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चतुर अन्ना, चित्त कांग्रेस

केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार और उसके प्रमुख घटक कांग्रेस पार्टी की बुरी गत उसके दंभ की अति के चलते हुई या उसकी मतिहीनता की वजह से. या फिर दोनों ही वजहों से. तीसरी बात ज्यादा सही लगती है क्योंकि व्यावहारिक बुद्धि कहती है कि दंभ की अधिकता अक्ल को हर लेती ही है और कम अक्ल वाले किसी को यदि केंद्र सरकार और उसकी सर्वेसर्वा कांग्रेस पार्टी जैसी शक्तियां हासिल हों तो उसमें घमंड की अति होना भी स्वाभाविक ही है.

यदि ये घमंड और बेवकूफी नहीं थी तो सरकार ने टीम अन्ना और उससे जुड़े नागरिक समाज के सदस्यों की इतनी सी बात शुरुआत में ही क्यों नहीं मानी कि सरकारी बिल के साथ जन लोकपाल बिल को भी संसद में भेज दिया जाए. फिर यदि उसे केवल अपना ही बिल भेजना था तो कम से कम उसमें शिकायतकर्ता को अपराधी से ज्यादा सजा जैसे मूर्खतापूर्ण और जनता को भड़काने वाले प्रावधान तो नहीं होने चाहिए थे. अंत में संसद, देश और खुद का बहुत सारा बहुमूल्य समय और ऊर्जा बट्टे-खाते में डालकर सरकार को कैसे और क्या-क्या करना पड़ा यह हम सभी को पता है.
सरकार ने जिस प्रकार बाबा रामदेव को शह देकर उनके तथाकथित आंदोलन को कुचला और उसके बाद भी उसका बाल बांका नहीं हुआ, शायद इससे उपजा घमंड ही था कि धीरे-धीरे कर उसने टीम अन्ना की हर चुनौती को पहले नजरअंदाज किया फिर कपिल सिब्बल और मनीष तिवारी के कुतर्कों के सहारे उनसे निपटने की कोशिश की गई. अन्ना की गिरफ्तारी ने उनसे निपटने की सरकार की करेला सरीखी कोशिशों पर नीम चढ़ाने का
काम किया.

इसके बाद स्थिति बिगड़ती गई और पहले कुछ न करके अनशन के सात-आठ दिन बाद से सरकार और कांग्रेस ने जब-जब कुछ भी किया तो वह बहुत बुरी स्थितियों से खुद को बचाने के लिए करना भर लगा. वह अपनी तरफ से और जनता को ठीक लगे ऐसा करते कभी नजर नहीं आई. चाहे प्रणब मुखर्जी का मामले से जुड़ना हो या प्रधानमंत्री का देश और अन्ना हजारे को दिया आश्वासन या 27 अगस्त को संसद में बहस के बाद संसद की राय जाहिर करने का तरीका, सभी पहली नजर में ही मजबूरी में उठाए गए कदम लगे. इनके तुरंत बाद के घटनाक्रमों ने भी जैसे इसकी पुष्टि की. प्रणब मुखर्जी के साथ टीम अन्ना की बातचीत के बाद उन पर अपनी बात से मुकर जाने का आरोप लगा और प्रधानमंत्री की अन्ना को लिखी चिट्ठी से उपजी सद्भावना को राहुल गांधी के लिखित बयान की यांत्रिक एवं बौद्धिक उपदेशात्मकता ने कुंद कर दिया. आखिरी दिन संसद में चल रही बहस पर गौरव होना अभी शुरू होने को ही था कि सरकार के मुकर जाने का एक और मामला सामने आकर घंटों उसकी किरकिरी कराता रहा.

आजकल लुटियन की दिल्ली और उससे पहले दक्षिण दिल्ली के सबसे पॉश इलाकों में रहने वाले कांग्रेस पार्टी के ज्यादातर रणनीतिकार इस बात को ही नहीं समझ पाए कि उनकी दिल्ली तो सही मायनों में दिल्ली ही नहीं है समूचा हिंदुस्तान तो क्या ही होगी. अपने सारे संसाधनों आदि के बाद भी वे जनता के गुस्से और उसमें फैली निराशा को समझना तो दूर मानने को ही तैयार नहीं थे. वे अंग्रेजी के चैनलों पर विशुद्ध वकालत वाले तरीकों से सामने वाले को चुप कराने को ही अपनी सफलता मानने की गलतफहमी पालते रहे.

कांग्रेस पार्टी के ज्यादातर रणनीतिकार इस बात को ही नहीं समझ पाए कि उनकी दिल्ली तो सही मायनों में दिल्ली ही नहीं है समूचा हिंदुस्तान तो क्या ही होगीउधर अन्ना और उनके साथियों ने बकरी के शिकार के लिए शेर के शिकार वाली तैयारी और मेहनत की. उन्होंने न केवल कड़ी मेहनत और बेहतर रणनीति के बल पर जन लोकपाल को आम जनता का लक्ष्य बना दिया बल्कि अपने हर कदम की जानकारी जनता को देकर अपने हर निर्णय, जीत और निराशा को भी जनता से जोड़ दिया. पार्टी, संसद, राज्य, भाषा, जाति आदि हर बात पर मेरा-तुम्हारा करने वाली आज की राजनीति में, देश और समाज के लिए अपना सब कुछ त्यागने की इच्छा रखने वाली अन्ना की छवि सिंहासन त्याग कर राज करने वाली राजनीति के मायावी प्रभाव पर
भारी पड़ गई.

अंत में दो छवियां और बनीं और शायद एक टूटी भी. बनने वाली पहली छवि एक 74 साल के बुजुर्ग के 16 साल के युवा सरीखे उत्साह, ऊर्जा और युवाओं में मिलकर उनके जैसा हो जाने की थी. दूसरी कल तक नौजवान भारत के अगुवा कहलाने वाले युवा की ऐसी छवि थी जिसमें वह भीषण उथल-पुथल भरे 13 दिनों में सिर्फ एक बार सामने आकर वयोवृद्धों वाला बौद्धिक प्रवचन देने की कोशिश करता है.

संभव है आप फुटबॉल से भी चिढ़ने लगें : स्टैंड बाय

फिल्म  स्टैंड बाय

निर्देशक  संजय सरकार

कलाकार  सचिन खेड़ेकर, आदिनाथ कोठारे, सिद्धार्थ खेर, दिलीप ताहिल

स्टैंड बाय देखते हुए दो बातें बहुत गहराई से महसूस होती हैं. एक तो यह कि ‘चक दे इंडिया’ बनाना वाकई बहुत मुश्किल काम रहा होगा. और दूसरी यह कि क्यों हिंदी फिल्मों में आइटम गीत होने चाहिए. इन दोनों बातों के अलावा कुछ महसूस नहीं होता क्योंकि एक तो संजय सरकार पहले दस मिनट में ही आपको यह समझा देते हैं कि आगे क्या होने वाला है और फिर उम्मीद करते हैं कि आप यह समझाया हुआ भूलकर उत्सुकता से फिल्म देखें. आप शायद देखते भी, अगर उनके पास रोचक दृश्य और अच्छे डायलॉग होते. लेकिन वहां आप पर बस कहानी पूरी सुनने की जिम्मेदारी है. बीच में आदेश श्रीवास्तव जाने किस जमाने का बैकग्राउंड म्यूजिक देते हैं कि रही-सही कसर भी पूरी हो जाती है. इतना पुरानी फिल्मों टाइप संगीत कि आप रोना चाहें, तब भी हंस दें.

फिल्म के पास एक नैतिक प्रश्न वाली पुरानी कहानी है. अमीर बाप का जिद्दी बेटा जिसे किसी भी शर्त पर भारत के लिए फुटबॉल खेलना है और गरीब बाप का प्रतिभाशाली बेटा जिसे भी भारत के लिए खेलना है. तनाव बढ़ाने के लिए दोनों दोस्त भी हैं. और हां, आपने सही पहचाना. गरीब हीरो के पिता का भी सपना फुटबॉलर बनना ही था और अब वे अपने बेटे के माध्यम से यह सपना पूरा करना चाहते हैं. अब सवाल है कि जीतेगा कौन. अजी जीते कोई भी लेकिन हम यह कहानी बहुत पहले से जानते हैं और हमें अच्छा नहीं लगता कि इसी को सुनने के लिए हमें दिलीप ताहिल को झेलना पड़े जो अस्सी-नब्बे के दशक की अपनी फिल्मों के एक से किरदारों में ही कहीं फ्रीज होकर रह गए हैं और समय उनके लिए रुक गया है. सचिन खेड़ेकर और मनीष चौधरी उतना ही कर पाते हैं जितना किसी बुरी फिल्म के लिए कोई अच्छा अभिनेता कर सकता है. दोनों मुख्य किरदार आदिनाथ कोठारे और सिद्धार्थ खेर औसत-सा अभिनय करते हैं, लेकिन फिल्म में जब आपको ग्यारह की टीम में से दो ही चेहरे बार-बार दिखाए जाते हैं तो उन पर ही गुस्सा आता है. इस समय कैमरे का इतना फर्ज तो है ही ना कि वह ऐसा बर्ताव ना करे कि वह हीरो को पहले से पहचानता है. फिल्म की ज्यादातर स्त्रियां टीवी सीरियलों से भी खराब ढंग से भावुक होती हैं और ताली पीटती हैं और उनका मेकअप आपकी आंखों पर चढ़कर पूछता है कि क्या जरूरी है कि कम पैसों से बनी फिल्म का मेकअप भी सस्ती किस्म का हो.

शॉर्ट में कहें तो स्टैंड बाय पूरी तरह से चक दे इंडिया की तर्ज पर बनी है, जो क्रिकेट की लोकप्रियता के देश में एक कम लोकप्रिय खेल और उसके फेडरेशन के भ्रष्टाचार की बात करती है. लेकिन कई जगह पैसे की और कई जगह शायद समझ की कमी के कारण ज्यादातर बातें सतही किस्म के आरोप ही लगाती हैं. न जटिल समस्याओं में उतर पाती हैं और न ही रोचक हो पाती हैं. संजय गाने जरूर कलात्मक ढंग से शूट करते हैं और वे चाहे आएं अचानक, लेकिन अच्छा महसूस करवाते हैं.

गौरव सोलंकी    

मॉडलिंग से मध्यस्थता वाया संतई

अन्ना हजारे के बारह दिवसीय आंदोलन में राष्ट्रीय स्तर पर उभरे कई नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों, फिल्मी सितारों और सामाजिक सुधारकों में एक नाम ऐसा था जो ज्यादातर लोगों के लिए अब तक अनजाना-सा था. आध्यात्मिक संत भय्यू महाराज को मध्यस्थ के रूप में देख कर जेडी(यू) नेता शरद यादव भी संसद में अपने आप को कहने से नहीं रोक पाए, ’वहां एक मध्यस्थ है जो हीरो की तरह दिखता है.’

