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हाईवे पर तड़पतीं जि़ंदगियाँ

यह सच है कि हाईवे और एक्सप्रेस-वे से लोगों की आवाजाही आसान हुई है और कई छोटे शहरों का मेट्रो शहरों से कनेक्टिविटी बढ़ी है। एक तरफ जहाँ लोगों को इससे सुविधा हुई है, तो दूसरी ओर इसमें खामियों व लापरवाही के चलते इससे कई जि़दगियाँ बर्बाद भी हुई हैं। तमाम परिवार के बच्चे अनाथ हो गये या महिलाएँ विधवा हो गयीं। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं देश में बढ़े सडक़ हादसों से। सरकारी आंकड़ों मं ही देश में सडक़ हादसों में लगातार बढ़ोतरी दर्ज की गयी है। खास बात यह है कि दुनिया में सबसे अधिक हादसे भी भारत में ही होते हैं और इन हादसों में जान गंवाने वालों की तादाद भी सर्वाधिक है। केंद्रीय सडक़ परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय द्वारा जारी की गयी भारत में सडक़ दुर्घटनाएँ-2018 की रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है। जानें रिपोर्ट की अहम बातें-

रिपोर्ट में बताया गया कि 2017 के मुकाबले 2018 में सडक़ दुर्घटनाएं में करीब आधा फीसदी की वृद्धि दर्ज की गयी। देश के अन्दर अगर सडक़ हादसों की संख्या की बात करें, तो तमिलनाडु में सबसे अधिक हुए, जबकि इन मौतों में तादाद देखें, तो इसमें यूपी सबसे ऊपर है।

2017 के मुकाबले 2018 में देश में 0.46  फीसदी अधिक सडक़ दुर्घटनाएँ हुईं। 2017 में जहाँ सडक़ हादसे के 4,64,910 मामले दर्ज हुए थे, वहीं 2018 में बढक़र 4,67,044 हुए। एक साल में सडक़ दुर्घटनाओं में जान गँवाने वालों की संख्या भी 2.37 फीसदी बढ़ी है। 2017 में जहाँ सडक़ हादसों में 1,47,913 मौतें हुई थीं, वहीं 2018 में यह संख्या 1,51,417 हो गयी। हालाँकि, सडक़ हादसों में घायलों की संख्या 2018 में कम हुई है।

2010 के बाद से सडक़ हादसों में होने वाली मौतें व घायलों की संख्या में निरंतर तेज़ वृद्धि दर्ज की गयी; लेकिन उसके बाद से इनमें स्थिरता आयी है। साल-दर-साल इनमें मामूली फर्क देखने को मिला है। इतना ही नहीं, पिछले दशकों की तुलना में 2010-2018 में दुर्घटना और मौतों का आँकड़ा सबसे कम रहा है। खास बात यह रही कि इस दौरा सबसे अधिक गाडिय़ाँ बिकीं।

देश के सडक़ नेटवर्क में करीब 2 फीसदी हिस्सा नेशनल हाईवे का है; लेकिन 2018 में 30.2 प्रतिशत सडक़ दुर्घटनाएँ और 35.7 फीसदी मौतें इन्हीं नेशनल हाईवे पर ही हुईं। सडक़ नेटवर्क में स्टेट हाईवे का हिस्सा करीब 3 फीसदी है जबकि सडक़ दुर्घटनाओं में 25.2 फीसदी और इसके चलते होने वाली मौतों में 26.8 प्रतिशत भागीदारी रही। शेष 95 प्रतिशत अन्य सडक़ें हैं जिन पर 2018 में 45 फीसदी दुर्घटनाएं और 38 फीसदी मौतें हुईं।

हादसों में जान गँवाने वालेां में 15 प्रतिशत पैदल यात्री, 2.4 प्रतिशत साइकिल वाले और 36.5 फीसदी दोपहिया वाहन चालक थे। यानी सडक़ हादसों में होने वाली मौतों का सबसे ज्यादा हिस्सा 53.9 प्रतिशत इन्हीं का है। पूरी दुनिया में सडक़ पर चलने वालों में सबसे ज्यादा हादसे के शिकार होने वाले इसी श्रेणी में आते हैं।

2018 में सडक़ दुर्घटना के पीडि़तों में सबसे ज्यादा 69.6 प्रतिशत 18-45 आयु वर्ग के थे। हादसों में होने वाली मौतों में 84.7 हिस्सा 18-60 वर्ष की उम्र के लोगों का था, यानी ये कमाने वाले श स थे।

हिट एंड रन के मामलों में 2018 में करीब १९ फीसदी मौतें हुईं जो 2017 में 17.5 प्रतिशत थीं। आमने-सामने की टक्कर,, हिट एंड रन और पीछे से ठोकर मारने के चलते हुए हादसों में 56 फीसदी मौतें हुईं। 2018 में खड़े वाहनों में टक्कर के चलते होने वाली मौतों में सबसे ज्यादा वृद्धि दर्ज की गयी।

हादसों में जान गँवाने वालों में 86 फीसदी पुरुष और 14 फीसदी महिलाएँ रहीं।

हादसों के कारण

वैसे तो सडक़ हादसों के कई कारण होते हैं, जैसे कि मानवीय गलती, सडक़ की बनावट और स्थिति, वाहन की हालत आदि। रिपोर्ट में मिले आँकड़ों के मुताबिक, हादसों की बड़ी वजह ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन भी है।

यातायात उल्लंघन मामले में ओवर स्पीडिंग के चलते 64.4 प्रतिशत और गलत साइड में वाहन चलाने के चलते 5.8 प्रतिशत मौतें हुईं। गाड़ी चलाते समय मोबाइल के इस्तेमाल की वजह से 2.4 फीसदी और शराब पीकर गाड़ी चलाने के चलते 2.8 फीसदी लोगों ने जान गंवाई।

बिना वैध लाइसेंस या लर्निंग लाइसेंस के ड्राइविंग के कारण 13 प्रतिशत दुर्घटनाएँ हुईं।

29 प्रतिशत मौतों का कारण दोपहिया वाहन चालकों का हेलमेट न पहनना रहा और 16 प्रतिशत मौतें सीट बेल्ट नहीं लगाने के कारण हुईं।

41 प्रतिशत मौतें 10 साल से पुराना वाहन चलाने के कारण हुईं।

12 फीसदी मौतें ओवरलोडेड गाडिय़ों के चलते हुईं।

कुल हादसों का लगभग 18.3 प्रतिशत मामले 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले 50 शहरों में हुईं। अगर होने वाली मौतों में इनकी हिस्सेदारी की बात करें तो यह 11.7 प्रतिशत दर्ज की गईं।

अकेले यूपी में 22,256 लोगों ने जान गंवाई

2018 में उत्तर प्रदेश में कुल 42,568 सडक़ हादसे हुए, जबकि 22,256 लोगों को इसके चलते अपनी जान गँवानी पड़ी। दूसरे नंबर पर हरियाणा रहा, जहाँ पर 11,238 दुर्घटनाओं में 5118  मौतें, पंजाब में 6428 हादसों में 4740 मौतें हुईं। उत्तराखंड में 1468 दुर्घटनाओं में 1047 मौतें हुईं। वहीं, हिमाचल में 3110 सडक़ हादसों में 1208 लोगों ने जान गँवाई। 2017 की तरह 2018 में भी सबसे ज्यादा सडक़ दुर्घटनाएँ मिलनाडु में हुईं। इसी तरह, सडक़ दुर्घटना में सबसे अधिक मौतें 2017 की तरह 2018 में भी उत्तर प्रदेश में ही हुईं।

कश्मीर के लिए अनुच्छेद 371?

क्या जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म होने और धारा 370 हटाये जाने के बाद केंद्र सरकार अब केंद्र शासित राज्य बन चुके जम्मू-कश्मीर को मुआबज़े के तौर पर धारा 371 का दर्जा देने की सोच रहा है। धारा 370 के तहत जो विशेष दर्जा जम्मू कश्मीर को मिला हुआ था, उससे उसे भारतीय संघ के दायरे के भीतर आंशिक स्वायतता हासिल थी। और क्या कश्मीरी नेताओं का एक छोटा समूह इसके लिए समझौता करने को तैयार है?

अभी इसे लेकर कोई स्पष्टता नहीं है, लेकिन इस आशय की अटकलें कश्मीर में यूरोपीय संघ के प्रतिनिधिमंडल के दौरे के बाद चल रही हैं। इस प्रतिनिधिमंडल की तीन बड़े कश्मीरी नेताओं मुजफ़्फर हुसैन बेग, अल्ताफ बुखारी और उस्मान मजीद से मुलाकात हुई थी। बेग पूर्व जम्मू-कश्मीर राज्य के उपमुख्यमंत्री रहे हैं और पीडीपी के शीर्ष नेता हैं। उधर बुखारी जम्मू-कश्मीर राज्य के वित्त मंत्री रहे हैं और वे भी पीडीपी के वरिष्ठ नेता हैं। जहां तक मजीद की बात है, वे एक कांग्रेसी नेता हैं।

यह नेता दिल्ली में यूरोपीय संघ के प्रतिनिधिमंडल से कश्मीरी राजनीतिक प्रतिनिधियों के रूप में मिले। नई दिल्ली के उन्हें ऐसे समय में यूरोपीय संघ के प्रतिनिधिमंडल से मिलने देने के लिए एक तरह से तख्तापलट के रूप में देखा गया जब अधिकांश कश्मीरी नेता धारा 370 को खत्म करने के बाद नजरबंद हैं। जब से इन नेताओं के अनुच्छेद 371 के लिए सौदेबाजी की चर्चा चली है, कश्मीर में सुगबुगाहट है। स्थानीय अखबारों ने इन नेताओं के कथित प्रयासों पर प्रमुखता से रिपोर्ट छापी हैं। और बेग ने भी एक बयान जारी करके इन रिपोर्टों पर भरोसा जताया कि अनुच्छेद 371 वास्तव में उनकी गतिविधियों का लक्ष्य था।

बेग ने एक समाचार एजेंसी को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि हम एक पहाड़ी राज्य हैं और संविधान ने सभी पहाड़ी राज्यों के लिए अनुच्छेद 371 के तहत विशेष प्रावधान प्रदान किये हैं, जैसे कि अनुच्छेद 35ए के तहत हासिल हैं।

हालांकि, यहाँ एक पेंच है। और यह जम्मू कश्मीर के लिए अनुच्छेद 371 प्रस्तावित करने के लिए बेग के विचार के बारे में है। बेग पीडीपी के संरक्षक हैं; लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इस माँग के पीछे उन्हें अपनी पार्टी का समर्थन है या नहीं। पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती जेल में हैं। लेकिन उनकी बेटी इल्तिज़ा मुफ्ती एक फोन के जरिए अपनी मां के सम्पर्क में रहती हैं और उसी आधार पर महबूबा की तरफ से ट्वीट करती हैं। लेकिन उनका एक भी ट्वीट बेग की गतिविधियों या उनके विचार के समर्थन या अस्वीकृति को लेकर कभी पोस्ट नहीं किया गया है।

लेकिन फिर भी बेग को पीडीपी से अलग करने की बात नहीं सोची जा सकती है। वह पीडीपी के संस्थापक सदस्य हैं और जब तक पार्टी उनसे स्पष्ट दूरी नहीं बना लेती, यही माना जाएगा कि वे पार्टी की तरफ से ऐसी बात कह रहे हैं। लेकिन ऐसा अब तक नहीं हुआ है, कमसे कम उतनी तीब्रता से तो नहीं जितना अपेक्षित किया जाता है।  इससे घाटी के लोगों के मन में संदेह पैदा हो रहा है। सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या बेग महबूबा की ओर से यह सब कर या कह रहे हैं, या महज अपनी तरफ से। और यदि वे अपनी तरफ से कर रहे हैं, तो क्यों पार्टी (पीडीपी) उनसे किनारा कर लेती है।

नई राजनीति?

