‘माहौल को बदलकर आप लोगों की जिंदगी सुधार सकते हैं’

महामारी फैलाने वाले संक्रामक तत्वों को पहचानने के लिए जिन यंत्रों की जरूरत होती है वे सुलभ और सस्ते हो रहे हैं. अब असल चुनौती तो बीमारियों के स्रोत तक पहुंचने की है जिसका संबंध उस समय के साथ होता है जब आप एक छोटे-से बच्चे थे. कभी-कभी तो इसका लेना-देना इससे भी पहले की अवस्था से होता है. असल चुनौती यह समझने की भी है कि कैसे आप पर उम्र भर पड़ने वाले प्रभाव इंसान के तौर पर आपकी मिट्टी और विज्ञान की भाषा में कहें तो जीनों में बदलाव ले आते हैं.

जब हमने मानव शरीर की सबसे छोटी इकाई यानी जीनों की कुंडली बनाने की परियोजना पर काम शुरू किया था तो हमने सोचा था कि इससे हमें इस पहेली का जवाब मिल जाएगा कि इंसान जैसा है वैसा वह क्यों है. लेकिन जैसे-जैसे हम गहराई में उतरते गए हमें पता चला कि सबसे अहम चीज जीनों की कुंडली नहीं बल्कि वह प्रक्रिया है जिसके तहत जीवन के दौरान जीनों में बदलाव आ जाता है. इसका नतीजा कैंसर, दीर्घायु, मोटापा जैसी चीजों के रूप में सामने आता है. हमें पता चला है कि जीवन की शुरुआत में आपको जैसा परिवेश मिलता है उसका आपकी जिंदगी पर काफी गहरा असर पड़ सकता है. यानी लोकतंत्र, उत्पादकता और विकास जैसी सकारात्मक चीजों के संदर्भ में देखा जाए तो माहौल में बदलाव करके आप लोगों की जिंदगी सुधार सकते हैं. चूहों को होने वाली बीमारियों पर शोध कर हमने यह सीखा है कि गर्भावस्था के दौरान आप किसी जानवर को जो खुराक देते हैं उससे यह निर्धारित किया जा सकता है कि उसके बच्चे मोटे होंगे या नहीं. बौद्धिकता और समझदारी जैसे गुणों के मामले में भी ऐसा ही होता है. जीवन के शुरुआती वर्षों में ही किसी को एक समृद्ध सामाजिक परिवेश मिल जाए तो उसकी जिंदगी सुधर सकती है. मसलन आप आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि वाले किसी व्यक्ति के प्रारंभिक जीवन का माहौल सुधारकर उसके भविष्य के प्रति आश्वस्त हो सकते हैं.

एक और चीज जो मुझे बेहद रोमांचित करती है वह यह है कि आप लोगों के सामाजिक व्यवहार के बारे में संक्रामक बीमारियों की तरह सोच सकते हैं. संक्रमण का मतलब होता है बीमारी का एक से दूसरे व्यक्ति में जाना. अब सामाजिक व्यवहार के संदर्भ में देखें तो किसी व्यक्ति के साथ आपका संबंध अच्छा है या खराब, यह बात उस व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करती है और उसका व्यवहार किसी तीसरे व्यक्ति पर असर डालता है. यानी कर्म की जो अवधारणा है उसमें कुछ हद तक सच्चाई है. जो बच्चे हिंसाग्रस्त इलाकों में बड़े होते हैं, वे दूसरों को भी हिंसा की तरफ धकेलते हैं. यानी अगर आप उस हिंसा को रोक सकें तो हिंसा फैलेगी नहीं. यानी हिंसा पर रोक हिंसा के खिलाफ टीके जैसा ही काम करती है.
(अजाचि चक्रवर्ती से बातचीत पर आधारित)