एक्सप्रेस के लोगों से विचार विनिमय में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी जी ने कहा मुझे सचमुच बिल्कुल समझ नहीं आता कि भाजपा नेता जिन्ना का मूल्यांकन करने में इतने उत्सुक क्यों हैं? मैं जानना चाहता हूं कि इस मामले में इतनी गहराई से लगने को उन्हें प्रोत्साहित क्या कर रहा है?
सावरकर को लगता था या ऐसा वे चाहते थे कि अंग्रेज जाते जाते मुसलमानों को अगर पाकिस्तान दे कर जाएंगे तो हिंदुस्तान हिंदुओं को यानी उनकी हिंदू महासभा को देकर जाएंगे
प्रणब बाबू की उत्सुकता को शांत करने की कोशिश अपन आगे करेंगे. फिलहाल देख लें कि वे क्या और कह रहे हैं. उनने कहा- मुझे यह भी बिल्कुल समझ नहीं पड़ता कि जिन्ना की धरोहर को जानने बताने में वे इतनी गहराई तक क्यों जा रहे हैं जबकि इसका आज की भारतीय राजनीति से कोई लेना देना नहीं है. राजनैतिक पार्टियों को इतिहास में जिन्ना की जगह का मूल्यांकन करने की ऐसी क्या और क्यों पड़ी हुई है? जिन्ना के मामले में भाजपा का बार-बार संकट में पड़ना भी मेरी समझ में नहीं आता. इतिहास जहां है उसे वे वहीं क्यों नहीं रहने देना चाहते? आज की भारतीय राजनीति में जिन्ना के मूल्यांकन की क्या प्रासंगिकता है? मूल्यांकन का काम इतिहासकारों को करने दीजिए. आप इतिहासकार की भूमिका में आना चाहते हैं तो ठीक है आइए. लेकिन तब आपको वस्तुनिष्ठ होना पड़ेगा.
जसवंत सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, शेषाद्रि, सुदर्शन आदि कहेंगे कि हम तो अपने आकलन में वस्तुनिष्ठ हैं. गड़बड़ तो वामपंथी और कांग्रेसी इतिहासकारों ने की है. वे सच बोल रहे हैं कि नहीं इसका अंदाज लगाने में आपकी उमर बीत जाएगी. इसलिए इस बात को छोड़कर अपन प्रणब बाबू के सवाल पर आ जाएं कि संघी लोगों को जिन्ना के आकलन में इतनी गहराई से पड़ने को कौन और क्या लगा रहा है और इस मामले में वे इतने उत्सुक क्यों हैं?
आप जानते हैं कि हिन्दुत्व पर अपना निबंध विनायक दामोदर सावरकर ने सन तेईस में लिख दिया था. दो साल बाद केशव बलिराम हेडगेवार ने उस विचार को मूर्त करने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना की. उनसे पूछा गया कि राष्ट्रीय क्यों हिन्दू क्यों नहीं? तो डाक्टर साब ने कहा हिंदू ही राष्ट्रीय है. यह सावरकर के हिंदू राष्ट्रवाद का सटीक उदाहरण है. लेकिन आप देखिए कि सन पच्चीस से सैंतालीस तक यानी भारत के आजाद होने तक राष्ट्रीय जीवन में संघ बाईस रहा. लेकिन देश की आजादी में उसने अपनी चींटी उंगली भी नहीं चलाई. सन बयालीस में अंग्रेजों ने सभी तरह की सैनिक-अर्धसैनिक गतिविधियों पर रोक लगा दी. गुरू गोलवरकर ने शाखा का सैनिक विभाग तत्काल बंद कर दिया. संघ की गांधी की अहिंसा में निष्ठा नहीं थी तो सशस्त्र क्रांतिकारियों के साथ हो सकता था, लेकिन सशस्त्र कार्रवाई में भी वह नहीं पड़ा. आजादी का आंदोलन उसकी गतिविधियों में रहा ही नहीं.