इसे देखने का एक और नजरिया है। और वह यह कि क्या बेग जम्मू और कश्मीर के लिए अनुच्छेद 371 का विचार उठाकर, अनुच्छेद 370 हटने के बाद की कश्मीर की राजनीति के असली संदर्भ को उबारने की कोशिश कर रहे हैं। वैसे यह मसला अभी विचार तक सीमित है और जल्दी इसे कश्मीर में शायद ही कोइ समर्थन मिले। घाटी पिछले तीन महीनों से अधिक समय से धारा 370 को निरस्त करने के खिलाफ बन्द जैसी स्थिति झेल रही है। सार्वजनिक परिवहन सडक़ों पर नहीं हैं। आंशिक स्वायत्तता के अचानक नुकसान की पीड़ा अभी तक है। प्रमुख नेता, जिनमें तीन पूर्व मुख्यमंत्री  फारुक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती शामिल हैं, अभी भी हिरासत में हैं। इसका अर्थ है कि ये नेता अनुच्छेद 371 के विचार को हवा नहीं दे रहे। उनकी अनुपस्थिति में, इस विचार को नए बने केंद्र शासित प्रदेश की आम जनता के बीच एक स्वीकृति के रूप में खड़ा कर पाना बेहद मुश्किल है।

लेकिन जैसे-जैसे स्थिति साफ हो रही है, बहुत संभव है कि कश्मीर में नई राजनीतिक वास्तविकता नए चेहरे सामने लाये। और वे नए मुद्दों के साथ लोगों के पास जाएंगे। और यह संभव है कि फिर अनुच्छेद 371 की माँग आम हो जाए। यह राज्य में नई राजनीति को जन्म देगा। और यह भी कि बेग और बुखारी जैसे प्रमुख नेता अनुच्छेद 370 बाद की राजनीति में दिल्ली की नई कश्मीर नीति के प्रमुख चेहरों के रूप में सामने आएँ।

अभी भी अस्पष्टता भरी स्थिति में, यह नई राजनीति एक चुनौती और अनिश्चित भविष्य का सामना कर रही है। यह देखना बहुत अहम होगा कि नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी और यहां तक कि सजाद गनी लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस जैसी पार्टियाँ इस पर क्या प्रतिक्रिया देती हैं। उनके शीर्ष नेताओं के जेल में होने के चलते, इन दलों की भविष्य की नीति पर धुंध ही छाई हुई है। उन्होंने अब तक राज्य के विशेष दर्जे को रद्द करने का विरोध किया है और इसकी बहाली के लिए लडऩे की कसम खायी है। 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद, मुख्यधारा के सभी दलों ने एकजुटता दिखाई थी, लेकिन इसका कोइ फायदा नहीं हुआ है।

एक बार जेल से रिहा होने के बाद ये राजनेता एकजुट होकर अनुच्छेद 370 की बहाली के लिए एक जन आंदोलन शुरू करने का निर्णय कर सकते हैं। घाटी का मूड देखते हुए इस तरह के आंदोलन को जबरदस्त जन भागीदारी मिल सकती है। ऐसा होता है तो स्वतंत्रता के लिए लम्बे समय से चल रहा आंदोलन भारत के संविधान के तहत विशेष अधिकारों की बहाली की माँग के साथ जुड़ जाएगा। एक ही मंच भले साझा न करें, अलगाववाद और मुख्य धारा की राजनीति मिलकर नई दिल्ली के सामने अपनी अनुकूल शर्तें रख सकते हैं, जिससे नई दिल्ली के लिए कश्मीर एक बड़ी चुनौती बन सकता है। सत्तर साल में पहली बार ऐसा भी हो सकता है कि कोई भी कश्मीरी नेता नई दिल्ली के पक्ष में न दिखे। लेकिन क्या नई दिल्ली इन नेताओं को लम्बे समय तक जेल में बंद रखकर नये नेतृत्व और सोच को अवसर देगा, ताकि वे अपने पां जमा सकें। हालाँकि, इस तरह की राजनीति की विश्वसनीयता विवादास्पद ही दिखती है। एक क्षेत्र, जहां अनुच्छेद 371 की माँग के इर्द-गिर्द घूमती राजनीति समर्थन पा सकती है, वह है जनसंख्या के आधार पर बदलाव को लेकर घाटी की चिंताओं को दूर करना।

लेकिन ऐसा होने के लिए अनुच्छेद 371 के आसपास के नये राजनीतिक शोर को नई दिल्ली से भी कुछ हद तक जवाबदेही की आवश्यकता होगी। और यह अब तक नहीं हुआ है। अनुच्छेद 370 हटाने के बाद नई दिल्ली ने राज्य को लेकर एक अजीब सी चुप्पी साध रखी है। उसकी पूरी ऊर्जा राज्य में कानून और व्यवस्था बनाये रखने पर केंद्रित है और अनुच्छेद 370 हटाने के िखलाफ कोई बड़ा आंदोलन खड़ा न होने देना सुनिश्चत करने तक सीमित है। कश्मीर की माँगों को लेकर अभी तक एक राजनीतिक कोशिश या सन्देश का अभाव रहा है। और देश भर में धारा 370 को खत्म करने की व्यापक लोकप्रियता को देखते हुए, नई दिल्ली के लिए कश्मीर को कुछ राजनीतिक रियायतें देने की सम्भावना बहुत कम दिखती है।

लेकिन केंद्र निश्चित रूप से फारुक, उमर और महबूबा जैसे प्रमुख मुख्यधारा के राजनीतिक अभिनेताओं को कश्मीर के राजनीतिक परिदृश्य पर वापस देखना चाहता है, लेकिन अपनी शर्तों पर। पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग और कुछ छोटी रियायतें जैसे कि यूटी सरकार में नौकरी देना जैसे चीजें तो शायद नई दिल्ली को स्वीकार्य हो भी जाएँ। लेकिन कश्मीर की राजनीति के बारे में अभी यह अटकलें लगाना जल्दबाजी होगी कि आने वाले हफ्तों और महीनों में क्या होगा।

कोई नहीं जानता क्यों मर रहे सांभर झील में प्रवासी पक्षी

भारतवर्ष में सदियों से प्रवासी पक्षियों की बड़ी तादाद आती रही है। ये पक्षी अभूमन अक्टूबर से मार्च तक भारत की झीलों, पोखरों और नदियों में अपना आश्रय तलाश लेते हैं। लेकिन देश में विकास के घूमते पहिए और तरह-तरह के शोर भरे प्रदूषणों के चलते पक्षियों का आगमन घटा है। तकरीबन एक महीने से राजस्थान की सांभर झील में पहुँचे प्रवासी पक्षियों में 20 हज़ार से भी ज़्यादा न जाने क्यों मरे पाये गये। पूरे देश में इस हादसे की गूँज है; लेकिन राज्य और केंद्र सरकार के लिए यह विषय शायद महत्त्वपूर्ण नहीं है।

राजस्थान की सरकार और प्रशासन मेें बैठे मंत्री और अधिकारी प्रवासी पक्षियों की भारत में हुई मौतों की कतई चिंता नहीं कर रहे हैं। राज्य का वन विभाग जो पक्षी विहारों पर भी नज़र रखता है, उसके अधिकारी सिर्फ यही कहते हैं कि मृत पक्षियों की ‘विसरा’ रिपोर्ट जाँच के लिए भेजी गयी है। उसके आने पर ही पता चलेगा कि इन पक्षियों की मौत की असल वजह क्या है? वे इस अंदेशे पर भी एकमत नहीं हैं कि इन पक्षियों की मौतों की वजह इस इलाकेमें होने वाला अवैध खनन है या फिर इस झील में चार नदियों से आया पानी? अधिकारी सिर्फ अफसोस जताते हैं और आसमान ताकते हैं।

दरअसल, जाड़ों में यूरोप, सोवियत संघ के साइबेरिया आदि इलाकों से कम-से-कम 27 प्रजातियों के तरह-तरह के पक्षी भारत की यात्रा करते हैं। हज़ारों किलोमीटर दूर से आने वाले ऐसे पक्षियों का उल्लेख संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों मसलन हितोपदेश, कक्षसरित्सागर और अन्य में भी मिलता है। ये प्रवासी पक्षी भारत इसलिए आते हैं। क्योंकि यहाँ ठंड होती तो है, लेकिन गर्माहट भी रहती है। फिर भारत में तकरीबन हर राज्य में ठंड स्थल हैं जहाँ आधुनिक विकास के बावजूद कुछ झीलें, नदियाँ प्रदूषिता होते हुए भी इन प्रवासी पक्षियों को रास आती हैं। इन पक्षियों के लिहाज से कुछ झीलें, पोखरे और नदियों को सुरक्षित करते पर न तो राज्य सरकारें ध्यान देती हैं और न केंद्र सरकार ही। झीलों, पोखरों और नदियों के आसपास रहने वाले लोग भी इन पक्षियों के लिए उदार मन नहीं बना पाते। इस कारण प्रवासी पक्षियों का भारत आना भी कम हो रहा है।

सांभर लेक पर पिछले पच्चीस दिनों में तकरीबन 20 हज़ार से भी ज़्यादा प्रवासी पक्षी मृत पाये गये। स्थानीय लोगों और वन विभाग का दावा है कि हर साल यहाँ दो से तीन लाख पक्षी आते ही हैं। इस बार भी ऐसा ही था। लेकिन अचानक बड़ी तादाद में पक्षियों की मौत से प्रशासन कुछ हद तक विचलित है। मौत की वजह बेहद रहस्यमय है। जितने मुँह हैं, उतनी ही बातें हैं।

कुछ का मानना है कि पक्षियों की मौतें शायद ‘बर्ड-फ्लू’ जैसी बीमारी के चलते हुई। लेकिन इस कथन का आधार नहीं है। कुछ यह कहते हैं कि झील के पानी में ही कोई ज़हरीला रसायन रहा होगा, जिसके कारण इतनी बड़ी यानी 20 हज़ार से भी ज़्यादा पक्षियों की मौतें हुईं। पक्षियों की मौतें जयपुर, नागौर और अजमेर ज़िालों से मिली सूचनाओं पर अधारित हैं।

पक्षियों में दिलचस्पी लेने वाली मनीषा कुलश्रेष्ठ के अनुसार स्थानीय लोग अवैध तौर पर पाइप का इस्तेमाल करके झील के पानी से नमक बनाते हैं। इससे झील में पानी का स्तर घटता है और जल में नमक की मात्रा बढ़ जाती है। इसका पक्षियों के स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ता है।

अवैध तौर पर झील से पानी निकालकर नमक बनाने का काम वन विभाग पुलिस और प्रशासन की मिलीभगत में दशकों से चलता रहा है। लेकिन पक्षियों की इतनी बड़ी तादाद में मौतों का सिलसिला इस साल कुछ ज़्यादा ही रहा इसलिए पूरे देश में शोक की लहर भी है।

साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपुल के अध्यक्ष दिनेश ठक्कर के अनुसार राजस्थान विश्वविद्यालय में बैठरानिरी के प्रोफेसर और माइक्रोवायोलॉजिस्ट ए.के. कटारिया का कहना है कि इन प्रवासी चिडिय़ों की मौत की वजह ‘एवियन बॉटलिज्म’ भी हो सकती है। जयपुर चिडिय़ाघर में अधिकारी और जंगली पशु-पक्षियों के घायल होने पर इलाज में ज़रूरी दवाओं पर शोध का काम कर रहे डॉक्टर अरविंद माथुर का मानना है कि झील के जल में सोडियम का स्तर काफी ज़्यादा हो जाने के कारण प्रवासी पक्षी ‘पैरालिसिस’ की शिकार हुए।

प्रवासी चिडिय़ों की आवाजाही पर नज़र रखने वाले अभिनव वैष्णव का कहना है कि इस साल बड़े ही रहस्यमय तरीके से मौत हुई। उनका यह भी कहना है कि हो सकता है चिडिय़ों का पथ बदलने के लिहाज़ से किसी पड़ोसी देश ने कुछ जादुई रासायनिक प्रयोग किये हों, जिससे चिडिय़ाँ भारत को छोडक़र उस देश में पहुँचें।

