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‘कश्मीर का जलते रहना धार्मिक दुकानों के चालू रहने के लिए जरूरी’

निदा नवाज मूल रूप से कवि हैं और उनकी कविता में सिर्फ कश्मीर की प्रकृति और संस्कृति के सौंदर्य और संघर्ष के ही चित्रण नहीं मिलते हैं बल्कि उसकी आंतरिक पीड़ा की अनुगूंज भी सुनाई पड़ती हैं. इनके ‘अक्षर अक्षर रक्त भरा’, ‘बर्फ और आग’ और ‘किरन किरन रौशनी’ कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. पिछले 27-28 साल से निदा लगातार आकाशवाणी श्रीनगर के संपादकीय कार्यक्रम ‘आज की बात’ का लेखन कर रहे हैं. इन्हें मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, भाषा संगम सहित कई अन्य पुरस्कार व सम्मान से नवाजा जा चुका है. हाल ही में अंतिका प्रकाशन से इनकी डायरी ‘सिसकियां लेता स्वर्ग’ प्रकाशित होकर आई हैं. डायरी में दर्ज इनके संघर्ष और अनुभवों को लेकर स्वतंत्र मिश्र की बातचीत
आपके लेखन को लेकर कश्मीर में किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं?
मेरा पहला कविता संग्रह ‘अक्षर अक्षर रक्त भरा’ 1997 में उस समय प्रकाशित हुआ जब कश्मीर घाटी में आतंकवाद अपनी चरम सीमा पर था. यह किसी भी भाषा में लिखी गई पहली पुस्तक थी जिसमें खुले तौर पर कश्मीर में उत्पन्न हुए आतंकवाद के विरोध में आवाज उठाई गई थी. यहां लोग हिंदी न के बराबर जानते हैं. अंग्रेजी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई प्रतिक्रियाओं के चलते मेरा आतंकवादियों द्वारा अपहरण किया गया और जमकर टार्चर भी किया गया था. मेरा दूसरा कविता संग्रह ‘बर्फ और आग’ 2015 में प्रकाशित हुआ. दोनों संग्रहों पर कश्मीर घाटी में कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं हुई लेकिन इसके विपरीत जम्मू प्रांत में इन दोनों कविता संग्रहों को खूब सराहा गया.
अपनी डायरी ‘सिसकियां लेता स्वर्ग’ का महत्व आप कश्मीर के संदर्भ में कितना देखते हैं?
पहली बात तो यह कि डायरी में एक लेखक खुले तौर पर अपने विचारों और अपने आसपास हो रही घटनाओं की अभिव्यक्ति कर सकता है. विश्वभर में वर्तमान अनिश्चिता के समय डायरी लेखन का महत्व बढ़ गया है. कश्मीर घाटी में जब हालात बहुत खराब थे तब उस समय मैंने एक-एक घटना को चिह्नित करने की एक ईमानदार कोशिश की. जहां तक मेरी डायरी के महत्व की बात है तो कश्मीर की परिस्थितियों को लेकर पिछले 25 वर्षों के दौरान बहुत-सी पुस्तकें लिखी गईं लेकिन वे विशेष तौर पर कश्मीर से बाहर रहनेवाले लोगों ने या करीब ढाई दशक पूर्व कश्मीर घाटी से पलायन करनेवाले लोगों ने लिखी हैं. मैं पिछले 25 वर्षों से कश्मीर घाटी में रहने वाला हिंदी का एकमात्र लेखक हूं जो आम लोगों के साथ बिना किसी सुरक्षा घेरे के रह रहा है और हिंदी में लिख रहा है. मैं यहां की एक-एक घटना का साक्षी रहा हूं और यही वजह है कि मेरी लिखी हुई
डायरी ‘सिसकियां लेता स्वर्ग’ कश्मीर के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है.
डायरी में आपने मीडिया पर यह आरोप लगाया है कि वह कश्मीर के हालात पर ‘राष्ट्रीय हित’ की छानी पहले लगाता है और कभी गृह-मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्तियों से आगे नहीं निकलता है. इसका मतलब तो यह हुआ कि मीडिया अपने विवेक और समाज के हित की बजाय सरकार के एजेंडे पर काम करता है?
इतिहास साक्षी है कि हमारे देश के लोकतंत्र पर भी बारहा प्रश्न उठते रहे हैं और इस लोकतंत्र की छत्रछाया में पलने वाला मीडिया भले ही कश्मीर घाटी से बाहर स्वतंत्र हो लेकिन कश्मीर घाटी में हो रही घटनाओं को दर्शाते समय वह हमेशा गृह-मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्तियों से आगे नहीं निकलता है जो हमारे लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए भी ठीक नहीं है. यहां पिछले 25 वर्षों के दौरान कई बार हमारे देश के सैनिकों और पुलिस द्वारा मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है जिस पर हमारे देश की मीडिया ने सदैव पर्दा डालने का हरसंभव प्रयत्न किया है.
आप कह रहे हैं कि पिछले 25 सालों के दौरान कश्मीर संकट को लेकर सही दिशा में काम करने की बजाय गैर सरकारी संगठनों, प्रगतिशील लोगों और बुद्धिजीवियों ने अपना हित साधने का काम किया? ऐसा क्यों लगता है आपको?
यहां मेरी बात को आपने थोड़ा उलझा दिया है. मैंने गैर सरकारी संगठनों की नहीं बल्कि उन गैर सरकारी साहित्यिक संगठनों की बात की है जो कश्मीर से बाहर कश्मीर में रचे जा रहे साहित्य के नाम पर दुकानदारियां करते हैं. यहां मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि कश्मीर के लगभग सभी हिंदी लेखक कश्मीरी हिंदू थे जो 25 वर्ष पूर्व कश्मीर घाटी से पलायन करके देश के अलग-अलग हिस्सों में रह रहे हैं. आम हिंदी पाठक यह समझते हैं कि ये कश्मीर में बैठकर लिख रहे हैं. कश्मीर में बैठा मैं अकेला हिंदी लेखक हूं जो यहां की परिस्थितियों और आतंकवाद से ग्रस्त कश्मीर के हालात को अपनी रचनाओं में प्रतिबिंबित कर रहा हूं. कश्मीर में पनप चुके इस आतंकवाद के बीच रहकर, इसे भोगकर लिखने और कश्मीर से बाहर किसी शांतिपूर्वक माहौल में रहकर लिखने में बहुत फर्क है. जहां तक यहां के प्रगतिशील लोगों और बुद्धिजीवियों की बात है वे अपनी आंखों पर पट्टी बांधे या तो आतंकवादियों के हक में या सरकार के हक में खड़े दिखते हैं जबकि उनका काम मानवता के हक में खड़ा होने का होना चाहिए. यहां हो रहे आतंकवादियों और फौजियों द्वारा मानव अधिकारों के उल्लंघन का वे ठीक तरह से विरोध भी नहीं कर पाते हैं.
आप डायरी में कश्मीरी पंडित की बजाय कश्मीरी हिंदू शब्द के प्रयोग की सलाह देते हैं? क्यों?
मैंने डायरी में कश्मीरी पंडित लिखने के विपरीत कश्मीरी हिंदू लिखा है. इसका कारण यह है कि यथार्थ में हर कश्मीरी हिंदू पंडित नहीं है. पंडित शब्द का हम दो तरह से प्रयोग करते हैं. एक संस्कृत और हिंदू मत के विद्वान के तौर पर और दूसरा एक जाति के तौर पर. जहां तक पंडित शब्द के पहले अर्थ का संबंध है तो उस सूरत में सभी कश्मीरी हिंदी, संस्कृत और हिंदू मत के विद्वान नहीं हो सकते. हाथ में चिराग लेकर ढूंढने पर भी पूरे कश्मीरी हिंदू समाज में दर्जन भर से ज्यादा पंडितों का मिलना कठिन है. जहां तक पंडित शब्द के एक जाति के तौर पर इस्तेमाल करने का संबंध है तो कश्मीरी हिंदुओं में बहुत कम लोग पंडित जाति के हैं जबकि दूसरे कौल, काक, दर आदि जाति वाले हैं. आम तौर पर कश्मीरी ब्राह्मणों को पंडित कहा जाता था. उन्हें भट्ट भी कहा जाता था और मैं स्वयं इसी जाति का रहा हूं. उनमें से अधिकतर लगभग 500 वर्ष पूर्व मुसलमान बन गए. कश्मीर घाटी में हजारों मुसलमान आज भी मौजूद हैं जिनकी जाति पंडित है और मुसलमान पंडितों की यह संख्या हिंदू पंडितों से अधिक है. इस सिलसिले में जम्मू कश्मीर राज्य की प्रशासनीय सेवा में कार्यरत मुहम्मद शफी पंडित और ह्वाइट-हाउस से संबंधित फरह पंडित के उदाहरण दिए जा सकते हैं. इसलिए यदि सभी कश्मीरी हिंदुओं को कश्मीरी पंडित कहा जाए तो उन पंडित जाति के हजारों कश्मीरी मुसलमानों को किस खाते में डाला जा सकता है जो घाटी भर में रहते हैं. कश्मीर से पलायन के बाद कश्मीरी हिंदुओं ने पूरे कश्मीरी हिंदू समुदाय को पंडित समुदाय के रूप में पेश किया जो सच नहीं है .
डायरी की शुरुआत में आप कह रहे हैं कि आम लोग उम्मीद और डर के बीच कहीं खड़े हैं. उनकी उम्मीद 25 सालों में कितनी पूरी हुई है और उनका डर कितना दूर हो पाया है?
आतंकवाद के शुरुआती दौर में आम कश्मीरियों को यह विश्वास होने लगा था कि शायद यह उन्हें राजनीतिक शोषण से मुक्ति दिलाएगा. शायद उन दिनों वे नहीं समझ पाए थे कि धार्मिक कट्टरवाद और आतंकवाद स्वयं एक बड़ा शोषण है. अब वे इसको समझ चुके हैं. आतंकवाद अब बहुत हद तक समाप्त हो चुका है किंतु राजनीतिक शोषण न केवल कायम है बल्कि बढ़ गया है. अब जम्मू कश्मीर में विभिन्न धर्मों से संबंधित कट्टरवाद का विवाह हो चुका है. पीडीपी और भाजपा का जम्मू कश्मीर राज्य में मिलन हो चुका है. अब गिलानी और अाडवाणी की यह मित्रता राज्य में कौन-से गुल खिलाती है, यह तो आनेवाला समय ही बताएगा. भाजपा से हिंदी पाठकों का परिचय तो है लेकिन जहां तक पीडीपी की बात है, यह पार्टी कश्मीरी अलगाववादियों यहां तक कि आतंकवादियों का मुख्यधारावाला चेहरा है.
1991 की डायरी में आप लिखते हैं, ‘जम्मू कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के केंद्रीय बस अड्डे से ‘पिंडी-पिंडी’ (रावलपिंडी) की आवाजें साफ सुनाई दे रही हैं.’ क्या आज भी ‘पिंडी-पिंडी’ की आवाजें लगाई जा रही हैं?
कश्मीर में आतंकवाद अब लगभग समाप्त हो चुका या यूं कहें कि विफल हो चुका है. (यह अलग बात है कि हमारे देश की खुफिया एजेंसियां और अधिकतर फौजी अपनी ड्रामेबाजियों से यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि हालात आज भी बहुत खराब हैं क्योंकि वे किसी भी सूरत में समय से पहले प्रमोशन और अन्य सुविधाओं को छोड़ना नहीं चाहते). लेकिन धार्मिक कट्टरवाद, अलगाववाद और भारत के विरुद्ध नफरत, हमारे देश के फौजियों द्वारा की गई फर्जी झड़पों और ड्रामेबाजियों के कारण बढ़ गई हैं. राज्य में हुए मतदान से कभी भी यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि अब कश्मीर में सब कुछ ठीक है.
आप लिखते हैं, ‘कुछ नामनिहाद प्रगतिवादी लेखकों ने दाढ़ियां बढ़ानी और मौलवियों का लहजा अख्तियार करना शुरू कर दिया है.’ प्रगतिशीलता की बुनियाद किन मजबूरियों में दरकने लगती हैं?
मैंने नामनिहाद व प्रगतिशील शब्द का इस्तेमाल किया है. जहां तक प्रगतिशीलता की बात है तो ऐसेे लोग गलत के साथ समझौता नहीं करता. हां, मुझ जैसे प्रगतिशील लोग उस समय भीतर ही भीतर तड़प जाते हैं जब हमारे देश में धार्मिक कट्टरवादी लोकतंत्र का चोला पहनकर लोग हुकूमत करने लगते हैं .
आप यह भी लिख रहे हैं, ‘वे मुझे भारतीय एजेंट, मुल्हिद और कम्युनिस्ट कहकर मार रहे थे.’ कोई कम्युनिस्ट या नास्तिक है तो इससे उन्हें क्या खतरा है?
जिस समाज में धार्मिक कट्टरवाद विशेषकर इस्लामी कट्टरवाद पनप चुका होता है वहां कम्युनिस्ट को मुल्हिद अर्थात नास्तिक कहा जाता है. इस्लामिक कट्टरवाद के अनुसार एक मुल्हिद का कत्ल अनिवार्य होता है. विश्व भर में जहां भी आतंकवाद विकसित हुआ, वहां सबसे पहले आम लोगों की आजादी खत्म की गई और उसके बाद प्रगतिवादियों को निशाने पर लिया गया.
आप यह लिख रहे हैं कि यहां लोगों की जिंदगी, बुनियादी सुविधाओं को पूरा करते-करते निकल जाती है? किन विफलताओं की वजह से ऐसा होता चला आ रहा है?
न केवल कश्मीर घाटी बल्कि तीसरी दुनिया के अधिकतर देश के लोगों की जिंदगी बुनियादी सुविधाओं को पूरा करने मेंे ही निकल जाती हैं. जहां तक कश्मीर की बात है तो इसको खराब करने में घाटी के धार्मिक कट्टरवादी, राज्य और केंद्र के मुख्यधारा के राजनेता और पाकिस्तान की आईएसआई बराबर की जिम्मेदार है क्योंकि कश्मीर का जलते रहना, इनकी धार्मिक और राजनीतिक दुकानों के चालू रहने के लिए जरूरी है.
‘मीडिया भले ही कश्मीर से बाहर स्वतंत्र हो लेकिन यहां की घटनाओं को दर्शाते वक्त वह हमेशा गृह मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्तियों से आगे नहीं निकलता है’

