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वादों से जुदा हकीकत

4_DSC04690-Lगांधीनगर के महात्मा मंदिर परिसर में प्रवासी सम्मेलन से लेकर वाइब्रेंट गुजरात के भव्य समारोह में घोषणाएं तो ढेरों हुईं, लेकिन इस सवाल का जवाब वक्त ही देगा कि इनमें से कितनी घोषणाएं जमीन पर उतर पाएंगी. इनमें निवेश कितना आएगा, यह सवाल जस का तस बना हुआ है.

वैसे तो पिछले कई सालों से प्रवासी भारतीय दिवस का आयोजन किया जाता रहा है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का प्रवासियों के बीच अलग ही आकर्षण है. यह बात उनको भी भली-भांति मालूम है. इसीलिए उन्होंने महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका से भारत वापसी के 100 साल पूरे होने के मौके पर  अपने गृह राज्य गुजरात में प्रवासी दिवस के आयोजन का निर्णय लिया. सात से नौ जनवरी के बीच गांधीनगर के महात्मा मंदिर परिसर में तीन दिवसीय प्रवासी सम्मेलन का आयोजन किया गया. इसके बाद इसी परिसर में 11 से 13 जनवरी के बीच वाइब्रेंट गुजरात का आयोजन भी हुआ.

यह वही मंदिर परिसर है जिसे नरेन्द्र मोदी ने कभी अपनी मार्केटिंग के लिए 250 करोड़ रुपये से भी अधिक खर्चकर बनवाया था, यह बात और है कि विश्व की अनमोल धरोहर साबरमती आश्रम को अपने मुख्यमंत्रित्व के 12 साल में वह मात्र 4.64 लाख रुपये ही आवंटित कर पाए. दक्षिण अफ्रीका से आने के बाद महात्मा गांधी ने जिस कोचरब आश्रम से सत्याग्रह का आह्वान कर सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की थी, उस आश्रम को भी रखरखाव के लिए प्रतिवर्ष मात्र सवा लाख रुपये का अनुदान राज्य से मिलता है.

गुजरात में निवेश आकर्षित करने के लिए मोदी द्वारा शुरू किया गया ‘वाइब्रेंट गुजरात’ अब वैश्विक निवेशक सम्मेलन का रूप ले चुका है. यही कारण है कि इसमें सभी अहम केंद्रीय मंत्रियों का तो जमावड़ा था ही, साथ ही इसमें देश-विदेश के जाने-माने उद्योगपतियों के अलावा अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन केरी, संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून, विश्व बैंक के अध्यक्ष जिम योंग किम और भूटान के प्रधानमंत्री भी शामिल हुए. सभी ने मुक्त कंठ से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का गुणगान किया और विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए ‘मेक इन इंडिया और ‘मेड इन इंडिया’ के नारे भी लगाए गए, इस पूरे तामझाम के बावजूद वास्तविक निवेश को लेकर दुविधा जस की तस बनी हुई है.

दरअसल इस बात को लेकर बार-बार विवाद उठता रहा है कि ऐसे सम्मेलनों और इनमें की जानेवाली घोषणाओं के बाद असल में कितना निवेश आता है. पिछले वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन में भी आंकड़ों को लेकर विवाद उठा था, इस विवाद को लेकर स्वयं प्रधानमंत्री भी उलझन में पड़ गए थे. शायद इसी विवाद के चलते प्रधानमंत्री को इस सम्मेलन के बारे में कहना पड़े कि ‘लोग मुझे कहते हैं कि मैं ‘हाइप क्रिएट’ करता हूं, लेकिन मैं ‘हाइप’ न करूं तो लोग काम न करें.’ आंकड़ों के विवाद से खुद को और सरकार को दूर रखने की गरज से ही राज्य के वित्त मंत्री सौरभ पटेल को भी एक प्रेस सम्मेलन के दौरान यह कहना पड़ा कि इस बार वाइब्रेंट के आंकड़े जारी नहीं किए जाएंगे, बल्कि ‘एक्सप्रेशन ऑफ इंट्रेस्ट’ की घोषणा की जाएगी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, और इस सम्मेलन में 21,000 से अधिक निवेश करारों के साथ 25 लाख करोड़ रुपये के निवेश के आंकड़े घोषित किए गए.

साल 1997-98 में गुजरात राज्य पर कर्ज 17,900 करोड़ रुपये था, जो भाजपा के शासन में बढ़कर साल 2013-14 में 1,69,538 करोड़ रुपये हो गया

साल 2003 से ही हर दो साल बाद वाइब्रेंट गुजरात का आयोजन होता रहा है. अब तक कुल सात वाइब्रेंट महोत्सव का आयोजन हो चुका है. ऐसे में स्थिति को परखने के लिए यह जरूरी है कि आंकड़ों की बात एक बार कर ली जाए और यह देखने की कोशिश की जाए कि अब तक के आयोजनों का नतीजा क्या रहा है. अर्थशास्त्र के प्राध्यापक हेमंत शाह इस सम्मेलन को भव्य मेले के रूप में देखते हैं. उनका कहना है, ‘साल 2003 से साल 2011 के दौरान हुए सम्मेलनों में राज्य सरकार ने 39,60,146 करोड़ रुपये के करार किए थे, लेकिन निवेश आया सिर्फ 3,10,985 करोड़ रुपये, जो अनुमानों का सिर्फ 7.85 फीसदी ही है.

गुजरात के उद्योग कमिश्नर की वेबसाइट का हवाला देते हुए शाह कहते हैं कि एक जनवरी 1983 से 31 अक्टूबर 2014 तक 2,61,411 करोड़ रुपये के 6135 सहमति पत्रों पर अमल हुआ और 8,62,166 करोड़ रुपये की 3584 परियोजनाएं क्रियान्वयन की दिशा में हैं यानी पिछले 30 वर्षों में गुजरात राज्य में 11,23,577 करोड़ रुपये निवेश हुआ है. वह कहते हैं, ‘जब वाइब्रेंट के बिना इतना निवेश आया है, तो ऐसे में वाइब्रेंट सम्मेलन का महत्व क्या हैै?’

प्राप्त जानकारी के मुताबिक, गुजरात वाइब्रेंट 2015 के आयोजन पर 350 करोड़ रुपए की राशि खर्च की गई. गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष अर्जुन मोढवाडिया भाजपा पर आरोप लगाते हैं कि अपनी प्रसिद्धि के लिए सरकार करोड़ों रुपये फूंक रही है, वाइब्रेंट गुजरात में अब तक कितना खर्च हुआ, इसके आंकड़े तो राज्य की सरकार अभी तक सामने नहीं ला पाई. सूचना अधिकार के तहत भी वाइब्रेंट गुजरात के आंकड़ों की जानकारी नहीं दी जाती. कांग्रेस का दावा है कि अब तक के वाइब्रेंट सम्मेलनों में भाजपा सरकार ने 65 लाख करोड़ रुपये के निवेश के जो दावे किए हैं, उनमें से 3.6 लाख करोड़ रुपये की परियोजनाएं ही क्रियान्वयन की दिशा में हैं. अभी तक इनकी वजह से केवल 2.68 लाख लोगों को ही रोजगार मिल सका है. कांग्रेस का कहना है कि इस दौरान राज्य पर कर्ज कई गुना बढ़ गया है. साल 1997-98 में गुजरात पर कर्ज 17,900 करोड़ रुपये था, जो भाजपा के शासन में बढ़कर साल 2013-14 में 1,69,538 करोड़ रुपये हो गया.

डिपार्टमेंट ऑफ इंड्रस्ट्रियल पॉलिसी एंड प्रमोशन (डीआईपीपी) की रिपोर्ट के मुताबिक, अप्रैल 2000 से मार्च 2013 के बीच भारत में 9.1 लाख करोड़ रुपये का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आया. जहां तक गुजरात का सवाल है, यहां इस दौरान महज 39,000 करोड़ रुपये का एफडीआई आया. यहां विदेशी निवेश में ही नहीं, बल्कि घरेलू निवेश में भी कमी आई है. साल 2011 के वाइब्रेंट समिट के 544 सहमति पत्रों में से साल 2013 में मात्र 354 पर सहमति बन पाई है और प्रस्तावित निवेश 1.42 लाख करोड़ रुपये से घटकर 2013 में 94,259 करोड़ रुपये रह गया है. कांग्रेस विधानदल की महिला प्रवक्ता तेजश्री बेन पटेल का कहना है कि पिछले वर्ष ही विधानसभा में उन्होंने छह वाइब्रेंट सम्मेलनों में हुए निवेश करारों का आंकड़ा मांगा था और उन्हें जो आंकड़े मिले हैं, वे बेहद चौंकानेवाले हैं. शुरुआती छह वाइब्रेंट सम्मेलनों में कुल 30,115 निवेश करार हुए हैं, लेकिन अमल में लाई गई योजनाएं मात्र 1,512 ही हैं. ऐसे में ऐसी आशंका बढ़ती जा रही है कि यह निवेशक सम्मेलन जनता के करोड़ों रुपयों के खर्च से आयोजित होनेवाला भव्य मेला मात्र बनकर ही न रह जाए.

बाबरी मस्जिद और मेरे मित्र की उदासी!

babriअगर मुझसे पूछा जाए तो मैं यही कहूंगा कि हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद देश की राजनीति को सबसे गहरे तक प्रभावित करनेवाली कोई घटना अगर हुई तो वह थी बाबरी मस्जिद को ढहाया जाना. लेकिन वह घटना केवल राजनीतिक भी नहीं थी. भले ही उसको अंजाम देने का मकसद राजनीतिक लाभ हो, लेकिन उसने आम जनमानस को जिस कदर प्रभावित किया वह किसी से छिपा नहीं है. मेरे जीवन पर भी उस दिन की अहम छाप है.

मैं उस वक्त बेतिया के सेंट मैरी मिडिल स्कूल में पढ़ता था. मैं यूकेजी का विद्यार्थी था और यह 7 दिसंबर 1992 की बात है, यानी बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के अगले दिन की. उस वक्त कतई अंदाजा नहीं था कि यह घटना देश को किस हद तक प्रभावित कर सकती है. मैं तो बस इतना जानता था कि हिंदुओं ने एक मस्जिद तोड़ दी है, वह मस्जिद जो हमारा पूजा स्थल है. सच पूछिए तो उस वक्त तक इतनी समझ भी कहां थी कि हिंदू धर्म और आज के उग्र हिंदुुत्व में कोई फर्क कर सकूं.

मैं एक नन्हा बालक था और संघ परिवार, विश्व हिंदू परिषद के नाम और इनकी लीलाओं से पूरी तरह अपरिचित था. मेरे लिए राजनीतिक दल का मतलब केवल उसका चुनाव चिह्न होता था. मिसाल के तौर पर हाथ का पंजा (कांग्रेस), चक्र (तत्कालीन जनता दल)  आदि. उस दौर में चुनाव प्रचार की रणनीतियां भी अलग हुआ करती थीं.

चुनाव के वक्त पार्टी कार्यालयों से स्टीकर, बैज वगैरह मांगा करते थे. हाथ छाप का स्टीकर बटन के साइज का आता था जिसको हम शर्ट कीबटन पर चिपका लिया करते थे. चक्र छाप का बैज शर्ट की जेब पर फंसा लेते और एक ही बार में हाथ छाप और चक्र छाप दोनों का प्रचार कर देते थे.

‘मुझे नहीं मालूम कि उसे मस्जिद का अर्थ पता था या नहीं लेकिन वह हड़बड़ाता हुआ लगभग सफाई देने लगा कि उसने मस्जिद नहीं तोड़ी है’

तो बाबरी मस्जिद की शहादत को लेकर घटे पूरे घटनाक्रम में मेरा नन्हा मन केवल यही बात समझ पाया था कि वह मस्जिद हिंदुओं ने गिराई है. कहना न होगा कि उतना छोटा होने पर भी मुझे यह बात बुरी लगी थी. शायद इसलिए क्योंकि अपने आसपास मैं दिन-रात यही चर्चा होते देखता था. स्कूल में मेरा सबसे अच्छा दोस्त था शैलेश. 7 दिसंबर को जब मैं स्कूल पहुंचा तो शैलेश मुझे देखकर मुस्कराया. हम एक ही बेंच पर बैठा करते थे. लेकिन मेरे मन में तो उस दिन कुछ और ही चल रहा था. मैंने उसकी आंखों में आंखे डालकर कहा कि अब हम दोस्त नहीं हैं और वह मेरे साथ न बैठे. शैलेश को सवाल करना ही था सो उसने किया. मैंने जवाब में कहा कि तुम लोगों ने हमारी मस्जिद गिरा दी है. आज से हम बात नहीं करेंगे.

पता नहीं मेरी बात उसे कितनी समझ में आई, लेकिन उसका चेहरा एकदम उतर गया. मुझे नहीं मालूम कि उसे मस्जिद का अर्थ भी पता था या नहीं लेकिन वह हड़बड़ाता हुआ लगभग सफाई देने लगा कि उसने मस्जिद नहीं तोड़ी है, कि वह मुझे बहुत प्यार करता है वगैरह… वगैरह.

आज जब मैं उस घटना को याद करता हूं तो मुझे सबकुछ बहुत तकलीफदेह मालूम होता है. अगर कोई टाइम मशीन होती तो मैं अतीत में जाकर उन घटनाओं को दुरुस्त करता, जिनकी वजह से मुझे और शैलेश को इस तरह की तकलीफ पहुंची.

हालांकि कुछ दिन बाद सबकुछ दुरुस्त हो गया और हम फिर से पहले जैसे दोस्त बन गए. लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. मेरा स्कूल बदल गया और फिर हम दोबारा कभी नहीं मिल पाए. लेकिन आज भी कभी-कभी कुछ राजनीतिक बयानों को सुनकर मुझे अपने बचपन के वे दिन याद आते हैं और साथ ही याद आती है शैलेश की वह उदासी.

