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कंपनी को राहत, जनता की आफत

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स्वाइन फ्लू अब हजार से ज्यादा लोगों की जान ले चुका है. हमारे देश में इसका पहला मामला 2009 में दर्ज़ हुआ था. हैरानी की बात है कि 2011 तक भी सरकार ने इसके इलाज में काम आने वाली दवा टेमीफ्लू को आवश्यक दवाओं की सूची में शामिल नहीं किया था. जबकि इसी वर्ष सरकार ने अति आवश्यक दवा सूची का पुनःनिरिक्षण किया था. यहां यह बताना उचित होगा कि टेमीफ्लू को विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्लूएचओ ने अपनी आवश्यक दवाओं की सूची में शामिल किया हुआ है. सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रीवेंनशन ऑफ यूएस ने भी इसे स्वाइन फ्लू के इलाज के लिए अनुमोदित किया हुआ है.

यह सब होने पर भारत सरकार ने इस दवा को क्यों आवश्यक दवा सूची में शामिल नहीं किया है इस पर बात करने से पहले एक और उदाहरण से बात को आगे बढ़ाते हैं.

झारखण्ड के देवघर जिले के निवासी सौरभ के पिता लम्बे समय से किडनी रोग से ग्रस्त थे. डॉक्टरों के अनुसार उन्हें एक से डेढ़ वर्ष और जीवित रखा जा सकता था. महंगी दवाइयों ने सौरभ और उसकी माँ का भरोसा और कमर दोनों तोड़ दी थी. इलाज में पहले ही अपनी जमा पूंजी झोंक चुके परिवार के पास दो रस्ते थे. पहला, भविष्य को दांव पर लगा वो घर के मुखिया के लिए जीवन का एक और वर्ष खरीद ले. दूसरे उन्हें बिस्तर पर अपना अंतिम समय काटते देखें. उन्होंने मजबूरी में दूसरा रास्ता चुना. सौरभ ने अब पढ़ाई बीच में छोड़ कर घर की जिम्मेदारियां उठा ली हैं. उसका मन आज भी इस बात को लेकर कचोटता है की उसने खुद अपने पिता के लिए मौत को चुना.

सौरभ जैसे युवाओं की यह कहानी भारत में इतनी आम हो चुकी है कि किसी को उसकी कहानी में कुछ भी नया नहीं या अजीब नहीं लगता है. अब संवेदनहीन होती जिजीविषा मात्र स्टोरी भर हैं.

भारत में 80 फीसदी लोगों के पास स्वास्थ्य बीमा नहीं है. वहीं दूसरी ओर 70 फीसदी भारतीय 140 रूपये से भी कम में अपना गुजर करते हैं. ऐसी हालत में दवाइयां और उपचार कोढ़ में खाज का काम करती हैं. ये सिर्फ कष्ट, मृत्यु और और गरीबी का रास्ता खोलती हैं. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ)  की एक रिपोर्ट के अनुसार मंहगी दवाओं की वजह से प्रति वर्ष भारत में तीन फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे खिसक जाते हैं. दवा जिसे जीवन देना था अब वो जिंदगी छीनने का बायस बनती जा रही है.

यह सवाल उठाना सहज है क्या दवाओं की लागत इतनी ज्यादा है कि कंपनियां इन्हें ऊंची कीमतों पर बेचने को मजबूर हैं. इसका सहज जवाब है नहीं  

किस के हित में सक्रिय है सरकार

मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है क्या दवाओं की लागत इतनी ज्यादा है कि कंपनियां इन्हे ऊंची कीमतों पर बेचने को मजबूर हैं. लेकिन हमारी सरकार खुद ये मान चुकी है की भारत में दवा कंपनियां 1023 गुणा तक मुनाफा कमा रही है. सिर्फ इस स्वीकृती से ही वर्तमान और पूर्व की सरकारों के लोक कल्याणकारी होने के दावों पर सवाल खड़ा किया जा सकता है.  एक बात तो है कि सरकारी महकमों की वफादारी किस ओर है, यह उनके दवा कंपनियांपर नकेल ना कसें जाने वाले गैरजिम्मेदार रैवये से ही स्पष्ट है. याद करे कि नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे के बाद इस मसले को लेकर खासा बवाल भी हुआ था.

आरोप लग रहे थे कि दौरे के दौरन भारतीय प्रधानमंत्री ने अमरिकी दवा कपंनियों को लुभाने के लिए राष्ट्रीय आवश्यक दवा सूची (एनईएलएम) में शामिल की गई 108 नई दवाओं को वापस लेने का फैसला किया था. माना जा रहा है कि इसकी वजह से 30 से अधिक अमेरकी कंपनियों को रहत मिलेगी और उनका मुनाफा बढ़ेगा. इस ऑर्डर को फार्मा (दवा) कंपनियांने कोर्ट में चुनौती दी है. जबकि सच्चाई यह है कि सितम्बर महीने में राष्ट्रीय फार्मा मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) से गैर-आवश्यक दवाओं की कीमत तय करने का अधिकार वापस ले लिया गया था. ऐसा प्रधानमंत्री मोदी के अमेरिका दौरे के ठीक पहले किया गया था. आश्चर्य की बात यह है कि जिस देश को लुभाने के लिए यह कदम उठाया गया वहां के राष्ट्रपति बराक ओबामा खुद अपने नागरिकों की सेहत  के लिए किसी भी हद तक जाने का माद्दा दिखा चुके हैं. अपने की देश के एक वर्ग के बीच घोर विरोध के बावजूद ओबामा ने सभी अमेरिकियों के लिए यूनिवर्सल हेल्थ प्लान ‘ओबामा केयर’ की वकालत की थी.

दवा नीति की जन समीक्षा में एक बात साफ तौर पर  सामने आती है कि कंपनियों की लूट को अमलीजामा पहनाने में मोदी सरकार की अहम भूमिका रही है

 

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जान से बड़ा मुनाफा

मध्य प्रदेश, रीवा की रंजन बंसल एक प्राईवेट स्कूल की प्रधानाध्यापक हैं. उनके बेटे नील की हालत डॉक्टर द्वारा नई दवाओं के बाद और भी नाजुक हो गई. अस्पताल में हुई जांच से पता चला कि जो दवाएं नील को दी गई थी उनकी उसे आवश्यकता नहीं थी. बात यहीं खत्म नहीं होती है. इस मामले में नया मोड़ तब आया जब इसी जांच में पता चला कि नील को दी गई दवाएं आम भाषा में कहे तो खासी  ‘पॉवरफुल’ थी. नील को जो एंटीबॉयटिक दी गई थी, उसकी कम्पोजिशन काफी हैवी थी. इसका इलाज का असर यह हुआ कि अब उसके शरीर पर यह हैवी डोज ही काम करेगी.

डॉ दाबड़े का कहना है, मुनाफे के लिए फार्मा कम्पनियां बाजार में बेतुकी और जरूरत से कहीं ज्यादा भारी कम्पोजिशन की एंटीबॉयटिक ला चुकीं हैं. आम जन की भाषा में इसे ऐसे समझा जा सकता है कि अगर किसी व्यक्ति का इलाज़ ग्रुप-1 की एंटीबॉयटिक से संभव है लेकिन उसे सीधे ग्रुप-3 की एंटीबॉयटिक दे दी गई है तो उसके लिए  ग्रुप-1 और 2 का विकल्प हमेशा के लिए खत्म तो हो ही गया, साथ ही अब उसे आवश्यकता  पड़ने पर और कड़ी एंटीबॉयटिक लेनी पड़ेगी. इन सब की वजह से हालात इतनी गंभीर हो चुकी है कि इंसानों के लिए विकल्प खत्म होते जा रहे हैं. कई ऐसे मामले सामने आने लगे हैं जिसमें इंसानी शरीर पर एंटीबॉयटिक ने काम करना ही बन्द कर दिया है. सब जानते हुए भी फार्मा कंपनिया मुनाफे के लिए खुल्लम खुल्ला  यह खेल खेल रहीं हैं.सच्चाई यह भी है की नई-नई दवाएं बाज़ार में उतार फार्मा कंपनियां मोटा पैसा कमा रहीं हैं. हालांकि इस स्थिति के लिए डॉक्टर भी बराबर के जिम्मेदार हैं. उनका काम अपने मरीजाे को गैर जरुरी दवाओं से बचाने का भी होता है. यही नहीं अमेरिका में  पशुओं को एंटीबॉयटिक देने पर प्रतिबंध है ताकि यह फूड चेन में शामिल न हो जाए किन्तु भारत में ऐसे कानून के अभाव में  कंपनियां यहां भी अपना खेल खुलेआम खेल रही हैं और सरकार इसमें मददगार हो रही है.

 

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किस आधार पर तय होती हैं कीमतें

भारत में ड्रग (दवा) की कीमतें तय करने का अधिकार एनपीपीए के पास है. एनपीपीए भारत सरकार के रसायन व खाद मंत्रालय के अंतर्गत आता है. 1986 में फार्मा नीति आई थी. एक दशक बाद 1995 में ड्रग प्राइस कंट्रोल आॅर्डर (डीपीसीओ) आया. आर्डर में 75 ड्रग  शामिल किए गए थे. इस सूची में जिन साल्टों का नाम शामिल था उनकी अधिकतम बिक्री दर 2013 के पहले तक निम्नलिखित  फॉर्मूले से तय की जाती थी.

R.P. = (M.C. + C.C. + P.M. + P.C.) x (1 + MAPE/100) + ED (RP रिटेल प्राईस, MC- मेकिंग कास्ट, CC- कंवर्जन कॉस्ट, PM- पैकेजिंग मैटिरीयल, PC – पैकेजिंग कॉस्ट, MAPE- रिटेलर, होलसेलर आदि के तमाम कमिशन अथवा का कुल प्रोफिट मार्जिन जो 100 प्रतिशत के ऊपर नहीं हो सकता है, ED- एक्साईज ड्यूटी).

आम भाषा में बात करंे तो दवा बनाने से लेकर उसकी पैकेजिंग की कुल लागत का दो गुणा कीमत और एक्साईज ड्यूटी अधिकतम बिक्री दर के रुप में तय होती थी. इस बीच ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क(एआईडीएएन), लोकास्ट,  मेडिको फ्रेंड सर्कल और जन स्वास्थ्य सहयोग आदि ने मिलकर बाज़ार आधारित मूल्य निर्धारण व्यवस्था के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी. एआईडीएएन के डॉ. गोपाल दाबड़े के अनुसार,‘डीपीसीओ 1995 में सिर्फ 75 दवाओं की कीमतें नियंत्रित थी जो इलाज के लिहाज से नाकाफी थी. लेकिन अधिकतम बिक्री दर तय  करने का फाॅर्मूला बेहतर था’डीपीसीओ 1995 में कुछ खामियां थी. इसमें  एचआईवी-एड्स, ओआरएस, सभी प्रकार के संक्रमण के रोकथाम वाली दवाओं को शामिल नहीं किया गया था. इसके अलावा टीबी, मलेरिया, कोढ़, हाईपरटेंशन जैसे रोगों,  जिसका प्रकोप भारत में सबसे ज्यादा था उनका दवा-सूची में ठीक से प्रतिनिधित्व नहीं हुआ था. इसके अलावा अनावश्यक या कम उपयोग होने वाली ड्रग्स को प्राईस कंट्रोल के तहत लाया गया था. नियमत: सरकार को एनईएलएम को समय-समय पर संशोधित करते हुए जरूरी ड्रग्स को सूची में डाल उसे डीपीसीओ के अंतर्गत लाना चाहिए था. लेकिन सरकारें ऐसा करने से बचती रहीं. अंतत: 2013 में डीपीसीओ में बड़ा बदलाव आया. डीपीसीओ 2013 जारी जनता के लिए दवाओं की कीमतें कम करने के लिए हुआ था लेकिन हुआ ठीक इसका उल्टा.

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दाबड़े बताते हैं ‘जब-जब भारत में नई दवा नीतियां बनी हैं. दवा कंपनियों ने अपना दबाव बनाकर, दवाओं के दाम तय किए हैं. इन कंपनियों की लॉबी ने नई दवा-नीतियां  तय करने में हमेशा अहम भूमिका निबाही है. दुखद है कि किसी बड़ी राजनीतिक पार्टी ने जनता के पक्ष में कभी लॉबिंग नहीं की. यही नहीं 2013 में तो शरद पवार की अध्यक्षता वाली एक समिति जिसे नई दवा नीति बनानी थी, ने  डीपीसीओ 1995 के निर्माण कीमत आधारित की जगह बाजार आधारित फॉर्मूला को लागू कर एक और जन विरोधी कदम उठाया था.’

2013 में डीपीसीओ सूची में ड्रग्स की संख्या 75 से बढ़ाकर 348  की गई थी. 2013 के नए आदेश के अनुसार अब दवा की कीमत बाजार में कंपनी की उपस्थिति तय करेगी. अब दवा का औसत मूल्य किसी बाजार विशेष में कंपनी के एक प्रतिशत या उससे ज्यादा वाले शेयर के आधार पर किया जाएगा. यानी खुदरा मूल्य = बाजार में 1% या उससे ज्यादा शेयर वाले कंपनियां के औसत के आधार पर किया जाएगा. इस आधार पर देखा जाए तो दवाएं और महंगी हो गई. कंपनियों का मुनाफा बेहताशा बढ़ गया. इस तथ्य को समझने के लिए तालिका एक (ऊपर) देखें.