अदीबों और दरवेशों की जमीन

हमीदा सालिम
रुदौली की सबसे बड़ी पहचान शायर मजाज लखनवी की जन्मस्थली के बतौर है. मजाज के अलावा ये चौधरी मोहम्मद अली रुदौलवी, सफिया जांनिसार अख्तर, हमीदा सालिम, परवाना रुदौलवी, बाकर मेहंदी और शारिब रुदौलवी जैसे नामवर अदीबों की भी धरती है. अवध का ये ऐतिहासिक कस्बा तहजीब, इल्मो-अदब और सूफियाना माहौल के लिए दुनिया-भर में मशहूर है. प्रस्तुत लेख चर्चित उर्दू लेखिका और मजाज की छोटी बहन हमीदा सालिम की आत्मकथा ‘यादें’ से साभार लिया गया है.
मैं अवध के एक मशहूर कस्बे में पैदा हुई. यह कस्बा जिला बाराबंकी (अब जिला फैजाबाद) में रुदौली के नाम से मशहूर है. इस नाम की वजह दो बताई जाती हंै. एक तो ये कि इसे 1224 ई. में राजा रुदमल ने आबाद किया था और अपने नाम की मुनासबत से इसका नाम रखा था. दूसरी मुख्तलिफ तशरीह ये है कि इसका असली नाम रुदेवली था. यह 1182 ई. में आबाद हुआ. कुछ बुजुर्गों ने यहां आकर दरस तदरीस का सिलसिला शुरू किया था. रुदेवली से बिगड़कर इसका नाम रुदौली हो गया. बहरहाल अब तो ये रुदौली ही के नाम से जाना जाता है, और परहेजगार मुसलमान मियां मखदूम साहब के मजार के वाके होने की वजह से इसको रुदौली शरीफ के नाम से याद करते हैं. रूदौली लखनऊ और फैजाबाद के दरमयान बसा है. शायद इसकी स्थिति समझने में ज्यादा आसानी हो अगर मैं कहूं कि फैजाबाद से नजदीक है और लोग साइकिल पर अयोध्या पहुंच जाया करते हैं.
कस्बाती तहजीब का अपना ही रंग होता है. इसका रंगरूप गांव और शहर की तहजीब से इम्तेजाज से एक खुसूसी रंग इख्तेयार किए होता है. अवध में और भी कस्बे हैं, कुछ बड़े कुछ छोटे. लेकिन रुदौली की अपनी खुसूसियत है. ज्यादातर आबादी मुसलमान जमीनदारों और ताल्लुकदारों पर या उन पेशावरों पर मुश्तमिल थी, जिनकी खिदमात उन रऊसा की जिंदगी की सहूलतों के लिए जरूरी थीं. मसलन हज्जाम, मीरासी, हलवाई, घोसी वगैरह. मेरे बचपन में गैर मुसलिम तबके की आबादी मुख्तसर थी. उसमें से ज्यादातर का दुकानदारी या महाजनी पेशा था.
अवध में लड्डू संडीले के मशहूर थे और रुदौली के. और ये लड्डू तकरीबात के वक्त सेर-सेर और आध-आध सेर के वजन के बनते थे. सोचिए एक लड्डू एक सेर का. इन बातों पर ही शान-ओ-शौकत का इन्हिसार था. फलां ने अपने बेटे की बिस्मिल्लाह पर या अपनी बेटी की रोजाकुशाई पर एक सेर का लड्डू बांटा. रुदौली की एक और मिठाई थी इंदरसे की गोलियां.
रूदौली अपने मजारों, दरगाहों, मेले और उर्स के लिए भी शोहरत रखती थी. हमारे बचपन में और गालिबन आज भी मखदूम साहब का उर्स बहुत अहमियत रखता है. इसमें हिंदू और मुसलमान बराबर के शरीक होते हैं. उर्स के अलावा दूसरा मेला जो हम लोगों के लिए बेहद अहमियत रखता था वो बारावफात का चिरागदान था. मोहल्ला पूरा खां, मोहल्ला सूफियाना. जहां की ज्यादातर आबादी शिया जमीनदारों की थी. यहां चौधरी इरशाद हुसैन का बनवाया हुआ इमामबाड़ा मशहूर है. एक और मेला जिसकी हमारे बचपन में बहुत अहमियत थी सोहबत का बाग कहलाता था. एक मेला शेख सलाहुद्दीन सुहरावर्दी का मोहल्ला सुफियाना में दस शव्वाल को होता था. ईद-बकरीद शबे बरात सब फराखदिली से मनाए जाते थे. हमको अपने बचपन में मोहर्रम और दीवाली भी ईद बकरीद ही की तरह दिलचस्प होती थी.
रुदौली की तहजीब, रस्मो-रिवाज़, नशिस्तो-बरख्वास्त के तौर तरीकों पर लखनऊ और फैजाबाद की छाप थी. रुदौली की जबान अवधी कहलाई. अब तालीम के साथ-साथ रुदौलीवाले लखनऊ की खड़ी जबान अपनाने लगे हैं. रूदौली को ध्यान में रखकर एक शायर ने कुछ यंू इजहार किया है-
ये रूदौली ये मकामे फिक्र ये खानाखराब
सर-बरहना,चाकदामां, जैसे मुफलिस का शबाब
जैसे जैबे ताके निसयां, करमखुरदा एक किताब
इंकलाब-ओ-इंकलाब-ओ-इंकलाब-ओ-इंकलाब
आज भी इस खाना-ए-वीरां में होता है गुजर
डूबते हैं चांद तारे, मुस्कुराती है सहर

