क्या इत्तिफाक है कि जिस वक्त भारतीय जनता पार्टी की बड़ी नेता सुषमा स्वराज ‘ओह माइ गॉड’ और ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर’ नाम की फिल्मों के कुछ दृश्यों से अपनी आस्था को आहत पा, इसकी शिकायत करने की बात कर रही थीं, ठीक उसी वक्त उनके सहयोगी और पार्टी नेता राम जेठमलानी यह बता रहे थे कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने पति होने की मर्यादा का निर्वाह नहीं किया. जेठमलानी की नजर में लक्ष्मण ने भी इस मामले में कुटिलता दिखाई. अपने आराध्य देव के बारे मंे राम जेठमलानी के विचार जानकर भारतीय जनता पार्टी किस शोक या संताप की शिकार होगी, इसका सिर्फ मनोरंजक अंदाजा भर लगाया जा सकता है, लेकिन जितना सतहीपन राम जेठमलानी की टिप्पणी में है, उससे कहीं ज्यादा इतिहास और मिथकों को लेकर भारतीय जनता पार्टी की समझ में रहा है. राम जेठमलानी ने तो फिर भी साहसपूर्वक एक ऐसी बात कही है जो बहुत सारे लोगों को सही लगती है और कम से कम अभी यह साफ दिखता है कि उन्होंने किसी राजनीति के लिए यह बयान नहीं दिया है, जबकि भाजपा राम को सियासी तौर पर सतही और छोटा बनाती रही है.
बहरहाल, एक राम को लेकर दूसरे राम की टिप्पणी ने मुझे एक तीसरे राम- राम मनोहर लोहिया- की याद दिला दी जिन्होंने राम, कृष्ण और शिव पर कभी बहुत सुंदर लेख लिखे थे और सीता व द्रौपदी पर भी. उनके लिए यह बहस बेमानी थी कि राम, कृष्ण या शिव असली थे या नकली, महत्वपूर्ण यह था कि ये तीनों देवता सदियों से करोड़ों भारतीयों के मानस पर अपना प्रभाव डालते रहे हैं, उसका निर्माण करते रहे हैं. लोहिया ने यह बात भी बाखूबी समझी और समझाई कि ये तीनों या भारतीय देवमाला के बाकी देवी-देवता और दूसरे मिथकीय चरित्र किसी एक के गढ़े हुए नहीं हैं, किसी एक समय में हुए नहीं हैं, वे 2 हजार साल की परंपरा में विकसित हुए हैं, इसलिए उनके रूप और उनकी व्याख्याएं अनेक हैं. कई बार राम, कृष्ण या शिव की कहानियां इनके चरित्र पर सवाल और शक करने का मौका भी देती हैं, कई बार वे अंतर्विरोधी दिखती हैं, लेकिन इसी विस्तार और वैविध्य में उनका मूल्य निहित है. लोहिया कहते हैं कि किसी भी देश की हंसी और सपने, उसकी उदासी और रंगीनियां उसकी किंवदंतियों में बोलती हैं. राम, कृष्ण और शिव भारत के महान स्वप्न हैं, उसकी उदासी और हंसी दोनों हैं.
रामकथा के संदर्भ में सीता का वनवास वह प्रसंग है जो बड़ी आसानी से राम के चरित्र पर लांछन लगाने के लिए इस्तेमाल कर लिया जाता है. लेकिन लोहिया इस प्रसंग को बड़ी सावधानी से देखते हैं और उसे राम की मर्यादा से जोड़ते हैं. वे मानते हैं कि एक धोबी ने गंदी और ओछी शिकायत की, लेकिन महसूस करते हैं कि इसके पीछे भी उसका दुख था जिसकी उचित दवा या सजा होनी चाहिए. लोहिया के मुताबिक राज्य के नियमों के हिसाब से सीता का निर्वासन इसका एक इलाज था जो इसलिए भी जरूरी हो गया कि सीता राजा से जुड़ी थीं. लोहिया विकल्प भी सुझाते हैं. राम चाहते तो सिंहासन छोड़कर सीता के साथ फिर वनवास पर जा सकते थे. हो सकता है, तब प्रजा नियमों में ढील देकर उन्हें और सीता को रोकने की कोशिश करती.
