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किसानों की हुंकार

महापंचायतों में अन्नदाताओं से सीधी राजनीतिक चुनौती मिलने से भाजपा पसोपेश में

किसान देखते-ही-देखते केंद्र सरकार और भाजपा के गले की फाँस बन गये हैं। तीनों कृषि क़ानून वापस लेने की अपनी माँग पूरी न होते देख संयुक्त किसान मोर्चा ने सीधे भाजपा को निशाने पर ले लिया है और भाजपा की राज्य सरकारों समेत केंद्र सरकार को उखाड़ फेंकने की हुंकार भरकर राजनीतिक माहौल को गरमा दिया है। आगामी साल उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में अपनी प्रतिष्ठा बचाने की कोशिश में लगी भाजपा के लिए यह बेचैन करने वाला घटनाक्रम है। किसान आन्दोलन के रूख़, इससे बन रहे राजनीतिक हालात और भविष्य में इसके असर को लेकर बता रहे हैं विशेष संवादाता राकेश रॉकी :-

पिछले क़रीब 10 महीने से अन्नदाता आन्दोलन के लिए लगातार सडक़ पर हैं और केंद्र सरकार उनकी माँगों को अनसुना कर रही है। लेकिन 5 सितंबर को मुज़फ़्फ़रनगर में संयुक्त किसान मोर्चा की महापंचायत ने उसकी नींद उड़ा दी है। अपने दिन-रात खेत में ख़पा देने वाला किसान बिना थके अपनी लड़ाई इस ताक़त से लड़ लेगा, सत्ता में बैठी ताक़तों ने शायद सोचा भी नहीं था। चुनाव की बेला में किसान की अपनी माँगों से हार न मानने की इस ज़िद ने सरकार की साँसें फुला दी हैं। किसान आन्दोलन बढ़ता जा रहा है। पंजाब से लेकर उत्तर प्रदेश तक और देश के दूसरे हिस्सों में किसान मोदी सरकार के तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ अब पूरी ताक़त से आ जुटे हैं। उन्हें पता है कि अगले कुछ ही महीनों में उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव हैं और भाजपा पर दबाव बनाने का यह सही मौक़ा है। शायद यही कारण है कि उन्होंने सीधे-सीधे मोदी सरकार और भाजपा को ही चुनौती दे दी है।

सच तो यह है कि मुज़फ़्फ़रनगर और करनाल की बड़ी महापंचायतों में संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं की सीधे राजनीतिक ललकार ने भाजपा के पसीने छुड़ा दिये हैं और वह दबाव में दिखने लगी है। उत्तर प्रदेश सहित अन्य महीनों में भाजपा को चुनाव झेलने हैं और किसानों के प्रति जनसमर्थन देखते हुए पार्टी के नेताओं के माथे पर सिलवटें हैं। इसी महीने 27 को किसान ‘भारत बन्द’ कर रहे हैं। उन्होंने इसके लिए बाक़ायदा अपना एक कार्यक्रम घोषित कर दिया है। निश्चित है कि किसान अब आर-पार की लड़ाई की तैयारी में हैं।

भाजपा के लिए चिन्ता की बात यह है कि किसान अब सीधे रूप से उसकी सरकार को उखाड़ फेंकने का नारा देने लगे हैं। मोदी सरकार पहले से ही कई मोर्चों पर दबाव झेल रही है। भाजपा की सरकार वाले हरियाणा के करनाल में किसानों पर जिस निर्ममता से लाठीचार्ज करके उन्हें लहूलुहान किया गया, उससे आम आदमी भी रुष्ट हुआ है। इसके बाद किसान और तेज़ी से आन्दोलन को गति देने में जुट गये हैं।

मुज़फ़्फ़रनगर और करनाल की महापंचायतों में किसान नेताओं की भाषा से ज़ाहिर हो गया है कि वे अब राजनीतिक मोर्चे पर भी भाजपा को ललकारने लगे हैं। चुनाव में भाजपा को किसानों की रणनीति भारी पड़ सकती है। मुज़फ़्फ़रनगर की जबरदस्त किसान महापंचायत के पाँच दिन के भीतर ही भाजपा ने उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए अपने प्रभारियों की घोषणा कर दी, जो ज़ाहिर करता है कि वह दबाव में है और उसे चुनाव में अपनी जीत दोहराने को लेकर चिन्ता है। मुज़फ़्फ़रनगर, जो संयुक्त किसान मोर्चा के एक घटक भारतीय किसान युनियन (भाकियू) के नेता राकेश टिकैत का गृह क्षेत्र है; में देश भर के किसानों की जैसी भीड़ जुटी, उसने भाजपा को चिन्ता में डाल दिया है।

किसानों के प्रति मोदी सरकार के रूख़ से आम जनता में भी नाराज़गी दिखती है। इसका एक कारण यह है कि किसानों के बच्चे सेना से लेकर दूसरे क्षेत्रों में रहकर देश की सेवा कर रहे हैं। किसान क़र्ज़ में दबकर आत्महत्या कर रहे हैं और सरकार इसे लेकर कुछ नहीं कर रही। गुजरात सहित कुछ अन्य राज्यों में भाजपा के क़रीबी अमीरों के क़र्ज़ माफ़ करने के आरोप मोदी सरकार पर लगते रहे हैं। लेकिन किसानों की क़र्ज़ माफ़ी की कोई बात इस सरकार ने कभी नहीं की। इसी अगस्त में संसद में एक सवाल के लिखित जबाव में वित्त राज्यमंत्री भागवत किशनराव कराड ने बताया था कि किसानों की क़र्ज़ माफ़ी की सरकार की फ़िलहाल कोई योजना नहीं है। नबार्ड के आँकड़े बताते हैं कि देश के किसानों पर इस समय क़रीब 16.8 लाख करोड़ रुपये का भारी भरकम क़र्ज़ है।

किसानों ने अपने आन्दोलन को अब प्रतिष्ठा से जोड़ लिया है। मोदी सरकार के मंत्री दर्ज़नों बार कह चुके हैं कि कृषि क़ानून किसी भी सूरत में वापस नहीं लिए जाएँगे। लेकिन किसान अब कुछ सुनने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने साफ़ कर दिया है कि वे तब तक घर नहीं लौटेंगे, जब तक तीनों कृषि क़ानून वापस नहीं ले लिए जाते। साफ़ है किसान अब भाजपा और उसकी सरकार से आमने-सामने लड़ाई लडऩे की तैयारी कर चुके हैं।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, बीच में यह ख़बरें सामने आने से किसान और नाराज़ हुए कि भाजपा और केंद्र सरकार में कुछ ताक़तें किसानों की एकता में फूट डालने की कोशिशें कर रही हैं। जानकारी के मुताबिक, सरकार में कुछ लोग चाहते हैं कि किसनों के आन्दोलन को तोड़ देने से ही समस्या का हल निकलेगा। हालाँकि किसानों को इसकी भनक लगते ही उन्होंने अपने बीच ऐसी व्यवस्था की है कि भाजपा या सरकार  इसमें किसी भी सूरत में सफल न हो सके। फ़िलहाल तो किसानों में जबरदस्त एकता दिख रही है और उन्हें मिल रहे जनसमर्थन को देखते हुए इसकी सम्भावना कम ही दिखती है कि किसानों या संयुक्त मोर्चा के नेताओं में दो-फाड़ की नौबत आएगी।

भाजपा की चिन्ता

किसान आन्दोलन के बढ़ते दायरे से भाजपा को चुनाव की चिन्ता पैदा हो गयी है। क़रीब 10 महीने से जारी आन्दोलन के प्रति मोदी सरकार ने हमेशा बेपरवाह वाला रवैया दिखाया है। बीच में कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर और अन्य मंत्रियों के किसानों के साथ बैठकों के कई दौर भी हुए; लेकिन सरकार एक बात पर हमेशा अड़ी रही कि तीनों कृषि क़ानून किसी भी सूरत में वापस नहीं होंगे, जबकि किसानों की मुख्य माँग ही यही है। उधर किसानों के आन्दोलन के दौरान कई ऐसे मौक़े आये हैं, जब पुलिस ने उनके ख़िलाफ़ डंडे का सहारा लिया। बिना सरकार के इशारे के यह हो ही नहीं सकता। इससे किसान और भडक़े हैं।

अब जबकि किसानों ने अपना आन्दोलन तेज़ करने की तैयारी कर ली है और इसे तेज़ करने का फ़ैसला करते हुए सीधे भाजपा के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया है, जिससे पार्टी में बेचैनी है। उसे चिन्ता सता रही है कि कहीं किसानों की नाराज़गी भारी न पड़ जाए। किसान आन्दोलन ने उत्तर प्रदेश जैसे बड़े और राजनीतिक रूप से बहुत ही अहम राज्य की राजनीति में समीकरण बदल दिये हैं। मुज़फ़्फ़रनगर की महापंचायत के बाद राजनीतिक असर साफ़ दिखने लगा है। भाजपा पर दबाव उसकी आन्दोलन से निपटने की तैयारियों से ज़ाहिर हो जाता है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम समीकरण फिर बनाने की कोशिशें शुरू हो गयी हैं। किसान आन्दोलन का असर उसमें और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में क़रीब 136 विधानसभा सीटों पर जाटों का व्यापक असर है। इनमें 55 सीटों पर तो जाट-मुस्लिम आबादी क़रीब 40 फ़ीसदी है, जिसमें चुनावी समीकरण बदलने की क्षमता है।

उत्तर प्रदेश में जहाँ भाजपा को टक्कर देने के लिए समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बसपा के अलावा छोटे क्षेत्रीय दल भी कमर कस रहे हैं, वहीं आम आदमी पार्टी का लक्ष्य भी यही है।

प्रियंका गाँधी के उत्तर प्रदेश में मोर्चा सँभालने के बाद पार्टी काफ़ी सक्रिय हुई है। कांग्रेस भी सपा की तरह उभरते समीकरणों पर नज़र रखे हुए है। बसपा आश्चर्यजनक रूप से ख़ामोशी साधे है। भाजपा के प्रति बसपा और मायावती के नरम रूख़ को उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हलक़ों में आश्चर्य से देखा जा रहा है। सच तो यह है कि मायावती से ज़्यादा तो उत्तर प्रदेश में एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी सक्रिय हैं। बसपा की चुनावी तैयारी न के बराबर है। कांग्रेस के सक्रिय होने से उत्तर प्रदेश में राजनीतिक स्थिति दिलचस्प ज़रूर हुई है; लेकिन अभी यह साफ़ नहीं है कि कांग्रेस की रणनीति क्या है और और वह किसके साथ तालमेल कर सकती है? प्रियंका गाँधी के उत्तर प्रदेश में मोर्चा सँभालने के बाद पार्टी काफ़ी सक्रिय हुई है। कांग्रेस भी सपा की तरह उभरते समीकरणों पर नज़र रखे हुए है।

कांग्रेस के नेता यह स्वीकार करते हैं कि उत्तर प्रदेश में पार्टी की स्थिति पहले से कहीं बेहतर हुई है और जनता में प्रियंका गाँधी के प्रति लगाव भी है। लेकिन संगठन कमज़ोर होने से इतना बड़ा चुनाव उसके लिए बड़ी चुनौती रहेगा। प्रत्याशियों के चयन से लेकर गठबन्धन तक की चुनौती है। सपा पहले ही कह चुकी है कि वह कांग्रेस से समझौता नहीं करेगी। दिलचस्प यह है कि कांग्रेस बार-बार कह रही है कि वह अकेले ही चुनाव में उतरेगी। ऐसे में क्या यह माना जाए कि उसे किसानों से समर्थन की उम्मीद है? मुस्लिम समुदाय के अलावा ओबीसी और दलित मत (वोट) मिलने की भी कांग्रेस उम्मीद कर रही है। क्योंकि उसे लगता है कि यदि प्रियंका के नेतृत्व में चुनाव में उतरा जाता है, तो उसे चुनाव में प्रियंका की इंदिरा गाँधी वाली छवि से बड़ा लाभ मिल सकता है।

