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एम्स में आग के निशान अभी मिटे नहीं पर दोषियों को दो साल एक्सटेंशन की तैयारी

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान एम्स में अगस्त माह में आग की लपटों की तपिश अभी कम भी नहीं हुई और न ही लपटों के निशान अभी मिटे हैं, पर ऐसा क्या है कि जो आग लगने के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं उनको दो साल का एक्सटेंशन दिये जाने की तैयारी एम्स प्रशासन और केन्द्र सरकार कर रही है। अगर आग लगने के जिम्मेदार अफसरों व कर्मचारियों को प्रोत्साहन के तौर पर दो साल एम्स में नौकरी का अवसर मिलता है तो ऐसे में एम्स के उन कर्मचारियों का विरोध तेज होगा जो आग लगने के जिम्मेदार अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर हैं। जब एम्स में 17 अगस्त को आग लगी थी तब पूरे देश से इलाज कराने आने वाले मरीजों के सामने विकट समस्या पैदा हो गई थी कुछ मरीज तो आग लगने के कारण अपॉइंमेंट होने के वाबजूद इलाज कराने तक नहीं आ सके थे। हज़ारों मरीजों के रक्त के नमूने जो लिए गऐ वो सब बर्वाद हो गये थे, भर्ती मरीजों को इलाज के दौरान काफी दिक्कत हुई। ऐसे हालात हुए कि एम्स के सीनियर डाक्टरों के ऑफिस भी बंद हुए और उनके कमरों में रखे मरीजो के कागजात भी खाख हो गये थे। डाक्टरों को ओपीडी में मरीजों को देखने में दिक्कत हुई। मौजूदा हालात ये हैं कि डाक्टरों के कमरों की मरम्मत का काम अभी चल रहा है।

एम्स प्रशासन ने माना था कि आग लगने की घटना प्रबंधन की बड़ी लापरवाही है। सबसे चैकानें वाली बात ये सामने आयी है कि घटना के दौरान शैक्षणिक ब्लॉक के आस पास लगे फायर इंस्टिूग्यूसर खाली पड़े थे। ऐसे में अब भी तमाम लापरवाही के मामले सामने आ रहे हैं। डाक्टरों और कर्मचारियों का कहना है कि आग बचाव के लिए पुख्ता इंतजाम नहीं थे, जब आग लगी थी और अब भी ऐसे ही हालात दिख रहे है। अगर आग जैसी कोई घटना सामने आती है तो एम्स का फायर विभाग उसी हालत में खड़ा दिखेगा जैसा कि अगस्त माह में दिखा था क्योंकि एम्स के डाक्टरों का कहना है कि एम्स में इलाज के साथ-साथ एम्स में राजनीति भी जमकर होती है। ऐसे में राजनीतिक लोगों से संबंध होने के कारण कुछ अधिकारी जमकर फायदा लेते है और वे उस काम की जिम्मेदारी हथियां लेते है जिसके लिये उनके पास न तो अनुभव होता है और न ही कोई शैक्षणिक योग्यता जिसके कारण अनहोनी होना स्वाभाविक है। यह सारे का सारा काम उप सुरक्षा अधिकारी संभाल रहे थे। एम्म में आग बुझाने के लिए लगभग 110 कर्मचारियों की टीम है। फिर भी फायर सेफ्टी के कर्मचारी आग को बुझाने में असफल रहे। एम्स के आग बुझाने में लगे एक कर्मचारी ने नाम गोपनीय रखने पर बताया कि एम्स में फायर विभाग में धांधली का आलम ये है कि कोई छोटी सी आग की घटना को महत्व ही नहीं देता है। जिसे दिन आग लगी थी तब कुछ कर्मचारी ऑन स्पॉट ड्यूटी पर ही नहीं थे आग का धुआं जब एम्स परिसर में फैलने लगी तब कुछ कर्मचारियों को तो फोन कर बुलाया गया था। आग बुझाने के लिए पम्प व हाइडेलिक सिस्टम भी है। फिर भी आग बुझाने के दौरान कोई काम न आ सके। ऐसे में तमाम लापरवाह कर्मचारियों के खिलाफ कोई विभागीय कार्रवाई तो दूर बल्कि प्रोत्साहन कर उनको दो साल का एक्सटेंशन यानि दो साल की नौकरी का अवसर दिये जाने की तैयारी की जा रही है।

बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में जहरीली हवा

अजीब विडम्बना है कि समस्या के समाधान पर कोई बात ही नहीं हो रही है, पर आरोप-प्रत्यारोप कर अपनी-अपनी जिम्मेदारी से बचाव किया जा रहा है। ऐसा ही आलम दिल्ली में है। दिल्ली मेें वायु प्रदूषण को लेकर समाधान कम किए जा रहे है बल्कि राजनीति ज़्यादा हो रही है। पिछले कई सालों से सर्दी की दस्तक के साथ ही दिल्ली धुएं की चादर में ढकने लगती है। धुएं के चादर को हटाने के प्रयास कम हुए हैं, राजनीतिक दल एक दूसरे पर आरोप मढ़ कर अपनी जि़म्मेदारी से पल्ला झाड़ते रहे है। जिसके कारण दिल्ली वासी जहरीली सासें लेने को मज़बूर हो रहें और दमा, हार्ट रोगी अस्पतालों व घरों में जहरीली हवा के कारण मर-खप रहे हंै। इसी मुद्दे पर ‘तहलका’ संवाददाता ने राजनीतिक दलो व चिकित्सकों से सम्पर्क किया तो उन्होंने बताया कि जो भी हो रहा है उससे मानव जीवन को बड़ा खतरा है। सबसे गंभीर बात तो ये है कि दिल्ली में वायु प्रदूषण होने के कारण पड़ोसी राज्यों को जि़म्मेदार ठहराया जाता रहा है जिसमेें सबसे अधिक पंजाब राज्य को वहां पराली के जलने से दिल्ली में वायु प्रदूषण होता है। जबकि लगभग ऐसी ही स्थिति हरियाणा और उत्तर -प्रदेश की है यहां पर पराली भारी मात्रा में जलाई जाती है। परंतु हरियाणा और उत्तर-प्रदेश को जि़म्मेदार नहीं माना गया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली में वायु प्रदूषण से निपटने के समाधान में डेनमार्क के कोपनहेगन में आयोजित सी जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन को संबोधित किया। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि आज दिल्ली में 25 फीसद वायु प्रदूषण कम हुआ है। उन्होंने कहा कि दिल्ली में ऑड ईवन के लागू करने से दिल्ली वालों को वायु प्रदूषण से राहत मिली है। डीज़ल वाहनो पर रोक लगाई थर्मल और कोल आधारित पावर प्लांट को कम किया गया है। इंडस्ट्ी को सीएनजी आधारित किया गया है। जिसके लिए उन्हें मुआवज़ा दिया गया है।

दिल्ली मे वायु प्रदूषण को कम करने के लिये टास्क फोर्स का गठन किया जाएगा। उन्होंने बताया टास्क फोर्स के गठन होने से दिल्ली सरकार के मंत्री और अधिकारी काम करेंगे। मुख्यमंत्री ने दिल्ली वालों से उनके साथ कनॉट पेलेस में दिवाली कार्यक्रम में भाग लेने की अपील की है और कहा कि पटाखें नहीं जलाएं । इस बार उनके साथ दिवाली का पर्व मनाएं और लोगों को जागरूक करने के लिये घर -घर जाकर मास्क बड़े पैमाने में बांटे जाएगें । विपक्ष के द्वारा उठाए गये सवालों पर उन्होंने कहा कि प्रदूषण से निपटने के लिये सभी का सहयोग ज़रूरी है। उन्होंने बताया कि मैं शुरू से कहता रहा हूँ कि प्रदूषण और क्लॉईमेंट चेंज के प्रयास तब तक परिणाम नहीं देंगे जब तक सभी लोग बढ़ चढकर इस मामले भाग न लें। मुख्यमंत्री ने पंजाब, हरियाणा और उत्तर-प्रदेश सभी प्रदेश सरकारों से अपील की है वे प्रदूषण को रोकने की कोशिश करें क्योंकि किसानों को दोष नहीं दिया जा सकता है । किसानों को तो अगली फसल की तैयारी करनी होती है

दिल्ली में वायु प्रदूषण के बढने के लिये दिल्ली सरकार को जि़म्मेदार ठहराते हुये दिल्ली भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी ने कहा कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अपनी कमियों के लिए दूसरे राज्यों को जि़म्मेदार मानते रहे है। आप पार्टी केजरीवाल सरकार हर मोर्चे पर असफल है। दिल्ली नगर निगम और लोक सभा चुनाव मेंं हार के बाद आप पार्टी बौखला गई है। ऐसे में केजरीवाल पुरानी हरकतें करने लगे है कि अपनी कमी को छिपाने के लिये दूसरे को जि़म्मेदार ठहरा दो। मनोज तिवारी ने कहा कि केजरीवाल दिल्ली वालों को गुमराह कर रहे है और 56 महीनों की नाकामी और असफलताओं के ढकने के लिये दूसरे राज्यों और सरकारों को जि़म्मेदार मान रहे हैं। ये सिर्फ केजरीवाल के हताशा और निराशा के कारण है। दिल्ली-एनसीआर में बढ़ते प्रदूषण के कारण हार्ट, दमा और अर्थराइटिस रोगियों को काफी दिक्कत होती है। इंडियन हार्ट फाउडेशन के अध्यक्ष डॉ. आरएन कालरा व मैक्स अस्पताल के हार्ट रोग विशेषज्ञ डॉ. विवेका कुमार ने बताया कि वायु प्रदूषण शरीर के प्रत्येक अंग को क्षति पहुचाता है पर सबसे ज्य़ादा हार्ट और दमा रोगी को दिक्कत होती है। अगर वायु प्रदूषण से बचाव के पर्याप्त उपाय न किए गये तो हार्ट और दमा रोगी की जान को खतरा और बढ़ सकता है।

कांग्रेस में शीत युद्ध!

अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस विघटन की कगार पर है। गांधी परिवार के सदस्यों के बीच ही ठन जाए तो कांग्रेस के लिए इससे ज्यादा बुरा और क्या हो सकता है। विश्लेषण कर रहे हैं राकेश रॉकी।

संजय निरुपम व्यथित हैं। अशोक तंवर कांग्रेस से विदा हो गए। आने वाले दिनों में और भी बहुत कुछ घटित होने की संभावना है। व्यथा और नाराज़गियों में डूबी कांग्रेस को लेकर सवाल ही सवाल हैं। सबसे बड़ा यह, कि क्या कांग्रेस ‘दोफाड़’ हो गयी है- राहुल और सोनिया कांग्रेस में। संकेत कुछ ऐसे ही हैं।

अभी तक कांग्रेस में नेताओं की गुटबाजी की खबरें सुर्खयों में रहती थीं। नेता कांग्रेस में आते-जाते रहते थे। शरद पवार से लेकर अशोक तंवर तक पिछले दो दशक में कई नेता कांग्रेस से बाहर हुए लेकिन कांग्रेस अपनी जगह स्थिर रही। कारण था पार्टी की सबसे बड़ी ताकत-गांधी परिवार- का उसके साथ होना। लेकिन अब अचानक गांधी परिवार के बीच ही ‘दरार’ सी दिख रही है। इस दरार के एक छोर पर पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी खड़े हैं तो दूसरे छोर पर सोनिया गांधी और उनके बुजुर्ग समर्थक नेता। तीसरी प्रियंका गांधी, एक किनारे दुविधा की सागर में हैं।

गांधी परिवार के बीच ‘जंग’ की खबरों के बीच सवाल उठ रहे हैं कि क्या राहुल गांधी को बुजुर्ग नेताओं ने सिर्फ इसलिए ‘फेल’ करने की कोशिश की क्योंकि वे राहुल के रहते अप्रसांगिक होने की तरफबढ़ रहे थे और युवा नेता कांग्रेस का नेतृत्व ओडऩे की तैयारी कर रहे थे !

दिल्ली के बंद कमरों में बैठकर सुदूर इलाकों के टिकट तय करने वाले यह बुजुर्ग नेता राहुल के समय कमोवेश अप्रसांगिक हो रहे थे। राजनीति की भाषा में कहें तो इनकी ‘दुकान’ बंद हो रही थी। यह राहुल ही थे जिन्होंने अपने इस्तीफेके बाद यह कहने की हिम्मत की थी कि कांग्रेस को गांधी परिवार से बाहर का अध्यक्ष चुनना चाहिए। लेकिन कांग्रेस के भीतर बुजुर्ग नेताओं ने राहुल की इस कोशिश को बहुत योजनाबद्ध तरीके से किनारे कर अस्वस्थ चल रहीं सोनिया गांधी को दोबारा कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया। क्या कांग्रेस राहुल के युवा और सोनिया गांधी के बुजुर्ग साथियों के बीच बंट गयी है? या संजय निरुपम और अन्य के भीतर की बैचेनी का कोई और कारण है। कहीं संजय शिव सेना में जाने की भूमिका तो तैयार नहीं कर चुके। बड़े सवाल हैं, लेकिन एक बात सच है कि कांग्रेस में राहुल गांधी को किनारे करने की कोशिश हो रही है।

राहुल के काम करने के तरीके पर नजर दौड़ाएं तो सा$फ होता है कि वे कांग्रेस को लोकतंत्रिक तरीके से पुनर्जीवित करने की कोशिश रहे थे। ज़मीन से जुड़े लोगों और आम कार्यकर्ता की सलाह को फैसलों में शामिल करने की राहुल की कोशिश एक खुला सच है। इसी तरह टिकट वितरण में भी वे कार्यकर्ता की सलाह को शामिल करने पर ज़ोर दे रहे थे। बुजुर्ग हो रहे या हो चुके नेता इससे विचलित थे। उन्हें लग रहा था कि इससे तो पार्टी में उन्हें कोइ पूछेगा तक नहीं। उन्हें यह बिलकुल गवारा नहीं था।

राहुल कांग्रेस में कितने अकेले हो चुके हैं यह उनकी गतिविधियों से जाहिर होता है। हाल के लोकसभा चुनाव में जनवरी तक वे पीएम मोदी को गंभीर टक्कर देते दिख रहे थे। लोकप्रियता दिखाने वाले सर्वे राहुल को लगातार मोदी के निकट आते दिखा रहे थे। लोग उनकी बातों को गंभीरता से सुन रहे थे।

लेकिन ‘पुलवामा और बालाकोट ने’ सारा परिदृध्य बदल दिया। मोदी (भाजपा) का ग्राफ अचानक दोबारा ऊपर चढ़ गया। यह देश की राजनीति का ऐसा घटनाक्रम था जिसमें राहुल की कोई भूमिका राजनीतिक दोष या नाकामी नहीं थी। यह ऐसा घटनाक्रम था जिसके असर को इतनी जल्दी और किसी राजनीतिक कलाबाजी से बदला नहीं जा सकता था। राहुल भी नहीं बदल सकते थे। इसलिए माहौल के जोर पर मोदी दोबारा ज्यादा ताकत के साथ सत्ता में लौट आये। लेकिन राहुल पार्टी की हार के बाद कांग्रेस के भीतर ‘अकेले’ से पड़ गए।

राहुल ऐसे नेता नहीं जो तिकड़मबाजी और समर्थकों की ताकत के बूते राजनीति करें। कांग्रेस में इसलिए वे अलग.थलग दिख रहे हैं। वे समर्थकों के होते हुए भी सोनिया के इर्द-गिर्द जमा बुजुर्ग नेताओं को चुनौती नहीं दे पायेंगे। विपक्ष से ज्यादा पार्टी के ही इन नेताओं ने कांग्रेस के भीतर यह विचार स्थापित कर दिया है कि राहुल पार्टी को चुनाव ‘नहीं’ जितवा सकते।

राहुल अध्यक्ष होते हुए भी मर्जी के फैसले नहीं कर पा रहे थे। आठ महीने पहले तीन विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद मुख्यमंत्री चयन के समय ही यह साफ हो गया था। राहुल जिन्हें सीएम बनाना चाहते थे, वे नहीं बने। राहुल का जोर युवाओं को जिम्मा देने का था। ऐसा कांग्रेस की इस बुजुर्ग कोटरी ने ही नहीं होने दिया।

बहुत दिलचस्प बात है कि कांग्रेस की जो युवा ब्रिगेड आज राहुल गांधी के साथ है, इसे किसी और ने नहीं खुद सोनिया गांधी ने बनाया है पार्टी अधयक्ष रहते। तब राहुल और यह सभी नेता काफी युवा थे। सोनिया ने इन्हें बेटों की तरह पार्टी के भीतर बहुत योजनाबद्ध तरीके से ताकत दी। लेकिन समय का फेर देखिये कि सोनिया के अध्यक्ष रहते हुए ही यह युवा नेता किनारे हो रहे हैं

इसका कारण है सोनिया गांधी का बुजुर्ग नेताओं पर ज़रूरत से ज्य़ादा निर्भर हो जाना। कांग्रेस की जैसी हालत है उसमें शायद यह उनकी मजबूरी भी है। अन्यथा सोनिया आज से दस-ग्यारह साल पहले अध्यक्ष के नाते जितनी ताकतवर थीं, उसमें इस तरह की संभावनाओं के लिए जगह ही नहीं थी। सोनिया की रणनीति कांग्रेस में बुजुर्ग और युवा नेताओं का सांझा नेतृत्व बनाने की रही। यह ठीक भी है। लेकिन राहुल के अध्यक्ष बनने के बाद युवा जिस तरह उभरे, उसने बुजुर्ग नेताओं में असुरक्षा का भाव जगा दिया क्योंकि राहुल उन्हें यह सन्देश नहीं दे पाए कि वे उनका भी साथ चाहते हैं।

राहुल दरअसल कांग्रेस का ढांचा बदलना चाहते थे। वे पार्टी सिस्टम को ज्यादा खुला और लोकतांत्रिक बनाना चाहते थे। वे चाहते थे कि संगठन फैसलों से लेकर टिकट वितरण तक में कार्यकर्ता को इन्वॉल्व किया जाये। लेकिन बुजुर्ग नेताओं को लगता है कि इससे उनकी अपनी प्रसांगिकता $खत्म हो जाएगी। जब असुरक्षा की यह भावना उनपर बहुत हावी हो गयी तो उन्होंने राहुल के साथ ही ‘असहयोग’ की नीति अपना ली। इसमें सिर्फ कांग्रेस का नुक्सान हुआ है।

सिर्फ छह महीने पहले तक कांग्रेस अध्यक्ष और पार्टी के भविष्य के पीएम उम्मीदवार  राहुल गांधी आज कांग्रेस में अकेले और चुपचाप हैं। उनके बनाये लोगों को सोनिया गांधी के दोबारा अध्यक्ष बनने के बाद एक.एक करके निपटा दिया है। उनके बहुत से समर्थकों को चुनावों में टिकट से महरूम कर उनकी ज़मीन खत्म की जा रही है। इनमें ज्य़ादातर ऐसे हैं जो ज़मीन से जुड़े कार्यकर्ता हैं और लगातार पार्टी के लिए काम करते रहे हैं। राहुल अपने मन की कांग्रेस बनाने से कुछ कदम ही दूर रह गए। यह राहुल ही कर सकते थे कि कांग्रेस में गैर गांधी अध्यक्ष बनाने की ईमानदार और बहुत लाभकारी सलाह दें, खुद अपना पद त्यागकर। भले इसके पीछे ‘बहाना’ लोकसभा चुनाव में हार का हो। राहुल कांग्रेस को कभी कमजोर नहीं कर रहे थे बल्कि एक ऐसा स्वरूप देने की कोशिश कर रहे थे, जो संगठन को ज़मीन से जोडक़र स्थाई मजबूती दे।

