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अंधविश्वास की पराकाष्ठा

अंधविश्वास और धार्मिक आस्था के नाम पर हमारे गाँवों में अभी भी कितने जुल्म होते हैं, यह हिमाचल प्रदेश के मंडी ज़िले के एक गाँव के घटना से ज़ाहिर हो जाता है, जिसमें अंधविश्वास के नाम पर 81 साल की बुजुर्ग महिला से क्रूरता की तमाम हदें पार कर दी गयीं। इस महिला के गले में जूतों की माला पहनायी गयी, उनके बाल काट दिये गये और मुँह पर कालिख पोत दी गयी। वे लोग यहीं तक नहीं रुके, बल्कि उन्होंने अमानवीयता की तमाम हदें पार करते हुए बुजुर्ग महिला को देवता के रथ के आगे घसीटा। घटना सामने आयी तो हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने इसका खुद संज्ञान लिया और अब यह मामला कोर्ट में है।

जिस महिला राजदेई के साथ यह सब कुछ हुआ वे एक पूर्व सैनिक की विधवा हैं और उनकी देखभाल करने वाला घर में कोई नहीं है। लिहाज़ा वे अपनी विवाहिता बेटियों के ही सहारे हैं। हद तो यह कि इस महिला से क्रूरता इस मामले में महिलाएँ भी शामिल रहीं, जिनमें एक देवता के मंदिर की पुजारिन भी है। घटना इसलिए भी गंभीर है, क्योंकि यह हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम के गृह ज़िला मंडी से जुड़ी है। पुलिस ने 24 लोगों को गिरफ्तार किया है।

हैरानी की बात यह रही कि मीडिया में खबर आते ही दुनिया-भर में घटना की चर्चा हो गयी; लेकिन पुलिस ने अपनी तरफ से कुछ नहीं किया और हाथ पर हाथ धरे बैठे रही। यहाँ तक कि घटना के शुरुआती दिनों में किसी सरकारी अधिकारी ने महिला से मिलने की ज़हमत तक नहीं उठायी। इस आधुनिक युग में भी समाज किस हद तक ऐसे मामलों में असंवेदनशील है, वह भी इस घटना से ज़ाहिर हो जाता है; क्योंकि जब महिला कुछ सिरफिरों की हैवानियत का शिकार हो रही थी, तो कोई गाँव वाला उसे बचाने नहीं आया।

घटना जब सामने आयी तो इसे लेकर विरोध-प्रदर्शन भी शुरू हो गये। क्रूरता मामले की चौतरफा निन्दा हुई। कई सामाजिक संगठन इसके िखलाफ आवाज़उठाने लगे। राजधानी शिमला में सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसके िखलाफ मोर्चा खोल दिया। सामाजिक कार्यकर्ता रवि कुमार ने कार्यकर्ताओं सहित शिमला के रिज में महात्मा गाँधी की प्रतिमा से लेकर हाई कोर्ट तक विरोध मार्च किया। रवि कुमार ने कहा- ‘प्रदेश में देवताओं के नाम पर हो रहे अत्याचार निंदनीय हैं। ऐसे लोगों के िखलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए, ताकि अत्याचार की ऐसी पुनरावृत्ति न हो सके।’

यही नहीं गांव वालों में से ही किसी ने महिला का सडक़ पर घसीटे जाने का वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया जो तुरंत वायरल हो गया। यह घटना हिमाचल के मंडी जिले के उपमंडल सरकाघाट की गोहर पंचायत की है। वहां के समाहल गांव में इस बुजुर्ग महिला के साथ हुई क्रूरता रोंगटे खड़े कर देती है। इस महिला से गांव के देवता के कथित कारिंदों ने इतना जुल्म इसलिए किया क्योंकि उन्हें शक था कि यह महिला जादू-टोना करती है और देवता इससे ‘नाराज़’ हैं।

यह मामला मानवाधिकार आयोग के अलावा, महिला आयोग के पास भी पहुंचा है। घटना की जानकारी मिलने के बाद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने इसकी जांच के आदेश जारी किये तब जाकर पुलिस की नींद खुली। मुख्यमंत्री ने कहा – ‘वर्तमान समाज में ऐसी घटनाएँ किसी भी सूरत में सहन नहीं की जा सकतीं। हमने जाँच के आदेश दिये हैं और माननीय उच्च न्यायालय ने भी इसका संज्ञान लिया है। दोषियों को किसी भी सूरत में नहीं बख्शा जाएगा।’

यह घटना अंधविश्वास और गुंडागर्दी से जुड़ी है, जिसमें धर्म के ठेकेदारों ने इस बुजुर्ग महिला पर कथित जादू-टोने का आरोप लगा उससे अमानुषिक व्यवहार किया। सिरफिरों की हैवानियत का शिकार बुजुर्ग महिला के दामाद ने सरकाघाट थाने में शिकायत दर्ज करवाई। पुलिस को दी गयी शिकायत में करीब दो दर्जन लोगों के नाम लिखवाये थे, जिन्होंने बुजुर्ग के साथ यह क्रूरता की।

शिकायत के मुताबिक, जादूटोना का आरोप लगाने वाले वहशियों ने बुजुर्ग महिला के बाल काटे, उनके चेहरे पर कालिख पोती गयी और गले में जूतों की माला पहनाकर देवता के रथ के आगे उन्हें घसीटा गया। बुजुर्ग महिला ने उसे छोडऩे की बार-बार गुहार लगाई लेकिन किसी ने उनकी न सुनी। धर्म के ठेकेदार अपनी मनमानी करते रहे। यही नहीं, गांव वालों ने इस वहशी घटना का वीडियो भी बना डाला और सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया। बुजुर्ग महिला विधवा हैं और उनकी दो विवाहित बेटियां हैं। यहां तक कि कोई उनकी देखभाल करने वाला भी नहीं।

घटना का ब्योरा

समाहल गांव में स्थानीय देवता का मंदिर है जिनकी ग्रामीणों में खूब आस्था है। देव पुजारी (गुर) की तीन साल पहले मृत्यु हो गई जिसके बाद कोई पुजारी तय नहीं हुआ। हालांकि कुछ आसामजिक तत्त्वों ने इसका फायदा उठाकर खुद को देवता का सेवक बताकर लोगों को धर्म के नाम पर डराना-धमकाना शुरू कर दिया। यही लोग इस घटना के पीछे हैं।

‘तहलका’ को मिली जानकारी के मुताबिक कोई हफ्ता भर पहले देवरथ के साथ यह लोग बुजुर्ग महिला के घर गए और उस पर कथित जादू-टोना का आरोप लगाया। यही नहीं उसके घर में तोडफ़ोड़ भी की गयी। इसकी जानकारी बुजुर्ग महिला को मिली तो उसके गाँव आकर पंचायत में इसकी शिकायत की। आरोप है कि पंचायत के सामने भी इन लोगों ने महिला को देवता के नाम पर डराया-धमकाया और शिकायत वापस लेने का दबाव बनाया। बुरी तरह डरी बुजुर्ग महिला ने भारी दबाव में शिकायत वापस ले ली और अपनी बेटी के  घर लौट गयी।

कुछ दिन बाद जब वह फिर अपने गाँव आयी तो इन समाज विरोधी तत्त्वों ने महिला के सिर के बाल काटे, उनका मुँह काला किया और उनके गले में जूतों की माला पहनाकर देवता के रथ के साथ पूरे गाँव में घसीटा गया। आरोप है कि इतनी शर्मनाक घटना के बाद भी प्रशासन का कोई अधिकारी महिला को सांत्वना देने नहीं गया। यह बुजुर्ग महिला एक पूर्व सैनिक की पत्नी है। उनकी एक बेटी तृप्ता भरेड़ी में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं और दूसरी बेटी नर्स हैं। तृप्ता के पति हमीरपुर में एडवोकेट हैं।

तृप्ता के मुताबिक, सीएम जयराम के आदेश के बाद जाकर उनकी माँ के बयान दर्ज किये गये। और कुछ लोगों की गिरफ़्तारी भी हुई। गिरफ्तारी के बाद गाँव में तनाव हो गया, जिससे एसडीएम ने सरकाघाट में धारा 144 लगानी पड़ी और स्थिति से निपटने के लिए पुलिस तैनात करनी पड़ी। डीएसपी सरकाघाट चंद्रपाल सिंह के मुताबिक महिला वाले मामले में आईपीसी की धारा 147, 149, 452, 355, 435 और 427 के तहत मामला दर्ज किया गया है।

यह रिपोर्ट फाइल होने तक क्रूरता के इस मामले में गिरफ्तार सभी 24 आरोपियों को दो हफ्तों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया है। पहले सभी आरोपी पुलिस रिमांड पर थे जिसके बाद उन्हें दोबारा से अदालत में पेश किया गया। अदालत ने तमाम आरोपियों की जमानत याचिका भी खारिज कर दी। दिलचस्प यह है कि जमानत की याचिका गाँव वालों ने ही दािखल की थी।

इस मामले में 24 आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है जिनमें 15 पुरुष और 9 महिलाएँ हैं। इनमें एक 18 वर्षीय युवक और देवता की कथित पुजारिन 22 वर्षीय महिला भी शामिल है। पीडि़त बुजुर्ग महिला का मेडिकल कॉलेज हमीरपुर, जहाँ उनकी बेटियाँ रहती हैं, में मेडिकल करवाया गया। िफलहाल यह बुजुर्ग महिला अपनी बेटियों के साथ रह रही हैं और उनकी सुरक्षा में दो पुलिस कर्मी तैनात कर दिये गये हैं।

पुलिस के कामकाज पर सवाल

राजदेई की घटना गांव में पहली  घटना नहीं है और पहले भी ऐसी घटनाएं हुई हैं। देवता से जुड़े लोग इतने ताकतवर हैं कि वे न तो पीडि़तों को पुलिस में शिकायत करने देते हैं न गांव की पंचायत में उनकी चलने देते हैं। जो जुल्म का शिकार होकर न्याय के लिए आवाज़उठाता है, उससे गुंडागर्दी की जाती है।

पुलिस को लेकर भी लोगों की शिकायतें रही हैं। महिला से क्रूरता मामले में भी पुलिस की कार्यप्रणाली पर खूब सवाल उठे हैं। लोगों ने बाकायदा मंडी के एसपी गुरदेव शर्मा से इस मामले में शिकायतें की हैं। हालांकि एसपी ने कहा कि दूसरा भी पक्ष है। एसपी ने कहा – ‘बड़ा समाहल गांव से सरकाघाट थाने में लोगों ने कुछ शिकायतें जरूर कीं। लेकिन जब भी पुलिस कार्रवाई करने गांव पहुंचती तो शिकायतकर्ता कार्रवाई करवाने से इनकार कर देते रहे।’