तालाब से बदला ताना-बाना

 

स्वतंत्र मिश्र
मध्यप्रदेश के मालवा में एक बहुत पुरानी कहावत आज भी लोकप्रिय है – ‘पग-पग रोटी, डग-डग नीर.’ लेकिन आज उसी मालवा के ज्यादातर इलाके बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं. हालात इतने बिगड़ गए हैं कि मालवा के एक कस्बे में पानी को माफियाओं से बचाने के लिए चंबल नदी के बांध पर पुलिस का पहरा बिठाना पड़ा. इतना ही नहीं पानी की कमी के चलते 6 हजार कर्मचारियों वाली एशिया की सबसे बडी फायबर बनानेवाली फैक्ट्री ग्रेसिम के भी चक्के थम गए. नागदा के अलावा कमोबेश पूरे मालवा इलाके में पानी के हालात बदतर हैं. 60 फीसदी से ज्यादा बोरवेल सूख चुके हैं. मालवा के देवास जिले में भी पानी की कमी के चलते कुछ साल पहले कई फैक्ट्रियों पर ताला लगाना पड़ा था. 2006-07 के दौरान देवास में इंजिनीयरिंग की पढ़ाई किए हुए एक जिलाधीश उमाकांत उमराव का आगमन क्या हुआ कि उन्होंने सिर्फ देढ़ साल के अपने कार्यकाल के दौरान जिले में पानी रचने की एक जोरदार कहानी गढ़ ली. उन्होंने किसानों का साथ लेकर ‘भागीरथ कृषक अभियान’ चलाया और देखते ही देखते देवास के गांवों की तस्वीर बदलने लगी. इस योजना में तब की सरकार का कोई पैसा भी नहीं लगा था. यह काम पूरी तरह से उमराव की पहल पर समाज के हाथों से शुरू हुआ था.
दिलचस्प बात यह है कि उमराव जब देवास आए तो उन्होंने देखा कि यहां रेल टैंकर के जरिए पानी लाया जा रहा था. भूजल का स्तर 500-600 फीट तक नीचे उतर चुका था. पक्षी के नाम पर यहां सिर्फ कौए ही दिखते थे. उन्होंने देवास के बड़े किसानों को इस बात के लिए राजी किया कि वे अपनी कुल जमीन की 10 फीसदी हिस्से पर तालाब का निर्माण कराएं. किसानों को बात समझ में आ गई और उन्होंने तालाब रचना शुरु कर दिया. अब पानी की प्रचुरता की वजह से यहां एक की बजाए दो-तीन फसल ली जाने लगी है. अनाज का उत्पादन प्रति हेक्टेयर बढ़ गया है और किसानों को खेती फायदे का सौदा लगने लगी है. इस इलाके में न सिर्फ आर्थिक समृद्घि आई है बल्कि यहां का सामाजिक ताना-बाना भी तेजी से बदलने लगा है. आदिवासी समुदाय का जीवन बदल रहा है. लड़कियां स्कूल और कॉलेज पढ़ने जाने लगी हैं. बाल विवाह पर नियंत्रण लगा है. अपराध करनेवाली जनजाति अब खेती-किसानी या दूसरे पेशों से जुड़ रही हैं.

आदिवासियों के घर समृद्धि के फूल खिले हैं
भिलाला आदिवासी समुदाय के मदन रावत ने 20 साल पहले अपना गांव पुंजपुरा छोड़ दिया और अपने ससुराल पोस्तीपुरा आ बसे. हालांकि यहां आते वक्त उन्होंने ऐसा सपने में नहीं सोचा होगा कि एक दिन उनकी पत्नी गीता बाई को राज्य के मुख्यमंत्री सर्वोत्तम कृषि पुरष्कार से नवाजेंगे. मदन के शब्दों, ‘मैं अपना गांव छोड़कर जब यहां आया था तब यहां निपट जंगल था. साल के तीन-चार महीने सड़कें बजबजाते कीचड़ से लिथड़ी रहती थीं. पक्की सड़कें तो अभी कुछ साल पहले ही बनीं हैं. पहले जब गांव में कोई बीमार होता तब उसे खाट पर लिटाकर हॉस्पिटल ले जाना पड़ता था. डॉक्टर तक पहुंचने से पहले ही कई लोग दुनिया को अलविदा कह देते. अब कुछ लोगों के पास गाड़ियां आ गई हैं. यहां से 4 किलोमीटर दूर पलासी गांव में एक स्वास्थ्य केंद्र भी शुरू हो चुका है. कुछ लोगों के पास खेती के लिए ट्रेक्टर भी आ गएैं. तालाबों के बनने से हमारे गांव में समृद्धि आ रही है इसलिए अब हम लड़ने की बजाए हमेशा एक-दूसरे की मदद को तैयार रहते हैं.’ इस गांव में भिलाला के अलावा बंजारे और कोरकू समाज के लोग भी रहते हैं.
पोस्तीपुरा गांव देवास जिले के बागली विकास खंड में पड़ता है. देवास जिला मुख्यालय से इसकी दूरी कोई 100 किलोमीटर के आसपास है. देवास से यहां पहुंचने के रास्ते में लगभग 7 किलोमीटर लम्बी बरजई घाटी पड़ती है. गोल-गोल घूमती हुई सड़कों की वजह से इसे यहां के लोग जलेबी घाट भी कहते हैं. कुछ लोग तो मजाक में परदेसियों को यह भी बताने से बाज नहीं आते हैं कि फिल्मोंवाली जलेबीबाई का गाना यहीं के जलेबीबाई से प्रेरित है. हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं है, पर इस सुरम्य घाटी से गुजरते हुए इस झूठ पर भी दिल लाख-लाख बार कुर्बान करने का मन होता है. इस घाटी में खूबसूरत सागवान के नए और पुराने पेड़ों की कतारें हैं. घाटी से उतरते हुए सड़क के दोनों ओर हरी-भरी सब्जियों के यहां से वहां तक खेत दिखने लगते हैं. हमारे साथ कृषि विभाग के सहायक निदेशक डॉ. अब्बास भी हैं. वे बताते हैं कि यहां से सब्जियां भोपाल तथा राज्य की दूसरी सब्जी मंडियों को भेजी जाती हैं.
पोस्तीपुरा के मदन के घर जब हमारा पहुंचना हुआ तो उनकी पत्नी टीन की छत पर कपास सुखा रही थीं. वे हमें देखकर नीचे उतर आईं. उनके घर के अंदर ट्रैक्टर, जीप और मोटसाइकिल खड़ी थी, मानों वे उनकी समृद्घि की गवाही दे रही हों. इस बारे में गीता बाई से पूछा तो उन्होंेने बताया कि यह सब तालाब की देन है. ऐसा कहते हुए उनकी आंखें नम हो उठती हैं और वे अपने घर के पिछवाड़े में बने तालाब की ओेर श्रद्घाभाव से देखने लग गईं. उन्हें कुरेदने की कोशिश की तो आगे उन्होंने बताया कि आपको कई तरह की पक्षियों की आवाज सुनाई दे रही है न. आप अगर तालाब बनने से पहले यहां आते तो आपको कौआ छोड़कर कुछ नहीं िदखता लेकिन अब यहां आपको पचासों किस्म के पक्षी और हिरण (काले और सामान्य) दिख जाएंगे. पहले यहां पानी की मारामारी थी. पीने भरने के लिए कई बार कुएं पर रातभर खड़ा रहना पड़ता था. गीताबाई की 20 बीघे की खेती है और उनके पास दो तालाब हैं. हमारे पास ही खड़े हुए एक बुजुर्ग ने बीच में टोकते हुए कहा- ‘बेटा, हम खुशाहाल हैं. हमारे बच्चे-बच्चियां पढ़ने लगे हैं.’
गांव में एक सरकारी स्कूल है जिसमें पांचवीं तक की पढ़ाई होती है. किसी को पांचवीं के आगे पढ़ाई करनी हो तो उसे चार-पांच किलोमीटर दूर पुंजीपुरा गांव स्थित हाई स्कूल की शरण लेनी पड़ती है. मदन बताते हैं कि हमारे गांव में कुछ साल पहले तक लड़कियां नहीं पढ़ती थीं. ऐसा सोचना भी अपराध सा था. अब लड़कियों के भाई और पिता ही उन्हें स्कूल और कॉलेज तक मोटरबाइक में बिठाकर ले जाते और वापिस घर लाते हैं. गांव में स्कूल खुल जाने की वजह से लड़कियां पीठ पर घास और अनाज का गट्ठर की जगह किताबों का थैला टांगे और आंखों में चमक लिए पढने हर रोज स्कूल पहुंच जाती हैं. मदन की तीनों बेटियां पढ़ रही हैं. एक बेटी तो देवास के कस्तूरबा गांधी कॉलेज के छात्रावास में रहकर बीए. द्वितीय वर्ष में पढ़ रही है. गांव के लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार आया है, ऐसा गांव में नए पक्के मकानों और घर के अहाते में ट्रैक्टर, कार और मोटरसाइकिल देखकर कोई भी आसानी से अंदाजा लगा सकता है.