मेरी यही कामना है कि कभी किसी पर ऐसा कुछ न गुजरे कि उसे इस कदर उदास होना पड़े और ऐसा तो कभी न हो कि कोई दोस्त किसी दूसरे दोस्त की उदासी की वजह बने. क्योंकि जब दोस्त उदास होता है, तो ईश्वर की आंखों से भी दो बूंद आंसू छलक ही जाते हैं.

जेएलएफ: बाजार का साहित्य उत्सव

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल

जयपुर साहित्य उत्सव, जो कि अब जेएलएफ नाम से मशहूर है, दुनिया का सबसे बड़ा साहित्योत्व है जिसमें प्रवेश निशुल्क है. पांच दिन तक चलनेवाले इस जलसे में मामूली औपचारिकता के साथ कोई भी व्यक्ति शामिल हो सकता है. जेएलएफ खुद भी अपनी ब्रांडिंग इसी पहचान के साथ करता है.

देश भर के साहित्यिक एवं अकादमिक मंचों से होनेवाली संगोष्ठी, परिचर्चा और विमर्शों में यह चिंता जताई जाती रही है कि साहित्य और कला के प्रति लोगों की अभिरुचि तेजी से खत्म हो रही है, जेएलएफ इस चिंता को पूरी तरह ध्वस्त करता है. मसलन साल 2014 में शामिल लोगों की जो संख्या 2,20,000 थी, वह इस साल बढ़कर 2,55,000 हो गई. किसी भी साहित्यिक उत्सव में अगर साहित्य प्रेमियों की संख्या ढाई लाख से ज्यादा हो जाती है, इसका मतलब है कि इस बात के लिए आश्वस्त हुआ जा सकता है कि बहुत जल्द ही देश में कई छोटे-छोटे साहित्य गणराज्य स्थापित हो जाएंगे. फिर इस चिंता से तो मुक्ति मिल जाएगी कि देश में साहित्यिक अभिरुचि तेजी से खत्म हो रही है.

ऐसे सपाट निष्कर्ष तक पहुंचने के पहले इस उत्सव को लेकर दूसरे कई जरूरी संदर्भ हैं, जो कि संभव है परिचर्चा सत्र का हिस्सा न होने के कारण शामिल नहीं किए जाते. वैसे भी इस उत्सव को लेकर जो भी कवरेज होती रही है, वह चुस्त मीडिया मैनेजमेंट का बेहतरीन हिस्सा है. जिसे हम दुनिया का सबसे बड़ा प्रवेश निशुल्क साहित्यिक आयोजन कह रहे हैं, वह क्या सिर्फ साहित्योत्सव है? दूसरी बात सिर्फ परिचर्चा देखने-सुनने के लिए किस साहित्यिक जलसे में फीस लगाई जाती है? ये दो जरूरी सवाल हैं जिससे कि ये पूरा साहित्योत्सव नए सवालों की तरफ ले जाता है. मसलन फ्रंट लॉन में होनेवाली सारी परिचर्चा शुरू होने से पहले, जिनमें कि नोबल पुरस्कार विजेता वीएस नायपॉल तक की बातचीत शामिल थी, ये लाइन बार-बार दुहराई गई- इस कार्यक्रम के प्रायोजक हैं रजनीगंधा और उसके बाद अपील कि कृपया धूम्रपान या किसी भी तरह के नशे का प्रयोग न करें. दो कार्यक्रमों के बीच के अंतराल में रजनीगंधा पान मसाला का विज्ञापन दैत्याकार एलइडी स्क्रीन पर भारी-भरकम आवाज के साथ प्रसारित होता रहा.

ऐसे अंतर्विरोधों की श्रृंखला पूरे साहित्योत्सव में मौजूद रही. जो साहित्यिक दुनिया में गैरजरूरी शोर के शामिल किए जाने के सवाल की तरफ ले जाती है. हम बाजार के उसी शोर के बीच होते हैं, जिससे राहत पाने के लिए यहां आते हैं. दरअसल  जेएलएफ जिन थोड़े साहित्यिक अभिरुचि रखनेवाले लोगों के लिए साहित्योत्सव है, वह पीआर प्रैक्टिसनर्स के लिए ‘स्पॉन्सर्स डायरेक्टरी’ है. हरेक कार्यक्रम प्रायोजित होता है, वक्ता और प्रतिभागी को दिए जानेवाले पहचान पत्र से लेकर मंच और पूरा परिसर ब्रॉन्ड और उनके नाम से अटे पड़े होते हैं. पांच दिनों तक डिग्गी पैलेस एक नए सिरे से रियल एस्टेट स्पेस में तब्दील हो जाता है. ऐसा होने से मंच से जो चिंता व्यक्त की जाती है, उन्हीं समस्याओं से प्रतिभागी जूझ रहे होते हैं.

प्रत्येक परिचर्चा स्थल पर दर्जनों फूड ज्वाइंट्स मिल जाएंगे, जहां कीमत डॉलर के हिसाब से तय होती है. उसके अनुपात में आपको वॉशरूम नहीं मिलेंगे और न ही बुकशॉप क्योंकि इसे किसी ने प्रायोजित नहीं किया. पूरे साहित्योत्सव में प्रवेश द्वार के बाद सबसे लंबी कतार स्त्री-पुरुष वॉशरूम के आगे दिखेगी. ये नजारा देश के किसी भी सामुदायिक शौचालय के आगे लगनेवाली लाइन से अलग नहीं होता.

प्रायोजित अखबारों और न्यूज चैनलों में इस उत्सव को लेकर परिचर्चा सत्र से फिल्टर करके वे बातें तो फिर भी सामने आ जाती हैं और उनके लिए बेहद उपयोगी भी होतीं है, जो कि घर बैठे इसका रसास्वादन करना चाहते हैं. जो वहां जाकर पूरे कार्यक्रम को सुनना-समझना चाहते हैं, उन्हें फिर उन्हीं सवालों से टकराना होता है, जिसके प्रतिरोध में साहित्य लिखे जाते हैं. प्रायोजकों के विज्ञापनों की बमबारी जबकि सत्र में कई बार कुर्सियों के खाली रह जाने का विरोधाभास ऐसा है जहां से साहित्योत्सव एक नया अर्थ ग्रहण करता है.

ये अर्थ इस रूप में है कि जेएलएफ शामिल होनेवाले प्रतिभागियों को एक स्टेट्स देता है कि वो साहित्यिक बहसों में दिलचस्पी रखते हैं. इस पहचान पत्र के साथ भीतर वर्ल्ड ट्रेड फेयर, डिजनीलैंड जैसे किसी भी कार्यक्रम का आनंद ले सकते हैं. जहां जितनी तत्परता से धूम्रपान निषेध के जनहित में जारी लगातार विज्ञापन प्रसारित किए जाते हैं, उतने ही मनोयोग से नशे की सारी सामग्री डॉलर कीमत पर बेची जाती है. इस दौरान ये पूरा कार्यक्रम एक ऐसा द्वीप हो जाता है जहां साहित्य का झंडा दूर से लहराता दिखाई तो देता है, लेकिन वह न तो जयपुर का हिस्सा हुआ करता है, न ही साहित्य का, जिनके साहित्यिक कृतियों में होने की अनिवार्यता रचनाकार के यहां तक आने की पहचान देती है. इसे फैन्स कॉर्निवल कह सकते हैं जहां लेखक और फैन्स (पाठक) अपने लिखे और पढ़े की अंतर्वस्तु से एक हद तक मुक्त हो जाते हैं. ये नैतिक दवाब से मुक्त हो जाने का उत्सव है.

बिखरे हुए जनआंदोलनों को एकजुट करने की कोशिश

फोटोः अंबरीश कुमार
फोटोः अंबरीश कुमार
फोटोः अंबरीश कुमार

सोलह मार्च को दिल्ली के जंतर-मंतर पर चल रहे एक कार्यक्रम के मंच के ठीक नीचे करीब सत्तर साल की एक आदिवासी महिला भरी दोपहरी में गुड़ खाकर पानी पी रही थी और उसके साथ आई दूसरी महिला उससे एक मोटी रोटी खाने का आग्रह कर रही थी. यह बड़ा ही मार्मिक दृश्य था. जमीन बचाने के संघर्ष को ताकत देने के लिए यह महिला अपने जत्थे के साथ झारखंड से यहां पहुंची थी. मौका था ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम की जन संसद का, जिसमें करीब बारह राज्यों के किसान मजदूर और आदिवासी पहुंचे थे. उसी समय मंच पर वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर जन संसद को संबोधित करते हुए बोल रहे थे कि उनकी जमीन को उनकी मर्जी के बगैर कोई नहीं ले सकता. यह उनका लोकतांत्रिक हक है. उन्होंने कहा कि इस हक के लिए जो जरूरी लड़ाई लड़ी जानेवाली है, वे हर स्तर पर उसका साथ देंगे. इस मौके पर भाकपा-माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने इस जन संसद और इसके पीछे के राजनीतिक माहौल पर भी रौशनी डाली. उन्होंने इस मंच की जरूरत, इसके साथ खड़ी ताकतों के बारे में बताया और उन हालात पर भी रौशनी डाली जिसके चलते यह एकजुटता हुई. उन्होंने कहा कि मोदी सरकार ने लोगों से अच्छे दिन का वादा किया था, पर अच्छे दिन सिर्फ काॅरपोरेट और अमीरों के लिए आए हैं.

भट्टाचार्य के मुताबिक जब से नई सरकार बनी है, सामाजिक सुरक्षा के मुद्दे पर बेहद संवेदनहीन रवैया देखने को मिल रही है. जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों पर लगातार हमले किए जा रहे हैं. सरकार का भूमि अधिग्रहण अध्यादेश किसानों की जमीन हड़पने वाला अध्यादेश है. दीपांकर भट्टाचार्य के शब्दों में यह दूसरी आजादी की लड़ाई है. जन आंदोलनों की जो व्यापक एकता बन रही है, उसके जरिए यह लड़ाई निश्चित तौर पर जीती जाएगी. समाजवादी समागम का प्रतिनिधित्व करते हुए मध्य प्रदेश के पूर्व विधायक व किसान संघर्ष समिति के अध्यक्ष सुनीलम ने भी भूमि पर किसानों-आदिवासियों के हक और सरकारी जमीन के बंटवारे के लिए पूरे देश में एक बड़े आंदोलन की जरूरत पर जोर दिया. सुनीलम ने इस अवसर पर अपनी बात रखते हुए कहा कि काॅरपोरेट ताकतों की मददगार पार्टियां इस देश की जनता का भला नहीं कर सकतीं, यह साबित हो चुका है. जमीनों पर काॅरपोरेट कब्जे की राजनीति के खिलाफ सरकारी जमीन पर भूमिहीन-मेहनतकश किसानों और खेत मजदूरों के कब्जे का आंदोलन तेज करना ही होगा. दूसरी तरफ झारखंड की प्रसिद्ध समाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला ने कहा कि जल, जंगल, जमीन के साथ-साथ राजसत्ता पर भी जनता का अधिकार है, जिसे हासिल करना अभी बाकी है.

जन संसद में उपस्थित लोगों की संख्या दस हजार से ज्यादा रही. ये लोग देश भर के अलग-अलग हिस्सों से यहां पहुंचे थे. पूरी भीड़ बेहद अनुशासित तरीके से एक लाइन में चलती हुई नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से यहां तक पहुंची थी. नारा लग रहा था ‘जन-जन की यह आवाज, नहीं चलेगा कंपनी राज.’

यह पहल कई मायनों में बहुत अलग है क्योंकि इसमें तीन तरह की धाराओं का समावेश हो रहा है. भाकपा माले और उनसे जुड़े वामपंथी, धुर वामपंथी संगठनों के साथ देश के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे जन आंदोलनों के प्रतिनिधि भी इसका हिस्सा बने. समाजवादी तबका भी इससे जुड़ा. दक्षिण भारत में परमाणु ऊर्जा प्लांट के खिलाफ चल रहे आंदोलन से लेकर ओडिशा, झारखंड और असम जैसे कई राज्यों में प्राकृतिक संसाधनों को बचानेवाले आंदोलनकारी समूह भी इसमें शामिल थे. पर इसकी बुनियाद में समाजवादी धारा के कुछ महत्वपूर्ण संगठन थे जो मुंबई में पिछले वर्ष 10-11 अगस्त में हुई समाजवादी समागम के बाद खुद को एक नई भूमिका में स्थापित करने की कोशिश में लगे हुए हैं. इस तबके का प्रतिनिधित्व किसान नेता डाॅ. सुनीलम और समाजवादी चिंतक विजय प्रताप जैसे नेता कर रहे थे. इनके साथ भाकपा माले के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य, कविता कृष्णन आदि की भी इस पहल में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही. प्रयास यह है कि बहुत से जनहित के मुद्दों को आधार बनाकर समाजवादियों, वामपंथियों, गांधीवादियों से लेकर अंबेडकरवादियों तक को एक साथ एक मंच पर लाया जाय. उनके गठजोड़ से देश में एक नया और व्यापक मंच तैयार किया जाय. इससे जन आंदोलनों की दम तोड़ रही संस्कृति एक बार फिर से बहाल हो सके और एक बड़े आंदोलन की जमीन तैयार हो. इस लिहाज से संसद के सामने सोलह मार्च को संपन्न हुई जन संसद बेहद कामयाब रही. जन संसद के एेलान पर 23 मार्च को शहीद भगत सिंह की शहादत के मौके पर भूमि अध्यादेश के खिलाफ कई प्रदेशों में इस मंच ने अपनी ताकत दिखाते हुए प्रदर्शन भी किया. अखिल भारतीय लोक मंच (आॅल इंडिया पीपुल्स फोरम- एआईपीएफ) के दो दिवसीय स्थापना सम्मेलन के बाद सोमवार को जंतर मंतर पर जन संसद में सौ दिन के संघर्ष का एेलान किया गया था. एआईपीएफ ने भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहादत दिवस 23 मार्च से 30 जून तक पूरे देश में भूमि अधिकार-श्रम अधिकार अभियान चलाने का निर्णय लिया है.

ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम का मानना है कि भूमि अधिग्रहण और श्रम कानूनों में बदलाव को देखते हुए मौजूदा सरकार का रवैया सामाजिक सुरक्षा के मुद्दे पर बेहद संवेदनहीन है और वह लोकतांत्रिक अधिकारों पर लगातार हमला कर रही है

दरअसल एआईपीएफ बनाने की ठोस पहल पिछले वर्ष ग्यारह अक्टूबर को दिल्ली में हुई बैठक में हुई थी जिसमें देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे जन आंदोलनों के साथ समाजवादी और वामपंथी धारा के कार्यकर्ता शामिल हुए. दिल्ली के एनडी तिवारी भवन में दिन भर चली बैठक के बाद राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा राजनीतिक मोर्चा बनाने का फैसला हुआ जिसमें सभी धर्म निरपेक्ष ताकतों को शामिल होने की अपील भी की गई. यह पहल वाम धारा के कई संगठनों के साथ भाकपा माले, समाजवादी समागम और विभिन्न जन आंदोलनों की तरफ से हुई थी. बैठक में इंकलाबी नौजवान सभा, क्रांतिकारी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, पंजाब से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, जन संस्कृति मंच, एटमी ऊर्जा विरोधी आंदोलन, आइसा, रिहाई मंच, खेत मजदूर सभा, सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी, समाजवादी समागम, एआईसीसीटीयू जैसे कई जन संगठनों के साथ देश के महत्वपूर्ण चिंतक और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता शामिल हुए. बैठक में शामिल कुछ महत्वपूर्ण नामों में  रामजी राय, मजदूर नेता विद्या भूषण, राजा राम, गौतम नवलखा, सुमित चक्रवर्ती, विनायक सेन, एंडी पंचोली, विजय प्रताप आदि रहे.  उसके बाद इस दिशा में कई छोटी-बड़ी बैठकों के बाद 14-15 मार्च को इसका स्थापना सम्मेलन हुआ.

दिल्ली के बदले हुए राजनीतिक माहौल में झंडेवालान स्थित अंबेडकर भवन प्रांगन में शुरू हुए ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम (एआईपीएफ) के स्थापना सम्मेलन ने काॅरपोरेट घरानों की लूट के खिलाफ देशभर में प्रतिरोध का साझा और व्यापक मंच बनाने की दिशा में नई उम्मीद भी जगाई. स्थापना सम्मेलन में करीब पंद्रह राज्यों के कार्यकर्ता शामिल हुए जिसमें नौजवानों और महिलाओं की संख्या ज्यादा थी. सम्मेलन में आइसा के नौजवानों की सहभागिता और उनका उत्साह नारों, पोस्टरों और क्रांतिकारी गीतों के रूप में झलक रहा था. दोपहर बाद तक देश के करीब पंद्रह राज्यों से आए प्रतिनिधियों की संख्या पांच सौ से ऊपर जा चुकी थी. इनमें झारखंड, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, बिहार, मध्य प्रदेश, बंगाल, ओिडशा, असम, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे प्रदेश शामिल थे.

कॉरपोरेट की चांदी आदिवासियों की बर्बादी

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छत्तीसगढ़ में खनन कंपनियां धड़ल्ले से खनिज संपदाओं का दोहन कर रही हैं. इसकी वजह से प्रदेश की उपजाऊ भूमि बंजर होती जा रही है. भूमि का प्रदूषण भयावह स्तर पर फैल गया है. इसका यहां की प्राकृतिक संपदा और निवासियों, दोनों पर बुरा असर हो रहा है.

बुद्धराम कडाती बस्तर के किरांदुल में रहते हैं और पेशे से किसान हैं. जब तहलका उनके गांव पहुंचा तब वे गांव के तालाब में मछली पकड़ने में व्यस्त थे. बुद्धराम उन हजारों गरीब आदिवासियों में से एक हैं जिनकी उपजाऊ जमीन लौह अयस्क निकालने के कारण अब बंजर हो गई है. उनका कहना है कि गांव के लोगों के पास अब कोई विकल्प नहीं बचा है. भयंकर रूप से प्रदूषित सनकिरी नदी के पानी का प्रयोग वे लोग अपनी दैनिक जरूरतों के लिए करते हैं. हालांकि इस दूषित पानी के प्रयोग से होनेवाली स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से अच्छी तरह वाकिफ हैं. सालों से इस क्षेत्र में हो रहे खनन उद्योग के कारण नदी का पानी जहरीला हो चुका है.

नदी के पानी में लोहे (आयरन) की अधिक मात्रा के कारण पानी जहरीले लाल रंग में बदल गया है. बुद्धराम का कहना है कि इस गड़बड़ी के खिलाफ आवाज उठाना हमारे लिए आसान नहीं है. अगर हम कभी आवाज उठाते भी हैं तो खनन कंपनियां अपने सर्वे कराकर राज्य सरकार की तरफ से मुआवजे की घोषणा कर देती हैं. लेकिन मुआवजे की राशि मुश्किल से हम तक पहुंचती है. कडाती ने बताया कि अपनी जमीन के बदले मिले एक लाख के मुआवजे में से 50 हजार रुपये एजेंट को देने पड़े.

अवैध ढंग से हो रहे खनन कारोबार की वजह से सनकिनी नदी का पानी प्रदूषित हो गया है, इसके बारे में मीडिया में कोई खबर नहीं आती. दूसरी ओर राष्ट्रीय खनन विकास प्राधिकरण (एनएमडीसी) और इसकी सहयोगी एस्सार स्टील बड़ी मात्रा में लौह अयस्क का कचड़ा हर साल नदी में बहा देती हैं  जिसके कारण उपजाऊ भूमि बंजर जमीन में तब्दील हो गई है, इस पर अब तक कोई भी कड़ा सरकारी कदम नहीं उठाया गया है.

बस्तर खनिज संपदा की दृष्टि से सर्वाधिक संपन्न क्षेत्रों में से एक है. एनएमडीसी और केंद्र सरकार की लौह अयस्क खनन की दो योजनाएं बछेली और बेलाडीला में पिछले पांच दशक से चल रही हैं. एनएमडीसी छह खदानों से लौह अयस्क का खनन करती है और प्रतिवर्ष इससे 90 लाख मीट्रिक टन कचड़ा पैदा होता है.

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खनन से जमा होनेवाले कचड़े के निष्पादन के लिए एनएमडीसी के पास कोई निश्चित व्यवस्था नहीं है. इस कारण इनमें से ज्यादातर कचड़ा नदी और किसानों की उपजाऊ भूमि पर फेंक दिया जाता है. यह अलग बात है कि नियमों के अनुसार किसी भी कंपनी के पास ऐसा करने का अधिकार नहीं है. स्थानीय लोगों के द्वारा लगातार विरोध करने के बाद भी इस दिशा में कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है. खनन के बाद बहाए जाने वाले कूड़े की वजह से नदी के किनारे दलदल बन गए हैं. एक दुर्घटना में पांच बच्चे इसमें बुरी तरह फंस गए थे. बच्चे नदी किनारे खेल रहे थे जब नदी किनारे जमा कीचड़ में फंस गए. ऐसी ही किसी और दुर्घटना की स्थिति यहां निरंतर बनी हुई है. उस दुर्घटना में फंसे बच्चों में से एक बच्चे के पिता एनएमडीसी में ही ड्राइवर की नौकरी करते हैं.

खनन से जमा होने वाले कचड़े के निष्पादन के लिए एनएमडीसी के पास कोई व्यवस्था नहीं है. ज्यादातर कचड़ा नदी और उपजाऊ भूमि पर फेंक दिया जाता है 

Localsआदिवासियों की अनदेखी

एनएमडीसी में काम करनेवाले कर्मचारियों के लिए आधुनिक सुविधाओं से युक्त दो टाउनशिप बनाए गए हैं. दूसरी तरफ जिन आदिवासियों की जमीन पर यह टाउनशिप खड़ी की गई हैं, उनके हितों की पूरी तरह अनदेखी की गई. पूरे क्षेत्र में उनके लिए एक अच्छा स्कूल और अस्पताल तक नहीं है.  60 किमी के क्षेत्र में एकमात्र अंग्रेजी मीडियम स्कूल केंद्र सरकार की योजना के तहत है. एनएमडीसी टाउनशिप में स्थित इस स्कूल में आदिवासी बच्चों की संख्या नगण्य है. एनएमडीसी ने क्षेत्र में एक अस्पताल बनाया है लेकिन गंभीर बीमारी के इलाज के लिए मरीज को जगदलपुर अस्पताल भेज दिया जाता है, जो यहां से करीब 100 किमी दूर है.

स्थानीय सीपीआई नेता एनआरके पिल्लई खुद इसके गवाह हैं. सड़क हादसे में पिल्लई का बेटा बुरी तरह जख्मी हो गया था. इलाज के लिए उसे जगदलपुर ले जाना पड़ा. रुंधे गले से पिल्लई बताते हैं कि एनएमडीसी के अस्पताल में यदि बेहतर सुविधाएं होतीं तो उनके बेटे को गंभीर हालत में जगदलपुर नहीं जाना पड़ता. शायद उसे बचाया जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं हो सका. मुझे अपना बेटा खोना पड़ा. ऐसे लोगों की फेहरिश्त लंबी है जिन्हें इलाज की सुविधा के अभाव में अपने परिजनों को खोना पड़ा है.

सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सबिलिटी) के नाम पर एनएमडीसी और एस्सार ने क्षेत्र में बस स्टैंड और पार्क बनाए हैं. ये समय-समय पर खेल प्रतियोगिताएं आयोजित करती हैं. दंतेवाड़ा कलेक्ट्रेट में हमारे एक सूत्र ने बताया कि हर साल एनएमडीसी और एस्सार करोड़ों रुपये इन टूर्नामेंट के आयोजन के लिए देती हैं. लेकिन इन पैसों का इस्तेमाल कहां होता है, यह सोचने की बात है. जिले में एक कबड्डी टूर्नामेंट के आयोजन के लिए लाखों रुपये खर्च किए गए, जबकि हर रोज हजारों आदिवासी भूखे सोने के लिए अभिशप्त हैं. एनएमडीसी और एस्सार इलाके में आधारभूत संरचना के नाम पर बहुत कम पैसे खर्च करते हैं. कलेक्ट्रेट में हमारे दूसरे सूत्र ने बताया कि माओवादी क्षेत्र होने के कारण इलाका बेहद संवेदनशील है. इस कारण यहां विकास योजनाएं लागू नहीं हो पातीं.

नाम न छापने की शर्त पर हमारे सूत्र ने इलाके के पिछड़ेपन के बारे में बताया कि अगर क्षेत्र में विकास की कोई परियोजना शुरू भी होती है तो नक्सली हमलाकर उसे रोकने का प्रयास करते हैं. क्षेत्र में ऐसी किसी परियोजना की शुरुआत से पहले सरकार को कई बार सोचना पड़ता है.

सीपीआई नेता पिल्लई कहते हैं, ‘सीएसआर के नाम पर कलेक्ट्रेट को कंपनियों से मिलनेवाला पैसा अक्सर दूसरे कामों में खर्च कर दिया जाता है. स्थानीय लोगों ने इस पैसे के सही इस्तेमाल के लिए कई बार आवाज उठाई लेकिन अब तक कुछ नहीं हो सका. यह प्राथमिकता तय करने की बात है. शीर्ष पर बैठे लोगों को लगता है कि पार्क और बस स्टैंड, शिक्षा और स्वास्थ्य से ज्यादा बड़ी जरूरते हैं.

पर्यावरण पर बुरा प्रभाव

बड़े पैमाने पर होनेवाले खनन की वजह से पर्यावरण संतुलन भी डगमगाया है. दुग्ध उत्पादों का काम करनेवाले किसानों का कहना है कि पिछले एक दशक में दुधारू पशुओं की उम्र कम हुई है. पेशे से किसान जगजीवन का कहना है, ‘दो साल पहले मैंने जगदलपुर से गाय खरीदी थी लेकिन अब उसकी मौत हो गई. यह सब नदी के प्रदूषित पानी के कारण हुआ है. प्रदूषण का असर मछलियों के स्वास्थ्य और संख्या पर भी नजर आता है. हम अपने बचपन में हर रोज तकरीबन पांच किलो मछलियां पकड़कर बेचते थे लेकिन आज एक मछली भी नदी के पानी में नहीं मिलती.’

नौकरी के लिए भी रिश्वत

मुआवजे की राशि तो दूर की बात है, पिछले पांच दशक में एनएमडीसी ने जिन लोगों की जमीन ली, उन्हें नौकरी भी नहीं मिली. स्थानीय लोगों का कहना है कि 50 साल पहले जब उनकी जमीन ली जा रही थी, तब उनसे नौकरी का वादा किया गया था. लेकिन पहली बार 1985 में कुछ लोगों को नौकरी मिली जब दुबारा से एनएमडीसी ने बांध बनाने के लिए 600-700 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया. लेकिन तब भी महज चार लोगों को ही नौकरी दी गई. मंगल (परिवर्तित नाम) का कहना है, ‘मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है, 1985 से पहले किसी को भी एनएमडीसी में नौकरी नहीं मिली थी. 1985 में मैं उन चार लोगों में से एक था, जिसे मुआवजे के बदले नौकरी मिली.’

एनएमडीसी का दावा है कि केंद्रीय संस्थान होने के कारण उनके यहां आरक्षण की नीतियों का पूरी तरह पालन होता है. एनएमडीसी के एक अधिकारी के अनुसार देश-भर के अभ्यर्थी यहां नौकरी के लिए आवेदन करते हैं. चयन प्रक्रिया योग्यता के आधार पर होती है. भूमि अधिग्रहण बिल के मुताबिक स्थानीय लोगों को वरीयता देने की नीति यहां पर लागू नहीं है.

