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कसाई की दुकान पर बकरा नहीं पाला जा सकता : मुनव्वर राना

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भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश- तीनों मुल्कों के एकीकरण की बात बार-बार उठती है. एकीकरण पर आपका क्या नजरिया है?

देखिए, मुल्क भी घर की तरह होते हैं. जब घर में एक बार दीवारें उठ जाती हैं तो टूटती नहीं हैं. इसलिए ये नामुमकिन है कि तीनों मुल्क एक हो जाएंगे. यह बिल्कुल वैसा है कि तीनों भाई फिर से आकर एक घर में रहने लगें. अगर तीनों भाइयों में मोहब्बत बरकरार रहती है तो यह भी वैसे ही है जैसे तीनों एक जगह रहते हैं. तो ये ख्वाब देखने से कोई फायदा ही नहीं है क्योंकि रास्ते में इतनी अड़चनें हैं कि ये मुमकिन ही नहीं है. ये तो बिल्कुल वैसा ही है कि सूरज पूरब की जगह पश्चिम से निकल आए. लेकिन जरूरत इस बात की है कि जब ये तमाम यहूदी और ईसाई एक होकर दुनिया के तमाम फैसले करते हैं, बमबारी करके तमाम मुल्कों को बर्बाद करते हैं, दुनिया में पहले एड्स फैलाते हैं फिर उसकी दवाएं बेचते हैं, तो हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक होकर दुनिया का मुकाबला करने के लिए क्यों नहीं खड़े हो सकते?

मेरा विचार यह है कि 25 साल तक तीनों देशों में इस बात पर मुआयदा हो कि हममें जंग नहीं होगी, हममें छेड़छाड़ नहीं होगी. 25 साल में जो हम जंगी सामान खरीदते हैं, उनमें कटौती करके एजुकेशन और मेडिकल हब बनाएंगे. तो ये एक ऐसी शुरुआत हो सकती है कि तीनों मुल्कों में लोगों के दिल एक हो जाएं. क्योंकि अगर आप बर्लिन की मिसाल देते हैं तो दोनों के दिल एक थे. यहां दिल एक नहीं हैं. यहां सियासत ने इतनी नफरतें फैला रखी हैं, इतनी कहानियां बुन रखी हैं कि वहां खबर फैला दी गई कि हिंदू बहुत जालिम होता है, काट देगा. यहां वालों को ये बता दिया गया कि मुसलमान बहुत जालिम होता है, जाओगे तो छुरी लेकर बैठा रहता है, अल्ला हो अकबर कर देगा. जहां इतने फासले हों, इतनी कहानियां हों, जब तीनों मुल्क कहानियों पर चल रहे हों, तीनों मुल्क आज तक जब ये फैसला नहीं कर सके कि बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि दोनों एक ही मुल्क की चीजें हैं, उसके लिए लड़ रहे हैं. जितना कागज बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि पर खर्च कर दिया गया, उतने में हमारी एक पूरी पीढ़ी शिक्षित हो गई होती. बजाय यह करने के उस पर पैसा बर्बाद किया गया. ऐसे एशियाई मुल्कों को आप एक नहीं कर सकते. सिर्फ यही है कि चूंकि इनके पहनावे, इनकी बोली, इनका खान-पान, रहन-सहन, मिजाज सब एक है. ये सब एग्रेसिव हैं, जरा-से में गुस्सा हो जाएं, जरा-से में आपकी जूतियां उठा लें. जरा-से में लड़ने को तैयार हो जाएं, जरा से में गुलाब का फूल लेकर खड़े हो जाएं. ये तीनों के मिजाजों में शामिल हैं. इस लिहाज से तीनों आपस में रिश्तेदार हैं. तो रिश्तेदार अगर आपस में मिल जाएं तो यही बहुत है. ये जरूरी नहीं कि सब रिश्तेदार एक घर में आकर रहने लगें.

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आजादी की लड़ाई के दौरान एक तरफ संघ और हिंदू महासभा थी और दूसरी तरफ मुस्लिम लीग थी. हिंदू संगठनों का वृहद भारत का अभियान तब से चल रहा है. दूसरी तरफ मुसलमानों के खिलाफ समय-समय पर द्वेषपूर्ण अभियान भी चलता रहता है. इस अंतर्विरोध के साथ एकीकरण कैसे संभव है?

देखिए, जब इतिहास में झूठ लिखा जाने लगे, इतिहास में लिखे झूठ पर फैसला किया जाने लगे, इतिहास में लिखे सच पर पर्दा डाला जाने लगे और अगर सड़कों के नाम मिटाए जाने लगे तो ऐसे में एकीकरण के बारे में कैसे सोचा जाए? इतिहास में लिखी इस बात को नहीं तलाश किया जा रहा है कि औरंगजेब के जमाने में ही हिंदुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा मुल्क था. उसके बाद हिंदुस्तान घटता ही गया. ये जितने म्यांमार, नेपाल, अफगानिस्तान और काबुल ये सब हमारे ही मुल्क में थे. हिंदुस्तान सबसे बड़ा मुल्क औरंगजेब के जमाने में था. उसने पूरी जिंदगी हिंदुस्तान को बड़ा और एक करने में गुजारी. तो उसकी इस बात से पर्दा डालने में लगे हैं. अब ये बताने में लगे हैं कि उसने अपने भाई को मार दिया. अगर उसने अपने भाई को मार दिया तो अशोक ने क्या किया था? कहने का मतलब कि जब इतिहास से खराब चीजें निकालकर आप फैसला करेंगे तो कैसे होगा?

जितना कागज बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि पर खर्च कर दिया गया, उतने में हमारी एक पूरी पीढ़ी शिक्षित हो गई होती. बजाय यह करने के उस पर पैसा बर्बाद किया गया. ऐसे एशियाई मुल्कों को आप एक नहीं कर सकते 

असल में, ये सब मसले जब तक सियासत से निकालकर बाहर नहीं लाएंगे, बात नहीं बनेगी. मैं कहता रहा हूं कि जब तक साहित्यकार, लेखक, कवि, कलाकार, पत्रकार- ये 25 से 30 प्रतिशत तक संसद में नहीं आते, तब तक देश के हालात सुधर नहीं सकते, चाहे ये देश हो या वो देश हो. क्योंकि यहां से जो जाते हैं, वे केवल छुट्टी में जाते हैं पाकिस्तान और चले आते हैं. हमारी तरह वो खुले में नहीं घूमते. तो ये कैसे मेल कर सकते हैं.

जब तक यह सोचने वाले लोग न हों, जिनका मिजाज एकता का हो, तब तक ऐसा नहीं हो सकता. आप देखिए कि कसाई की दुकान पर बकरा नहीं पाला जा सकता है. इनके मिजाज जो हैं, वो नफरत करने वाले हैं, चाहे इधर के हों या उधर के हों, चाहे मुसलमान हों, या हिंदू हों, इनके यहां मुहब्बत का तसव्वुर किया ही नहीं जा सकता. इनसे हमें जंग करनी पड़ेगी, लेकिन जैसी जंग हमारे महात्मा गांधी करते थे, अहिंसा के साथ.

जिस दौरान नरेंद्र मोदी पाकिस्तान गए, उसी दौरान राम माधव ने अल जजीरा चैनल को साक्षात्कार दिया कि तीनों मुल्क कानूनी रास्ते से भाईचारे के साथ एक हो जाएंगे. क्या ये एक राजनीतिक अभियान भर है या फिर इसका कोई और निहितार्थ है? क्या ऐसा हो सकता है?

अगर राम माधव के घर के चार लोग अलग-अलग रहने लगे हों तो उनसे कहिए पहले उनको एक कर लें, हम हिंदुस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश को एक कर लेंगे. जो बात लॉजिक में नहीं आती है, उसको कैसे कर लेंगे आप? ये है कि चार घर हो जाएं, लेकिन चार दिल न हों. दिल न बंटें. हम तो कहते हैं कि हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में ये मुआयदा होना चाहिए, दिलों में ये मुहब्बत होनी चाहिए कि एक भाई पर हमला हो तो तीनों भाई मिलकर लड़ेंगे. ये फैसला सुना दें दुनिया को कि कोई जंग होगी तो तीनों मिलकर लड़ेंगे. आप देखेंगे कि पूरी दुनिया की रूह कांप जाएगी.

तीनों देशों की एकता की जो बातें आप कह रहे हैं, ये कैसे संभव है? क्या यूरोपीय संघ के तौर पर कोई संघ बन सकता है?

क्यों नहीं बन सकता? ये फर्जी मुठभेड़, फर्जी आतंकवादी, फर्जी बमबारी, ये खत्म हो जाए तो सब ठीक हो जाएगा. सब मिल जाएंगे आपस में. आप बॉर्डर पर जाकर देखें तो मिलिट्री चीखती है कि इतना सख्त पहरा है कि परिंदे पर नहीं मार सकते, लेकिन पाकिस्तान की चिड़ियां हजारों की तादाद में आकर हिंदुस्तान के दरख्तों पर बैठ जाती हैं. तो वहां सब एक हैं. कोई नफरत नहीं है. एक-दूसरे से मांग कर बीड़ी पीते हैं. एक-दूसरे से मांग कर सिगरेट पीते हैं. एक-दूसरे से मांग कर दवा खाते हैं. वहां सब मुहब्बत से एक साथ हैं. अचानक एक शोशा-सा उठता है और बात बिगड़ जाती है. लेकिन सरहदी जिंदगी बड़ी खतरनाक है. कब किसको कहां पकड़कर कहां इस्तेमाल कर लिया जाए. मुजरिम बना दिया जाए, जासूस बना दिया जाए, स्मगलर बना दिया जाए, पाकिस्तानी-हिंदुस्तानी बना दिया जाए. दोनों तरफ ये है. लेकिन ये सब करना बहुत आसान है. मेरा कहना है कि अगर 25 बरस तक ये मुआयदा हो जाए कि जंग नहीं होगी तो सब ठीक हो जाएगा.

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ये एक शायर का ख्वाब है जो बहुत सुंदर लगता है. क्या अस​ल में ये संभव है?

मोदी साहब ने पिछले साल एक पहल की जो पाकिस्तान में उतर गए जहाज से, ये बड़ा काम था. इसे दुनिया किसी नजर से देखे, हम एक शायर की नजर से देखते हैं. एक इंसान की नजर से देखते हैं, एक बहादुर इंसान की नजर से देखते हैं कि अगर मोदी साहब उतरे तो इसे हिंदुस्तान की कमजोरी न समझा जाए. जिस तरह मोदी उतर सकते हैं, वैसे ही हमारी फौजें भी लाहौर में उतर सकती हैं. इसे हमारी कमजोरी न समझा जाए. लेकिन हम अगर हिंदुस्तानी हैं तो हम बड़े भाई की तरह हैं. बड़े भाई का नसीब ही ऐसा होता है कि उसे झुकना पड़ता है छोटे भाई को मनाने के लिए. मोदी इसलिए नहीं गए थे कि उनको कोई समझौता करना है वहां, झुकना है, वो तो सिर्फ उनकी मां के पैर छूने गए थे. हमने वहां सारी जिंदगी शायरी की है. हम इस रिश्ते के बारे में जानते हैं कि यह बहुत ही अजीबोगरीब रिश्ता है. हमने ये बात पहले भी कई बार कही है कि ‘कोई सरहद नहीं होती, कोई गलियारा नहीं होता, अगर मां बीच में होती तो बंटवारा नहीं होता’.
तो मैं ये कहता हूं कि अगर नेहरू और जिन्ना की मांएं भी बैठी होतीं 1947 में तो शायद हिंदुस्तान बंटता नहीं. तो अब भी अगर कोई बातचीत हो तो दोनों की मांओं को वहां मौजूद रहना चाहिए. आप देखिएगा कि इस मसले का हल निकलेगा और नफरतें बीच में पनप नहीं पाएंगी.

जब मुल्क बंटवारा हुआ, आप कितने बरस के थे. उस वक्त की कुछ बातें याद हैं?

तब हम दो बरस के थे. बंटवारे की कोई याद नहीं है. हां, मुहाजिरनामा हमारी किताब है. दरअसल, बंटवारा ऐसी कहानी है जिसको आज तक आपके माता-पिता आपको सुनाते हैं. उनके माता-पिता उनको सुनाते रहे. ये ऐसा गम है जो कभी पुराना हुआ ही नहीं. ये ऐसा गम है जो कभी मैला हुआ ही नहीं, ये हमेशा ताजा होता रहा.

दिलों में ये मुहब्बत होनी चाहिए कि एक भाई पर हमला हो तो तीनों भाई मिलकर लड़ें. ये फैसला सुना दें दुनिया को कि कोई जंग होगी तो तीनों मिलकर लड़ेंगे. आप देखेंगे कि पूरी दुनिया की रूह कांप जाएगी

बंटवारा होने के बाद आपके परिवार पर क्या असर हुआ? क्या पूरा परिवार यहीं रहा या परिवार भी बंट गया?

पाकिस्तान बना तो सबको तमाम ख्वाब दिखाए जाने लगे कि ये होगा, वो होगा. इस ख्वाब के साथ हमारी बुआएं सब चली गईं, क्योंकि उन सबके पति जाने को तैयार थे. हमारे दो चाचा चले गए. हमारी दादी चली गईं. वो दादा को भी ले गईं. पहली बार मैंने ये मुहावरा गलत होते देखा कि असल से ज्यादा सूद प्यारा होता है. क्योंकि दादी हमको बहुत चाहती थीं लेकिन हमें छोड़कर चली गईं. मेरे पिता जी नहीं गए. वो जिद्दी आदमी थे. उनसे पूछा गया कि क्या करोगे यहां हिंदुस्तान में तो बोले कि कोई काम नहीं मिलेगा तो हम अपने पूर्वजों की कब्रों की देखभाल करेंगे. लेकिन हम जाएंगे नहीं और मेरे पिता जी नहीं गए.