 ब्रांड से पैकेजिंग बदल सकती है दवा की गुणवत्ता नहीं.ब्रांडिंग एक सोची समझी साजिश के तहत होती है जिससे रोगी के मन में डर और भ्रम बना रहे

लूट को सरकार ने बढ़ावा दिया

दवा नीति की जन समीक्षा करने वाले कई समूहों का मानना है कि, ‘डीपीसीओ 2013 ने कॉर्पोरेट लूट को अमलीजामा पहनाने का काम किया है. यही नहीं मोदी के नेतृत्व में बनी नई सरकार ने तो रही सही कसर भी पूरी कर दी है. मोदी सरकार को इस आदेश का पुनःनिरीक्षण करना था लेकिन यह करना तो दूर इस सरकार ने सितंबर 2011 में एनपीपीए की विशेष शक्तियां तक खत्म कर दी. यह सब मोदी की अमेरिका यात्रा से ठीक पहले हुआ.’

इस लिहाज से देखा जाए तो मोदी सरकार की दवा नीति न केवल जनविरोधी है बल्कि यह मानवाधिकारों का हनन भी है. 2013 के आदेश ने पहले से ही गरीबों की पहुंच से दूर दवाईयों को बेहताशा मंहगा करने की छूट दे दी है. इस उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है कि एक एंटीबॉयटिक, जो सिप्रोफ्लोकसीन (500 एमजी), टीनीडाज़ोल (600 एमजी) के काम्पोज़िशन से बना है,की दस टेब्लेट की पत्ती को रैनबैक्सी कंपनी सीफ्रान टीजी के नाम से 107 रुपये में बेचती है. इसी काम्पोज़िशन को भारतीय कंपनी एफडीसी जोक्सन टीजी के नाम से सिर्फ 30.45 रुपये में बेचती है. लाज़मी है कि जब एक काम्पोज़िशन की दवा में इतना फर्क है तो पूरी बाजार की हालत क्या होगी. सोचने की बात है ऐसे हालत में प्रतियोगिता का हवाला देकर कीमतों के निर्धारण का आधार दवा कंपनियों पर छोड़ा जाना राजनीतिक और मानवीय तौर पर कितना जायज है.

नाम न बताने की शर्त पर एनपीपीए के एक वरिष्ठ अधिकारी ने माना कि  ‘ दवा नीति को लेकर सरकार का रैवया बेहद लचर है. स्वास्थ्य मंत्रालय को नियमों के अनुसार हर तीन वर्ष में एनईएलएम को अपडेट करना होता है पर वर्ष 2003 तक सरकार इसे करने जहमत नहीं उठाई. 2011  में सुप्रीम कोर्ट के  कहने पर सरकार ने इसकी सुध ली. गौरतलब है कि लॉबिंग और भारत की दवा नीति के बीच गहरे संबंध है.  2002 में सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार को नई दवा नीति बनाने का आदेश दिया था. एक दशक तक सरकार आना कानी करती रही. इससे परेशान होकर सुप्रीम कोर्ट ने एक निश्चित समय सीमा तय करते हुए कहा कि विफलता की सूरत में वह खुद गाईडलाईन जारी कर देगा. भारतीय फार्मा लॉबी ऐसा कोई आदेश नहीं चाहती थी. सरकार ने लीपा-पोती कर के डीपीसीओ 2013 पेश कर दिया. इस आॅर्डर के पीछे इंडियन फार्मा कंपनियां और बहु-राष्ट्रीय फार्मा लॉबी का हाथ है.आश्चर्य बात है ना कि वर्ष 2003 के बाद एनईएलएम में अगला बदलाव 2011 में सुप्रीम कोर्ट फटकार के बाद हुआ. पिछले वर्ष जिन 108 नई दवाओं को हमने नियंत्रण सूची में डाला था उसके विरोध में फार्मा कंपनियाें ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है, मामला अभी लंबित है. ’ फार्मा कंपनियाें के  मुनाफे पर उन्होंने कहा, ‘एनपीपीए डीपीसीओ 2013 के फ्रेमवर्क के तहत ही चलती है. जब से डीपीसीओ उत्पादन आधारित मूल्य नियंत्रण फॉर्मूले को छोड़कर बाजार आधारित मानकों पर आ गई है तो हम कुछ नहीं कर सकते. और यह मामले भी कोर्ट में लंबित हंै.’

talika1बाज़ार आधारित और उत्पादन आधारित मूल्य नियंत्रण के बीच कौन सा विकल्प बेहतर है जैसे सवालाें को वह टाल गए. हालांकि यह बात उन्होंने जरुर मानी कि पुरानी पद्घति में कुछ कमजोरियों के बावजूद कानून जन पक्षधर था, हां उसे लागू करने वाली एजेंसी किसी न किसी दबाव के चलते विफल होती रही.

भारत में दवा कीमतों के खेल की परिधि फार्मा कंपनियों, होलसेलर, डॉक्टर, लॉबिंग से होते हुए सत्ता के गलियारों तक जाती है. डीपीसीओ और राष्ट्रीय आवश्यक दवा सूची (एनईएलएम) को ताख पर रख दवा जैसी जीवन रक्षक वस्तु का बाजारीकरण किया जा रहा है.  दाबड़े बताते हैं कि ‘फार्मा कंपनिया डीपीसीओ से बचने के लिए अवैज्ञानिक और फर्जी कॉम्बिनेशन बना कर बेच रहीं हैं क्योंकि कपड़े, फोन या जूते की तरह दवा खरीदने वाला व्यक्ति खुद अपने लिए दवा का चयन नहीं करता. बताई गई दवा खरीदना मरीज की इच्छा नहीं उसकी मजबूरी होती है. इसी का फायदा उठा कंपनियांं नए फार्मूले/कॉम्बिनेशन वाली दवाएं बेचने में कामयाब हो जाते हैं. इन कॉम्बिनेशन पर किसी प्रकार नियंत्रण कानून लागू नहीं है. वे मनचाहा मुनाफा कमा रहे हैं.’ मसलन उपरोक्त एंटीबॉयटिक सिप्रोफ्लोक्सीन 250 एमजी तक एनईएलएम सूची के अंतर्गत आता है जिसकी कीमतें बाजार में 20 से 30 रुपये तक हैं. लेकिन बाजार में बिकने वाला फाॅर्मूला/कॉम्बिनेशन 500 एमजी वाला है.इसे बेचने वाली फेहरिस्त में बड़ी कंपनिया अव्वल हैं. कुल मिला कर मरीज़ और उसके परिजन कम से कम दो से तीन गुणा ज्यादा दाम चुकाने को मजबूर होते हैं. जितना गंभीर रोग उतना ही गहरा होता है इस खुली लूट का दंश. एस श्रीनिवासन वडोदरा में ‘लोकॉस्ट’ नाम से खुद की फार्मा कम्पनी चलाते हैं. उनका का कहना है, ‘लोकोस्ट में हम जितनी दवाईयां बनाते हैं उससे ज्यादातर रोगों का इलाज संभव है. हमारी और बाजार में उपलब्ध प्रमुख कंपनियों की कीमतों के बीच  200 से 4000 गुणा तक का फर्क है.  फार्मा कंपनियां जानबूझ कर दवाएं मंहगी बेचती हैं. ’ मुनाफे के बारे में पूछने पर श्रीनिवासन ने कहा, ‘जब लोकॉस्ट अपने सारे खर्चो को निकालने के बाद भी मुनाफा कमा सकती है तो यह बाकी कंपनियां के लिए भी संभव है.’

बड़े ब्रांड की दवाएं ही प्रभावशाली होती हैं इस धारणा को सिरे से खारिज करते हुए श्रीनिवासन ने बताया, ‘भारतीय बाजार में बिकने वाली 90 फीसदी दवाएं पेटेंट-फ्री फॉर्मूला से बनती हैं. अगर मैं सही तरीके का इस्तेमाल कर रहा हूं तो किसी ब्रांडेड कम्पनी और मेरी दवा के बीच में लेबल के अलावा कोई फर्क नहीं होगा. जब फॉर्मूला ही जेनरीक हंै और मैं कुछ अलग भी नहीं कर रहा तो ब्रांडिंग कर देने से दवा की गुणवत्ता कैसे बदल सकती है. ब्रांड से सिर्फ पैकेजिंग बदल जाती है उसके अंदर की दवा नहीं. दवाओं की ब्रांडिंग एक सोची समझी साजिश के तहत होती है जिससे मरीज के मन में डर और भ्रम दोनो बना रहे.’ उन्होंने बताया, दुनिया भर में फार्मा कंपनियाें के सबसे ज्यादा ब्रांड भारत में हैं. अमेरिका के अंदर सिर्फ पेटेंट दवाओं के ब्रांड चलते है.’

सुप्रीम कोर्ट मान चुका है कि  भारत में एक दिन के एंटीबॉयटिक की कीमत दो वक्त की रोटी के बराबर है. जिस देश में आधिकारिक तौर पर 30 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं  ऐसे में दवाओं की ब्रांडिंग कर उसे बेचना अपराध से कम नहीं है. इस देश को दवाइयों की जरूरत है ब्रांडस की नहीं.’

इस बात से डॉ दाबड़े भी इत्फाक रखते हैं कि भारत में दवाओं के अतार्किक रुप से मंहगी होने के पांच कारण हैं.कंपनियाें का लालच, डॉक्टरों का  लालच, दवा दुकानों की मुनाफाखोरी, हमारी लापारवाही और वैश्विक बाजार का षडयंत्र. वैश्विक बाजार हमें कमोडिटी के रूप में देख रहा है. यही नहीं भारत का एक प्रयोगशाला के तौर पर भी इस्तेमाल किया जा रहा है.

पेटेंट के नाम पर भारतीय बाजार का दोहन करने की पूरी तैयारी चल रही है. सुप्रीम कोर्ट ने बीते कुछ वर्षों में पेटेंट पर लैंडमार्क आदेश दिए हैं. लेकिन ओबामा दौरे के बाद विदेशी निवेश का हवाला देकर कंपनिया इसे भारतीय बाजार में ठेलने में सफल होती दिख रही हैं.

श्रीनिवासन के मुताबिक अगर भारतीय दवा बाजार में पेटेंट का यह खेल और तेजी से शुरू होता है तो दवा और इलाज गरीबों के साथ-साथ मध्यम वर्ग की पहुंच से भी दूर हो जाएगा.

इसका सबसे भयावह उदाहरण हेपिटाईतिस सी की दवा सोवालडी का है जिसे अमेरिकी कंपनी गीलियड साईंसेस बनाती है. अगस्त 2014 में भारतीय मीडिया में गीलियड अपनी उदारता की खबरों के कारण छाई हुई थी. कंपनी  ने भारत में सोवालडी पर 99 प्रतिशत छूट देने की घोषणा करी. लेकिन बाद में जब मामला खुलकर सामने आया तो पता चला कि ये सारी हवा पेटेंट को पास कराने के लिए बनाई गई थी.

इस पेटेंट को भारतीय कम्पनी नाटको फार्मा ने चुनौते देते हुए कहा कि फॉर्मूला पहले से ही भारत में मौजूद  है जिसका संज्ञान लेते हुए भारतीय पेटेंट ऑफिस ने अर्जी खारिज कर दी. यही नहीं ‘डॉक्टरस विदआउट बोर्डर’ (एनजीओ) ने लिवरपूल विश्वविद्यालय की मदद से सिद्घ किया कि गीलियड ने दवा की कीमत जो नौ सौ डॉलर रखी है वह मात्र सौ डॉलर में उपलब्ध करायी जा सकती है. यह घटना स्पष्ट करती है कि फार्मा कंपनिया मरीजों का दोहन करने के लिए हर तरह की तीन तिकड़म  कर सकती हैं, जिसमें मीडिया लॉबिंग भी शामिल है.       l

नाप लो पैदल, ले लो जमीन…

sddw बनारस के काशी हिंदू विश्वविद्यालय, जो बीएचयू के नाम से जनमानस में स्थापित है, वहां पढ़ने जानेवाले अनजान या नवहर विद्यार्थियों का कई मिथकों से सामना होता है, उसमें से एक बीएचयू के जमीन को लेकर भी है. यह कहानी बनारस और उसके आस-पास के इलाकों में चटखारे ले-लेकर सुनाई जाती है. कथा यूं है कि जो बीएचयू है, उस जमीन को काशी नरेश ने दान दिया था और दान भी इस तरह कि उन्होंने कह दिया था कि जितनी जमीन नाप सकते हैं पैदल नाप लीजिए, वह जमीन बीएचयू की हो जाएगी. यह बात सिर्फ बीएचयू में पढ़ने जानेवाले विद्यार्थियों को ही चटखारे ले-लेकर गंभीरता के साथ नहीं सुनाई/बताई जाती रही है बल्कि बीएचयू के अस्पताल में इलाज कराने-जानेवाले लोग भी इसके बड़े कैंपस के बारे में ऐसे किस्से सुनते रहे हैं या बतियाते रहे हैं.

बात इतनी ही हो तो भी बात हो. बतानेवाले किस्सागो सच की तरह यह भी बताने लगते हैं कि कैसे पहले जहां जगह मिली, वहां बाढ़ आ गयी. बाढ़ आने पर दुबारा जमीन दान मांगने मालवीयजी गये और उस दिन काशी नरेश उपवास में थे. उपवास खोलने के पहले उनके पास दान मांगनेवाला पहुंच गया था और वे जान गये थे कि दान मांगने मालवीयजी ही आये हैं तो राजा ने देखते ही कह दिया कि मैं दान दूंगा. मालवीयजी ने कहा कि आप कैसे जान गये कि मैं दान मांगने ही आया हूं. ऐसे ही कई किस्से, न जाने कितने तरीके से गपोड़िये वर्षों से सुना-सुनाकर उसे हकीकत जैसा स्थान दिला चुके हैं.