उनका कहना गलत नहीं था. आध्यात्मिक संत के तौर पर मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में अपनी पहचान बना चुके इस 43 वर्षीय युवा संत का रंग-ढंग किसी पारंपरिक संत से मेल नहीं खाता, न लंबे बाल और न ही गेरुए वस्त्र. अक्सर कुर्ते-पायजामे और माथे पर छोटे-से चंदन के टीके में दिखने वाले और व्यक्तिपूजा विरोधी भय्यू महाराज फेसबुक-ट्िवटर पर लगातार सक्रिय रहते हैं और स्कार्पियो चलाते हैं.

शुरुआती दौर में अन्ना और सरकार के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाले भय्यू महाराज ने दोनों पक्षों के बीच की आखिरी दौर की बातचीत को भी सही दिशा देने में काफी अहम योगदान दिया था. ऐसे समय में जब लोग नेताओं पर भरोसा नहीं कर रहे थे और सरकार के पास ऐसा कोई देसी आदमी नहीं था जो अन्ना से उन्हीं की भाषा में आत्मीयता से बात कर सके, उस समय अन्ना को काफी पहले से जानने वाले भय्यू महाराज दोनों पक्षों को बातचीत के मंच पर लाने में कामयाब रहे थे. वे कहते हैं, ’दोनों पक्षों के बीच बातचीत सही दिशा में नहीं जा रही थी. मैंने बस उसे सही दिशा प्रदान की थी.’

भय्यू महाराज का एकमात्र आश्रम मध्य प्रदेश के इंदौर में श्री सदगुरू दत्ता धार्मिक और पारमार्थिक ट्रस्ट के नाम से पंजीकृत है. अपने घर की जमीन बेच कर बनाए गए इस सर्वोदय आश्रम में सिर्फ दो-तीन कमरे हैं जो रोजमर्रा के कार्यों के लिए उपयोग किए जाते हैं. उनका असली काम मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के गांवों में है जहां वे किसानों से जुड़े मुद्दों पर कार्य करते हैं. भय्यू महाराज के अनुसार वे जगह-जगह मंदिर नहीं बनवाते, बल्कि मंदिर के सामने कृषि विकास केंद्र स्थापित करते हैं, ताकि किसान भूखा न रहे. इसके अलावा वे महाराष्ट्र के बुलढाना के खमगांव में जरायमपेशा जाति के बच्चों और मध्य प्रदेश के धार जिले में आत्महत्या करने वाले किसानों के बच्चों के लिए विद्यालय संचालित करते हैं. ट्रस्ट द्वारा किसानों के लिए धरतीपुत्र सेवा अभियान और भूमि सुधार,  जल, मिट्टी व बीज परीक्षण प्रयोगशाला और बीज वितरण योजना चलाई जाती है. इसी तरह राष्ट्रीय भावना जागृत करने के लिए भारत माता के मंदिर बनवाए जाते हैं और संविधान जागरण अभियान चलाए जाते हैं. महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में पेयजल और किसानों की समस्याओं पर काम करने के अलावा गरीब परिवार की लड़कियों की शादी कराने के चलते भी भय्यू महाराज काफी लोकप्रिय हैं.

भय्यू महाराज का जन्म शुजालपुर, मध्य प्रदेश में 29 अप्रैल, 1968 को विश्वास राव देशमुख और कुमुदनी देवी देशमुख के किसान परिवार में हुआ था. तब उनका नाम था उदय सिंह देशमुख. इंदौर में पढ़ाई करने के दौरान ही दो साल उन्होंने सियाराम फैब्रिक्स के लिए मॉडलिंग भी की. शिक्षा पूरी करने के बाद महिंद्रा में मुख्य कार्यपालन अधिकारी के पद पर काम किया मगर ग्लैमर और काॅरपोरेट की दुनिया में ज्यादा दिन मन नहीं रमा और 1999 में सामाजिक कार्य करने के लिए उन्होंने अपने ट्रस्ट की स्थापना की.

मध्य प्रदेश के इस मराठी संत को महाराष्ट्र के नेताओं के करीब होने के लिए भी जाना जाता है. इनके सबसे ज्यादा भक्त भी महाराष्ट्र में ही हैं और उनका राजनीतिक और सामाजिक असर भी सबसे ज्यादा इसी प्रदेश में दिखता है. महाराष्ट्र के कई बड़े नेताओं जैसे विलासराव देशमुख, उद्धव ठाकरे, बाल ठाकरे, गोपीनाथ मुंडे, आर आर पाटिल, सुशील कुमार शिंदे के अलावा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, अशोक चव्हाण, नितिन गडकरी, लालकृष्ण आडवाणी, मोहन भागवत और राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील से उनके घनिष्ठ संबंध बताए जाते हैं. माना जाता है कि विलासराव देशमुख के मुख्यमंत्री रहते उनकी सरकार को बचाने में भी उनकी अहम भूमिका थी. इसके अलावा सुनील गावस्कर, यूसूफ पठान, लता मंगेशकर और अनिल कपूर जैसी हस्तियां भी उनके आश्रम आती रहती हैं.

अन्ना को पिछले 12 साल से जानने वाले भय्यू महाराज उनसे महाराष्ट्र में अपने सामाजिक कार्यों के सिलसिले में संपर्क में आए थे. वे बताते हैं, ’हमारा ट्रस्ट महाराष्ट्र के गांवों में खेती, शिक्षा, स्वास्थ्य और जल संरक्षण के क्षेत्र में कार्य करता है. हालांकि हमने अन्ना के गांव रालेगण सिद्धि में कार्य नहीं किया है, मगर अन्ना ने हमारा काम देखा है. हमने अन्ना के साथ आरटीआई आंदोलन में भी भाग लिया था.’
मध्यस्थ की भूमिका निभा कर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने के बाद क्या राजनीति का रुख करेंगे? इस सवाल पर भय्यू महाराज कहते हैं, ’मैं अपने सामाजिक कार्यों में ही खुश हूं.’

कौन प्लस, कौन माइनस?

असल दुनिया से वर्चुअल दुनिया की तरफ भागते इस युग में गूगल प्लस की आमद सोशल नेटवर्किंग साइट की दुनिया को और भी दिलचस्प बना रही है. इसी साल जुलाई में लांच हुए गूगल प्लस से पहले गूगल बज और वेव लेकर आ चुका है और दोनों ही फेसबुक को टक्कर देने में नाकाम रहे थे. मगर इस बार गूगल सोशल नेटवर्किंग के इस महत्वाकांक्षी बाजार में पूरी तैयारी के साथ उतरा है.

गूगल प्लस का सबसे बेहतरीन फीचर है ‘सर्कल’. सर्कल आपसे जुड़े लोगों का वर्गीकरण करने में आपकी मदद करता है यानी आप लोगों को फैमिली, फ्रेंड्स, एक्वेन्टन्स, वर्क नाम के अलग-अलग दायरे में रख सकते है. साथ ही आप अपनी पसंद का सर्कल खुद भी बना कर उसको मनमाफिक नाम दे सकते हैं. इस तरह के वर्गीकरण से आप का स्टेटस या प्लस की भाषा में कहें तो ‘स्ट्रीम’ सिर्फ उन्हीं लोगों से शेयर होगा जिनसे आप चाहते हैं. अगर आप चाहते हैं कि आपके बॉस को आॅनलाइन आपकी फोटो देख कर यह पता न चले कि आपने वीकडे पर देर रात पार्टी की और इस वजह से आॅफिस लेट आए तो फिर गूगल प्लस आपको ही ध्यान में रख कर बनाया गया है. फेसबुक के खिलाफ गूगल का यह टारगेटिड शेयरिंग वाला आइडिया सबसे असरदार हथियार कहा जा रहा है. फेसबुक की तुलना में देखा जाए तो सर्कल आपकी प्राइवेसी को ज्यादा संजोकर रखता है. फेसबुक अब तक इसी मोर्चे पर सबसे ज्यादा कमजोर रहा है. गूगल ने ट्विटर के ‘फॉलो’ फीचर को भी प्लस में शामिल किया है, जिससे आप उन लोगों को यहां फॉलो कर सकते हैं जो आपको नहीं जानते मगर आप उनमें दिलचस्पी रखते हंै और इस तरह आप उनकी पब्लिक स्ट्रीम को देख सकते हैं.

गूगल प्लस वर्चुअल वर्ल्ड का ‘हैंगआउट’ भी लेकर आया है जिसमें आप एक ही स्क्रीन पर एक साथ दस दोस्तों के साथ वीडियो चैट कर सकते हैं. फेसबुक ने भी हाल ही में स्काइप के साथ मिल कर वीडियो चैटिंग की व्यवस्था शुरू की है मगर स्काइप एक से ज्यादा लोगों के साथ वीडियो चैट करने के लिए यूजर से चार्ज करता है जबकि गूगल प्लस में यह सेवा नि:शुल्क है. साथ ही गूगल ने अपने खुद के वेब फोटो एलबम सॉफ्टवेयर पिकासा की मदद से प्लस में फोटो अपलोड करना और उसे देखना फेसबुक से ज्यादा आसान और तेज बना दिया है. स्ट्रीम की तरह फोटो की भी प्राइवेसी का ध्यान रखा गया है. स्पार्क्स नाम का नया फीचर भी है जो गूगल के सर्च इंजन का ही एक रूप है. इसमें आप अपने पसंदीदा विषयों के बारे में जान सकते हैं और पसंद आने पर अपने सर्कल में उसे शेयर कर सकते हैं.

फेसबुक के ‘लाइक’ की तर्ज पर गूगल प्लस ने प्लस वन (+1) को अपनाया है. तकनीकी तौर पर यह ज्यादा उपयोगी है क्योंकि उस पर क्लिक करने से आप का डाटा सीधे गूगल के सर्च में शामिल हो जाता है जिससे उसकी सर्च उपयोगिता बढ़ जाती है. यह अलग बात है कि फेसबुक का लाइक अब लोगों की दिनचर्या का हिस्सा बन गया है और उसको टक्कर देना प्लस वन के लिए बेहद मुश्किल होगा.

फेसबुक और गूगल दोनों ही एक-दूसरे के उत्पादों को टक्कर देने में पीछे नहीं रहते. फेसबुक के माफिया वार और फार्मविला जैसे मशहूर गेम्स को टक्कर देने के लिए गूगल ने प्लस में नया गेम्स सेक्शन जोड़ा है और जहां फेसबुक अपने गेम्स के डेवलपरों से 30 प्रतिशत चार्ज करता है वहीं गूगल फेसबुक का मार्केट कम करने के लिए डेवलपरों से सिर्फ पांच प्रतिशत चार्ज कर रहा है. दूसरी तरफ फेसबुक गूगल प्लस के सर्कल और प्राइवेसी के बढ़े हुए स्तर को टक्कर देने के लिए स्टेटस पोस्ट को गूगल प्लस की ही तर्ज पर पब्लिक, फ्रेंड्स और कस्टम के अंतर्गत वर्गीकरण करके शेयर करने का विकल्प मुहैया करा रहा है. इसके साथ ही आपकी पोस्ट में गूगल की ही तरह आपकी लोकेशन को भी जोड़ रहा है और फोटो टैग करने वाले फीचर में यूजर को ज्यादा प्राइवेसी भी दे रहा है.