लेकिन पूरी जिंदगी के लिए ये जो जख्म था, जो उदासी थी, वो आज तक घरों में मौजूद है. बुआ उधर हैं, मौसी इधर हैं. खालू इधर हैं तो फूफा इधर हैं. दादी उधर हैं. मुझे तो सबसे बड़ा गम यही है कि रायबरेली के कब्रिस्तान में 600 बरस से हमारे बुजुर्गों की कब्रें बिछी हुई हैं. दो कब्रें उनमें कम पड़ती हैं, हमारी दादी की और हमारे दादा की. अगर हम कभी दुनिया के ताकतवर आदमी बन जाएं तो पाकिस्तान से उन कब्रों को नोचकर ले आएं और उनको रायबरेली की मिट्टी में बो दें. ताकि ये तरतीब जो बिगड़ गई है, वह पूरी हो जाए. जब हम लोग जाते हैं ईद-बकरीद पर कब्रों के पास, तो ये फौरन अंदाजा हो जाता है कि ये दो जगहें खाली रह गई हैं. यहां हमारे दादा और दादी को होना चाहिए था.

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पाकिस्तान में रह रहे आपके परिजन, जिनको लेकर आप इतने भावुक हो जाते हैं, उनसे मिलने कभी पाकिस्तान गए आप?

हां, कई बार गया हूं. मुशायरों के हवाले से गया हूं. पहली बार 1990 में गया था. फिर 2006 से 08 तक लगातार गया. इसके बाद मैं बीमार हो गया. घुटनों का आॅपरेशन हुआ था. 2009 से 2013 तक इसी से परेशान रहा तो जाना नहीं हुआ. अबकी मैंने जाने का इरादा किया था, मुशायरा था, उन लोगों ने बुलाया था, लेकिन यहां सहिष्णुता और असहिष्णुता का मामला चल रहा था. हमने सोचा कि कुर्सियों पर जो नालायक लोग बैठे हैं, जब ये कह रहे हैं कि ये पता लगाना चाहिए कि अखलाक पाकिस्तान क्यों गया था, बजाय इसके कि अपने जुर्म पर निगाह डालें, अपने जुर्म पर शर्मिंदा हों, अपने गुनाह पर परेशान हों, ये कह रहे हैं कि अखलाक पाकिस्तान क्यों गया था. तो अगर मैं चला जाऊंगा तो ये फौरन बोल देंगे कि ये पाकिस्तान गया था, वहां से ये लेकर आया है वो लेकर आया है. मैंने कहा था टीवी पर बहस के दौरान कि 67 बरस में बिजली के तार तो जोड़ नहीं सके, लेकिन हमारे तार दाऊद इब्राहिम से जोड़ देते हैं.

असहिष्णुता की बहस में आप भागीदार रहे. उस पूरे प्रकरण पर क्या राय बनी आपकी?

दिक्कत ये है कि जब चिंतन को आप अपनी आलोचना समझने लगें तो इसका मतलब है कि आप पागल हो चुके हैं. आपका मेडिकल ​ट्रीटमेंट होना चाहिए. हमारी चिंता को आप आलोचना कह रहे हैं. हम ये कह रहे हैं कि इस देश में अगर सौ आदमी अचानक उठते हैं और एक आदमी को मार डालते हैं तो इसका मतलब है कि अगर इस एक्शन का रिएक्शन, रिएक्शन का फिर एक्शन होने लगा तो पूरा मुल्क गोधरा और गुजरात बनकर रह जाएगा. अगर ये बात मैंने कही तो मैंने बुरी बात कहां कही? ये मेरे चिंतन का विषय था, इसको आपने आलोचना कहा और फौरन कह दिया कि यहां-वहां से पैसा आ गया होगा, बिहार से ये मिल गया होगा, कांग्रेस से वो मिल गया होगा. ये कितने बेवकूफ लोग हैं कि ये सरस्वती पुत्रों को रिश्वतखोर अफसर समझते हैं. भगवान इनको सद्बुद्धि दे और क्या कहा जा सकता है?

एकीकरण यूटोपिया है, जो संभव नहीं

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हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश को एक कर देने का विचार एक यूटोपिया है जो कि संभव नहीं है. यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अपना एजेंडा है जो आजादी के बहुत पहले से चल रहा है. वे मिथ और इतिहास को मिला देते हैं. इसकी वजह से ही वे इतिहास को नए सिरे से लिखने की बात करते हैं क्योंकि आप अंतर ही खत्म कर दीजिए कि इतिहास और मिथ क्या है, इसके बाद इतिहास को जैसे आप चाहेंगे, वैसे लिखेंगे. यह एक पुराना एजेंडा है जिसे संघ के लोग समय-समय पर आगे बढ़ाने की कोशिश करते हैं. राम माधव ने तीनों देशों के एकीकरण पर जो कहा वह पोलिटिकली करेक्ट नहीं था, ठीक वैसे ही जैसे आरक्षण वाला मुद्दा जो बिहार के चुनाव के समय संघ प्रमुख ने उठाया था. राम माधव ने भी वही किया. जब मोदी पाकिस्तान पहुंचे, राम माधव का इंटरव्यू प्रसारित हुआ. अब या तो यह पूर्व निर्धारित समय है या इत्तेफाक, ये तो राजनीतिज्ञ जानें. लेकिन ये बयान खास मौके पर आए और पुराने मुद्दों को उठाने की कोशिश की गई.

1925 से अब तक आप देखिए, संघ ने हमेशा यह बताने की कोशिश की है कि देश में एक बहुसंख्यकवादी सोच है. एक राष्ट्रवाद ऐसा होता है जो समावेशी होता है, जिसमें आप सबको जोड़कर रखते हैं, दूसरा राष्ट्रवाद वह होता है जिसमें आप पहले दुश्मन की पहचान करके यह बताने की कोशिश करते हैं कि ये लोग राष्ट्रवादी नहीं हैं. एक सांप्रदायिकता वह है जो राष्ट्रवाद हो जाती है, एक सांप्रदायिकता अलगाववाद हो जाती है यानी एंटी-नेशनल. हैं दोनों ही सांप्रदायिकता. आजकल जो एजेंडा आगे बढ़ाया जा रहा है, खास तौर से जिसे सरकार का खास सहयोग है, ऐसी बातों से उसमें दक्षिणपंथी खेमे को मदद मिलेगी. उस विचारधारा का जो पूरा एजेंडा है, एक खास तरह की सोच है, उसे आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी.

बात यह है कि नेशनल और एंटी-नेशनल की स्थिति को लेकर जैसा इतिहास आप पढ़ाना चाहते हैं, वह तर्कसंगत नहीं है. मध्यकालीन और प्राचीन भारत में हीरो ढूंढ़ने की कोशिश एक बहुत ही असंगत सोच है. क्योंकि उस वक्त के हीरो एक बोझ के साथ आते हैं, उस कालखंड का बोझ, उस कालखंड की सोच. चाहे वह प्राचीन भारत हो, चाहे वह मध्यकालीन भारत हो. आज आधुनिक जमाने में आप प्राचीन और मध्य भारत से हीरो ढूंढकर लाते हैं तो दिक्कत होती है. ऐसे मुद्दों पर फिल्में बन रही हैं. अभी बाजीराव मस्तानी फिल्म आई तो उस पर लेख भी आए कि बाजीराव ने क्या-क्या जुल्म किए, लोगों को मारा और जाने क्या-क्या… लेकिन यह उनकी कोई गलती नहीं है. वे एक कालखंड के लोग थे. वे अच्छे काम भी करते थे, बुरे काम भी करते थे. आज अगर आप मध्यकालीन लोगों को हीरो बनाते हैं तो उनकी अच्छाई-बुराई और उस युग को ध्यान में रखना चाहिए.

संघ का राष्ट्रवाद धर्म पर आधारित है जिसमें पुण्यभूमि और पितृभूमि का मुद्दा उठाया जाता है. पाकिस्तान धर्म के नाम पर बना था. उनका राष्ट्रवाद भी धर्म के नाम पर था. लेकिन मुस्लिम राष्ट्रवाद को भाषा और संस्कृति ने तोड़ दिया

कोशिश यह होनी चाहिए कि इतिहास से हीरो लाने के बजाय उससे कुछ सबक सीखने की कोशिश करें. उनकी बुराइयों से बचें. एक नायक आप ढूंढ़ते हैं तो उसमें बुराई तो दिखाई नहीं देती. वह तो हीरो हो गया. उसमें बुराई तो हो ही नहीं सकती. यह इतिहास का सही सबक नहीं है. इतिहास के बारे में कहा जाता है कि उससे सबक लेना चाहिए. जो इतिहास में अच्छा नहीं था, उससे बचिए, तभी तो सबक हुआ. आपने आंख बंद करके सब कुछ अपना लिया तो फिर सबक कहां हुआ? आपने तो कुछ सीखा ही नहीं.

आज जो हो रहा है, इतिहास की बात बार-बार होती है, वह यही है कि आप उस इतिहास को आंख बंद करके अपनाएं जो आज आपको सूट करता है. वह इतिहास आप इस्तेमाल करना चाहते हैं. अखंड भारत ऐसा ही मुद्दा है क्योंकि यह आपके आज को सूट करता है. क्योंकि आप चाहते हैं कि कुछ लोगों को गुमराह करके इस तरह के मुद्दों के सहारे उनको एकजुट रखें. मुझे नहीं लगता है कि इसमें कोई कामयाबी मिल सकती है. लेकिन उनकी कोशिश यही रहती है कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को मिलाकर एक देश बना दो. यह नहीं सोचते कि राष्ट्रवाद के नाम पर, धर्म के नाम पर राष्ट्र नहीं बन सकते. संघ का राष्ट्रवाद भी धर्म पर आधारित है जिसमें पुण्यभूमि और पितृभूमि का मुद्दा उठाया जाता है. पाकिस्तान धर्म के नाम पर बना था. उनका राष्ट्रवाद भी धर्म के नाम पर था. लेकिन 1971 में क्या हुआ? जो मुस्लिम राष्ट्रवाद था, जिसके नाम पर द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर पाकिस्तान बना, उसको भाषा और संस्कृति ने तोड़ दिया. धर्म तो दोनों का एक था, जिसके आधार पर वे अलग हुए थे. लेकिन वह नहीं चल पाया. इसका मतलब है कि बहुत सारे मुद्दे ऐसे होते हैं जो धर्म से परे होते हैं. सिर्फ धर्म के नाम पर आप एक राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते. अगर एक धर्म पर राष्ट्र का निर्माण होता तो दुनिया में 50 से ज्यादा मुस्लिम देश नहीं होते. एक इस्लामिक देश हो जाए फिर इतने देशों की क्या जरूरत है? चाहे वो परशियन देश हों, या दूसरे मुल्क, आज कितनी लड़ाइयां चल रही हैं. मुसलमान वे सभी हैं. सीरिया और तुर्की में भी मुसलमान ही तो लड़ रहे हैं. जो दूसरे अल्पसंख्यक हैं ईसाई या यजीदी वगैरह, वे तो बेचारे पिट रहे हैं. मुख्यत: जो लड़ रहे हैं वे सारे मुसलमान ही हैं. वे एक-दूसरे को मार रहे हैं. इसलिए राष्ट्रवाद धर्म के आधार पर नहीं चलने वाला. दुनिया में कहीं नहीं चल पाया है. यह भी इन लोगों को ध्यान में रखना चाहिए कि अखंड भारत का निर्माण सिर्फ धर्म के नाम पर या एक बहुसंख्यक संस्कृति के नाम पर नहीं हो सकता. एक बहुसंख्यक संस्कृति या विचार आप सब पर थोप दें, ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि तब सबकल्चर, सबनेशनलिज्म सिर उठाते हैं. हम लोगों को इन तीनों देशों के एकीकरण की बात सोचनी ही नहीं चाहिए क्योंकि ये तीनों संप्रभु राष्ट्र हैं जिनको आप पहले जैसी स्थिति में नहीं ले जा सकते. जर्मनी का उदाहरण बार-बार दिया जाता है, लेकिन जर्मनी एक अलग प्रकार का विभाजन था. वह हमारे जैसा विभाजन नहीं था. भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश का मुद्दा दूसरा था. वहां मुद्दे सिर्फ राजनीतिक थे, धार्मिक या सांस्कृतिक नहीं. दोनों ईसाई मुल्क थे, एक संस्कृति थी, एक वैचारिक स्थिति थी. अमेरिका और रूस की लड़ाई थी, उसमें उन्होंने जर्मनी को बांटा, जब तक वह चल पाया, चला. लेकिन कोई ऐसा मुद्दा नहीं था जिसकी जड़ें बहुत गहरी हों, जिसका इलाज न किया जा सके. 1989 में जैसे ही वक्त आया, उन्होंने दीवार हटा दी. ये सब अपने यहां नहीं कर सकते. चूंकि बार-बार इसी की मिसाल दी जाती है कि जर्मनी कर सकता है तो हम क्यों नहीं. लोकप्रिय विचार के लिए वह बहुत अच्छा है लेकिन आप सोचकर देखें कि दोनों कितने अलग हैं.

लोहिया एक संघीय ढांचे की बात करते थे. लोहिया ही नहीं, अल्लामा इकबाल ने भी दो देश बनाने की बात नहीं की थी. उन्होंने भी कहा था कि एक संघीय ढांचा हो. लेकिन वह बात व्यावहारिक नहीं थी इसलिए फेल हो गई. वह यूटोपियन (काल्पनिक) आइडिया था, जिसके लिए वे कोशिश करते रहे. लेकिन अब हम बहुत आगे बढ़ गए हैं. हमारा सियासी ढांचा बहुत जटिल है. दूसरी बात यह है कि पाकिस्तान के लिए अपनी ही राजनीति और अपने ही द्वारा पैदा की गई मुश्किलों से निपटना आसान नहीं है.

