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अखंड भारत का सिद्धांत पूरी तरह से सांस्कृतिक विचार है

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एकः शब्दः सम्यक् ज्ञात सुप्रयुक्त, र्स्वगलोके कामधुग्भवति यानी सही समय और सही जगह पर प्रयोग किया गया एक शब्द भी जीवनपर्यंत और उसके बाद भी उपयोगी होता है. पतंजलि का यह सूत्र अखंड भारत पर मेरे दिए गए बयान पर हुए विवाद के लिए पूरी तरह से उपयुक्त है. एक ऐसी बात जो इससे पहले कई बार संघ परिवार के कई लोगों द्वारा कही गई थी, इस बार एक विवादित मुद्दा बन गई क्योंकि यह उस वक्त सामने आई जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भारत-पाकिस्तान संबंध सुधारने के लिए लीक से हटकर कोशिश की जा रही थी.

मैंने 7 दिसंबर, 2015 को अल-जजीरा टीवी चैनल को एक इंटरव्यू दिया था. वहां मुझसे संघ के नागपुर मुख्यालय में लगे अखंड भारत के नक्शे के बारे में सवाल पूछा गया. पहले भी कई बार मुझसे यह सवाल किया गया था तो मैंने वही जवाब दिया जो इससे पहले कई बार दिया था कि संघ यह मानता है कि एक दिन ये तीनों हिस्से अपनी सहमति से एक होंगे. मैंने भी इस बात को दो बार स्पष्ट भी किया कि यह सेना या किसी युद्ध के जरिए नहीं बल्कि मित्रवत तरीके से होगा. यानी इन तीनों देशों के लोगों के एकीकरण का आधार सांस्कृतिक और सामाजिक होगा.

संयोगवश, यह इंटरव्यू उसी दिन प्रसारित हुआ जिस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मिलने लाहौर पहुंचे थे. प्रधानमंत्री जी की उस यात्रा पर मैंने ट्वीट भी किया था, ‘दोनों देशों की प्रोटोकॉल पर चल रही राजनीतिक पॉलिसियों के बीच प्रधानमंत्री मोदी जी का यूं अचानक पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से मिलने लाहौर जाना एक जरूरी कदम था. यूरोपियन संघ, आसियान और कई पड़ोसी देशों के नेताओं की तरह भारत-पाक के नेताओं को भी अपने रिश्तों में थोड़ी अनौपचारिकता लाने की जरूरत है. बदलाव के इस पहले कदम के लिए अटल जी के जन्मदिन से बेहतर कोई दिन नहीं हो सकता था.’

मुझे दुख होता है कि मेरे इस इंटरव्यू को प्रधानमंत्री के इस कदम के महत्व को कम करने के लिए प्रयोग किया गया. हम लोग जो राजनीति में हैं वे कुछ कहते समय आने वाले कुछ चार-पांच सालों के बारे में सोचकर बोलते हैं वहीं हममें से कुछ जो संघ के पीढ़ियों से चले आ रहे विचार, उनकी दृष्टि को आत्मसात कर चुके हैं, वे कई बार अपनी कही बात की पॉलिटिकल इनकरेक्टनेस के जाल में फंस जाते हैं.

मैं यहां फिर कहना चाहूंगा कि अखंड भारत का यह सिद्धांत पूरी तरह से सांस्कृतिक और जनता पर केंद्रित विचार है. मेरे कहने का यह अर्थ बिल्कुल नहीं था कि हमें अपने देशों की सरहदों को फिर से बदलने की सोचना चाहिए. पर मैं यह कह सकता हूं कि मैंने इन तीनों देशों के लोगों में आपसी सौहार्द और आत्मीयता बढ़ाने के प्रति खासा उत्साह देखा है. असल में, मुझसे ज्यादा तो इस एकीकरण के लिए देश का सेक्युलर और ‘मोमबत्तीवाला’ तबका उत्साहित दिखता है. वे लोग खुली सीमाओं की बात करते हैं, वाघा बॉर्डर पर मोमबत्तियां लेकर प्रदर्शन करने की बात कहते हैं.

1947 के बंटवारे ने एक राजनीतिक मतभेद भी पैदा किया है. अब उसके लिए कौन जिम्मेदार है, यह एक ऐतिहासिक बहस है. राम मनोहर लोहिया अपनी किताब ‘गिल्टी मेन ऑफ इंडियाज पार्टीशन’ में इसके लिए तीन पक्षों, ब्रिटिशों, कांग्रेस और मुस्लिम लीग को उत्तरदायी मानते हैं. बाद में इतिहासकारों ने कई दूसरों को भी जिम्मेदार बताया.

मेरे कहने का यह अर्थ बिल्कुल नहीं था कि हमें अपने देशों की सरहदों को फिर से बदलने की सोचना चाहिए. पर मैं यह कह सकता हूं कि मैंने इन तीनों देशों के लोगों में आपसी सौहार्द बढ़ाने के प्रति खासा उत्साह देखा है

कांग्रेस द्वारा बंटवारे पर राजी होने के बारे में नेहरू ने 1960 में ब्रिटिश पत्रकार और इतिहासकार लियोनार्ड मोस्ले से बात करते हुए कहा था. ‘सच तो यह है कि हम लोग थक चुके थे और बूढ़े हो रहे थे. हममें से कुछ ही दोबारा जेल जाने लायक थे और अगर हम यूनाइटेड इंडिया (एकीकृत भारत) के लिए खड़े होते तो जेल जाना निश्चित था. हम पंजाब को जलते देख रहे थे, रोज लोगों के मारे जाने की खबरें आ रही थीं. हमें बंटवारे का विचार इन सब का समाधान लगा और हमने इसे स्वीकार कर लिया.’

मगर क्या बंटवारे ने लोगों को भी बांट दिया? उस समय भावावेश में आकर दोनों ओर के बहुत-से लोगों ने अपनी नई राजनीतिक पहचान को अपनाया. यह राजनीतिक पहचान बनी रहेगी. पर इसके अलावा भी इस समाज, जो एक सदी से भी ज्यादा समय तक एक ही हुआ करता था, की एक और बड़ी पहचान है. ख्यात इतिहासकार आयशा जलाल ने मंटो और बंटवारे पर लिखी अपनी किताब में एक सांस्कृतिक देश के विचार से उपजी इस दुविधा को बहुत अच्छे से रखा है. वे लिखती हैं, ‘…किसी सांस्कृतिक राष्ट्र की रूपरेखा जितनी रचनात्मक और व्यापक होती है, उतनी किसी हद में बंधे राजनीतिक राष्ट्र की नहीं होती.’

वास्तव में बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ कहानीकारों में से एक सआदत हसन मंटो पाकिस्तान की ओर के उन चंद लोगों में से थे जो बंटवारे के इस विचार को कभी स्वीकार नहीं कर पाए. बंटवारे पर लिखी उनकी कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ लाहौर के पागलखाने में रह रहे गैर-मुस्लिम मरीजों के बारे में है जो अलग धार्मिक मान्यताओं के कारण भारत स्थानांतरित होने का पूरे उत्साह से इंतजार कर रहे हैं. इस कहानी का जिक्र जलाल भी करती हैं. जलाल लिखती हैं, ‘मंटो ने इस कहानी में बहुत कुशलता से इन मरीजों को बाहर निकालने का फैसला करने वालों से ज्यादा स्थिर दिमाग वाला पागलखाने के मरीजों को दिखाया है. उनका यह दिखाना बंटवारे का फैसला करने वालों की समझदारी और जो पागलपन इससे शुरू हुआ, उस पर सवाल करता है.’

अगर ऐसा है तो क्या हम लोगों का साथ आना मुमकिन है? जिस ऐतिहासिक, सभ्यतामूलक वास्तविकता को हमने ‘एक’ समाज होकर सदियों तक साझा किया है क्या हम उसे संजो पाएंगे? तो जब मैंने कहा कि ये देश ‘मित्रवत और सहमति’ से एक होंगे तब मेरा यही अर्थ था.

जब जीसस क्राइस्ट को सूली पर चढ़ाने से पहले पोंटियस पेलेट (रोमन अधिकारी जिसके सामने ईसा मसीह की पेशी हुई हुई थी) के सामने लाया गया तब उन्होंने आरोप लगाने वाले लोगों को अपने शब्दों को स्पष्ट करने को कहा जिससे बहस में कोई भ्रम न रहे. अखंड भारत को लेकर छिड़ी बहस के साथ भी यही मसला है.

मुझसे ज्यादा तो इस एकीकरण के लिए देश का सेक्युलर और ‘मोमबत्तीवाला’ तबका उत्साहित दिखता है. वे लोग खुली सीमाओं की बात करते हैं, वाघा बॉर्डर पर मोमबत्तियां लेकर प्रदर्शन करने की बात कहते हैं

60 के दशक के पूर्वार्ध में जनसंघ नेता और सामाजिक कार्यकर्ता राम मनोहर लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय में घनिष्ठता हुई थी. एक दिन डॉ. लोहिया ने दीनदयाल जी से कहा कि जनसंघ और आरएसएस के ‘अखंड भारत’ के विचार पर भरोसे के कारण पाकिस्तान के मुसलमान चिंतित हो जाते हैं और उससे भारत-पाक के रिश्तों में बाधा उत्पन्न होती है. लोहिया जी ने कहा, ‘बहुत-से पाकिस्तानियों का मानना है कि अगर जनसंघ नई दिल्ली में सत्ता में आया तो वे जर्बदस्ती पाकिस्तान और भारत का एकीकरण कर देंगे.’ इस पर दीनदयाल जी ने जवाब दिया, ‘हमारा ऐसा कोई उद्देश्य नहीं है. और हम चाहते हैं कि अब इस मामले में पाकिस्तानी ऐसा सोचना छोड़ दें.’ दोनों के बीच हुई इसी बातचीत से भारत-पाकिस्तान संघ का विचार जन्मा. भाजपा प्रवक्ताओं के अनुसार 1999 में अटल जी द्वारा निकाली गई ऐतिहासिक बस रैली में उन्होंने साफ किया था कि भारत और पाकिस्तान दो संप्रभु देश हैं.

मैं और मेरे जैसे कई यह मानते हैं कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के लोगों का आपसी सहमति और समान इतिहास के आधार पर साथ आना हमारे तनावपूर्ण संबंधों को सुधारने की दिशा में एक जरूरी कदम होगा. मैं व्यथित हूं कि मेरी इतनी जरूरी वैचारिक स्थिति को मेरी पार्टी और केंद्र सरकार का राजनीतिक एजेंडा समझकर गलत अर्थ निकाला गया.

(लेखक भाजपा के महासचिव हैं)

महाश्वेता का महासमर

फोटोः तहलका अार्काइव
फोटोः तहलका अार्काइव
महाश्वेता देवी 1926 – 2016
फोटोः तहलका अार्काइव

कोलकाता के दो रहस्य कभी नहीं खुलेंगे. एक बाॅटनिकल गार्डन के वट वृक्ष का और दूसरा महाश्वेता देवी का. वट वृक्ष का हर एक तना मूल होने का अहसास देता है. लेकिन कहा जाता है कि उसका मूल (जड़) तो बहुत पहले आंधी-तूफान में गिर गया पर खासियत यह है कि उसकी दर्जनों शाखाएं मूल होने का अहसास देती हैं. उसी तरह महाश्वेता देवी का कद भी इतना बड़ा लगता था कि उनकी किस रचना और किस संघर्ष को उनके व्यक्तित्व का मूल माना जाए कह पाना कठिन है.

महाश्वेता देवी की देह भले ही 28 जुलाई, 2016 को निष्क्रिय हो गई हो लेकिन उनकी रचना और संघर्ष की शाखाएं हर जगह उनके होने और मूल की तरह होने का अहसास कराती हैं. जिस तरह बॉटनिकल गार्डन के उस वृक्ष की उम्र तय कर पाना कठिन है उसी तरह 91 वर्ष की आयु सीमा में महाश्वेता देवी के रचना कर्म को बांधा नहीं जा सकता. इस संसार में जब से मानवता का संघर्ष चल रहा है तब से महाश्वेती देवी हैं और जब तक चलेगा तब तक वे रहेंगी. वे वेद व्यास की तरह ही आदिम सभ्यता और आधुनिक सभ्यता के संघर्ष की गाथाकार हैं और इस संघर्ष में जब तक न्याय की विजय नहीं होगी तब तक उनकी प्रशाखाएं प्रस्फुटित होती रहेंगी और उनकी प्रेरणा से उनके जैसे रचनाकार, कार्यकर्ता, आंदोलन और रचनाएं जन्म लेती रहेंगी.

हिंदुस्तान अखबार ने जब महाश्वेता देवी से हर रविवार को कॉलम लिखवाने का निर्णय किया तब हिंदी की पहली महिला संपादक मृणाल पांडे चाहती थीं कि कोई बड़ा लेखक काॅलम लिखे क्योंकि पहले के स्तंभकार (संभवतः कमलेश्वर जी) के काॅलम बंद होने के बाद वह स्थान कमजोर पड़ रहा था. मृणाल जी के मन में ऐसी ही कोई बात थी और संयोग से मैंने महाश्वेता जी का नाम लेकर उनके मुंह की बात छीन ली. मेरे सुझाव को उन्होंने तत्काल मान लिया. मृणाल जी की मां और हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका गौरा पंत शिवानी शांतिनिकेतन में महाश्वेता जी की सीनियर थीं और उस नाते उनका एक घनिष्ठ रिश्ता था.

इस संसार में जब से मानवता का संघर्ष चल रहा है तब से महाश्वेता देवी हैं और जब तक चलेगा तब तक वे रहेंगी. वे आदिम सभ्यता और आधुनिक सभ्यता के संघर्ष की गाथाकार हैं

पुराने साथी कृपाशंकर चौबे कोलकाता में हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. उनका भी महाश्वेता जी से प्रगाढ़ रिश्ता था. उन्होंने ‘महाअरण्य की मां’ शीर्षक से उनकी जीवनी लिखी है. कुल मिलाकर संयोग ऐसा बना कि महाश्वेता जी तैयार हो गईं और कृपाशंकर जी के अनुवाद के साथ मूलतः बांग्ला में लिखा जाने वाला उनका स्तंभ ‘परख’ हिंदी जगत में हिट हो गया. उससे हिंदुस्तान अखबार की साख बढ़ी. साथ ही हिंदी के कई लेखकों-पत्रकारों को उन्होंने अपने उस काॅलम में आशीर्वाद भी दिया, जिनमें केदार नाथ सिंह, नवीन जोशी और अरविंद कुमार सिंह जैसे नाम उल्लेखनीय हैं. इस कॉलम के माध्यम से उन्होंने कई ऐसे मुद्दे उठा दिए जिन पर उदारीकरण के लोभ में फंसा हमारा देश बात करने से घबराने लगा था. सिंगूर में टाटा की नैनो कार की फैक्टरी लगाए जाने के विरुद्ध विस्थापित होने वाले किसान भड़क उठे. वह दौर उदारीकरण का स्वर्ण युग था और भारतीय उद्योग जगत और उसका सहोदर कॉरपोरेट मीडिया वैश्वीकरण की उपलब्धियों का बखान करने से थकते नहीं थे. जो लोग प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह की कड़ी आलोचना करते हैं, वे ही उनकी बल्ले-बल्ले कर रहे थे. उदारीकरण का प्रताप इतना तेज था कि राष्ट्रीय स्तर पर उसकी आलोचना करने वाली माकपा ने भी पश्चिम बंगाल की अपनी सरकार को उसी रास्ते पर डाल दिया था. बाजार को ध्यान में रखकर काम करने वाले मीडिया प्रबंधन और उसके इशारे पर चलने वाले पत्रकारों के कारण दिल्ली के मुख्यधारा के मीडिया में सिंगूर के किसानों के आंदोलन और उदारीकरण के बुरे प्रभावों पर टिप्पणी करना दुष्कर होता जा रहा था. महाश्वेता जी ने अपने कॉलम में वह बैरियर तोड़ दिया. उन्होंने पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार की कड़ी आलोचना की और किसानों के पक्ष में खड़ी हो गईं. विडंबना देखिए कि अखबार प्रथम पृष्ठ पर ‘नैनों में बस गई नैनो’ शीर्षक से टाटा की परियोजना के पक्ष में खबरें छाप रहा था और भीतर महाश्वेता जी के कॉलम में उसी की आलोचना हो रही थी. यह किसी अखबार की लोकतांत्रिक खूबसूरती होती है और काॅरपोरेट सीमाओं में भी वह प्रतिबद्धता मृणाल पांडे के संपादकीय व्यक्तित्व में दिखती थी.

महाश्वेता जी के कॉलम में सिंगूर जैसे बहुफसली क्षेत्र में टाटा की औद्योगिक परियोजना की आलोचना से मेरा साहस भी बढ़ा और मैंने संपादकीय पेज पर एक कड़ी किंतु विश्लेषणात्मक टिप्पणी लिख डाली. उन्हें वह टिप्पणी जंची और उसका बांग्ला अनुवाद भी करवाया और कोलकाता के बांग्ला पत्रों में प्रकाशित करवाया. फिर तो उन्होंने अपनी बांग्ला पत्रिका ‘वर्तिका’ के हिंदी संस्करण के संपादन का दायित्व भी मुझे दिया और उसका पहला अंक ‘सिंगूर-नंदीग्राम से निकले सवाल’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. उसके बाद खाद्य संकट की चुनौती, परमाणु करार के खतरे, माओवादी या आदिवासी, भ्रष्टाचार और अन्ना आंदोलन जैसे कई विषयों पर वर्तिका के अंक उनके साथ संपादित करने का सुअवसर मिला और उन सभी अंकों में वैश्वीकरण और उदारीकरण की कमियों और उसके खतरों की पड़ताल करके उसे हिंदी के पाठकों तक पहुंचाने का काम हुआ.

सिंगूर और नंदीग्राम के मुद्दे पर जब उन्होंने किसानों के आंदोलन में भागीदारी की उसी दौरान उनसे दिल्ली और कोलकाता में मिलना हुआ. उनसे मिलना उनकी ममता की बारिश में नहा लेने जैसा था. दोनों बार मैं परिवार और रिश्तेदारों के साथ मिला. उसी दौरान वे दिल्ली के सीआर पार्क की महिलाओं को मंच से सीख दे रही थीं कि तुम लोग साड़ी, गहना और सौंदर्य प्रसाधन पर बहुत खर्च करती हो, इससे कुछ हासिल नहीं होगा. बेहतर हो किताबें खरीदो और पढ़ो. गरीबों की मदद करो और समाज के अधिकार विहीन लोगों के लिए लड़ो. उनकी बातों से लगा कि वे उदारीकरण से उपजे भारतीय मध्य वर्ग को उसी तरह संबोधित कर रही हैं जैसे ‘1084वें की मां’ में सुजाता करती और भोगती है.

कोलकाता में उनके घर में जाकर देखा तो सब कुछ वैसा ही मिला जो वे मंच से कह रही थीं. एक आदिवासी परिवार सदस्य की तरह उनके घर में रह रहा था. उनके बेटे नवारुढ़ भट्टाचार्य और बेटे जैसा ही स्नेह पाने वाले कृपाशंकर चौबे के साथ चारपाई पर बैठकर मूढ़ी खा रहा था तभी एक बच्चा दादी मां कहते हुए अपनी काॅपी जंचवाने आ गया. उस बच्चे की काॅपी उन्होंने पूरे धैर्य के साथ जांची और आगे भी कुछ लिखने को दिया. बातचीत के दौरान उन्होंने खिड़की से बाहर बिजली के खंभों की ओर इशारा करके बताया कि नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौरान इन्हीं के पास नौजवान खड़े रहते थे और उनसे छिप-छिपकर मिलते थे. उन युवकों ने अनुरोध किया कि हमारे लिए भी कुछ लिखिए. हमारा बहुत दमन हो रहा है. हमें फर्जी मुठभेड़ों में मारा जा रहा है. पुलिस हमारे पीछे पड़ी है. तब ‘1084वें की मां’ का सृजन हुआ. उनके वर्णन के साथ 1084वें की मां के अंतिम वाक्य सामने साक्षात उपस्थित हो गए- ‘कहां-कहां फिर से भागेगा व्रती? कहां भागेगा? कहां नहीं हैं हत्यारे, कहां नहीं है गोली, पुलिस-वैन और जेल? यह महानगरी, गंगापुत्र बंगाल में, उत्तर बंगाल में, जंगल, पहाड़, बर्फ ढंके प्रांत, राढ़ देश के कंकरीले बांध, सुंदर वन के खारे पोखर, वन, शस्य, खेत, कल-कारखाने, कोयला-खान, चाय-बागान, कहां-कहां भागेगा व्रती? कहां खो जाएगा फिर से? भाग मत व्रती, मेरे पास लौट आ, लौट आ व्रती, मत भाग अब.’