नये आइडिया लाने के बावजूद गूगल प्लस के लिए राह आसान नहीं होने वाली क्योंकि किसी भी सोशल नेटवर्किंग साइट की सफलता मुख्यत: ‘मास माइग्रेशन’ पर निर्भर करती है. कितने लोग किसी सोशल साइट से जुड़ेंगे, यह सीधे तौर पर निर्भर करता है कि कितने लोग अभी उस साइट पर हैं. यानी किसी भी सोशल साइट के लिए शुरुआती भीड़ जुटाना सबसे जरूरी होता है. गूगल प्लस के पास सबसे बड़ा फायदा जीमेल के रूप में है जिस पर अकाउंट होने पर आप बाकी के गूगल प्रोडक्टों की तरह सीधे गूगल प्लस का उपयोग कर सकते हैं. जीमेल के इन्हीं 20 करोड़ अकाउंटों की वजह से प्लस ने बाजार में आने के कुछ समय के भीतर ही तकरीबन 2.5 करोड़ यूजर को अपने से जोड़ लिया है. अब इनमें से कितने लगातार प्लस पर सक्रिय रहेंगे यह वक्त के साथ ही पता चलेगा. वहीं दूसरी तरफ फेसबुक के पास आधिकारिक तौर पर 75 करोड़ यूजर हैं जो लगातार सक्रिय रहते हैं.
यह लड़ाई कौन जीतेगा? गूगल प्लस या फेसबुक? यह कहना ठीक वैसी ही जल्दबाजी होगी जैसे टेस्ट मैच शुरू होने से पहले ही विजेता का नाम ट्राॅफी पर लिखना. वैसे सोशल नेटवर्किंग के दीवाने तो इसी बात से खुश हैं कि विशाल इन्फ्रास्ट्रक्चर और नये क्रिएटिव विचारों से लैस दोनों ही कंपनियां उन्हें खुश करने के लिए दिन-रात एक कर रही हैं. 

उत्तर तो आप ही दे सकते हैं

‘तर्क-वितर्क दोनों करें बाहर प्रस्थान और शोर-शराबा दोनों रहें अंदर विराजमान. अति शीघ्र बताओ उस स्थान का नाम?’ यह यक्ष का पहला प्रश्न था. युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, ‘हे देव! वह स्थान विधानसभा के नाम से जाना जाता है.’ ‘पूरा-पूरा उत्तर देने की आपकी यथासंभव चेष्टा होनी चाहिए. विधानसभा के साथ यदि संसद भी जोड़ देते, तो आपका उत्तर पूर्ण होता.’ यक्ष ने युधिष्ठिर को जोर की डांट लगाई.

अब बारी दूसरे प्रश्न की थी. यक्ष ने पूछा, ‘जिस प्रकार एक प्रसिद्ध कहानी में राक्षस की जान स्वयं में न बस कर एक तोते में बसती थी, इसी तर्ज पर बताओ कि आज नेता की जान कहां बसती है?’ ‘कहां बसेगी! कुर्सी में और कहां.’ यक्ष उछल कर बोला, ‘सही उत्तर.’ ‘क्या सही उत्तर!’  युधिष्ठिर क्रोधित-से हो गए. बोले, ‘देव! आप इतने आसान-आसान सवाल पूछ रहे हैं, जिनका उत्तर देश का बच्चा-बच्चा जानता है. कुछ मेरे स्तर का पूछिए न! आखिर मैं धर्मराज हूं.’

यक्ष कोई कठिन प्रश्न सोचने के चक्कर में स्वयं उलझ गया. आखिरकार उसका चेहरा चमका. यक्ष ने पूछा, ‘युधिष्ठिर तुमने एक अति चर्चित गाना, पप्पू कांट डांस साला तो अवश्य सुना होगा.’ युधिष्ठिर ने सहमति जताई. यक्ष आगे बोला, ‘तो एक बात बताओ, पप्पू स्मार्ट है, बलशाली है, हेन-तेन है, लड़कियां भी उस पर थोक के भाव मरती हैं. मगर इतना होने पर भी वह हंसी का पात्र क्यों बना? उसके यार-दोस्त उसके नृत्य कला के परिपूर्ण न होने पर उसे उलाहना क्यों दे रहे हैं?’ प्रश्न व्याख्यात्मक टाइप था. युधिष्ठिर ने गहरी सांस अंदर खींची और एक ही सांस में सब बोल गए, ‘देखो भोले यक्ष, आज के जुग में नाचना आना अति आवश्यक है. यदि आप नाचना नहीं जानते तो आपकी धर्मपत्नी, आपकी प्रेयसी, आपके परिजन, आपके मित्र नाखुश रहेंगे. इन्क्रीमेंट-प्रमोशन के लिए आपके बॉस का खुश होना अति आवश्यक है. और बॉस लोग प्रायः अपने इशारे पर आपके नाचने से ही प्रफुल्लित होते हैं. इसलिए विद्वानों ने कहा है कि आपको जग से लाज नहीं आनी चाहिए और इतनी जोर से नाचना चाहिए कि घुंघरू टूट जाने चाहिए.’ युधिष्ठिर का अति विस्तारित उत्तर सुन कर अपने ताल का यक्ष ने पानी पिया. फिर यक्ष ने एक और प्रश्न उछाला, ‘न मानव न जानवर, न सुबह  न रात को, न आसमान न धरती पर जिसे मारा न जा सके, बताओ वह क्या? युधिष्ठिर ने एक हाथ अपने सीने पर रखा और एक भारी आह भरी और बोले, ‘महंगाई डायन.’ युधिष्ठिर के काॅमनसेंस को देख कर यक्ष मन ही मन उनके प्रति गदगद हो गया. थोड़ी देर गदगदाने के बाद यक्ष ने युधिष्ठिर से कहा, ‘अब रैपिड फायर रांउड होगा. और तुम्हें जल्दी-जल्दी उत्तर देना पडे़गा. यक्ष ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी. ‘किस चीज के खो जाने पर व्यक्ति को दुख नहीं होता?’ युधिष्ठिर तपाक से बोले, ‘ईमान.’ ‘यशलाभ का एकमात्र उपाय क्या है?’ ‘फिल्मी आइटम सांग करना.’ ‘हवा से तेज कौन चलता है?’ ‘ शेयर मार्केट का ब्रोकर.’ ‘धर्म से बढ़कर संसार में और क्या है?’ ‘मुनाफा’ ‘पब्लिक अकसर भ्रष्ट नेताओं को कोसती रहती है, तब ऐसे में कोई अपराधी चुनाव कैसे जीत जाता है? यह प्रश्न सुनते ही युधिष्ठिर चुप हो गये. अभी तक युधिष्ठिर इस प्रश्न का उत्तर सोच रहे हैं और यक्ष उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है. क्या इस देश की जनता उत्तर देने में युधिष्ठिर की मदद नहीं कर सकती?

-अनूप मणि त्रिपाठी

चैनलों पर ‘अगस्त क्रांति’

ऐसा लग रहा था जैसे देश दिल्ली के रामलीला मैदान में सिमट गया हो. यह न्यूज चैनलों पर अन्ना हजारे की ‘अगस्त क्रांति’ की नॉन स्टॉप 24×7 लाइव कवरेज थी. बिना किसी अपवाद के सभी चैनलों पर सिर्फ अन्ना और अन्ना छाए हुए थे. चैनलों का स्टूडियो रामलीला मैदान पहुंच गया था, एंकर और रिपोर्टर धूप-उमस-बारिश और शोर के बीच पल-पल की खबर देते नजर आए और हर शाम प्राइम टाइम चर्चाओं में भावनाएं, भावनाओं से टकराती दिखीं. पूरे समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों पर जन लोकपाल की मांग को लेकर अन्ना हजारे के अनिश्चितकालीन अनशन को जिस तरह का सकारात्मक, सहानुभूतिपूर्ण और व्यापक कवरेज मिला, उससे न सिर्फ इस आंदोलन के पक्ष में देशव्यापी माहौल बना बल्कि उसने कांग्रेस और मनमोहन सिंह सरकार को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया. सरकार, राजनीतिक दलों, सिविल सोसायटी के कुछ समूहों से लेकर वाम-धर्मनिरपेक्ष-दलित और अल्पसंख्यक बुद्धिजीवियों और कई मीडिया आलोचकों ने इस कवरेज की आलोचना की है.

चैनलों पर अन्ना आंदोलन की ‘एकतरफा, अत्यधिक, असंतुलित, पक्षपातपूर्ण’ कवरेज और इसमें चैनलों और उनके पत्रकारों के ‘सीधे भागीदार, भोंपू और चीयरलीडर’ बन जाने के आरोप लगे हैं. यह भी कि यह आंदोलन टीआरपी के लिए रचा गया ‘रियलिटी शो’ या कुछ के मुताबिक ‘कारपोरेट मीडिया द्वारा प्रायोजित और निर्देशित षड्यंत्र’ था. यहां तक कहा गया कि अगर अन्ना हजारे को चैनलों पर 24×7 और एकतरफा कवरेज नहीं मिली होती तो यह आंदोलन न खड़ा होता और न ही इतनी दूर चल पाता. इन आलोचनाओं में आंशिक सच्चाई है. यह सच है कि इस आंदोलन को चैनलों पर अत्यधिक और असंतुलित कवरेज मिली है. लेकिन यह शिकायत करने वाले भूल जाते हैं कि यह चैनलों का स्वभाव बन चुका है. बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है. पिछले दिनों राहुल गांधी की भट्टा-पारसौल पदयात्रा को तीन-चार दिनों तक ऐसी ही एकतरफा कवरेज मिली थी. हालांकि उनकी अलीगढ़ किसान रैली में रामलीला मैदान की तुलना में एक चौथाई लोग भी नहीं आए थे. ऐसे और उदाहरणों की कमी नहीं है. अधिकांश मौकों पर चैनलों की इस प्रवृत्ति का इस्तेमाल सरकार, नेताओं, बड़ी पार्टियों और कॉरपोरेट ने किया है. पहली बार एक जनांदोलन और उसके नेताओं ने मीडिया का सफलता के साथ ऐसा इस्तेमाल किया. यह कहना अतिरेकपूर्ण है कि अगर चैनलों का खुला समर्थन न होता तो यह आंदोलन खड़ा नहीं हो पाता या इतने बड़े पैमाने पर फैल नहीं पाता. ऐसा मानने वाले लोग मीडिया खासकर चैनलों के प्रभाव और शक्ति को कुछ ज्यादा ही आंक रहे हैं.

