दयामनी से कौन डरता है?

छह नवंबर की बात है. जेल में बंद दयामनी बरला को अदालत ने दो घंटे के पेरोल पर छोड़ा था. वे अपनी भाभी के अंतिम संस्कार में शामिल होने आई थीं. दयामनी रांची में अपने छोटे-से झोपड़ीनुमा होटल पहुंचीं. वहां उनके साथी, शुभचिंतक और परिजन पहले से मौजूद थे. भाभी की मौत से गमगीन दयामनी अपने भाई जॉलेन बरला को देखते ही उनके गले लगकर रोने लगीं. दोनों भाई-बहन कुछ देर तक फफकते रहे. फिर जॉलेन ने दयामनी को चुप कराते हुए समझाया, ‘देख दयामनी, मां कहती थी कि घर में सभी भाई-बहनों में एक तुम्हीं सबसे लायक निकली हो. मां को तुम्हीं से बड़े काम की उम्मीद थी. तुम कभी समझौता नहीं करना किसी से. कभी रोना नहीं और ना ही किसी से डरना. मरने से भी नहीं डरना. तुम तो जानती ही हो कि ईसा मसीह को घेर कर सूली पर चढ़ा दिया गया था, तो क्या डरना!’

24 घंटे पहले अपनी पत्नी की मौत से दुखी और गम में डूबे जॉलेन बिना किसी बनावट के ये बातें अपनी बहन को समझा रहे थे. माहौल अजीब था. वहां मौजूद लोगों की आंखों में आंसू छलकने लगे थे, लेकिन रो रही दयामनी अब भाई की आंखों से आंख मिलाकर मुस्कुराने लगी थीं. जॉलेन का हाथ पकड़ते हुए वे बोलीं,  ‘तुम लोग ही घर संभालते रहे हो. अच्छे से संभालो. मुझ पर भरोसा रखना. वचन दे रही हूं कि कभी भी लोगों का भरोसा नहीं तोड़ूंगी, कभी समझौता नहीं करूंगी.’ इतना कहकर वे दोबारा जेल के लिए रवाना हो गईं.

यह छोटा-सा प्रसंग बताना है कि साधारण-सी दिखने वाली दयामनी बरला को वह फौलादी ऊर्जा कहां से मिलती है जिसके बल पर उन्होंने लक्ष्मी निवास मित्तल जैसे धनकुबेर उद्योगपतियों से लेकर ताकतवर सत्ता संस्थानों तक की नाक में दम कर रखा है. जल, जंगल और जमीन के लिए लड़ाई लड़ने वाली झारखंड की इस महिला की धमक आज राज्य के दायरे से बाहर निकल चुकी है. यही वजह है कि दो दशक से आदिवासियों के संग आंदोलन में खड़ी दयामनी को देश और दुनिया भर से समर्थन मिल रहा है. पहली बार उनकी गिरफ्तारी बीती 16 अक्टूबर को एक मामूली मामले में हुई थी. फिर जब एक-एक कर उनके खिलाफ पुराने मामले खुलते गए और दयामनी की जेल अवधि बढ़ती रही तो इसका विरोध होने लगा और उनकी रिहाई के पक्ष में देश और दुनिया भर से कोशिशें होने लगीं. अमेरिका के प्रसिद्ध चिंतक नोम चोम्स्की ने केंद्र सरकार को पत्र लिखा. मैग्सेसे पुरस्कार विजेता संदीप पांडेय रांची पहुंचे. माकपा नेत्री वृंदा करात भी जेल पहुंचीं.

दयामनी बरला को वह फौलादी ऊर्जा कहां से मिलती है जिसके बल पर उन्होंने लक्ष्मी निवास मित्तल जैसे धनकुबेर उद्योगपतियों से लेकर ताकतवर सत्ता संस्थानों तक की नाक में दम कर रखा है.

