विस्तार है अपार

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वासंती, 40 साल
28 नवंबर, 2012; रात 12.00 बजे, नई दिल्ली
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आज प्रशांत ने शादी के लिए प्रपोज किया. मेरी उंगलियां कांप रही हैं, विश्वास ही नहीं होता कि यह सब सच में हो रहा है. मैं तो उम्मीद छोड़ चुकी थी. जैसे ही 40 की उम्र में फिर से शादी करने का ख्याल आता, मैं सोचने लगती कि फिर से उन्हीं झंझटों में पड़ने का क्या फायदा? फिर से किसी को उतनी ही शिद्दत से प्यार करो, उसका घर बसाओ, उसकी पसंद-नापसंद से प्यार करो और फिर वही लड़ाइयां! फिर लगता था, लोग क्या कहेंगे? चाची ने तो ताना देते हुए कहा भी था, ‘बुढ़िया हो गई हैं और ब्याह करेंगी ! एक शादी तो निभाई नहीं गई इनसे.’ लेकिन प्रशांत को विश्वास है कि हम एक नई जिंदगी शुरू कर सकते हैं. और सच कहूं तो कहीं न कहीं मैं खुद भी अपने आप को एक दूसरा मौका देना चाहती हूं. प्रशांत के आने के बाद मैं बहुत खुश रहने लगी हूं और मुझे नहीं लगता कि खुश रहना कोई अपराध है. दिबाकर ने भी तो अपनी खुशी के लिए मुझे छोड़ा था ! जब वो कंपनी की तरफ से दो साल के लिए अमेरिका जा रहा था तब मैंने कितनी जिद की थी साथ जाने की.

तब मैं 25 साल की थी और हमारी नई-नई शादी हुई थी. मुझे अजीब लगता था उसका व्यवहार. उसमें हमारी शादी को लेकर शुरू से कोई उत्साह नहीं था. मैंने पहले दिन ही महसूस कर लिया था कि उसका झुकाव नम्रता की तरफ था. नम्रता उसके दफ्तर में उसके साथ काम करती थी. फिर जब वो अमेरिका गया तो चीजें धीरे-धीरे साफ होने लगीं. वो मुझे वहां से फोन भी नहीं करता था. तंग आकर छह महीने बाद मैं खुद ही उससे मिलने पहुंच गई. मेरी जिंदगी का सबसे  काला दिन था वो. नम्रता उसके कमरे में थी. जलन और तकलीफ से मेरा पूरा शरीर जैसे कराहने लगा था. दिबाकर को किसी और से प्यार था, इस पर शायद मुझे उतनी आपत्ति नहीं थी जितनी उसके झूठ से थी. मैंने पूछा था कि उसने मुझे सच क्यों नहीं बताया? हम शादी ही नहीं करते या अलग हो जाते!

कम से कम मुझे इतनी तकलीफ से तो नहीं गुजरना पड़ता. पता चला कि उसने अपनी मां की खुशी के लिए मुझसे शादी की और अपनी खुशी के लिए नम्रता के साथ अमेरिका चला गया. वो तो शुक्र है कि मैंने उससे जल्दी तलाक ले लिया और करियर पर ध्यान देना शुरू किया. उस वक्त शादी टूटने के लिए घर में सबने मुझे ही दोषी ठहराया था. आज पीछे मुड़कर देखती हूं तो लगता है कि अगर मैंने आगे पढ़ने की जिद न की होती और अपनी पढ़ाई को फंड करने के लिए उस पब्लिशिंग हाउस में पार्ट-टाइम नौकरी न की होती तो क्या होता? घर पर पड़े-पड़े सबके ताने सुनती और अपनी किस्मत को कोसती? एक ऐसे बेरीढ़ आदमी के लिए जिसमें सच कहने और सुनने की हिम्मत और ईमानदारी ही नहीं है?