भारत-बांग्लादेश सीमा, अगरतला
भारत-बांग्लादेश सीमा, अगरतला

इसलिए इन तीनों देशों के एकीकरण की कोई संभावना नहीं है, न इस बारे में कोई बात करनी चाहिए. इतिहास कोई कैसेट नहीं है जिसे आप दोबारा चला दें. जिस तरह के इतिहास से हम गुजर चुके हैं, वह बड़ा ही रक्तरंजित रहा है, उसे तो हमें याद भी नहीं करना चाहिए. उससे दूर रहने की कोशिश करनी चाहिए. यह देश जिस तरह से टूटा है उसे आप जोड़ेंगे तो इसका खतरा तो बना ही रहेगा कि जोड़ने में भी वैसा ही खूनखराबा हो क्योंकि कहीं कोई ऐसा विचार तो है ही नहीं कि सब लोग इकट्ठा खुशी से मिलकर रहना चाहते हैं. ऐसे कोई हालात पैदा नहीं हुए. और फिर, यह सोच हमारे ही देश में क्यों हो? जिनको आप जोड़ना चाहते हैं, वहां भी तो ऐसी सोच होनी चाहिए! तभी तो आप इकट्ठे होंगे! अब तक तो ऐसे कोई आसार नजर नहीं आए कि बांग्लादेश या पाकिस्तान में ऐसी आवाज उठी हो कि वक्त आ गया है, अब सब लोग एक हो जाएंगे.

हमारे मुल्क में सिर्फ कुछ लोग हैं ऐसी सोच वाले जो अपनी राजनीति के लिए ऐसी बातें बोलते हैं. जानते वे भी हैं कि यह संभव नहीं है. इतिहास में ऐसा नहीं होता. जहां हुआ है तो वहां अलग तरीके के हालात में हुआ है 

हमारे मुल्क में सिर्फ कुछ लोग हैं ऐसी सोच वाले जो अपनी राजनीति के लिए ऐसी बातें बोलते हैं. जानते वे भी हैं कि यह संभव नहीं है. इतिहास में ऐसा नहीं होता. जहां हुआ है तो वहां अलग तरीके के हालात में हुआ है. जिन हालात से हमारा उपमहाद्वीप गुजरा है, उनमें कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिलता. ये चीजें सिर्फ राजनीति के लिए की जाती हैं. मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई गंभीरता है और जो बोल रहा है वह भी इसको गंभीरता से नहीं लेता है.

दूसरी बात- इतिहास से सबक लेना है तो आप इतिहास से वर्तमान सुधारने के लिए और भविष्य बनाने के लिए सबक लीजिए. अगर आप इतिहास में रहना चाहते हैं तो यह अलग बात है. इतिहास से सबक लेना और इतिहास में रहना दो अलग बातें हैं. आजकल लोग कोशिश कर रहे हैं कि इतिहास में ही रहें. और उसी में सब कुछ देखने की कोशिश करते हैं. इतिहास का कोई फायदा नहीं है अगर आप इतिहास में रहने की कोशिश करते हैं. इतिहास से बाहर निकलकर उससे सबक सीखकर आगे बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए. लेकिन दुख की बात है कि ऐसा हम नहीं करते. कुछ लोगों को लगता है इतिहास एक राजनीतिक हथियार है, जिसका इस्तेमाल आज की राजनीति के लिए हो सकता है. उसकी मिसालें तो रोज देखने को मिलती हैं. आजकल तो सनक है जिसके तहत भविष्य की अपेक्षा इतिहास से ज्यादा लगाव है. हमारे राजनीतिक दल और कई विचारक इतिहास की ही बात करते हैं. कई लोग तरह-तरह के अटपटे सवाल उठाते हैं तो मैं कहता हूं कि आप उस घटना को उस संदर्भ में देखें कि यह मसला इतिहास में किस संदर्भ में था. इसे आज के संदर्भ में आरोपित नहीं किया जा सकता. आपको यह सोचना चाहिए कि इतिहास में जो हुआ वह किस संदर्भ में था. लेकिन लोग यह कोशिश ही नहीं करते कि इतिहास को इतिहास में ही देखें.

400 साल पुरानी चीज को 400 साल पुराने संदर्भ में ही देखिए. वह अलग समाज था, वह अलग सोच थी. आज कोई बात बहुत सेक्युलर दिखती है, लेकिन उस जमाने में सेक्युलर शब्द के बारे में लोग जानते नहीं थे. आज जो बात कम्युनल दिखती है वह चार सौ साल पहले स्वीकृत थी. उसे आज के संदर्भ में देखना तर्कसंगत नहीं है.

नई सरकार आने के बाद इतिहास और शिक्षा को लेकर जिस तरह का अभियान चलाया जा रहा है, उसका आने वाली पीढ़ियों पर बहुत बुरा असर पड़ेगा. यह सबसे ज्यादा खतरनाक चीज है. आपको कम से कम अपने पड़ोसी से सबक लेना चाहिए. जिसको आप बुरा कह रहे हैं, उसी तरह का काम खुद नहीं करना चाहिए. उन्हें देखिए कि वे किस तरह का इतिहास पढ़ा रहे हैं. उदाहरण के लिए, उन्होंने इतिहास के साथ क्या किया? उनका इतिहास शुरू होता है मोहम्मद बिन कासिम से, जबकि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो उन्हीं के यहां है, लेकिन उनके इतिहास में उस पर बात नहीं होती. वह उनकी संस्कृति और इतिहास का हिस्सा नहीं है. पूरे इतिहास में जितने चरित्र हैं उनको निकालकर इतिहास का इस्लामीकरण कर दिया, उसे अपने हिसाब से पवित्र कर दिया. अब उनके इतिहास में सारे चरित्र मुसलमान हैं, सारे मुद्दे इस्लामी मुद्दे हैं. इस तरह का समाज उन्होंने अपने यहां अपनी किताबों में पैदा किया. वही अपने बच्चों के सामने पेश किया. अब पिछले 30-40 सालों में बड़ी हुई जो नई पीढ़ी है वह इन किताबों को ही पढ़कर आगे बढ़ी है. उन किताबों में यही सब है कि हिंदू कितना खतरनाक होता है. इस्लाम के कौन-कौन दुश्मन हैं आदि-आदि. जब बच्चों को इस तरह का इतिहास पढ़ाया जाएगा तो किस तरह की पीढ़ी तैयार होगी? किस तरह का समाज तैयार होगा? उसकी वही सोच बनेगी जिस तरह का इतिहास वह पढ़ेगी.

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हमारे यहां आज जो हो रहा है वह वही कोशिश है कि हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार करें जो बिल्कुल ही नफरत पर आधारित हो. पहले आप इतिहास में एक दुश्मन पैदा करें फिर उससे लड़ें कि इतिहास में इन्होंने हमारे साथ क्या-क्या किया. इसके लिए मुसलमान और ईसाई दोनों को दुश्मन बनाया जा सकता है. इस तरह के इतिहास का आने वाले समय में कितना बुरा असर होगा, यह हम पाकिस्तान को देखकर समझ सकते हैं. अगर हम नहीं समझते तो यह हमारा दुर्भाग्य है. लेकिन हमारे यहां जो हो रहा है, यह पूरी तरह उन्हीं का ढर्रा है.

अखंड भारत का निर्माण एक बहुसंख्यक संस्कृति के नाम पर नहीं हो सकता. एक बहुसंख्यक संस्कृति या विचार आप सब पर थोप दें, ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि तब सबकल्चर, सबनेशनलिज्म सिर उठाते हैं

हालांकि, हमारी समझ यह है कि दीनानाथ बत्रा जैसे लोगों की कोशिश का व्यापक हिंदुस्तान पर असर नहीं होगा. लेकिन जितने पर होगा, वहां पर खतरा बना रहेगा. गुजरात में पिछले 25-30 सालों का उदाहरण लीजिए. नरेंद्र मोदी के आने के पहले यानी कांग्रेस के समय से ही आरएसएस ने वहां हिंदुत्व की प्रयोगशाला तैयार की. आदिवासी इलाकों में उनकी जड़ें खूब मजबूत हैं. अपने स्कूलों में पढ़ाकर उन्होंने एक नई पीढ़ी पैदा की जो उस सोच को आगे बढ़ा रही है जिसका परिणाम हमने 2002 में देखा. वह सोच वहां अब तक है. कहा जाता है कि वहां फिर दोबारा दंगे नहीं हुए. हमेशा खून-खराबा हो, यह जरूरी नहीं होता. एक तरह के वैचारिक दंगे भी होते हैं. उस समाज में एक सोच पैदा हुई और इसने लोगों के दिमाग में स्थायी रूप से घर कर लिया. इसके तहत समाज के बारे में एक धारणा बनी हुई है जिस पर आप सवाल ही नहीं उठा सकते. कुछ स्टीरियोटाइप हैं जो लोगों के दिमाग में बैठा दिए गए और उसी पर एक समाज चल रहा है. एक खास तरह का इतिहास और समाजशास्त्र पढ़कर जो लोग सामने आए उनको राजनीतिक रूप में इस्तेमाल करना बहुत आसान है. लोग जिसे गुजरात प्रयोग कहते हैं वह राष्ट्रीय स्तर पर करने का प्रयास आप देख सकते हैं जिसे दीनानाथ बत्रा या अन्य लोगों के जरिए आगे बढ़ाने की कोशिश हो रही है. बाकी अगर तीनों देशों के एकीकरण की बात है तो यह संभव नहीं दिखता. 

बंटवारे से पहले कैबिनेट मिशन निराशा से भरा अंतिम कदम था. हमारी राजनीति 1946 तक आते-आते इतनी ज्यादा ध्रुवीकृत हो चुकी थी कि ऐसी कोई राय बना पाना संभव नहीं रहा. यह कोशिश और पहले होनी चाहिए थी. 1946 तक इतनी नफरत पैदा हो गई थी कि बातचीत तक की गुंजाइश नहीं थी. भारत के बंटवारे की जगह संघ बनाने के कई प्रस्ताव थे लेकिन कुछ कम्युनिस्ट, कुछ कांग्रेस और मुस्लिम लीग के लोग अलग-अलग मुद्दों पर अड़े हुए थे. अलग-अलग राजनीतिक प्रतिबद्धता और पदलोलुपता अहम फैक्टर था. जिन्ना को राष्ट्रपिता बनना था, फिर वह राष्ट्र कैसा भी हो. ऐसे जो भी अवसर थे वे खोते गए. उस प्रक्रिया में एकीकरण की कोई भी कोशिश कामयाब नहीं होने वाली थी.

जिन्ना जैसे लोग, जो कभी धार्मिक नहीं रहे, जिन्होंने कभी नमाज नहीं पढ़ी, उन्होंने धर्म के नाम पर मुल्क बनाया. बंटवारे के पांच-छह साल पहले से ही ऐसी कोई गुंजाइश नहीं बची थी कि मिल-जुल कर रहने पर आपसी सहमति बन पाती. मौलाना आजाद ने आखिर तक बंटवारे को स्वीकार नहीं किया और अलग-थलग पड़ गए. आज एकीकरण की बात व्यावहारिक नहीं है. अगर यह व्यावहारिक कदम हो सके तो निश्चित ही बेहतर होगा, लेकिन दोनों तरफ के अपने राजनीतिक हित हैं. वे इन मुद्दों को खत्म नहीं होने देंगे. भारत-पाकिस्तान दो कट्टर दुश्मनों की मिसालें हैं जिनके एक होने की कोई गुंजाइश नहीं है. दुनिया में इस तरह का कोई दूसरा उदाहरण नहीं है, न ही एशियाई मुल्कों के बीच ऐसी कोई संभावना है.

(लेखक इतिहासकार हैं)

(कृष्णकांत व अमित सिंह से बातचीत पर आधारित)

दोनों मुल्क शुरुआत करें, निभ जाए तो अच्छा…

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किसी भी तरह हिंदुस्तान और पाकिस्तान के जोड़ने का सिलसिला शुरू करना होगा. मैं यह मानकर नहीं चलता कि जब हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा एक बार हो चुका है तो वह हमेशा के लिए हुआ है. किसी भी भले आदमी को यह बात माननी नहीं चाहिए. हिंदुस्तान और पाकिस्तान की सरकारों का आज यह धंधा हो गया कि एक-दूसरे की सरकारों को खराब कहें और दोनों ही सरकारें अपने-अपने मुल्क में दूसरे मुल्क के प्रति घृणा का प्रचार करती रहें. दोनों सरकारों के हाथ में इस वक्त बहुत खतरनाक हथियार हैं, लेकिन जनता अगर चाहे तो मामला बदल सकता है.

हिंदुस्तान-पाकिस्तान का मामला, अगर सरकारों की तरफ देखें तो सचमुच बहुत बिगड़ा हुआ है, इसमें कोई शक नहीं. लेकिन ऐसी सूरत में भी मैं हिंदुस्तान-पाकिस्तान के महासंघ की बात कहना चाहता हूं. एक देश तो नहीं, लेकिन दोनों कम से कम कुछ मामलों में शुरुआत करें, एक होने की. वह निभ जाए तो अच्छा और नहीं निभे तो और कोई रास्ता देखा जाएगा. सब बातों में न सही, लेकिन नागरिकता के मामले में और अगर हो सके तो थोड़ा-बहुत विदेश-नीति के मामले में, थोड़ा-बहुत पलटन के मामले में एक महासंघ की बातचीत शुरू हो.

यह विचार सरकारों के पैमाने पर आज शायद अहमियत नहीं रखता, मतलब हिंदुस्तान की सरकार और पाकिस्तान की सरकार से कोई मतलब नहीं, क्योंकि वे सरकारें तो गंदी हैं. इसलिए हिंदुस्तान और पाकिस्तान की जनता को चाहिए कि अब इस ढंग से वह सोचना शुरू करे.

अगर हिंदुस्तान-पाकिस्तान का महासंघ बनता है तो जब तक मुसलमानों को या पाकिस्तानियों को तसल्ली नहीं हो जाती, तब तक के लिए संविधान में कलम रख दी जाए कि इस महासंघ का राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री, दो में से एक पाकिस्तानी रहेगा. इस पर लोग कह सकते हैं कि तुम अंदर-अंदर रगड़ क्यों पैदा करना चाहते हो? जिस चीज को पुराने जमाने में कांग्रेस और मुस्लिम लीग वाले नहीं कर पाए, कभी-कभी कोशिश करते थे, रगड़ पैदा होती थी. अब तुम फिर से रगड़ पैदा करना चाहते हो. इसका मैं सीधा-सा जवाब दूंगा कि 15 बरस हमने यह बाहर वाली रगड़ करके देख लिया, अब फिर अंदर की रगड़ कैसी भी हो, इससे कम से कम ज्यादा अच्छी ही होगी. यह बाहर वाली हिंदुस्तान-पाकिस्तान की रगड़ है, उसको हम निभा नहीं सकते.