नक्सल आंदोलन से जुड़े युवकों ने अनुरोध किया कि हमारे लिए भी कुछ लिखिए. हमारा बहुत दमन हो रहा है. हमें फर्जी मुठभेड़ों में मारा जा रहा है. तब ‘1084वें की मां’ का सृजन हुआ

महाश्वेता देवी को देखकर मन में दो भाव जगते थे. एक तो यह कि एक लेखिका के तौर पर कितनी चमकदार उपलब्धियां हैं. क्या करिअर है इस लेखिका का, जिसकी लोकप्रियता अपार है और जिसकी झोली में पुरस्कार भरे हुए हैं. साहित्य अकादेमी, ज्ञानपीठ पुरस्कार और मैग्सेसे सम्मान. बस नोबेल बाकी है. संभवतः 2009 में उसकी भी चर्चा जोर-शोर से चली थी. ऊपर से कई बड़े नेता और उद्योगपति पैर छूते हैं. लेकिन दूसरी तरफ लगता था कि ये तो अग्निशिखा की तरह जलने वाली झांसी की रानी हैं जिन्हें इस बात की कोई फिक्र नहीं है कि उन्हें कौन-से पुरस्कार मिले और कौनसे न मिले. उन्हें तो अपने उन आदिवासियों की चिंता है जिसके लिए वे लिखती थीं और जिनके लिए जीती थीं. उन्हें अपने उन किसानों की चिंता थी जिनके संघर्ष में अस्सी पार करने के बाद भी उतर पड़तीं और इंसुलिन का इंजेक्शन लेकर सिंगूर और नंदीग्राम पहुंच जाती थीं, चाहे लौटकर अस्पताल में ही भर्ती होना पड़े. पुरस्कार तो अपने आप मिल जाता है. अगर उन्हें पुरस्कार चाहिए तो अपने आदिवासियों को देने के लिए. अगर प्रसिद्धि चाहिए तो अन्याय के विरुद्ध इस व्यवस्था पर दबाव बनाने के लिए. अगर संपर्क हैं तो किसी लाचार की मदद करने के लिए, आॅपरेशन ग्रीन हंट रुकवाने के लिए.

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दरअसल महाश्वेता देवी का मन एक प्रकार से झांसी की रानी का मन था, जिसमें देशप्रेम, बहादुरी कूट-कूट कर भरी थी. उसमें ‘जिन्हें मैं झांसी नहीं दूंगी’ जैसा स्वार्थ देखना हो देखें लेकिन वे तो भारत के सतत विद्रोह की रणस्थली थीं, जिसमें बिरसा मुंडा के विद्रोह से लेकर सिंगूर और नंदीग्राम के विद्रोह तक की आग धधकती रही. वे साम्राज्यवाद के विरुद्ध विद्रोही मन हैं. वे सामंतवाद के विरुद्ध विद्रोही मन हैं. वे पूंजीवाद के विरुद्ध विद्रोह करने वाली चेतना हैं और वे उसके नए रूप उदारीकरण और वैश्वीकरण के विरुद्ध एक ललकार हैं.

1956 में ‘झांसी की रानी’ लिखने के बाद जब महाश्वेता देवी ने ‘जली थी अग्निशिखा’ लिखी तो उसमें अंग्रेज अधिकारी ह्यूरोज के मन के उस द्वंद्व को व्यक्त किया जो भारतीय नारी के लिए चल रहा होता है. ‘नहीं, समझा नहीं सका. रानी ने एक मनुष्य के रूप में मेरे मन को लंबे समय तक आस्थावान बनाए रखा है. कितनी परिस्थितियों में ही तो देखा है. बीच-बीच में लगता था कि मनुष्य उसकी बातों को समझेगा नहीं इसलिए घोड़ी के साथ बातें करती थीं. घोड़ी से तो इतना प्यार करती है, उसे रक्तपिशाच क्यों मानते हैं सभी लोग? ये लोग क्या समझेंगे? अंग्रेज स्त्रियों और बच्चों की हत्या रानी के नाम पर एक घृणास्पद अपराध है. लड़ाई होती है, हो किंतु उसके नाम के साथ किसी घृणित अपराध का कलंक लगा रहे, वही उसे सहन नहीं हो रहा है. उसी कारण बार-बार लिखा है. मृत्यु दंड से वह दंडित होगी यह जानकर भी लिखा है. किसी दिन क्या कोई सत्य बात लिखेगा नहीं?’

उन्हें उन किसानों की चिंता थी जिनके संघर्ष में 80 पार करने के बाद भी उतर पड़तीं और इंसुलिन लेकर सिंगूर और नंदीग्राम पहुंच जाती थीं, लौटकर भले अस्पताल में ही भर्ती होना पड़े

संभव है ह्यूरोज जैसा प्रश्न इस व्यवस्था का कोई हिमायती महाश्वेता देवी के बारे में करे. वैसा करने वालों में बुद्धदेब भट्टाचार्य भी हो सकते हैं. प्रकाश करात भी हो सकते हैं, सीताराम येचुरी भी हो सकते हैं. उनके अलावा ममता बनर्जी भी हो सकती हैं. यह प्रश्न करने वाले वे नक्सलवादी भी हो सकते हैं जिन्हें उनका स्नेह और आशीर्वाद मिला है. माकपा के लोग पूछ सकते हैं कि आखिर क्यों वामपंथी होते हुए महाश्वेता देवी ने पश्चिम बंगाल से वामपंथ का विनाश करने वाली ममता बनर्जी की राजनीति का समर्थन किया. ममता बनर्जी जिन्होंने महाश्वेता देवी का राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार करवाया वे पूछ सकती थीं कि क्यों उन्होंने माओवादी किशन जी के मारे जाने पर पत्र लिखे और मनमुटाव कायम किया या उनके कई फैसलों का विरोध किया. इसी तरह माओवादी पूछ सकते हैं कि आखिर क्यों पश्चिम बंगाल में माओवाद पर ममता के दमनचक्र का डटकर विरोध नहीं किया या आदिवासियों और माओवादियों की हितैषी होते हुए भी उन्होंने राजकीय सम्मान के साथ अपना अंतिम संस्कार करने की मनाही क्यों नहीं की थी? माओवादी मैग्सेसे पुरस्कार पर भी आपत्ति कर सकते हैं और महाश्वेता जी के इंदिरा गांधी से लेकर तमाम राजनेताओं से संबंधों पर भी.

ये वे प्रश्न हैं जो किसी लेखक को पूरी तरह क्रांतिकारी या किसी क्रांतिकारी को पूरी तरह लेखक बनने से रोकते हैं. संभवतः किसी एक्टिविस्ट और लेखक का जीवन ऐसा ही होता है और इसी दायरे में वह समाज को संवेदनशील बनाने और व्यवस्था के भीतर आदिवासी, दलित, स्त्री और वंचित के हितों के लिए जगह बनाता है.

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यह सवाल आदिवासियों के एक और हितैषी और उनके विकास के सिद्धांतकार डाॅ. ब्रह्मदेव शर्मा के बारे में भी लोग उठाते हैं. लोग कहते हैं कि डाॅ. ब्रह्मदेव शर्मा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच अफसर बन जाते थे और अफसरों के बीच राजनीतिक कार्यकर्ता. वे इमरजेंसी में इंदिरा गांधी के विश्वासपात्र अधिकारी थे. इसके बावजूद इस बात से कौन इनकार करेगा कि अनुसूचित जाति/जनजाति के आयुक्त के रूप में अपनी 28वीं और 29वीं रपट में दलितों और आदिवासियों की स्थिति रखते हुए उन्होंने नर्मदा आंदोलन खड़ा करने में, मोर्स बर्गर कमेटी की रपट तैयार करवाने में, भूरिया कमेटी की रपट बनवाने में और पेसा कानून का मसविदा तैयार करवाने में अपना अमूल्य योगदान दिया.

लेकिन चाहे ब्रह्मदेव शर्मा हों या महाश्वेता देवी वे बिरसा तो नहीं हैं. वे जंगल के दावेदार के वकील जैकब हो सकते हैं या अमलेश बाबू? या इससे ज्यादा कहें तो बेरियर एल्विन? शायद आदिवासियों की तरफ से देखें तो वे और ज्यादा लगें लेकिन दूसरी तरफ से देखें तो वे अमलेश बाबू की तरह कहीं से निराश लगते हैं. क्योंकि बाद में ब्रह्मदेव शर्मा कहते थे कि ताकत नहीं है, नहीं तो बंदूक उठा लेता. उसी तरह महाश्वेता देवी के अंतिम दिनों की क्या पीड़ा थी यह तो वे ही जानें या अंतिम दिनों में लिखी गई उनकी रचनाएं. क्योंकि ममता बनर्जी मां, माटी, मानुष के जिस सपने के साथ आई थीं और जिस नारे को गढ़ने में महाश्वेता जी का योगदान था वह पूरा नहीं हुआ. बल्कि छला गया.

तभी ‘जंगल के दावेदार’ के अमलेश बाबू बिरसा के मरने पर और आदिवासियों का मुकदमा खत्म होने के बाद कहते हैं, ‘उसके बाद मैंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया.’ जैकब पूछता है, ‘क्यों?’

वे जवाब देते हैं, ‘क्यों, यह क्या मुझे भी खुद खाक-धूल पता है? मैं इसी शिक्षा व्यवस्था, समाज-व्यवस्था का आदमी हूं. यह व्यवस्था न तो देती है मौलिक अधिकार, न सिखाती है विवेक-बोध. मुंडा विद्रोह के मामले में बंगाली किरस्तान अमूल्य अब्राहम को क्यों तकलीफ होती है? क्यों मुकदमे के खत्म होने पर मैंने नौकरी छोड़ दी.’

‘मुझे अब और कुछ छोड़ने को नहीं रहा. मैं अब और कुछ कर नहीं सकता. मेरी उंगलियां कितनी पतली हैं. चमड़ा कितना मुलायम है. मैं न तो तीर छोड़ सकता हूं और न ही जानता हूं बलोया चलाना. मैं इतना ही कर सकता था. बाकी जीवन तुम्हें समझने की कोशिश करूंगा. तुम कौन हो? तुम समय से पहले पैदा हुए थे या समय ने तुम्हें पैदा किया था? तुम्हारा आंदोलन क्या था? मुंडा लोग क्या जंगल पर कभी अधिकार पा सकेंगे? उनके जीवन से महाजन, बनिया, जमींदार, जोतदार, हाकिम, अमले-थाना, बेगारी के पत्थरों का-सा भार तभी उतर पाएगा?’

उन्हें उन किसानों की चिंता थी जिनके संघर्ष में 80 पार करने के बाद भी उतर पड़तीं और इंसुलिन लेकर सिंगूर और नंदीग्राम पहुंच जाती थीं, लौटकर भले अस्पताल में ही भर्ती होना पड़े

ये गंभीर सवाल हैं जिनका जवाब महाश्वेता देवी अपने अगले उपन्यास ‘चोट्टि मुंडा और उसका तीर’ में देने की कोशिश करती हैं. इमरजेंसी में बेगार प्रथा समाप्त कर दी जाती है. लेकिन उसके लागू होने में पहले की तरह अड़चनें हैं. जो कांग्रेसी थे वही बाद में जनता दली बन जाते हैं और दमनकारी सामंतों और हाकिमों का गठजोड़ जस का तस रहता है. आखिर चोट्टि मुंडा जो स्वयं बेगार नहीं है लेकिन बिरसा के साथ लड़ने और घातक धनुर्धर होने के कारण पाबंदी झेल रहा है उसे तीर चलाना पड़ता है.

महाश्वेता देवी एक लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर आदिवासियों को वे सारे अधिकार दिलाने के लिए सक्रिय रहीं जो उन्हें मिलना चाहिए और जिसके लिए वे डेढ़ सौ साल से संघर्ष कर रहे हैं. उसके लिए वे कलम भी उठाती थीं और सड़क पर उतरती थीं. उनकी ताकत बड़ी थी तो उनकी पीड़ा भी छोटी नहीं थी. सारा जीवन किराये के मकान में रहना. पति विजन भट्टाचार्य का उन्हें त्याग कर अपर्णा सेन के साथ रहने चले जाना, असीत गुप्ता के साथ डेढ़ साल के लिए रहना, बेटे नवारुढ़ भट्टाचार्य से पहले मनमुटाव हो जाना और फिर उनके जीते जी नवारुढ़ का कैंसर से देहांत. यह सब अग्निपरीक्षा ही है किसी स्त्री के जीवन की. फिर भी अपने समय से खिड़की के पास रखे कुर्सी-मेज पर नियमित लिखने के लिए बैठ जाना. न कोई एसी और न ही कंप्यूटर. 14 जनवरी को जन्मदिन की बधाई देने के लिए फोन करो तो कहती थीं, ‘अरुण अब और कितने दिन हमें जिंदा रखना चाहते हो.’ भरपूर जीवन जीने का संतोष भी था तो गरीबों और मजलूमों को पूरा हक न मिलने का अधूरापन भी. वे एक महासमर में थीं, जिसमें उन्होंने लेखकों और कलमजीवियों को समाज के पक्ष में खड़े होने की प्रतिबद्धता दी और कौशल सिखाया. उन्होंने आदिवासियों और किसानों को लड़ाई लड़ना और जीतना भी सिखाया. उन्होंने युद्ध जीते और विजय दिवस भी मनाए. लेकिन उन्हें मालूम था कि वे महासमर में हैं इसलिए लड़ाई अभी जारी है. वे अपने पीछे लंबी लड़ाई छोड़ गई हैं जिसे इस सभ्य समाज को अपनों से लड़ना ही होगा.

आदिवासी हूं, मुश्किलों को चुनौती नहीं मानता और खुद को माओवादी कहे जाने से भी नहीं घबराता : बीजू टोप्पो

मेघनाथ (बाएं) और बीजू
मेघनाथ (बाएं) और बीजू
मेघनाथ (बाएं) और बीजू

आपने बीकॉम की पढ़ाई की है, पारिवारिक पृष्ठभूमि खेती-किसानी की है. फिर कैमरे से लगाव कैसे हो गया?

जब मैं रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में पढ़ रहा था तभी से राजनीति और सामाजिक सरोकारों में मन रम गया था. रांची आया तो हमारे कुछ साथियों ने मिलकर पलामू छात्रसंघ का गठन किया. तब बिहार और झारखंड अलग-अलग नहीं थे. जब कॉलेज के हॉस्टल में रहता था तो मेघनाथ, महादेव टोप्पो, हेराल्ड टोपनो जैसे झारखंड के सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता अक्सर आते रहते थे. इनकी बातें अच्छी लगती थीं. पढ़ाई के दौरान ही मैंने 200 रुपये में एक कैमरा भी खरीद लिया था. यह हॉट शॉट कैमरा था. उसी वक्त झारखंड के फिल्मकार श्रीप्रकाश ‘किसकी रक्षा’ नाम से एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बना रहे थे. मैं उनके साथ डेढ़ माह तक रहा. अपने कैमरे से ब्लैक ऐंड व्हाइट तस्वीरें भी लेता रहा. बाद में लोगों ने देखा तो कहा कि शॉट अच्छा लेते हो, तस्वीरों की समझ है. पढ़ाई खत्म हुई तो सीधा मेघनाथ के पास चला गया और तब से हम साथ ही काम करते हैं. तब मुझे ज्यादा पता नहीं था लेकिन इतना समझ गया था कि कैमरा एक बहुत सशक्त माध्यम है और इसके जरिए बहुत कुछ किया जा सकता है.

फिर पहली डॉक्यूमेंट्री कब बनाई और यह किस विषय पर थी?

1996 में पहली डॉक्यूमेंट्री ‘शहीद जो अनजान रहे’ बनाई. साहेबगंज जिले में बांझी गांव है, वहां पूर्व सांसद फादर एंथोनी मुर्मू रहते थे. वे अपने इलाके में साहूकारों से लड़ रहे थे. उन्हें मार दिया गया. फादर जब शाम तक लौटकर नहीं आए तो लोग उन्हें ढूंढ़ने निकले. जो लोग उन्हें ढूंढ़ने गए, उन्हें भी एक-एक कर शासन के लोगों ने मार दिया. कुल 13 लोग मारे गए थे. तब यह बिहार का इलाका था. इतने लोग मारे गए लेकिन कहीं कोई चर्चा तक नहीं हुई. उसी पर हम दोनों ने पहली फिल्म बनाई.

फिर तो आप लगातार फिल्में बनाते ही गए. आपने करिअर के रूप में डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माण को चुना. इनके निर्माण के लिए सरकारी फंड भी नहीं लेते. एक साधारण किसान परिवार से होने के नाते आर्थिक स्तर पर रोजमर्रा की मुश्किलों का कैसे सामना करते हैं?

मुश्किलों पर बात नहीं करनी चाहिए. जीवन में मुश्किलें न हों, संघर्ष न हो तो फिर जिंदगी कैसी. और फिर हम तो आदिवासी हैं. आदिवासी अपनी मुश्किलों का रोना कभी नहीं रोता. हां, किसान का बेटा हूं और मैं खुद किसान हूं. किसान के जीवन में जो परेशानी होती है, वह मेरे जीवन में भी रही है लेकिन कभी खेती करना नहीं छोड़ा. वह तो मेरा मूल पेशा है. एक बार अगर बरसात में खेती करने घर न जाऊं, खेतों में काम न करूं तो पिता जी का बुलावा आने लगता है. मेरे पिता हमेशा एक ही बात समझाते हैं कि सिनेमा बनाओ या कोई और काम करो. अपने समाज और समूह की बात करना और अपना मूल कर्म यानी खेती कभी नहीं छोड़ना. रही बात डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माण को करिअर के तौर पर चुनने की तो इसे करिअर जैसा सोचकर नहीं चुना. बस मुझे कैमरा एक सशक्त माध्यम लगा तो उसका साथी हो गया.

गांव की बात चली है तो अपनी पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताएं.

मैं मूल रूप से पलामू का रहने वाला हूं. पलामू प्रखंड के लातेहार जिले के एक गांव लुरगुमी का रहने वाला हूं. पिता जी किसान हैं. गांव में ही रहकर पढ़ाई की. सातवीं कक्षा में था तो एक स्कॉलरशिप के लिए चयन हो गया. फिर पास के ही बाजार महुआडांड़ में एक स्कूल में पढ़ने आ गया. वहां से मैट्रिक फिर सेंट जेवियर्स कॉलेज, रांची से बीकॉम और बीकॉम के आखिरी पेपर की जिस दिन परीक्षा हुई उस दिन से कैमरे के साथ हूं.

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पिछले 20 साल के अपने फिल्म मेकिंग के करिअर में आपने आदिवासियों से संबंधित कई जरूरी सवाल उठाए लेकिन इस समाज के तमाम मसले आज भी दुनिया के सामने उस तरह से नहीं आ पा रहे हैं जैसा कि आने चाहिए.

करने वाले कर ही रहे हैं. ऐसा नहीं कि काम नहीं हो रहा है लेकिन इसके लिए आदिवासी समाज को भी जागरूक होना होगा. आदिवासी समाज के नव मध्य वर्ग के साथ दूसरी परेशानी है. वे भी दूसरे समुदाय के लोगों की तरह इंजीनियर, डॉक्टर जैसे अधिक पैसा कमाने वाले पेशों को चुन रहे हैं. यह अच्छी बात है लेकिन जो ठीक-ठाक घर से हैं, उनको अपने बच्चों को साहित्य, संस्कृति, मीडिया आदि में भी भेजना चाहिए या फिर भेजने को प्रेरित करना चाहिए. यही माध्यम है जो आदिवासी समाज को मजबूत बनाएगा. और ज्यादा नहीं, आठ-दस लोग भी हो जाएं तो देखिएगा कैसे स्थितियां बदल जाती हैं.

तो इसका मतलब आप मानते हैं कि आदिवासी समाज की बात दूसरे लोग नहीं कर रहे या जब आदिवासी ही करेगा तो ठीक से करेगा. आपकी क्या राय है?

नहीं, ऐसा नहीं है. दूसरे समाज के कई लोग भी हैं जो बहुत ईमानदारी से आदिवासियों की बात करते हैं और कर रहे हैं. मैं ऐसा नहीं मानता कि आदिवासी ही आदिवासी की बात करेगा. दलित ही दलित की बात करेगा लेकिन अगर इसी समाज के लोग आएंगे तो वे भोगे हुए यथार्थ के छोटे हिस्से को भी एक बड़े फलक के तौर पर लोगों के सामने ला सकते हैं. जैसे निर्देशक नागराज मंजुले का उदाहरण ले सकते हैं. उनकी फिल्म ‘सैराट’ कितनी चर्चा में है. मंजुले ने तीन ही फिल्में बनाई हैं. पहली ‘इस्तुलिया’, दूसरी ‘फंड्री’ और तीसरी ‘सैराट’. फंड्री का मतलब सुअर होता है. मंजुले को किसी ने फंड्री कहकर गाली दी तो उन्होंने फिल्म बनाकर जवाब दिया. अगर आदिवासी समाज से ऐसे लोग उभरेंगे तो सही तरीके से जवाब दिया जाएगा.

आपने कई फिल्में बनाई हैं. इनमें से कौन-सी आपके दिल के करीब है?