पुलिस रिपोर्ट के मुताबिक गांव में ऐसी ही एक घटना 17 अक्टूबर को भी घटी थी जिसकी शिकायत थाने में 23 अक्टूबर को दी गई। यह शिकायत इसी गांव के अजय कुमार ने दी थी। इस शिकायत पर 24 अक्टूबर को पुलिस टीम गांव गई, लेकिन बाद में अजय कुमार ने कार्रवाई करवाने से इनकार कर दिया। आरोप है कि स्थानीय देवता से जुड़े लोगों का इसे लेकर जबरदस्त दबाव था। इसके बाद 6 नवंबर को राजदेई के साथ देवता के लोगों ने क्रूरता की। इसकी भी पुलिस को किसी ने जानकारी दी और पुलिस टीम गांव पहुंची। लेकिन आरोपी लोगों ने मामले को दबा दिया। पुलिस को यह पता लग गया कि घटना राजदेई नामक महिला के साथ हुई है। जैसे-तैसे पुलिस ने राजदेई के दामाद से संपर्क साधा, लेकिन इन्होंने पुलिस की कार्रवाई करवाने से इनकार कर दिया। छह नवंबर को ही एक व्यक्ति जय गोपाल की तरफ से भी पुलिस को शिकायत प्राप्त हुई। सात नवंबर को जब पुलिस गांव गई तो जय गोपाल ने भी शिकायत से इनकार कर दिया। पुलिस का कहना है कि जब 9 नवंबर को राजदेई का वीडियो वायरल हुआ तो उसके बाद ही खौफ से भरे बैठे राजदेई के परिजनों की तरफ से पुलिस को शिकायत दी गयी।

सवाल उठता है कि जब गांव से लगातार इस तरह की घटनाओं की जानकारी बाहर आ रही थी तो क्यों पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। उसकी सीआईडी विंग क्या कर रही थी। पुलिस ने आखिर एफआईआर दर्ज करके कार्रवाई शुरू की। इससे दूसरे लोग भी खौफ से बाहर निकले और 11 नवंबर को जय गोपाल ने फिर से पुलिस को शिकायत दी और उसपर भी अलग से मामला दर्ज करके कार्रवाई शुरू हुई। पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठने के बाद और मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए एएसपी मंडी पुनीत रघु की अध्यक्षता में ‘फेक्ट फाइंडिंग कमेटी’ गठित कर दी गई। कमेटी की विभागीय जांच रिपोर्ट आने से पहले ही सरकाघाट के थानाध्यक्ष सतीश शर्मा और एक हेड कांस्टेबल भव देव को लाइन हाजिर कर दिया गया।

देवभूमि में ऐसी घटनाओं के लिए कोई जगह नहीं है। लोगों को ऐसी मानसिकता छोडऩी चाहिए। जानकारी सामने आने के तुरंत बाद पुलिस सतर्कता बरतती तो शायद ऐसी भयावह घटना न होती।

मुकेश अग्निहोत्री

नेता, कांग्रेस विधायक दल

शिवसेना की दास्तान-ए-दोस्ताना

महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए शिवसेना अपने 30 साल पुराने दोस्त भाजपा का दामन छोड़, एनसीपी और कांग्रेस का दामन पकड़ रही है। शिवसेना का यह नया बेमेल दोस्ताना लोगों को हज़म नहीं हो रहा है। लेकिन बेमेल दोस्ताना शिवसेना के लिए नया नहीं है।

भाजपा और शिवसेना की ऐसी दोस्ती रही है, जिसमें दोस्ताना के साथ-साथ उनके बीच प्रतिस्पर्धा भी रही है। वैसे दोनों करीब 35 साल पहले आये थे, उस वक्त 1984 में महाराष्ट्र में भाजपा कोई बड़ी पार्टी नहीं हुआ करती थी। दोनों के बीच औपचारिक रूप से गठबन्धन ने जन्म लिया 1989 के लोक सभा चुनाव में। और यह 2014 तक चलती रही। 90 के दशक में बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद हुए साम्प्रदायिक दंगों ने वोटों का बँटवारा बेहद संगीन तौर पर कर दिया था। 1995 में हुए महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में इसका फायदा शिवसेना-भाजपा गठबन्धन को मिला। लेकिन उस वक्त चुनाव से पहले ही बाल ठाकरे ने फॉर्मूला तय कर दिया था कि जीतने के बाद मुख्यमंत्री का पद उसी दल को मिलेगा, जिसे ज़्यादा सीटें मिलेगी। तयशुदा वादे के मुताबिक मुख्यमंत्री शिवसेना का बना और उप मुख्यमंत्री का पद भाजपा को मिला। हालाँकि पॉवर को लेकर टशन दोनों के बीच चलती रही। उस समय शिवसेना बड़े भाई और भाजपा छोटे भाई की भूमिका में थीं। महाराष्ट्र की सत्ता पर भले ही भागीदारी की सूरत में आधिपत्य को लेकर दोनों के बीच मनमुटाव होते रहे और सुलझते भी रहे हैं। लेकिन इस दफा मामला उलझता ही चला गया। आज हैसियत के तौर पर भाजपा खुद को बड़ा भाई और शिवसेना को छोटा भाई साबित करने पर तुली हुई है।

हिंदुत्व का मुद्दा वह अहम मुद्दा है, जिसमें दोनों को अपनी-अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए भरपूर आँच मिलती रही है। बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद, आर्टिकल 370, ट्रिपल तलाक, यूनिफॉर्म सिविल कोड ऐसे मसले हैं, जिनमें दोनों की सोच एक ही है और लगभग दोनों के वोट बैंक भी। लेकिन महाराष्ट्र में शिवसेना के पास भूमिपुत्र, मराठी अस्मिता, मराठी माणूस जैसे संवेदनशील मुद्दों के साथ-साथ शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे से भावनात्मक तौर पर जुड़े लोगों की समर्पित सेना का अतिरिक्त बल भी है। आज शिवसेना सत्ता के लिए कांग्रेस और एनसीपी के साथ एक बेमेल गठजोड़ के ज़रिये राजनीति का नया इतिहास लिख रही है। भले ही आज इस नये गठजोड़ पर लोगों की भौंहें तन रही हैैं; लेकिन समय-समय पर वक्त के मुताबिक अलग-अलग दलों के साथ गठबन्धन शिवसेना का इतिहास रहा है।

कभी राजनीति को गजकरण यानी खुजली की बीमारी कहने वाली शिवसेना के जन्मदाता कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे ने शिवसेना को मराठी माणूस के उद्धारक के रूप में स्थापित किया। लेकिन जल्द ही वह पॉवर तथा राजनीतिक पार्टी के समीकरण को समझ गये और शिवसेना सियासी दल के तौर पर राजनीति का हिस्सा बनती चली गयी।

1967 में एसजी बर्वे जो कांग्रेस के नॉर्थ ईस्ट बम्बई से लोक सभा कैंडिडेट थे; को अपना समर्थन दिया। बर्वे, पक्के कांग्रेसी और मुम्बई के बेताज बादशाह माने-जाने वाले एस.के. पाटिल की पसन्द थे। हालाँकि एस.के. पाटिल और शिवसेना के सम्बन्ध अच्छे नहीं थे। मामला मराठी माणूस का था। बर्वे की जगह उस समय के पूर्व रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन चुनाव लडऩा चाहते थे, जबकि शिवसेना यह कतई नहीं चाहती थी।

1968 से 1970 तक शिवसेना, प्रजा समाजवादी पक्ष के साथ दोस्ती रही। 1968 में ही शिवसेना ने अपना पहला इलेक्शन मुम्बई महानगरपालिका के लिए लड़ा।

1972 में अंबेडकरवादी नेता लीडर आर.एस. गवई की पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के साथ शिवसेना की दोस्ती बनी। दलित पार्टियों के साथ दोस्ताना सम्बन्ध की एक शुरुआत थी। इसी साल मुस्लिम लीग के समर्थन से शिवसेना बीएमसी के मेयर बने।

ऐसे वक्त में जब लगभग सभी राजनीतिक दल इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गाँधी के िखलाफ मोर्चा बाँधे हुए थे, शिवसेना साथ खड़ी थी। 1974 के लोक सभा के मध्यावधि चुनाव में कांग्रेसी लीडर रामराव आदिक को शिवसेना ने मदद की थी। 1977 में कांग्रेसी मुरली देवड़ा को मुम्बई के मेयर पोस्ट के लिए भी शिवसेना ने अपना समर्थन दिया था। 1980 में बाल ठाकरे ने ए.आर. अंतुले को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद के लिए अपना समर्थन दिया; बदले में शिवसेना को विधान परिषद् जगह मिली। वैसे कांग्रेसी अंतुले और ठाकरे के बीच अच्छी दोस्ती थी। एक ज़माने में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक और शिवसेना प्रमुख के बीच मित्रतापूर्ण सम्बन्ध जग-ज़ाहिर रहे हैं। कहा तो यहाँ तक जाता है कि मुम्बई से ट्रेड यूनियनों पर कम्युनिस्ट पार्टी का दबदबा खत्म करने के लिए शिवसेना को कांग्रेस द्वारा सुपारी दी गयी थी। हालाँकि शिवसेना ने हमेशा से इस बात को नकारा है। लेकिन शिवसेना और कांग्रेस की दोस्ती का इतिहास गवाह है।

माना जाता है कि मुम्बई महानगरपालिका चुनाव के दौरान कुछ गलतफहमी के चलते इस दोस्ती में दरार आ गयी और मुम्बई महानगर पालिका पर शिवसेना भगवा फहराने लगी। गौरतलब है 2007 राष्ट्रपति के मुद्दे पर शिवसेना ने कांग्रेस का साथ दिया था। मामला एक बार फिर मराठी माणूस का था और महाराष्ट्र की प्रतिभा ताई पाटील देश की राष्ट्रपति बनीं।

करतारपुर क्यों याद आयी ‘बॢलन की दीवार’