हो सकता है कि लोग कश्मीर वाला सवाल उठाएं कि अब तक तो तुमने आसान-आसान बातें कर लीं, लेकिन जो मामला झगड़े का है, इस पर तो कुछ कहो. तो कश्मीर का सवाल अलग से हल करने की जब बात चलती है तो मैं कुछ भी लेने-देने को तैयार नहीं हूं. मेरा बस चले तो मैं कश्मीर का मामला बिना इस महासंघ के हल नहीं करूंगा. मैं साफ कहना चाहता हूं कि अगर हिंदुस्तान-पाकिस्तान का महासंघ बनता है तो चाहे कश्मीर हिंदुस्तान के साथ रहे, चाहे कश्मीर पाकिस्तान के साथ रहे, चाहे कश्मीर एक अलग इकाई बनकर इस हिंदुस्तान-पाकिस्तान महासंघ में आए. पर महासंघ बने कि जिससे हम सब लोग फिर एक ही खानदान के अंदर बने रहें. इस महासंघ के तरीके पर बुनियादी तौर पर हिंदुस्तान-पाकिस्तान की जनता सोचना शुरू करे.

हिंदुस्तान और पाकिस्तान तो एक ही धरती के अभी-अभी दो टुकड़े हुए हैं. अगर दोनों देशों के लोग थोड़ी भी विद्या-बुद्धि से काम करते चले गए तो दस-पांच बरस में फिर से एक होकर रहेंगे. मैं इस सपने को देखता हूं कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान फिर से किसी न किसी इकाई में बंधे.

(लेखक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व समाजवादी नेता थे)

अखंड भारत का नहीं, महासंघ का सपना देखें

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बीते साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पाकिस्तान की आकस्मिक यात्रा के बाद दोनों देशों के बीच जो सद्भावना का वातावरण बना, उस पर संभवतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रवक्ता एवं वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव द्वारा दिए वक्तव्य से प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. राम माधव ने यह आशा प्रकट की है कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक हो जाएंगे. उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि उनका यह विचार पार्टीलाइन पर नहीं बल्कि आरएसएस के सदस्य के तौर पर है. उन्होंने यह भी कहा कि अखंड भारत का सपना युद्ध से नहीं बल्कि आम सहमति से ही संभव हो सकता है.

यद्यपि उन्होंने यह आश्वासन दिया कि अखंड भारत के निर्माण में युद्ध का उपयोग नहीं किया जाएगा परंतु यदि गहराई से देखा जाए तो अखंड भारत के सपने में बांग्लादेश और पाकिस्तान के अस्तित्व की समाप्ति की संभावना निहित है. अखंड भारत का अर्थ होगा पाकिस्तान और बांग्लादेश का भारत में शामिल हो जाना. इस तरह यह कहा जा सकता है कि राम माधव के वक्तव्य से तीनों देशों के बीच जो पहले से दूरी थी वह और बढ़ी.

इस संबंध में मैं अपना एक अनुभव पाठकों के साथ बांटना चाहूंगा. वर्ष 2013 में मैं पाकिस्तान की यात्रा पर गया था. यात्रा का उद्देश्य कराची में एक समारोह में शामिल होना था. समारोह में मुझे एक अमेरिकी संगठन द्वारा शांति और समरसता के लिए दिए गए पुरस्कार को स्वीकार करना था. कार्यक्रम के बाद मुझे अनेक शहरों और संस्थाओं में जाने का मौका मिला. मुझे कराची विश्वविद्यालय के छात्रों को संबोधित करने के लिए निमंत्रित किया गया था. विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए मैंने एक सुझाव दिया और उसके बारे में उनकी राय मांगी. मैंने उन्हें बताया कि प्रसिद्ध अमेरिकी समाजसुधारक डॉ. मार्टिन लूथर किंग ‘जूनियर’ अपने भाषण के बीच में यह कहते थे, ‘आई हैव अ ड्रीम’ (अर्थात मेरा एक सपना है). इसी तरह पाकिस्तान की यात्रा के दौरान मैंने एक सपना देखा है. मेरा सपना है कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक कनफेडरेशन (महासंघ) में शामिल हो जाए. इस महासंघ का स्वरूप यूरोपियन यूनियन के समान होगा अर्थात तीनों देश पूर्ण रूप से स्वतंत्र होंगे, उनके अपने संविधान होंगे, अपनी शासन व्यवस्था होगी, अपनी सेना, न्यायपालिका आदि होगी, उनकी अपनी संसद होगी. परंतु तीनों देशों में आने-जाने के लिए पासपोर्ट और वीजा की आवश्यकता नहीं होगी. यूरोप की तर्ज पर तीनों देशों की मिली-जुली एक संसद होगी, यूरो-डॉलर के समान कॉमन करंसी भी होगी. तीनों के बीच में शांति एवं युद्ध विरोधी संधि होगी.

अखंड भारत उस समय तक संभव नहीं हो सकता जब तक अल्पसंख्यकों की देश के प्रति वफादारी पर शंका करते रहेंगे. जब तक इस तरह की बातें कही जाती रहेंगी कि यदि भाजपा हारती है तो पाकिस्तान में जश्न मनेगा

महासंघ का यह स्वरूप बताने के बाद मैंने छात्र-छात्राओं की राय पूछी. मैंने कहा कि यदि वे मेरी योजना से सहमत हैं तो एक नहीं दोनों हाथों को उठाकर समर्थन करें. यदि नहीं तो एक हाथ उठाकर अपनी असहमति प्रकट करें. कार्यक्रम में करीब 500 छात्र-छात्राएं मौजूद थे. सभी ने एक स्वर से ताली बजाई और प्रस्ताव का स्वागत किया. कुछ उत्साही छात्र-छात्राओं ने यहां तक कह डाला कि तब तो हम ताजमहल को देख सकेंगे.

मैं इस घटना का उल्लेख इसलिए कर रहा हूं कि अखंड भारत के स्थान पर हमें तीनों देशों के महासंघ का सपना देखना चाहिए. आज जो परिस्थितियां हैं उनके चलते न तो पाकिस्तान और न ही बांग्लादेश अखंड भारत के निर्माण के लिए तैयार होंगे. यदि हम तीनों देशों के विलय के बाद बने देश का नाम अखंड भारत रखेंगे तो यह पाकिस्तान और बांग्लादेश को कतई पसंद नहीं आएगा. अखंड भारत से ऐसी बू आएगी कि पाकिस्तान और बांग्लादेश ने अपना अस्तित्व खो दिया है और वे अखंड भारत का हिस्सा बन गए हैं. इसलिए अखंड भारत की बात करने से काम नहीं चलेगा.

अखंड भारत एक ऐसा प्रस्ताव है जो पाकिस्तान और बांग्लादेश के आम आदमी को कतई पसंद नहीं आएगा. हमारे देश के कुछ चिंतकों ने वर्षों पहले स्वीकार कर लिया है कि भारत के भीतर दो राष्ट्र हैं. ऐसे चिंतकों में वीर सावरकर शामिल हैं. इसमें डॉ. मुंजे भी शामिल हैं. इन दोनों चिंतकों ने यह दावा किया था कि भारत में एक नहीं दो राष्ट्र हैं. एक राष्ट्र उनका है जिनकी मातृभूमि और पुण्यभूमि यहीं है अर्थात भारत में उन्हीं को रहने का अधिकार है जिनका जन्म यहां हुआ है और जो उस धर्म को मानते हैं जो यहीं विकसित हुए हैं. इस परिभाषा के अनुसार सिर्फ हिंदू, बुद्ध, जैन और सिख यहां रह सकते हैं, बाकी नहीं. जब तक राष्ट्र की इस परिभाषा को रद्द नहीं किया जाता, तब तक अखंड भारत की कल्पना साकार नहीं हो सकती.

अखंड भारत उस समय तक संभव नहीं हो सकता जब तक हमारे देश के अनेक संगठन अल्पसंख्यकों की देश के प्रति वफादारी पर शंका करते रहेंगे. जब तक इस तरह की बातें कही जाती हैं कि यदि चुनाव में भाजपा हारती है तो पाकिस्तान में जश्न मनेगा. जब तक किसी सीधी-सादी बात करने पर यह कह दिया जाए कि यदि आप ऐसा सोचते हैं तो आप पाकिस्तान चले जाएं, जैसा कि अभी शाहरुख खान और आमिर खान के बारे में कहा गया.

महासंघ के निर्माण के लिए पहली आवश्यकता यह है कि तीनों देशों का आधार धर्म नहीं धर्मनिरपेक्षता हो. इस समय भारत के अलावा बांग्लादेश भी एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जबकि पाकिस्तान एक इस्लामिक प्रजातंत्र है

अखंड भारत उस समय तक कैसे संभव होगा जब तक शिवसेना जैसे संगठन गुलाम अली जैसे महान गायक का कार्यक्रम भारत में नहीं होने देंगे? जब तक हमारे देश में पाकिस्तान के खिलाड़ियों को क्रिकेट नहीं खेलने दिया जाएगा. अखंड भारत की कल्पना कैसे साकार हो सकती है जब तक भारत आने वाले प्रत्येक पाकिस्तानी को हम शंका की नजर से देखते हैं? इसी तरह पाकिस्तान जाने वाले प्रत्येक भारतीय को शंका की नजर से देखा जाता है.

अखंड भारत का सपना देखने के पहले सांस्कृतिक स्तर पर अनेक कदम उठाने चाहिए. जैसे आज भी पाकिस्तान के अखबार हमें पढ़ने को नहीं मिलते, न ही हमारे अखबार पाकिस्तानियों को पढ़ने को मिलते हैं. जब तक इस बात की शिकायतें आती रहेंगी कि पाकिस्तान भारत विरोधी आतंकवादियों की शरणस्थली है, जब तक पाकिस्तान यह आरोप लगाता रहेगा कि उनके देश में होने वाली प्रत्येक हिंसक घटना के पीछे हमारी गुप्तचर एजेंसी ‘रॉ’ का हाथ होता है.

बांग्लादेश नेशनल मेमोरियल 1971 में बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में मारे गए शहीदों की याद में ढाका में मेमोरियल बना है
बांग्लादेश नेशनल मेमोरियल 1971 में बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में मारे गए शहीदों की याद में ढाका में मेमोरियल बना है

महासंघ के निर्माण के लिए सबसे पहली आवश्यकता यह है कि तीनों देशों का आधार धर्म नहीं धर्मनिरपेक्षता हो. इस समय भारत के अलावा बांग्लादेश भी एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जबकि पाकिस्तान के संविधान के अनुसार वह एक इस्लामिक प्रजातंत्र है. महासंघ के निर्माण में धर्मनिरपेक्षता सबसे अधिक सहायक होगी. राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष होने का अर्थ यह नहीं है कि वहां के निवासी अपने धर्मों को त्याग दें. धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का अर्थ है राज्य सत्ता का कोई धर्म नहीं होना और सभी धर्मों को राज्य सत्ता द्वारा संरक्षण मिलना.

पाकिस्तान भ्रमण के दौरान मैंने यह महसूस किया कि वहां के लोग विशेषकर युवक पाकिस्तान को धर्मनिरपेक्ष देश बनाने के लिए लगभग तैयार हैं. वहां के समाचारपत्रों में आए दिन ‘पाकिस्तान क्यों नहीं बने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र’ शीर्षक से लेख छपते हैं. वहां के युवक यह महसूस करते हैं कि धर्म आधारित पाकिस्तान ने विकास के रास्तों में बड़े रोड़े अटकाए हैं. यहां यह भी स्पष्ट कर देना चाहिए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े अन्य संगठन धर्मनिरपेक्षता में आस्था नहीं रखते हैं. वे धर्मनिरपेक्षता को एक ढोंग मानते हैं. उनकी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है. इस विचार के चलते मैं श्री राम माधव जी से पूछना चाहूंगा कि क्या धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को नहीं मानते हुए अखंड भारत का निर्माण संभव है? अखंड भारत तो क्या महासंघ बनने की भी पहली शर्त धर्मनिरपेक्षता ही होगी.

अखंड भारत के औचित्य को सही ठहराते हुए यह कहा गया है कि जब जर्मनी एक हो सकता है, जब वियतनाम एक हो सकता है तो भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक क्यों नहीं हो सकते? 

इसलिए यह स्पष्ट है कि आज व्याप्त परिस्थितियों के चलते अखंड भारत का सपना नहीं देखा जा सकता. अखंड भारत के औचित्य को सही ठहराते हुए यह कहा गया है कि जब जर्मनी एक हो सकता है, जब वियतनाम एक हो सकता है तो भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक क्यों नहीं हो सकते? जर्मनी और वियतनाम के उदाहरण से अखंड भारत की वकालत नहीं की जा सकती. जिन परिस्थितियों में वियतनाम और जर्मनी बांटे गए थे, वे पूरी तरह भिन्न थीं. इसके अतिरिक्त जब अखंड भारत की बात की जाती है तो बांग्लादेश और पाकिस्तान के आम नागरिकों के मन में यह शंका होती है कि वास्तव में यह योजना पाकिस्तान और बांग्लादेश को समाप्त करने की योजना तो नहीं है. इसलिए प्रयास महासंघ बनाने के लिए किए जाएं. इसके लिए वातावरण बनाने का प्रयास धीरे-धीरे किया जाना चाहिए. महासंघ बनने से दोनों देशों में रक्षा पर होने वाले व्यय में भारी कटौती होगी. कटौती से बचे आर्थिक साधनों का उपयोग गरीबी, भुखमरी, चिकित्सा और शिक्षा पर किया जा सकेगा. ऐसा करने से तीनों देशों में भारी -भरकम प्रगति होगी.

