आपसे शुरुआत करती हूं सद् गुरु. आपको सांप, एसयूवी, मोटरसाइकिल, हेलिकॉप्टर, रोमांचकारी यात्राएं जैसी चीजें प्रिय हैं. दूसरी तरफ आप सद् गुरु भी हैं. भौतिकता और अध्यात्म, ये दोनों चीजें साथ कैसे चलती हैं?
सद् गुरु जग्गी वासुदेव– सबसे पहले तो मैं आपकी बात में यह सुधार कर दूं कि मुझे सांपों, मोटरसाइकिलों, हेलिकॉप्टरों से कोई प्रेम नहीं है. ये सब बातें तो लोग मेरे बारे में कहते हैं. वास्तव में मेरा प्रेम और जुड़ाव जीवन के प्रति है. मैं कोई भी चीज तब तक नहीं कर पाता जब तक मैं उसमें पूरी तरह खो न जाऊं. जीवन को जानने के लिए उससे पूर्ण जुड़ाव जरूरी है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप व्यापार से संबंध रखते हैं या संगीत से या कला से या फिर अध्यात्म से. अगर इन चीजों से आपका जुड़ाव नहीं है तो आपको इनसे कोई आनंद नहीं मिलेगा.
अध्यात्म का लक्ष्य हमारे यहां माना जाता रहा है कि आदमी को भौतिक चीजों से हटाया जाए. उसे इनकी सीमा समझाई जाए. लेकिन आप बिल्कुल उलट बात कहते हैं.
सद् गुरु- यह धारणा कि अध्यात्म का मतलब है इच्छा से मुक्ति, पहले इसे समझें. अगर आप खाने की इच्छा करते हैं, पैसे की इच्छा करते हैं, जमीन के एक टुकड़े की इच्छा करते हैं, तो यह लालच नहीं है. यह इच्छा का क्रमिक विकास है. पांच साल की उम्र में आपने जो इच्छा की होगी उसका आपके 10 साल का होने पर कोई मतलब नहीं रहा. धीरे-धीरे यह विकास होता है और फिर आप आखिर में समझ जाते हैं कि आप जो भी करें, आपको एक दिन खत्म होना है. फिर आपके मन में सवाल उठता है मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, कहां जाऊंगा, मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है. तो यह इच्छा से अलग होना नहीं है. यह इच्छा को एक संभावना तक पहुंचाने की बात है.
आप पिछले जन्म में यकीन करते हैं. हमारे साथ जेम्स रैंडी भी हैं जो इन सब चीजों के बारे में कहते हैं कि यह सब दिमाग को छलने का खेल है. क्या यह दिमाग की कंडिशनिंग यानी अनुकूलन का खेल है?
सद् गुरु- ऐसा नहीं है. जब आप पैदा हुए थे तो आपका आकार बहुत छोटा था. फिर इसमें संचय होता गया और आपका स्वरूप आज ऐसा है. तो आप जिसे अपना शरीर कहते हैं वह बस एक तरह का संचय है. इसी तरह जिसे आप अपना दिमाग कहते हैं वह भी कई तरह के प्रभावों का एक ढेर है जो एक तय समय के दौरान इकट्ठा हुआ है. तो आपका शरीर और दिमाग, दोनों ही एक तरह का संचय हैं. जहां तक पिछले जन्म, इस जन्म आदि का सवाल है तो मैं लोगों से कहता हूं कि इन चीजों पर यकीन न करें. लेकिन मैं यह भी कहता हूं कि इन चीजों को बिल्कुल नकारने की मूर्खता भी न करें. आप ‘मैं नहीं जानता’ का महत्व नहीं समझते. इसका मतलब है अगाध संभावना. जब आप यह मानेंगे कि मैं नहीं जानता तभी आपके कुछ जानने की संभावना पैदा होगी. जब आप किसी को आध्यात्मिक कहते हैं तो आप उसको अन्वेषक या खोजने वाला कहते हैं. खोज कौन सकता है? वही जिसे अहसास होगा कि वह नहीं जानता.
जावेद जी, हम एक देश में रहते हैं जहां कई तरह की आस्थाएं और विश्वास प्रचलित हैं. आप एक तर्कवादी हैं. लेकिन आपको नहीं लगता कि अगर आस्था की कोई सीमा है तो तर्क की भी सीमा हो सकती है?