अब सोनिया गांधी और उनके बुजुर्ग सलाहकारों के सामने हरियाणा और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव कांग्रेस को जिताने की बड़ी चुनौती है। सभी टिकट उनकी मर्जी से बंटे हैं। जिम्मेदारियां उनकी मर्जी से दी गयी हैं। चुनाव प्रचार का पूरा नियंत्रण उनके लोगों के हाथ में है। ऐसे में कांग्रेस को जीतना चाहिए। नहीं जीती तो सोनिया के इन बुजुर्ग सलाहकारों के पास क्या जवाब होगा। राहुल के नेतृत्व में तो कांग्रेस ने 2018 की दिसंबर में तीन प्रदेशों में विधानसभा चुनाव जीते थे।

दुविधा में प्रियंका

कांग्रेस की इस सारी जंग में महासचिव प्रियंका गांधी का क्या रोल है? शायद फिलहाल कोई नहीं। यह भी सा$फ नहीं कि कांग्रेस को चलाने के लिए वे सोनिया गांधी की सोच के साथ हैं या राहुल गांधी की। फिलहाल तो वे उत्तर प्रदेश पर फोकस करती दिख रही हैं।

प्रियंका गांधी ने 2019 के लोक सभा चुनाव के दौरान कांग्रेस की स्थिति को नजदीक से देखा है। इस चुनाव में पहली बार वे अमेठी और रायबरेली से बाहर निकलकर दूसरे प्रदेशों में प्रचार के लिए निकलीं। पार्टी की बड़ी हार के बाद वे कमोवेश हर बड़ी बैठक का हिस्सा रही हैं। उन्होंने मां सोनिया गांधी और उनके बुजुर्ग समर्थकों से लेकर राहुल गांधी और उनके युवा समर्थकों तक के विचार बैठकों में सुने हैं। कांग्रेस में ऐसे बहुत से नेता हैं जो यह मानते हैं कि राहुल गांधी के मुकाबले प्रियंका  पार्टी को ज्यादा आक्रमक तरीके से खड़ा कर सकती हैं। लेकिन ऐसे भी बहुत हैं जो यह मानते हैं कि राहुल बहुत बेहतर भाषा वाला भाषण न दे सकने के बावजूद एक नेता के रूप में ज्यादा बेहतर हैं।

अपना नाम न छपने की शर्त पर एक युवा कांग्रेस नेता ने कहा – ‘‘गांधी परिवार के बिना कांग्रेस नहीं चल सकती। कारण नेतृत्व का है। हमारे पास बहुत से नेता हैं लेकिन वे गांधी परिवार से बाहर दूसरे के नेतृत्व में काम नहीं करेंगे। प्रियंका गांधी दुविधा में हो सकती हैं लेकिन इसमें कोइ दो राय नहीं कि आम लोगों और पार्टी के बीच उनकी लोकप्रियता है। वे ‘अथॉरिटी’ के साथ काम करती हैं और साथ ही कार्यकर्ताओं को पुचकारने में भी उनका कोइ सानी नहीं। उनके विपरीत राहुल गांधी के काम में अभी तक शक्तियों के विकेन्द्रीकरण की सोच झलकती है। पार्टी में इन दो युवा गांधियों की सोच को लेकर भी बंटबारा है। ‘‘एग्रेसिव सोच वाले’’ प्रियंका को पसंद करते हैं जबकि ‘‘गांधीवादी और ज्यादा लोकतांत्रिक’’ सोच वाले राहुल के साथ हैं।

कांग्रेस नेताओं से बातचीत के बाद यह बात भी छनकर सामने आती है कि सोनिया गांधी चुनाव नतीजों के बाद राहुल गांधी के इस्तीफा देने से ज्यादा खुश नहीं थीं। वे राहुल के गैर गांधी को अध्यक्ष बनाने की सोच से भी बहुत ज्यादा सहमत नहीं थीं, हालांकि उनकी इस असहमति के पीछे ज्यादा तर्क उनके बुजुर्ग सलाहकारों के थे जो राहुल के नेतृत्व संभालने के बाद कांग्रेस की राजनीति में बियावान की तरफ जाते दिख रहे थे। राहुल गांधी और सोनिया गांधी के बुजुर्ग समर्थक नेताओं के बीच जंग सिर्फ संगठन तक सीमित नहीं है। उन राज्यों में भी जहाँ कांग्रेस की सरकारें हैं। सबसे बड़े उदाहरण राजस्थान और मध्य प्रदेश हैं।  राजस्थान में उपमुख्‍यमंत्री सचिन पायलट की मुख्‍यमंत्री अशोक गहलोत से नहीं पैट रही। दोनों दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े दिखते हैं। मध्‍य प्रदेश में ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया का कमलनाथ के साथ छतीस का आंकड़ा साफ़ दृष्टिगोचर होता है। हाल में देश के बड़े मुद्दों तीन तलाक़ और जेके में धारा 370 पर कांग्रेस पूरी तरह बंटी दिखी थी। दो राज्यों महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव के बीच राहुल गांधी का विदेश चले जाना इस बात का संकेत है कि वो बहुत ज्यादा खफा हैं। पार्टी के कामकाज में रु चि न दिखाने से जाहिर होता है कि वे पार्टी के भीतर बुजुर्ग नेताओं की ‘‘कारगुजारी’’ से घोर असहमति रखते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस के बीच अध्यक्ष पद से हटने के बावजूद राहुल गांधी ही धुरी बने हुए हैं और भाजपा भी राहुल को ही सबसे ज्यादा निशाने पर रखती है। जनता में भी राहुल को अभी तक कांग्रेस का ‘‘असली चेहरा’’ माना जाता है।

भाजपा पार्टी के नाते और मोदी सरकार दोनों कांग्रेस के घोर विरोधी हैं। खुद पीएम मोदी के निशाने पर हमेशा गांधी परिवार रहा है। यहाँ तक कि वे कमोवेश हर जनसभा में जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी का नाम लेना नहीं भूलते।  प्रियंका फिलहाल उत्तर प्रदेश की राजनीति पर फोकस करती दिख रही हैं। प्रियंका ने उतर प्रदेश की जनता के बीच रहने के लिए लखनऊ में घर ढूंढ़ लिया है। यही नहीं संगठन में भी उनकी नई टीम सामने आ गयी है। यूपी कांग्रेस का नया अध्यक्ष दो बार के विधायक अजय कुमार लल्लू को बनाया है जिन्हें प्रियंका गांधी की पसंद माना जाता है।

इसी तरह आराधना मिश्रा कांग्रेस विधायक दल की नेता बनाई गई हैं जो वरिष्ठ कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी की बेटी हैं। आराधना प्रतापगढ़ की रामपुर खास सीट से विधायक  हैं। उन्हें भी अजय की तरह प्रियंका का करीबी माना जाता है। याद रहे प्रियंका गांधी की ‘‘गंगा यात्रा’’ में वे बहुत सक्रिय दिखी थीं। प्रियंका की नई टीम बहुत छोटी है। पिछली टीम के 500 लोगों के मुकाबले उनकी  टीम में महज 67 चेहरे हैं। टीम की औसत उम्र 40 साल है। अध्यक्ष समेत 45 फीसदी सदस्य पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों से हैं जबकि स्वर्ण 20 फीसदी और दलित भी इतने ही फीसदी हैं। सलाहकार परिषद में 18 वरिष्ठ नेता हैं लेकिन तमाम वरिष्ठ लोगों को इसमें कोई जगह नहीं मिली है।

लखनऊ में घर ले लेने से साफ़ है कि प्रियंका गांधी पूरी तरह उत्तर प्रदेश पर फोकस कर रही हैं। प्रियंका ने अपने लिए जो घर चुना है वह लखनऊ के पॉश गोखले मार्ग पर है। यह बँगला गांधी परिवार की रिश्तेदार पूर्व केंद्रीय मंत्री शीला कौल का है। कौल परिवार बाहर रहता है और यह बंगला बंद पड़ा था। दो मंजिल के इस घर के बाहर काफी चौड़ी सडक़ भी है। दिलचस्प यह है कि इस घर के प्रवेश द्वार पर बरगद का जो पेड़ लगा है वह और किसी ने नहीं, महात्मा गांधी ने लगाया था। पिछले दिनों में प्रियंका गांधी ने वह हर मुद्दा उठाया है जो उत्तर प्रदेश से जुड़ा रहा है। उन्नाव रेप मामला हो या शाहजहांपुर की घटना। सोनभद्र का मामला रहा हो या कोई और। प्रियंका ने हर बार इसपर योगी सरकार और भाजपा को घेरा है।

इसमें कोइ दो राय नहीं कि प्रियंका के सामने यूपी में बहुत बड़ी चुनौती है। साल  1989 के बाद पार्टी सत्ता से बाहर है। पारंपरिक वोट बैंक पार्टी से छिटक चुका है।  संगठन भी लचर हो चुका है। ऐसे में प्रियंका के पास यूपी जैसे सबसे बड़े राज्य में अपनी राजनीतिक क्षमता दिखाने का अवसर भी है।

कुछ खास ब्यान

‘सोनिया गांधी के लोग राहुल गांधी के खिलाफ साजिश रच रहे हैं। लोक सभा चुनाव के ऐन वक्त पर मुझे हटाया गया। मुझे दुख हो रहा है कि उस घटना का असर बढ़ता चला गया। लगता है कि पार्टी को अब संघर्ष करने वाले लोगों की आवश्यकता नहीं है। काम करने वाले लोगों को महत्व देना होगा नहीं तो पार्टी की स्थिति और भी ज्यादा खराब हो जाएगी। मुंबई में कांग्रेस पार्टी ने जिस तरह से अपने प्रत्याशी फाइनल किए हैं, उनमें तीन-चार को छोड़ दें तो शायद बाकी सभी की जमानत जब्त होगी। पार्टी ने बगैर किसी प्रतिक्रिया और किसी सर्वे के विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी फाइनल किए और सिर्फ पसंद और नापसंद के आधार पर नाम तय कर दिए गए।’

संजय निरुपम, मुंबई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष

महाराष्ट्र में भाजपा-सेना आगे, हरियाणा में उलझा है कांटा

दो राज्यों के विधानसभा चुनाव में अभी तक के रुझानों में भाजपा-शिव सेना गठबंधन  महाराष्ट्र में बेहतर करता दिख रहा है और उसकी सरकार बनना कमोवेश निश्चित दिख रहा है। हालांकि, हरियाणा के रुझानों ने भाजपा की नींद उड़ाई है और वहां उसे कांग्रेस कड़ी टक्कर दे रही है। यदि मामला फंसा तो ६-८ सीटों पर आगे दिख रही नई बनी पार्टी जेजेपी ”किंग मेकर” की भूमिका में आ सकती है।