लोगों की बेचैनी और गुस्से को आवाज देना चैनलों की मजबूरी थी, वे इसे चाहकर भी अनदेखा नहीं कर सकते थेयह सही है कि कई चैनलों खासकर टाइम्स नाउ के अर्नब गोस्वामी को यह मुगालता है कि वे ही देश चला रहे हैं लेकिन इससे बड़ा भ्रम कुछ और नहीं हो सकता है. यह भ्रम खुद इस देश की जनता ने कई बार तोड़ा है. याद कीजिए, ‘इंडिया शाइनिंग’ का मीडिया कैंपेन जो मुंह के बल गिरा था. माफ कीजिए, मीडिया और न्यूज चैनल आंदोलन खड़ा नहीं कर सकते. किसी आंदोलन के पीछे कई राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक कारक और परिस्थितियां होती हैं. अलबत्ता वे किसी आंदोलन को समर्थन और कवरेज देकर एक प्रतिध्वनि प्रभाव (इको इफेक्ट) जरूर पैदा कर सकते हैं. यह हुआ भी. चैनलों ने रामलीला मैदान की आवाजों को देश के करोड़ों घरों में गुंजाने में मदद की. लेकिन उसके लिए भी अनुकूल परिस्थितियां होनी चाहिए. अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के लिए अनुकूल राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां मौजूद थीं. भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ा मुद्दा बना हुआ है, लोगों में एक बेचैनी, गुस्सा और हताशा थी जो अन्ना हजारे के जरिए फूट पड़ी. सच पूछिए तो लोगों की इस बेचैनी और गुस्से को आवाज देना चैनलों की मजबूरी थी. वे इसे चाहकर भी अनदेखा नहीं कर सकते थे. यह एक अच्छा बिजनेस सेंस और रणनीति भी थी. असल में, इस आंदोलन में चैनलों के मध्यवर्गीय दर्शक भी बड़े पैमाने पर शामिल थे या उनकी खुली सहानुभूति थी. दूसरे, चैनलों के गेट-कीपरों में भी मध्यवर्ग का बहुमत है. नतीजा, वे पहले भी पब्लिक मूड के साथ बहते रहे हैं और एक बार फिर बहते नजर आए. तीसरी बात यह है कि यह 2011 का आंदोलन था जब इस सच्चाई को अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि देश में 150  से ज्यादा छोटे-बड़े न्यूज चैनल और लाखों सदस्यों वाले सोशल नेटवर्किंग साइटें हैं.

याद रखिए अमिताभ बच्चन को सर्दी लगने की ‘खबर’ ब्रेकिंग न्यूज बन सकती है तो राजधानी और देश के और शहरों में हजारों लोगों के सड़कों पर उतर आने की खबर कैसे छिप सकती थी? इसके साथ यह भी सच है कि मीडिया के इस्तेमाल के खेल में अन्ना की टीम ने सरकार को लगातार दूसरी बार मात दे दी है. लेकिन खेल अभी खत्म नहीं हुआ है. यह सिर्फ ब्रेक है. ब्रेक के बाद एक बार फिर खेल जल्दी ही शुरू होगा. देखते रहिए.

(आत्म-स्वीकृति : मैं खुद भी आंदोलन के समर्थन में हूं.)

अन्ना में कितने जेपी, कितने गांधी

अन्ना हजारे का अंदाज और आंदोलन देखकर किसी को महात्मा गांधी और उनके भारत छोड़ो की याद आई तो किसी को जयप्रकाश नारायण और दूसरी आजादी का खयाल आया. खुद अन्ना हजारे ने जिस तरह राजघाट और अनशन से अपना आंदोलन शुरू किया और आजादी की नई लड़ाई का जिक्र किया, उससे भी अंदाजा मिलता है कि उनके भीतर कहीं गांधी और जेपी के रास्तों पर चलने का जज्बा है. इसके अलावा रामलीला मैदान से लेकर टीवी चैनलों पर दिखे नारे- भ्रष्टाचार भारत छोड़ो से लेकर तीसरी आज़ादी तक से जुड़े- बता रहे थे कि उन पुराने नेताओं और आंदोलनों की याद कहीं न कहीं इस नई मुहिम के दिल में थी.

यह स्वाभाविक भी है कि कोई आंदोलन अपने-आप को अपने देशकाल से और इतिहास से जोड़े. अन्ना के उत्साही समर्थक इसका एक सिलसिला भी बनाने में लगे थे. रामलीला मैदान में दिखा एक दिलचस्प बैनर बता रहा था कि ‘मेरे दादा गांधी जी के साथ थे, मेरे पिता जेपी के साथ थे, मैं अन्ना के साथ हूं.’
तो यह देखना दिलचस्प हो सकता है कि गांधी के साथ, जेपी के साथ और अन्ना के साथ होने में कितना फर्क है और इन तमाम लोगों के छेड़े हुए आंदोलनों में क्या समानता है.

शुरुआत अन्ना के अनशन से करें. यह बहस चल रही है कि अनशन में जो जिद का तत्व था, क्या उसे लोकतांत्रिक कहा जा सकता है. महात्मा गांधी के लिए अनशन अपनी बात मनवाने का नहीं, आत्मशुद्धि का यज्ञ था. वे अक्सर कहा करते थे कि उपवास वे अपनी बात मनवाने के लिए नहीं, प्रायश्चित के लिए करते हैं.  भारत विभाजन के वक्त हर कोई उम्मीद कर रहा था कि बापू अपने अनशन से इसे रोक लेंगे. आखिर उन्होंने कहा भी था कि पाकिस्तान उनकी लाश पर बनेगा. 

 इसमें शक नहीं कि इस आंदोलन को बिल्कुल अहिंसक रखकर तो कम से कम अन्ना ने अपने प्रेरणा-पुरुष को टक्कर दी है लेकिन पाकिस्तान बन गया और गांधी ने उपवास तक नहीं किया.  लोगों ने उनसे इस बारे में पूछा भी. गांधीजी ने अपनी प्रार्थना सभाओं में इसका कायदे से जवाब दिया है. जवाब यही है कि वे तब उपवास करते थे जब उन्हें लगता था कि लोग उनके साथ हैं. इस बार उन्हें लगा कि वे उपवास करेंगे तो जबरदस्ती अपनी बात थोपेंगे. 

क्या अन्ना के पास गांधी की आत्मशुद्धि का जंतर है? उन पर आरोप लग रहा है कि वे अपनी बात मनवा रहे थे. निश्चय ही अन्ना के पास न गांधी का बौद्धिक तेज है, न संवेदनात्मक गहराई, इसलिए शायद वे इस बात की व्याख्या ठीक से नहीं कर पा रहे. लेकिन इसमें शक नहीं कि वे अपने कई शुद्धतावादी कार्यक्रमों में गांधी के करीब जाने की कोशिश करते रहे हैं- और इस आंदोलन को बिल्कुल अहिंसक रखकर तो कम से कम उन्होंने अपने प्रेरणा-पुरुष को टक्कर दी है. जहां तक अनशन का सवाल है, इसमें शक नहीं कि अन्ना के साथ लोग थे. दरअसल यह अनशन इसलिए महत्वपूर्ण नहीं था कि अन्ना हजारे कर रहे थे, बल्कि इसलिए था कि उसमें लोगों की कहीं ज्यादा बड़ी भागीदारी थी. सरकार इसीलिए अनशन से घबराई हुई थी. 

वरना इसी देश में सुंदरलाल बहुगुणा ने 40 दिन से ज्यादा का अनशन किया, हाल ही में स्वामी निगमानंद 64 दिन के अनशन के बाद चल बसे, दिल्ली से ही 20 दिन का अनशन करके मेधा पाटकर लौटीं और दस साल से ज्यादा समय से इरोम शर्मिला अनशन कर रही हैं. सरकारों ने इनमें से किसी की नहीं सुनी, अन्ना की इसलिए सुनी कि अन्ना के साथ आ गए लोगों की तादाद उसे डरा रही थी- यह सवाल अलग है कि यह तादाद क्यों आई और कहां से आई.
जहां तक जयप्रकाश नारायण और उनके आंदोलन के साथ अन्ना के आंदोलन की तुलना का सवाल है, दोनों में साम्य इतना भर है कि दोनों भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए, लेकिन इसके बाद दोनों की दिशाएं बिल्कुल अलग हैं. जयप्रकाश नारायण का आंदोलन पूरी तरह राजनीतिक आंदोलन था- अपने समय की हुकूमत के खिलाफ.  हालांकि उस राजनीतिक आंदोलन के अपने सामाजिक आयाम थे, जिन्हें जयप्रकाश नारायण विचार के स्तर पर संपूर्ण क्रांति की अवधारणा से जोड़ते थे और संगठन के स्तर पर संघर्ष वाहिनी और कई दूसरी संस्थाओं से, जो उन्होंने सामाजिक बदलाव के लिए बनाई थीं. 

अन्ना का आंदोलन इस लिहाज से अभी तक इकहरा है. अन्ना अपने भाषणों में या अपनी चिट्ठियों में यह कहते-लिखते रहे हैं कि उनका किसी सरकार, किसी राजनीतिक दल से विरोध नहीं है. ध्यान दें तो उनका आंदोलन मूलतः कानूनी सुधारों को समर्पित है. अभी तक उस आंदोलन को जन लोकपाल चाहिए था जिसके बाद वह चुनावी सुधारों की बात कर रहा है. अन्ना के आंदोलन में अपनी तरह की ईमानदारी और खरापन है, लेकिन उसे बड़े सवालों से जुड़ना बाकी है. इस लिहाज से भले ही अन्ना ने दूसरी या तीसरी आजादी का नारा दिया है, लेकिन उन्हें इस नारे को सार्थक बनाने वाले जरूरी कार्यक्रम गढ़ने बाकी हैं-  इस असुविधाजनक सवाल का सामना करना भी कि बिना सत्ता परिवर्तन के या बिना राजनीतिक भागीदारी के पूरा व्यवस्था परिवर्तन कैसे होगा, जिसका ख्वाब उनकी और उनकी टीम की तरफ से दिखाया जा रहा है.  

एक स्तर पर अन्ना की चुनौती जेपी से कहीं ज्यादा बड़ी है. जब जयप्रकाश नारायण अपना आंदोलन कर रहे थे तब वे अस्मितावादी आंदोलन उसमें अपना हिस्सा नहीं मांग रहे थे जो हमारे राजनीतिक तंत्र की विफलताओं से उपजे हैं. लेकिन अन्ना के आंदोलन को कहीं ज्यादा तीखी निगाहों का सामना करना पड़ा. अस्मितावादी राजनीति इसमें दलितों और आदिवासियों का हिस्सा खोज रही थी, अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व के बारे में पूछ रही थी.  यही नहीं, यह आरोप भी लगाया गया कि अन्ना का आंदोलन मूलतः सवर्ण और शहरी हिंदुओं का आंदोलन था जो आरक्षण विरोधी और उदारीकरण समर्थक हैं. टीम अन्ना को इन आलोचनाओं के जवाब देने होंगे.  आखिरकार उन्हें अपनी राजनीतिक दिशा भी साफ करनी होगी, अपनी सामाजिक प्राथमिकताएं भी.