दरअसल यह सवाल आज एक सार्वजनिक सवाल बन चुका है कि आखिर दयामनी से कौन डरता है? क्यों डरता है. लोगों के लिए लड़ने वाली दयामनी किसके लिए दुश्मन-सी हैं और क्यों हैं? उनकी गिरफ्तारी को लेकर राज्य सरकार आलोचना के घेरे में है. आरोप लग रहा है कि पुलिस दयामनी को किसी भी हालत में जेल में रखना चाहती है. हालांकि झारखंड के पुलिस महानिदेशक जीएस रथ ने इस आरोप को खारिज किया. उनका कहना था कि पुलिस दयामनी की जमानत का विरोध करेगी या नहीं यह उनके खिलाफ मौजूद सबूतों पर निर्भर करता है.

16 अक्टूबर के दिन दयामनी को छह साल पुराने मामले में जेल जाना पड़ा. मामला 29 अप्रैल, 2006 का था. रांची से सटे अनगड़ा में ग्रामीण मनरेगा में हो रही धांधली का विरोध करते हुए जॉब कार्ड की मांग कर रहे थे. दयामनी को भी ग्रामीणों ने बुलाया था. वे गई थीं और लोगों का समर्थन किया था. तब वहां के पुलिस अवर निरीक्षक वसी अहमद ने धारा 147/148/149/342/353/354/379/427 के तहत मामला दर्ज कराया था. छह साल बाद इस मामले में दयामनी के खिलाफ वारंट निकला. वे कोर्ट पहुंचीं जहां से उन्हें गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया. उन्हें जमानत मिल गई लेकिन जमानत मिलते ही दूसरे मामले में फिर से जेल भेज दिया गया. यह मामला रांची से सटे नगड़ी में आईआईटी, आईआईएम, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी जैसे संस्थानों के निर्माण के लिए जमीन के अधिग्रहण के विरोध का था. ग्रामीणों के आंदोलन के समर्थन में दयामनी इसी साल 15 अगस्त को वहां पहुंची थीं इस आंदोलन में उन खेतों की जुताई की गई थी जिन्हें सरकार ने इन संस्थानों के लिए अधिगृहीत किया था. इस मामले में दयामनी इकलौती नामजद अभियुक्त बनाई गई थीं, जबकि करीब 100 अभियुक्तों को अनाम रखा गया था. दो नवंबर को दयामनी पर एक और मामला खुला. यह मामला नगड़ी आंदोलन के ही समर्थन में रांची के मुख्य स्थल अलबर्ट एक्का चौक पर सरकार का पुतला दहन करने से संबंधित था. दयामनी के प्रमुख सहयोगी और मार्गदर्शक रहे फैसल अनुराग बताते हैं, ‘दयामनी नगड़ी मामले में लगातार सरकार की पोल खोल रही थीं. सरकार किसी भी तरह नगड़ी में निर्माण करवाना चाहती है, इसलिए दयामनी को जेल भिजवाने की योजना बनी. अलबर्ट एक्का चौक पर जिस दिन पुतला दहन का कार्यक्रम था, उसमें दयामनी शामिल भी नहीं थीं. वे तो वहां धरने पर बैठे राजनीतिक साथियों से सिर्फ मिलने भर गई थीं. लेकिन उन पर केस दर्ज करा दिया गया.’

इस बीच आठ नवंबर को हाई कोर्ट ने दयामनी बरला, झारखंड दिशोम पार्टी के अध्यक्ष सालखन मुर्मू समेत छह अन्य लोगों के खिलाफ पुतला दहन के मामले में नोटिस जारी करके पूछा कि क्यों न इन लोगों के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई शुरू की जाए क्योंकि नगड़ी मामले में चार अक्टुबर को सालखन के नेतृत्व में हाई कोर्ट का पुतला दहन किया गया था. इसका जवाब देने के लिए 26 नवंबर तक की तिथि दी गई है.
इतना ही नहीं आठ नवंबर को दयामनी को जमानत मिलनी थी, लेकिन न्यायालय ने सुनवाई की अगली तिथि 14 या 17 नवंबर तय कर दी. यह सुनवाई नगड़ी में 15 अगस्त को खेत जुताई वाले मामले से संबंधित है.
दयामनी को छह साल पहले के मामले में पहले जेल पहुंचा कर फिर तुरंत नगड़ी आंदोलन से संबंधित केस में जेल में बनाए रखने की नौबत क्यों आई, इसकी पड़ताल करने पर बात साफ होती है. दयामनी पिछले कुछ सालों से खूंटी-तोरपा और आस-पास के ग्रामीणों को गोलबंद करके आर्सेलर-मित्तल कंपनी द्वारा उस इलाके में स्थापित किए जा रहे दुनिया के सबसे बड़े स्टील प्लांट का विरोध कर रही थीं. उनके नेतृत्व में 40 आदिवासी गांवों के लोग एकजुट हुए. जमीन न देने और गांवों के उजाड़े जाने के खिलाफ आंदोलन इतना संगठित और तेज हुआ कि मित्तल जैसी कंपनी को आखिरकार इलाका बदलना पड़ा. सरकार और प्रशासन के लोग इस आंदोलन और नेतृत्व से कसमसाते रहे, लेकिन कुछ कर नहीं पाए क्योंकि आंदोलन करते वक्त दयामनी संविधान और कानून-व्यवस्था का पूरा ध्यान रखती हैं.