जावेद अख्तर- पहले हम यह समझें कि आस्था क्या है. आस्था और विश्वास में क्या फर्क है. मुझे विश्वास है कि मैं गोवा में हूं. मुझे विश्वास है कि उत्तरी ध्रुव नाम की एक जगह है. क्या यह मेरी आस्था है? नहीं. क्यों? क्योंकि इसके पीछे एक कारण है. कोई भी चीज जिसमें तर्क, कारण, सबूत और गवाह जैसी कोई चीज नहीं होती वह है आस्था. और इसलिए मुझे हैरत होती है कि आस्था और मूर्खता में क्या फर्क है क्योंकि मूर्खता की भी यही परिभाषा है. मैं आपकी बात मानने के लिए तैयार हूं, लेकिन इसके पीछे कोई तर्क होना चाहिए, कोई कारण होना चाहिए. आप मुझे बता रहे हैं कि मेरा शरीर और दिमाग बस एक संचय है और मैं यह नहीं हूं. यह ऐसा ही है कि आप प्याज की तलाश में प्याज को छीले जा रहे हैं. वे परतें जिन्हें आप छील रहे हैं वे ही प्याज हैं. यह संचय ही मैं हूं. अगर आप यह संचय हटा देते हैं तो मेरा कोई वजूद ही नहीं है.
जावेद साहब, मैं एक बार फिर से आपका ध्यान तर्क की सीमा की तरफ खींचना चाहूंगी. हमारे यहां रामानुजन नाम के एक मशहूर गणितज्ञ हुए हैं जो गणित की कई समस्याओं के हल तक बिना किसी तार्किक चरण के ही पहुंच जाते थे. यह उनका सहज ज्ञान था. क्या आपको नहीं लगता कि बुनियादी ज्ञान के परे भी कोई चीज है?
जावेद अख्तर- बिल्कुल है. लेकिन इसमें आध्यात्मिक जैसा कुछ नहीं है. आप पूरी रफ्तार से घूमते हुए किसी पंखे को देखें. आपको इसके ब्लेड दिखाई नहीं देंगे. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे ब्लेड हैं ही नहीं. हो सकता है कि आप बिजली की गति से सोच रहे हैं और इसमें आप कई चरण लांघकर किसी हल तक पहुंच जाएं. लेकिन जब आप आराम से इसका विश्लेषण करेंगे तो आप पाएंगे कि अगर आप समाधान तक पहुंचे हैं तो इसका रास्ता कुछ निश्चित चरणों से होकर ही जाता है.
लेकिन रामानुजन कहते थे कि वे ऐसा देवी की कृपा से कर पाते हैं.
जावेद अख्तर- अरे भाई, वे भी एक इंसान ही थे और जरूरी नहीं कि इंसान हर बार सही ही हो.
लेकिन जावेद साहब, आपको ऐसा नहीं लगता कि आस्था कई बार इंसान को अलग-अलग क्षेत्रों में महानता की तरफ ले जाती है?
जावेद अख्तर- बिल्कुल, इसमें कोई शक नहीं है. आस्था इंसान से बहुत अच्छे काम करवा सकती है. और बहुत बुरे भी. ये आत्मघाती हमलावर आस्था वाले ही लोग हैं. अगर वे तर्कशील होते तो ऐसा नहीं करते. तो आस्था एक अंधा रास्ता है. आस्था आपके दिमाग को आपसे छीन लेती है. इसलिए आप या तो बहुत अच्छा काम करते हैं या बहुत बुरा. दोनों ही परिस्थितियों में आपका दिमाग आपके बस में नहीं होता.
आप तर्क में यकीन रखने वाले लोगों के बारे में क्या कहेंगे? मसलन साम्यवादियों या कम्युनिस्टों के बारे में.
जावेद अख्तर- वे तर्कवादी नहीं हैं, वे साम्यवादी हैं. वे साम्यवाद पर विश्वास करते हैं और उन्होंने इसे अपनी आस्था बना लिया है. यह भी धार्मिक होने जितना ही बुरा है.
तो फिर आप कैसे रहें? अगर आपको प्रचलित विश्वासों के हिसाब से नहीं जीना है तो आप कैसे जिएंगे?
जावेद अख्तर- कॉमन सेंस यानी व्यावहारिक बुद्धि से जीने में क्या दिक्कत है?
विज्ञान भी कहता है हम ब्रह्मांड का पांच फीसदी ही समझ पाए हैं. इसके बाहर क्या है इसके बारे में कई विश्वास प्रचलित हैं. आपको इसमें कोई परेशानी नहीं है. तो फिर जब तक कोई हल नहीं मिल जाता, लोगों को उनके विश्वास के हिसाब से जीने देने में क्या दिक्कत है? उन विश्वासों से उनके दुख कम होते हैं. उन्हें तसल्ली मिलती है.