इस बीच भाजपा आलाकमान ने सीएम एमएल खट्टर को दिल्ली तलब किया है। दिलचस्प यह है कि कांग्रेस ने ट्वीट किया है कि वह महाराष्ट्र में शिव सेना को स्पोर्ट करने के लिए तैयार है। ”सामना” में शिव सेना हमेशा कांग्रेस नेता राहुल गांधी की तारीफ़ करती रही है लिहाजा कांग्रेस का यह ट्वीट इस मायने में अहम हो जाता है कि शिव सेना अपना मुख्यमंत्री होने की बात हमेशा कहती रही है।

महाराष्ट्र में अभी तक के रुझानों के मुताबिक कुल २८८ सीटों में से भाजपा १०३, उसकी सहयोगी शिव सेना ७२, कांग्रेस ४१ और एनसीपी ५० सीटों पर आगे चल रहे हैं। वैसे नतीजों को देखा जाए तो भाजपा ने इस चुनाव में महाराष्ट्र  २०१४ के चुनाव के मुकाबले अभी पीछे है जबकि शिव सेना ने हासिल किया है। २०१४ में भाजपा ने १२२ और शिव सेना ने ६३ सीटें जीती थें। वहीँ कांग्रेस की स्थिति २०१४ जैसे ही है जबकि एनसीपी ने गेन किया है। वो अभी तक ५० सीटों पर आगे है जबकि २०१४ में उसने ४१ सीटें जीती थीं।

उधर हरियाणा के रुझान साफ़ कर रहे हैं कि भाजपा का ७५ पार का नारा फुर्र हो गया है और वहां उसे बहुमत तक पहुँचने के लाले पड़ सकते हैं। भाजपा अभी तक वहां ४३ सीटों पर आगे है जबकि कांग्रेस ३१ पर आगे है। हरियाणा में बार-बार आँखड़े बदल रहे हैं लिहाजा अंतिम नतीजा क्या रहेगा, अभी कहना मुश्किल है। यह साफ़ है कि हरियाणा में स्थानीय मुद्दे भारी पड़े हैं।

1984 के दंगों में फिर फंसे कमलनाथ

1984 के भूत का डर कांग्रेस नेता और मध्यप्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री कमलनाथ को अभी भी सता रहा है। लगभग 35 सालों के बाद कमलनाथ अभी भी कांग्रेस गृह मंत्रालय द्वारा गठित विशेष जांच दल के कटघरे में खड़े हैं। आधिकारिक अधिसूचना के अनुसार केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा गठित विशेष जांच दल ने सिख विरोधी दंगों से जुड़े सात मामलों को फिर से खोलनेका फैसला किया है। जहां आरोपियों को या तो बरी कर दिया गया या मुकदमा बंद कर दिया है। एसआईटी ने इस मामले केा फिर से खोल दिया है और वश्ष्ठि अनुभवी कांग्रेस नेता के खिलाफ नए सबूतों पर विचार करने की संभावना है।

इस मामले को फिर से खोलने की घोषणा के तुरंत बाद शिरोमणि अकाली दल के नेता मनजिंदर सिंह सिरसा, जो इस मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठा रहे है उन्होंने ट्वीट किया, ‘अकाली दल के लिए एक बड़ी जीत। एसआईटी ने

1984 के सिख नरसंहार में शामिल होने के लिए कमलनाथ के खिलाफ मामला खोला।’ नौ सितंबर को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मामले को फिर से खोलने के लिए अपनी मंजूरी दे दी। एसआईटी 31 अक्तूबर 1984 को नई दिल्ली के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के नरसंहार में उनकी भूमिका के लिए कमलनाथ के खिलाफ नई जांच करेगी।

कमलनाथ शुरू में इस मामले के आरोपी थे, लेकिन अदालत ने उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं पाया। अब 72 वर्षीय बुजुर्ग कांग्रेसी नेता और गांधी परिवार के वफादार नेता को परेशानी हो रही है क्योंकि लंदन के पत्रकार संजय सूरी ने भी मामले में खुलासा करने को तत्परता (इच्छा) व्यक्त की है। पत्रकार संजय सूरी के 15 सितंबर के एसआईटी को अपने बयान दर्ज कराने के लिए उचित समय और तारीख देने के लिए लिखा था। शिरोमणि अकाली दल के नेता मनजिंदर सिंह सिरसा ने ट्विटरपर सूरी के पत्र को सांझा किया।

वास्तव में 1984 के सिख विरोधी दंगों के मामले के मुख्य गवाह मुख्तार सिंह विशेष जांच दल (एसआईटी) के सामने अपना बयान पहले ही दर्ज करवा चुके हैं। इससे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता कमलनाथ भी मुश्किलें बढ़ गई हैं। यह पहली बार है जब मुख्तार सिंह तीन सदस्यीय एसआईटी की टीम के सामने अपना बयान दर्ज कराने के लिए उपस्थित हुआ। एक उन्मादी (क्रोधित) भीड़ द्वारा 2 नवंबर 1984 को गुरूद्वारा रकाबगंज में सिखों की हत्या के बारे में उनका बयान दर्ज किया गया है।

यह याद किया जा सकता है कि गवाहों ने आरोप लगाया था कि कमलनाथ ने मध्य दिल्ली के रकाबगंज गुरूद्वारे के बाहर भीड़ का नेतृत्व किया था और उनकी उपस्थिति में दो सिख मारे गए थे। दंगों की जांच कर रहे नानावती आयोग ने दो लोगों की गवाही सुनी थी, जिसमें तत्कालीन इंडियन एक्सपे्रस के पत्रकार संजय सूरी, जिन्होंने बताया था कि कमलनाथ मौके पर मौजूद थे। हालांकि कमलनाथ ने कहा कि वे मौके पर मौजूद थे और लोगों के शांत करने का प्रयास कर रहे थे। नानावती आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि कमलनाथ के शामिल होने की कोई सबूत नहीं है, जिससे सिख समुदाय में गुस्सा था।

इस बीच मनजिंदर सिंह सिरसा में के्रंदीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की और 1984 के सिख विरोधी दंगों के मामले में गवाहों की सुरक्षा की मांग करते हुए आरोप लगाया कि वह इस मामलेे में गवाहों की सुरक्षा के लिए डरते है। हम गवाहों की सुरक्षा के लिए डरते है और इस तरह उन्हें पूरी सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए। इस मामले की सुनवाई में तेजी लाई जानी चाहिए ताकि कमलनाथ को उनके अपराध के लिए  सज़ा दी जाए। शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) ने यह भी मांग की है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता को उनकी कथित भूमिका के लिए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। सिरसा ने यह मांग भी की है कि कांग्रेस अध्यक्ष को तुरंत कमलनाथ का इस्तीफा ले लेना चाहिए और उन्हें अपने पद से हटा देना चाहिए ताकि सिखों को न्याय मिले।

उत्तर प्रदेश कांग्रेस में फेरबदल

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने आखिरकार सोनभद्र, उन्नाव और शाहजहांपुर के पीडि़तों को न्याय दिलाने के लिए आक्रामक अभियान के दौरान कांगे्रस नेतृत्व की ज़मीनी स्तर की क्षमता का आकंलन करने के बाद राज्य कांग्रेस नेतृत्व में फेरबदल किया। सोनभद्र के भूमिहीन मज़दूरों पर क्रूर गोलीबारी, जिसमें 10 लोग मारे गए, जबकि उन्नाव और शाहजहाँपुर के मामलों ने उजागर किया कि कैसे भाजपा नेताओं के साथ जो बलात्कार जैसे मामले में आरोपी है उनके साथ पुलिस ने कैसे व्यवहार किया और सबूतों को नष्ट किया।

प्रियंका ने नई टीम को दो बार के विधायक अजय कुमार लल्लू को सौंप कर, राज्य के पार्टी अध्यक्ष और सिने-स्टार राज बब्बर का स्थान दिया। संसदीय चुनावों के तुरंत बाद बब्बर ने पार्टी के खराब प्रदर्शन के लिए नैतिक आधार पर इस्तीफा दे दिया, जो राहुल गांधी के अमेठी निर्वाचन क्षेत्र को भी नहीं बचा सका।

इस बार नवगठित समिति में केवल युवा और ऊर्जावान कार्यकतार्ओं को जगह मिली। प्रियंका ने लगभग 500 पदाधिकारियों की राज्य समिति को केवल 40-45 तक सीमित कर दिया। वह उन्हें अपनी नियत जिम्मेदारियों के प्रति जवाबदेह बनाने की कोशिश कर रही है ताकि कई तरह के अधिकार उनकी जिम्मेदारियों को कम न करें ।

प्रियंका ने पुराने और नए के मिश्रण पर भरोसा किया। उनका दृष्टिकोण युवाओं को प्रोत्साहित करने लगता है जबकि अनुभवी कांग्रेस कार्यकर्ता महासचिव के लिए सलाहकार परिषद में संतुलन की भूमिका निभाएंगे। मोहसिना किदवई, प्रमोद तिवारी, रणजीत सिंह जूदेव, सलमान खुर्शीद, प्रदीप माथुर, निर्मल खत्री, जफर अली नकवी, अनुग्रह नारायण सिंह, अजय कपूर, प्रवीण सिंह आरोन, पी.एल. पुनिया, आर.पी.एन सिंह, राशिद अल्वी, संजय कपूर, राजेश मिश्रा, नसीमुद्दीन सिद्दीकी और विवेक बंसल को इस भूमिका के लिए नामित किया गया है। प्रियंका खुद इस सलाहकार परिषद का नेतृत्व करेंगी।

रणनीति और योजना पर ध्यान केंद्रित किया  है जिसमें जितिन प्रसाद, आर. के. चौधरी, राजीव शुक्ला, इमरान मसूद, प्रदीप जैन आदित्य, राजा राम पाल, बृज लाल खबरी और राज किशोर सिंह। यह समूह पार्टी के विभिन्न विरोध और कार्यक्रमों को आयोजित करने के लिए रीढ़ की हड्डी के रूप में कार्य करेगा।