गौर फरमाएं

बेशक बीएचयू के लिए जो जमीन दान में मिली, वह काशी नरेश ने ही दी लेकिन पैदल चलकर नाप लेनेवाले फॉर्मूले पर नहीं बल्कि उसके लिए बजाप्ता एक कमिटी बनी थी. बीएचयू की गतिविधियां बनारस के सेंट्रल हिंदू कॉलेज से चल रहीं थी. जमीन की बात आयी तो काशी नरेश से मांगने की बात हुई. तब बीएचयू की स्थापना के लिए 57 लोगों की एक प्रबंध समिति बनी थी. काशी नरेश तक बात गयी. काशी नरेश ने हामी भरी. तब मैनेजिंग कमिटी में से पांच लोगों की एक समिति जमीन देखने और तय करने के लिए बनाई गई. काशी नरेश ने जमीन के लिए तीन जगहों का विकल्प दिया और कहा कि जो भी उपयुक्त हो, उसे लिया जा सकता है. अंत में वही जमीन तय की गयी, जहां आज विश्वविद्यालय स्थापित है. ये बातें बीएचयू के दस्तावेजों में अब भी दर्ज हैं. संभव है कि यह बात आज नई पीढ़ी को बताई जाए तो वे मान भी जाएं लेकिन बीएचयू के किस्से सिर्फ बनारस में ही नहीं तैरते. बिहार के सीमावर्ती इलाके, जो बनारस के पास हैं, वहां के लोगों का बनारस शहर और बीएचयू से पुराना रिश्ता रहा है और आज भी वहां जाने पर पुरनिये लोग इस किस्से को इसी तरह से सुनाते हैं.

वादा तेरा वादा, वादे पे तेरे देशभक्त बाजी पर लगाया गया

netajiएक पुरानी कहावत याद आ रही है अपने देश के संदर्भ में कि कोस-कोस पर पानी बदले और पांच कोस पर बानी. मन करता है तो इसमें कुछ जोड़ दिया जाए और कुछ ऐसे इसे कहा जाए कि यहां हर पल बदले किस्से कहानी, कोस-कोस पर पानी और पांच कोस पर बानी. दरअसल हमारे देश की वाचिक परंपरा का एक लंबा इतिहास है. इसी के चलते कई बार इतिहास, इतिहास न रहकर किस्से-कहानी में तब्दील हो गया, कहीं-कहीं तो किस्सों को ही इतिहास का अंश मान लिया गया है. हालत यह है कि इतिहास विरोधी इतिहास के भीतर की विविधता को स्वीकार करने तक को तैयार नहीं होते और प्रमाणिक तीन सौ रामायणों की जगह सिर्फ एक रामायण और रामचरित मानस को ही इतिहास मान लेते हैं और बाकी सबको भी जबरन मनवाने पर तुल भी गए हैं. शंका करने वालों के लिए वह बकौल फिल्म पीके के एक पात्र के अनुसार त्रिशूल-तलवार लिए फिर रहे हैं. खैर…

आधुनिक भारत में इन इतिहास विरोधी तत्वों को गांधी, भगत सिंह और बाबा साहेब अंबेडकर से सबसे ज्यादा डर लगता है. इसीलिए यह सबसे ज्यादा इन महान व्यक्तित्वों के खिलाफ किस्से-कहानी, गल्प कथाएं और बातें गढ़ते रहते हैं. मजबूरी का नाम महात्मा गांधी जैसे जुमले इनकी खीज और चिढ़ का प्रमाण है. दरअसल यह अतार्किक और अवैज्ञानिक जीवन शैली के इतने गुलाम होते हैं कि इससे बाहर आकर समय, इतिहास, दर्शन और संस्कृति आदि की शिनाख्त नहीं कर पाते हैं. कूएं के मेंढकों की तरह, एक सीमित दुनिया और सोच में ही पूरा जीवन गुजार देते हैं. हालांकि इनकी कई जुमलेबाजी एक खास रणनीति का हिस्सा भी होती हैं. हाल ही में सत्ताधारी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा अपने सर्वमान्य नेता के चुनावी वादों को जुमला कहकर जन भावना के उबाल पर जो छींटे डाले गए हैं वो इसी किस्म की रणनीति की ओर इशारा करते हैं. खैर…

हुआ ये कि अपन को एक दिन इस जम्बूद्वीप के किसी अनाम स्थान पर स्थित एकल विद्यालय में पढ़ानेवाले स्वनामधन्य स्वाध्यायी टकरा गए. वे बेहद परेशान थे. उनकी अपनी सरकार ने सुभाष चंद्र बोस से जुड़े दस्तावेजों को सार्वजनिक करने में पुरानी भ्रष्ट और देशद्रोही सरकार की तर्ज पर मना कर दिया था. उनके पाचन तंत्र में खासी उथल-पुथल मची हुई थी. वह लगातार मुंह से थूक निकालते-निगलते कह रहे थे. यह गांधी की बदमाशी है. उसी ने हमारी सरकार के हाथ बांध रखे हैं. उसने ही अंग्रेजो से समझौता किया था कि सुभाष बाबू यानी सुभाष चंद्र बोस को देश में अगले 50 वर्ष तक आने नहीं देंगे, इस एवज में तुम हमें आजाद कर दो. गरचे सुभाष ने इससे पहले देश में कदम रखा तो तुम हमें फिर से गुलाम बना लेना. उन्होंने यह बात इतने विश्वास से कही जैसे कि यह सब उन्हीं के सामने घटा हो. अपन यह वाचिक इतिहास सुनकर सकते में आ गए. लगा, क्या ऐसे भी समझौते होते हैं देश को आजाद कराने के लिए. गर ऐसे ही देश आजाद होना था तो इतना सत्याग्रह और आंदोलन करने की क्या जरूरत थी, पहले ही कर लेते वादा-समझौता. देशभक्ति के नाम पर सुभाष बाबू पहले ही यह कुर्बानी दे देते. इतना तो अपन को पक्का भरोसा था. फिर जब गांधी की इच्छा का मान रखने के लिए वो कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ सकते थे तो देश के लिए तो वह कुछ भी कर देते. बेकार ही आजाद हिंद फौज बनाई, नारा दिया कि ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’. अभी दिमाग में यह सब चल रहा था कि वो अपने श्रीमुख से बताने लगे कि यह बात सन् 1947 की है. महात्मा गांधी (यह संबोधन हमारा है, उन्होंने तो कुछ और ही बोला था) ने अपनी राजनीतिक दुश्मनी के चलते देश के सपूत को देश निकाला दिलवा दिया. आज अगर सुभाष बाबू की फाइलें सार्वजनिक हो जाएं तो सारी बात सामने आ जाएगी. खैर अपन ने जैसे-तैसे उनसे जान छुड़ाई और पहुंचे सीधे अपने पड़ोस के सार्वजनिक पुस्तकालय, यह जानने स्वाध्यायी महाराज की बात में इतिहास कितना है,  तथ्य कितने हैं और गप कितनी है.


गौर फरमाएं

पुस्तकालय में पहुंच आजादी के आंदोलन से जुड़ी इतिहास की किताबों के पन्ने पलटने के बाद किसी में भी और कहीं इस बात का जिक्र तक नहीं मिला कि गांधी ने अंग्रेजो से ऐसा कोई वादा किया था. वहीं यह मालूम हुआ कि तमाम मतभेदों के बावजूद गांधी और सुभाष एक-दूसरे का सम्मान करते थे. कुछ तथ्य ऐसे भी मिले कि वो सुभाष ही थे जो गांधी को राष्ट्रपिता कहकर संबोधित करते थे. 1944 में रंगून (म्यांमार) में अपने एक भाषण में गांधी को वह बाकायदा राष्ट्रपिता कहकर संबोधित करते हैं. इसके अलावा देश की आजादी से पहले ही 18 अगस्त 1945 में उनकी हवाई दुर्घटना में मृत्यु की घोषणा की जा चुकी थी. ऐसे में गांधी और अंग्रेजों के बीच ऐसे काल्पनिक वादे का कोई औचित्य समझ नहीं आता. खैर, बातें हैं और बोलनेवालों का मुंह बंद नहीं किया जाता सो इनका आनंद लें.

विरोध की कहानियां

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कवि भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता की पंक्तियां कुछ इस प्रकार हैं, ‘जैसा मैं बोलता हूं वैसा तू लिख, और उससे भी बढ़कर वैसा तू दिख’ इस कविता को संदीप मील ने अपनी कहानियों में पूरी तरह चरितार्थ कर दिखाया है. युवा कहानीकार संदीप के पहले कहानी संग्रह ‘दूजी मीरा’ कहानी संग्रह की कहानियों को पढ़कर लगता है कि वे एक चलता-फिरता, जीता-जागता कथाकार हैं.

संदीप मील राजस्थान के हैं इसलिए उनकी अधिकांश कहानियों के प्लाॅट भी वहीं से बनते हैं.  ‘दूजी मीरा’  कहानी संग्रह की कहानियों में जब जाटों के सामंती ठाठ-बाट, सोच-विचार, रहन-सहन, वेश-भूषा का वर्णन आता है तब कहानी का कंट्रास्ट और तनाव देखते ही बनता है. जाट समाज के भीतर आ रहे बदलावों को भी उनकी कहानियों में रेखांकित किया गया है. इस इलाके के जाटों की लड़कियां भी पढ़ने के लिए जयपुर या दिल्ली जैसे आधुनिक शहरों में भेजी जाने लगी हैं पर उनकी शादियां अभी भी मां-बाप या समाज की मर्जी से ही होती हैं. उनकी एक कहानी की नायिका की भी शादी मां-बाप की मर्जी से तय कर दी जाती है. नायिका अपने मां-बाप के फैसले का अंतिम दम तक विरोध करती है और जब बात बनते नहीं िदखती है तो मजबूर होकर वह घर से भाग खड़ी होती है. नायिका का अन्य प्रसंगों में भी विद्रोही तेवर देखने को मिलता है. कथाकार संदीप ने अपनी इस नायिका को भक्तिकालीन कवयित्री मीरा से जोड़कर देखा है और इसी से प्रेरित होकर अपने संग्रह काे ‘दूजी मीरा’ नाम दिया है.

जाटों को लक्ष्य करते हुए संदीप की दूसरी कहानी है- ‘एक प्रजाति हुआ करती थी जाट.’ इस कहानी के जरिए संदीप यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि खापों के मुखिया चौधरी जब बेलगाम हो जाते हैं तो किस तरह से वे खुदा और दिमाग को भी फांसी पर चढ़ा देने का फरमान जारी करते हैं. यह एक प्रतीकात्मक कहानी है जो चौधरियों की बर्बरता और तालिबानी मानसिकता का पर्दाफाश करती है. इस कहानी को पढ़ते हुए भारतेन्दु के प्रसिद्ध नाटक ‘अंधेर नगरी’ की याद हो आती है, जिसमें राजा के पास बकरियों की मौत के जिस किसी भी संदिग्ध गुनहगार को पकड़कर लाया जाता है, राजा सब को फांसी पर चढ़ा देने का हुक्म तामील करता है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में खापों के फरमानों को जिस तरह से आंख मूंदकर अमल में लाया जाता है उससे तो अंधेर नगरी होने की बात समझ में आती है. पूरी कहानी संवाद शैली में है और एक ज्वलंत नाटक का आभास देती है. ‘झूठी कहानी’, ‘खोट’, ‘जुस्तजू’, ‘लुका पहलवान’, ‘नुक्ता’, ‘टांगों पर ब्रेक’, ‘वहम’ और ‘थू’ भी घूमा-फिराकर जाट समाज की ही कहानियां हैं.

पुस्तक : दूजी मीरा

मूल्य : 129 रुपये

कहानीकार : संदीप मील

प्रकाशक : ज्योतिपर्व, गाजियाबाद

विरोध की कहानियां

 

पंकज चौधरी

कवि भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता की पंक्तियां कुछ इस प्रकार हैं, ‘जैसा मैं बोलता हूं वैसा तू लिख, और उससे भी बढ़कर वैसा तू दिख’ इस कविता को संदीप मील ने अपनी कहानियों में पूरी तरह चरितार्थ कर दिखाया है. युवा कहानीकार संदीप के पहले कहानी संग्रह ‘दूजी मीरा’ कहानी संग्रह की कहानियों को पढ़कर लगता है कि वे एक चलता-फिरता, जीता-जागता कथाकार हैं.

संदीप मील राजस्थान के हैं इसलिए उनकी अधिकांश कहानियों के प्लाॅट भी वहीं से बनते हैं.  ‘दूजी मीरा’  कहानी संग्रह की कहानियों में जब जाटों के सामंती ठाठ-बाट, सोच-विचार, रहन-सहन, वेश-भूषा का वर्णन आता है तब कहानी का कंट्रास्ट और तनाव देखते ही बनता है. जाट समाज के भीतर आ रहे बदलावों को भी उनकी कहानियों में रेखांकित किया गया है. इस इलाके के जाटों की लड़कियां भी पढ़ने के लिए जयपुर या दिल्ली जैसे आधुनिक शहरों में भेजी जाने लगी हैं पर उनकी शादियां अभी भी मां-बाप या समाज की मर्जी से ही होती हैं. उनकी एक कहानी की नायिका की भी शादी मां-बाप की मर्जी से तय कर दी जाती है. नायिका अपने मां-बाप के फैसले का अंतिम दम तक विरोध करती है और जब बात बनते नहीं िदखती है तो मजबूर होकर वह घर से भाग खड़ी होती है. नायिका का अन्य प्रसंगों में भी विद्रोही तेवर देखने को मिलता है. कथाकार संदीप ने अपनी इस नायिका को भक्तिकालीन कवयित्री मीरा से जोड़कर देखा है और इसी से प्रेरित होकर अपने संग्रह काे ‘दूजी मीरा’ नाम दिया है.

