीं है. शहर से सटे चियांकी में भी स्थिति कुछ इसी तरह की है. वहां भी बसने के लिए बारह मुसहर परिवारों को जमीन मिली है. सरकारी प्रक्रिया से उस पर इंदिरा आवास भी पास हो गया है, लेकिन जब मुसहर घर बनाने जाते हैं तो वहां के स्थानीय दबंग यह कहकर उन्हें भगा देते हैं कि यह उनकी जमीन है.

जमींदारों के जुल्मो-सितम के लिए मशहूर पलामू में नये जमींदार जमीन के जरिए रोज ऐसी कहानियां बना रहे हैं

पूरे पलामू में जुल्मो-सितम और लूट-खसोट के तरह-तरह के किस्से मिलते हैं. सुदूरवर्ती इलाकों के किस्से तो अपनी मौत मरते ही थे मगर अब शहरी क्षेत्र में भी ऐसी मनमानी हो रही है और वह कोई मसला नहीं बन रहा.प्रशासन और राजनीति की लापरवाही उनके लोगों से बातचीत में साफ झलकती है. पलामू प्रमंडल के आयुक्त राजीव सिंह कहते हैं कि उन्हें तो ऐसी किसी बात की जानकारी ही नहीं है. एक पूर्व आयुक्त से बात होती है तो उनका जवाब होता है कि उनके कार्यकाल में ऐसा कोई मामला नहीं आया था और फिर अब तो वे वहां हैं ही नहीं, इसलिए इस पर क्या चर्चा करें. जमीन आदि का मामला एसडीओ के पास ज्यादातर होता है. पलामू के एसडीओ सुधीर दास कहते हैं, ‘एक जगह का मामला तो उनके संज्ञान में आया है. वहां के लोगों ने आवेदन सौंपा है, हमने अंचलाधिकारी को उसे देखने का निर्देश दे दिया है.’ पलामू के कांग्रेसी विधायक केएन त्रिपाठी तहलका से बातचीत में हैरानी व्यक्त करते हुए कहते हैं, ‘ऐसी किसी बात की भनक तक नहीं है मुझे. मैं तुरंत पता करवा के कार्रवाई करुंगा, आंदोलन करूंगा.’ सबके पास अपने रटे-रटाए जवाब हैं. प्रशासनिक और राजनीतिक तंत्र के लोगों का यह कहना है कि मुसहरों या भुइयां समुदाय के लोगों को लिखकर देना चाहिए. उन्हें कौन बताए कि वे लिखना नहीं जानते और अगर जानते भी हैं तो पलामू में उन्हें लिखने क्या जुबान खोलने तक की भारी कीमत अदा करनी पड़ती है.

अब हालत यह है कि मुसहरों के हाथों में सिर्फ पर्चा है जमीन का सीमांकन करके प्रशासन उन्हें कब्जा  दिलवा देगा, इसकी उम्मीद कम ही है. मुसहर थाने से लेकर हर जगह का दरवाजा खटखटा चुके हैं. यह प्रशासनिक संवेदनहीनता एवं भूमाफियाओं द्वारा लूट की एक छोटी-सी कथा है. कुछ दिनों बाद जब भूख, अकाल और गरीबी से बिलबिलाते क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाला शहर डालटनगंज चमकता हुआ दिखने लगेगा तो उस चमक के अंदर कितने मंगरूओं की कब्र होगी, इससे किसी को मतलब नहीं.

गोदान : किसान की शोकगाथा

सन 1935 में लिखे होने के बावजूद प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ को पढ़ते हुए आज भी लगता है जैसे इसी समय के ग्रामीण जीवन की कथा सुन रहे हों. इसकी वजह बहुत कुछ यह भी है कि बीते 75 वर्षों में परिस्थितियां तो काफी बदलीं लेकिन देहाती जीवन काफी हद तक ठहरा ही रहा है. बल्कि ठीक-ठीक कहें तो बदलाव खराब हालात की दिशा में हुआ. प्रेमचंद ने जिस गांव का चित्रण किया उसे आप समूचे किसानी समाज के लघु संसार की तरह पढ़ सकते हैं. यह समाज अंग्रेजी उपनिवेशवादी शासन के तहत टूटकर बिखर रहा था. इसके केंद्र में किसान थे जिनका प्रतिनिधि होरी उपन्यास का हीरो है; लेकिन कैसा हीरो? जो लगातार मौत से बचने की कोशिश करता रहता है लेकिन बच नहीं पाता और 60 साल की उम्र भी पूरी नहीं कर पाता. इसी ट्रेजेडी को रामविलास शर्मा ने धीमी नदी का ऐसा बहाव कहा है जिसमें डूबने के बाद आदमी की लाश ही बाहर आती है. किसान का जीवन सिर्फ खेती से जुड़ा हुआ नहीं होता; उसमें सूदखोर, पुरोहित जैसे पुराने जमाने की संस्थाएं तो हैं ही नये जमाने की पुलिस, अदालत जैसी संस्थाएं भी हैं. यह सब मिलकर होरी की जान लेती हैं.