नई राज्य टीम ने चार उपाध्यक्षों की नियुक्ति की गई है। उनकी भूमिकाएं वीरेंद्र चौधरी (संगठनात्मक पूर्व), पंकज मलिक (संगठन-पश्चिम), ललितेशपति त्रिपाठी फ्रंटल्स सेल एंड डिपार्टमेंट्स (पीवाईसी, एनएसयूआई, ओबीसी, किसान, महिला) और दीपक कुमार फ्रंटल्स, सेल्स एंड डिपार्टमेंट्स (सेवा दल) को सौंपी गई हैं। एससी-एसटी और अल्पसंख्यक)। समिति में 12 महासचिव होंगे, जिनमें आलोक प्रसाद पासी, विश्व विजय सिंह, चौधरी धरम लोधी, राकेश सचान, यूसुफ अली तुरक, अनिल यादव, राजीव त्यागी, वीरेंद्र सिंह गुड्डू, योगेश दीक्षित, राहुल राय, शबाना खंडेलवाल, बदरुद्दीन कुरैशी शामिल हैं।

इस सूची में गुरमीत भुल्लर, विदित चौधरी, राहुल रिछारिया, देवेंद्र निषाद, मोनिंदर सूद वाल्मीकि, विवेकानंद पाठक, देवेंद्र प्रताप सिंह, ब्रह्म स्वरूप सागर, कैसर जहान अंसारी, रमेश शुक्ला, धीरेंद्र सिंह धीरू, सत्यम सिन्हाम, सत्यम सिन्हा, सरिता डोहरे, शाहनवाज आलम, कनिष्क पांडे, अमित सिंह दिवाकर, कुमुद गंगवार, राकेश प्रजापति, मुकेश धनखड़, हरदीपक निषाद, जीतलाल सरोज, सचिन चौधरी और प्रदीप कुमार कोरी समेत 24 सचिव शामिल हैं।

प्रियंका गांधी ने न केवल संसदीय चुनावों में अपने संघर्ष के दौरान, बल्कि योगी आदित्यनाथ सरकार के खिलाफ विरोध मार्च के दौरान सक्रिय युवाओं की पहचान कीं। उन्होंने नई समिति बनाने में क्षेत्रीय और जातिगत संतुलन बनाने की कोशिश की। उनकी नई टीम में 40 से कम आयु वर्ग के युवाओं का वर्चस्व है। उन्होंने मुख्य रूप से सीमांत एमबीसी अन्य पिछड़ी जातियों के श्रमिकों को 45 फीसद प्रतिनिधित्व दिया। 20 फीसद पद एससी-एसटी को दिए गए जबकि 15 फीसद मुसलमानों को पिछड़े मुस्लिमों को विशेष देखभाल के साथ दिए गए। उच्च जातियों ने नई समिति में 20 प्रतिशत की हिस्सेदारी हासिल की। इसलिए जाति और धर्म की राजनीति के प्रभुत्व के बाद अपने पुराने मैदान में हारने वाली सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी का कायाकल्प करने के लिए सभी तरह के संतुलन और सावधानियां बरती गई हैं।

भगवा की बढ़ती ताकत का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस आलाकमान ने अपने शस्त्रागार से आखिरी तीर के रूप में प्रियंका गांधी को लॉन्च किया। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि वह उत्तर प्रदेश की सडक़ों पर योगी आदित्यनाथ के शासन के मुद्दों पर लोगों की दुर्दशा पर अपनी पार्टी के पिछले गौरव को फिर से पाने के लिए किस तरह से कदम उठाती है।

झारखंड में भाजपा ने दलबदल करवा ५ एमएलए साथ मिलाये

विधानसभा चुनाव से ऐन पहले झारखंड में भाजपा ने दूसरे दलों के नेताओं को फोड़ने का काम शुरू कर दिया है। भाजपा इससे पहले दूसरे राज्यों में भी ऐसा करती रही है। बुधवार को गैर भाजपा दलों के ५  विधायक भाजपा में शामिल हो गए।

यह दलबदल करवाकर भाजपा ने चुनाव से पहले विपक्षी पार्टियों को झटका देने की कोशिश की है। सूबे की राजधानी रांची में विपक्षी पार्टियों के यह पांच विधायक सीएम रघुबर दास की मौजूदगी में भाजपा में शामिल हुए। इनमें झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के दो विधायक (कुनाल षाडंगी, जेपी भाई पटेल), कांग्रेस के भी दो  विधायक (सुखदेव भगत, मनोज यादव) और नव जवान संघर्ष मोर्चा के भानु प्रताप शाही भाजपा में शामिल होने वालों में शामिल हैं।

सीएम समेत पूर्व केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा और अन्य नेता इस मौके पर मौजूद रहे। भाजपा दूसरे दलों के नेताओं को चुनाव से पहले अपने साथ मिलाने की परंपरा में आगे बढ़ती दिख रही है। दूसरे राज्यों में भी भाजपा ने यही किया है। भाजपा को उम्मीद है कि दूसरे दलों को अपने साथ मिलाने से उसे चुनाव में बड़ा फायदा होगा।  मन जा रहा है कि भाजपा झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस में बगावत को हवा दे रही है।

इन विधायकों को पार्टी ज्वाइन कराते हुए सीएम रघुवर दास ने कहा – ”जवान संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष भानु प्रताप ने पार्टी का विलय किया है। यह सूबे के लिए सुखद संदेश है।”

कांग्रेस नेता डीके शिवकुमार को जमानत

कांग्रेस नेता पूर्व मंत्री डीके शिवकुमार को दिल्ली हाईकोर्ट से धनशोधन मामले में जमानत मिल गयी है। दिलचस्प है कि यह जमानत मिलने से कुछ देर पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी शिवकुमार से जेल में मिलीं। याद रहे सोनिया पी  चिदंबरम से मिलने भी तिहाड़ जेल गईं थीं।

शिवकुमार को २५ लाख के मुचलके पर जमानत दी गयी है। गौरतलब है कि शिवकुमार मनी लांड्रिंग मामले में इस समय प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की न्यायिक हिरासत में तिहाड़ जेल में बंद हैं। न्यायमूर्ति सुरेश कैत ने उनकी जमानत याचिका पर १७ अक्तूबर को फैसला सुरक्षित रख लिखा था।

उधर कांग्रेस अंतरिमअध्यक्ष सोनिया गांधी ने बुधवार को कर्नाटक कांग्रेस के पूर्व मंत्री डीके शिवकुमार से तिहाड़ जेल में मुलाकात की। सोनिया गांधी और शिवकुमार के बीच लगभग आधे घंटे मुलाकात हुई। कांग्रेस के मुताबिक सोनिया कर्नाटक के वरिष्ठ कांग्रेस नेता शिवकुमार का हालचाल जानने के साथ-साथ उनके प्रति एकजुटता जताने के लिए उनसे मिलने गईं।

शिवकुमार को ईडी ने कुछ हफ्ते पहले गिरफ्तार किया था। सोनिया ने आईएनएक्स मीडिया मामले में गिरफ्तार कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम से भी तिहाड़ पहुंचकर मुलाकात की थी।

सरकार ने ज़्यादातर वादे पूरे किए अमरिंदर का दावा

अपनी सरकार का आधा कार्यकाल पूरा होने के साथ ही मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने अपने मंत्रियों को अपने क्षेत्रों में विकास कार्यों को और गति देने के लिए सभी संबधित विभागों को व्यापक कार्य योजना बनाने और विकास कार्योंं को गतिशील बनाने के लिए क्षेत्र के विधायकों के साथ निकट जुड़ाव बढाने के निर्देश दिए। अपनी सरकार के ढाई साल का कार्यकाल पूरा करने पर मुख्यमंत्री ने और उनकी मंत्रिपरिषद ने पिछले 30 महीनों में सरकार द्वारा किए गए कार्यो की चर्चा की और राज्य की विकास योजनाओं को पूरा करने के लिए आगे बढऩे का मार्ग प्रशस्त किया।

कैप्टन अमरिंदर ने अब तक किए गए कार्यों पर संतोष व्यक्त किया कि सभी विभागों ने अकाली-भाजपा गढबंधन सरकार के 10 साल के शासन में कुप्रबंध के परिणामस्वरूप पैदा हुए वित्तीय संकट के बावजूद सभी विभागों ने अच्छा कार्य किया।

अपनी सरकार के आधे कार्यकाल को रूकने का अवसर और अतीत के काम की समीक्षा करके और दूसरे आधे कार्यकाल के लिए एक विस्तृत रणनीति तैयार करने का अवसर करार देते हुए मुख्यमंत्री ने केंद्रिय कार्य योजनाओं के साथ आगे बढऩे की आवश्यकता को रेखांकित किया। उन्होने अपने मंत्रियों से कहा कि वे अपने क्षेत्रों में विधायकों के साथ मिलकर काम करें और नियमित रूप से उनके इनपुट और फीडबैक लें। उन्होंने विधायकों को अपने निर्वाचन क्षेत्र में कार्य पहचाने और शुरू किए गए विकास कार्यो पर विशेेष ध्यान देने का निर्देश दिया। मुख्यमंत्री ने कहा कि राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टिकोण से भविष्य की रणनीति के लिए यह महत्वपूर्ण था। कैप्टन अमरिंदर सिंह ने ज़ोर दे कर कहा कि राजनीतिक रूप से यह पहचानने की ज़रूरत है कि लोगों के साथ बेहतर तरीके से कैसे जुडऩा है, हमारी उपलब्धियां उनके पास पहुंचनी चाहिए और उनके ज़रूरी मुद्दों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

नीतियों और परियोजनाओं और सुचारू रूप से लागू करने लिए विभागों का पुनर्गठन और महत्वपूर्ण जनशक्ति की भर्ती के महत्व को मुख्यमंत्री ने पहचाना जैसे कि सरकार राज्य के विकास के लिए और अधिक आक्रामक रूप से आगे बढऩे के लिए तैयार है।

