23 मार्च, 2014 को हरियाणा के हिसार जिले में भगाना गांव की चार दलित लड़कियों के साथ कथित रूप से गैंगरेप किया गया. लगभग डेढ़ साल बीत चुका है लेकिन कथित आरोपियों को सजा मिलनी अभी बाकी है. हिसार की स्थानीय अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया है. गांव के दलित अपना विरोध जारी रखे हुए हैं लेकिन सरकार ने इस ओर से अपने कान बंद कर लिए हैं और न्याय तंत्र में भी उनके पक्ष की कोई सुनवाई नहीं हो रही है.
हिसार शहर से 10 किमी. दूर स्थित भगाना हरियाणा का पारंपरिक बसावट वाला ऐसा गांव है जहां बड़ी संख्या में प्रभावशाली जाट समुदाय के लोग रहते हैं. जाट समुदाय के लोग गांव के बीचोबीच में रहते हैं और सीमांत पर दलित समुदाय के लोग रहते हैं. वर्तमान सरकार और पिछली सरकारों की सारी योजनाओं में इन भेदभाव भरे जाति संबंधों को बदलने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया है. अब भगाना उस जाति आधारित हिंसा का केंद्र बन चुका है जो हरियाणा और उत्तर भारत के अन्य हिस्सों में उभर रही है.
भगाना गैंगरेप की पीड़िताएं और उनके परिवार अब खौफ के माहौल में जी रहे हैं क्योंकि कथित बलात्कारी खुलेआम घूम रहे हैं. पीड़ितों की न्याय की मांग को नकार कर व्यवस्था ने एक प्रकार से गांव में जातिगत भेद को और पुख्ता कर दिया है. गांव के दलितों के अनुसार उच्च जाति के लोग दलित लड़कियों को अब भी छेड़ते हैं. इस कारण से दलित लड़कियां दिन ढलने के बाद घर से निकलने का साहस नहीं कर पातीं. 14 वर्षीय शांति (बदला हुआ नाम) ने लंबे वक्त तक दोषियों को सजा मिलने का इंतजार किया लेकिन अब उन्हें न्याय की उम्मीद कम ही है. ‘शुरुआत में मैं लड़ने के लिए दृढ़ थी और मुझे लगता था कि मैं उन्हें (दोषियों को) जेल भेज कर रहूंगी. लेकिन अब मैं टूट चुकी हूं और उम्मीद खो चुकी हूं. बलात्कारी खुलेआम घूम रहे हैं और मेरी जिंदगी नरक बनकर रह गई है, क्यों? क्योंकि मेरा बलात्कार हुआ है?’ ये कहते हुए वह रो देती हैं. उनकी मां बताती हैं कि न्याय के लिए उन्होंने कितना संघर्ष किया. ‘जो कर सकते थे, हमने वह सब किया. हमने राष्ट्रीय महिला आयोग से भी संपर्क किया और सोनिया गांधी के पास भी गए, लेकिन कुछ नहीं हुआ. यहां तक कि राष्ट्रीय महिला आयोग ने तो हमारा मामला अपने पास लेने से ही इंकार कर दिया.’
दलितों की लड़ाई बराबरी और सम्मानजनक जीवन के लिए है. ऊंची जातियों के जानवर जिस तालाब से पानी पीते हैं, उसी से दलितों के जानवर भी पानी पी सकें, लड़ाई इस हक की है
शांति का परिवार अब उम्मीद खो चुका है. बहरहाल, कुछ अन्य दलितों ने संवेदनहीन और निष्ठुर व्यवस्था के खिलाफ लड़ने का निर्णय लिया है. गांव में दलितों के घरों की दीवारों पर आप डॉ. आम्बेडकर के चित्र लगे हुए देख सकते हैं. बच्चे नमस्ते नहीं बल्कि ‘जय भीम’ से आपका स्वागत करते हैं. बलात्कार के समय से ही गांव के दलित कार्यकर्ता विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. जब न्यायतंत्र से निराशा हाथ लगी तो इन कार्यकर्ताओं ने सरकार और व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष के लिए विभिन्न मंचों का गठन किया. ऐसा ही एक मंच दिल्ली में है और एक हिसार में है. ऊंची जातियों की हिंसा के खिलाफ प्रदर्शन के परिणाम गंभीर होते हैं. छोटे-छोटे आरोपों में दलित कार्यकर्ताओं को उठाकर जेल में बंद कर दिया जाता है. उन पर लकड़ी चुराने से लेकर देशद्रोह तक के मामले दर्ज कर दिए जाते हैं. यहां तक कि विरोध करने वाले परिवारों को गांव से बाहर भी खदेड़ दिया जाता है. इन दलित कार्यकर्ताओं का कहना है कि राज्य और ऊंची जातियां उनके संघर्ष को खत्म करना चाहती हैं ताकि उन्हें हर रोज होने वाले शोषण का शिकार बनाया जा सके. कार्यकर्ताओं ने अपनी शिकायतें बहुत से मंत्रियों और राज्य अधिकारियों को भेजी हैं लेकिन उन्हें वादों के अलावा कुछ नहीं मिला है.