यदि फारेस्ट रेंजर राजेन्द्र जाखड़ की मानें तो वे कहते हैं कि कुछ दिनों पहले ही इलाकों में ओला-अंधड़ आया, जिसके कारण ये पक्षी मारे गये पक्षी विजातियों की एक टीम ने अलबत्ता सांभर लेक पहुँचकर झील के पानी के कुछ नमूने और मृत पक्षियों की देह ली।

टीम के ही एक सदस्य अशोक राव का कहना है कि पक्षियों की मौत की वजह का अभी तक पता नहीं चला है; लेकिन यह आभास हो रहा है कि इतनी बड़ी तादाद में पक्षियों का मरने की वजह ‘बर्ड फ्लू’ नहीं है। ऐसा लगता है कि झील के जल में सैलेनिटी खासकर बहुत ज़्यादा बढ़ी है। इसके चलते चिडिय़ों के शरीर के खून में नमक बढ़ा, जिससे खून का प्रवाह थम गया। दिमाग तक खून नहीं पहुँच सका और पक्षियों की सामूहिक मौतें हुईं।

स्थानीय लोगों और वन विभाग का कहना है कि हर साल लाखों की संख्या में विदेशी पक्षी यहाँ आते हैं। झील मेंं औद्योगिक कचरा भी डालने पर रोक है, इसलिए पानी में किसी रासायनिक मिश्रण की सम्भावना भी नहीं के बराबर है। राजस्थान में संचारी रोग जाँच केंद्र के संयुक्त निदेशक अशोक शर्मा का मानना है कि अब तक जा तथ्य सामने आये हैं, उनसे कतई यह नहीं लगता कि पक्षियों के शरीर को ज़मीन में एक गहरा गड्ढा खोदकर गाड़ा गया है। इस काम में बॉम्बे नैचुरल हिस्टी सोसाइटी की ओर से यहाँ पहुँची टीम ने खासा सहयोग किया। टीम ने मृत पक्षियों की खासी पड़ताल की; लेकिन वे भी यह नहीं जान सके कि प्रवासी पक्षियों की मौत की वजह क्या है?

राजस्थान हाई कोर्ट ने अलबत्ता प्रवासी पक्षियों की मौतों पर अपनी चिंता जतायी है। लेकिन अब तमाम जाँच दस्ते की नज़र विसरा रिपोर्ट में मिलने वाले ब्यौरों पर टिकी है, जिसका इंतज़ार है। प्रवासी पक्षियों की भारत में हुई मौतों की वजह जानना बहुत ज़रूरी है, जिसमें ऐतिहासिक तौर पर आने वाले ये पक्षी भारत से विमुख न हों।

आखिर क्यों मौत का सबब बन गयी सांभर झील

भरोसा तो नहीं था कि हर साल बर्फीले और ऊँचे पहाड़ों को लाँघकर अपने सुरीले कलरव से सांभर झील को गुलजार करने वाले दुर्लभ प्रजाति के हज़ारों पक्षी इस बार खामोश मौत का मौत का निवाला बन जाएँगे? लेकिन अब यह भयावह सच्चाई तथ्यगत इतिहास बन चुकी है। 20 नवंबर तक 18 हज़ार से ज़्यादा पक्षी काल के गाल में समा चुके हैं यह संख्या 50 हज़ार का आँकड़ा पार कर सकती है। बेज़ुबान पक्षियों की खामोश मौत के वजूहात को खँगालना तो दरकिनार, सरकार इस त्रासदी के सवाल पर आँख मिलाने को भी तैयार नहीं है। करीब 90 स्कवायर किलोमीटर के दायरे में फैली नमक की सांभर झील स्वाद और सेहत का संतुलन बनाती है। लेकिन दुर्लभ प्रजाति के पखेरुओं के लिए तो मौत का दरिया बन गयी है। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि प्रवासी पङ्क्षरदे पंख फैलाकर झील में उतरते तो हैं; लेकिन मगर फिर वे पंख खोल नहीं पाते। आहिस्ता-आहिस्ता पंख बेजान होकर रह जाते हैं। ऐसा दर्दनाक मंजर तो लोगों ने पहली बार ही देखा है। सांभर झील पर उतरी मौत की परछाइयों ने इस मिथक को भी झुठला दिया है कि नमकीन पानी की बूंदें पखेरुओं के हलक में उतरती हैं, तो उन्हें नयी ज़िान्दगी देती है। पखेरुओं की अन्धी मौतों को लेकर वन विभाग की कोशिशों की कोई कहानी टिकाऊ नहीं है। एक कहानी को हटाने के लिए दूसरी कहानी गढ़ी जा रही है। अधिकारी कैिफयत देते हैं कि ‘हम मौत की वजह खंगालने के लिए पखेरुओं के विसरे की जाँच करा रहे हैं; लेकिन कहाँ? कभी विसरा भोपाल भेजा जा रहा है, तो कभी बरेली या देहरादून? राजस्थान में पक्षियों की हिफाज़त के लिए न तो लेब हैं, न विशेषज्ञ और न ही डॉक्टर। ऐसे बदतर हालात में कैसे होगी मर्ज की शिनाख्त और कौन करेगा दर्द की दवा? जिस ठोर पर हर साल अक्टूबर से फरवरी तक फ्लेमिंग सहित 32 से अधिक दुर्लभ प्रजाति के पक्षी 6 हज़ार किलोमीटर का सफर तय करके सांभर झील पर पहुँचते हैं। लेकिन कोई उनकी हिफाज़त के लिए िफक्रमंद तक नहीं है। भारतीय वन्य जीव संस्थान देहरादून की विशेषज्ञ डॉक्टर अंजू बड़ोद के मुताबिक, झील के पानी में नमक की सांद्रता अधिक होने के अलावा कोई और मिलावट नहीं है। विश्वविख्यात सांभर झील में मौत पूरी तरह अपने डैने फैलाये हुये हैं। लेकिन वन मंत्री सुखराम विश्नोई आइंदा की योजनाओं का खाका खींच रहे हैं कि झील क्षेत्र में वन विभाग की चौकी खोली जाएगी। रतन तालाब में रेस्क्यू सेन्टर खोला जाएगा। लेकिन बज़ुबान पखेरुओं को मौत से बचाने के लिए फौरी तौर पर क्या कर रहे हैं? इसका कोई खुलासा नहीं किया वन विशेषज्ञों का कहना है कि जहाँ नेमतों की ज़रूरत है, वहाँ मंत्री नसीहतों की बात कर रहे हैं। मंत्री जी सांभर तो पहुँचे; लेकिन झील की सतह पर परिन्दों के शवों की बिसात देखकर ही लौट आये?

इतनी बड़ी त्रासदी पर अफसरों के टालू बयान भी चौंकाते हैं। मुख्य वन्य जीव प्रतिपालक अरिन्दम तोमर कहते हैं- ‘पक्षी कैसे मरे? क्यों मरे? इसकी जानकारी पशुपालन महकमा देगा। जबकि पशुपालन विभाग के निदेशक भवानी सिंह राठौर जवाबदेही का ठीकरा वन विभाग पर फोड़ते हैं। पीपुल्स फॉर एनीमल्स संगठन के प्रदेश प्रभारी बाबूलाल जाजू का मानना है कि सांभर झील में पक्षियों की मौत के पीछे सांभर साल्ट लिमिटेड की रिफायनरी ज़िाम्मेदार है। उनका कहना है कि सांभर साल्ट द्वारा झील में फैलाये नये प्रदूषण से पक्षियों की मौत हुई है। उनका कहना है सांभर साल्ट ने प्रदूषण नियंत्रण के सभी उपायों को धत्ता बताते हुए झील क्षेत्र में सैंकड़ों गहरी खाइयाँ खोद दीं। आिखर सांभर साल्ट को झील में एक ही नहीं दो रिफाइनरियाँ लगाने की इजाज़त क्यों दी गयी? रिफाइनरी की धुआँ उगलती चिमनियाँ क्या कम घातक हैं? झील क्षेत्र में रिसोर्ट चलाने की इजाज़त किसने दी? जिसका सारा कचरा और गन्दा पानी झील में जा रहा है। जाजू ने नमक उत्पादन के लिए काम में लिए रसायनों को घातक बताते हुए तुरन्त जाँच की माँग की है। वन विशेषज्ञों का कहना है कि बातें तो बहुत हैं। लेकिन सुलगती सचाइयों को समझने को कोई तैयार नहीं है। सनद रहे कि उद्योगों से निकल रहा घातक कचरा जब झील के पानी में घुलेगा तो पखेरुओं की मौत की कहानी नहीं लिखेगा, तो क्या लिखेगा? मौत की रफ्तार जितनी तेज़ है? बचाव की कोशिशों की रफ्तार उतनी ही धीमी।

सांभर झील में प्रवासी पक्षियों की मौत पर अफसरों की संवेदना बेहद कचोटने वाली है। बुधवार 20 नवंबर की शाम रतन तालाब में रेस्क्यू सेंटर से 36 पक्षियों को बीमार हालत में ही उड़ा दिया गया। वन मंत्री को तो इसकी खबर तक नहीं दी गयी। हाई कोर्ट की ओर से तैनात न्यायमित्र एडवोकेट नितिन जैन मौके पर पहुँचे तो उनकी हैरानी का पारावार नहीं रहा। अफसरों से जवाब तलबी की तो उनका कहना था- ‘हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं। अब हवा के साथ किनारे पर आने पर पक्षियों को निकाला जाएगा। अब कोर्ट का दखल इस मामले में •ोरे तफ्तीश है। लिहाज़ा उम्मीद तो बनती है कि पक्षियों की सुरक्षा के मुनासिब कदम उठाये जाएँगे। बहरहाल, इसमें कोई संदेह नहीं कि हालात बद से बदतर हैं। इस मामले में सिर्फ सरकारी हरकारे ही आगे है। सरकार पीछे!

ऐतिहासिक 50वें जन्मदिन के पड़ाव को छूने से पहले खुद को खुला पत्र

प्रिय मैं, आपके 50वें जन्मदिन पर,

अब जबकि मैं अपने 50वें जन्मदिन की ओर बढ़ रहा हूँ, कुछ सुझावों के साथ यह खुला पत्र मैं आपको (खुद को) लिख रहा हूँ। अमेरिकी राष्ट्रपति, जॉन एफ. कैनेडी ने एक बार कहा था कि ‘परिवर्तन जीवन का नियम है। और जो केवल अतीत या वर्तमान को देखते हैं, वे भविष्य को निश्चित ही गँवा देते हैं। वैसे मेरे लिए जीवित रहने का यह एक शानदार समय है। यह लोगों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने का समय है। पीछे मुडक़र देखूँ, तो पाता हूँ कि मैंने उन चीज़ों को अच्छे से जिया है, और मैं इसका आभारी हूँ।’

आज, आपने मध्य आयु वाले लोगों और बुजुर्गों के सुन्दर समूह में प्रवेश किया है। बधाई हो! मुझे यकीन है कि आप यह समझने के लायक हो चुके हैं कि जीवन अनमोल है और इसे सावधानी से जीना चाहिए। मैं जानता हूँ कि आपने जीवन में कुछ कठिन पल जिये हैं; लेकिन फिर भी आपने कल्पना से कहीं अधिक किया है और दुनिया में एक बदलाव लाने की कोशिश की है। आपको कुछ खुशी मिली है और कठिन परिश्रम और दयालु हृदय के साथ कुछ चेहरों पर मुस्कान लायी है। आपने खुद को अनुग्रह दिखाना सिखाया है और जब भी आपने मित्रविहीन महसूस किया, ऊपर से ईश्वर की दिखायी रौशनी का आपने स्वागत किया है।

