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पेरुमल मुरुगन : एक फैसले की कहानी

MuruganWEB

‘यह चिंता का विषय है कि एक विकसित होते समाज के रूप में हमारी सहिष्णुता का स्तर नीचे जाता प्रतीत हो रहा है. किसी भी विपरीत विचार या सामाजिक सोच को समय-समय पर धमकियों और हिंसक बर्ताव का सामना करना पड़ता है. सामाजिक रीति-रिवाजों पर लोगों के भिन्न-भिन्न विचार होते हैं और जबकि हर किसी को अपने स्वतंत्र विचार रखने का अधिकार है, उसे किसी और के हलक में धकेला नहीं जा सकता. किसी किताब, किसी फिल्म, पेंटिंग, शिल्प या कलात्मक अभिव्यक्ति के अन्य रूपों के खिलाफ एक अभियान दिखाई पड़ना आजकल कोई असामान्य बात नहीं रह गई है.’

ये शब्द कथित तौर पर ‘राजनीति’ से प्रेरित होकर पुरस्कार लौटाने वाले किसी लेखक के नहीं हैं. 2014 के लोकसभा चुनावों में अपने खराब नतीजों से बौखलाई हुई किसी पार्टी के प्रवक्ता के भी नहीं हैं. (केंद्र में सरकार चला रही भाजपा और उसके बिरादर अक्सर यही आरोप लगाते हैं) ये शब्द मद्रास उच्च न्यायालय के उस फैसले से लिए गए हैं जो उसने तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन के उपन्यास ‘मधोरुबगन’ (अंग्रेजी में ‘वन पार्ट वुमन’ के नाम से अनूदित) के मामले में दिया है.
यह ऐतिहासिक फैसला मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश संजय किशन कौल और न्यायाधीश पुष्पा सत्यनारायण की संयुक्त पीठ द्वारा पांच जुलाई को सुनाया गया. यह ऐतिहासिक इस अर्थ में नहीं है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रश्न पर ऐसा कोई फैसला पहले नहीं आया था. खुद मुख्य न्यायाधीश संजय किशन कौल ने दिल्ली उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रहते हुए एमएफ हुसैन के मामले में वर्ष 2008 में ऐसा ही महत्वपूर्ण फैसला सुनाया था, जिसकी शुरुआत ही पाब्लो पिकासो के इस प्रसिद्ध उद्धरण से की गई थी, ‘कला कभी संयत नहीं हो सकती और जो संयत हो, वह कला नहीं हो सकती.’ इस बार का फैसला ऐतिहासिक इस अर्थ में है कि यह आजाद भारत के अब तक के सबसे असहिष्णु दौर में आया है. एक ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण दौर जब भारतीय संस्कृति और परंपरा के नाम पर अभिव्यक्ति की आजादी को निशाना बनाने वालों का मनोबल अपने चरम पर है और धार्मिक अल्पसंख्यकों, सामाजिक रूप से अशक्त समूहों के साथ-साथ लेखक समुदाय भी खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है. ऐसे समय में यह फैसला वाॅल्टेयर के उद्धरण से शुरू होता है, ‘हो सकता है तुम्हारी बातों से मेरी सहमति न हो, पर तुम्हारे कहने के अधिकार की रक्षा मैं मरते दम तक करूंगा.’ और खत्म इस वाक्य के साथ होता है, ‘लेखक उसी काम को करने के लिए पुनरुज्जीवित हो जो वह सबसे बेहतर कर सकता है, लिखना.’

ध्यान रहे कि पेरुमल मुरुगन ने अपने खिलाफ चल रहे उपद्रव के दौरान अपना उपन्यास पूरी तरह वापस लेने के समझौते पर रजामंदी दी थी और उसके बाद फेसबुक पर अपने लेखक की मृत्यु की घोषणा कर दी थी. लिखा था, ‘लेखक पेरुमल मुरुगन मर गया. वह भगवान नहीं है, इसलिए वह खुद को पुनरुज्जीवित नहीं कर सकता.’ यह फैसला लगभग भावुक कर देेने वाले स्वर में लेखक के पुनरुज्जीवन का आह्वान करता है.

मामला क्या था?

पेरुमल मुरुगन का उपन्यास ‘मधोरुबगन’ 2010 में प्रकाशित हुआ था. इसकी कहानी तिरुचेंगोडे में स्थित है जो खुद मुरुगन का अपना शहर है और पहाड़ी के शिखर पर स्थित अर्धनारीश्वर मंदिर की वजह से जाना जाता है. उपन्यास लगभग अस्सी साल पहले की एक कहानी कहता है जिसमें मुख्य पात्र एक निःसंतान दंपति हैंः पोन्ना (पत्नी) और काली (पति). पति-पत्नी में बहुत प्यार है, लेकिन निःसंतान होने के कारण उन्हें सामाजिक रूप से लांछित होना
पड़ता है. निःसंतान होने और उसके लिए अपमान सहने की पीड़ा पर ही उपन्यास केंद्रित है.

उपन्यास में उस समय के तिरुचेंगोडे में प्रचलित एक प्रथा का हवाला आता है जो इसकी कथा में निर्णायक महत्व रखती है. प्रथा यह है कि अर्धनारीश्वर मंदिर में हर साल चौदह दिनों का वैकासी उत्सव होता है जिसके 14वें दिन निःसंतान विवाहिता स्त्रियों को सभी तरह की यौन वर्जनाएं लांघने की छूट होती है. वे मेले में शामिल होती हैं और आपसी रजामंदी से किसी भी युवक के साथ शारीरिक संबंध बनाकर अपनी संतति-कामना पूरी कर सकती हैं. यह एक ऐसी प्रथा रही है जिसका उल्लेख लोकगीतों में मिलता है.

2010 में तमिल में प्रकाशित होने के बाद से चार साल तक इस उपन्यास पर कोई हंगामा नहीं हुआ. अंग्रेजी अनुवाद के प्रकाशन और लेखक द्वारा सिंगापुर लिटरेचर फेस्टिवल में इस उपन्यास में वर्णित प्रथा के उल्लेख के बाद धर्म और संस्कृति के ध्वजावाहकों को होश आया. उन्होंने दिसंबर 2014 में उपन्यास के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया. किताब के कुछ पन्ने फोटोकाॅपी कराके बांटे जाने लगे, उसके बारे में पर्चे छपने लगे कि किस तरह वह भारतीय और तमिल संस्कृति पर एक हमला है. साथ ही तिरुचेंगोडे नगर और वहां की महिलाओं को बदनाम करने के लिए लिखी गई है. उसमें कोंगू गोंदर समुदाय का, जिससे मुरुगन खुद आते हैं, और अर्धनारीश्वर मंदिर के देवता का भी अपमान किया गया है.

इसके बाद मुरुगन को लगातार फोन पर धमकियां भी मिलनी शुरू हुईं. 26 दिसंबर, 2014 को आरएसएस से संबद्ध स्थानीय संगठन हिंदू मुन्नानी के अध्यक्ष श्रीमहालिंगम के नेतृत्व में लगभग पचास लोगों का एक जुलूस निकला जिसने किताब की प्रतियां जलाईं और मुरुगन की तस्वीर पर जूतमपैजार की. धीरे-धीरे वे मामले को इतना गरमाते गए कि 9 जनवरी, 2015 को वे पूरा शहर बंद करवाने में कामयाब रहे. मुरुगन को अपनी सुरक्षा की खातिर तीन दिन के लिए शहर छोड़कर चेन्नई में रहना पड़ा.

कानून और व्यवस्था की बिगड़ती हालत का हवाला देकर नमक्कल जिला प्रशासन ने 12 जनवरी को उग्र संस्कृति-रक्षकों और लेखक को शांति-वार्ता के लिए बुलाया. यहां डिस्ट्रिक्ट रेवेन्यू आॅफिसर ने लेखक पर दबाव बनाते हुए ऐसे समझौते पर हस्ताक्षर कराया जिसके लिए लेखक राजी नहीं थे. मुरुगन अपनी ओर से ‘गंभीर खेद’ प्रकट करने को तैयार थे, पर अधिकारी ने दबाव डाला कि ‘बिना शर्त माफी’ से कम किसी भी चीज पर मामला निपटेगा नहीं. इसके बाद मुरुगन ने हताशा में किसी भी तरह के वक्तव्य पर हस्ताक्षर करने की रजामंदी जाहिर की. खुद को आहत बताने वाले समूह की कई और मांगों को भी उस माफीनामे में शामिल कर दिया गया. यह स्पष्ट था कि इस शांतिवार्ता में हमलावर पक्ष की पूरी तरह से जीत हुई और कलम की आजादी के परखच्चे उड़ा दिए गए जिसे भारतीय संविधान की धारा 19(1) (ए) की सुरक्षा मिली हुई है. इसी के बाद मुरुगन ने अपने लेखक की मृत्यु की घोषणा की. लेकिन मामला यहीं रुका नहीं रहा.
फरवरी 2015 में कई पक्षों ने मद्रास उच्च न्यायालय में अपनी-अपनी याचिकाएं दायर कीं. एक तरफ पीयूसीएल और मानवाधिकार के पक्षधर व्यक्ति थे जो लेखक को अपनी किताब वापस लेने पर मजबूर करने वाली उस शांतिवार्ता को असंवैधानिक बताकर चुनौती दे रहे थे. दूसरी तरफ तिरुचेंगोडे के कई धार्मिक और सामुदायिक संगठन एवं व्यक्ति थे जो लेखक पर आपराधिक मुकदमा चलाकर सजा देने, एक महाआदेश द्वारा किताब की तमाम प्रतियां जब्त करने तथा किंडल आदि सभी जगहों पर उसे प्रतिबंधित करने की मांग कर रहे थे.

5 जुलाई, 2016 काे आया फैसला

फैसले में एक बात तो यह कही गई है कि प्रशासन द्वारा आयोजित शांतिवार्ता बाध्यकारी नहीं है और बिगड़ती कानून-व्यवस्था के नाम पर संविधान प्रदत्त लेखकीय स्वतंत्रता का इस तरह दमन नहीं किया जा सकता. इसके साथ-साथ मुरुगन पर आपराधिक मामला दायर करने की प्रार्थना को खारिज कर दिया गया है. उनकी किताब पर प्रतिबंध लगाने की प्रार्थना को भी अदालत ने नामंजूर किया है. ये बातें 160 पृष्ठ के इस फैसले के अंतिम अमली हिस्से में हैं, लेकिन इसके पहले का वह पूरा हिस्सा भी जो इस निर्णय तक पहुंचने की प्रक्रिया और तर्क-वितर्कों पर केंद्रित है, जबरदस्त तरीके से पठनीय है.

सभी पक्षों के तर्कों को सामने रखते हुए फैसले में उपन्यास पर लगाए गए अश्लीलता, ईशनिंदा, मानहानि, हिंदुओं की भावनाओं को आहत करने, नैतिक रूप से अस्वीकार्य होने आदि के आरोपों को खारिज किया गया है. मसलन, मूल तमिल में भद्दी जबान का इस्तेमाल होने के आरोप पर अदालत का कहना है कि विषय-वस्तु की मांग के अनुसार ही लेखक भाषा तय करता है और उपन्यास को अश्लील ठहराने या उसके कुछ अंशों को हटा देने की मांग करने का यह पर्याप्त आधार नहीं है. उपन्यास जिन लोगों की कहानी कह रहा है, वे सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं. इसलिए भाषा भी प्रसंगानुसार होगी. एक और जगह कहा गया है कि उपन्यास को उसके सही परिप्रेक्ष्य में समझा जाना चाहिए और सिर्फ संवादों में थोड़ी भद्दी जबान का इस्तेमाल लेखक की खिंचाई का आधार नहीं हो सकता. आप सिर्फ इसलिए भी इसे एक बड़ा सामाजिक मुद्दा नहीं बना सकते कि इसमें किसी खास मंदिर या खास जगह का नाम लिया गया है, जो कि इसकी कड़ी में आने वाले अगले उपन्यासों में से लेखक ने खुद ही हटा भी दिया है. इसके ऐतिहासिक होने का कोई दावा खुद लेखक नहीं कर रहा है. यह एक कहानी है और यह कहानी जिस प्रथा का हवाला देती है वह लाेकगीतों में मौजूद है.

अदालत ने प्रकाशक के वकील डाॅ. वी. सुरेश के इस तर्क को भी महत्व दिया है कि अभिजनों के औपन्यासिक इतिहास, जिसके पास रिकाॅर्ड का आधार होता है और जुबानी चलने वाले लोकगीतों पर आधारित उपन्यास के बीच हमें फर्क करना चाहिए जो कि बहुत अहम और बारीक है. एक और जगह पर अदालत एस. रंगराजन के मामले के हवाले से स्पष्ट शब्दों में कहती है, ‘कला अक्सर हमें उकसाने वाली होती है और वह हर किसी के लिए नहीं होती, न ही वह पूरे समाज को बाध्य करती है कि उसे देखा जाए और सिर्फ इसलिए कि लोगों के एक समूह को उससे दिक्कत है, उन्हें इस बात की इजाजत नहीं मिल जाती कि वे शत्रुतापूर्ण तरीके से अपने विचार प्रकट करें, और राज्य ऐसे शत्रुतापूर्ण आॅडिएंस की समस्या से निपटने की अक्षमता की दुहाई नहीं दे सकता.’ इसी आशय की बात उपसंहार खंड में इन शब्दों में आई हैः ‘सदियों से मौजूद और हाल में लिखे गए ऐसे लेखन के प्रति, जो ‘हमारी तरह के’ नहीं हैं, सहिष्णुता का रवैया होना जरूरी है. लेखक और उसकी तरह के कलाकारों को लगातार इस आशंका में नहीं रहना चाहिए कि अगर वे चिराचरित रास्ते से हटे तो उन्हें प्रतिकूल परिणाम का सामना करना होगा. उपन्यास के विरोधियों को निश्चित रूप से उसकी आलोचना करने का अधिकार है, वैसे ही जैसे उसके पक्षधरों को उसकी प्रशंसा करने का.’

इन बातों से जाहिर है कि पूरे फैसले का ‘टोन’ बिना किसी किंतु-परंतु के लेखक और लेखन के पक्ष में है. यहां तक कि प्रशासन को बहुत सख्ती के साथ यह हिदायत दी गई है कि वह जब भी शांतिवार्ता की राह अपनाता है, उसे लेखक पर दबाव बनाने के बजाय स्वतंत्र अभिव्यक्ति के पक्ष में एक पूर्वधारणा के साथ इस तरह की वार्ता में मध्यस्थता करनी चाहिए. ‘जब भी किसी प्रकाशन, कला, नाटक, फिल्म, गीत, कविता, कार्टून या रचनात्मक अभिव्यक्ति के खिलाफ शिकायत हो, यह पूर्वधारणा अपने जेहन में होनी ही चाहिए.’ इसका मतलब यह कि प्रशासन को लेखन का पक्षधर बनकर मामले को ठंडा करने का कोई भी प्रयास करना चाहिए. अगर कानून और व्यवस्था को दुरुस्त रखना प्रशासन का काम है तो लेखक की आजादी को सुनिश्चित करना भी उसी का काम है, जब तक वह लेखन ऐसी स्वतंत्रता के संवैधानिक रूप से निर्दिष्ट अपवाद की श्रेणी में न आता हो.

फैसले पर आपत्तियां

फैसला आने के बाद, जाहिर है, असहिष्णुता के माहौल से चिंतित लोगों और खासकर लेखकों के बीच इसे लेकर खासा उत्साह देखा गया, लेकिन कुछ आपत्तियां भी व्यक्त की गईं. ये आपत्तियां भी सहिष्णुता और अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों के बीच से ही आई हैं. नंदिनी कृष्णन ने, जिनके द्वारा लिखी गई मुरुगन के उपन्यास की प्रशंसात्मक समीक्षा को अदालत ने सकारात्मक ढंग से अपने निष्कर्ष के पक्ष में उद्धृत किया है, इस फैसले से असंतोष जताया है. साथ ही, विधि-विशेषज्ञ गौतम भाटिया ने एक लेख लिखकर इस फैसले की सीमाओं को चिह्नित किया है. असंतोष का एक सामान्य नुक्ता यह है कि अगर उपन्यास का बहुप्रशंसित और बहुपुरस्कृत होना, किसी कथित भारतीय परंपरा के अनुकूल होना, और अपनी विषय-वस्तु में कामोत्तेजक न होना ही इस फैसले का आधार है तो क्या इससे यह स्वर नहीं निकलता कि जो कृतियां ऐसी नहीं हैं उन्हें प्रतिबंधित करना उचित हो सकता है. कई कालजयी रचनाएं अपने समय में आलोचकों की प्रशंसा हासिल नहीं कर पातीं. कई बहुत मूलगामी कृतियां अपनी परंपरा के प्रति एकदम प्रतिकूल होती हैं. कोई साहित्यिक रचना कामोत्तेजना को सौंदर्यात्मक धरातल तक ले जाने का अभिनव प्रयोग कर सकती है. क्या ऐसी कृतियों को इस फैसले से कोई सहारा मिल पाएगा? आंशिक रूप से यह आपत्ति सही हो सकती है, लेकिन पीछे फैसले के जिन अंशों का हवाला दिया गया है उनसे गुजरते हुए कोई भी समझ सकता है कि ऐसी कृतियों के लिए भी इस फैसले के पास सकारात्मक तर्क हैं. जहां तक ‘मधोरुबगन’ को मिली आलोचकीय प्रशंसा आदि की चर्चा का सवाल है, यह जरूर ध्यान में रखना चाहिए कि उपन्यास विशेष के खिलाफ याचिका दायर करने वालों की खास-खास आपत्तियों का जवाब देना भी फैसले का काम है. इसका मतलब यह नहीं है कि लेखकीय स्वतंत्रता के पक्ष में न्यायाधीश उसे ही आधारभूत तर्क के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं. फैसले में एक जगह बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा गया है, ‘यह तथ्य कि उपन्यास ने कई पुरस्कार हासिल किए, अपने आप में कोई निर्धारक तत्व नहीं है, हालांकि यह इस बात का सशक्त सूचक है कि समाज इसे कैसे देखता है.’

बावजूद इसके, फैसले पर उठाए गए सवाल एकदम निराधार नहीं हैं. मसलन, नियोग पद्धति से या दूसरे पुरुष से संतानोत्पत्ति की बात महाभारत और अनेक प्राचीन ग्रंथों में मिलने का हवाला देकर यह फैसला उपन्यास को विक्टोरियन दर्शन के प्रभाव से पहले की भारतीय परंपरा के अनुकूल बताता है, तो इस पर गौतम भाटिया का यह सवाल वाजिब है कि क्या प्राचीन भारतीय परंपरा अगर यौन मामलों में संकीर्ण और अनुदार होती तो अदालत का फैसला कुछ और होता.

इसी तरह उनकी यह आपत्ति कि फैसला जिस रूप में आया है, उससे यह न्यायाधीश-केंद्रित प्रतीत होता है, बेबुनियाद नहीं है. एक न्यायाधीश को अपनी व्याख्या के अनुसार कोई कृति पसंद आई तो एक तरह का फैसला आया, किन्हीं और को नापसंद हो तो दूसरी तरह का फैसला आ जाएगा. (ध्यान रखिए कि फैसले में बार-बार उपन्यास की केंद्रीय संवेदना के बारे में न्यायाधीश ने अपनी राय व्यक्त की है और इसी आधार पर इसे अश्लील मानने से इनकार किया है.) इससे लेखकीय स्वतंत्रता के मसले पर एक वस्तुनिष्ठ संवैधानिक स्थिति, जो व्यक्तिगत मतों से निरपेक्ष हो, सामने नहीं आती, जबकि मुरुगन के मामले ने इसका अच्छा अवसर मुहैया कराया था.

नंदिनी कृष्णन ने भी कई सवाल उठाए हैं, लेकिन विशिष्ट संदर्भ में आए तर्कों पर उनकी आपत्तियों को अगर छोड़ दें तो उनका ज्यादा बुनियादी सवाल भारतीय संविधान के प्रावधानों को लेकर है. उनके अनुसार, परेशान करने वाली बात यह है कि भारतीय संविधान में प्रतिष्ठापित कानून और प्रावधान जस्टिस कौल जैसी विचारशीलता, पांडित्य और कला के प्रति संवेदनशीलता रखने वाले न्यायाधीश के लिए भी एक युगांतकारी फैसला लिखना मुश्किल बना देता है, एक ऐसा फैसला जो एक दृष्टांत बन जाए और वर्तमान से लेकर भावी तक, सभी लेखकों को राहत दे. नंदिनी कृष्णन की यह बात जितना इस फैसले की सीमाओं को दिखाती है, उससे ज्यादा उन सीमाओं के कारण को चिह्नित करती है. यह एक बड़ा सवाल है कि न्यायपालिका संवैधानिक मर्यादाओं का किस हद तक विस्तार कर सकती है? अगर मुरुगन मामले पर उठी बहस इस सवाल को कायदे से संबोधित कर पाए तो यह लेखकीय स्वतंत्रता के मुद्दे पर एक जरूरी पहल होगी.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)

समान नागरिक संहिता : एक देश एक कानून

सभी फोटोः तहलका अार्काइव
सभी फोटोः तहलका अार्काइव

हाल ही में केंद्र सरकार ने विधि आयोग को पत्र लिखकर समान नागरिक संहिता (यूनीफाॅर्म/कॉमन सिविल कोड) यानी सभी के लिए एक जैसे कानून पर सुझाव मांगा है. अक्टूबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकार से अपना रुख साफ करने को कहा था. इसके बाद सरकार ने पहली बार विधि आयोग को पत्र लिखकर इस मुद्दे पर रिपोर्ट देने को कहा था. कुछ दिन पहले सरकार ने विधि आयोग को दोबारा पत्र लिखकर इस मसले की याद दिलाई जिसके बाद यह मसला चर्चा में है.

भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने हाल ही में केंद्रीय कानून मंत्री का पद संभालने के बाद कहा, ‘समान नागरिक संहिता की दिशा में कदम बढ़ाने से पूर्व व्यापक विचार-विमर्श की जरूरत है. इस दिशा में आगे बढ़ने से पहले सभी हितधारकों के साथ व्यापक विचार-विमर्श किया जाएगा. इस मसले पर विधि आयोग विचार कर रहा है. संविधान का अनुच्छेद 44 समान नागरिक संहिता का आदेश देता है.’

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 44 कहता है कि सरकार पूरे देश में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगी. हालांकि, यह अब तक लागू नहीं हो पाया है. समान नागरिक संहिता का मसला धार्मिक पेचीदगियों की वजह से हमेशा संवेदनशील रहा है, इसलिए सरकारों ने इस पर कभी कोई ठोस पहलकदमी नहीं की, हालांकि इस पर गाहे-बगाहे चर्चाएं जरूर होती रही हैं. समान नागरिक संहिता का मुद्दा भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में भी था. केंद्र में सत्ता मिलने के कुछ समय बाद भाजपा के ही सांसद योगी आदित्यनाथ ने सरकार से समान नागरिक संहिता लागू करने की मांग की थी.

हाल ही में इस मुद्दे को उठाने के बाद भाजपा पर यह आरोप भी लगा कि उत्तर प्रदेश में चुनाव के मद्देनजर उसने इस मुद्दे को छेड़ा है क्योंकि भाजपा की राजनीतिक विचारधारा से जुड़े जो मुद्दे हैं उनमें राम मंदिर, कश्मीर में अनुच्छेद 370 और समान नागरिक संहिता प्रमुख हैं. हालांकि भाजपा ने इस आरोप से इनकार किया और इस शुरुआत को समान नागरिक संहिता को वजूद में लाने की सामान्य प्रक्रिया बताया.

‘समान नागरिक संहिता लागू करने में कोई तकनीकी मुश्किल नहीं है, बल्कि राजनीतिक मुश्किल है. इस मुद्दे का राजनीतिकरण हुआ है. संविधान राज्य को निर्देश देता है कि समान नागरिक संहिता लागू की जाए. क्यों नहीं लाया जा सका है, सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर सवाल किया है. यह नहीं लाया गया, इसका कारण वोटबैंक की राजनीति है कि जिन समुदायों के पर्सनल कानून हैं वे कहीं नाराज न हो जाएं’

बीते अक्टूबर में ईसाई समुदाय के एक व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी कि देश में समान नागरिक संहिता लागू की जाए. याचिका में कहा गया था कि ईसाई दंपति को तलाक लेने के लिए दो वर्ष तक अलग रहने का कानून है जबकि हिंदू व अन्य कानूनों में स्थिति अलग है. इसी सिलसिले में समान नागरिक संहिता की बात उठी थी जिस पर कोर्ट ने केंद्र से अपना रुख स्पष्ट करने को कहा था. दिसंबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय ने भी समान नागरिक संहिता को लेकर याचिका दायर की थी. इसमें कहा गया था, ‘समान नागरिक संहिता आधुनिक और प्रगतिशील राष्ट्र का प्रतीक है. इसे लागू करने का मतलब होगा कि देश धर्म-जाति आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करता. देश में आर्थिक प्रगति जरूर हुई है लेकिन सामाजिक रूप से कोई तरक्की नहीं हुई है.’ समान नागरिक संहिता के पक्षधर तबके की दलील है, ‘एक धर्मनिरपेक्ष गणतांत्रिक देश में प्रत्येक व्यक्ति के लिए कानूनी व्यवस्थाएं समान होनी चाहिए.’

इस तरह की ज्यादातर याचिकाएं खारिज करते हुए कोर्ट का बार-बार यह तर्क रहा है कि चूंकि कानून बनाना सरकार का काम है इसलिए कोर्ट इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती, न ही वह सरकार को कानून बनाने का आदेश दे सकती है. लेकिन यदि कोई पीड़ित सुप्रीम कोर्ट जाता है तो कोर्ट को उस पर सुनवाई करनी पड़ती है. पिछले एक साल में ईसाई तलाक कानून और मुस्लिम तीन तलाक कानून के खिलाफ कई मसले सुप्रीम कोर्ट में आए हैं.

सरकार की तरफ से विधि आयोग को पत्र लिखे जाने के बाद कई मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता पर विचार करना शुरू कर दिया है. इस मसले से जुड़े फैसलों में कोर्ट की टिप्पणियां, दस्तावेज वगैरह जुटाए जा रहे हैं. इस मसले पर आयोग वेबसाइट के जरिए व अन्य माध्यमों से जनता से राय लेकर व्यापक विचार-विमर्श के बाद सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपेगा.

समान नागरिक संहिता की वकालत करने वालों की राय है कि देश में सभी नागरिकों के लिए एक जैसा नागरिक कानून होना चाहिए, भले ही वे किसी भी धर्म से संबंध रखते हों. लेकिन धर्मावलंबी व धर्मगुरु इससे सहमत नहीं हैं. समाज का एक तबका ऐसा भी है जो विवाह, तलाक और उत्तराधिकार जैसे मसलों को भी धर्म से जोड़कर देखता है. दूसरी ओर, समान नागरिक संहिता न होने की वजह से महिलाओं के बीच आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा में बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है. राजनीतिक दल समान कानून बनाने या समान नागरिक संहिता के पक्षधर तो रहे हैं, लेकिन राजनीतिक मजबूरियों के चलते किसी भी सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की.

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सवाल यह है कि क्या सरकार इस मसले पर आगे बढ़ेगी या हमेशा की तरह यह मुद्दा सिर्फ चुनावी चाल की तरह बार-बार चला जाता रहेगा? इसके साथ और भी कई अहम सवाल इस मसले से जुड़े हैं. दरअसल, कुछ समुदायों के अपने पर्सनल कानून हैं जिन्हें वे न सिर्फ धार्मिक आस्था से जोड़कर देखते हैं, बल्कि वे इसे अपना संवैधानिक अधिकार मानते हैं. इसके चलते समान नागरिक संहिता का कड़ा विरोध भी हो सकता है.

सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) ने इस मुद्दे पर सर्वे कराया था. इस सर्वे में 57 फीसदी लोगों ने विवाह, तलाक, संपत्ति, गोद लेने और भरण-पोषण जैसे मामलों में समुदायों के लिए पृथक कानून के पक्ष में राय जाहिर की. केवल 23 फीसदी लोग समान नागरिक संहिता के पक्ष में थे. 20 फीसदी लोगों ने कोई राय ही नहीं रखी. 55 फीसदी हिंदुओं ने संपत्ति और विवाह के मामले में समुदायों के अपने कानून रहने देने के पक्ष में राय दी, जबकि ऐसे मुस्लिम 65 फीसदी थे. अन्य अल्पसंख्यक समुदायों (ईसाई, बौद्ध, सिख, जैन) ने सर्वे में इससे मिलती-जुलती या इससे थोड़ी ज्यादा संख्या में समान नागरिक संहिता का समर्थन किया. अल्पसंख्यक समुदायों का बहुमत मौजूदा व्यवस्था कायम रखने के पक्ष में है. सीएसडीएस का निष्कर्ष था कि शिक्षित वर्ग में भी समान नागरिक संहिता से असहमति रखने वालों का बहुमत है. शिक्षित तबके में समान नागरिक संहिता के पक्ष और विपक्ष में जोरदार दलीलें दी गईं, लेकिन झुकाव इस ओर रहा कि विभिन्न समुदायों के निजी मामले अपने-अपने कानूनों से ही संचालित होने चाहिए.

‘हमारे संविधान निर्माताओं ने ‘वन नेशन, वन कांस्टीट्यूशन’ का सपना देखा था. अगर यूनीफाॅर्म सिविल कोड नहीं लागू होता तो हम सिर्फ संविधान का ही अपमान नहीं कर रहे, बल्कि संविधान बनाने वालों का भी अपमान कर रहे हैं. अगर बाबा साहेब आंबेडकर, पंडित नेहरू, रफी अहमद किदवई और तमाम संविधान निर्माता सेक्युलर थे तो उन्हीं का बनाया अनुच्छेद 44 कैसे कम्युनल हो जाएगा’

सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता पर समय-समय पर न सिर्फ टिप्पणियां की हैं, बल्कि सरकार को इस दिशा में बढ़ने के निर्देश भी दिए हैं. फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रकरण की सुनवाई करते हुए कहा था कि यह बहुत ही आवश्यक है कि सिविल कानूनों से धर्म को बाहर किया जाए. 11 मई, 1995 को एक सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता को अनिवार्य रूप से लागू किए जाने पर जोर दिया था. कोर्ट का कहना था कि इससे एक ओर जहां पीड़ित महिलाओं की सुरक्षा हो सकेगी वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय एकता बढ़ाने के लिए भी यह आवश्यक है. कोर्ट ने उस वक्त यहां तक कहा, ‘इस तरह के किसी समुदाय के निजी कानून स्वायत्तता नहीं, बल्कि अत्याचार के प्रतीक हैं. भारतीय नेताओं ने द्विराष्ट्र अथवा तीन राष्ट्रों के सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया. भारत एक राष्ट्र है और कोई समुदाय मजहब के आधार पर स्वतंत्र अस्तित्व का दावा नहीं कर सकता.’ कोर्ट ने इस संबंध में कानून मंत्रालय को निर्देश दिया था कि वह जिम्मेदार अधिकारी द्वारा शपथ पत्र प्रस्तुत करके बताए कि समान नागरिक संहिता के लिए न्यायालय के आदेश के परिप्रेक्ष्य में सरकार ने क्या प्रयास किए. हालांकि, यह बात दीगर है कि आज तक इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हुई.

संविधान विशेषज्ञ और लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप कहते हैं, ‘विचार तो पिछले 70 साल से चल रहा है. विचार करने में कोई कठिनाई नहीं है. लेकिन मेरा निजी विचार है कि कानून लागू करने के लिए राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखा जाए, वैधानिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखा जाए तो होना यह चाहिए कि इसकी मांग उस समुदाय के अंदर से उठनी चाहिए और इसको लैंगिक न्याय के रूप में लिया जाना चाहिए. और समान नागरिक संहिता का मतलब ये नहीं है कि किसी के ऊपर हिंदू कोड बिल लागू किया जा रहा है. समान नागरिक संहिता में यह भी हो सकता है कि मुस्लिम लॉ की जो भी अच्छी बातें हों, वे सब उसमें शामिल हों. क्रिश्चियन लॉ की अच्छी बातें हैं, वे भी शामिल हों. यूनीफॉर्म सिविल कोड क्या है, अभी तो कुछ पता ही नहीं है. अभी उसका कोई प्रारूप ही नहीं है.’

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वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय कहते हैं, ‘समान नागरिक संहिता तो चल ही रही है. लोगों को यह भ्रम है कि कॉमन सिविल कोड है ही नहीं. कॉमन सिविल कोड पहले से है और उससे 123 करोड़ लोग गवर्न हो रहे हैं. कुछ जो पुराने भ्रम बने हुए हैं उसमें से एक कॉमन सिविल कोड भी है. लेकिन दो-तीन बातें ऐसी हैं जिसको हमारी सरकारें या विभिन्न समुदाय हल नहीं कर पाए हैं. इसलिए कॉमन सिविल कोड की बात चलती रहती है. उनमें से एक मसला ये है कि विवाह का कानून कैसा हो. विवाह अगर टूटता है तो तीन तलाक के माध्यम से हो या कानून के माध्यम से. इसी तरह संपत्ति के वारिस का मामला है. ये दो-तीन बातें ऐसी हैं जिनके बारे में अभी कॉमन सिविल कोड लागू होना है और ये बहुत विवादास्पद है. कई बार सरकारें इस पर पहल नहीं करतीं. अब नई स्थिति यह है कि मामला विधि आयोग को भेजा गया है, लेकिन पहले भी विधि आयोग की रिपोर्ट आती रही है. अब फिर से मामला लॉ कमीशन के सुपुर्द किया गया है.
कमीशन की जो रिपोर्ट आएगी, उस पर बातचीत होगी और संसद में यह सवाल उठेगा.’

समान नागरिक संहिता लागू हो या न हो, इसके जवाब में पूर्व मंत्री व नेता आरिफ मोहम्मद खान कहते हैं, ‘यह प्रश्न ही नामुनासिब है क्योंकि खुद हमारा संविधान अपने अनुच्छेद 44 के द्वारा राज्य के ऊपर यह जिम्मेदारी डालता है कि वह भारत के समस्त नागरिकों के लिए समान सिविल संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा. असल में सवाल यह होना चाहिए कि संविधान लागू होने से लेकर आज तक हमारी सरकारों ने इस दिशा में क्या कदम उठाए हैं. वास्तविकता यह है कि समान सिविल संहिता तो छोड़िए, हमने तो क्रिमिनल संहिता को भी समान नहीं रहने दिया. शाह बानो केस में क्रिमिनल संहिता के सेक्शन 125 के तहत निर्णय हुआ था. हमने उसको भी संसद के एक कानून द्वारा निरस्त किया और इस तरह भारतीय महिलाओं के एक वर्ग को उस अधिकार से वंचित कर दिया जो उन्हें क्रिमिनल संहिता के द्वारा मिला हुआ था.’

सुभाष कश्यप भी राजनीतिकरण की बात को स्वीकार करते हुए कहते हैं, ‘इसे लागू करने में कोई तकनीकी मुश्किल नहीं है, बल्कि राजनीतिक मुश्किल है. इस मुद्दे का राजनीतिकरण हुआ है. संविधान राज्य को निर्देश देता है कि समान नागरिक संहिता लागू की जाए. लेकिन क्यों नहीं लाया जा सका है, सुप्रीम कोर्ट ने इस पर एक-दो सवाल किए. यह अभी तक नहीं लाया गया, इसके कारण राजनीतिक हैं, वोटबैंक पॉलिटिक्स है. जिन समुदायों के पर्सनल कानून हैं, वे समुदाय नाराज न हो जाएं, इसलिए इसे नहीं लाया जा रहा है.’

कानून की समानता का महत्व बताते हुए राम बहादुर रायकहते हैं, ‘फिलहाल हिंदू, मुस्लिम, ईसाई आदि सभी का अपना नियम-कानून है. सब अपनी-अपनी रीति और परंपरा से संचालित हैं. इस क्षेत्र में एक समानांतर व्यवस्था चल रही है. बाकी क्षेत्र में ऐसा नहीं है. जैसे मान लिया कि कोई व्यक्ति अपराध करता है तो यह नहीं देखा जाता कि वह किस समुदाय का है. कॉमन सिविल कोड मौजूद है वहां. अगर हम आपकी मानहानि करते हैं तो आप इस आधार पर मुकदमा करते हैं कि हमने आपकी मानहानि की. इस आधार पर नहीं करते कि मैं हिंदू हूं या मुसलमान हूं. दो-तीन बातें हैं जिनका निराकरण हो जाएगा तो यह मसला सुलझ जाएगा.’

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‘संविधान शुरू से सेक्युलर रहा है. लेकिन जब इसमें सेक्युलरिज्म शब्द भी जोड़ दिया गया, फिर तो ये पर्सनल हो ही नहीं सकता. क्योंकि सेक्युलरिज्म और पर्सनल लॉ एक नदी के दो छोर हैं. साथ-साथ नहीं चल सकते. या तो आपका देश सेक्युलर हो सकता है, या तो धार्मिक हो सकता है. अगर धार्मिक होगा तो पर्सनल लॉ चलेगा. अगर सेक्युलर है तो आपके पास कॉमन सिविल कोड ही रास्ता है’ 

अगर मौजूदा व्यवस्था ही बनी रहे, समुदायों के पर्सनल कानून ही लागू रहें तो इसके क्या नुकसान हैं? इसके जवाब में राम बहादुर राय कहते हैं, ‘आप कैसे इस चीज को देखते हैं, इस पर निर्भर करता है. कौन व्यक्ति इसको किस रूप में देखता है, यह महत्वपूर्ण है. हमारे एक मित्र हैं, जिनका मैं बहुत आदर करता हूं. लेकिन उनका मानना है कि खाप पंचायत बहुत आदर्श व्यवस्था है. अब खाप अगर आदर्श व्यवस्था है तो खाप जो फैसला करेगी, उस समुदाय पर वही लागू होगा. किंतु अब सवाल यह है कि जो भारतीय अपराध संहिता है वह लागू होगी या खाप की व्यवस्था लागू होगी. यहां पर टकराव आता है. दूसरा उदाहरण है ट्राइबल इलाकों की पंचायतें. कोई अपराध वगैरह होता है तो वे बैठते हैं और कई-कई दिन तक उस पर बात करते हैं. वहीं खाना-पीना होता है, वहीं पर सोना होता है. वे उस पर सर्वानुमति से फैसला लेते हैं. मेरा ख्याल है कि विनोबा जी ने सर्वोदय में जो सर्वानुमति चलाई, उसकी प्रेरणा यहीं से मिली होगी. अब कोई सरकार अगर वहां सर्वानुमति से राय लेती है कि कोई कानून लागू नहीं होगा और कोई अपराध होता है तब क्या होगा? अरुणाचल प्रदेश में 1980-82 तक कोई जेल नहीं थी. अब वहां पर जेलें हैं. जो लोग इस मुद्दे को उठाते हैं उसके पीछे दो तरह की अवधारणा है. पहली अवधारणा यह है कि हमारे संविधान का जो केंद्रीय बिंदु है, जो मुख्य पात्र है, वह नागरिक है. खाप, पंचायत या दूसरी व्यवस्था मान्य नहीं है. ये व्यवस्थाएं तभी तक चल सकती हैं, जब तक उनका कानून से कोई टकराव न हो. जहां टकराव होता है तो यह मांग उठती है कि भाई सबके लिए एक कानून लागू क्यों नहीं करते. दूसरा, अगर नागरिक के स्तर पर भेदभाव होता है तो सवाल उठता है कि एक को आप कानून से संचालित करना चाहते हैं, दूसरे को आप उसकी मर्जी के कानून से संचालित करते हैं.’

इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका डालने वाले अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘देखिए, मुझे लगता है कि अनुच्छेद 44 हमारे संविधान की आत्मा है. कुछ ऐसे अनुच्छेद हैं, जैसे अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समता की बात करता है और अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार की. अगर हम मूल अधिकार में देखें तो ये दोनों मूल अधिकारों की आत्मा हैं. ऐसे ही अगर हम नीति निदेशक तत्वों में जाकर देखें तो अनुच्छेद 44 यानी यूनीफॉर्म सिविल कोड उसकी आत्मा है. हमारे संविधान निर्माताओं ने ‘वन नेशन, वन कांस्टीट्यूशन’ का सपना देखा था और ‘वन नेशन, वन कांस्टीट्यूशन’ में अगर यूनीफॉर्म सिविल कोड नहीं लागू होता और पर्सनल लॉ चलते हैं, तो मुझे लगता है कि हम सिर्फ संविधान का ही अपमान नहीं कर रहे, बल्कि संविधान बनाने वाले बाबा साहेब आंबेडकर, पंडित नेहरू, रफी अहमद किदवई, मौलाना कलाम और तमाम सारे लोगों का अपमान कर रहे हैं. वोटबैंक पॉलिटिक्स के चक्कर में ये अभी तक लागू नहीं किया गया. तमाम लोगों से मेरा एक सवाल है कि अगर बाबा साहेब आंबेडकर, नेहरू, किदवई और तमाम संविधान निर्माता सेक्युलर थे तो उन्हीं का बनाया अनुच्छेद 44 कैसे कम्युनल हो जाएगा. यह बहुत बेसिक बात है. आजादी के बाद संविधान बनाया गया था. उन लोगों को यह अंदाजा नहीं रहा होगा कि हमारी आने वाली पीढ़ी वोट के चक्कर में क्या-क्या कर देगी. यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. वोट की राजनीति ने हमारा बहुत नुकसान किया है.’

समान नागरिक संहिता पर ऐतिहासिक मतभेदों और विवादों का जिक्र करते हुए रामबहादुर राय बताते हैं कि जवाहरलाल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद में जो विवाद था वह इसी बात पर था. राजेंद्र प्रसाद यह नहीं चाहते थे कि हिंदू कोड बिल केवल हिंदुओं के लिए लागू हो. अगर आप हिंदू कोड बिल बना रहे हैं तो मुस्लिम कोड बिल भी बनाइए. और हिंदू कोड बिल, मुस्लिम कोड बिल की क्या जरूरत है, कॉमन कोड क्यों नहीं हो सकता? ये 1954-55 से चला आ रहा विवाद है. वे कहते हैं, ‘इसका व्यापक पक्ष जो है वह दूसरा है. वह इससे संबंधित है कि हमने अभी भी भारत के लोगों के लिए, जिसमें हिंदू-मुसलमान-ईसाई-पारसी का सवाल नहीं है, इस पर विचार ही नहीं किया है कि भारतीय नागरिक के लिए किन्हीं परिस्थितियों में कैसा कानून होना चाहिए. जहां कोई अड़चन आती है, वहां मौजूद कानूनों में ही हेरफेर करके काम चला लेते हैं. यह व्यापक प्रश्न है, जिस पर विचार होना चाहिए.’

समान नागरिक संहिता का महत्व और पर्सनल कानून की निरर्थकता बताते हुए अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘दुनिया के बहुत सारे इस्लामिक देशों में यूनीफॉर्म सिविल कोड है. अपने भारत में गोवा में लागू है और वहां चल रहा है. वहां हर समुदाय के लिए एक कॉमन लॉ है. जो लोग इसका विरोध करते हैं, वे महिला और गरीब विरोधी हैं. पर्सनल लॉ महिलाओं को दबाने का स्पेस है. यूनीफॉर्म सिविल कोड आएगा तो महिलाओं के शोषण पर लगाम लग जाएगी. सिर्फ महिलाओं नहीं, कई बार पुरुषों का भी शोषण होता है, वह भी रुकेगा. मेरा अपना मानना है कि हर एक पर्सनल लॉ, हिंदू हो या इस्लामिक या ईसाई, सबमें कुछ-कुछ अच्छी चीजें हैं. उन सबकी बेहतर चीजों को निकालकर एक कॉमन ड्राफ्ट बनाना चाहिए. उस ड्राफ्ट को संसद में ले आना चाहिए फिर उस पर चर्चा हो. अभी दिक्कत ये है कि इसका कोई प्रारूप नहीं है.’