यहां यह उल्लेख प्रासंगिक होगा कि पूर्व में भी भारत-पाकिस्तान (जब पाकिस्तान एक था) और कश्मीर को मिलाकर एक महासंघ बनाने की बात की गई थी, उस समय जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे और फील्ड मार्शल अयूब पाकिस्तान के तानाशाह थे. परंतु बात आगे नहीं बढ़ी. हमारे देश के भी अनेक नेताओं ने महासंघ का सपना देखा है, इनमें विशेषकर महान चिंतक और समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया शामिल हैं. उस समय जो बात अधूरी रह गई थी उसे आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी हम सब पर है. तीनों देशों में इस तरह के समूह संगठित किए जाएं जो महासंघ के विचार को साकार करने में मददगार हो सकें.

(लेखक पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

पाक की संप्रभुता स्वीकार नहीं कर पाए हैं दक्षिणपंथी

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पहली बात तो जिस एकीकरण के विचार की बात की जा रही है मैं उस पर ज्यादा जानकारी नहीं रखती. पहली बार मार्च 2006 में वर्ल्ड सोशल फोरम के आयोजन के दौरान कुछ भारतीय, पाकिस्तानी और बांग्लादेशी मित्रों ने बांग्लादेश-भारत-पाकिस्तान पीपुल फोरम (बीबीपीपीएफ) के विचार पर चर्चा की. फोरम में लोगों का लोगों से आपसी विमर्श होता है. इसके सदस्य साल में एक बार किसी भी संबंधित देश में मिलते हैं. फिर भारत यात्रा के दौरान अखंड भारत के लिए अभियान चला रहे दक्षिणपंथी भारतीयों के एक समूह से वाघा बॉर्डर पर बातचीत हुई.

ये वे लोग थे जो पाकिस्तान का भारत में विलय करना चाहते हैं क्योंकि वे कभी यह स्वीकार नहीं कर पाए हैं कि पाकिस्तान एक स्वतंत्र राष्ट्र है. लेकिन हम वीजा मुक्त और परमाणु मुक्त दक्षिण एशिया और एक दक्षिण एशियाई संघ के लिए अभियान चला रहे हैं. संघ बनाने और एकीकरण करने में बहुत बड़ा अंतर है. मुझे लगता है भारत और पाकिस्तान के लोगों को अपनी सरकारों पर आपसी रिश्ते सुधारने और अच्छे पड़ोसी की तरह व्यवहार करने का दबाव बनाना चाहिए. बांग्लादेश, पाकिस्तान और भारत स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्र हैं और हर व्यक्ति और देश को उनकी संप्रभुता का सम्मान करना चाहिए. जिस क्षण हम यह अहसास कर लेंगे कि तीनों देश स्वतंत्र और संप्रभु हैं, हम संयुक्त भारतीय संघ या एकीकरण की बात नहीं करेंगे. वहीं हमारे भू-भाग में लोग अशिक्षित हैं और उनका दैनिक जीवन धर्म के इर्द-गिर्द घूमता है. इसी धार्मिक लगाव के चलते वे दूसरों के साथ समान व्यवहार करने का बात सोच भी नहीं पाते. धार्मिक श्रेष्ठता की यही भावना हमें दोस्त नहीं बनने देगी. जर्मनी और फ्रांस दोस्त बन सकते हैं क्योंकि वहां के लोग सभ्य और शिक्षित हैं.

(लेखिका इंस्टीट्यूट फॉर पीस ऐंड सेक्युलर स्टडीज, पाकिस्तान की संस्थापक निदेशक हैं)

जनसंघ के प्रति मुस्लिम इसलिए पूर्वाग्रहग्रस्त हैं क्योंकि वह अखंड भारत की बात करता है

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रविवार 23 मार्च, 2014 को मैं संसद के सेंट्रल हॉल में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और समाजवादी आंदोलन के प्रमुख सेनानी डॉ. राम मनोहर लोहिया को पुष्पांजलि अर्पित करने गया था. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान वे कम से कम 25 बार जेल गए थे.
1970 में राज्यसभा सदस्य के रूप में मैंने संसद में प्रवेश किया. डॉ. लोहिया का तीन वर्ष पूर्व यानी 1967 में 57 वर्ष की आयु में निधन हो गया था. डॉ. लोहिया से मेरी निकटता और मुलाकात तब से शुरू हुई थी जब मैंने ऑर्गनाइजर में पत्रकार के रूप में काम करना शुरू किया था. उन्होंने ही मुझे बताया था कि मुस्लिम आम तौर पर जनसंघ के प्रति इसलिए पूर्वाग्रहग्रस्त हैं कि आप अखंड भारत की बात करते हो. मेरा उत्तर था, ‘मेरी इच्छा है कि आप दीनदयाल उपाध्याय से मिले होते और उनसे अखंड भारत संबंधी जनसंघ की अवधारणा जानते.’
बाद में इन दोनों नेताओं की मुलाकात हुई, यह मुलाकात हमारी पार्टी के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना बन गई और दोनों महान नेताओं ने एक ऐतिहासिक वक्तव्य जारी किया कि जनसंघ अखंड भारत के बारे में क्या सोचता है. यह संयुक्त वक्तव्य दोनों नेताओं ने 12 अप्रैल, 1964 को जारी किया, जिसमें दोनों नेताओं ने यह संभावना व्यक्त की कि पाकिस्तान को एक न एक दिन यह एहसास होगा कि विभाजन भारत और पाकिस्तान के न तो हिंदुओं और न ही मुस्लिमों के लिए अच्छा रहा और परिणाम के तौर पर दोनों देश एक भारत-पाक महासंघ के लिए मानसिक तौर पर तैयार हो रहे हैं.
यदि मैं दिल्ली में हूं तो संसद के सेंट्रल हॉल में होने वाले पुष्पांजलि कार्यक्रमों में सदैव जाता रहा हूं. कभी-कभी ऐसा मौका आया कि एकमात्र सांसद मैं ही मौजूद था. एक बार नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर ऐसा ही हुआ.
मुझे स्मरण आता है कि तीन वर्ष पूर्व डॉ. लोहिया के जयंती कार्यक्रम पर डॉ. मनमोहन सिंह भी उपस्थित थे. प्रधानमंत्री ने सरसरी तौर पर मुझसे पूछा, ‘आप डॉ. लोहिया को कितना जानते हो?’ मैंने जवाब दिया, ‘अच्छी तरह से लेकिन तब मैं पत्रकार था.’ तब मैंने उन्हें दीनदयाल जी के साथ उनकी मुलाकात के बारे में बताया और कैसे दोनों ने भारत-पाक महासंघ की संभावना के बारे में संयुक्त वक्तव्य जारी किया.
उन्होंने इस मुलाकात के बारे में मेरे वर्णन को ध्यान से सुना और पूछा, ‘क्या आपको लगता है कि यह अभी भी संभव है?’ मेरा दृढ़ उत्तर था, ‘बिल्कुल नहीं, यदि हम पाकिस्तान की आतंकवादी तिकड़मों के प्रति नरम बने रहे तो.’

(आडवाणी के ब्लॉग से साभार, 25 मार्च 2014 को प्रकाशित)

भाषा और संस्कृति के जरिए दक्षिणी उपमहाद्वीप के इन तीन देशों को जोड़ा जा सकता है : तस्लीमा नसरीन

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क्या आपको लगता है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश का मिलकर एक देश बन जाना संभव है?

बहुत समय पहले जब यूरोप में सभ्यता तक नहीं पहुंची थी, वे एक-दूसरे के खिलाफ लड़ा करते थे पर आज वो एक हैं और बहुत अच्छे हाल में हैं. भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश का एकीकरण हो सकता है पर इसके लिए नेताओं को धर्म के आधार पर लोगों को बांटने की राजनीति बंद करनी होगी.

आपके अनुसार इन देशों के जुड़ने की प्रेरणा क्या हो सकती है?

भाषा और संस्कृति के जरिए दक्षिणी उपमहाद्वीप के इन तीन देशों को जोड़ा जा सकता है. यहां धर्म को महत्व देना बंद करना होगा क्योंकि यह पूरी तरह से निजी मसला है. सरकारों को धर्म से अलग रखना ही होगा.

अक्सर भारत में पाकिस्तानी और बांग्लादेशी कलाकारों को विरोध का सामना करना पड़ता है. भारत-पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय वार्ता का भी कोई सार्थक परिणाम नहीं दिखता, ऐसी स्थितियों में इनका एकीकरण कैसे हो सकता है?

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सोचा तो यह भी नहीं गया था कि कभी बर्लिन की दीवार गिरेगी! पर वह गिरी. पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी अब एक हैं. वो दीवार जो दो अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं की नींव पर खड़ी की गई थी, अब नहीं है. अलग धर्मों के आधार पर खींचे गए दायरों को मिटना ही होगा क्योंकि वक्त के साथ लोग और धर्म दोनों ही
विकसित होते हैं. ये कोई स्थिर, गतिहीन वस्तु नहीं है जो समय के साथ बदलेगी नहीं.

अगर इन देशों का संघ बनाया जाए तो क्या वह यूरोपियन यूनियन या संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की तरह काम कर पाएगा? क्या आपको लगता है कि संघ बनने के बाद इन देशों के नागरिकों की क्षेत्रीय पहचान बनी रह पाएगी?

हां, बिल्कुल. भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के पास जुड़ाव की वजहें यूरोपीय देशों से ज्यादा हैं. हमारा इतिहास, संस्कृति एक जैसी है. हमारी भाषा, वेशभूषा, खाना, संगीत सब एक जैसा ही तो है. यहां के हिंदू, बौद्ध, मुस्लिम, ईसाई सभी की जड़ें भारतीय ही तो हैं.

आप मानती हैं कि अगर पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी एक हो सकते हैं, तो भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश भी?

बिल्कुल, मैं तो इस एकीकरण के पक्ष में हूं. मैं तो 80 के दशक से इस बात को कहती आई हूं. हम सब एक हैं. हमें सरहदों में बंटकर एक-दूसरे का दुश्मन बनने की कोई जरूरत नहीं है. अपने ही भाई-बहनों को दुश्मन मानकर परमाणु हथियारों से मारने की सोचना ही बेहद डरावनी बात है. और वैसे ये परमाणु हथियार भी हमेशा हमारी रक्षा नहीं कर पाएंगे.

आम जनता की मांग नहीं है एकीकरण

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भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के एकीकरण की मांग में कोई गंभीरता नहीं है. आपने कहा कि लोहिया भी इस तरह की मांग करते थे लेकिन उनको मरे हुए भी 50 साल हो गए हैं. मैं भी राजनीतिक वातावरण देखता हूं. मुझे नहीं लगता कि यहां या पाकिस्तान में ऐसी कोई मांग है. कुछ लोग चाहते हैं कि ऐसा हो जाए, लेकिन इसमें कोई खास वजन नहीं है. यहां भी यह मांग किसी ने उठाई तो भाजपा ने या आरएसएस के आदमी ने, लेकिन कोई ऐसी बात नहीं है कि यह मांग आम जनता की है.

हम लोग भी सियालकोट (पाकिस्तान) से आए थे तो सोचा था कि आना-जाना रहेगा लेकिन नहीं हुआ. बड़े-बड़े गेट बन गए. लेकिन मैंने यह शुरू किया कि हर 14-15 अगस्त को मोमबत्ती जलाता हूं. यह इसलिए कि रोशनी तो शांति का संदेश है. यह इच्छा है कि वे लोग इधर आएं, हम उधर जाएं. अब दोनों दो मुल्क हैं. मैं नहीं चाहता था कि ये बंटवारा हो और धर्म के नाम पर यह जो लकीर पड़ी, यह बहुत बुरा हुआ. धर्म की वजह से यहां सरकार में मुस्लिम की कोई महत्ता नहीं रही. हालांकि वे 20 करोड़ के करीब हैं. यह सब शायद पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना ने नहीं सोचा था. हालांकि जब पाकिस्तान बन गया तो उसने यह जरूर कहा था कि अब तुम हिंदू-मुस्लिम नहीं रहे. लेकिन हिंदू-मुसलमान में काफी जहर फैल गया था कि हम अलग कौमें हैं. मजहब के बिना पर कौमियत का सवाल खड़ा हो गया था. लेकिन जब भी हम पाकिस्तान जाते हैं तो बहुत खातिर करते हैं. और हिंदुस्तानी उपमहाद्वीप के बाहर पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी सबसे बड़े दोस्त हैं. क्योंकि एक ही जबान है, एक ही लिबास है, एक ही खाना-पीना है, लेकिन यह मांग कि सब लोग फिर से इकट्ठा हो जाएं तो यह मांग नहीं है कुछ लोगों की ख्वाहिश है. ये भाजपा वाले अखंड भारत की बात करते हैं जो कि हो नहीं सकता.

इस तरह की कोशिश सफल होने के लिए पहले लोगों को बदलना पड़ेगा. आज हिंदुस्तान में देख लीजिए कोई पाकिस्तान से आया हो तो उस पर शक की निगाह है. जो यहां आए, उनको कहा जाता है कि यह पाकिस्तानी है. यहां भी जरा-सी टेंशन होने पर मुसलमानों को कह दिया जाता है कि यह पाकिस्तानी है.

पाकिस्तानियों से हम नफरत-सी करते हैं. हिंदू-मुसलमान के बीच जो नफरत पनपी थी उसके बारे में यह धारणा थी कि पाकिस्तान बनने के बाद वह खत्म हो जाएगी, लेकिन वह खत्म नहीं हुई. यह सही है कि अब उतने फसाद नहीं होते, लेकिन फिर भी होते हैं. यूरोपियन यूनियन जैसा कोई संघ बना लेना संभव है, लेकिन जब लोग चाहेंगे. मेरा ख्याल है कि अंतत: वही होगा, जब तिजारत वगैरह सही तरीके से चलने लगे. लेकिन अभी तो हिंदुस्तान में ही किसी मसले पर एक राय नहीं हो पाती. एक-एक बिल पास होने में कितनी मुश्किल आती है. जीएसटी पर हम कितने समय से कोशिश कर रहे हैं. तो अगर हिंदुस्तान में ही एक प्रांत दूसरे प्रांत से एकमत नहीं है तो पाकिस्तान और हिंदुस्तान का एक हो जाना तो बहुत बड़ी बात है. 

