अदीबों और दरवेशों की जमीन

हमीदा सालिम
रुदौली की सबसे बड़ी पहचान शायर मजाज लखनवी की जन्मस्थली के बतौर है. मजाज के अलावा ये चौधरी मोहम्मद अली रुदौलवी, सफिया जांनिसार अख्तर, हमीदा सालिम, परवाना रुदौलवी, बाकर मेहंदी और शारिब रुदौलवी जैसे नामवर अदीबों की भी धरती है. अवध का ये ऐतिहासिक कस्बा तहजीब, इल्मो-अदब और सूफियाना माहौल के लिए दुनिया-भर में मशहूर है. प्रस्तुत लेख चर्चित उर्दू लेखिका और मजाज की छोटी बहन हमीदा सालिम की आत्मकथा ‘यादें’ से साभार लिया गया है.
मैं अवध के एक मशहूर कस्बे में पैदा हुई. यह कस्बा जिला बाराबंकी (अब जिला फैजाबाद) में रुदौली के नाम से मशहूर है. इस नाम की वजह दो बताई जाती हंै. एक तो ये कि इसे 1224 ई. में राजा रुदमल ने आबाद किया था और अपने नाम की मुनासबत से इसका नाम रखा था. दूसरी मुख्तलिफ तशरीह ये है कि इसका असली नाम रुदेवली था. यह 1182 ई. में आबाद हुआ. कुछ बुजुर्गों ने यहां आकर दरस तदरीस का सिलसिला शुरू किया था. रुदेवली से बिगड़कर इसका नाम रुदौली हो गया. बहरहाल अब तो ये रुदौली ही के नाम से जाना जाता है, और परहेजगार मुसलमान मियां मखदूम साहब के मजार के वाके होने की वजह से इसको रुदौली शरीफ के नाम से याद करते हैं. रूदौली लखनऊ और फैजाबाद के दरमयान बसा है. शायद इसकी स्थिति समझने में ज्यादा आसानी हो अगर मैं कहूं कि फैजाबाद से नजदीक है और लोग साइकिल पर अयोध्या पहुंच जाया करते हैं.
कस्बाती तहजीब का अपना ही रंग होता है. इसका रंगरूप गांव और शहर की तहजीब से इम्तेजाज से एक खुसूसी रंग इख्तेयार किए होता है. अवध में और भी कस्बे हैं, कुछ बड़े कुछ छोटे. लेकिन रुदौली की अपनी खुसूसियत है. ज्यादातर आबादी मुसलमान जमीनदारों और ताल्लुकदारों पर या उन पेशावरों पर मुश्तमिल थी, जिनकी खिदमात उन रऊसा की जिंदगी की सहूलतों के लिए जरूरी थीं. मसलन हज्जाम, मीरासी, हलवाई, घोसी वगैरह. मेरे बचपन में गैर मुसलिम तबके की आबादी मुख्तसर थी. उसमें से ज्यादातर का दुकानदारी या महाजनी पेशा था.
अवध में लड्डू संडीले के मशहूर थे और रुदौली के. और ये लड्डू तकरीबात के वक्त सेर-सेर और आध-आध सेर के वजन के बनते थे. सोचिए एक लड्डू एक सेर का. इन बातों पर ही शान-ओ-शौकत का इन्हिसार था. फलां ने अपने बेटे की बिस्मिल्लाह पर या अपनी बेटी की रोजाकुशाई पर एक सेर का लड्डू बांटा. रुदौली की एक और मिठाई थी इंदरसे की गोलियां.
रूदौली अपने मजारों, दरगाहों, मेले और उर्स के लिए भी शोहरत रखती थी. हमारे बचपन में और गालिबन आज भी मखदूम साहब का उर्स बहुत अहमियत रखता है. इसमें हिंदू और मुसलमान बराबर के शरीक होते हैं. उर्स के अलावा दूसरा मेला जो हम लोगों के लिए बेहद अहमियत रखता था वो बारावफात का चिरागदान था. मोहल्ला पूरा खां, मोहल्ला सूफियाना. जहां की ज्यादातर आबादी शिया जमीनदारों की थी. यहां चौधरी इरशाद हुसैन का बनवाया हुआ इमामबाड़ा मशहूर है. एक और मेला जिसकी हमारे बचपन में बहुत अहमियत थी सोहबत का बाग कहलाता था. एक मेला शेख सलाहुद्दीन सुहरावर्दी का मोहल्ला सुफियाना में दस शव्वाल को होता था. ईद-बकरीद शबे बरात सब फराखदिली से मनाए जाते थे. हमको अपने बचपन में मोहर्रम और दीवाली भी ईद बकरीद ही की तरह दिलचस्प होती थी.
रुदौली की तहजीब, रस्मो-रिवाज़, नशिस्तो-बरख्वास्त के तौर तरीकों पर लखनऊ और फैजाबाद की छाप थी. रुदौली की जबान अवधी कहलाई. अब तालीम के साथ-साथ रुदौलीवाले लखनऊ की खड़ी जबान अपनाने लगे हैं. रूदौली को ध्यान में रखकर एक शायर ने कुछ यंू इजहार किया है-
ये रूदौली ये मकामे फिक्र ये खानाखराब
सर-बरहना,चाकदामां, जैसे मुफलिस का शबाब
जैसे जैबे ताके निसयां, करमखुरदा एक किताब
इंकलाब-ओ-इंकलाब-ओ-इंकलाब-ओ-इंकलाब
आज भी इस खाना-ए-वीरां में होता है गुजर
डूबते हैं चांद तारे, मुस्कुराती है सहर