कैसे बताएं. सभी फिल्में तो अंतर्मन से ही बनाते हैं और सभी दिल और मन के करीब ही हैं, लेकिन ‘कोड़ा राजी’ डॉक्यूमेंट्री से हमेशा से एक अलग तरह का लगाव रहा है. 2001 की बात है. मैं अपनी पत्नी और दो साल के बेटे के साथ उत्तर-पूर्व की यात्रा पर गया था. उन राज्यों में अपने कुछ परिजन रहते हैं तो उनसे मिलने की भी योजना थी. साथ में कैमरा रख लिया था. मुझे उत्तर-पूर्व की कोई जानकारी नहीं थी. पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार स्टेशन पर उतरा तो एक साथी जो साथ गए थे, वे भी वहीं पर कुछ समय के लिए रुक गए. आगे असम के सुदूर इलाकों की यात्रा शुरू हुई. पत्नी के साथ बच्चा और पीठ पर कैमरा टांगे खाक छानते रहे. जिन परिजन के पास एक महीने पहले चिट्ठी भेजी थे, वहां चिट्ठी मेरे जाने के बाद पहुंची. यहां किसी तरह भूलते-भटकते असम के एक चाय बागान में काम करने वाले अपने परिजनों के पास पहुंच गए. यहां तकरीबन 22 चाय बागान बंद थे. मजदूरों की हालत दिल को दहला देने वाली थी. अधिकांश आदिवासी मजदूर थे. उनकी हालत कैमरे से शूट की. असम के डिगबोई में था तो वहां मालूम चला कि उसका नाम डिगबोई क्यों पड़ा. वहां मिट्टी खोदने के लिए जो आदिवासी बच्चे गए थे उन्हें अंग्रेज ‘डिग बॉय’ कहते थे. उसी से उसका नाम डिगबोई पड़ा. वहां चाय बागान में जब लोगों के गीत सुने तो लगा कि सारे गीत अपने गांव के हैं. कई गीतों में पलायन की पीड़ा है. फिर वहीं से उत्तर बंगाल के चाय बागानों का भी दौरा किया. असम से अपने इलाके में लौटा तो ऐसे मजदूरों को खोजने लगा जो दूसरे राज्यों से लाए जाते थे. लोहरदगा और हजारीबाग में ऐसे मजदूर मिल गए. इसके बाद पहली बार अपनी कुरुख भाषा में फिल्म बनाई, ‘कोड़ा राजी’. इस फिल्म को दुनिया भर में पसंद किया गया. अमेरिका के इमेज नेटिव में यह फिल्म गई. वहां कहा गया कि भारत से पहली बार किसी आदिवासी की बनाई हुई फिल्म आई है. नेशनल जियोग्राफिक चैनल ने इस फिल्म को लिया लेकिन वीएचएस फॉर्मेट में होने के कारण वह चल नहीं सकी. इस फिल्म को बहुत सारे सम्मान मिले.

आपने तो कुरुख भाषा में डॉक्यूमेंट्री ‘सोना गही पिंजरा’ भी बनाई है. उसके बारे में बताइए.

वह तो बस एक प्रयोग है. इस बात की तैयारी कि भविष्य में कोई फीचर फिल्म बना सकता हूं या नहीं. ‘सोना गही पिंजरा’ को अपने ही गांव में बनाया है. अपने गांव में देखता हूं कि नौकरी के चक्कर में लोगों को गांव छोड़ना पड़ा. पर्व-त्योहारों में उन्हें अपने घर आने की छटपटाहट रहती है लेकिन छुट्टी न मिल पाने के कारण वे नहीं आ पाते. तब मोबाइल एक सहारा बनता है. यह फिल्म इसी मुद्दे पर आधारित है.

डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की स्क्रीनिंग की भी कम बड़ी समस्या नहीं है. आपके गांववाले आपकी फिल्में देखते हैं कभी?

हां, स्क्रीनिंग की समस्या है लेकिन पहले जैसी बात नहीं रही अब. अब तो ढेरों विकल्प और माध्यम खुल गए हैं. आज के 20 साल पहले तक लगता था कि हम किसलिए, किसके लिए फिल्में बना रहे हैं. अब तो शो भी होते हैं. यू-ट्यूब जैसे बेहतर विकल्प हैं. अब अलग बात है कि अमेरिका की तरह यहां डॉक्यूमेंट्री फिल्में सिनेमा हॉल में नहीं लगतीं लेकिन धीरे-धीरे दायरे का विस्तार हो रहा है. मैं अभी केरल के त्रिशूर शहर में गया था. वहां मेरी हालिया फिल्म ‘द हंट’ को सम्मानित करने के लिए मुझे बुलाया गया था. केरल में कुछ लोग मिलकर दो दिन का डॉक्यूमेंट्री फिल्मोत्सव करवाते हैं. इसमें स्कूल-कॉलेज के छात्र भाग लेते हैं और उन पर चर्चा करते हैं. यह माहौल अपने यहां अभी नहीं है लेकिन प्रतिरोध का सिनेमा के तहत होने वाले गोरखपुर फिल्मोत्सव, बनारस फिल्मोत्सव, पटना फिल्मोत्सव के जरिए धीरे-धीरे माहौल बन रहा है. रही बात मेरे गांव में अपनी फिल्में दिखाने की तो मैं गांववालों को हमेशा अपनी फिल्में दिखाता हूं. अपना प्रोजेक्टर लेकर चला जाता हूं. गांव के लोग चंदा करते हैं. जेनरेटर और साउंड सिस्टम मंगवाते हैं और मेरी फिल्म देखते हैं. जब अपने गांव के ही लोग नहीं समझ पाएंगे कि मैं कुछ कर रहा हूं और जो कर रहा हूं वह अपने समूह के लिए सार्थक है तो फिर पूरी दुनिया में फिल्म दिखाते रहने का क्या मतलब.

 

राष्ट्रीय पुरस्कार बीजू और मेघनाथ की जोड़ी को उनकी दो फिल्मों के लिए साल 2010 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला
राष्ट्रीय पुरस्कार बीजू और मेघनाथ की जोड़ी को उनकी दो फिल्मों के लिए साल 2010 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला

आपकी हालिया फिल्म ‘द हंट’ को कई सम्मान मिले हैं. इसके बारे में कुछ बताएं.

यह फिल्म माओवादियों को मारने के नाम पर सरकार द्वारा कुछ वर्ष पहले शुरू किए गए ऑपरेशन ग्रीन हंट पर आधारित है. इस ऑपरेशन का मकसद क्या था, यह बताने की कोशिश हमने इस फिल्म के माध्यम से की है. दरअसल इसका मकसद माओवादियों को खदेड़ना नहीं बल्कि उन इलाकों को खाली कराना था जहां लोग रह रहे हैं और जमीन के अंदर खनिज संपदा है. संपदाओं पर कब्जे के लिए माओवादियों का बहाना बनाया गया. सबसे बड़ी बात यह है कि माओवादियों के नाम पर आम आदमी किस तरह प्रताड़ित हुए यह देखेंगे तो आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे. झारखंड के सारंडा से लेकर छत्तीसगढ़ के बस्तर तक हजारों लोग अपने गांव नहीं लौट पा रहे. वे माओवादी नहीं हैं लेकिन अपनी जमीन से उखाड़े जा चुके हैं.

माओवादियों के बारे में क्या सोचते हैं?

मैं माओवादियों पर कई तरह की सोच रखता हूं. उनके बारे में अधिकांशतः यही कहा जाता है कि वे रास्ता भटक गए हैं. लेवी (एक तरह की रंगदारी) ही उनका मूल उद्देश्य है. आज तो कोई भी आठ-दस लोग मिलकर एक माओवादी संगठन बना ले रहे हैं. यह सही है, इससे इनकार नहीं लेकिन मैं पलामू इलाके का रहने वाला हूं. वह इलाका माओवादियों का गढ़ बाद में बना, पहले सामंतों का गढ़ था. मैंने देखा है बचपन में सामंतों का जुल्म. एक साधारण बस से यात्रा कीजिए तो सामंत के छोटे बच्चे पूरे रास्ते आम लोगों को भद्दी-भद्दी गालियां देते हुए जाते थे, कोई कुछ नहीं बोलता था. और भी न जाने कितने तरीके के जुल्म करते थे. आज तो यह कह सकता हूं कि सबसे बड़े सामंती इलाके में आज अगर वे बैकफुट पर आए हुए दिखते हैं तो उसमें माओवादियों की ही भूमिका रही है. रही बात लेवी की तो चलिए मैंने मान लिया कि माओवादी लेवी लेते हैं लेकिन आप बताइए तो आपके गांव में एक तालाब तक बनता है तो क्या सौ प्रतिशत पैसा तालाब में लगता है? ऊपर से शुरू होता है और चपरासी तक का कमीशन बंधा हुआ है. सब कमीशन लेते हैं. वह भी तो सरकारी लेवी ही है. उस सरकारी आतंक का विरोध उसी तरह क्यों नहीं होता. क्यों नहीं उसी तरह से बात करते लोग उस लेवी पर? मैं और विभाग की बात क्या करूं? सिनेमा में हूं. मैंने कभी सरकारी फंड से सिनेमा तो नहीं बनाया लेकिन कई साथी आते हैं, तो बताते हैं कि सिनेमा के लिए जो पैसा मिलता है, उसमें 30 प्रतिशत कट मनी पहले ही रख लिया जाता है.

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मराठी फिल्मों के निर्देशक नागराज मंजुले को किसी ने फंड्री कहकर गाली दी तो उन्होंने फिल्म बनाकर जवाब दिया. फंड्री का मतलब सुअर होता है

आप माओवादियों के पक्ष में बात कर रहे हैं. आपको भी लोग माओवादी कहते हैं.

सुनने में आया है कि फेसबुक पर कुछ लोग लिख रहे हैं कि बीजू तो माओवादी है. अरबपति है. मैं यह सब तनाव लेता ही नहीं. सोशल मीडिया की दुनिया से दूर रहता हूं. साल भर में एक से दो बार फेसबुक खोलकर देख लेता हूं. रही बात मुझे माओवादी कहने की तो आदिवासी हूं तो खुद को माओवादी कहे जाने को लेकर हमेशा ही तैयार रहता हूं कि यह आरोप लगेगा. आदिवासियों को तो कभी भी माओवादी कह दिया जाता है. एक घटना बताता हूं. मध्य प्रदेश में गुजरात की सीमा से सटा एक कस्बा है अलीराजपुर. वहां हर साल आदिवासियों का एक सम्मेलन होता है. वह सम्मेलन देखने की इच्छा थी. वर्षों पहले हम अपने एक साथी के साथ सम्मेलन देखने गए. सम्मेलन में भारी भीड़ थी. हम बस स्टैंड की ही एक दुकान पर अपना सामान रख गए थे. सम्मेलन में हंगामा हो गया. इसके बाद अलीराजपुर में बात फैलाई गई कि माओवादियों की सभा है. सम्मेलन के बाद बस स्टैंड की दुकान पर अपना सामान लेने लौटे तो हमें घेर लिया गया कि हम माओवादी हैं. हम अपनी बात कहते रहे लेकिन लोग माओवादी कहकर घेरते रहे. किसी तरह मामला शांत हुआ. तो कहने का मतलब यह कि आदिवासी हैं तो हम पर तो कभी भी माओवादी होने का ठप्पा लग सकता है. इसे लेकर मैं परेशान नहीं रहता.

मेघनाथ के साथ मिलकर आपने ‘गांव छोड़ब नाही’ जैसी म्यूजिकल सीरीज भी बनाई. आप दोनों के बीच कभी किसी बात को लेकर विवाद हुआ है?

विवाद तो कभी नहीं हुआ, क्योंकि विषय को लेकर जितना तर्क-वितर्क करना होता है वह कैमरा लेकर मैदान में उतरने से पहले ही हो जाता है. बाद में एडिटिंग टेबल पर दोनों के बीच रस्साकशी होती है. वह जरूरी भी है तभी बेहतरीन काम हो भी पा रहा है. रही बात ‘गांव छोड़ब नाही’ सीरीज की तो इसे केपी शशि ने निर्देशित किया है. मेघनाथ दा ने गीत लिखे हैं और कुछ लोगों से लिखवाए भी हैं. हम सबने उसमें अपनी भूमिका निभाई है. यह तो दुनिया भर के आंदोलनकारियों के लिए, विशेषकर अपनी जमीन से उखाड़े जा रहे लोगों के लिए सूत्रगीत बन चुका है.

फीचर फिल्म बनाने का इरादा है?

हां है न! क्यों नहीं है. बनाएंगे लेकिन वह अपनी बात होगी. अपने लोग उसमें नायक होंगे. सब कुछ अपना होगा.

समान नागरिक संहिता तो छोड़िए हमने तो आपराधिक संहिता को भी समान नहीं रहने दिया: आरिफ मोहम्मद खान

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Photo : Tehelka Archives

समान नागरिक संहिता लागू किए जाने के बारे में आपकी क्या राय है?

हमारा संविधान अपने अनुच्छेद 44 के द्वारा राज्य के ऊपर यह जिम्मेदारी डालता है कि वह भारत के समस्त नागरिकों के लिए समान सिविल संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा. हम सब संविधान को मानते हैं और जो लोग लोकतंत्र में हिस्सा लेते हैं वे तो केवल चुनाव जीतने के बाद ही नहीं बल्कि चुनाव लड़ते समय भी संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने की शपथ लेते हैं. असल में सवाल यह होना चाहिए कि संविधान लागू होने से लेकर आज तक हमारी सरकारों ने इस दिशा में क्या कदम उठाए हैं.

वास्तविकता यह है कि समान नागरिक संहिता तो छोड़िए हमने तो क्रिमिनल संहिता को भी समान नहीं रहने दिया. शाह बानो केस में क्रिमिनल संहिता के सेक्शन 125 के तहत निर्णय हुआ था. हमने उसको भी संसद के एक कानून द्वारा निरस्त किया और इस तरह भारतीय महिलाओं के एक वर्ग को उस अधिकार से वंचित कर दिया जो उन्हें क्रिमिनल संहिता के द्वारा मिला हुआ था.

समान नागरिक संहिता का सबसे तीखा विरोध मुस्लिम समाज की ओर से होता है. क्या यह कानून वजूद में आने पर शरीयत या इस्लामी कानून से प्रभावित होंगे?

इसका जवाब तो तभी दिया जा सकता है जब विधेयक का प्रारूप हमारे सामने हो. आज दुनिया में मुस्लिम मुल्कों में यह कानून बदला जा चुका है. मिसाल के तौर पर, अप्रतिबंधित तीन तलाक का अधिकार भारत को छोड़कर कहीं भी मुस्लिम पुरुष को हासिल नहीं है. फिर मुसलमानों की एक बड़ी संख्या आज अमरीका और दूसरे पश्चिमी देशों में रहती है जहां पर्सनल लॉ जैसा कोई कानून नहीं है. इन सब तथ्यों को सामने रखकर राज्य इस मामले में पहल कर सकता है.

ज्यादातर जानकार मानते हैं कि सभी नागरिकों के लिए एक जैसा कानून होना चाहिए और समान नागरिक संहिता धार्मिक स्वतंत्रता में बाधक नहीं है. फिर भी इस कानून को लेकर तमाम बहसें और पेचीदगियां हैं. अब तक की राजनीति ने इस विषय को किस तरह से हैंडल किया है?

पहली बात तो यह साफ होनी चाहिए कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार व्यक्तिगत अधिकार है सामुदायिक नहीं. और दूसरी बात यह है कि यह अधिकार लोक व्यवस्था, सदाचार, स्वास्थ्य तथा संविधान के अन्य उपबंधों से बाधित है. इसी प्रावधान के तहत तीसरी बात यह है कि धर्म की स्वतंत्रता राज्य को ऐसे कानून बनाने से नहीं रोकती जिसका उद्देश्य धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य लौकिक कार्यकलाप का विनियमन या निर्बंधन हो.

हां, एक बात और जोड़ना चाहूंगा कि भारत की संस्कृति बहुलवाद की संस्कृति है. हम अनेकतावाद के मानने वाले हैं. अनेकता में एकता हमारा राजनीतिक नारा नहीं है बल्कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति का शाश्वत सिद्धांत है.

समान नागरिक संहिता का उद्देश्य विविधता या अनेकता को समाप्त करना नहीं बल्कि सभी भारतीय महिलाओं को समान अधिकार और सम्मान दिलाना होना चाहिए. समान नागरिक संहिता यह तय नहीं करेगी कि कौन किस तरह विवाह संपन्न करता है, बल्कि यह कानून केवल एक बात सुनिश्चित करेगा कि विवाह से पैदा होने वाले अधिकार और कर्तव्य सभी भारतीयों के लिए समान होंगे.

महिला अधिकारों से जुड़ा है समान नागरिक संहिता का मामला

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समान नागरिक संहिता लागू करने में कोई तकनीकी मुश्किल नहीं है, बल्कि राजनीतिक मुश्किल है. इस मुद्दे का राजनीतिकरण हुआ है. संविधान सभा में इस पर बहुत बहस हुई थी. डॉ. आंबेडकर ने इसके बारे में बहुत विस्तार से इसके पक्ष में संविधान सभा में बोला था. बहुत बहस-मुबाहिसे के बाद इसे संविधान के नीति निदेशक तत्वों में रखा गया. यह पहले से ही संविधान के नीति निदेशक तत्वों में दिया हुआ है. संविधान राज्य को निर्देश देता है कि समान नागरिक संहिता लागू की जाए. लेकिन क्यों नहीं लाया जा सका है, सुप्रीम कोर्ट ने इस पर एक-दो सवाल किए. यह अभी तक नहीं लाया जा सका है, इसके कारण राजनीतिक हैं, वोट बैंक पॉलिटिक्स है. जिन समुदायों के पर्सनल कानून हैं, वे समुदाय नाराज न हो जाएं, इसलिए इसे नहीं लाया जा रहा है.

विचार तो पिछले 70 साल से चल रहा है. विचार करने में कोई कठिनाई नहीं है. विचार, वाद-विवाद हो सकता है. देश भर में चर्चा भी शुरू की जा सकती है. लेकिन मेरा निजी विचार ये है कि कानून लागू करने के लिए राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखा जाए, वैधानिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखा जाए तो होना यह चाहिए कि इसकी मांग उस समुदाय के अंदर से उठनी चाहिए और इसको जेंडर जस्टिस के रूप में लिया जाना चाहिए. हिंदू-मुसलमान का सवाल नहीं है. और समान नागरिक संहिता का मतलब ये नहीं है कि किसी के ऊपर हिंदू कोड बिल लागू किया जा रहा है. समान नागरिक संहिता में यह भी हो सकता है कि मुस्लिम लॉ की जो भी अच्छी बातें हों, वे सब उसमें शामिल हों. क्रिश्चियन लॉ की अच्छी बातें हैं, वे भी शामिल हों. यूनीफॉर्म सिविल कोड क्या है, अभी तो कुछ पता ही नहीं है. अभी उसका कोई प्रारूप नहीं है. जब प्रारूप बनेगा तो हो सकता है कि उसमें किसी पर्सनल लॉ की बातें ज्यादा आएं, यह चांस की बात है.

सैद्धांतिक तौर पर यह है कि संविधान के समक्ष सब लोग समान होने चाहिए. जो संविधान की धारा 14 है, उसके मुताबिक कानून के समक्ष समता होनी चाहिए. पुरुष और महिला के अधिकार समान होने चाहिए. यूनीफॉर्म सिविल कोड ज्यादातर मामलों में तो पहले से है. सिविल कोड कॉमन है. पीनल कोड कॉमन है. तो यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू है, सिर्फ विवाह, तलाक, उत्तराधिकार-इनका झगड़ा है और ये तीनों मामले महिला अधिकारों से संबंधित हैं. इसलिए इस मामले को लैंगिक न्याय के मामले के रूप में उठाया जाना चाहिए और उसके लिए लड़ाई लड़ी जानी चाहिए. खासकर यह लड़ाई महिलाओं को लड़नी चाहिए. जिस समुदाय की महिलाओं को अधिकार प्राप्त नहीं हैं, उस समुदाय से यह मांग उठनी चाहिए.

वाद-विवाद से बचते हुए सही मसले पर बात होनी चाहिए. बिना किसी झगड़े के जिस बिंदु पर सहमति बने, वैसा किया जाना चाहिए.

(लेखक लोकसभा के पूर्व महासचिव एवं संविधान विशेषज्ञ हैं)

हम जिसकी पूजा करते हैं उसी को ये बूचड़खाने में काट देते हैं तो तनाव तो पैदा होगा ही : विनय कटियार

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उत्तर प्रदेश में भाजपा के पराभव के क्या कारण रहे और इस बार अलग क्या है?

एक बार सरकार बनने के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा के पराभव का कारण कल्याण सिंह का पार्टी छोड़कर जाना था. इस कारण प्रदेश की पिछड़ी खासकर लोध जातियों ने पार्टी का साथ छोड़ दिया. वहीं अगड़ी जातियों पर इसका बुरा असर पड़ा क्योंकि कल्याण सिंह प्रदेश के सर्वमान्य नेता थे. उनके जाने के बाद भाजपा में ऐसा कोई चेहरा बचा नहीं. रामप्रकाश और राजनाथ सिंह ने अच्छा काम किया लेकिन वे पार्टी के लोगों को एकजुट नहीं कर पाए. कल्याण सिंह अलग पार्टी बनाकर कुछ खास तो नहीं कर पाए लेकिन उन्होंने भाजपा की हार को संभव बना दिया. इस बार यही बात नहीं है. पूरी पार्टी एकजुट है. सपा, बसपा का राज भी प्रदेश की जनता ने देख लिया है. अब लोगों को भाजपा का शासन याद आ रहा है. उस दौरान कानून-व्यवस्था के साथ-साथ प्रदेश का विकास भी हुआ था और कोई दंगा-फसाद भी नहीं हुआ. मायावती का जब शासन आया तो लूटखसोट बढ़ गई. जातियों के बीच वैमनस्य पैदा हुआ. प्रदेश का विकास रुक गया. इसके चलते सपा की सरकार आई लेकिन यहां भी वहीं हाल है. प्रदेश की कानून-व्यवस्था बदहाल है. गुंडागर्दी बढ़ गई है. विकास का हाल यह है कि केंद्र सरकार की योजनाओं को भी वे ढंग से लागू नहीं कर पा रहे हैं, जबकि केंद्र सरकार ने विद्युतीकरण से लेकर फसल बीमा तक की तमाम योजनाएं लागू की हैं.

