अरुंधती रॉय से शब्द उधार लेकर कहूं, तो सचमुच, तरस आता है इस देश के समाचार मीडिया खासकर समाचार चैनलों पर जो लेखकों और बुद्धिजीवियों को अपने मन की बात कहने के जुर्म में जेल भेजने की मुहिम चला रहे हैं. कई चैनलों की चली होती तो अरुंधती समेत अन्य कई बुद्धिजीवी देशद्रोह के आरोप में अब तक जेल में होते. उन पर तरस इसलिए आता है कि उन्हें पता नहीं कि उनकी इस मुहिम का क्या मतलब है. कहने की इच्छा होती है कि ‘हे दर्शकों-पाठकों-श्रोताओं, माफ करना, इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं?’
आखिर अरुंधती ने ऐसा क्या कह दिया कि चैनलों पर हंगामा-सा बरपा हो गया है? क्या कश्मीर के बारे में कथित ‘राष्ट्रीय सहमति’ की लाइन से अलग असहमति में बोलना जुर्म है? क्या अरुंधती के बयान से सचमुच देश टूटने की नौबत आ गई है? सवाल यह भी है कि क्या सच पर सिर्फ चैनलों की ही इजारेदारी है. क्या अब किसी लेखक और बुद्धिजीवी को बोलने से पहले सच के ठेकेदारों से इजाजत लेनी पड़ेगी? और सबसे बढ़कर अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे को कौन परिभाषित करेगा?
ये सवाल उठाने इसलिए जरूरी हैं कि पिछले कुछ वर्षों में कभी राष्ट्रवाद की आड़ में, कभी आतंकवाद से लड़ाई के बहाने, कभी लोगों की धार्मिक आस्थाओं और कभी समाज में नैतिकता की रक्षा के नाम पर अभिव्यक्ति की आजादी को दबाने और एक अघोषित सेंसरशिप थोपने की कोशिशें काफी तेज हो गई हैं. अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे को लगातार संकुचित और सीमित करने की मुहिम चल रही है. खासकर अगर आपके विचार शासक वर्गों द्वारा गढ़ी गई ‘आम सहमति’ (जहां राजनीतिक रूप से कांग्रेस-भाजपा-सीपीएम से लेकर सभी किस्म के उदारवादी-मध्यमार्गी-दक्षिणपंथी एकमत हों) के दायरे को चुनौती देते हों तो फिर अरुंधती रॉय की तरह आपकी खैर नहीं है.
चिंता की बात यह है कि अब असहमत आवाजों को दबाने की ऐसी ज्यादातर कोशिशें सरकार या पुलिस की बजाय सांप्रदायिक फासीवादी अपराधी समूहों या भगवा देशभक्ति और कॉरपोरेट ‘विकास’ के ठेकेदारों द्वारा भीड़ को भड़काकर की जा रही है. पुलिस और सरकार आज्ञाकारी सेवक की तरह इस भीड़ के साथ खड़ी रहती है. लेकिन सबसे अधिक अफसोस की बात यह है कि अब इस भीड़ में समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनल भी शामिल हो गए हैं. उन्होंने आतंकवाद के खिलाफ देशभक्ति, विकास और नैतिकता का झंडा एक साथ उठा लिया है और जो भी उनके सुर में सुर मिलाने के लिए तैयार नहीं है वह उनके मुताबिक आतंकवाद का समर्थक, देशविरोधी और विकासविरोधी है.
क्या अब किसी लेखक और बुद्धिजीवी को बोलने से पहले सच के ठेकेदारों से इजाजत लेनी पड़ेगी
ऐसे में, अगर आपने कश्मीर से लेकर उत्तर-पूर्व और आदिवासी इलाकों में मानवाधिकारों की बात कर दी या विकास योजनाओं के बहाने कॉरपोरेट लूट पर गंभीर सवाल उठा दिए तो आपको देशविरोधी साबित करने में जरा भी देर नहीं लगती. वैसे तो हमारे समाचार चैनल बोलने की आजादी और सच के साथ खड़े होने के दावे करते नहीं थकते हैं और कई बार यह भ्रम भी होता है कि गोया वे सच और अभिव्यक्ति की आजादी के सबसे बड़े चैंपियन हों. आखिर मंत्रियों-अफसरों के भ्रष्टाचार के खुलासे हों या पुलिसिया ज्यादतियों को चुनौती देने का मामला हो या इस जैसे अन्य मामले, मीडिया और न्यूज चैनलों के ‘साहस’ की दाद देनी पड़ेगी!
लेकिन यही उनकी आजादी का दायरा है. इतनी आजादी पर आम सहमति है. लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी के भ्रम को बनाए रखने के लिए मीडिया की स्वतंत्रता का यह दायरा बनाया गया है. जब भी कोई लेखक, कलाकार या बुद्धिजीवी इससे बाहर जाने की कोशिश करता है, मीडिया और न्यूज चैनलों में उसे देश और समाज से बहिष्कृत करने की मुहिम शुरू हो जाती है. आश्चर्य नहीं कि इस कारण जब भी वास्तव में, सच और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए लड़ने का मौका आता है, समाचार मीडिया ‘आम सहमति’ की तानाशाही के आगे रेंगता नजर आता है.
इस तरह, जिस समाचार मीडिया का अस्तित्व अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ा हुआ है और जिसकी विश्वसनीयता उसकी सच्चाई पर टिकी हुई है, वह खुद जाने-अनजाने बोलने की आजादी और सच का दुश्मन बनता जा रहा है. लेकिन सच पर किसी की बपौती नहीं है. मीडिया की भी नहीं. चैनलों को एक बात याद रखनी चाहिए कि जिस सच की वे कसमें खाते रहते हैं उस तक पहुंचने की यह अनिवार्य शर्त है कि अभिव्यक्ति की अधिकतम संभव आजादी की गारंटी की जाए. अगर कश्मीर सचमुच भारत का ‘अभिन्न अंग’ है तो देश के हर नागरिक को उसकी सच्चाई जानने का अधिकार है.
लेकिन यह सच्चाई तब तक सामने नहीं आ सकती जब तक सबकी बात न सुनी जाए, चाहे वह सैय्यद अली शाह गिलानी हों या अरुंधती रॉय या कोई और. यही लोकतंत्र का तकाजा है और अभिव्यक्ति की आजादी की परीक्षा भी.