प्रशांत के आने के बाद मैंने जिंदगी को नए नजरिये से देखना शुरू किया है. मजबूत तो मैं थी ही लेकिन प्रशांत के आने से मुझे अपने अंदर पानी महसूस होता है, वही नमी जो इतने सालों के संघर्ष से शायद सूख गई थी. अब मुझे लगता है कि 40 साल की उम्र में शादी करने में कोई बुराई नहीं है. कुछ लोगों को अपना सही साथी जल्दी मिल जाता है, वो खुशकिस्मत होते हैं. लेकिन कुछ लोग मेरे जैसे भी होते हैं जिन्हें जिंदगी के दूसरे या तीसरे पड़ाव में अपना सही साथी मिलता है. प्यार की उम्र नहीं होती और हर उम्र के इंसान को प्यार करने और खुश रहने का उतना ही हक है जितना किसी नौजवान को ! जब मैं 35 की हुई थी तब अचानक परेशान रहने लगी थी. पागलों की तरह हर 10 मिनट में अपना चेहरा देखती. कहीं झुर्रियां तो नहीं आ रहीं? बाल सफेद हो रहे हैं क्या? क्या अब टी-शर्ट्स मुझ पर अच्छी नहीं लगतीं? क्या अब मैं सुंदर नहीं लगती?  फिर मैंने अपने काम पर और ध्यान देना शुरू किया. खाली वक्त में मैं पढ़ती, घूमने जाती और फिल्में देखती. मैंने कई नई भाषाएं भी सीखीं. जर्मन , फ्रेंच और इटालियन. डांस का शौक था सो डांस क्लासेज में दाखिला लिया. धीरे-धीरे सब ठीक होने लगा. ऑफिस में सब मेरा बहुत आदर करते हैं. नए बच्चे अपनी दिक्कतें पूछने मेरे ही पास आते हैं.

फिर प्रशांत से मिलना हुआ. वो मुझे बहुत प्यार करता है, मेरा सम्मान करता है. उसने मुझे मेरी बढ़ती उम्र, मेरे तलाक और मेरी कमियों के साथ प्यार किया और मैंने भी. हम एक-दूसरे को कविताएं पढ़कर सुनाते हैं, घर में मिलकर खाना बनाते हैं और कभी कभी मस्ती करने डिस्को भी चले जाते हैं. अब जीवन में एक अजीब-सा साम्य महसूस होता है. ऐसा नहीं है हमारे बीच  कभी लड़ाई नहीं होती. लेकिन शायद हम दोनों ने जिंदगी में इतना दुख झेला है कि ‘साथ’ का मूल्य समझ में आ गया है. और यह भी कि कोई भी रिश्ता प्रेम से ज्यादा समर्पण से चलता है. जिंदगी के बाकी हिस्सों की तरह जवानी सिर्फ एक हिस्सा है. सबसे जरूरी बात जो मुझे इतने सालों बाद समझ में आई वह यह थी कि एक सुंदर स्त्री होने से ज्यादा जरूरी एक सुंदर, ईमानदार, स्नेहिल और करुणामय इंसान होना है. 

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निकिता, 45 साल
29 नवंबर, 2012; शाम 5.00 बजे, नागपुर
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आज दोपहर ही भोपाल से नागपुर पहुंचे. मेरा और बिट्टू का टिकट तो कन्फर्म था लेकिन राकेश का वेटिंग क्लीयर नहीं हो पाया. रास्ते भर बिट्टू सोता रहा और हम दोनों बतियाते रहे. आज किसी भी हालत में नागपुर पहुंचना ही था. कल सुबह नेहा को देखने लड़के वाले आ रहे हैं न, इसलिए. बात तो पहले ही पक्की हो चुकी है. वो तो लड़का एक बार नेहा से मिलना चाहता था इसलिए कल ये देखने-दिखाने का नाटक होने वाला है. राकेश जानते हैं कि मैं इस रिश्ते से खुश नहीं हूं क्योंकि नेहा खुश नहीं है. अभी पिछले महीने ही तो उसने राघव के बारे में घर में सबको बताया था. मुझे तभी अंदाजा हो गया था कि घरवाले राघव के लिए राजी होने से रहे, उल्टा अब नेहा को जल्दी से जल्दी किसी भी खूंटे से बांधकर भठियाने की तैयारी होने लगेगी. राघव अच्छा लड़का है लेकिन जाति से ठाकुर है. ऐसा पहाड़ टूट पड़ा जैसे उस बच्ची ने किसी का खून कर दिया हो! जब नेहा ने आगे जिद की तो घरवाले उसे गालियां देने लगे और सुरेश तो उसके साथ मार-पीट करने लगा ! मैं तो सन्न रह गई थी अपने घर के आदमियों का यह रूप देखकर!   