मुख्यमंत्री का विचार था कि हर विभाग समग्र रूप से अपनी उपलब्धियों की जांच और समीक्षा करे और उन मु्द्दों पर ध्यान केंद्रित करे जिन्हें अभी तक प्रभावी ढंग से संबोधित नहीं किया गया था या सरकार द्वारा अभी तक पूरा नहीं किया गया था। उन्होंने यह सुनिश्चित करने करने पर ज़ोर दिया कि लोगों की आकाक्षाएं जो वे सरकार से रखते हैं उन्हें पूरा किया जाए।

जबकि सरकार के प्रत्येक सदस्य ने इन 30 महीनों मे अनुकरणीय प्रदर्शन किया। अब और अधिक अच्छा करने का समय है। कैप्टन अमरिंदर ने सभी मत्रियों से और अधिक मेहनत करने और अपने सबंधित विभाग को और अधिक उंचाई पर ले जाने का आह्वान किया।

मुख्यमंत्री ने उनकी सरकार द्वारा किए गए हर वादे काू पूरा करने के लिए अपनी व्यक्तिगत प्रतिबद्धता दोहराई। उन्होंने कहा कि सरकार की 161 घोषणाओं में से 141 पहले ही लागू कि जा चुकी हैं शेष भी क्रियान्वयन की प्रक्रिया में हैं।

कैप्टन अमरिंदर ने स्वस्थ्य, औद्योगिकीकरण, कृषि, कानून और व्यवस्था के मामले में भारत के अग्रणी राज्य के रूप में पंजाब को वापस पटरी पर लाने के लिए ठोस कदम उठाने का आह्वान किया। हर क्षेत्र में जबकि प्रगति हुई है तब भी उनकी सरकार राज्य के सर्वागीण विकास के उच्चतम स्तर को सुनिश्चित करने और हर वर्ग के विकास के लिए वचनबद्ध है।

कांग्रेस पार्टी एंटी इंकाबेंसी की सवारी करके सत्ता में वापस लौटी थी, अकाली-भाजपा गठबंधन के खिलाफ नशीली दवाओं के व्यापार और विकास से चूकने के आरोपों के चलते आम आदमी पार्टी ने सत्ता में आने के लिए एक बडी गंभीर बोली लगाई थी पर वह केवल दूसरे स्थान पर ही बरकरार रह सकी। लोगों ने कैप्टन अमरिंदर द्वारा किए गए वादों पर विश्वास करते हुए प्रचंड बहुमत के साथ कांग्रेस को सत्त में वापिस

लौटा दी। अभी तक सब ठीक चल रहा था। हालांकि जब सरकार अपने आधे कार्यकाल की समाप्ति के निकट थी तो इसने अपनी चमक को कुछ खोना शुरू कर दिया। इसका पहला संकेत था गुरदासपुर में कांग्रेस प्रमुख सुनील जाखड़ की लोकप्रिय अभिनेता सन्नी देओल से हार। इसके बाद जाखड़ ने अपना इस्तीफा दे दिया जो अपेक्षित नहीं था। इसके बाद मुख्यमंत्री के सलाहकार के रूप में में छह विधायकों की नियुक्ति का मामला। यह स्पष्ट था कि पार्टी के अंदर कुछ खलल था। उन्हें सलाहकार नियुक्त करने के कदम पर भी मतभेद था।

अगर हम पंजाब में कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र को याद करें और पढ़े तो ‘‘इन बेअदबी की इन घटनाओं में अब तक न तो कोई अपराधी पहचाने गए हैं और न ही उन्हें न्याय के लिए लाया गया। यह घटनाएं पंजाब की शांति को स्पष्ट रूप से मिल रही धमकियां थी।’’ कांग्रेस पार्टी ने गुरू ग्रंथ साहिब की बेअदबी की घटनाओं पर आक्रोश व्यक्त किया था। अब दो ढाई साल की जांच के बाद मुख्यमंत्री ने एक साक्षात्कार में स्पष्ट कहा है कि पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल इन घटनाओं के पीछे नहीं थे और उन्हें क्लीन चिट दे दी। हंगामें के बाद मुख्यमंत्री कार्यालय ने एक स्पष्टीकरण जारी किया लेकिन साक्षात्कार करने वाला पत्रकार कहानी पर अड़ा रहा। विडंबना यह है कि कैप्टन सरकार की आलोचना केवल राजनीतिक विरोधियों से ही नहीं , बल्कि उनके अपने मंत्रियों और विधायकों से भी होती है।

जून 2015 में गुरू ग्रंथ साहिब कीे बेअदबी का मामला हुआ जब फरीदकोट के गांव बुर्ज जवाहर के गुरूद्वारे से ‘पवित्र गुरू ग्रंथ साहिब ’ की बीड़ चोरी हो गई थी। 12 अक्तूबर को चुराए गई बीड़ के कुछ पन्ने नजदीक के गांव बरगारी में बिखरे पाए गए। दो दिन बाद 14 अक्तूबर को बेहबलकलां में दो प्रदर्शनकारियों को मार दिया गया और कोटकपुरा में प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की गई।

चार महीने बाद चोरी हुए गुरू ग्रंथ साहिब के कुछ पन्ने समीप के गांव बरगारी की सडक़ों पर बिखरे पाए गए। शिरोमणि अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी की सरकार को तब बड़ा झटका लगा जब जनता ने बड़ी संख्या में सडक़ों पर उतरकर अपने ‘‘गुरू’’ के लिए न्याय की मांग की। स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि अकाली दल के नेता अपने निर्वाचन क्षेत्रों में जाने से डरते थे। फिर 14 अक्तूबर 2015 को एक पुलिस कार्रवाई से बेहबलकलां गांव में में दो प्रदर्शनकारियों की हत्या हो गई।

 तत्कालीन मुख्यमंत्री के राष्ट्रीय सलाहकार हरचरण सिंह बैंस ने स्थिति का विश्लेषण करते हुए लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचने के लिए और उन्हें शांत करने के लिए सीनियर बादल से मुआयना करने को कहा। हालांकि अकाली दल जो की पंथिक कारणों का चैपियन होने का दावा करता था उसे बहुत नुकसान हुआ था। दस साल से सत्त से बाहर कांग्रेस ऐसे ही मौके की तलाश में थी और दिसंबर 2015 में कांग्रेस अध्यक्ष और पार्टी के स्टार प्रचारक अमरिंदर ने बठिंडा में रैली ‘पवित्र गुटखा’ साहिब में लेकर इस बेअदबी की घटना के लिए बादल को जिम्मेदार ठहराया था और अपराधियों को पकडऩे की शपथ खाई।

सत्ता में आने के एक महीने के बाद ही सरकार ने पुलिस गोलीबारी की घटना की जांच करने के लिए न्यायमूर्ति रंजीत सिंह आयोग का गठन किया। जब विधानसभा में आयोग की रिपोर्ट पर बहस हुई। बादल और तत्कालीन डीजीपी सुमेध सिंह सैनी के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग उठाई गई और सरकार ने ठोस कार्रवाई करने का वादा किया। हालांकि यह हर किसी के लिए एक सदमे के रूप में सामने आया जब सीबीआई ने एक क्लोजऱ रिपोर्ट दायर की। सिर्फ विपक्ष ने ही नही बल्कि कांग्रेस के विधायकों ने भी आरोपी बादल को बचाने के लिए मुख्यमंत्री को कटघरे में खड़ा कर दिया।

सत्ता में आने के बाद 14 अप्रैल 2017 को कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार ने न्यायाधीश रंजीत सिंह आयोग का गठन किया था। 24अप्रैल 2018 को एसआईटी ने बहबलकलां की घटना में 792 पन्नों कीे चार्जशीट दायर की। सात जून को, डेरा सच्चा सौदा के नेता और एक मुख्य आरोपी मोहम्मद पाल बिट्टू को पालमपुर से पकड़ा गया। बाद में नाभा जेल में उसकी हत्या कर दी गई। 29 अगस्त 2017 को विधानसभा में सात घंटे की बहस के बाद बेअदबी का मामला सीबीआई से वापिस लेने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया था। 19 फरवरी 2019 को आईजी परमराज सिंह उमरानंगल को बेहबलकलां गोलीबारी मामले में गिरतार किया गया था। इससे पहले एसएसपी चरणजीत शर्मा को गिरतार किया गया था। 31 जुलाई जो सीबीआई ने बेअदबी के मामले पर क्लोजऱ रिपोर्ट मोहली की अदालत में दायर की। 26 अगस्त को सबीआई ने दायर याचिका में अदालत से कहा कि आगे की जांच की जा रही है इसलिए क्लोजऱ रिपोर्ट स्वीकार नहीं की जानी चाहिए। दरअसल इससे एक अनावश्यक विवाद पैदा हो गया था और कुछ कांग्रेस के नेताओं ने बादल और कुछ अन्य लोगों को क्लीन चिट देने के मामले में अपनी पीड़ा जनता के बीच जाकर व्यक्त की थी ।

नशीली दवाओं का खतरा

यदि बेअदबी की घटनाओं ने तत्कालीन बादल सरकार के भाग्य में कील लगा दी थी तो नशीली दवाओं के खतरे को गलत साबित करना उसमें अंतिम कील साबित हुआ। स्वाभाविक रूप से कांग्रेस पार्टी ने युवाओं से पंजाब में ड्रग्स का सफाया करने का वादा किया।

कैप्टन अमरिंदर सिंह के पांच साल के कार्यकाल की पहली छमाही में सरकार ने मादक पदार्थों के सेवन और तस्करी और बड़ी गिरतारियों का एक बढ़ा अभियान छेड़ा। पुलिस इसके नेटवर्क की कई परतों को उजागर करने में सफल रही है। हालांकि, नए मामले भी सामने आते रहे। पुलिस ने दावा किया कि ‘उसने लगभग 175 हाई-प्रोफाइल आरोपियों को गिरतार किया है। एसटीएफ नई चुनौतियों के आधार पर अपनी रणनीति में सुधार कर रहा है। हमने हाल ही में नशीली दवाओं के दुरूपयोग के खिलाफ एक 360 डिग्री हमला शुरू किया है। इसमें प्रवर्तन, नशामुक्ति और रोकथाम शामिल हैं। नशेडी का इलाज और नशे की लत में उनके पतन को रोकने के लिए शुरू की गई मित्र प्रणाली में लगभग 5.27 लाख स्वंयसेवक मदद कर रहे हैं। नशेडी को आधुनिक उपचार प्रदान करने के लिए 181 आएट-पेशेंट ओपियाइड ट्रीटमेंट केंद्र हैं। नशे के खिलाफ लड़ाई में केंद्र सरकार भी अब सक्रिय रूप से भाग लेने लगी है। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने पंजाब में अपने कर्मचारियों की संख्या 40 से बढ़ा कर 120 कर दी है। इसने अमृतसर में एक नए यूनिट के साथ उप महानिदेशक स्तर के अधिकारी की नियुक्ति भी की है। इससे पहले उत्तरी राज्यों के लिए चंडीगढ़ में एक इकाई थी।