‘पढ़ेंगे लिखेंगे लेकिन खेत ही जोतेंगे’
देवास जिले के टोंक खुर्द ब्लॉक का टोंक कला गांव आगरा-मुंबई हाईवे से दो-तीन किलोमीटर दूर है. टूटे-फूटे रास्तों से होकर जब आप प्रेम सिंह खिंची के दरवाजे पर पहुंचेंगे तब आपको यह भ्रम होगा कि आप किसी शहर की कॉलोनी या सोसायटी में घुस आए हैं. एक ही अहाते में बिल्कुल एक जैसे पांच घर बने हुए हैं. ये घर देवास में तत्कालीन कलक्टर रहे उमाकांत उमराव द्वारा 2006 में शुरू किए गए ‘भागीरथ कृषि अभियान’ के तहत तालाबों के निर्माण के बाद आई समृद्घि के बाद बने हैं. इन घरों को बाहर से देखने पर पांचों भाइयों के परिवारों के बीच के प्रेम का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है. इस परिवार की एक बड़ी खासियत यह है कि अच्छी नौकरी या अच्छी पढ़ाई या डिग्री हासिल करने के बाद भी इस परिवार के लोग खेती-किसानी से पूरी तरह जुड़े हुए हैं. इसकी बड़ी वजह तालाब से खेती के सिंचिंत रकबे में लगातार हो रहा इजाफा भी है. प्रेम सिंह और उनके परिवार के अन्य सदस्य भी यह मानते हैं कि उमाकांत उमराव ने किसानों को साथ लेकर भागीरथ कृषक अभियान की शुरुआत की थी और पानी हासिल करने के लिए तालाबों का निर्माण कार्य शुरू करवाया था. पानी जो हमारे लिए कभी दूर की कौड़ी हो चुका था और तब हमारे खेत 10-15 फीसदी ही सिंचिंत थे लेकिन अब तालाबों के निर्माण के बाद हमारे 90 फीसदी खेत सिंचिंत हो चुके हैं. हमारे लिए खेती अब घाटे का सौदा नहीं रह गई और यही वजह है कि हमारे बच्चे दूसरों की चाकरी करने से अच्छा खेती करना पसंद कर रहे हैं.
प्रेम सिंह खिंची के बाद की पीढ़ी यानी उनके बेटे और भतीजे बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेकर भी खेती में रमे हैं. प्रेम सिंह के भाई उदय सिंह अपने घर की युवा पीढ़ी की खेती-किसानी में दिलचस्पी की वजह तालाब को मानते हैं. वे बताते हैं कि तालाब की वजह से अब हमारे खेत लगभग पूरी तरह सिंचिंत हो गए हैं. पहले हम साल में बारिश के बाद सिर्फ सोयाबीन की एक फसल ले पाते थे और अब गेहूं, डॉलर चना, टमाटर, मिर्ची, आंवला आदि जो चाहते हैं उगा लेते हैंै.
इस गांव में गौर करने लायक एक परिवर्तन और यह आया है कि जो किसान पहले अपने बच्चों की सरकारी स्कूल की 5-10 रुपये की फीस नहीं भर पाते थे, अब वे अपने बच्चों की 25-30 हजार रुपये तक की सालाना फीस खुशी-खुशी भर रहे हैं.’ इस गांव के नगेंद्र बताते हैं-’देवास में 2006-07 तक पानी की घोर किल्लत थी. हम कभी खेत की ओर देखते तो कभी आसमान की ओर. धरती का पानी भी हम चट कर गए थे. उमाकांत उमराव साहब के कहने पर हमने गांव में तालाब बनवाया. पहली बारिश में ही तालाब भर गया और हमने अपने जीवन में पहली बार एक साल में दो फसल ली. उत्पादन बढ़ता चला गया और नतीजा यह हुआ कि हमारे पास पैसे बचने लगे. हम अब अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए हर साल 20-25 हजार रुपए खर्च कर पा रहे हैं.’ प्रेम सिंह खिंची बताते हैं कि तालाब होने की वजह से खेती से हमारा मुनाफा बढ़कर दस गुना हो गया है.’
टोंक कला में 125 से ज्यादा तालाब हैं. प्रेम सिंह के परिवार की जमीन पर 30 तालाब हैं. तालाब के फायदे के बारे में जब ‘तहलका’ के इस संवाददाता ने उनसे पूछा तो उन्होंने बताया कि भागीरथ कृषक अभियान शुरू होने से पहले हमने कभी भी तालाब निर्माण नहीं करवाया था. अब हमारे भीतर यह जागृति आ गई है और हम तालाब की तकनीक और उसके व्यवहारिक पक्ष से पूरी तरह वाकिफ हो गए हैं. प्रेम सिंह थोड़े दार्शनिक अंदाज से भरकर आगे बताते हैं- ‘आदमी का स्वभाव ही ऐसा है कि वह बगैर नुकसान उठाए सबक नहीं लेता है. हमारे इलाके में लोगों ने अपने खेतों में ट्यूबवेल खुदवा-खुदवाकर अपनी बर्बादी देख ली. 2006 से पहले हमें एक फसल से जो मुनाफा होता था, उसे हम पानी खोजने में खर्च कर देते थे. नतीजा यह होता था कि साल के अंत में हमारे पास पैसा ही नहीं बचता था.’
इन तालाबों की वजह से गांव का जल स्तर ऊपर आ रहा है. पानी की उपलब्धता होने की वजह से लोगों ने खेती और उससे जुड़े धंधों में दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दी है. इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि खेती-किसानी में लगे परिवारों के पास गाय-भैंस तो होते ही हैं. वे पशुओं के गोबर को तालाब में बहा देते हैं. तालाब में पल रही मछलियों को अच्छा चारा मिल जाता है. तालाबों के पानी में गोबर के मिले होने से खेतों को पानी के साथ जैविक खाद भी मिल जाती है. इस प्रयोग से खेतों की उर्वरा शक्ति में वृद्घि हो रही है. फसल की अच्छी पैदावार के लिए रसायनिक और उर्वरक पर निर्भरता कम हो रही है. तालाब के निर्माण होने से गांव की प्रकृति में पूरी तरह से बदलाव आ गया है. लोगों की आर्थिक उन्नति हो रही है. पहले साल के आठ महीने लोग खाली घूमा करते थे. फिजूल की बातें करते थे लेकिन अब पानी की वजह से खेती अच्छी हो गई है और गांववालों के पास बेकार बातों के लिए समय नहीं है. बड़ी जोतवाले किसानों को तालाब का फायदा होता देख छोटी जोतवाले किसानों ने भी अपनी जमीन के 10 फीसदी भूभाग पर तालाब बनाना शुरू कर दिया है. उन्हें पूरे साल खाने को अनाज मिल जाता है. वे अपने बच्चे को अच्छा कपड़ा पहना रहे हैं और उन्हें पब्लिक स्कूल में पढ़ा रहे हैं.

