सामंतों के गढ़ में नव-सामंती कहर

झारखंड स्थित पलामू जिले के मुख्यालय डालटनगंज में कंक्रीट का जंगल बनाने के लिए मुसहरों और भुइयां समाज के लोगों को अपनी ही जमीन से बेदखल किया जा रहा है. इस प्रक्रिया में उन्हें अपनी जान तक गंवानी पड़ रही है. अनुपमा की रिपोर्ट

जून का महीना मंगरू भुइयां के परिवारवालों के लिए जानलेवा साबित हुआ. 13 जून को मंगरू की हत्या कर दी गई. 85 साल के मंगरू को क्यों मार डाला गया, इसका सही-सही जवाब किसी के पास नहीं. लोगों से बात करें और चर्चाओं पर ध्यान दें तो उसका गुनाह सिर्फ यही पता चलता है कि उसकी जमीन का एक टुकड़ा, अंधाधुंध शहरीकरण के दौर में महंगा हो गया और महंगी जमीन पर गरीबों का कोई हक नहीं बनता, इसी नये सिद्धांत के तहत उसे मार दिया गया.

मंगरू की जमीन उस इलाके में थी, जो एक जमाने में बहुत ही पिछड़ा और उपेक्षित था. उसके पास सरकार द्वारा दी गई ढाई एकड़ जमीन वहीं पर थी. पिछले कुछ वर्षों में अंधाधुंध शहरीकरण की वजह से यह कीमती प्लांट में बदल गई थी. जमीन की कीमत बढ़ी तो जमीन के दलालों ने जैसे-तैसे करके उसकी दो एकड़ जमीन बिकवा दी जो अब बाजार भाव के हिसाब से लगभग एक करोड़ की परिसंपत्ति बताई जाती थी. इस एक करोड़ की परिसंपत्ति के बदले मंगरू की विधवा समुंदरी कुंवर के पास कहने लायक एक पक्का मकान है. जमीन के साथ उसकी कीमत अब करीबन पांच-सात लाख होगी. लेकिन वह पक्का मकान लेकर मंगरू की पत्नी क्या करेगी? मकान खाना थोड़े ही देता है! अब वह दाने-दाने को मोहताज है. समुंदरी कहती है, ‘जहर खाने तक को पैसा नहीं था. कुल जमा चार हजार रुपये थे. पिटाई से हुई मौत से पहले इलाज के दौरान वह भी दवा आदि में अस्पताल में खर्च हो गया.’ इससे पहले मंगरू के बेटे कृष्णा की भी हत्या हो गई थी और उसकी पत्नी ने दूसरी शादी कर ली. अब घर मंे अपनी किस्मत पर रोने के लिए समुंदरी के साथ एक 11 साल का पोता और 12 साल की पोती है. अब उसके पास 14-15 कट्ठा जमीन है. उस जमीन की कीमत अब करीब 40 लाख रु के आसपास होगी. समुंदरी उस जमीन के बारे में कुछ नहीं जानती. कोई बात भी नहीं करना चाहती. उसे चिंता इस बात की रहती है कि अगर उसे भी कुछ हो गया तो दोनों अभागे बच्चों का क्या होगा.

नया चलन बंदोबस्ती की जमीन खरीदी-बेची नहीं जा सकती, लेकिन पलामू में ऐसा होने के कई उदाहरण हैं

समुंदरी की यह कथा-कहानी पलामू के जिला मुख्यालय डालटनगंज शहर के एक बाहरी मोहल्ले बैरिया की है. भुखमरी, अकाल और जमींदारों के जुल्मो-सितम के लिए मशहूर पलामू में नये जमींदार जमीन के जरिए रोज ऐसी कहानियां बना रहे हैं. कभी बंधुआ बनाने से लेकर जिंदा मार देने पर आमादा रहने वाले पलामू के कुछ पुराने जमींदारों के जुल्मो-सितम से यहां के वासियों और बाहरी लोगों का रोआं सिहरता था. अब नये जमींदारों के जुल्म से फिर वही लोग मारे जा रहे हैं जिनका तड़प-तड़प कर मरना या जिन्हें मार दिया जाना इस इलाके में नियति की तरह है. फर्क सिर्फ यह है कि पहले आवाज भी उठ जाती थी, अब सब कुछ खामोशी से हो रहा है.

शहर से बाहर बसे हुए कुछ उपेक्षित मुहल्ले में आबादी भुइयां एवं मुसहरों की है. 1975 से 1980 के बीच वहां हदबंदी से फाजिल जमीन को गरीब हरिजनों में बांटने के लिए एक मजबूत लड़ाई लड़ी गई थी. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं, नेताओं ने इसमें सकारात्मक भूमिका निभाई थी. लोग बताते हैं कि तब वहां शहर की नगरपालिका के अध्यक्ष बाबू नरू सिंह, बोनू बोराल एवं संतोष ठाकुर जैसे जमींदारों का लगभग जमीन पर कब्जा था. एकीकृत बिहार था. मजबूती के साथ भूमि संघर्ष प्रदेश के अलग-अलग हिस्से में चल रहा था. उसकी धमक बैरिया जैसे सुदूरवर्ती इलाके में भी सुनाई पड़ी थी. संघर्ष और आंदोलन का नतीजा यह रहा कि हरिजनों को जमीन  (बासगीत) का पर्चा मिला. उनके नाम से जमीन की बंदोबस्ती हुई. राजीव कुमार जैसे राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने मुसहरों को संगठित करके उनको रहने के लिए जमीन देने का आंदोलन किया. 21 मुसहरों के लिए दो डीसमील के हिसाब से करीब 42 डीसमील जमीन का बासगीत के लिए बंदोबस्त हुआ. धीरे-धीरे गांव के सामाजिक ढांचे में बदलाव की वजह से सामंती ताकतों ने शहर का रुख किया. समय के साथ आंदोलन भी कमजोर पड़ा. बदलते सामाजिक परिवेश और जमीन के लिए कमजोर होते आंदोलन का फायदा नवसामंतों ने उठाना शुरू किया. बैरिया के हरिजन टोला जैसे इलाके जमीन की लूट का निशाना बने. कुछ पुराने जमींदारों के वारिसों ने और कुछ जमीन के दलालों ने उस इलाके की जमीन बेचनी शुरू कर दी. अब वहां चारों तरफ कंक्रीट का जंगल बन गया है.