उनके नेतृत्व में 40 आदिवासी गांवों के लोग एकजुट हुए. जमीन न देने और गांवों के उजाड़े जाने के खिलाफ आंदोलन इतना संगठित और तेज हुआ कि मित्तल जैसी कंपनी को आखिरकार इलाका बदलना पड़ा. सरकार और प्रशासन के लोग इस आंदोलन और नेतृत्व से कसमसाते रहे, लेकिन कुछ कर नहीं पाए क्योंकि आंदोलन करते वक्त दयामनी संविधान और कानून-व्यवस्था का पूरा ध्यान रखती हैं.

इसके बाद दयामनी सरकार की एक और महत्वाकांक्षी योजना की राह में खड़ी हो गईं. मामला रांची से सटे नगड़ी में आईआईटी, आईआईएम और नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी खोलने का था. नगड़ी में 227 एकड़ जमीन पर इन संस्थानों के निर्माण कार्य की शुरुआत हुई. स्थानीय किसानों ने इसका विरोध किया. उनका कहना था कि जमीन उनकी है, वे इस पर खेती करते हैं और रसीद कटवाते हैं. सरकार ने कहा कि 1957-58 में इसका अधिग्रहण हो चुका है. सरकार और ग्रामीणों के बीच तकरार की शुरुआत हुई. ग्रामीणों ने जमीन पर खेती की. सरकार ने उस पर बुलडोजर चलवा दिया. ग्रामीण फिर लड़ाई के लिए तैयार हुए. 7 जनवरी, 2012 को 12 ग्रामीणों पर मामला दर्ज हुआ. 9 जनवरी को  पुलिस बल वहां पहुंचा और चहारदीवारी का निर्माण कार्य शुरू हो गया. 227 एकड़ जमीन पर धारा 144 लागू हो गई. 25 जुलाई को ग्रामीणों ने बंद का ऐलान किया. इस दौरान इसमें कुछ हिंसा और तोड़फोड़ भी हुई. ग्रामीणों के संपर्क करने पर दयामनी इस आंदोलन से जुड़ गईं और अपने तरीके से इस पर काम भी कर रही थीं. उन्होंने खून-खराबे की निंदा की और ग्रामीणों को कहा कि हिंसा से रास्ता नहीं निकलेगा. उनके आंदोलन से जुड़ते ही आंदोलन का रुख दूसरी ओर जाने लगा. उन्होंने सूचनाधिकार का इस्तेमाल शुरू किया. भू अर्जन विभाग से इस बारे में तमाम जानकारी मांगी गई.

भू अर्जन विभाग को जानकारी देनी पड़ी कि 1957-58 में जब 202.27 एकड़ जमीन का अधिग्रहण हुआ था  तब 153 रैयत थे, उनमें से 128 रैयतों ने पैसा लेने से इनकार कर दिया था और उनका पैसा रांची कोषागार में जमा है. इस जमीन का अधिग्रहण तब के राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय यानी बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के लिए हुआ था, इसलिए दयामनी ने आरटीआई का इस्तेमाल करके कृषि विश्वविद्यालय से भी भू अर्जन विभाग वाली ही सूचना मांगी कि आपने कितनी जमीन अधिगृहीत की है. किस-किस रैयत की कौन-कौन खाता-प्लॉट नंबर वाली जमीन अधिगृहीत हुई और आपने कितना और कैसे भुगतान किया था? जवाब आया कि जमीन अधिग्रहण की उसे कोई जानकारी नहीं और न ही विभाग द्वारा इसके लिए कोई भुगतान किया गया है.