केंद्र सरकार के दो सालों के कामकाज को आप कैसे देख रहे हैं?

इतने बड़े देश के लिए किसी भी सरकार के लिए दो साल का वक्त बहुत कम होता है. फिर भी केंद्र सरकार ने बहुत सारी योजनाएं शुरू की हैं. यह सूची बहुत लंबी है. सरकार बहुत ही बेहतर ढंग से काम कर रही है.

कांग्रेस के शासनकाल के दौरान भाजपा महंगाई को मुद्दा बनाती थी. अब भाजपा केंद्र की सत्ता में हैं पर दो साल बाद भी इसमें कमी नहीं आई है.

महंगाई में अगर कमी नहीं आई है तो यह बढ़ी भी नहीं है. समय-समय पर भले ही दाल की कीमतें बढ़ी हैं, इसके अलावा देश में इस तरह की कोई समस्या नहीं है. अब दाल विदेश से मंगाई जाती है तो इसकी कीमतें हमेशा से ही बढ़ती-घटती रही हैं. वैसे भी अगर गेहूं, सब्जियों या चीनी का दाम नहीं बढ़ेगा तो किसान भूखा नहीं मरने लगेगा? थोड़ी-सी महंगाई बढ़ने पर हम यहां शहरों में बैठकर हल्ला मचाने लगते हैं, लेकिन किसान मरने लगता है तो हमें कोई परेशानी नहीं होती है. खाद महंगी है तो गन्ना महंगा होना चाहिए. अगर किसानों को उनकी उपज का फायदा नहीं मिलेगा तो काम कैसे चलेगा? हमारी सरकार किसानों के हितों को लेकर काम कर रही है तो ऐसे में अगर महंगाई बढ़ रही है तो शहरों में बैठे लोग हल्ला मचाने लगते हैं. वैसे भी महंगाई बढ़ने के लिए राज्य सरकारें जिम्मेदार हैं. दालों का भंडार केंद्र के पास भरा पड़ा है. अब राज्य सरकारें उठा नहीं रही हैं. दाल सस्ती करना राज्य सरकारों का काम है. अब इसमें केंद्र सरकार क्या करे.

भाजपा के लिए कश्मीर हमेशा से बड़ा मुद्दा रहा है. अब केंद्र और राज्य दोनों जगहों पर भाजपा की सरकार है. क्या इस मुद्दे पर पार्टी के रुख में बदलाव आया है?

नहीं, इस मसले पर भाजपा के रुख में कोई बदलाव नहीं आया है. कश्मीर में जो हमारा सहयोगी दल है वह अच्छा काम कर रहा है. महबूबा मुफ्ती बेहतर काम कर रही हैं. उनके पिता जी ने भी अच्छा काम किया था. प्रदेश में पहली बार भाजपा सरकार में शामिल हुई है. मैं समझता हूं वहां कुल मिलाकर बढ़िया काम हो रहा है. सांप्रदायिक सौहार्द बढ़ा है. विकास को नई दिशा मिली है. आतंकियों को पकड़कर जेल के अंदर डाला गया है. उनके साथ नरमी नहीं बरती गई है. अब जहां भाजपा के स्टैंड की बात है तो सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार से पूछा है कि समान नागरिक कानून बनाने के लिए आप क्या कर रहे हो तो पूर्व कानून मंत्री सदानंद गौड़ा ने एक टीम बनाने का काम शुरू कर दिया है. लोगों को चिट्ठी-पत्री भी लिखी जा रही है और देश के अंदर इस तरह का एक कानून बनना भी चाहिए. देश में एक संविधान, एक राष्ट्र, एक प्रतीक और एक कानून होना चाहिए. अब ये न हो कि किसी को तीन-तीन शादियां करने की अनुमति हो. किसी के पांच-पांच बच्चे हों. एक विशेष बात, अगर इस पर रोक नहीं लगाई गई तो आने वाले समय में देश का विभाजन हो जाएगा. हमारे भारत की पहचान खत्म हो जाएगी. एकता-अखंडता की पहचान खत्म हो जाएगी. आज लोग भले ही इसको मजाक समझें लेकिन ऐसा जरूर होगा. ईरान हमारे देश से चला गया, अफगानिस्तान हमारे देश से चला गया. पाकिस्तान, बांग्लादेश हमसे अलग हो गए. ये देश हमसे शरीयत कानून के चलते अलग हुए और इसीलिए लोग सुधारों का विरोध करते हैं. तीन तलाक और तीन बीवियों की पैरवी करते हैं. अब ये लोग चाहे जितना निकाह और तलाक करें कोई फर्क नहीं पड़ता है. तीन, चार, पांच निकाह करते हैं. छह, सात, आठ बच्चे पैदा करते हैं. इसके चलते देश की जनसंख्या तेजी से बढ़ती है. इस पर रोक के लिए कानून बनना चाहिए. शरीयत कानून या हिंदू कानून नहीं होना चाहिए. बल्कि देश के अंदर एक व्यावहारिक कानून बनाने की जरूरत है. इसके लिए समान नागरिक कानून बनना चाहिए ताकि देश की एकता-अखंडता सुरक्षित रहे. देश की जनसंख्या सीमित रहे. इसके लिए चीन की तरह कानून बनाने की जरूरत है. वहां शरीयत का नहीं, राष्ट्र का कानून चलता है.

क्या आपका यह कहना है कि अगर मुसलमानों की आबादी बढ़ जाएगी तो देश के विभाजित होने का खतरा है?

नहीं, हम ऐसा बिल्कुल भी नहीं कह रहे हैं. हम तो इतिहास बता रहे हैं. आखिर ईरान क्यों बाहर चला गया? वह तो शिया बहुल था. अफगानिस्तान क्यों अलग हो गया? बाबर को तो वहीं दफनाया गया था. पाकिस्तान तो देश के स्वतंत्र होने के एक दिन पहले ही हमसे चला गया. ये आबादी के कारण हमसे दूर गए. आबादी के चलते ही बंटवारा हुआ. आज एक हिंदू परिवार में एक-दो या ज्यादा से ज्यादा तीन बच्चे होते हैं, लेकिन मुसलमानों में तो तीन बेगम ही रखते हैं. कम से कम पंद्रह से बीस बच्चे होते हैं. ऐसे में कहां तीन बच्चे और कहां पंद्रह बच्चे. वो तो कहेंगे ही कि आबादी के हिसाब से देश का बंटवारा करो. ये किसी भी प्रकार से मान्य नहीं है. परिवार नियोजन देश में लागू होना चाहिए. सभी के ऊपर लागू होना चाहिए. शरीयत कानून देश के ऊपर नहीं है. देश के संविधान के ऊपर नहीं है.

केंद्र में सरकार बनने के बाद पाकिस्तान को लेकर भाजपा का रुख क्या है?

पाकिस्तान को लेकर भाजपा के रुख में कोई बदलाव नहीं आया है, लेकिन पड़ोसी देश से हमारा संबंध बेहतर होना चाहिए. दुर्भाग्य से पाकिस्तान का जितना कड़ा रुख आतंकवादियों के खिलाफ होना चाहिए वो वहां दिखाई नहीं दे रहा है. इसी का दुष्परिणाम यह है कि आतंकी आए दिन सीमापार से घुसपैठ करते रहते हैं. पाकिस्तान को चाहिए अपनी सीमा का बंदोबस्त बेहतर करे लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है. वहा मिलिट्री का शासन रहता है. पाकिस्तान का प्रधानमंत्री भी बाध्य हो जाता है. लेकिन इससे काम नहीं चलेगा. हमने तो खुली छूट दे दी है जो भी आतंकी आए उसे मारो. हमारे सैनिक बहुत ही अच्छा काम कर रहे हैं. ये काम चलता रहेगा.

विपक्ष में होने के दौरान पार्टी का कहना था कि जब तक आतंकी गतिविधि जारी रहेगी तब तक पाकिस्तान से कोई बातचीत नहीं होगी.

नहीं, हम बातचीत भी करेंगे और आतंकवादियों को भी मारेंगे. उन्हें छोड़ा नहीं जाएगा.

आंबेडकर इन दिनों भाजपा और संघ के प्रिय हो गए हैं. क्या ऐसा चुनावी राजनीति के चलते हो रहा है?

आंबेडकर कट्टर हिंदूवादी रहे हैं. यह हम नहीं कह रहे हैं यह आंबेडकर ने स्वयं लिखा है. संपूर्ण वाङ्मय के 16वें खंड में उन्होंने इसके बारे में विस्तार से लिखा है. हिंदू समाज में उनका अपमान हो रहा था. इसे लेकर उन्होंने उस पर चोट की. वे हिंदू धर्म को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते थे. वे चाहते तो इस्लाम या ईसाई धर्म स्वीकार कर लेते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. इस कारण से उनके विचार भाजपा की विचारधारा से मेल खाते हैं. आंबेडकर ने देश निर्माण में बहुत योगदान दिया है.

मोदी सरकार के दो सालों के दरमियान पार्टी से जुड़े नेताओं ने जमकर भड़काऊ बयान दिए हैं.

नहीं, इस दौरान ऐसा कुछ खास नहीं रहा है. साक्षी महाराज या योगी आदित्यनाथ ने सिर्फ सच बात बोली है, भड़काऊ बयान नहीं दिया है. विनय कटियार आजकल चुप बैठे हैं बोल नहीं रहे हैं. नहीं तो वह भी वही कहते जो इन लोगों ने कहा है.

लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि इन बयानों से देश में सांप्रदायिक तनाव बढ़ा है. डर का एक माहौल बना है.

कहीं भी सांप्रदायिक तनाव नहीं बढ़ा है. अब योगी आदित्यनाथ के बयान से कौन-सा सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया? अब हम जिस मां की पूजा करते हैं उसी को ये बूचड़खाने में ले जाकर काट देते हैं. उसका सेवन करते हैं तो स्वाभाविक है तनाव तो पैदा होगा ही.

हाल ही में आपने बयान दिया कि पाक उच्चायुक्त भारत विरोधी गतिविधियों में संलिप्त हैं. क्या आधार है इसका?

देखिए, पाकिस्तानी उच्चायुक्त अब्दुल बासित जब से आए हैं वे भारत विरोधी गतिविधियों में संलिप्त हैं. वे आतंकवादियों के एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं. पाकिस्तान का एजेंट होना बुरा नहीं है, लेकिन अलगाववादियों और आतंकियों का एजेंट बन जाना बुरी बात है. अलगाववादियों को हर मौके पर दिल्ली बुलाना, उन्हें फंडिंग कराना गलत है. बासित को यहां रहने का हक नहीं है. इसके लिए मैं विदेश मंत्रालय को पत्र लिख रहा हूं. इसे लेकर कार्रवाई होनी चाहिए.

Photo : Tehelka Archives
Photo : Tehelka Archives

राम मंदिर भाजपा के लिए मुद्दा रहा है. केंद्र में सरकार के दो साल होने पर भी इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई है.

राम मंदिर भाजपा के लिए कभी चुनावी मुद्दा नहीं रहा है. राम मंदिर भाजपा के लिए आस्था का मुद्दा रहा है. देश में हमेशा कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं तो कम्युनिस्ट विचारधारा के कुछ लोग इसे चुनाव से जोड़ देते हैं. जब तक राम मंदिर नहीं बन जाएगा, हमारा संघर्ष जारी रहेगा. इसमें चुनाव कोई मुद्दा नहीं है.

अभी भाजपा सरकार में हैं तो वह कुछ प्रयास क्यों नहीं कर रही है?

देखिए, इसमें सरकार में होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है. अभी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है. हाई कोर्ट में हमारी जीत हो चुकी है. उसने यह मानते हुए कि अयोध्या में राम मंदिर था जमीन के तीन टुकड़े कर दिए हैं. दो हिंदू समाज को दिए और एक मुस्लिम समाज को दे दिया है. अब सुप्रीम कोर्ट में हमारी लड़ाई यही है कि यदि वह राम की जन्मभूमि है तो वहां विदेशी हमलावर बाबर क्या करेगा? विदेशी हमलावर का राम जन्मभूमि में स्मारक बने यह हमें कतई स्वीकार नहीं है. इसके लिए हमें जो भी लड़ाई लड़नी पड़ेगी हम लड़ेंगे.

मामले से जुड़े पक्षकारों का आरोप है कि संघ और विनय कटियार राजनीतिक फायदे के लिए इस मामले का हल नहीं निकलने दे रहे हैं?

हम इस मामले को कभी जिंदा नहीं रखना चाहते हैं. राम हमारे आराध्य हैं. वह चुनावी मुद्दा नहीं है.

हिंदूवादी नेताओं पर आरोप लगता है कि वे विकास के बजाय धर्म के नाम पर लोगों को बरगलाते हैं.

राम मंदिर आस्था का मामला है वह चलता रहेगा. लेकिन हमने कब कहा कि विकास को बंद कर दें. हम तो सबके विकास के लिए प्रतिबद्ध हैं. उत्तर प्रदेश में सरकार थी तो विकास कार्य किया. केंद्र में सरकार है तो हम विकास कर रहे हैं.

पेरुमल मुरुगन : एक फैसले की कहानी

MuruganWEB

‘यह चिंता का विषय है कि एक विकसित होते समाज के रूप में हमारी सहिष्णुता का स्तर नीचे जाता प्रतीत हो रहा है. किसी भी विपरीत विचार या सामाजिक सोच को समय-समय पर धमकियों और हिंसक बर्ताव का सामना करना पड़ता है. सामाजिक रीति-रिवाजों पर लोगों के भिन्न-भिन्न विचार होते हैं और जबकि हर किसी को अपने स्वतंत्र विचार रखने का अधिकार है, उसे किसी और के हलक में धकेला नहीं जा सकता. किसी किताब, किसी फिल्म, पेंटिंग, शिल्प या कलात्मक अभिव्यक्ति के अन्य रूपों के खिलाफ एक अभियान दिखाई पड़ना आजकल कोई असामान्य बात नहीं रह गई है.’

ये शब्द कथित तौर पर ‘राजनीति’ से प्रेरित होकर पुरस्कार लौटाने वाले किसी लेखक के नहीं हैं. 2014 के लोकसभा चुनावों में अपने खराब नतीजों से बौखलाई हुई किसी पार्टी के प्रवक्ता के भी नहीं हैं. (केंद्र में सरकार चला रही भाजपा और उसके बिरादर अक्सर यही आरोप लगाते हैं) ये शब्द मद्रास उच्च न्यायालय के उस फैसले से लिए गए हैं जो उसने तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन के उपन्यास ‘मधोरुबगन’ (अंग्रेजी में ‘वन पार्ट वुमन’ के नाम से अनूदित) के मामले में दिया है.
यह ऐतिहासिक फैसला मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश संजय किशन कौल और न्यायाधीश पुष्पा सत्यनारायण की संयुक्त पीठ द्वारा पांच जुलाई को सुनाया गया. यह ऐतिहासिक इस अर्थ में नहीं है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रश्न पर ऐसा कोई फैसला पहले नहीं आया था. खुद मुख्य न्यायाधीश संजय किशन कौल ने दिल्ली उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रहते हुए एमएफ हुसैन के मामले में वर्ष 2008 में ऐसा ही महत्वपूर्ण फैसला सुनाया था, जिसकी शुरुआत ही पाब्लो पिकासो के इस प्रसिद्ध उद्धरण से की गई थी, ‘कला कभी संयत नहीं हो सकती और जो संयत हो, वह कला नहीं हो सकती.’ इस बार का फैसला ऐतिहासिक इस अर्थ में है कि यह आजाद भारत के अब तक के सबसे असहिष्णु दौर में आया है. एक ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण दौर जब भारतीय संस्कृति और परंपरा के नाम पर अभिव्यक्ति की आजादी को निशाना बनाने वालों का मनोबल अपने चरम पर है और धार्मिक अल्पसंख्यकों, सामाजिक रूप से अशक्त समूहों के साथ-साथ लेखक समुदाय भी खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है. ऐसे समय में यह फैसला वाॅल्टेयर के उद्धरण से शुरू होता है, ‘हो सकता है तुम्हारी बातों से मेरी सहमति न हो, पर तुम्हारे कहने के अधिकार की रक्षा मैं मरते दम तक करूंगा.’ और खत्म इस वाक्य के साथ होता है, ‘लेखक उसी काम को करने के लिए पुनरुज्जीवित हो जो वह सबसे बेहतर कर सकता है, लिखना.’

ध्यान रहे कि पेरुमल मुरुगन ने अपने खिलाफ चल रहे उपद्रव के दौरान अपना उपन्यास पूरी तरह वापस लेने के समझौते पर रजामंदी दी थी और उसके बाद फेसबुक पर अपने लेखक की मृत्यु की घोषणा कर दी थी. लिखा था, ‘लेखक पेरुमल मुरुगन मर गया. वह भगवान नहीं है, इसलिए वह खुद को पुनरुज्जीवित नहीं कर सकता.’ यह फैसला लगभग भावुक कर देेने वाले स्वर में लेखक के पुनरुज्जीवन का आह्वान करता है.

मामला क्या था?

पेरुमल मुरुगन का उपन्यास ‘मधोरुबगन’ 2010 में प्रकाशित हुआ था. इसकी कहानी तिरुचेंगोडे में स्थित है जो खुद मुरुगन का अपना शहर है और पहाड़ी के शिखर पर स्थित अर्धनारीश्वर मंदिर की वजह से जाना जाता है. उपन्यास लगभग अस्सी साल पहले की एक कहानी कहता है जिसमें मुख्य पात्र एक निःसंतान दंपति हैंः पोन्ना (पत्नी) और काली (पति). पति-पत्नी में बहुत प्यार है, लेकिन निःसंतान होने के कारण उन्हें सामाजिक रूप से लांछित होना
पड़ता है. निःसंतान होने और उसके लिए अपमान सहने की पीड़ा पर ही उपन्यास केंद्रित है.

उपन्यास में उस समय के तिरुचेंगोडे में प्रचलित एक प्रथा का हवाला आता है जो इसकी कथा में निर्णायक महत्व रखती है. प्रथा यह है कि अर्धनारीश्वर मंदिर में हर साल चौदह दिनों का वैकासी उत्सव होता है जिसके 14वें दिन निःसंतान विवाहिता स्त्रियों को सभी तरह की यौन वर्जनाएं लांघने की छूट होती है. वे मेले में शामिल होती हैं और आपसी रजामंदी से किसी भी युवक के साथ शारीरिक संबंध बनाकर अपनी संतति-कामना पूरी कर सकती हैं. यह एक ऐसी प्रथा रही है जिसका उल्लेख लोकगीतों में मिलता है.

2010 में तमिल में प्रकाशित होने के बाद से चार साल तक इस उपन्यास पर कोई हंगामा नहीं हुआ. अंग्रेजी अनुवाद के प्रकाशन और लेखक द्वारा सिंगापुर लिटरेचर फेस्टिवल में इस उपन्यास में वर्णित प्रथा के उल्लेख के बाद धर्म और संस्कृति के ध्वजावाहकों को होश आया. उन्होंने दिसंबर 2014 में उपन्यास के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया. किताब के कुछ पन्ने फोटोकाॅपी कराके बांटे जाने लगे, उसके बारे में पर्चे छपने लगे कि किस तरह वह भारतीय और तमिल संस्कृति पर एक हमला है. साथ ही तिरुचेंगोडे नगर और वहां की महिलाओं को बदनाम करने के लिए लिखी गई है. उसमें कोंगू गोंदर समुदाय का, जिससे मुरुगन खुद आते हैं, और अर्धनारीश्वर मंदिर के देवता का भी अपमान किया गया है.

इसके बाद मुरुगन को लगातार फोन पर धमकियां भी मिलनी शुरू हुईं. 26 दिसंबर, 2014 को आरएसएस से संबद्ध स्थानीय संगठन हिंदू मुन्नानी के अध्यक्ष श्रीमहालिंगम के नेतृत्व में लगभग पचास लोगों का एक जुलूस निकला जिसने किताब की प्रतियां जलाईं और मुरुगन की तस्वीर पर जूतमपैजार की. धीरे-धीरे वे मामले को इतना गरमाते गए कि 9 जनवरी, 2015 को वे पूरा शहर बंद करवाने में कामयाब रहे. मुरुगन को अपनी सुरक्षा की खातिर तीन दिन के लिए शहर छोड़कर चेन्नई में रहना पड़ा.