कांग्रेस ने जिस तरह सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में अचानक 21 सीटें जीत ली थीं, उससे यह तो ज़ाहिर होता है कि पिछले कुछ दशकों में विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकार देख चुकी उत्तर प्रदेश की जनता कांग्रेस को भूली नहीं है और प्रियंका की छवि कांग्रेस को अप्रत्याशित सफलता भी दिला सकती है। एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने कहा कि राह मुश्किल ज़रूर है, लेकिन पार्टी के लिए सम्भावनाओं के द्वार भी बहुत हैं।

अजीत सिंह की मृत्यु के बाद राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) का ज़िम्मा उनके बेटे जयंत चौधरी पर है। रालोद कांग्रेस के साथ पहले भी गठबन्धन में रही है। हो सकता है कांग्रेस इसका प्रयास अगले चुनाव में भी करे। किसान आन्दोलन ने जिस तरह उत्तर प्रदेश की राजनीति की तस्वीर बदली है, उससे विधानसभा चुनाव से पहले राजनीतिक समीकरणों के बदलने से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। दिलचस्प यह है कि समाजवादी पार्टी को मुस्लिम-जाट के साथ आने की सम्भावना से अपने पक्ष में जो उम्मीद है, वही कांग्रेस को भी है। सपा और कांग्रेस के अलावा बसपा को भी झटका देने के लिए इस बार उत्तर प्रदेश में एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी भी ख़ूब सक्रिय दिख रहे हैं। उन्हें विरोधी दल भाजपा को लाभ देने के लिए दूसरे दलों का वोट कटवा के रूप में चिह्नित कर रहे हैं। हालाँकि ख़ुद ओवैसी इसे सिरे से ख़ारिज़ करते हैं।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि किसान भाजपा से सबसे ज़्यादा नाराज़ हैं और वे चुनाव के समय भी उसके ख़िलाफ़ काम करेंगे। ऐसे में अन्य दलों के पास किसानों के समर्थन की गुंजाइश रहेगी। किसानों के आन्दोलन में राजनीति आने की सबसे बड़ी वजह भी भाजपा ही है। उसने किसान आन्दोलन के प्रति जैसा रूख़ दिखाया और भाजपा समर्थित सोशल मीडिया ने जिस तरह किसानों को ख़ालिस्तानी और पाकिस्तानी समर्थक बताकर उसे जनता की नज़र में गिराने की कोशिश की उससे किसान बहुत ख़फ़ा हुए हैं। अपने ही देश में अपने हक़ के लिए लड़ाई लडऩे पर देश विरोधी क़रार देने से किसान दु:खी हैं। पंजाब से लेकर हरियाणा कर उत्तर प्रदेश के किसानों की ही बात की जाए, तो उनके बेटे बड़ी संख्या में सेना में भर्ती होकर सीमाओं पर देश की सेवा कर रहे हैं। आतंकवादियों और दुश्मन देश की सीमा पर नापाक हरकतों में जान गँवाने वाले सेना के जवानों के किसान अभिभावकों को भला कोई कैसे ख़ालिस्तानी या देश विरोधी क़रार दे सकता है! यही कारण है कि किसान अब भाजपा के ख़िलाफ़ भी लामबन्द हो गये हैं।

उत्तर प्रदेश की ही तरह पंजाब में भी अगले साल विधानसभा चुनाव हैं। पंजाब में किसान आन्दोलन सबसे तीव्र रहा है। सच तो यह कि वर्तमान किसान आन्दोलन की शुरुआत ही पंजाब से हुई। वहाँ सत्तारूढ़ अमरिंदर सिंह सरकार किसानों को लेकर शुरू से ही सहनुभूति वाला रवैया रखती रही है। भाजपा अब पुराने साथी अकाली दल के साथ नहीं है और उसने फ़िलहाल मायावती की बसपा से समझौता कर लिया है। जलियांवाला बाग़ के पुनरुद्धार के मामले में भाजपा को निजी नुक़सान सहना पड़ सकता है; क्योंकि आम लोगों ने पंजाब में इसे पसन्द नहीं किया है। उनका कहना है कि ऐसी धरोहर, जो शहादत से जुड़ी हो, उसे मनोरंजन स्थल नहीं बनाया जा सकता।

ऐसे में पंजाब में किसान चुनाव में बड़ा मुद्दा है। भाजपा ने पंजाब में एक तरह से अपनी क़ब्र ही खोद ली है। किसानों के इतने बड़े विरोध के बाद पंजाब में भाजपा के लिए कुछ ज़्यादा सम्भावना बची नहीं है। हाँ, गाहे-बगाहे मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के भाजपा में आने की अफ़वाहें ज़रूर पार्टी के नेता उछालते रहते हैं। आम आदमी पार्टी किसानों के प्रति सकारात्मक रूख़ ज़रूर अपनाती रही है। लेकिन उसने पंजाब में अपने संगठन में इतने ज़्यादा अंतद्र्वंद्व पैदा कर लिये हैं कि चुनाव आते-आते उसके बिखरने की स्थिति बन जाते हैं। भगवंत मान ख़ुद को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में देखते हैं। लेकिन आम आदमी पार्टी का नेतृत्व दिल्ली की ताक़त को कमज़ोर नहीं करना चाहता।

अकाली दल की पैठ पंजाब के गाँवों में रही है; लेकिन तीन कृषि क़ानूनों के बनने अकाली दल की भाजपा का सहयोगी रहते भूमिका से किसान अप्रसन्न रहे हैं। ऐसे में उसके सामने भी किसानों की नाराज़गी का मसला है। किसान चुनाव के समय क्या रूख़ अपनाते हैं? यह देखना दिलचस्प होगा। हालाँकि यह भी सच है कि किसान संगठनों में कुछ नेता अकाली दल के प्रति सहानुभूति रखते रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस अपने लिए बेहतर सम्भावना देख रही है। हालाँकि यह अलग बात है कि पार्टी में मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के धड़ों में तलवारें तनी हुई हैं।

हरियाणा में अभी चुनाव नहीं हैं; लेकिन भाजपा-जजपा की साझा सरकार की छवि किसानों के विरोधी वाली बन चुकी है। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को किसान अपने ख़िलाफ़ मानते हैं और हाल में करनाल में आन्दोलन कर रहे किसानों पर लाठीचार्ज की घटना, जिसमें घायल एक किसान की बाद में मौत भी हो गयी; के बाद उन्होंने करनाल की महापंचायत को स्थायी धरने में बदल दिया है। वहाँ के एक आईएएस अधिकारी की किसानों का सिर फोडऩे वाली ऑडियो क्लिप सरकार के गले की फाँस बन गयी है। लेकिन मुख्यमंत्री खट्टर अधिकारी के समर्थन में खड़े दिखते हैं।

उधर उत्तर प्रदेश से लगते उत्तराखण्ड में भी अगले साल ही विधानसभा चुनाव हैं। वहाँ किसान न सिर्फ़ सक्रिय हैं, बल्कि बड़ी संख्या में उनके मुज़फ़्फ़रनगर की महापंचायत में आने का भी दावा किया था। महापंचायत में किसान नेताओं ने जब भाजपा को हराने के संकल्प की बात की थी, तो उत्तराखण्ड का भी नाम लिया गया था। दिलचस्प यह कि वहाँ कांग्रेस भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी है और उत्तराखण्ड में उसका वोट बैंक ठीकठाक है। इधर आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल भी अपने प्रत्याशी उतारने का ऐलान कर चुके हैं।

संयुक्त किसान मोर्चा की अपील ने उत्तराखण्ड में भाजपा को रक्षात्मक किया है, जिसने हाल ही में वहाँ अपना मुख्यमंत्री बदला है। जहाँ तक उत्तराखण्ड में किसानों के प्रभाव की बात है, तो क़रीब 25 विधानसभा सीटों पर उनका असर है। उत्तराखण्ड में किसान आन्दोलन पर्वतीय ज़िलों में नहीं पहुँचा है; लेकिन हरिद्वार, देहरादून, नैनीताल और ऊधमसिंह नगर जैसे मैदानी और तराई वाले इलाक़ों में आन्दोलन का कम-ज़्यादा असर है। वैसे भी किसान नेता उत्तराखण्ड में महापंचायत करने की घोषणा कर चुके हैं, जिसके बाद माहौल गरमा सकता है।

सूबे में सिर्फ़ हरिद्वार शहर को छोडक़र अन्य सीटें किसान बहुल हैं। देहरादून में चार, उधमसिंह नगर में नौ और नैनीताल में तीन सीटों पर किसानों का प्रभाव है। पिछले चुनाव के नतीजे देखें, तो हरिद्वार की 11 सीटों में से आठ भाजपा ने जीती थीं। बता दें हरिद्वार शहर को छोड़ अन्य सभी सीटें किसानों के प्रभाव वाली हैं।

उधर देहरादून की 10 सीटों में से ऋषिकेश, डोईवाला, सहसपुर और विकासनगर विधानसभा किसान प्रभाव वाली हैं। उधमसिंह नगर ज़िले की तो सभी सीटें किसान बहुल हैं और नैनीताल में लालकुआँ, हल्द्वानी और कालाढूंगी विधानसभा क्षेत्रों में किसानों का प्रभाव है। उत्तराखण्ड में कांग्रेस ने अपने पुराने नेता हरीश रावत को चुनाव जिताने का ज़िम्मा दिया है। किसान आन्दोलन के असर से इस पहाड़ी राज्य में चुनावी राजनीति दिलचस्प हुई है।

कुल मिलाकर अगर केंद्र सरकार तीनों कृषि क़ानूनों को वापस नहीं लेती है, तो आने वाला लम्बा समय भाजपा के लिए राजनीतिक दृष्टि से बेहद ख़राब हो सकता है।

देश के 48 फ़ीसदी परिवार कृषि पर निर्भर

देश में किसानों की दुर्दशा तब है, जब देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 14 फ़ीसदी से ज़्यादा है। यहाँ यह भी बहुत अहम है कि कोरोना महामारी के चलते बनी आर्थिक मंदी के बीच भी किसानों की हिस्सेदारी का आँकड़ा काफ़ी बेहतर रहा है। राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 10.07 करोड़ परिवार खेती पर निर्भर हैं। यह संख्या देश के कुल परिवारों का 48 फ़ीसदी है। राज्यों के हिसाब से देखें, तो केरल में प्रति परिवार में चार, उत्तर प्रदेश में छ:, मणिपुर 6.4, पंजाब 5.2, बिहार 5.5, हरियाणा 5.3, जबकि कर्नाटक और मध्य प्रदेश में कृषि आधारित परिवार में औसतन 4.5 सदस्य हैं। कोरोना-काल में केवल कृषि ही ऐसा क्षेत्र है, जिसने देश की अर्थ-व्यवस्था को सँभाला है। लेकिन साल 2020 में ही मोदी सरकार ने महामारी के ही दौरान तीन कृषि क़ानूनों को लागू किया, जिनका किसान जबरदस्त विरोध कर रहे हैं। किसानों की इस स्थिति ने यह सवाल तक उठा दिया है कि क्या सही में भारत कृषि प्रधान देश है? देखा जाए, तो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगातार गिरती कृषि हिस्सेदारी, किसानों की गिरती आमदनी, क़र्ज़ में डूबे किसानों द्वारा आत्महत्याएँ, युवाओं का खेती किसानी से मोह भंग होना और जलवायु परिवर्तन से अप्रत्याशित बाढ़, सूखे ने किसानों की कमर तोडक़र रख दी है। आँकड़े बताते हैं कि भारत के 52 फ़ीसदी ज़िलों में किसानों से अधिक संख्या कृषि श्रमिकों की है। बिहार, केरल और पुदुचेरी के सभी ज़िलों में किसानों से ज़्यादा कृषि श्रमिकों की संख्या है। उत्तर प्रदेश में 65.8 मिलियन (6.58 करोड़) आबादी कृषि पर निर्भर है; लेकिन कृषि श्रमिकों की संख्या 51 फ़ीसदी और किसानों की संख्या 49 फ़ीसदी है। सरकार भले ही 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बातें करती है; लेकिन ऐसा कोई सरकारी आँकड़ा हमारे सामने नहीं है, जो यह बता सके कि किसानों की आमदनी हुई कितनी? किसान नेता आँकड़ों सहित बताते रहे हैं कि हाल के वर्षों में कृषि लागत इतनी ज़्यादा हो चुकी है कि किसानों की आमदनी हक़ीक़त में कम हुई है। आमदनी घटने से किसानों की नयी पीढ़ी का किसानी से मोह भंग हुआ है। इसका नतीजा यह हुआ है कि कॉरपोरेट खेतों को खा रहा है। किसान इसीलिए तीन कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि कार्पोरेट बचे खेतों को भी खा जाएगा।