जब लगातार की जाने वाली अपील और प्रदर्शनों का कोई फायदा नहीं हुआ तो दलित कार्यकर्ताओं ने कुछ ऐसा किया जिससे जाति आधारित पूरी व्यवस्था के दोहरे चेहरे से नकाब उतर गया. अपने प्रदर्शन को अंतिम रूप देते हुए भगाना के दलित परिवारों ने नई दिल्ली में जंतर-मंतर पर धरना देने के दौरान घोषणा की कि वे सभी इस्लाम धर्म अपना रहे हैं. जो मामला पिछले दो वर्ष में लगभग भुलाया जा चुका था, इस घोषणा के साथ अचानक राजनीतिक संगठनों और मीडिया, दोनों के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया. धर्म परिवर्तन को जबरन रोकने के लिए एक ओर विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता वहां पहुंच गए, दूसरी ओर खुद को पाक साफ बचाने के उद्देश्य से दिल्ली पुलिस भी वहां पहुंच गई और कार्यकर्ताओं को अपना प्रदर्शन खत्म करने के लिए कहा.
इन दलित परिवारों द्वारा धर्म परिवर्तन की घोषणा ने पूरी व्यवस्था के संवेदनहीन रुख को उजागर किया है. लेकिन पुलिस ने हिंदुत्व के स्वनियुक्त संरक्षक की तरह व्यवहार किया और उन लोगों पर झपट पड़ी जो एक दूसरे धर्म को चुनकर शोषक सामाजिक व्यवस्था की जकड़न से बाहर आना चाह रहे थे. पुलिस और धार्मिक संगठनों की ये आवाजें हालांकि तब आगे नहीं आईं जब भगाना में इन दलित परिवारों के साथ अमानवीय हिंसा की जा रही थी. यह सब कुछ लोकतंत्र के गढ़ राजधानी दिल्ली में हुआ. इस पूरे वाकये से एक सवाल उपजता है- क्या राज्य केवल एक मूकदर्शक है या फिर वह अब जातिवाद को पुष्ट करने की भूमिका में आ गया है?
सतीश, जो कि अब अब्दुल कलाम के नाम से जाने जाते हैं, न्याय की इस लड़ाई में लगातार आगे रहे हैं. उसका कहना हैं, ‘अपने समुदाय को ऊपर उठाने के संघर्ष के लिए मैंने सब कुछ छोड़ दिया है. मैंने हमारे महान नेता अाम्बेडकर के रास्ते पर चलने का फैसला किया है. मुझे उम्मीद है कि अगर हम लगातार संघर्ष करते रहे तो हमें इस व्यवस्था से एक दिन न्याय जरूर मिलेगा.’ अब्दुल कलाम की आंखों में एक गहरा निश्चय दिखाई देता है. उनका मानना है कि लगातार संघर्ष करते रहने के परिणामस्वरूप कुछ बदलाव आ रहे हैं. ‘मुझे पूरी उम्मीद है कि अगर हम अपनी लड़ाई बीच में न छोड़ें तो हमारी जीत होगी और दोषियों को सजा मिलेगी.’
भगाना के दलितों की लड़ाई सिर्फ बलात्कारियों को सजा दिलाने की लड़ाई तक सीमित नहीं है. लड़ाई में कहीं बड़े मुद्दे भी शामिल हैं. जैसे गांव की सामूहिक जमीन पर जाटों के कब्जे का मामला. शिकायत के बावजूद पुलिस ने इस बारे में कुछ भी नहीं किया. यह लड़ाई खाप पंचायतों द्वारा दलितों के सामाजिक बहिष्कार के खिलाफ भी है. ऊंची जातियों के जानवर जिस तालाब से पानी पीते हैं, उसी तालाब से दलितों के जानवर भी पानी पी सकें, इस हक के लिए लड़ाई है. दूसरे शब्दों में दलितों की लड़ाई बराबरी और सम्मानजनक जीवन के लिए है.