जाटों को लक्ष्य करते हुए संदीप की दूसरी कहानी है- ‘एक प्रजाति हुआ करती थी जाट.’ इस कहानी के जरिए संदीप यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि खापों के मुखिया चौधरी जब बेलगाम हो जाते हैं तो किस तरह से वे खुदा और दिमाग को भी फांसी पर चढ़ा देने का फरमान जारी करते हैं. यह एक प्रतीकात्मक कहानी है जो चौधरियों की बर्बरता और तालिबानी मानसिकता का पर्दाफाश करती है. इस कहानी को पढ़ते हुए भारतेन्दु के प्रसिद्ध नाटक ‘अंधेर नगरी’ की याद हो आती है, जिसमें राजा के पास बकरियों की मौत के जिस किसी भी संदिग्ध गुनहगार को पकड़कर लाया जाता है, राजा सब को फांसी पर चढ़ा देने का हुक्म तामील करता है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में खापों के फरमानों को जिस तरह से आंख मूंदकर अमल में लाया जाता है उससे तो अंधेर नगरी होने की बात समझ में आती है. पूरी कहानी संवाद शैली में है और एक ज्वलंत नाटक का आभास देती है. ‘झूठी कहानी’, ‘खोट’, ‘जुस्तजू’, ‘लुका पहलवान’, ‘नुक्ता’, ‘टांगों पर ब्रेक’, ‘वहम’ और ‘थू’ भी घूमा-फिराकर जाट समाज की ही कहानियां हैं.

पुस्तक : दूजी मीरा

मूल्य : 129 रुपये

कहानीकार : संदीप मील

प्रकाशक : ज्योतिपर्व, गाजियाबाद

जिंदगी पर भारी मुनाफा

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महामारी बन चुके स्वाइन फ्लू के कारण पूरे देश में पिछले छह वर्षों के दौरान लगभग 10 हजार लोगों की जान जा चुकी है. तहलका ने रोंगटे खड़ी कर देनेवाली अपनी पड़ताल में पाया कि इस महामारी को ‘चिकित्सकीय लापरवाही’ और ‘मुनाफा’ कमाने की होड़ ने देश में समान रूप से फलने-फूलने का अवसर दिया. इस वजह से इस महामारी की पीड़ा कम होने के बजाय दिनोदिन भयावह होती गई. कहते हैं मौत जब आती है तो उसकी आहट पहले सुनाई दे जाती है. लेकिन, मौत का सौदा अगर लालच पर हो तो इसे आप क्या कहेंगे. जी हां देश में पिछले छह वर्षों से मौत का नंगा नाच खेला गया अपने मुनाफे केे लिए. याद करें कि स्वाइन फ्लू के मामलों को लेकर एक तरफ संसद में पर्चे बंटते रहे और उधर अस्पताल में गरीब मरीज कतार में खड़े होकर अपनी मौत का इंतजार करते रहे.लेकिन, सरकार इस मामले पर आज तक कोई सटीक जबाव नहीं दे पाई है. एक तरफ अस्पतालों में इलाज के लिए पर्याप्त दवा नहीं वहीं दूसरी ओर इस बीमारी को चेक यानी जांच करने के लिए पूरे साधन नहीं. हालांकि पिछली सरकार और मौजूदा सरकार लगातार ये दावा करती रही है कि देश के अस्पतालों में स्वाइन फ्लू से लड़ने के लिए पुख्ता इंतजाम हैं. जांच के लिए साधन हैं. इलाज के लिए दवा भी है.

2009 में सरकार को स्वाइन फ्लू की जांच के लिए उपलब्ध किट के लिए लगभग 10 हजार रुपये खर्च करने होते थे. वहीं, देश की कई कंपनियों का दावा है कि उन्होंने छह वर्ष पहले ही स्वाइन फ्लू टेस्ट के लिए विदेशों से अच्छी और सस्ती टेस्टिंग किट तैयार कर ली थी. बावजूद इसके देश के स्वास्थ्य विभाग और उच्च संस्थाएं हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे. और लोगों की जान जाती रही. सरकार और प्रशासनिक तंत्र के लचर रवैये के कारण जो नुकसान होना था वह तो हुआ ही, लेकिन मामले की तह में जाने पर कई ऐसे राज सामने आए जो एक नई तरह की अनियमितता की ओर इशारा करते नजर आ रहे हैं. हैरान करनेवाली बात ये है कि दिल्ली हाई कोर्ट ने केंद्र और दिल्ली सरकार को निर्देश भी दिया था कि वह स्वाइन फ्लू के परीक्षण के लिए सस्ती किट लोगों को मुहैया कराए लेकिन सरकार ने इस निर्देश को अनदेखा करते हुए न सिर्फ एक विशेष कंपनी को फायदा पहुंचाया बल्कि लोगों के जीवन से खिलवाड़ किया है.

फोटोः एएफपी
फोटोः एएफपी

तहलका की पड़ताल में सबसे पहले जो बात सामने आई वह थी स्वाइन फ्लू की जांच करनेवाली किट की कीमतों में भारी अंतर. जहां विदेशी कंपनी की किट की कीमत पांच हजार से 10 हजार रुपये के बीच थी, जबकि स्वदेशी कंपनियों से यह किट मात्र 700 रुपये में ली जा सकती थी. अगर उपलब्ध तथ्यों पर गौर करें तो मालूम चलता है कि केवल वर्ष 2009 में ही अमेरिकी कंपनी एप्लायड बायोसिस्टम्स इनकॉरपोरेटेड (एबीआई) से सरकार ने  47,000 किट आयात की थी. यह वही वर्ष है जब भारत में इस महामारी ने अपने कदम रखे थे. अमेरिकी कंपनी एबीआई का 2008 में इनविट्रोजेन में विलय हो गया था. इसके बाद कंपनी का नाम लाइफ टेक्नोलॉजी हो गया. 2014 में इसे अमेरिका की थर्मोफीचर साइंटिफिक कंपनी ने खरीद लिया. हैरानी की बात है कि एबीआई फ्लू की जांच के दौरान भी अलग-अलग कीमत वसूलती थी. जैसे अगर जांच रिपोर्ट पॉजिटिव आती थी तो मरीज को पांच हजार चुकाने पड़ते थे.

अगर रिपोर्ट निगेटिव हुई तो मरीज को दुगने यानी 10 हजार रुपये तक चुकाने पड़ते थे.

विदेशी कंपनी की किट की कीमत 10 हजार रुपये थी, जबकि देशी कंपनी इसे मात्र 700 रुपये में देने का दावा कर रही थी

तहलका जांच में यह भी पता चला कि लखनऊ स्थित संजय गांधी पोस्ट ग्रैजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एसजीपीजीआई) और बंगलुरु स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज (निमहंस) ने प्रमाणित किया है कि स्वदेशी किट, विदेशी किट से कहीं अधिक सस्ती, प्रभावी और उपयोगी है. इसके बावजूद सरकार ने इन तथ्यों को नजरअंदाज किया. जीनोम डायग्नोस्टिक्स प्राइवेट लिमिटेड का दावा है कि उसने सरकार, स्वास्थ्य मंत्रालय और संबद्ध विभागों में स्वदेशी किट के निर्माण व उत्पादन के लिए लाइसेंस का आवेदन किया था लेकिन सरकार की ओर से कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला. हर बार कोशिश करने पर भी उसके हाथ निराशा ही लगी.

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर जब तहलका ने तफ्तीश शुरू की तो केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय सहित उसके दो विभागों के अधिकारियों ने एक-दूसरे के सिर पर बात टालने के प्रयास किए. सरकारी महकमों में यह दुखद कहानी खासी मशहूर हो चुकी है कि सरकार ने कैसे एक विदेशी कंपनी की मदद कर एक स्वदेशी कंपनी को नजरअंदाज किया है. दरअसल जब स्वदेशी कंपनी संबंधित सरकारी विभागों के पास आवेदन के लिए गई तो विभागों ने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने में देर नहीं लगाई. हालांकि मंत्रालय ने कंपनी को इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के पास आवेदन करने के निर्देश दिए.

तहलका टीम ने इस बारे में आईसीएमआर से सवाल किया कि क्यों नहीं एक स्वदेशी कंपनी को अनापत्ति प्रमाणपत्र (एनओसी)  दिया गया. क्या कंपनी उसके मानकों पर खरी नहीं उतरती थी आदि. इस पर आईसीएमआर की ओर से गोलमोल जवाब आया कि यह काम ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) के अधिकार क्षेत्र में आता है. वही इस मामले में कुछ कर सकती है. इसके बाद तहलका टीम ने डीसीजीआई से संपर्क करने के प्रयास किया लेकिन यह असफल रहा.

वर्ष 2009 में आईसीएमआर के महानिदेशक रहे डॉ. विश्व मोहन कटोच के अनुसार, ‘तब एक बड़ी गलती हुई थी और संबंधित अधिकारियों पर कार्रवाई होनी चाहिए.’ कटोच ने अपने विभाग के कर्मचारियों के व्यवहार पर खेद भी जताया. हालांकि उन्होंने इसे सारे सरकारी महकमों में पसरे लालफीताशाही रवैये का हिस्सा बताते हुए इसे सरकारी विभागों की कार्य संस्कृति से जोड़ अपने विभाग का बचाव करने का प्रयास भी किया. इन सबके बावजूद तहलका को इस पहेली का हल किसी ने साफ तौर पर नहीं दिया कि सस्ती और प्रभावी जांच किट के उत्पादन करने का लाइसेंस देगा कौन? कटोच ने यह तो स्वीकार किया कि जिस अमेरिकी कंपनी ने जांच किट की सप्लाई की है, उसे करोड़ों रुपये का फायदा हुआ. यही नहीं इस कंपनी को अनायास ही मुफ्त का प्रचार भी मिल गया. इस लिहाज से देखा जाए तो कहीं न कहीं गलती तो हुई है. अब वह कहां और किस के स्तर पर हुई वह जांच का विषय है. कटोच की बात की तस्दीक आईसीएमआर के उप महानिदेशक (प्रशासन) टीएस जवाहर करते हैं. वह इस संस्थान के मुख्य सतर्कता अधिकारी भी हैं. जवाहर के अनुसार संप्रग सरकार के कार्यकाल में आईसीएमआर के भीतर काम को लेकर समन्वय का भारी अभाव और अकाल था.

हजारों मरीज महंगा परीक्षण न करा पाने के चलते अपनी जान से हाथ धो बैठे और अमेरिकी कंपनी मुनाफा कमाती रही

अब जरा इस तथ्य पर गौर करें कि वर्ष 2009 में सरकार ने स्वाइन फ्लू के परीक्षण के लिए 47,000 किट  का आयात किया था. इसमें से हर किट का कम से कम 100 नमूनों के परीक्षण में इस्तेमाल हो सकता था. सरकार ने एबीआई को हर परीक्षण के लिए 10 हजार रुपये का भुगतान किया था. दूसरे शब्दों में, सरकार ने 47,000 करोड़ रुपये खर्च किए. नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल (एनसीडीसी) के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, ‘कुछ किट का उपयोग 100 नमूनों के परीक्षण में किया जा सकता था तो कुछ दूसरी किट का 1000 नमूनों के इस्तेमाल में किया जा सकता था.

sandeepदूसरी तरफ भारतीय कंपनी कीे किट से परीक्षण का खर्च सिर्फ 700 रुपये आता है. इसका मतलब यह होता है कि इतनी ही संख्या में परीक्षणों के लिए सरकार का मात्र 329 करोड़ रुपये खर्च आता. इसलिए अगर आयात की गई किट की जगह स्वदेशी किट का इस्तेमाल परीक्षण के लिए किया गया होता तो सरकारी खजाने में कम से कम 4371 करोड़ रुपये (या यहां तक कि 47,671 करोड़ रुपये) की बचत हो सकती थी.

इसे विरोधाभास न कहा जाए तो क्या कहें. एक ओर आईसीएमआर यह दावा कर रहा है कि उसने अधिकतम गरीब लोगों को हर स्तर पर इलाज मुहैया कराया है, जबकि हजारों मरीज इलाज के अभाव या महंगे परीक्षण न करा पाने के चलते अपनी जान से हाथ धो बैठे और अमेरिकी कंपनी मुनाफा कमाती रही. जवाहर इस तथ्य की तस्दीक करते हुए कहते हैं, ‘इस मसले में मुनाफा अन्य सब कारणों में सबसे अहम कारक सिद्ध हुआ है.’हैरानी की बात है कि जब सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत जीमोन डायग्नोस्टिक्स प्राइवेट लिमिटेड ने आईसीएमआर से खुद को लाइसेंस न देने के बारे में जानकारी मांगी तो जवाब बेहद विरोधाभासी आया. आईसीएमआर ने अपने जवाब में कहा कि उन्हें इसकी कोई जानकारी ही नहीं है.