हम कह सकते हैं कि कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस बहुमत के साथ सत्ता में आने में कामयाब रही इसने अपने कई वादे पूरे किए। नशीली दवाओं की लड़ाई, कृषि कर्ज माफी, उद्योग को पांच रुपए प्रति यूनिट की दर से बिजली, अन्य वर्गों के लिए बिजली शुल्क पर फ्रीज, 2500 रुपए बेरोजग़ारी भत्ता, मुत स्मार्ट फोन, प्रति परिवार एक नौकरी, आत्महत्या करने वाले किसान परिवारों के सदस्य को नौकरी, 1500 रुपए मासिक कल्याण पेंशन, किसानों को प्रत्यक्ष आय सहायता और स्वास्थ्य बीमा योजना कांग्रेस द्वारा किए गए वादों की सूची में से कुछ हैं। थोड़ा संदेह है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह सत्ता पर नियंत्रण रखने में सक्षम रह पाते हैं जबकि उनकी सरकार ने अपने कार्यकाल को आधा सफर पूरा कर लिया है।

वैश्विक गरीबी को कम करने के लिए किए गए शोध से भारत में पैदा हुए अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी को नोबेल पुरस्कार

भारतीय-अमेरिकी अभिजीत बनर्जी, एस्तेर डुफ्लो और माइकल क्रेमर ने संयुक्त रूप से 2019 का नोबेल अर्थशास्त्र पुरस्कार ‘अपने प्रयोगात्मक दृष्टिकोण से वैश्विक गरीबी को कम करने के लिए’ जीता है।

58 वर्षीय बनर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और हार्वर्ड विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की, जहाँ उन्होंने 1988 में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। वे वर्तमान में अपनी प्रोफ़ाइल के अनुसार मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में फोर्ड फाउंडेशन इंटरनेशनल प्रोफेसर ऑफ इकोनॉमिक्स हैं।

2003 में, बनर्जी ने डफ्लो और सेंथिल मुलैनाथन के साथ, अब्दुल लतीफ़ जमील गरीबी एक्शन लैब की स्थापना की, और वह लैब के निदेशकों में से एक बने रहे। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासचिव के 2015 विकास एजेंडा पर प्रख्यात व्यक्तियों के उच्च-स्तरीय पैनल में भी कार्य किया।

अभिजीत बनर्जी, एस्थर डुफ्लो और माइकल क्रेमर द्वारा किए गए शोध ने वैश्विक गरीबी से लडऩे की क्षमता में काफी सुधार किया है। केवल दो दशकों में, उनके नए प्रयोग-आधारित दृष्टिकोण ने विकास अर्थशास्त्र को बदल दिया है, जो अब अनुसंधान का एक समृद्ध क्षेत्र है।

नोबेल पुरस्कार द्वारा जारी विज्ञप्ति के अनुसार, 700 मिलियन से अधिक लोग अभी भी बहुत कम आय पर उप-निर्वाह करते हैं। हर साल, पाँच साल से कम उम्र के लगभग पाँच मिलियन बच्चे अभी भी उन बीमारियों से मर जाते हैं जिन्हें अक्सर सस्ते इलाज से रोका या ठीक किया जा सकता था। दुनिया के आधे बच्चे अभी भी बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक कौशल के बिना स्कूल छोड़ते हैं।

एस्तेर डुफ्लो और माइकल क्रेमर के साथ अभिजीत बनर्जी ने वैश्विक गरीबी से लडऩे के सर्वोत्तम तरीकों के बारे में विश्वसनीय उत्तर प्राप्त करने के लिए एक नया दृष्टिकोण पेश किया है। इसमें इस मुद्दे को छोटे, अधिक प्रबंधनीय, प्रश्नों में विभाजित करना शामिल है – उदाहरण के लिए, शैक्षिक परिणामों या बाल स्वास्थ्य में सुधार के लिए सबसे प्रभावी हस्तक्षेप। उन्होंने दिखाया है कि ये छोटे, अधिक सटीक, प्रश्नों को अक्सर सबसे अच्छे तरीके से डिजाइन किए गए प्रयोगों के माध्यम से उत्तर दिया जाता है जो सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।

लॉरेट्स के शोध के निष्कर्ष – और उनके नक्शेकदम पर चलने वाले शोधकर्ताओं ने – गरीबी से लडऩे की क्षमता में सुधार किया है। उनके एक अध्ययन के प्रत्यक्ष परिणाम के रूप में, पांच मिलियन से अधिक भारतीय बच्चों को स्कूलों में उपचारात्मक ट्यूशन के प्रभावी कार्यक्रमों से लाभ हुआ है। एक और उदाहरण निवारक स्वास्थ्य देखभाल के लिए भारी सब्सिडी है जिसे कई देशों में पेश किया गया है।

वैश्विक गरीबी का मुकाबला करने के लिए, किसी को कार्रवाई के सबसे प्रभावी रूपों की पहचान करनी चाहिए। लंबे समय से अमीर और गरीब देशों के बीच औसत उत्पादकता में भारी अंतर के बारे में जागरूकता है। हालाँकि, जैसा कि अभिजीत बनर्जी और एस्तेर डफ़्लो ने उल्लेख किया है, उत्पादकता न केवल अमीर और गरीब देशों के बीच, बल्कि गरीब देशों के बीच भी बहुत भिन्न है। कुछ व्यक्ति या कंपनियां नवीनतम तकनीक का उपयोग करती हैं, जबकि अन्य (जो समान वस्तुओं या सेवाओं का उत्पादन करते हैं) उत्पादन के पुराने साधनों का उपयोग करते हैं। कम औसत उत्पादकता इस प्रकार काफी हद तक कुछ व्यक्तियों और कंपनियों के पीछे पडऩे के कारण है। क्या यह ऋण की कमी, खराब तरीके से तैयार की गई नीतियों को दर्शाता है, या कि लोगों को पूरी तरह से तर्कसंगत निवेश निर्णय लेने में मुश्किल होती है? इस वर्ष के लॉरेट्स द्वारा डिज़ाइन किया गया शोध दृष्टिकोण बिल्कुल इस प्रकार के प्रश्नों से संबंधित है।

लॉरेट्स के पहले अध्ययनों ने जांच की कि शिक्षा से संबंधित समस्याओं से कैसे निपटा जाए। कम आय वाले देशों में, पाठ्यपुस्तकें दुर्लभ हैं और बच्चे अक्सर भूखे स्कूल जाते हैं। यदि उनके पास अधिक पाठ्य पुस्तकों तक पहुँच होती है, तो क्या विद्यार्थियों के परिणामों में सुधार होगा? या उन्हें मुफ्त स्कूल भोजन देना अधिक प्रभावी होगा? 1990 के दशक के मध्य में, माइकल क्रेमर और उनके सहयोगियों ने इन प्रकार के उत्तर देने के लिए उत्तर-पूर्वी अमेरिका में अपने विश्वविद्यालयों से अपने शोध का एक हिस्सा ग्रामीण पश्चिमी केन्या में स्थानांतरित करने का निर्णय लिया। उन्होंने एक स्थानीय गैर-सरकारी संगठन के साथ साझेदारी में कई क्षेत्र प्रयोग किए।

क्रेमर और उनके सहयोगियों ने बड़ी संख्या में स्कूलों को लिया, जिन्हें काफी समर्थन की आवश्यकता थी और उन्हें अलग-अलग समूहों में विभाजित किया। इन समूहों के स्कूलों में सभी को अतिरिक्त संसाधन प्राप्त हुए, लेकिन अलग-अलग रूपों में और अलग-अलग समय पर। एक अध्ययन में, एक समूह को अधिक पाठ्यपुस्तकें दी गईं, जबकि दूसरे अध्ययन में मुफ्त विद्यालय भोजन की जांच की गई। क्योंकि मौका निर्धारित किया गया था कि किस स्कूल को क्या मिला, प्रयोग की शुरुआत में विभिन्न समूहों के बीच औसत अंतर नहीं थे। इस प्रकार, शोधकर्ता विभिन्न परिणामों के समर्थन में सीखने के परिणामों में बाद के अंतर को विश्वसनीय रूप से जोड़ सकते हैं। प्रयोगों से पता चला कि न तो अधिक पाठ्यपुस्तकों और न ही मुफ्त स्कूल भोजन से सीखने के परिणामों पर कोई फर्क पड़ा। यदि पाठ्यपुस्तकों का कोई सकारात्मक प्रभाव था, तो यह केवल बहुत अच्छे विद्यार्थियों पर लागू होता है।

बाद के क्षेत्र प्रयोगों ने दिखाया है कि कई कम आय वाले देशों में प्राथमिक समस्या संसाधनों की कमी नहीं है। इसके बजाय, सबसे बड़ी समस्या यह है कि शिक्षण विद्यार्थियों की जरूरतों के लिए पर्याप्त रूप से अनुकूलित नहीं है। इन प्रयोगों के पहले में, बनर्जी, डफ्लो, दो भारतीय शहरों में विद्यार्थियों के लिए उपचारात्मक ट्यूशन कार्यक्रमों का अध्ययन किया। मुंबई और वडोदरा के स्कूलों में नए शिक्षण सहायकों को प्रवेश दिया गया जो विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों का समर्थन करेंगे। इन स्कूलों को सरल और बेतरतीब ढंग से विभिन्न समूहों में रखा गया था। इस प्रयोग ने स्पष्ट रूप से दिखाया कि सबसे कमजोर विद्यार्थियों को लक्षित करने में मदद छोटे और मध्यम अवधि में एक प्रभावी उपाय था।