गोबर के आचरण में हम भारत के मजदूर वर्ग के निर्माण के शुरुआती लक्षणों को देख सकते हैं

आज भी किसान बहुत कुछ इन्हीं की गिरफ्त में फंसकर जान दे रहा है. असल में खेती के सिलसिले में अंग्रेजों ने जो कुछ शुरू किया था उसे ही आज की सरकार आगे बढ़ा रही है और होरी की मौत में हम आज के किसानों की आत्महत्याओं का पूर्वाभास पा सकते हैं. अंग्रेजों ने जो इस्तमरारी बंदोबस्त किया था उसी के बाद किसानों और केंद्रीय शासन के बीच का नया वर्ग जमींदार पैदा हुआ. इस व्यवस्था के तहत तब गांवों की जो हालत थी उसे प्रेमचंद के जरिए देखें, ‘सारे गांव पर यह विपत्ति थी. ऐसा एक भी आदमी नहीं जिसकी रोनी सूरत न हो मानो उसके प्राणों की जगह वेदना ही बैठी उन्हें कठपुतलियों की तरह नचा रही हो. चलते फिरते थे, काम करते थे, पिसते थे, घुटते थे इसलिए कि पिसना और घुटना उनकी तकदीर में लिखा था. जीवन में न कोई आशा है, न कोई उमंग, जैसे उनके जीवन के सोते सूख गए हों और सारी हरियाली मुरझा गई हो.’ उस समय भारत के अर्थतंत्र के सबसे प्रमुख क्षेत्र के उत्पादकों की यही हालत थी. थोड़ी ही देर में इसकी वजह का भी वे संकेत करते हैं, ‘अभी तक खलिहानों में अनाज मौजूद है पर किसी के चेहरे पर खुशी नहीं है. बहुत कुछ तो खलिहान में ही तुलकर महाजनों और कारिंदों की भेंट हो चुका है और जो कुछ बचा है, वह भी दूसरों का है. भविष्य अंधकार की भांति उनके सामने है. उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता. उनकी सारी चेतनाएं शिथिल हो गई हैं.’ गौर करने की बात है कि आज भी किसानों की आत्महत्याओं के पीछे इन्हीं सूदखोरों की मनमानी देखी गई है.
उपन्यास के नायक होरी पर यह विपत्ति जिस घटना के कारण टूटती है वह है उसके बेटे का अंतर्जातीय विवाह और दोबारा हम इस मामले में हाल के दिनों में उभरी एक और हत्यारी संस्था का पूर्वाभास पा सकते हैं. होरी के बेटे गोबर को दूसरी जाति की एक विधवा लड़की से प्रेम हो जाता है. वह गर्भवती हो जाती है. गोबर लाकर उसे घर में रख देता है. गर्भवती बहू को मां-बाप घर से नहीं निकालते. आज की खाप पंचायतों की तरह ही धर्म और मर्यादा की रक्षा पंचायत करती हैं और होरी को जाति बाहर कर देती हैं. सामुदायिकता पर आधारित ग्रामीण जीवन में दूसरों के सहयोग के बिना किसान का जीना असंभव हो जाता है. इसलिए जब वह जाति में आने के लिए गांव के बड़े लोगों के पैर पकड़ता है तो वे पंचायत करके साजिशन उस पर अस्सी रुपये का जुर्माना लगा देते हैं. जुर्माना अदा करने में उसका सारा अनाज पंचों के घर पहुंच जाता है.

यह उपन्यास किसान के क्रमिक दरिद्रीकरण की शोक गाथा है. पांच बीघे खेत की जोत वाला किसान सामंती वातावरण में क्रमश: खेत गंवाकर खेत मजूर हो जाता है. इस प्रक्रिया में जो सामंती ताकतें किसान को लूटती हैं उन्हीं का साथ शासन की आधुनिक संस्थाएं भी देती हैं. उपन्यास का एक जालिम पात्र झिंगुरी सिंह कहता है, ‘कानून और न्याय उसका है जिसके पास पैसा है. कानून तो है कि महाजन किसी असामी के साथ कड़ाई न करे, कोई जमींदार किसी कास्तकार के साथ सख्ती न करे; मगर होता क्या है. रोज ही देखते हो. जमींदार मुसक बंधवा के पिटवाता है और महाजन लात और जूते से बात करता है. जो किसान पोढ़ा है, उससे न जमींदार बोलता है, न महाजन. ऐसे आदमियों से हम मिल जाते हैं और उनकी मदद से दूसरे आदमियों की गर्दन दबाते हैं.’
जिस इलाके की कहानी इस उपन्यास में कही गई है वहां अन्य फसलों से अधिक गन्ने की खेती होती थी. गन्ने की पेराई से पारंपरिक तौर पर गुड़ बनाने से नकद रुपया न मिलता था. परिस्थिति में बदलाव आया चीनी मिलों के खुलने से जिनके मालिक खन्ना साहब भी अपनी मिलों के चलते इसी अर्थतंत्र के अंग हैं. वे बैंकर भी हैं और उद्योगपति भी. उनकी मिल में नकद दाम मिलने की आशा किसानों को होती है और उसी के साथ यह भी कि शायद ये पैसे महाजनों-सूदखोरों से बच जाएं, लेकिन गांव के सूदखोर मिल में भुगतान कार्यालय के सामने से अपना कर्ज वसूल करके ही किसानों को जाने देते हैं. आज भी गन्ना किसानों के साथ यही होता है.