मैं बहुत चाहता था कि बॉर्डर पर बहुत नरमी हो. लोग आए-जाएं. यह 1965 युद्ध तक रहा भी. लेकिन उस युद्ध के बाद तारबंदी और हदबंदी हो गई. दूसरे, हमारे यहां के लोगों में भी देखिए तो बहुत कम लोग हैं जो बराबरी पर विश्वास करते हैं. ज्यादातर तो यही सोचते हैं कि मैं बड़ा और वह छोटा. कश्मीर को लेकर भी सहमति नहीं बन पाई. अब कश्मीर का मसला लीजिए तो सहमति या शांति की स्थिति कहां से बनेगी. बात करनी है तो करते रहिए. कश्मीर में समस्या है कि जम्मू हिंदू बहुल है जो भारत के साथ आ जाएगा लेकिन कश्मीर के लोग अलग मुल्क चाहते हैं. वे पाकिस्तान के साथ भी नहीं जाना चाहते. अब हिंदुस्तान इस बात की इजाजत तो नहीं देगा कि उनकी सीमा पर एक और मुस्लिम देश बन जाए. हां, यह हो सकता है कि आज से 50 बरस बाद लोग सोचें और दोनों देशों के बीच आसानी से आना-जाना शुरू हो जाए. अभी तो आप आसानी से वीजा भी नहीं ले सकते. अब दोनों तरफ पढ़ाई, घरों का माहौल सब बदल गया है. अब हमारे यहां अतिवाद और कट्टरपंथ की वजह से मुसलमान को पाकिस्तान से जोड़ दिया जाता है. यहां कोई अस्थिरता की स्थिति हो तो मुसलमान आरोप झेलता है. अब यहां का मुसलमान अपने स्लम इलाके में ही खुश है. उसे डर लगता है. अब वह हिस्सा मांगने की जगह अपनी जान-माल की सुरक्षा भर चाहता है. जब तक कि हिंदू, जो इस देश में 80 फीसदी हैं, वे उसको विश्वास में लेकर मेनस्ट्रीम में लाएं, बाहर निकालें तो यह हो सकता है, लेकिन हिंदू इसके लिए तैयार नहीं है. कोई इक्का-दुक्का हो सकता है. हो सकता है कि समय बदले, यूरोप और पश्चिम के देशों की मिसाल देखकर लोगों को मन बदले, तो यह हो सकता है. लेकिन वे इकट्ठा नहीं होंगे. यह हो सकता है कि कोई कॉमन यूनियन बन जाए. 

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अभी नरेंद्र मोदी ने एक पहल की, वह अच्छी थी. पाकिस्तान में इसकी बहुत सराहना हुई. अब यह होना चाहिए कि बॉर्डर खुल जाएं, राशन कार्ड वगैरह दिखाकर लोग इधर आएं, उधर जाएं, यह हो सकता है, जैसा 65 के युद्ध तक था. लेकिन आज एकीकरण मुमकिन नहीं है क्योंकि आज भी यहां टायर फटता है तो कहते हैं पाकिस्तानियों ने बम चलाया. यही हाल उधर भी है. दूसरे, वहां किताबों में जो पढ़ाया जाता है वह नफरत से भरा है. हाल में तो हमने नहीं देखा लेकिन जब देखा था तब उनके यहां की किताबों में नफरत भरी थी. हमारे यहां शुरुआत में कुछ-कुछ ऐसा था, लेकिन बाद के वर्षों में बदल दिया गया. तो मेरे ख्याल है कि दोनों देश फिर से इकट्ठा हो जाएं, यह तो संभव नहीं है, लेकिन यह संभव जरूर है कि आपस में रिश्ते अच्छे हो जाएं, दोनों के कॉमन मार्केट हो जाएं. हालांकि इसमें भी बहुत देर लगेगी. पढ़ाई करनी पड़ेगी. आप बाहर जाएं तो देखेंगे कि दोनों आपस में बहुत अच्छे दोस्त हैं. मैं लंदन या अमेरिका गया तो जो सबसे बेहतर दोस्त हैं, हिंदू-मुसलमान दोनों ने मिलकर पार्टी दी. बाहर यहां के हिंदू-मुसलमान एक हैं.

मैं भी राजनीतिक वातावरण देखता हूं. मुझे नहीं लगता कि यहां या पाकिस्तान में ऐसी कोई मांग है. कुछ लोग चाहते हैं कि ऐसा हो, लेकिन इसमें कोई खास वजन नहीं है. हो सकता है समय बदले और कोई कॉमन यूनियन बन जाए

विभाजन के बारे में बात करें तो ज्यादा कसूर मुस्लिम लीग का ही था. लेकिन कांग्रेस में गड़बड़ियां थीं. जैसे मौलाना अबुल कलाम आजाद कांग्रेस में थे लेकिन उनको वह इज्जत नहीं मिली जो नेहरू या गांधी को मिलती थी. जब आजादी मिल गई तब तो मौलाना अबुल कलाम आजाद की बात तो कोई सुनता ही नहीं था. मैंने खुद देखा, मुसलमान जाते थे उनसे अपनी बात कहने. जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर उन्होंने एक तकरीर भी दी थी. बहुत अच्छी तकरीर थी. उन्होंने कहा, ‘जब मैंने बोलना चाहा तुम लोगों ने मेरी जबान काट दी. जब मैंने लिखना चाहा, तुम लोगों ने मेरे हाथ काट दिए. मैं तुमसे कहता रहा लेकिन नहीं सुना. अब तुम कहते हो कि हमें हिंदुओं के गलबे (प्रभाव) से डर है और हम अलग मुल्क चाहते हैं. अगर एक छोटा सा मुल्क ले लोगे तो बाकी हिंदुस्तान में हिंदू और बहुमत में हो जाएगा.’ और यही हुआ. जब तक्सीम हुई तो मुसलमान इसी तरफ ज्यादा थे, उस तरफ कम थे. मौलाना आजाद ने कहा था कि तक्सीम के बाद हिंदू कहेगा कि तुमने अपना हिस्सा ले लिया, अब जाओ उधर. और मुझे याद है, तक्सीम के बाद यही शुरू हो गया था. ये तो गांधी जी ने और नेहरू ने इसको बचा लिया. सरदार पटेल तो इससे तटस्थ थे. उस वक्त अगर गांधी, नेहरू न बचाते तो माहौल तो ऐसा बन गया था कि उनका तो अलग देश बन गया, अब उनको उधर जाना चाहिए. उन्होंने बचाया इसलिए क्योंकि जो स्वतंत्रता संघर्ष था कांग्रेस था, वह यह था कि हम ऐसा देश बनाएंगे जिसमें हिंदू और मुसलमान का फर्क नहीं रहेगा. तभी तो आज हमारा प्रशासन संविधान से चलता है. हम हिंदू राष्ट्र बन सकते थे, लेकिन नहीं. हमने हिंदू-मुसलमान को बराबर की नागरिकता दी. हमारा भी एक वोट और तुम्हारा भी एक वोट.

इस बराबरी के बावजूद मुसलमानों की स्थिति खराब रह गई क्योंकि अंतत: तो मसला अर्थव्यवस्था का है. अब मान लो कि एक इंजीनियर है. सरकारी नौकरियों में तो बहुत कंप्टीशन है, दूसरे नौकरियां कम हैं, उसे छोड़ दो. जाहिर है वह प्राइवेट सेक्टर की तरफ जाएगा. वहां ज्यादा हिंदू हैं. वह नौकरी मांगने जाता है तो नौकरी देने वाला नाम-पता पूछने के बाद कोई बहाना बना देता है. मुझे याद है कि मैं स्टेट्समैन का संपादक था. एक पत्रकार थे सईद नकवी साहब, वहां रिपोर्टर होते थे. वे एक स्कॉलरशिप के तहत बाहर गए हुए थे. वापस आए तो अचानक एक दिन आकर कहने लगे, ‘जी, मुझे कोई घर नहीं देता.’ मैंने कहा, ‘ये कैसे हो सकता है?’ मैंने पता किया तो पता चला कि सीधा तो नहीं पूछते कि मुसलमान हो कि हिंदू, लेकिन बाद में नाम वगैरह पता चलने पर कहते थे कि देखिए भाई आप लोग तो मांस-मछली वगैरह खाते हैं, हम लोग तो नहीं खाते. इस तरह का बहाना करके घर देने से मना कर देते थे. हमने स्टेट्समैन में ही उनको रेंट पर घर दिया. आप हमारी कॉलोनी देखिए, यह वसंत विहार है. इसमें एक भी मुसलमान का घर नहीं होगा. एक आदमी था मिनिस्ट्री में तो उसे घर मिला था. इधर एक-दो लोग किराये पर आए हैं.

समस्या यह हो गई है कि हमारे वक्त हिंदू-मुसलमान में सामाजिक संपर्क थे. घरों में आना-जाना, ईद-होली या त्योहारों पर. आज देखो तो यह बिल्कुल नहीं है. गांव में अभी भी यह दिखता है कि लोगों में आपसी संपर्क हैं. लेकिन शहरों में यह खत्म कर दिया गया है. भाजपा की इसमें प्रमुख भूमिका रही है क्योंकि उसकी जो विचारधारा है वह आरएसएस की विचारधारा है. वह विचारधारा ही हिंदू राष्ट्र की है.

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जो सांप्रदायिक अभियान चल रहा था, वह धीरे-धीरे जड़ों तक पहुंचा क्योंकि मोहम्मद अली जिन्ना ने अभियान शुरू कर दिया कि हिंदू और मुसलमान दो कौमें हैं. वे द्विराष्ट्र सिद्धांत लेकर आए. यह ठीक है कि वे जीत गए, लेकिन वह भावना लोगों के खून में रह गई. जब पाकिस्तान बन गया तब कहने लगे कि अब तुम हिंदू या मुसलमान नहीं हो, अब तुम या तो हिंदुस्तानी हो या पाकिस्तानी. लेकिन इसका अंजाम यह हुआ कि अंग्रेज गए तो हम एक-दूसरे पर झपटे. दस लाख लोग उस वक्त मारे गए थे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(अमित व कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)

अखंड भारत की शुरुआत सांस्कृतिक भारत से होगी

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तीनों देशों को मिलाकर अखंड भारत कहने की जगह हम इसको सांस्कृतिक भारत और बृहत्तर भारत कहेंगे. सांस्कृतिक भारत की जब हम बात करते हैं तो तीनों देशों में जो भी सांस्कृतिक प्रतीक हैं, जो कि तीनों देशों में हमें प्राप्त हैं, जैसे- नदियों के नाम हैं, प्रमुख नगरों के नाम हैं, प्रमुख चिह्न और स्थल हैं, वे सब तीनों देशों को आपस में जोड़ते हैं. जब अखंड भारत था तो जो भी इस प्रकार के सांस्कृतिक स्थल थे, जहां हम जाते थे वे सब तीनों देशों में मौजूद हैं. इसलिए भाषा की दृष्टि से, साहित्यिक दृष्टि से, संस्कृति की दृष्टि से और भौगोलिक दृष्टि से भी, ये सब जो समानताएं हैं वे सब समानताएं वास्तव में इसको एक बृहत्तर भारत बनाती हैं. तीनों देशों में सबके अपने उत्सव हैं जो अपने-अपने ढंग से अपने-अपने यहां मनाए जाते हैं. संस्कृति का अर्थ यह है कि सम्यक करोति इति संस्कार: अर्थात जो संस्कार देती है, यानी जो बताती है कि जीने का ढंग ऐसा होना चाहिए जो सबके लिए लाभकारी हो. इस तरीके की सोच हमारे भारत की है. इस तरह की पहल भारत ही कर सकता है. कोई पाकिस्तान या बांग्लादेश यह सोच आगे नहीं बढ़ा सकता. यह सोच अगर शुरू करनी है तो भारत ही करेगा. भारत का हिस्सा रहे तीनों देश और जहां-जहां भी हमारे चिह्न हैं, उन्हें हम भारत का एक सांस्कृतिक स्वरूप कहते हैं. इन तीनों देशों की भौगोलिक सीमाएं एक हैं, इसलिए हम अखंड भारत कह सकते हैं. भारत को इस दृष्टि से प्रयास करना चाहिए. उसके लिए सांस्कृतिक आदान-प्रदान, साहित्यकारों का आना-जाना, तीनों देशों के तीर्थ यात्रियों का स्वागत करना, उनका सम्मान करना, साहित्य का सृजन करना, उसके बारे में बच्चों को बताना, इन सब बातों को शिक्षा में लाना- ये सब वे साधन हैं जिनको अपनाने से एक बृहत्तर भारत की संकल्पना साकार हो सकती है, यदि भारत आगे बढ़कर प्रयास करे तो.

जहां तक भौगोलिक सीमाओं का सवाल है तो भारत, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश तीन राज्य हैं. वे तो राज्य ही रहेंगे. शासन तीनों का रहेगा ही. हम सांस्कृतिक दृष्टि से एक हो सकते हैं, जो हमारी परंपराएं हैं, संस्कृतियां हैं उनको याद कर सकते हैं. उस दृष्टि से भारत एक पहल करे कि हमारा एक सांस्कृतिक मंडल पाकिस्तान जाए, या बांग्लादेश जाए, वहां एक प्रकार की सोच का प्रसार करे कि सीमाएं होते हुए भी कोई शत्रुता नहीं रहे. तीनों में एकता का भाव विकसित हो. जब अखंड भारत की बात तीनों प्रदेश करेंगे तो शत्रुता अपने आप खत्म हो जाएगी. हम एक-दूसरे के सुख-दुख में सहायक हो सकते हैं. प्राकृतिक आपदाएं आती हैं तो तीनों मिलकर उन आपदाओं को दूर करने का प्रयास करेंगे. अब यह स्थिति तो नहीं हो सकती कि तीनों राज्य एक हो जाएं. शुरुआत सांस्कृतिक भारत से होगी, बृहत्तर भारत से होगी और आगे चलकर अगर स्थिति बनेगी तो तीनों एक भी हो सकते हैं. 