स्थानीय आदिवासियों के साथ अन्याय की कहानी यहीं खत्म नहीं होती. कुछ मजदूर यूनियन के अधिकारी नौकरी दिलाने के बदले एनएमडीसी के अधिकारियों से मिली-भगत कर लोगों से लाखों वसूलते हैं. मंगल के बेटे ने बातचीत में तहलका को बताया कि एनएमडीसी में मैकेनिकल असिस्टेंट की नौकरी के लिए मैंने एक लाख रुपये दिए. मैंने चार साल तक लगातार नौकरी की कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली. तभी मैं समझ गया कि इस नौकरी के बदले मुझे रिश्वत देनी ही होगी. इसलिए मुझे पैसों का इंतजाम करना पड़ा. (रिश्वत की यह रकम पांच से आठ लाख तक भी हो सकती है. ऊंचे पद के लिए अधिक पैसे देने पड़ते हैं).

स्थानीय लोग एनएमडीसी में नौकरी के लिए लालायित रहते हैं. इसकी वजह वेतन के साथ मिलनेवाली सुविधाएं हैं. एनएमडीसी में मकैनिकल असिस्टेंट को 40 हजार प्रतिमाह वेतन के साथ तमाम सुविधाएं और भत्ते मिलते हैं.

मजदूर यूनियन के नेता ‘नौकरी के बदले घूस’ के मुद्दे पर बात करने के लिए राजी नहीं हुए. हालांकि कुछ युवा जिन्हें नौकरी नहीं मिल सकी, इस मामले की जांच करवाने की मांग कर रहे हैं. उनका कहना है कि मजदूर यूनियन के लोग इस गड़बड़ी को क्यों स्वीकार करेंगे? अगर हम झूठ बोल रहे हैं तो इस मामले की सीबीआई जांच करवा लें, सच सामने आ जाएगा. अगर सच सामने आ गया तो बहुत से सफेदपोश सलाखों के पीछे होंगे.

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नौकरी के नाम पर मजाक

स्थानीय लोगों को नौकरी देने के नाम पर कंपनियां क्रूर मजाक कर रही हैं. एस्सार स्टील ने छत्तीसगढ़ के किरनदुल स्थित मदादी के 12 लोगों को महज एक महीने के लिए नौकरी पर रखा है. इन सभी लोगों को इसके बदले 5000 रुपये मिल रहे हैं. इन स्थानीय लोगों का काम अलग-अलग शिफ्ट में कंपनी की तरफ से लगाए गए पानी के पंप की देखभाल करना है. इनमें से हर आदमी को दूसरी बार ड्यूटी के लिए पूरे एक साल का इंतजार करना पड़ता है. एस्सार का इसके पीछे तर्क है कि एक-एक महीने के लिए 12 लोगों को रखकर वह ज्यादा से ज्यादा स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर दे रहे हैं.

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कानूनी तिकड़मों से जारी है शोषण प्रक्रिया

एनएमडीसी की छह लौह-अयस्क खदानों में से पांच की लीज इस साल दिसबंर में खत्म होनेवाली है. कंपनी सभी प्रभावित गांवों से सहमति लेने की पुरजोर कोशिश कर रही है, हालांकि दो गांवों ने पूरी तरह इनकार कर दिया है. पंचायत एक्ट (पेसा, पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल एरिया) 1996 के तहत किसी भी औद्योगिक गतिविधि, जिसमें खनन उद्योग भी शामिल है, के लिए ग्राम सभा से सहमति अनिवार्य है. हालांकि, लोकसभा में इसी साल पारित हुए दो बिल- खनिज और खनन संशोधन विधेयक और भूमि सुधार विधेयक पास हो चुका है, लिहाजा खनन कंपनियों के लिए आगे का रास्ता काफी आसान है.

बड़े पैमाने पर होने वाले खनन की वजह से पर्यावरण संतुलन डगमगाया है. दुग्ध उत्पादों का काम करने वालों का कहना है कि दुधारू पशुओं की उम्र घटी है

इस नए अधिनियम के तहत अब लीज 50 साल के लिए दी जाएगी और जिन्हें पहले से लीज मिली है, उनकी लीज आगामी 50 वर्षों के लिए बढ़ा दी जाएगी. इसी तरह भूमि अधिग्रहण विधेयक में भी जमीन लेने से पहले जमीन मालिक से सहमति की अनिवार्यता के नियम को हटा दिया गया है. राज्यसभा में पास हो जाने के बाद यह बिल आदिवासियों के हितों को अनदेखा करने का एक और माध्यम बन सकता है.

जिनके भरोसे लाखों-करोड़ों लोग विमान यात्रा करते हैं वे इन्हें उड़ाने के योग्य भी हैं?

aviation

एक सुबह तहलका के एक रिपोर्टर ने रोजगार मांगने के बहाने नागर विमानन मंत्रालय, भारत सरकार के निदेशक के निजी सचिव सुरेश कुमार लांबा से फोन पर संपर्क किया. बातचीत के संपादित अंश-

तहलका: हैलो, सर कैसे हैं?

सुरेश कुमार लांबा: बढ़िया. आप सुनाइए, कुछ नई ताजी?

तहलकाः कुछ नहीं, सर. आप बताइए.

लांबा: क्या हुआ जेट का? आपने परीक्षा दिया था…

तहलका: अभी तक रिजल्ट नहीं आया है. पिछली बार लिखित परीक्षा पास कर गया था लेकिन इंटरव्यू में रह गया था.

लांबा: अपनी िडटेल्स मुझे भेजना, अगर पहले परीक्षा दिया हुआ है तो कई बार उन पर विचार कर लेते हैं, किसी काे अप्रोच कर लेने पर.

तहलका: स्पाइस जेट या इंडिगो में कुछ जुगाड़ है क्या?

लांबा: इंडिगो में अप्लाई किया है क्या? एक क्वेश्चन बैंक आया है मेरे पास. किसी ने भेजा था. मुझे कहा था कि अगर तुम्हारा कोई बच्चा पढ़नेवाला हाे तो दे देना… भेजता हूं आपको. इसी में से आएगा.

तहलका: क्वेश्चन बैंक तो मेरे पास भी है, सर. नौकरी का कुछ करवाएं. लिखित परीक्षा पास करने के बाद कुछ जुगाड़ है क्या आपका?

लांबा: हां, जुगाड़ ताे है.

तहलका: कितने लगेंगे? एक अंदाजा तो बता दीजिए. कोई बोल रहा था 20 (लाख) तक हो जाएगा.

लांबा: मैं आपको बता दूंगा, पर काम चाहे जिससे भी करवाओ. हमसे करवाओ या किसी और से, पैसे काम के बाद ही देना, वर्ना फंस जाएंगे. रात में बता दूंगा, पहले आपको लिखित परीक्षा पास करना होगा.

तहलका: अच्छा सर, लाइसेंस कन्वर्जन भी कराना है एक दोस्त का. एक सप्ताह में हो जाएगा?

लांबा: हो जाएगा, लेकिन रेट बदल गए हैं. पहले बीस हजार में हो जाता था. अब नए बंदे आ गए हैं तो रेट बदल जाएंगे. समय-समय की बात है.

कुछ दिन बाद रोजगार के सिलसिले में दूसरे उम्मीदवार के बतौर तहलका ने लांबा से फिर संपर्क किया.

तहलका: हैलो सर.

लांबाः हां बोलिए क्या काम है?

तहलका: सर जरा रिक्रूटमेंट के बारे में बात करनी थी… इंडिगो के लिए…

लांबा: एयर इंडिया में भी वैकेंसी निकली है. उसमें अप्लाई करो.

तहलकाः ओके सर. लेकिन सर, आप भी जानते हैं न कि बिना पहचान के नहीं होता, आप अगर करवा सकते हैं तो बताइए.

लांबाः हां, हां. हो जाएगा. उसमें आप अप्लाई कर दो. अप्लाई तो हर जगह करना चाहिए. आपने इंडिगो का पेपर दिया था?

तहलका: दिया, था सर.

लांबाः पेपर तो सुना है आसान था. देखो, लिखित में तो कोई आपकी मदद नहीं कर सकता है. नतीजा आने पर ही कुछ हो सकता है.

तहलका: सर, आप भी जानते हैं कि कई बार ऐसा भी होता है कि लोगों का नाम सूची में नहीं होता है लेकिन फिर भी उनका चयन हो जाता है.

लांबा: हा, हा, हा…

तहलका: सर, कुछ करवा सकते हैं तो बताइए और अमाउंट बता दीजिए.

लांबाः रिजल्ट आने दो, फिर बात करते हैं.

तहलकाः अमाउंट बता दीजिए… 20-30? कितना?

लांबा: 20 तक हो जाएगा. जितना न्यूनतम हो जाए, लेकिन अभी मैं तुम्हें कुछ भी नहीं बता सकता. सामनेवाला क्या चाहता है, वो सब काम लेने पर ही पता चलेगा.

तहलकाः हो जाएगा क्या, सर?

लांबाः साधारण सी बात है. सेटिंग होनी चाहिए… हो जाएगा. 20 के आसपास हो जाएगा… 20 से 30 तक.

airways

2011 में कॉमर्शियल पायलट की नियुक्ति में नकली दस्तावेज के आधार पर नौकरी पानेवालों की खबर जब लीक हुई थी तब बहुत अफरा-तफरी मच गई थी. नागर विमानन मंत्रालय ने इस मामले में जांच के आदेश भी दिए थे. इस मसले में कइयों के लाइसेंस भी जब्त किए गए थे. इस घटना से यह बात सामने आई कि बहुत सारे नकली लाइसेंस का काम करनेवाले व्यक्ति उड्डयन क्षेत्र में काम कर रहे हैं और उनका कारोबार परवान पर है. दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा ने 2011 में एक पायलट को गिरफ्तार किया था जो नकली एयरलाइन ट्रांसपोर्ट लाइसेंस दूसरे को मुहैया करवाता था. नकली एयरलाइन ट्रांसपोर्ट लाइसेंस हासिल किए हुए पायलट 2013 में एयर इंडिया एक्सप्रेस के विमान उड़ा रहे थे. यह कोई अकेला मामला नहीं था.

अयोग्य पायलटों को फर्जी लाइसेंस देने वाले घोटाले को उजागर हुए चार साल बीत चुके हैं, लेकिन देश के उड्डयन क्षेत्र में नौकरी पाने की पहली योग्यता आज भी पैसा और रसूख ही है. तहलका की पड़ताल 

एक आरोपी पायलट ने बताया कि पिता ने उसके लिए लाइसेंस की व्यवस्था करवाई थी. उस पायलट के पिताजी उस वक्त डीजीसीए (डायरेक्टर जनरल ऑफ सिविल एविएशन) के एयर सेफ्टी में निदेशक थे. दिलचस्प है कि इस पायलट को धोखाधड़ी के मामले में स्पाइसजेट से पहले ही बाहर का रास्ता भी दिखाया जा चुका था. इस समय वह एयर इंडिया एक्सप्रेस में काम कर रही हैं. वह एयर इंडिया एक्सप्रेस में नोटिस पीरियड में हैं और इंडिगो ज्वाइन करनेवाली हैं. दोनों शीर्ष हवाई जहाज कंपनियां और डीजीसीए बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार करने वालों के लिए धुरी  बन गए हैं. यहां आप तब तक फल-फूल सकते हैं जबतक कि आप धांधली करते हुए पकड़े न जाएं. यहां नौकरी पाए हुए लोग मौज मार रहे हैं लेकिन बहुत सारे लोग जो इस क्षेत्र में काम करना चाहते हैं और प्रतिभाशाली भी हैं लेकिन पैसे और प्रभावशाली लोगों के संपर्क में नहीं होने की वजह से इस क्षेत्र में नौकरी से वंचित हैं. यह विमानन क्षेत्र में विमान उड़ाने के प्रशिक्षण से लेकर नौकरी सुनिश्चित करने के दौरान होनेवाली तमाम तरह की धांधलियों की कहानी है.

खूबसूरती से काली-सफेद पोशाक पहने पायलट दुनिया के किसी भी एयरपोर्ट पर सिर हिलाते, हाथ घुमाते हुए देखे जा सकते हैं और यह किसी के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है. लेकिन इस चमकते हुए मुखड़े के पीछे कुछ कड़वा सच छुपा है. बहुत से पायलटों पर यह आरोप हैं कि उन्होंने इस मुकाम को हासिल करने के लिए फर्जी दस्तावेज और रिश्वत का सहारा लिया है. कुछ कैप्टन पर आपराधिक मुकदमे भी चल रहे हैं और कुछ कैप्टन जहाज उड़ा पाने के काबिल ही नहीं हैं. हालांकि इन गड़बड़ियों के बावजूद वे जहाज उड़ा रहे हैं. यह सच है कि भारत में बहुत बड़ी संख्या में काबिल उपलब्ध पायलट हैं लेकिन इस सच से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि एयरलाइंस और डीजीसीए की मिलीभगत के चलते इस क्षेत्र में अयोग्य पायलटों की भरमार होती जा रही है. अगर आपके पास पैसा या जुगाड़ है तो फिर आपका भारतीय उड्डयन क्षेत्र में स्वागत है.

एक पायलट ने बताया कि उसके पिता ने लाइसेंस की व्यवस्था की थी. उसके पिताजी उस वक्त डीजीसीए के एयर सेफ्टी विभाग में निदेशक के पद पर थे

जनवरी 2011 में एक तकनीशियन को इंडिगो  एयरक्राफ्ट के नोज गियर में कुछ गड़बड़ी मिली. इस बारे में पड़ताल की गई तो पाया गया कि एक पायलट कैप्टन परमिंदर कौर गुलाटी लैंडिग के समय मुख्य गियर की बजाए नोज गियर का इस्तेमाल करते हैं. गुलाटी के बारे में जब खोजबीन की गई तो पाया गया कि उसके दस्तावेज नकली हैं और वह पायलट के लिए लिखित परीक्षा सात बार में भी पास नहीं कर पायी थीं. इस घटना के बाद डीजीसीए और एयलाइंस के अधिकारियों और कर्मचारियों के बीच मिलीभगत से अंजाम दिए जा रहे घोटाले का पर्दाफाश हुआ था. दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा ने इस घोटाले की तफ्तीश के दौरान 20 लोगों को गिरफ्तार भी किया था.