बहरहाल, यह सब अटकलें हैं. मूल बात यह है कि राम और रामकथाओं के रूप अनेक हैं. रामानुजन की एक हजार रामायणें उन्हीं रूपों से बनी थीं. आधुनिक समय में भी रामकथा बार-बार लौटती है. भगवान सिंह ने अपने उपन्यास ‘अपने-अपने राम’ में विश्वामित्र और वशिष्ठ की परंपराओं का उल्लेख करते हुए रामकथा को राम-रावण का नहीं, राम और कैकेयी के बीच का संग्राम माना है जिसमें रावण कहीं से खलनायक नहीं है. सिर्फ राम के ही नहीं, कृष्ण और शिव, दुर्गा और काली के भी अनेक रूप, अनेक नाम और उनसे जुड़ी अनेक कथाएं हैं. रामायणें अगर एक हज़ार हैं तो महाभारत के रूप एक लाख से कम नहीं होंगे. महाभारत की कहानियां बार-बार दुहराई जाती हैं- कविता, नाटक, उपन्यास से लेकर फिल्मों तक में. मेरी तरह के धर्मविमुख लोगों को भी ये चरित्र और प्रसंग अगर छूते हैं तो इसलिए नहीं कि उनका वास्ता किसी आस्था से है, बल्कि इसलिए कि उनमें एक मानवीय स्पंदन है, एक महाकाव्यात्मक अनुगूंज है, उनका धार्मिक नहीं, एक साहित्यिक मूल्य है जिसमें हम अपने व्यक्ति और काल की धुकधुकी भी दर्ज पाते हैं.
कुल मिलाकर मामला यह है कि हर युग के अपने यक्ष प्रश्न होते हैं जिन्हें समकालीनता के जलाशय के तट पर बैठा समय नाम का यक्ष हमारे सामने प्रस्तुत करता रहता है. हम प्रश्नों के जवाब देते और खोजते हैं तो जीते हैं, अगर प्रश्नों से मुंह चुरा कर पानी पीना चाहते हैं तो मारे जाते हैं. जीवित समाज प्रश्नों से घबराते नहीं, वे मिथकों की अपनी जरूरत के हिसाब से पुनर्व्याख्या भी करते हैं, उनका पुनराविष्कार भी. महात्मा गांधी के राम और लोकमान्य तिलक के गणेश इसी पुनराविष्कार का परिणाम थे. बताना जरूरी नहीं कि आजादी की लड़ाई में दोनों की भूमिका क्या रही.
लेकिन जो लोग परंपरा को ठहरा हुआ जल मानते हैं, राम और कृष्ण की मूर्तियां बनाकर उनके मंदिरों का पुनरुद्धार करना चाहते हैं, वे ध्वंस की राजनीति और आत्मध्वंस की नियति के मार्मिक शिकार होकर रह जाते हैं. ऐसे ही लोगों को अचानक मामूली-सी फिल्में परेशान करने लगती हैं, सतही- से वक्तव्य चिढ़ाने लगते हैं. ऐसे ही लोग खुद को कमजोर मानते हैं और अपनी परंपरा को कमजोर कर डालते हैं. ऐसे ही लोग क्रूर हो उठते हैं और अपनी संस्कृति को क्रूर बना डालते हैं. ऐसे लोगों पर काल का देवता हंसता होगा, राम और कृष्ण परिहास करते होंगे. भले इत्तिफाक हो, लेकिन दिलचस्प है कि इस बार इनकी बंधी-बंधाई मान्यताओं के साथ जिस
शख्स ने परिहास किया है उसका भी नाम राम है.