किसान आन्दोलनों ने बदली हैं सत्ताएँ

 

सिर्फ़ उत्तर प्रदेश की ही बात की जाए, तो किसान आन्दोलन सत्ता बदलने का बड़ा माद्दा रखते रहे हैं। इसलिए अब जब उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, मुज़फ़्फ़रनगर में महापंचायत कर किसानों ने सीधे भाजपा को ललकार कर अपनी ताक़त का संकेत तो दे दिया है। यदि पिछले तीन दशक का इतिहास देखें, तो ज़ाहिर होता है कि मुज़फ़्फ़रनगर में किसान महापंचायतें सत्तारूढ़ दलों की क़ब्रगाह साबित होती रही हैं। इतिहास देखें तो ऐसी महापंचायतों की शुरुआत सन् 1987 में हुई थी। सन् 1988 से लेकर सन् 2013 तक मुज़फ़्फ़रनगर में हुई महापंचायतों ने सूबे की राजनीति ही प्रभावित नहीं हुई, सरकारें भी बदल गयीं। भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) का जन्म ही मुज़फ़्फ़रनगर में हुआ, जिसने समय के साथ पूरे पश्चिम उत्तर प्रदेश पर प्रभाव बना लिया। महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में अगस्त, 1987 में मुज़फ़्फ़रनगर के सिसौली में हुई महापंचायत एक बड़े आन्दोलन का आधार बन गयी। किसानों की माँग बिजली और सिंचाई की दरें घटाने के अलावा फ़सल के उचित मूल्य की थीं। टिकैत के नेतृत्व में 35 माँगों पर कांग्रेस की सरकार से टकराव हुआ। किसानों ने जनवरी, 1988 में दिल्ली के वोट क्लब में धरना दिया। इसके बाद सन् 1989 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के चुनाव में कांग्रेस को बड़ा नुक़सान झेलना पड़ा और सत्ता से दोनों जगह हाथ धोना पड़ा। इसके बाद फरवरी, 2003 में महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में भाकियू ने सीधे मायावती सरकार को ललकारते हुए बड़ी महापंचायत की। बाद में एक धरना हुआ, जिस पर पुलिस ने लाठियाँ भाँज दीं। इसके विरोध में हुई महापंचायत में लाखों किसान जुट गये। नतीजा यह हुआ कि साल बाद मायावती के विधायकों की बग़ावत से उनकी सत्ता चली गयी। मुलायम सिंह यादव ने इन विधायकों की मदद से अजित सिंह के रालोद के समर्थन से सरकार बना ली। मायावती का पीछा किसानों ने सन् 2008 में भी नहीं छोड़ा। बिजनौर में टिकैत की मायावती के ख़िलाफ़ जातिसूचक टिप्पणी के बाद टिकैत को गिरफ़्तार करने के आदेश हुए; लेकिन किसानों ने टिकैत के घर जाने वाली सभी सडक़ों को बन्द कर दिया। हालाँकि चार दिन के बाद टिकैत की गिरफ़्तारी हुई और इसके बाद बसपा सरकार के ख़िलाफ़ महापंचायत की गयी। इसमें भी किसानों ने टिकैत के नेतृत्व में सीधे बसपा सरकार को सत्ता से उखाड़ फेंकने का संकल्प किया और सन् 2012 के चुनाव में मायावती सत्ता से बाहर हो गयीं। मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के ही चर्चित कवाल कांड के बाद महेंद्र सिंह टिकैत के बेटे राकेश टिकैत ने सितंबर, 2013 में जाटों की बड़ी महापंचायत की। यह माना जाता है कि नंगला मंदौड की यह पंचायत जाट-मुस्लिम जंग की वजह बनी, जिससे पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाट समुदाय के आक्रोश ने 2017 में सपा की सत्ता छीन ली। इसके बाद ही भाजपा सत्ता में आयी। अब सितंबर, 2021 में मुज़फ़्फ़रनगर में किसानों की महापंचायत में सीधे भाजपा के ख़िलाफ़ किसानों ने बिगुल फूँक दिया है। यह स्थिति सन् 1987 की याद दिलाती है, जब केंद्र में राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी, जबकि राज्य में भी कांग्रेस के सरकार थी। अब फिर केंद्र के साथ-साथ कई राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं और किसानों ने विद्रोही तेवर अपना लिये हैं। ज़ाहिर है भाजपा किसानों के इन तेवरों से रक्षात्मक है।

 

 

“सिर्फ़ खेती-किसानी नहीं, बल्कि सरकारी संस्थानों के निजीकरण, बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर भी केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ आन्दोलन करना होगा। अडिय़ल सरकार को झुकाने के लिए वोट की चोट ज़रूरी है। देश बचेगा, तभी संविधान बचेगा। सरकार ने रेल, तेल और हवाई अड्डे बेच दिये हैं। किसने सरकार को यह हक़ दिया। ये बिजली बेचेंगे और प्राइवेट करेंगे। सडक़ बेचेंगे और सडक़ पर चलने पर हम लोगों से टैक्स (कर) भी वसूलेंगे। दिल्ली बॉर्डर पर भले हमारी क़ब्रगाह बन जाए, जब तक हमारी माँगें नहीं मानी जाएँगी, तब तक हम वहाँ डटे रहेंगे। वहाँ से नहीं हटेंगे। अगर वहाँ पर हमारी क़ब्रगाह बनेगी, तो भी हम मोर्चा नहीं छोड़ेंगे। बग़ैर जीते वापस घर नहीं जाएँगे।“

राकेश टिकैत

संयुक्त किसान मोर्चा के नेता

 

 

@RahulGandhi

डटा है

निडर है

इधर है

भारत भाग्य विधाता!

#FarmersProtest

 

 

किसानों पर क़र्ज़ का बोझ

हाल में पंजाब की अमरिंदर सिंह सरकार ने किसानों के 590 करोड़ रुपये के क़र्ज़ को माफ़ करने की घोषणा की थी। क़र्ज़ माफ़ी मज़दूरों और भूमिहीन कृषक समुदाय के लिए कृषि ऋण माफ़ी योजना के तहत है। पंजाब सरकार का कहना है कि उसने इस योजना के तहत अब तक 5.64 लाख किसानों का 4,624 करोड़ रुपये का क़र्ज़ माफ़ किया है। छत्तीसगढ़ सहित कुछ अन्य राज्यों में भी किसानों के क़र्ज़ माफ़ करने की घोषणाएँ हुई हैं। लेकिन एक सच यह भी है कि किसानों पर इस समय 16.8 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ है।

ये आँकड़े सरकार के हैं, जो अगस्त में एक सवाल के लिखित जवाब में संसद में पेश किये गये थे। इनके मुताबिक, क़र्ज़ में सबसे ज़्यादा तमिलनाडु के किसान हैं। वहाँ किसानों पर 1.89 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ है। संसद में पेश किये गये विवरण (डाटा) के मुताबिक, अग्रणी (टॉप) पाँच राज्यों में तमिलनाडु के किसानों पर 1,89,623.56 करोड़ रुपये, आंध्र प्रदेश के किसानों पर 1,69,322.96 करोड़ रुपये, उत्तर प्रदेश के किसानों पर 1,55,743.87 करोड़ रुपये, महाराष्ट्र के किसानों पर 1,53,658.32 करोड़ रुपये, कर्नाटक के किसानों पर 1,43,365.63 करोड़ रुपये का क़र्ज़ है। जहाँ तक क़र्ज़ वाले बैंक खातों की बात है, तो अग्रणी पाँच राज्यों में तमिलनाडु के 1,64,45,864 खाते, उत्तर प्रदेश के 1,43,53,475 खाते, आंध्र प्रदेश के 1,20,08,351 खाते, कर्नाटक के 1,08,99,165 खाते, महाराष्ट्र के 1,04,93,252 खाते हैं। कम क़र्ज़ वाले अग्रणी पाँच राज्यों की बात करें, तो दमन और दीव के किसानों पर 40 करोड़ रुपये, लक्षद्वीप के किसानों पर 60 करोड़ रुपये, सिक्किम के किसानों पर 175 करोड़ रुपये, लद्दाख़ के किसानों पर 275 करोड़ रुपये और मिजोरम के किसानों पर 554 करोड़ रुपये का क़र्ज़ है। कम क़र्ज़ के किसान खातों वाले अग्रणी पाँच राज्यों में दमन और दीव के 1,857 खाते, लक्षद्वीप के 17,873 खाते, सिक्किम के 21,208 खाते, लद्दाख़ के 25,781 खाते, जबकि दिल्ली के 32,902 खाते शामिल हैं।

 

 

 

 

एक ही मंज़िल

इंसान के जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना सुख की चाहत है। सुख की चाहत में ही इंसान ने सुविधाओं की खोज की और जब भौतिक सुख से उसे शान्ति नहीं मिली, तो उसने ईश्वर की तरफ़ देखा। एक ऐसे अनंत सुख की तलाश में, जो कभी समाप्त न हो। इसके लिए ही धीरे-धीरे ईश्वर को पाने के रास्ते तलाशे, जिन्हें धर्म यानी मज़हब का नाम दिया। धर्म / मज़हब दरअसल अच्छाई और सच्चाई का वह मार्ग है, जो इंसान को इंसान तो बनाये रखता ही है; देवता भी बना सकता है। इसीलिए धर्म भ्रष्ट लोगों को हीन दृष्टि से देखा जाता रहा है। लेकिन अब बहुत-से धर्म भ्रष्ट लोग भी धर्मों के ठेकेदार बने बैठे हैं और मूर्खों तथा नासमझों के पूज्यनीय हैं।

सही मायने में मज़हब इंसान के आत्मिक सुख के लिए बने हैं। मज़हब भौतिक सुखों से ऊब होने या सांसारिक झंझावातों से दु:खी होने के बाद सुकून पाने के लिए हैं, जिनके ज़रिये इंसान ईश्वर की शरण में जाने का रास्ता तलाश करता है।

सामान्य लोग अमूमन यही मानते हैं कि उनका मज़हब दूसरे मज़हबों से श्रेष्ठ है। उनका मज़हब उन्हें स्वर्ग तक ले जाने में मददगार साबित होगा।  उनका उद्धार करेगा। उनका मज़हब ही सही है। उनका मज़हब ईश्वर का बताया वह रास्ता है, जिस पर चलने से उनका ईश्वर से मिलन पक्का है। यह सम्भव भी है। लेकिन दूसरों के मज़हब को निकृष्ट मानने की सोच ने लोगों में ऐसी फूट डाल दी है, जो उन्हें कभी चैन से नहीं रहने देगी।