कानून और व्यवस्था की बिगड़ती हालत का हवाला देकर नमक्कल जिला प्रशासन ने 12 जनवरी को उग्र संस्कृति-रक्षकों और लेखक को शांति-वार्ता के लिए बुलाया. यहां डिस्ट्रिक्ट रेवेन्यू आॅफिसर ने लेखक पर दबाव बनाते हुए ऐसे समझौते पर हस्ताक्षर कराया जिसके लिए लेखक राजी नहीं थे. मुरुगन अपनी ओर से ‘गंभीर खेद’ प्रकट करने को तैयार थे, पर अधिकारी ने दबाव डाला कि ‘बिना शर्त माफी’ से कम किसी भी चीज पर मामला निपटेगा नहीं. इसके बाद मुरुगन ने हताशा में किसी भी तरह के वक्तव्य पर हस्ताक्षर करने की रजामंदी जाहिर की. खुद को आहत बताने वाले समूह की कई और मांगों को भी उस माफीनामे में शामिल कर दिया गया. यह स्पष्ट था कि इस शांतिवार्ता में हमलावर पक्ष की पूरी तरह से जीत हुई और कलम की आजादी के परखच्चे उड़ा दिए गए जिसे भारतीय संविधान की धारा 19(1) (ए) की सुरक्षा मिली हुई है. इसी के बाद मुरुगन ने अपने लेखक की मृत्यु की घोषणा की. लेकिन मामला यहीं रुका नहीं रहा.
फरवरी 2015 में कई पक्षों ने मद्रास उच्च न्यायालय में अपनी-अपनी याचिकाएं दायर कीं. एक तरफ पीयूसीएल और मानवाधिकार के पक्षधर व्यक्ति थे जो लेखक को अपनी किताब वापस लेने पर मजबूर करने वाली उस शांतिवार्ता को असंवैधानिक बताकर चुनौती दे रहे थे. दूसरी तरफ तिरुचेंगोडे के कई धार्मिक और सामुदायिक संगठन एवं व्यक्ति थे जो लेखक पर आपराधिक मुकदमा चलाकर सजा देने, एक महाआदेश द्वारा किताब की तमाम प्रतियां जब्त करने तथा किंडल आदि सभी जगहों पर उसे प्रतिबंधित करने की मांग कर रहे थे.

5 जुलाई, 2016 काे आया फैसला

फैसले में एक बात तो यह कही गई है कि प्रशासन द्वारा आयोजित शांतिवार्ता बाध्यकारी नहीं है और बिगड़ती कानून-व्यवस्था के नाम पर संविधान प्रदत्त लेखकीय स्वतंत्रता का इस तरह दमन नहीं किया जा सकता. इसके साथ-साथ मुरुगन पर आपराधिक मामला दायर करने की प्रार्थना को खारिज कर दिया गया है. उनकी किताब पर प्रतिबंध लगाने की प्रार्थना को भी अदालत ने नामंजूर किया है. ये बातें 160 पृष्ठ के इस फैसले के अंतिम अमली हिस्से में हैं, लेकिन इसके पहले का वह पूरा हिस्सा भी जो इस निर्णय तक पहुंचने की प्रक्रिया और तर्क-वितर्कों पर केंद्रित है, जबरदस्त तरीके से पठनीय है.

सभी पक्षों के तर्कों को सामने रखते हुए फैसले में उपन्यास पर लगाए गए अश्लीलता, ईशनिंदा, मानहानि, हिंदुओं की भावनाओं को आहत करने, नैतिक रूप से अस्वीकार्य होने आदि के आरोपों को खारिज किया गया है. मसलन, मूल तमिल में भद्दी जबान का इस्तेमाल होने के आरोप पर अदालत का कहना है कि विषय-वस्तु की मांग के अनुसार ही लेखक भाषा तय करता है और उपन्यास को अश्लील ठहराने या उसके कुछ अंशों को हटा देने की मांग करने का यह पर्याप्त आधार नहीं है. उपन्यास जिन लोगों की कहानी कह रहा है, वे सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं. इसलिए भाषा भी प्रसंगानुसार होगी. एक और जगह कहा गया है कि उपन्यास को उसके सही परिप्रेक्ष्य में समझा जाना चाहिए और सिर्फ संवादों में थोड़ी भद्दी जबान का इस्तेमाल लेखक की खिंचाई का आधार नहीं हो सकता. आप सिर्फ इसलिए भी इसे एक बड़ा सामाजिक मुद्दा नहीं बना सकते कि इसमें किसी खास मंदिर या खास जगह का नाम लिया गया है, जो कि इसकी कड़ी में आने वाले अगले उपन्यासों में से लेखक ने खुद ही हटा भी दिया है. इसके ऐतिहासिक होने का कोई दावा खुद लेखक नहीं कर रहा है. यह एक कहानी है और यह कहानी जिस प्रथा का हवाला देती है वह लाेकगीतों में मौजूद है.

अदालत ने प्रकाशक के वकील डाॅ. वी. सुरेश के इस तर्क को भी महत्व दिया है कि अभिजनों के औपन्यासिक इतिहास, जिसके पास रिकाॅर्ड का आधार होता है और जुबानी चलने वाले लोकगीतों पर आधारित उपन्यास के बीच हमें फर्क करना चाहिए जो कि बहुत अहम और बारीक है. एक और जगह पर अदालत एस. रंगराजन के मामले के हवाले से स्पष्ट शब्दों में कहती है, ‘कला अक्सर हमें उकसाने वाली होती है और वह हर किसी के लिए नहीं होती, न ही वह पूरे समाज को बाध्य करती है कि उसे देखा जाए और सिर्फ इसलिए कि लोगों के एक समूह को उससे दिक्कत है, उन्हें इस बात की इजाजत नहीं मिल जाती कि वे शत्रुतापूर्ण तरीके से अपने विचार प्रकट करें, और राज्य ऐसे शत्रुतापूर्ण आॅडिएंस की समस्या से निपटने की अक्षमता की दुहाई नहीं दे सकता.’ इसी आशय की बात उपसंहार खंड में इन शब्दों में आई हैः ‘सदियों से मौजूद और हाल में लिखे गए ऐसे लेखन के प्रति, जो ‘हमारी तरह के’ नहीं हैं, सहिष्णुता का रवैया होना जरूरी है. लेखक और उसकी तरह के कलाकारों को लगातार इस आशंका में नहीं रहना चाहिए कि अगर वे चिराचरित रास्ते से हटे तो उन्हें प्रतिकूल परिणाम का सामना करना होगा. उपन्यास के विरोधियों को निश्चित रूप से उसकी आलोचना करने का अधिकार है, वैसे ही जैसे उसके पक्षधरों को उसकी प्रशंसा करने का.’

इन बातों से जाहिर है कि पूरे फैसले का ‘टोन’ बिना किसी किंतु-परंतु के लेखक और लेखन के पक्ष में है. यहां तक कि प्रशासन को बहुत सख्ती के साथ यह हिदायत दी गई है कि वह जब भी शांतिवार्ता की राह अपनाता है, उसे लेखक पर दबाव बनाने के बजाय स्वतंत्र अभिव्यक्ति के पक्ष में एक पूर्वधारणा के साथ इस तरह की वार्ता में मध्यस्थता करनी चाहिए. ‘जब भी किसी प्रकाशन, कला, नाटक, फिल्म, गीत, कविता, कार्टून या रचनात्मक अभिव्यक्ति के खिलाफ शिकायत हो, यह पूर्वधारणा अपने जेहन में होनी ही चाहिए.’ इसका मतलब यह कि प्रशासन को लेखन का पक्षधर बनकर मामले को ठंडा करने का कोई भी प्रयास करना चाहिए. अगर कानून और व्यवस्था को दुरुस्त रखना प्रशासन का काम है तो लेखक की आजादी को सुनिश्चित करना भी उसी का काम है, जब तक वह लेखन ऐसी स्वतंत्रता के संवैधानिक रूप से निर्दिष्ट अपवाद की श्रेणी में न आता हो.

फैसले पर आपत्तियां

फैसला आने के बाद, जाहिर है, असहिष्णुता के माहौल से चिंतित लोगों और खासकर लेखकों के बीच इसे लेकर खासा उत्साह देखा गया, लेकिन कुछ आपत्तियां भी व्यक्त की गईं. ये आपत्तियां भी सहिष्णुता और अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों के बीच से ही आई हैं. नंदिनी कृष्णन ने, जिनके द्वारा लिखी गई मुरुगन के उपन्यास की प्रशंसात्मक समीक्षा को अदालत ने सकारात्मक ढंग से अपने निष्कर्ष के पक्ष में उद्धृत किया है, इस फैसले से असंतोष जताया है. साथ ही, विधि-विशेषज्ञ गौतम भाटिया ने एक लेख लिखकर इस फैसले की सीमाओं को चिह्नित किया है. असंतोष का एक सामान्य नुक्ता यह है कि अगर उपन्यास का बहुप्रशंसित और बहुपुरस्कृत होना, किसी कथित भारतीय परंपरा के अनुकूल होना, और अपनी विषय-वस्तु में कामोत्तेजक न होना ही इस फैसले का आधार है तो क्या इससे यह स्वर नहीं निकलता कि जो कृतियां ऐसी नहीं हैं उन्हें प्रतिबंधित करना उचित हो सकता है. कई कालजयी रचनाएं अपने समय में आलोचकों की प्रशंसा हासिल नहीं कर पातीं. कई बहुत मूलगामी कृतियां अपनी परंपरा के प्रति एकदम प्रतिकूल होती हैं. कोई साहित्यिक रचना कामोत्तेजना को सौंदर्यात्मक धरातल तक ले जाने का अभिनव प्रयोग कर सकती है. क्या ऐसी कृतियों को इस फैसले से कोई सहारा मिल पाएगा? आंशिक रूप से यह आपत्ति सही हो सकती है, लेकिन पीछे फैसले के जिन अंशों का हवाला दिया गया है उनसे गुजरते हुए कोई भी समझ सकता है कि ऐसी कृतियों के लिए भी इस फैसले के पास सकारात्मक तर्क हैं. जहां तक ‘मधोरुबगन’ को मिली आलोचकीय प्रशंसा आदि की चर्चा का सवाल है, यह जरूर ध्यान में रखना चाहिए कि उपन्यास विशेष के खिलाफ याचिका दायर करने वालों की खास-खास आपत्तियों का जवाब देना भी फैसले का काम है. इसका मतलब यह नहीं है कि लेखकीय स्वतंत्रता के पक्ष में न्यायाधीश उसे ही आधारभूत तर्क के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं. फैसले में एक जगह बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा गया है, ‘यह तथ्य कि उपन्यास ने कई पुरस्कार हासिल किए, अपने आप में कोई निर्धारक तत्व नहीं है, हालांकि यह इस बात का सशक्त सूचक है कि समाज इसे कैसे देखता है.’

बावजूद इसके, फैसले पर उठाए गए सवाल एकदम निराधार नहीं हैं. मसलन, नियोग पद्धति से या दूसरे पुरुष से संतानोत्पत्ति की बात महाभारत और अनेक प्राचीन ग्रंथों में मिलने का हवाला देकर यह फैसला उपन्यास को विक्टोरियन दर्शन के प्रभाव से पहले की भारतीय परंपरा के अनुकूल बताता है, तो इस पर गौतम भाटिया का यह सवाल वाजिब है कि क्या प्राचीन भारतीय परंपरा अगर यौन मामलों में संकीर्ण और अनुदार होती तो अदालत का फैसला कुछ और होता.

इसी तरह उनकी यह आपत्ति कि फैसला जिस रूप में आया है, उससे यह न्यायाधीश-केंद्रित प्रतीत होता है, बेबुनियाद नहीं है. एक न्यायाधीश को अपनी व्याख्या के अनुसार कोई कृति पसंद आई तो एक तरह का फैसला आया, किन्हीं और को नापसंद हो तो दूसरी तरह का फैसला आ जाएगा. (ध्यान रखिए कि फैसले में बार-बार उपन्यास की केंद्रीय संवेदना के बारे में न्यायाधीश ने अपनी राय व्यक्त की है और इसी आधार पर इसे अश्लील मानने से इनकार किया है.) इससे लेखकीय स्वतंत्रता के मसले पर एक वस्तुनिष्ठ संवैधानिक स्थिति, जो व्यक्तिगत मतों से निरपेक्ष हो, सामने नहीं आती, जबकि मुरुगन के मामले ने इसका अच्छा अवसर मुहैया कराया था.

नंदिनी कृष्णन ने भी कई सवाल उठाए हैं, लेकिन विशिष्ट संदर्भ में आए तर्कों पर उनकी आपत्तियों को अगर छोड़ दें तो उनका ज्यादा बुनियादी सवाल भारतीय संविधान के प्रावधानों को लेकर है. उनके अनुसार, परेशान करने वाली बात यह है कि भारतीय संविधान में प्रतिष्ठापित कानून और प्रावधान जस्टिस कौल जैसी विचारशीलता, पांडित्य और कला के प्रति संवेदनशीलता रखने वाले न्यायाधीश के लिए भी एक युगांतकारी फैसला लिखना मुश्किल बना देता है, एक ऐसा फैसला जो एक दृष्टांत बन जाए और वर्तमान से लेकर भावी तक, सभी लेखकों को राहत दे. नंदिनी कृष्णन की यह बात जितना इस फैसले की सीमाओं को दिखाती है, उससे ज्यादा उन सीमाओं के कारण को चिह्नित करती है. यह एक बड़ा सवाल है कि न्यायपालिका संवैधानिक मर्यादाओं का किस हद तक विस्तार कर सकती है? अगर मुरुगन मामले पर उठी बहस इस सवाल को कायदे से संबोधित कर पाए तो यह लेखकीय स्वतंत्रता के मुद्दे पर एक जरूरी पहल होगी.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)

समान नागरिक संहिता : एक देश एक कानून

सभी फोटोः तहलका अार्काइव
सभी फोटोः तहलका अार्काइव

हाल ही में केंद्र सरकार ने विधि आयोग को पत्र लिखकर समान नागरिक संहिता (यूनीफाॅर्म/कॉमन सिविल कोड) यानी सभी के लिए एक जैसे कानून पर सुझाव मांगा है. अक्टूबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकार से अपना रुख साफ करने को कहा था. इसके बाद सरकार ने पहली बार विधि आयोग को पत्र लिखकर इस मुद्दे पर रिपोर्ट देने को कहा था. कुछ दिन पहले सरकार ने विधि आयोग को दोबारा पत्र लिखकर इस मसले की याद दिलाई जिसके बाद यह मसला चर्चा में है.

भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने हाल ही में केंद्रीय कानून मंत्री का पद संभालने के बाद कहा, ‘समान नागरिक संहिता की दिशा में कदम बढ़ाने से पूर्व व्यापक विचार-विमर्श की जरूरत है. इस दिशा में आगे बढ़ने से पहले सभी हितधारकों के साथ व्यापक विचार-विमर्श किया जाएगा. इस मसले पर विधि आयोग विचार कर रहा है. संविधान का अनुच्छेद 44 समान नागरिक संहिता का आदेश देता है.’

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 44 कहता है कि सरकार पूरे देश में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगी. हालांकि, यह अब तक लागू नहीं हो पाया है. समान नागरिक संहिता का मसला धार्मिक पेचीदगियों की वजह से हमेशा संवेदनशील रहा है, इसलिए सरकारों ने इस पर कभी कोई ठोस पहलकदमी नहीं की, हालांकि इस पर गाहे-बगाहे चर्चाएं जरूर होती रही हैं. समान नागरिक संहिता का मुद्दा भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में भी था. केंद्र में सत्ता मिलने के कुछ समय बाद भाजपा के ही सांसद योगी आदित्यनाथ ने सरकार से समान नागरिक संहिता लागू करने की मांग की थी.

हाल ही में इस मुद्दे को उठाने के बाद भाजपा पर यह आरोप भी लगा कि उत्तर प्रदेश में चुनाव के मद्देनजर उसने इस मुद्दे को छेड़ा है क्योंकि भाजपा की राजनीतिक विचारधारा से जुड़े जो मुद्दे हैं उनमें राम मंदिर, कश्मीर में अनुच्छेद 370 और समान नागरिक संहिता प्रमुख हैं. हालांकि भाजपा ने इस आरोप से इनकार किया और इस शुरुआत को समान नागरिक संहिता को वजूद में लाने की सामान्य प्रक्रिया बताया.

‘समान नागरिक संहिता लागू करने में कोई तकनीकी मुश्किल नहीं है, बल्कि राजनीतिक मुश्किल है. इस मुद्दे का राजनीतिकरण हुआ है. संविधान राज्य को निर्देश देता है कि समान नागरिक संहिता लागू की जाए. क्यों नहीं लाया जा सका है, सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर सवाल किया है. यह नहीं लाया गया, इसका कारण वोटबैंक की राजनीति है कि जिन समुदायों के पर्सनल कानून हैं वे कहीं नाराज न हो जाएं’

बीते अक्टूबर में ईसाई समुदाय के एक व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी कि देश में समान नागरिक संहिता लागू की जाए. याचिका में कहा गया था कि ईसाई दंपति को तलाक लेने के लिए दो वर्ष तक अलग रहने का कानून है जबकि हिंदू व अन्य कानूनों में स्थिति अलग है. इसी सिलसिले में समान नागरिक संहिता की बात उठी थी जिस पर कोर्ट ने केंद्र से अपना रुख स्पष्ट करने को कहा था. दिसंबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय ने भी समान नागरिक संहिता को लेकर याचिका दायर की थी. इसमें कहा गया था, ‘समान नागरिक संहिता आधुनिक और प्रगतिशील राष्ट्र का प्रतीक है. इसे लागू करने का मतलब होगा कि देश धर्म-जाति आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करता. देश में आर्थिक प्रगति जरूर हुई है लेकिन सामाजिक रूप से कोई तरक्की नहीं हुई है.’ समान नागरिक संहिता के पक्षधर तबके की दलील है, ‘एक धर्मनिरपेक्ष गणतांत्रिक देश में प्रत्येक व्यक्ति के लिए कानूनी व्यवस्थाएं समान होनी चाहिए.’

इस तरह की ज्यादातर याचिकाएं खारिज करते हुए कोर्ट का बार-बार यह तर्क रहा है कि चूंकि कानून बनाना सरकार का काम है इसलिए कोर्ट इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती, न ही वह सरकार को कानून बनाने का आदेश दे सकती है. लेकिन यदि कोई पीड़ित सुप्रीम कोर्ट जाता है तो कोर्ट को उस पर सुनवाई करनी पड़ती है. पिछले एक साल में ईसाई तलाक कानून और मुस्लिम तीन तलाक कानून के खिलाफ कई मसले सुप्रीम कोर्ट में आए हैं.

सरकार की तरफ से विधि आयोग को पत्र लिखे जाने के बाद कई मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता पर विचार करना शुरू कर दिया है. इस मसले से जुड़े फैसलों में कोर्ट की टिप्पणियां, दस्तावेज वगैरह जुटाए जा रहे हैं. इस मसले पर आयोग वेबसाइट के जरिए व अन्य माध्यमों से जनता से राय लेकर व्यापक विचार-विमर्श के बाद सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपेगा.

समान नागरिक संहिता की वकालत करने वालों की राय है कि देश में सभी नागरिकों के लिए एक जैसा नागरिक कानून होना चाहिए, भले ही वे किसी भी धर्म से संबंध रखते हों. लेकिन धर्मावलंबी व धर्मगुरु इससे सहमत नहीं हैं. समाज का एक तबका ऐसा भी है जो विवाह, तलाक और उत्तराधिकार जैसे मसलों को भी धर्म से जोड़कर देखता है. दूसरी ओर, समान नागरिक संहिता न होने की वजह से महिलाओं के बीच आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा में बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है. राजनीतिक दल समान कानून बनाने या समान नागरिक संहिता के पक्षधर तो रहे हैं, लेकिन राजनीतिक मजबूरियों के चलते किसी भी सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की.

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सवाल यह है कि क्या सरकार इस मसले पर आगे बढ़ेगी या हमेशा की तरह यह मुद्दा सिर्फ चुनावी चाल की तरह बार-बार चला जाता रहेगा? इसके साथ और भी कई अहम सवाल इस मसले से जुड़े हैं. दरअसल, कुछ समुदायों के अपने पर्सनल कानून हैं जिन्हें वे न सिर्फ धार्मिक आस्था से जोड़कर देखते हैं, बल्कि वे इसे अपना संवैधानिक अधिकार मानते हैं. इसके चलते समान नागरिक संहिता का कड़ा विरोध भी हो सकता है.

सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) ने इस मुद्दे पर सर्वे कराया था. इस सर्वे में 57 फीसदी लोगों ने विवाह, तलाक, संपत्ति, गोद लेने और भरण-पोषण जैसे मामलों में समुदायों के लिए पृथक कानून के पक्ष में राय जाहिर की. केवल 23 फीसदी लोग समान नागरिक संहिता के पक्ष में थे. 20 फीसदी लोगों ने कोई राय ही नहीं रखी. 55 फीसदी हिंदुओं ने संपत्ति और विवाह के मामले में समुदायों के अपने कानून रहने देने के पक्ष में राय दी, जबकि ऐसे मुस्लिम 65 फीसदी थे. अन्य अल्पसंख्यक समुदायों (ईसाई, बौद्ध, सिख, जैन) ने सर्वे में इससे मिलती-जुलती या इससे थोड़ी ज्यादा संख्या में समान नागरिक संहिता का समर्थन किया. अल्पसंख्यक समुदायों का बहुमत मौजूदा व्यवस्था कायम रखने के पक्ष में है. सीएसडीएस का निष्कर्ष था कि शिक्षित वर्ग में भी समान नागरिक संहिता से असहमति रखने वालों का बहुमत है. शिक्षित तबके में समान नागरिक संहिता के पक्ष और विपक्ष में जोरदार दलीलें दी गईं, लेकिन झुकाव इस ओर रहा कि विभिन्न समुदायों के निजी मामले अपने-अपने कानूनों से ही संचालित होने चाहिए.