पूरी दुनिया के सिख समुदाय के लिए बेहद अहम करतारपुर, पंजाब के गुरदासपुर ज़िले में भारतीय सीमा से महज़ 4 किलोमीटर दूर पाकिस्तान वाले पंजाब के नारोवाल ज़िले में रावी नदी के तट पर स्थित है। 9 नवंबर से पहले करतारपुर स्थित दरबार साहिब के दर्शन दूरबीन से ही करने की अनुमति थी। एक साल पहले ही दोनों देश इस पर सहमत हुए और महज़ 10 महीनों के अन्दर ही करतारपुर साहिब के दोनों सरकारों ने इलाके का कायाकल्प का करोड़ों सिख श्रद्धालुओं का दिल जीत लिया। इस गलियारे ने भारत-पाकिस्तान के बीच चल रहे तल्ख माहौल में कुछ नरमी के संकेत दिये हैं।  9 नवंबर, 2019 से ठीक 30 साल पहले बर्लिन की दीवार ढहाने का काम शुरू हुआ था। भारत-पाक के बीच दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की ओर से उद्घाटन किये जाने ने उस घटना की यादें ताजा कर दीं। पर यहाँ दो महाद्वीपों में घटीं इन दो ऐतिहासिक घटनाओं में सिर्फ 30 साल का ही नहीं, बल्कि कई सारे अन्तर हैं। 30 साल पहले की घटना में 2 देशों के फिर से एक होने की शुरुआत हुई थी, जिनके बाशिंदे 28 सालों से विभाजन का दंश झेल रहे थे। बर्लिन की दीवार ढहने से जो हुआ था, वैसा करतारपुर गलियारा खुलने से वैसा कुछ नहीं हुआ। यहाँ गलियारे से सिर्फ भारत के सिख श्रद्धालु पाकिस्तान स्थित अपने सबसे बड़े आस्था स्थलों में शुमार दरबार साहिब पर मत्था टेकने जाने लगे हैं।

550वें प्रकाश पर्व के अवसर पर हिस्सा लेने के लिए करतारपुर गलियारे और गुरु नानक देव साहिब के दर्शन के लिए पाकिस्तान गुरुद्वारे के प्रांगण में एकत्र श्रद्धालु।

9 नवंबर को करतारपुर कॉरिडोर के उद्घाटन के अवसर पर करतारपुर में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के साथ भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंजाब के सुल्तानपुर लोधी में गुरुद्वारा बेर साहिब में सिख श्रद्धालुओं के बीच वक्त बिताया और गुरुद्वारे में मत्था टेका साथ ही लंगर भी छका।

12 नवंबर को अमृतसर में गुरु नानक देवजी के 550वें प्रकाश पर्व रोशनी में नहाया स्वर्ण मंदिर के नाम से मशहूर श्रीहरमंदिर साहिब।

गुरदासपुर में डेरा बाबा नानक में लंगर छकते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह व अन्य।

गुरु नानक देव जी के 550वें प्रकाश पर्व के मौके पर गुरदासपुर सीमा से गुरुद्वारा करतारपुर साहिब पाकिस्तान के लिए रवाना होता सिख श्रद्धालुओं का जत्था।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरदासपुर में करतारपुर जाने के लिए चेक पोस्ट का उद्घाटन किया साथ ही सिख तीर्थयात्रियों के पहले जत्थे को रवाना किया।

उद्घाटन समारोह में गतका खेलते सिख जांबाज़।

कायदों पर कुतर्कों का बसेरा

कोई सरकार इतनी ब्रेिफक्र तो नहीं हो सकती कि जब चाहे मुसीबतों की आवभगत करने वाले जखीरे पर बैठ जाए? लेकिन जब सरकार के अपने ही सूरमा बदशगुनी की कहानियाँ गढऩे लगें, तो कोई क्या करे? सबसे रोमांचक कहानी निकाय चुनावों को लेकर है। उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट अपनी पूरी समझ झोंकने के साथ-साथ निकाय चुनावों में ‘हाइब्रिड प्रणाली’ लागू करने की मुखालिफत पर तुल गये। पालिका नियमों की किताब बाँचने की बजाय पायलट इसे अलोकतांत्रिक फैसला बताने पर अड़ गये। आिखर उनके कुतर्क पर नगरीय विकास मंत्री शान्ति धारीवाल ने पालिका नियमों का आईना दिखाते हुए दोनों ही बातों को सौ टंच दुरुस्त बताया। जैसे कि बढ़ती आबादी और हैरिटेज महत्त्व के मद्देनज़र जयपुर, कोटा और जोधपुर में दो मेयरों के प्रावधान से किसे इन्कार होगा? जयपुर शहर का परकोटा क्षेत्र के यूनेस्को विश्व विरासत में शामिल होने के बाद तो यह तात्कालिक ज़रूरत हो गयी थी। बढ़ती जनसंख्या के मद्देनज़र कोटा, जोधपुर भी इसी पाँत में शामिल हो रहे थे। निकाय प्रमुखों के चुनाव को बैक डोर एंट्री’ के पैमाने से नापने के तुक्के को खारिज करते हुए धारीवाल ने कहा कि पहली प्राथमिकता तो निर्वाचित पार्षदों के ही निकाय प्रमुख का चुनाव लडऩे की होगी। लेकिन बाहर से निकाय प्रमुख बनाने का विकल्प भी खुला रखा गया है।

धारीवाल ने अनावश्यक भ्रम को बेदखल करते हुए स्पष्ट किया कि विशेष परिस्थितियों में एससी, एसटी और अन्य पिछड़ा तथा आरक्षित महिला वर्ग में अगर विशेष पार्टी के सदस्य नहीं जीत पाते हैं, तभी ऐसे व्यक्ति को निकाय प्रमुख का चुनाव लड़ाया जाएगा, जो पार्षद नहीं होगा। इस बयान के मद्देनज़र स्वायत्त शासन विभाग के फैसले पर नज़र दौड़ाएँ, तो इस बाबत कोई नयी अधिसूचना जारी नहीं की गयी। ज़ाहिर है नया बदलाव जब सैद्धांतिक कसौटी पर सौ टंच कसा हुआ है, तो 16 अक्टूबर की अधिसूचना ही प्रभावी हुई। विश्लेषकों का कहना है कि सरकार ने अपना चोला कहाँ बदला? िकस्सा कोताह यह है कि बावजूद इस खुलासे के पायलट पूर्वाग्रहों की तहों से बाहर नहीं निकल पाये हैं और जुनून की पूँछ दबोचे हुए हैं। निकाय चुनाव के तौर-तरीकों पर सवाल उठाते पायलट और प्रतिपक्षी नेताओं के तपते दर्द पर छींटे डालते हुए धारीवाल का कहना था कि 31 जनवरी, 2019 को सरकार ने पूर्ववर्ती सरकार के फैसले को बदलते हुए किसी भी व्यक्ति के निकाय प्रमुख का चुनाव लड़ सकने का नियम लागू कर दिया था, तो अब कौन-सी तब्दीली कर दी? केवल उसी अधिसूचना को 16 अक्टूबर, 2019 को चुनावी वक्त में दोबारा जारी करने पर हंगामा क्यों? इस वाकये का पूरा लब्बोलुआब समझें, तो आिखर उप मुख्यमंत्री पायलट इस बात से बेखबर क्यों रहे कि ‘राजस्थान नगर पालिका के अधिनियम-2009 के तहत सरकार किसी भी बदलाव के लिए शक्ति सम्पन्न है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि एक महत्त्वपूर्ण प्रावधान को क्योंकर पायलट असंवैधानिक बता रहे थे; जिसका कोई ताॢकक आधार ही नहीं था। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हैरानी जताते हैं कि गुड गवर्नेंस की भावना से लिये गये फैसले को फज़ीहत के दलदल में घसीटने के पीछे आिखर मंशा क्या थी? विश्लेषकों का कहना है कि बहरहाल पायलट के उलटे मीज़ान की छलाँग ने न सिर्फ चतुर सुजान बनने की उनकी कोशिशों को ढहा दिया, बल्कि आलाकमान की निगाहों में ‘नूर-ए-नज़र’ बनने की कोशिशों की भी भद्द पिटवा दी। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि ‘जब आप आदर्शवाद की दुहाई दे रहे हों, तो सियासी असहमतियों को सँभालने का तरीका भी ईज़ाद कर लेना चाहिए।

कोटा, जयपुर और जोधपुर में दो नगर निगम तथा दो मेयर की घोषणा के बाद रेगिस्तानी सूबे की राजनीति गरमा गयी है। निकायों के इस नये परिदृश्य पर तीखे कटाक्ष करने की कोशिश में सबसे आगे तो उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट रहे। मौका ताडक़र इसे नकारने की कोशिश में पायलट धड़े के समर्थक भी िकस्म-िकस्म की बयानबाज़ी करने से नहीं चूके। इस घोषणा को लेकर उनकी बेचैनी अभूतपूर्व रही। उनका कहना था- ‘यह फैसला सही नहीं है। इसे बदला जाना चाहिए। यह प्रणाली राजनीतिक दृष्टिकोण से अच्छी नहीं है। उन्होंने यह कहकर घोषणा का सियासी मुद्दा बनाने की कोशिश की कि स्वायत्त शासन विभाग ने यह निर्णय करने से पहले न तो मंत्रियों की राय ली, न ही विधायकों और संगठन से मशविरा किया। स्वायत्त शासन मंत्री ने ऐसा फैसला क्यों किया? यह समझ से परे है। इसका गलत मैसेज जाएगा। मंत्री प्रतापसिंह खाचारियावास, रमेश मीणा और विधायक भरत सिंह ने भी पायलट के सुर में सुर मिलाते हुए कहा- ‘यह फैसला लोकतंत्र की मूल भावना के िखलाफ होगा। हालाँकि भरत सिंह का कहना था कि मैंने सिर्फ सुझाव दिया है। अलबत्ता मैं सरकार के फैसले के साथ हूँ।

