खेल में बदलाव और बदलाव में खेलना

क्रिकेट का इतिहास देखें तो खेल में लगातार महत्वपूर्ण बदलाव आते रहे हैं और क्रिकेट ने इन्हें पूरी उदारता के साथ समाहित किया है. जीवन से जुड़ा ये खेल एक बार फिर बदलाव से गुजर रहा है. श्रीलंका में खेली गई टेस्ट श्रंखला में पहली बार रैफरल सिस्टम यानी तकनीकी राय को लागू किया गया. 

खेल में अयोग्य अंपायर और अपूर्ण तकनीकी योग्यता के कारण अन्तर्राष्ट्रीय क्रिक्रेट परिषद पर भारी दबाव था. खेल की प्रगति के लिए बदलाव जरूरी भी हैं. इस लगातार तकनीकी होती दुनिया के लिए महान वैज्ञानिक स्टिफन हॉकिन्स ने कहा है हमारी तकनीकी योग्यताओं ने हमारे विवेक की क्षमता को भोंथरा किया है. मगर तकनीक का इस्तेमाल करने वाले के विवेक पर उसकी सफलता या असफलता निर्भर करती है. यही बात खेलों के बारे में भी मानी जा सकती है. दुनिया अब इस मोड़ पर है कि तकनीक है तो उसको नज़रअन्दाज नहीं किया जा सकता.

पिछले साल आस्ट्रेलिया में भारत के खिलाफ गए गलत फैसलों के कारण, 3 टैस्ट मैचों की भारत-श्रीलंका सीरिज में प्रयोग के तौर पर तकनीकी राय लेना स्वीकार किया गया. खेल प्रेमियों को याद होगा कि भारत की साऊथ अफ्रीका टेस्ट श्रृंखला 2001-02 में वीरेन्द्र सहवाग समेत छ: भारतीय खिलाड़ियों को मैच रेफरी माईक जेनिस ने प्रतिबंधित किया था, क्योंकि इन सभी ने अत्यधिक अपील कर अंपायरों पर जबरदस्त दबाव डाला था. टीवी रिप्ले और अन्य तकनीकों के द्वारा पता चला कि कई बार उनकी अपीलें जायज भी थीं. बाद में भारतीय बोर्ड ने इसे रंगभेद बताते हुए जोर डाला तो आईसीसी को अपना फैसला वापस लेना पड़ा. तभी से यह देखा जा रहा था कि टीवी पर देख रहे लोग तो तकनीक का फायदा उठा रहे थे पर मैदान पर खेल रहे खिलाड़ी और अंपायरों के लिए यह उपलब्ध नहीं थी. यह भेद, रंगभेद से भी बड़ा था. प्रयोग के तौर पर आईसीसी ने टेस्ट मैच में दोनों टीमों को अंपायर के फैसले के खिलाफ दिन में तीन बार तकनीकी राय की अपील करने की अनुमति दी. अगर यह तकनीकी राय महान गेंदबाज शेन वार्न और मुरलीधरन के लिए पहले आ जाती तो उन दोनों के ड़ेढ हजार विकेट हो सकते थे

दोनों टीमों ने कुल मिलाकर 48 बार तकनीकी राय लेने का आग्रह मैदानी अंपायरों से किया. यह मानना पड़ेगा कि श्रीलंका के कप्तान जयवर्धने ने इस प्रयोग का भारतीय कप्तान कुंबले से कहीं ज्यादा लाभ उठाया. पांच दिनों के टेस्ट में इस तकनीकी राय के इस्तेमाल में लगा समय महत्वपूर्ण हो सकता है, पर बारिश भी तो कीमती समय खा सकती थी. अगर देखा जाए तो सभी मैचों के निर्णय निकले ही. यानी रुकावटों के बाबजूद तीनों टेस्ट निर्णायक और मनोरंजक रहे, और ऐसा किसी को नहीं लगा कि श्रृंखला जीतने वाली श्रीलंका को तकनीकी राय लेने से कोई अनुचित लाभ मिला हो. श्रीलंकाई खिलाड़ी ज्यादा अच्छा खेले और भारतीय खिलाड़ी अपने स्वभाविक खेल के अनुरूप नहीं खेल पाए. अब कोई वैसा भी नहीं कह सकेगा, जैसा सिडनी टेस्ट में ईशान्त शर्मा की गेंद पर एन्ड्रयू साइमण्डस को लपक लिए जाने पर कहा जा रहा था–अगर वे आऊट करार किए जाते, जो वो थे, तो भारत शायद आस्ट्रेलिया में पहली बार जीत सकता था. सिडनी जैसी बातें श्रीलंकाई दौरे पर नहीं कही गईं. फर्क शायद तकनीकी राय का ही था. श्रीलंकाई श्रृंखला से पहले न खिलाड़ियों को यह सुविधा थी न अंपायरों को. मानना पड़ेगा कि तकनीकी राय देर से आयी पर दुरुस्त आयी.