इस बारे में जब आईसीएमआर के दो अधिकारियों डॉ. कटोच और जवाहर से पूछताछ की गई तो उन्होंने माना कि संस्थान से गलती हुई है. एनसीडीसी के जैव रसायन और जैव प्रौद्योगिकी विभाग के संयुक्त निदेशक और केंद्र सरकार की जैव सुरक्षा समिति के सदस्य-सचिव डॉ. अरविंद  राय ने स्वीकार किया है कि वह उन लोगों में शामिल थे, जिन्होंने अमेरिका से किट आयात करने की वकालत की थी. राय ने यह भी कहा, ‘अगर कोई यह कहता है कि निगेटिव और पॉजिटिव टेस्ट की कीमत एक नहीं होनी चाहिए तो वह तार्किक बात नहीं कर रहा है.’ तहलका की तहकीकात में इस बात का खुलासा हुआ कि मुनाफे की लूट न चल रही होती और स्वास्थ्य विभाग ने भारतीय कंपनी के दावों पर समय रहते कार्रवाई की होती तो बहुत से मासूमों की जान बचाई जा सकती थी. भारतीय कंपनी का दावा है कि उसकी किट स्वाइन फ्लू के वायरस की पहचान प्रारांभिक अवस्था में ही करने में सक्षम है. कंपनी के अनुसार, उसने आवश्यक अनुमोदन और प्रमाणीकरण के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय से संपर्क भी किया था लेकिन उधर से कोई सकारात्मक जवाब नहीं आया.

ज्ञात हो कि मई, 2009 में जब स्वाइन फ्लू को महामारी घोषित कर दिया गया तब इसकी पहचान, रोकथाम और इलाज के मद्देनजर दुनिया भर में कई प्रकार की शोध परियोजनाएं और अनुसंधान शुरू हुए. इसी दौरान आईसीएमआर की ओर से घोषणा की गई कि भारत अमेरिकी कंपनी से परीक्षण किट आयात कर रहा है. इसके फौरन बाद जीनोम ने डीसीजीआई से संपर्क कर अपने उत्पाद को प्रमाणित करने का आवेदन किया तो कहा गया कि वह पहले आईसीएमआर से पहले अनुमोदन और प्रमाणित कराए. इससे पहले आईसीएमआर ने कंपनी को तीन केंद्रों से प्रमाणित कराने का आदेश दिया था. उसी महीने में कंपनी ने स्वास्थ्य मंत्रालय और डीसीजीआई के डॉ. सुरेंद्र सिंह को भी खत लिखा. यही नहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भी इस मसले पर हस्तक्षेप की मांग की गई, लेकिन यह प्रयास भी व्यर्थ साबित हुआ. जब कहीं से कोई जवाब नहीं आया तो कंपनी ने 6 अगस्त, 2009 को टेस्ट लाइसेंस के लिए हिमाचल प्रदेश के ड्रग कंट्रोलर को आवेदन दिया. इस लाइसेंस के मिलने के बाद कंपनी ने आईसीएमआर के अन्य केंद्रों से भी प्रमाण पत्र हासिल कर लिया. इसी समय कुछ मीडिया रिपोर्ट में विदेशी किट के प्रभावी होने पर सवाल उठाए गए. आरोप लगाए गए थे कि एक विदेशी किट से सिर्फ 20 नमूनों के परीक्षण हो पा रहे हैं. इस वजह से लोगों को जांच रिपोर्ट देरी से मिल रही है.जब तहलका की टीम डॉ. कटोच से मिली तो उन्होंने इस बात पर जोर दिया, ‘सरकार जनता की भलाई के लिए स्वाइन फ्लू का परीक्षण मुफ्त में करवा रही है.’ लेकिन जब उनसे यह समझाने को कहा गया कि जांच परिणामों के आधार पर खर्च में फर्क क्यों आ रहा है तो उनका कहना था, ‘निगेटिव परिणाम आने पर एक अतिरिक्त टेस्ट कराना होता है इसीलिए खर्च दुगना हो जाता है.’

फोटोः एएफपी
फोटोः एएफपी

खैर परिस्थितियों  के बिगड़ने देख डॉ. कटोच ने 11 अगस्त 2009 को आननफानन में प्रेस वार्ता आयोजित की.  इसमें तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद भी शामिल हुए थे. आजाद ने मीडिया के सामने कहा था कि आईसीएमआर कम लागतवाला परीक्षण किट विकसित करेगा, आजाद ने पहले से ही देश में मौजूद व कम लागत वाले किट के बारे में कुछ नहीं कहा. आजाद ने यह भी कहा था कि केवल अमेरिकी कंपनी के पास ही स्वाइन फ्लू की पहचान करनेवाला किट विकसित करने का पेटेंट है.

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drdoतहलका टीम ने जब इस पर आजाद से बात करने की कोशिश की तो दस दिन के बाद उधर से एक फोन आया लेकिन जब पूर्व स्वास्थ्य मंत्री को इस बारे में तथ्य मुहैया कराए गए  तो उन्होंने रिकॉर्ड चेक करने का वादा किया लेकिन बाद में उनके दफ्तर की ओर से फोन तक नहीं उठाया गया. टीम की ओर से ईमेल भी भेजा गया लेकिन उसका भी कोई जवाब नहीं आया. इसी तरह जब स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों से, जिसमें सचिव और संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी शामिल थे, संपर्क साधने की कोशिश की गई तो उनका रवैया भी बहुत सकारात्मक नहीं था. लगभग 15 दिनों बाद संयुक्त सचिव डॉ. अंशु प्रकाश का फोन आया. उन्होंने जनसंपर्क अधिकारी डॉ. मनीषा वर्मा को अपने सवाल भेजने के लिए कहा. डॉ. मनीषा को भी सवाल भेजे गए पर खबर लिखे जाने तक उधर से कोई जवाब नहीं आया. तहलका टीम ने डीसीजीआई को भी ईमेल भेजा पर कोई जवाब नहीं आया.

20 अगस्त 2009 को ही जीनोम डायग्नोस्टिक्स को एसजीपीजीआई के प्रो. टीएन ढोले की ओर से 50 नमूनों के मूल्यांकन और सत्यापन रिपोर्ट मिली. रिपोर्ट के अनुसार, ‘भारत सरकार की ओर से मुहैया कराए एक एबीआई किट की हमने इन दोनों के लगभग 50 सैंपल रोटोर जीन और एबीआई मशीन 7500 पर परीक्षण कर तुलना की. इसमें पाया कि जीनोम किट और एबीआई किट के नतीजे एक जैसे हैं. कई अर्थों में जीनोम किट का प्रदर्शन एबीआई से बेहतर था. खासकर परिवर्धन और चक्रीय सीमा रेखा (सीटी) के मूल्यों की कसौटी पर जीनोम का प्रदर्शन एबीआई से बेहतर था. साधारण शब्दों में इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि कौन सा किट लो पॉजिटिव (रोग के लक्षणों के न्यूनतम स्तर) को भी परख और पकड़ लेने में ज्यादा सक्षम है. इस लिहाज से जीनोम किट बेहतर निकली और हमने इसे प्रारंभिक जांच के लिए अनुमोदित किया है.’ यह मूल्यांकन रिपोर्ट डॉ. कटोच के पास भी भेजी गई थी. जिसे उन्होंने सैद्धांतिक तौर पर स्वीकार भी किया गया है.

डॉ. कटोच ने स्वीकारा कि सरकार ने एबीआई से महंगे दामों पर किट खरीदी. इसमें विभाग की भी जिम्मेदारी बनती है और विभाग की ओर से कई चूक भी हुईं. कटोच ने अपने सहयोगियों को दोषी ठहराते हुए कहा, ‘इस प्रकरण ने मुझे बहुत दुखी कर दिया है. यह एक बड़ी गलती है जिसके चलते एबीआई ने खूब मुनाफा कमाया है. इसके लिए दोषियों को सजा मिलनी चाहिए.’

aakadeyकटोच से बातचीत के बाद तहलका टीम ने आईसीएमआर के मुख्य सतर्कता अधिकारी से भी बातचीत की. उन्होंने बातचीत में माना कि अगर संस्थान ने समय रहते इस मामले में हस्तक्षेप किया होता तो जीनोम को बहुत पहले ही लाइसेंस मिल जाता और काफी लोगों की जिंदगी बचाई जा सकती थी. उनके अनुसार डीसीजीआई एक नियामक संस्था है जो उत्पादन के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी करती है जबकि आईसीएमआर केवल कुछ तकनीकी मसलों पर सिफारिश कर सकती है. यह इसकी सीमा है. लेकिन कुछ भी हो नुकसान तो देश और जनता का हुआ है. सरकार को इसके लिए एक प्रभावी तंत्र विकसित करना चाहिए.

इस मामले पर नई दिल्ली स्थित एम्स के निदेशक एमसी मिश्रा कहते हैं, ‘व्यावसायिक हितों के कारण कुछ स्वार्थी लोग ऐसे निर्णय लेते रहे हैं. ये लोग जनता के स्वास्थ से पहले अपने हितों का ख्याल रखतें हैं. खासकर जब मामला महामारी का हो. मेरे कई दोस्त बताते हैं कि जब ऐसा कोई रोग फैलता है तो लैब टेक्नीशियन की चांदी हो जाती है. वे नई गाड़ियां खरीदते दिखाई देते हैं. दरअसल किसी का नुकसान किसी का फायदा बन जाता है. यह उनके लिए सिर्फ एक व्यापार है और कुछ नहीं. सरकारी तर्क चाहे जो भी हो पर इतना तो तय है कि सांठ-गांठ और लापरवाही के कारण एक स्वदेशी कंपनी के हाथ से मेक इन इंडिया का अवसर निकल गया.’

 

क्रिकेट का ब्राजील

icc_cricketक्रिकेट के महाकुंभ का आखिरी अध्याय ऑस्ट्रेलिया के ऐतिहासिक मेलबर्न स्टेडियम में लिखा गया. हालांकि यह अध्याय उतना ऐतिहासिक और शानदार नहीं रहा जितनी क्रिकेट प्रेमियों की अपेक्षा थी. चौके-छक्के और सौ से ऊपर के स्ट्राइक रेट के लिए मशहूर हो चुके क्रिकेट के लिहाज से यह फाइनल थोड़ा बोझिल और लो स्कोरिंग रहा. कंगारुओं ने अपनी धरती पर विजय का परचम लहराया और पांचवीं बार विश्व विजेता बने. डबडबाई आंखों से कप्तान माइकल क्लार्क ने ट्रॉफी चूमी और एकदिवसीय क्रिकेट को एकदम आदर्श स्थितियों में अलविदा कहा. विजय का यह रोमानी उत्सव भावुक स्मृतियों के भी नाम रहा जब कप्तान क्लार्क ने कहा, ‘यह विश्व कप हमने 16 खिलाड़ियों के साथ खेला. टूर्नामेंट में टीम का शानदार सफर और जीत मैं अपने छोटे भाई ‘फिल ह्यूज’ को समर्पित करता हूं’.

न्यूजीलैंड को सात विकेट से हराकर कंगारुओं की सेना ने खुद को क्रिकेट के पॉवर हाउस के रूप में स्थापित कर दिया. बिल्कुल वही रुतबा जो एक समय में फुटबॉल में ब्राजील की टीम का था. ऑस्ट्रेलियाई टीम ने अपनी पहचान के मुताबिक मैच के शुरुआत से ही दबदबा बनाए रखा. कीवी कप्तान मैकुलम बिना खाता खोले पहले ही ओवर में पैवेलियन लौट गए. इस दबाव से न्यूजीलैंड अंत तक उबर नहीं सका. विश्व कप से पहले उन्होंने अपने देशवासियों से कुछ बड़ा और महान सपना देखने की बात कही थी. उस सुंदर सपने को शुरुआती कुछ ओवर में ही कंगारुओं ने आधी रात के बुरे ख्वाब में बदल दिया.

स्टार्क, मिशेल जॉनसन और फॉकनर की तिकड़ी ने घातक गेंदबाजी से कीवी बल्लेबाजों की कमर तोड़ दी. टूर्नामेंट में लगातार अच्छा खेल दिखानेवाली न्यूजीलैंड की टीम 45 ओवर में महज 185 रनों पर ढेर हो गई. हालांकि 33 रन पर तीन विकेट गिरने के बाद ग्रांट इलियट (83 रन) और रॉस टेलर (40 रन) ने चौथे विकेट के लिए 111 रन जोड़े और ऐसा लगा कि शायद न्यूजीलैंड की टीम सम्मानजनक स्थिति में पहुंच जाएगी लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाजी की शुरुआत भी हाहाकारी रही. मैच के दूसरे ओवर में दो रन पर उनका पहला विकेट फिंच के रूप में गिर गया. लगा कि एक बार फिर से इन दोनों चिर-परिचित प्रतिद्वंद्वियों के बीच लीग राउंड जैसा ही कुछ शानदार खेल देखने को मिलेगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों ने न्यूजीलैंड के गेंदबाजों की बेरहमी से धुनाई जारी रखी. वार्नर के तेज खेल और क्लार्क की कप्तानी पारी ने जीत की औपचारिकता पूरी कर दी.