ग्रामीण अर्थतंत्र का ही एक हिस्सा जमींदार भी है. उस गांव के जमींदार राय अमरपाल सिंह हैं और उनके जरिए प्रेमचंद तत्कालीन राजनीति पर भी टिप्पणी करते हैं क्योंकि किसान के शोषण की यह प्रक्रिया बिना राजनीतिक समर्थन के अबाध नहीं चल सकती थी. यहीं प्रेमचंद उस समय की कांग्रेसी राजनीति की आलोचना करते हैं. उनकी आलोचना को समय ने सही साबित किया है. रायसाहब जमींदार हैं और कांग्रेस के नेता भी हैं. वे अंग्रेजों द्वारा भारतीय लोगों की शासन में कथित भागीदारी के लिए गठित कौंसिल के मेंबर भी हैं. इस कांग्रेसी राजनीति की भरपूर आलोचना धनिया के मुंह से प्रेमचंद ने कराई है, ‘ये हत्यारे गांव के मुखिया हैं, गरीबों का खून चूसनेवाले! सूद ब्याज, डेढ़ी सवाई, नजर नजराना, घूस घास जैसे भी हो गरीबों को लूटो. जेल जाने से सुराज न मिलेगा. सुराज मिलेगा धरम से, न्याय से.’

रायसाहब तीसरी बार जब चुनाव लड़ते हैं तो सीमित मताधिकार वाली उस कौंसिल के चुनाव में ही आगामी भ्रष्ट राजनीतिक भविष्य के दर्शन पाठकों को होते हैं. ‘अब तक वह दो बार निर्वाचित हो चुके थे और दोनों ही बार उन पर एक-एक लाख की चपत पड़ी थी; मगर अबकी बार एक राजा साहब उसी इलाके से खड़े हो गए थे और डंके की चोट पर ऐलान कर दिया था कि चाहे हर एक वोटर को एक एक हजार ही क्यों न देना पड़े…. .’ चुनाव की बिसात पर अपना उल्लू सीधा करने वाले एक पात्र तंखा में हमें आज के लॉबिस्ट दलालों के पूर्वज दिखाई पड़ते हैं. तंखा साहब का गुणगान प्रेमचंद के ही हवाले से सुनिए, ‘मिस्टर तंखा दांव पेंच के आदमी थे, सौदा पटाने में, मुआमला सुलझाने में, अड़ंगा लगाने में, बालू से तेल निकालने में, गला दबाने में, दुम झाड़कर निकल जाने में बड़े सिद्धहस्त. कहिए रेत में नाव चला दें, पत्थर पर दूब उगा दें. ताल्लुकेदारों को महाजनों से कर्ज दिलाना, नई कंपनियां खोलना, चुनाव के अवसर पर उम्मीदवार खड़े करना यही उनका व्यवसाय था.’ ऐसे ही लोगों का जोर देखकर मिर्जा साहब नाम का एक पात्र कहता है, ‘जिसे हम डेमोक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े-बड़े व्यापारियों और जमींदारों का राज्य है, और कुछ नहीं.’

खन्ना साहब की चीनी मिल भी किसानी अर्थव्यवस्था से ही जुड़ी हुई है. होरी का बेटा गोबर जब अपनी गर्भवती प्रेमिका के साथ गांव में रहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता तो लखनऊ भागकर अंतत: इसी चीनी मिल में काम पाता है. गोबर के आचरण में हम भारत के मजदूर वर्ग के निर्माण के शुरुआती लक्षणों को देख सकते हैं और गांवों की हालत से भागकर शहर में काम करने वाले नौजवानों की चेतना के दर्शन भी हमें होते हैं. कुल मिलाकर प्रेमचंद ने गोदान में उपनिवेशवादी नीतियों से बर्बाद होते भारतीय किसानी जीवन और इसके लिए जिम्मेदार ताकतों की जो पहचान आज के 75 साल पहले की थी वह आज भी हमें इसीलिए आकर्षित करती है कि हालत में फर्क नहीं आया है बल्कि किसान का दरिद्रीकरण तेज ही हुआ है और मिलों की जगह आज उसे लूटने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां आ गई हैं. यहां तक कि जातिगत भेदभाव भी घटने की बजाय बढ़ा ही है. उसे बरकरार रखने में असर-रसूख वाले लोगों ने नये-नये तरीके ईजाद कर लिए हैं.            