अब जबकि आप 45वें साल को पार करके 50वें जन्मदिन की ओर बढ़ रहे हैं, तो जीवन के इस पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते कई लोग प्यार में डूब चुके होते हैं; शादी कर चुके होते हैं; घर खरीद चुके होते हैं; घर बसा चुके होते हैं और उनके बच्चे होते हैं। कई लोगों के लिए 45-50 जीवन का ऐसा मील पत्थर है, जब वे अतीत की तरफ देखना शुरू कर सकते हैं और अपने किये गये हर उस काम का जायज़ा ले सकते हैं, जो आपने भौतिक और आध्यात्मिक रूप से हासिल किया है।

आओ, मैं आपको बताऊँ कि मैं अपने भीतर किस तरह के बदलाव महसूस कर रहा हूँ? मैं इन्हें आपके साथ साझा कर रहा हूँ –

माता-पिता, भाई-बहनों, अपने हमसफर, अपने बच्चों, दोस्तों से प्यार करने के बाद अब मैं खुद से प्यार करने लगा हूँ।

मुझे एहसास हुआ कि मैं ‘एटलस’ नहीं हूँ। दुनिया मेरे कन्धों पर नहीं टिकी है।

मैंने अब सब्ज़िायों और फलों के विक्रेताओं के साथ सौदेबाज़ी बन्द कर दी है। आिखरकार, कुछ अधिक रुपये मेरी जेब को ज़्यादा भारी नहीं कर रहे; पर हाँ, इससे किसी गरीब को अपनी बेटी की स्कूल की फीस जुटाने में ज़रूर मदद मिल सकती है।

मैं छुट्टे का इंतज़ार किये बिना टैक्सी ड्राइवर को भुगतान कर देता हूँ। अतिरिक्त पैसा उसके चेहरे पर एक मुस्कान ला सकता है। आिखर वह जीने के लिए मुझसे कहीं ज़्यादा मेहनत कर रहा है।

मैंने बुजुर्गों को बताना बन्द कर दिया कि वे पहले भी कई बार उस कहानी को सुना चुके हैं। यह कहानियाँ उन्हें गुज़रे वक्त तक ले जाने और उन लम्हों से मुक्ति देने में मदद कर सकती हैं।

मैंने लोगों के गलत होने पर भी उन्हें सही नहीं करना सीख लिया है। आिखर सबको ‘परफैक्ट’ बनाने का ज़िाम्मा मुझ पर नहीं है। पूर्णत: से अधिक कीमती शान्ति है।

मैं खुलकर और उदारता से तारीफ करता हूँ। यह सब न केवल दूसरे का मूड बेहतर कर देता है, बल्कि मेरा भी।

मैंने अपनी शर्ट पर क्रीज या किसी धब्बे से परेशान होना छोड़ दिया है। व्यक्तित्व, दिखावे की तुलना में ज़्यादा बेहतर होता है।

मैं उन लोगों से दूर जाता हूँ, जो मुझे महत्त्व नहीं देते। आिखरकार, वे मेरी कीमत नहीं जान सकते; लेकिन मैं जनता हूँ।

मैं तब भी शान्त रहता हूँ, जब कोई चूहा दौड़ में शामिल होने के लिए मुझसे गन्दी राजनीति करता है। आिखर मैं चूहा नहीं हूँ और न ही मैं किसी दौड़ में हूँ।

मैं अपनी भावनाओं से शॄमदा होना नहीं सीख रहा हूँ। आिखरकार यह मेरी भावनाएँ हैं, जो मुझे मानव बनाती हैं।

मैंने सीखा है कि किसी रिश्ते को तोडऩे से बेहतर है कि अहंकार को छोड़ दिया जाए। क्योंकि, मेरा अहंकार मुझे अकेला कर देगा; जबकि रिश्तों के बीच मैं कभी अकेला नहीं रहूँगा ।

मैंने प्रत्येक दिन को यह सोचकर जीना सीख लिया है कि यह आिखरी दिन है। आिखरकार यह आिखरी हो सकता है।

मैं वही कर रहा हूँ, जो मुझे खुश करता है। आिखरकार मैं अपनी खुशी के लिए ज़िाम्मेदार हूँ, और मुझे इसका श्रेय जाता है।

मैंने खुद को यह पत्र भेजने का फैसला किया, क्योंकि मुझे खुद को खुद के सामने व्यक्त करने के लिए इतने लम्बे समय तक इंतज़ार क्यों करना चाहिए।

बढ़ते ही जा रहे डायबिटीज रोगी

इन दिनों जब पूरी दुनिया मधुमेह दिवस यानी डायबिटीज-डे मना रही है, तब भी जाने कितने लोग ऐसे हैं, जिन्हें यह भी नहीं पता कि अगर उन्हें डायबिटीज है, तो यह उनके लिए कितनी घातक है। आज यह बीमारी भारत में तेज़ी से पैर पसार रही है। इस बड़ी स्वास्थ्य चुनौती को लेकर अब भी तैयारियों और परिस्थितियों की समीक्षा करने का भी समय है। हमें सोचना यह होगा कि इस बीमारी से बचने के लिए क्या हमने दीर्घकालिक उपाय किए हैं? खासकर जब यह आशंका है कि भारत में वर्ष 2030 तक लगभग 10 करोड़ लोग इस साइलेंट किलर के शिकार हो चुके होंगे।

हालाँकि, संतोष की बात यह है कि लगातार लोग और साथ ही सरकार भी जीवनशैली को लेकर जागरूक हो रहे हैं और साथ ही कई मामलों में आयुर्वेद जैसी पारम्परिक चिकित्सा पद्धति को आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति के पूरक और वैकल्पिक पद्धति के तौर पर स्वीकार किया जा रहा है। खासतौर पर डायबिटीज के टाइप-2 मरीज़ों के इलाज में यह बहुत प्रभावी हो रहा है।

जहाँ सरकार देश-भर में वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति को बड़े स्तर पर बढ़ावा दे रही है, वहीं विभिन्न सरकारी अनुसन्धान एजेंसियाँ भी आयुर्वेद और चिकित्सकीय जड़ी-बूटियों के आधार पर आधुनिक दवाएँ विकसित करने पर ज़ोर दे रही हैं। जिन बीमारियों में एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति प्रभावी साबित नहीं हो पा रही है, उनके लिए आयुर्वेदिक दवाओं को विकसित करने पर ये विशेष ध्यान दे रही हैं।

इन्हीं में वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद् (सीएसआईआर) की दो प्रयोगशालाएँ  राष्ट्रीय वानस्पतिक अनुसन्धान संस्थान (एनबीआरआई) और केंद्रीय औषधीय और सुगन्धित पादप संस्थान (सीआईएएमपी) का ताज़ा प्रयास भी शामिल है। इन दोनों ने अपने साझा प्रयास से बीजीआर-34 नाम की मधुमेह में प्रभावी आयुर्वेदिक दवा विकसित की है। इसे टाइप-2 मधुमेह के प्रबन्धन में प्रभावी पाया गया है। आयुर्वेदिक फार्मूले से बनी इस आधुनिक दवा के प्रभाव को वैज्ञानिक आकलन के आधार पर प्रमाणित किया जा चुका है। इस बीमारी के गम्भीर मरीज़ों के इलाज में इस दवा को पूरक औषधि के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। इस दवा को ऐसे मरीज़ों पर बहुत प्रभावी पाया गया है।

एनबीआरआई के पूर्व वैज्ञानिक एकेएस रावत कहते हैं- ‘यह दवा बहुत से औषधीय पादपों से तैयार की गयी है। इनमें गिलोय, मेथी, दारूहरिद्रा, विजयसार, मजीठ, मेठिका और गुड़मार शामिल हैं। ये मधुमेह का प्रभाव कम करने वाले माने गये हैं और रक्त में सर्करा की मात्रा को संतुलित करते हैं। विभिन्न अध्ययनों से साबित हुआ है कि इनसे रक्त सर्करा का प्रबन्धन और कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित रखने में मदद मिलती है।’

‘ट्रेडिशनल एंड कंप्लीमेंट्री मेडिसीन’ नाम के अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक शोध प्रकाशन में प्रकाशित अध्ययन में भी बीजीआर- 34 को मधुमेह के मरीज़ों में हृदयाघात के खतरे को 50 फीसदी तक कम करने के लिए प्रभावी पाया गया है।

मधुमेह जीवनशैली से जुड़ी दुनिया की सबसे प्रमुख समस्याओं में शामिल है और भारत में भी बदलती जीवन शैली की वजह से इसका खतरा तेज़ी से बढ़ रहा है।

सरकार ने अपने स्तर पर सरकारी अस्पतालों में आयुर्वेद और वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को बड़े स्तर पर उतारने की योजना बनायी है। पिछले दिनों केंद्रीय आयुष मंत्री श्रीपाद नाईक ने भी देश के हर ज़िाले में आयुर्वेदिक अस्पताल शुरू करने की घोषणा की है।

ऐसे भी जाएगा कोई महान् व्यक्तित्व, सोचा न था

इसमें कोई दोराय नहीं कि इस दुनिया में लाखों लोग रोज़ पैदा होते हैं और लाखों मर जाते हैं; बिलकुल कीड़े-मकोड़ों की तरह। किसी-किसी के मरने पर तो रोने और अरथी को काँधा देने वाले तक नसीब नहीं होते। लेकिन ऐसा या तो उन लोगों के साथ होता है, जो अनाथ होते हैं या उनके साथ जिनके अपने उन्हें हमेशा के लिए छोड़ देते हैं। इस दुनिया में अधिकतर लोगों के सुख-दु:ख के संगी-साथी उनके परिजन, रिश्तेदार, मित्र और पड़ोसी होते हैं। ये वे रिश्ते होते हैं, जो इंसान दुनिया में आकर बनाता है। लेकिन दुनिया में कुछ ऐसे लोग भी पैदा होते हैं, जो पूरी दुनिया का भला सोचते हैं; पूरी दुनिया के लिए कुछ बड़ा कर जाते हैं; कुछ-न-कुछ दे जाते हैं और पूरी दुनिया के हो जाते हैं। ऐसे लोगों को पूरी दुनिया अपना मान लेती है। ऐसे लोग जब भी कहीं जाते हैं, तो एक बड़ा हुजूम उनके प्रशंसकों का उन्हें घेर लेता है और उनके सम्मान में उनकी हर मदद तक को तैयार रहता है। और जब ऐसे लोग दुनिया से जाते हैं, तो उन्हें काँधा देने वालों की गिनती करना मुश्किल हो जाती है। लेकिन जब ऐसे व्यक्ति को अपने जीवन के अंतिम समय में बिलकुल अनाथों, असहायों जैसा जीवन जीना पड़े तो न केवल मानवता शर्मसार होती है, बल्कि हृदय रुदन करने लगता है। ऐसी ही गुमनाम और अनाथों जैसी ज़िान्दगी भारत के महान् गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह ने पूरे 40 साल जी और आिखर में 74 साल की अवस्था में इस स्वार्थी और बेरहम दुनिया को छोडक़र हमेशा के लिए चले गये।

बताया जा रहा है कि वशिष्ठ नारायण सिंह 40 साल से मानसिक बीमारी सिजोफ्रेनिया से पीडि़त थे। लेकिन इस महान् गणितज्ञ को यह बीमारी कैसे हुई? किन परिस्थितियों में हुई? और उनका अच्छी तरह इलाज क्यों नहीं हो सका? ये सवाल किसी ने नहीं उठाये।

सुना है कि उनके देहावसान के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शोक जताया और उनका राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। पर क्या फायदा? जब तक वे जीते रहे न तो उन्हें वह सम्मान मिला, जिसके वे हकदार थे और न ही परिजनों और रिश्तेदारों के अलावा किसी ने बाहरी व्यक्ति ने, जो कि उनके बारे में भले ही जानते थे; उनको अंतिम वर्षों में पहचानने और सेवा करने की ज़हमत उठायी। और अकेलेपन तथा बीमारी से जूझते हुए 14 नवंबर को इस महान् गणितज्ञ ने अपने प्राण त्याग दिये। वशिष्ठ नारायण सिंह पटना के कुल्हरिया कॉम्पलेक्स में परिजनों के साथ रहते थे। पिछले कुछ दिनों से उनका स्वास्थ्य गिरता जा रहा था और 14 नवंबर को तबीयत ज़्यादा खराब होने के पर परिवार के लोग उन्हें पी.एम.सी.एच. पटना लेकर गये; लेकिन वहाँ पहुँचने पर डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। हालाँकि इस मामले में वशिष्ठ नारायण सिंह के परिजनों ने डॉक्टरों पर लापरवाही का आरोप लगाते हुए यह भी कहा कि वशिष्ठ नारायण की मृत्यु के तकरीबन दो घंटे के बाद एम्बुलेंस उपलध करायी गयी।