पढ़े बेटी, बढ़े बेटी
देवास जिले का एक ग्राम पंचायत पाड़ल्या है जो महिलाओं के लिए सुरक्षित है. इस गांव के ज्यादातर मकान पक्के हैं और उन्हें देखने से यह भान होता है कि ये पिछले कुछ सालों के दौरान निर्मित हुए हैं. तालाब के निर्माण के बाद यहां आर्थिक समृद्घि के साथ जीवन में समरसता भी लौट रही है. बेटियों को पढ़ाने पर गांव में जोर दिया जाने लगा है. जो महिलाएं अपनी जिंदगी में नहीं पढ़ पाईं थीं, वे अपनी बच्चियों को खूब पढ़ाने की हसरत रखने लगी हैं. उनके पति भी इस काम में खूब सहयोग दे रहे हैं. इसे यहां की वर्तमान सरपंच सीमा मंडलोई के उदाहरण से समझा जा सकता है. वे महज आठवीं पास हैं. 16 की उम्र में ही उनकी शादी हो गई थी. नए रिश्ते में बंधकर जब मायके (रतनखेड़ी) से ससुराल आईं तो पढ़ाई से मानों नाता ही टूट गया. न ही मायके में और न ही ससुराल में उन दिनों हाई स्कूल हुआ करता था. अब पाड़ल्या में 12वीं तक का स्कूल है. हायर सेकेंडरी की पढ़ाई पूरी करने के बाद कॉलेज की पढ़ाई के लिए अब लड़के और लड़कियां देवास और इंदौर पहुंचने लगे हैं. सीमा मंडलोई के पति (वे सरपंच पति के नाम से गांव में बुलाए जाते हैं) बताते हैं- ‘बीते सात-आठ साल के दौरान तालाब की वजह से हमारे खेत, हमारी डेयरियां और वेयरहाउस आबाद हुए हैं. पुरुष का काम खेती अच्छी होने की वजह से बढ़ गया है इसलिए उनके नजरिए में भी बदलाव आ रहा है. हमारे इलाके में लड़के-लड़कियां पढ़ाई का महत्व समझने लगे हैं. बाल-विवाह जैसी बुरी प्रथा पर भी रोक लगी है. लड़कों में नशाखोरी की लत नहीं है. हालांकि गांव के आसपास सरकारी ठेके हाल में खुले हैं.’
सीमा से बिटिया की शादी के बारे में पूछने पर वे मुस्कराकर जबाव देती हैं- ‘अभी पढ़ेगी. वह पढ़ ले तब उसकी शादी की सोचेंगे.’ कितना पढ़ाएंगी? इसके जवाब में सीमा कहती हैं- ‘गांव में 12वीं तक की पढ़ाई के लिए स्कूल है, इतना तो पढ़ ही लेगी. 12वीं के आगे अगर दादाजी और दादीजी पढ़ाने के लिए देवास भेजने को तैयार हुए तो उसे जरूर पढ़ाएंगे.’ बेटी को पढ़ाकर आत्मनिर्भर बनाने की हसरत भरी आंखों से वे पास ही बैठे दादाजी की ओर देखने लग जाती हैं. बहु के इशारों को दादाजी भांप जाते हैं और खुद ही जोरदार आवाज में कहते हैं- ‘हां, हां क्यों नहीं? जब तक पढ़ेगी, हम पढ़ाएंगे.’ सीमा मंडलोई की देवरानी भी आठवीं पास है जब उनकी शादी हुई तब उनकी उम्र 17 साल थी. देवरानी की लड़की अभी 12वीं में पढ़ रही है और वह कॉलेज भी पढ़ने जाना चाहती हैं.
इसके बाद हम इसी ग्राम पंचायत की पूर्व सरपंच पवन मालवी के घर पहुंचते हैं. पांच साल तक गांव की सरपंच रहने के बावजूद आज भी वे कच्चा-पक्का घर में रहती हैं. पवन की शादी महज 12 साल की उम्र में हो गई थी. उन्होंने शादी के बाद मायके में रहकर पढ़ाई जारी रखी और 10वीं कक्षा तक पढ़ाई की. आगे पढ़ने की हसरत उस जमाने में पूरी नहीं हो पाई थी लेकिन वे अपनी दोनों लड़कियों को पढ़ाकर आत्मनिर्भर बनाना चाहती हैं. बेटा बीए की पढ़ाई के लिए गांव से 25 किलोमीटर दूर हर रोज देवास आता-जाता है. एक बेटी 11 वीं में और दूसरी 8वीं में पढ़ रही है. बड़ी बेटी 17 साल की हो चुकी है लेकिन पवन अभी उसकी शादी की चिंता नहीं कर रही है. वह उसे पढ़ाना चाहती है. उनसे यह पूछने पर कि आप बच्चियों को क्यों पढ़ाना चाहती हैं? इस सवाल के जबाव में वे कहती हैं- ‘लड़कियां पढ़ लंे और नौकरी पा लें तो उनकी बहुत सारी समस्या खुद ही दूर हो जाती हैं. लड़कों से ज्यादा जरूरी लड़कियों का पढ़ना है. पढ़ी-लिखी लड़कियों के बच्चे भी पढ़ जाते हैं.’

‘हाथों को काम मिले तो वह अपराध क्यों करें ?’
देवास जिले के टोंक खुर्द विकास खंड में कंजर नामक घुमंतू जनजातियों का एक गांव है-भैरवाखेड़ी. यह गांव जिला मुख्यालय से 10-12 किलोमीटर की दूरी पर है. इस इलाके के लोग कंजर जाति को सामान्य तौर पर ‘अपराधी’ के तौर पर पहचानते हैं. इस जनजाति के लोग खुद ही यह स्वीकारते हैं कि वे लोग कुछ साल पहले तक लूटपाट और चोरी करते थे. वे देवास और आसपास के इलाकों में ट्रक लूटने का काम करते थे और कई बार इस काम को अंजाम देने के लिए राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र तक चले जाते थे लेकिन अब वे अपराध से दूरी बना चुके हैं और खेती-किसानी करने लगे हैं. इस गांव के 20-22 साल से बड़ी उम्र के लोगों में से शायद ही किसी ने स्कूल का मुंह देखा होगा. यह पूछने पर कि आखिर क्या ऐसा हो गया कि आपलोग अपराध से दूर होकर खेती करने लग गए हैं? इसके जबाव में गांव का एक युवक अक्षय हाड़ा बताता है- ‘इस इलाके में पानी के अभाव में खेती पूरी तरह तबाह थी. मजबूरी में हम अपराध करते थे, अब हम इस मारामारी से थक चुके हैं. पिछले कुछ सालों के दौरान इस इलाके में हजारों की संख्या में तालाब, ताल-तलैयों का निर्माण हुआ जिसकी वजह से हमारे गांव के भूजल स्तर में बहुत सुधार हुआ. हमारे गांव में भूजल का स्तर 500-600 फीट तक गहरे चला गया था लेकिन अब 125-150 फीट तक पानी मिल जाता है.खेती-किसानी ठीक होने से हमारे जीवन में समृद्घि व स्थिरता आ रही हैं. सरकार भी हमें सुविधा दे रही है लेकिन हमारा दुख यह है कि हमारे बच्चे सरकारी या प्राइवेट नौकरी नहीं कर सकते हैं.’ ‘तहलका’ के इस संवाददाता ने जब पूछा कि उन्हें नौकरी मिलने में क्या समस्या आ रही हैं, तो अक्षय ने बताया कि पुलिस रिकॉर्ड में हमें आज भी अपराधी बताया जा रहा है जबकि हम लोग पिछले एक दशक से शराफत की जिंदगी जी रहे हैं.
इस गांव में हम जिनके दरवाजे पर खड़े होकर ग्रामीणों से बातचीत कर रहे थे, उस घर की लड़की मेनका गोदेन बीए में पढ़ रही हैं. वे डेयरी के काम में अपने पति का हाथ भी बंटाती हैं. मेनका के पति पांचवी तक पढ़े हैं. मेनका के चेहरे पर अपने और गांववालों के जीवन में आ रहे बदलावों को लेकर संतोष का भाव दिखता है. देवास के कलक्टर रह चुके उमाकांत उमराव भी इस बदलाव को लेकर हामी भरते हैं. उमराव वर्तमान समय में मध्य प्रदेश के आदिवासी विभाग के सचिव हैं. सच तो यह है कि उन्हें जिले में पानी की वापसी का श्रेय देने से कोई नहीं चूकता है. इस जिले में उन्हें आज भी ‘जलाधीश’ कहकर पुकारा जाता हैं. उमाकांत उमराव कहते हैं- ‘देवास जिले में पानी की वापसी से जिंदगी फिर से अपनी लय में लौटने लगी है. इस जिले केे लोग मुझे फाेन करके बताते हैं कि यहां अपराध के मामलों में कमी आई है. ‘कंजर’ अब अपराध से दूर हो रहे हैं और यह देखना सुखद है कि वे खेती-किसानी से जुड़ रहे हंै.’ l

अब पोस्तीपुरा गांव में लड़कियों के भाई और पिता ही उन्हें स्कूल और कॉलेज तक बाइक में बिठाकर ले जाते और वापिस घर लाते हैं

टोंक कला में 125 से ज्यादा तालाब हैं. प्रेम सिंह के परिवार की जमीन पर 30 तालाब हंै. उनका परिवार पढ़ा-लिखा होने के बावजूद खेती में मन रमा रहा है

‘कंजर’ अपराध छोड़कर खेती करने लगे हैं. इनके बच्चे स्कूल व कॉलेज पढ़ने जाने लगे हैं लेकिन नौकरी के दरवाजे इनके लिए अब भी बंद हंै