14 अगस्त का पैगाम 15 अगस्त के नाम

वह यहां के हालात भलीभांति देख-समझ चुका था क्योंकि 14 अगस्त 15 अगस्त से पहले आता है. उसने जो देखा-सुना, महसूस किया, वह 15 अगस्त को बताना मुनासिब समझा, ताकि जब वह आए तो पूरी तैयारी से. सो उसने 15 अगस्त को एक मेल भेजा

यहां मैं देख रहा हूं कि सर्वोच्च पंचायत को सजाया-संवारा जा रहा है. सरकारी इमारतों का रंगरोगन किया जा रहा है. तुम आओ तो सही, नेताओं, उद्योगपतियों, दलालों, अफसरों, ठेकेदारों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कतार तुम्हारे स्वागत के लिए तैयार है. तुम्हारी आवभगत में सबसे पहले और सबसे आगे तुम्हें वीआईपी खडे़ मिलेंगे, जो बड़ी से बड़ी विपदा सिरहाने खड़ी होने पर भी बैठे या लेटे मिलते हैं. तुम खुशी से फूले नहीं समाओगे जब ये तुम्हारा स्वागत बैठे-लेटे नहीं खडे़-खडे़ कर रहे होंगे.

अच्छा, आ कैसे रहे हो? रेलमार्ग से! तो मैं तुम्हें बताना चाहूंगा कि अभी ट्रेन पलटी है. वायुमार्ग से! तो मैं बता दूं कि मिग से मत आना. जल मार्ग से! बाढ़ का खतरा तैर रहा है. थल मार्ग से! तो बटुआ रख, खाली हाथ आना. हो सके तो आधी रात को आने से बचना. अगर तुम्हारे जेब में 20 रुपया भी है, तो तुम अपने को खतरे में जानो. यहां शहर में 20 रुपया कमाने वाला गरीब नहीं कहलाता. तुम आओ और सीधे लालकिले के प्राचीर पर विराजो.

यहां जब तरह-तरह के रंग-बिरंगे कार्यक्रम देखोगे, तो तुम्हारा मन पुलकित हो जाएगा. तुम्हारे आगमन पर प्यारे-प्यारे बच्चे देशभक्ति के गीत गाएंगे. यह सच है कि दुनिया में सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे यहां पाए जाते हंै, मगर तुम निश्चिंत रहो, ये तंदुरुस्त होंगे. आदिवासी नृत्य खास आकर्षक होगा तुम्हारे लिए. ये आदिवासी विस्थापित वाले नहीं हैं. वे तो दिल्ली से सूदूर हैं. हालांकि वे भी अपने वाजिब मुआवजे की तर्ज पर सरकारी महकमे की ताल पर नाच रहे हैं. मगर उसको नहीं दिखाया जाएगा क्योंकि नाच हो या नौटंकी जो राजधानी में हों वे ही अच्छे दिखते हैं.

एक जरूरी बात तो बताना ही भूल गया. यहां आते वक्त अगर पुलिस से रास्ते में भेंट हो जाए तो फौरन अपना रास्ता बदल लेना. खुदा न खास्ता अगर दूसरी राह पर भी भेंट हो जाए तो फौरन कुछ भेंट चढ़ा कर उनसे मुक्ति पा लेना. यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं. तुम्हारे आने से पहले का एक पुलिसिया वाकया सुनाता हूं. एक दिन आधी रात को खुले मैदान में सोते हुए औरतों और बच्चों पर पुलिस ने जमकर लाठी भांजी. अगर तुम उस दिन आते तो आंखे मींच कर यही सोचते कि तुम्हारे स्वागत के लिए आजादी के पहले की घटना पर बने किसी नाटक की रिहर्सल हो रही है. चलो कोई नहीं.

यहां आने से पहले एक बात और बता दूं कि आजकल भ्रष्टाचार का मुद्दा खूब छाया है. मजे की बात यह भी है कि भ्रष्टाचार भी छाया हुआ है. और इससे भी ज्यादा मजे की बात यह है कि चहुं ओर भ्रष्टाचारी ही छाए हुए है. देखना, तुम्हारे आगमन पर किसी नयी योजना की घोषणा हो जाएगी. जिसे सुन पब्लिक खुश हो न हो, भ्रष्टाचारी अवश्य खुश होगा. आओगे तो तुम खुद ही देखोगे.
मेरे ख्याल से इतनी जानकारी काफी होगी तुम्हारे लिए. अब तुम सोचोगे कि आऊं या न आऊं. मन हो या न हो, तुम्हें तो आना ही पडे़गा, क्योंकि यह देश तो आजाद है.

-अनूप मणि त्रिपाठी

अंतर्कलह के साथ संघर्ष का शंखनाद

बिहार में लंबे समय बाद विपक्षी खेमे में सुगबुगाहट हो रही है. लालू प्रसाद मौन व्रत तोड़ सड़क पर उतर चुके हैं. जदयू सांसद उपेंद्र कुशवाहा भी संघर्ष का शंखनाद करने वाले हैं. भाकपा माले आंदोलन की शुरुआत कर चुकी है. बगैर किसी चुनावी सरगर्मी के राज्य की राजनीति में कुछ गरमाहट दिख रही है, लेकिन क्या इससे नीतीश के लिए चिंताएं जगती हैं?  निराला की रिपोर्ट