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जमीयत उलेमा-ए-हिंद के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी इस मसले पर अपनी राय रखते हैं, ‘हम तो उन लोगों में हैं जिन्होंने मुल्क में सेक्युलर दस्तूर को बनवाया है. वह दस्तूर जिसके तहत अपने मजहब पर आजादी के साथ अमल करते हुए मुल्क की तरक्की के लिए, मुल्क को आगे बढ़ाने के लिए काम करना चाहिए. हमने मजहबी अकलियत को अपनी मजहबी निशानी के साथ दस्तूर में जिंदा रखवाया है. हमारा किरदार है वो. हम सबने गांधी-नेहरू के साथ मिलकर उस दस्तूर को बनवाया है कि जिसमें मुल्क को आगे बढ़ाने में हर आदमी, चाहे वो किसी भी मजहब का हो, मददगार बने और अपने मजहब पर कायम रहने का उसे मुकम्मल हक हो. मुल्क 70 साल से उन्हीं दस्तूरों पर चल रहा है. हम उसके मुखालिफ कैसे हो सकते हैं. हम तो जम्हूरियत और सेक्युलरिज्म की ताईद ही इस वजह से करते हैं कि मुल्क के अंदर तमाम अकलियत को जोड़कर रखने का एक ही रास्ता है और वह है सेक्युलरिज्म. सेक्युलरिज्म ही देश को और मजबूत कर सकता है. तमाम सारी अकलियत को अगर उनके मजहब से काटकर रखा जाएगा तो ये तो झगड़ा पैदा करेगा. हम उसकी ताईद नहीं करते. हम ये मानते हैं कि अपने-अपने मजहब पर अमल करते हुए तमाम लोग मुल्क की आजादी और तरक्की के लिए काम करें. यही अमन और प्यार-मोहब्बत का रास्ता है.’

दूसरी ओर अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘हमारा संविधान शुरू से सेक्युलर रहा है. लेकिन जब इसमें सेक्युलरिज्म शब्द भी जोड़ दिया गया, फिर तो ये पर्सनल हो ही नहीं सकता. किसी कीमत पर नहीं. क्योंकि सेक्युलरिज्म और पर्सनल लॉ एक नदी के दो छोर हैं. साथ-साथ नहीं चल सकते. या तो आपका देश सेक्युलर हो सकता है, या तो धार्मिक हो सकता है. अगर धार्मिक होगा तो पर्सनल लॉ चलेगा. अगर सेक्युलर है तो आपके पास कॉमन सिविल कोड ही रास्ता है.’ वे आगे कहते हैं, ‘यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू होने से ऐसा नहीं होगा कि हिंदुओं को निकाह करना पड़ेगा और मुसलमानों को सात फेरे लेने पड़ेंगे. ऐसा नहीं होगा कि हिंदुओं को दफनाना पड़ेगा और मुसलमानों को जलाना पड़ेगा. ये उसमें कहीं आड़े नहीं आता. सुप्रीम कोर्ट के बहुत सारे फैसले हैं. जस्टिस खरे का है, जस्टिस चंद्रचूड़ का है. बड़ी-बड़ी पीठों के फैसले हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि विवाह, तलाक, उत्तराधिकार ये वस्तुत: सेक्युलरिज्म का पार्ट हैं, ये पर्सनल कानून या आस्था से नहीं चल सकते. ऐसा नहीं हो सकता कि एक महिला तलाक ले तो उसे दस रुपये मिलें और दूसरी महिला तलाक ले तो उसे एक पैसा न मिले. ऐसा नहीं चल सकता.’

महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर कहती हैं, ‘मुझे ये समझ में नहीं आ रहा है कि सरकार इसमें इतनी दिलचस्पी क्यों ले रही है कि कॉमन सिविल कोड पर अभी ही चर्चा हो और ये लागू हो. अभी बहुत सारी योजनाएं हैं जिनका चुनाव के टाइम ऐलान किया गया था. सरकार का जो लक्ष्य है 2017 का, सबका साथ सबका विकास, शिक्षा, हेल्थ और तमाम मुद्दे हैं, सरकार उन पर काम करे. जो लोग कॉमन सिविल कोड को किसी खास मकसद से लाना चाहते हैं, वे चुनाव को नजर में रखकर इसे उछाल रहे हैं, तो मेरी यही गुजारिश है मुस्लिम समाज मुस्लिम कानून और मजहब के हिसाब से ही काम करेगा. हम महिलाएं अदालत में अपने कानून को मजबूती से लागू करने की लड़ाई लड़ रही हैं.’

समान नागरिक संहिता की चर्चा में सबसे तीखा विरोध मुस्लिम समुदाय की ओर से उठता है. संविधान सभा में बाबा साहेब आंबेडकर का इस मुद्दे पर भाषण भी मुसलमानों पर ही केंद्रित है. अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘जो तथाकथित धर्मगुरु लोग विरोध करते हैं, उन्हें मालूम है कि यह महिलाओं के पक्ष में है. लेकिन ये लोग अपनी दुकान चलाने के लिए विरोध करते हैं. इससे तो धर्म का फायदा है. इस्लाम की जो बेसिक थीम पैगंबर साहेब ने दी थी, वह बराबर की थी. इस्लाम की बेसिक थीम बराबरी है कि हमारे यहां जाति, लिंग आदि का कोई भेद नहीं होगा. अगर बेसिक कॉन्सेप्ट बराबरी है तो कोई भी पर्सनल लॉ जो आर्टिकल 14 का उल्लंघन करे वह तो होना ही नहीं चाहिए. सबसे बेसिक कानून अनुच्छेद 14 और 21 है. जो लोग बाकी अनुच्छेदों की बातें करते हैं, 13, 25, 29 या 30, ये सब 14 के बाद आते हैं. यह एक आॅर्डर में है. बेसिक कानून 14 है. कानून के समक्ष बराबरी बेसिक है. ऐसा नहीं हो सकता है कि शादी के वक्त आप पूछें कि मंजूर है कि नहीं और तलाक देते वक्त नहीं पूछें कि मंजूर है कि नहीं. इसमें सबसे ज्यादा जरूरी है कि पहले कानून का ड्राफ्ट आ जाए. ड्राफ्ट आ जाएगा तो जितने विवाद हैं, वे ज्यादातर अपने आप हल हो जाएंगे.’

मई 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता अनिवार्य रूप से लागू करने पर जोर दिया था. कोर्ट का कहना था, ‘इससे जहां पीड़ित महिलाओं की सुरक्षा हो सकेगी वहीं राष्ट्रीय एकता बढ़ाने के लिए भी यह आवश्यक है. किसी समुदाय के इस तरह के निजी कानून स्वायत्तता नहीं, बल्कि अत्याचार के प्रतीक हैं. भारत एक राष्ट्र है और कोई समुदाय मजहब के आधार पर स्वतंत्र अस्तित्व का दावा नहीं कर सकता’

शाइस्ता अंबर यह तो मानती हैं कि मुस्लिम समाज में बहुत-से सुधारों की जरूरत है, लेकिन वे इस बात की हिमायती हैं कि इनका निदान इस्लामी कानून और कुरान के मद्देनजर ही होना चाहिए. बातचीत में वे कहती हैं कि इस्लामी कानून अपने आप में मुकम्मल हैं. वे मानती हैं कि मुसलमान औरतों को न्याय कुरान की बुनियाद पर मिलना चाहिए. उन्होंने बताया कि हमने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को एक सिफारिश भेजी थी कि जिस तरह हिंदू कोड बिल है, उसी तरह एक मुस्लिम कोड बिल बनाया जाए. वे कहती हैं, ‘हम कॉमन सिविल कोड स्वीकार तब करें जब हमारे मुस्लिम पर्सनल कानून में कुछ गलत हो. जब पर्सनल लॉ में कोई कानून गलत है ही नहीं, पहले से ही सारे अधिकार मिले हुए हैं तो हमें कॉमन सिविल कोड की जरूरत ही नहीं है. हमारा विश्वास ऐसे कानून में है जो कॉमन सिविल कोड से ज्यादा मुकम्मल है.’

चूंकि भाजपा कश्मीर में धारा 370, राम मंदिर और यूनीफॉर्म सिविल कोड को मुद्दा बनाती रही है, इसलिए इस मामले में और भी भ्रम की स्थितियां बनी हैं. भाजपा की हिंदूवादी विचारधारा के कारण मुस्लिम समुदाय में यह संदेश गया है कि यह भाजपा का हिंदूवादी एजेंडा है. मौलाना अरशद मदनी कहते हैं, ‘हम समझ रहे हैं, हो सकता है कि मेरी यह बात किसी को बुरी लगे लेकिन वो जो एक आवाज उठी थी सबको घर वापस लाओ, अब तक वो आवाज जनता के बीच थी, अब सरकार उस आवाज के दरख्त को पालने के लिए पानी दे रही है और ये दूसरे रास्ते से उसी की तरफ लेकर चलना चाहते हैं. हमें तो ये मंजूर नहीं है. हम तो मरना और जीना इस्लाम और मजहब के साथ ही बावस्ता रखना चाहते हैं. हम इसकी ताईद नहीं करेंगे. हमारा अपना स्टैंड है और वह बहुत मजबूत है. हमारा इसमें कोई समर्थन और विरोध नहीं है. हम बस इतना जानते हैं कि हर आदमी मुल्क को आगे बढ़ाए और अपने मजहब पर कायम रहते हुए बढ़ाए.’
अब तक यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू न होने के लिए वोटबैंक राजनीति को जिम्मेदार ठहराते हुए अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘वोट के लालच ने देश का बहुत नुकसान किया है. राइट टू एजुकेशन को मूलाधिकार बनाकर 21 ए में रखा गया. लेकिन उसमें भी विसंगतियां हैं. हमारे देश में तीन चीजें बहुत जरूरी हैं. यूनीफॉर्म एजुकेशन, यूनीफॉर्म हेल्थकेयर और यूनीफॉर्म सिविल कोड हो. अगर देश की एकता और अखंडता को बनाए रखना है तो ये तीन चीजें बहुत जरूरी हैं.’

भाजपा से दूर होते मांझी

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बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी कब क्या बोलेंगे, यह सिर्फ वही जानते हैं. वे सुबह कुछ और शाम को कुछ और बोल सकते हैं. वे इतनी बार बयान बदलते हैं कि भले ही उनके बयानों को गंभीरता से नहीं लिया जाए लेकिन वे चौंकाने वाले होने की वजह से परेशान तो कर ही देते हैं. अंकगणित के आधार पर देखें तो बिहार विधानसभा चुनाव में हार के बाद एक विधायक वाली पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के वे राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. इस लिहाज से देखा जाए तो बिहार में फिलहाल वे कोई राजनीतिक ताकत नहीं हैं. निकट भविष्य में बिहार में कोई चुनाव नहीं इसलिए भी वे कोई खास महत्व की चीज नहीं हैं. भाजपा के ही दो सहयोगी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) इनसे बड़ी ताकत हैं लेकिन जीतन राम मांझी कुछ न होते हुए भी भाजपा को हर कुछ दिनों पर परेशान किए रहते हैं.

इस महीने की शुरुआत से ही उन्होंने बयानों का बदलाव इस तरह से शुरू किया है कि भाजपा सुबह खुश होती थी तो शाम होते-होते उसकी सांस अटकने लगती थी. पिछले महीने जीतन राम मांझी ने जदयू के नेता व बिहार विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी को निशाने पर लिया. उन्होंने आरोप लगाया कि चौधरी उनकी हत्या की साजिश रच रहे हैं इसलिए जब वे एक दलित नेता की हत्या के बाद परिजनों से मिलने गए तो अज्ञात लोगों ने उन पर हमला किया.
मांझी ने यह बात जोर-शोर से कही तो भाजपा ने सुर में सुर में मिलाना शुरू किया. कुछ दिनों बाद मांझी ने सीधे नीतीश कुमार पर आरोप लगाया कि राज्य में जो भ्रष्टाचार हो रहा है उसका पैसा सीधे मुख्यमंत्री आवास तक पहुंच रहा है. वे यहीं नहीं रुके. आगे उन्होंने जोड़ दिया कि मुख्यमंत्री आवास सीधे भ्रष्टाचार में लिप्त है, इसकी सीबीआई जांच करवाई जाए और अगर ऐसा नहीं होता है तो वे विधानसभा की सदस्यता भी छोड़ देंगे. इस बयान से भाजपा और खुश हुई. मांझी की पीठ थपथपाने लगी. होली के समय मांझी ने बयान दिया कि वे और उनकी पार्टी के लोग इस बार होली नहीं मनाएंगे क्योंकि बिहार में अपराध इतना बढ़ गया है कि इसमें होली क्या मनाना.

मांझी अपनी हर बात कहने के लिए अपने घर पर प्रेस कॉन्फ्रेंस करते रहे. मांझी अपने बयानों से लगातार टूटे-बिखरे भाजपाइयों का मनोबल बढ़ाते रहे. राष्ट्रपति शासन के बाद जब उत्तराखंड में सरकार बनाने की जोड़-तोड़ चल रही थी तो नीतीश कुमार ने आरोप लगाया कि भाजपा उत्तराखंड में सरकार बनाने का गंदा खेल खेल रही है. इस बार भी भाजपा की ओर से कमान संभालते हुए मांझी ने जवाब दिया कि नीतीश कुमार को इस पर बोलने का अधिकार नहीं है क्योंकि उन्होंने मेरी सरकार भी इसी तरह से गिराई थी. इसके बाद मांझी ने नीतीश को नसीहत तक दे डाली. उन्होंने कहा कि राजस्थान और मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार है और वहां प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था है लेकिन बिहार की सरकार आरक्षण और दलित विरोधी है इसलिए उसे खत्म कर रही है.

भाजपा की सहयोगी पार्टी रालोसपा में भी उठापटक मची हुई है. रालोसपा के प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा के खिलाफ उन्हीं की पार्टी के सांसद डॉ. अरुण कुमार मोर्चा खोले हुए हैं

मांझी एक के बाद एक पत्ते फेंकते रहे और नीतीश के प्रवक्ता जवाब पर जवाब देते रहे. उधर, भाजपाई खुश होते रहे. लेकिन पिछले हफ्ते मांझी ने सारा खेला बदल दिया है. बिहार में विधान परिषद का चुनाव और राज्यसभा का चुनाव हो जाने के बाद मांझी के बोल बदलने लगे हैं. बोल के बदलाव की शुरुआत उन्होंने भाजपा को नसीहत देने से की. मांझी ने कहा, ‘भाजपा कोई भी फैसला अकेले न ले, बल्कि हमारी पार्टी, लोजपा और रालोसपा को शामिल कर फैसला ले नहीं तो यह ठीक नहीं हो रहा.’

लालू प्रसाद यादव ने मांझी के बदलते मूड को पकड़ा, उन्होंने केंद्र में मंत्रिमंडल का विस्तार होने के पहले बयान दिया, ‘भाजपा को चाहिए कि बूढ़े हो चुके रामविलास पासवान को मंत्रिमंडल से हटाकर उनकी जगह जीतन राम मांझी को दे.’ मौके की नजाकत को समझने में उस्ताद लालू ने सही समय पर, सही तरीके से निशाना साधा जो बिल्कुल सटीक जगह लगा. लालू ने इस एक बयान से मांझी को शह दिया कि वे आगे भी अपने बयान को जारी रखें. रामविलास पासवान को उकसाया भी और लगे हाथ नीतीश कुमार को संकेत भी दे दिया कि वे अपने तरीके से बिहार में सक्रिय हैं. मांझी ने लालू के बयान का खंडन नहीं किया, वे अपने बयान को विस्तारित करने में लग गए. उधर, लालू के बयान पर रामविलास पासवान भड़क उठे. उन्होंने कहा, ‘पांच बार मैट्रिक फेल लालू प्रसाद कौन होते हैं बूढ़ा कहने वाले, वे अपने बेटों को सेट कर रहे हैं, वही काम करें.’ झगड़ा रामविलास पासवान और लालू प्रसाद यादव में लग गया.

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फिर क्या था, लालू मजा लेने में लगे रहे, दूसरी ओर मांझी ने भाजपा के रंग में भंग डालने की मात्रा बढ़ा दी. रमजान के महीने में बिहार में होने वाला हर इफ्तार राजनीति का अखाड़ा होता है, मांझी ने उस अखाड़े में भी दांव खेला. मांझी ने इफ्तार पार्टी दी तो लालू पहुंचे. वहां पहुंचकर फिर वही दोहराया कि भाजपा जीतन राम मांझी के साथ अन्याय कर रही है. उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिलनी चाहिए.

लालू जानते हैं कि भाजपा की बुरी तरह से हार के बाद भी मांझी अगर चुपचाप भाजपा के साथ बने हुए हैं और नीतीश को निशाने पर ले रहे हैं तो इसी उम्मीद में कि मांझी को केंद्र में कोई जगह मिल जाएगी, राज्यसभा भेज दिया जाएगा और राजनीति में शामिल होने के इच्छुक उनके बेटे संतोष मांझी को बिहार की विधान परिषद में भाजपा एडजस्ट कर देगी. लालू यह भी जान गए हैं कि भाजपा ने मांझी की दोनों में से एक भी मुराद पूरी नहीं की है इसलिए अभी मांझी को उकसाने व पुचकारने से वे भाजपा को परेशान कर सकते हैं. मांझी ने यही करना शुरू भी कर दिया है. अपनी इफ्तारी पार्टी में तो वे ज्यादा नहीं बोले लेकिन जब लालू ने उन्हें इफ्तारी दी तो वहां पहुंचे मांझी की मुलाकात नीतीश कुमार से हो गई. दोनों साथ में बैठे और काफी देर तक बातचीत भी की.

राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के बयान पर रामविलास पासवान भड़क उठे. उन्होंने कहा, ‘पांच बार मैट्रिक फेल लालू कौन होते हैं बूढ़ा कहने वाले, वे अपने बेटों को सेट कर रहे हैं, वही काम करें’ 

इसके बाद मांझी ने एक नया बयान दिया कि जब लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार एक हो सकते हैं, जिनके बीच घनघोर झगड़ा था तो फिर वे नीतीश कुमार के साथ क्यों नहीं हो सकते. मांझी गदगद थे. वे यहीं नहीं रुके. उन्होंने आगे कहा, ‘मैं आज जो भी हूं, नीतीश के कारण ही हूं. नीतीश ही मेरे राजनीतिक जन्मदाता हैं. मैं तो विधायक और मंत्री के बीच ही झूल रहा था लेकिन नीतीश ने ही मुझे मुख्यमंत्री बनाया. नीतीश ने कभी आलोचना भी नहीं की, उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर बड़ी भूल की. अगर वे यह बयान वापस ले लें तो मैं नीतीश कुमार के साथ आ सकता हूं.’ मांझी का यह बयान भाजपा की नींद हराम कर देने के लिए काफी था. मांझी से जब इन बयानों का निहितार्थ पूछा जाता है तो वे कहते हैं कि राजनीति संभावनाओं का खेल होता है, यहां कोई स्थायी दोस्त या स्थायी दुश्मन नहीं होता. मांझी दार्शनिक अंदाज में इतनी ही बात करते हैं, आगे कुछ नहीं कहते. मांझी जब संभावनाओं के खेल पर बात करते हैं तो भाजपा के एक बड़े नेता कहते हैं कि मांझी संभावना की ही तलाश में लगे नेता हैं और उन्हें किसी तरह से अपना और अपने बेटे का सेटलमेंट चाहिए.

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय कहते हैं, ‘राजग में ऐसा कुछ भी नहीं है, कोई खटपट नहीं है, सभी एकजुट हैं. मांझी जी के बयानों को दूसरे संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए. वे वरिष्ठ नेता हैं और उनकी पार्टी भाजपा के साथ है.’ सुशील मोदी भी यही बात दोहराते हैं. वे कहते हैं, ‘नीतीश के कार्यकाल में होने वाले कृत्यों पर मांझी लगातार मुखर रहे हैं, वे राजग के अभिन्न अंग हैं और रहेंगे.’

भाजपा नेता मांझी को बड़ा नेता, वरिष्ठ नेता, नीतीश विरोधी नेता बताकर डैमेज कंट्रोल में लगे हुए हैं. दूसरी ओर, नीतीश के पक्ष में जब से मांझी ने बयान दिया है, जदयू के नेता सक्रिय हो गए हैं. जदयू के प्रवक्ता संजय सिंह, जो पिछले महीने तक लगातार कहते थे कि मांझी एक चूके हुए और विश्वासघाती नेता हैं, उनका जदयू से कभी कोई संबंध नहीं हो सकता, वे कहते हैं, ‘मांझी जी के लिए तो जदयू का दरवाजा हमेशा खुला हुआ है, वे जब आएं, स्वागत है.’ मांझी ने अपने बयानों से खुद को केंद्र में ला दिया है. एक विधायक वाली पार्टी के मुखिया होकर भी ज्यादा विधायक वाली पार्टी के नेताओं से ज्यादा चर्चा में हैं.