विरोध की इस गणितायी पर तपसरा करते हुए धारीवाल ने कहा कि ‘नगर पालिका अधिनियम-2009 की धारा-3 की उप धारा (1) के खण्ड (सी) के तहत नगर पालिका का सृजन करने, सीमाएँ घटाने-बढ़ाने और नगर पालिका/परिषद्/निगम को दो या दो से अधिक भागों में विभाजित करने और उनकी सीमाएँ निर्धारित करने का उनके मंत्रालय को पूरा अधिकार है। बाहरी व्यक्ति को निकाय प्रमुख के लिए सीधा प्रत्याशी बनाने, वार्डों की संख्या बढ़ाने तथा एक की जगह दो नगर निगम बनाने की राजस्थान म्युनिसिपल अधिनियम-2009 के नियम-3, 5, 6 और 10 के तहत भी स्वायत्त शासन मंत्रालय के पास शक्तियाँ हैं। फिर मलाल क्यों? शुक्रवार 10 अक्टूबर को निकाय चुनावों की प्रक्रिया में फेरबदल को लेकर विरोध पर उतर आये उप मुख्यमंत्री पायलट का कहना था- ‘यदि नगर पालिका एक्ट के तहत धारीवाल यह निर्णय लेना चाहते हैं, तो यह व्यावहारिक रूप से सही नहीं है।’ विश्लेषकों का कहना है कि प्रशासनिक नियम-कायदों खासकर पालिका नियमों की नब्ज़ पर शान्ति धारीवाल की पकड़ ज़्यादा मज़बूत है। फिर पायलट के प्रपंच का क्या मतलब? धारीवाल ने तमाम आक्षेपों को खारिज करते हुए कहा कि 31 जनवरी, 2019 को सत्तारूढ़ हुई कांग्रेस सरकार ने आते ही पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के नियमों को बदलते हुए किसी भी व्यक्ति के निकाय प्रमुख का चुनाव लडऩे का कायदा लागू कर दिया था। फिर इसका बुनियादी चरित्र कहाँ बदला? उनका दो टूक सवाल था कि केवल 16 अक्टूबर, 2019 की उसी अधिसूचना को चुनाव के समय दोबारा जारी किया गया, तो बवाल क्यों? उन्होंने विभागीय शक्तियों का भी यह कहते हुए खुलासा कर दिया कि राजस्थान म्युनिसिपल अधिनियम 2009 के नियम 3, 5, 6 और 10 में स्वायत्तशासन विभाग के पास पर्याप्त शक्तियाँ है। लिहाज़ा इन मामलों को कैबिनेट में ले जाने का सवाल ही नहीं उठता। कोटा, जोधपुर और जयपुर को बाँटने के सवाल पर उनका कहना था कि यूनेस्को द्वारा जयपुर की शहरपनाह को वैश्विक धरोहर घोषित करने के बाद जयपुर में हैरिटेज की दृष्टि से अलग नगर निगम का गठन करना ही था। अब जब हैरिटेज और ग्रेटर की दृष्टि से जयपुर का बँटवारा किया गया, तो कोटा और जोधपुर का भी बँटवारा करना आवश्यक था। दोनों शहर आबादी की दृष्टि से 10 लाख से ज़्यादा होने के कारण इन्हीं नियमों के दायरे में आ रहे थे। लिहाज़ा कोटा, जोधपुर में भी दो निगमों का प्रावधान लागू किया गया। सियासी जानकारों का कहना है कि विकास की कसौटी पर यह सौ टका सुधार है। अब जयपुर के साथ कोटा को भी विकास की नयी डगर मिल जाएगी।

नगर पालिका एक्ट की दुहाई देते हुए इस निर्णय को व्यावहारिक नहीं बताना पायलट पर उस समय भारी पड़ा, जब स्वायत्त शासन मंत्री शान्ति धारीवाल ने उनके ज्ञान को दृष्टिदोष में पिरोते हुए अधिनियम का खुलासा किया। धारीवाल ने स्पष्ट कहा कि जब 31 जनवरी, 2019 से यही नियम है, तो नौ महीने तक सवाल क्यों नहीं उठाये गये? वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी ने इसे दूरगामी फैसला बताते हुए नीतिगत बताया। धारीवाल कहते हैं कि इस मामले में विरोध और सुझाव देने वाले सभी पक्षों का स्वागत है। लेकिन हम अपने फैसले पर अडिग हैं। अलबत्ता इस मौके पर भाजपा ने हमलावर होने का मौका नहीं गँवाया। भाजपा प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनिया का कहना था कि कांग्रेस दो गुटों में बँटी हुई है। कांग्रेस घर में ही एक नहीं है।  विश्लेषकों का कहना है कि कार्यों का वर्गीकरण होने से लोगों के काम जल्दी हो सकेंगे। दो मेयर होंगे, तो बेहतर करने की प्रतिद्वंद्विता बढ़ेगी। ज़ाहिर है लोग फायदे में रहेंगे। विश्लेषकों का कहना है कि सबसे बड़ा लाभ तो यह होगा कि जनता और पार्षदों के बीच सहज सम्पर्क हो सकेगा। हालाँकि बड़ा सवाल यह भी है कि आय के संसाधनों में इज़ाफा कैसे होगा? बहरहाल अब नये परिसीमन के मद्देनज़र चुनाव अगले छ: महीने के लिए टल गये हैं। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि हर मुद्दे को लेकर सरकार से खटास पालने वाले पायलट और उनके समर्थक नीतियों को उत्साह का विटामिन देने से क्यों परहेज़ कर रहे हैं?

नए सिरे से होगा परिसीमन

जयपुर, जोधपुर और कोटा में दो नगर निगम बनाए जाने तथा दो मेयर बैठाए जाने के राज्य सरकार के फैसले के बाद अब इन महानगरों में वार्डों का परिसीमन भी नए सिरे से होगा। परिसीमन की प्रक्रिया शुरू होने से पहले मौजूदा नगर निगमों के प्रशासनिक ढांचे में भी बदलाव किया जाएगा। नए सिरे से वार्डों के परिसीमन के कार्य में करीब पांच से छह माह का समय लगेगा । इसके बाद वार्डों की आरक्षण लॉटरी नए सिरे से निकाली जाएगी। इस स्थिति में तीनों शहरों के नवगठित नगर निगमों के चुनाव अगले साल अप्रैल के आसपास हो सकते हैं।

उपचुनाव नतीजे तय करेंगे येद्दियुरप्पा सरकार का भविष्य

आखिर कर्नाटक के बागी विधायकों पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आ गया और साथ ही येद्दियुरप्पा की परीक्षा की घड़ी का भी। सर्वोच्च अदालत ने इन विधायकों की सदस्यता तो बहाल नहीं की; लेकिन तत्कालीन विधानसभा स्पीकर के उनके 2023 तक चुनाव में हिस्सा लेने पर लगायी पाबंदी को हटा दिया। कर्नाटक में अब इन विधायकों की सीटों पर 5 दिसंबर, 2019 को उपचुनाव होगा और भाजपा को इनमें कम-से-कम छ: सीटें जीतनी होंगी और ऐसा नहीं हुआ तो येद्दियुरप्पा सरकार अल्पमत में आ जाएगी और उनके सामने बड़ी मुश्किल पैदा हो जाएगी।

आज की तारीख में कर्नाटक विधानसभा में बहुमत के लिए 104 विधायकों की ज़रूरत है जबकि भाजपा को 106 विधायकों का समर्थन प्राप्त है। लेकिन चुनाव के बाद कुल सीटों की संख्या 222 होने से बहुमत के लिए 112 विधायकों की ज़रूरत रहेगी। वैसे कर्नाटक में 224 सीटें हैं लेकिन 17 में से 15 विधायकों के हलकों में ही उपचुनाव हो पायेगा। कारण है दो हलकों मस्की और राजराजेश्वरी नगर पर कर्नाटक हाई कोर्ट में मामला लंबित होना। लिहाजा इन सीटों पर उपचुनाव नहीं होगा, जिससे कुल सीटों की संख्या 222 रह जाएगी और बहुमत का आँकड़ा होगा-112 विधायक।

स्पीकर द्वारा अयोग्य करार दिये गये 17 विधायकों के फैसले को शीर्ष अदालत ने नहीं बदला, अब इनमें से 15 सीटों पर 5 दिसंबर को उपचुनाव तय है। पहले इन 15 सीटों पर 21 अक्टूबर को चुनाव होने थे; लेकिन विधायकों को अयोग्य करार देने से जुड़ा मामला हाई कोर्ट में लम्बित था। इसके चलते चुनाव आयोग ने मतदान की तारीखों को 5 दिसंबर तक टाल दिया था।

दिलचस्प यह भी है कि अयोग्य करार दिये गये विधायक सदस्यता खोने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब भाजपा में ही शामिल हो गये हैं और पार्टी ने इनमें से 13 को उपचुनाव में टिकट भी थमा दिया है।

सर्वोच्च अदालत का फैसला आने से पहले तक राजनीतिक दलों की साँसें अटकी थीं। सर्वोच्च अदालत का फैसला 13 नवंबर को आया। याद रहे इसी साल जुलाई में कर्नाटक विधानसभा के स्पीकर ने दल-बदल कानून के तहत इन 17 विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया था। स्पीकर की तरफ से अयोग्य घोषित किये गये विधायकों में 14 विधायक कांग्रेस के, जबकि तीन विधायक जेडीएस के थे।

विधानसभा स्पीकर ने इन विधायकों को सिर्फ अयोग्य ही नहीं करार दिया था, बल्कि अगले विधानसभा चुनाव यानी 2023 तक के लिए चुनाव लडऩे पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। इस तरह 17 विधायकों के विधानसभा में होने वाली वोटिंग में हिस्सा लेने से इन्कार करने के बाद कांग्रेस -जेडीएस गठबन्धन की सरकार गिर गयी थी। इन सभी विधायकों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका देकर माँग की थी कि स्पीकर के फैसले को गलत साबित करते हुए उन्हें योग्य बताया जाए।

कर्नाटक के स्पीकर के.आर. रमेश कुमार की तरफ से अयोग्य ठहराये गये इन 17 बागी विधायकों की सदस्यता को बहाल नहीं हुई; लेकिन सुप्रीम कोर्ट से एक बड़ी राहत उन्हें ज़रूर मिली। अब ये बागी विधायक उपचुनाव लड़ सकेंगे। कोर्ट ने 2023 तक अयोग्य ठहराये जाने के कर्नाटक विधानसभा स्पीकर के फैसले को रद्द कर दिया। गौरतलब है कि इन विधायकों के बागी हो जाने के बाद ही जेडीएस-कांग्रेस गठबन्धन की सरकार गिर गयी थी। कांग्रेस और जेडीएस ने आरोप लगाया था कि उनके विधायकों के बागी होने के पीछे भाजपा (येद्दियुरप्पा) हैं और वे सरकार गिराने की सा•िाश रच रहे हैं। हालाँकि, येद्दियुरप्पा ने ऐसी किसी सा•िाश से साफ इन्कार कर दिया था।