तहलका के पास मौजूद सूचना के अनुसार, एयर इंडिया एक्सप्रेस के पायलट कैप्टन दीपक असत्कार को उक्त घोटाले में शामिल पाया गया था. असत्कार कोच्चि में उड्डयन कंपनी में बतौर अधिकारी (फर्स्ट ऑफिसर) नियुक्त हैं. कैप्टन असत्कार अन्य पायलटों को कैप्टन प्रदीप त्यागी की मदद से फर्जी दस्तावेज मुहैया करवाते थे. घोटाले का पर्दाफाश होते ही असत्कार छह महीने के लिए फरार हो गए लेकिन बाद में उन्हें दो सितंबर 2011 को दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा ने धर दबोचा. पुलिस दस्तावेज के अनुसार, असत्कार मध्य प्रदेश के निवासी हैं और मुंबई में रहते हैं. असत्कार ने खुद को डीजीसीए में नामांकित करवा रखा है. असत्कार ने 2007 तक डीजीसीए की कॉमर्शियल पायलट लाइसेंस पाने के लिए तीनों (एयर नेविगेशन, एविएशन मीट्रोलॉजी और एयर रेग्युलेशन) ही परीक्षाएं पास की थीं. उसने अमेरिका की ऑरलेंडो फ्लाइंग स्कूल में दाखिला लिया और 250 घंटे की अनिवार्य उड़ान भरने का प्रशिक्षण भी पूरा किया था. भारत में उड़ान भरने के लिए उसने अमेरिका की फेडरल एविएशन एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा जारी किए गए लाइसेंस को भारतीय लाइसेंस में तब्दील करने का आवेदन दिया लेकिन उसे दो महीने के बाद भी लाइसेंस मुहैया नहीं कराया गया. इसी क्रम में वह त्यागी के संपर्क में आया. त्यागी ने असत्कार को लाइसेंस दिलवाने में बिचौलिए की भूमिका निभाई थी.

त्यागी के डीजीसीए के अधिकारी प्रदीप शर्मा से बहुत अच्छे रिश्ते थे. प्रदीप शर्मा प्रशिक्षण व लाइसेंस निदेशालय में काम करते थे. असत्कार ने अब त्यागी के साथ मिलकर बिचौलिए का काम करना शुरू कर दिया और कर्मिशयल पायलट लाइसेंस हासिल करने की परीक्षा में फेल हो जाने वाले छात्रों को  डीजीसीए की मिलीभगत से लाइसेंस दिलवाने में मदद करने लगे. असत्कार जब मुंबई स्थित फ्लाइविंग्स एविएशन एकेडमी में पढ़ा रहा था तब उसके संपर्क में दो पायलट आए जिन्हें उसने लाइसेंस दिलवाया. इस काम के लिए

असत्कार को 5.50 लाख रुपये मिले जबकि त्यागी को इसी काम के लिए 13 लाख रुपये मिले थे.

एयरलाइंस और डीजीसीए की मिलीभगत से इस क्षेत्र में अयोग्य पायलटों की भरमार होती जा रही है. पैसे और रसूखों वालों का यहां हमेशा स्वागत है

एविएशन इंडस्ट्री से जुड़े एक व्यक्ति बताते हैं, ‘असत्कार बहुत ही मेधावी है और उसे एविएशन के बारे में बहुत अच्छी जानकारी है. उसने डीजीसीए की सभी परीक्षाएं ईमानदारी से पास की हैं लेकिन डीजीसीए में व्याप्त भ्रष्टाचार की वजह से वह बिचौलिया बन गया और अंततः पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया.’ अपराध शाखा के इंस्पेक्टर आर श्रीनिवासन का कहना है कि हमने फर्जी लाइसेंस मामले की पड़ताल की और इससे संबंधित चार्जशीट साकेत कोर्ट को सुपुर्द कर दी. मामला अभी अदालत में चल रहा है. श्रीनिवासन ने बताया कि त्यागी और असत्कार के खिलाफ आईपीसी की धारा 120बी (आपराधिक षड्यंत्र), 420 (ठगी और बेइमानी से धन उगाहना), 421 (बेइमानी या धोखाधड़ी से ली गई धन राशि का ब्यौरा छिपाना) के तहत मामला दर्ज है.

असत्कार को दो सितंबर 2011 में गिरफ्तार किया गया और खोजबीन की गई तो यह पाया गया कि उसे जिस साल एयर इंडिया एक्सप्रेस के लिए चुना गया था उससे अगले साल वह लिखित परीक्षा के लिए योग्य पाया गया था. वर्तमान समय में वह बोइंग 737-800 एनजी उड़ाता है. तहलका ने असत्कार से संपर्क किया तो उसने बताया कि मुझ पर पायलट को फर्जी तरीके से लाइसेंस मुहैया कराने का मामला मढ़ा गया है. मैं इस मामले में दोषी नहीं पाया गया. इस मामले में कहीं भी शामिल नहीं रहा हूं. सच तो यह है कि मैं मुंबई में छात्रों को प्रशिक्षण देता था, जिसमें कुछ इस मामले लिप्त पाए गए हैं. असत्कार ने तहलका से यह वादा किया है कि वह इस मामले में क्लीयरेंस सर्टिफिकेट मुहैया कराएगा लेकिन इस रिपोर्ट के प्रेस में छपने जाने तक उसकी ओर से कुछ भी उपलब्ध नहीं कराया जा सका. गरिमा पासी भी गलत तरीके से लाइसेंस हासिल करने की आरोपी हैं. एयर इंडिया एक्सप्रेस यह जानते हुए भी गरिमा को नियुक्त करने जा रहा है कि उन्हें स्पाइस जेट पहले ही निलंबित कर चुका है. ऐसा भला क्यों न हो, वह आखिरकार आरएस पासी की बेटी जो हैं. मालूम हो कि आरएस पासी, एयर सेफ्टी के उप-निदेशक हैं. तहलका के पास उपलब्ध जानकारी के अनुसार, गरिमा पासी कोच्चि स्थित एयर इंडिया एक्सप्रेस में फर्स्ट ऑफिसर के बतौर कार्यरत हैं. एक सूचना के अनुसार वह इंडिगो ज्वाइन करनेवाली हैं और इस समय एयर इंडिया एक्सप्रेस में नोटिस पीरियड पर चल रही हैं. उनके पिछले रिकॉर्ड के बारे में पड़ताल करने पर पता चला कि वह किसी भी एयरक्राफ्ट को उड़ाने में असमर्थ हैं. लेकिन इसके बावजूद वह एयर इंडिया एक्सप्रेस की बोइंग 737-800 की उड़ान भरने में व्यस्त हैं. गरिमा को स्पाइसजेट के 2008 कैडेट प्रशिक्षण के तहत अमेरिका के एरिजोना स्थित सबीना फ्लाइट एकेडमी में प्रशिक्षण के लिए भेजा गया था लेकिन असमर्थ पाए जाने की वजह से अकादमी ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया था. उनके नाम विमान लैंडिंग से जुड़ी दो दुर्घटनाएं दर्ज हैं-  एक नोज गीयर के क्षतिग्रस्त होने का और दूसरा प्रोपेलर स्ट्राइक का. उनके दो विमान प्रशिक्षकों ने इन घटनाओं के मद्देनजर यह सिफारिश की थी कि इनके ‘विमान उड़ाने पर तत्काल रोक’ लगाई जाए.  उनके प्रशिक्षकों ने यह महसूस किया था कि वह पायलट के निर्देशों को समझने (पायलट इन कमांड) में असमर्थ हैं. गरिमा के अंदर विमान चलाने को लेकर एक डर व्याप्त है. सबीना फ्लाइट अकादमी छोड़ने के बाद वे भारत लौट आईं. यहां उन्होंने उत्तराखंड के पंतनगर में अम्बर एविएशन अकेडमी में दाखिला ले लिया. यहां प्रशिक्षण पूरा करने के बाद 2009 में उन्हें सीपीएल (कमर्शियल पायलट लाइसेंस) मिल गया और उसी साल स्पाइस जेट में बतौर ट्रेनी पायलट नौकरी भी मिल गई.

डीजीसीए के नियमों के अनुसार सीपीएल के लिए आवेदन करते समय अभ्यर्थी को विमान चलाने के दौरान हुए सभी हादसों के बारे में बताना होता है. पांच साल के दौरान हुए हादसे या दुर्घटना के साथ-साथ अभ्यर्थी के खिलाफ की गई सभी अनुशासनात्मक कार्रवाइयों की जानकारी भी देनी होती है. लेकिन ऐसा लगता है कि गरिमा ने अमेरिका में हुए दो लैंडिंग हादसों की जानकारी डीजीसीए को नहीं दी. 2011 में जब यह घटना सामने आई कि गरिमा ने फर्जी तरीके से लाइसेंस हासिल किया, तब स्पाइस जेट ने उन्हें निलंबित कर दिया. उनके साथ कई और लोगों को भी इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा था. इसका सीधा सा मतलब था कि उन सभी लोगों का विमान उड़ाने का करियर खत्म हो गया लेकिन गरिमा के लिए ऐसा नहीं हुआ क्योंकि उनके पास पैसा और प्रभावशाली व्यक्तियों से संपर्क दोनों ही थे. उनके पिता तत्कालीन डीजीसीए के डायरेक्टर थे. वह भी जांच के दायरे में आए. मीडिया में आई खबरों के बाद पासी को पद का दुरुपयोग कर अपनी बेटी को नौकरी दिलाने के आरोप में हटा दिया गया.

डीजीसीए प्रमुख ईके भारत भूषण ने स्पाइस जेट में गरिमा की नियुक्ति से संबंधित चिट्ठी मिलने के बाद पासी को पद से हटा दिया. चिट्ठी में कहा गया था कि गरिमा को नौकरी ‘विशेष परिस्थितियों’ के तहत दी गई थी. जांच के दौरान पाया गया कि एक और पायलट रश्मि शरण को अपने पिता के प्रभाव के कारण नौकरी मिली थी. फिलहाल रश्मि इंडिगो के लिए काम कर रही हैं. रश्मि के पिता आलोक कुमार शरण डीजीसीए के पूर्व संयुक्त निदेशक थे और जनवरी में सेवानिवृत्त हुए हैं. शरण पर आरोप है कि उन्होंने 2007 में रायपुर स्थित टचवुड फ्लाइंग स्कूल को लाइसेंस दिया, जिसके पास उस समय एक भी एयरक्राफ्ट नहीं था. उसी अकादमी से उनकी बेटी रश्मि शरण को भी पायलट का लाइसेंस दिया गया. उस समय शरण ट्रेनिंग और लाइसेंस विभाग के उपनिदेशक के पद पर तैनात थे. डीजीसीए के नियमों के अनुसार किसी भी फ्लाइंग क्लब को सीपीएल देने की अनुमति तभी मिल सकती है जब उसके पास काम करने लायक एयरक्राफ्ट हों. एयरोड्रम स्टैंडर्ड के अधिकारियों की जांच रिपोर्ट के मुताबिक टचवुड एविएशन के पास उस समय एक भी एयरक्राफ्ट नहीं था. यहां तक कि क्लब के पास जरूरी सुविधाओं का भी नितांत अभाव था. छात्रों के लिए ब्रीफिंग रूम और एयरक्राफ्ट हैंगर भी नहीं थे.

रश्मि ने अपनी फ्लाइंग 2008 में टचवुड एविएशन से ही पूरी की थी. इसके एक साल बाद संस्थान पूरी तरह से बंद हो गया. सरन पर यह भी आरोप है कि अपनी बेटी के लिए उन्होंने तीन बार विशेष परीक्षा सत्र की व्यवस्था की, जबकि ऐसा करना सरासर गलत है. लगातार पांच प्रयासों के बाद भी रश्मि एयर नेगिवेशन, एविएशन मीटरोलॉजी और एयरक्राफ्ट टेक्निकल विषयों की परीक्षा में सफल नहीं हो सकीं, जिसके बाद उनके लिए विशेष परीक्षा का आयोजन किया गया. सामान्य परीक्षाएं हर तीसरे महीने आयोजित की जाती हैं, जबकि विशेष परीक्षाओं का आयोजन कुछ समय के अंतराल पर होता है.

असत्कार को एविएशन क्षेत्र की गहरी जानकारी है. उसने डीजीसीए की सभी परीक्षाएं पास की हैं लेकिन यहां के भ्रष्ट माहौल ने उसे बिचौलिया बना दिया

डीजीसीए के नियमों के अनुसार अभ्यर्थी नियंत्रक से विशेष परीक्षा के लिए आवेदन तभी कर सकते हैं, जब विमान उड़ाने के पर्याप्त घंटे हों, या फिर नौकरी के अवसर हाथ से निकलने की स्थिति हो और अभ्यर्थी किसी एक पर्चे में फेल हो. 2007 में रश्मि जब पहली बार विशेष परीक्षा में शामिल हुईं, उस वक्त न तो उन्होंने जिन तीन विषयों में ‘बैक’ थी, उन्हें उत्तीर्ण किया था और न ही विमान उड़ाने के लिए जरूरी घंटों का अनुभव था.

डीजीसीए के नियमों के अनुसार सामान्य परीक्षाएं हर तीसरे महीने होती हैं. नाम न छापने की शर्त पर हमारे एक सूत्र ने बताया कि हर परीक्षा के बाद लगभग छह हफ्ते का अंतराल रहता है. अक्सर इस नियम की अनदेखी डीजीसीए से संपर्क रखनेवाले अभ्यर्थियों के लिए कर दी जाती है. विशेष परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना आसान होता है क्योंकि परीक्षार्थियों की संख्या बहुत कम (पांच से दस) होती है. साथ ही इन परीक्षाओं मे नियंत्रक परीक्षा हॉल में बहुत चौकस भी नहीं रहते. इन परीक्षाओं में नकल करना बहुत आसान रहता है और असफल परीक्षार्थी भी पास हो जाते हैं. शरण मार्च 2012 में 28 फ्लाइंग स्कूलों को गलत ढंग से लाइसेंस देने और उप निदेशक के पद पर रहते हुए 190 करोड़ के घपले के आरोप में बर्खास्त कर दिए गए. लेकिन अगस्त 2012 में उनकी फिर से वापसी हो गई. पिछले साल सीबीआई ने उनके ऊपर बिलासपुर के एक फ्लाइंग स्कूल को गलत दस्तावेजों के आधार पर लाइसेंस देने के आरोप में केस दायर किया.