दिल्ली, जिसे प्रगति, विकास और आधुनिकता का गढ़ माना जाता है, वहां से भगाना गांव तक की दूरी तीन घंटे में तय की जा सकती है. हालांकि ग्रामीण हरियाणा की जातिगत हिंसा का यह किस्सा दिल्ली के सामान्य नागरिक को पिछड़े हुए समुदायों का बर्बर व्यवहार लगेगा. लेकिन हरियाणा में होने वाली यह एकमात्र घटना हो, ऐसा नहीं है. इस तरह की खबरें इफरात में सामने आ रही हैं. हाल ही में फरीदाबाद के सुनपेड गांव में दलित जाति के दो बच्चों को ऊंची जाति के लोगों द्वारा जिंदा जला दिया गया. इसी तरह हिसार के बाठला गांव में ऊंची जाति के लोगों ने एक दलित व्यक्ति को पेड़ से लटका कर मार दिया. दिल्ली से महज दो घंटे की दूरी पर सोनीपत के गोहाना गांव में 14 वर्ष का दलित लड़का रहस्यमय परिस्थितियों में मृत पाया गया. पुलिस ने उसे कबूतर चोरी के आरोप में गिरफ्तार किया था. इस तरह की घटनाओं की सूची लंबी होती जा रही है.
जाति आधारित हिंसा की खबरें हर रोज आती हैं. कुछ सुर्खियां बनती हैं तो कुछ खो जाती हैं. हिसार से 20 किमी. दूर बाठला की घटना सुनपेड की घटना की तरह राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित नहीं हो पाई
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले एक वर्ष में हरियाणा में जाति आधारित हिंसा तेजी से बढ़ी है. दो दलित बच्चों को जिंदा जलाए जाने की हाल की घटना हमें मिर्चपुर की दिल दहलाने वाली घटना की याद दिला देती है. 21 अप्रैल, 2010 को दलितों की पूरी बस्ती को ऊंची जाति के लोगों द्वारा आग के हवाले कर दिया गया था. इस घटना के बाद मिर्चपुर के दलित पलायन करके हिसार में आ गए. अधिकांश दलित परिवार दबंग जाट जाति के खेतों में काम करते थे. इस पलायन के परिणामस्वरूप इन दलित परिवारों का पूरा आर्थिक आधार ही चरमरा गया. अपनी जड़ें छोड़कर हिसार आ बसने पर इन्हें लंबे समय तक कोई काम नहीं मिला और इन्हें दूसरों से मिलने वाली आर्थिक मदद पर निर्भर रहना पड़ा. दूसरी ओर जाटों को उत्तर प्रदेश और बिहार से आए सस्ते मजदूर मिल गए. मिर्चपुर में भी भगाना की तरह दलित परिवार की महिलाओं के साथ ऊंची जाति के लोगों द्वारा बदसलूकी की जा रही थी. जब दलित समुदाय ने इसके खिलाफ आवाज उठाई तो उनकी बस्ती को जला कर राख कर दी गई. मिर्चपुर के दलित अब एकदम जीर्ण-शीर्ण अस्थायी कैंप में रह रहे हैं. टेंटों में जगह-जगह पानी जमा हो जाने से बीमारियों का खतरा बना रहता है. हालांकि, इस बस्ती को पुलिस सुरक्षा दी गई है, क्योंकि हिसार के कामरी रोड पर बसी इस बस्ती में मिर्चपुर कांड के बहुत से चश्मदीद गवाह भी रहते हैं. 55 वर्ष के सत्यवान कहते हैं, ‘सवाल केवल यही नहीं है कि हम कभी अपने घरों को नहीं लौटेंगे, बल्कि मुद्दा यह है कि व्यवस्था से हमारा भरोसा उठ चुका है. हमने कितनी ही बार पुलिस से सहायता मांगी है, लेकिन कोई फायदा नहीं.’ अपने आंसू रोकते हुए वे कहते हैं, ‘अपनी जगह के साथ हमारी यादें जुड़ी हुई हैं, हम वहां बड़े हुए हैं..लेकिन आज हम भिखारियों की तरह रह रहे हैं.’