खैर, अस्पताल में जो भी हुआ हो, परन्तु महान् गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह ने जिस गुमनामी का जीवन जिया, वह सभी भारतीयों और खासतौर पर सरकार के लिए बेहद शर्मनाक है। नीतीश सरकार ने बाद में भले ही उन्हें राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी; लेकिन वे जिस सम्मान के हकदार थे, वह उन्हें जीते-जी तो कमसकम नहीं मिल सका। वशिष्ठ नारायण सिंह के बारे में ऐसा कहा जाता है कि अगर उनको मानसिक बीमारी नहीं होती, तो वे जीवन पर्यंत दुनिया को अपने असीमित ज्ञान से चकित करते रहते और दुनिया के बेहद बड़े तथा सम्मानीय गणितज्ञ होते।

अपने ही अध्यापक को समझा देते थे सवाल

बताया जाता है कि वशिष्ठ नारायण सिंह जब पटना साइंस कॉलेज में पढ़ाई करते थे, तब वे अपने गणित के अध्यापक को गणित के सवाल कई विधियों से समझा दिया करते थे। उनकी इस प्रतिभा के बारे में जैसे ही कॉलेज के प्रधानाचार्य को पता चला, तो उन्होंने वशिष्ठ नारायण सिंह की कठिन परीक्षा ली और सभी उनके गणित ज्ञान से चकित रह गये। इसी दौरान कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन कैली को उनके बारे में पता चला, तो प्रोफेसर कैली ने उनकी विद्वता को पहचाना और उन्हें आगे बढऩे की सलाह दी। 1965 में वशिष्ठ नारायण सिंह अमेरिका चले गये। वहाँ कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से 1969 में उन्होंने पीएच.डी. की। इसके बाद वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर नियुक्त हो गये। इसके बाद कुछ समय नासा में भी काम किया और 1971 में भारत लौट आये। भारत लौटने के बाद उन्होंने क्रमश: आईआईटी (कानपुर), आईआईटी (बम्बई) और आईएसआई (कोलकाता) में नौकरी की। 1973 में उन्होंने अपनी गृहस्थी बसायी; लेकिन विवाह के कुछ समय बाद ही वे सिजोफ्रेनिया (एक मानसिक बीमारी) से पीडि़त हो गये और उनकी पत्नी ने उनसे तलाक ले लिया।

आइंस्टीन के सिद्धांत को दे डाली चुनौती

महान् गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह ने दुनिया के जाने-माने वैज्ञानिक आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत तक को चुनौती दे डाली और अपनी चुनौती पर खरे उतरे। एक बार नासा में अपोलो की लॉङ्क्षन्चग से पहले गणना के लिए लगाये गये वहाँ के कम्प्यूटर कुछ समय के लिए बन्द हो गये थे। सभी वैज्ञानिक बेहद परेशान थे, मगर वशिष्ठ नारायण सिंह अपनी गणना करने में लगे रहे और कम्प्यूटर ठीक होने से पहले ही सही गणना कर ली। जब सभी कम्प्यूटर ठीक हुए, तो पाया कि उनकी गणना और कम्प्यूटर्स की गणना एक जैसी थी।

चाँद पर पहली बार इंसान भेजने में किया बड़ा योगदान

जाने-माने गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह ऐसी महान् शिख्सयत थे, जिन्होंने नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) में गणितज्ञ के रूप में काम करने के दौरान सन् 1969 में अपोलो मिशन लॉङ्क्षन्चग के दौरान पहली बार इंसान को चाँद पर भेजने में अहम भूमिका निभायी। ये वह वक्त था, जब वशिष्ठ नारायण पूरी दुनिया में चॢचत हो गये थे। केवल बिहार ही नहीं, बल्कि समूचे भारत में उनको सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा था।

लेकिन दुर्भाग्य, जब वे तन्हा और बीमार थे, तब हम सभी भारतीयों ने जैसे उन्हें पूरी तरह भुला ही दिया था। दुनिया से उनका जाना भारत के लिए एक बड़ी और अपूर्णीय क्षति है। क्योंकि जिस महान् गणितज्ञ को आज हमने हमेशा के लिए खोया है, वह उन आम लोगों की तरह नहीं है, जिसे अंतिम संस्कार के बाद ही लोग भूल जाया करते हैं। इस महान् गणितज्ञ को तो सदियों तक दुनिया याद रखेगी। अफसोस इसी बात का रहेगा कि ऐसे महान् व्यक्तित्व के अंतिम दिन बेहद पीड़ा और गुमनामी में बीते। इससे भी ज़्यादा अफसोस इस बात का रहेगा कि उनका अच्छी तरह इलाज भी न हो सका। शायद उन्हें ऐसा कोई सदमा था, जिसे वे सहन नहीं कर सके और मानसिक बीमार हो गये। क्योंकि एक बार जब वे अपने भाई के साथ रहने के लिए पुणे में जा रहे थे, तब रास्ते में ट्रेन से अचानक गायब हो गये थे। काफी तलाशाने के बाद सबके हाथ निराशा ही लगी। लेकिन चार साल बाद अचानक वे अपनी पूर्व पत्नी के गाँव के पास एक कूड़े के ढेर के पास मिले और उनकी स्थिति काफी दयनीय थी। ईश्वर उस महान् आत्मा को शांति प्रदान करे। हम उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अॢपत करते हैं।

गुजरात में पर्यटकों को खूब लुभा रहा ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एक साल पहले ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ को राष्ट्र को समर्पित किये जाने के एक वर्ष में इसने पर्यटकों को खूब आकर्षित किया है। सरदार वल्लभभाई पटेल की यह मूर्ति विश्व की सबसे ऊँची प्रतिमा है और प्रधानमंत्री ने इसे जब 31 अक्टूबर, 2018 को राष्ट्र को समर्पित किया, तो यह दिन भारत के लौह पुरुष की 143वीं जयंती का भी दिन था।

प्रतिमा को ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ कहा जाता है और यह देश की एकता और अखंडता की प्रतीक होगी। 182 मीटर ऊँची (600 फीट) स्टैच्यू ऑफ यूनिटी न्यूयॉर्क की स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी से दोगुनी ऊँची है। इससे पहले, विश्व की सबसे ऊँची प्रतिमा चीन में स्थित स्प्रिंग टेम्पल बुद्धा की थी, जो 128 मीटर (420 फीट) ऊँची है।

प्रतिमा गुजरात के मुख्य शहर अहमदाबाद से लगभग 200 किमी (125 मील) की दूरी पर स्थित है। गुजरात के नर्मदा ज़िाले के केवडिया शहर में साधु द्वीप में स्टैच्यू ऑफ यूनिटी को जोडऩे के लिए 3.5 किमी का राजमार्ग बनाया गया है। इसमें 153 मीटर की ऊँचाई पर एक देखने वाली गैलरी है, जो एक बार में 200 आगंतुकों को समायोजित कर सकती है। यही नहीं यह 60 मील/सेकेंड के वेग वाली हवा, कम्पन  और भूकम्प का सामना करने में सक्षम है।

स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के निर्माण के लिए लगभग 22,500 मीटर टन (2,25,00,000 किलोग्राम) सीमेंट का उपयोग किया गया है। सरदार पटेल की प्रतिमा बनाने की परियोजना की घोषणा मोदी ने 2013 में की थी, जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे। सरदार वल्लभभाई पटेल स्वतंत्रता के बाद भारत के पहले उप प्रधानमंत्री थे। स्वतंत्रता के बाद भारतीय राज्यों का हिस्सा बनाने के लिए सामंती राज्यों को राजी करने के बाद इस राष्ट्रवादी नेता को ‘भारत के लौह पुरुष’ के रूप में जाना जाने लगा। स्टैच्यू ऑफ यूनिटी प्रोजेक्ट में सरदार वल्लभभाई पटेल के जीवनकाल को दर्शाने वाला एक अनूठा संग्रहालय और ऑडियो-विजुअल विभाग शामिल है। वाहनों के आवागमन और प्रदूषण से बचने के लिए विशेष नावें मूर्ति और आसपास के क्षेत्र तक पहुँच सकती हैं। गुजरात पर्यटन के नज़रिये से, जिसमें पहले से ही कच्छ के रण और गाँधी सॢकट बड़े आकर्षण के रूप में मौज़ूद हैं, अब स्टैच्यू ऑफ यूनिटी पर्यटकों के लिए प्रमुख आकर्षण साबित हुआ है। इससे सम्बन्धित सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड ने कुछ तथ्य साझा किये हैं –

31 अक्टूबर, 2018 को स्टैच्यू ऑफ यूनिटी को राष्ट्र के लिए समर्पित किये जाने के बाद से यहाँ आने वाले पर्यटकों की संख्या लगातार बढ़ी है।

कुल 27,17,468 पर्यटकों ने इसके निर्माण के पहले वर्ष के दौरान, अर्थात् 01 नवंबर, 2018 से 31 अक्टूबर, 2019 के दौरान, स्टैच्यू ऑफ यूनिटी का दीदार किया।

10 नवंबर, 2019 तक कुल 29,32,220 पर्यटकों ने स्टैच्यू ऑफ यूनिटी स्थल का दौरा किया है।

इनमें से 2,91,640 पर्यटकों यानी करीब 10 प्रतिशत ने अकेले दीपावली के त्योहार के दौरान यहाँ का दौरा किया।

इस दीपावली की छुट्टियों के दौरान प्रति दिन औसत 22,434 सैलानियों ने यहाँ का दौरा किया, जबकि पिछले साल की दीपावली की छुट्टियों के दौरान औसतन 14,918 लोग आये थे।

इस तरह नए आकर्षण जुडऩे से प्रति दिन पर्यटकों की संख्या में 50.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

कुल मिलाकर पर्यटकों की औसत संख्या प्रति दिन 9,063 दर्ज की गयी है। सामान्य कामकाजी दिनों में यह 7,030 प्रति दिन जबकि सप्ताहांत के दिनों (शनिवार और रविवार) को यह 13071 प्रति दिन है।

अब तक हुई कुल आय 80.65 करोड़ रुपये हुई है।

हाल ही में केवडिया में रिवर राफ्टिंग, साइकलिंग और बोटिंग जैसी नई साहसिक गतिविधियाँ विकसित की गई हैं, जिनके प्रति युवाओं की प्रतिक्रिया बहुत सकारात्मक रही है। काफी लोगों को इससे रोज़गार भी मिल रहा है।

इनके अलावा ज़ारवानी ईको-टूरिज्म स्थल पर नाइट ट्रेकिंग, क्लाइम्बिंग वॉल, टू-वे जिप लाइन आदि गतिविधियों विकसित की गयी हैं।

देश में पहली बार नाइट टूरिज्म- मेन रोड और सभी प्रोजेक्ट्स को रात में रंगीन और सजावटी थीम आधारित लाइटिंग से रौशन किया गया है।

अनूठा ग्लो गार्डन एक अन्य प्रमुख आकर्षण है, जो जगमगाते पौधों से अटा है। हर रोज़ 4,000 से 5,000 लोग इसके सौंदर्य का लुत्फ उठाने आते हैं।