जिन्ना का लाठी की तरह इस्तेमाल करते हुए ये गांधी और नेहरू की पिटाई कर सकते हैं. जसवंत सिंह और सुदर्शन ने तो कह ही दिया है कि जिन्ना को कट्टर मुस्लिम राष्ट्रवादी कांग्रेस, गांधी और नेहरू ने बनाया
क्योंकि अंग्रेज, संघ और हिंदुत्ववादियों के शत्रु नंबर एक नहीं थे. शत्रु नंबर एक भारतीय मुसलमान थे. सावरकर ने स्थापित किया था कि भारत में राष्ट्र सिर्फ हिन्दू है. मुसलमान और ईसाई सिर्फ समुदाय हैं क्योंकि वे बाहरी और विदेशी धर्मो को मानते हैं. उनकी पुण्य-भू विदेश में है इसलिए भारत के प्रति वफादार वे कभी हो ही नहीं सकते. जब तक वे इन धर्मों को छोड़ कर वापस हिंदू धर्म में नहीं आते उन्हें हिंदुत्व प्राप्त नहीं हो सकता. इसलिए संघ वालों ने सांप्रदायिक दंगों में मुसलमानों से हिंदुओं को बचाना अपना पहला काम माना. सन सत्ताईस के नागपुर दंगे से लेकर सन सैंतालिस के भारत विभाजन तक संघ दंगों में हिंदुओं की तरफ से लड़ता और उन्हें बचाता रहा. जिन वर्षों में भारत विभाजन की साजिश हुई और योजना बनी उसे रोकने या होने देने में संघ ने कुछ नहीं किया. भारतीय जनसंघ विभाजन के चार साल और भाजपा तैंतीस साल बाद बनी.
इस तरह संघ और उसकी राजनैतिक पार्टी का आजादी के आंदोलन और भारत विभाजन से कोई संबंध नहीं था. हां हिंदू राष्ट्रवाद और द्विराष्ट्रवाद ने मुसलिम राष्ट्रवाद और अलगाववाद की आंच में घी जरूर डाला. संघ और हिंदू महासभा के हिंदू राष्ट्रवाद ने भारत विभाजन में बड़ी भूमिका निभाई. वे अखंड भारत की बात करते रहे और विभाजन के लिए जिन्ना की तरह ही गांधी, नेहरु और पटेल को कोसते रहे लेकिन उसे रोकने के लिए उनने कुछ नहीं किया. पूछना चाहिए कि इस दुखद इतिहास में अगर उनका योगदान नहीं है तो भारत की आजादी और विभाजन पर संघियों के मन में इतनी गांठे क्यों हैं?
वे अकर्मण्य रहे इस कारण? नहीं वे खूब और पूरी तरह सक्रिय थे. भारत में मुसलमान अलग राष्ट्र हैं इसकी बात अगर पहली बार सन 1888 में सर सय्यद अहमद ने की थी तो तब के आर्य समाजी लाला लाजपत राय ने उसी साल उनकी आलोचना की. आर्य समाज के ही लोगों ने पंजाब के ऊपर के इलाके को अफगानिस्तान और उत्तर पश्चिम सीमाई राज्य से मिलाकर अलग मुसलिम राज बनाने की बात कही थी. अंग्रेजों की बनवाई मुसलिम लीग और उसके जवाब में हिंदू सभा तो बाद में बनी. हिंदू राष्ट्रवाद एक अन्तर्धारा तो ब्रिटिशराज के असर में बंगाल के पुनर्जागरण के समय से ही चल निकली थी. उसे एक व्यक्तिगत विचारधारा का रूप भले ही सावरकर ने सन तेईस में दिया हो. हिंदू राष्ट्रवाद की जननी हिंदू महासभा थी जिसने सावरकर के नेतृत्व में राजनैतिक आंदोलन का रूप दिया.
मुसलिम लीग का मुसलिम राष्ट्रवाद और हिंदू महासभा का हिंदू राष्ट्रवाद एक दूसरे से होड़ करते हुए एक दूसरे को पुष्ट करते थे. अंग्रेज बांटो और राज करो के हित में जब जैसी जरुरत होती इन दोनों का उपयोग करते. ये दोनों एक दूसरे के विरूद्ध तो थे लेकिन अंग्रेजों के तो साथ ही रहते और उनकी कृपा पाने की जुगत करते रहते. अंग्रेजों को सन सत्तावन के बाद सबसे बड़ा डर हिंदू-मुसलिम एकता से लगता था. लीग और सभा का इस्तेमाल वे हिंदुओं को मुसलमानों से लड़ाने के लिए करते थे. इनका उपयोग वो कांग्रेस को मुश्किल में डालने में भी करते क्योंकि वही उनकी असल दुश्मन थी और उनका राज खत्म करने में लगी थी.