कांग्रेस-जेडीएस सरकार गिरने के बाद भाजपा ने बीएस येद्दियुरप्पा की अगुआई में राज्य में सरकार बना ली। एक निर्दलीय को साथ मिलकर उसने अपना बहुमत भी साबित कर दिया।

दोहरी चुनौती होंगे उपचुनाव के परिणाम

17 विधायकों ने इस्तीफा देते समय कहा था कि कोई उन्हें इस बात के लिए मज़बूर नहीं कर सकता कि वह विधानसभा में आएँ। साथ ही कहा था वे इसके िखलाफ कोर्ट में जाएँगे और वे गये भी जिस पर अब फैसला भी आ चुका है। बी.एस. येद्दियुरप्पा ने उस दौरान इन विधायकों के समर्थन में आवाज उठाई थी। अब 224 सदस्यों की विधानसभा में 106 विधायक भाजपा के साथ हैं, जबकि जेडीएस और कांग्रेस के पास 101 विधायक हैं।

सर्वोच्च अदालत का फैसला आने के अगले ही ये सभी पूर्व विधायक कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येद्दियुरप्पा की मौज़ूदगी में बेंगलूरु में भाजपा में शामिल हुए। भाजपा ने पार्टी में शामिल हुए कांग्रेस और जेडीएस के इन 15 पूर्व (बागी) विधायकों में से 13 को उपचुनाव में प्रत्याशी बना दिया है। जस्टिस एन.वी. रमना की बेंच ने फैसले में कहा था कि विधायक 5 दिसंबर को होने वाला उपचुनाव लड़ सकते हैं। ज़ाहिर है अगर वे जीतते हैं, तो मंत्री भी बन सकते हैं। लिहाज़ा येद्दियुरप्पा पर दबाव रहेगा कि वे जीतने वालों को सरकार में ‘एडजस्ट’ करें।

यदि सभी 13 बागी जीत गये तो येद्दियुरप्पा का सिरदर्द का सबब भी हो सकता है। क्योंकि उन सभी सरकार में एडजस्ट करना होगा। अगर कहीं 15 में से छ: से कम विधायक जीते, तो सरकार का बहुमत जाता रहेगा और सरकार गिर भी सकती है। लिहाज़ा येद्दियुरप्पा के सामने दोहरी चुनौती है।

उपचुनाव में जुटे दल

अब सभी प्रमुख राजनीतिक दल 15 सीटों के उपचुनाव में जुट गये हैं। भाजपा अपनी पूरी ताकत इस उपचुनाव में झोंक रही है। उसके पास सत्ता और प्रशासन की ताकत है। लिहाज़ा प्रचार में भी वह आगे दिख रही है; लेकिन यह नहीं भूला जा सकता है कि 15 सीटों पर पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस या जेडीएस जीते थे। तब दल बदलने वाले इन विधायकों ने कांग्रेस-जेडीएस के ही टिकट पर चुनाव लड़ा और जीता था।

जनता के सामने अब यह 13 दोहराये गये बागी उम्मीदवार किस मुद्दे पर वोट माँगेंगे, यह देखना बेहद दिलचस्प होगा। पिछले चुनाव में इन सभी ने भाजपा के िखलाफ बयान देकर वोट माँगे थे और जनता ने उनको जिताया भी था।  ऐसे में यदि उनके तर्क जनता के गले नहीं उतरते हैं, तो उन्हें लेने के देने भी पड़ सकते हैं।

मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा ने खुद उपचुनाव की कमांड अपने पास रखी है। वे जानते हैं कि जीत ही उनकी सरकार को बचा सकती है। दूसरी और कांग्रेस और जेडीएस ने भी पूरी ताकत झोंकी हुई है। चुनाव को अभी 15 दिन बाकी हैं; लेकिन यह दोनों दल मिलकर जनता से ‘बािगयों को सबक सिखाने’ की जनता से अपील कर रहे हैं।

ज़मीन से मिली जानकारी के मुताबिक, भले इस समय भाजपा की सरकार हो, पर जनता का मूड इस तरह पाला बदलने वालों के प्रति नाराज़गी से भरा है। ऐसे में भाजपा को उपचुनाव में ज्य़ादा मेहनत करनी होगी।

कांग्रेस का ऐतराज़

कांग्रेस ने मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा पर बागी विधायकों को भाजपा में शामिल करते समय उन्हें भविष्य का मंत्री बताने को लेकर ऐतराज़ जताते हुए चुनाव आयोग को पत्र लिखा है और चुनाव आयोग से मुख्यमंत्री बीएस येद्दियुरप्पा के िखलाफ कार्यवाही की माँग की है। कांग्रेस का आरोप है कि मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा ने आदर्श आचार संहिता का  उल्लंघन किया है। कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दिनेश गुंडु राव ने मुख्य निर्वाचन अधिकारी को लिखे पत्र में कहा – ‘येद्दियुरप्पा’ ने 16 विधायकों का भाजपा में स्वागत करते समय उन्हें उपचुनाव के बाद कर्नाटक के भावी मंत्री बताते हुए कहा था कि उनसे जो भी वादे किये गये थे, उन्हें पूरा किया जाएगा।’ राव का आरोप है कि येद्दियुरप्पा ने भाजपा उम्मीदवारों की चुनावी सम्भावनाओं को बढ़ाने के मद्देनज़र इन क्षेत्रों के मतदाताओं को प्रभावित करने के उद्देश्य से यह बयान दिया था जो आचार संहिता का उल्लंघन है।

कर्नाटक में सीटों का गणित

कर्नाटक विधानसभा में कुल 224 सीटें हैं। हालाँकि 17 विधायकों को अयोग्य ठहराने के बाद इनकी संख्या 207 रह गयी। इस लिहाज़ से बहुमत के लिए 104 सीटों की ज़रूरत थी। भाजपा, जिसके पास 105 विधायकों का समर्थन है; ने एक निर्दलीय के समर्थन से सरकार बना ली और बहुमत भी साबित कर दिया। लेकिन जब 15 सीटों पर उपचुनाव के बाद सीटों की तादाद 222 होने पर ज़रूरी विधायकों की संख्या 112 हो जाएगी। भाजपा के पास इस समय 105 विधायक हैं, लिहाज़ा उसे छ: और सीटें जीतनी होंगी। यदि वह ऐसा नहीं कर पायी तो येद्दियुरप्पा सरकार के लिए खतरा पैदा हो जाएगा।

अब नसबंदी मच्छरों की!

आजकल एक नयी तकनीक का इस्तेमाल करते हुए नर मच्छरों को स्टरलाइज्ड (रेडिएशन के ज़रिये नर मच्छरों को प्रजनन में असमर्थ बना/ बंध्‍याकरण) कर दुनिया भर में मच्छरों से फैलने वाले चिकनगुनिया, डेंगू और जीका जैसी बीमारियों पर काबू पाने की कोशिश की जा रही है।

स्टराइल इंसेक्ट तकनीक (एसआईटी) यानी कीटों का बर्थ कंट्रोल तकनीक। बड़ी तादाद में  रेडिएशन के ज़रिये नर मच्छरों का बंध्याकरण कर उन्हें  छोड़ दिया जाता है। ये नर मच्छर, मादा मच्छरों के साथ रहते तो है, लेकिन प्रजनन करके लार्वा पैदा नहीं कर सकते। बर्थ कंट्रोल ज़रिये इनकी जनसंख्या कम होती चली जाती है।

डब्ल्यूएचओ ने एक स्पेशल प्रोग्राम के तहत ट्रॉपिकल डिजीज एंड इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी और फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन ऑफ द यूनाइटेड स्टेट के साथ मिलकर इस नयी तकनीक के तहत बीमारी फैलाने मच्छरों की विशेष प्रजाति एडीज के टेस्ट के लिए विशेष योजना तैयार की है। ऐसे कई देश हैंं, जो इस नयी तकनीक से एडीज मच्छरों पर वार करने तैयार हैंं। इसके परीक्षण के लिए लिए डब्ल्यूएचओ ने गाइड लाइन्स तैयार किये हैं।

डब्ल्यूएचओ के चीफ साइंटिस्ट डॉक्टर सौम्या स्वामीनाथन का मानना है कि विश्व की आधी आबादी पर डेंगू का खतरा मंडरा रहा है और यही आधी दुनिया पर भी लागू होता है। और इस पर काबू पाने के प्रयास पूरी तरह से सफल नहीं है, इसका मुकाबला नयी तकनीक से करना आज की ज़रूरत है।

हाल के दशकों में पर्यावरण बदलाव, बेतरतीब शहरीकरण, यात्राएँ और रोगों को फैलने से रोकने की दिशा मे उठाये जा रहे अपर्याप्त कदमों की वजह से मामला और भी गम्भीर व संवेदनशील बनता जा रहा है।

डेंगू के प्रकोप से कई देश ग्रसित हैं, भारतीय उप-महाद्वीप विशेष रूप से इसकी चपेट में है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार सन् 2000 से बांग्लादेश डेंगू से सबसे ज़्यादा प्रभावित हुआ है। जनवरी, 2019 से दक्षिण एशियाई देशों मे डेंगू के मरीज़ों की संख्या 92 हज़ार से अधिक दर्ज की गयी है। हाल ही के कुछ सप्ताह में तकरीबन एक हज़ार से अधिक नये डेंगू रोगियों को हर दिन भर्ती किया जा रहा है। ऐसे देश इस नयी तकनीक रुचि दिखा रहे हैं।

दुनिया-भर में 17 फीसदी संक्रामक रोगों की वजह मच्छरों से फैलने वाली मलेरिया, डेंगू, जीका, चिकनगुनिया और येलो फीवर है। और इसकी वजह से हर साल 7 लाख से अधिक लोग अपनी ज़िन्दगी से हाथ धो बैठते हैं।

कृषि और खाद्य क्षेत्र में परमाणु तकनीक के संयुक्त एफएओ/आईएईए डिवीजन में मेडिकल एंटोमोलॉजिस्ट जेरी बोयर के अनुसार पिछले 60 वर्षों में कृषि क्षेत्र में एसआईटी तकनीक के उपयोग से पता चला है कि यह एक सुरक्षित और प्रभावी तरीका है। मानव रोगों से लडऩे के लिए स्वास्थ्य क्षेत्र में इस तकनीक को लाने के लिए टीडीआर और डब्ल्यूएचओ के साथ सहयोग करने के लिए उत्साहित हैं।

कीटों को स्टराइल करने की तकनीक सबसे पहले अमेरिका के कृषि विभाग द्वारा विकसित की गयी थी। इसका उपयोग सफलतापूर्वक कीटकों के िखलाफ किया गया, जिनसे फसलों और पशुधन को बहुत अधिक नुकसान हुआ करता था। िफलहाल विश्व स्तर पर छ: महाद्वीपों में कृषि क्षेत्र में इसका प्रयोग किया जा रहा है। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट कहती है कि िफलहाल इस तकनीक का परीक्षण चरणबद्ध तरीके से विशेष निगरानी के तहत उन देशों में किया जाएगा, जो इसमें रुचि रखते हैं।

क्या सबरीमाला में भगवान नहीं चाहते महिलाओं का प्रवेश?

