नीतीश ने मनवा ही लिया कि जद सबसे मज़बूत

जद (एकी) के सुप्रीमो और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नेताओं को अपनी माया में मुग्ध करने में कामयाब हो गए हैं। अपने सूबे में उनकी पार्टी ही सबसे बड़ी पार्टी और सबसे ज्यादा ताकतवर है, यह मनवा लिया है। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी सबकी मंजूरी ले ली है कि लोकसभा चुनाव के मद्देनजर वे जो भी रणनीति तय करेंगे यानी भाजपा के साथ सीटों का तालमेल करेंगे, उसका कोई विरोध नहीं करेगा। राजद में भी ऐसे मौके पर उसके आला लालू प्रसाद को इसी तरह का अधिकार मिल जाता रहा है, जिस तरह नीतीश कुमार को पार्टी सुप्रीमो के चलते मिल गया है। इस मामले में जद (एकी) और राजद या नीतीश कुमार और लालू प्रसाद में कोई फर्क नहीं है।

सूबे में जद (एकी) किसी पार्टी से बड़ी और ताकतवर पार्टी है? राजद से या भाजपा से? राजद से तो नहीं है। राजद के विधायकों की संख्या ज्यादा है। वोट के हिसाब से राजद अव्वल है। यह बात जरूर है कि भाजपा के मुकाबले जद (एकी) बड़ी और ताकतवर है। आखिर नीतीश कुमार ने अपने नेताओं को अपनी पार्टी को सबसे बड़ा और ताकतवर बता कर क्या संकेत करना चाहा है? अपनी पार्टी के नेतों को आश्वस्त करने का उनका एक मकसद हो सकता है। दूसरा मकसद यह कि राजद अपने को बड़ी और ताकतवर पार्टी होने की भूल न करें।

नीतीश कुमार बहुत पहले से ही ऐसा रास्ता बना लेना चाहते हैं जिससे लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ तालमेल करने में सहूलियत हो। चुनाव में सीटों के बंटवारे के आधार में फेरबदल करना चाहते हैं। ऐसा होने पर ही वे ज्यादा सीटों की मांग कर सकेंगे। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उन्होंने यह साफ कर दिया है कि वे भाजपा से ज्यादा सीटों की मांग करेंगे। 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें केवल दो ही सीट मिली थी लेकिन वोट का प्रतिशत कम नहीं था। फिर उसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में उन्हें ज्यादा सीटें भी मिली और वोट का प्रतिशत भी ज्यादा था। इस आधार पर सीटों की मांग करने पर उनकी स्थिति मजबूत हो सकती है। भाजपा के लिए इसका काट करना आसान नहीं होगा।

पिछला विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार की अगुवाई में लड़ा गया। अगला विधानसभा चुनाव भी उन्हीं की अगुवाई में लड़ा जाएगा। बैठक में इन दोनों बातों पर जोर देने की आखिर जरूरत ही क्यों पड़ी। दरअसल यह इशारा किया गया कि सूबे में नीतीश कुमार ही सबसे ज्यादा प्रभावशाली नेता है। उनकी अगुवाई में ही चुनाव लड़ा जा सकता है और जीता जा सकता है। 2014 के लोकसभा चुनाव को कुछ समय के लिए दरकिनार कर दें, तो भी उसके पहले जो लोकसभा चुनाव लड़ा गया, सूबे में नीतीश कुमार की अगुवाई में ही लड़ा गया और कामयाबी भी मिली। वैसी ही स्थिति अब भी है। भाजपा के लिए यह अस्वीकार करना आसान नहीं होगा।

जद (एकी) की ओर से भाजपा पर दबाव देने की रणनीति उस समय तक अख्तियार की जाती रहेगी, जब तक लोकसभा चुनाव में सीटों पर सम्मानजनक तालमेल नहीं हो जाता। पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक में यह भी स्पष्ट हो गया। बैठक में पार्टी ने यह भी साफ किया कि पार्टी सांप्रदायिकता पर किसी तरह का समझौता नहीं करेगी। भाजपा पर दबाव देने और सांप्रदायिकता पर कोई समझौता नहीं करने को कहने के पीछे एक तीर से दो शिकार करने की चाल है। भाजपा को अपने वश में करना है ही, राजद की राजनीति को कुंद करना भी है।