‘हमारे संविधान निर्माताओं ने ‘वन नेशन, वन कांस्टीट्यूशन’ का सपना देखा था. अगर यूनीफाॅर्म सिविल कोड नहीं लागू होता तो हम सिर्फ संविधान का ही अपमान नहीं कर रहे, बल्कि संविधान बनाने वालों का भी अपमान कर रहे हैं. अगर बाबा साहेब आंबेडकर, पंडित नेहरू, रफी अहमद किदवई और तमाम संविधान निर्माता सेक्युलर थे तो उन्हीं का बनाया अनुच्छेद 44 कैसे कम्युनल हो जाएगा’

सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता पर समय-समय पर न सिर्फ टिप्पणियां की हैं, बल्कि सरकार को इस दिशा में बढ़ने के निर्देश भी दिए हैं. फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रकरण की सुनवाई करते हुए कहा था कि यह बहुत ही आवश्यक है कि सिविल कानूनों से धर्म को बाहर किया जाए. 11 मई, 1995 को एक सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता को अनिवार्य रूप से लागू किए जाने पर जोर दिया था. कोर्ट का कहना था कि इससे एक ओर जहां पीड़ित महिलाओं की सुरक्षा हो सकेगी वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय एकता बढ़ाने के लिए भी यह आवश्यक है. कोर्ट ने उस वक्त यहां तक कहा, ‘इस तरह के किसी समुदाय के निजी कानून स्वायत्तता नहीं, बल्कि अत्याचार के प्रतीक हैं. भारतीय नेताओं ने द्विराष्ट्र अथवा तीन राष्ट्रों के सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया. भारत एक राष्ट्र है और कोई समुदाय मजहब के आधार पर स्वतंत्र अस्तित्व का दावा नहीं कर सकता.’ कोर्ट ने इस संबंध में कानून मंत्रालय को निर्देश दिया था कि वह जिम्मेदार अधिकारी द्वारा शपथ पत्र प्रस्तुत करके बताए कि समान नागरिक संहिता के लिए न्यायालय के आदेश के परिप्रेक्ष्य में सरकार ने क्या प्रयास किए. हालांकि, यह बात दीगर है कि आज तक इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हुई.

संविधान विशेषज्ञ और लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप कहते हैं, ‘विचार तो पिछले 70 साल से चल रहा है. विचार करने में कोई कठिनाई नहीं है. लेकिन मेरा निजी विचार है कि कानून लागू करने के लिए राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखा जाए, वैधानिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखा जाए तो होना यह चाहिए कि इसकी मांग उस समुदाय के अंदर से उठनी चाहिए और इसको लैंगिक न्याय के रूप में लिया जाना चाहिए. और समान नागरिक संहिता का मतलब ये नहीं है कि किसी के ऊपर हिंदू कोड बिल लागू किया जा रहा है. समान नागरिक संहिता में यह भी हो सकता है कि मुस्लिम लॉ की जो भी अच्छी बातें हों, वे सब उसमें शामिल हों. क्रिश्चियन लॉ की अच्छी बातें हैं, वे भी शामिल हों. यूनीफॉर्म सिविल कोड क्या है, अभी तो कुछ पता ही नहीं है. अभी उसका कोई प्रारूप ही नहीं है.’

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वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय कहते हैं, ‘समान नागरिक संहिता तो चल ही रही है. लोगों को यह भ्रम है कि कॉमन सिविल कोड है ही नहीं. कॉमन सिविल कोड पहले से है और उससे 123 करोड़ लोग गवर्न हो रहे हैं. कुछ जो पुराने भ्रम बने हुए हैं उसमें से एक कॉमन सिविल कोड भी है. लेकिन दो-तीन बातें ऐसी हैं जिसको हमारी सरकारें या विभिन्न समुदाय हल नहीं कर पाए हैं. इसलिए कॉमन सिविल कोड की बात चलती रहती है. उनमें से एक मसला ये है कि विवाह का कानून कैसा हो. विवाह अगर टूटता है तो तीन तलाक के माध्यम से हो या कानून के माध्यम से. इसी तरह संपत्ति के वारिस का मामला है. ये दो-तीन बातें ऐसी हैं जिनके बारे में अभी कॉमन सिविल कोड लागू होना है और ये बहुत विवादास्पद है. कई बार सरकारें इस पर पहल नहीं करतीं. अब नई स्थिति यह है कि मामला विधि आयोग को भेजा गया है, लेकिन पहले भी विधि आयोग की रिपोर्ट आती रही है. अब फिर से मामला लॉ कमीशन के सुपुर्द किया गया है.
कमीशन की जो रिपोर्ट आएगी, उस पर बातचीत होगी और संसद में यह सवाल उठेगा.’

समान नागरिक संहिता लागू हो या न हो, इसके जवाब में पूर्व मंत्री व नेता आरिफ मोहम्मद खान कहते हैं, ‘यह प्रश्न ही नामुनासिब है क्योंकि खुद हमारा संविधान अपने अनुच्छेद 44 के द्वारा राज्य के ऊपर यह जिम्मेदारी डालता है कि वह भारत के समस्त नागरिकों के लिए समान सिविल संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा. असल में सवाल यह होना चाहिए कि संविधान लागू होने से लेकर आज तक हमारी सरकारों ने इस दिशा में क्या कदम उठाए हैं. वास्तविकता यह है कि समान सिविल संहिता तो छोड़िए, हमने तो क्रिमिनल संहिता को भी समान नहीं रहने दिया. शाह बानो केस में क्रिमिनल संहिता के सेक्शन 125 के तहत निर्णय हुआ था. हमने उसको भी संसद के एक कानून द्वारा निरस्त किया और इस तरह भारतीय महिलाओं के एक वर्ग को उस अधिकार से वंचित कर दिया जो उन्हें क्रिमिनल संहिता के द्वारा मिला हुआ था.’

सुभाष कश्यप भी राजनीतिकरण की बात को स्वीकार करते हुए कहते हैं, ‘इसे लागू करने में कोई तकनीकी मुश्किल नहीं है, बल्कि राजनीतिक मुश्किल है. इस मुद्दे का राजनीतिकरण हुआ है. संविधान राज्य को निर्देश देता है कि समान नागरिक संहिता लागू की जाए. लेकिन क्यों नहीं लाया जा सका है, सुप्रीम कोर्ट ने इस पर एक-दो सवाल किए. यह अभी तक नहीं लाया गया, इसके कारण राजनीतिक हैं, वोटबैंक पॉलिटिक्स है. जिन समुदायों के पर्सनल कानून हैं, वे समुदाय नाराज न हो जाएं, इसलिए इसे नहीं लाया जा रहा है.’

कानून की समानता का महत्व बताते हुए राम बहादुर रायकहते हैं, ‘फिलहाल हिंदू, मुस्लिम, ईसाई आदि सभी का अपना नियम-कानून है. सब अपनी-अपनी रीति और परंपरा से संचालित हैं. इस क्षेत्र में एक समानांतर व्यवस्था चल रही है. बाकी क्षेत्र में ऐसा नहीं है. जैसे मान लिया कि कोई व्यक्ति अपराध करता है तो यह नहीं देखा जाता कि वह किस समुदाय का है. कॉमन सिविल कोड मौजूद है वहां. अगर हम आपकी मानहानि करते हैं तो आप इस आधार पर मुकदमा करते हैं कि हमने आपकी मानहानि की. इस आधार पर नहीं करते कि मैं हिंदू हूं या मुसलमान हूं. दो-तीन बातें हैं जिनका निराकरण हो जाएगा तो यह मसला सुलझ जाएगा.’

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‘संविधान शुरू से सेक्युलर रहा है. लेकिन जब इसमें सेक्युलरिज्म शब्द भी जोड़ दिया गया, फिर तो ये पर्सनल हो ही नहीं सकता. क्योंकि सेक्युलरिज्म और पर्सनल लॉ एक नदी के दो छोर हैं. साथ-साथ नहीं चल सकते. या तो आपका देश सेक्युलर हो सकता है, या तो धार्मिक हो सकता है. अगर धार्मिक होगा तो पर्सनल लॉ चलेगा. अगर सेक्युलर है तो आपके पास कॉमन सिविल कोड ही रास्ता है’ 

अगर मौजूदा व्यवस्था ही बनी रहे, समुदायों के पर्सनल कानून ही लागू रहें तो इसके क्या नुकसान हैं? इसके जवाब में राम बहादुर राय कहते हैं, ‘आप कैसे इस चीज को देखते हैं, इस पर निर्भर करता है. कौन व्यक्ति इसको किस रूप में देखता है, यह महत्वपूर्ण है. हमारे एक मित्र हैं, जिनका मैं बहुत आदर करता हूं. लेकिन उनका मानना है कि खाप पंचायत बहुत आदर्श व्यवस्था है. अब खाप अगर आदर्श व्यवस्था है तो खाप जो फैसला करेगी, उस समुदाय पर वही लागू होगा. किंतु अब सवाल यह है कि जो भारतीय अपराध संहिता है वह लागू होगी या खाप की व्यवस्था लागू होगी. यहां पर टकराव आता है. दूसरा उदाहरण है ट्राइबल इलाकों की पंचायतें. कोई अपराध वगैरह होता है तो वे बैठते हैं और कई-कई दिन तक उस पर बात करते हैं. वहीं खाना-पीना होता है, वहीं पर सोना होता है. वे उस पर सर्वानुमति से फैसला लेते हैं. मेरा ख्याल है कि विनोबा जी ने सर्वोदय में जो सर्वानुमति चलाई, उसकी प्रेरणा यहीं से मिली होगी. अब कोई सरकार अगर वहां सर्वानुमति से राय लेती है कि कोई कानून लागू नहीं होगा और कोई अपराध होता है तब क्या होगा? अरुणाचल प्रदेश में 1980-82 तक कोई जेल नहीं थी. अब वहां पर जेलें हैं. जो लोग इस मुद्दे को उठाते हैं उसके पीछे दो तरह की अवधारणा है. पहली अवधारणा यह है कि हमारे संविधान का जो केंद्रीय बिंदु है, जो मुख्य पात्र है, वह नागरिक है. खाप, पंचायत या दूसरी व्यवस्था मान्य नहीं है. ये व्यवस्थाएं तभी तक चल सकती हैं, जब तक उनका कानून से कोई टकराव न हो. जहां टकराव होता है तो यह मांग उठती है कि भाई सबके लिए एक कानून लागू क्यों नहीं करते. दूसरा, अगर नागरिक के स्तर पर भेदभाव होता है तो सवाल उठता है कि एक को आप कानून से संचालित करना चाहते हैं, दूसरे को आप उसकी मर्जी के कानून से संचालित करते हैं.’

इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका डालने वाले अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘देखिए, मुझे लगता है कि अनुच्छेद 44 हमारे संविधान की आत्मा है. कुछ ऐसे अनुच्छेद हैं, जैसे अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समता की बात करता है और अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार की. अगर हम मूल अधिकार में देखें तो ये दोनों मूल अधिकारों की आत्मा हैं. ऐसे ही अगर हम नीति निदेशक तत्वों में जाकर देखें तो अनुच्छेद 44 यानी यूनीफॉर्म सिविल कोड उसकी आत्मा है. हमारे संविधान निर्माताओं ने ‘वन नेशन, वन कांस्टीट्यूशन’ का सपना देखा था और ‘वन नेशन, वन कांस्टीट्यूशन’ में अगर यूनीफॉर्म सिविल कोड नहीं लागू होता और पर्सनल लॉ चलते हैं, तो मुझे लगता है कि हम सिर्फ संविधान का ही अपमान नहीं कर रहे, बल्कि संविधान बनाने वाले बाबा साहेब आंबेडकर, पंडित नेहरू, रफी अहमद किदवई, मौलाना कलाम और तमाम सारे लोगों का अपमान कर रहे हैं. वोटबैंक पॉलिटिक्स के चक्कर में ये अभी तक लागू नहीं किया गया. तमाम लोगों से मेरा एक सवाल है कि अगर बाबा साहेब आंबेडकर, नेहरू, किदवई और तमाम संविधान निर्माता सेक्युलर थे तो उन्हीं का बनाया अनुच्छेद 44 कैसे कम्युनल हो जाएगा. यह बहुत बेसिक बात है. आजादी के बाद संविधान बनाया गया था. उन लोगों को यह अंदाजा नहीं रहा होगा कि हमारी आने वाली पीढ़ी वोट के चक्कर में क्या-क्या कर देगी. यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. वोट की राजनीति ने हमारा बहुत नुकसान किया है.’

समान नागरिक संहिता पर ऐतिहासिक मतभेदों और विवादों का जिक्र करते हुए रामबहादुर राय बताते हैं कि जवाहरलाल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद में जो विवाद था वह इसी बात पर था. राजेंद्र प्रसाद यह नहीं चाहते थे कि हिंदू कोड बिल केवल हिंदुओं के लिए लागू हो. अगर आप हिंदू कोड बिल बना रहे हैं तो मुस्लिम कोड बिल भी बनाइए. और हिंदू कोड बिल, मुस्लिम कोड बिल की क्या जरूरत है, कॉमन कोड क्यों नहीं हो सकता? ये 1954-55 से चला आ रहा विवाद है. वे कहते हैं, ‘इसका व्यापक पक्ष जो है वह दूसरा है. वह इससे संबंधित है कि हमने अभी भी भारत के लोगों के लिए, जिसमें हिंदू-मुसलमान-ईसाई-पारसी का सवाल नहीं है, इस पर विचार ही नहीं किया है कि भारतीय नागरिक के लिए किन्हीं परिस्थितियों में कैसा कानून होना चाहिए. जहां कोई अड़चन आती है, वहां मौजूद कानूनों में ही हेरफेर करके काम चला लेते हैं. यह व्यापक प्रश्न है, जिस पर विचार होना चाहिए.’

समान नागरिक संहिता का महत्व और पर्सनल कानून की निरर्थकता बताते हुए अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘दुनिया के बहुत सारे इस्लामिक देशों में यूनीफॉर्म सिविल कोड है. अपने भारत में गोवा में लागू है और वहां चल रहा है. वहां हर समुदाय के लिए एक कॉमन लॉ है. जो लोग इसका विरोध करते हैं, वे महिला और गरीब विरोधी हैं. पर्सनल लॉ महिलाओं को दबाने का स्पेस है. यूनीफॉर्म सिविल कोड आएगा तो महिलाओं के शोषण पर लगाम लग जाएगी. सिर्फ महिलाओं नहीं, कई बार पुरुषों का भी शोषण होता है, वह भी रुकेगा. मेरा अपना मानना है कि हर एक पर्सनल लॉ, हिंदू हो या इस्लामिक या ईसाई, सबमें कुछ-कुछ अच्छी चीजें हैं. उन सबकी बेहतर चीजों को निकालकर एक कॉमन ड्राफ्ट बनाना चाहिए. उस ड्राफ्ट को संसद में ले आना चाहिए फिर उस पर चर्चा हो. अभी दिक्कत ये है कि इसका कोई प्रारूप नहीं है.’

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जमीयत उलेमा-ए-हिंद के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी इस मसले पर अपनी राय रखते हैं, ‘हम तो उन लोगों में हैं जिन्होंने मुल्क में सेक्युलर दस्तूर को बनवाया है. वह दस्तूर जिसके तहत अपने मजहब पर आजादी के साथ अमल करते हुए मुल्क की तरक्की के लिए, मुल्क को आगे बढ़ाने के लिए काम करना चाहिए. हमने मजहबी अकलियत को अपनी मजहबी निशानी के साथ दस्तूर में जिंदा रखवाया है. हमारा किरदार है वो. हम सबने गांधी-नेहरू के साथ मिलकर उस दस्तूर को बनवाया है कि जिसमें मुल्क को आगे बढ़ाने में हर आदमी, चाहे वो किसी भी मजहब का हो, मददगार बने और अपने मजहब पर कायम रहने का उसे मुकम्मल हक हो. मुल्क 70 साल से उन्हीं दस्तूरों पर चल रहा है. हम उसके मुखालिफ कैसे हो सकते हैं. हम तो जम्हूरियत और सेक्युलरिज्म की ताईद ही इस वजह से करते हैं कि मुल्क के अंदर तमाम अकलियत को जोड़कर रखने का एक ही रास्ता है और वह है सेक्युलरिज्म. सेक्युलरिज्म ही देश को और मजबूत कर सकता है. तमाम सारी अकलियत को अगर उनके मजहब से काटकर रखा जाएगा तो ये तो झगड़ा पैदा करेगा. हम उसकी ताईद नहीं करते. हम ये मानते हैं कि अपने-अपने मजहब पर अमल करते हुए तमाम लोग मुल्क की आजादी और तरक्की के लिए काम करें. यही अमन और प्यार-मोहब्बत का रास्ता है.’

दूसरी ओर अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘हमारा संविधान शुरू से सेक्युलर रहा है. लेकिन जब इसमें सेक्युलरिज्म शब्द भी जोड़ दिया गया, फिर तो ये पर्सनल हो ही नहीं सकता. किसी कीमत पर नहीं. क्योंकि सेक्युलरिज्म और पर्सनल लॉ एक नदी के दो छोर हैं. साथ-साथ नहीं चल सकते. या तो आपका देश सेक्युलर हो सकता है, या तो धार्मिक हो सकता है. अगर धार्मिक होगा तो पर्सनल लॉ चलेगा. अगर सेक्युलर है तो आपके पास कॉमन सिविल कोड ही रास्ता है.’ वे आगे कहते हैं, ‘यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू होने से ऐसा नहीं होगा कि हिंदुओं को निकाह करना पड़ेगा और मुसलमानों को सात फेरे लेने पड़ेंगे. ऐसा नहीं होगा कि हिंदुओं को दफनाना पड़ेगा और मुसलमानों को जलाना पड़ेगा. ये उसमें कहीं आड़े नहीं आता. सुप्रीम कोर्ट के बहुत सारे फैसले हैं. जस्टिस खरे का है, जस्टिस चंद्रचूड़ का है. बड़ी-बड़ी पीठों के फैसले हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि विवाह, तलाक, उत्तराधिकार ये वस्तुत: सेक्युलरिज्म का पार्ट हैं, ये पर्सनल कानून या आस्था से नहीं चल सकते. ऐसा नहीं हो सकता कि एक महिला तलाक ले तो उसे दस रुपये मिलें और दूसरी महिला तलाक ले तो उसे एक पैसा न मिले. ऐसा नहीं चल सकता.’

महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर कहती हैं, ‘मुझे ये समझ में नहीं आ रहा है कि सरकार इसमें इतनी दिलचस्पी क्यों ले रही है कि कॉमन सिविल कोड पर अभी ही चर्चा हो और ये लागू हो. अभी बहुत सारी योजनाएं हैं जिनका चुनाव के टाइम ऐलान किया गया था. सरकार का जो लक्ष्य है 2017 का, सबका साथ सबका विकास, शिक्षा, हेल्थ और तमाम मुद्दे हैं, सरकार उन पर काम करे. जो लोग कॉमन सिविल कोड को किसी खास मकसद से लाना चाहते हैं, वे चुनाव को नजर में रखकर इसे उछाल रहे हैं, तो मेरी यही गुजारिश है मुस्लिम समाज मुस्लिम कानून और मजहब के हिसाब से ही काम करेगा. हम महिलाएं अदालत में अपने कानून को मजबूती से लागू करने की लड़ाई लड़ रही हैं.’

समान नागरिक संहिता की चर्चा में सबसे तीखा विरोध मुस्लिम समुदाय की ओर से उठता है. संविधान सभा में बाबा साहेब आंबेडकर का इस मुद्दे पर भाषण भी मुसलमानों पर ही केंद्रित है. अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘जो तथाकथित धर्मगुरु लोग विरोध करते हैं, उन्हें मालूम है कि यह महिलाओं के पक्ष में है. लेकिन ये लोग अपनी दुकान चलाने के लिए विरोध करते हैं. इससे तो धर्म का फायदा है. इस्लाम की जो बेसिक थीम पैगंबर साहेब ने दी थी, वह बराबर की थी. इस्लाम की बेसिक थीम बराबरी है कि हमारे यहां जाति, लिंग आदि का कोई भेद नहीं होगा. अगर बेसिक कॉन्सेप्ट बराबरी है तो कोई भी पर्सनल लॉ जो आर्टिकल 14 का उल्लंघन करे वह तो होना ही नहीं चाहिए. सबसे बेसिक कानून अनुच्छेद 14 और 21 है. जो लोग बाकी अनुच्छेदों की बातें करते हैं, 13, 25, 29 या 30, ये सब 14 के बाद आते हैं. यह एक आॅर्डर में है. बेसिक कानून 14 है. कानून के समक्ष बराबरी बेसिक है. ऐसा नहीं हो सकता है कि शादी के वक्त आप पूछें कि मंजूर है कि नहीं और तलाक देते वक्त नहीं पूछें कि मंजूर है कि नहीं. इसमें सबसे ज्यादा जरूरी है कि पहले कानून का ड्राफ्ट आ जाए. ड्राफ्ट आ जाएगा तो जितने विवाद हैं, वे ज्यादातर अपने आप हल हो जाएंगे.’