एकीकरण के मामले में जर्मनी का उदाहरण है लेकिन उनमें और हममें फर्क है. जर्मनी अलग हुआ था तो उसके दोनों हिस्से बिल्कुल समान थे. जर्मनी का बंटवारा इतनी कटुता से नहीं हुआ था. हमारे यहां पाकिस्तान और बांग्लादेश कटुता से बने हैं. तमाम लड़ाई-झगड़े हुए, मार-काट हुई. इसलिए वहां फर्ज था लेकिन यहां पर हृदय परिवर्तन की बात है. मैंने तो बताया है कि तीनों प्रदेशों की भौगोलिक सीमाएं रहेंगी. तीनों देशों का राज्य भी रहेगा. सांस्कृतिक दृष्टि से हम एक रहेंगे. उत्सव मनाएंगे साथ. अनेक प्रकार के कार्यक्रम हो सकते हैं एक साथ जो कि हम तीनों समान रीति से मना सकते हैं. एक-दूसरे के देश में जा सकते हैं, आ सकते हैं. धार्मिक स्थल हैं, उनको बनाए रख सकते हैं, उनको आदर दे सकते हैं. जैसे पाकिस्तान में मुल्तान प्रह्लाद की जन्मभूमि है. अब अगर प्रह्लाद को याद करना है तो मुल्तान को याद करना होगा. लव-कुश है तो लाहौर को याद करना पड़ेगा. ऐसे जो हमारे प्राचीन नाम हैं और जो इस प्रकार के लोग रहे हैं उनको हमें स्मरण करना होगा. ऐसी सांस्कृतिक स्मृति होनी चाहिए और कटुता खत्म होनी चाहिए.

इसे बृहत्तर भारत तब बोलेंगे जब हम एक होंगे. एकता का आधार संस्कृति है. इसलिए अगर सांस्कृतिक दृष्टि से हमने आपस में मिलना-जुलना शुरू किया, एक-दूसरे के सुख-दुख में सहायक होना शुरू किया तो निश्चित ही यह जो भौगोलिक सीमा है, यह भी हो सकता है आगे चलकर यह न रहे. हम पासपोर्ट और वीजा के बिना ही एक-दूसरे के यहां आ-जा सकें. आना-जाना सब सरल हो जाए जैसा कि कई देशों में है. आप अगर बृहत्तर भारत कहते हैं तो उसकी व्याख्या सांस्कृतिक भारत हो जाएगी. जहां तक सांस्कृतिक भारत जैसी संज्ञा को पाकिस्तान या दूसरे देशों द्वारा स्वीकार करने का सवाल है तो ग्रेटर इंडिया तो हम उच्च शिक्षा में पढ़ाते ही हैं. जब हम ग्रेटर इंडिया पढ़ाते हैं तो उसके कुछ बिंदु हैं कि क्यों इसे ग्रेटर इंडिया कहा जाता है. ग्रेटर इंडिया जैसा शब्द तो तीनों देशों की शिक्षा स्वीकार कर रही है. जब हम संस्कृति की बात करते हैं तो उस पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो जाता है. लेकिन धीरे-धीरे पहले उसको स्वीकार किया जाए और उसे फैलाया जाए. मेरा मानना है कि जब हम तीनों सोचना-विचारना, उठना-बैठना, मिलना-जुलना, आना-जाना शुरू करेंगे, तो फिर आर्थिक दृष्टि से भी एकता हो सकती है. आर्थिक निवेश और व्यापार भी हो सकता है. एकता होने पर यूरोपीय संघ जैसा भी प्रयोग हो सकता है. पहले जरूरी है कि यह सोच शुरू करनी चाहिए. जो भी इतिहासकार, साहित्यकार हैं, जो भी देश के बारे में सोचने वाले हैं, भारत, पाकिस्तान या बांग्लादेश के, उनमें जो अच्छी सोच रखने वाले लोग हैं, उनका स्मरण किया जाए तो अपने आप बात आगे बढ़ जाएगी.

(लेखक शिक्षा बचाओ आंदोलन के संयोजक एवं संघ विचारक हैं)

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)

अखंड भारत की बात संघ की मूर्खता का प्रमाण

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भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के एकीकरण की तो चर्चा ही नहीं की जानी चाहिए. मेरे ख्याल से ऐसा कुछ बोलने के लिए अपना मुंह ही नहीं खोलना चाहिए. इन देशों का अब तक दो मर्तबा विभाजन हो चुका है. एक 1947 में जब पाकिस्तान बना और एक बार 1971 में जब बांग्लादेश बना. न तो पाकिस्तान और न ही बांग्लादेश चाहता है कि दोबारा हम एक मुल्क बनें. अब एकीकरण के अनेक मतलब निकाले जा सकते हैं. लेकिन सबसे बड़ी आशंका यही है कि इसका मतलब बनता है कि दोनों विभाजन रद्द करने पड़ेंगे. पर अगर आप ऐसा करते हैं तो जो हमारे पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश हैं वे कहेंगे कि भारत हम पर हावी होना चाहता है.

यह अलग बात है कि हमारे बीच आपसी सहयोग होना चाहिए. वैसे अगर हम एकीकरण की बात करें तो सबसे पहला सवाल यह उठता है कि कौन कर रहा है और क्यों कर रहा है. भारत में यह बात अभी आरएसएस के लोग कर रहे हैं. इन लोगों ने शुरू से यह कहा है कि इस पूरे इलाके पर हिंदुओं का शासन रहा है. उनके लिए यह एक सांस्कृतिक मांग है जिसके जरिए वे एक हिंदू भारत बनाना चाहते हैं इसमें पाकिस्तान और बांग्लादेश हिस्सा होंगे. इसके लिए पाकिस्तान और बांग्लादेश में कोई तैयार नहीं होगा. अगर मुझसे पूछा जाएगा तो मैं भी इसके लिए तैयार नहीं हूं.

अगर हम एकीकरण के बारे में बात करें तो हमें यह जानना चाहिए कि हम दुनिया की इकलौती ऐसी सभ्यता हैं जिसमें हर धर्म को समेट लिया गया है. इस दुनिया का ऐसा कोई धर्म नहीं है जिसने अपना योगदान हमारे देश के निर्माण में न दिया हो. यह योगदान इन सारे लोगों ने यह सोचकर नहीं दिया कि वे हिंदू हैं या मुसलमान. इसके पीछे की सोच सिर्फ यही रही कि वे भारतीय हैं. और यदि आपने भारतीय की बात की तब सवाल उठता है कि पाकिस्तानी भारतीय कैसे बन सकता है और बांग्लादेशी भारतीय कैसे बन सकता है. यह तो मूर्खता है और यह तो तथ्य है कि आरएसएस वाले मूर्खता की ही बात करते हैं.

अब अगर यूरोपियन यूनियन जैसी अवधारणा की बात करें तो वह तो एक अलग बात है. अब देखिए यूरोपियन यूनियन में शामिल हर मुल्क अपनी पहचान रखता है. हर मुल्क की अपनी जुबान है. अपनी संस्कृति है. अपनी संसद है. जर्मनी के चुनावों में कोई फ्रांसीसी भाग नहीं ले सकता और फ्रांस के चुनाव में कोई जर्मन वोट नहीं डाल सकता है. बहुत-से अलग-अलग कानून हैं जो मुल्क अपने हिसाब से बनाते हैं. कुछ नीतियां हैं जो यूनियन के हिसाब से तय करते हैं. तो इस यूनियन में आपसी सहमति से कुछ ऐसी प्रणाली बन सकती है जिसके अंतर्गत 10-20 देश काम करें.

पाकिस्तान का कहना है कि विभाजन धर्म के आधार पर हुआ लेकिन मुझे बताइए कि अगर धर्म के आधार पर हुआ तो फिर इतने मुसलमान हिंदुस्तान में कैसे रुक गए. आप इस्लाम की कल्पना भारत के बिना नहीं कर सकते हो

अगर आपके पास शेनगेन वीजा है. यह यूरोपियन यूनियन के चंद देशों में चलता है. आपको ब्रिटेन जाना हो तो शेनगेन वीजा लेकर नहीं जा सकते हो. ऐसे ही यूरोपियन मॉनेटरी यूनियन है. इसमें भी चंद मुल्क बाहर हैं. सभी तो शामिल नहीं हैं. तो आप यह कह सकते हैं कि चुनिंदा विषयों के लिए एक संघ बनाया जा सकता है जिसमें दो या अधिक मुल्क शामिल हो सकते हैं लेकिन आप सबको उसमें शामिल होने के लिए मजबूर नहीं कर सकते.

मिसाल के तौर पर, हमारा साउथ एशियन एसोसिएशन फॉर रीजनल कॉरपोरेशन (सार्क) है. यहां हम कई देशों के साथ विभिन्न मुद्दों पर बात करते हैं. आर्थिक सहयोग को लेकर चर्चा होती है. लेकिन आप किसी को मजबूर नहीं कर सकते हैं. यदि किसी को मजबूर करने की कोशिश की और उन्होंने कहा कि हमें नहीं जाना और हम उसमें नहीं जाना चाहते हैं तो सार्क का कोई भविष्य नहीं रहेगा.

वैसे भी आर्थिक सहयोग या दूसरे प्रकार के सहयोग की बात अलग है लेकिन अखंड भारत बिल्कुल अलग चीज है. यह संघ का आइडियोलॉजिकल मकसद है. वर्ष 1923 में जब सावरकर ने हिंदुत्व की बात की तब किसी ने नहीं सोचा था कि 25 साल के अंदर कोई पाकिस्तान बनेगा या पचास साल के अंदर बांग्लादेश में बंट जाएगा. तो उस समय जिस हिंदुस्तान की सोच थी उसमें शायद अफगानिस्तान को भी शामिल किया होगा क्योंकि अभी भी उनका कहना है कि गांधारी अफगानिस्तान से आई थीं. अभी तो उनका मकसद है कि अफगानिस्तान को भी इसमें समेट लो तिब्बत को भी इसमें समेट लो. क्या पता म्यांमार को भी समेट लें. श्रीलंका और मालदीव को भी जोड़ लो इसमें. क्योंकि लक्षद्वीप हिंदुस्तान में हो सकता है तो मालदीव क्यों नहीं? अब ऐसी बात तो मूर्खता है. लेकिन उससे ज्यादा इसमें बहुत बड़ा खतरा है. लोग पूछने लगेंगे हमारे देश में ही नहीं पर हमारे पड़ोसी देश में भी कि आखिर ये लोग चाहते क्या हैं, हमें खत्म करना चाहते हैं क्या. तो पड़ोस में ऐसे सवाल उठने ही नहीं चाहिए. ऐसे बोलने से जो सहयोग की संभावना है वह न केवल कम हो सकती है बल्कि मिट भी सकती है.
बांग्लादेश और पाकिस्तान में तो कभी ऐसी चर्चा सुनने में नहीं आई जिसमें कहा जाता हो कि सबको एक हो जाना चाहिए. शायद कुछ लोग हों जो ऐसा कहते हों लेकिन उसको कुछ खास अहमियत आप नहीं दे सकते हैं.

जब तक आप भूटान, नेपाल, मालदीव, पाकिस्तान, श्रीलंका की अलग-अलग हैसियत को मान्यता नहीं देंगे तब तक किसी प्रकार का सहयोग नहीं हो सकता है. अब देखिए तमिलनाडु में लोग कहते हैं कि श्रीलंका के जो तमिल हैं वे उनके ही लोग हैं. आप यह कहो तो वहीं के वहीं बातचीत श्रीलंका के साथ बंद हो जाती है. हमें यह कहना है जैसा कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी कहते आए हैं कि हम यह नहीं चाहते हैं कि श्रीलंका की एकता या अखंडता पर खतरा हो. हम बस इतना चाहते हैं कि उस एकता और अखंडता को कायम रखने के लिए वही हक और अधिकार दिए जाएं तमिल लोगों को जो कि श्रीलंका के लोगों को मिलता है. ऐसे ही आप आगे बढ़ सकते हैं लेकिन अगर उन लोगों को कहा जाए कि आप आ जाइए और नागपुर को हम राजधानी बनाएंगे, तो ऐसा कहने वाले लोग पागल ही कहलाएंगे.

पाकिस्तान का कहना है कि विभाजन धर्म के आधार पर हुआ लेकिन मुझे बताइए कि अगर धर्म के आधार पर हुआ तो फिर इतने मुसलमान हिंदुस्तान में कैसे रुक गए. आज के दिन आप आंकड़े देखिएगा विश्व की दूसरी सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाला देश हिंदुस्तान है. आप इस्लाम की कल्पना भारत के बिना नहीं कर सकते हो. यह है इक्कीसवीं सदी की असलियत और वैसे ही आप देखिए कि ईसाईयों में जब जीसस क्राइस्ट शहीद हो गए तो सेंट पीटर्स गए रोम की तरफ और सेंट थॉमस आए हिंदुस्तान की तरफ. सेंट थॉमस के हिंदुस्तान पहुंचने के चंद ही सालों के अंदर सीरियन चर्च स्थापित हुआ जो विश्व का सबसे पुराना चर्च है. इतना पुराना है कि एक सीरियन क्रिश्चियन कह सकता है कि पोप प्रोटेस्टेंट हैं. यह है हमारा इतिहास और हमारी सभ्यता. जब ये पारसी लोग ईरान से भगाए गए तो किसने यहां शरण दी? हमारे मुसलमान राजाओं ने. वे मुसलमान राजाओं से बचकर भागकर यहां आए और शरण भी उन्हें मिली मुसलमान राजाओं और बादशाहों की तरफ से.

बौद्ध धर्म और जैन धर्म कहां से शुरू हुए. जो हिंदू धर्म के अंतर्गत एक किस्म की बगावत हुई, एक फलसफे के लिहाज से और दूसरी सामाजिक लिहाज से. इसके बाद ये दोनों अलग धर्म पैदा हुए. फिर इन दोनों धर्मों का योगदान हमारे देश के निर्माण में रहा. इतना ही नहीं, अशोक के जमाने से लेकर कन्नौज के हर्षवर्धन के जमाने तक तकरीबन हजार साल यह एक हिंदू देश ही नहीं था. यह तो बौद्धों का देश था और दक्षिण भारत में जैनों का. बीच में वह गुप्त साम्राज्य आया जिसने हिंदू धर्म को कुछ प्रोत्साहन दिया. फिर अंत मंे जाकर आदि शंकराचार्य के आने पर बौद्ध धर्म को छोड़कर सब लोग हिंदू धर्म में वापस आए.