ऑस्ट्रेलियाई मीडिया में उड़ा कीवियों का मजाक

विपक्षी टीम की हार के बाद खिल्ली उड़ाने के लिए मशहूर ऑस्ट्रेलियाई मीडिया एक बार फिर से ऐसा ही करता दिखा. इस बार निशाने पर उनका नजदीकी पड़ोसी न्यूजीलैंड और उसकी टीम के सदस्य रहे. सिडनी मॉर्निंग हेरल्ड ने कीवी टीम को मूर्ख और खाली हाथ रहनेवाला कहा. वहीं हेरल्ड सन ने कहा कि न्यूजीलैंड का राष्ट्रीय पक्षी कीवियों से बदलकर अब ‘डक’ होना चाहिए. वहीं एक अन्य अखबार ने कप्तान मैकुलम का मजाक उड़ाते हुए लिखा- ‘ओह! मेरे भाई मैकुलम! फाइनल में आपका स्कोर शून्य रहा’. टूर्नामेंट में लगातार अच्छा खेल दिखानेवाले मार्टिन गुप्टिल के प्रति भी आस्ट्रेलियाई मीडिया सहृदय नहीं दिखा. उनकी आलोचना करते हुए सभी प्रमुख अखबारों ने कहा कि जब टीम को गुप्टिल, कोरी एंडरसन समेत सभी बड़े खिलाड़ियों से अच्छे प्रदर्शन की जरूरत थी तब वे पूरी तरह नाकाम सिद्ध हुए.

ऑस्ट्रेलिया के जेम्स फॉकनर को फाइनल में शानदार गेंदबाजी के लिए ‘मैन ऑफ द मैच’ चुना गया. वहीं मिशेल स्टार्क को टूर्नामेंट में 22 विकेट झटकने के लिए मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर ने ‘मैन ऑफ द टूर्नामेंट’ की ट्रॉफी प्रदान की. विश्व कप में सबसे अधिक रन बनाने का खिताब कीवी बल्लेबाज मार्टिन गुप्टिल के नाम रहा. वेस्टइंडीज के तूफानी बल्लेबाज क्रिस गेल के नाम सर्वाधिक 26 छक्कों का रिकॉर्ड रहा.

पिछले विश्व कप में ऑस्ट्रेलिया सेमीफाइनल में भी नहीं पहुंची. असफलता के वनवास के बाद यह बादशाहत की पुनर्वापसी है

विश्व कप 2015 इस लिहाज से भी खास है कि कई दिग्गजों ने इस मेगा इवेंट को अपने एकदिवसीय करियर को अलविदा कहने के लिए चुना. कई खिलाड़ियों ने विश्वकप के साथ ही एकदिवसीय क्रिकेट को अलविदा कह दिया. ऑस्ट्रेलियाई कप्तान माइकल क्लार्क मेलबर्न ग्राउंड में आखिरी बार अपने साथियों डेविड वार्नर और एरोन फिंच के कंधो पर मैदान से बाहर गए. श्रीलंका के दो दिग्गज खिलाड़ी कुमार संगकारा और महेला जयवर्धने ने भी एकदिवसीय क्रिकेट से सन्यास लिया. पाकिस्तान के कप्तान मिस्बाह उल हक और शाहिद अफरीदी ने भी पहले ही घोषणा कर दी थी कि यह विश्व कप उनका आखिरी टूर्नामेंट होगा.

यूं तो विश्वकप का फाइनल मुकाबला एकतरफा और लो स्कोरवाला रहा. इसके बावजूद मेलबर्न क्रिकेट ग्राउंड पर खेला गया मैच कुछ यादें छोड़ गया. ऑस्ट्रेलिया एकमात्र देश बन गया है जिसने पांच अलग-अलग महाद्वीपों में विश्वकप जीतने का कारनामा किया है. यह दूसरी बार हुआ जब घरेलू मैदान पर कोई टीम विश्वविजेता बनी. इससे पहले 2011 में मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में भारतीय टीम ने यह करिश्मा दोहराया था. तीन विश्व कप में लगातार बादशाह बनने के बाद 2011 के विश्व कप में ऑस्ट्रेलियाई टीम सेमीफाइनल में भी जगह नहीं बना सकी थी. असफलता के वनवास के बाद यह बादशाहत की पुनर्वापसी की कहानी है. कप्तान माइकल क्लार्क ने वर्ल्ड कप ट्रॉफी के साथ क्रिकेट को भावुक अलविदा कहा. टीम के कोच डेरेन लेहमैन दो बार विश्व विजेता टीम के सदस्य रह चुके हैं. 93 हजार दर्शकों ने विश्व कप फाइनल मेलबर्न स्टेडियम में देखा. खबरें यह भी आईं कि विश्व कप ट्रॉफी देने के लिए आईसीसी के दो वरिष्ठ अधिकारी एम श्रीनिवासन और बांग्लादेश के मुस्तफा कमाल आपस में भिड़ गए. बाद में नाराज मुस्तफा कमाल मैच बीच में ही छोड़कर चले गए.

जिनके भरोसे लाखों-करोड़ों लोग विमान यात्रा करते हैं वे इन्हें उड़ाने के योग्य भी हैं?

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डीजीसीए के नियमों के अनुसार सीपीएल के लिए आवेदन करते समय अभ्यर्थी को विमान चलाने के दौरान हुए सभी हादसों के बारे में बताना होता है. पांच साल के दौरान हुए हादसे या दुर्घटना के साथ-साथ अभ्यर्थी के खिलाफ की गई सभी अनुशासनात्मक कार्रवाइयों की जानकारी भी देनी होती है. लेकिन ऐसा लगता है कि गरिमा ने अमेरिका में हुए दो लैंडिंग हादसों की जानकारी डीजीसीए को नहीं दी. 2011 में जब यह घटना सामने आई कि गरिमा ने फर्जी तरीके से लाइसेंस हासिल किया, तब स्पाइस जेट ने उन्हें निलंबित कर दिया. उनके साथ कई और लोगों को भी इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा था. इसका सीधा सा मतलब था कि उन सभी लोगों का विमान उड़ाने का करियर खत्म हो गया लेकिन गरिमा के लिए ऐसा नहीं हुआ क्योंकि उनके पास पैसा और प्रभावशाली व्यक्तियों से संपर्क दोनों ही थे. उनके पिता तत्कालीन डीजीसीए के डायरेक्टर थे. वह भी जांच के दायरे में आए. मीडिया में आई खबरों के बाद पासी को पद का दुरुपयोग कर अपनी बेटी को नौकरी दिलाने के आरोप में हटा दिया गया.

डीजीसीए प्रमुख ईके भारत भूषण ने स्पाइस जेट में गरिमा की नियुक्ति से संबंधित चिट्ठी मिलने के बाद पासी को पद से हटा दिया. चिट्ठी में कहा गया था कि गरिमा को नौकरी ‘विशेष परिस्थितियों’ के तहत दी गई थी. जांच के दौरान पाया गया कि एक और पायलट रश्मि शरण को अपने पिता के प्रभाव के कारण नौकरी मिली थी. फिलहाल रश्मि इंडिगो के लिए काम कर रही हैं. रश्मि के पिता आलोक कुमार शरण डीजीसीए के पूर्व संयुक्त निदेशक थे और जनवरी में सेवानिवृत्त हुए हैं. शरण पर आरोप है कि उन्होंने 2007 में रायपुर स्थित टचवुड फ्लाइंग स्कूल को लाइसेंस दिया, जिसके पास उस समय एक भी एयरक्राफ्ट नहीं था. उसी अकादमी से उनकी बेटी रश्मि शरण को भी पायलट का लाइसेंस दिया गया. उस समय शरण ट्रेनिंग और लाइसेंस विभाग के उपनिदेशक के पद पर तैनात थे. डीजीसीए के नियमों के अनुसार किसी भी फ्लाइंग क्लब को सीपीएल देने की अनुमति तभी मिल सकती है जब उसके पास काम करने लायक एयरक्राफ्ट हों. एयरोड्रम स्टैंडर्ड के अधिकारियों की जांच रिपोर्ट के मुताबिक टचवुड एविएशन के पास उस समय एक भी एयरक्राफ्ट नहीं था. यहां तक कि क्लब के पास जरूरी सुविधाओं का भी नितांत अभाव था. छात्रों के लिए ब्रीफिंग रूम और एयरक्राफ्ट हैंगर भी नहीं थे.

यश फ्लाइंग स्कूल की सभी अनियमितताओं को देखते हुए लाइसेंस नहीं मिलना चाहिए था. लेकिन टोंगिया तिकड़मों के जरिए लाइसेंस लेने में सफल रहे

रश्मि ने अपनी फ्लाइंग 2008 में टचवुड एविएशन से ही पूरी की थी. इसके एक साल बाद संस्थान पूरी तरह से बंद हो गया. सरन पर यह भी आरोप है कि अपनी बेटी के लिए उन्होंने तीन बार विशेष परीक्षा सत्र की व्यवस्था की, जबकि ऐसा करना सरासर गलत है. लगातार पांच प्रयासों के बाद भी रश्मि एयर नेगिवेशन, एविएशन मीटरोलॉजी और एयरक्राफ्ट टेक्निकल विषयों की परीक्षा में सफल नहीं हो सकीं, जिसके बाद उनके लिए विशेष परीक्षा का आयोजन किया गया. सामान्य परीक्षाएं हर तीसरे महीने आयोजित की जाती हैं, जबकि विशेष परीक्षाओं का आयोजन कुछ समय के अंतराल पर होता है.

डीजीसीए के नियमों के अनुसार अभ्यर्थी नियंत्रक से विशेष परीक्षा के लिए आवेदन तभी कर सकते हैं, जब विमान उड़ाने के पर्याप्त घंटे हों, या फिर नौकरी के अवसर हाथ से निकलने की स्थिति हो और अभ्यर्थी किसी एक पर्चे में फेल हो. 2007 में रश्मि जब पहली बार विशेष परीक्षा में शामिल हुईं, उस वक्त न तो उन्होंने जिन तीन विषयों में ‘बैक’ थी, उन्हें उत्तीर्ण किया था और न ही विमान उड़ाने के लिए जरूरी घंटों का अनुभव था.

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डीजीसीए के नियमों के अनुसार सामान्य परीक्षाएं हर तीसरे महीने होती हैं. नाम न छापने की शर्त पर हमारे एक सूत्र ने बताया कि हर परीक्षा के बाद लगभग छह हफ्ते का अंतराल रहता है. अक्सर इस नियम की अनदेखी डीजीसीए से संपर्क रखनेवाले अभ्यर्थियों के लिए कर दी जाती है. विशेष परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना आसान होता है क्योंकि परीक्षार्थियों की संख्या बहुत कम (पांच से दस) होती है. साथ ही इन परीक्षाओं मे नियंत्रक परीक्षा हॉल में बहुत चौकस भी नहीं रहते. इन परीक्षाओं में नकल करना बहुत आसान रहता है और असफल परीक्षार्थी भी पास हो जाते हैं. शरण मार्च 2012 में 28 फ्लाइंग स्कूलों को गलत ढंग से लाइसेंस देने और उप निदेशक के पद पर रहते हुए 190 करोड़ के घपले के आरोप में बर्खास्त कर दिए गए. लेकिन अगस्त 2012 में उनकी फिर से वापसी हो गई. पिछले साल सीबीआई ने उनके ऊपर बिलासपुर के एक फ्लाइंग स्कूल को गलत दस्तावेजों के आधार पर लाइसेंस देने के आरोप में केस दायर किया.

हालांकि इन सभी अनियमितताओं के खिलाफ उन्हें क्लीन चिट मिल गई. इसके बाद तत्कालीन डीजीसीए निदेशक भूषण ने विशेष परीक्षाओं के साथ 2011 में ऑनलाइन पायलट परीक्षाओं की भी शुरुआत की.

यशराज टोंगिया और उनके यश एयर फ्लाइंग स्कूल की कहानी और भी दिलचस्प है. सभी युवा और पुराने पायलट जो भारतीय विमानन उद्योग से थोड़ा भी परिचित हैं, मध्य प्रदेश के उज्जैन के यश फ्लाइंग स्कूल की कहानी जरूर जानते हैं. बॉलीवुड स्टार सोहेल खान ने भी फ्लाइंग लाइसेंस वहीं से लिया है. संस्थान की वेबसाइट पर दावा किया गया है कि यश फ्लाइंग अकादमी भारत का सबसे बड़ा उड्डयन संस्थान है. 19 मई 2010 को इसी संस्थान से प्रशिक्षण ले रहे दो छात्रों की मौत एक विमान हादसे में हो गई. दोनों छात्रों में से एक फ्लाइट प्रशिक्षक और दूसरे ट्रेनी पाइलट की मौत विमान सीजेना-152 के क्रैश होने में हुई थी. विमान हाई टेंशन तार की चपेट में आ गया और उज्जैन की सूखी नदी के किनारे दुर्घटनाग्रस्त हो गया.

अंतरराष्ट्रीय समुदाय का विश्वास डीजीसीए से उठ चुका है. भारत का विमानन क्षेत्र असुरक्षित है, क्योंकि यहां के अधिकांश पायलटों में प्रशिक्षण की कमी है

इस दुर्घटना के बारे में डीजीसीए की जांच टीम ने विमान हादसे के लिए कम ऊंचाई पर फ्लाइंग के साथ विमान उड़ाने के दौरान कोई निगरानी न होने और अकुशल निरीक्षण को जिम्मेदार बताया. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि संस्थान की तरफ से स्थानीय हवाई सुरक्षा विभाग को कोई सूचना नहीं दी गई थी. यहां तक कि स्थानीय हवाई सुरक्षा विभाग ने कई बार मुख्य प्रशिक्षक टोंगिया को सूचना देने की कोशिश भी की लेकिन वह फोन पर भी उपलब्ध नहीं थे. दुर्घटना के बाद मुख्य विमान प्रशिक्षक से पहली बार 20 मई 2010 को संपर्क हो पाया, वह भी डीजीसीए के अधिकारियों के दुर्घटनास्थल पर पहुंचने के बाद.