नियम की बात करें तो बंदोबस्ती की जमीन किसी कीमत पर खरीदी-बेची नहीं जा सकती. लेकिन पलामू में नियम-कानून कागजों में दफन होते रहे हैं. अब भी होते हैं. तभी जमीन के उन टुकड़ों को, जिन्हें किसी भी हाल में नहीं बेचा जा सकता, धड़ल्ले से बेचा जा रहा है. और पलामू में इस बात को भी हैरतअंगेज नहीं माना जा सकता कि प्रशासन और भूमाफिया आपस में मिलकर इस जमीन का दाखिल खारिज (राजस्व रिकार्ड में जमीन के स्वामित्व का हस्तांतरण) भी कर या करवा रहे हैं. उदाहरण के तौर पर, खाता संख्या-72, प्लांट संख्या-307 के मनोज भुईयां, रघुनाथ भुईयां, टेबर भुईयां, सरोज भुईयां, प्रमोद भुईयां, रामजी भुईयां, मंगरू भुईयां आदि नाम से बंदोबस्त जमीन को देखा जा सकता है, जिसे बेचा जा चुका है. मुसहरों के 42 डीसमील जमीन के अगल-बगल की जमीन भी बिक चुकी है. मुसहरों की जमीन का प्रशासन द्वारा सीमांकन नहीं होने से ऐसे हालात बने हैं. हालात ये भी हैं कि उनकी जमीन पर कब दूसरे लोग काबिज हो जाएंगे यह कोई नहीं जानता. और फिर यह मामला कोई बैरिया मोहल्ले भर का नहीं है. शहर से सटे चियांकी में भी स्थिति कुछ इसी तरह की है. वहां भी बसने के लिए बारह मुसहर परिवारों को जमीन मिली है. सरकारी प्रक्रिया से उस पर इंदिरा आवास भी पास हो गया है, लेकिन जब मुसहर घर बनाने जाते हैं तो वहां के स्थानीय दबंग यह कहकर उन्हें भगा देते हैं कि यह उनकी जमीन है.

जमींदारों के जुल्मो-सितम के लिए मशहूर पलामू में नये जमींदार जमीन के जरिए रोज ऐसी कहानियां बना रहे हैं

पूरे पलामू में जुल्मो-सितम और लूट-खसोट के तरह-तरह के किस्से मिलते हैं. सुदूरवर्ती इलाकों के किस्से तो अपनी मौत मरते ही थे मगर अब शहरी क्षेत्र में भी ऐसी मनमानी हो रही है और वह कोई मसला नहीं बन रहा.प्रशासन और राजनीति की लापरवाही उनके लोगों से बातचीत में साफ झलकती है. पलामू प्रमंडल के आयुक्त राजीव सिंह कहते हैं कि उन्हें तो ऐसी किसी बात की जानकारी ही नहीं है. एक पूर्व आयुक्त से बात होती है तो उनका जवाब होता है कि उनके कार्यकाल में ऐसा कोई मामला नहीं आया था और फिर अब तो वे वहां हैं ही नहीं, इसलिए इस पर क्या चर्चा करें. जमीन आदि का मामला एसडीओ के पास ज्यादातर होता है. पलामू के एसडीओ सुधीर दास कहते हैं, ‘एक जगह का मामला तो उनके संज्ञान में आया है. वहां के लोगों ने आवेदन सौंपा है, हमने अंचलाधिकारी को उसे देखने का निर्देश दे दिया है.’ पलामू के कांग्रेसी विधायक केएन त्रिपाठी तहलका से बातचीत में हैरानी व्यक्त करते हुए कहते हैं, ‘ऐसी किसी बात की भनक तक नहीं है मुझे. मैं तुरंत पता करवा के कार्रवाई करुंगा, आंदोलन करूंगा.’ सबके पास अपने रटे-रटाए जवाब हैं. प्रशासनिक और राजनीतिक तंत्र के लोगों का यह कहना है कि मुसहरों या भुइयां समुदाय के लोगों को लिखकर देना चाहिए. उन्हें कौन बताए कि वे लिखना नहीं जानते और अगर जानते भी हैं तो पलामू में उन्हें लिखने क्या जुबान खोलने तक की भारी कीमत अदा करनी पड़ती है.

अब हालत यह है कि मुसहरों के हाथों में सिर्फ पर्चा है जमीन का सीमांकन करके प्रशासन उन्हें कब्जा  दिलवा देगा, इसकी उम्मीद कम ही है. मुसहर थाने से लेकर हर जगह का दरवाजा खटखटा चुके हैं. यह प्रशासनिक संवेदनहीनता एवं भूमाफियाओं द्वारा लूट की एक छोटी-सी कथा है. कुछ दिनों बाद जब भूख, अकाल और गरीबी से बिलबिलाते क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाला शहर डालटनगंज चमकता हुआ दिखने लगेगा तो उस चमक के अंदर कितने मंगरूओं की कब्र होगी, इससे किसी को मतलब नहीं.