नेहा भले ही सुरेश की बेटी हो लेकिन मैंने उसे अपनी बच्ची की तरह पाला है. 25 साल पहले जब मैं इस घर में ब्याह कर आई थी तो सुरेश कितना छोटा था! फिर मेरे ही सामने उसका ब्याह हुआ और विनीता घर आई. फिर देखते ही देखते नेहा और सिद्धांत का जन्म भी हो गया.पहले नेहा. और उसके बाद सिद्धांत. इन बच्चों के आने पर मेरे बिट्टू और गुड़िया भी कितने खुश हुए थे! छोटी सी गुड़िया उछलते हुए अपने सुरेश चाचा के घर आए नए भाई-बहन का नाम रटती रहती . मां और बाबा भी निश्चिंत हो गए थे. हालांकि जब पहले मेरी गुड़िया हुई और विनीता ने नेहा को जन्म दिया तो मां- बाबा बहुत नाराज रहते थे. वे अपनी दोनों बहुओं से पोतों का मुंह दिखाने की उम्मीद लगाये बैठे थे और हम दोनों ने ही एक-एक करके बेटियों को जन्म दे दिया. नेहा के जन्म पर तो मां इतनी नाराज हुई थीं कि विनीता को देखने अस्पताल भी नहीं आईं! विनीता आज भी उस अपमान और पीड़ा को नहीं भूल पाई है. खैर, बाद में मैंने बिट्टू और विनीता ने सिद्धांत को जन्म दिया. घर में दो लड़कों की पैदाइश के बाद कहीं जाकर मां-बाबा का सूजा हुआ मुंह ठीक हुआ था. लेकिन मैं और विनीता कभी उस उपेक्षा और अपमानजनक बर्ताव को नहीं भूल पाए जो हमारी बेटियों के जन्म के वक्त हमारे साथ किया गया था. मुझे याद है, गुडिया की डिलीवरी के तीन दिन बाद जब मैं डिसचार्ज होकर घर आई थी तो मां मुझे लेने दरवाज़े तक भी नहीं आयीं थी. तब मेरे टांके भी नहीं खुले थे. मैं चुपचाप अपने कमरे में गई और गुड़िया को पुरानी लेवनी पर सुला दिया. फिर खुद ही पानी गर्म करके नहाई और गुड़िया को भी स्पंज किया. चक्की में गेहूं दरदरा कर उसका दलिया बनाकर पकाया और चुप-चाप सो गई. एकदम आटे की तरह सफेद लड़की थी ! गोमटोल और प्यारी. लेकिन दादी उसका चेहरा देखने तक नहीं आई क्योंकि उसे पोता चाहिए था.