17 नवंबर को वार्षिक मंडला-मकरविलक्कू पर्व के साथ ही केरल के पठानमथिट्टा जिले में स्थित सबरीमाला मंदिर के द्वार खोले गये और हज़ारों श्रद्धालुओं ने दर्शन किये। अब अगले दो महीने तक मंदिर में श्रद्धालुओं का जमावड़ा लगा रहेगा। पिछले वर्ष शीर्ष अदालत की ओर से सभी उम्र की महिलाओं के प्रवेश की अनुमति देने के फैसले के बाद मंदिर परिसर के आसपास भारी तादाद में सुरक्षा बल तैनात किए गए हैं। मंदिर की प्राचीन परंपरा से इतर जब महिलाओं ने प्रवेश न करने की कोशिश की तो हजारों श्रद्धालुओं ने उनका विरोध किया और उनको अंदर नहीं जाने दिया गया। खास बात यह है कि भगवान अयप्पा मंदिर के बाहर खास उम्र की महिलाओं को दर्शन करने से रोकने के लिए विरोध में महिला भक्त भी जुटीं।

16 नवंबर को सबरीमाला मंदिर में 10 महिलाओं ने मंदिर की परम्परा से इतर और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देकर प्रवेश करने का प्रयास किया, तो उनको पुलिस कर्मियों ने चेतावनी देते हुए मंदिर से पाँच किलोमीटर दूर पंबा से ही वापस भेज दिया।

अब जब मामला फिर सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच के पास पहुँच गया है, तब दिलचस्प हो गया कि क्या सबरीमाला मामले में भी अदालत अयोध्या की तरह असाधारण फैसला सुनाएगी या फिर आधुनिक विचार पर गौर किया जाएगा। फैसले में सदियों पुरानी परंपरा हावी होगी या फिर लोगों की भावनाओं की कद्र होगी? अब यह लाख टके का सवाल कायम है।

सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं को प्रवेश न देने को लैंगिक भेदभाव मानकर असंविधानिक करार दिया था साथ ही सभी महिला श्रद्धालुओं को प्रवेश की अनुमति देने का निर्देश दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने मामले में ऐसी किसी पाबंदी को अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार और अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन बताया था।

शीर्ष अदालत में दायर की गयी पुनर्विचार याचिकाओं पर प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता में पाँच जजों की पीठ ने 14 नवंबर को सुनाए अपने 3:2 के फैसले में मामले को बड़ी बेंच के पास भेजने का निर्णय लिया है। पीठ ने यह भी कहा कि मामले में 2018 में उठाये गये सबरीमाला मंदिर में रजस्वला महिलाओं के दर्शन को लेकर उठे सभी मुद्दों पर फिर से विचार करेगी।

वहीं दूसरी ओर, केरल की पिनराई विजयन के नेतृत्व वाली वाम सरकार को दुविध में डाल दिया है कि इस फैसले के बाद वह भक्तों की माँगों का समर्थन करे या पूर्व के फैसले का स मान करे। केरल के मंत्री कडकंपल्ली सुरेंद्रन के उस बयान ने सबको आश्यर्चचकित कर दिया कि एलडीएफ सरकार उन लोगों का समर्थन नहीं करेगी, जो प्रचार के लिए पहाड़ी से मंदिर में प्रवेश करने का एलान करते हैं।

सबरीमाला में पुरुष भक्त महिलाओं का प्रवेश क्यों नहीं चाहते?

तहलका ने भगवान अयप्पा के कई पुरुष भक्तों से जानना चाहा कि सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को किस आधार पर दर्शन करने को प्रवेश नहीं देना चाह रहे हैं। इस मामले में सभी भक्तों ने एकमत से खास उम्र की महिलाओं का मंदिर के अनुष्ठानों का बचाव किया। सभी भक्तों की राय यही लगी कि मामले को बेवजह तूल दिया जा रहा है। प्रवेश के मामले में महिलाओं को किसी तरह से कमतर दिखाने का कतई इरादा नहीं है। जब तहलका ने केरल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के पुरुष और महिला भक्तों से बात की तो उन्होंने बताया कि जो लोग दक्षिण भारत के नहीं हैं, वही मामले में विवाद पैदा कर हैं। वे दक्षिण या सबरीमाला के रीति रिवाजों और इतिहास के बारे में नहीं जानते हैं। उनका मानना है कि यहां की महिला श्रद्धालु भी नहीं चाहतीं कि सदियों पुरानी परंपरा को किसी भी कीमत पर खत्म हो जाए।

भगवान अयप्पा के भक्त और केरल के पूर्व आईजी केवी मधुसूदन बताते हैं कि यह ऐसा स्थान हैं, जहाँ पर महिला सशक्तीकरण और लैंगिक समानता को बढ़ावा दिया जा सकता है। उन्होंने कहा कि समाज की सभी महिलाएं दिल से परंपरा का समर्थन और अनुपालन कर रही हैं। मामले में ‘बाहरी’ लोग अनावश्यक विवाद पैदा कर रहे हैं। मैं विरोध करने वाले लोगों से पूछना चाहता हूं कि क्या मंदिर में महिलाओं को दर्शन करने की अनुमति देने से हमारे समाज में लैंगिक भेद खत्म हो जाएगा? यह स्थान अद्वितीय है और लाखों लोग यहां की खास परंपरा का पालन करने के लिए पहुंचते हैं। मधुसूदन कहते हैं कि अगर यहाँ की परंपराओं के साथ के साथ छेड़छाड़ की गयी तो भक्त हतोत्साहित व निराश हो जाएंगे क्योंकि वे यहां किसी खास वजह से ही यहां आते हैं। वे कहते हैं कि कुछ लोग विद्रोही के तौर पर मशहूर होना चाहते हैं और समाज की हर चीज पर सवाल उठाना चाहते हैं। तो क्या हमें यह सब करने देना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र हमें इसकी अनुमति देता है। देशभर में भगवान अयप्पा के अनगिनत मंदिर हैं, इसलिए केवल यहां पर विरोध करने का मकसद समझ से परे है।

केरल के ही भगवान अयप्पा के एक अन्य भक्त और फाइनेंशियल मैनेजर शिवशंकर सुप्रीम कोर्ट के सितंबर 2018 के फैसले का पुरज़ोर विरोध करते हुए कहते हैं कि यह निर्णय विशुद्ध रूप से लैंगिक समानता पर आधारित था, इसमें आस्था और धार्मिक विश्वास को बिल्कुल भी तवज्जो नहीं दी गई। सदियों पुरानी परंपरा का स मान किया जाना चाहिए था। ‘स्थिति तब ज्यादा खराब हो जाती है, जबकि कोई ऐसी महिला प्रवेश करनाचाहती है जो स्वयं भगवान अयप्पा की भक्त नहीं हैं और उसे वामपंथी सरकार सहयोग देती है। लेकिन यह आश्यर्च की बात नहीं है क्योंकि सरकार ने 2008 में जब जनहित याचिका दायर की थी तब हिंदुओं की आस्था को समझे बिना ही महिलाओं के प्रवेश का समर्थन किया था। लेकिन अब भारी विरोध और लोगों की आस्था को देखते हुए उनको एहसास हो गया है। इसलिए अब उनके रुख में बदलाव देखा जा रहा है। लोकसभा के चुनाव में भी वामपंथियों की हार को इससे जोड़ा जा रहा है।’ शिवशंकर स्पष्ट करते हैं कि मौलिक अधिकारों, आस्था और राजनीति का घालमेल नहीं किया जाना चाहिए। आगे वे कहते हैं कि हमारे विरोध की वजह ये है कि केरल की वो महिलाएँ जो भक्त नहीं हैं और मंदिर में प्रवेश करने की कोशिश कर रही हैं।

उनका मानना है कि महिलाएँ भले ही मंडला-मकरविल्लकू पर्व के अनुष्ठानों में सशरीर मंदिर न जाती हों पर उनकी बड़ी भूमिका रहती है। जब किसी परिवार पुरुष भक्त सबरीमाला में वर्थम से गुजरता है तो महिलाओं का अपने घरों में पूजा करना भी एक परंपरा है। शिवशंकर ने कहा, बेवजह इसे लैंगिक असमानता का मुद्दा बना दिया गया, जो गलत है। इसके अलावा स्वामी अयप्पा एक नैशित्का ब्रह्मचारी हैं। लेकिन कुछ लोगों ने महिला भक्तों को दर्शन करने से रोकने के लिए इसे महिलाओं की अशुद्धता से जोड़ दिया जिससे भ्रम की स्थिति पैदा हो गई।

तहलका ने जब जानना चाहा कि अगर महिलाओं को दर्शन करने की अनुमति दे दी जाती है तब भी आप सबरीमाला के दर्शन करेंगे तो इस पर शिवशंकर ने कहा कि मैं स्वामी अयप्पा का बड़ा भक्त हूं और वर्षों से मंदिर जा रहा हूं। अगर कोई महिला जिसकी भगवान अयप्पा में आस्था नहीं है, तो वो मुझे या अन्य भक्तों को मंदिर में दर्शन करने से नहीं रोक सकेगी। ‘विशिष्टता हर मंदिर की आत्मा होती है। हर साल लाखों महिलाएं आती हैं। प्रकृति के नियमों के चलते खास उम्र की महिलाअेां को ही प्रवेश करने पर रोक है। इसलिए इसे असमानता नहीं कह सकते हैं।’