सावरकर को लगता था या ऐसा वे चाहते थे कि अंग्रेज जाते जाते मुसलमानों को अगर पाकिस्तान दे कर जाएंगे तो हिंदुस्तान हिंदुओं को यानी उनकी हिंदू महासभा को देकर जाएंगे. अंग्रेज ऐसा चाहते भी तो कर नहीं सकते थे. कांग्रेस बीच में थी और हिंदुओं और मुसलमानों दोनों की पार्टी थी और वही आजादी के आंदोलन का नेतृत्व कर रही थी. जिन्ना ने अगस्त छियालिस में सीधी कार्रवाई कर के जो कत्ले आम बंगाल में मचाया था उसके बाद अलग पाकिस्तान की मांग अंग्रेज पूरी किए बिना नहीं जाते. जिन्ना जैसा पाकिस्तान बनाना चाहते थे हिंदू महासभा और संघ भी वैसा ही हिंदुस्तान बनाना चाहते थे. लेकिन जिन्ना तो अलग होना चाहते थे इसलिए हिंसा का ताण्डव भी कर सकते थे. सावरकर को अखंड भारत चाहिए था जिससे वे मुसलमानों और ईसाइयों को बाहर करते. हिंदू राष्ट्रवादियों को कांग्रेस से निपटना था जिन्ना को किसी की फिकर नहीं थी.
जिन्ना पाकिस्तान बनाने में सफल हुए. हिंदू राष्ट्रवादी गांधी की हत्या से आगे नहीं जा सके. बल्कि गांधी की हत्या ने ही भारत में उनके हिंदू राष्ट्रवादी भविष्य का अंत कर दिया. हिंदू महासभा देखते देखते समाप्त हो गई. सावरकर गांधी हत्या की साजिश में पकड़े गए. संघ पर पाबंदी लगाई गई जो सरदार पटेल की कुछ शर्तें मानने के बाद ही उठाई गई. लोकतांत्रिक भारत में अपनी रक्षा के लिए संघ को भारतीय जनसंघ नाम का राजनैतिक दल बनाना पड़ा. कांग्रेस से होड़ करने के लिए इस दल के पास आजादी की लड़ाई की पुण्याई नहीं थी. हिंदुत्ववादियों पर गांधी की हत्या का कलंक था. हिंदू राष्ट्र न बनवा पाने का चिर स्थाई दुख और भारत विभाजन रोकने में कुछ न कर पाने का पछतावा. धीरे-धीरे जिन्ना और भारत विभाजन संघ-भाजपा के कुंठित मन की ग्रंथियां हो गई.
जिन्ना को ये लोग भारत विभाजन का कर्ता नंबर एक मानते हैं. लेकिन ऐसा मानने से न उनकी खुंदक निकलती है न भारतीय राजनीति में इसका कोई लाभ मिलता है. जिन्ना में उन्हें एक सफल सावरकर भी दिखता है. आखिर जिन्ना का राष्ट्रवाद हिंदू राष्ट्रवाद का प्रतिरूप ही था. कोई साठ साल से ये एक दूसरे से होड़ करते हुए एक दूसरे जैसे हो गए थे. हिंदू राष्ट्रवादी गांधी, नेहरू और पटेल और उनकी कांग्रेस को अपने सफल न हो पाने का मुख्य कारण मानते हैं. इसलिए इन तीनों को भारत विभाजन का जिम्मेदार बताकर जनता के मन में इनकी छवि बिगाड़ने और फिर खलनायक बनाने में लगे रहते हैं.
जिन्ना इनके बड़े काम के हैं. जिन्ना का लाठी की तरह इस्तेमाल करते हुए ये गांधी और नेहरू की पिटाई कर सकते हैं. जसवंत सिंह और सुदर्शन ने तो कह ही दिया है कि जिन्ना को कट्टर मुस्लिम राष्ट्रवादी कांग्रेस, गांधी और नेहरू ने बनाया. जिन्ना तो पाकिस्तान की धौंस मुसलमानों के लिए बहुसंख्यक हिंदू भारत में स्थाई रियायतें पाने के लिए कर रहे थे. नेहरू पटेल और गांधी ने तो उन्हें पाकिस्तान दे ही दिया. इनको सत्ता की जल्दी न होती तो भारत खंडित नहीं होता.
आज की राजनीति में जिन्ना न भारत में प्रासंगिक है न पाकिस्तान में. लेकिन संघियों की सड़ी गांठ उनके बिना नहीं खुलती. समझे कि नहीं प्रणब बाबू.