बांग्लादेश और पाकिस्तान में तो कभी ऐसी चर्चा सुनने में नहीं आई कि कहा गया हो कि सबको एक हो जाना चाहिए. शायद कुछ लोग हों जो ऐसा कहते हों लेकिन उनको कुछ खास अहमियत आप नहीं दे सकते हैं

नतीजा यह हुआ कि बौद्ध धर्म का तकरीबन नाम और निशान ही मिट गया है. इसके बाद भारत में इस्लाम आया. मोहम्मद बिन कासिम आया. वह 17 साल का लड़का था. वह छह महीने हिंदुस्तान में रहा फिर जब वापस गया तो उसका गला काटा गया. तो अठारह साल के अंदर वह खत्म हो गया, इस इतिहास को छिपाकर कहते हैं कि कासिम आया अपनी तलवार ले आया और सबको मुसलमान बना गया. यह बकवास है. वह यहां 711 आया में और 712 तक चला गया. और जाने के पहले उसने उत्तर भारत की सबसे पहली मस्जिद अलोर में बनाई. यह सिंधु दरिया के बाएं हिस्से में है. मैं वहां गया था. उस मस्जिद में अरबी में कुछ लिखा है जिसका अनुवाद पाकिस्तान के एक एसडीएम ने करवाया है और उसमें जो दो-चार चीजें लिखी हैं उनमें मूल बात यह है कि वे कहते हैं कि आप ब्राह्मणों को तंग मत करो. सब हिंदुओं को वे ब्राह्मण कहते थे. ब्राह्मणों को तंग मत करें, उनको अपना कर सुल्तान को देना है, यहां तक उनको मजबूर करो लेकिन धर्म छोड़ने के लिए मजबूर मत करो. और जैसे कि हम यहूदियों और पारसियों की देखभाल दमिश्क में करते हैं, वैसा ही ब्राह्मणों की देखभाल यहां की जानी चाहिए.

यह कहकर फिर वो गए. और अब आप आंकड़े देखिए, वे वापस गए 712 में और अगला जो बाहर से मुसलमान आया भारत में तलवार के साथ वह 997 ईस्वी में आया. मतलब 285 साल के बाद. और उन 285 सालों के अंदर वो हिस्सा जो आज पाकिस्तान कहलाता है वहां मुसलमानों की बहुलता हो गई है. कैसे? क्योंकि वे पैगंबर का पैगाम लेकर आए थे जिसमें समानता की बात कही गई थी. तो वे सारे जो हमारे शेड्यूल कास्ट वगैरह थे उन्होंने कहा कि ये हमारे हिंदू लोग कहते हैं कि हम नीच जाति के हैं क्योंकि हमने कुछ पाप किया है पिछले जन्म में, हमें याद भी नहीं है कि हमने क्या गलती की है लेकिन इस पूरी जिंदगी को बर्बाद किया गया है. किसी पूर्व जन्म में जिसका हमें कोई स्मरण भी नहीं है, भूत में होता तो भी, लेकिन पूर्व जन्म में. और ये आते हैं और कहते हैं कि बादशाह और सबसे गरीब भिखारी को भी मस्जिद में जाने से पहले वजू करने की जरूरत होती है. वजू किससे होता है, पानी से. और हिंदू लोग पानी को ही कहते हैं कि उन्होंने छू लिया तो हम नहीं छुएंगे. वहां मुंह-हाथ धोकर वे अपने धर्मस्थल मस्जिद में जाते हैं. वहां कोई पुजारी नहीं है, वहां एक मुतवल्ली है जो प्रार्थना को आगे बढ़ाता है लेकिन प्रार्थना के पश्चात तब वे दुआ मांगते हैं. और ब्राह्मण कहता है कि भगवान को संस्कृत ही पता है. और हम आपको संस्कृत सिखाएंगे ही नहीं. आपको तो प्राकृत में बोलना चाहिए और हमसे कहिए कि आप क्या चाहते हैं और साथ-साथ पांच रुपये भी दे दीजिए, हम आपका संदेश भगवान तक पहुंचाएंगे. जहां कि इस्लाम में कहा जाता है कि दुआ आप अपनी ही भाषा में मांगें और भगवान को जिसे वे खुदा कहते हैं, उसकी समझ में आ जाएगी और फिर वे तय करेंगे कि आप जो मांग रहे हैं वह आपको मिलेगा या नहीं. तो जो यह एक तरफ असमानता के आधार पर हमारा हिंदू समाज बना है तब यह पैगाम आया कि हम सब समान हैं. तो जब आप ऊपर होते तो कहते कि मैं भला क्यों इसेे मानूं पर जब नीचे होते तो कहते हैं कि आप क्यों नहीं मानते? फिर 999 में पहली बार सुबुक्तगीन के बेटे गजनवी महमूद आए और फिर 1026 तक 27 साल में 17 बार भारत पर आक्रमण किया और बहुत कुछ ले गए. 1026 में जब वो लौटे तो उसके बाद बाहर से कौन-सा मुसलमान भारत आया?

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1192 में वीपी सिंह के पूर्वज के पूर्वज राजा जयसिंह उन्होंने अपने दामाद को सबक सिखाने के लिए गोरी को निमंत्रण दिया कि मेरे दामाद ने मुझे एक बार हरा दिया अब आप आकर इनको हराइए. निमंत्रण लेकर गोरी यहां आए. यह भी नहीं कहा जा सकता कि आक्रमण था. दावत पर बुलाया गया. दावत पर आए और फिर उन्होंने देखा कि यहां तो बिल्कुल वैक्यूम है, खाली है तो इसलिए उन्होंने यहां अपनी सल्तनत बनाई. तो 712 और 1192 और इनका फासला तकरीबन 500 साल का था. जबकि उन 27 सालों को छोड़िए तो कोई मुसलमान तलवार के साथ यहां नहीं आया लेकिन जो इस्लाम और उसकी जो सभ्यता है वह हमारी संस्कृति में समेट गई और फिर दो और चीजें आप नोट कीजिएगा कि इस्लाम के आने के पश्चात एक और धर्म भारतवर्ष में पैदा हुआ. वो सिख धर्म है.

इस धर्म का मूल कारण यह था कि जो इस्लाम धर्म था और जो हिंदू धर्म था उसका समीकरण करके सिख धर्म बन गया. आखिर गुरुनानक गए. हज पर नहीं गए लेकिन हज देखने के लिए गए मक्का और मक्का से लौटने पर वे बगदाद होते हुए आए और आज तक आप बगदाद जाइए. मेरी पोस्टिंग हुई है वहां. एक स्थान है जहां वे कहते हैं कि गुरुनानक आए, यहां बैठे, मक्का की तरफ रुख बदलकर उन्होंने देखा उसको यहां से और देखते ही उनके अंदर वह सोच आई जिससे कि सिख धर्म शुरू होता है. और इसलिए जो स्वर्ण मंदिर है उसकी नींव रखने के लिए उन्होंने एक पीर को बुलाया. तो यह हिंदू-मुसलमान सोच का समीकरण है जिसे सिख धर्म हम कहते हैं. एक आखिरी फैक्ट और उसके बाद मेरा भाषण बंद कि मुसलमानों का राज शुरू हुआ यहां दिल्ली में 1192 में और खत्म हुआ बहादुर शाह जफर के साथ 1858 में. बीच में आते हैं 666 साल. 666 साल तक एक मुसलमान सुल्तान बादशाह दिल्ली के सिंहासन पर बैठा रहा और जबकि अंग्रेजों ने 1872 में पहली बार यहां सेंसस लिया. तब मुसलमानों का हिस्सा हमारी आबादी में मात्र 24 प्रतिशत का था. तो यदि वे सबको जान से मार रहे थे मुसलमान बनाने के लिए तो कैसे हुआ कि 80 प्रतिशत तक हिंदू रहे और 24 प्रतिशत ही मुसलमान थे और क्योंकि तभी जाकर मुसलमानों को पता लगा कि हम एक अखलियत हैं. उसके पहले तो सवाल ही नहीं उठा था. उससे पहले भी वे अखलियत थे. लेकिन आप समझते हैं कि औरंगजेब कह रहा था कि मैं माइनॉरिटी हूं.

यह तब से शुरू हुआ जब उसे बताया गया कि आप राज भी नहीं कर सकते हैं और आप विदेशी हैं तो तब जाकर उनकी एक सोच बनी जिससे पाकिस्तान बना. बहुत से मुसलमान हिंदुस्तान में रह गए. तो अपनी हैसियत बनाने के लिए पाकिस्तान या बांग्लादेश जो करना चाहता है वो करे लेकिन यहां हिंदुस्तान में हमें समझना चाहिए कि विविधता ही हिंदुस्तान की पहचान है. जहां विविधता है वहां हिंदुस्तान है. और जहां विविधता नहीं रहेगी, तब कोई भारतवर्ष
नहीं रहेगा.

पाकिस्तान में पिछले 67 साल से उन्होंने बहुत प्रयास किया है इनको एंटी-हिंदू बनाओ, कामयाब रहे हैं क्या? इसलिए अगर लोगों को यह बोला भी जा रहा है तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता

जब सदी के बीसवें दशक में सांप्रदायिकता बढ़ रही थी तब हमने बहुत बड़ी गलती की. जिन्ना साहब ने इंतजाम किया था कि मुस्लिम लीग उसी जगह पर अपनी सालाना मीटिंग करेगी जहां कांग्रेस करती थी. वह जगह थी लखनऊ. चूंकि दोनों सम्मेलन एक समय चल रहे थे तो उन्होंने कहा कि हम आपके साथ जुड़ जाएंगे यदि आप मान लेंगे कि मुसलमानों का अलग इलेक्ट्रेट होगा और हिंदुओं का भी अलग. और इस प्रस्ताव को हमने मान लिया. इसको हम लखनऊ पैक्ट कहते हैं. और उसी समय सरोजिनी नायडू ने इनको यह नाम दिया, हिंदू-मुस्लिम एंबेसडर. सेपरेट इलेक्ट्रेट के लिहाज पर हमारे यहां चुनाव होने लगे और हिंदू हिंदू का ही वोट मांग सकता था और मुसलमान मुसलमान का ही वोट मांग सकता था. वहीं से भारत में राजनीतिक सांप्रदायिकता शुरू हुई. जो बीस का दशक है वह हमारे इतिहास का सबसे दुखद दशक है. इस प्रकार के दंगे-फसाद हुए तब जाकर दशक तीस में हमारी सरकार बनी तो तब कोशिश की जाती थी कि दंगे-फसाद करवाओ. सरकार उसको संभाल नहीं पाई. नतीजा यह हुआ कि तीन साल के अंदर लाहौर रिजोलूशन आया, उसके बाद मुझे आपको इतिहास कहने की क्या जरूरत है.

दोनों मुल्कों के वे लोग जो चाहते हैं कि हमारी यादों का मुल्क बने दोनों मुल्क साथ आएं लेकिन कौन तय करेगा कि मिलाएंगे. यदि आप कहें कि आप मिलाना चाहते हैं तो हिम्मत रखो. जाकर लाहौर में कहो. आप वापस नहीं आएंगे. आपको गरीबी हटानी है तो आप पाकिस्तान की गरीबी पाकिस्तान में हटाओ, हिंदुस्तान की हिंदुस्तान में. यह कौन कह रहा है कि हम दोनों जब मिलेंगे तभी गरीबी से लड़ेंगे.

रहन-सहन समान होने की बात तो ठीक है लेकिन मद्रासी का रहन-सहन तो वह नहीं है जो आपका है. मैं आपको वहां खींचूं और एक धोती पहनाऊं जो तमिलनाडु की वेशभूषा है वह पांच मिनट मेंे आपकी कमर से गिर जाएगी. मैं हर दिन आपको सांभर डोसा खिलाऊं तो जिस चपाती का आप ख्वाब देखेंगे वह वहां नहीं मिलेगी. यह आप मत भूलिए और यह हमारी आखिरी बात है कि आप सवाल कीजिए और मैं सवाल करूं कि भारतीय कौन है और उसका जवाब मैं खुद दूं कि भारतीय वह है जो कि जब अपना मुंह खोलता है ज्यादातर भारतीय उसकी बात नहीं समझते और जो दूसरे भारतीय बोलते हैं उसके बोल हिंदुस्तानी नहीं समझता. हिंदुस्तानी या भारतीय वह है जिसका रंग दूसरे भारतीयों से अलग है. जिसका रेस अलग है, जिसकी भाषा अलग है. जिसके नाच-गाने, लिबास, धर्म, संस्कृति सब अलग हैं तो भारतीय कौन हैं? भारतीय वह है जो कि कहता है कि जो भी कहे कि मैं भारतीय हूं, मैं स्वीकार करता हूं कि वह भारतीय है और यही विविधता भारत की पहचान है. और इसी को आप कायम रखिएगा और यह भूल जाइएगा कि बांग्लादेश को भी समेटेंगे और श्रीलंका को भी ले आएंगे.
अब तक अखंड भारत सरकारी कार्यक्रम में नहीं आया है लेकिन इनके करीब के समर्थक मुंह खोलने लगे हैं लेकिन मुझे नहीं लगता कि मोदी ने कभी इस अखंड भारत का सोचा होगा. आरएसएस के प्रचारक हैं वे कर रहे हैं.

और गुजरात में जो दीनानाथ बत्रा की किताब का जिक्र किया जा रहा है जिसमें कहा गया है कि अफगान-पाक आदि देशों को मिलाकर अखंड भारत बने तो यह तो सावरकर के समय से चलता आ रहा है. हेडगेवार और गोलवलकर के जमाने से चलता आ रहा है.

पाकिस्तान में पिछले 67 साल से उन्होंने बहुत प्रयास किया है इनको एंटी-हिंदू बनाओ, कामयाब रहे हैं क्या? इसलिए अगर लोगों को यह बोला भी जा रहा है तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता. आप गल्फ में चले जाइए वहां तो कोई मतभेद नहीं है भारतीयों और पाकिस्तानियों का. ये कामयाब नहीं रहे लेकिन उसकी कोशिश जारी है.

(लेखक  पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)

(बातचीत पर आधारित)