उत्तर केरल के एक अन्य भक्त और सॉ टवेयर कंपनी में सीईओ एवी अरुण ने तहलका को बंगलूरु में बताया कि मंदिर में कुछ पुरुषों के प्रवेश पर भी पाबंदी है। उदाहरण के तौर पर अगर कोई पुरुष भक्त बताता है कि उसके बच्चे या किसी रिश्तेदार की मौत हो गयी तो वह सबरीमाला मंदिर में दर्शन नहीं कर सकता। हर देवता की अपनी प्रकृति होती है और उसी के अनुसार पाबंदिया लगायी जाती हैं। हर आस्था के पीछे एक संकल्प होता है। यही संकल्प ही पत्थर को देवता को बना देता है। यही हर मंदिर को जीवंत बना देता है। अरुण कहते हैं कि सबरीमाला के बारे में संकल्प यह है कि देवता एक नैश्तिक ब्रह्मचारी हैं। इसलिए हम उनके संकल्प का स मान करते हैं।

विरोध के बारे में अरुण की राय ये है कि ज्यादातर प्रदर्शनकारी बाहरी (दक्षिण भारत के नहीं) हैं, और उनका सबरीमाला मंदिर की परंपराओं और अनुष्ठानों की जानकारी नहीं है। इसको ऐसे समझ सकते हैं, मान लीजिए कि एक कॉर्पोरेट ने ताजमहल की प्रतिकृति बनाई तो क्या आप उसे देखने को इच्छुक होंगे? शायद नहीं, क्योंकि आपके दिमाग में ताजमहल सिर्फ एक भौतिक संरचना नहीं है, बल्कि इसके पीछे इतिहास, आस्था और अनुभव भी जुड़े हैं। इसी तरह अगर सबरीमाला का मूल (कोर) ही बदल दिया जाए यह एक मंदिर नहीं रह जाएगा। यह सच नहीं है कि सबरीमाला मंदिर के अंदर कभी किसी महिला ने कदम नहीं रखा है। 1991 में महेंद्रम नामक भक्त ने याचिका दायर की थी, जिसका बड़े पैमाने पर विरोध हुआ था। तब मंदिर प्रबंधन ने कुछ वीवीआईपी महिलाओं को गर्भगृह में प्रवेश की अनुमति दी, जिस पर पक्षपात करने का आरोप लगाकर विरोध जताया गया था। तब केरल उच्च न्यायालय ने सबरीमाला मंदिर मामले में 10-50 वर्ष की आयु की महिलाओं को प्रवेश करने पर रोक लगा दी थी।

अब सबकी नज़र सुप्रीम कोर्ट की सात न्यायाधीशों की पपीठ पर रहेगी कि सबरीमाला मामले में अंतिम फैसला क्या सुनाया जाएगा। देखना होगा कि क्या शीर्ष अदालत अयोध्या मामले की तरह ही फैसला देगी या फिर 28 सितंबर 2018 इसी मामले में अपने फैसले को बरकरार रखेगा जिसमें सभी उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की अनुमति न देने को अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक आज़ादी का उल्लंघन करार दिया था।

नए कानून का मसौदा

बनाने का निर्देश

सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर को केरल सरकार को पेरियार टाइगर रिजर्व में स्थित सबरीमाला मंदिर के श्रद्धालुओं के प्रशासन और कल्याण के लिए नये कानून का मसौदा तैयार करने का निर्देश दिया। ड्राफ्ट तैयार करने के लिए राज्य सरकार को जनवरी, 2020 तक का समय दिया है।

सबरीमाला मामला अब तक

1991 : भक्त महेंद्रम की ओर दायर याचिका के बाद केरल हाई कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर में मासिक धर्म की महिलाओं (10-50 की उम्र) के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी। महेंद्रम ने याचिका में कहा था कि मंदिर प्रबंधन ने नियमों की अनदेखी कर वीवीआईपी महिलाओं को गर्भगृह में प्रवेश की अनुमति दी।

2006 : इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन ने केरल हाई कोर्ट के फैसले को संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार और अनुच्छेद 25 के धार्मिक आज़ादी के उल्लंघन की बात कहकर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।

सर्वोच्च अदालत ने पार्टियों को नोटिस जारी कर जवाब तलब किया।

2007 : केरल की वाम सरकार ने एफिडेविट देकर महिलाओं के प्रवेश की जनहित याचिका का समर्थन किया।

2008 : सुप्रीम कोर्ट में मामले को तीन न्यायाधीशों की पीठ को सौंपा।

2017 : 17 जुलाई को पांच जजों की संविधान पीठ ने मामले की सुनवाई शुरू की। 19 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने कहा मंदिर के अंदर प्रवेश कर करना मौलिक अधिकार है और उम्र संबंधी पांबदी पर सवाल उठाए।

2018 : 28 सितंबर को 4:1 के फैसले से सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी की सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश न देना न सिर्फ लैंगिक भेदभाव है, बल्कि यह असंवैधानिक भी है।

अक्टूबर में नेशनल अयप्पा डिवोटीज़ (वीमेंस) एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दी। अन्य पार्टी नैयर सर्विस सोसायटी और ऑल केरल ब्राह्मिंस एसोसिएशन ने भी अलग से रिव्यू याचिका दायर की।

2019 : 14 नवंबर को चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्ष वाली पांच जजों की पीठ ने मामले को 3:2 से बड़ी बेंच को सौंपने का निर्णय दिया, जो धार्मिक मुद्दों की फिर से जांच करेगी।

आर्मी चीफ बाजवा का कार्यकाल बढ़ाने वाली अधिसूचना पर पाक सुप्रीम कोर्ट की रोक

एक बड़े घटनाक्रम में पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने देश के सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा को झटका देते हुए उनके कार्यकाल विस्तार की अधिसूचना को कल तक के लिए निलंबित कर दिया है। पाक प्रधानमंत्री इमरान खान ने १९ अगस्त को इसे मंजूरी देते हुए अधिसूचना को राष्ट्रपति आरीफ अल्वी के पास भेजा था जिन्होंने इसे अपनी मंजूरी दे दी थी।
अब इस मामले में कोर्ट ने सवाल उठाया है कि कार्यकाल के किसी भी विस्तार पर कोई भी अधिसूचना आर्मी चीफ (सीओएएस) के वर्तमान कार्यकाल के पूरा होने के बाद ही जारी किया जा सकता है। बाजवा का कार्यकाल इसी २९ नवंबर को पूरा हो रहा है। साथ ही अदालत ने पाकिस्तानी सेना प्रमुख समेत सभी पक्षों को नोटिस जारी किया है।

पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस आसिफ सईद खोसा की अगुवाई वाली तीन  सदस्यीय बेंच ने कहा कि इस पर बुधवार को सुनवाई करेंगे। प्रधानमंत्री इमरान खान ने १९ अगस्त को चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ के तौर पर बाजवा का कार्यकाल अगले तीन साल के लिए बढ़ा दिया था। अब कोर्ट ने इस मामले पर सुनवाई बुधवार तक के लिए टाल दी है।

सेना प्रमुख जावेद बाजवा के कार्यकाल विस्तार को लेकर सरकार की ओर की गई प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश की बेंच ने सरकारी अधिसूचना को निलंबित कर दिया है। साथ ही कोर्ट ने सेना प्रमुख सहित सभी पक्षों को नोटिस जारी किया और सुनवाई को कल तक के लिए स्थगित कर दिया।

वैचारिक मतभेदों से ऊपर है संविधान : राष्ट्रपति

आज संविधान दिवस है। संविधान दिवस के मौके पर मंगलवार को संसद की सयुंक्त बैठक आयोजित की गयी जिसमें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा कि जब संविधान   लिखा गया तो उसमें वैचारिक मतभेदों से ऊपर उठकर इसे सर्वोच्च स्थान देने की बात कही गयी है।

राष्ट्रपति ने कहा कि कर्तव्यों और अधिकारों की बात भी इसमें कही गयी है। लेकिन यह भी कहा गया है कि यदि हम अपने कर्तव्यों को भी समझें तो देश इससे मजबूत होगा। कर्तव्यों से ही अधिकारों की को पूर्णता मिलती है।

उनसे पहले पीएम नरेंद्र मोदी ने सर्वप्रथम मुंबई आतंकी हमले के  शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की। पीएम ने इस मौके पर कहा कि हमारा संविधान हमारे लिए सबसे बड़ा और पवित्र ग्रंथ है। पीएम ने कहा – ” कुछ दिन और अवसर ऐसे होते हैं जो हमारे अतीत के साथ हमारे संबंधों को मजबूती देते हैं। हमें बेहतर काम करने के लिए प्रेरित करते हैं। आज २६ नवंबर का दिन ऐतिहासिक दिन है। सत्तर साल पहले हमने विधिवत रूप से, एक नए रंग रूप के साथ संविधान को अंगीकार किया था।”

उन्होंने इस मौके पर २६/११ आतंकी हमले में शहीद हुए लोगों को भी याद किया। प्रधानमंत्री ने कहा कि २६ नवंबर हमें दर्द भी पहुंचाता है, जब भारत की महान परंपराओं, हजारों साल की सांस्कृतिक विरासत को आज के ही दिन मुंबई में आतंकवादी मंसूबों ने छलनी करने का प्रयास किया था। मैं वहां शहीद हुईं सभी महान आत्माओं को नमन करता हूं।

मोदी ने कहा कि बीते सालों में हमने अपने अधिकारों पर बल दिया, यह जरूरी भी था क्योंकि एक बड़े वर्ग को संविधान ने अधिकार संपन्न किया, लेकिन आज समय की मांग है कि हमें नागरिक के नाते अपने दायित्वों पर मंथन करना ही होगा। उन्होंने कहा कि सेवाभाव से कर्तव्य अलग है, कर्तव्यों में ही अधिकारों की सुरक्षा है, यह बात महात्मा गांधी ने भी कही थी।

उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडु ने इस मौके पर कहा कि जो अंतिम पंक्ति में बैठे हैं उनका उत्थान पहले होना चाहिए। उन्होंने कहा – ”समय आ गया है कि हमें राष्ट्र निर्माण के लिए कर्तव्यों पर केंद्रित करना चाहिए। देश की संप्रुभता, एकता और अखंडता का सम्मान कीजिए। हम एक हैं, एक देश हैं यही अप्रोच होना चाहिए।”

लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला  पर कहा कि आज ही के दिन इतिहास रचा गया था।  उन्होंने आगे कहा – ”संविधान ने अगर हमें मौलिक अधिकार दिए हैं तो मौलिक कर्तव्य देकर हमें अनुशासित करने की भी कोशिश की है।”