खैर, मैंने और विनीता ने लड़-झगड़ कर इन लड़कियों को उनकी शिक्षा का अधिकार तो दिलवा दिया लेकिन अब आगे का रास्ता उन्हें खुद तय करना होगा. मां-बाबा कितना चिल्लाते थे लड़कियों को कॉन्वेंट में डालने पर ! पूरा घर सर पर उठा लिया था कि लड़कियों को पढ़ाने के लिए इतना पैसा क्यों खर्च कर रहे हो…इन्हें पढ़ाने का क्या फायदा..शादी के लिए पैसे बचाओ.और वही पुरानी बकवास…लेकिन हमने तय कर लिया था कि दोनों बेटियों को कम से कम पोस्ट-ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई तो जरूर करवाएंगे. गुड़िया को मैथ्स में रुचि थी. सो उसने मैथ्स में मास्टर्स किया और नेहा ने तो पहले ही एडवरटाइजिंग में जाने का मन बना लिया था. वहीं उसकी मुलाकात राघव से हुई थी. लेकिन उस रात सुरेश ने जिस तरह नेहा को मारा, उसके लिए मैं उसे कभी माफ नहीं करूंगी. सुरेश या राकेश ही क्यों? जब मां-बाबा अपनी ही पोती को कुलच्छिनी, कुलटा और बेशर्म कह रहे हो तो मैं उनके बेटों से क्या उम्मीद करूं? .

और उसी रात से नेहा को जल्दी से जल्दी ‘निपटाने’ की तैयारियां शुरू हो गईं. उसका घर से बाहर निकलना बंद हो गया. तय किया गया कि जो भी पहला रिश्ता आएगा उसी से बात पक्की कर अगले महीने ही ब्याह कर दिया जाएगा. लेकिन मैं ऐसा होने नहीं दूंगी. मैं, गुड़िया और विनीता मिलकर नेहा की शादी राघव से करवा देंगे. हो सकता है, ऐसा करने पर हमारे अपने पति हमें पीटें या शायद हमें घर से भी निकाल दें. लेकिन हम फिर भी नेहा और राघव की शादी करवाएंगे. हमारे बच्चों की खुशियां किसी ऐसे कमजोर समाज की जाति आधारित फंतासियों की संतुष्टि के लिए बलि नहीं चढ़ेंगी जिनकी जाति और धर्म उन्हें उनकी पत्नियों और बेटियों को पीटना, गाली देना और उनके साथ बदसलूकी करना सिखाता है. 

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तारा, 48 साल
30 नवंबर, 2012; सुबह 9.00 बजे, बडवानी
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मुझे बहुत गिल्टी फील हो रहा है. अगर मैं जिद करके अनीता को इंदौर ले गई होती तो शायद आज वो जिंदा होती. उसने कह दिया कि सब ठीक है और मैंने मान भी लिया. कितनी बड़ी बेवकूफी थी ! लेकिन मैंने कभी नहीं सोचा था कि उसके घरवाले उसे नौ महीने की गर्भावस्था में किसी शादी में शामिल करवाने गांव ले जाएंगे. मुझे तो कुछ पता ही नहीं चला. जब उसके तीन महीने पूरे हुए थे तभी से मैंने उसे काम पर न आने की सख्त हिदायत दे दी थी.

मुझे याद है उसने रोते हुए कहा था, ‘मैडमजी, मैं धीरे-धीरे झाड़ू-पोंछा कर लूंगी…बर्तन भी धो दूंगी. अभी तो मैं कम से कम तीन महीने और आराम से काम कर सकती हूं. आप मुझे काम पे आने से मत रोकिए वर्ना मेरा घरवाला मुझे बहुत पीटेगा और पैसे नहीं आए तो मेरे सासरे वाले मेरी रोटी-पानी बंद करवा देंगे.’ उसकी बात सुनकर मैं भी रोने लगी थी. फिर मैंने उससे कहा था कि मैं हर महीने उसके मेहनताने के साथ-साथ सौ रुपए अलग से उसके घर भिजवा दिया करूंगी. ये सौ रुपए उसकी दवाई और फलों के लिए होंगे पर अब उसे काम पर आने की जरूरत नहीं. उसे घर पर रहकर आराम करना चाहिए और रेगुलर डाक्टरी जांच करवानी चाहिए. मेरी बात सुनकर अनीता खुशी-खुशी अपने घर चली गई थी. उस वक्त मैंने सपने में नहीं सोचा था कि ये अनीता से मेरी आखिरी मुलाकात होगी.