हालांकि इन सभी अनियमितताओं के खिलाफ उन्हें क्लीन चिट मिल गई. इसके बाद तत्कालीन डीजीसीए निदेशक भूषण ने विशेष परीक्षाओं के साथ 2011 में ऑनलाइन पायलट परीक्षाओं की भी शुरुआत की.

यशराज टोंगिया और उनके यश एयर फ्लाइंग स्कूल की कहानी और भी दिलचस्प है. सभी युवा और पुराने पायलट जो भारतीय विमानन उद्योग से थोड़ा भी परिचित हैं, मध्य प्रदेश के उज्जैन के यश फ्लाइंग स्कूल की कहानी जरूर जानते हैं. बॉलीवुड स्टार सोहेल खान ने भी फ्लाइंग लाइसेंस वहीं से लिया है. संस्थान की वेबसाइट पर दावा किया गया है कि यश फ्लाइंग अकादमी भारत का सबसे बड़ा उड्डयन संस्थान है. 19 मई 2010 को इसी संस्थान से प्रशिक्षण ले रहे दो छात्रों की मौत एक विमान हादसे में हो गई. दोनों छात्रों में से एक फ्लाइट प्रशिक्षक और दूसरे ट्रेनी पाइलट की मौत विमान सीजेना-152 के क्रैश होने में हुई थी. विमान हाई टेंशन तार की चपेट में आ गया और उज्जैन की सूखी नदी के किनारे दुर्घटनाग्रस्त हो गया.

इस दुर्घटना के बारे में डीजीसीए की जांच टीम ने विमान हादसे के लिए कम ऊंचाई पर फ्लाइंग के साथ विमान उड़ाने के दौरान कोई निगरानी न होने और अकुशल निरीक्षण को जिम्मेदार बताया. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि संस्थान की तरफ से स्थानीय हवाई सुरक्षा विभाग को कोई सूचना नहीं दी गई थी. यहां तक कि स्थानीय हवाई सुरक्षा विभाग ने कई बार मुख्य प्रशिक्षक टोंगिया को सूचना देने की कोशिश भी की लेकिन वह फोन पर भी उपलब्ध नहीं थे. दुर्घटना के बाद मुख्य विमान प्रशिक्षक से पहली बार 20 मई 2010 को संपर्क हो पाया, वह भी डीजीसीए के अधिकारियों के दुर्घटनास्थल पर पहुंचने के बाद.

कंपनी को राहत, जनता की आफत

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स्वाइन फ्लू अब हजार से ज्यादा लोगों की जान ले चुका है. हमारे देश में इसका पहला मामला 2009 में दर्ज़ हुआ था. हैरानी की बात है कि 2011 तक भी सरकार ने इसके इलाज में काम आने वाली दवा टेमीफ्लू को आवश्यक दवाओं की सूची में शामिल नहीं किया था. जबकि इसी वर्ष सरकार ने अति आवश्यक दवा सूची का पुनःनिरिक्षण किया था. यहां यह बताना उचित होगा कि टेमीफ्लू को विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्लूएचओ ने अपनी आवश्यक दवाओं की सूची में शामिल किया हुआ है. सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रीवेंनशन ऑफ यूएस ने भी इसे स्वाइन फ्लू के इलाज के लिए अनुमोदित किया हुआ है.

यह सब होने पर भारत सरकार ने इस दवा को क्यों आवश्यक दवा सूची में शामिल नहीं किया है इस पर बात करने से पहले एक और उदाहरण से बात को आगे बढ़ाते हैं.

झारखण्ड के देवघर जिले के निवासी सौरभ के पिता लम्बे समय से किडनी रोग से ग्रस्त थे. डॉक्टरों के अनुसार उन्हें एक से डेढ़ वर्ष और जीवित रखा जा सकता था. महंगी दवाइयों ने सौरभ और उसकी माँ का भरोसा और कमर दोनों तोड़ दी थी. इलाज में पहले ही अपनी जमा पूंजी झोंक चुके परिवार के पास दो रस्ते थे. पहला, भविष्य को दांव पर लगा वो घर के मुखिया के लिए जीवन का एक और वर्ष खरीद ले. दूसरे उन्हें बिस्तर पर अपना अंतिम समय काटते देखें. उन्होंने मजबूरी में दूसरा रास्ता चुना. सौरभ ने अब पढ़ाई बीच में छोड़ कर घर की जिम्मेदारियां उठा ली हैं. उसका मन आज भी इस बात को लेकर कचोटता है की उसने खुद अपने पिता के लिए मौत को चुना.

सौरभ जैसे युवाओं की यह कहानी भारत में इतनी आम हो चुकी है कि किसी को उसकी कहानी में कुछ भी नया नहीं या अजीब नहीं लगता है. अब संवेदनहीन होती जिजीविषा मात्र स्टोरी भर हैं.

भारत में 80 फीसदी लोगों के पास स्वास्थ्य बीमा नहीं है. वहीं दूसरी ओर 70 फीसदी भारतीय 140 रूपये से भी कम में अपना गुजर करते हैं. ऐसी हालत में दवाइयां और उपचार कोढ़ में खाज का काम करती हैं. ये सिर्फ कष्ट, मृत्यु और और गरीबी का रास्ता खोलती हैं. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ)  की एक रिपोर्ट के अनुसार मंहगी दवाओं की वजह से प्रति वर्ष भारत में तीन फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे खिसक जाते हैं. दवा जिसे जीवन देना था अब वो जिंदगी छीनने का बायस बनती जा रही है.

यह सवाल उठाना सहज है क्या दवाओं की लागत इतनी ज्यादा है कि कंपनियां इन्हें ऊंची कीमतों पर बेचने को मजबूर हैं. इसका सहज जवाब है नहीं  

किस के हित में सक्रिय है सरकार

मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है क्या दवाओं की लागत इतनी ज्यादा है कि कंपनियां इन्हे ऊंची कीमतों पर बेचने को मजबूर हैं. लेकिन हमारी सरकार खुद ये मान चुकी है की भारत में दवा कंपनियां 1023 गुणा तक मुनाफा कमा रही है. सिर्फ इस स्वीकृती से ही वर्तमान और पूर्व की सरकारों के लोक कल्याणकारी होने के दावों पर सवाल खड़ा किया जा सकता है.  एक बात तो है कि सरकारी महकमों की वफादारी किस ओर है, यह उनके दवा कंपनियांपर नकेल ना कसें जाने वाले गैरजिम्मेदार रैवये से ही स्पष्ट है. याद करे कि नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे के बाद इस मसले को लेकर खासा बवाल भी हुआ था.

आरोप लग रहे थे कि दौरे के दौरन भारतीय प्रधानमंत्री ने अमरिकी दवा कपंनियों को लुभाने के लिए राष्ट्रीय आवश्यक दवा सूची (एनईएलएम) में शामिल की गई 108 नई दवाओं को वापस लेने का फैसला किया था. माना जा रहा है कि इसकी वजह से 30 से अधिक अमेरकी कंपनियों को रहत मिलेगी और उनका मुनाफा बढ़ेगा. इस ऑर्डर को फार्मा (दवा) कंपनियांने कोर्ट में चुनौती दी है. जबकि सच्चाई यह है कि सितम्बर महीने में राष्ट्रीय फार्मा मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) से गैर-आवश्यक दवाओं की कीमत तय करने का अधिकार वापस ले लिया गया था. ऐसा प्रधानमंत्री मोदी के अमेरिका दौरे के ठीक पहले किया गया था. आश्चर्य की बात यह है कि जिस देश को लुभाने के लिए यह कदम उठाया गया वहां के राष्ट्रपति बराक ओबामा खुद अपने नागरिकों की सेहत  के लिए किसी भी हद तक जाने का माद्दा दिखा चुके हैं. अपने की देश के एक वर्ग के बीच घोर विरोध के बावजूद ओबामा ने सभी अमेरिकियों के लिए यूनिवर्सल हेल्थ प्लान ‘ओबामा केयर’ की वकालत की थी.

दवा नीति की जन समीक्षा में एक बात साफ तौर पर  सामने आती है कि कंपनियों की लूट को अमलीजामा पहनाने में मोदी सरकार की अहम भूमिका रही है

 

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जान से बड़ा मुनाफा

मध्य प्रदेश, रीवा की रंजन बंसल एक प्राईवेट स्कूल की प्रधानाध्यापक हैं. उनके बेटे नील की हालत डॉक्टर द्वारा नई दवाओं के बाद और भी नाजुक हो गई. अस्पताल में हुई जांच से पता चला कि जो दवाएं नील को दी गई थी उनकी उसे आवश्यकता नहीं थी. बात यहीं खत्म नहीं होती है. इस मामले में नया मोड़ तब आया जब इसी जांच में पता चला कि नील को दी गई दवाएं आम भाषा में कहे तो खासी  ‘पॉवरफुल’ थी. नील को जो एंटीबॉयटिक दी गई थी, उसकी कम्पोजिशन काफी हैवी थी. इसका इलाज का असर यह हुआ कि अब उसके शरीर पर यह हैवी डोज ही काम करेगी.

डॉ दाबड़े का कहना है, मुनाफे के लिए फार्मा कम्पनियां बाजार में बेतुकी और जरूरत से कहीं ज्यादा भारी कम्पोजिशन की एंटीबॉयटिक ला चुकीं हैं. आम जन की भाषा में इसे ऐसे समझा जा सकता है कि अगर किसी व्यक्ति का इलाज़ ग्रुप-1 की एंटीबॉयटिक से संभव है लेकिन उसे सीधे ग्रुप-3 की एंटीबॉयटिक दे दी गई है तो उसके लिए  ग्रुप-1 और 2 का विकल्प हमेशा के लिए खत्म तो हो ही गया, साथ ही अब उसे आवश्यकता  पड़ने पर और कड़ी एंटीबॉयटिक लेनी पड़ेगी. इन सब की वजह से हालात इतनी गंभीर हो चुकी है कि इंसानों के लिए विकल्प खत्म होते जा रहे हैं. कई ऐसे मामले सामने आने लगे हैं जिसमें इंसानी शरीर पर एंटीबॉयटिक ने काम करना ही बन्द कर दिया है. सब जानते हुए भी फार्मा कंपनिया मुनाफे के लिए खुल्लम खुल्ला  यह खेल खेल रहीं हैं.सच्चाई यह भी है की नई-नई दवाएं बाज़ार में उतार फार्मा कंपनियां मोटा पैसा कमा रहीं हैं. हालांकि इस स्थिति के लिए डॉक्टर भी बराबर के जिम्मेदार हैं. उनका काम अपने मरीजाे को गैर जरुरी दवाओं से बचाने का भी होता है. यही नहीं अमेरिका में  पशुओं को एंटीबॉयटिक देने पर प्रतिबंध है ताकि यह फूड चेन में शामिल न हो जाए किन्तु भारत में ऐसे कानून के अभाव में  कंपनियां यहां भी अपना खेल खुलेआम खेल रही हैं और सरकार इसमें मददगार हो रही है.

 

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किस आधार पर तय होती हैं कीमतें

भारत में ड्रग (दवा) की कीमतें तय करने का अधिकार एनपीपीए के पास है. एनपीपीए भारत सरकार के रसायन व खाद मंत्रालय के अंतर्गत आता है. 1986 में फार्मा नीति आई थी. एक दशक बाद 1995 में ड्रग प्राइस कंट्रोल आॅर्डर (डीपीसीओ) आया. आर्डर में 75 ड्रग  शामिल किए गए थे. इस सूची में जिन साल्टों का नाम शामिल था उनकी अधिकतम बिक्री दर 2013 के पहले तक निम्नलिखित  फॉर्मूले से तय की जाती थी.

R.P. = (M.C. + C.C. + P.M. + P.C.) x (1 + MAPE/100) + ED (RP रिटेल प्राईस, MC- मेकिंग कास्ट, CC- कंवर्जन कॉस्ट, PM- पैकेजिंग मैटिरीयल, PC – पैकेजिंग कॉस्ट, MAPE- रिटेलर, होलसेलर आदि के तमाम कमिशन अथवा का कुल प्रोफिट मार्जिन जो 100 प्रतिशत के ऊपर नहीं हो सकता है, ED- एक्साईज ड्यूटी).

आम भाषा में बात करंे तो दवा बनाने से लेकर उसकी पैकेजिंग की कुल लागत का दो गुणा कीमत और एक्साईज ड्यूटी अधिकतम बिक्री दर के रुप में तय होती थी. इस बीच ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क(एआईडीएएन), लोकास्ट,  मेडिको फ्रेंड सर्कल और जन स्वास्थ्य सहयोग आदि ने मिलकर बाज़ार आधारित मूल्य निर्धारण व्यवस्था के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी. एआईडीएएन के डॉ. गोपाल दाबड़े के अनुसार,‘डीपीसीओ 1995 में सिर्फ 75 दवाओं की कीमतें नियंत्रित थी जो इलाज के लिहाज से नाकाफी थी. लेकिन अधिकतम बिक्री दर तय  करने का फाॅर्मूला बेहतर था’डीपीसीओ 1995 में कुछ खामियां थी. इसमें  एचआईवी-एड्स, ओआरएस, सभी प्रकार के संक्रमण के रोकथाम वाली दवाओं को शामिल नहीं किया गया था. इसके अलावा टीबी, मलेरिया, कोढ़, हाईपरटेंशन जैसे रोगों,  जिसका प्रकोप भारत में सबसे ज्यादा था उनका दवा-सूची में ठीक से प्रतिनिधित्व नहीं हुआ था. इसके अलावा अनावश्यक या कम उपयोग होने वाली ड्रग्स को प्राईस कंट्रोल के तहत लाया गया था. नियमत: सरकार को एनईएलएम को समय-समय पर संशोधित करते हुए जरूरी ड्रग्स को सूची में डाल उसे डीपीसीओ के अंतर्गत लाना चाहिए था. लेकिन सरकारें ऐसा करने से बचती रहीं. अंतत: 2013 में डीपीसीओ में बड़ा बदलाव आया. डीपीसीओ 2013 जारी जनता के लिए दवाओं की कीमतें कम करने के लिए हुआ था लेकिन हुआ ठीक इसका उल्टा.