आज जिस तरह से विभिन्न मज़हबों में फूट पड़ी हुई है, अगर वह ऐसे ही बढ़ी, तो आने वाले समय में और भी घातक परिणाम वाली और मानव जाति के लिए संकट पैदा करने वाली साबित होगी। अगर आपसी नफ़रतें और बढ़ीं, तो सम्भव है कि जो मज़हब इंसानों को अमन-चैन से रहने, दूसरों की सेवा करने, उनका हक़ न मारने और ईश्वर की ओर जाने के लिए बनाये गये थे, वही मज़हब इंसानों की असमय और हिंसक मौत का कारण बन जाएँ।

स्वामी विवेकानंद ने कहते हैं- ‘हम मनुष्य जाति को उस स्थान पर पहुँचाना चाहते हैं जहाँ न वेद हैं, न बाइबिल है, न क़ुरान; परन्तु वेद, बाइबिल और क़ुरान के समन्वय से ही ऐसा हो सकता है। मनुष्य जाति को यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि सब धर्म उस धर्म के, उस एकमेवाद्वितीय के भिन्न-भिन्न रूप हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति इन धर्मों में से अपना मनोनुकूल मार्ग चुन सकता है।’

यह बात सभी मज़हबों के कट्टरपंथियों के लिए असहनीय हो सकती है, किन्तु है बहुत महत्त्वपूर्ण और बड़ी। इसे सरलता से इस तरह समझा जा सकता है- मसलन, किसी मंज़िल तक पहुँचने के लिए लोग अलग-अलग संसाधनों और अलग-अलग मार्गों से जा सकते हैं। लेकिन सभी का ध्येय एक ही है- मंज़िल। ईश्वर वही मंज़िल है। भले ही लोगों ने भाषाओं के हिसाब से उसके अलग-अलग नाम रख लिये हैं और उसको अलग-अलग समझने-मानने का भ्रम पाल बैठे हैं। लेकिन दुनिया के किसी इंसान की बात तो दूर, पूरे ब्रह्माण्ड में किसी में भी वह ताक़त या हिम्मत नहीं, जो ईश्वर को बाँट सके। ईश्वर को तो क्या, कोई ईश्वर की बनायी किसी भी तत्व रचना को न नष्ट कर सकता है और न ही बाँट सकता है; चाहे वह ब्रह्माण्ड की कोई भी चीज़ क्यों न हो। फिर ईश्वर को बाँटने की बात ही कहाँ पैदा होती है?

जो लोग उसे और उसकी सृष्टि को बाँटने की बात करते हैं, उनसे बड़ा मूर्ख दुनिया में कोई नहीं। ऐसे लोग दोषी भी हैं और पापी भी; जो लोगों को बाँटने का दोष करते हैं और यह किसी भयंकर पाप से कम नहीं है।

दरअसल यह लड़ाई धर्मों की नहीं, बल्कि कुछ मूर्खों की है; जिन्हें भौतिक सुख की चाहत में मज़हबों की आड़ लेकर चंद धार्मिक और राजनीतिक सत्ताधारी लोग मु$र्गों की तरह लड़वाते रहते हैं। इसके लिए उन्हें कुछ मवाली भी पालने पड़ते हैं। पक्का मज़हबी होने का ढोंग भी करना पड़ता है। मीठा ज़हर भी उगलना पड़ता है। अपने मज़हब के लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ में नफ़रत की चिंगारी भी सुलगानी पड़ती है। दूसरे मज़हबों के लोगों को भडक़ाना पड़ता है और उन्हें तंग भी करना पड़ता है।

समझदार ऐसे लोगों से वास्ता नहीं रखते। बँटवारा नफ़रत, दुश्मनी और विनाश के सिवाय कुछ नहीं दे सकता। अफ़सोस जो मज़हब इंसान के उद्धार के लिए बनाये गये थे, आज वही मज़हब उसके पतन, उसके विनाश का कारण बनते जा रहे हैं। अगर इस बात को सभी मज़हबों को मानने वाले लोग अब भी नहीं समझेंगे, तो उनकी नस्लें किसी भी हाल में सुरक्षित नहीं रह पाएँगी। इससे न केवल उनका सुकून छिनता जाएगा, बल्कि एक-न-एक दिन उनका आपस में लडक़र मरना तय है। ईश्वर ने इंसान को सृष्टि (पृथ्वी) के सभी प्राणियों और प्राकृतिक संसाधनों के रक्षार्थ बनाया है। लेकिन इंसान ने अपने भोग, लिप्सा के लिए सभी मर्यादाओं को ताक पर रखते हुए, कर्तव्यों से मुँह मोडक़र सब कुछ तहस-नहस करना शुरू कर दिया; केवल अपने स्वार्थ के लिए। धर्मों के कई ठेकेदार कहते हैं कि यह सब भ्रमजाल और मायाजाल है। अगर वास्तव में यह सब भ्रमजाल या मायाजाल है, तो वे लोग ख़ुद इसमें उलझे हुए क्यों हैं? क्यों नहीं वे इस भ्रमजाल और मायाजाल से बाहर आना चाहते? और क्यों दूसरे सामान्य लोगों को इसमें उलझाकर रखना चाहते हैं? यह सवाल हर सामान्य व्यक्ति को उनसे ही पूछने चाहिए।

ईंधन की बढ़ती क़ीमतों से बढ़ रही महँगाई

पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा का वह ट्वीट हल्के में नहीं लिया जा सकता, जिसमें उन्होंने कहा- ‘हम मरे हुए लोगों का देश हैं। पेट्रोल, डीजल और एलपीजी की क़ीमतों में इस तरह रोज़ और अनुचित वृद्धि को दुनिया में कहीं भी लोगों ने बर्दाश्त नहीं किया होगा। अगर सरकार ने सन् 2014 में कर (टैक्स) के रूप में 75,000 करोड़ रुपये हासिल किये थे, तो आज वह 3.50 लाख करोड़ रुपये जमा कर रही है। क्या यह दिन के उजाले में डकैती करने जैसा नहीं है?’

इसके एक दिन पहले कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खडग़े ने ट्वीट करके कहा- ‘केंद्र ने वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान 3.5 लाख करोड़ रुपये और राज्यों ने 2.3 लाख करोड़ रुपये और 2019-20 के दौरान केंद्र ने 3.3 लाख करोड़ रुपये और राज्यों ने 2.2 लाख करोड़ रुपये एकत्र किये। वित्त वर्ष 2020-21 में केंद्र ने ईंधन पर कर के रूप में 4.6 लाख करोड़ रुपये और राज्यों ने 2.2 लाख करोड़ रुपये एकत्र किये।’ ट्वीट में उन्होंने सवाल किया कि सन् 2014 की तुलना में क्रूड ऑयल सस्ता है। कर वृद्धि के बिना, पेट्रोल 66 रुपये और डीजल 55 रुपये में मिल सकता है। कर का पैसा आख़िर कहाँ जा रहा है?

सोशल मीडिया पर हैशटैग #CutFuelTax तुरन्त वायरल हो गया। कच्चे तेल की क़ीमत ब्रेंट, ओमान और दुबई की औसत क़ीमत है। भारत अपनी ज़रूरत का क़रीब 80 फ़ीसदी कच्चा तेल विदेशों से आयात करता है। रिफाइनरियों और तेल विपणन कम्पनियों (ओएमसी) द्वारा कच्चे तेल को परिष्कृत करने की आवश्यकता है। घरेलू बाज़ार में ईंधन की क़ीमत वास्तविक आपूर्ति और माँग और अधिकतर कराधान और डीलर कमीशन के आधार पर तय होती है।

ईंधन की क़ीमतों में बढ़ोतरी से सब्ज़ियों, ख़ासकर प्याज और टमाटर की क़ीमतों में तेज़ी आयी है। इसी तरह उच्च वैश्विक क़ीमतों के कारण खाद्य तेल की $कीमतें भी महँगी बनी हुई हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार उचित $कदम नहीं उठा रही है। मौ•ाूदा कमज़ोर मौसम के दौरान क़ीमतों में सम्भावित उछाल से निपटने के लिए सरकार के पास 2,00,000 टन प्याज का भण्डार है। सरकार की आशंकाएँ निराधार नहीं हैं। ख़ासकर तब जब पाँच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। पूर्व में भी चुनाव परिणामों को बदलने में प्याज ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

मुद्रास्फीति अतीत में भी प्रमुख चुनावी मुद्दों में से एक रही है। अक्टूबर के बाद प्याज की क़ीमतों में भी बढ़ोतरी की सम्भावना है। ये महीने उपभोक्ताओं के लिए कठिन होते हैं; क्योंकि $कीमतें बढ़ती हैं। नयी $फसल दिसंबर तक ही आने लगती है, जबकि पुराने स्टॉक $खत्म होने लगता है। आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक प्रमुख प्याज उत्पादक राज्य हैं, जो कुल उत्पादन का लगभग दो-तिहाई योगदान देते हैं। त्योहारों का मौसम पहले से ही निर्धारित है, मुद्रास्फीति मध्यम वर्ग और $गरीबों की जश्न को ख़राब कर सकती है।

दिलचस्प बात यह है कि आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने संकट को कम करने और विकास को प्राथमिकता देने की स्थिति का जाय•ाा लेने के लिए बैठक की, जिसमें पाया गया कि सेंट्रल बैंक के दृष्टिकोण को मार्टिन लूथर किंग जूनियर-1 के दो उद्धरणों को एक साथ जोडक़र सबसे अच्छे तरी$के से वर्णित किया जा सकता है। यह है; लेकिन मुझे पता है कि किसी तरह अँधेरा होने पर ही आप सितारों को देख सकते हैं। चलते रहो। कुछ भी धीमा न होने दो। आगे बढ़ो। सहिष्णुता बैंड से ऊपर के दो हालिया मुद्रास्फीति सुधारों के बीच हुई एमपीसी की इस बैठक में सन्तुष्टि •ााहिर की गयी। हालाँकि प्रतिकूल आपूर्ति झटकों, उच्च लॉजिस्टिक्स लागत, उच्च वैश्विक उपभोक्ता क़ीमतों और घरेलू ईंधन करों के चलते मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी ने सबको हैरान किया है। शीर्ष पंक्ति (हेडलाइन) मुद्रास्फीति ऊपरी स्तर से भी ऊपर रही। अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल की क़ीमतों में उतार-चढ़ाव बना हुआ है; ओपेक प्लस समझौते के परिणामस्वरूप क़ीमतों में कोई भी कमी मुद्रास्फीति के दबाव को कम करने में योगदान दे सकती है।

आरबीआई ने कहा कि हाल में मुद्रास्फीति के दबाव ने गम्भीर चिन्ता पैदा की है। लेकिन वर्तमान आकलन यह है कि ये दबाव अस्थायी हैं और मुख्य रूप से प्रतिकूल आपूर्ति पक्ष कारकों से प्रेरित हैं। हम महामारी से उत्पन्न एक असाधारण स्थिति के बीच में हैं। जैसे ही मज़बूत और सतत विकास क्षेत्रों की सम्भावनाएँ सुनिश्चित होती हैं, एमपीसी मुद्रास्फीति की उम्मीदों को स्थिर करने के अपने जनादेश के प्रति सचेत रहती है।