राजद अपनी छवि को भाजपा की सबसे बड़ी विरोधी पार्टी बनाने में सफल है। वह लगातार भाचपा को सांप्रदायिक पार्टी बता कर उसकी आलोचना करता रहा है। जद (एकी) भाजपा के साथ है, इसलिए वह उसे सांप्रदायिक तो नहीं बताती, लेकिन सांप्रदायिक पार्टी का सहयोगी बताती है। जद (एकी) को इसलिए यह जताने की मजबूरी है कि वह सांप्रदायिकता पर किसी तरह का समझौता नहीं करेगी। राजद की तुलना में वह भी सांप्रदायिकता का विरोध करने में कम नहीं है। दूसरे शब्दों में यह कि राजद सेकुलर है तो वह भी उससे कम सेकुलर नहीं है। राजद सामाजिक न्याय की पार्टी है तो उससे बढ़-चढ़ कर वह सामाजिक न्याय की पार्टी है। कुल मिला कर यह कि जद (एकी) भाजपा के साथ रह कर भी सांप्रदायिकता विरोधी और सामाजिक न्याय की पार्टी है। जद (एकी) का मुकाबला किसी पार्टी से है तो वह है राजद।

जद (एकी) यह मान कर चल रही है कि भाजपा उस पर निर्भर है। वह अपने बलबूते पर कोई भी चुनाव लड़ कर ज्यादा कुछ हासिल नहीं कर सकती। उसका अकेला होना अपने को हासिए पर लाना होगा। वह जद (एकी) पर ज्यादा निर्भर है, जद (एकी) भाजपा पर ज्यादा निर्भर नहीं है। गठबंधन की राजनीति और उसकी अनिवार्यता के मद्देनजर दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं। एक दूसरे की दोस्ती पर राजग निर्भर है। जद (एकी) और भाजपा की दोस्ती से लोजपा और रालोसपा को भी फायदा है। लोजपा और रालोसपा भी  सामाजिक न्याय की  पार्टी मानी जाती हैं।

राजद यह समझ रहा है कि जद(एकी) ही उसका बड़ा दुश्मन है। भाजपा भी दुश्मन है। लेकिन जद (एकी) को कमजोर करने से भाजपा भी कमजोर होगी। भाजपा के कमजोर होने से जद (एकी) कमजोर नहीं भी हो सकती है। जद(एकी) और भाजपा की दोस्ती राजद के लिए बर्बादी है। वह अपनी स्थिति मजबूत करने या अपने समर्थकों व वोट को सुरक्षित करने के लिए यह प्रचार करता रहा है कि नीतीश कुमार इतने मजबूर हैं कि वे भाजपा को छोड़ कर जाएंगे कहां। जद (एकी) और भाजपा की दोस्ती को वह मजबूरी बता रहा है। जद (एकी) राजद के काट और उसके वोट आधार में घुसपैठ करने के लिए ही भाजपा से अपनी दोस्ती को स्थिर और टिकाऊ  बता रहा है। जद (एकी) की ओर से भ्रष्टाचार को मुद्दा बना कर राजद को घेरा जा रहा है। राजद के पास इसका कोई काट नहीं है। भ्रष्टाचार का मुद्दा जम गया तो राजद का नुकसान तय है। जद (एकी) भ्रष्टाचार के मुद्दे ्रकी आड़ में यह साबित करना चाहता है कि भाजपा के साथ जाना उसकी मजबूरी थी। नीतीश कुमार ने धोखा किया, राजद का यह आरोप अब आकर्षक नहीं रह गया।

जद (एकी) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक और उसमें हुई चर्चा व किए गए फैसले से सूबे की राजनीतिक स्थिति में फर्क आने की संभावना है। पहले नीतीश कुमार के खिलाफ राजद मुखर था। लेकिन अब राजद को अपने बचाव में खड़ा होना पड़ रहा है। जद (एकी) और भाजपा के बीच लोकसभा चुनाव में सीट का बंटवारा कोई बड़ी समस्या नहीं है, इस पक्ष में हवा बनती दिखती है। केवल एक ही शुबहा है कि चुनाव में प्रथानमंत्री नरेंद्र मोदी की बनी छवि से होने वाले नुकसान को नीतीश कुमार की छवि का प्रभाव कितना पाट पाएगी या नहीं।