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दाबड़े बताते हैं ‘जब-जब भारत में नई दवा नीतियां बनी हैं. दवा कंपनियों ने अपना दबाव बनाकर, दवाओं के दाम तय किए हैं. इन कंपनियों की लॉबी ने नई दवा-नीतियां  तय करने में हमेशा अहम भूमिका निबाही है. दुखद है कि किसी बड़ी राजनीतिक पार्टी ने जनता के पक्ष में कभी लॉबिंग नहीं की. यही नहीं 2013 में तो शरद पवार की अध्यक्षता वाली एक समिति जिसे नई दवा नीति बनानी थी, ने  डीपीसीओ 1995 के निर्माण कीमत आधारित की जगह बाजार आधारित फॉर्मूला को लागू कर एक और जन विरोधी कदम उठाया था.’

2013 में डीपीसीओ सूची में ड्रग्स की संख्या 75 से बढ़ाकर 348  की गई थी. 2013 के नए आदेश के अनुसार अब दवा की कीमत बाजार में कंपनी की उपस्थिति तय करेगी. अब दवा का औसत मूल्य किसी बाजार विशेष में कंपनी के एक प्रतिशत या उससे ज्यादा वाले शेयर के आधार पर किया जाएगा. यानी खुदरा मूल्य = बाजार में 1% या उससे ज्यादा शेयर वाले कंपनियां के औसत के आधार पर किया जाएगा. इस आधार पर देखा जाए तो दवाएं और महंगी हो गई. कंपनियों का मुनाफा बेहताशा बढ़ गया. इस तथ्य को समझने के लिए तालिका एक (ऊपर) देखें.

 ब्रांड से पैकेजिंग बदल सकती है दवा की गुणवत्ता नहीं.ब्रांडिंग एक सोची समझी साजिश के तहत होती है जिससे रोगी के मन में डर और भ्रम बना रहे

लूट को सरकार ने बढ़ावा दिया

दवा नीति की जन समीक्षा करने वाले कई समूहों का मानना है कि, ‘डीपीसीओ 2013 ने कॉर्पोरेट लूट को अमलीजामा पहनाने का काम किया है. यही नहीं मोदी के नेतृत्व में बनी नई सरकार ने तो रही सही कसर भी पूरी कर दी है. मोदी सरकार को इस आदेश का पुनःनिरीक्षण करना था लेकिन यह करना तो दूर इस सरकार ने सितंबर 2011 में एनपीपीए की विशेष शक्तियां तक खत्म कर दी. यह सब मोदी की अमेरिका यात्रा से ठीक पहले हुआ.’

इस लिहाज से देखा जाए तो मोदी सरकार की दवा नीति न केवल जनविरोधी है बल्कि यह मानवाधिकारों का हनन भी है. 2013 के आदेश ने पहले से ही गरीबों की पहुंच से दूर दवाईयों को बेहताशा मंहगा करने की छूट दे दी है. इस उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है कि एक एंटीबॉयटिक, जो सिप्रोफ्लोकसीन (500 एमजी), टीनीडाज़ोल (600 एमजी) के काम्पोज़िशन से बना है,की दस टेब्लेट की पत्ती को रैनबैक्सी कंपनी सीफ्रान टीजी के नाम से 107 रुपये में बेचती है. इसी काम्पोज़िशन को भारतीय कंपनी एफडीसी जोक्सन टीजी के नाम से सिर्फ 30.45 रुपये में बेचती है. लाज़मी है कि जब एक काम्पोज़िशन की दवा में इतना फर्क है तो पूरी बाजार की हालत क्या होगी. सोचने की बात है ऐसे हालत में प्रतियोगिता का हवाला देकर कीमतों के निर्धारण का आधार दवा कंपनियों पर छोड़ा जाना राजनीतिक और मानवीय तौर पर कितना जायज है.

नाम न बताने की शर्त पर एनपीपीए के एक वरिष्ठ अधिकारी ने माना कि  ‘ दवा नीति को लेकर सरकार का रैवया बेहद लचर है. स्वास्थ्य मंत्रालय को नियमों के अनुसार हर तीन वर्ष में एनईएलएम को अपडेट करना होता है पर वर्ष 2003 तक सरकार इसे करने जहमत नहीं उठाई. 2011  में सुप्रीम कोर्ट के  कहने पर सरकार ने इसकी सुध ली. गौरतलब है कि लॉबिंग और भारत की दवा नीति के बीच गहरे संबंध है.  2002 में सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार को नई दवा नीति बनाने का आदेश दिया था. एक दशक तक सरकार आना कानी करती रही. इससे परेशान होकर सुप्रीम कोर्ट ने एक निश्चित समय सीमा तय करते हुए कहा कि विफलता की सूरत में वह खुद गाईडलाईन जारी कर देगा. भारतीय फार्मा लॉबी ऐसा कोई आदेश नहीं चाहती थी. सरकार ने लीपा-पोती कर के डीपीसीओ 2013 पेश कर दिया. इस आॅर्डर के पीछे इंडियन फार्मा कंपनियां और बहु-राष्ट्रीय फार्मा लॉबी का हाथ है.आश्चर्य बात है ना कि वर्ष 2003 के बाद एनईएलएम में अगला बदलाव 2011 में सुप्रीम कोर्ट फटकार के बाद हुआ. पिछले वर्ष जिन 108 नई दवाओं को हमने नियंत्रण सूची में डाला था उसके विरोध में फार्मा कंपनियाें ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है, मामला अभी लंबित है. ’ फार्मा कंपनियाें के  मुनाफे पर उन्होंने कहा, ‘एनपीपीए डीपीसीओ 2013 के फ्रेमवर्क के तहत ही चलती है. जब से डीपीसीओ उत्पादन आधारित मूल्य नियंत्रण फॉर्मूले को छोड़कर बाजार आधारित मानकों पर आ गई है तो हम कुछ नहीं कर सकते. और यह मामले भी कोर्ट में लंबित हंै.’

talika1बाज़ार आधारित और उत्पादन आधारित मूल्य नियंत्रण के बीच कौन सा विकल्प बेहतर है जैसे सवालाें को वह टाल गए. हालांकि यह बात उन्होंने जरुर मानी कि पुरानी पद्घति में कुछ कमजोरियों के बावजूद कानून जन पक्षधर था, हां उसे लागू करने वाली एजेंसी किसी न किसी दबाव के चलते विफल होती रही.

भारत में दवा कीमतों के खेल की परिधि फार्मा कंपनियों, होलसेलर, डॉक्टर, लॉबिंग से होते हुए सत्ता के गलियारों तक जाती है. डीपीसीओ और राष्ट्रीय आवश्यक दवा सूची (एनईएलएम) को ताख पर रख दवा जैसी जीवन रक्षक वस्तु का बाजारीकरण किया जा रहा है.  दाबड़े बताते हैं कि ‘फार्मा कंपनिया डीपीसीओ से बचने के लिए अवैज्ञानिक और फर्जी कॉम्बिनेशन बना कर बेच रहीं हैं क्योंकि कपड़े, फोन या जूते की तरह दवा खरीदने वाला व्यक्ति खुद अपने लिए दवा का चयन नहीं करता. बताई गई दवा खरीदना मरीज की इच्छा नहीं उसकी मजबूरी होती है. इसी का फायदा उठा कंपनियांं नए फार्मूले/कॉम्बिनेशन वाली दवाएं बेचने में कामयाब हो जाते हैं. इन कॉम्बिनेशन पर किसी प्रकार नियंत्रण कानून लागू नहीं है. वे मनचाहा मुनाफा कमा रहे हैं.’ मसलन उपरोक्त एंटीबॉयटिक सिप्रोफ्लोक्सीन 250 एमजी तक एनईएलएम सूची के अंतर्गत आता है जिसकी कीमतें बाजार में 20 से 30 रुपये तक हैं. लेकिन बाजार में बिकने वाला फाॅर्मूला/कॉम्बिनेशन 500 एमजी वाला है.इसे बेचने वाली फेहरिस्त में बड़ी कंपनिया अव्वल हैं. कुल मिला कर मरीज़ और उसके परिजन कम से कम दो से तीन गुणा ज्यादा दाम चुकाने को मजबूर होते हैं. जितना गंभीर रोग उतना ही गहरा होता है इस खुली लूट का दंश. एस श्रीनिवासन वडोदरा में ‘लोकॉस्ट’ नाम से खुद की फार्मा कम्पनी चलाते हैं. उनका का कहना है, ‘लोकोस्ट में हम जितनी दवाईयां बनाते हैं उससे ज्यादातर रोगों का इलाज संभव है. हमारी और बाजार में उपलब्ध प्रमुख कंपनियों की कीमतों के बीच  200 से 4000 गुणा तक का फर्क है.  फार्मा कंपनियां जानबूझ कर दवाएं मंहगी बेचती हैं. ’ मुनाफे के बारे में पूछने पर श्रीनिवासन ने कहा, ‘जब लोकॉस्ट अपने सारे खर्चो को निकालने के बाद भी मुनाफा कमा सकती है तो यह बाकी कंपनियां के लिए भी संभव है.’

बड़े ब्रांड की दवाएं ही प्रभावशाली होती हैं इस धारणा को सिरे से खारिज करते हुए श्रीनिवासन ने बताया, ‘भारतीय बाजार में बिकने वाली 90 फीसदी दवाएं पेटेंट-फ्री फॉर्मूला से बनती हैं. अगर मैं सही तरीके का इस्तेमाल कर रहा हूं तो किसी ब्रांडेड कम्पनी और मेरी दवा के बीच में लेबल के अलावा कोई फर्क नहीं होगा. जब फॉर्मूला ही जेनरीक हंै और मैं कुछ अलग भी नहीं कर रहा तो ब्रांडिंग कर देने से दवा की गुणवत्ता कैसे बदल सकती है. ब्रांड से सिर्फ पैकेजिंग बदल जाती है उसके अंदर की दवा नहीं. दवाओं की ब्रांडिंग एक सोची समझी साजिश के तहत होती है जिससे मरीज के मन में डर और भ्रम दोनो बना रहे.’ उन्होंने बताया, दुनिया भर में फार्मा कंपनियाें के सबसे ज्यादा ब्रांड भारत में हैं. अमेरिका के अंदर सिर्फ पेटेंट दवाओं के ब्रांड चलते है.’

सुप्रीम कोर्ट मान चुका है कि  भारत में एक दिन के एंटीबॉयटिक की कीमत दो वक्त की रोटी के बराबर है. जिस देश में आधिकारिक तौर पर 30 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं  ऐसे में दवाओं की ब्रांडिंग कर उसे बेचना अपराध से कम नहीं है. इस देश को दवाइयों की जरूरत है ब्रांडस की नहीं.’

इस बात से डॉ दाबड़े भी इत्फाक रखते हैं कि भारत में दवाओं के अतार्किक रुप से मंहगी होने के पांच कारण हैं.कंपनियाें का लालच, डॉक्टरों का  लालच, दवा दुकानों की मुनाफाखोरी, हमारी लापारवाही और वैश्विक बाजार का षडयंत्र. वैश्विक बाजार हमें कमोडिटी के रूप में देख रहा है. यही नहीं भारत का एक प्रयोगशाला के तौर पर भी इस्तेमाल किया जा रहा है.

पेटेंट के नाम पर भारतीय बाजार का दोहन करने की पूरी तैयारी चल रही है. सुप्रीम कोर्ट ने बीते कुछ वर्षों में पेटेंट पर लैंडमार्क आदेश दिए हैं. लेकिन ओबामा दौरे के बाद विदेशी निवेश का हवाला देकर कंपनिया इसे भारतीय बाजार में ठेलने में सफल होती दिख रही हैं.

श्रीनिवासन के मुताबिक अगर भारतीय दवा बाजार में पेटेंट का यह खेल और तेजी से शुरू होता है तो दवा और इलाज गरीबों के साथ-साथ मध्यम वर्ग की पहुंच से भी दूर हो जाएगा.

इसका सबसे भयावह उदाहरण हेपिटाईतिस सी की दवा सोवालडी का है जिसे अमेरिकी कंपनी गीलियड साईंसेस बनाती है. अगस्त 2014 में भारतीय मीडिया में गीलियड अपनी उदारता की खबरों के कारण छाई हुई थी. कंपनी  ने भारत में सोवालडी पर 99 प्रतिशत छूट देने की घोषणा करी. लेकिन बाद में जब मामला खुलकर सामने आया तो पता चला कि ये सारी हवा पेटेंट को पास कराने के लिए बनाई गई थी.