विकास और मुद्रास्फीति का आकलन

अपनी अक्टूबर की रिपोर्ट में आरबीआई ने पाया कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) मुद्रास्फीति मई और जून, 2021 में खाद्य, ईंधन और मूल मुद्रास्फीति में आपूर्ति-पक्ष के दबावों के कारण छ: फ़ीसदी की ऊपरी सीमा को पार कर गयी। अगस्त, 2021 में गति में नरमी और अनुकूल आधार प्रभाव के कारण मुद्रास्फीति घटकर 5.3 फ़ीसदी हो गयी। रि•ार्व बैंक के औद्योगिक दृष्टिकोण सर्वेक्षण के जुलाई-सितंबर, 2021 के दौर में विनिर्माण फर्मों ने कच्चे माल की लागत और बिक्री की क़ीमतों में वित्त वर्ष 2021-22 की तीसरी तिमाही में और वृद्धि की उम्मीद की। सेवाओं और बुनियादी ढाँचे के दृष्टिकोण सर्वेक्षण में भाग लेने वाली सेवा क्षेत्र की कम्पनियों को भी वित्त वर्ष 2021-22 की तीसरी तिमाही में निवेश लागत दबाव तथा बिक्री क़ीमतों में और वृद्धि की सम्भावना है।

अप्रैल-सितंबर 2021 के दौरान एमपीसी की तीन बार बैठक हुई। अप्रैल की बैठक में एमपीसी ने कहा कि मुद्रास्फीति पर आपूर्ति पक्ष का दबाव बना रह सकता है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के विकास के दृष्टिकोण पर कुछ हिस्सों में कोरोना वायरस संक्रमण में उछाल और तालाबन्दी के दौरान स्थानीय सेवाओं की माँग को कम करने, विकास आवेगों को रोकने और सामान्य स्थिति में वापसी को लम्बा करने के रूप में देखा गया। ऐसे माहौल में एमपीसी ने पाया कि निरंतर नीति समर्थन बना रहा और सर्वसम्मति से नीति रेपो दर को अपरिवर्तित रखने और टिकाऊ आधार पर विकास को बनाये रखने और अर्थ-व्यवस्था पर कोरोना वायरस के प्रभाव को कम करने के लिए आवश्यक रूप से समायोजनात्मक रु$ख के साथ जारी रखने के पक्ष में समर्थन किया।

जून, 2021 की बैठक में एमपीसी ने पाया कि अंतरराष्ट्रीय वस्तुओं की क़ीमतों, विशेष रूप से कच्चे तेल, रसद लागत और कमज़ोर माँग की स्थिति के साथ मुद्रास्फीति के दृष्टिकोण के लिए ऊपर की ओर जोखिम पैदा करती है, जो स्थिर कोर मुद्रास्फीति को प्रभावित करती है। विकास के दृष्टिकोण पर एमपीसी ने नोट किया कि कोरोना वायरस की दूसरी लहर ने निकट अवधि के दृष्टिकोण को बदल दिया था और सभी पक्षों से नीति समर्थन, वित्तीय, मौद्रिक और क्षेत्रीय को वसूली और सामान्य स्थिति में तेज़ी से वापसी की ज़रूरत थी। लिहाज़ा एमपीसी ने सर्वसम्मति से नीति रेपो दर पर यथास्थिति बनाये रखने और समायोजन के साथ जारी रखने के लिए निर्णय किया।

जब अगस्त में एमपीसी की बैठक हुई, तो सभी प्रमुख उप-समूहों में चल रहे मई के प्रिंट में मज़बूत गति के कारण जून में लगातार दूसरे महीने हेडलाइन मुद्रास्फीति ऊपरी सीमा को पार कर गयी थी। एमपीसी ने आकलन किया कि मुद्रास्फीति के दबाव काफ़ी हद तक अल्पकालिक आपूर्ति द्वारा संचालित थे। उसने इस बात पर बल देते हुए कहा कि वह मुद्रास्फीति प्रत्याशाओं को स्थिर करने के अपने उद्देश्य के प्रति सचेत था। विकास पर एमपीसी ने नोट किया कि समग्र माँग के लिए दृष्टिकोण में सुधार हो रहा था; लेकिन यह अभी भी कमज़ोर था और अर्थ-व्यवस्था में भारी मात्रा में सुस्ती थी, जो अपने पूर्व-महामारी स्तर से नीचे का उत्पादन था। लिहाज़ा उसने फ़ैसला किया कि नवजात और सुस्त पुनप्र्राप्ति को पोषित करने की आवश्यकता है।

विकास में अनिश्चितता

जब वैश्विक विकास दृष्टिकोण को अप्रैल एमपीआर के सापेक्ष उन्नत किया गया है। यह वैश्विक वस्तुओं की क़ीमतों में अस्थिरता और अमेरिकी मौद्रिक नीति सामान्यीकरण पर उच्च अनिश्चितता के अलावा देश भर में टीकाकरण के असमान प्रसार को देखते हुए महामारी उतार-चढ़ाव के लिए अति संवेदनशील बना हुआ है। सबसे पहले निरंतर वैश्विक आपूर्ति शृंखला व्यवधान कई विनिर्माण गतिविधियों में उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं और वैश्विक विकास को और अधिक प्रभावित कर सकते हैं। दूसरे हाल के हफ़्तों में अप्राकृतिक गैस की क़ीमतों में वर्तमान की तुलना में तेज़ वृद्धि से अतिरिक्त प्रतिकूल परिस्थितियाँ बनी हैं। इसके अलावा धीमी चीनी अर्थ-व्यवस्था बाहरी माँग को कम कर सकती है।

इसके अलावा यदि अमेरिका और एडवांस्ड एन्क्रिप्शन स्टैण्डर्ड (एई) में माँग-आपूर्ति बाधाओं से उत्पन्न मुद्रास्फीति बढ़ाने वाले दबाव लगातार बने रहे, तो यह प्रमुख एई में समायोजन नीतियों से वर्तमान की तुलना में पहले के निकास को तीव्र और बड़े वित्तीय बाज़ार को प्रेरित कर सकता है, जिससे अस्थिरता और वैश्विक विकास के लिए नकारात्मक जोखिम पैदा होने की सम्भावना नहीं किया जा सकता। चौथा भू-राजनीतिक तनावों का बढऩा वैश्विक विकास के लिए नकारात्मक जोखिम का एक सम्भावित स्रोत बना हुआ है। वैसे खाद्य तेल की क़ीमतों में मुद्रास्फीति अगस्त में 33.0 फ़ीसदी बढ़ी रही। इसके विपरीत, अंतरराष्ट्रीय खाद्य क़ीमतों का और सख़्त होना, कुछ खाद्य पदार्थों में माँग-आपूर्ति असन्तुलन और बेमौसम बारिश हेडलाइन मुद्रास्फीति पर ऊपर की ओर दबाव डाल सकती है।

प्राकृतिक खेती से चमकी हिमाचल सेब उत्पादकों की क़िस्मत

शिमला ज़िले के ठियोग में सेब उत्पादक शकुंतला शर्मा की ख़ुशी के अपने कारण हैं। प्राकृतिक खेती की तकनीक से उनके बाग़ में पैदा हुए सेब से उन्हें इस बार बाज़ार में अप्रत्याशित रूप से 100 रुपये प्रति किलोग्राम से अधिक की क़ीमत मिली। यह अभी तक उन्हें मिली सबसे ज़्यादा क़ीमत है। शकुंतला के मुताबिक, इसका एक और लाभ हुआ है कि लागत का ख़र्चा पहले से काफ़ी घटा है।

शकुंतला बताती हैं कि जैसे ही स्थानीय बाज़ार में ख़रीदार जब उनके सेब के बक्सों पर ‘प्राकृतिक सेब’ का लेबल देख रहे हैं, तो तुरन्त निर्धारित क़ीमत पर ख़रीद रहे हैं। इससे ज़ाहिर होता है कि वे ग़ैर-रासायनिक उत्पाद को प्राथमिकता दे रहे हैं। उनके मुताबिक, ग़ैर-रासायनिक सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती (एसपीएनएफ) के साथ खेती की लागत पर 50,000 से 60,000 रुपये की बचत हो जाती है, जो वास्तव में एक बड़ा लाभ है।

महिला किसान पाँच बीघा सेब के बाग़ सहित कुल 10 बीघा ज़मीन पर एसपीएनएफ का इस्तेमाल कर रही हैं। शकुंतला के मुताबिक, प्राकृतिक सब्ज़ियों के ख़रीदार भी उनके दरवाज़े पर आते हैं और अच्छी क़ीमत में उन्हें ख़रीदते हैं। एसपीएनएफ पद्धति देसी गाय के गोबर, मूत्र और कुछ स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों से प्राप्त चीज़ें पर आधारित है। एसपीएनएफ के लिए फॉर्म इनपुट घर पर तैयार किये जा सकते हैं। इस तकनीक में किसी भी तरह के रासायनिक खाद या कोई कीटनाशक का प्रयोग नहीं किया जाता है।

शिमला ज़िले के रोहड़ू खण्ड में समोली पंचायत के एक और बाग़वान रविंदर चौहान ने बताया कि वह काफ़ी वित्तीय फ़ायदे में हैं; क्योंकि रासायनिक स्प्रे पर लगातार बढ़ते ख़र्च के कारण उन्हें अपने सेब बाग़ में कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। उन्होंने कहा कि प्राकृतिक खेती में बदलाव ने मुझे पिछले तीन साल में अच्छा मुनाफ़ा कमाने में मदद की है।

प्राकृतिक खेती की तकनीक से आठ बीघा ज़मीन पर सेब उगाने वाले चौहान ने तमिलनाडु, गुजरात और कर्नाटक जैसे राज्यों में सेब का एक डिब्बा (वज़न 25 किलो) 4200 से 4500 रुपये में बेचा। इसमें परिवहन लागत भी शामिल है। रविंदर चौहान के मुताबिक, सामान्य बाज़ार में क़ीमतों में उतार-चढ़ाव का उन पर ज़्यादा असर नहीं पड़ता; क्योंकि उनके सेब रसायन मुक्त, प्राकृतिक और स्वस्थ हैं। वह पहले से दर (क़ीमत) तय करते हैं।

राज्य सरकार द्वारा सन् 2018 में शुरू किये गये पीके3वाई योजना के एक हिस्से के रूप में हिमाचल प्रदेश में कृषि और बाग़वानी फ़सलों के लिए ग़ैर-रासायनिक कम लागत वाली जलवायु लचीला एसपीएनएफ तकनीक को बढ़ावा दिया जा रहा है। राज्य परियोजना कार्यान्वयन इकाई (एसपीआईयू) द्वारा साझा किये गये आँकड़ों के अनुसार, हिमाचल प्रदेश में अब तक (आंशिक या पूर्ण रूप से) 1,33,056 किसान प्राकृतिक खेती कर रहे हैं, जिसमें 7,609 हेक्टेयर क्षेत्र शामिल है। इसमें तक़रीबन 12,000 सेब बाग़वान शामिल हैं।

बाहरी बाज़ार, उत्पादन, कृषि स्थिति और कम ख़र्च पर शून्य निर्भरता के सन्दर्भ में प्राकृतिक खेती के परिणामों से जहाँ किसान ख़ुश हैं, वहीं उन्होंने बेहतर लाभ के साथ प्राकृतिक उपज के विपणन के लिए अपने स्वयं के सम्बन्ध बनाने के प्रयास भी शुरू कर दिये हैं। इनमें से कुछ को स्थानीय मण्डियों में रासायनिक मुक्त प्राकृतिक उपज के अच्छे दाम मिल रहे हैं। अन्य लोग इन सेबों को देश के विभिन्न हिस्सों में भेज रहे हैं और कई को तो दरवाज़े पर ही ख़रीदार मिलने लगे हैं।