हम बिहार में चुनाव लड़ रहे हैं

पाठकों, मैं वह हरिशंकर नहीं हूं, जो व्यंग्य वगैरह लिखा करता था. मेरे नाम, काम, धाम सब बदल गए हैं. मैं राजनीति में शिफ्ट हो गया हूं. बिहार में घूम रहा हूं और मध्यावधि चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा हूं.

अब मेरा नाम है- बाबू हरिशंकर नारायण प्रसाद सिंह

याद रखियेगा- नहि ना भूलियेगा

हंसियेगा नहीं. हम नया आदमी है न. अभी सुद्ध भासा सीख रहे हैं. जैसा बनता है न, वैसा कोहते हैं.

मैं बिहार की जनता की पुकार पर ही बिहार आया हूं. जनता की पुकार राजनीतिज्ञों को कैसे सुनाई पड़ जाती है, यह एक रहस्य है धंधे का, नहीं बताऊंगा.

जनता की पुकार कभी-कभी मेमने की पुकार जैसी होती है. वह पुकारता है मां को और आ जाता है भेड़िया. मेमना चुप रहे तो भी कभी भेड़िया पहुंचकर कहता है-तूने मुझे पुकारा था. मेमना कहता है मैंने तो मुंह ही नहीं खोला, भेड़िया कहता है तो मैंने तेरे हृदय की पुकार

सुनी होगी.

बिहार की जनता कह सकती है हमने तुम्हें नहीं पुकारा. हमें तुम्हारे द्वारा अपना उद्धार नहीं करवाना. तुम क्यों हमारा भला करने पर उतारू हो?

मैं कहूंगा मैंने दूर मध्य प्रदेश में तुम्हारे हृदय की पुकार सुन ली थी. वहां मध्यावधि चुनाव नहीं हो रहे हैं इसलिए वहां की जनता की सेवा नहीं कर सकता और बिना सेवा किए जीवित नहीं रह सकता. तुम राजी नहीं होओगे तो बलात सेवा कर लूंगा. सेवा का बलात्कार! समझे?

अकेला मैं नहीं, भगवान श्रीकृष्ण भी बिहार की जनता का उद्धार करने आ पहुंचे हैं. बिहार की बाढ़, सूखा और महामारी सी पीडि़त जनता! अकाल से पीडि़त जनता!

एक दिन मेरी कृष्ण भगवान से भेंट हो गई. मैंने पहचान लिया, वही मोर मुकुट, पीतांबर और मुरली!

मैंने कहा, ‘भगवान कृष्ण हैं न.’

वे बोले, हां वहीं हूं पर मेरा नाम अब भगवान बाबू कृष्णनारायण प्रसाद सिंह हो गया है. कृष्ण बाबू भी कह सकते हैं.

मैंने कहा, भगवान क्या गोरक्षा आंदोलन का नेतृत्व करने पधारे हैं? चुनाव आ रहा है, तो गोरक्षा होगी ही. आप गोरक्षा आंदोलन के जरिए पाॅलिटिक्स में

घुस जाएंगे.

कृष्ण ने कहा, नहीं उस हेतु नहीं आया. गोरक्षा आंदोलन आम चुनाव के काम का है. मध्यावधि छोटे चुनाव में तो मूषक रक्षा आंदोलन से भी काम चल जाएगा. मूषक रक्षा में गणेश जी की रुचि हो सकती है, अपनी नहीं.

मैंने कहा, तो फिर आपको रामसेवक यादव ने बुलाया होगा यादवों के वोट संसोपा को दिलवाने के लिए.

कृष्ण खीज पडे़. बोले मुझे भी तो बताने दो. मैं बिहार की जनता की पुकार पर आया हूं.

मैंने कहा, आपको भ्रम हो गया, भगवन. वे तो कृष्णवल्लभ सहाय के समर्थक थे, जो उन्हें टिकट देने के लिए ऐसी जोर की आवाज लगा रहे थे कि दिल्ली में कांग्रेस हाईकमान को सुनाई पड़ जाए. वे कृष्णवल्लभ बाबू का नाम ले रहे थे, आप समझे जनता आपको पुकार रही है.

कृष्ण ने कहा, नहीं मैंने खुद सुना, जनता कह रही थी, हे भगवान अब तो तेरा ही सहारा है. तू ही उद्धार कर सकता है. इसी पुकार को सुनकर मैं यहां आ गया.

ऐसा हो सकता है. बात यह है कि चौथे चुनाव के बाद सिर्फ भगवान की सत्ता ही स्थिर है. बिहार के मुसीबतजदा लोग पटना में एक सरकार से अपनी कहते, तब तक दूसरी सरकार आ जाती. हो सकता है, उन्होंने ईश्वर की एक मात्र सरकार से गुहार

की हो.

मैंने कहा, ठीक किया जो आप आ गए. अब इरादा क्या करने का है?

उन्होंने कहा, मेरा तो घोषित कार्यक्रम है, त्रिसूची साधुओं का परित्राण, दुष्कर्मियों का नाश और धर्म की संस्थापना.

मैंने पूछा, कोई आर्थिक कार्यक्रम वगैरह?

वे बोले, नहीं बस वही त्रिसूची कार्यक्रम है.

मैंने पूछा यहां राजनीतिज्ञों में कोई साधु मिले?

एक भी नहीं.

और असाधु?

एक भी नहीं. हर एक अपने को साधु और दूसरों को असाधु कहता है. किसका नाश कर दूं समझ में नहीं आता?

इसी वक्त मुझे ख्याल आया कि इनके हाथ में सुदर्शन चक्र तो है नहीं नाश कैसे करेंगे. मैंने पूछा तो कृष्ण ने बताया, चक्र घर में रखा है क्योंकि उसका लाइसेंस नहीं है. फिर इधर अभी से धारा 144 लगी हुई है.

मैंने उन्हें समझाया, भगवान अगर सुदर्शन चक्र का लाइसेंस मिल जाए तो भी किसी को मारने पर दफा 302 में फंस जाएंगे.

कृष्ण पसोपेश में थे. कहने लगे फिर धर्म की संस्थापना कैसे होगी?

मैंने कहा, धर्म की संस्थापना तो सांप्रदायिक दंगों से हो रही है. आप एक हड्डी का टुकड़ा उठाकर मंदिर में डाल दीजिए और हिंदू धर्म के नाम पर दंगा करवा दीजिए. धर्म का उपयोग तो अब दंगा करने के लिए ही रह गया है. आप के विचार काफी पुराने पड़ गए हैं. हम लोग तो दुष्कर्मियों का परित्राण करने के लिए यह व्यवस्था चला रहे हैं. सबसे असुरक्षित तो साधु ही हैं.

भगवान कृष्ण को मैंने समझाया, आप संसदीय लोकतंत्र में घुसे बिना जन का उद्धार नहीं कर सकते. आप चुनाव लडि़ए और इस राज्य के मुख्यमंत्री बन जाइए. रुक्मिणी जी को बुला लीजिए. जिस टूर्नामेंट का आप उद्घाटन करेंगे, उसमें वे पुरस्कार वितरण करेंगी. घर के ही एक जोड़ी से कर कमलों में दोनों का काम हो जाएंगे.

बड़ी मुश्किल से उनके सामंती संस्कारों के गले में लोकतंत्र उतरा. इससे ज्यादा आसानी से तो दरभंगा नरेश बाबू कामाख्या नारायण सिंह लोकतंत्री हो गए थे. कृष्ण को चुनाव के मैदान में उतारने में मेरा स्वार्थ था. राजनीति में नया-नया आया हूं. पहले किसी बड़ी हस्ती का चमचा बनना जरूरी है. दादा को चमचा चाहिए और चमचे को दादा. दादा मुख्यमंत्री, तो चमचा गृहमंत्री. मैंने सोचा, लोग शंकराचार्य को अपनी तरफ ले रहे हैं, मैं साक्षात भगवान कृष्ण के साथ हो जाऊं.

हम लोगों ने तय किया कि पहले अपने पक्ष में जनमत बनाएं और फिर राजनीतिक पार्टियों से तालमेल बिठाएं. हम लोगों से मिलने निकल पडे़. मैं तो चमचा था. भगवान का परिचय देकर चुप हो जाता. जिन्होंने बहस कर करके अर्जुन को अनचाहे लड़वा दिया था, वे तर्क से लोगों को ठीक कर देंगे- ऐसा मुझे विश्वास था. पर धीरे-धीरे मेरी चिंता बढ़ने लगी. कृष्ण की बात जम नही रही थी.

कुछ राजनीति करने वालों से बातें हुईं. कृष्ण ने बताया कि चुनाव लड़ रहा हूं.

वे बोले हां, हां आप क्यों न लडि़येगा. आप भगवान हैं. आपका नाम है. आपका भजन होता है. आपका आरती होता है. आपका कथा होता है. आपका फोटू बिकता है. आप नहीं लडि़एगा तो कौन लडे़गा, आप यादव हैं न?

कृष्ण ने कहा, मैं ईश्वर हूं. मेरी कोई जाति

नहीं है.

उन्होंने कहा देखिए न, इधर भगवान होने से तो काम नहीं न चलेगा. आपको कोई वोट नहीं देगा. जात नहीं रखिएगा तो कैसे जीतिएगा?

जाति के इस चक्कर से हम परेशान हो उठे भूमिहार, कायस्थ, क्षत्रिय, यादव होने के बाद ही कोई कांग्रेसी, समाजवादी या साम्यवादी हो सकता है. कृष्ण को पहले यादव होना पडे़गा, फिर चाहे वे मार्क्सवादी हो जाएं.

कृष्ण इस जातिवाद से तंग आ गए. कहने लगे, ये सब पिछडे़ लोग हैं. चलो विश्वविद्यालय चलें. हमें प्रबुद्ध लोगों का समर्थन लेकर इस जातिवाद की जडें़ काट देनी चाहिए.

विश्वविद्यालय में राजनीति के प्रोफेसर से हम बातें कर रहे थे. उन्होंने साफ कह दिया, मैं कायस्थ होने के नाते कायस्थों का ही समर्थन करूंगा.

कृष्ण ने कहा, आप विद्वान होकर भी इतने संकीर्ण हैं?

प्रोफसर ने समझाया, देखिए न, विद्या से मनुष्य अपने सच्चे रूप को पहचानता है. हमने विद्या प्राप्त की, तो हम पहचान गए कि हम कायस्थ हैं.

कृष्ण घबड़ाकर एक पेड़ की छांह में लेट गए. कहने लगे, सोचते हैं लौट जाएं. जहां भगवान को भगवान होने के कारण एक भी वोट न मिले, वहां अपने राजनीति नहीं बनेगी.

उधर, कृष्ण के राजनीति में उतरने की बात खूब फैल गई थी और राजनीतिक दल सतर्क हो गए थे. जनसंघ का ख्याल था कि गोपाल होने के कारण बहुत करके कृष्ण अपना साथ देंगे पर अगर विरोध हुआ तो उसकी तैयारी कर लेनी चाहिए, उन्होंने कथावाचकों को बैठा दिया था कि पोथियां देखकर कृष्ण की पोल खोजो. गड़बड़ करेंगे तो चरित्र हनन कर देंगे.

चरित्र हनन शुरू हो गया था. कानाफूसी चलने लगी थी. कृष्ण शीतल छांह में सो गए थे. मैं बैठा था. तभी एक आदमी आया. मेरे कान में बोला-

यह भगवान श्रीकृष्ण हैं न?

मैंने कहां, हां. देखो क्या रूप है.

उसने कहा एक बात बताऊं. किसी से कहिएगा नहीं. इनकी डब्ल्यू का मामला बड़ा गड़बड़ है. भगाई हुई है. रुक्मिणी नाम है. बड़ा दंगा हुआ था, जब उन्होंने रुक्मिणी को भगाया था. सबूत मिल गए हैं. पोथी में सब लिखा हुआ है. जो किसी की लड़की को भगा लाया, वह अगर शासन में आ गया तो हमारी बहू-बेटियों की इज्जत का क्या होगा?

कृष्ण उठे, तो मैंने कहां, प्रभु आपका करेक्टर एसेसिनेशन शुरू हो गया. अब या तो आप चुनाव में हिम्मत से कूदिए ये मुझे छोडि़ये. मैं कहीं अपना तालमेल बिठा लूंगा. आपके साथ रहने से मेरा भी राजनीतिक भविष्य खतरे में पड़ जाएगा.

कृष्ण का दिमाग सो लेने के लिए खुल गया था. वे बडे़ विश्वास से बोले, एक बात अभी सूझी है. यहां मेरे कई हजार पक्के समर्थक हैं जिन्हें मैं भूल ही गया था. मेरे हजारों मंदिर हैं. उनके पुजारी तो मेरे पक्के समर्थक हैं ही. मैं उन हजारों पुजारियों के दम पर सारी सीटें जीत सकता हूं. चलो, पुजारियों से बात कर लें.

हम एक मंदिर में पहुंचे. पुजारी ने कृष्ण को देखा तो खुशी से पागल हो गया. नाचने लगा, बोला धन्यभाग! जीवन भर की पूजा हो गई. भगवान को साक्षात देख रहा हूं.

कृष्ण ने पुजारी को बताया कि वे चुनाव लड़ने वाले हैं. वोट दिलाने की जिम्मेदारी पुजारी की होगी.

पुजारी ने कहा, आप प्रभु हैं, वोट की आपको कौनो कमी है.