कांग्रेस सहित कुछ विपक्षी दलों ने संसद की सयुंक्त बैठक में नहीं जाने का फैसला किया और इसका कारण यह बताया कि महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ वह संविधान का सरासर उल्लंघन है।

जेएनयू में हॉस्टल फीस बढ़ोतरी को लेकर शुरू हुए विवाद पर बढ़ रहा बवाल

अब बात करते है छात्र-छात्राओं की माँगों की अगर जेएनयू प्रशासन मिल-बैठकर छात्रों से तय कर लेता, तो शायद मामला इतना तूल नहीं पकड़ता और नहीं हंगामा होता। लेकिन जेएनयू में गत दो-तीन साल से सब कुछ सही नहीं चल रहा है और ज़रा-ज़रा सी बात पर हंगामा और हड़ताल होना जेएनयू के लिए आम बात हो रही है। ऐसे में सियासी दाँव-पेंच के साथ, सियायत से जुड़े लोगों छात्रों की माँग पर और उनकी राजनीति में अहम् योगदान देने से नहीं चूकते हैं, जिसके कारण जेएनयू का मामला न होकर देश भर की यूनिवर्सिटी का मामला बनने लगता है।सोषल मीडिया के युग में जो छात्रों पर फीस बढ़ोतरी को लेकर तंज कसे गये उसे मामला दो विचारधाराओं में बटता गया। अब छात्रों और मानव संसाधन विकास मंत्रालय के बीच मामला फँसता दिख रहा है।

अब मामले की जड़ की ज़िाक्र करते हैं। जिस प्रकार 3 अक्टूबर को जिस प्रकार जेएनयू प्रशासन ने हॉस्टल के नियमों में बदलाव और फीस बढ़ोतरी को लेकर जो सर्कुलर जारी किया था और उसको 28 अक्टूबर को गुपचुप तरीके से पास कर दिया। बस इसी बात से अरहत होकर छात्रों ने समझा कि उसके अधिकारों का हनन और दमन किया जा रहा है। फिर छात्रों ने भी गुपचुप तरीके से जेएनयू प्रशासन के विरोध में आवाज़ बुलंद करने का फैसला लिया। मौके के इंतज़ार में छात्रों को 11 नवंबर को जेएनयू के दीक्षांत समारोह के अवसर पर मिला जिसमें उपराष्ट्रपति वैकेया नायडू और केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखिराल निशंक सहित जेएनयू के वीसी प्रो. एम. जगदीश कुमार को भाग लेना था, जिसमें 430 छात्र-छात्राओं को सम्मानित भी एआईसीटीई सभागार में किया जा रहा था। तभी छात्रों का उग्र प्रदर्शन और वी सी हटाओं जेएनयू बचाओं के नारे लगने थे। प्रदर्शन इनना उग्र था कि उपराष्ट्रपति तो दीक्षांत समारोह कर चले गये थे। फिर छात्रों ने उग्रता का सही रूप अपनाते हुए कारों और वाहनों के आगे लेट कर प्रदर्शन किया जिसके कारण केन्द्रीय मंत्री पोखिराल लगभग 5 घंटे से अधिक सभागार में बंधक रहे पुलिस की बड़ी मशक्कत वह निकल पाये। केन्द्रीय मंत्री पोखिराल के आश्वासन के बाद छात्रों ने तो प्रदर्शन तो रोक दिया था। लेकिन हड़ताल जारी कर वीसी हटाओ की माँग पर अडिग है। उसी दिन छात्र नेता आईसी घोष ने छात्रों से कहा कि आश्वासन से काम नहीं चलेगा माँग जब तक पूरी नहीं हो जाती है, तब तक हड़ताल जारी रहेगी। छात्र शुभम ने बताया कि सोशल मीडिया में छात्रों के अलावा आम नागरिकों द्वारा इस तरह के वीडियों वायरल किये गये कि ये छात्र पढ़ते कम है लड़ते ज्यादा है। इसी तरह के तंज कसे गये कि छात्र देश के आम नागरिकों के टैक्स के पैसा का दुरुपयोग कर रहे हैं।

छात्रा पूनम ने बताया कि जेएनयू से पढक़र ही नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी बने है। वह पढक़र अच्छा करेगे टैक्स अदाकर करेंगे, जिससे आने वाले छात्र भी हमारी तरह पढ़ाई कर सकें।

जेएनयू हड़ताल और हंगामा को लेकर को राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और पीएमओ ने मामले को गम्भीरता से लेते हुये रिपोर्ट माँगी। फिर 13 नवम्बर को फीस बढ़ोतरी आंशिक रूप से कम व वापिस लेने की जानकारी मानव संशाधन विकास मंत्रालय के सचिव आर सुब्रमण्यम ने दी कि आर्थिक रूप से कमज़ोर छात्रों के लिए आर्थिक सहायता की एक योजना का प्रस्ताव भी दिया गया है। फीस वापसी के तौर और कम इस प्रकार किया गया, जिसमें अकेले रहने वाले छात्र के लिये जो कमरे की फीस 20 से बढ़ाकर 600 रुपये की गई थी उसको 300 रुपये कर दी गयी। और जो दो छात्र मिल कर रहते हैं, उनकी फीस 10 रुपये से बढ़ाकर 300 रुपये किया गया था, उसको अब 150 रुपये कम कर दिया गया। फीस कम किये जाने पर जेएनयू टीचर्स एसोसिएशन और छात्रों ने कहा कि मंत्रालय का यह फैसला पल्ला झाडऩे वाला है। ऐसे में छात्र अपनी हड़ताल वापस नहीं ले सकते हैं। फिर इसके बाद मामले को एक नया मोड़ को अंजाम शरारती तत्त्वों द्वारा दिया गया, जिसमें विवेकानन्द की मूर्ति के नीचे अपशब्द का लिखा जाना और वीसी के िखलाफ जमकर नारेबाज़ी की गयी और कैम्पस की दीवारों में अमार्यादित शब्दों का लिखा जाना। इसके बाद शरारती तत्वों के िखलाफ पुलिस मे शिकायत दर्ज की जिसकी जाँच चल ही रही है।

छात्रों के उग्र प्रदर्शन को देखते हुए मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने तीन सस्दीय उच्च स्तरीय कमेटी गठित की है, जिसमें यूजीसी के पूर्व चैयरमेन वी.एस. चौहान, एसआईसीटीआई के अध्यक्ष प्रो. अनिल सहस्रबुद्धे और यूजीसी के सचिव प्रो. रजनीश जैन शामिल हैं, जो शीघ्र ही छात्रों के हित को देखते हुए अपनी रिर्पोट मंत्रालय को सौपेगी।  जेएनयू के वीसी प्रो. एम. जगदीश कुमार ने बताया कि वह छात्रों से कई बार अपील कार चुके हैं कि वे पढ़ाई पर ध्यान दे और हड़ताल को समाप्त करें जो भी छात्रों की माँगे हैं, उस पर वह जल्दी कोई समाधान करेंगे।

छात्रों की माँगों को लेकर आक्रोश तब भी शान्त नहीं हुआ, तो छात्रों ने संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन ही 18 नवंबर को संसद मार्ग तक प्रदर्शन किया जबकि पुलिस ने धारा 144 भी लगा दी थी। एसे में पुलिस और छात्रों के बीच काफी झड़प हुई एक छात्र शशि भूषण भी गम्भीर से घायल हुआ, जिसका उपचार एम्स के ट्रामा सेन्टर में चला। अन्य छात्रों को भी चोटें आयीं हैं, जिनका ट्रामा सेन्टर के अलावा सफदरजंग असपताल में इलाज हुआ। इलाज करा रहे छात्रों ने बताया कि जेएनयू के छात्रों के छात्र साथ पुलिस ने जिस तरीके लाठी बरसायी हैं। उससे छात्र देश की कानून व्यवस्था से आहत है। छात्र शुभम ने बताया कि आज देश में हालात ऐसे है कि किसके सामने अपने अधिकारों की बात रखें, जो उनको न्याय दिला सके।

स्ंासद में बीएसपी के सांसद दानिश अलरी ने संसद में जेएनयू में चल रही घटनाओं और फीस बढ़ोतरी का मामला उठाया और कहा कि भाजपा सरकार शिक्षा का निजी करण करने में लगी है।

छात्रों के हंगामा और प्रदर्शन को रोकनेे के लिए दिल्ली पुलिस के अलावा सीआपीएफ ,आरएएफ के जवान तैनात थे। जेएनयू कैम्पस कड़ी पुलिस व्यवस्था इस कदर थी। कि तीन स्तरीय वेरीकेडिंग की गई थी, जिसमें 33 एसएचओ 15 एसीपी और आधा दर्जन से अधिक डीसीपी और संयुक्त स्तर के आला अधिकारी मौके पर तैनात थे फिर छात्रों ने पुलिस को गुमराह कर संसद मार्ग तक जमकर प्रदर्शन किया। इसके कारण दिल्ली में यातायात व्यवस्था काफी प्रभावित रही है।

छात्रों पर लाठी चार्ज किये जाने को इन्कार करते हुए दिल्ली पुलिस के प्रवक्ता और मध्य जिला पुलिस उपायुक्त मंदीप सिंह रंधावा ने बताया कि छात्रों से अपील की है कि प्रदर्शन न करें। न किसी प्रकार की कोई लाठी चार्ज की गयी है। स्पेषल सीपी लॉ एंड ऑर्डर दक्षिण दिल्ली आर.एस. कृष्णा ने बताया कि जब छात्र एम्स और सफदरजंग अस्पताल वाली रोड पर हंगामा कर रहे थे, तब उन्होंने छात्रों से अपील की थी की ये हंगामेबाज़ी करने से एम्स और सफदरजंग जाने वाले मरीज़ों को काफी दिक्कत हो रही है। ऐसे में उन्होंने छात्रों को प्रदर्शन न करने की बात की कहीं थी। पर लाठी चार्ज नहीं किया गया।

एबीवीपी के दिल्ली प्रदेश के महामंत्री सिद्वार्थ यादव ने बताया कि भी छात्रों की माँगों और बढ़ी हुई फीस को वापिसी को लेकर यूजीसी पर प्रदर्शन कर चुके और कहा कि गरीब छात्रों के लिए अतिरिक्त बजट निर्धारित की जाए, जिससे गरीब छात्र आसानी से पढ़ाई कर सकें।