शिमला ज़िले के चौपाल ब्लॉक के लालपानी दोची गाँव के एक फल उत्पादक सुरेंद्र मेहता को सन् 2019 और 2020 में प्राकृतिक रूप से उत्पादित सेब के लिए जयपुर और दिल्ली में ख़रीदार मिले। शिमला ज़िले के शिलारू की एक महिला सेब उत्पादक सुषमा चौहान, जो कुल 50 बीघा में से 10 बीघा भूमि पर एसपीएनएफ कर रही हैं; ने कहा कि रासायन-मुक्त प्राकृतिक उपज के बारे में जागरूकता धीरे-धीरे बढ़ रही है और अब बाहर से ख़रीदार उनके पास आ रहे हैं।

पीके3वाई के कार्यकारी निदेशक, राजेश्वर सिंह चंदेल कहते हैं कि राज्य परियोजना कार्यान्वयन इकाई स्थानीय कृषि आधारित विपणन मॉडल के लिए विभिन्न किसानों की तलाश कर रही है, जिन्हें उन्होंने स्वयं विकसित किया है। इससे हमें इन सफल किसान-बाज़ार सम्बन्धों को अपने कार्यक्रम के साथ जोडऩे में मदद मिलेगी; जिसमें हम सभी किसानों को बाज़ार से जोडऩे पर विचार कर रहे हैं।

 

वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि एसपीएनएफ तकनीक से सेब की फ़सल में खेती की लागत में 56.5 फ़ीसदी की कमी की है; जबकि सेब की फ़सल में लाभ में 27.4 फ़ीसदी बढ़ोतरी हुई है। सेब में स्कैब और मार्सोनिना ब्लॉच की घटना भी पारम्परिक प्रथाओं की तुलना में प्राकृतिक खेती में कम होती है और किसान एसपीएनएफ को अपनाकर एक ही खेत में कई फ़सलें लेने में सक्षम हैं।“

शकुंतला शर्मा

सेब उत्पादक

 

प्रतिभाओं की युवा टोली

अंडर-19 विश्व क्रिकेट कप विजेता टीम में हैं भविष्य के कई सितारे

हाल के कुछ वर्षों में यह देखा गया है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतर प्रदर्शन करने वाले युवा क्रिकेट खिलाड़ी का लक्ष्य आईपीएल में बेहतर नीलामी में जगह बनाना बन गया है। दरअसल सच तो यह है कि भारतीय टीम में चयन भी अब काफ़ी हद तक आईपीएल में प्रदर्शन के आधार पर होने लगा है। अब, जबकि भारत ने रिकॉर्ड पाँचवीं बार विश्व अंडर-19 कप जीत लिया है; चर्चा यह होने लगी है कि इनमें से कौन-कौन खिलाड़ी आईपीएल मेगा नीलामी में ऊँची बोली में जाएँगे? इस बात की चर्चा बहुत कम है कि इनमें से कौन-कौन खिलाड़ी हैं, जो भविष्य में भारतीय क्रिकेट को मज़बूती देंगे। इस बार की विश्व विजेता टीम में कई ऐसी प्रतिभाएँ हैं, जिन्हें बेहिचक भारतीय टीम के भविष्य के सितारे कहा जा सकता है।

ठीक है कि आईपीएल भी भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड (बीसीसीआई) का ही हिस्सा है; लेकिन आईपीएल सीमित ओवर का, वह भी महज़ 20 ही ओवर का खेल है। रणजी ट्रॉफी और दूसरी चार-पाँच दिन वाली घरेलू प्रतियोगिताओं में टेस्ट टीम में आ सकने वाली प्रतिभाओं की ज़्यादा परख होती है। लेकिन आईपीएल चूँकि कारपोरेट का भी खेल है, घरेलू प्रतियोगिताओं के मुक़ाबले उसकी ही चर्चा हर जगह होती है। हाल के कुछ वर्षों में यह देखा गया है कि भारत में आईपीएल के मैच देखने के लिए तो टिकट की होड़ मची रहती है, टेस्ट मैच के दौरान स्टेडियम में खिलाडिय़ों के अलावा गिने-चुने दर्शक ही दिखते हैं।

इस बार की विश्व विजेता कप टीम को देखा जाए, तो इसमें कुछ ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्होंने प्रतिभा के बूते सबका ध्यान अपनी तरफ़ खींचा है। इनमें यश ढुल, अंगकृष रघुवंशी, राज बावा, शेख़ रशीद, हरनूर सिंह, विक्की ओसवाल, निशांत सिंधु और राज्यवर्धन हंगरगेकर शामिल हैं। पिछले 20 साल के युवा विश्व क्रिकेट कप का इतिहास देखा जाए, तो ज़ाहिर होता है कि भारतीय टीम ने बेहतरीन प्रदर्शन किया है। उसमें से निकले कुछ खिलाड़ी देश की टीम का हिस्सा बने, जिनमें विराट कोहली भी शामिल हैं। इस लिहाज़ से देखा जाए इस विश्व कप से देश के लिए युवा क्रिकेटरों की ऐसी टोली निकली है, जो प्रतिभा से भरपूर है। आईपीएल की नीलामी में निश्चित ही इनका बोलबाला रहेगा। लेकिन यह भी ज़रूरी है कि यह प्रतिभाएँ आईपीएल तक सीमित न रहें। टेस्ट मैच से लेकर भारतीय टीम के दूसरे फॉर्मेट में भी अवसर पा सकें और ख़ुद को साबित कर सकें।

कैसे जीता भारत?

भारत ने अंडर-19 विश्व कप-2022 के फाइनल मुक़ाबले में इंग्लैंड को चार विकेट से हराया। मैच दिलचस्प बन गया था। भारतीय टीम ने 5वीं बार कप जीता है, जो एक रिकॉर्ड है। उसके बाद ऑस्ट्रलिया है, जिसने तीन ट्रॉफी (एक बार यूथ वल्र्ड कप) जबकि पाकिस्तान दो बार, इंग्लैंड, दक्षिण अफ्रीका, वेस्टइंडीज और बांग्लादेश ने एक-एक बार ख़िताब जीता है। वैसे तो पहला विश्व कप सन् 1988 में हुआ था; लेकिन भारत ने सन् 2000 में पहला ख़िताब जीता, जब मोहम्मद क़ैफ़ भारतीय टीम के कप्तान थे। इसके बाद भारतीय टीम अलग-अलग वर्षों में तीन बार चैंपियन बनी। अब इसी साल (2022) का विश्व कप जीतकर उसने पाँचवीं जीत हासिल की है।

सर विवियन रिचड्र्स स्टेडियम में क़दम रखते ही भारतीय युवा टीम ने यह जता दिया था कि भारत किस इरादे से यहाँ हैं। इंग्लैंड ने पहले बल्लेबाज़ी की और 44.5 ओवर में 189 रन पर इंग्लैंड का बिस्तर बाँध दिया। फाइनल में मैन ऑफ द मैच रहे राज बावा ने महज़ 35 रन देकर पाँच विकेट लिये। इस मैच ने सन् 1983 के विश्व कप की याद ताजा कर दी, जिसमें सीनियर भारतीय टीम ने वेस्टइंडीज को 184 रन पर समेट दिया था। उसे याद करके भी लगा कि भारत अब पाँचवें युवा विश्व कप के नज़दीक खड़ा है।

हालाँकि हुआ भी ऐसा ही; लेकिन दिलचस्प अंदाज़ में। भारत ने 48.4 ओवर में जाकर छ: विकेट पर 195 रन बनाकर ख़िताब अपने नाम किया। टीम इंडिया की शुरुआत वैसे ख़राब रही। ओपनर अंगकृष रघुवंशी खाता खोले बिना पहले ही ओवर में जोशुआ बॉडेन की गेंद पर चलते बने। इसके बाद हरनूर सिंह और शेख़ रशीद ने मज़बूत मोर्चा सँभाला; लेकिन 49 रन पर हरनूर 21 रन बनाकर आउट हो गये। फिर मैदान में उतरे उप कप्तान शेख़ रशीद और कप्तान यश ढुल ने टिक कर बल्लेबाज़ी की। शेख़ ने 84 गेंदों में छ: चौकों की मदद से 50 रन की बेहतरीन पारी खेली। उनके जाने के बाद कप्तान यश भी 17 रन के निजी स्कोर पर आउट हो गये, जिससे भारत को चौथा झटका लगा।

स्कोर 97 रन पर चार विकेट का हो गया, तो राज बावा और निशांत सिंधु ने 88 गेंदों में 67 रन की साझेदारी करके भारत के लिए उम्मीद ज़िन्दा रखी। हालाँकि 43वें ओवर में राज बावा के आउट होने से कराते हुए बड़ा झटका दे दिया। राज गेंदबाज़ी के बाद बल्ले से भी कमाल करने में कामयाब रहे, जिसकी भारत को ज़रूरत थी। बावा ने 35 रन बनाये। निशांत ने हाफ सेंचुरी पूरी की, तो 48वें ओवर की चौथी गेंद पर दिनेश ने सिक्स लगाते हुए भारत को ख़िताब जितवा दिया। हरनूर सिंह (50) और निशांत सिंधु (50*) ने भी कमाल की बल्लेबाज़ी की। बावा ने तो युगांडा के ख़िलाफ़ ताबड़तोड़ 168 रन ठोके थे।

इससे पहले इंग्लैंड ने 44.5 ओवर में 189 रन बनाये। इंग्लैंड के लिए जेम्स रीयू (95) ने देश की टीम को बहुत-ही कम स्कोर पर आउट होने से बचा लिया। इंग्लैंड के लिए रीयू और जेम्स सेल्स (नाबाद 34) ने आठवें विकेट के लिए 93 रन की साझेदारी की। इंग्लैंड का स्कोर 11वें ओवर में तीन विकेट पर महज़ 37 रन था।

टूर्नामेंट में भारत का सफर प्रभावशाली रहा। पहले मैच में 15 जनवरी को उसने दक्षिण अफ्रीका को 45 रन, 19 जनवरी को आयरलैंड को 174 रन, 22 जनवरी को युगांडा को 326 रन, 29 जनवरी को बांग्लादेश को पाँच विकेट से, 2 फरवरी को सेमीफाइनल में ऑस्ट्रेलिया को 96 रन, जबकि फाइनल में 6 फरवरी को इंग्लैंड को चार विकेट से हराया।

भविष्य के सितारे

यश ढुल : विजेता अंडर-19 के कप्तान यश ढुल अपने प्रदर्शन के कारण देश भर के क्रिकेट जानकारों के बीच चर्चा का विषय बने हुए हैं। ढुल ने पहले ही मैच में 82 रनों की शानदार पारी खेली। हालाँकि इसके बाद उन्हें कुछ मैच में कोविड के चलते खेलने का अवसर नहीं मिला। क्वार्टर फाइनल में ज़रूर छोटी, परन्तु प्रभावशाली पारी खेली। अंडर-19 एशिया कप में भी यश ने अपने प्रदर्शन से सभी को प्रभावित किया था। यश ढुल ने कुल खेले 4 मैचों में 76.33 की प्रभावशाली औसत से 229 रन बनाये।

अंगकृष रघुवंशी : भारतीय अंडर-19 टीम के ओपनर अंगकृष ने हाल में जबरदस्त प्रदर्शन किया है। रघुवंशी ने एक बार 144 रन की शानदार पारी भी खेली। अंगकृष रघुवंशी ने छ: मैचों में 46.33 की औसत से 278 रन विश्व कप में बनाये।

राज बावा : एक प्रभावशाली ऑल राउंडर के रूप में ख़ुद को स्थापित करने की तरफ़ बढ़ रहे बावा का इस विश्व कप में ख़ासा प्रभाव दिखा। बावा मध्यक्रम में धमाकेदार बल्लेबाज़ी कर सकते हैं। इस विश्व कप में युगांडा के ख़िलाफ़ उनकी ताबड़तोड़ 162 रन की पारी कपिल देव की याद दिलाती है। इस विश्व कप में गेंद से भी बावा ने अच्छा कमाल दिखाया। एक ऑलराउंडर के नाते उनका आईपीएल में किसी भी टीम में अच्छी बोली पर जाने पक्की सम्भावना है।

शेख़ रशीद : भारतीय अंडर-19 टीम के उप कप्तान शेख़ रशीद पर हर निगाह है। रशीद बेहतरीन बल्लेबाज़ हैं। नंबर तीन पर उन्होंने विश्व कप और उससे पहले अंडर-19 एशिया कप में बेहतरीन पारियाँ खेलीं। आईपीएल टीमों की शेख़ रशीद पर नज़र है।

हरनूर सिंह : सलामी बल्लेबाज़ हरनूर सिंह ने पहले युवा एशिया कप और उसके बाद अंडर-19 विश्व कप के वॉर्मअप मैच में ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ शतक मारकर सुर्ख़ियों में आये।

विक्की ओसवाल : स्पिनर विक्की ओसवाल ने अपनी फिरकी से काफ़ी प्रभावित किया है। यूथ क्रिकेट टीम के पास गेंदबाज़ों में सबसे ज़्यादा प्रभावित ऑर्थोडॉक्स स्पिन गेंदबाज़ विक्की ओसवाल ने किया है। विकी ने युवा विश्व कप में छ: मैचों में 12 विकेट लिये। विश्व कप के पहले ही मैच में पाँच विकेट लेकर सबकी नज़रों में आ गये।

 

युवा विश्व क्रिकेट कप का सफ़र

किस साल?         किसने जीता?