कृष्ण ने कहा, फिर भी पक्की तो करनी पडे़गी, तुम तो वोट मुझे ही दोगे न?

पुजारी ने हाथ मलते हुए कहा आप मेरे आराध्य हैं प्रभु, पर वोट का ऐसा है कि वह जात वाले का ही जाएगा. जात से कोई खड़ा न होता तो हम जरूर आपको ही वोट देते.

कृष्ण की इतनी दीन हालत तब भी नहीं हुई होगी जब शिकारी का तीर उन्हें लगा था. कहने लगे, अब सिवा भूदान आंदोलन में शामिल होने के कोई रास्ता नहीं है. जिसका अपना पुजारी धोखा दे जाए, ऐसे पिटे हुए राजनीतिज्ञ के लिए या तो भारत सेवक समाज है या सर्वोदय. चलो बाबा के पास.

मैंने कहा, अभी वह स्टेज नहीं आई. अभी तो हम एक भी चुनाव नहीं हारे. पांच-पांच बार चुनाव हारकर भी लोग सर्वोदय में नहीं गए. चलिए, राजनीतिक दलों से बातचीत करें.

पहले हम कांग्रेस के दफ्तर गए. वहां बताया गया कि यहां कांग्रेस है ही नहीं. मंत्री ने कहा, इधर तो कृष्णवल्लभ बाबू हैं, महेश बाबू हैं, रामखिलावन बाबू हैं, मिसरा बाबू हैं, कांग्रेस तो कोई नहीं है और फिर कांग्रेस से मिलकर क्या करियेगा. जो गुट सरकार में चला जाता है, वह कांग्रेस रह जाता है. जो सत्ता में नहीं रहता वह कांग्रेस का भी नहीं रहता. कांग्रेस कौन है, यह चुनाव के बाद ही मालूम होगा. कांग्रेस अब सरकार नहीं बनाती, सरकार गिराती है. आप चुनाव लडि़ए. अगर आपके साथ चार-पांच विधायक भी हों तो हमारे पास आइए. आपकी मेजोरिटी बनाकर आपकी सरकार बनवा देंगे. हमने मंडल की सरकार बनवाई थी न.

हम संसोपा के पास गए. उन लोगों ने पहले परीक्षा ली. जब हमने कहा कि जवाहरलाल जो गुलाब का फूल शेरवानी में लगाते थे, वह कागज का होता था, तो वे लोग बहुत खुश हुए. कहने लगे,  बड़े क्रांतिकारी विचार हैं आपके. देखो यह नेहरू देश को कितना बड़ा धोखा देता रहा.

मैंने कहा, हम लोग समाजवादी होना चाहते हैं.

वे बोले, समाजवादी होना उतना भी जरूरी नहीं है जितना गैर कांग्रेसी होना. डाकू भी अगर कांग्रेस विरोधी हैं तो बडे़ से बडे़ समाजवादी से श्रेष्ठ हैं.

कृष्ण ने कहा लेकिन कोई आइडियोलॉजी तो

है ही.

संसोपाई बोले, गैर कांग्रेसवाद एक आइडियोलॉजी तो है ही. इस आइडियोलॉजी के कारण सबसे तालमेल बैठ जाता है, गोरक्षा में जनसंघ के साथ पूंजी की रक्षा में स्वतंत्र पार्टी के साथ, जनतांत्रिक समाजवाद में प्रसोपा के साथ, जनक्रांति में कम्युनिस्टों के साथ.

मैंने पूछा, डॉक्टर लोहिया ने कहा था कि जनता का विश्वास प्राप्त करने के लिए गैर कांग्रेसी सरकार छह महीने के भीतर कोई चमत्कारी काम करके बताएं. ऐसा हुआ था क्या?

उन्होंने कहा, हां एक नहीं कितने चमत्कारी काम हो गए. हमारे मंडल बाबू ने ही कितना बड़ा चमत्कारी काम किया.

हम दोनों साम्यवादी दलों के पास गए. दक्षिणपंथी साम्यवादी दल ने कहा, तो कॉमरेड कृष्ण आपका हिस्ट्री हमने पढ़ा है. आप में वामपंथी दुस्साहसिकता और वामपंथी भटकाव दोनों हैं. आपने इस तरह के काम किए थे. आप मार्क्सवादियों के पास जाइए.

मार्क्सवादियों ने कह दिया, तुम तो संशोधनवादी हो तुम्हारा सारा वर्गचरित्र प्रतिक्रियावादी है.

जनसंघ ने खुले दिल से स्वागत किया. कहा आप तो द्वापर से हमारी पार्टी के सदस्य थे. आइए आपका बौद्धिक हो जाए.

उन्होंने कागज की एक पर्ची पर लिखा हिंदू राष्ट्र, गोरक्षा, भारतीय संस्कृति. पर्ची को एक छपे हुए कागज में रखा. फिर अलमारी से ताला चाबी निकाले.

वे एक औजार से कृष्ण का सिर खोलने लगे. कृष्ण चौंककर हट गए. बोले यह क्या कर रहे हो?

उन्होंने समझाया, आपका बौद्धिक संस्कार कर रहे हैं. सिर खोलकर ये विचार आपके दिमाग में रखकर ताला लगा देंगे और चाबी नागपुर गुरुजी के पास भेज देंगे. न चाबी आएगी, न दिमाग खुलेगा, न परकीय और अराष्ट्रीय विचार आपके दिमाग

में घुसेंगे.

कृष्ण आतंकित हो गए. वे एक झटके से उठे और बाहर भागे. पीछे से वह आदमी चिल्लाया, रुकिए रुकिए, हमारे स्वयंसेवकों को एक-एक सुदर्शन चक्र तो देते जाइए.

हम भागे तो सीधे शोषित दल वालों के पास पहुंचे. उन्होंने कहा, अभी से आप शोषित कैसे हो सकते हैं? शोषित तब होता है जब विधायक हो जाए, पर आप मंत्री न हो. आप मंत्री नहीं बन सके तभी तो शोषित होंगे. तब हमारे साथ हो जाइए.

क्रांतिदल के महामाया बाबू से मिलने का भी इरादा था, पर सुना कि जब से उन्होंने कामाख्या बाबू के खिलाफ दायर 218 मुकदमे उठाए, तब से उनकी खदान में ही गुप्त वास कर रहे हैं.

खदान के बाहर ही राजा कामाख्या नारायण सिंह मिल गए. उन्होंने कहा, मेरे साथ होने से आप लोगों को राजनीति की दुनिया की पूरी सैर करनी पड़ेगी. आप थक जाएंगे. हर आदमी में मेरे जैसी फुर्ती नहीं है. देखिए न मैंने जनता पार्टी बनाई. फिर स्वतंत्र पार्टी में चला गया. फिर कांग्रेस में लौट आया. फिर भारतीय क्रांतिदल में चला गया. फिर भारतीय क्रांतिदल से निकलकर जनता पार्टी बना ली. मेरे लिए राजनीतिक दल अंडरवियर है, ज्यादा दिन एक ही को नहीं पहनता क्योंकि बदबू आने लगती है. अपने पास कुल सत्रह विधायक होते हैं, पर कोई भी सरकार मेरे बिना चल नहीं सकती. आप लोग तो अपनी अलग पार्टी बनाइए, अपने कुछ लोगों को विधानसभा में ले आइए और फिर सिंहासन पर बैठकर कांग्रेसवाद, संघवाद, क्रांतिवाद, समाजवाद, साम्यवाद सबसे चरण दबवाइए. सिद्धांत पर अड़ेंगे तो मिटेंगे. सबसे बड़ा सिद्धांत सौदा है.

हमें भी बोध हुआ कि किसी दल से अपनी पटरी पूरी तरह बैठेगी नहीं. अपना अलग दल होना चाहिए. अगर अपने चार पांच विधायक भी रहे, तो जोड़ तोड़ उठापटक और उखाड़ पछाड़ के द्वारा प्रदेश की सरकार हमेशा अपने कब्जे में रहेगी.

हमने एक नई पार्टी बना ली है, अभी यह पार्टी सिर्फ बिहार में कार्य करेगी. यदि मध्यावधि चुनाव में इसे जनता का समर्थन अच्छा मिला, तो अखिल भारतीय पार्टी बना देंगे.

इस पार्टी का संक्षिप्त मेनिफेस्टो यहां दे रहे हैं ः

भारतीय राजनीति में व्याप्त अवसरवाद, मूल्यहीनता और अस्थिरता को देखकर हर सच्चे जनसेवक का हृदय फटने लगता है. राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारण आज देश के करोड़ाें मानव भूखे हैं, नंगे हैं बेकार हैं. वे अकाल, बाढ़, सूखा और महामारी के शिकार हो रहे हैं. असंख्य कंठों से पुकार उठ रही है. हे भगवान आओ और नई राजनीतिक पार्टी बनाकर सत्ता पर कब्जा करो और हमारी रक्षा करो. जनता के आर्त्तनाद को सुनकर भगवान कृष्ण बिहार में अवतरित हो गए हैं और उन्होंने हरिशंकर नारायण प्रसाद सिंह नाम के विश्वविख्यात जनसेवक के साथ मिलकर एक पार्टी की स्थापना कर ली है.

पार्टी का नाम भारतीय जनमंगल कांग्रेस होगा.

नाम में जन या जनता या लोक रखने का आधुनिक राजनीति में फैशन पड़ गया है. इसलिए हमनें भी जन शब्द रख दिया है. जनता से प्रार्थना है कि जन को गंभीरता से न लें, इसे वर्तमान राजनीति का एक मजाक समझें.

पार्टी के नाम पर भारतीय इसलिए रखा है कि आगे जरूरत हो तो भारतीय जनसंघ के सथ मिलकर सत्ता में हिस्सा बंटा सकें.

कांग्रेस इसलिए रखा है कि अगर इंदिरा जी वाली कांग्रेस को अल्पमत सरकार बनाने की जरूरत पडे़ तो पहले हमें मौका दे.

जनता शब्द की व्याख्या किसी दल ने नहीं की है. हम पहला बार ऐसा कर रहे हैं. जनता उन मनुष्यों को कहते हैं जो वोटर हैं और जिनके वोट से विधायक तथा मंत्री बनते हैं. इस पृथ्वी पर जनता की उपयोगिता कुल इतनी है कि उसके वोट से मंत्रिमंडल बनते हैं. अगर जनता के बिना सरकार बन सकती है, तो जनता की कोई जरूरत नहीं है.

जनता कच्चा माल है. इससे पक्का माल विधायक, मंत्री आदि बनते हैं. पक्का माल बनने के लिए कच्चे माल को मिटना ही पड़ता है.

हम जनता को विश्वास दिलाते हैं कि उसे मिटाकर हम ऊंची क्वालिटी की सरकार बनाएंगे. हमारा न्यूनतम कार्यक्रम सरकार में रहना है. हम इस नीति को मानते हैं यथा राजा, तथा प्रजा. राजा अगर ठाठ से ऐशो आराम में रहेगा तो प्रजा भी वैसी ही रहेगी. राजा अगर सुखी होगा तो प्रजा भी सुखी होगी. इसलिए हमारी पार्टी के मंत्री ऐशो आराम से रहेंगे. जनता को समझना चाहिए कि हमें मजबूर होकर सुखी जीवन बिताना होगा, जिससे जनता भी सुखी हो सके. यथा राजा तथा प्रजा.

हमारे उम्मीदवार विधायक होने के लिए चुनाव नहीं लड़ेंगे वे मंत्री बनने के लिए वोट मांगेंगे. हमारी पार्टी के उम्मीदवार को जब जनता वोट देगी, तो मंत्री को वोट देगी. हम अपनी पार्टी के हर विधायक को मंत्रिमंडल में लेंगे, जिससे कोई दल न छोड़े.

यदि हमारे किसी मंत्री को दल छोड़ना है तो उसे पहले हमसे पूछना होगा. वह तभी दल छोड़ सकेगा, जब हम उसकी मांग पूरी न कर सकेंगे.

सरकार का काम राज करना है, रोजी रोटी की समस्या का हल

करना नहीं है.

सरकार का काम राज करना है, इसलिए वह अन्न उत्पादन नहीं करेगी.

जिस कंपनी को अन्न उत्पादन करना हो, उसे बिहार की जमीन दे दी जाएगी.

हम जाति के हिसाब से अलग-अलग जिला बना देंगे. ब्राह्मणों के जिले में क्षत्रिय नहीं रहेगा. जिलाधीश की नियुक्ति जाति पंचायत करेगी.

बिहार में भूख और महामारी से बहुत लोग मरते हैं. पर काशी बिहार में नहीं है. गया यहां श्राद्ध के लिए है. हम आंदोलन करके काशी को बिहार में शामिल करेंगे, जिससे बिहार का आदमी यहीं काशी में मरकर गया में पिंडदान करवा ले.

हम जनता को वचन देते हैं कि जिस सरकार में हम नहीं होंगे, उस सरकार को गिरा देंगे. अगर हमारा बहुमत नहीं हुआ, तो हम हर महीने जनता को नई सरकार का मजा देंगे.

घोषणा पत्र की यह रूपरेखा है. विस्तार से आगे बताएंगे.

जनता हमारी पार्टी की विजय के लिए प्रार्थना करे.

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हमारे भाई, भतीजे, मामा, मौसा, फूफा, साले बहनोई जो जहां भी हों, बिहार में आकर बस जाएं और रिश्तेदारी के सबूत समेत जीवन सुधारने की दरख्वास्त अभी से दे दें. देर करने से नक्काल फायदा उठा लेंगे.