जानकारियां सामने आ रही थीं और इससे सरकार व प्रशासन की मुश्किलें बढ़ रही थीं. दयामनी के नेतृत्व में ग्रामीणों ने राजभवन के सामने सत्याग्रह शुरू कर दिया. दयामनी कहती हैं, ‘फरवरी से जब हमने ये सूचनाएं जुटानी शुरू कीं तभी से ही मुझे लग रहा था कि सरकारी तंत्र के लोग खुद अपने ही बुने जाल में फंसते जा रहे हैं. और तभी मुझे यह भी लगा था कि ये लोग मुझे फंसाएंगे जरूर.’ मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं कि नगड़ी आंदोलन की वजह से ही दयामनी को परेशान किया गया है और शुरुआत वाला अनगड़ा मामला तो सिर्फ उन्हें एक बार जेल तक पहुंचाने का बहाना भर था.

हालांकि इस बीच हाई कोर्ट ने आदेश दिया है कि सरकार नगड़ी में शीघ्र काम शुरू करवाए और इसे पूरा करवाए. दो नवंबर से भारी संख्या में पुलिस बलों की तैनाती के साथ फिर से काम भी शुरू हो चुका है. लेकिन यहां जिन संस्थानों को खुलना है उनके सुर भी बदलने लगे हैं. आईआईएम रांची के निदेशक प्रो एमके जेवियर कहते हैं, ‘हमारा मकसद ग्रामीणों को किसी भी तरह से दुख पहुंचाना नहीं है, इसलिए हमने सरकार से आग्रह किया है कि वह दूसरी जगह जमीन दे दें.’ फिलहाल नगड़ी में काम जारी है, लेकिन दयामनी भी जेल से निकलने के बाद नगड़ी आंदोलन को शांतिपूर्ण तरीके से जारी रखने की बात कह रही हैं.

दयामनी की गिरफ्तारी के वक्त कुछ और बातें भी साफ हुई हैं. इस पूरी हलचल के दौरान झारखंड के राजनीतिक गलियारों में एक अजीब किस्म का सन्नाटा दिखा. नगड़ी पर तो सभी अपनी रोटी सेंकते रहे लेकिन दयामनी पर बोलने से कतराते रहे. झारखंड मुक्ति मोर्चा की ओर से पहले तो नगड़ी के समर्थन में बातें की गई थीं, लेकिन गिरफ्तारी के बाद बयान लगभग बंद रहे. झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन बार-बार कहते रहे हैं कि आदिवासियों की जमीन पर जबरदस्ती करना ठीक नहीं. लेकिन इन दिनों सरकार का नेतृत्व न बदलने पर उसे गिरा देने की धमकी देने वाले सोरेन नगड़ी और इस बहाने दयामनी की गिरफ्तारी के संदर्भ में सरकार पर दबाव नहीं बना पाए.  पिछले साल बाबूलाल मरांडी के झारखंड विकास मोर्चा ने दयामनी का नाम राज्यसभा सदस्य के लिए हवा में उछालकर वाहवाही भी बटोरी थी. फिलहाल इस मुद्दे पर उन्होंने राजनीतिक चुप्पी को तोड़ने की कोशिश की है. मरांडी ने कहा कि सरकार ने अपने अहंकार के कारण दयामनी को फंसाया है. उन्होंने मांग की कि दयामनी की जगह सरकार उन्हें जेल में डाल दे. उनके इस बयान से झारखंड के दूसरे राजनीतिक दलों के भी बयान आने का सिलसिला शुरू होगा, ऐसा माना जा रहा है.