 1988                 ऑस्ट्रेलिया

 1998                 इंग्लैंड

 2000                 भारत

 2002                 ऑस्ट्रेलिया

 2004                 पाकिस्तान

 2006                 पाकिस्तान

 2008                 भारत

 2010                 ऑस्ट्रेलिया

 2012                 भारत

 2014                 दक्षिण अफ्रीका

 2016                 वेस्टइंडीज

 2018                 भारत

 2020                 बांग्लादेश

 2022                 भारत

कांग्रेस के यूपी घोषणापत्र में 10 दिन में किसान कर्ज़ा माफी सहित कई वादे

उत्तर प्रदेश के चुनाव के लिए कांग्रेस ने बुधवार को लोगों से मिले सुझावों के आधार पर बनाया ‘उन्‍नति विधान’ के नाम से अपना घोषणा पत्र जारी कर दिया। चूँकि पार्टी यूपी में प्रियंका गांधी के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही है, उन्होंने ही यह घोषणा पत्र जारी किया। कांग्रेस ने अपनी सरकार बनने की सूरत में 10 दिन के अंदर किसानों का कर्ज माफ करने, 2500 रुपये में गेहूं-धान और 400 रुपये में गन्‍ना खरीद करने, एससी-एसटी की पूरी शिक्षा मुफ़्त करने, कोरोना वॉरियर्स को 50 लाख रुपये देने, ग्राम प्रधान, चौकीदार का वेतन बढ़ाने और 40 फीसदी महिलाओं को नौकरी में आरक्षण देने जैसे बड़े वादे किये हैं।

प्रियंका गांधी ने एक प्रेस कांफ्रेंस में यह घोषणाएं कीं जिसमें प्रदेश अध्यक्ष अजय लल्लू, वरिष्‍ठ कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद और अन्य बड़े नेता शामिल थे। प्रियंका गांधी ने घोषणा पत्र में कहा – ‘हमने इसमें महिलाओं और युवाओं सहित समाज के हर वर्ग का ख्याल रखा है।’ प्रदेश में कल पहले चरण  एक दिन पहले यह घोषणा पत्र आया है।

गांधी ने कहा – ‘प्रदेश में हमारी सरकार बनने पर 10 दिन के भीतर किसानों का कर्ज माफ किया जाएगा और 2500 रुपये में गेहूं-धान और 400 रुपये में गन्ना खरीदा जाएगा। बिजली बिल आधा किया जाएगा। जिन परिवारों को कोरोना की मार पड़ी है, उन्हें 2500 रुपये दिए जाएंगे।’

कांग्रेस महासचिव ने कहा – ‘हम 20 लाख सरकारी नौकरियां देंगे इनमें 40 फीसदी महिलाओं को नौकरी में आरक्षण दिया जाएगा। आवारा पशु से जिनकी फसल का नुकसान होगा उन्हें 3000 रुपये दिए जाएंगे।’

गांधी ने कहा – ‘श्रमिकों और कर्मचारियों के लिए आउटसोर्सिंग बंद करेंगे। आउट सोर्स्‍ड और संविदा कर्मियों को चरणबद्ध तरीके से नियमितीकरण करेंगे। इसी तरह संस्कृत और उर्दू शिक्षकों के खाली पद भरे जाएंगे।’

उत्तर प्रदेश के लिए कांग्रेस के घोषणा पत्र में 2 रुपये किलो में गोबर खरीदने का प्रावधान है। झुग्गी की वो जमीन, जिसमें कोई रह रहा है, उसकी नाम कर दी जाएगी।  ग्राम प्रधान का वेतन 6000 रुपये बढ़ाया जाएगा जबकि चौकीदारों का वेतन 5000 रुपये बढ़ाया जाएगा।’

प्रियंका गांधी – ‘ कोविड-19 (कोरोना) में जान गंवाने वाले कोरोना वॉरियर्स को 50 लाख रुपये दिए जाएंगे। सभी शिक्षा मित्रों को नियमित किया जाएगा। एससी और एसटी की पूरी शिक्षा मुफ़्त की जाएगी। कारीगर और बुनकरों के लिए विधान परिषद में एक सीट आरक्षित की जाएगी। दिव्यांगों की पेंशन प्रतिमाह 6000 की जाएगी। महिला पुलिसकर्मियों को उनके गृहनगर में पोस्टिंग दी जाएगी।’

कांग्रेस नेता ने इस मौके पर कहा – ‘दूसरी पार्टियों की तरह हमने अन्य पार्टियों के वादे  को लेकर अपने घोषणापत्र में नहीं डाले, हमने लोगों से मिले सुझावों को इसमें शामिल किया है। इस समय महंगाई और बेरोजगारी प्रमुख मुद्दा है।’

सुप्रीम कोर्ट से रोड रेज मामले में पीपीसीसी चीफ सिद्धू को राहत, सुनवाई अब 25 को

विद्यानसभा चुनाव से पहले पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष और पार्टी की तरफ से चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद के प्रमुख दावेदारों में एक नवजोत सिंह सिद्धू को गुरुवार को सर्वोच्च न्यायालय से बड़ी राहत मिली है। उनके वकील की तरफ से मामले की सुनवाई टालने की अपील को मानते हुए सर्वोच्च अदालत ने अब इस मामले की सुनवाई 25 फरवरी को रखी है।

सिद्धू के वकील पी चिदंबरम ने गुरुवार को अदालत में कहा कि यह मामला अचानक 2  फरवरी की रात को लिस्ट हुआ। सिद्धू ने अब नया वकील किया है, हमें जवाब के लिए वक्त दिया जाए।’ सर्वोच्च अदालत ने उनकी दलील मंजूर करते हुए अगली सुनवाई 25 फरवरी के लिए तय की है।

सिद्धू एक पुराने (1998 का मामला) रोड रेज मामले में आरोपी हैं। इस मामले में पटियाला के रहने वाले एक व्यक्ति की मौत हो गई थी। पहले शीर्ष अदालत ने सिद्धू को यह कहते हुए छोड़ दिया था कि उनके खिलाफ गैर इरादतन हत्या के कठोर आरोपों को साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं हैं। उस समय शीर्ष अदालत ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया था, जिसमें सिद्धू को गैर इरादतन हत्या का दोषी ठहराया गया था।

बता दें उस आदेश में उन्हें तीन साल की जेल की सजा सुनाई गई थी। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि सिद्धू को मेडिकल रिकॉर्ड सहित सभी सबूतों की जांच के बाद गलत तरीके से दोषी ठहराया गया था। सिद्धू पर स्वेच्छा से चोट पहुंचाने के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 323 के तहत आरोप लगाया गया था, हालांकि उन्हें सिर्फ 1000 रूपये जुर्माना देकर छोड़ दिया गया था।

शीर्ष अदालत ने तब पाया था कि घटना 30 साल से अधिक पुरानी है और आरोपी और पीड़ित के बीच कोई पुरानी दुश्मनी नहीं थी। अदालत ने यह भी कहा कि आरोपी ने किसी हथियार का इस्तेमाल नहीं किया।

अब सिद्धू के वकील नियुक्त हुए पी चिदंबरम ने सर्वोच्च अदालत में इस मामले की  सुनवाई टालने की अपील की थी, जिसे गुरुवार की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने मंजूर कर लिया। अब इस मामले की सुनवाई 25 फरवरी को तय की गयी है। बता दें पंजाब में 20 फरवरी को विधानसभा के चुनाव एक ही चरण में होने हैं।

झारखण्ड तक दिख रही उत्तर प्रदेश चुनाव की तपिश

देश में पाँच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव की हलचल है। तारीख़ों का ऐलान हो चुका है और जैसे-जैसे मतदान नज़दीक आते जा रहे हैं, चुनावी तपिश बढ़ती जा रही है। देश के 28 राज्य और नौ केंद्र शासित प्रदेशों में उत्तर प्रदेश सियासी तौर पर सबसे महत्त्वपूर्ण रहा है; क्योंकि दिल्ली की सत्ता का रास्ता यहीं से होकर गुजरता है। उत्तर प्रदेश चुनाव पर सभी की नज़रें टिकी हैं। इससे झारखण्ड में राजनीति करने वाले और राजनीति में रुचि रखने वाले लोग भी अछूते नहीं हैं। उत्तर प्रदेश की सीमाएँ झारखण्ड से सटी हुई हैं।

ज़ाहिर है कि जब उत्तर प्रदेश की चुनावी तपिश बढ़ती है, तो उसकी तपिश झारखण्ड तक पहुँचने लगती है। वैसे भी उत्तर प्रदेश और झारखण्ड का आपस में कई मायनों में गहरा रिश्ता है। लिहाज़ा अन्य चार चुनावी राज्यों की अपेक्षा उत्तर प्रदेश को राज्य स्तर से ज़िला और प्रखण्ड स्तर तक के मीडिया में ज़्यादा तवज्जो मिलता है। चौक-चौराहों पर चुनावी चर्चा और राजनीतिक दल, ख़ासकर भाजपा और कांग्रेस की सियासी गतिविधियाँ तेज़ हो गयी हैं।

झारखण्ड का गढ़वा ज़िला ख़ास महत्त्व रखता है। राज्य का यह एक मात्र ज़िला है, जिसकी सीमाएँ पड़ोस के तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ की सीमाओं से लगती हैं। गढ़वा के उत्तर में बिहार का रोहतास व कैमूर ज़िला, दक्षिण में छत्तीसगढ़ का सरगुजा ज़िला और पश्चिम में उत्तर प्रदेश का सोनभद्र ज़िला है; जबकि पूर्व में ख़ुद झारखण्ड के पलामू और लातेहार ज़िले मौज़ूद हैं। यानी उत्तर प्रदेश की कई गतिविधियाँ झारखण्ड में गढ़वा ज़िले के रास्ते से प्रवेश करती हैं। फ़िलहाल उत्तर प्रदेश में चुनावी सरगर्मी बढ़ गयी है, तो झारखण्ड में गढ़वा ज़िले के रास्ते यह सरगर्मी पूरे प्रदेश तक पहुँचने लगी है।