हरित क्रांति सूखता दयार

एनके भूपेश

किसानों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं ने कृषि प्रधान देश भारत के वैश्विक आर्थिक ताकत के रूप में उभरनेवाली छवि पर करारा तमाचा जड़ा है. कुछ बड़े कारोबारियों, राजनीतिज्ञों और कॉरपोरेट मीडिया की ओर से गढ़ी गई इस छवि के साथ ये घटनाएं उस परीकथा पर भी सवाल उठा रही हैं, जिनके अनुसार 60 के दशक में आई हरित क्रांति से देश निरंतर सफलता के नए प्रतिमान गढ़ रहा है.
पंजाब, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तमाम दूसरे राज्य इस समय कृषि संकट के शिकंजे में फंसे हुए हैं. इसलिए समय आ गया है हरित क्रांति का फिर से मूल्यांकन करने का, जिसके बारे में तमाम लोगों की सोच थी कि इससे भारत की खेती से जुड़ी समस्याओं का समाधान हो जाएगा. राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के आंकड़े खुलासा करते हैं कि भारत में 2000 से 2013 के बीच 2,25,000 किसानों ने खुदकुशी कर ली. इस बीच भारत का खाद्य उत्पादन 2001-02 में 21,13,20,000 टन से बढ़कर 2013-14 में 26,43,80,000 टन हो गया. एक कृषि प्रधान देश के लिए ये शर्मनाक है कि किसान अपनी जिंदगी खत्म करने को मजबूर हो रहे हैं और दूसरी ओर खाद्य उत्पादन की दर लगातार बढ़ रही है. ये अांकड़े हमारी छिछली नीतियों का नंगा सच भी बयां करते हैं. हरित क्रांति की वजह से भारत 70 के दशक में खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर देश बन गया था. अब सवाल उठता है कि क्या हरित क्रांति, जिसकी बदौलत भारत भोजन को लेकर आत्मनिर्भर बना, वास्तव में एक सफल क्रांति थी?
1943 में एशिया के सबसे भयावह खाद्य संकट के बाद पसरी भुखमरी के कारण तकरीबन 30 लाख लोग मारे गए थे. आजादी के बाद भी कई वर्षों तक भारत में लोगों के लिए भोजन की कमी बनी रही. तब इस संकट ने निपटने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्ववाली सरकार ने सार्वजनिक कानून 480 (पीएल 480) के तहत अमेरिका से गेहूं का आयात किया था. इस कानून से भारत, जिसके पास वैश्विक बाजार से अनाज खरीदने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं थी, को रुपये में भुगतान करने का अधिकार मिल गया. हालांकि यह एक अपमानजनक अनुभव था क्योंकि अमेरिका तीसरी दुनिया के आजाद मुल्कों में इस कार्यक्रम को अपना एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल कर रहा था. इसके अलावा आयात किया गया गेहूं भी कम गुणवत्तावाला था.
चारों तरफ से हो रही आलोचना के बाद नेहरू सरकार को यह महसूस करने के लिए बाध्य होना पड़ा कि भोजन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने के अलावा और कोई चारा नहीं है. इसका सबसे आसान तरीका था, उपज बढ़ाने के तरीकों में बिना कोई क्रांतिकारी बदलाव लाए तकनीक की मदद से विश्व बैंक और फोर्ड फाउंडेशन जैसी संस्थाओं की मदद लेना.
इस दिशा में सबसे पहला कदम तब के खाद्य और कृषि मंत्री चिदंबरम सुब्रमण्यम ने उठाया. उन्होंने नोबल पुरस्कार विजेता अमेरिकी जैव विज्ञानी नॉरमन बारलॉग को भारत में आमंत्रित किया. बारलॉग को दुनिया में ‘हरित क्रांति का जनक’ कहा जाता है. उन्होंने बारलॉग से बीज की उच्च उपज की किस्मों (एचवाईवी) को लेकर सलाह की मांग की थी. तब तक बारलॉग दुनिया में मैक्सिको का सफल उदाहरण पेश कर चुके थे, जहां खेती की आधुनिकतम तकनीक और एचवाईवी बीज की मदद से भारी मात्रा में उपज पैदा की गई थी.
भारत में इसकी पहली प्रयोगशाला के रूप में पंजाब को चुना गया, जहां ब्रिटिश शासन के समय नहरों का सघन जाल बिछाया गया था. उच्च उपज क्षमतावाले बीज और आधुनिक तकनीक की मदद से अनाज उत्पादन में बढ़ोतरी दर्ज हुई. इस वजह से अगले कुछ सालों में इस कार्यक्रम को हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश के साथ देश के कुछ दूसरे हिस्सों तक फैला दिया गया. इस तरह पहले दस सालों में उपज 7 फीसदी से बढ़कर 22 फीसदी तक पहुंच गई, जिसे हरित क्रांति के नाम से जाना गया.
हालांकि यह कार्यक्रम आयातित बीजों से शुरू किया गया था. बाद में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने उच्च गुणवत्तावाले बीजों का विकास गेहूं और चावल के अलावा जौ और मक्का की फसल उगाने के लिए किया. इसके बाद भारत में आई हरित क्रांति को एक सफल कहानी के रूप में प्रचारित किया जाने लगा. प्रति हेक्टेयर उपज उत्पादन में 1950 से 1979 के बीच 30 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी दर्ज की गई. इसके बाद अनाज उत्पादन 13 करोड़ टन तक बढ़ गया, जिसके बाद भारत अनाज निर्यात करनेवाले देशों में शामिल हो गया. उच्च उपजवाले जुताई क्षेत्रों में 70 फीसदी गेहूं और 30 फीसदी चावल उपजानेवाले क्षेत्र शामिल हो चुके थे. यह सिर्फ उच्च उपज क्षमतावाले बीजों का ही कमाल नहीं था, जिसकी बदौलत भारत की सफलता की कहानी लिखी गई. उच्च गुणवत्तावाले बीजों को उपजाने के लिए सरकार से बुनियादी सहायता के अलावा उस दौर में कृषि और उससे जुड़े क्षेत्र में सार्वजनिक व्यय का दायरा भी बढ़ाया गया था. नए बांध बनाने और सिंचाई सुविधाओं को बढ़ावा देने के अलावा सरकार ने
किसानों को कम दर पर खाद और कीटनाशक भी मुहैया कराया था. कृषि क्षेत्र में सरकार की इस अति सक्रियता के चलते भारत भोजन के संकट से उबर सका.
पारंपरिक तौर पर हरित क्रांति की सफलता को उत्पादन में दर्ज की जा रही बढ़ोतरी के पैमाने पर मापा जाता है. लेकिन अनाज उत्पादन की बढ़ती दर के अलावा भूख से लड़ाई में यह कितनी मददगार साबित हुई, इस पर समाज विज्ञानी अलग-अलग राय रखते हैं. इनमें से कुछ कृषि संकट से उबरने के लिए पूरी तरह से तकनीक पर निर्भर रहनेवाले हरित क्रांति मॉडल की आलोचना करते थे. वहीं कुछ दूसरे समाज विज्ञानियों ने पारिस्थितिकीय नतीजों के आधार पर इसकी स्थिरता पर भी सवाल उठाए हैं. हरित क्रांति के प्रभाव का जिन समाज विज्ञानियों ने विश्लेषण किया है, उनका निष्कर्ष है कि इसकी वजह से छोटे और सीमांत किसानों को उस तरह का लाभ नहीं मिला जैसा जमींदार और धनी किसानों को मिला था. ऐसा इसलिए क्योंकि गरीब किसानों की संसाधनों तक पहुंच कम थी. इसके अलावा जैसे ही इस कार्यक्रम में थोड़ी-सी ढील दी गई तो अमीर और गरीब को मिलनेवाले लाभ का अंतर और बढ़ गया.
‘चेंजिंग स्ट्रक्चर ऑफ एग्रीकल्चर इन हरियाणा ः एक स्टडी ऑफ द इम्पैक्ट ऑफ द ग्रीन रिवोल्यूशन’ किताब में पंजाब विश्वविद्यालय के जीएस भल्ला लिखते हैं कि उच्च उपजवाले गेहूं और चावल के बीजों की वजह से कृषि संचालित भूमि का वितरण अधिक भूमिवाले अमीर किसानों की ओर मुड़ता चला गया. कुछ दूसरे अध्ययनों में पाया गया कि इसकी वजह से 1970 से 1980 के बीच पंजाब के तमाम छोटे और सीमांत किसानों का लगभग सफाया हो गया क्योंकि पूंजी प्रधान प्रकृतिवाली कृषि के साथ वे सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे थे. उनके पास वे संसाधन नहीं थे जिनसे वे हरित क्रांति से आए बदलावों से लाभ ले पाते. उच्च उपज क्षमतावाले बीजों की महंगी खेती के कारण इनमें से तमाम किसान कर्ज के बोझ तले कुचलते चले गए. वहीं दूसरी ओर नुकसान के समय जमानत के तौर पर जिनके पास गिरवी रखने के लिए अतिरिक्त जमीन थी उन्हें बैंक लोन भी मिल गए. इस वजह से ये किसान भाड़े पर मजदूरों का जुगाड़ करने के साथ कर्ज चुकाने के अलावा पर्याप्त मुनाफा कमा सके.
अपनी किताब ‘हाऊ द अदर हाफ डाइज’ में फ्रांसीसी-अमेरिकी समाज विज्ञानी सुसान जॉर्ज लिखती हैं, ‘इसमें कोई शक नहीं है कि इससे (हरित क्रांति) न सिर्फ विश्वस्तरीय कंपनियाें को फायदा पहुंचा बल्कि इस तरह से भी देखा जाना चाहिए कि इसे भूमि सुधार के विकल्प के रूप में पेश कर तमाम अमेरिकी हितों को थोपा गया क्योंकि सामाजिक बदलाव के लिए भूमि सुधार भी जरूरी था. उस वक्त भूमि सुधार ही खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ावा देने का एकमात्र साधन था, इसलिए बाकी बातों को परे रख इस पर ही ध्यान दिया गया.’ सुसान बताती हैं, ‘पश्चिमी हितों के कारण हरित क्रांति की शुरुआत निवेश से जुड़ी वस्तुएं बेचने के लिए की गई. साथ ही खाद्यान्न बढ़ाने के जरिए सामाजिक स्थिरता लाने को भी बढ़ावा दिया गया.’
कुछ दूसरे विशेषज्ञ तर्क देते हैं कि हरित क्रांति एक राजनीतिक एजेंडा का हिस्सा थी, जिसके तहत तीसरी दुनिया के देशों में अमेरिकी हितों को बढ़ावा देना शुरू किया गया. उनका मानना है कि खेती में सुधार के लिए भारतीय वैज्ञानिक आत्मनिर्भर और पारिस्थितकीय विकल्प पर काम कर रहे हैं, उस समय विश्व बैंक, द रॉकफेलर फाउंडेशन और फोर्ड फाउंडेशन जैसी एजेंसियों को कच्चा सौदा करने का मौका मिल गया था. ‘द वॉयलेंस ऑफ द ग्रीन रिवोल्यूशन’ किताब की लेखिका पर्यावरण कार्यकर्ता वंदना शिवा तर्क देती हैं कि अंतरराष्ट्रीय एजेंसिंयों ने इसे ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिरता लाने के लिए कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने के माध्यम के रूप में देखा. साथ ही इसे बड़े पैमाने पर भूमि सुधार और दूसरे संसाधन बढ़ाने की मांग को शांत करने के माध्यम के रूप में भी देखा गया. वह बताती हैं कि उच्च उपजवाली किस्में (एचवाईवी) एक अशुद्ध नाम है क्योंकि इन बीजों की खास विशेषता कुछ और ही है, ये सिंचाई और खाद के प्रति कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हैं.
हरित क्रांति की एक और कमी ये है कि देश के अधिकांश हिस्सों में होनेवाली गेहूं और चावल की स्थानीय किस्में खत्म होती गईं क्योंकि उच्च उपज क्षमतावाले बीजों पर किसानों की निर्भरता बढ़ती गई. कुछ हद तक यह उन क्षेत्रों के किसानों के बढ़ते दुख को भी बताता है, जहां हरित क्रांति को एक सफलता के रूप में देखा गया था. लुधियाना के पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, अमृतसर के गुरु नानक देव विश्वविद्यालय और पटियाला के पंजाब विश्वविद्यालय की ओर से किए गए साझा अध्ययन के अनुसार पंजाब में 2001 से 2011 के बीच 6,926 किसानों ने आत्महत्या कर ली. इनमें से 4,686 किसान कर्ज में थे. इस साल भी बड़ी संख्या में पंजाब और पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसानों की खुदकुशी के मामले सामने आए हैं.
किसानों के साथ काम कर रहे कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं के अनुसार, हाल में नीतियों में किए गए बदलाव के कारण हरित क्रांति से जुड़ी सभी समस्याओं को और बढ़ावा मिल गया है. अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव वीजू कृष्णन के अनुसार, अपनी सीमाओं के बावजूद हरित क्रांति सफल रही थी. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि किसानों को कम दरों पर बीज, खाद और कीटनाशक मुहैया कराने में सरकार अति सक्रिय थी. हालांकि 1980 के दशक के मध्य से नवउदारवादी अर्थशास्त्र केंद्र और राज्यों की नीतियों को प्रभावित करते रहे हैं. इस वजह से कृषि क्षेत्र में मिलने वाली रियायत की सीमा समय के साथ धीरे-धीरे कम होती गई. इसके अलावा कृष्णन कहते हैं कि हरित क्रांति के प्रभाव में आने के बाद अत्यधिक खाद के प्रयोग के कारण खेत के अनुपजाऊ होते जाने में सरकार की ओर से किसानों को बहुत ही कम मदद दी गई. इन सभी कारणों के चलते भारत के किसानाें की जिंदगी में मौत तांडव कर रही है.
हरित क्रांति पर अलग-अलग धारणाओं के बावजूद दो बातें स्पष्ट होती हैं. इससे अनाज पैदा करने में भारत को आत्मनिर्भर बनाने के क्रम में बाधा पैदा हुई लेकिन उत्पादन में हो रही बढ़ोतरी की वजह से भी किसानों का दुख कम नहीं हुआ. नव उदारवादी नीतियां लागू होने, कृषि पर सरकारी खर्च में कमी और किसानों को रियायत देने की कमी के बाद से किसानों की खुदकुशी का अांकड़ा आसमान छू रहा है. वर्तमान सरकार भी उसी दिशा में तेजी से बढ़ रही है, जिससे खेती-किसानी का नुकसान होना तय है. ऐसे में किसानों का भविष्य सुधरने की संभावना कम ही दिखाई दे रही है. l