जावेद अख्तर- वे अनुमान हैं, विश्वास नहीं हैं. सद् गुरु ने बिल्कुल ठीक कहा कि आपमें इतनी नम्रता होनी चाहिए कि आप यह मानें कि कई चीजें हैं जिनके बारे में आप नहीं जानते. तभी आप कुछ खोज पाएंगे. लेकिन धर्म के साथ दिक्कत यह है कि इसके पास हर चीज का जवाब होता है. यह आपको बता सकता है कि संसार कैसे बना. इस जन्म से पहले आप कहां थे. इसके बाद कहां होंगे. तो धर्मों के पास सारे जवाब होते हैं और यही समस्या है.
सद् गुरु, जब आप कहते हैं कि आध्यात्मिक व्यक्ति को अन्वेषी होना चाहिए तो गुरुओं के पास ही सारे जवाब क्यों होते हैं?
सद् गुरु- गुरु जवाब नहीं देते. वे रास्ता बताते हैं. रही दिमाग की बात तो इसमें जो डेटा या जानकारी होती है वह कैसे आती है? इसे आप अपनी पांच इंद्रियों के जरिए जमा करते हैं. लेकिन ये पांच इंद्रियां भी आपको धोखा दे सकती हैं. जैसे अगर मैं यह मेज छू लूं तो यह मुझे ठंडी लगेगी. लेकिन यदि मैं अपने शरीर का तापमान गिरा लूं तो यही मेज मुझे गर्म लगेगी. यह मुझे वही सूचना देगी जो मेरे जीवित रहने के लिए जरूरी है. अगर जीवित रहना ही आपका उद्देश्य है तो इन इंद्रियों पर निर्भर रहना ठीक है. लेकिन अगर आप इसके परे जाना चाहते हैं तो आपको अपने अनुभव का दायरा आगे ले जाना होगा. तो पूरी आध्यात्मिक प्रक्रिया का संबंध इसी सवाल से है कि अपने अनुभव का विस्तार कैसे किया जाए. अगर आपको वास्तविकता जाननी है तो आपको अपने अनुभव का दायरा बढ़ाना होगा. आप इतिहास में देखें. लोग मानते थे कि दुनिया सपाट है. किसी ने कहा कि यह गोल है, उसकी जान ले ली गई. लोग जमीन पर चलते थे, किसी ने कहा कि मैं उड़ सकता हूं. उसकी जान को आफत हो गई. लोगों का यह विश्वास कि जो मैं नहीं जानता वह है ही नहीं, यह अज्ञान की पराकाष्ठा है.
जावेद साहब, आप इस पर क्या कहेंगे? इतिहास के हर दौर में उन लोगों ने वास्तविकता की सीमा का विस्तार किया है जिनका किसी ऐसी चीज में विश्वास था जो तब तक मौजूद ही नहीं थी.
जावेद अख्तर- ऐसा नहीं है. देखिए, अध्यात्म सिखाने वाला कोई व्यक्ति सबसे पहले यही करता है कि वह आपकी पांच इंद्रियों पर से आपका विश्वास डिगा देता है. तभी वह आपको नियंत्रित कर सकता है. आप किसी व्यक्ति को लीजिए. उसका ऑपरेशन करके उसके दिमाग का कनेक्शन काट दीजिए और फिर देखिए कि वह अपने अनुभव का विस्तार कैसे करता है. जो भी विस्तार होना है वह आपके दिमाग में होना है. आप अपने दिमाग को कम मत समझिए. अगर कोई व्यक्ति आपसे कह रहा है कि आप अपने दिमाग को कम समझें तो वह आपके साथ बड़ा खतरनाक खेल-खेल रहा है. दिमाग न हो तो आपके पास विवेक ही नहीं होगा. फिर आप कैसे समझेंगे कि जो वह कह रहा है वह सही है या गलत. वह व्यक्ति तो अपना दिमाग इस्तेमाल कर रहा है लेकिन वह यह नहीं चाहता कि आप अपने दिमाग का इस्तेमाल करें. हर विचार दिमाग से आता है. अगर आप यह भी सोचें कि दिमाग ही सब कुछ नहीं है तो यह विचार भी दिमाग से आता है. आप अपने दिमाग पर यकीन नहीं करेंगे तो दूसरे के दिमाग पर यकीन कैसे करेंगे.
लेकिन एक कलाकार होने के नाते आपको नहीं लगता कि छठी इंद्रिय जैसी भी एक चीज होती है?
जावेद अख्तर- आप इस बात को समझें कि हमारा दिमाग हमारे घर की तरह है. चेतन मस्तिष्क इसका ड्राइंग रूम है. लेकिन इसमें और भी कई कमरे होते हैं जिन्हें आप उतना ज्यादा इस्तेमाल नहीं करते, मगर करते जरूर हैं. कुल मिलाकर हर विचार इसी दिमाग से आना है.