‘राजग में ऐसा कुछ भी नहीं है, कोई खटपट नहीं है, सभी एकजुट हैं. मांझी जी के बयानों को दूसरे संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए. वे वरिष्ठ नेता हैं और उनकी पार्टी भाजपा के साथ है’

भाजपा परेशान हाल है. भाजपा की परेशानी सिर्फ मांझी को लेकर नहीं है. भाजपा की एक बड़ी सहयोगी पार्टी रालोसपा में भी पिछले माह से उठापटक मची हुई है. रालोसपा के प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा केंद्र में मंत्री हैं. वहीं रालोसपा से एक दूसरे सांसद डॉ. अरुण कुमार अपने ही अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं, जिसके बाद उपेंद्र कुशवाहा ने डॉ. अरुण कुमार को पार्टी से निलंबित कर दिया है. अरुण कुमार के साथ उपेंद्र कुशवाहा ने पांच और रालोसपा नेताओं को बर्खास्त किया है. जानकारी मिल रही है कि अभी उपेंद्र कुशवाहा और भी कई नेताओं को अपनी पार्टी से या तो बर्खास्त करेंगे या निलंबित करेंगे. यानी रालोसपा सीधे-सीधे दो गुटों में विभाजित होगा. सांसद डॉ. अरुण कुमार कहते हैं, ‘उपेंद्र कुशवाहा तानाशाह की तरह पार्टी चला रहे हैं. उनसे जवाब मांगा गया था लेकिन जवाब देने के बजाय उन्होंने पार्टी से हटाने का निर्णय लिया, इसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ेगी.’ अरुण कुमार अपनी पार्टी की बात करते हैं. भाजपा के नेता इस मामले पर बोलने से बच रहे हैं. वे कह रहे हैं कि यह रालोसपा का अंदरूनी मामला है, इस पर बोलना ठीक नहीं. सब जानते हैं कि यह रालोसपा का अंदरूनी मामला है लेकिन यह भी सच है कि अगर निकट भविष्य में रालोसपा में दो फाड़ होता है तो फिर भाजपा के साथ कोई एक धड़ा ही रहेगा. यह भी एक तरीके से राजग का नुकसान ही होगा.

राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘भाजपा का क्या कीजिएगा. बिहार में हारने के बाद उसे मजबूत विपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए थी लेकिन उसकी तो पूरी ऊर्जा आपसी कलह और अपने कुनबे को संभालने में ही जा रही है. ये देख नहीं रहे हैं इसका असर क्या हो रहा है. भाजपा को बिहार में जिन मसलों को उठाना चाहिए, उस पर नहीं बोल रही. उसके नेता कभी नीतीश कुमार के आवासों की संख्या गिन रहे हैं तो कभी कुछ और कर रहे हैं.’

मणि की बात सही ही है. भाजपा के नेता ऐसी ही बातों में उलझे हुए हैं. इसी दौर में भाजपा के ही एक नेता ने और परेशानी बढ़ा दी है, लेकिन वे भाजपा नेता बिहार के न होकर गुजरात के हैं. गुजरात में भाजपा के पूर्व विधायक रहे और अब आम आदमी पार्टी में शामिल हो चुके यतिन ओझा ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को पत्र लिखकर कहा है कि बिहार चुनाव में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और ओवैसी के बीच बड़ी डील हुई थी, जिसमें शाह ने ओवैसी को सीमांचल इलाके में लड़ने को, भड़काऊ भाषण देने को कहा था ताकि ध्रुवीकरण हो और भाजपा को फायदा हो. यतिन ओझा के इस आरोप का आधार भले ही न हो लेकिन भाजपा के आलोचकों को मजा लेने के लिए एक नया विषय तो मिल ही गया है. बिहार में यह पहले से ही माना जा रहा था कि ओवैसी एक फिक्स्ड गेम प्लेयर हैं और उनकी हार हुई तो यह भी कहा गया था कि ओवैसी भाजपा के साथ मिलकर खेल रहे थे, जिसे बिहारी जनता समझ गई थी, इसलिए उनकी दुर्गति तय ही थी.

‘चौदह साल के कठिन परिश्रम का फल रियो ओलंपिक के टिकट के रूप में अब मिला’

फोटो साभारः radio.wpsu.org
फोटो साभारः radio.wpsu.org

पहली कक्षा में पढ़ने वाली छह साल की वह मासूम तब एथलीट शब्द का मतलब तक नहीं समझती थी जबकि उसकी खुद की बड़ी बहन एक एथलीट थी. वह तो बस स्कूल की दौड़ प्रतियोगिता में पहला स्थान पाना चाहती थी. एक दिन उसकी एथलीट बहन ने उससे बोला, ‘तू मेरे साथ भागेगी तो रेस में फर्स्ट आएगी’. फिर क्या सोचना था, उसने साथ भागना शुरू कर दिया. उस दिन के बाद वह ऐसी भागी कि स्कूल में ही नहीं, पूरे देश में कोई महिला धावक उसकी रफ्तार नहीं पकड़ सकी.
हम बात कर रहे हैं, 20 वर्षीय भारतीय महिला धावक द्युति चंद की. उन्होंने ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में आयोजित होने वाले 31वें ओलंपिक खेलों की 100 मीटर दौड़ प्रतियोगिता में भारत की ओर से क्वालिफाई किया है. ओलंपिक की इस स्पर्धा में द्युति 36 साल बाद कोई भारतीय चेहरा होंगी. द्युति से पहले सन 1980 में मॉस्को में आयोजित 22वें ओलंपिक खेलों में ‘उड़नपरी’ पीटी उषा ने भारत का प्रतिनिधित्व किया था. द्युति उड़ीसा के जाजपुर जिले के चक गोपालपुर गांव की रहने वाली हैं. वे भुवनेश्वर के केआईआईटी विश्वविद्यालय से एलएलबी भी कर रही हैं. वे एक गरीब बुनकर परिवार से ताल्लुक रखती हैं. छह बहन और एक भाई के बीच तीसरे नंबर की द्युति की यहां तक पहुंचने की कहानी काफी उतार-चढ़ाव भरी रही. उनके गांव में खेलों को लेकर इतनी जागरूकता नहीं थी क्योंकि टीवी नहीं हुआ करता था. बड़ी बहन सरस्वती ने जब खेलों में करिअर बनाना चाहा तो मां-बाप को समझाना पड़ा कि खिलाड़ियों को नौकरी जल्द मिलती है और नौकरी करके वे गरीबी में परिवार की मदद कर पाएंगी. द्युति भी एथलेटिक्स से इसी कारण जुड़ सकीं. सरस्वती आज ओडिशा पुलिस में कार्यरत हैं. वहीं द्युति को पिछले दिनों ओडिशा सरकार ने ओडिशा माइनिंग काॅरपोरेशन में सहायक प्रबंधक के पद पर नियुक्त किया है. द्युति का चयन इस मामले में भी खास है कि 2014 कॉमनवेल्थ गेम्स की शुरुआत से ऐन पहले द्युति के प्रतियोगिता में शामिल होने पर अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक महासंघ (आईएएएफ) ने पाबंदी लगा दी थी. इसका कारण द्युति के शरीर में पुरुषों में पाए जाने वाले हार्मोन टेस्टोस्टेरॉन का अधिक मात्रा में पाया जाना बताया गया. द्युति ने इसके खिलाफ स्विट्जरलैंड स्थित खेल मध्यस्थता न्यायालय (सीएएस) में एक साल लड़ाई लड़कर ट्रैक पर पिछले साल ही जुलाई में वापसी की थी. द्युति इसके अलावा कई ऐसे राष्ट्रीय रिकॉर्ड तोड़ चुकी हैं जो लंबे समय से भारतीय महिला धावकों के लिए चुनौती बने हुए थे. ऐसा ही एक रिकॉर्ड उन्होंने इसी साल अप्रैल में दिल्ली में आयोजित फेडरेशन कप एथलेटिक्स चैंपियनशिप के दौरान तोड़ा. उन्होंने 100 मीटर की दौड़ में 11.33 सेकंड का समय निकालकर रचिता मिस्त्री द्वारा 16 साल पहले सन 2000 में बनाए गए 11.38 सेकंड के रिकॉर्ड को तोड़ा. दोहा में एशियन इनडोर एथलेटिक्स गेम्स में भाग लेते हुए 60 मीटर की स्पर्धा में 7.28 सेकंड का समय निकालकर अर्जिना खातून का 7 साल पुराना रिकॉर्ड तोड़ा. जूनियर एवं सीनियर प्रतियोगिताओं में कई पदक अपने नाम करने वाली द्युति ओलंपिक का टिकट लेकर जब कजाकिस्तान से वापस लौटीं तो ‘तहलका’ ने उनसे बात की.

रियो ओलंपिक तक का सफर कैसा रहा और ओलंपिक में दौड़ने का सपना कब देखना शुरू किया?

बचपन में स्कूल की दौड़ प्रतियोगिता में मेरा मन हमेशा फर्स्ट आने का करता था. तब मुझे न तो एथलीट शब्द का मतलब पता था और न ओलंपिक के बारे में जानती थी जबकि मेरी बड़ी बहन सरस्वती चंद खुद एक एथलीट थीं. उन्होंने एक दिन मुझे बोला, ‘तू मेरे साथ दौड़ा कर, फर्स्ट आ जाएगी.’ मैंने उनके साथ दौड़ना शुरू किया. पहली कक्षा से तीसरी कक्षा तक मैं स्कूल प्रतियोगिताओं में फर्स्ट आती रही. 2006 में जब 5वीं कक्षा पास की तो एक सरकारी खेल अकादमी के बारे में पता चला जहां अच्छे एथलीटों का रहना, खाना, पढ़ाई सब निःशुल्क होता है. मैं इंटरव्यू देने गई और पास हो गई. वहीं पढ़ाई के साथ मेरी ट्रेनिंग भी हुई. 2007 में मैंने पहला नेशनल जूनियर मेडल जीता. तब से ओलंपिक में जाने का सपना देखने लगी. उसके बाद से मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. जिस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया कभी बिना मेडल जीते नहीं आई. मेरे 14 सालों के कठिन परिश्रम का फल रियो ओलंपिक के टिकट के रूप में मुझे अब मिला है. अभी तो बस ऐसा लग रहा है कि मेरे बचपन का सपना पूरा हो गया.

पिछली बार ओलंपिक की 100 मीटर दौड़ की स्पर्धा में 1980 मॉस्को ओलंपिक में पीटी उषा ने भारत का प्रतिनिधित्व किया था. उसके 36 साल बाद भारत की ओर से किसी एथलीट ने इस स्पर्धा में जगह बनाई है. अपनी इस उपलब्धि पर क्या कहना है?

ओलंपिक के लिए तैयारी के दौरान कभी दिमाग में नहीं था कि मुझे पीटी उषा का रिकॉर्ड तोड़ना है. सही मायनों में मुझे तो ऐसे किसी रिकॉर्ड की जानकारी भी नहीं थी. यह तो मुझे बाद में पता चला. हां, अब अच्छा लग रहा है कि मैंने 36 साल बाद देश को गर्व का मौका दिया है.

दिल्ली में हुए फेडरेशन कप में 0.01 सेकंड से आप ओलंपिक में क्वालिफाई करने से चूक गई थीं. लेकिन रचिता मिस्त्री का 16 साल पुराना नेशनल रिकॉर्ड आपने तोड़ दिया था. उस समय रिकॉर्ड तोड़ने की खुशी थी या फिर क्वालिफाई न कर पाने का गम?

मैं क्वालिफाई करने के लिए महीनों से कड़ी मेहनत कर रही थी. मैंने वो पूरी मेहनत उस दिन झोंक दी थी. पर मैं बिल्कुल नजदीक आकर चूक गई, यह सदमे जैसा था. नेशनल रिकॉर्ड तोड़ने की खुशी तो हुई पर गम और हताशा का अहसास ज्यादा हुआ क्योंकि रियो के दरवाजे तक आकर वापस लौटना पड़ा था.

100 मीटर प्रतियोगिता में कमजोर नहीं पड़ती बल्कि कद छोटा होने के कारण लंबे डग नहीं भर पाती. इस समस्या का समाधान निकालने की कोशिश कर रही हूं

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अक्सर किसी चीज के करीब आकर उसे खो देने की हताशा एक अनावश्यक मानसिक दबाव बनाती है. उस हताशा के बीच आपने खुद को कैसे तैयार किया कि अब मुझे चूकना नहीं है?

मौसम से काफी फर्क पड़ता है. अप्रैल माह के अंत में फेडरेशन कप के समय दिल्ली में तापमान 45 डिग्री के करीब था. इस तापमान में वाॅर्मअप करने में ही एक एथलीट की इतनी ऊर्जा बर्बाद हो जाती है कि वह मुख्य मुकाबले के लिए थक सा जाता है. फेडरेशन कप के बाद भारत में सिर्फ एक स्पर्धा बाकी रह गई थी, जो हैदराबाद में हुई. मैंने उसके लिए तैयारी शुरू कर दी. इस बीच मैंने एथलेटिक्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एएफआई) को एक पत्र लिखा. उन्हें यकीन दिलाया कि मैं अच्छा प्रदर्शन कर रही हूं. आप अगर मुझे ट्रेनिंग पर विदेश भेजेंगे तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुकाबला कर मैं ओलंपिक का टिकट हासिल कर सकती हूं. मुझे एक प्रतियोगिता में भाग लेने बीजिंग भेजा गया पर आखिरी समय में बताया गया कि 100 मीटर में भारतीय एथलीट नहीं दौड़ सकती. वहां 4×10 रिले में भाग लिया. फिर ताइपे गई, वहां 100 मीटर और 200 मीटर दोनों में स्वर्ण पदक जीता. लेकिन ओलंपिक क्वालिफिकेशन के लिए निर्धारित समय नहीं निकाल सकी क्योंकि वहां मुकाबले में टक्कर देने वाला कोई एथलीट ही नहीं था. मैंने एएफआई को समझाया कि जब मुकाबले में कोई होगा ही नहीं तो मैं कैसे और अच्छा करूंगी. तब मुझे कजाकिस्तान भेजा गया. यहां टक्कर में अच्छे एथलीट भी थे और मौसम भी अच्छा था, 20 डिग्री सेल्सियस के आसपास, जिससे मैं क्वालिफाई कर गई.

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रियो ओलंपिक की 200 मीटर की स्पर्धा में क्वालिफाई न कर पाने से कोई निराशा हुई?

वैसे मैं 200 मीटर की धावक हूं. लेकिन इस साल मैंने 200 मीटर की रेस पर ध्यान नहीं लगाया. मेरा ध्यान 100 मीटर में क्वालिफाई करने पर ज्यादा रहा. 100 मीटर में क्वालिफाइंग टाइम 11.32 सेकंड था और 200 मीटर में 23.20 सेकंड. लेकिन मेरा 100 मीटर में तब तक का बेस्ट 11.50 सेकंड था और 200 मीटर में 23.41 सेकंड. मतलब क्वालिफाई करने के लिए मुझे दोनों ही इवेंट में कुछ-कुछ सेकंड कम करने थे. मैं दोहा इनडोर गेम्स में 60 मीटर इवेंट में दौड़ने गई. वहां मैंने 60 मीटर में 7.28 सेकंड का समय निकालकर नया नेशनल रिकॉर्ड बनाया. तब जेहन में आया कि अगर 100 मीटर इंवेट पर ध्यान दूं तो क्वालिफाई कर सकती हूं. फिर मैंने तय किया कि 200 मीटर की जगह 100 मीटर पर ही पूरा ध्यान लगाऊंगी.

वैसे मैं 200 मी. की धावक हूं. लेकिन इस साल मैंने 200 मी. की रेस पर ध्यान नहीं लगाया. मेरा ध्यान 100 मी. में क्वालिफाई करने पर ज्यादा रहा

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किसी भारतीय महिला धावक को ओलंपिक की 100 मीटर स्पर्धा में अपनी जगह बनाने में 36 साल का लंबा समय क्यों लगा? कहीं खामियां रहीं या नया टैलेंट सामने नहीं आ रहा?

एक कारण तो आईएएएफ द्वारा 1980 के बाद अपनाए गए कठोर क्वालिफाइंग स्टैंडर्ड रहे. भारतीय एथलीट सामान्यत: इतनी तेज नहीं होतीं कि 11.32 सेकंड में 100 मीटर की रेस खत्म कर सकें. एक अन्य कारण यह भी है कि हर किसी को इतना सहयोग नहीं मिल पाता कि वह अपनी ट्रेनिंग को उन मानकों तक पहुंचा सके. कई मर्तबा कई अच्छे धावकों का करिअर चोटिल होने के कारण खत्म हो जाता है. किसी को अच्छा कोच नहीं मिल पाता. और एक सच यह भी है कि लोग खेल के तौर पर एथलेटिक्स का चुनाव करने में रुचि कम दिखाते हैं. मैंने जब से दौड़ना शुरू किया, तब से ही सुन रही थी कि 100 मीटर में रचिता मिस्त्री का रिकॉर्ड कोई तोड़ नहीं पा रहा है. मैं यह रिकॉर्ड तोड़ने की कोशिश कर रही थी. सन 2000 में यह रिकॉर्ड बना था और मैंने अब जाकर 2016 में तोड़ा है. इस दौरान कोई इस रिकॉर्ड को नहीं तोड़ सका तो इसके यही कारण रहे जो मैं बता रही हूं.

आपके कोच का कहना है कि 60 मीटर तक आप विश्व की श्रेष्ठ खिलाड़ियों में से एक हैं लेकिन अगले 40 मीटर में कमजोर पड़ जाती हैं.

कमजोर नहीं पड़ती. कद छोटा होने के कारण लंबे डग नहीं भर पाती. शुरुआती 60 मीटर में रफ्तार से आगे निकल जाती हूं. उसके बाद एनर्जी कम होने पर मेरे थोड़ा धीमा पड़ते ही अन्य एथलीट अपने कद का लाभ उठाकर आगे निकल जाती हैं. इसका समाधान निकालने के संभव तरीकों पर काम कर रही हूं. कोच को बताया, वे बोले कि इस पर काम करेंगे. पर अभी तो समय नहीं है. आगे इस पर ध्यान देंगे. एक अन्य कारण यह भी है कि 100 मीटर मेरा इवेंट नहीं था. 2012 से लेकर 2014 तक 200 मीटर पर मेरा ज्यादा फोकस रहा. मैंने जूनियर और सीनियर एशियन टाइटल में गोल्ड जीता. पहली बार है कि मैं 100 मीटर में दौड़ रही हूं. तो गलतियां तो होंगी और जो भी गलती होगी उन्हें सुधारने में समय तो लगेगा ही.

ओलंपिक के लिए क्या तैयारी है? क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि आप कोई पदक जीतकर फिर से देश को गर्व करने का एक मौका देने वाली हैं?

मेरा प्रयास अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देने का रहेगा. मौसम अच्छा रहा, शरीर ने साथ दिया और आप सब लोगों का प्यार रहा तो जरूर पदक लेकर आऊंगी. जहां तक तैयारी का सवाल है तो जब जुलाई 2015 में मुझ पर लगा प्रतिबंध हटा तब से ओलंपिक में क्वालिफाई करने की तैयारी कर रही थी. महीनों की मेहनत के बाद क्वालिफाई कर पाई. लेकिन अब जो मुख्य स्पर्धा है उसकी तैयारी के लिए मुझे ज्यादा समय नहीं मिला. क्वालिफाई के बाद मैंने कजाकिस्तान में ही 200 मीटर में भाग लिया. बंगलुरु में 4×100 रिले में भाग लेने वाली हूं. अभी मेरे पास अधिकतम 15 दिन का समय है जो पर्याप्त नहीं है. इसलिए अभी जो अभ्यास चल रहा है और जैसा कोच बोलते हैं, वही कर रही हूं. कुछ नया करने की कोशिश नहीं कर रही.

ओलंपिक के लिए तैयारी के दौरान कभी दिमाग में नहीं था कि मुझे पीटी उषा का रिकॉर्ड तोड़ना है. सही मायनों में मुझे तो ऐसे किसी रिकॉर्ड की जानकारी भी नहीं थी

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अगर आपने एक साल प्रतिबंध नहीं झेला होता तो क्या आप और अच्छा कर सकती थीं?

जब से मैंने दौड़ना शुरू किया, किसी स्पर्धा से बिना पदक जीते नहीं लौटी. 2014 तक मेरा प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा. 2014 में तो मैंने कॉमनवेल्थ गेम्स सहित तीन बड़ी अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में भाग लिया और हर बार अपना सर्वश्रेष्ठ समय निकाला. पर ऐन कॉमनवेल्थ गेम्स से पहले मुझ पर लगे प्रतिबंध से मेरा अभ्यास बहुत प्रभावित हुआ. मानसिक तनाव रहा, जिसके चलते आज भी ट्रेनिंग अच्छे से नहीं कर पा रही. इसका असर प्रदर्शन पर पड़ता है. जितनी एंडयूरेंस ट्रेनिंग तब कर रही थी, उस सबका असर मेरे शरीर से उस साल भर के दौरान निकल गया. उसे वापस पाने के लिए ही मुझे दो-तीन महीने लगातार कड़ी मेहनत करनी पड़ी. तब यह उपलब्धि हासिल हुई. अगर एक साल का प्रतिबंध नहीं होता तो मैं बहुत पहले ही ओलंपिक में क्वालिफाई कर जाती. ओलंपिक क्वालिफायर ओलंपिक से एक साल पहले शुरू होते हैं. तब ही क्वालिफाई हो जाती. फिर 100 मीटर और 200 मीटर दोनों पर ही ध्यान दे सकती थी.

क्या प्रतिबंध के दौरान भी आप ओलंपिक में जाने के अपने सपने के बारे में सोचा करती थीं?

उस समय तो बस केस के बारे में ही ख्याल आता था कि कब फैसला आएगा. ओलंपिक या दूसरी स्पर्धाओं के बारे में तो सोचना ही छोड़ दिया था क्योंकि मेरा ट्रेक पर जाना प्रतिबंधित था. कमरे में महिलाओं के साथ नहीं रुक सकती थी. यह मानसिक प्रताड़ना से कम नहीं था. ओलंपिक में जाने का मेरा बचपन का सपना तब चकनाचूर-सा हो गया था. लोग मेरे औरत होने पर सवाल उठाकर जो मुंह में आया बकते थे.

17 साल की उम्र में इतना तनाव झेलना, वापस ओलंपिक का सपना पालना, अपर्याप्त समय के अंदर उसे पूरा भी करना, इतनी हिम्मत कहां से मिली?