कल रात उसकी मौत की खबर मिली. तब से आंसू रुक ही नहीं रहे. उसके नौ महीने लगभग पूरे हो चुके थे लेकिन उसे अस्पताल में दाखिल करवाने के बजाय उसके घरवाले उसे पास के गांव ले गए. उसकी सास कह रही थी कि अनीता की ननद के यहां लगन था और नहीं जाते तो बहुत बुराई होती.

वहीं अनीता को दर्द शुरू हो गया था. जिला अस्पताल गांव से 20 किलोमीटर दूर था. अनीता ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया था. अभी-अभी अस्पताल में डाक्टरों से मिल कर आ रही हूं. फिर अनीता की झुग्गी में भी गई थी. डाक्टर कह रहे थे कि बच्चा पेट में ही मर गया था और उसके खून में इंफेक्शन फैल गया था. उसका शरीर पहले ही बहुत कमजोर था और खून की भारी कमी थी. उसके घर गई तो देखा कि उसकी सास चूल्हा सुलगा रही थी. कुछ देर की बातचीत के बाद बोली, ‘मैडमजी, हमारे यहां तो बच्चा जनने में न जाने कितनी मोडियां बिला जाती हैं कोई हिसाब नहीं. और आठ बच्चे जनने के बाद भी आज तक हमें ही एक फल-फूल नसीब नहीं हुआ वो तो पहली बार ही पेट से थी. हमारे आठ बच्चों में से तीन मुआ गए, पांच ही बचे, लेकिन पूरी जिंदगी में कभी कोई अस्पताल नहीं ले गया.’ 

मैं चुपचाप घर आ गई. पिछले 25 साल में दुनिया बिल्कुल नहीं बदली है ! अनीता की ही तरह मेरा भी पहला बच्चा मरा  हुआ पैदा हुआ था. मेरी हालत बहुत खराब हो गई थी और ब्लीडिंग रुकने का नाम नहीं ले रही थी. कुछ ही देर में डाक्टर्स ने बताया कि खून में इन्फेक्शन फैल गया है. नर्स मोटी-मोटी रूइयों के गत्ते लगाती जाती और वो गत्ते कुछ ही मिनटों में खून से तरबतर हो जाते. दो दिन तक मैं आईसीयू में थी. 

बस फर्क इतना था कि अच्छे अस्पताल में होने की वजह से मैं जिंदा बच गई. आज अनीता का वो आखिरी फोनकाल याद आ रहा है. उसने किसी पड़ोसी के मोबाइल से मिस काल किया था और फिर हमारी बात हुई थी. मैंने उससे कहा था कि मैं उसे इंदौर के एक अस्पताल लिए चलती हूं. लेकिन उसने मना करते हुए कहा कि उसके घरवाले उसका ध्यान रख रहे हैं और सब ठीक है.  अनीता का हंसता-खेलता चेहरा एक पल के लिए भी मेरी नजरों से नहीं हटता. अपना वक्त याद करती हूं तब महसूस होता है कि कितना तड़प-तड़प के मरी होगी वो, मदद के लिए चीखते-चिल्लाते हुए. जैसे मैं चिल्ला रही थी.

अनीता और उसकी जैसी तमाम औरतें इतनी पीड़ादायक मौत की हकदार नहीं थीं. इन सभी मौतों को टाला जा सकता था.  लेकिन हम पता नहीं कब ये समझेंगे कि हमारे घरों के रोशन चिरागों को जन्म देने वाली ये औरतें भी इंसान हैं. कोई बच्चा पैदा करने वाली मशीन नहीं ! उस वक्त उन्हें सही इलाज, अच्छे खाने, साफ-सफाई और पूरी देखभाल की जरूरत होती है. और पता नहीं, कब बच्चों का जन्म ‘सिर्फ अस्पतालों’ में ही होना उतना जरूरी होगा जितना देश से बाहर जाने के लिए पासपोर्ट ! 
डायरी लेखन: प्रियंका दुबे; इलेस्ट्रेशन: मनीषा यादव