अन्ना की टीम ने गांधी से अहिंसा का मंत्र तो सीख लिया है, वह उनका आत्मपरीक्षण भी सीख ले तो बहुत अच्छा रहेएक दूसरे स्तर पर अन्ना का आंदोलन आसान था. उसके सामने 24 घंटे चलने वाला ऐसा मीडिया था जो पूरी तरह उसके समर्थन में खड़ा, बल्कि झुका हुआ था. फिर यह दौर मानवाधिकारों को लेकर कहीं ज्यादा बड़ी सजगता का है. गुरुवार की रात रामलीला मैदान में अनशनकारियों के बीच बैठे कुछ हुड़दंगी पुलिसवालों को खदेड़ते दिखे. पुलिस ने कुछ नहीं किया, क्योंकि उसे मालूम था कि अगर उसने जरा भी जोर-जबरदस्ती की तो मीडिया तिल का ताड़ बना डालेगा. जेपी के आंदोलन को यह सुविधा नहीं थी. उनके आंदोलनकारियों की पीठ पर बेतरह लाठियां पड़ीं, उनके चेहरे बूटों से रौंदे गए. कई अवैध गिरफ्तारियां हुईं और भयानक दमन भी. आनंद स्वरूप वर्मा के संपादन में निकलने वाली पत्रिका समकालीन तीसरी दुनिया के ताजा अंक में इमरजेंसी की कुछ ज्यादतियों का डरावना ब्योरा है. इत्तेफाक से इसी अंक में यह जानकारी भी दी गई है कि फिलहाल सूचना और प्रसारण मंत्री बनी हुई अंबिका सोनी ने तब कांग्रेस की उत्साही कार्यकर्ता के तौर पर एक पत्रकार को इसलिए गिरफ्तार करवाया था कि वह मानवाधिकार हनन का एक मामला उठा रहा था. उस आंदोलन के दौरान खुद जेपी को अत्याचार झेलने पड़े. इस लिहाज से जेपी का आंदोलन नौजवानों की सहनशीलता का नायाब उदाहरण था. अन्ना की टीम और उनके आंदोलन को फिलहाल ऐसे कड़े इम्तिहान से नहीं गुजरना पड़ रहा है. जेपी की तुलना में अन्ना हजारे को पुलिसवाले हाथ जोड़कर तिहाड़ ले गए और फिर उनसे तिहाड़ छोड़ने के लिए हाथ जोड़कर ही अनुरोध करते रहे. 

बहरहाल, अन्ना की टीम ने गांधी से अहिंसा का मंत्र तो सीख लिया है, वह उनका आत्मपरीक्षण भी सीख ले तो बहुत अच्छा रहे. गांधी जीवन भर बहुत सख्त आत्मनिरीक्षण में जुटे दिखते हैं. वे पहले सनातनी और परंपरावादी हिंदू नजर आते हैं, बाद में प्रगतिशील और उदारमना वैष्णव और आखिरी में वे जैसे इन सारे चोलों की व्यर्थता समझ जाते हैं.  उनके जैसा आदमी ही कह सकता था, ‘पहले मैं समझता था कि ईश्वर ही सत्य है, अब समझ गया हूं कि सत्य ही ईश्वर है.’

टीम अन्ना के दो सदस्यों, अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण के सामने आत्मनिरीक्षण का यह प्रश्न गांधी के पारिवारिक और वैचारिक वारिस गोपालकृष्ण गांधी ने एक टीवी कार्यक्रम के दौरान रखा था. अरविंद केजरीवाल ने ईमानदारी से कहा कि वे पहली बार ऐसा आंदोलन देख रहे हैं और समझ रहे हैं कि उन्हें इससे काफी कुछ सीखना है.  प्रशांत भूषण ने भी माना कि आत्मनिरीक्षण उनके लिए लगातार जरूरी है. 

इसमें शक नहीं कि अन्ना और उनकी टीम में एक हद तक यह आत्मनिरीक्षण और खुद को बदलने की चाह दिखी है.  खुद अन्ना हजारे ने एक स्थानीय नेता की जोशोखरोश वाली मुद्रा छोड़कर एक राष्ट्रीय नेता का धैर्य दिखाया. वैचारिक स्तर पर भी वे पहले से कहीं ज्यादा ठोस थे. अनशन तो उन्होंने पहले भी किए हैं, लेकिन अहिंसा पर पहली बार उन्होंने इतना जोर दिया.  इसी तरह अन्ना के अनशन के दौरान ही अरविंद केजरीवाल ने शर्मिला इरोम के अनशन और उसके मुद्दे के समर्थन में खुली चिट्ठी लिखकर बताया कि वे दूसरे और जरूरी मुद्दों के लिए बांहें फैलाने को तैयार हैं. 

लेकिन यह रास्ता अभी लंबा है. अन्ना में निश्चय ही गांधी वाली शख्सियत या उन जैसा फैलाव नहीं है, लेकिन जो गांधी की रोशनी में देर तक चले तो वह कुछ गांधी हो ही जाता है. जेपी भी इसी अर्थ में गांधी के वारिस हो पाते हैं. भरोसा करना चाहिए कि अन्ना भी गांधी को सिर्फ रणनीति के स्तर पर नहीं, अपनी रोशनी की तरह भी इस्तेमाल करेंगे.    

स्वामी?

प्रतिष्ठा की डोर बहुत नाजुक होती है और स्वामी अग्निवेश की यह डोर फिलहाल महत्तम तनाव में है. यूट्यूब, ब्लॉग और फेसबुक पर उनका एक वीडियो आजकल मीडिया और गॉसिप प्रेमियों के बीच चर्चा का विषय है. न्यूज रूम  एक मिनट 20 सेकंड के इस वीडियो की हलचल से लबरेज हैं. वीडियो में अग्निवेश किसी कपिल जी से बात कर रहे हैं और कहा जा रहा है कि फोन के दूसरी तरफ मौजूद कपिल असल में कपिल सिब्बल हैं. बातचीत से यह साफ है कि वे अन्ना के अनशन का विरोध कर रहे हैं और सरकार को नरम नहीं पड़ने की सलाह दे रहे हैं, साथ ही वे सरकार के नरम रवैये से शर्मसार भी महसूस करते हैं. इतना ही नहीं, अग्निवेश आंदोलनकारियों को पागल हाथी कहते हैं और ‘कपिल मुनि’ को सलाह देते हैं कि इन्हें जितनी छूट दी जाएगी वे उतना ही सिर पर चढ़ते जाएंगे. ये सारी बातें वे तहलका से बातचीत में स्वीकार भी करते हैं, लेकिन खुद को ईमानदार भी बताते हैं. मगर तहलका की एक छोटी-सी तहकीकात कुछ और ही बताती है.

अग्निवेश टीम अन्ना के कोर ग्रुप के सदस्य हुआ करते थे. हालांकि मीडिया में यह वीडियो आने से कुछ दिन पहले ही टीम अन्ना के साथ उनकी अनबन की खबरें सतह पर आ गई थीं और उन्होंने रामलीला मैदान जाना भी बंद कर दिया था. 26 अगस्त को अचानक ही उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के जरिए टीम अन्ना के आंदोलन की आलोचना करना शुरू कर दिया. उन्होंने अन्ना और उनके सहयोगियों के बर्ताव पर उंगली उठाई. अपने फेसबुक के पन्ने पर उन्होंने लिखा कि जब पूरी संसद ने उनसे अनशन तोड़ने की अपील की है और प्रधानमंत्री की भी यही मंशा है तब उनके अनशन का कोई औचित्य नहीं रह जाता. विवादप्रिय मीडिया को जैसे ही टीम के बीच दरार की खबर लगी, माइकधारी पत्रकारों का हुजूम स्वामी जी के घर की तरफ दौड़ पड़ा. स्वामी जी की इस नाराजगी में ही कुछ पत्रकारों ने उनके सरकारी सांठ-गांठ के तंतु सूंघ लिए थे.

जिन परिस्थितियों में यह बहुचर्चित वीडियो तैयार हुआ वह काफी दिलचस्प है. तहलका ने वीडियो तैयार करने वाले पत्रकारों और इसे ब्लॉग और यूट्यूब पर डालने वालों से बातचीत करके उन स्थितियों को साफ करने का प्रयास किया है जिनमें यह बातचीत हो रही है और जिनसे बातचीत हो रही है.

26 अगस्त को स्वामी अग्निवेश द्वारा सार्वजनिक रूप से अन्ना और उनके सहयोगियों के खिलाफ नाराजगी जताने के बाद उनके आवास पर दो खबरिया चैनलों के पत्रकार पहुंचे. एक महिला रिपोर्टर थीं और दूसरे पुरुष. दोनों के ही कैमरामैन स्वामी जी को कुछ भिन्न-भिन्न मुद्राओं में अपने कैमरों में कैद कर रहे थे. स्वामी जी रिपोर्टरों से बातचीत कर रहे थे. इसी दौरान उनके सहयोगी, जो इस वीडियो में भी दिखाई पड़ते हैं, उनका फोन लेकर आते हैं और वहां मौजूद एक पत्रकार के मुताबिक कहते हैं, ‘स्वामी जी कपिल जी का फोन है.’ यह सुनकर स्वामी अग्निवेश उठ खड़े हुए. रिपोर्टर वहीं रुके रहे और दोनों के कैमरामैनों ने अपने कैमरे चालू रखे. वहां मौजूद वे रिपोर्टर तहलका को बताते हैं, ‘जैसे ही मैंने सुना कि कपिल जी का फोन है मुझे लग गया कि स्वामी जी की सरकार के साथ कुछ पक रही है.’ रिपोर्टरों के मुताबिक उस समय उन्हें यह स्पष्ट हो गया था कि यह कपिल जी केंद्र सरकार के वरिष्ठ मंत्री कपिल सिब्बल ही हैं. उन लोगों ने सारी बातचीत रिकॉर्ड कर ली. इसके बाद दोनों रिपोर्टर वापस अपने दफ्तर पहुंचे. दिलचस्प बात है कि दोनों के ही न्यूज चैनलों ने यह वीडियो नहीं चलाया. एक रिपोर्टर कहते हैं, ‘मेरे चैनल ने इसे चलाने से इनकार कर दिया तो बात आई-गई हो गई. बाद में मुझे पता चला कि यह वीडियो इंडिया टीवी और एक वेबसाइट पर चल रहा है. मुझे लगा कि मेरे साथी रिपोर्टर या कैमरामैन ने इसे वेबसाइट वालों को दे दिया होगा.’ इसके बाद यह यूट्यूब के जरिए लाखों लोगों तक पहुंच चुका है.