तब सभी से मुझे बहुत भला-बुरा सुनने को मिला. बस इसी बात से हिम्मत मिलती थी कि मैं सही हूं, मैंने कुछ गलत नहीं किया है. जैसी हूं, भगवान ने बनाया है. बुरे वक्त पर ज्यादा ध्यान न देकर अच्छा वक्त आएगा, यही सोचती थी. खुद के लिए कितना अच्छा कर सकती हूं, इस पर ध्यान देती थी. हमेशा सोचा कि ये मेरी लड़ाई नहीं, देश के लिए खेल रही हूं तो देश की लड़ाई है. जब तक देश खिलाएगा, मैं खेलूंगी. जब देश कहेगा कि तुम नहीं खेल सकती, दौड़ना छोड़ दूंगी. तब दिक्कत नहीं. दुनिया में सभी को जिस तरह जीने का हक है, मुझे भी देश के लिए खेलकर कुछ करने का हक है. और मुझसे वह हक कोई भी बेतुका नियम नहीं छीन सकता. बचपन से लेकर अब तक खेल ने ही मुझे पढ़ाई, नौकरी सब दिया. खेल के बिना मैं नहीं रह सकती थी. इसी हिम्मत के सहारे मैंने केस जीता. फिर सबने कहा, ‘द्युति, केस जीती हो तो कुछ करके भी दिखाओ. भगवान ने कुछ कर दिखाने के लिए जिताया है तो अब क्या कर सकती हो?’ मैंने कहा, ‘अगले साल ओलंपिक है. उस पर ध्यान लगाऊंगी और क्वालिफाई करके दिखाऊंगी.’ जो मैंने बोला, उसे सच करके भी दिखाया.

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खुद को लड़की साबित करने की लड़ाई

साल 2014 में आईएएएफ ने द्युति के दौड़ने पर रोक लगा दी थी. मेडिकल टेस्ट में उनके शरीर में प्राकृतिक तौर पर पुरुषों में पाए जाने वाले हार्मोन टेस्टोस्टेरॉन की अधिकता (हायपरएंड्रोजेनिज्म) पाई गई थी. टेस्टोस्टेरॉन बल और शक्ति बढ़ाने वाला पुरुष प्रधान हार्मोन होता है. विश्व की हर 10 में से एक महिला में इसकी अधिकता पाई जाती है. आईएएएफ की हायपरएंड्रोजेनिज्म पॉलिसी के मुताबिक इस हार्मोन के चलते एक महिला एथलीट को स्पर्धा के दौरान अनुचित लाभ मिलता है और वह अन्य महिला एथलीटों पर बढ़त बना लेती है. द्युति पर जब यह रोक लगी तब वह अपने करिअर के सर्वश्रेष्ठ दौर से गुजर रही थीं और कॉमनवेल्थ गेम्स में पदक जीतने की तैयारियों में जुटी हुई थीं. प्रतिबंध लगते ही भारतीय एथलेटिक महासंघ ने उनका नाम कॉमनवेल्थ गेम्स की टीम से बाहर कर दिया. द्युति को पुरुष बताकर उनके लिंग पर बहस होने लगी. ऐसी स्थिति में खेल में बने रहने के लिए जहां दूसरी महिला खिलाड़ी अपने टेस्टोस्टेरॉन के स्तर को नियंत्रित करने के लिए सर्जरी, हार्मोन थेरेपी आदि का सहारा लेती हैं या अपना करिअर खत्म मान लेती हैं, वहीं द्युति ने इसके खिलाफ लड़ने की ठानी. उन्होंने स्विट्जरलैंड स्थित खेल मध्यस्थता न्यायालय में आईएएएफ के इस फैसले को चुनौती दी. वहां आईएएएफ यह साबित नहीं कर सका कि हायपरएंड्रोजेनिज्म से महिला एथलीटों को खेल के दौरान किसी प्रकार का अनुचित लाभ मिलता है. 27 जुलाई, 2015 को न्यायालय ने द्युति के पक्ष में अपना फैसला सुनाया. उसने आईएएएफ की हायपरएंड्रोजेनिज्म पॉलिसी पर ही दो साल के लिए रोक लगा दी और आदेश दिया कि वह अगले दो सालों के भीतर खेल मध्यस्थता न्यायालय के समक्ष ऐसे तथ्य पेश करे जो उसके दावे को साबित कर सकें. इस प्रकार द्युति ने अपने लिए ही नहीं, विश्व भर की हायपरएंड्रोजेनिज्म की शिकार महिला खिलाड़ियों के लिए लड़ाई जीती. द्युति से पहले भारत की सांथि सुंदरम भी इस तरह की स्थितियों का सामना कर चुकी थीं.[/symple_box]

‘नई पार्टी का गठन रमन सिंह के गांव में इसलिए किया ताकि शेर की मांद में घुसकर उसका शिकार करूं’

सभी फोटो : तहलका आर्काइव
सभी फोटो : तहलका आर्काइव
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तीस साल आपने कांग्रेस में बिताए फिर अचानक से पार्टी से मोहभंग होने का क्या कारण रहा?

किसी से कोई मोहभंग नहीं है. दो भावनात्मक कारणों से मैंने नया दल या नई राह पर चलने का फैसला किया. पहला कारण यह कि मुझे लगता है कि एक बेहद गरीब आदिवासी परिवार में पैदा होकर भी मुझे बहुत कुछ मिला. आईपीएस-आईएएस रहा, इंजीनियर, प्रोफेसर, वकील, राज्यसभा और लोकसभा सांसद रहने के अलावा कांग्रेस के अधिकांश बड़े पदों पर रहा. एक समय मैं पार्टी का इकलौता प्रवक्ता था. मुख्यमंत्री भी रहा. यह सब मुझे छत्तीसगढ़ की धरती से मिला. जहां मैं पैदा हुआ. जहां के लोगों ने मुझे इतना प्यार दिया तो जीवन के अंतिम कुछ वर्ष मैं छत्तीसगढ़वासियों को समर्पित करना चाहता हूं. इसलिए अखिल भारतीय भूमिका को छोड़कर केवल छत्तीसगढ़ पर ध्यान केंद्रित करने की ठानी है. यह तभी संभव था कि अपने नेतृत्व में एक आंचलिक दल का गठन किया जाए, जहां सारे निर्णय मैं ले सकूं और सत्ता हासिल करके वो सब किया जाए जो आज राज्य में नहीं हो रहा है. छत्तीसगढ़ के निर्णय छत्तीसगढ़ में नहीं लिए जाते. धान पैदा करने वाला प्रदेश है यह, एक ही उपज होती है लेकिन समर्थन मूल्य दिल्ली से तय होता है. राज्य की भाजपा सरकार ने घोषणा पत्र में तय किया था कि 2400 रुपये प्रति क्विंटल देंगे पर दिल्ली से 1450 रुपये का भाव तय हो गया. राज्य सरकार को मानना पड़ा. लेकिन जब एक आंचलिक सरकार होगी तो दिल्ली से चाहे जितना तय हो, हम राज्य के लिए जो उचित समझते हैं, अपने बजट से देंगे. इसके लिए जरूरी था कि कांग्रेस और भाजपा के अलावा कोई क्षेत्रीय विकल्प भी राज्य की जनता के सामने हो.

राज्य में एक बांध बन रहा है कोलावरम जिसका पूरा फायदा आंध्र प्रदेश को होगा. हमारे 40,000 आदिवासी विस्थापित होंगे, जिनमें दो ऐसी उपजातियां होंगी जो विलुप्त ही हो जाएंगी. इसका विरोध न भाजपा कर सकती है और न कांग्रेस क्योंकि केंद्र सरकार में रहते हुए दोनों ही दल इस बांध के निर्माण को स्वीकृति दे चुके हैं. लेकिन अगर राज्य में किसी तीसरे दल की सरकार होती तो विरोध कर सकती थी. ऐसे ही झारखंड में बन रहे कनहर बांध से छत्तीसगढ़ के 30-35 हजार आदिवासी प्रभावित होंगे. उसका भी हम विरोध नहीं कर सकते. ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं जिसमें राष्ट्रीय दल से बंधे होने के कारण इन दोनों दलों की स्थानीय सरकारें बहुत-सी चीजों का विरोध नहीं कर पातीं. इसी संदर्भ में नक्सलवाद को भी ले सकते हैं. मेरे कार्यकाल में छत्तीसगढ़ देश का सबसे कम नक्सल प्रभावित राज्य था पर आज सबसे अधिक नक्सली घटनाएं यहीं होती हैं. इन समस्याओं का समाधान कोई आंचलिक पार्टी की सरकार ही कर सकती है.

दूसरा कारण है कि छत्तीसगढ़ संसाधनों की दृष्टि से देश का सबसे धनाढ्य प्रदेश है. खनिज संपदाओं का भंडार और समृद्ध वनक्षेत्र है यहां. छत्तीसगढ़ ‘धान का कटोरा’ भी कहलाता है. बावजूद इसके लाभ विकास के सबसे निचले पायदान पर खड़े गरीब आदिवासी तबके तक नहीं पहुंच रहा है. हमारे संसाधनों की खुली लूट मची है. लोहा, पानी, बिजली, सीमेंट, स्टोन सब कुछ राज्य के बाहर जा रहा है पर हम जहां के तहां हैं. अब यह अडानी ले जाए या कोई और ले जाए, हमको क्या फायदा? अडानी ले जाए कोई दिक्कत नहीं पर वो कुछ ऐसा भी तो करे कि प्रदेश के ढाई करोड़ लोगों का जीवनस्तर सुधरे. कहते हैं कि हमारी जीडीपी बढ़ रही है पर वास्तविकता ये है कि उच्च तबके के 200-300 लोगों को छोड़ दें तो निचले तबके के लोग वहीं के वहीं हैं. नीचे के लोग वहीं के वहीं कायम हैं. सोनिया गांधी को यही दो कारण बताकर मैं कांग्रेस से स्वतंत्र हो गया. इसलिए मोहभंग जैसी स्थिति नहीं है.

आपकी पत्नी रेणु जोगी कांग्रेस से सदन में विपक्ष की उपनेता हैं. क्या ऐसा इसलिए ताकि कांग्रेस में वापसी के रास्ते खुले रहें?

मैं छत्तीसगढ़ के बाहर देखना ही नहीं चाहता. इसलिए किसी भी अखिल भारतीय भूमिका में नहीं रहना चाहता था. नतीजतन मैंने खुद को कांग्रेस से अलग किया. अब वापसी का कोई सवाल ही नहीं उठता. रहा सवाल मेरी पत्नी का तो यह मेरा फैसला है, उनका नहीं. उन्हें तो अाखिर तक मेरे इस फैसले की भनक तक नहीं थी. बाद में इस पर हमारे बीच बहस भी हुई.

सलवा जुडूम तो एक जन विरोधी फैसला था. ये एक बड़ी गलती थी जिसके कारण माओवाद ने राज्य में विकराल रूप धारण कर लिया, यह गांव-गांव तक फैल गया. आज हर गांव में कुछ नक्सली हैं

प्रदेश में नक्सलवाद एक बड़ी समस्या है. इससे निपटने का आपके पास क्या रोडमैप है?

तीन मोर्चों पर नक्सलवाद से एक साथ लड़ना होगा जो वर्तमान सरकार आज नहीं कर रही. पहला है, सामाजिक-आर्थिक मोर्चा. बस्तर का आदिवासी आज इस हालत में है कि वहां सड़क, पानी, बिजली कुछ नहीं है. स्कूल है पर शिक्षक नहीं हैं. अस्पताल है तो डॉक्टर नहीं. मुख्यधारा से वे कोसों दूर हैं. उन्हें लगता है कि वे भारत का अंग ही नहीं हैं. बेरोजगारी और अशिक्षा के चलते अतिवाद तो अपने पैर पसारेगा ही. इसलिए जब नक्सली आते हैं और उन्हें हालात सुधारने का आश्वासन देते हैं तो वे उनकी तरफ आकर्षित हो जाते हैं. पहले तो इस मोर्चे पर जमकर लड़ाई लड़नी होगी. मेरे मुख्यमंत्री रहते हुए सरकार की हर गांव तक पहुंच थी. मैं खुद वहां जाता था. इससे उनका विश्वास बनता था. समाज के लोगों को महसूस होना चाहिए कि वे मुख्यधारा के अंग हैं. लेकिन वर्तमान में आदिवासी ऐसा महसूस नहीं करता. वर्तमान सरकार इस ओर ध्यान न देकर बस बंदूक का मुकाबला बंदूक से करना चाहती है.

दूसरा मोर्चा है- राजनीतिक मोर्चा. नेपाल इसका उदाहरण है. वहां माओवादियों से राजनीतिक स्तर पर चर्चा करके समस्या का समाधान खोजा गया. माओवादी आज वहां प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन रहे हैं. हमारे यहां ऐसी राजनीतिक पहल कतई नहीं होती, न बातचीत की और न ही नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में किसी दूसरी विचारधारा को लाने की. वहां के आदिवासी को एक ही विचारधारा प्रभावित कर रही है, एक्सट्रीमिस्ट लेफ्ट या माओवाद की विचारधारा. उसको कोई ऐसी विचारधारा प्रभावित नहीं कर रही कि लोकतांत्रिक तरीके से भी आगे बढ़ा जा सकता है. ये विचारधारा वहां स्थापित की जाए और संभव हो तो बातचीत के दरवाजे खोले जाएं.

तीन में से सिर्फ एक मोर्चा खुला है, वह है- कानून और व्यवस्था यानी बंदूक का मोर्चा. मेरा मानना है कि यह मोर्चा भी जरूरी है. अगर वो बंदूक में विश्वास रखते हैं तो उसका जवाब तो देना पड़ेगा. पर इसमें भी विफल इसलिए हो रहे हैं कि वहां सुरक्षा बलों को स्थानीय निवासियों का सहयोग नहीं मिल रहा. अगर उत्तर में नक्सली डेरा डाले हुए हैं तो दक्षिण बताया जाता है क्योंकि लोगों में उनके प्रति सहानुभूति है. इसलिए ये मोर्चा खुला रहे पर स्थानीय लोगों का विश्वास भी हासिल करना चाहिए. तब सफलता हाथ लगेगी. जब इन तीनों मोर्चों पर लड़ेंगे तभी स्थितियां बदलेंगी.

सरकार तो कहती है कि सलवा जुडूम नक्सलवाद के खिलाफ स्थानीय लोगों का ही कार्यक्रम था और आप कह रहे हैं कि स्थानीय लोग सुरक्षा बलों की मदद को आगे नहीं आते?

देखिए, सलवा जुडूम का तो मैंने पहले ही दिन से विरोध किया था. कांग्रेस के महेंद्र कर्मा जिन्होंने भाजपा के शासनकाल में सलवा जुडूम की नींव रखी, वे मेरे कार्यकाल में मंत्री हुआ करते थे. मेरे समक्ष उन्होंने कई बार एक नक्सल विरोधी सशस्त्र जनांदोलन चलाने का प्रस्ताव रखा पर मैंने हमेशा उसे खारिज कर दिया. इसी कारण कि आम आदिवासी को एके 47 थमाकर नक्सलवादियों का सामना करने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता. उन्हीं महेंद्र कर्मा ने कम्युनिस्ट पार्टी में रहते हुए ऐसा ही एक जनांदोलन चलाया था. उसके आंकड़े मैंने उन्हें दिखाए कि उस जनांदोलन से जुड़ा कोई भी नेता नक्सलियों ने जीवित नहीं छोड़ा. मैंने समझाया था कि सलवा जुडूम का भी यही हश्र होगा और वही हुआ. मेरे ख्याल से सलवा जुडूम को समर्थन देने वाले 25 प्रतिशत ही नेता जीवित बचे होंगे. इसलिए मैंने छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली तक उसका विरोध किया था. पी. चिदंबरम तब हमारे गृहमंत्री थे. उनके साथ व्यक्तिगत मनमुटाव तक की स्थिति आ गई थी.

सलवा जुडूम के कारण 900 आदिवासी गांवों में कोई इंसानी वजूद नहीं रहा. जो आदिवासी सलवा जुडूम का हिस्सा बने, उन पर नक्सली घात लगाकर वार करते थे. पुलिस तो पूरे 900 गांवों में 24 घंटे रह नहीं सकती. इसलिए सरकार को ज्यादा मुफीद गांव खाली कराना लगा. करीब 900 गांवों के 77 हजार लोगों को विभिन्न कैंपों में बसा दिया. उनसे उनका जल, जंगल और जमीन छिन गया और वे युद्धबंदियों की तरह कैंपों में बसा दिए गए. इसलिए सलवा जुडूम तो एक जन विरोधी फैसला था. अगर सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप न होता तो अब भी यह जारी रहता. भाजपा सरकार कांग्रेसी महेंद्र कर्मा के कंधे पर बंदूक रखकर चला रही थी और खुद को पाक-साफ बताने में लगी थी. महेंद्र कर्मा भी खुश था, ये भी खुश थे. मरता तो बस आदिवासी था. मानवाधिकारों की जमकर अनदेखी हुई. सलवा जुडूम वो बड़ी गलती थी जिसके कारण माओवाद ने राज्य में विकराल रूप धारण कर लिया, गांव-गांव तक वह फैल गया. आज हर गांव में कुछ न कुछ ग्रामवासी नक्सली हैं. शायद ही कोई गांव ऐसा हो जहां इस विचारधारा के लोग न हों.

मैंने इन गांवों में समय बिताया है इसलिए कह सकता हूं कि सुरक्षा बलों के लिए ये पहचानना कि ‘क’ नक्सली है और ‘ख’ नक्सली नहीं, असंभव है. गांववाले भी कुछ नहीं बताते. आदिवासी और नक्सली में भेद ही नहीं कर सकते इसीलिए मारने दो को जाते हैं और मार बीस को आते हैं. इस तरह मानवाधिकार नाम की तो वहां कोई चीज ही नहीं है. हमें लोगों में विश्वास बहाली की जरूरत है ताकि वे नक्सलियों की पहचान में मदद करें. वर्तमान में बस आदिवासी पिस रहा है. नक्सली आकर बोलता है, ‘मुझे खाना खिलाओ’ तो उसे खाना खिलाना पड़ेगा. खाना खाकर जब नक्सली आगे बढ़ जाता है तो पुलिस आती है और पूछती है, ‘उसे क्यों खाना खिलाया?’ अब पुलिस गोली मारेगी. अगर नक्सली को मना करेगा तो वो गोली मारेगा. आदिवासी तो दोनों तरफ से मरा न.

ये लुटेरों और भ्रष्टाचारियों की सरकार है. पिछले 13 साल में प्राकृतिक संसाधनों की बेतहाशा लूट हुई है. भ्रष्टाचार चरम पर है. सड़क, बिजली, पानी जैसी सुविधाएं तक दिखाई नहीं देतीं 

राज्य में आदिवासियों के अधिकारों का जमकर उल्लंघन होता है. उनकी एफआईआर तक नहीं लिखी जाती हैं.

पहली बात तो आदिवासी पुलिस के पास जाने की हिम्मत ही नहीं करता. पुलिस के पास जाएगा तो वह उल्टा मारेगी और नक्सलियों के पास जाएगा तो भी पुलिस आकर मारेगी. नक्सलियों की शिकायत पुलिस से करेगा तो भी नक्सली मारेंगे. वो तो हर क्षण अपनी जान को हथेली पर रखकर जी रहा है. और वही मैंने कहा कि सरकार सिर्फ बंदूक की लड़ाई लड़ रही है, बाकी उसे कुछ नहीं दिख रहा.

छत्तीसगढ़ में पहले भी कई क्षेत्रीय दल बन चुके हैं लेकिन किसी को कोई खास सफलता नहीं मिली.

तब के नेतृत्व और परिस्थितियों में आज के हिसाब से बहुत अंतर है. डॉ. खूबचंद बघेल ने ‘छत्तीसगढ़ भ्रातृ संघ’ बनाया. ठाकुर प्यारेलाल सिंह और पंडित सुंदरलाल शर्मा ने भी ऐसे ही प्रयास किए. और भी ऐसे कई विफल प्रयास हुए. कारण यह रहा कि लंबे समय तक कांग्रेस के साथ आजादी के आंदोलन का माहौल था. कांग्रेस खाली बिजली का एक खंभा खड़ा करके भी जीत सकती थी. इसलिए उस समय क्षेत्रीय दलों के उभरने की संभावना नगण्य थी. एक कोशिश विद्याचरण शुक्ल ने भी की. उन्हें इसलिए विफलता हाथ लगी कि चुनाव के महज छह महीने पहले उन्होंने पार्टी बनाई. छह महीने में क्या होता है, तीन महीने तो टिकट बांटने में लग जाते हैं. उन्होंने एक राष्ट्रीय दल छोड़ दूसरा दल भी राष्ट्रीय बनाया. क्षेत्रीय दल बनाते तो कुछ संभावना बनती. क्षेत्रीयता लोगों को लुभाती है. मैंने चुनाव के ढाई साल पहले पार्टी बनाई है ताकि उसे मजबूत करने के लिए पर्याप्त समय मिले.

नई पार्टी के नाम की घोषणा करने के लिए आपने मुख्यमंत्री रमन सिंह के गांव ठाठापुर काे ही क्यों चुना?

अपने घर में तो कोई भी भीड़ जमा कर सकता है. लोगों में संदेश तब जाता जब मैं मुख्यमंत्री के घर में अपनी लोकप्रियता साबित करूं. शेर की मांद में घुसकर शेर का शिकार करूं. रमन सिंह मेरे ठाठापुर जाने की खबर से सकपका गए. पंद्रह सालों में उन्होंने पहली बार वहां रात बिताई. आसपास के गांववालों से मेरी सभा में न जाने का आग्रह किया. फिर भी अभूतपूर्व भीड़ आई जिससे पूरे राज्य को संदेश गया कि अजीत जोगी, रमन सिंह के घर में सभा करके भी हजारों की भीड़ जुटा सकता है.

वर्तमान में कांग्रेस के कितने विधायकों का आपको समर्थन है?