इस तरह केवडिया एक अतुलनीय पर्यटक स्थल बन गया है।

नबनिता देब सेन : चन्द्रबती रामायण और स्त्री पाठ की व्यंजनाएँ

नबनिता देब सेन जादवपुर विश्वविद्यालय के तुलनात्मक साहित्य विभाग में प्रोफेसर रहीं और अभी 7 नवम्बर को वे नहीं रहीं। अनेक विषयों पर लघु कथाएँ, निबंध, यात्रावृत्त, कविता, बाल साहित्य और छन्द-नाट्य लिख चुकी हैं।  सीता से शुरू, वामा बोधिनी, शीत साहसी हेमंत लोक आदि रचनाओं में स्त्री-पाठ की पुनव्र्याख्या करती हैं। अनेक विशिष्ट सम्मानों में वर्ष 2000 में प्राप्त पद्मश्री, साहित्य अकादमी अवार्ड, कबीर सम्मान, रवीन्द्र पुरस्कार और संस्कृति अवार्ड से नवाजी जा चुकी हैं। वे ग्रेट ब्रिटेन की रॉयल एशियाटिक सोसायटी की फैलो रह चुकी हैं और इंडियन नेशनल कम्पेरेटिव लिटरेचर एसोसिएशन की उपाध्यक्ष थीं साथ ही वे ऑक्सफोर्ड में 1996-97 में राधाकृष्ण मेमोरियल लेक्चरर रह चुकी हैं।

आधुनिक समाज में आज विमर्शों की दुनिया में जो नया हस्तक्षेप हुआ है उसमें स्त्रियों ने अपनी उपस्थिति लगातार दर्ज कराई है। नबनिता देब सेन इस दृष्टि से चन्द्रबती द्वारा रचित रामायण पर पुनर्विचार करती हैं। यह रामायण अपूर्ण है और खंडों में लिखी गई है पर यह राम के सन्दर्भ में लिखी गई रामायणों से पूरी तरह भिन्न है। इस लिहाज से वे संकेत देती हैं कि जिस युग में स्त्रियों की उपस्थिति को सिरे से दरकिनार कर दिया गया था, उस युग में भी चन्द्रबती ‘रामायण’ की पुनव्र्याख्या करते हुए उसे नए सिरे से रच रही थीं।

नबनिता अपने लेख ‘वूमेंस रीटेलिंग ऑफ द रामा-टेल : नैरेटिव स्ट्रैटजीज एम्प्लॉयड इन द चंद्रबती रामायण’ में इस बात पर बल देती हैं कि सभी विद्वान इस बात से सहमत हैं कि ‘चन्द्रबती रामायण’ में एक अपूर्ण रामायण उपलब्ध है। सभी संग्रहकर्ता, संपादक और बंगाली साहित्य के इतिहासकार इस बात के समर्थक हैं कि इसमें पूर्ण रामायण लिखी हुई प्राप्त नहीं होती। यह सिर्फ खण्डों में ही लिखी गई है। इसके अलावा यह वाल्मीकि और कृतिवास, जो महान और सीमित परम्परा के आदि स्तम्भ हैं, जो संस्कृत की शास्त्रीय भाषा और मानक बांग्ला के रामायणीय पाठ हैं, से कतई भिन्न हैं बल्कि यह अजब रूप से दक्षिण में लिखी रामायण-जैन रामायण तथा अद्भुत रामायण से सम्बद्ध दिखाई देती है–सभी लोक ‘राम कथाओं’ ‘मंगल काव्यों’ तथा व्रत-कथाओं से पाठ एवं भाषा के स्तर पर इसका दूर-दराज का सम्बन्ध ही दिखाई देता है। यह एक दूसरा ही कथा पाठ है-चन्द्रबती रामायण।

चन्द्रबती को इस नाम पर तो सम्मान मिला कि उन्होंने कौमार्य व्रत लिया था पर साहित्य के इतिहासकारों ने उनके महाकाव्य को कभी साहित्य में स्थान ही नहीं दिया। नबनिता संकेत करती हैं कि उन्होंने भी केवल उनका गाथा साहित्य ही पढ़ा है। एक दिन अचानक ही उन्हें के. मौलिक का 7वाँ खण्ड प्राप्त हो गया जिसे यूँ ही देखते हुए उनका ध्यान इस बात की ओर गया कि उनके हाथ में एक विशेष पाठ-एक स्त्री का राम-कथा का पुनर्पाठ आ गया है। यह राम-कथा एक बंगाली हिन्दू ग्रामीण औरत द्वारा पुनर्लिखित है- एक स्त्री जो दर्द जानती है, एक स्त्री जिसने साहस से ग्रामीण पूर्व बंगाल में 16वीं शती में अकेली बौद्धिक कवियित्री के रूप में काव्य रचना की राह चुनी।

सुकुमार सेन अपने साहित्य के इतिहास में न्यायचंद के चन्द्रबती गाथा लेखन के संदर्भ में चन्द्रबती के जीवन का जिक्र करते हैं। गाथा में यह उल्लेख है कि उसने रामायण लिखी तथा अपने जीवन में वह सदैव शिव की भक्त रही। हमारे साहित्य के इतिहासकारों के लिए यह सूचना किसी महत्त्व की नहीं है, वह उसके रामायण लेखन का कोई जिक्र नहीं करते, केवल उसके कौमार्य की सूचना देकर ही बात समाप्त कर देते हैं। क्या हम यह कहने की ज़रूरत है कि इस तरह शान्त रहकर किसी को कितनी सरलता से उपेक्षित और नज़रअंदाज़ किया जा सकता है? इसमें कतई आश्चर्य की बात नहीं कि शहरी शिक्षित पुरुष बिचौलियों द्वारा इतिहासकारों के रूप में इस पाठ को इस सीमा तक उपेक्षित किया गया है कि इसकी जानकारी ही नहीं मिल सकी। उनको भी क्या दोष दिया जाए। इस भिन्न प्रकार की रामायण में, राम को ही एक कोने भर में जगह मिल सकी है जहाँ वह केवल सीता के सम्बन्ध के अतिरिक्त कहीं दिखाई नहीं देते। कथा वाचन स्पष्ट रूप से बिना किसी भ्रम के सीता के जीवन को कथा के रूप में चुन कर किया गया है और यह कथा राम-कथा के परम्परागत आवरण में सीता-कथा बनती है। यहाँ ‘रामायण’ के केवल उन अंशों को चुना गया है जो सीता के जन्म से सम्बन्धित हैं जिनकी शुरुआत सीता के अतिप्राकृतिक रूप से जन्म लेने की घटना से होती है और उसकी पीड़ा की कथाओं से गुजरती है, सीता का बारोमासी उसकी गर्भावस्था, गृहत्याग, पीड़ा और धरती माँ की गोद में समा जाने का वर्णन करता है।

चन्द्रबती बने बनाए तरीके का उल्लंघन करके अपना महाकाव्य सीता के जन्म से आरम्भ करती है। नबनिता जिक्र करती हैं कि चन्द्रबती अपने महाकाव्य की शुरुआत हमें सीता की जन्म कथा विस्तार से सुनाकर करती हैं। शुरुआत के छह लम्बे भाग सीता के जन्म व उसके गर्भ में आने की जटिल कथा वर्णित करते हैं। सीता का जन्म पीड़ा के माध्यम से होता है।

एक त्रस्त साधु के रक्त और उपेक्षित मंदोदरी की मृत्यु कामना मिलकर सीता का निर्माण करते हैं और वह रावण तथा उसके वंश का विनाश करने के लिए जन्म लेती है। दुष्ट रावण ने ब्रह्मा का आशीर्वाद प्राप्त करके शक्तिशाली बनकर तीनों दुनिया के साधुओं का न केवल विनाश किया बल्कि साधुओं का रक्त एक बक्से में बंद करके रखा जिसे विष के रूप में प्रयोग करके वह देवताओं के अमरत्व का नाश कर सके। अब चन्द्रबती हमे बताती है कि उसकी पत्नी मंदोदरी कितना उपेक्षित, दुखी, अपमानित और आहत अनुभव करती है जब रावण स्वर्ग से अपहृत की गई अप्सराओं के साथ विलास में पूरा समय व्यतीत करता है। इसलिए वह उस शक्तिशाली विष का प्रयोग करने का निर्णय लेती है जो अमरत्व प्राप्त कबीले को समाप्त करने में समर्थ है। वह विष ले लेती है। पर रुको, ये क्या हुआ! उसे क्या होता है? औरत होने में ही न जाने कितने रहस्य छिपे हुए हैं। मरने की जगह वह जन्म देती है। सीता का जन्म एक अण्डे के रूप में होता है। लंका में पंडित (ज्योतिष) यह पूर्वानुमान लगाते हैं कि इस अण्डे से एक खतरनाक पुत्री का जन्म होगा जो राक्षसों के वंश का पूर्ण विनाश कर देगी। यह सुनकर रावण उस अण्डे का नाश करना चाहता है पर माता मंदोदरी इसकी अनुमति नहीं देती। वह कोशिश करके एक सोने के बक्से में उसकी रक्षा करके उसे समुद्र में बहाने के लिए रावण को तैयार कर लेती है। यह बंगाल की खाड़ी से गुजरती है और एक गरीब मछुआरे माधव जालिया को मिल जाती है। वह उस अण्डे को घर लाता है और अपनी गरीब व ईमानदार पत्नी ‘सता’ को देता है जिसके पास कुछ खाने को नहीं, पहनने के लिए नहीं पर जिसे कोई शिकायत नहीं। वह समस्त धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करते हुए अण्डे की पूजा करती है। इसलिए अण्डे में छिपी लक्ष्मी सीता के रूप में उसे आशीर्वाद देती है। गरीब मछुआरा धनी हो जाता है।

इसी बीच, उसकी पत्नी सता को सपना आता है कि लक्ष्मी चाहती है कि वह अण्डा राजा जनक की पत्नी को दे दिया जाए। वह दैवीय निर्देश का पालन करती है। उसे सिर्फ यह इनाम चाहिए कि जब रानी की बेटी का जन्म हो तो उसका नाम ‘सता’ के नाम  पर ‘सीता’ रखा जाए। व्यंजन और आखिरी स्वर समान है बस पहला स्वर भिन्न है। तो उस गरीब मछुआरे की पत्नी के रूप में उसे नाम प्राप्त होता है और सीता अण्डे में से जन्म लेती है। वह शास्त्रीय महाकाव्य की घटना के रूप में राजा को खेत में हल चलाते हुए प्राप्त नहीं होती। असल में राजा जनक की यहाँ कोई भूमिका नहीं है। यहाँ उसकी पत्नी ही अण्डे का ध्यान रखती है जिसमें से सीता का जन्म होता है। यह नायिका का अति प्राकृतिक रूप है जिससे बुराई का अन्त होता है। सीता का जन्म रावण और उसके वंश के पूर्ण विनाश के लिए होता है। नबनिता देब सेन इस कथा को ‘अद्भुत रामायण’ तथा ‘जैन रामायण’  और इडिपस की कथा से जोडक़र दिखाती हैं।

नबनिता अपने लेख में बताती हैं कि अगले अंश में दूसरी पुस्तक में कथा वाचक बदल जाता है और मुख्य कथा के साथ एक उप-कथा भी आती है। सीता स्वयं अब कथावाचक का रूप लेती है। वह राम के महल के आंतरिक भाग में बैठी अपनी सखियों से बात कर रही है जो उनके व्यक्तिगत अनुभवों से जुड़े हर तरह के प्रश्न करती हैं। लंका से लौटने के बाद सीता अब प्रसन्न है और मुक्त रूप से अपने बचपन, विवाह, राम की पत्नी के रूप में अपने जीवन,निर्वासन की स्थिति और अपहृत युवती के रूप में लंका में अपने जीवन का वर्णन करती है। राम का नायकत्व सीता के संदर्भ में ही निर्मित होता है। अलग से राम का नायकत्व और पुरुषत्व दोनों ही यहाँ स्थापित नहीं होते।