दोनों प्रदेशों का सियासी नाता

उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में चार विधानसभा सीट घोरावल, राबट्र्सगंज, ओबरा और दुद्धी हैं। इन सीटों पर तो झारखण्ड का सीधा प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा पूर्वांचल की कई सीटों पर बिहार और झारखण्ड का असर रहता है। क्योंकि पूर्वोत्तर के राज्यों की राजनीति जाति, धर्म, सम्प्रदाय, आरक्षण आदि के इर्द-गिर्द घूमती है। ख़ासकर उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखण्ड जैसे राज्यों की राजनीति की पृष्ठभूमि में तो यही है। इसलिए भी इन राज्यों में चुनाव होने पर सीमा से सटे राज्यों में गतिविधियाँ तेज़ हो जाती हैं। कांग्रेस और भाजपा के कई नेता मूल रूप से उत्तर प्रदेश के हैं। भाजपा के सांसद संजय सेठ, भाजपा के संगठन महामंत्री धर्मपाल, राजेश शुक्ला, गणेश मिश्रा समेत कई नेता मूल रूप से उत्तर प्रदेश के हैं। वहीं कांग्रेस के पूर्व विधायक स्व. राजेंद्र सिंह का परिवार, धनबाद के सिंह मेंशन का परिवार समेत कई अन्य नेताओं का उत्तर प्रदेश से गहरा नाता है। प्रदेश के कई आईएएस, आईपीएस समेत अन्य अधिकारी, कर्मचारी और आम लोगों का उत्तर प्रदेश के मूलनिवासी होने के कारण उनका नाता है। उत्तर प्रदेश और झारखण्ड में एक और समानता है। झारखण्ड की तरह उत्तर प्रदेश के कुछ विधानसभा सीटें आदिवासी (एसटी) बाहुल  हैं। जैसे इलाहाबाद के करछना से अलग होकर 2012 में बनी कोरांव विधानसभा सीट या सोनभद्र ज़िलाया फिर जौनपुर, ललितपुर, बलिया आदि इलाकों एसटी वोट किसी भी उम्मीदवार कीजीत-हार में बहुत मायने रखता है। इसलिए इन ज़िलों में झारखण्ड के नेताओं और कार्यकर्ताओं का महत्त्व बढ़ जाता है।

झारखण्ड के मन्दिरों में आस्था

चुनाव से पहले और जीत के बाद कई नेता अपने-अपने धर्म स्थली पर मत्था टेकने ज़रूर जाते हैं। झारखण्ड के चार धर्म स्थल उत्तर प्रदेश के नेताओं, विशेषकर पूर्वांचली नेताओं के लिए ख़ास मायने रखते हैं। देवघर का बाबा बैद्यनाथ मन्दिर, बासुकीनाथ मन्दिर, रामगढ़ स्थित रजरप्पा की माँ छिन्मस्तिका मन्दिर और नगर उंटारी स्थित श्री वंशीधर महाप्रभु का मन्दिर इनमें ख़ास हैं। यहाँ उत्तर प्रदेश के कई नेता चुनाव से पहले और चुनाव जीतने के बाद दर्शन और पूजन के लिए आते हैं। चुनाव की घोषणा के साथ ही नेताओं का धीरे-धीरे आना-जाना भी शुरू हो गया है। इन जगहों के पुजारियों और पण्डों का कहना है कि अभी कोरोना संक्रमण की वजह से राज्य में कई तरह की पाबंदियाँ हैं। मन्दिर में प्रवेश और पूजा-अर्चना को लेकर कई तरह के नियम बनाये गये हैं। इस वजह से अभी आवाजाही कम है। अभी कम संख्या में उत्तर प्रदेश के नेताओं का आना शुरू हुआ है। पर उम्मीद है कि संक्रमण कम होने के बाद हर बार की तरह इस बार फिर उत्तर प्रदेश के कई सांसद, विधायक और चुनाव के प्रत्याशी पूजा-अर्चना और आशीर्वाद लेने पहुँचने लगेंगे।

नेताओं का प्रवास शुरू

उत्तर प्रदेश में चुनावी सरगरमी धीरे-धीरे बढ़ रही है। कोरोना संक्रमण को देखते हुए चुनाव आयोग ने प्रचार को लेकर दिशा-निर्देश जारी किये गये हैं। सभाओं, रैलियों और अन्य कई तरह गतिबिधियों में ज़्यादा भीड़ जुटाने पर पाबंदियाँ लगी हुई हैं। अभी कम संख्या में दर-दर (डोर-टू-डोर) जाने की अनुमति मिली है। चुनाव आयोग ने कहा है कि समय-समय पर कोरोना स्थिति के आकलन के बाद पाबंदियों को घटाया जा सकेगा। यानी ज्यों-ज्यों पाबंदियाँ हटेंगी, चुनावी सरगरमी तेज़ होती जाएगी। इन सभी बातों को देखते हुए उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए भाजपा और कांग्रेस ने अपने-अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं की भूमिका तय करनी शुरू कर दी है। दोनों दलों के नेताओं व कार्यकर्ताओं का उत्तर प्रदेश में प्रवास शुरू हो गया है। भाजपा की पहली टीम में संगठन महामंत्री धर्मपाल सिंह, प्रदेश महामंत्री प्रदीप वर्मा, सांसद सुनील सिंह, विधायक भानु प्रताप शाही, सत्येंद्र तिवारी समेत क़रीब 70 लोग शामिल हैं। काफ़ी संख्या में नेता और कार्यकर्ता उत्तर प्रदेश चले गये हैं।

ये नेता काशी के चंदौली, सोनभद्र व मिर्जापुर में चुनावी प्रबन्धन में सहायता कर रहे हैं। वहीं भाजपा की दूसरी टीम भी तैयार है, जिनका दौरा जल्द शुरू होगा। इनमें केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा, केंद्रीय राज्यमंत्री अन्नपूर्णा देवी, पूर्व मुख्यमंत्री एवं राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवर दास, पूर्व मुख्यमंत्री एवं भाजपा विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी, सांसद व प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश और अन्यनेताओं की जवाबदेही तय की जाएगी।

दूसरी ओर कांग्रेस की पहली टीम में विधायक प्रदीप यादव, अंबा प्रसाद, नमन विक्सल कोंगाड़ी, पूर्व विधायक जे.पी. गुप्ता, केशव महतो कमलेश, काली चरण मुंडा आदि शामिल हैं। जबकि दूसरी टीम में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर, मंत्री आलमगीर आलम, बन्ना गुप्ता, बादल पत्रलेख और अन्य विधायकों को रखा गया है।

उत्तर प्रदेश में होगा झारखण्ड के कामकाज का प्रचार

झारखण्ड में गठबन्धन की सरकार है, जिसमें कांग्रेस भी शामिल है। वहीं भाजपा मुख्य विपक्षी दल है। ज़ाहिर है यहाँ के नेता उत्तर प्रदेश के चुनावी प्रचार के दौरान अपने राज्य की बात रखने से नहीं चूकेंगे। प्रचार के लिए जाने वाले नेताओं ने बातचीत में कहा कि पार्टी द्वारा जो ज़िम्मेदारी मिलेगी, उसके साथ झारखण्ड की बातों से भी उत्तर प्रदेश की जनता को अवगत कराएँगे, जिससे लोग हमारी पार्टी के पक्ष में मतदान करें। भाजपा के नेता उत्तर प्रदेश चुनाव में सिंगल इंजन और डबल इंजन की महत्ता को जनता को बताएँगे। राज्य में पूर्व की भाजपा सरकार में हुए विकास कार्यों को गिनाएँगे। वर्तमान सरकार की ख़ामियों की भी चर्चा करेंगे। साथ ही बिगड़ती विधि व्यवस्था, उग्रवादी घटनाओं, महिला अत्याचार और अवरुद्ध विकास जैसे मुद्दों को गिनाएँगे।

वहीं कांग्रेस नेताओं की टीम झारखण्ड में मॉब लिंचिंग के ख़िलाफ़ बने क़ानून, किसानों के हितों में उठाये गये क़दमों, किसान क़र्ज़ माफ़ी योजना और हाल ही में पेट्रोल पर ग़रीब तबक़े को दी जाने वाली 25 रुपये की राहत जैसे कार्यों को जनता को बताएगी।

 

 

“पार्टी के कई नेताओं, पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं का उत्तर प्रदेश प्रवास शुरू हो गया है। झारखण्ड के नेता व कार्यकर्ता उत्तर प्रदेश के पार्टी प्रत्याशियों कार्यकर्ताओं के सहयोगी बन रहे हैं। ख़ासकर झारखण्ड सीमा से लगी विधानसभा सीटों में यहाँ के कार्यकर्ताओं का विशेष सहयोग लिया जाता है। ज्यों-ज्यों चुनाव कार्य आगे बढ़ेगा, प्रदेश के वरिष्ठ नेता, सांसद, विधायक सभी उत्तर प्रदेश की ओर रूख़ करेंगे। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर से एक कार्य-योजना तैयार की जा चुकी है।”

दीपक प्रकाश

सांसद एवं भाजपा प्रदेश अध्यक्ष

 

 

“दिसंबर में प्रियंका गाँधी ने उत्तर प्रदेश को लेकर एक बैठक की थी। इस बैठक में प्रदेश से कई नेता शामिल हुए थे। इसमें उत्तर प्रदेश की चुनाव में सहयोग को लेकर भी बात हुई थी। पहले चरण में कई विधायकों को उत्तर प्रदेश बुलाया गया है। यहाँ से पार्टी के विधायकों, पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं का उत्तर प्रदेश जाना शुरू हो गया है। दूसरे चरण में सरकार के मंत्री और अन्य वरिष्ठ नेता उत्तर प्रदेश जाएँगे। मेरा ख़ुद का भी कार्यक्रम है। सभी नेता उत्तर प्रदेश में पार्टी उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करेंगे।”

राजेश ठाकुर

कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष

अखिलेश, चन्नी, बादल पिता-पुत्र और अमरिंदर ने नामांकन दाखिल किए

तहलका ब्यूरो
उत्तर प्रदश से लेकर पंजाब तक सोमवार को बड़े नेताओं ने अपने-अपने विधानसभा हलकों से नामांकन दाखिल किये। एक तरह से सोमवार का दिन मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्रियों के नामांकन दाखिल करने का दिन रहा।

समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश ययादव ने उत्तर प्रदेश में करहल हलके से नामांकन दाखिल किया जबकि पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने भदौर से बतौर कांग्रेस उम्मीदवार और सुखबीर सिंह बादल ने जलालाबाद से बतौर शिअद उम्मीदवार नामांकन दाखिल किया। पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने पंजाब के लम्बी और कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने पटियाला शह्र्री सीट से नामांकन दाखिल किया।

सपा के अखिलेश यादव ने मैनपुरी में एसडीएम कार्यालय में परचा दाखिल किया। उनके साथ पार्टी के नेता भी थे। अखिलेश इस समय सांसद भी हैं। नामांकन के बाद अखिलश ने भाजपा पर हमला किया और कहा कि प्रदेश की जनता अब बदलाव चाहती है।

पंजाब में मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने भदौर सीट से नामांकन दाखिल किया।  नामंकन के बाद मीडिया के लोगों से बात करते हुए चन्नी ने कहा – ‘मालवा का इलाका  बहुत पिछड़ा हुआ है। हमारी कोशिश उसे ऊपर उठाने की है।’ बता दें चन्नी को कांग्रेस आलाकमान ने दो जगह से चुनाव में उतारा है। उन्हें पार्टी की तरफ से दोबारा चुनाव में मुख्यमंत्री पद का दावेदार बताया जा रहा है।

इस बीच पंजाब के पूर्व उपमुख्यमंत्री और शिअद नेता सुखबीर सिंह बादल ने भी आज जलालाबाद सीट से नामांकन दाखिल किया। बादल भी इस समय लोकसभा के सदस्य हैं।