संख्या तो मैं अभी उजागर नहीं करना चाहता. पर छत्तीसगढ़ का ट्रेंड है कि सिटिंग एमएलए नहीं जीतते. पिछले तीन चुनावों में साठ से सत्तर प्रतिशत सिटिंग एमएलए हारे हैं. पिछले चुनाव में 35 सिटिंग एमएलए को कांग्रेस ने टिकट दिया, 27 हार गए. जो आठ जीते उनमें से दो जोगी थे, वो पार्टी से लड़ें या न लड़ते, उनकी जीत तय थी. मतलब 35 में से केवल छह जीते. इसीलिए विधायकों को मैं खास महत्व नहीं देना चाहता. मैंने विधायकों से साफ कर दिया था कि मैं पार्टी का गठन सरकार बनाने के उद्देश्य से कर रहा हूं और एक भी सीट खोने का जोखिम नहीं लूंगा. इसलिए आपको टिकट मिलने की गारंटी नहीं देता. मुझे जब अंत के छह महीनों में आपके क्षेत्र में आपकी स्थिति मजबूत दिखेगी तभी मैं आपको टिकट दूंगा. वरना निष्कलंक, ईमानदार, लोकप्रिय, उत्साही नए चेहरों पर दांव लगाऊंगा.

अगर राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की बात करें तो आप वर्तमान में उसे कहां खड़ा पाते हैं? उसकी दुर्गति के पीछे क्या कारण रहे?

मैं अब छत्तीसगढ़ के बाहर न देखता हूं, न सुनता हूं, इसलिए कोई टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा. बस इतना जरूर कहूंगा कि तथ्यों को देखिए. उसी से स्थिति स्पष्ट हो जाएगी. आज लोकसभा में केवल 44 सीटें हैं. देश की महज सात प्रतिशत आबादी पर कांग्रेस का राज है, 93 प्रतिशत पर नहीं. इसके बाद पूछने या बताने लायक कुछ रह ही नहीं जाता.

राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर ताजपोशी की बातें होती हैं. आपको लगता है कि वे कांग्रेस को उसका खोया वजूद लौटाने में सक्षम हैं?

मैं किसी पर व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा. इसलिए कोई ऐसी बात नहीं कहना चाहता जिससे लगे कि कोई कड़वापन मेरे मन में है. मैं व्यक्ति विशेष से जुड़े किसी भी प्रश्न पर प्रतिक्रिया देने में असमर्थ हूं. यही कहूंगा कि यह उनका पारिवारिक मामला है, वही लोग तय करें कि क्या सही है.

छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भूपेश बघेल राज्य में पिछले तीन विधानसभा चुनावों में पार्टी की हार का कारण आपको बताते हैं. उनके अनुसार आपके जाने से प्रदेश कांग्रेस मजबूत होगी. आपको क्या लगता है?

तीनों बार हार के कारण अलग रहे और कांग्रेस कभी अन्य राज्यों की तरह भारी अंतर से नहीं हारी. एक प्रतिशत या इससे भी कम वोटों के प्रतिशत से हारी होगी. पिछले चुनाव में 30-35 सिटिंग एमएलए को टिकट नहीं देते तो स्थिति अलग होती. तब मैंने विरोध भी किया था. उन्हें पिछले दो चुनावों के नतीजे भी बताए. फिर पार्टी में जैसे फैसले होते हैं, सबने मिलकर फैसला कर लिया और मेरी बात नहीं सुनी गई. 2003 में जरूर मेरी जवाबदारी थी क्योंकि मैं मुख्यमंत्री था. लेकिन तब पार्टी इसलिए हारी कि नक्सलियों ने 12 विधानसभा सीटों पर मतदाताओं को धमकी दे दी कि अगर वोट डालने गए तो हाथ काट देंगे. लोग वोट डालने नहीं आए फिर भी वहां 75 प्रतिशत वोटिंग हो गई. वास्तव में वोटिंग 30-35 प्रतिशत ही हुई थी. भाजपा ने धांधली की थी. केंद्र में तब उनकी सरकार थी. प्रदेश में केंद्रीय बलों की तैनाती का फायदा उठाकर उन्होंने बाजी मार ली. 90 सीटों का राज्य है, अगर 12 सीटें चली जाएंगी तो आप कैसे जीतोगे?

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कहा जा रहा है कि रमन सिंह और आप साथ हैं और पार्टी का गठन आपने भाजपा को फायदा पहुंचाने और कांग्रेस का वोट काटने के लिए किया है.

रमन सिंह और मेरा नाता जान लीजिए. 2007 में रमन सिंह के निर्वाचन क्षेत्र राजनांदगांव में लोकसभा उपचुनाव था. मैंने अपने प्रत्याशी की बढ़त बना ली थी. प्रचार के दौरान रमन सिंह के इशारे पर एनसीपी नेता राम अवतार जग्गी की हत्या के फर्जी मुकदमे में पुलिस ने मुझे गिरफ्तार कर लिया. राजनांदगांव से रायपुर लाते तब तक अदालत ने मुझे दोषमुक्त कर दिया. एक अन्य मामले में रमन सिंह ने मुझ पर डकैती का आरोप लगवाया. एफआईआर तो दर्ज हो गई. पर जब चार्जशीट फाइल करने से पहले गवाहों को सुना गया तो दूध का दूध और पानी का पानी हो गया.

ऐसा ही एक फर्जी विवाद मेरी जाति को लेकर भी है. मैं आईएएस था, तब मेरी जाति पर किसी ने बात नहीं की. 1986 में कांग्रेस से जुड़ा तो हाई कोर्ट में मेरे खिलाफ याचिका लगाई गई कि मैं आदिवासी नहीं हूं. उसका फैसला मेरे पक्ष में आया. भाजपा फिर जबलपुर हाई कोर्ट पहुंची. पहले सिंगल बेंच ने फिर डबल बेंच ने भी फैसला मेरे पक्ष में सुनाया. 2003 विधानसभा चुनाव के ऐन वक्त आदिवासी आयोग ने मुझे गैर-आदिवासी घोषित कर दिया. आयोग के अध्यक्ष तब भाजपा सांसद दिलीप सिंह भूरिया थे. यह रमन सिंह के इशारे पर हुआ था. मैं इसके खिलाफ अदालत पहुंचा. तब भी फैसला मेरे पक्ष में ही हुआ. रमन सिंह ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. फिर मेरी जीत हुई. मेरे बेटे अमित जोगी पर भी हत्या का एक झूठा मुकदमा चलाया. वह निचली अदालत से बरी हुआ तो रमन सिंह हाई कोर्ट पहुंच गए, वहां से भी बरी हुआ तो सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए. अब भी कहेंगे कि मेरे और उनके बीच सांठ-गांठ है! अगर भाजपा से मेरी दोस्ती होती तो देखिए मुझसे कितना प्यार करते हैं.

हाल ही में मैंने अगस्ता वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर घोटाले की जांच कर रहे ईडी और सीबीआई को चिट्ठी लिखी है. रमन सिंह ने भी वही हेलीकॉप्टर खरीदे हैं और उसी आरोपी शख्स से खरीदे हैं. इसके सबूत देते हुए मैंने रमन सिंह व उनके बेटे को घोटाले में अभियुक्त बनाने की मांग की है. यह किसी दोस्ती का प्रमाण नहीं है. अगर दोस्ती का प्रमाण चाहिए तो छत्तीसगढ़ सदन में विपक्ष के कांग्रेसी नेता टीएस सिंहदेव, भूपेश बघेल और रमन सिंह की दोस्ती के लीजिए. 2003 से भूपेश बघेल पर भ्रष्टाचार के चार मुकदमे चल रहे हैं. अब तक रमन सरकार ने एक में भी चार्जशीट दाखिल नहीं की. वहीं टीएस सिंहदेव को अंबिकापुर में 150 से 200 करोड़ रुपये की 53 एकड़ जमीन गलत तरीके से आवंटित की गई है. ये मिले-जुले हैं या हम लोग मिले-जुले हैं?

वादा है कि सारे फैसले रायपुर से होंगे. केंद्र के फैसले हम खुद पर नहीं लादने देंगे. संसाधनों की लूट को रोकेंगे. संसाधन बाहर जा रहे हैं तो उसका लाभ प्रदेश को हो, ऐसा सुनिश्चित करेंगे

रमन सिंह से आपकी साठ-गांठ साबित करने के लिए अंतागढ़ उपचुनाव के टेपकांड की दलील दी जाती है.

जिस टेप का उल्लेख ये लोग करते हैं, उसमें जिस व्यक्ति से बातचीत है उसी व्यक्ति से भूपेश बघेल की बातचीत का एक और टेप है जिसमें भूपेश कह रहा है कि अजीत जोगी का इस तरह का टेप बनाकर दो, मैं तुम्हें दो करोड़ रुपये दूंगा और कांग्रेस पार्टी में महामंत्री बनाऊंगा. ये टेप हमारे तथाकथित टेप से पहले का टेप है. भूपेश बघेल ने भी स्वीकारा है कि टेप में उन्हीं की आवाज है. मैंने मामले में खुलासा करने वाले अंग्रेजी अखबार के खिलाफ अदालत में अवमानना का मुकदमा किया है. वो केस तो हम जीतेंगे ही, साथ ही अब भूपेश बघेल को भी मामले में अभियुक्त बनाने की अर्जी दी है. पहले कांग्रेस का हिस्सा होने के कारण मेरे हाथ बंधे थे, वह प्रदेश अध्यक्ष था.

वर्तमान राज्य सरकार के कामकाज को किस तरह देखते हैं?

ये लुटेरों और भ्रष्टाचारियों की सरकार है. पिछले 13 साल में प्राकृतिक संसाधनों की बेतहाशा लूट हुई है. भ्रष्टाचार चरम पर है. मेरे समय में 4 हजार करोड़ के सालाना बजट में सरकार चल रही थी, आज 73 हजार करोड़ का बजट है. फिर भी सड़क, बिजली, पानी जैसी सुविधाएं तक दिखाई नहीं देतीं. शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं. किसी को परवाह नहीं. सब अपना हिस्सा बटोरने में लगे हैं. इसलिए ये नए दल के गठन का सबसे उचित समय था. जनता का मन बन गया है इस सरकार को उखाड़कर फेंकने का. पर उन्हें कोई विकल्प नहीं दिख रहा था, अब हमारी पार्टी ही विकल्प है.

कहा जा रहा है कि आपने पार्टी का गठन कांग्रेस से निष्कासित अपने बेटे अमित जोगी को स्थापित करने के लिए किया है.

निष्कासित तो वो बहुत पहले हो गया था और मैं चाहता तो वो बहाल भी हो जाता. मुझे बार-बार कांग्रेस की अंतरिम कमेटी के सामने उसे बुलाने को कहा भी गया. पर मैं ही तैयार नहीं हुआ. प्रश्न स्वाभिमान का था. प्रदेश कांग्रेस ने अमित का पक्ष जाने बिना ही उसे पार्टी से निकाला तो बिना बुलाए ही वापस लेना था. मेरी पार्टी के गठन का अमित से कोई लेना-देना नहीं है.

एक नई पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर जनता से क्या वादे करते हैं?

फिलहाल दो ही वादे करूंगा. पहला, राज्य के सारे फैसले रायपुर से होंगे. केंद्र के फैसले हम खुद पर नहीं लादने देंगे. संसाधनों की लूट को रोकेंगे. अगर हमारे संसाधन बाहर जा रहे हैं तो उसका लाभ प्रदेश की ढाई करोड़ आबादी को हो, ये सुनिश्चित करेंगे. देश की सबसे अमीर धरती के लोगों का सबसे गरीब होना विरोधाभास है.

रज्जाक भाई! आपका बहुत-बहुत शुक्रिया, मुझे मेरी ईदी देने के लिए…

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इलस्ट्रेशनः तहलका अार्काइव

ईद के दिन छुट्टी होती है लेकिन निजी क्षेत्रों में काम करने वालों को ये सौभाग्य कहां मिलता है. उस दिन मुझे एक जरूरी बिजनेस मीटिंग के लिए गाजियाबाद जाना था. दिन के करीब 11 बजे मैं गाजियाबाद पहुंचा. वहां एक वरिष्ठ साथी अपनी कार से आए. वे कार से बाहर निकले और हमारी बातचीत शुरू हो गई. इस दौरान मैंने अपना स्मार्ट फोन कार की छत पर रख दिया. थोड़ी देर बाद हम कार में बैठ गए और बातचीत में तय हुआ कि मेरे वरिष्ठ साथी मीटिंग में अकेले जाएंगे और मुझे उनका इंतजार गाजियाबाद ऑफिस में ही करना है.

इसके बाद कार से निकलकर मैं ऑफिस की ओर बढ़ चला. थोड़ी देर बाद अहसास हुआ कि मैं अपना फोन गंवा चुका हूं. लेकिन मुझे लगा कि मैंने फोन कार में छोड़ा होगा. मैंने फेसबुक पर अपने साथी को मैसेज छोड़ा लेकिन उनका कोई जवाब नहीं आया. घंटे भर बाद मैंने अपने नंबर पर फोन किया तो वह स्विच ऑफ मिला. इसके बाद मेरी चिंता थोड़ी बढ़ गई. हालांकि उस वक्त मैं यह भी तय नहीं कर पा रहा था कि मेरा फोन खो गया था या नहीं. मैंने याददाश्त को झकझोरा लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. मैंने कई बार अपने नंबर पर फोन मिलाया पर वह स्विच ऑफ रहा. अब मुझे यकीन हो गया कि फोन खो गया था.

तनाव हावी हो रहा था क्योंकि इस महीने की तनख्वाह रूम के किराये और छोटी बहनों की स्कूल-कोचिंग फीस में खर्च हो चुकी थी. अब नए फोन के लिए पैसे बचे नहीं थे. एक अजीब-सी उदासी पसर रही थी. आज के समय में स्मार्ट फोन खोने का अपना दुख होता है. पूरा दिन निकल चुका था, शाम सात बजे घर पहुंचा लेकिन किसी को कुछ बताया नहीं. तभी छोटी बहन का फोन बजा, उस तरफ छोटा भाई था. उसने बताया कि मेरा फोन नोएडा सेक्टर 62 के किसी शख्स के पास है और वह उसे लौटाना चाहता है. उसका फोन कटते ही दोस्त बृजेश का फोन आया. वह एक सांस में बोलता चला गया, ‘कहां हो तुम, तुम्हारा फोन खो गया है. एक लड़का तुम्हारा फोन वापस करने के लिए आधे घंटे से खड़ा है. जाकर ले लो नहीं तो वो चला जाएगा.’

मेरा दिन जिस तरह से तनावग्रस्त था वह रात उतनी ही खुशनुमा हो गई थी. ईद पर मैंने जमकर सेवइयां खाईं और डिस्को गया

मैंने पूछा लड़का कहां है, मेरी उससे बात कैसे हो पाएगी. पता चला कि वह नोएडा सेक्टर 12-22 में एक मिठाई की दुकान के पास खड़ा है और जल्दी में है क्योंकि उसे किसी पार्टी में जाना था. दरअसल, शाम के 8 बज चुके थे. जिनके पास मेरा फोन था उन्होंने मेरे कई दोस्तों को फोन करके इस बारे में जानकारी दे दी थी. इस वजह से मुझे कहां जाकर उनसे मिलना है, इसे लेकर थोड़ा कन्फ्यूजन हो गया था. इसी कन्फ्यूजन में मेरी एक दोस्त दीपाली फोन लेने सेक्टर 62 पहुंच भी चुकी थी. बहरहाल मैं छोटी बहन का फोन साथ लिए सेक्टर 12-22 भागा. वहां पता चला कि उस मिठाई की दुकान की चार शाखाएं हैं. मैंने फोन लगाया तो उन्होंने एक एटीएम के पास वाली मिठाई की दुकान पर खड़े होने की बात कही. मैं वहां पहुंचा पर उनसे मुलाकात नहीं हो पाई. एटीएम के अंदर जाकर कुछ लोगों से पूछ डाला, ‘हाय, मैं जनार्दन, क्या आप मेरा फोन लौटाना चाहते हैं?’ पसीने से तरबतर बनी हुई शक्ल और ऐसे सवाल की वजह से लोग मुझे पागल समझ रहे थे. मैंने फिर उन्हें फोन लगाया और उसी के साथ उस फोन का बैलेंस भी खत्म हो चुका था. जल्दबाजी में बटुआ लाना भी भूल गया था. अजीब असहायों जैसी स्थिति हो गई थी. कुछ लोगों से एक कॉल करने का आग्रह भी किया लेकिन जवाब मिलता कि बैलेंस नहीं है.

कुछ देर की मशक्कत के बाद एक युवक ने मेरी मदद की. मैंने उस शख्स को फिर कॉल किया तो उन्होंने कहा, ‘भाई, तुझे फोन लेना है तो बता. कब से खड़ा हूं, तू आ ही नहीं रहा.’ खैर इसके बाद मेरी उनसे मुलाकात हुई. मेरा फोन मेरे हाथ में था और मैं उन्हें धन्यवाद दे रहा था. उनसे गले लगा और पूछा, ‘आपके लिए क्या कर सकता हूं?’ इस पर वे बाइक पर बैठते हुए बोले, ‘भाई, ईद की पार्टी में जा रहा हूं, तुझे चलना हो तो बता.’ उस शख्स का नाम रज्जाक है. फोन मिलने के बाद मैं उनके साथ ही चला गया. जमकर सेवइयां खाईं, कई और दोस्त मिल गए. सबको गले गलाया और फिर एक डिस्कोथेक गए. मेरा दिन जिस तरह से तनावग्रस्त था वह रात उतनी ही खुशनुमा हो गई थी. रज्जाक भाई, बहुत-बहुत शुक्रिया, मुझे मेरी ईदी देने के लिए.

लखनऊ का मतलब सिर्फ नवाब नहीं बल्कि कहार और ब्रास बैंड वाले भी हैं : नदीम हसनैन

NadeemHasnainWEB

लखनऊ पर जितनी किताबें हैं उतनी हिंदुस्तान के बहुत कम शहरों पर लिखी गई हैं. इन सबके बीच आपकी किताब किस तरह से अलग है?

दिल्ली और कलकत्ता जैसे शहरों के बारे में जो लिखा गया है उन्हंे मैंने उतनी गहराई से नहीं पढ़ा है. मगर यह काम चूंकि मैं एक रिसर्च प्रोजेक्ट के तहत कर रहा था तो लखनऊ पर जो भी अहम लिखा गया है मैंने उसे पढ़ा है. यह किताब शोध का नतीजा है, कमरे में बैठकर कुछ सोचते हुए नहीं लिख दी गई. जब मैं इसकी आउटलाइन बना रहा था तब मेरे दिमाग में सबसे ज्यादा जो चीज घूम रही थी वह यह थी कि आज का जो लखनऊ है वह एक थका हुआ लखनऊ है. एक मरीज की तरह जिंदगी के लिए तरस रहा है. वह यह तो कह रहा है कि हम जो बदलाव हैं उनके साथ समझौता करने को तैयार हैं लेकिन हमारे अतीत को बिल्कुल दफन न करो. मैंने लखनऊ के बारे में इसके पहले जितना भी पढ़ा मेरे दिमाग में एक बड़ा प्रोटेस्ट जैसा होता था कि क्या लखनऊ का मतलब सिर्फ नवाब या पैलेस कल्चर या उनकी बेगमात या उनकी मुताही बीवियां या उनकी अय्याशियां या बटेरबाजियां ही हैं. क्या लखनऊ में सिर्फ यही सब था? या बहुत ज्यादा अगर कोई आगे बढ़ा तो उसने वाजिद अली शाह ने किस तरह इस शहर में एक सेकुलर कम्पोजिट कल्चर को जन्म दिया उस पर लिखा. क्या महलों के बाहर लखनऊ नहीं था? और लखनऊ था अगर तो आपने उस पर कुछ लिखने की जरूरत क्यों नहीं समझी? पैलेस कल्चर, नवाबी दौर के स्मारक, 1857 का गदर और खान-पान… इन्हीं पर ज्यादातर लिखा गया. इस वजह से दूसरी महत्वपूर्ण चीजें छूट गईं. इस किताब में उसी ‘अदर लखनऊ’ पर लिखने की कोशिश है.

तो आपके इस ‘अदर लखनऊ’ में कौन-कौन है?

बहुत सारे लोग हैं. बहुत सारी चीजें हैं जिन पर उस तरह नहीं लिखा गया जैसे लिखा जाना चाहिए था. मिसाल के तौर पर कहार मुझे हमेशा याद रहते हैं. इसलिए कि पचास के दशक में मेरी मां डोली से आती-जाती थीं. ये बहुत अहम लोग हैं. अच्छी-खासी आबादी है इनकी पर कभी कुछ नहीं लिखा गया. जो ब्रास बैंड प्लेयर है, वह बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना है. उस वक्त खुद उसकी जिंदगी में कितने गम हैं जब वो दूसरे की शादी में झूम-झूमकर बैंड बजा रहा है. लखनऊ की बात करते हुए हमको इन्हें भी याद रखना होगा. जो कनमैलिए और मालिशिए यहां आज भी दिख जाते हैं, उनके बारे में भी जानने की कोशिश करनी होगी. यहां के फेरी वाले दूसरी जगहों से एकदम अलग हैं… गस्साल और गोरकन (मुर्दे को गुस्ल देने वाला और कब्र खोदने वाला) इनके बिना क्या आपका काम चल सकता है? लखनऊ के समाज में इनका क्या दखल है इस पर भी बात होनी चाहिए. ये जो तमाम लोग हैं ये भी तो लखनऊ को बनाते हैं, इनके बारे में क्यों नहीं लिखा गया? इसके अलावा कला, संस्कृति और समाज से जुड़े बहुत सारे विषयों पर लिखा गया है. इसके अलावा एक महत्वपूर्ण बात मैं ये जोड़ दूं कि लखनऊ को लेकर जो ‘मुस्लिम-नेस’ है वह हमेशा बहुत हावी रही है, जिसमें शिया सबसे ऊपर रहे हैं, शायद इसलिए कि सत्ता यहां शियाअों की रही. मेरे दिमाग में ये भी था इसलिए जब मैंने इस किताब के लिए लेखिका सैंडि्रया फ्रिटैग से लखनऊ का सांस्कृतिक इतिहास लिखने को कहा तो मैंने खास तौर पर उनसे फरमाइश की थी कि मुझे लखनऊ का राजनीतिक इतिहास नहीं चाहिए. नवाबों का सत्ता संघर्ष, षडयंत्र, वो चालबाजियां, ये सब मुझे नहीं चाहिए. मुझे यह बताइए कि लखनऊ में किस तरह के सांस्कृतिक तंत्र विकसित हुए? उसकी वजहें क्या थीं? उन्होंने एक अलग नजरिये से बहुत ही उम्दा लेख लिखा है. पिछले दस-पंद्रह साल में लखनऊ में हुए विकास को अब तक किताबों में नहीं शामिल किया गया है, जैसे दलित कल्पनाओं का जो अध्याय मैंने लिखा है वह एकदम नई चीज है.