उधर, भाकपा माले ने दयामनी की रिहाई को लेकर पूरे राज्य में जनांदोलन छेड़ने की घोषणा की है. उग्रवादी संगठन पीएलएफआई ने 8 नवंबर को नगड़ी आंदोलन के समर्थन में रांची बंद का आह्वान किया था, जिसका ग्रामीण इलाकों में व्यापक असर देखने को मिला. नौ नवंबर को दयामनी ने एक और चिट्ठी जेल से जारी की है. उनका कहना है कि जब तक कोयल-कारो और छाता नदी की धाराएं बहती रहेंगी तब तक उनकी जंग जारी रहेगी.                                                   

दयामनी से बातचीत: ‘मैं सरकार से लड़ नहीं रही, सिर्फ बता रही हूं कि आप संविधान नहीं मानते तो 15 अगस्त और 26 जनवरी मनाना छोड़ दीजिए’

झारखंड की चर्चित जमीनी आंदोलनकारी दयामनी बरला जेल में हैं. उन्हें छह साल पहले एक रैली में भाग लेने से लेकर हालिया दिनों में रांची के पास आईआईटी, आईआईएम और लॉ यूनिवर्सिटी के लिए जमीन अधिग्रहण का विरोध करने के मामले में न्यायिक हिरासत में भेजा गया है. दयामनी से निराला और अनुपमा ने टुकड़ों में बातचीत.

क्या लगता है आपको, सरकार सुनियोजित तरीके से आपको परेशान कर रही है?

यह तो साफ दिखता है. छह साल पहले रांची से सटे अनगड़ा में मनरेगा जॉब कार्ड में हेराफेरी और घपले को लेकर ग्रामीणों ने एक रैली की थी. मैं ऐसे आंदोलनों में जाती हूं, वहां भी गई थी. मनरेगा का घपला तो नहीं रुका और न ही अनगड़ा वाले मजदूरों की समस्या का समाधान हुआ. लेकिन इतने साल बाद मैं उसी मामले में जेल जरूर भेज दी गई. इससे संबंधित गिरफ्तारी का वारंट मुझे भेजा तक नहीं गया था लेकिन कहा गया कि आपके खिलाफ वारंट है.

उद्योगपति लक्ष्मी निवास मित्तल के खिलाफ आप लंबी और मजबूत लड़ाई लड़ रही हैं, नगड़ी में आईआईटी, आईआईएम और लॉ यूनिवर्सिटी बनाने पर आमादा सरकार के खिलाफ जो मोर्चा खुला है उसका नेतृत्व भी आप कर रही हैं. आपके हिसाब से किस मसले का कोप आपको झेलना पड़ रहा है?

सभी मसलों को लेकर. मेरे खिलाफ तैयारी बहुत दिनों से थी, इसका अहसास मुझे हो रहा था. फरवरी से ही मैंने मनरेगा के हालात का अध्ययन शुरू किया था और एक-एक पंचायत में करोड़ों के घपले की बात सामने आ रही थी. दूसरी ओर नगड़ी मामले में मैं आरटीआई के जरिए सरकार द्वारा ग्रामीणों की खेती की जमीन हड़पने की योजना की सच्चाई मालूम कर चुकी थी. इन सबकी वजह से मुझे लेकर पहले से ही तैयारी थी. मुझे फंसाया गया छह साल पहले के एक केस में, फिर उसके बाद तुरंत दूसरा केस, फिर तीसरा. नगड़ी के बहाने मैं सरकार चलाने वालों को बताना चाहती हूं कि आजादी के बाद बने भारतीय संविधान में शेड्यूल पांच और छह का वर्णन है, अगर उसका पालन नहीं करवा सकते तो 15 अगस्त और 26 जनवरी मनाने के बजाय साहस करके कहना चाहिए कि हम अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीति से एक रत्ती भी आगे नहीं जा सकते.

आप आईआईटी, आईआईएम जैसे संस्थानों के पक्ष में  हैं या नहीं?

सरकार गरीबों की खेती की जमीन को छोड़ कहीं किसी बंजर और गैरउपजाऊ जमीनों पर इन संस्थानों की स्थापना करवाए, मैं स्वागत करूंगी. मैं विकास विरोधी नहीं हूं लेकिन वह न्यायपूर्ण हो.