मई 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता अनिवार्य रूप से लागू करने पर जोर दिया था. कोर्ट का कहना था, ‘इससे जहां पीड़ित महिलाओं की सुरक्षा हो सकेगी वहीं राष्ट्रीय एकता बढ़ाने के लिए भी यह आवश्यक है. किसी समुदाय के इस तरह के निजी कानून स्वायत्तता नहीं, बल्कि अत्याचार के प्रतीक हैं. भारत एक राष्ट्र है और कोई समुदाय मजहब के आधार पर स्वतंत्र अस्तित्व का दावा नहीं कर सकता’

शाइस्ता अंबर यह तो मानती हैं कि मुस्लिम समाज में बहुत-से सुधारों की जरूरत है, लेकिन वे इस बात की हिमायती हैं कि इनका निदान इस्लामी कानून और कुरान के मद्देनजर ही होना चाहिए. बातचीत में वे कहती हैं कि इस्लामी कानून अपने आप में मुकम्मल हैं. वे मानती हैं कि मुसलमान औरतों को न्याय कुरान की बुनियाद पर मिलना चाहिए. उन्होंने बताया कि हमने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को एक सिफारिश भेजी थी कि जिस तरह हिंदू कोड बिल है, उसी तरह एक मुस्लिम कोड बिल बनाया जाए. वे कहती हैं, ‘हम कॉमन सिविल कोड स्वीकार तब करें जब हमारे मुस्लिम पर्सनल कानून में कुछ गलत हो. जब पर्सनल लॉ में कोई कानून गलत है ही नहीं, पहले से ही सारे अधिकार मिले हुए हैं तो हमें कॉमन सिविल कोड की जरूरत ही नहीं है. हमारा विश्वास ऐसे कानून में है जो कॉमन सिविल कोड से ज्यादा मुकम्मल है.’

चूंकि भाजपा कश्मीर में धारा 370, राम मंदिर और यूनीफॉर्म सिविल कोड को मुद्दा बनाती रही है, इसलिए इस मामले में और भी भ्रम की स्थितियां बनी हैं. भाजपा की हिंदूवादी विचारधारा के कारण मुस्लिम समुदाय में यह संदेश गया है कि यह भाजपा का हिंदूवादी एजेंडा है. मौलाना अरशद मदनी कहते हैं, ‘हम समझ रहे हैं, हो सकता है कि मेरी यह बात किसी को बुरी लगे लेकिन वो जो एक आवाज उठी थी सबको घर वापस लाओ, अब तक वो आवाज जनता के बीच थी, अब सरकार उस आवाज के दरख्त को पालने के लिए पानी दे रही है और ये दूसरे रास्ते से उसी की तरफ लेकर चलना चाहते हैं. हमें तो ये मंजूर नहीं है. हम तो मरना और जीना इस्लाम और मजहब के साथ ही बावस्ता रखना चाहते हैं. हम इसकी ताईद नहीं करेंगे. हमारा अपना स्टैंड है और वह बहुत मजबूत है. हमारा इसमें कोई समर्थन और विरोध नहीं है. हम बस इतना जानते हैं कि हर आदमी मुल्क को आगे बढ़ाए और अपने मजहब पर कायम रहते हुए बढ़ाए.’
अब तक यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू न होने के लिए वोटबैंक राजनीति को जिम्मेदार ठहराते हुए अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘वोट के लालच ने देश का बहुत नुकसान किया है. राइट टू एजुकेशन को मूलाधिकार बनाकर 21 ए में रखा गया. लेकिन उसमें भी विसंगतियां हैं. हमारे देश में तीन चीजें बहुत जरूरी हैं. यूनीफॉर्म एजुकेशन, यूनीफॉर्म हेल्थकेयर और यूनीफॉर्म सिविल कोड हो. अगर देश की एकता और अखंडता को बनाए रखना है तो ये तीन चीजें बहुत जरूरी हैं.’

भाजपा से दूर होते मांझी

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बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी कब क्या बोलेंगे, यह सिर्फ वही जानते हैं. वे सुबह कुछ और शाम को कुछ और बोल सकते हैं. वे इतनी बार बयान बदलते हैं कि भले ही उनके बयानों को गंभीरता से नहीं लिया जाए लेकिन वे चौंकाने वाले होने की वजह से परेशान तो कर ही देते हैं. अंकगणित के आधार पर देखें तो बिहार विधानसभा चुनाव में हार के बाद एक विधायक वाली पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के वे राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. इस लिहाज से देखा जाए तो बिहार में फिलहाल वे कोई राजनीतिक ताकत नहीं हैं. निकट भविष्य में बिहार में कोई चुनाव नहीं इसलिए भी वे कोई खास महत्व की चीज नहीं हैं. भाजपा के ही दो सहयोगी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) इनसे बड़ी ताकत हैं लेकिन जीतन राम मांझी कुछ न होते हुए भी भाजपा को हर कुछ दिनों पर परेशान किए रहते हैं.

इस महीने की शुरुआत से ही उन्होंने बयानों का बदलाव इस तरह से शुरू किया है कि भाजपा सुबह खुश होती थी तो शाम होते-होते उसकी सांस अटकने लगती थी. पिछले महीने जीतन राम मांझी ने जदयू के नेता व बिहार विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी को निशाने पर लिया. उन्होंने आरोप लगाया कि चौधरी उनकी हत्या की साजिश रच रहे हैं इसलिए जब वे एक दलित नेता की हत्या के बाद परिजनों से मिलने गए तो अज्ञात लोगों ने उन पर हमला किया.
मांझी ने यह बात जोर-शोर से कही तो भाजपा ने सुर में सुर में मिलाना शुरू किया. कुछ दिनों बाद मांझी ने सीधे नीतीश कुमार पर आरोप लगाया कि राज्य में जो भ्रष्टाचार हो रहा है उसका पैसा सीधे मुख्यमंत्री आवास तक पहुंच रहा है. वे यहीं नहीं रुके. आगे उन्होंने जोड़ दिया कि मुख्यमंत्री आवास सीधे भ्रष्टाचार में लिप्त है, इसकी सीबीआई जांच करवाई जाए और अगर ऐसा नहीं होता है तो वे विधानसभा की सदस्यता भी छोड़ देंगे. इस बयान से भाजपा और खुश हुई. मांझी की पीठ थपथपाने लगी. होली के समय मांझी ने बयान दिया कि वे और उनकी पार्टी के लोग इस बार होली नहीं मनाएंगे क्योंकि बिहार में अपराध इतना बढ़ गया है कि इसमें होली क्या मनाना.

मांझी अपनी हर बात कहने के लिए अपने घर पर प्रेस कॉन्फ्रेंस करते रहे. मांझी अपने बयानों से लगातार टूटे-बिखरे भाजपाइयों का मनोबल बढ़ाते रहे. राष्ट्रपति शासन के बाद जब उत्तराखंड में सरकार बनाने की जोड़-तोड़ चल रही थी तो नीतीश कुमार ने आरोप लगाया कि भाजपा उत्तराखंड में सरकार बनाने का गंदा खेल खेल रही है. इस बार भी भाजपा की ओर से कमान संभालते हुए मांझी ने जवाब दिया कि नीतीश कुमार को इस पर बोलने का अधिकार नहीं है क्योंकि उन्होंने मेरी सरकार भी इसी तरह से गिराई थी. इसके बाद मांझी ने नीतीश को नसीहत तक दे डाली. उन्होंने कहा कि राजस्थान और मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार है और वहां प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था है लेकिन बिहार की सरकार आरक्षण और दलित विरोधी है इसलिए उसे खत्म कर रही है.

भाजपा की सहयोगी पार्टी रालोसपा में भी उठापटक मची हुई है. रालोसपा के प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा के खिलाफ उन्हीं की पार्टी के सांसद डॉ. अरुण कुमार मोर्चा खोले हुए हैं

मांझी एक के बाद एक पत्ते फेंकते रहे और नीतीश के प्रवक्ता जवाब पर जवाब देते रहे. उधर, भाजपाई खुश होते रहे. लेकिन पिछले हफ्ते मांझी ने सारा खेला बदल दिया है. बिहार में विधान परिषद का चुनाव और राज्यसभा का चुनाव हो जाने के बाद मांझी के बोल बदलने लगे हैं. बोल के बदलाव की शुरुआत उन्होंने भाजपा को नसीहत देने से की. मांझी ने कहा, ‘भाजपा कोई भी फैसला अकेले न ले, बल्कि हमारी पार्टी, लोजपा और रालोसपा को शामिल कर फैसला ले नहीं तो यह ठीक नहीं हो रहा.’

लालू प्रसाद यादव ने मांझी के बदलते मूड को पकड़ा, उन्होंने केंद्र में मंत्रिमंडल का विस्तार होने के पहले बयान दिया, ‘भाजपा को चाहिए कि बूढ़े हो चुके रामविलास पासवान को मंत्रिमंडल से हटाकर उनकी जगह जीतन राम मांझी को दे.’ मौके की नजाकत को समझने में उस्ताद लालू ने सही समय पर, सही तरीके से निशाना साधा जो बिल्कुल सटीक जगह लगा. लालू ने इस एक बयान से मांझी को शह दिया कि वे आगे भी अपने बयान को जारी रखें. रामविलास पासवान को उकसाया भी और लगे हाथ नीतीश कुमार को संकेत भी दे दिया कि वे अपने तरीके से बिहार में सक्रिय हैं. मांझी ने लालू के बयान का खंडन नहीं किया, वे अपने बयान को विस्तारित करने में लग गए. उधर, लालू के बयान पर रामविलास पासवान भड़क उठे. उन्होंने कहा, ‘पांच बार मैट्रिक फेल लालू प्रसाद कौन होते हैं बूढ़ा कहने वाले, वे अपने बेटों को सेट कर रहे हैं, वही काम करें.’ झगड़ा रामविलास पासवान और लालू प्रसाद यादव में लग गया.

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फिर क्या था, लालू मजा लेने में लगे रहे, दूसरी ओर मांझी ने भाजपा के रंग में भंग डालने की मात्रा बढ़ा दी. रमजान के महीने में बिहार में होने वाला हर इफ्तार राजनीति का अखाड़ा होता है, मांझी ने उस अखाड़े में भी दांव खेला. मांझी ने इफ्तार पार्टी दी तो लालू पहुंचे. वहां पहुंचकर फिर वही दोहराया कि भाजपा जीतन राम मांझी के साथ अन्याय कर रही है. उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिलनी चाहिए.

लालू जानते हैं कि भाजपा की बुरी तरह से हार के बाद भी मांझी अगर चुपचाप भाजपा के साथ बने हुए हैं और नीतीश को निशाने पर ले रहे हैं तो इसी उम्मीद में कि मांझी को केंद्र में कोई जगह मिल जाएगी, राज्यसभा भेज दिया जाएगा और राजनीति में शामिल होने के इच्छुक उनके बेटे संतोष मांझी को बिहार की विधान परिषद में भाजपा एडजस्ट कर देगी. लालू यह भी जान गए हैं कि भाजपा ने मांझी की दोनों में से एक भी मुराद पूरी नहीं की है इसलिए अभी मांझी को उकसाने व पुचकारने से वे भाजपा को परेशान कर सकते हैं. मांझी ने यही करना शुरू भी कर दिया है. अपनी इफ्तारी पार्टी में तो वे ज्यादा नहीं बोले लेकिन जब लालू ने उन्हें इफ्तारी दी तो वहां पहुंचे मांझी की मुलाकात नीतीश कुमार से हो गई. दोनों साथ में बैठे और काफी देर तक बातचीत भी की.

राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के बयान पर रामविलास पासवान भड़क उठे. उन्होंने कहा, ‘पांच बार मैट्रिक फेल लालू कौन होते हैं बूढ़ा कहने वाले, वे अपने बेटों को सेट कर रहे हैं, वही काम करें’ 

इसके बाद मांझी ने एक नया बयान दिया कि जब लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार एक हो सकते हैं, जिनके बीच घनघोर झगड़ा था तो फिर वे नीतीश कुमार के साथ क्यों नहीं हो सकते. मांझी गदगद थे. वे यहीं नहीं रुके. उन्होंने आगे कहा, ‘मैं आज जो भी हूं, नीतीश के कारण ही हूं. नीतीश ही मेरे राजनीतिक जन्मदाता हैं. मैं तो विधायक और मंत्री के बीच ही झूल रहा था लेकिन नीतीश ने ही मुझे मुख्यमंत्री बनाया. नीतीश ने कभी आलोचना भी नहीं की, उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर बड़ी भूल की. अगर वे यह बयान वापस ले लें तो मैं नीतीश कुमार के साथ आ सकता हूं.’ मांझी का यह बयान भाजपा की नींद हराम कर देने के लिए काफी था. मांझी से जब इन बयानों का निहितार्थ पूछा जाता है तो वे कहते हैं कि राजनीति संभावनाओं का खेल होता है, यहां कोई स्थायी दोस्त या स्थायी दुश्मन नहीं होता. मांझी दार्शनिक अंदाज में इतनी ही बात करते हैं, आगे कुछ नहीं कहते. मांझी जब संभावनाओं के खेल पर बात करते हैं तो भाजपा के एक बड़े नेता कहते हैं कि मांझी संभावना की ही तलाश में लगे नेता हैं और उन्हें किसी तरह से अपना और अपने बेटे का सेटलमेंट चाहिए.

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय कहते हैं, ‘राजग में ऐसा कुछ भी नहीं है, कोई खटपट नहीं है, सभी एकजुट हैं. मांझी जी के बयानों को दूसरे संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए. वे वरिष्ठ नेता हैं और उनकी पार्टी भाजपा के साथ है.’ सुशील मोदी भी यही बात दोहराते हैं. वे कहते हैं, ‘नीतीश के कार्यकाल में होने वाले कृत्यों पर मांझी लगातार मुखर रहे हैं, वे राजग के अभिन्न अंग हैं और रहेंगे.’

भाजपा नेता मांझी को बड़ा नेता, वरिष्ठ नेता, नीतीश विरोधी नेता बताकर डैमेज कंट्रोल में लगे हुए हैं. दूसरी ओर, नीतीश के पक्ष में जब से मांझी ने बयान दिया है, जदयू के नेता सक्रिय हो गए हैं. जदयू के प्रवक्ता संजय सिंह, जो पिछले महीने तक लगातार कहते थे कि मांझी एक चूके हुए और विश्वासघाती नेता हैं, उनका जदयू से कभी कोई संबंध नहीं हो सकता, वे कहते हैं, ‘मांझी जी के लिए तो जदयू का दरवाजा हमेशा खुला हुआ है, वे जब आएं, स्वागत है.’ मांझी ने अपने बयानों से खुद को केंद्र में ला दिया है. एक विधायक वाली पार्टी के मुखिया होकर भी ज्यादा विधायक वाली पार्टी के नेताओं से ज्यादा चर्चा में हैं.

‘राजग में ऐसा कुछ भी नहीं है, कोई खटपट नहीं है, सभी एकजुट हैं. मांझी जी के बयानों को दूसरे संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए. वे वरिष्ठ नेता हैं और उनकी पार्टी भाजपा के साथ है’

भाजपा परेशान हाल है. भाजपा की परेशानी सिर्फ मांझी को लेकर नहीं है. भाजपा की एक बड़ी सहयोगी पार्टी रालोसपा में भी पिछले माह से उठापटक मची हुई है. रालोसपा के प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा केंद्र में मंत्री हैं. वहीं रालोसपा से एक दूसरे सांसद डॉ. अरुण कुमार अपने ही अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं, जिसके बाद उपेंद्र कुशवाहा ने डॉ. अरुण कुमार को पार्टी से निलंबित कर दिया है. अरुण कुमार के साथ उपेंद्र कुशवाहा ने पांच और रालोसपा नेताओं को बर्खास्त किया है. जानकारी मिल रही है कि अभी उपेंद्र कुशवाहा और भी कई नेताओं को अपनी पार्टी से या तो बर्खास्त करेंगे या निलंबित करेंगे. यानी रालोसपा सीधे-सीधे दो गुटों में विभाजित होगा. सांसद डॉ. अरुण कुमार कहते हैं, ‘उपेंद्र कुशवाहा तानाशाह की तरह पार्टी चला रहे हैं. उनसे जवाब मांगा गया था लेकिन जवाब देने के बजाय उन्होंने पार्टी से हटाने का निर्णय लिया, इसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ेगी.’ अरुण कुमार अपनी पार्टी की बात करते हैं. भाजपा के नेता इस मामले पर बोलने से बच रहे हैं. वे कह रहे हैं कि यह रालोसपा का अंदरूनी मामला है, इस पर बोलना ठीक नहीं. सब जानते हैं कि यह रालोसपा का अंदरूनी मामला है लेकिन यह भी सच है कि अगर निकट भविष्य में रालोसपा में दो फाड़ होता है तो फिर भाजपा के साथ कोई एक धड़ा ही रहेगा. यह भी एक तरीके से राजग का नुकसान ही होगा.

राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘भाजपा का क्या कीजिएगा. बिहार में हारने के बाद उसे मजबूत विपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए थी लेकिन उसकी तो पूरी ऊर्जा आपसी कलह और अपने कुनबे को संभालने में ही जा रही है. ये देख नहीं रहे हैं इसका असर क्या हो रहा है. भाजपा को बिहार में जिन मसलों को उठाना चाहिए, उस पर नहीं बोल रही. उसके नेता कभी नीतीश कुमार के आवासों की संख्या गिन रहे हैं तो कभी कुछ और कर रहे हैं.’

मणि की बात सही ही है. भाजपा के नेता ऐसी ही बातों में उलझे हुए हैं. इसी दौर में भाजपा के ही एक नेता ने और परेशानी बढ़ा दी है, लेकिन वे भाजपा नेता बिहार के न होकर गुजरात के हैं. गुजरात में भाजपा के पूर्व विधायक रहे और अब आम आदमी पार्टी में शामिल हो चुके यतिन ओझा ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को पत्र लिखकर कहा है कि बिहार चुनाव में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और ओवैसी के बीच बड़ी डील हुई थी, जिसमें शाह ने ओवैसी को सीमांचल इलाके में लड़ने को, भड़काऊ भाषण देने को कहा था ताकि ध्रुवीकरण हो और भाजपा को फायदा हो. यतिन ओझा के इस आरोप का आधार भले ही न हो लेकिन भाजपा के आलोचकों को मजा लेने के लिए एक नया विषय तो मिल ही गया है. बिहार में यह पहले से ही माना जा रहा था कि ओवैसी एक फिक्स्ड गेम प्लेयर हैं और उनकी हार हुई तो यह भी कहा गया था कि ओवैसी भाजपा के साथ मिलकर खेल रहे थे, जिसे बिहारी जनता समझ गई थी, इसलिए उनकी दुर्गति तय ही थी.