छोटे और सीमांत किसानों को वैसा लाभ नहीं मिला जैसा जमींदार और अमीर किसानों को मिला, क्योंकि गरीब किसानों की संसाधनों तक पहुंच कम थी

सामाजिक बदलाव के लिए भूमि सुधार जरूरी था. भूमि सुधार ही खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ावा देने का एकमात्र साधन था, इसलिए सिर्फ इस पर ही ध्यान दिया गया

जलती जमीन पर जीने की जद्दोजहद

826001 के पिन कोड से इसकी ऑनलाइन पहचान है. झारखंड का दूसरा बड़ा शहर, आबादी करीब 24 लाख. कोयले की खदानें, इंडियन स्कूल ऑफ माइंस और गैंग्स के सिनेमाई शहर के रूप में इसकी पहचान है. यह शहर नई दिल्ली और कोलकाता के बीच एनएच-2 जिसे ग्रैंड ट्रंक (जीटी) रोड भी कहते हैं, के किनारे बसा है. रेलवे के नेटवर्क पर गैंड कॉर्ड का सबसे ज्यादा कमाई करनेवाला रेलवे स्टेशन धनबाद ही है. यह झारखंड का सीमावर्ती जिला है, जो एक ओर  से पश्चिम बंगाल को छूता है. झारखंड के दूसरे शहरों से बिल्कुल अलग मिजाज और मिलावट का शहर है धनबाद. बंगाल से सटा होने के कारण बांग्ला और रोजगार के लिए बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों के यहां आ बसने से बांग्ला औैर भोजपुरी की दो भाषाएं हैं, जो धनबाद में ज्यादातर लोगों की जुबान है. जो झारखंडी संस्कृति आप रांची में देख सकेंगे वह आप धनबाद में खोज नहीं पाएंगे. इसलिए यह अलग मिजाज का शहर है. मजदूरों का शहर धनबाद. मजदूर की मूर्ति यहीं चौराहे पर सजती है. एशिया की सबसे बड़ी श्रमिक कॉलोनी बीसीसीएल की भूली टाउनशिप भी यहीं हैं. धनबाद का रात-भर गुलजार रहनेवाला स्टेशन की एक खास पहचान है जो यहां आनेवाले हर इंसान को अपनी ओर जरूर खींचता है. स्टेशन रोड की ज्यादातर दुकानों में शटर नहीं हैं, क्योंकि ये दुकानें रात-दिन खुली रहती हैं. होली और कर्फ्यू में ही इन दुकानों को बंद करने की नौबत आती है, तो परदा गिरा दिया जाता है, दुकान बंद हो गई. यहां के स्टेशन के रात में गुलजार रहने का वाजिब तर्क है भौगोलिक स्थिति. ग्रैंड कॉर्ड पर है धनबाद जंक्शन. 250 किलोमीटर दूर हावड़ा से तो 1100 किलोमीटर दूर नई दिल्ली से. हावड़ा से शाम में खुलनेवाली ट्रेनें यहां से आठ बजे रात के बाद गुजरने लगती हैं. इस तरह आधी रात तक हावड़ा से आनेवाली ट्रेनें गुजरती हैं. वहीं नई दिल्ली व अन्य जगहों से खुलकर सुबह तक हावड़ा पहुंचनेवाली ट्रेनें आधी रात के बाद भोर तक धनबाद जंक्शन पर पहुंचती रहती हैं. इस तरह पूरी रात ट्रेनों का आना-जाना लगा रहता है. स्वाभाविक है रातभर यात्री स्टेशन पहुंचते रहते हैं. इन्हीं यात्रियों का समूह स्टेशन की दुकानों का मुख्य ग्राहक होता है और दुकानें रातभर खुली रहती हैं. शहर से सात किलोमीटर दूर है झरिया. वही झरिया जहां कभी राजा का महल था और यहीं से झरिया रियासत की कमान संभाली जाती थी. आज वही झरिया जलती हुई जमीन को लेकर पूरी दुनिया में चर्चित है. चार लाख लोगों की आबादी उस जलती जमीन पर जीने की जद्दोजहद कर रही है. करीब 95 साल पहले पहली बार झरिया के कोयले में आग देखी गई. लोगों ने इसे महज एक चिंगारी समझा था, आज वही आग पूरे झरिया का वजूद खत्म कर रही है. खतरनाक ढंग से खोखली हो चुकी जमीन के ऊपर से लोगों का हटाने का पूरा सरकारी प्रयास हो रहा है. काफी लोग झरिया छोड़कर जा चुके हैं लेकिन बहुत से ऐसे हैं जो पुरखों की जमीन को छोड़कर कहीं जाने को तैयार नहीं है. आज भी झरिया एक पुराने समय का घना बसा हुआ बाजार है, जहां आपको हर चीज मिल जाएगी. अब धनबाद आनेवाले लोग झरिया की आग देखने की तमन्ना के साथ आते हैं. कुल मिलाकर जलती हुई झरिया भी कोल टूरिज्म को बढ़ा ही रही है. 1971 में कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण किए जाने के बाद यहां भारत कोकिंग कोल लिमिटेड की स्थापना हुई. इसी जिले में सेल, टाटा आदि कंपनियों की भी कोयला खदानें हैं. इस्टर्न कोल फील्ड्स लिमिटेड की कुछ खदानें भी धनबाद जिले में आती हैं. पहले कोयला खदानों में दबदबा रखने के लिए खदान मालिक लठैतों को रखते थे. बाद में उन्हीं लठैतों ने मालिक के बजाए अपने लिए लाठी भांजनी शुरू कर दी. बीसीसीएल की स्थापना के बाद मजदूरों का नेता बनने की होड़ में कई लाशें गिरीं, कितने लापता हुए. कुछ का पता चला और कई आज भी गुमशुदा हैं. चूंकी पुलिस प्रशासन का माफिया पर कभी कोई प्रभाव नहीं रहा. तो लोग ठिकाना तलाशने लगे. यह बचाएगा या वह बचाएगा. इस तरह कोई इस गुट में गया तो कोई उस गुट में गया. इन्हीं गुटों (गैंग्स) की लड़ाई को अनुराग कश्यप परदे पर लेकर आते हैं, तो पूरी दुनिया में धनबाद का एक मोहल्ला वासेपुर कुख्यात हो जाता है.