सीधे सवालों के घुमावदार जवाब देकर स्वामी अग्निवेश अपने इर्द-गिर्द संदेह का दायरा चौड़ा करते जा रहे हैं और अपनी प्रतिष्ठा भी धूमिल कर रहे हैंस्वामी अग्निवेश अपने बचाव में दो बातें कहते हैं. उनके दोनों ही तर्क काफी हद तक उस शैली के हैं जिन्हें राजनेताओं की शैली माना जाता है. 1) यह मेरे खिलाफ साजिश है. वीडियो कट, पेस्ट और स्लाइस्ड है. 2) मेरे साथियों ने मेरे साथ धोखा किया है. उन्होंने पहले से ही यह वीडियो तैयार कर रखा था और अन्ना का अनशन खत्म होने के ठीक बाद इसे बांट दिया (उनका इशारा किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल की तरफ था). हालांकि वीडियो से जुड़ा टीवी रिपोर्टर उनके इस दावे की पोल खोलता है. अपने बचाव में अग्निवेश यह भी कहते हैं कि उन्होंने किसी कपिल मुनि जी से बात की थी. वीडियो की बातचीत का बारीकी से मुआयना करने पर अग्निवेश का यह तर्क संदिग्ध साबित होता है. बातचीत की शुरुआत में ही वे कहते हैं, ‘जय हो कपिल जी. जय हो महाराज. ‘दोनों ही वाक्य बिल्कुल अलग हंै और कहीं भी उनके बीच जुड़ाव नहीं है. एक बात और ध्यान देने लायक है कि महाराज एक प्रकार से उनका तकिया कलाम है. मसलन उन्होंने हमसे भी फोन पर बातचीत के दौरान सबसे पहले यही कहा, ‘क्या हाल है, चौरसियाजी महाराज.’  इस वीडियो को अपनी वेबसाइट पर डालने वाले समरेंद्र सिंह एक और तथ्य की ओर इशारा करते हैं,  ‘अगर किसी कपिलमुनि महाराज का फोन होता तो वे उनसे सबसे पहले कुशलक्षेम आदि पूछते. पर उन्होंने सीधे अन्ना के मुद्दे पर ही बात करनी शुरू कर दी. आखिर कपिल सिब्बल के अलावा और कौन हो सकता है जिससे पहले ही वाक्य में वे आंदोलन से जुड़ी चर्चा शुरू कर सकते हैं. सरकार को मजबूत रहने की सलाह सरकार के अलावा और किसे दी जा सकती है. बाहरी आदमी को क्यों कहा जाएगा कि आप मजबूत रहें.’

उनके सहयोगी रहे अरविंद केजरीवाल अग्निवेश के आरोप को खारिज करते हुए कहते हैं, ‘उनके आरोप गलत हैं. हम क्यों उनके खिलाफ साजिश करेंगे. इससे तो आंदोलन को नुकसान ही होगा. लेकिन मैं यह मानता हूं कि अगर वीडियो के कंटेट सही हैं तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है. उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था.’ ऐसे तमाम सवाल हैं जिनके उत्तर में अग्निवेश सिर्फ यही कहते हैं कि मेरे कुछ कहने से आंदोलन का नुकसान होगा. कपिलमुनि को सामने लाने के सवाल को वे यह कहकर टाल देते हैं कि वे समय आने पर इसका फैसला करेंगे. सीधे सवालों के घुमावदार जवाब उनकी भूमिका पर और भी सवाल खड़े करते हैं. यहां उनसे हुई बातचीत के अंश दिए जा रहे हैं :

आरोप लग रहा है कि आप सरकार और अन्ना दोनों के साथ मिले हुए थे?

मेरे साथियों ने यह सारा षड्यंत्र किया है. मैंने कदम-कदम पर उन लोगों का साथ दिया और उन्होंने मेरे साथ धोखा किया. जिस समय शांति और प्रशांत भूषण की सीडी सामने आई थी मैंने उनका बचाव किया था. मैंने मीडिया में जाकर कहा कि उन्हें बदनाम करने की साजिश की जा रही है. उन लोगों ने मुझसे बात तक करना जरूरी नहीं समझा.

आप उन लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं कर रहे हैं?

संन्यासी होने के नाते मुझे ऐसा करना उचित नहीं लगता. अवमानना नोटिसों का कोई फायदा नहीं होता. मैंने तो हैदराबाद में भी अपने ऊपर हमला करने वाले को सार्वजनिक रूप से माफ कर दिया था.

वे कौन लोग हैं जिन्होंने आपके खिलाफ षड्यंत्र किया? 

आंदोलन से जुड़े लोगों ने और कौन? तीन दिन पहले ही इन लोगों ने सीडी बनवा कर रख ली थी. और अन्ना का अनशन खत्म होने के बाद उन्होंने इसे यूट्यूब पर डाल दिया. मीडिया ने भी अपना काम ईमानदारी से नहीं किया.

मीडिया का क्या दोष है?

किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत बातचीत को रिकॉर्ड करना क्या गलत काम नहीं है? मेरे खिलाफ स्टोरी करने से पहले मुझसे क्रॉस चेक क्यों नहीं किया गया?

आपने पहले ही अन्ना से अनशन तोड़ने की अपील कर दी थी. किस बात को लेकर आपके बीच मनमुटाव हुआ था?

मैं शुरू से ही आमरण अनशन के खिलाफ था. मेरी राय थी कि अन्ना सिर्फ अनिश्चितकालीन हड़ताल करें. पर बाकी लोग जान-बूझकर उनकी जिंदगी खतरे में डालना चाहते थे. बाद में जब पूरी संसद और प्रधानमंत्री ने भी उनसे अनशन खत्म करने की अपील कर दी तब मुझे अन्ना के अनशन पर बने रहने का कोई औचित्य नजर नहीं आया. ये लोग अनावश्यक रूप से अपनी मांगें बढ़ाते जा रहे थे. आखिर में तीन अलग मुद्दे इन लोगों ने जोड़ दिए. तो मेरे पास अलग होने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.

वीडियो की ही बात करते हैं. आपकी बातचीत से साफ जाहिर होता है कि कपिल सिब्बल के अलावा और किसी से इस तरह की बातचीत करने का मतलब नहीं है.

फोन रिकॉर्ड पता कर लें. आपको यकीन हो जाएगा कि मैं कपिल सिब्बल से बात नहीं कर रहा था. मेरा गुस्सा यह था कि जब सरकार ने अपील कर दी है तब उसमें नई शर्तें जोड़ने की क्या जरूरत है. यही बातें मैं कपिल मुनि महाराज से कर रहा था.

आपकी प्रतिष्ठा जबर्दस्त खतरे में है. आपको भेदिया कहा जा रहा है. आप कपिल मुनि महाराज या टेलीफोन डिटेल्स सबके सामने लाकर अपनी ईमानदारी क्यों नहीं साबित कर देते हैं?

मैं अभी अपने लोगों से राय-मशविरा कर रहा हूं. समय आने पर मैं अपनी ईमानदारी साबित कर दूंगा. इस समय मैं कुछ नहीं करूंगा. वरना आंदोलन का बहुत नुकसान हो जाएगा.

इससे तो आपके प्रति शंका और बढ़ेगी?

मेरे लिए आंदोलन बड़ी चीज है. उसका नुकसान नहीं होना चाहिए. कई बार मैं जहर पीकर रह गया सिर्फ इसलिए कि आंदोलन का नुकसान न हो.

आप ईमानदारी से मान क्यों नहीं लेते कि आपसे गलती हो गई? और अन्ना से माफी मांग लें.

मैं पूरी ईमानदारी से कहता हूं मैंने कोई गलत काम नहीं किया है. कोई मुझे बताए कि मैंने कहां गलती की है. मैं कभी भी अन्ना को पागल हाथी नहीं कह सकता. उनके प्रति मेरे मन में श्रद्धा है. अब लोग मेरे ऊपर पत्रकार हेमचंद्र और आजाद की हत्या करवाने के आरोप लगा रहे हैं. किसी भी माओवादी से पूछ लें, वह मुझे निर्दोष बताएगा.

आसमान में धान बोने वाले विद्रोही कविता की नयी खेती कर रहे हैं

कवि रमाशंकर ‘विद्रोही’ को हिंदी साहित्य से जुड़े ज्यादातर लोग नहीं जानते, या यह कहना ज्यादा उचित होगा कि जानने के बाद भी पहचानने से इनकार करते हैं क्योंकि विद्रोही की लोकचेतना आम तौर पर मौजूदा हिंदी साहित्य में व्याप्त नगरीय बोध के खांचों में नहीं अंटती. लोग उससे आक्रांत हो उठते हैं. जिस दौर में कविता सुनाई नहीं जाती, पढ़ी जाती है उसी दौर में विद्रोही संग्रह भर कविताएं बिना लिखे ही सुना देते हैं. यानी कविता के साथ विद्रोही का जीवन राग जुड़ गया है; विद्रोही और कविता अलग-अलग नहीं हैं. इस नृशंस समय में ऐसा होना स्वयं को अरक्षित कर लेना है, या कहें कत्ल होने के लिए प्रस्तुत कर देना है. लेकिन, विद्रोही आलोचकों-कवियों की उपेक्षा के प्रहार से मरने की जगह ‘सारे बड़े-बडे़ लोगों’ को मार कर मरने का मंसूबा पाले हुए हैं.

उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में पैदा हुए विद्रोही ने 1980 के दशक में दिल्ली के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में दाखिला लिया था. स्वभाव से फक्कड़ विद्रोही का मन आंदोलनों और कविता के साथ ऐसा रमा कि वे सदैव के लिए जेएनयू के हो लिए. आज भी छात्रों के जनवादी, लोकतांत्रिक आंदोलन विद्रोही के बगैर पूरे नहीं होते. आम तौर पर हिंदी में बात करने वाले विद्रोही जैसे ही यह समझ जाते हैं कि कोई व्यक्ति अवध क्षेत्र का रहने वाला है, तत्काल अवधी पर उतर आते हैं और फिर तो आत्मीय संबोधन ‘राजू!’ के साथ बातों का जो दौर शुरू होता है वह रुकने का नाम ही नहीं लेता. पहनावे-ओढ़ावे पर एकदम ही ध्यान न देने वाले विद्रोही सिर्फ ‘कविता’ करते हैं और जब लोग उनसे पूछते हैं कि क्या कर रहे हैं, तो वे खीझ जाते हैं. विद्रोही के सामने जेएनयू में छात्रों की कई पीढ़ियां आईं और गईं. विद्रोही सबके उतने ही अजीज रहे. ऐसा हरगिज नहीं कि विद्रोही का स्वभाव बहुत मृदु है, लेकिन उनमें मनुष्यों के बारे में आकलन की अद्भुत क्षमता है. ज्यादा तीन-तिकड़म वालों से भिड़ जाना उनकी फितरत का हिस्सा है. कुछ वर्ष पहले विद्रोही का चरित्र हनन करने के मकसद से हिंदी के सी ग्रेड कहानीकार ने एक कहानी लिखी थी, जिसके अंत में विद्रोही की मृत्यु दिखाई गई थी. जब उन्हें इस बारे में पता चला तो पहले तो बहुत क्रुद्ध हुए फिर बोले ‘हमारी मृत्यु की कामना इतनी आसानी से पूरी नहीं होने वाली.’