आपकी किताब पढ़ते हुए लखनऊ पर लिखी गई दो मशहूर किताबों की याद आती है- अब्दुल शरर की गुजि्शता लखनऊ और कदीम लखनऊ की आखिरी बहार. इन पर क्या राय है?

कदीम लखनऊ की आखिरी बहार तो मेरी बेहद पसंदीदा किताब है. उसमें जाफर हुसैन साहब के जो निजी तजुर्बे और किस्से हैं वे उस किताब को बहुत समृद्ध बना देते हैं. मैंने अपनी किताब में भी कुछ निजी अनुभवों के जरिए ऐसा ही करने की कोशिश की है. पर एक रिसर्च प्रोजेक्ट पर काम करते हुए इसकी गुंजाइश बहुत ज्यादा नहीं थी. हालांकि निजी अनुभवों और किस्सों को डालने से कई जगहों पर पूर्वाग्रह आ जाने अथवा तथ्यात्मक तौर पर गलत हो जाने का खतरा भी रहता है, मगर जाफर हुसैन की किताब की सबसे बड़ी खूबी ये है कि लखनऊ के समाज पर लिखते हुए वो उस सेक्टेरियन बायस (सांप्रदायिक पूर्वाग्रह) यानी शिया-सुन्नी से मुक्त रहे जिसका शिकार लखनऊ पर लिखने वाले ज्यादातर लेखक आज भी हो जाते हैं. एक बात ये कि शरर और जाफर हुसैन की किताब को एक-दूसरे के समानांतर न रखकर एक-दूसरे के साथ समझा जाना चाहिए क्योंकि शरर जाफर हुसैन से पहले की बात कर रहे हैं. अगर ऐसा करेंगे तो पूरे सौ-डेढ़ सौ बरस की चीजें हमको मिल जाती हैं. तो पहले शरर को पढ़ना चाहिए और फिर जाफर हुसैन को.

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लखनऊ में हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियां इस तरह घुलमिल गईं कि एक नई संस्कृति बनी जो न मुस्लिम है, न हिंदू. ये दोनों जहां मिलते हैं लखनवियत वहां से शुरू होती है. मगर लखनऊ पर लिखते वक्त एक चुनौती हमेशा रहती है कि उच्च वर्गीय मुस्लिम कल्चर या उसमें भी शिया कल्चर इतना उभरकर आता है कि बाकी चीजें दब जाती हैं. आपने इसे कैसे देखा?

ये बात सही है. इसलिए कि पुराने लिखने वालों की जो ‘मुस्लिमनेस’ थी वो ज्यादा थी या शायद उस जमाने में वो कल्चर सत्ता की वजह से ज्यादा प्रभावी भी था. खास तौर पर शियाओं की दुनिया में अवध को एक केंद्रीयता हासिल थी. तो लिखने वाला इस बात से एकदम बाहर नहीं निकल सकता था. मैं इसलिए लिख पाया कि हमारे वक्त के लोग शायद उस जादू से निकल चुके थे या उनके दौर में वो जादू नहीं बचा था. हमारी सोच भी पहले वालों से अलग थी. तब हाशिये के लोगों पर लिखने का रिवाज ही नहीं था. तो हमारी या हमसे बाद की पीढ़ी ने लखनऊ को उस वक्त देखा जब लखनऊ बिल्कुल बदल चुका था. इस दौर में लखनऊ की मुस्लिमनेस बहुत हद तक हल्की हो गई थी और एक नया का लखनऊ आ चुका था जिसमें पुराने दौर के लखनऊ की निशानियां पुराने लखनऊ में ही सिमट गई थीं. जैसा हैदराबाद में हुआ. लखनऊ के मामले में फर्क यह है कि यहां का नॉस्टेल्जिया हैदराबाद या दिल्ली से काफी मजबूत है. उसकी कई वजहें हो सकती हैं. दिल्ली तो कल्चरल एम्नीशिया (सांस्कृतिक भुलक्कड़ी) का शहर हो चुका है. वो अपने पुराने वैभव के बारे में सबकुछ भूल चुका है. अब एक बिजनेस की तरह उसे हैरिटेज वॉक वगैरह करके बाजार की मदद से रिवाइव किया जा रहा है. लखनऊ में अब भी हालात उतने खराब नहीं हुए हैं.

अगर हम चाह भी लें तो क्या संस्कृति को बदलने से रोका जा सकता है?

नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. बदलाव नहीं रोका जा सकता. सांस्कृतिक बदलाव तो होगा ही. आप यूं समझिए कि हम नई चीजों को अपना रहे हैं. नई संस्कृति, नया फैशन मगर उसके साथ ही हम अपने अतीत की अहमियत भी समझ रहे हैं, दूसरों को समझा रहे हैं. बीच-बीच में हम रिवायती चीजों पर भी तवज्जो दे रहे हैं. तो इस तरह से सांस्कृतिक ह्रास को कम किया जा सकता है. लेकिन इसके लिए हमें बहुत प्रतिबद्धता और संजीदगी से काम करना होगा.

इस तरह के रिवाइवल में एक खतरा ये रहता है कि हम अतीत की बहुत-सी बुराइयों या बेकार चीजों को भी महिमामंडित करने लगते हैं, हो सकता है कि नवाबी दौर में वो उपयोगी रही हों मगर आधुनिक समाज में उनका महिमामंडन कैसे किया जा सकता है?

ये बिल्कुल सही बात है. ये बहुत बड़ी मगर बहुत आम समस्या है. ये समस्या उन लोगों के साथ आती है जो किसी शहर को सिर्फ उसकी सामंती विरासत से जोड़कर देखते हैं. अच्छे-बुरे का चुनाव करना नहीं जानते. हैं. ये शहर को समग्रता में नहीं देख पाते. लखनऊ का दुर्भाग्य यही है. इसमें मैं सबसे ज्यादा दोष लेखकों को ही देता हूं. वे लखनऊ के कोठों, मुर्गबाजी, बेशुमार निकाहों को महिमामंडित कर रहे, इसके दूसरे पक्ष पर कुछ नहीं लिख रहे. इससे ये चीजें नई पीढ़ी के दिमाग में और मजबूत होती हैं. वो समझता है सिर्फ यही लखनऊ है. अरे कुछ और भी तो लखनऊ था न, मैंने उसी लखनऊ पर लिखने की कोशिश की है.

अनिल कुंबले : चुनौतियां ज्यादा, समय कम

All Photos : BCCI
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अनिल कुंबले के नाम के जिक्र के साथ ही उनसे जुड़ी उपलब्धियां आंखों के सामने तैर जाती हैं. यह पूर्व लेग स्पिनर भारत का सर्वकालिक सफल गेंदबाज है. इंग्लैंड के जिम लेकर के बाद वे पारी के सभी दस विकेट चटकाने का अद्भुत कारनामा करने वाले विश्व के दूसरे और भारत के इकलौते गेंदबाज हैं. उन्हें 2002 में एंटीगुआ में वेस्टइंडीज के खिलाफ खेले टेस्ट मैच के लिए भी याद किया जाता है जब वे टूटे जबड़े के साथ मैदान पर गेंदबाजी के लिए उतर आए थे. 2008 में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट को अलविदा कहने वाले कुंबले आज फिर से भारतीय क्रिकेट टीम के ड्रेसिंग रूम का हिस्सा बन गए हैं. लेकिन इस बार एक नई और पहले से कहीं बड़ी जिम्मेदारी के साथ. एक लंबी चयन प्रक्रिया के बाद पिछले दिनों भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) ने अनिल कुंबले को अगले एक साल के लिए टीम का नया कोच नियुक्त किया है. उन्होंने अपना पदभार संभाल लिया है. वे टीम के साथ वेस्टइंडीज दौरे पर अपनी पहली चुनौती का सामना कर रहे हैं. क्रिकेट के तीनों प्रारूपों में भारत को विश्व की नंबर एक टीम बनाने का सपना साकार करने में जुटे कुंबले के सामने कई चुनौतियां हैं लेकिन उनके पास उनसे पार पाने के लिए समय शायद कम है.

कोच के तौर पर कुंबले के साथ केवल एक साल का करार किया गया है ताकि उनकी काबिलियत को परखा जा सके. बीसीसीआई अध्यक्ष अनुराग ठाकुर कहते हैं, ‘इस एक साल के दौरान कुंबले को एक महान खिलाड़ी से एक महान कोच में खुद को ढालना है, ऐसी हम उम्मीद करते हैं. यह एक पेशेवर नियुक्ति है और ऐसी नियुक्तियां सभी संभावनाओं को ध्यान में रखकर की जाती हैं. कुंबले अब टीम ड्राइविंग की सीट पर हैं और एक साल के लिए हम उन्हें चाबी दे चुके हैं. अब उन्हें खुद को साबित करना है.’

इस एक साल के दौरान भारत को कुल 17 टेस्ट (चार वेस्टइंडीज में और 13 भारत में), घरेलू जमीन पर ही आठ एकदिवसीय और तीन टी-20 मैच खेलने हैं, साथ ही जून में इंग्लैंड में होने वाली चैंपियंस ट्रॉफी में भी भाग लेना है. लेकिन यहां गौर करने वाली बात यह है कि कुंबले पर भरोसा इसलिए जताया गया कि वे विदेशी जमीन पर भारतीय टीम को जीत दिला सकें. वहां भारतीय स्पिनरों के लचर प्रदर्शन को सुधार सकें. क्रिकेट सलाहकार समिति (सीएसी) के सामने कुंबले ने टीम के भविष्य की तैयारियों को लेकर जो प्रस्तुति दी, उसमें भी इसी बात पर जोर दिया कि कैसे गेंदबाजी के क्षेत्र में टीम को मजबूत बनाया जाए और युवा खिलाड़ियों को अंडर-19 स्तर से ही इस तरह तैयार किया जाए कि वे भविष्य में देश के लिए घरेलू पिचों पर ही नहीं, बाहरी पिचों पर भी निरंतर उम्दा प्रदर्शन कर सकें. उनका ज्यादातर जोर इसी बात पर रहा कि उपमहाद्वीपीय परिस्थितियों के बाहर टीम के प्रदर्शन को सुधारा जा सके, जो टीम की सबसे कमजोर पक्ष रहा है.

उपमहाद्वीप से बाहर की परिस्थितियों से तालमेल बिठाने में कुंबले भी अपने शुरुआती करिअर में जूझते नजर आए थे. उन्हें घरेलू शेर बताया जाता था

लेकिन उनके एक साल के कार्यकाल के दौरान टीम भारत के बाहर चार टेस्ट मैच ही खेलने वाली है. वह भी टेस्ट क्रिकेट में आठवें पायदान की उस कमजोर वेस्टइंडीज के खिलाफ जिससे 2002 के बाद से भारत कभी कोई द्विपक्षीय सीरीज नहीं हारा है. इसलिए कैरेबियाई दौरे पर शायद ही भारत को किसी चुनौती का सामना करना पड़े. इसके अलावा भारत को बांग्लादेश के खिलाफ एक टेस्ट, न्यूजीलैंड के खिलाफ तीन टेस्ट और पांच एकदिवसीय, इंग्लैंड के खिलाफ पांच टेस्ट और तीन एकदिवसीय व तीन टी-20 और ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ चार टेस्ट मैचों की मेजबानी करनी है. अगर घरेलू मैदानों पर टीम के पिछले छह सालों के प्रदर्शन पर नजर डालें तो टीम ने कुल 26 टेस्ट मैच खेले हैं जिनमें से 18 में उसे जीत मिली, तीन में हार और बाकी ड्रॉ रहे हैं. वहीं पिछले दस टेस्ट से भारत अपराजित रहा है, इन 10 में से 9 मुकाबले बड़े अंतर से जीते गए हैं. इस दौरान उसने विश्व की चोटी की टीम दक्षिण अफ्रीका को जहां चार मैचों की सीरीज में 3-0 से पराजित किया तो वहीं मजबूत ऑस्ट्रेलियाई आक्रमण का 4-0 से सूपड़ा साफ कर दिया. वेस्टइंडीज और न्यूजीलैंड ने दो-दो टेस्ट मैचों की सीरीज खेली और उन्हें भी ह्वाइटवॉश झेलना पड़ा. केवल इंग्लैंड ही रहा जो अपनी इज्जत बचा सका और 2012 में 4 मैचों की टेस्ट सीरीज 2-1 से अपने नाम की. घरेलू मैदानों पर भारत के इस वर्चस्व में सबसे बड़ा योगदान भारतीय गेंदबाजी की ताकत उस स्पिन आक्रमण का रहा जो विदेशी मैदानों पर जाकर फिसड्डी साबित होता है. इंग्लैंड अगर सीरीज अपने नाम कर सका तो सिर्फ इसलिए कि उसकी ग्रीम स्वान और मोंटी पनेसर की स्पिन जोड़ी भारतीय स्पिनरों से बीस साबित हुई.

इसलिए बांग्लादेश, न्यूजीलैंड, इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया अपने आगामी भारत दौरे पर घरेलू जमीन पर भारत के वर्चस्व को चुनौती दे पाएंगे, ऐसा असंभव ही है. न्यूजीलैंड 1955 से ही आज तक भारत में कोई टेस्ट सीरीज नहीं जीत सका है और 1988 से पहली टेस्ट जीत के लिए तरस रहा है. ऑस्ट्रेलिया का भी यही हाल है, उसने 2004 के बाद से भारत की जमीन पर कोई टेस्ट मैच नहीं जीता है. एकदिवसीय में न्यूजीलैंड ने 1975 से अब तक भारत की जमीन पर कोई सीरीज अपने नाम नहीं की है. अब तक खेले कुल 27 में से 21 मुकाबलों में उसे यहां पटखनी खानी पड़ी है. वहीं इंग्लैंड भी 1985 के बाद से भारत में कोई एकदिवसीय सीरीज नहीं जीत सका जबकि पिछली तीन में से दो सीरीज में उसे व्हाइटवॉश का सामना करना पड़ा है. भारत में जीत के लिए जरूरी है विश्वस्तरीय स्पिन आक्रमण का होना और भारतीय दौरे पर कुंबले के एक साल के कार्यकाल के दौरान आने वाली किसी भी टीम के पास एक नियमित स्पिन गेंदबाज तक नहीं है. इसलिए भारत को अपनी जमीन पर तो कोई चुनौती मिलने वाली नहीं. कुंबले की अगर असली अग्निपरीक्षा होगी तो जून 2017 में इंग्लैंड में खेली जाने वाली चैंपियंस ट्रॉफी में, जहां भारत के सामने अपना खिताब बचाने की चुनौती होगी. इसके अलावा कुंबले का कार्यकाल बिना किसी चुनौती के ही बीतेगा. बतौर कोच उनकी काबिलियत अगर परखी जानी थी तो यह सिर्फ विदेशी दौरों पर ही संभव था. फिर कुंबले की काबिलियत कैसे परखी जाएगी यह एक बड़ा सवाल है.

वर्तमान में जितने भी तेज गेंदबाज भारतीय टीम का हिस्सा हैं या टीम से अंदर-बाहर होते रहे हैं, सभी दाएं हाथ के तेज गेंदबाज हैं

इसलिए इस लिहाज से तो कुंबले का एक साल चुनौतीपूर्ण नहीं रहने वाला और पूरा संभव है कि अगले साल उनका कार्यकाल बढ़ा दिया जाएगा. सीएसी के समक्ष दी गई कुंबले की प्रस्तुति से भी लगता है कि वे टीम के साथ एक लंबी पारी खेलने आए हैं. जहां उन्होंने एक लघुकालीन योजना के साथ 2019 विश्वकप तक की एक दीर्घकालीन योजना भी पेश की. हालांकि क्रिकेट विशेषज्ञों की नजर में जिन चुनौतियों का सामना कुंबले को करना है और जिन पर सबकी नजर रहेगी, उनका विश्लेषण जरूरी है.

विदेशी धरती पर अच्छा करने की चुनौती

पिछले पांच सालों में टीम का भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर टेस्ट क्रिकेट में लचर प्रदर्शन रहा है, जिसकी मुख्य वजह भारत की कमजोर गेंदबाजी रही. भारत की गेंदबाजी की ताकत स्पिनर रहे हैं लेकिन इस दौरान उनका प्रदर्शन औसत से भी निचले दर्जे का रहा. कुंबले को प्राथमिकता देने का कारण यही रहा कि विदेशी दौरों पर भारतीय स्पिनरों का प्रदर्शन सुधारा जा सके. 2011 से उपमहाद्वीप के बाहर खेले गए 21 टेस्ट मैचों में से महज एक मैच में भारत ने जीत का स्वाद चखा है और 16 में उसे हार मिली है, जो इस बात की पुष्टि करता है कि टीम की तैयारियों में कहीं तो खामियां हैं. कुंबले के सामने चुनौती है कि वे इन खामियों को दूर करें.

सीमित ओवर क्रिकेट के प्रदर्शन में अस्थिरता

2011 विश्वकप जीत के बाद से ही एकदिवसीय और टी-20 के मुकाबलों में टीम का प्रदर्शन स्थिर नहीं रहा है. टीम अहम मौकों पर जाकर चूक रही है. अगर 2013 में जीते चैंपियंस ट्रॉफी के खिताब को छोड़ दिया जाए तो पांच साल के दौरान टीम ने कोई भी बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं की है. 2012 के टी-20 विश्वकप में उसका प्रदर्शन निराशाजनक रहा, 2014 के टी-20 विश्वकप का फाइनल और 2015 के एकदिवसीय विश्वकप का सेमीफाइनल जरूर खेला लेकिन अहम मौकों पर मुंह की खानी पड़ी. ऑस्ट्रेलिया में टी-20 सीरीज में ऑस्ट्रेलिया को ह्वाइटवॉश जरूर किया लेकिन एकदिवसीय में शर्मनाक प्रदर्शन रहा. इंग्लैंड और वेस्टइंडीज में सीरीज अपने नाम की तो वहीं बांग्लादेश जैसी टीम से सीरीज में हार का मुंह देखना पड़ा. पिछले साल मजबूत अफ्रीकी टीम से घरेलू सीरीज गंवाई. 2016 का टी-20 विश्वकप भारत में आयोजित हुआ, पूरी उम्मीद थी कि 2011 की तरह ही भारत यह खिताब भी अपने नाम करेगा लेकिन फिर सेमीफाइनल में वेस्टइंडीज से हारकर सीरीज से बाहर हो गया. आखिर क्यों अहम मौकों पर भारतीय टीम चूक रही है? इसका जवाब भी कोच के तौर पर अनिल कुंबले को ही खोजना होगा. भारतीय टीम के पूर्व कोच रहे जॉन राइट और गैरी कर्स्टन इस काम को पहले बखूबी अंजाम दे चुके हैं. न्यूजीलैंड के जॉन राइट के रूप में जब भारतीय टीम के लिए पहली बार एक फुलटाइम कोच नियुक्त किया गया था, तब भारत को दक्षिण अफ्रीकी टीम के समान ही चोकर्स का तमगा हासिल था. उनके कार्यकाल में पहली बार इंग्लैंड में ऐतिहासिक नेटवेस्ट सीरीज में जीत से पहले भारत लगातार 15 से अधिक फाइनल मुकाबलों में हार का मुंह देख चुका था.

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तेज गेंदबाजी की कुंद है धार

भारत को विदेशी जमीन पर जीत दिलाने के लिए तेज गेंदबाजी की धार तेज करनी होगी. स्पिन के बूते एशियाई टर्निंग पिचों पर तो मैदान मारा जा सकता है पर उपमहाद्वीप के बाहर घास भरे विकेटों पर नहीं. भारत का तेज गेंदबाजी का इतिहास चुनिंदा गेंदबाजों तक ही सिमटा हुआ है. कपिल देव के बाद जवागल श्रीनाथ ने भारतीय तेज गेंदबाजी का भार अपने कंधे पर उठाया था जिसमें वेंकटेश प्रसाद और अजीत अगरकर से बेहतरीन सहयोग मिला. श्रीनाथ के बाद जहीर खान पर तेज गेंदबाजी की कमान संभालने का भार आ गया. लेकिन जहीर खान की टीम से विदाई के बाद अब तक कोई ऐसा तेज गेंदबाज सामने नहीं आया जो यह जिम्मेदारी उठा सके. वर्तमान में जो इशांत शर्मा टेस्ट क्रिकेट में भारत के मुख्य तेज गेंदबाज हैं, उनकी गेंदबाजी में भी वह धार नहीं कि विपक्षी खेमे में खौफ पैदा कर सके. इसके अलावा दूसरे और तीसरे गेंदबाज के लिए भारत के पास कोई ऐसा नाम नहीं जिसका अंतिम एकादश में स्थान सुरक्षित हो. उमेश यादव समय-समय पर अपनी गेंद की तेजी से प्रभावित करने में सफल तो रहे हैं पर उनके प्रदर्शन में निरंतरता नहीं है इसलिए टीम से अंदर-बाहर होते रहते हैं. वरुण आरोन के साथ भी यही समस्या है. मोहित शर्मा अब तक कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाए हैं और एक औसत गेंदबाज बनकर रह गए हैं. भुवनेश्वर कुमार भी प्रदर्शन में निरंतरता न होने के कारण टीम से अंदर-बाहर होते रहे हैं, हालांकि उन्होंने अभी कम ही मैच खेले हैं. मोहम्मद शमी ने प्रभावित जरूर किया है लेकिन वे कब तक अपना प्रदर्शन दोहरा पाते हैं, यह चुनौती है. पहले भी मुनाफ पटेल, आरपी सिंह और प्रवीण कुमार ने प्रभावित तो किया था लेकिन अपने प्रदर्शन को बरकरार नहीं रख पाए और गुमनामी के अंधेरे में कहीं खो गए. इस साल वेस्टइंडीज दौरे पर पहले अभ्यास मैच में ही तेज गेंदबाजी की पोल खुल गई. इशांत, कुमार, शमी और उमेश ने 60 ओवर गेंदबाजी की और महज 3 विकेट चटकाए. तेज गेंदबाजी के मामले में भारत की दरिद्रता इसी से समझी जा सकती है कि चयनकर्ता आशीष नेहरा को उस उम्र में एकदिवसीय का स्ट्राइक गेंदबाज बनाकर टीम में वापस लाए हैं जब उन्हें क्रिकेट को अलविदा कह देना चाहिए था. विशेषज्ञों के मुताबिक विदेशी दौरों पर भारत के लचर प्रदर्शन का कारण भी यही है. तेज गेंदबाज भारत को अच्छी शुरुआत दे नहीं पाते जिससे दबाव स्पिन गेंदबाजी पर आ जाता है और वह भी दबाव में बिखर जाती है. ऐसे तेज गेंदबाज खोजना एक चुनौती है जो लंबे समय तक टीम में न सिर्फ बने रहें बल्कि अपनी रफ्तार और स्विंग से विपक्षी बल्लेबाजों की नाक में दम भी कर सकें.