मध्यवर्ग के द्वन्द्व

Book Review-1 for web

पुस्तक : भूलने का रास्ता

कहानीकार : राजेन्द्र दानी

मूल्य : 200 रुपये

प्रकाशन : नयी किताब, दिल्ली

मिथिलेश प्रियदर्शी

‘नयी किताब’ प्रकाशन से हाल ही में प्रकाशित राजेंद्र दानी की किताब ‘भूलने का रास्ता’ में कुल पंद्रह कहानियां हैं. यह संग्रह पिछले कुछ वर्षों में हमारे भीतर कई स्तरों पर चल रहे बदलावों की कहानी बयां करता है.

कहानी ‘बाहर का उजाला’ में प्रशांत नाम के बच्चे का पात्र, जिसकी गति बिल्कुल अलहदा है, वह इस दुनिया में होते हुए भी नहीं है. बच्चों की गतिकीवाली दुनिया में वह ठीक उसी तरह से सोचता है, जैसे हममें से कई अपने बचपने में चीटियों पर पानी की बूंदें छिड़ककर उनको बारिश का, मुंह से बादल गरजने की आवाज निकालकर और उनपर टॉर्च की छिटकतीा रोशनी फेंककर बादल और बिजली का भ्रम देकर ईश्वर होने के एहसास को जीते थे. उसकी अपनी दुनिया में चारों ओर शांति है, खूबसूरती है, पर दूसरी दुनिया जिसमें उसके पिता हैं, जहां लौटना उसकी मजबूरी है, जहां विकलांग कर देनेवाली सजाएं हैं, वहां वह वापस नहीं जाना चाहता. लेकिन इसके ठीक उलट ‘विखंडन’ का सूरज यह जानकर बेहद खुश होता है कि शहर में बरसों पहले उसके पिता द्वारा बनाए गए खूबसूरत घर की कीमत करोड़ों रुपये हो चुकी है और एक बिल्डर इसे लेकर अपार्टमेंट बनाना चाहता है, जहां एक फ्लैट उसका भी होगा. वह पिता की उस दुनिया से बाहर आ जाना चाहता है, जिसमें बगीचे हैं, पौधे हैं, धूप है, ठंडी हवाएं हैं और खुशी है. सूरज इनकी बजाय करोड़ों रुपये को तरजीह देता है. ‘समाचार’ की पारुल, जो छोटी है, पर अत्यधिक जिज्ञासु है, इस दुनिया की कलाबाजियों को समझने में लगी है. एक खबर, जिसके मुताबिक एक पुल से कूदकर पिछले साल कई लोगों ने आत्महत्या की है, अब रोकथाम के लिए पुल की दीवार को ऊंचा किया जाना है. पारुल के लिए यह हतप्रभ करनेवाला है कि दीवार की ऊंचाई बढ़ाने से आत्महत्याओं को कैसे रोका जा सकता है. वह अपने सवाल लेकर हर किसी के पास जा रही है. पर हर कोई उसे टाल दे रहा है. इसी दुनिया में ‘भूलने का रास्ता’ बैरागी का है और ‘मेंडोलिन’ का किशोर भी. इन दोनों को बड़ा होने से पहले कोई नहीं जानता था. बैरागी जो बेहद गरीब था और सिनेमा की थर्ड क्लास का टिकट लेकर अंधेरे में अपनी गरीबी को भुलाने की कोशिश करता है और बाद में वह जब पैसेवाला हो गया तो उसके पास अपने जरूरतमंद दोस्त के लिए समय नहीं था. ठीक किशोर की तरह, जो बड़ा गायक बन जाने के बाद अपने यार सुर्रू को, जिसने उसे आगे बढ़ाया था, अनदेखा करने लगा था. किशोर का ‘क्लास’ बदल गया था और उसके मुफलिसी के यार उस क्लास के खांचे में मिसफिट थे.

संग्रह की कहानियां मध्यमवर्गीय समाज के ऊहापोह की भी कहानी कहती हैं. इसे सुख-सुविधाओं के मामले में ‘स्टेट्स मेंटेन’ भी करना है और इसके पास खर्च करने के लिए पैसे भी हिसाब से हैं. परिवार के बुजुर्ग, जिन्होंने संघर्ष करके एक मध्यवर्गीय हैसियत पाई है, जिनके पास अपने संघर्षों और समयों का एक ‘नॉस्टैल्जिया’ है, वे अपने पुराने जीवन-मूल्यों के साथ बची जिंदगी गुजारना चाहते हैं. पर नई पीढ़ी के ख्वाब इससे अलग हैं. उसके सुख की परिभाषा अलग है. वह कुछ भी दांव पर लगा सकता है. ‘पारगमन’, ‘स्वाद’, ‘आहट’, ‘दुख का सुख’, ‘लड़ाई’ आदि कहानियों में परिवार के पुराने सदस्यों की मनोदशाओं की कहानीकार द्वारा बारीकी से पड़ताल की गई है.

‘EARTH’S FIRST INTERSTELLAR VISITOR MIGHT HAVE BEEN AN ALIEN SPACECRAFT’

n 19 October 2017, Robert Weryk, using the Pan-STARRS telescope at Haleakala Observatory, Hawaii discovered a 1,300-foot-long (400 meters) object, zipping through space at 196,000 miles per hour. The object, named Oumuamua, which means ‘scout’ in Hawaiian, didn’t look like anything from the solar system, considering its path and the unusually fast speed, it was thought to be a visitor from the stars. All the ground-based near-earth observation telescopes were immediately instructed to set their eyes on the fast moving object.  

Oumuamua made its closest approach to Earth at 24 million kilometres on 14th October, 2017. By the time earth-based telescopes catch the sight of it, the cigar-shaped object had already zoomed past the sun and was now leaving the solar system at an astronomical speed. The object soon went out of reach for even the most powerful telescopes as it sped away from the solar system.

The observation of this interstellar object has since befuddled the scientists, considering its out-of sync behaviour and the peculiar features. Oumuamua didn’t look anything like the comet, which moves far slower than it was moving and had no discharge of dust and gas from its tail, neither did it behave like an asteroid. All the observations confirmed the fact that the interstellar vagabond was not from anywhere here. And that was truly extraordinary, because nothing of that sort has ever been discovered by our telescopes and observatories. The extraordinarily fast speed of the object deprived the scientists of having a closer look at it.

Considering the peculiarity of the object, different theories are doing the rounds about the origins of this alien object. The Harvard researchers, Abraham Loeb and Shmuel Bialy conducted a study, titled “Could Solar Radiation Pressure Explain ‘Oumuamua’s Peculiar Acceleration?” They suggested that the interstellar object could be have been a light sail — a spacecraft that uses radiation pressure to propel itself. These researchers suggest that this interstellar craft could have natural origins or, alternatively, that it could have been sent out from an extra-terrestrial civilization.

Loeb said in his statement, “Its origin could be either natural (in the interstellar medium or proto-planetary disks) or artificial (as a probe sent for a reconnaissance mission into the inner region of the solar system).” The light sail objects are pushed forward as they reflect light, and so Oumuamua, according to them was being pushed by the radiation from sun.

The objects unexplainable speed shifts and sudden accelerations was mysterious and this increased the speculation of the stargazers of it being an ‘internally driven’ craft. The absence of any outgassing ruled out Oumuamua being from the comet class, or an asteroid, for the bizarre shape and the tumbling motion it was exhibiting.  

“Oumuamua may be a fully operational probe sent intentionally to Earth vicinity by an alien civilization,” observed the paper. “Oumuamua showed unusual features since its discovery. These features make ‘Oumuamua weird, belonging to a class of objects that we had never seen before,” Loeb observed.

The scientists have, however, rejected the explanation, pointing that there was no possibility of it being an artificial probe sent to ‘investigate earth.’ Since its discovery, Oumuamua has become a topic of fascination around the globe. Having been the first of its kind object detected near the earth, it has spawned a gamut of conspiracy theories and explanations.

The interstellar objects, similar to Oumuamua, pass through the inner solar system about once per year, but they are faint and hard to spot and have been missed until now, according to the astronomers. The survey telescopes, such as Pan-STARRS1, are now powerful enough to detect and track them. And the lack of any advanced space transportation so far makes the likelihood of deep observation of such speeding objects extremely difficult.

For now, Oumuamua is out of sight, and on the way to a new star system. And as we will keep our fingers crossed until the next interstellar guest visits us, and hopefully till then, we will be far advanced in our space infrastructure capabilities to have a good look at that one and observe it more closely.

 

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