इस पेटेंट को भारतीय कम्पनी नाटको फार्मा ने चुनौते देते हुए कहा कि फॉर्मूला पहले से ही भारत में मौजूद  है जिसका संज्ञान लेते हुए भारतीय पेटेंट ऑफिस ने अर्जी खारिज कर दी. यही नहीं ‘डॉक्टरस विदआउट बोर्डर’ (एनजीओ) ने लिवरपूल विश्वविद्यालय की मदद से सिद्घ किया कि गीलियड ने दवा की कीमत जो नौ सौ डॉलर रखी है वह मात्र सौ डॉलर में उपलब्ध करायी जा सकती है. यह घटना स्पष्ट करती है कि फार्मा कंपनिया मरीजों का दोहन करने के लिए हर तरह की तीन तिकड़म  कर सकती हैं, जिसमें मीडिया लॉबिंग भी शामिल है.       l

नाप लो पैदल, ले लो जमीन…

sddw बनारस के काशी हिंदू विश्वविद्यालय, जो बीएचयू के नाम से जनमानस में स्थापित है, वहां पढ़ने जानेवाले अनजान या नवहर विद्यार्थियों का कई मिथकों से सामना होता है, उसमें से एक बीएचयू के जमीन को लेकर भी है. यह कहानी बनारस और उसके आस-पास के इलाकों में चटखारे ले-लेकर सुनाई जाती है. कथा यूं है कि जो बीएचयू है, उस जमीन को काशी नरेश ने दान दिया था और दान भी इस तरह कि उन्होंने कह दिया था कि जितनी जमीन नाप सकते हैं पैदल नाप लीजिए, वह जमीन बीएचयू की हो जाएगी. यह बात सिर्फ बीएचयू में पढ़ने जानेवाले विद्यार्थियों को ही चटखारे ले-लेकर गंभीरता के साथ नहीं सुनाई/बताई जाती रही है बल्कि बीएचयू के अस्पताल में इलाज कराने-जानेवाले लोग भी इसके बड़े कैंपस के बारे में ऐसे किस्से सुनते रहे हैं या बतियाते रहे हैं.

बात इतनी ही हो तो भी बात हो. बतानेवाले किस्सागो सच की तरह यह भी बताने लगते हैं कि कैसे पहले जहां जगह मिली, वहां बाढ़ आ गयी. बाढ़ आने पर दुबारा जमीन दान मांगने मालवीयजी गये और उस दिन काशी नरेश उपवास में थे. उपवास खोलने के पहले उनके पास दान मांगनेवाला पहुंच गया था और वे जान गये थे कि दान मांगने मालवीयजी ही आये हैं तो राजा ने देखते ही कह दिया कि मैं दान दूंगा. मालवीयजी ने कहा कि आप कैसे जान गये कि मैं दान मांगने ही आया हूं. ऐसे ही कई किस्से, न जाने कितने तरीके से गपोड़िये वर्षों से सुना-सुनाकर उसे हकीकत जैसा स्थान दिला चुके हैं.


गौर फरमाएं

बेशक बीएचयू के लिए जो जमीन दान में मिली, वह काशी नरेश ने ही दी लेकिन पैदल चलकर नाप लेनेवाले फॉर्मूले पर नहीं बल्कि उसके लिए बजाप्ता एक कमिटी बनी थी. बीएचयू की गतिविधियां बनारस के सेंट्रल हिंदू कॉलेज से चल रहीं थी. जमीन की बात आयी तो काशी नरेश से मांगने की बात हुई. तब बीएचयू की स्थापना के लिए 57 लोगों की एक प्रबंध समिति बनी थी. काशी नरेश तक बात गयी. काशी नरेश ने हामी भरी. तब मैनेजिंग कमिटी में से पांच लोगों की एक समिति जमीन देखने और तय करने के लिए बनाई गई. काशी नरेश ने जमीन के लिए तीन जगहों का विकल्प दिया और कहा कि जो भी उपयुक्त हो, उसे लिया जा सकता है. अंत में वही जमीन तय की गयी, जहां आज विश्वविद्यालय स्थापित है. ये बातें बीएचयू के दस्तावेजों में अब भी दर्ज हैं. संभव है कि यह बात आज नई पीढ़ी को बताई जाए तो वे मान भी जाएं लेकिन बीएचयू के किस्से सिर्फ बनारस में ही नहीं तैरते. बिहार के सीमावर्ती इलाके, जो बनारस के पास हैं, वहां के लोगों का बनारस शहर और बीएचयू से पुराना रिश्ता रहा है और आज भी वहां जाने पर पुरनिये लोग इस किस्से को इसी तरह से सुनाते हैं.

वादा तेरा वादा, वादे पे तेरे देशभक्त बाजी पर लगाया गया

netajiएक पुरानी कहावत याद आ रही है अपने देश के संदर्भ में कि कोस-कोस पर पानी बदले और पांच कोस पर बानी. मन करता है तो इसमें कुछ जोड़ दिया जाए और कुछ ऐसे इसे कहा जाए कि यहां हर पल बदले किस्से कहानी, कोस-कोस पर पानी और पांच कोस पर बानी. दरअसल हमारे देश की वाचिक परंपरा का एक लंबा इतिहास है. इसी के चलते कई बार इतिहास, इतिहास न रहकर किस्से-कहानी में तब्दील हो गया, कहीं-कहीं तो किस्सों को ही इतिहास का अंश मान लिया गया है. हालत यह है कि इतिहास विरोधी इतिहास के भीतर की विविधता को स्वीकार करने तक को तैयार नहीं होते और प्रमाणिक तीन सौ रामायणों की जगह सिर्फ एक रामायण और रामचरित मानस को ही इतिहास मान लेते हैं और बाकी सबको भी जबरन मनवाने पर तुल भी गए हैं. शंका करने वालों के लिए वह बकौल फिल्म पीके के एक पात्र के अनुसार त्रिशूल-तलवार लिए फिर रहे हैं. खैर…

आधुनिक भारत में इन इतिहास विरोधी तत्वों को गांधी, भगत सिंह और बाबा साहेब अंबेडकर से सबसे ज्यादा डर लगता है. इसीलिए यह सबसे ज्यादा इन महान व्यक्तित्वों के खिलाफ किस्से-कहानी, गल्प कथाएं और बातें गढ़ते रहते हैं. मजबूरी का नाम महात्मा गांधी जैसे जुमले इनकी खीज और चिढ़ का प्रमाण है. दरअसल यह अतार्किक और अवैज्ञानिक जीवन शैली के इतने गुलाम होते हैं कि इससे बाहर आकर समय, इतिहास, दर्शन और संस्कृति आदि की शिनाख्त नहीं कर पाते हैं. कूएं के मेंढकों की तरह, एक सीमित दुनिया और सोच में ही पूरा जीवन गुजार देते हैं. हालांकि इनकी कई जुमलेबाजी एक खास रणनीति का हिस्सा भी होती हैं. हाल ही में सत्ताधारी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा अपने सर्वमान्य नेता के चुनावी वादों को जुमला कहकर जन भावना के उबाल पर जो छींटे डाले गए हैं वो इसी किस्म की रणनीति की ओर इशारा करते हैं. खैर…

हुआ ये कि अपन को एक दिन इस जम्बूद्वीप के किसी अनाम स्थान पर स्थित एकल विद्यालय में पढ़ानेवाले स्वनामधन्य स्वाध्यायी टकरा गए. वे बेहद परेशान थे. उनकी अपनी सरकार ने सुभाष चंद्र बोस से जुड़े दस्तावेजों को सार्वजनिक करने में पुरानी भ्रष्ट और देशद्रोही सरकार की तर्ज पर मना कर दिया था. उनके पाचन तंत्र में खासी उथल-पुथल मची हुई थी. वह लगातार मुंह से थूक निकालते-निगलते कह रहे थे. यह गांधी की बदमाशी है. उसी ने हमारी सरकार के हाथ बांध रखे हैं. उसने ही अंग्रेजो से समझौता किया था कि सुभाष बाबू यानी सुभाष चंद्र बोस को देश में अगले 50 वर्ष तक आने नहीं देंगे, इस एवज में तुम हमें आजाद कर दो. गरचे सुभाष ने इससे पहले देश में कदम रखा तो तुम हमें फिर से गुलाम बना लेना. उन्होंने यह बात इतने विश्वास से कही जैसे कि यह सब उन्हीं के सामने घटा हो. अपन यह वाचिक इतिहास सुनकर सकते में आ गए. लगा, क्या ऐसे भी समझौते होते हैं देश को आजाद कराने के लिए. गर ऐसे ही देश आजाद होना था तो इतना सत्याग्रह और आंदोलन करने की क्या जरूरत थी, पहले ही कर लेते वादा-समझौता. देशभक्ति के नाम पर सुभाष बाबू पहले ही यह कुर्बानी दे देते. इतना तो अपन को पक्का भरोसा था. फिर जब गांधी की इच्छा का मान रखने के लिए वो कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ सकते थे तो देश के लिए तो वह कुछ भी कर देते. बेकार ही आजाद हिंद फौज बनाई, नारा दिया कि ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’. अभी दिमाग में यह सब चल रहा था कि वो अपने श्रीमुख से बताने लगे कि यह बात सन् 1947 की है. महात्मा गांधी (यह संबोधन हमारा है, उन्होंने तो कुछ और ही बोला था) ने अपनी राजनीतिक दुश्मनी के चलते देश के सपूत को देश निकाला दिलवा दिया. आज अगर सुभाष बाबू की फाइलें सार्वजनिक हो जाएं तो सारी बात सामने आ जाएगी. खैर अपन ने जैसे-तैसे उनसे जान छुड़ाई और पहुंचे सीधे अपने पड़ोस के सार्वजनिक पुस्तकालय, यह जानने स्वाध्यायी महाराज की बात में इतिहास कितना है,  तथ्य कितने हैं और गप कितनी है.


गौर फरमाएं

पुस्तकालय में पहुंच आजादी के आंदोलन से जुड़ी इतिहास की किताबों के पन्ने पलटने के बाद किसी में भी और कहीं इस बात का जिक्र तक नहीं मिला कि गांधी ने अंग्रेजो से ऐसा कोई वादा किया था. वहीं यह मालूम हुआ कि तमाम मतभेदों के बावजूद गांधी और सुभाष एक-दूसरे का सम्मान करते थे. कुछ तथ्य ऐसे भी मिले कि वो सुभाष ही थे जो गांधी को राष्ट्रपिता कहकर संबोधित करते थे. 1944 में रंगून (म्यांमार) में अपने एक भाषण में गांधी को वह बाकायदा राष्ट्रपिता कहकर संबोधित करते हैं. इसके अलावा देश की आजादी से पहले ही 18 अगस्त 1945 में उनकी हवाई दुर्घटना में मृत्यु की घोषणा की जा चुकी थी. ऐसे में गांधी और अंग्रेजों के बीच ऐसे काल्पनिक वादे का कोई औचित्य समझ नहीं आता. खैर, बातें हैं और बोलनेवालों का मुंह बंद नहीं किया जाता सो इनका आनंद लें.

विरोध की कहानियां

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कवि भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता की पंक्तियां कुछ इस प्रकार हैं, ‘जैसा मैं बोलता हूं वैसा तू लिख, और उससे भी बढ़कर वैसा तू दिख’ इस कविता को संदीप मील ने अपनी कहानियों में पूरी तरह चरितार्थ कर दिखाया है. युवा कहानीकार संदीप के पहले कहानी संग्रह ‘दूजी मीरा’ कहानी संग्रह की कहानियों को पढ़कर लगता है कि वे एक चलता-फिरता, जीता-जागता कथाकार हैं.

संदीप मील राजस्थान के हैं इसलिए उनकी अधिकांश कहानियों के प्लाॅट भी वहीं से बनते हैं.  ‘दूजी मीरा’  कहानी संग्रह की कहानियों में जब जाटों के सामंती ठाठ-बाट, सोच-विचार, रहन-सहन, वेश-भूषा का वर्णन आता है तब कहानी का कंट्रास्ट और तनाव देखते ही बनता है. जाट समाज के भीतर आ रहे बदलावों को भी उनकी कहानियों में रेखांकित किया गया है. इस इलाके के जाटों की लड़कियां भी पढ़ने के लिए जयपुर या दिल्ली जैसे आधुनिक शहरों में भेजी जाने लगी हैं पर उनकी शादियां अभी भी मां-बाप या समाज की मर्जी से ही होती हैं. उनकी एक कहानी की नायिका की भी शादी मां-बाप की मर्जी से तय कर दी जाती है. नायिका अपने मां-बाप के फैसले का अंतिम दम तक विरोध करती है और जब बात बनते नहीं िदखती है तो मजबूर होकर वह घर से भाग खड़ी होती है. नायिका का अन्य प्रसंगों में भी विद्रोही तेवर देखने को मिलता है. कथाकार संदीप ने अपनी इस नायिका को भक्तिकालीन कवयित्री मीरा से जोड़कर देखा है और इसी से प्रेरित होकर अपने संग्रह काे ‘दूजी मीरा’ नाम दिया है.

जाटों को लक्ष्य करते हुए संदीप की दूसरी कहानी है- ‘एक प्रजाति हुआ करती थी जाट.’ इस कहानी के जरिए संदीप यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि खापों के मुखिया चौधरी जब बेलगाम हो जाते हैं तो किस तरह से वे खुदा और दिमाग को भी फांसी पर चढ़ा देने का फरमान जारी करते हैं. यह एक प्रतीकात्मक कहानी है जो चौधरियों की बर्बरता और तालिबानी मानसिकता का पर्दाफाश करती है. इस कहानी को पढ़ते हुए भारतेन्दु के प्रसिद्ध नाटक ‘अंधेर नगरी’ की याद हो आती है, जिसमें राजा के पास बकरियों की मौत के जिस किसी भी संदिग्ध गुनहगार को पकड़कर लाया जाता है, राजा सब को फांसी पर चढ़ा देने का हुक्म तामील करता है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में खापों के फरमानों को जिस तरह से आंख मूंदकर अमल में लाया जाता है उससे तो अंधेर नगरी होने की बात समझ में आती है. पूरी कहानी संवाद शैली में है और एक ज्वलंत नाटक का आभास देती है. ‘झूठी कहानी’, ‘खोट’, ‘जुस्तजू’, ‘लुका पहलवान’, ‘नुक्ता’, ‘टांगों पर ब्रेक’, ‘वहम’ और ‘थू’ भी घूमा-फिराकर जाट समाज की ही कहानियां हैं.

पुस्तक : दूजी मीरा

मूल्य : 129 रुपये

कहानीकार : संदीप मील

प्रकाशक : ज्योतिपर्व, गाजियाबाद