छह अगस्त को बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव व उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने पटना के जेपी गोलंबर पर महाधरना का आयोजन किया. पांच सितंबर को फारबिसगंज मार्च की घोषणा हुई. लालू प्रसाद ने 11 अक्तूबर को फिर जेपी गोलंबर पर ही जुटने का आह्वान किया. उस दिन राजभवन मार्च होगा. नवंबर में वे गांधी मैदान में रैली-रैला जैसा भी कुछ करेंगे. इससे एक दिन पहले भाकपा माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य के नेतृत्व में पार्टी कार्यकर्ताओं ने गांधी मैदान के ही दूसरे छोर पर धरना-प्रदर्शन किया था. उनकी पार्टी अब जेल भरो अभियान में लगी है और नवंबर मंे खेत-मजदूर सभा के बैनर तले प्रदेश भर के पार्टी कार्यकर्ता व उनकी विचारधारा से ताल्लुक रखने वाले किसान-मजदूर गांधी मैदान में जमा होंगे. उधर, बागी बनकर भी जदयू का ही दामन थामे रहने वाले और बिहार नव निर्माण मंच बनाकर नयी राजनीतिक संभावना तलाशने में लगे उपेंद्र कुशवाहा और मंगनीलाल मंडल भी गांधी मैदान के तीसरे छोर पर बने श्रीकृष्ण मेमोरियल हाॅल में चार सितंबर को संघर्ष का शंखनाद करने वाले हैं.

यानी एक लंबे अरसे के बाद बिहार में विपक्षी दलों की अंगड़ाई शुरू हुई है. हार की मार से टूट चुके विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं में कुछ जोश दिख रहा है. विपक्ष ने बियाडा का गड़बड़झाला, फारबिसगंज कांड आदि के मसले पर सरकार को घेरने की कोशिश शुरू की है. अमूमन सभी के मुद्दे एक-से हैं, रास्ते भी कुछ-कुछ एक तरह के लेकिन बिखराव पटना गांधी मैदान के तीनों छोरों पर हुए अथवा होने वाले आयोजनों की तरह बरकरार है. इसी का नतीजा है कि फारबिसगंज कांड, बियाडा गड़बड़झाला जैसे मुद्दों पर भी सरकार इत्मीनान के मूड में दिख रही है. महालेखाकार की रिपोर्ट में अनियमितताओं का पुलिंदा तो तैयार हो रहा है लेकिन सरकार उसे लेकर परेशान नहीं दिखती. यह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के उस बयान से भी जाहिर हो जाता है जिसमें उन्होंने कहा था कि विपक्ष आंदोलन करे, धरना-प्रदर्शन करे, यह तो उसका काम ही है लेकिन लालू जी तो दो घंटे में ही धरना समेट कर दिल्ली उड़ जाते हैं.

सवाल यह भी है कि गंभीर मामलों में लालू की अब भी उतनी ही अगंभीरता क्या लोगों को अपील करेगी

यानी विपक्षी दलों की इस सुगबुगाहट से सरकार को तुरंत कोई मुश्किल होगी, ऐसा नहीं लगता. हां, दो वर्ष बाद जब लोकसभा चुनाव की राजनीतिक तैयारी का शंखनाद होगा तो समीकरण बदल सकते हैं. राज्य में हुए पंचायती चुनाव में भी इसके संकेत मिल चुके हैं. ये चुनाव दलीय आधार पर तो नहीं हुए थे लेकिन सत्तारूढ़ गठबंधन समर्थित प्रत्याशियों की भद्द पिटने से इसके संकेत मिले थे. पंचायत के इसी समीकरण को लोकसभा चुनाव में भी बदलने के लिए अभी से कोशिशें हो रही हैं. लेकिन कोशिशों में बिखराव दिखता है. हालांकि राजद नेता रामबिहारी सिंह इससे इनकार करते हुए कहते हैं,’बिखराव की बात करने से पहले यह सोचिए कि चुनाव के बाद ऐसा लगा था जैसे विपक्ष तो कहीं बचा ही नहीं है. न सदन में, न सड़क पर. अब विपक्ष की गतिविधियां तेज होने का एक बड़ा मतलब यह समझिए कि सत्ता पक्ष कहीं न कहीं से कमजोर हो रहा है.’

लड़ाई नयी, फॉर्मूला वही!

छह अगस्त को लालू प्रसाद व उनकी पार्टी ने जिस जेपी गोलंबर पर महाधरना का आयोजन किया वह लालू के लिए बहुत ही खास जगह है. 1990 में जब उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी तो गांधी मैदान की बजाय इसी जगह को चुना था. एक बार फिर लालू ने वही जगह चुनी. तर्क भी दिया कि 20 साल पहले बिहार में सामाजिक बदलाव की बयार बहाने के लिए जेपी के सामने संकल्प लिया था, इस बार सामाजिक न्याय के नाम पर हो रहे अन्याय के खात्मे का संकल्प ले रहा हूं. हालांकि लालू के बारे में उनके कुछ साथी कहते हैं कि लंबे समय तक सत्ता में रहने के बाद उनसे सत्ता की आदत नहीं छूट रही है इसलिए विपक्ष की राजनीति करने में उन्हें तमाम तरह की मुश्किलों से खुद ही जूझना पड़ रहा है. यह बात महसूस भी होती है. फारबिसगंज मामले पर जब प्रदेश की राजनीति गरमाने की स्थिति में थी अथवा उस एक गंभीर व बड़े मसले को लेकर सरकार की घेराबंदी कई तरीके से की जा सकती थी,तब लालू का एक भी गंभीर बयान नहीं आना,उनके ही दल के नेताओं-कार्यकर्ताओं को भी अखर गया था. तब अब्दुल बारी सिद्दिकी ने फारबिसगंज मामले की कमान संभाली हुई थी. लालू दिल्ली अभियान में लगे हुए थे. लालू के बोलने और अब्दुल बारी सिद्दिकी के बोलने में फर्क तो होता ही है. अब जबकि लालू एक बार फिर से बिहार के राजनीतिक मैदान में नयी किस्म की पारी खेलने के लिए कमर कसते हुए दिख रहे हैं तो स्वाभाविक चर्चा हो रही है कि उन्हें जब केंद्रीय मंत्रिमंडल में कोई जगह नहीं मिल सकी तो बिहार की राजनीति की याद आ रही है.

लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि क्या लालू का वही तरीका अब भी कारगर होगा या जो 20 साल पहले उन्हें नायक बनाने में कारगर साबित हुआ था और उसका असर बरसों तक रहा. इन 20 वर्षों में क्या बिहार में काफी बदलाव नहीं आ गया? गंभीर मामलों में अब भी उतनी ही अगंभीरता लोगों को अपील करेगी? और यह सब तब जब लालू को नीतीश जैसे नेता का मुकाबला करना है जो अपनी छवि को लेकर सबसे ज्यादा सचेत रहने वाले नेता माने जाते हैं.

विपक्ष की अंगड़ाई तो दिखती है लेकिन इससे किसी बड़ी लड़ाई के उभरने की संभावना नहीं लगती

छह अगस्त को हुए महाधरने में लालू ने संबोधन के पहले ही बात-बात में पार्टी के महासचिव रामकृपाल यादव को किसी बात पर झिड़की लगाई तो यह कुछ पार्टी नेताओं को ही अच्छा नहीं लगा. रामकृपाल वर्षों से लालू के दायें-बायें रहते हैं, इसलिए संभव है,उन्हें सब कुछ सामान्य व सहज लगता हो लेकिन पार्टी में बड़े नेता की हैसियत रखने के बावजूद यदि सार्वजनिक मंचों पर लालू अब भी झिड़की देते रहते हैं तो कार्यकर्ताओं के बीच में इसका संदेश गलत ही जाता है. बावजूद इसके वे ऐसा बार-बार करते हैं. कुछ कहते हैं कि जान-बूझकर करते हैं ताकि सबको साफ संदेश मिलता रहे कि नेता बस एक ही है, वह खुद लालू प्रसाद यादव. धरना के बाद लालू  ने पटना के मौर्य होटल में प्रेस काॅन्फ्रेंस की. वहां भी गंभीर सवालों पर वे बगैर तैयारी के दिखे. विशेष राज्य दर्जा के सवाल पर यह जवाब दे गए कि यह स्थानीय अखबार वाले बताएंगे तो अमिताभ बच्चन का नाम आने पर बोल गए कि वे उनके सबसे नापसंदगी वाले कलाकार हैं. यह सब लालू जैसे नेता की झल्लाहट के रूप में ज्यादा दिख रहा है. दरअसल एक रोज पहले ही अमिताभ ने पटना में नीतीश के नेतृत्व को सराहा था. अलग-अलग शख्सियतें ऐसे जवाब बिहार में रोज ही देती रहती हैं, लेकिन लालू का इस पर आनन-फानन में इस तरह प्रतिक्रिया देना उनकी गंभीरता पर प्रश्न भी लगाता है.

बावजूद इन सभी बातों के लालू विपक्ष की राजनीति करने के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं, यही उनके कार्यकर्ताओं व नेताओं के लिए मानसिक संबल प्रदान करने वाला साबित हो रहा है. लालू को भी पता है कि ये सारी तैयारियां आगामी लोकसभा चुनाव के लिए हो रही हैं. तब आज से ही लालू को यह भी तय करना होगा और गांव-गांव में जाएंगे तो यह भी साफ करना होगा कि नीतीश के खिलाफ तो वे हैं ही लेकिन कांग्रेस के प्रति उनका क्या नजरिया है, जिसके हालिया किस्से-कहानियों से गांव-गांव वाकिफ हो चुका है. महंगाई भी कोई कम बड़ा मसला नहीं. लालू खुद कहते हैं कि अगर कार्यकर्ता उनका साथ नहीं देंगे तो वे खुद ही माइक बांधकर जीप से गांव-गांव जाएंगे और नीतीश सरकार की पोल खोलेंगे लेकिन केंद्र सरकार के खिलाफ चुप्पी और राज्य सरकार के खिलाफ बतकही पर लालू प्रसाद क्या सभी जगह जवाब दे पाएंगे?