कैंप में रहने वाली एक महिला बहुत आशंकित होकर यह सवाल करती है कि क्या इन अफवाहों में कोई सच्चाई है कि आरक्षण खत्म कर दिया जाएगा. ऐसा प्रतीत होता है कि मोहन भागवत के हालिया बयान ने यहां हरियाणा के इस कैंप तक पर असर डाला है. इन लोगों की दुर्दशा बताती है कि मिर्चपुर हत्याकांड को भुला दिया गया है. जाति आधारित हिंसा की खबरें हर रोज आती हैं. कुछ सुर्खियां बनती हैं तो कुछ छोटी सी जगह में सिमट कर खो जाती हैं. हिसार से 20 किमी. दूर बाठला की घटना सुनपेड की घटना की तरह राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित नहीं हो पाई. 8 अक्टूबर को इसी गांव के गुरुचरण को ऊंची जाति के लोगों ने पेड़ से लटका कर मार डाला.
स्थानीय दलित बताते हैं कि गुरुचरण की मौत के एक दिन पहले से कुछ ऊंची जाति के लोग उसका पीछा कर रहे थे. इस परिवार की त्रासदी यहीं नहीं रुकी. गुरुचरण के चाचा बदन सिंह जो इस मामले के चश्मदीद गवाह थे, उन्हें पुलिस स्टेशन बुलाया गया. गांव वाले बताते हैं कि एसीपी जसनदीप सिंह रंधावा द्वारा पूछताछ के बाद बदन सिंह काफी परेशान दिखाई दे रहे थे. गांव वालों का यह भी कहना है कि गुरुचरण के हत्यारों ने बदन सिंह को अपना बयान बदलने के लिए धमकाया था. एक दिन अचानक उन्होंने आत्महत्या कर ली. उसके पास से एक सुसाइड नोट मिला जिसमें लिखा था कि उस पर बयान बदलने के लिए दबाव बनाया गया था. हालांकि, इस सुसाइड नोट की विश्वसनीयता की पुष्टि नहीं हो पाई है.
गांव वालों ने यह भी बताया कि 24 अक्टूबर तक गुरुचरण की हत्या की एफआईआर भी दर्ज नहीं की गई थी. इस कारण उन्होंने एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया जिसमें वे आधे कपड़े पहने थे. इन प्रदर्शनकारियों के खिलाफ झूठे मामले दर्ज कर लिए गए. ‘तहलका’ ने जब जाटों और पुलिस से संपर्क साधना चाहा तो उन्होंने कोई प्रतिक्रिया देने से इंकार कर दिया.
सोनीपत के गोहाना गांव में 14 वर्षीय एक दलित लड़का कबूतर चोरी के आरोप में पुलिस द्वारा गिरफ्तार करने के बाद रहस्यमय परिस्थितियों में मृत पाया गया. हालांकि पुलिस का कहना है कि लड़का अपने घर में मृत पाया गया है और उनका इस मौत से कोई लेना-देना नहीं है. इस घटना से पुलिस और दलित समुदाय के बीच तनाव बढ़ गया है. गोहाना की घटना के बाद यमुनानगर में 21 वर्षीय दलित युवक को कथित रूप से किसी पुरानी रंजिश के परिणामस्वरूप गांव के पूर्व प्रधान ने जिंदा जला दिया. पुलिस ने इसे प्रथमदृष्टया आत्महत्या का मामला बताया है लेकिन परिवार वालों ने पुलिस की इस कहानी को मानने से इंकार कर दिया है.
हरियाणा और उत्तर भारत के दूसरे हिस्सों में दलितों को इस तरह से निशाना क्यों बनाया जा रहा है? राजनीतिक विज्ञानी रजनी कोठारी की किताब ‘कास्ट एंड इंडियन पॉलिटिक्स’ के प्राक्कथन में बताया गया है कि ‘जहां दलितों के पास जमीन नहीं है, वहां वे अधिक निशाना बनाए जाते हैं.’ भगाना के दलित, जिनके पास जमीन नहीं है, इस वक्तव्य के सटीक उदाहरण हैं. बहरहाल यह विडंबना ही है कि समाज में ऊंच-नीच को कायम रखने के लिए जाति के नाम पर किस तरह आदमी ही आदमी को मौत के घाट उतार रहा है.