अब जब तकनीकी राय लेने का प्रयोग हो गया है तो इसकी समीक्षा होना निश्चित है. क्रिकेट विचारकों और आईसीसी तकनीकी समिति को इस प्रयोग पर फैसला करना होगा. तकनीकी राय की प्रयोगात्मक्ता बढ़ाई जाये या इसको अपना लिया जाए?

यह सब जानते हैं तकनीक इंसान बनाता है और वही इस्तेमाल करता है. यह भी हम समझते हैं कि गलती बनाने में भी हो सकती है और इस्तेमाल करने में भी. श्रीलंका में 48 बार तकनीकी मदद के बाबजूद मैदानी अंपायरों के फैसले तीन गुना ज्यादा सही रहे. और यही खेल के लिए महत्वपूर्ण है. क्रिकेट के परम्परावादी लोग तकनीक के बढ़ते उपयोग से खफा हैं पर जितनी भी मदद मैदानी अंपायरों को इससे मिलेगी वह खेल में सुधार ही लायेगी. सिडनी जैसी स्थितियां शायद कम ही हों लेकिन यहां फैसला तकनीक की मदद लेने से है. खेल को तकनीक के भरोसे थोड़े ही छोड़ना है.

श्रीलंकाई जीत के महानायक रहे फिरकी गेंदबाज अजन्ता मैंण्डिस. उनकी तीन टेस्ट श्रृंखलाओं में सबसे ज्यादा विकेट लेने के नए कीर्तिमान का कुछ श्रेय तकनीकी राय को भी जाना चाहिए. पुराने खिलाड़ी मानते हैं कि अगर यह तकनीकी राय महान गेंदबाज शेन वार्न और मुरलीधरन के लिए पहले आ जाती तो उन दोनों के ड़ेढ हजार विकेट हो सकते थे. ऐसा देखा गया है, पहले जिन बल्लेबाजों को सन्देह का लाभ मिलता था वह अब नहीं मिलेगा, और बराबरी के खेल में मिले भी क्यों? गेंदबाजों की मेहनत भी समान होती है. बल्लेबाजों की सफलता में बढ़िया बनाई गई पिच, लगातार बल्लों, ग्लब्स, पैड और हेलमेट में सुधार ने योगदान दिया है. लेकिन गेंदबाजी की कला को नकारा गया. बराबरी के खेल में तकनीकी राय दोनों के लिए उपलब्ध है. संदेह लाभ किसी एक को ही क्यों मिले?

जैसे आप अपने आप से झूठ नहीं बोल सकते हैं वैसे ही हर बल्लेबाज को पता होता है कि कैच होने से पहले गेंद बल्ले से लगी है या नहीं. अगर बल्लेबाज जानता है कि वो कैच आऊट है तो उसे फैसले लेने में अम्पायर की मदद ही करनी चाहिए. तकनीकी राय के प्रयोग के कारण बल्लेबाजों का इंतजार करना उन्हें लज्जित कर सकता है, जैसा कि श्रीलंका में महान सचिन के साथ देखा गया. तीसरे निर्णायक टेस्ट मैच में 144 पर आऊट होने के बाद संगकारा ने अंपायर के फैसले का इंतजार नहीं किया. इसके विपरीत सिडनी में साइमण्ड्स पिच पर डटे रहे. क्रिकेट की परम्परा रही है कि अगर बल्लेबाज को मालूम है कि वह आउट है तो उसे अम्पायर के फैसले का इंतजार किए बिना पवेलियन लौट जाना चाहिए. मगर कड़ी प्रतिस्पर्धा और खिलाड़ियों के बढ़ते पेशेवराना रवैये ने इस परम्परा को आघात पहुंचाया है. शायद तकनीक की वजह से अब यह बदलेगा.

हां, तकनीकी राय अभी जहां संदेह के घेरे में आती है वह पगबाधा फैसलों को ले कर है, क्योंकि तकनीक अलग अलग पिच के उछाल, उन पर गेंद का ज्यादा या कम घुमाव, हवा और नमी के खेल पर असर को पूरी तरह जांचने में असफल रही है. इसमें सुधार लाया जा सकता है.

इंग्लैण्ड में खेली गई साऊथ अफ्रीका के खिलाफ श्रृंखला में यह प्रयोग नही किया गया. सितम्बर में पाकिस्तान में होने वाली चैम्पियंस ट्राफी में इसको लागू किया जा सकता है ताकि सभी देशों के खिलाड़ी इस खेल को जांच लें और खेल में एक नए युग की शुरुआत हो सके. लेकिन इस में एक डर भी छिपा है कि कहीं तकनीक क्रिकेट पर हावी न हो जाए. इसलिए तकनीकी राय का उपयोग करते हुए, परम्परागत विवेक से खेलना भी जारी रखना होगा, क्योंकि वही तो असली क्रिकेट है.

संदीप जोशी.

लेखक क्रिकेट प्रशिक्षक एवं पूर्व रणजी खिलाड़ी हैं.