झारखंड में सरकार भाजपा, झामुमो और आजसू की है. तीनों दलों की चुप्पी तो समझ में आती है, लेकिन दूसरे दल भी लगभग खामोश ही हैं. आपके समर्थन में राजनीतिक दल खुलकर सामने नहीं आ सके, जबकि पिछले साल तक तो आपको राज्यसभा भेजने की भी बात हो रही थी! 

इस पर मैं क्या कहूं. मेरा अनुभव है कि अधिकांश झारखंड नामधारी दल भी घोंघे की तरह हैं. घोंघा शांत पानी में तो अपना मुंह बाहर निकालकर दिखाते रहता है लेकिन जैसे ही पानी में थोड़ी हलचल होती है, अपने को अंदर समा कर चुपचाप बैठ जाता है मरे जैसा. और आप जो राज्यसभा आदि में मुझे भेजे जाने वाले प्रसंग की चर्चा कर रहे हैं तो वह सब महज एक नाटक होता है. 

जेल में रहने से आपके द्वारा चलाए जा रहे आंदोलनों पर किस तरह का फर्क पड़ सकता है?

मैं सकारात्मक फर्क की ही उम्मीद करती हूं क्योंकि किसी और पर भरोसा हो या नहीं, मुझे अपने साथियों व ग्रामीणों पर पूरा भरोसा है. अब वे और जोरदार तरीके से अपने आंदोलन को जारी रखेंगे.

जेल में आपके साथ राजनीतिक बंदी की तरह व्यवहार हो रहा है?

मुझे राजनीतिक बंदी बनने का शौक नहीं. मैं आम कैदियों की तरह ही उनके बीच रहना चाहती हूं. पहली बार जेल में आई हूं तो बहुत कुछ करीब से देखने-समझने की कोशिश कर रही हूं. हां, मैंने जेल प्रशासन से यह आग्रह जरूर किया था कि मुझे डायबिटीज है और भोजन में यदि थोड़ा ध्यान रखा जाए तो बेहतर. लेकिन फिलहाल मेरे इस अनुरोध पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया.

क्या देख और महसूस कर रही हैं आप? क्या दिनचर्या रहती है आपकी यहां?

जेल की दुनिया बड़ी विचित्र दुनिया है. यहां बेगुनाह भी जिंदगी गुजार रहे हैं. छोटे-मोटे केस में फंसे लोगों को भी जवानी यहीं खत्म करनी पड़ रही है. मैं दिन भर या तो अपने साथ के बंदियों से बातचीत करती हूं या आदिविद्रोही, भारत का स्वतंत्रता संग्राम आदि किताबें पढ़ती हूं. यह समझने की कोशिश कर रही हूं कि क्यों आदिवासी नेताओं के स्वतंत्रता आंदोलन को उस तरह जगह नहीं दी गई है.

आप जिस जेल में हैं उसी में पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा समेत कई मंत्री बंद हैं. क्या उनमें से कोई आपसे मिलने आया और आपको समर्थन देने की बात कही?

यहां उन लोगों के सामने मेरी हैसियत क्या है. उनके लिए जेल में भी वैसा ही राज है. मुझसे कोई मिलने नहीं आया. वैसे भी मुझे आम जनता और राज्य व देश के कोने-कोने में बसे अपने साथियों के अलावा किसी के समर्थन की जरूरत भी नहीं.

जेल से निकलने के बाद क्या योजना और रणनीति होगी?

जो करती रही हूं, वही करूंगी. झारखंड की धरती को धोखा नहीं दूंगी. सरकारों की नजर में लुटेरे शुभचिंतक बने हुए हैं, उस धारणा को बदलना होगा. इसके लिए संघर्ष करूंगी. मुझे किसी सजा से डर नहीं, क्योंकि मैं जानती हूं कि सिद्धू-कान्हू से लेकर बिरसा मुंडा तक को सजा ही भुगतनी पड़ी. संघर्ष और सजा तो हमारी परंपरा और विरासत है. उससे क्या घबराना.