जेएनयू उनके जीवन का और वे जेएनयू के अभिन्न हिस्से हो चुके हैं. जेएनयू प्रशासन के खिलाफ आंदोलन के क्रम में अस्सी के दशक में विद्रोही को कैंपस से निष्कासित कर दिया गया था. तब से अब तक कई कुलपति आए और गए लेकिन विद्रोही हर किसी के खिलाफ छात्रों के आंदोलन के साथ नारा लगाते हुए देखे गये. जाहिर है, इस दौर में छात्र रहे कई लोग आज सत्ता में हैं या ऊंचे पदों पर हैं. लेकिन, विद्रोही ने कभी भी इनके साथ पहचान के आधार पर न कोई तकाजा किया और न ही इनके सामने अपने आत्मसम्मान पर कोई ठेस लगने दी. उनके खाने-पीने का खर्च और बाकी जरूरतों का जेएनयू में उनके चाहने वाले ध्यान रख लेते हैं.

फक्कड़पने का आलम यह है कि बैंक खाता, पहचानपत्र या कुछ भी और जिसे विद्रोही की पहचान का दस्तावेज माना जा सके, उनके पास नहीं है.

फक्कड़पने का आलम यह है कि बैंक खाता, पहचानपत्र या कुछ भी और जिसे विद्रोही की पहचान का दस्तावेज माना जा सके, उनके पास नहीं है. जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन में शामिल होने के लिए जब वे बहुत-से लोगों के साथ दिल्ली से भिलाई जा रहे थे तो एक बड़ा दिलचस्प वाकया हुआ. बीच में कहीं टिकट चेकिंग के दौरान टीटी को लगा कि वे किसी और के टिकट पर यात्रा कर रहे हैं. फटेहाल दिखने वाले विद्रोही के बारे में उसके लिए यह कल्पना करना ही मुश्किल था कि उनका रिजर्वेशन भी हो सकता है. गरीबों के प्रति हेय दृष्टि का आलम यह था कि तमाम लोगों के बहुत समझाने के बाद भी वह आई-कार्ड देखने के लिए अड़ा रहा. लेकिन विद्रोही का तो इन चीजों से कभी कोई वास्ता रहा ही नहीं. जब विद्रोही अपने तेवर में दिखे तो टीटी को वहां से खिसकने में ही भलाई समझ में आई.

विद्रोही जैसे दिखते हैं, वैसे ही लोगों के साथ उनकी कविता भी है. कई बार वे पुराने कवियों से होड़ करते भी दिखाई पड़ते हैं. उनके अपने गृहजनपद सुल्तानपुर के ही प्रसिद्ध प्रगतिशील कवि त्रिलोचन की कवित ‘नगई महरा’ का हिंदी कविता में विशेष स्थान है. विद्रोही की कविता ‘कन्हई कहार’ त्रिलोचन की कविता से होड़ लेती दिखाई पड़ती है. स्त्रियां, दलित, पिछड़े यहां तक कि उपेक्षित पशु-पक्षी तक के प्रति विद्रोही की कविता आत्मीयता और करुणा से भरी हुई है. धर्मसत्ता, राजसत्ता, साम्राज्यवाद और सामंतवाद अपने बारीक और खूबसूरत नकाब में भी विद्रोही की आंखों को चकमा नहीं दे पाता. वे पूरी दुनिया के अत्याचार और उसके मूल कारण को बेपर्दा करते चलते है. ‘राजा किसी का नहीं होता/ लक्ष्मी किसी की नहीं होती/ धर्म किसी का नहीं होता/ लेकिन सब राजा के होते हैं/ गाय भी, गंगा भी, गीता भी और गायत्री भी.’

राजाओं द्वारा हर जगह मारा जाने वाला कमजोर जब संगठित होता है तो आदिविद्रोही ‘स्पार्टकस’ की परंपरा के साथ अपने को जोड़ लेता है. तब रोम की सीनेट से लेकर भारत के संसद भवन तक सत्ता के सामने चुनौती की तरह खड़ा होता है- ‘मैं/ स्पार्टकस का वंशज/ स्पार्टकस की प्रतिज्ञाओं/ के साथ जीता हूं-/ जाओ कह दो सीनेट से-/ कि हम सारी दुनिया के गुलामों को इकट्ठा करेंगे/ और एक दिन रोम आएंगे जरूर.’ वंचितों के विद्रोह की इतनी बड़ी परंपरा से जुड़कर विद्रोही की कविता हिंदी कविता के मौजूदा संकट को हल करने का रास्ता भी दिखाती है. जब इस दौर में हिंदी कविता के पाठक महज कुछ सौ लोग हैं, विद्रोही की कविताएं हजारों लोगों को ऐसे ही याद हैं. ऐसे लोगों को याद हैं जिनका साहित्य से कोई वास्ता नहीं है. जाहिर है, विद्रोही जनता का नया काव्य संस्कार गढ़ रहे हैं. जंतर-मंतर से जेएनयू तक ही नहीं विद्रोही पटना, भिलाई, गोरखपुर सहित कई दूसरी जगहों पर अपनी कविता के साथ लोगों से सीधा संवाद कर रहे हैं. विद्रोही को पाठकों/श्रोताओं का कोई टोटा नहीं है. जन संस्कृति मंच के सांस्कृतिक संकुल से छपा उनकी कविताओं का एकमात्र संग्रह ‘नयी खेती’ छपने के कुछ महीनों के भीतर ही समाप्त होने के कगार पर है. इस संग्रह के विमोचन के कार्यक्रम के दौरान विद्रोही मिलिट्री प्रिंट वाली ढीली पैंट और एक ओवरकोट पहने देखे गए थे. उनकी कविता की मूल प्रवृत्ति ही उसका वाचिक होना है. जिसने भी विद्रोही की कविताएं सुनी हैं, उसे उन्हें पढ़ते समय विद्रोही की आवाज की कमी महसूस होती है. लेकिन बार-बार सुने लोग जब कविता पढ़ते हैं, तो उनके कानों में विद्रोही की आवाज गूंजती रहती है. युवा फिल्मकार नितिन पमनानी ने विद्रोही पर ‘मैं तुम्हारा कवि हूं’ नाम से एक फिल्म भी बनाई है. बावजूद इसके मुख्यधारा की हिंदी आलोचना ने अभी उन्हें चर्चा के योग्य नहीं माना है. लेकिन विद्रोही को इसकी कतई परवाह नहीं है. वे आलोचकों और प्रकाशकों की कृपा से नहीं, अपनी कविता और उसमें मौजूद जनता के अक्स के बूते जिंदा हैं.

'संशय का मतलब दिशाहीन होना नहीं है'

स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलता हो या मन के भीतर की अनजानी-अनगिनत परतें कृष्ण बलदेव वैद का लेखन इन चुनौतियों से होकर गुजरता है. और सहज ही है कि विवाद उनका पीछा नहीं छोड़ते. उसका बचपनऔर गुजरा हुआ जमानाजैसे उपन्यासों तथा बदचलन बीवियों का द्वीपजैसी कहानियों के लिए जाने जानेवाले वैद से रेयाज उल हक की बातचीत

आपकी दो किताबें हाल में प्रकाशित हुई हैं. आप इतने लंबे समय से लिखते आए हैं और इस उम्र में भी लिख रहे हैं. इस रचनात्मक सक्रियता का स्रोत क्या है?

दोनों किताबें नई नहीं हैं. इनमें से प्रवास गंगापहले भी छप चुकी है. अभी पेंगुइन ने पांच लंबी कहानियों की सीरीज शुरू की है तो इस सिलसिले में यह दोबारा प्रकाशित हुई है. लेकिन आपने सही कहा. खुशकिस्मती से लिखना बंद नहीं हुआ है. सक्रियता तो घिसा-पिटा शब्द है. सिर्फ एक्टिव नहीं हैं- दौड़ रहे हैं. इसका उम्र से कोई ताल्लुक नहीं है. जब जवान थे तब भी अपने पेस में ही लिखते रहे थे. हमारी यही चाहत रही है कि लगातार लिखते रहो- हाथों और कल्पना में जुंबिश बनी रहे. गालिब का शेर है न: गो हाथ में जुंबिश नहीं आंखों में तो दम हैइसके अलावा ऐसा भी कोई शारीरिक-मानसिक रोग नहीं हुआ कि उससे नहीं लिखने की प्रेरणा मिलती. जितनी जिंदगी जी है, उस पर कोई पछतावा नहीं है, लेकिन संशय अब भी है. मगर ऐसे संशय नहीं उठे कि लिखना बंद हो जाए.

किस तरह के संशय हैं आपके भीतर?

कई जाती (निजी) संशय हैं. इसके अलावा काम के, दुनिया के, जमीन के और कद्रों (मूल्यों) के बारे में संशय होते हैं. मैं आत्मसंशय के सहारे लिखता रहा हूं. मेरे बहुत व्यक्तिगत किस्म के संशय होते हैं. ये लेखन से संबद्ध भी होते हैं- अनुभव, मुशाहिदे, अंधेरे के बारे में. बहुत सारे लोगों को शिकायत रही है अंधेरे से. मुझे उससे रोशनी मिलती है.

संशय के साथ रह कर कैसे लिखा जा सकता है?

संशय का मतलब दिशाहीन होना नहीं है. लेकिन इसका मतलब पूर्वनिर्धारित भी होना नहीं है. हम संशय के साथ अपने अंधेरे में उतरते हैं. कुछ लोगों का लेखन मुख्यत: बहिर्मुखी होता है और कुछ लोगों का अंतर्मुखी. लेकिन दोनों तरह के लेखक बाहर-भीतर झांकते हैं. कई उपन्यासों-कहानियों में बाहर का मुशाहिदा है. लेकिन जब गहराई में उतरेंगे तो अंधेरा होगा ही. वहां चकाचौंध नहीं होती. गहराई में भी रोशनी उनके भीतर होती है जो संत या पहुंचे हुए लोग हैं. मैं उस गति को नहीं पहुंचा. पर यह बात भी है कि वो लोग लिख नहीं पाते.

एक सवाल लगभग हर लेखक से पूछा जाता है. यह कि उसने कब और कैसे लिखना शुरू किया. एक लेखक से ऐसा सवाल करना कितना जायज है?

इस सवाल का सामना हर लेखक करता है पर हर लेखक शायद जवाब नहीं दे पाता. हो सकता है कि वह जवाब दे पाए या न दे पाए लेकिन वह इसका जवाब खोजता जरूर है.

बहुत कम लेखक होते हैं जब किसी एक पल से वे लिखना शुरू करते हैं. लिखना शुरू करने का अनुभव एक बिखरा सा अनुभव भी होता है. पर मेरे लिए तो यह एक रहस्यमय बात है. मेरे परिवार में लिखने का माहैल नहीं था इसके बावजूद लिखा. कोई ऐसा खास पल नहीं था जब लगा हो कि लिखना है. लिखने में कई लोगों ने प्रभावित किया. शुरू-शुरू के कुछ उस्ताद थे. किसी हद तक पिता का प्रभाव था, हालांकि पिता लिखते नहीं थे. मैं उनको खत लिखता था. इस तरह लिखने का सिलसिला कायम हुआ. कोई ऐसा हादसा नहीं हुआ कि उसको मुखातिब करके कह सकूं कि ऐसे हुआ था शुरू. पर स्कूल के दौर में ही बीज पड़ गया था. बाद में यह इरादा या बीज पुख्ता-सा होता गया.