‘चौदह साल के कठिन परिश्रम का फल रियो ओलंपिक के टिकट के रूप में अब मिला’

फोटो साभारः radio.wpsu.org
फोटो साभारः radio.wpsu.org

पहली कक्षा में पढ़ने वाली छह साल की वह मासूम तब एथलीट शब्द का मतलब तक नहीं समझती थी जबकि उसकी खुद की बड़ी बहन एक एथलीट थी. वह तो बस स्कूल की दौड़ प्रतियोगिता में पहला स्थान पाना चाहती थी. एक दिन उसकी एथलीट बहन ने उससे बोला, ‘तू मेरे साथ भागेगी तो रेस में फर्स्ट आएगी’. फिर क्या सोचना था, उसने साथ भागना शुरू कर दिया. उस दिन के बाद वह ऐसी भागी कि स्कूल में ही नहीं, पूरे देश में कोई महिला धावक उसकी रफ्तार नहीं पकड़ सकी.
हम बात कर रहे हैं, 20 वर्षीय भारतीय महिला धावक द्युति चंद की. उन्होंने ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में आयोजित होने वाले 31वें ओलंपिक खेलों की 100 मीटर दौड़ प्रतियोगिता में भारत की ओर से क्वालिफाई किया है. ओलंपिक की इस स्पर्धा में द्युति 36 साल बाद कोई भारतीय चेहरा होंगी. द्युति से पहले सन 1980 में मॉस्को में आयोजित 22वें ओलंपिक खेलों में ‘उड़नपरी’ पीटी उषा ने भारत का प्रतिनिधित्व किया था. द्युति उड़ीसा के जाजपुर जिले के चक गोपालपुर गांव की रहने वाली हैं. वे भुवनेश्वर के केआईआईटी विश्वविद्यालय से एलएलबी भी कर रही हैं. वे एक गरीब बुनकर परिवार से ताल्लुक रखती हैं. छह बहन और एक भाई के बीच तीसरे नंबर की द्युति की यहां तक पहुंचने की कहानी काफी उतार-चढ़ाव भरी रही. उनके गांव में खेलों को लेकर इतनी जागरूकता नहीं थी क्योंकि टीवी नहीं हुआ करता था. बड़ी बहन सरस्वती ने जब खेलों में करिअर बनाना चाहा तो मां-बाप को समझाना पड़ा कि खिलाड़ियों को नौकरी जल्द मिलती है और नौकरी करके वे गरीबी में परिवार की मदद कर पाएंगी. द्युति भी एथलेटिक्स से इसी कारण जुड़ सकीं. सरस्वती आज ओडिशा पुलिस में कार्यरत हैं. वहीं द्युति को पिछले दिनों ओडिशा सरकार ने ओडिशा माइनिंग काॅरपोरेशन में सहायक प्रबंधक के पद पर नियुक्त किया है. द्युति का चयन इस मामले में भी खास है कि 2014 कॉमनवेल्थ गेम्स की शुरुआत से ऐन पहले द्युति के प्रतियोगिता में शामिल होने पर अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक महासंघ (आईएएएफ) ने पाबंदी लगा दी थी. इसका कारण द्युति के शरीर में पुरुषों में पाए जाने वाले हार्मोन टेस्टोस्टेरॉन का अधिक मात्रा में पाया जाना बताया गया. द्युति ने इसके खिलाफ स्विट्जरलैंड स्थित खेल मध्यस्थता न्यायालय (सीएएस) में एक साल लड़ाई लड़कर ट्रैक पर पिछले साल ही जुलाई में वापसी की थी. द्युति इसके अलावा कई ऐसे राष्ट्रीय रिकॉर्ड तोड़ चुकी हैं जो लंबे समय से भारतीय महिला धावकों के लिए चुनौती बने हुए थे. ऐसा ही एक रिकॉर्ड उन्होंने इसी साल अप्रैल में दिल्ली में आयोजित फेडरेशन कप एथलेटिक्स चैंपियनशिप के दौरान तोड़ा. उन्होंने 100 मीटर की दौड़ में 11.33 सेकंड का समय निकालकर रचिता मिस्त्री द्वारा 16 साल पहले सन 2000 में बनाए गए 11.38 सेकंड के रिकॉर्ड को तोड़ा. दोहा में एशियन इनडोर एथलेटिक्स गेम्स में भाग लेते हुए 60 मीटर की स्पर्धा में 7.28 सेकंड का समय निकालकर अर्जिना खातून का 7 साल पुराना रिकॉर्ड तोड़ा. जूनियर एवं सीनियर प्रतियोगिताओं में कई पदक अपने नाम करने वाली द्युति ओलंपिक का टिकट लेकर जब कजाकिस्तान से वापस लौटीं तो ‘तहलका’ ने उनसे बात की.

रियो ओलंपिक तक का सफर कैसा रहा और ओलंपिक में दौड़ने का सपना कब देखना शुरू किया?

बचपन में स्कूल की दौड़ प्रतियोगिता में मेरा मन हमेशा फर्स्ट आने का करता था. तब मुझे न तो एथलीट शब्द का मतलब पता था और न ओलंपिक के बारे में जानती थी जबकि मेरी बड़ी बहन सरस्वती चंद खुद एक एथलीट थीं. उन्होंने एक दिन मुझे बोला, ‘तू मेरे साथ दौड़ा कर, फर्स्ट आ जाएगी.’ मैंने उनके साथ दौड़ना शुरू किया. पहली कक्षा से तीसरी कक्षा तक मैं स्कूल प्रतियोगिताओं में फर्स्ट आती रही. 2006 में जब 5वीं कक्षा पास की तो एक सरकारी खेल अकादमी के बारे में पता चला जहां अच्छे एथलीटों का रहना, खाना, पढ़ाई सब निःशुल्क होता है. मैं इंटरव्यू देने गई और पास हो गई. वहीं पढ़ाई के साथ मेरी ट्रेनिंग भी हुई. 2007 में मैंने पहला नेशनल जूनियर मेडल जीता. तब से ओलंपिक में जाने का सपना देखने लगी. उसके बाद से मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. जिस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया कभी बिना मेडल जीते नहीं आई. मेरे 14 सालों के कठिन परिश्रम का फल रियो ओलंपिक के टिकट के रूप में मुझे अब मिला है. अभी तो बस ऐसा लग रहा है कि मेरे बचपन का सपना पूरा हो गया.

पिछली बार ओलंपिक की 100 मीटर दौड़ की स्पर्धा में 1980 मॉस्को ओलंपिक में पीटी उषा ने भारत का प्रतिनिधित्व किया था. उसके 36 साल बाद भारत की ओर से किसी एथलीट ने इस स्पर्धा में जगह बनाई है. अपनी इस उपलब्धि पर क्या कहना है?

ओलंपिक के लिए तैयारी के दौरान कभी दिमाग में नहीं था कि मुझे पीटी उषा का रिकॉर्ड तोड़ना है. सही मायनों में मुझे तो ऐसे किसी रिकॉर्ड की जानकारी भी नहीं थी. यह तो मुझे बाद में पता चला. हां, अब अच्छा लग रहा है कि मैंने 36 साल बाद देश को गर्व का मौका दिया है.

दिल्ली में हुए फेडरेशन कप में 0.01 सेकंड से आप ओलंपिक में क्वालिफाई करने से चूक गई थीं. लेकिन रचिता मिस्त्री का 16 साल पुराना नेशनल रिकॉर्ड आपने तोड़ दिया था. उस समय रिकॉर्ड तोड़ने की खुशी थी या फिर क्वालिफाई न कर पाने का गम?

मैं क्वालिफाई करने के लिए महीनों से कड़ी मेहनत कर रही थी. मैंने वो पूरी मेहनत उस दिन झोंक दी थी. पर मैं बिल्कुल नजदीक आकर चूक गई, यह सदमे जैसा था. नेशनल रिकॉर्ड तोड़ने की खुशी तो हुई पर गम और हताशा का अहसास ज्यादा हुआ क्योंकि रियो के दरवाजे तक आकर वापस लौटना पड़ा था.

100 मीटर प्रतियोगिता में कमजोर नहीं पड़ती बल्कि कद छोटा होने के कारण लंबे डग नहीं भर पाती. इस समस्या का समाधान निकालने की कोशिश कर रही हूं

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अक्सर किसी चीज के करीब आकर उसे खो देने की हताशा एक अनावश्यक मानसिक दबाव बनाती है. उस हताशा के बीच आपने खुद को कैसे तैयार किया कि अब मुझे चूकना नहीं है?

मौसम से काफी फर्क पड़ता है. अप्रैल माह के अंत में फेडरेशन कप के समय दिल्ली में तापमान 45 डिग्री के करीब था. इस तापमान में वाॅर्मअप करने में ही एक एथलीट की इतनी ऊर्जा बर्बाद हो जाती है कि वह मुख्य मुकाबले के लिए थक सा जाता है. फेडरेशन कप के बाद भारत में सिर्फ एक स्पर्धा बाकी रह गई थी, जो हैदराबाद में हुई. मैंने उसके लिए तैयारी शुरू कर दी. इस बीच मैंने एथलेटिक्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एएफआई) को एक पत्र लिखा. उन्हें यकीन दिलाया कि मैं अच्छा प्रदर्शन कर रही हूं. आप अगर मुझे ट्रेनिंग पर विदेश भेजेंगे तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुकाबला कर मैं ओलंपिक का टिकट हासिल कर सकती हूं. मुझे एक प्रतियोगिता में भाग लेने बीजिंग भेजा गया पर आखिरी समय में बताया गया कि 100 मीटर में भारतीय एथलीट नहीं दौड़ सकती. वहां 4×10 रिले में भाग लिया. फिर ताइपे गई, वहां 100 मीटर और 200 मीटर दोनों में स्वर्ण पदक जीता. लेकिन ओलंपिक क्वालिफिकेशन के लिए निर्धारित समय नहीं निकाल सकी क्योंकि वहां मुकाबले में टक्कर देने वाला कोई एथलीट ही नहीं था. मैंने एएफआई को समझाया कि जब मुकाबले में कोई होगा ही नहीं तो मैं कैसे और अच्छा करूंगी. तब मुझे कजाकिस्तान भेजा गया. यहां टक्कर में अच्छे एथलीट भी थे और मौसम भी अच्छा था, 20 डिग्री सेल्सियस के आसपास, जिससे मैं क्वालिफाई कर गई.

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रियो ओलंपिक की 200 मीटर की स्पर्धा में क्वालिफाई न कर पाने से कोई निराशा हुई?

वैसे मैं 200 मीटर की धावक हूं. लेकिन इस साल मैंने 200 मीटर की रेस पर ध्यान नहीं लगाया. मेरा ध्यान 100 मीटर में क्वालिफाई करने पर ज्यादा रहा. 100 मीटर में क्वालिफाइंग टाइम 11.32 सेकंड था और 200 मीटर में 23.20 सेकंड. लेकिन मेरा 100 मीटर में तब तक का बेस्ट 11.50 सेकंड था और 200 मीटर में 23.41 सेकंड. मतलब क्वालिफाई करने के लिए मुझे दोनों ही इवेंट में कुछ-कुछ सेकंड कम करने थे. मैं दोहा इनडोर गेम्स में 60 मीटर इवेंट में दौड़ने गई. वहां मैंने 60 मीटर में 7.28 सेकंड का समय निकालकर नया नेशनल रिकॉर्ड बनाया. तब जेहन में आया कि अगर 100 मीटर इंवेट पर ध्यान दूं तो क्वालिफाई कर सकती हूं. फिर मैंने तय किया कि 200 मीटर की जगह 100 मीटर पर ही पूरा ध्यान लगाऊंगी.

वैसे मैं 200 मी. की धावक हूं. लेकिन इस साल मैंने 200 मी. की रेस पर ध्यान नहीं लगाया. मेरा ध्यान 100 मी. में क्वालिफाई करने पर ज्यादा रहा

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किसी भारतीय महिला धावक को ओलंपिक की 100 मीटर स्पर्धा में अपनी जगह बनाने में 36 साल का लंबा समय क्यों लगा? कहीं खामियां रहीं या नया टैलेंट सामने नहीं आ रहा?

एक कारण तो आईएएएफ द्वारा 1980 के बाद अपनाए गए कठोर क्वालिफाइंग स्टैंडर्ड रहे. भारतीय एथलीट सामान्यत: इतनी तेज नहीं होतीं कि 11.32 सेकंड में 100 मीटर की रेस खत्म कर सकें. एक अन्य कारण यह भी है कि हर किसी को इतना सहयोग नहीं मिल पाता कि वह अपनी ट्रेनिंग को उन मानकों तक पहुंचा सके. कई मर्तबा कई अच्छे धावकों का करिअर चोटिल होने के कारण खत्म हो जाता है. किसी को अच्छा कोच नहीं मिल पाता. और एक सच यह भी है कि लोग खेल के तौर पर एथलेटिक्स का चुनाव करने में रुचि कम दिखाते हैं. मैंने जब से दौड़ना शुरू किया, तब से ही सुन रही थी कि 100 मीटर में रचिता मिस्त्री का रिकॉर्ड कोई तोड़ नहीं पा रहा है. मैं यह रिकॉर्ड तोड़ने की कोशिश कर रही थी. सन 2000 में यह रिकॉर्ड बना था और मैंने अब जाकर 2016 में तोड़ा है. इस दौरान कोई इस रिकॉर्ड को नहीं तोड़ सका तो इसके यही कारण रहे जो मैं बता रही हूं.

आपके कोच का कहना है कि 60 मीटर तक आप विश्व की श्रेष्ठ खिलाड़ियों में से एक हैं लेकिन अगले 40 मीटर में कमजोर पड़ जाती हैं.

कमजोर नहीं पड़ती. कद छोटा होने के कारण लंबे डग नहीं भर पाती. शुरुआती 60 मीटर में रफ्तार से आगे निकल जाती हूं. उसके बाद एनर्जी कम होने पर मेरे थोड़ा धीमा पड़ते ही अन्य एथलीट अपने कद का लाभ उठाकर आगे निकल जाती हैं. इसका समाधान निकालने के संभव तरीकों पर काम कर रही हूं. कोच को बताया, वे बोले कि इस पर काम करेंगे. पर अभी तो समय नहीं है. आगे इस पर ध्यान देंगे. एक अन्य कारण यह भी है कि 100 मीटर मेरा इवेंट नहीं था. 2012 से लेकर 2014 तक 200 मीटर पर मेरा ज्यादा फोकस रहा. मैंने जूनियर और सीनियर एशियन टाइटल में गोल्ड जीता. पहली बार है कि मैं 100 मीटर में दौड़ रही हूं. तो गलतियां तो होंगी और जो भी गलती होगी उन्हें सुधारने में समय तो लगेगा ही.

ओलंपिक के लिए क्या तैयारी है? क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि आप कोई पदक जीतकर फिर से देश को गर्व करने का एक मौका देने वाली हैं?

मेरा प्रयास अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देने का रहेगा. मौसम अच्छा रहा, शरीर ने साथ दिया और आप सब लोगों का प्यार रहा तो जरूर पदक लेकर आऊंगी. जहां तक तैयारी का सवाल है तो जब जुलाई 2015 में मुझ पर लगा प्रतिबंध हटा तब से ओलंपिक में क्वालिफाई करने की तैयारी कर रही थी. महीनों की मेहनत के बाद क्वालिफाई कर पाई. लेकिन अब जो मुख्य स्पर्धा है उसकी तैयारी के लिए मुझे ज्यादा समय नहीं मिला. क्वालिफाई के बाद मैंने कजाकिस्तान में ही 200 मीटर में भाग लिया. बंगलुरु में 4×100 रिले में भाग लेने वाली हूं. अभी मेरे पास अधिकतम 15 दिन का समय है जो पर्याप्त नहीं है. इसलिए अभी जो अभ्यास चल रहा है और जैसा कोच बोलते हैं, वही कर रही हूं. कुछ नया करने की कोशिश नहीं कर रही.

ओलंपिक के लिए तैयारी के दौरान कभी दिमाग में नहीं था कि मुझे पीटी उषा का रिकॉर्ड तोड़ना है. सही मायनों में मुझे तो ऐसे किसी रिकॉर्ड की जानकारी भी नहीं थी

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अगर आपने एक साल प्रतिबंध नहीं झेला होता तो क्या आप और अच्छा कर सकती थीं?

जब से मैंने दौड़ना शुरू किया, किसी स्पर्धा से बिना पदक जीते नहीं लौटी. 2014 तक मेरा प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा. 2014 में तो मैंने कॉमनवेल्थ गेम्स सहित तीन बड़ी अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में भाग लिया और हर बार अपना सर्वश्रेष्ठ समय निकाला. पर ऐन कॉमनवेल्थ गेम्स से पहले मुझ पर लगे प्रतिबंध से मेरा अभ्यास बहुत प्रभावित हुआ. मानसिक तनाव रहा, जिसके चलते आज भी ट्रेनिंग अच्छे से नहीं कर पा रही. इसका असर प्रदर्शन पर पड़ता है. जितनी एंडयूरेंस ट्रेनिंग तब कर रही थी, उस सबका असर मेरे शरीर से उस साल भर के दौरान निकल गया. उसे वापस पाने के लिए ही मुझे दो-तीन महीने लगातार कड़ी मेहनत करनी पड़ी. तब यह उपलब्धि हासिल हुई. अगर एक साल का प्रतिबंध नहीं होता तो मैं बहुत पहले ही ओलंपिक में क्वालिफाई कर जाती. ओलंपिक क्वालिफायर ओलंपिक से एक साल पहले शुरू होते हैं. तब ही क्वालिफाई हो जाती. फिर 100 मीटर और 200 मीटर दोनों पर ही ध्यान दे सकती थी.

क्या प्रतिबंध के दौरान भी आप ओलंपिक में जाने के अपने सपने के बारे में सोचा करती थीं?

उस समय तो बस केस के बारे में ही ख्याल आता था कि कब फैसला आएगा. ओलंपिक या दूसरी स्पर्धाओं के बारे में तो सोचना ही छोड़ दिया था क्योंकि मेरा ट्रेक पर जाना प्रतिबंधित था. कमरे में महिलाओं के साथ नहीं रुक सकती थी. यह मानसिक प्रताड़ना से कम नहीं था. ओलंपिक में जाने का मेरा बचपन का सपना तब चकनाचूर-सा हो गया था. लोग मेरे औरत होने पर सवाल उठाकर जो मुंह में आया बकते थे.

17 साल की उम्र में इतना तनाव झेलना, वापस ओलंपिक का सपना पालना, अपर्याप्त समय के अंदर उसे पूरा भी करना, इतनी हिम्मत कहां से मिली?

तब सभी से मुझे बहुत भला-बुरा सुनने को मिला. बस इसी बात से हिम्मत मिलती थी कि मैं सही हूं, मैंने कुछ गलत नहीं किया है. जैसी हूं, भगवान ने बनाया है. बुरे वक्त पर ज्यादा ध्यान न देकर अच्छा वक्त आएगा, यही सोचती थी. खुद के लिए कितना अच्छा कर सकती हूं, इस पर ध्यान देती थी. हमेशा सोचा कि ये मेरी लड़ाई नहीं, देश के लिए खेल रही हूं तो देश की लड़ाई है. जब तक देश खिलाएगा, मैं खेलूंगी. जब देश कहेगा कि तुम नहीं खेल सकती, दौड़ना छोड़ दूंगी. तब दिक्कत नहीं. दुनिया में सभी को जिस तरह जीने का हक है, मुझे भी देश के लिए खेलकर कुछ करने का हक है. और मुझसे वह हक कोई भी बेतुका नियम नहीं छीन सकता. बचपन से लेकर अब तक खेल ने ही मुझे पढ़ाई, नौकरी सब दिया. खेल के बिना मैं नहीं रह सकती थी. इसी हिम्मत के सहारे मैंने केस जीता. फिर सबने कहा, ‘द्युति, केस जीती हो तो कुछ करके भी दिखाओ. भगवान ने कुछ कर दिखाने के लिए जिताया है तो अब क्या कर सकती हो?’ मैंने कहा, ‘अगले साल ओलंपिक है. उस पर ध्यान लगाऊंगी और क्वालिफाई करके दिखाऊंगी.’ जो मैंने बोला, उसे सच करके भी दिखाया.

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खुद को लड़की साबित करने की लड़ाई

साल 2014 में आईएएएफ ने द्युति के दौड़ने पर रोक लगा दी थी. मेडिकल टेस्ट में उनके शरीर में प्राकृतिक तौर पर पुरुषों में पाए जाने वाले हार्मोन टेस्टोस्टेरॉन की अधिकता (हायपरएंड्रोजेनिज्म) पाई गई थी. टेस्टोस्टेरॉन बल और शक्ति बढ़ाने वाला पुरुष प्रधान हार्मोन होता है. विश्व की हर 10 में से एक महिला में इसकी अधिकता पाई जाती है. आईएएएफ की हायपरएंड्रोजेनिज्म पॉलिसी के मुताबिक इस हार्मोन के चलते एक महिला एथलीट को स्पर्धा के दौरान अनुचित लाभ मिलता है और वह अन्य महिला एथलीटों पर बढ़त बना लेती है. द्युति पर जब यह रोक लगी तब वह अपने करिअर के सर्वश्रेष्ठ दौर से गुजर रही थीं और कॉमनवेल्थ गेम्स में पदक जीतने की तैयारियों में जुटी हुई थीं. प्रतिबंध लगते ही भारतीय एथलेटिक महासंघ ने उनका नाम कॉमनवेल्थ गेम्स की टीम से बाहर कर दिया. द्युति को पुरुष बताकर उनके लिंग पर बहस होने लगी. ऐसी स्थिति में खेल में बने रहने के लिए जहां दूसरी महिला खिलाड़ी अपने टेस्टोस्टेरॉन के स्तर को नियंत्रित करने के लिए सर्जरी, हार्मोन थेरेपी आदि का सहारा लेती हैं या अपना करिअर खत्म मान लेती हैं, वहीं द्युति ने इसके खिलाफ लड़ने की ठानी. उन्होंने स्विट्जरलैंड स्थित खेल मध्यस्थता न्यायालय में आईएएएफ के इस फैसले को चुनौती दी. वहां आईएएएफ यह साबित नहीं कर सका कि हायपरएंड्रोजेनिज्म से महिला एथलीटों को खेल के दौरान किसी प्रकार का अनुचित लाभ मिलता है. 27 जुलाई, 2015 को न्यायालय ने द्युति के पक्ष में अपना फैसला सुनाया. उसने आईएएएफ की हायपरएंड्रोजेनिज्म पॉलिसी पर ही दो साल के लिए रोक लगा दी और आदेश दिया कि वह अगले दो सालों के भीतर खेल मध्यस्थता न्यायालय के समक्ष ऐसे तथ्य पेश करे जो उसके दावे को साबित कर सकें. इस प्रकार द्युति ने अपने लिए ही नहीं, विश्व भर की हायपरएंड्रोजेनिज्म की शिकार महिला खिलाड़ियों के लिए लड़ाई जीती. द्युति से पहले भारत की सांथि सुंदरम भी इस तरह की स्थितियों का सामना कर चुकी थीं.[/symple_box]