कैसा है यह बंधन अनजाना

नीतीश सरकार के खिलाफ जब विपक्षी दलों की सक्रियता बढ़ती हुई दिख रही है तो ऐसे में रामविलास पासवान की राह लालू प्रसाद से कुछ अलग-सी है.  लालू की तुलना में पासवान आंकड़ों व तथ्यों के साथ बात करने वाले नेता माने जाते हैं. फारबिसगंज कांड पर लालू से पहले उन्होंने पटना में धरना भी दिया. जानकार कहते हैं कि अगर दोनों पार्टियों में चुनाव हारने के बाद एका जैसी बात होती तो इस एक मामले को लेकर भी कुछ और ताकत बढ़ी हुई दिखती लेकिन फारबिसगंज कांड पर अलग-अलग प्रदर्शन के पहले पूर्णिया चुनाव में भी दोनों दलों ने अलग-अलग रास्ते अपनाकर यह संकेत दिया है कि फिलहाल रास्ते अलग ही रहेंगे. दोनों दलों की मुश्किलें भी आजकल एक-सी हंै. पासवान की पार्टी के नेता एकमुश्त नीतीश के पाले में चले गए. लालू के भी पुराने संगी-साथी नीतीश के खेमे में शामिल होने को आतुर हैं और जा भी रहे हैं, फिर भी दोनों पार्टियों में एका नहीं दिख रहा, जो नीतीश सरकार में निश्चिंतता का भाव भरता है.

विकल्प बनने की कोशिश

लालू, नीतीश और रामविलास जैसे तीनों दिग्गजों से अलग एक वैकल्पिक मोर्चे को लेकर जदयू के राज्यसभा सांसद उपेंद्र कुशवाहा, मंगनी लाल मंडल जैसे नेता कोशिश करते हुए दिख रहे हैं. नीतीश के खेमे में ही रहकर नीतीश पर लगातार वाकप्रहार कर रहे कुशवाहा ने बिहार नव निर्माण मंच का गठन किया है. चार सितंबर को मंच का एक बड़ा सम्मेलन श्रीकृष्ण मेमोरियल हाॅल में होने वाला है. इस मंच में जदयू के पूर्व सांसद अरुण कुमार, समाजवादी कार्यकर्ता सत्यनारायण मदन, पूर्व सांसद व ऑल इंडिया यूनाइटेड मुसलिम मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष एजाज अली जैसे लोग शामिल होने वाले हैं. मुजफ्फरपुर में जब रहस्यमयी मौत का सिलसिला चला तो मंच के नेताओं ने वहां कूच किया. फारबिसगंज कांड के बाद वहां भी गए. ये सारी कोशिशें तो ठीक लगती हैं लेकिन एक सवाल ही इतना बड़ा है कि मंच के सारे अभियानों को विपक्षी स्वर की बजाय संभावना तलाशने वाले अभियान में बदल देता है. मंच के नेतृत्वकर्ता उपेंद्र कुशवाहा जदयू छोड़कर यह सब करते तो सवाल खड़े नहीं होते लेकिन वे जदयू में रहते हुए उसके खिलाफ बोल रहे हैं तो सवाल यही उठाया जा रहा है कि पहले उपेंद्र कुशवाहा सांसदी का मोह तो छोडें तब कुछ कहेंगे, करेंगे तो असर होगा वरना यह विपक्षी अभियान तो वैसा ही होगा कि गुड़ खाएं, गुलगुले से परहेज! बिहार नव निर्माण मंच के नेता व पूर्व सांसद डॉ. एजाज अली कहते हैं, ‘अभी यह समय आंदोलन का है. विपक्षी दल आंदोलन कर रहे हैं, सबकी मांगें एक-सी हैं तो समय आने पर सभी विपक्षी दल सरकार के खिलाफ एक मंच पर आएंगे भी. रही बात उपेंद्र कशवाहा के सांसदी छोड़ने की तो जदयू को उन्हें हटाने का साहस दिखाना चाहिए. जदयू क्यों नहीं हटा रही?’

यानी कुल मिलाकर विपक्ष की अंगड़ाई तो दिखती है लेकिन इससे किसी बड़ी लड़ाई के उभरने की संभावना नहीं लगती. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता उपेंद्र नाथ मिश्र कहते हैं, ‘नीतीश की दूसरी पारी में विपक्ष अब तक तो एक होकर कोई आंदोलन नहीं कर सका है और राजद, लोजपा, कांग्रेस जैसे दलों से इसकी संभावना भी कम बनती है. केंद्र के कारनामों की वजह से कांग्रेस कहीं बोलने की स्थिति में नहीं है, लालू जी का कोई भरोसा ही नहीं है कि आज इधर हैं, कल किधर होंगे.’

'किन मोरी अवध उजारी रे'

छह दिसंबर, 1992 इस तारीख की कड़वाहट समझने लायक तब शायद मेरी उम्र नहीं थी, लेकिन उस सर्द रात की गर्माहट मैं अब भी महसूस करता हूं. एक दिन, जिसके बाद मेरा सीधा-सादा शहर अचानक बदल गया था. यह बात मेरी समझ में देर से आई कि क्यों भला उस दिन के बाद मैं तंजिला आपी के घर नहीं जा सकता, जबकि उनके अहाते में लाल गूदेदार अमरूद का पेड़ है. या, मां मुझे सद्दाफ के साथ खेलने से क्यों मना करती है, जबकि वह गणित के उन सवालों को भी चुटकियों में हल कर लेता है जो मेरे माथे के ऊपर से गुजरते हैं. या फिर, कैसे एक रात अचानक घर से मेरे स्कूल की दूरी इतनी बढ़ गई कि हमें हमारा मोहल्ला ही छोड़ना पड़ गया.