शुरुआत के बारे में भले न कह सकते हों, लेकिन अपने यह बात कब महसूस की कि आप लिखने लगे है?

जब मैं 21 साल का था. या तो वह एमए का दौर रहा होगा या एमए खत्म होने के बाद का दौर. 22 की उम्र में मैंने पढ़ाना शुरू कर दिया था. उन्हीं दिनों, जब मैं 21 का था विभाजन के बाद दिल्ली चले आए. विभाजन न हुआ होता तो 1948 की जुलाई में एमएम हो गया होता. मगर अब 49 के जून में एमए पूरा हुआ. उसके बाद ही नौकरी भी मिल गई. उन्हीं दिनों लिखना मामूल बन गया. मैं लिखने के बारे में उतना नहीं सोचता मगर न लिखने के बारे में कोसता जरूर हूं खुद को. पर एक तयशुदा वक्त और अवधि पर लिखने की आदत पड़ गई. ऐसा कभी नहीं हुआ कि बरसों कुछ नहीं लिखा. फिर 56 की उम्र में नौकरी छोड़ दी कि इन दो कामों में खास वास्ता नहीं था. ऐसा नहीं था दोनों कामों में बहुत विरोधाभास है. मैंने 31 की उम्र में हेनरी जेम्स की आलोचना लिखी. वह रिसर्च हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित हुआ. भारत में तो ऐसा है कि कवि या उपन्यासकार शोध नहीं करते हैं. ऐसा करके बहुत से लोगों ने निभाया है दुनिया भर में. मैं यह नहीं कह रहा कि पढ़ाना लिखने का विरोधाभासी है. मैंने लिखना चुना लेकिन हमेशा लिखते रहना भी ठीक नहीं है.

आपने लिखना किस जुबान में शुरू किया? आप अंगरेजी पढ़ाते रहे और अरसे तक देश से बाहर रहे. इस भाषा की पहुंच को देखते हुए अंगरेजी में लिखना बढ़ रहा है. आपने भी कभी सोचा अंगरेजी में लिखने के बारे में?

शुरुआत उर्दू से हुई. पाकिस्तान में कुछ कहानियां छपीं. यहां आने के बाद ज्यादा आसानी से पाकिस्तान के रिसाले नहीं मिलते थे. यह हाल अब भी है. उर्दू से हिंदी में आने की वजह यह थी. हालांकि मैं इन दोनों में कोई फर्क नहीं मानता. मैंने जान-बूझ कर फैसला किया अंगरेजी में नहीं लिखने का. मुझे लगता है कि सिवाय कुछ अपवादों को बहुत से बल्कि सभी लोगों ने मातृभाषा में लिखा है. मैं पंजाब से हूं. मेरी मातृभाषा न हिंदी है न उर्दू. लेकिन पंजाबी में मुझे कुछ नहीं आता है. हालांकि गुरुमुखी एक दिन में सीखी जा सकती है. पर नहीं सीखा. मैंने उर्दू-हिंदी में से चुनाव किया.

अपनी जबान छोड़ कर दूसरी जबान में लिखने वाले अपवाद गिने चुने हैं. जैसे जोसेफ कोनराड. वे पोलैंड के थे पर अंगरेजी में लिखा और खूब लिखा. एक दूसरी मिसाल रूस के नोबाकोव थे. वे अंगरेजी जानते थे और क्रांति के बाद यूरोप और फिर अमेरिका चले आए थे. लेकिन तब भी उन्होंने रूसी में लिखा. तो दूसरी जबान में लिखनेवालों की मिसालें कम हैं. मुल्कराज आनंद, आरके नारायण ने अपनी भाषा में नहीं लिखा और वे अच्छे लेखक हैं, महान नहीं. सैमुअल बेकेट ने अंगरेजी से दूरी बनाने के लिए जानबूझ कर फ्रांसीसी में लिखा. नोबाकोव ने भी जो अंगरेजी में लिखा वह रूसी से बेहतर है. तो इन सब मिसालों के पीछे चलते हुए कोई अंगरेजी में लिखना शुरू कर दे यह ठीक नहीं.

वैसे हमारा मामला अलग है. औपनिवेशिक हुकूमत की वजह से और परिवार की वजह से कई लेखकों को दूसरी कोई जुबान आती ही नहीं है अंगरेजी के सिवा. पहले मुझे लगता था कि किसी और जबान में लिखने वाले गद्दारी कर रहे हैं. अब ऐसा नहीं लगता. अब कुछ दो-चार अच्छे लेखक भी हैं अंगरेजी में.

वैसे हिंदी-उर्दू में लिखना ज्यादा चुनौती भरा काम है. बहुत कम भारतीय लेखक ऐसे हैं जिन्होंने अंगरेजी में लिखते हुए गलतियां न की हों. चूंकि उनकी नजर में विदेशी पाठक रहते हैं. वे अपने लेखन में तड़क-भड़क के साथ स्थानीयता को दिखाने की कोशिश करते हैं. मिसाल के लिए सलमान रुश्दी का एक भी उपन्यास ऐसा नहीं है जिसमें लगे कि वे असली हिंदुस्तान को पेश कर रहे हैं. दूसरी तरफ जब हम रूसी उपन्यास पढ़ते हैं दॉस्ताएव्स्की या टॉल्सटाय को तो लगता है कि यह असली रूस है. उनका रूस गाइड बुक का रूस नहीं है. जो लोग हिंदी में या स्थानीय जुबान में लिखेंगे वे भी कभी ऐसा नहीं करेंगे. अंगरेजी में लिखने पर एक खास किस्म का लेखन होता है.

आपकी कहानियां और उपन्यास पढ़ते हुए लगता है कि आप पाठक से बहुत जल्दी एक आत्मीय रिश्ता कायम कर लेते हैं. या कम से कम उस पर कुछ अधिक ही भरोसा करने लगते हैं.

मेरे खिलाफ हिंदी आलोचकों की एक शिकायत यही रही है कि आम पाठक के लिए आपका लेखन नाकाबिले बरदाश्त है. न उसे भाषा पसंद आएगी न लेखन. आप जिस आत्मीयता की बात कर रहे हैं वह सहज ही होगी, सायास नहीं होगी. मैं लिखते वक्त पाठक को नजअंदाज करता हूं. एक कोई पाठक नहीं होता. पाठक अलग-अलग तरह के होते हैं. आप किस पाठक को अपने सिर पर सवार करेंगे. एक हौवा सा बन गया है- आम पाठक. आम पाठक. मैं इस हौवे के खिलाफ हूं. मैं प्रगतिशीलता के खिलाफ नहीं हूं. प्रलेस के जमाने से ही यह ढर्रा-सा चलता आ रहा है. मैं प्रिय पाठकको एक घिसा-पिटा शब्द समझता हूं जो अपना अर्थ खो चुका है. ऐसा नहीं है कि पाठक से नफरत करता हूं. पर पाठक तो बहुवचन है. किसको सामने रखेंगे. इसलिए मैं किसी खास पाठक को संबोधित नहीं करता.

आपके लेखन के बारे में कहा जाता है कि यह भीतर के अंधेरे का लेखन है. दोस्तोयेव्स्की की तरह. भीतर का यह अंधेरा कितनी उम्मीद और कितनी नाउम्मीदी से भरा होता है.

मैं कहता हूं कि मैं किसी राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक आदर्श की रोशनी में अंधेरे में उतरता हूं. कुछ लोग इसे बेहद सरलीकृत बना देते हैं और कहते हैं कि मेरा लेखन निराशावादी है. मुझे यह गलत लगता है, लेकिन मेरा लेखन आशावादी भी नहीं है. मेरा सारा लेखन इसी तलाश का हिस्सा है कि अब्र क्या चीज है हवा क्या है. इन घिसे-पिटे बुनियादी सवालों का मैं मजाक भी उड़ाता हूं अपने लेखन में.

वापस आपकी संशय वाली बात पर आते हैं. संशय के साथ कोई किस तरह लिख सकता है? जब वह इस बुनियादी सवाल को भी नहीं तय कर पा रहा हो कि अब्र क्या चीज है हवा क्या है? आपने अपनी डायरी में लिखा है कि आप नहीं लिख रहे होते तो आत्महत्या कर लेते या पागल हो जाते? क्या इसका संशय वाली बात से भी कुछ ताल्लुक है?

इसका जवाब बहुत तफसील में नहीं है. बस यह है कि संशय लिखने की वजह से काबू में रहता है. लिखना रास्ता दिखाता है संशय से बाहर आने का. आत्महत्या या पागल हो जाने वाली बात मैंने इसी अर्थ में कही थी. जब संशय बढ़ जाता है और जवाब नहीं मिलते तो आदमी वह रास्ता अख्तियार करता है. लिखना इससे बचा लेता है.

आपके लेखन का सबसे चर्चित और विवादित पहलू रहा है उसमें स्त्री-पुरुष संबंधों का चित्रण. आपकी गैरमौजूदगी में भी इस काफी बहस होती रही है. आपको क्या लगता है कि इस पूरे मुद्दे पर सही परिप्रेक्ष्य में बात हो रही है?

उपन्यासों का अंग रहा है स्त्री-पुरुष संबंध. हर कहीं. कोई नई बात नहीं है मेरे लेखन में. मैं नारीवाद के पक्ष में हूं. स्त्री के प्रति अन्याय हुआ है और उसे इंसाफ मिलना चाहिए. मुझ पर यह आरोप कोई बेवकूफ ही लगा सकता है कि मैंने नारी को सेक्स की पुतली के रूप में दिखाया है. यह कह देना अन्याय है मेरे साथ. किसी भी लेखक पर भाषा या विषय के सवाल पर कोई बाहरी बंदिश नहीं होनी चाहिए. एक अच्छा और सजग लेखक जानता है कि उसकी हद क्या है. और वह उस हद को तोड़ता भी है. इतने सालों से इसकी लड़ाई लड़ी जा रही है.

हिंदी में अगर यह बहस चल रही है कि अमुक शब्द अश्लील है या नहीं तो मैं इस बहस को नहीं मानता. जो लोग ऐसी बातें कहते हैं वे खुद अश्लील हैं. छिपे हुए अश्लील हैं. वे खुद अपने जीवन में उन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं. मैं तो अश्लीलता के अर्थ पर ही सवाल उठा रहा हूं. यहां अश्लीलता का अर्थ गलत लिया गया. इन लोगों को मुंबइया फिल्में, बाजार और खुद जीवन अश्लील नहीं लगता. करोड़ों रुपए जिन शादियों पर खर्च होते हैं उनमें भिखमंगे जूठन खाते हैं, यह अश्लील नहीं लगता. और शब्द अश्लील लगते हैं. ऐसा नहीं है कि मैं अश्लीलता के पक्ष में हूं, लेकिन इसे सही संदर्भ में और सही अर्थ में लिया जाना चाहिए.