राम के महायशपूर्ण कार्य संक्षेप में और बेरंग रूप में थोड़े बहुत सीता के माध्यम से उनकी सखियों तक प्रेषित हुए हैं। राम का आरम्भिक जीवन यहाँ वर्णित नहीं है क्योंकि यह सीता के अनुभव के अंग नहीं हैं- इसलिए हम ताडक़ा, मारीच और सुबाहु के बारे में नहीं सुनते। हरधनुर्भंग, अवतार, निर्वासन, सोने का हिरन…. रावण की मृत्यु, इन्द्रजीत, कुम्भकर्ण आदि प्रसंग बहुत हल्के रूप से छुए गये हैं। अधिकांश रंग व स्थान सीता और राम के जंगल में रोमानी प्रसंगों पर दिया गया है। जैसे वे जंगल में भ्रमण के लिए गये हों। नबनिता मानती हैं कि सीता और चन्द्रबती दोनों ने निर्वासन को खास बना दिया है।

 ‘चन्द्रबती रामायण’ सीता की मृत्यु के साथ अर्थात् धरती में समाने के प्रसंग के साथ समाप्त हो जाती है- और यहीं से नबनिता उसे एक नया पाठ मानती हैं- हम सब की कथा के रूप में। उनके द्वारा खोज की गई इस कृति के बारे में सुनकर हम दंग रह जाते हैं और हैरानी होती है कि साहित्य के इतिहास की किस परम्परा का हम अनुकरण कर रहे हैं जहाँ किसी रचनाकार को सरलता से उपेक्षित और नज़रअंदाज़ ही नहीं किया जाता बल्कि उसके अस्तित्व को ही नकार दिया जाता है। कहाँ सुनते हैं हम चन्द्रबती का जिक्र! शायद मुख्यधारा के साहित्य में तो कहीं ही नहीं। इस कथा में सीता सारी कथा अपनी सखियों को सुना रही है, इसीलिए ‘सुनो सखिजना’ और सुनो सर्बजना कहकर ही बात करती हैं।  राम राज्य की अवधारण यहाँ टूट जाती है और राम राज्य के विपरीत सीता की सर्व-जन की अवधारणा यहाँ प्रतिष्ठित होती है7 इसे क्या माना जाए? सीता के भीतर की लोकतांत्रिक व्यवस्था या पितृसत्ता का वह विरोध जिसे स्वीकृत करने का साहस आलोचक भी नहीं दिखा सके!

 नबनिता इसे आज पूर्व काल का उपेक्षित पाठ भी कहती हैं। ‘रामायण’ शब्द हमारे इस कथा वाचन/ गीत के लिए अनुपयुक्त होगा। इसे  वे सीतायन कहना प्रस्तावित करती हैं- सीता की यात्रा के विविध पड़ाव। राम को वे इस कथा का केन्द्र नहीं मानती। वह सिर्फ एक उपादान हैं जिसके गलत कदमों के विरोध में सीता के कार्य-क्रियाएँ व चरित्र दिखाए गये हैं। चन्द्रबती पाठ के बीच में कभी-कभी दिखाई देती है और अपने चरित्र को स्वयं सम्बोधित करती है। वह चेतावनी देती है, उन्हें डाँटती है, उनसे संवेदना प्रकट करती है, उनके लिए खड़ी होती है और अंतत: राम को कहती है कि वह अपना मस्तिष्क खो चुके हैं और पूरे देश को उनकी बुद्धि की कमी के कारण भुगतान करना पड़ा (‘पारेर कथा काने लो एले गो निजरे सर्वोनाश/ चन्द्रबती कहे राम गो तोमार बुद्धि होइलो नाश’)सीता उन लाखों स्त्रियों का जिक्र करती हैं जिन्होंने इस युद्ध में अपने पति व संतानों को खो दिया ‘आमि तो शुइनयाचि गो लखा नारीर हाहाकार/पतिहरा पुत्रहरा गो लखा-लखा नारी/ अभिशाप दियचे मोराए गो बोरो दुखे पारी।’

नबनिता देब सेन मानती हैं कि एक तरह से स्त्री के सन्दर्भ में चली आ रही मान्यताओं का प्रतिरोध भी यहा दिखाई देता है। स्त्री को यदि दु:ख का कारण माना गया है तो संसार की रचना और परिवर्तन का कारण भी वही है। ‘चन्द्रबती रामायण’ उन्हें दो और कारणों से महत्त्वपूर्ण लगती है। चन्द्रबती बांग्ला के दो विशिष्ट कवियों माइकेल मधुसूदनदत्त तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर के महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण की पूर्वपीठिका प्रस्तुत करती हैं। सरामा को रावण के अशोक कानन की एकमात्र सखी घोषित करके (सांत्वना कोरिया राखे एक सरामा सुन्दरी) वह माइकेल के मेघनाद काव्य की कथा को ही व्यक्त करके स्त्रियों के बहनापे को स्थापित करती हैं। वह लक्ष्मण से भी अपनी उपेक्षित पत्नी उर्मिला के दुख दूर करने की प्रार्थना करती है: ‘उर्मिला दुखो तमि गो कोहरो समाधान’। इसी विषय पर टैगोर ने अपना प्रसिद्ध निबन्ध ‘काव्य उपेक्षिता’ लिखा और मैथिलीशरण गुप्त ने साकेत में उर्मिला की पीड़ा का जिक्र विस्तार से किया परन्तु वह 20 वीं शती की घटना है पर 16वीं शती की बंगाल की स्त्री-वाचकों द्वारा उसे उपेक्षित नहीं किया गया।

इसी प्रकार चन्द्रबती रामायण एक अपूर्ण कार्य के रूप में साहित्य के पुरुष आलोचकों द्वारा वर्षों तक अस्वीकृत व बहिष्कृत की गई। इसे ही हम एक उपेक्षित पाठ कर सकते हैं। सम्पादकों ने इसे एक साधारण स्तर का साहित्यिक कार्य माना क्योंकि यह एक ऐसी रामायण है जो राम के गीत नहीं गाती। इसे एक अपूर्ण पाठ का दर्जा दे दिया गया। आज इसका पुन-र्पाठ एक निश्चित असफलता का पर्दाफाश करता है। यह किसी स्त्री द्वारा किया गया गलत पाठ नहीं बल्कि मिथकों को देखने की एक नई दृष्टि है। साहित्य और जेंडर को लेकर विकसित आज नई दृष्टियों के पैमाने पर जब हम इस रचना को देखते हैं तो पता चलता है कि किसी भी पाठ की कोई निश्चित दिशा नहीं हो सकती—उसकी अंतर्धाराएँ सदैव अपनी दिशाओं को खोलती और पुनर्सृजित करती हैं।

नबनिता देव सेन अब नहीं हैं पर चन्द्रबती रामायण पर लिखे उनके लेख ने मुझे भीतर तक प्रभावित किया और यह सोचने पर बाध्य किया कि साहित्य के इतिहास को लिखने की दिशाएँ ठीक वैसी ही हो सकती हैं जैसी वह हैं अथवा उसे पुनर्परिभाषित करने की जरूरत है! जरूरी है कि ऐसे पाठों को देखा और खोजा जाए जो अपने काल में हस्तक्षेप तो करते हैं पर किसी न किसी कारण से भुला दिए गये हैं। क्या पता इतिहास में छुपे इन रत्नों से कोई नई दिशा और दशा प्रस्तावित हो जाए- इस दृष्टि से नबनिता देव सेन हमारे लिए कई नए संकेत निर्मित करती हैं। आँख खोलकर देखा जाए.. बहुत कुछ है, जो हमारा रास्ता देख रहा है।

(आलेख  की समस्त सूचनाएँ और सामग्री के लिए नबनिता देब सेन के लेख A Woman’s Retelling of the Rama-Tale: Narrative Strategies Employed in the Chandrabati Ramayana के हम आभारी हैं जिसे Cultural Diversity, Linguistic Plurality and Literary Traditions in India(Chief Editor Dr. Sukrita Paul Kumar) में शामिल किया गया है)

8 फुट 2 इंच का अफगानी पठान

एक ओर लोग अपनी कम लम्बाई को लेकर परेशान रहते हैं और इसके लिए कई तरह के व्यायाम करने के साथ ही दवाइयाँ लेकर लम्बाई बढ़ाने की जद्दोजहद करते हैं। पर पिछले दिनों एक ऐसा वाकया सामने आया, जिसमें एक शख़्स की लम्बाई ही उनके लिए मुसीबत का सबब बन गयी। या यूँ कहें कि लखनऊ के साथ ही देश-भर में चर्चा का विषय बन गयी। हम बात कर रहे हैं उस अफगानी पठान की जो पिछले दिनों काबुल से क्रिकेट मैच देखने के लिए यूपी की राजधानी लखनऊ पहुँचा।

कद 8 फुट, 2 इंच। उम्र 27 साल। लखनऊ के अटल बिहारी वाजपेयी क्रिकेट स्टेडियम में पहुँचे अफगानी पठान को सब निहारते रह गये। कुछ युवा और लड़कियाँ तो उसके साथ सेल्फी लेने लग गये। शेर खान को यहाँ पर तो कोई दिक्कत नहीं हुई, लेकिन जब बात ठहरने की आयी तो उन्होंने होटल जाकर सम्पर्क किया। होटल के प्रबन्धकों ने उनकी लम्बाई देखकर कमरा देने से मना कर दिया। इससे परेशान होकर शेर खान को मजबूर होकर अमीनाबाद इलाके में थाने जाना पड़ा। पुलिस वालों ने शेर खान के कागज़ात की जाँच की। इस दौरान पता चला कि वह अफगानिस्तान से क्रिकेट मैच देखने आया है और अपनी टीम का प्रशंसक है। इसके बाद उनको कमरा मिल गया।

शेर खान ने पुलिस को बताया कि आिखर अच्छी बॉडी भी व्यक्ति के लिए परेशानी का सबब बन सकती है। जब दो-तीन होटलों में उसे कमरा नहीं मिला, तो मुझे आप लोगों के पास आना पड़ा। बात यहीं खत्म नहीं हुई, इसके बाद उस होटल के बाहर लोगों का जमावड़ा लग गया। लोग शेर खान की एक झलक पाने को जमा हो गये। इसके बाद होटल प्रबन्धन ने खान को होटल से जाने के लिए कह दिया। बाद में लखनऊ पुलिस की मदद से उनको स्टेडियम तक ले जाया गया। इन सब बातों से खान खफा भी नहीं थे। उनका भी मानना है कि उनके कद की वजह से वह दिखते ही खतरनाक हैं; इसमें किसी की कोई गलती नहीं है। स्टेडियम पहुँचने पर भी उनको देखकर लोग अचम्भित हो रहे थे। चूँकि शेर खान के पास वैध टिकट था, इसलिए प्रवेश करने में कोई खास परेशानी नहीं हुई। शेर खान ने बताया कि वह सिर्फ एक या दो मैच देखने नहीं, बल्कि पूरी सीरीज देखने के लिए यहाँ पहुँचे हैं। उन्होंने अपनी क्रिकेट टीम पर फख्र जताते हुए कहा कि अफगानिस्तान की टीम दुनिया में अपना नाम रौशन कर रही है। लखनऊ में इकट्ठे भारतीय अपने बीच इस विशालकाय व्यक्ति को पाकर लोग रोमांचित हो उठे।

शेर खान के अपने मुल्क के पसंदीदा खिलाड़ी कप्तान राशिद खान और मोहम्मद नबी हैं। शेर खान अक्सर अपनी टीम का समर्थन करने को स्टेडियम पहुँचते हैं। आईपीएल मैचों में अपनी धाक जमा चुके अफगानिस्तान के फिरकी गेंदबाज राशिद खान से क्रिकेट के शौकीन तो वािकफ हैं ही, पर वाहवाही और चर्चा बटोरने में शेर खान कामयाब रहे। शेर खान अफगानिस्तान की राजधानी काबुल से भारत पहुँचे हैं और वे लखनऊ में सिर्फ मैच देखने के लिए ही आये हैं। उन्होंने भारतीय दर्शकों के साथ ही हल्के-फुल्के पल बिताये और फोटो खिंचवाये।