ऐसा लगा कि राम और रमजाना के बीच सारी बातें पहले से ही तय हैं. दोनों को अपने हस्तक्षेप का दायरा मालूम था

किताब के पन्नों की तरह दिन और कहानियों की तरह शहर बदलते रहे, लेकिन ये बातें मेरी यादों की गठरी में जस की तस पड़ी रहीं. जब कभी मुंबई में ‘हर-हर महादेव’ या ‘अल्लाह-ओ-अकबर’ का शोर बुलंद होता या गुजरात से किसी ट्रेन के जलने की खबर आती तो मन के झोले में ये यादें कुलबुलाने लगतीं. यही वजह थी कि पिछले दिनों जब मुझे अयोध्या जाने का मौका मिला तो मैं फौरन तैयार हो गया. शायद मैं उस जमीन को नजदीक से देखना-परखना चाहता था जहां से उठे एक तूफान ने मेरे बचपन की खूबसूरत यादों का एक बड़ा हिस्सा मुझसे छीन लिया था. मेरे दोस्त, मेरा घर, मेरा शहर जो अचानक एक दिन बदल गए थे. और मैं अपने मासूमियत भरे दिनों के बीच अचानक रेतीली तपिश महसूस करने लगा था.

पहली नजर में इस शहर ने मुझे निराश किया. शहर भी नहीं, शायद एक कस्बा. यहां की हर चीज जानी-पहचानी थी. धूल से सनी सड़कें, चारों ओर पसरी गंदगी, रास्ते पर अघाते जानवर, लोगों के पास चाय की चुस्कियों के लिए बेशुमार समय और किसी भी अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर घंटो बहस करने की काबिलियत. सब कुछ एकदम देखा-दिखाया सा. किसी भी दूसरे शहर की तरह. सिवाय सुरक्षा में तैनात उन जवानों के. जो खाकी की बजाय हरी चितकबरी वर्दी पहनते हैं और जिनके हाथ में लाठी की बजाय लोहे का कोई हथियार होता है. शाम होते-होते मैं उस विवादित ढांचे के दरवाजे पर भी पहुंच गया. रामलला के दर्शन से पहले मैं पूजा सामग्री की एक दुकान में घुसा. दुकान क्या थी, लकड़ियों के पटरों को इटों के सहारे टिकाकर तैयार किया गया एक अस्थायी बंदोबस्त था. दुकान में रामलला को पूजने के लिए हर सामान मौजूद था. फूल, अगरबत्ती, रोड़ी, चंदन, हल्दी, अछत, कसैली और नारियल. बातों-बातों में पता चला कि दुकान की मालकिन मुसलमान है. मेरे पत्रकार मन ने हांक लगाई और मैं उससे बतियाने के लिए वहीं बैठ गया.
50 साल से भी अधिक की रमजाना के पास बताने के लिए जहान भर की बातें थीं. 15 बरस की उम्र में शादी, बीमारी से पति का इंतकाल, बारह धड़ों का कुनबा, पांच बेटियों की जिम्मेदारी और गुजारे के लिए यही एक आसरा.’आपके मजहब के लोग यहां ये सब बेचने की इजाजत देते हैं?’ मैंने सीधा सवाल किया.

‘कम से कम खुदा हमरा हाथ तो ना पकड़े बाबू!’ रमजाना ने खाटी भदेस लहजे में कहा, ‘इ रामलला कउनो बीस बरस से हमरा परिवार के रोजी-रोटी चलावत हैं, तो हम काहे ओकर सेवा आउ साज-सिंगार ना करी.’

ऐसा लगा कि राम और रमजाना के बीच सारी बातें पहले से ही तय हैं. दोनों को अपने हस्तक्षेप का दायरा मालूम था और उनके बीच किसी और के लिए कोई जगह नहीं थी. मुझे यह अब तक धर्म की सबसे आसान परिभाषा लगी.

मैंने सलाह दी, ‘यहां से अगर दिल्ली, कानपुर या लखनऊ चले जाओ तो जीवन आसान हो सकता है.’ रमजाना ने जो कहा वह दुनिया के सारे सवालों का जवाब हो सकता था. ‘हम कहां जाईब बाबू! हम तो इक दिन एही धरती में समा जाईब.’ राम अयोध्या छोर सकत हैं, भला  कौशल्या कईसे छोरी’

“किन मोरी अवध उजारि रे

बिलखे कौशल्या…

राम गये..सिया गयी

लखन चले बिसारी रे

कलपे कौशल्या…”

इसके बाद सवालों की गुंजाइश खत्म हो गई थी. वहां से लौटते समय मुझे यह सोचना भी बेमानी-सा लगा कि महज एक तूफान की वजह से कोई अपना घर, शहर और दोस्त छोड़ने को मजबूर हो सकता है. मुझे अपनी जड़ों की गहराई का अंदाजा हो चला था.