उपर्युक्त अध्ययन ने यह दिखाया  कि कमजोर विद्यार्थियों के लिए लक्षित समर्थन का मध्यम अवधि में भी मजबूत सकारात्मक प्रभाव था। यह अध्ययन एक संवादात्मक प्रक्रिया की शुरुआत थी, जिसमें विद्यार्थियों के समर्थन के लिए बड़े पैमाने पर कार्यक्रमों के साथ नए शोध परिणाम सफल साबित हुए। ये कार्यक्रम अब 100,000 से अधिक भारतीय स्कूलों तक पहुंच गया है।

एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि क्या दवा और स्वास्थ्य देखभाल के लिए शुल्क लिया जाना चाहिए और यदि हां, तो उन्हें क्या खर्च करना चाहिए। क्रेमर और सह-लेखक द्वारा एक क्षेत्र प्रयोग ने जांच की कि कैसे परजीवी संक्रमण के लिए डॉर्मॉर्मिंग गोलियों की मांग कीमत से प्रभावित हुई थी। उन्होंने पाया कि 75 प्रतिशत माता-पिता ने अपने बच्चों को ये गोलियां दीं, जब दवाई मुफ्त थी, 18 प्रतिशत की तुलना में जब उनके पास अमेरिकी डॉलर से कम लागत थी, जो अभी भी भारी सब्सिडी पर है। इसके बाद, कई समान प्रयोगों में एक ही बात सामने आई है: गरीब लोग निवारक स्वास्थ्य देखभाल में निवेश के बारे में बेहद मूल्य-संवेदनशील हैं।

निम्न सेवा गुणवत्ता एक और व्याख्या है कि गरीब परिवार निवारक उपायों में इतना कम निवेश क्यों करते हैं। एक उदाहरण यह है कि टीकाकरण के लिए जिम्मेदार स्वास्थ्य केंद्रों के कर्मचारी अक्सर काम से अनुपस्थित रहते हैं। जांच की गई कि क्या मोबाइल टीकाकरण क्लीनिक – जहां देखभाल कर्मचारी हमेशा साइट पर थे – इस समस्या को ठीक कर सकते हैं। इन क्लीनिकों में 6 प्रतिशत की तुलना में 18 प्रतिशत की दर से बेतरतीब ढंग से चुने गए गाँवों में टीकाकरण की दर तीन गुना हो गई। यह और बढ़ कर 39 प्रतिशत हो गया, अगर परिवारों को उनके बच्चों का टीकाकरण करने पर दाल का एक बैग बोनस के रूप में मिलता था। क्योंकि मोबाइल क्लिनिक में निश्चित लागत का एक उच्च स्तर था, प्रति टीकाकरण की कुल लागत वास्तव में आधी हो गई

टीकाकरण अध्ययन में, प्रोत्साहन और देखभाल की बेहतर उपलब्धता ने समस्या को पूरी तरह से हल नहीं किया, क्योंकि 61 प्रतिशत बच्चे आंशिक रूप से प्रतिरक्षित बने रहे। कई गरीब देशों में कम टीकाकरण दर के अन्य कारण हैं, जिनमें से एक यह है कि लोग हमेशा पूरी तरह से तर्कसंगत नहीं होते हैं। यह स्पष्टीकरण अन्य टिप्पणियों के लिए भी महत्वपूर्ण हो सकता है, जो कम से कम शुरुआत में, समझने में मुश्किल दिखाई देते हैं।

ऐसा ही एक अवलोकन यह है कि बहुत से लोग आधुनिक तकनीक को अपनाने से हिचकते हैं। चतुराई से डिजाइन किए गए क्षेत्र प्रयोग में, जांच की गई कि छोटे शेयरधारकों – विशेष रूप से सबश्रान अफ्रीका में – अपेक्षाकृत सरल नवाचारों को नहीं अपनाते हैं, जैसे कि कृत्रिम उर्वरक, हालांकि वे महान लाभ प्रदान करेंगे। एक स्पष्टीकरण वर्तमान पूर्वाग्रह है – वर्तमान लोगों की जागरूकता का एक बड़ा हिस्सा लेता है, इसलिए वे निवेश निर्णयों में देरी करते हैं। जब कल आता है, तो वे एक बार फिर उसी निर्णय का सामना करते हैं, और फिर से निवेश में देरी करते हैं। इसका परिणाम एक दुष्चक्र हो सकता है जिसमें व्यक्ति भविष्य में निवेश नहीं करते हैं, भले ही ऐसा करना उनके दीर्घकालिक हित में हो।

बंधी हुई तर्कसंगतता में नीति के डिजाइन के लिए महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं। यदि व्यक्ति मौजूद-पक्षपाती हैं, तो अस्थायी सब्सिडी स्थायी लोगों की तुलना में बेहतर है: एक प्रस्ताव जो केवल यहां लागू होता है और अब निवेश में देरी के लिए प्रोत्साहन को कम करता है। यह वही है जो डुफ्लो, क्रेमर प्रयोग में खोज की गई: स्थायी सब्सिडी की तुलना में अस्थायी सब्सिडी का उर्वरक के उपयोग पर काफी अधिक प्रभाव पड़ा।

विकास अर्थशास्त्रियों ने बड़े पैमाने पर पहले से लागू किए गए कार्यक्रमों का मूल्यांकन करने के लिए क्षेत्र प्रयोगों का भी उपयोग किया है। एक उदाहरण विभिन्न देशों में सूक्ष्मजीवों का व्यापक परिचय है, जो महान आशावाद का स्रोत रहा है।

बनर्जी, डुफ्लो ने एक माइक्रोक्रिडिट कार्यक्रम पर एक प्रारंभिक अध्ययन किया, जो हैदराबाद के भारतीय महानगर में गरीब परिवारों पर केंद्रित था। उनके क्षेत्र प्रयोगों ने मौजूदा छोटे व्यवसायों में निवेश पर छोटे सकारात्मक प्रभाव दिखाए, लेकिन उन्हें खपत या अन्य विकास संकेतकों पर कोई प्रभाव नहीं मिला, न तो 18 पर और न ही 36 महीनों में। इसी तरह के क्षेत्र प्रयोगों, बोस्निया-हजऱ्ेगोविना, इथियोपिया, मोरक्को, मैक्सिको और मंगोलिया जैसे देशों में भी इसी तरह के परिणाम मिले हैं।

प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से दोनों के कार्य पर नीति का स्पष्ट प्रभाव पड़ा है। स्वाभाविक रूप से, यह मापना असंभव है कि विभिन्न देशों में नीतियों को आकार देने में उनका शोध कितना महत्वपूर्ण रहा है। हालांकि, कभी-कभी अनुसंधान से नीति तक एक सीधी रेखा खींचना संभव है।

जिन अध्ययनों का हमने पहले ही उल्लेख किया है उनमें से कुछ का वास्तव में नीति पर सीधा प्रभाव पड़ा है। रेमेडियल ट्यूटरिंग के अध्ययन ने अंतत: बड़े पैमाने पर सहायता कार्यक्रमों के लिए तर्क प्रदान किया जो अब पाँच मिलियन से अधिक भारतीय बच्चों तक पहुँच चुके हैं। निर्जलीकरण के अध्ययन से न केवल यह पता चला है कि ओसिंग स्कूली बच्चों के लिए स्पष्ट स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है, बल्कि यह भी है कि माता-पिता बहुत मूल्य-संवेदनशील हैं। इन परिणामों के अनुसार, डब्ल्यूएचओ ने सिफारिश की है कि उन क्षेत्रों में रहने वाले 800 मिलियन से अधिक स्कूली बच्चों को मुफ्त में दवा वितरित की जाती है जहां 20 प्रतिशत से अधिक में एक विशिष्ट प्रकार का परजीवी कृमि संक्रमण होता है।

इन शोध परिणामों से कितने लोग प्रभावित हुए हैं इसका भी मोटे तौर पर अनुमान है। ऐसा एक अनुमान वैश्विक शोध नेटवर्क से आया है जिसमें दो लोरेट्स ने पाया; नेटवर्क के शोधकर्ताओं द्वारा मूल्यांकन के बाद जिन कार्यक्रमों को बढ़ाया गया है, वे 400 मिलियन से अधिक लोगों तक पहुंचे हैं।

हालांकि, यह स्पष्ट रूप से कुल शोध प्रभाव को कम करता है, क्योंकि सभी विकास अर्थशास्त्री छ्व-क्क्ररु से संबद्ध हैं। गरीबी का मुकाबला करने के लिए काम करना भी अप्रभावी उपायों में पैसा नहीं लगाना है। सरकारों और संगठनों ने कई कार्यक्रमों को बंद करके अधिक प्रभावी उपायों के लिए महत्वपूर्ण संसाधन जारी किए हैं जिनका मूल्यांकन विश्वसनीय तरीकों का उपयोग करके किया गया था और अप्रभावी दिखाया गया था।

सार्वजनिक निकायों और निजी संगठनों के काम करने के तरीके को बदलकर, लॉरेटेस के अनुसंधान पर भी अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है। बेहतर निर्णय लेने के लिए, वैश्विक गरीबी से लडऩे वाले संगठनों की बढ़ती संख्या ने नए उपायों का मूल्यांकन करने के लिए व्यवस्थित रूप से शुरुआत की है, जो अक्सर क्षेत्र प्रयोगों का उपयोग करते हैं।

इस वर्ष के लॉरेट्स ने विकास अर्थशास्त्र में अनुसंधान को फिर से शुरू करने में एक निर्णायक भूमिका निभाई है। सिर्फ 20 वर्षों में, यह विषय एक समृद्ध, मुख्य रूप से प्रायोगिक, मुख्यधारा के अर्थशास्त्र का क्षेत्र बन गया है। इस नए प्रयोग-आधारित शोध ने पहले से ही वैश्विक गरीबी को कम करने में मदद की है और इस ग्रह पर सबसे कमजोर लोगों के जीवन को और बेहतर बनाने की क्षमता है।