टीम संयोजन के लिए बाएं हाथ के तेज गेंदबाज की जरूरत

बाएं हाथ का तेज गेंदबाज टीम संयोजन में एक अचूक हथियार की तरह होता है. उसकी मौजूदगी विपक्षी टीम पर दबाव बनाती है कि वह अपनी बल्लेबाजी की रणनीतियां बदलती रहे. जैसे बल्लेबाजी में दाएं-बाएं हाथ के बल्लेबाजों की जोड़ी गेंदबाजों की नाक में दम किए रहती है कुछ उसी तरह दाएं-बाएं हाथ के तेज गेंदबाज जब दोनों छोर से एक साथ गेंदबाजी करते हैं तो बल्लेबाज लगातार दबाव में रहता है. बार-बार बदलती गेंदबाजी की लाइन उसका ध्यान भंग करती है. मैच में नई गेंद ऐसी जोड़ी को थमाने पर शुरुआती सफलता जल्द मिलने की संभावना बढ़ जाती है. वसीम-वकार की ऐसी ही एक जोड़ी विश्व की सबसे घातक गेंदबाजी जोड़ियों में से एक मानी जाती है. लेकिन वर्तमान में जितने भी तेज गेंदबाज भारतीय टीम का हिस्सा हैं या टीम से अंदर-बाहर होते रहे हैं, सभी दाएं हाथ के तेज गेंदबाज हैं. गेंदबाजों की अगली खेप में भी कोई ऐसा नाम सुनने में नहीं आ रहा जो जहीर खान की बाएं हाथ की गेंदबाजी की विरासत संभाल सके. यही कारण रहा कि गेंदबाजी में विविधता लाने के लिए आशीष नेहरा को एकदिवसीय टीम में सालों बाद वापस बुलाया गया. उन्हें टेस्ट में जरूर आजमाया जाता लेकिन उन्होंने टेस्ट खेलने से इनकार कर दिया. नेहरा को टीम में लाने से भारतीय गेंदबाजी में सुधार भी नजर आया है. लेकिन टेस्ट में अभी भी सूनापन है और नेहरा भी अपने करिअर के अंतिम पड़ाव पर हैं. इरफान पठान और आरपी सिंह की वापसी की संभावनाएं कम ही नजर आती हैं. कुछ समय पहले भारतीय गेंदबाजी कोच भरत अरुण ने भी इस पर चिंता जताई थी.

विदेश में घूमती नहीं है स्पिनरों की गेंद

एशियाई टर्निंग विकेटों पर तो भारतीय स्पिनरों का कोई सानी नहीं. उनकी असली परीक्षा उपमहाद्वीप के बाहर होती है. एक तो स्पिन के अनुकूल परिस्थितियों का अभाव और दूसरा प्रभावहीन तेज गेंदबाजी के बाद सारा दबाव स्पिन गेंदबाजी पर आने से घरेलू मैदानों पर विश्वस्तरीय भारतीय स्पिनर औसत से भी कम दर्जे के नजर आते हैं. उदाहरण के तौर पर, भारतीय स्पिन गेंदबाजी की कमान संभालने वाले रविचंद्रन अश्विन के उपमहाद्वीप और उसके बाहर के आंकड़ों की ही तुलना करें तो स्थिति साफ हो जाती है. अश्विन ने अपने करिअर में खेले 32 टेस्ट मैचों में 25.39 के प्रभावशाली औसत से 176 विकेट चटकाए हैं लेकिन इनमें से उपमहाद्वीप के बाहर खेले नौ टेस्ट मैचों में 56.58 की महंगी औसत से सिर्फ 24 विकेट लिए हैं. रविंद्र जडेजा का भी कुछ यही हाल है. इसके अलावा समय-समय पर अमित मिश्रा, प्रज्ञान ओझा, अक्षर पटेल को भी आजमाया गया पर कोई भी खास प्रभाव नहीं छोड़ सका.
उपमहाद्वीप के बाहर की परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाने की इसी समस्या का सामना कुंबले ने भी अपने शुरुआती आधे करिअर में किया था. उन्हें घरेलू शेर बताया जाता था. फिर उन्होंने वापसी की और भारत को विदेशी जमीनों पर भी अपनी फिरकी से जीत दिलाई. इसलिए कुंबले की सिर्फ तकनीकी सलाह ही काम नहीं आएगी, समान परिस्थितियों से जूझने का उनका अनुभव भी भारतीय स्पिनरों का मनोबल बढ़ाएगा.

कुंबले के लिए यह फैसला लेना सबसे चुनौतीपूर्ण होगा कि क्या भारत में भी तेज विकेट बनें जिससे विदेशी परिस्थितियों के हिसाब से खिलाड़ी खुद को ढाल सकें

बल्लेबाजी की रीढ़ भी कमजोर

बल्लेबाजी की बात करें तो टेस्ट क्रिकेट में बल्लेबाजी क्रम में संतुलन बनाने और विविधता लाने के लिए वर्तमान में भारत के पास शिखर धवन को छोड़कर कोई अन्य बाएं हाथ का विशेषज्ञ बल्लेबाज नहीं है. पिछली दो टेस्ट सीरीजों में चुनी गई टीम पर नजर डालें तो शिखर धवन के अलावा रविंद्र जडेजा दूसरे नाम थे जो बाएं हाथ से बल्लेबाजी करते थे. लेकिन न तो रविंद्र जडेजा विशेषज्ञ बल्लेबाज हैं और न ही उन्होंने बतौर ऑलराउंडर भी अपनी बल्लेबाजी से प्रभावित किया है. शिखर धवन के प्रदर्शन में भी निरंतरता नहीं है. वे टीम से अंदर-बाहर होते ही रहते हैं. यह स्थिति अभी आई हो ऐसा भी नहीं है. सौरव गांगुली के संन्यास और गौतम गंभीर के टीम से बाहर होने के बाद से ही भारत टेस्ट क्रिकेट में उनका विकल्प नहीं ढूंढ़ सका है. सुरेश रैना, युवराज सिंह, शिखर धवन, रविंद्र जडेजा विकल्प के तौर पर आजमाए गए, पर अब तक प्रभावित नहीं कर पाए हैं. समस्या यह है कि नई प्रतिभाएं भी दाएं हाथ से ही बल्लेबाजी करने वाली मिल रही हैं.

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अस्थिर बल्लेबाजी क्रम में भी भरना होगा दम

सौरव गांगुली की कमी एक मायने में और खलती है. वे छठे क्रम पर बल्लेबाजी किया करते थे. टीम का शुरुआती बल्लेबाजी क्रम जब जल्द ढह जाता था तो वे आकर पारी संभाला करते थे. कभी शीर्ष क्रम और मध्यम क्रम के बल्लेबाजों के साथ तो कभी पुछल्ले बल्लेबाजों के साथ मिलकर टीम के स्कोर को आगे ले जाया करते थे. उनके जाने के बाद से छठे और सातवें क्रम पर भारतीय बल्लेबाजी अस्थिर रही है. सुब्रमण्यम बद्रीनाथ, युवराज सिंह, सुरेश रैना, रविंद्र जडेजा, रोहित शर्मा, विराट कोहली तक को आजमाया गया. लेकिन कोई भी गांगुली जैसी स्थिरता दिखाकर उनकी जगह भर न सका. इसका असर सातवें क्रम की बल्लेबाजी पर भी पड़ा. धोनी ने एक क्रम ऊपर आकर छठे क्रम पर खेलना शुरू कर दिया. लेकिन इस कारण सातवें क्रम पर कोई उनकी जगह लेने वाला न मिलने से भारतीय बल्लेबाजी ढह जाती थी. वर्तमान की स्थिति यह है कि वेस्टइंडीज दौरे पर रोहित शर्मा को छठे और रिद्धिमान साहा को सातवें क्रम पर बल्लेबाजी के लिए भेजा जाएगा.

पिचों का स्वभाव बदलने की चुनौती

भारत के सामने चुनौती है कि विदेशी जमीन पर अच्छा करे और कुंबले की जिम्मेदारी है कि वे इस हिसाब से खिलाड़ियों को तैयार करें. तैयारी अभ्यास से आती है और खिलाड़ियों को तेज विकेटों पर खेलने का अभ्यास हमारे यहां बनने वाले धीमे टर्निंग विकेटों पर मिल नहीं पाता. टर्निंग विकेट पर हम स्पिन के बूते दौरे पर आई टीमों को तो हरा देते हैं पर न तो अपने तेज गेंदबाजों को अंतरराष्ट्रीय बल्लेबाजों के सामने अपनी गेंदबाजी की धार परखने का मौका मिल पाता है और न ही बल्लेबाजों को विश्वस्तरीय तेज गेंदबाजी खेलने का. स्पिन के बूते हम आसानी से विपक्षी खेमे के सभी विकेट झटक मैच एकतरफा जीत लेते हैं, कोई चुनौती ही नहीं मिलती. दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ खेली गई पिछली टेस्ट सीरीज का उदाहरण लें. भारतीय स्पिनर सीरीज में पूरी तरह हावी रहे. विपक्षी टीम कहीं मुकाबले में नजर ही नहीं आई. हम सीरीज तो जीत गए पर हुआ यह कि न तो हमारे बल्लेबाजों को डेल स्टेन और मोर्ने मोर्केल जैसे विश्व के चोटी के तेज गेंदबाजों का सामना करने का मौका मिला और न ही हमारे तेज गेंदबाजों को पर्याप्त गेंदबाजी का मौका मिला. इसलिए कुछ महीने बाद जब हम ऑस्ट्रेलिया गए तो यह कमी वहां अखरी. न हमारे बल्लेबाज ऑस्ट्रेलिया की गेंदबाजी का सामना कर सके और न तेज गेंदबाज उनकी बल्लेबाजी को ध्वस्त कर पाए (स्पिनर तो बेअसर रहे ही). ऐसा इसलिए हुआ कि तेज विकेटों पर गेंदबाजी का न तो हमारे गेंदबाजों को अभ्यास था और न तेज विकेट पर विश्वस्तरीय तेज गेंदबाजी खेलने का हमारे बल्लेबाजों को. एक कोच के तौर पर कुंबले के लिए यह फैसला लेना सबसे चुनौतीपूर्ण होगा कि क्या भारत में भी ऐसे तेज विकेट बनाए जाएं जिससे विदेशी परिस्थितियों के हिसाब से खिलाड़ियों को ढलने का अभ्यास हो.

सौरव गांगुली के संन्यास और गौतम गंभीर के टीम से बाहर होने के बाद से ही भारत टेस्ट क्रिकेट में उनका विकल्प नहीं ढूंढ़ सका है

दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ पिछले साल भारत में ही खेली गई एकदिवसीय सीरीज के फाइनल मैच में ऐसा ही एक तेज विकेट बनाया गया था जहां भारतीय गेंदबाजी और बल्लेबाजी पूरी तरह बिखर गई. इस पर टीम डायरेक्टर रवि शास्त्री और पिच क्यूरेटर के बीच कहासुनी भी हो गई थी. बाद में हुई पूरी टेस्ट सीरीज में स्पिन फ्रेंडली विकेट बनाए गए और भारत एकतरफा जीत हासिल कर सका. बिना मुकाबले के जीतना न जीतने के बराबर माना गया.

पूर्व भारतीय क्रिकेटर मनिंदर सिंह के मुताबिक, ‘हम घरेलू टूर्नामेंट में भी ऐसे ही स्पिन फ्रेंडली विकेट बनाते हैं जिस पर मैच तीन दिन में खत्म हो जाते हैं. तेज गेंदबाजों को गेंदबाजी का मौका नहीं मिलता. बल्लेबाजों को बल्लेबाजी का मौका नहीं मिलता. जब खिलाड़ियों की मैच प्रैक्टिस ही नहीं होगी तो वे कैसे प्रतिस्पर्धात्मक प्रदर्शन करेंगे. घरेलू क्रिकेट में तेज गेंदबाज प्रैक्टिस नहीं कर पा रहे, बल्लेबाज तेज गेंदबाजों को नहीं खेल पा रहे. विदेशी टीम भारत दौरे पर आएं तो हम स्पिन फ्रेंडली विकेट के सहारे तीन दिन में मैच जीत जाते हैं. न उनके तेज गेंदबाजों को खेलते हैं और न अपने तेज गेंदबाजों को गेंदबाजी का मौका देते हैं. तेज गेंदबाजी की परिस्थितियों में खेलने का अभ्यास ही नहीं होता. तेज गेंदबाजी से हमारे बल्लेबाजों का पाला सीधा विदेशी दौरों पर पड़ता है. वहीं गेंदबाजों को सीधा वहीं बॉलिंग का मौका मिलता है. अब बताइए इस तरह हम क्या विदेशों में जीतेंगे?’ क्या कुंबले भारतीय विकेटों के साथ प्रयोग का साहसिक कदम उठा सकेंगे? देखना रोचक होगा.

तुनकमिजाज विराट कोहली, कैप्टन कूल महेंद्र सिंह धोनी

विराट कोहली- टेस्ट कप्तान. महेंद्र सिंह धोनी- एकदिवसीय और टी-20 कप्तान. एक तुनकमिजाज, दूसरा शांत दिमाग. अलग फॉर्मैट में अलग कप्तान की वर्तमान थ्योरी भारतीय क्रिकेट में कुंबले के कप्तान रहने के दौरान ही आई थी. आज वही थ्योरी कोच कुंबले के लिए एक चुनौती बन बैठी है. उन्हें एक-दूसरे से एकदम विपरीत स्वभाव रखने वाले इन दो कप्तानों के साथ तालमेल बिठाते हुए आगे बढ़ना है. दोनों के ही लिए ही उन्हें अलग रणनीतियां बनानी होंगी क्योंकि दोनों का ही कप्तानी का अंदाज जुदा है. कोहली जहां आक्रामकता दिखाकर विपक्षी पर हावी होना चाहते हैं, वहीं धोनी ठंडे दिमाग से मैच बनाते हैं. इंग्लैंड जैसे देशों में अलग फॉर्मैट के अलग कप्तान होना पुरानी बात है पर वहां अक्सर ऐसा देखा जाता है कि जो खिलाड़ी जिस फॉर्मैट में कप्तानी करता है वह दूसरे फॉर्मैट में नहीं खेलता है. जैसे वर्तमान में इंग्लैंड के कप्तान एलिएस्टर कुक हैं जो सिर्फ टेस्ट खेलते हैं, वहीं सीमित ओवरों के कप्तान इयॉन मोर्गन हैं जो सिर्फ सीमित ओवरों की टीम का हिस्सा हैं. लेकिन जब अलग-अलग फॉर्मैट के कप्तान एक-दूसरे की कप्तानी में खेलते हैं तो स्वाभिमान वाली बात आगे आ जाती है. पिछले डेढ़ साल में कई बार भारतीय ड्रेसिंग रूम से ऐसी अफवाहें उड़ती रही हैं कि कोहली सीमित ओवरों में भी भारत की कप्तानी चाहते हैं. कप्तानी के इस द्वंद्व से निपटना किसी चुनौती से कम नहीं.

जाति, रंग, धर्म और गरीबी संबंधी फब्तियां भी रैगिंग

कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में जूनियर छात्र की जाति, रंग और धर्म पर फब्तियां कसना भी अब रैगिंग की श्रेणी में आएगा. इतना ही नहीं, आर्थिक आधार पर मानसिक या शारीरिक रूप से प्रताड़ित करना भी रैगिंग कहलाएगी. यह प्रावधान विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने उच्च शिक्षा संस्थानों में रैगिंग अपराध निषेध विनियम 2016 में किया है. यूजीसी ने प्रदेश सहित देश भर के शिक्षण संस्थानों को नए नियमों का पालन कड़ाई से करने के निर्देश भी दिए हैं. शिक्षण संस्थानों में रैगिंग के बढ़ते मामलों को देखते हुए यह संशोधन किया गया है. अभी तक छात्रों को शारीरिक या मानसिक रूप से प्रताड़ित करने, अपशब्द कहने, किसी छात्र पर दबाव बनाकर किसी अन्य छात्र को कुछ कहलवाने आदि को रैगिंग की श्रेणी में रखा गया था, लेकिन यूजीसी के पास पहुंचने वाली शिकायतों में रंगभेद और जातिगत टिप्पणियों की शिकायतें आ रही थीं. लिहाजा, यूजीसी ने एंटी-रैगिंग कमेटी की सिफारिशों के मद्देनजर किसी छात्र को राष्ट्रीयता, क्षेत्रीयता, जन्म स्थान और निवास के आधार पर परेशान करने को रैगिंग में शामिल करके संशोधित नियम लागू कर दिया है.

अरुणाचल प्रदेश विवाद

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क्या है मसला?

सुप्रीम कोर्ट ने 13 जुलाई को अपने फैसले में अरुणाचल प्रदेश की कांग्रेस सरकार को बहाल करने का आदेश दिया. जनवरी 2016 को प्रदेश की तत्कालीन नबाम तुकी सरकार के गिरने के लिए जिम्मेदार राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा के सभी फैसलों को रद्द करते हुए अदालत ने कहा कि ये फैसले संविधान का उल्लंघन करने वाले थे. राज्य में तब राजनीतिक संकट गहरा गया था जब 60 सदस्यीय विधानसभा में सत्तापक्ष कांग्रेस के 47 में से 21 विधायकों ने मुख्यमंत्री को हटाने की मांग की थी. गतिरोध को देखते हुए केंद्र सरकार ने 24 जनवरी को वहां राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी थी. कई सप्ताह चली राजनीतिक उठापटक के बाद राज्यपाल राजखोवा ने कांग्रेस के बागी गुट के नेता कालिखो पुल को 19 फरवरी को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई थी. कालिखो को भाजपा के 11 विधायकों का समर्थन हासिल है.

क्याें छिड़ा विवाद?

पिछले साल नवंबर में कांग्रेस विधायकों ने राज्यपाल से विधानसभा उपाध्यक्ष को हटाने के लिए प्रस्ताव पेश करने की मंजूरी मांगी. वहीं भाजपा विधायकों ने विधानसभा अध्यक्ष को हटाने के लिए प्रस्ताव पेश करने की इजाजत मांगी. इसके बाद नौ दिसंबर को राज्यपाल ने विधानसभा सत्र 14 जनवरी, 2016 के स्थान पर करीब एक महीने पहले 16 दिसंबर को बुलाया. इसके बाद विधानसभा अध्यक्ष नबाम रेबिया ने कांग्रेस के 21 बागी विधायकों में से 14 की सदस्यता समाप्त करने का नोटिस जारी किया. इस पर विधानसभा उपाध्यक्ष ने 21 में से 14 विधायकों की सदस्यता समाप्त करने का आदेश खारिज किया. इसके बाद नबाम तुकी सरकार ने विधानसभा भवन पर ताला जड़ा. विधानसभा की बैठक दूसरे भवन में हुई, जिसमें 33 विधायकों ने हिस्सा लिया. रेबिया को विधानसभा अध्यक्ष के पद से हटाने का प्रस्ताव पारित किया गया. बागियों ने होटल में विधानसभा सत्र बुलाया, तुकी के खिलाफ मतदान किया और कालिखो पुल को मुख्यमंत्री चुना. मामला गुवाहाटी हाई कोर्ट पहुंच गया. बाद में 26 जनवरी को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की. इसके खिलाफ तुकी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. 19 फरवरी को कोर्ट ने शक्ति परीक्षण संबंधी कांग्रेस की याचिका खारिज की जिसके बाद राष्ट्रपति शासन समाप्त हो गया और 20 फरवरी को पुल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. अब 13 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के फैसले को असंवैधानिक बताया और कांग्रेस सरकार की बहाली का आदेश दिया.

आगे क्या होगा?

अरुणाचल प्रदेश में संवैधानिक स्थिति स्पष्ट हो चुकी है लेकिन राजनीतिक स्थिति दुविधापूर्ण बनी हुई है. प्रदेश के मुख्यमंत्री नबाम तुकी ने राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंप दिया है. वहीं कांग्रेस विधायक दल ने पेमा खांडू को नेता चुन लिया है. खांडू ने कहा कि उन्होंने राज्यपाल के सामने सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया है. पेमा अभी तक बागी गुट में शामिल थे. वे पूर्व मुख्यमंत्री दोरजी खांडू के पुत्र हैं. अरुणाचल के प्रभारी राज्यपाल तथागत रॉय ने कहा कि वे दाखिल किए गए कागजात का अध्ययन करेंगे और उसी के अनुसार शपथ ग्रहण का दिन तय किया जाएगा.