लखनऊ के लज़ीज़ ज़ायकों का भी स्वाद चखा और गलियों में भी घूमे। इस दौरान उनको देखने वालों का रेला लग गया। ये अलग बात है कि वेस्टइंडीज ने तीन मैचों की वनडे सीरीज में अफगानिस्तान को 3-0 से शिकस्त दी। हालाँकि अफगानिस्तान ने टी-20 में विंडीज को 2-1 से हराकर सीरीज पर कब्ज़ा किया।

टोक्यो ओलंपिक में भारत

वैसे तो भारतीय खिलाड़ी 1900 में पैरिस में आयोजित ओलंपिक खेलों से भाग लेते रहे हैं; पर अधिकारिक रूप से भारत ने 1920 के एंट्रीय खेलों से भाग लेना शुरू किया। इस प्रकार भारतीय खिलाड़ी पिछले 100 साल से इन खेलों का हिस्सा हैं, लेकिन कभी बड़ी ताकत नहीं बन पाये। एक तरफ जहाँ छोटे-छोटे देश झोली-भर कर पदकों की जीतते रहे वही हमारे हाथ इक्का-दुक्का पदक ही आ सके। इनमें से आठ स्वर्ण पदक तो भारत ने हॉकी में ही जीते हैं। भारतीय हाकी टीम 1928 के एम्सट्रडम खेलों में पहली बार गयी और स्वर्ण पदक लेकर लौटी। जयपाल सिंह के नेतृत्व में गयी इस टीम ने तो शुरुआत की उसे लाल शाह बुखारी की टीम ने 1932 लॉसएंजेलेस में और ध्यानचंद की टीम ने 1936 के बॢलन ओलंपिक में जारी रखा। इसके बाद दूसरे विश्व युद्ध के कारण 12 साल तक ओलंपिक खेल नहीं हो सके।

अगस्त 1945 में विश्व युद्ध खत्म हुआ और 1948 में लंदन में इन खेलों का आयोजन किया जा सका। यहाँ भारत ने किशन लाल के नेतृत्व में 6 हॉकी का चौथा स्वर्ण पदक जीता। 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में के.डी. सिंह बाबू की टीम पाँचवाँ स्वर्ण पदक लायी। 1956 के मेलबोर्न ओलंपिक में टीम का नेतृत्व बलबीर सिंह सीनियर ने किया और फाइनल में पाकिस्तान को हराकर छठा स्वर्ण पदक पाया। ध्यान रहे बलबीर सिंह सीनियर 1948 और 1952 में भी स्वर्ण पदक विजेता भारतीय टीम का हिस्सा थे। 1960 में पहली बार भारत को रोम ओलंपिक में चाँदी के पदक से संतोष करना पड़ा। लेसली क्लाडियम के नेतृत्व में गयी भारतीय टीम फाइनल में पाकिस्तान से 0-1 से हार गयी। पर 1964 के टोक्यो ओलंपिक में भारत ने चरणजीत सिंह के नेतृत्व में पाकिस्तान को 1-0 से हटाकर भारत को स्वर्ण पदक दिला दिया। यह भारत का सातवाँ स्वर्ण पदक था।

भारत को आठवाँ स्वर्ण पदक 1980 के मास्को ओलंपिक खेलों में मिला। यहाँ भास्करन के नेतृत्व में गयी भारतीय टीम ने फाइनल में स्पेन को हराया था। इससे पूर्व 1968 में पृथिपाल सिंह और गुरबख्श सिंह के दोहरे नेतृत्व में मैक्सिको खेलने गयी टीम तीसरे स्थान पर रही थी। 1972 में हरमीक सिंह ने नेतृत्व में श्यूनिख गयी टीम भी कांस्य पदक ही ला सकी। 1980 के बाद आज तक भारत को हॉकी में पदक की तलाश है। देखते हैं कि क्या टोक्यो फिर भारतीय हॉकी के लिए भाग्यशाली साबित होता है कि नहीं।

टोक्यो ओलंपिक खेल-2020

अगामी ओलंपिक खेल 24 जुलाई से 9 अगस्त तक जापान की राजधानी टोक्यो में खेले जाएँगे। देखा जाये तो ये खेल मात्र नौ माह दूर हैं। उम्मीद है कि इन खेलों में भारत अपना अब तक का सबसे बड़ा दल भेजेगा। रियो ओलंपिक में भारत ने 117 प्रतिभागियों का दल भेजा था। टोक्यो ओलंपिक के लिए अब तक 60 भारतीय खिलाड़ी क्वालीफाई कर चुके हैं। पर निराशा की बात यह है कि एथलेटिक्स मेें अब तक केवल छ: एथलीट ही ओलंपिक स्तर को पा सके हैं। इनके अलावा सात-आठ बैंडमिंटन और कुछ टेबल टेनिस भी भाग लेने के लिए क्वाालीफाई कर जाएगा। भारत की कोशिश है अपने प्रदर्शन को सुधारना। पर हालात रियो के बाद से ज़्यादा नहीं बदले हैं। हालाँकि विश्व प्रतियोगिता में हमारे मुक्केबाज़ों, पहलवानों, बैडमिंटन खिलाडिय़ों और निशानेबाज़ों के प्रदर्शन ने कुछ उम्मीदें ज़रूर जगायी हैं। देश के खेल मंत्री ने बड़ी-बड़ी घोषणाएँ की हैं। उन्हें उम्मीद है कि 2028 के ओलंपिक में भारत शीर्ष 10 देशों में होगा।

इस बारे में कनाडा की मिसाल ली जा सकती है। रियो डी जेनेरियो में यह देश 20वें स्थान पर था। इसने वहाँ 314 एथलीट भेजे, जो 22 पदक लेकर लौटे। टोक्यो के लिए अब तक इसके 142 एथलीट क्वालिफाई कर चुके हैं। 1996 में जहाँ भारत को एक कांस्य पदक मिला, जो लिएंडर पेस लाये थे; वहाँ भारत के 49 एथलीट थे, जिन्होंने 13 खेल स्पर्धाओं में हिस्सा लिया। 2016 में हमारे 117 खिलाड़ी रियो गये 15 सपर्धाओं में भाग लिया और मात्र दो पदक जीते। भारत के उम्मीदें हमारे मुक्केबाज़ों और पहलवानों पर हैं। पर हम इन खेलों के विकास के प्रति अधिक गम्भीर नहीं हैं।

इतने ओलंपिक खेलों और 100 साल के बाद भी भारत तैराक पैदा नहीं कर पाया, जो पदकों की झड़ी लगा दे। भारत अब तक इन खेलों में कुल 28 पदक जीत पाया है, जिनमें से 11 पदक तो अकेले हॉकी में आये हैं। देश के पूर्व खेल मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर ने लोक सभा में कहा था कि 2032 तक हम पदकों की संख्या 100 तक ले आएँगे। भारत का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 2012 के लंदन ओलंपिक कर रहा है, जहाँ हमने छ: पदक जीते थे।

तीरंदाज़ी

भारत को तीरंदाज़ी में बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद है। हालाँकि 2016 के रियो ओलंपिक में हमारे तीरंदाज़ नहीं थे, पर जून में विश्व चैंपियनशिप में उन्होंने ओलंपिक के लिए क्वालीफाई कर लिया है। अतानु दास, तरुणदीप राय और प्रवीण जाधव की तिकड़ी ने नार्वे को 5-1 और कनाडा को 5-3 से हरा कर टोक्यो ओलंपिक के लिए अपनी जगह बना ली है। भारत की यह तिकड़ी 2005 के बाद फाइनल में पहुँचने वाली पहली टीम है। इसने सेमीफाइनल में नीदरलैंड्स टीम को पिछडऩे के बावजूद 29-28 से मात दी। फाइनल में में चीन से 2-6 से हारे पर रजत पदक जीत लाये। यहाँ भारतीय महिला टीम कुछ खास नहीं कर पायी, पर उसके पास अभी एशियाई प्रतियोगिता और जून, 2020 में ओलंपिक क्वालीफायर के द्वारा ओलंपिक में जाने का मौका है।

कुश्ती

इस स्पर्धा में एशियाई खेलों की स्वर्ण पदक विजेता विनेश फोगाट पहली पहलवान है, जिसने ओलंपिक खेलों के लिए क्वालीफाई किया है। उसने यह स्थान कज़ाकिस्तान के नूर सुलतान में हुई विश्व कुश्ती प्रतियोगिता में हासिल किया, जहाँ उसने ओलंपिक खेलों की रजत पदक विजेता सारहा हिल्डब्रांडट को परास्त किया। फिर उसने यूनान की मारिया प्रीवोलारकी को 4-1 से हराकर कांस्य पदक जीता। इसके बजरंग पूनिया ने भी कांस्य पदक जीतकर ओलंपिक में खेलने का अधिकार पाया। इसके बाद रवि कुमार दहिया भी ओलंपिक के लिए क्वालीफाई कर गया है। दीपक पूनिया के शानदार प्रदर्शन से उसे ओलंपिक खेलों में भाग लेने का अवसर मिला है। दीपक जूनियर वर्ग में भी स्वर्ण पदक जीत चुका है।

एथलेटिक्स

इस स्पर्धा में कभी किसी भारतीय ने कोई पदक नहीं जीता है। पी.टी. उषा और मिल्खा सिंह चौथे स्थान पर रहे। रंधावा पाँचवें और श्रीराम सिंह सातवें स्थान पर रह चुके हैं। पर पदक कोई नहीं जीत पाया है। इस बार भारत की दावेदारी 20 किलोमीटर पैदल चल के राष्ट्रीय रिकॉर्डधारी केटी इरफान के ऊपर है। उसने नोमी (जापान) में आयोजित पैदल चाल मुकाबले के चौथा स्थान पाया था। उसने यह दूरी 1.20.57 (एक घंटा 20 मिनट और सत्तावन सेकेंड) में पूरी की। इसका ओलंपिक योग्यता स्तर 1.21.00 घंटे था। इसके अलावा 4 गुणा 400 मीटर की मिश्रित रिले टीम ओलंपिक जा सकती है। इसमें मोहम्मद अनास, विस्मय, कृष्णा मैथ्यू और नोअ निर्मल शामिल हैं।

3000 मीटर स्टीपलचेज भारत के अविनाश साबले ने विश्व एथलेटिक प्रतियोगिता में 8.21.37 मिनट का समय निकालकर ओलंपिक के लिए क्वालीफाई किया। इस स्पर्धा के लिए योग्यता स्तर 8.22.00 मिनट था।

निशानेबाज़ी

निशानबाज़ी में देश के 15 निशानेबाज़ पहले ही योग्यता स्तर पा चुके हैं। महिलाओं की 10 मीटर एयर रायफल मुकाबले में अंजुम मोदगिल और अपूर्वी चंदेला ओलंपिक में जाएगी। पुरुषों की 10 मीटर एयर पिस्टल में सौरभ चौधरी ने विश्व रिकॉर्ड तोड़ा है। इसके अलावा अभिषेक वर्मा ने भी क्वालीफाई कर लिया है। 10 मीटर एयर रायफल पुरुषों में दिव्यांग सिंह पंवार और दीपक कुमार ने टोक्यो का टिकट ले लिया है। 50 मीटर रायफल तीन पोजीराव (पुरुष) में संजीव राजपूत और ऐरवरी प्रताप सिंह तोमर ने अपना स्थान ओलंपिक के लिए पक्का कर लिया। स्कीट मे अंगदवीर सिंह और मैराज अहमद खान भारत का प्रतिनिधित्व करेंगे। महिलाओं के 25 मीटर पिस्टल मुकाबले में भारत की ओर से राही सरनोबत और चिंकी यादव भाग लेंगी। मीटर एयर पिस्टल (महिला) में मनू आकर और यशस्वनी सिंह दंसवाल ओलंपिक के लिए क्वालीफाई किया। महिलाओं की 50 मीटर रायफल तीन पोजीशन में तेजस्वनी सावंत को ओलंपिक कोटा मिल गया है। इनके भारत की पुरुष और महिला हॉकी टीमें भी ओलंपिक के लिए क्वालीफाई कर चुकी हैं।