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भारतीय नौसेना की पहली महिला पायलट

महिलाएँ दिन-ब-दिन इतिहास रच रही हैं। वे अब रक्षा क्षेत्र में भी अपना लोहा मनवा रही हैं। रक्षा क्षेत्र को अपना करियर चुनने वाली ये महिलाएँ हर मोर्चे पर पुरुषों से कमतर नज़र नहीं आना चाहतीं। इसी कड़ी में 2 दिसंबर को कोच्चि के नैवल बेस पर सर्विलांस एयरक्राफ्ट उड़ा भारतीय नौसेना में देश की पहली महिला पायलट बनने का गौरव सब लेफ्टिनेंट शिवांगी सिंह को मिला। वाइस एडमिरल एके चावला ने जून, 2018 में औपचारिक तौर पर उन्हें कमीशन किया था। शिवांगी जिस सर्विलांस विमान को उड़ाएँगी, वह छोटी दूरी के समुद्री मिशन पर भेजे जाते हैं, जो एडवांस सर्विलांस रडार, इलेक्ट्रॉनिक सेंसर और नेटवॄकग जैसे कई अहम उपकरणों से लैस होते हैं। नैवी से पहले भारतीय वायुसेना के लिए इसी साल फाइटर विमान मिग-21 उड़ाने वाली महिला पायलट बनने का गौरव भावना कान्त के नाम दर्ज है।

केरल के कोच्चि के नैवल बेस पर ऑपरेशनल ड्यूटी के दौरान शिवांगी हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के तैयार किये गये ड्रोनियर 228 एयरक्राफ्ट उड़ाएँगी। तमाम अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस यह प्लेन भारतीय समुद्र क्षेत्र पर निगरानी रखेगा। भारतीय सेना में 100 महिला सैनिकों का पहला बैच 2021 में शामिल हो सकता है। इन महिला सैनिकों को भारतीय सेना के कोर ऑफ मिलिट्री पुलिस में कमीशन किया जाएगा।

नौसेना दिवस यानी 4 दिसंबर को महज 24 साल की उम्र में शिवांगी को बैज दिया गया। फिक्स्ड विंग एयरक्राफ्ट पायल और डॉर्नियर विमान को नियंत्रित करेंगी। नौसेना में पायलट के 735 पदों में से 91 खाली हैं, रक्षा मंत्रालय के अनुसार, नौसेना में महज 6.7 प्रतिशत महिला अफसर हैं।

बचपन का सपना पूरा

बिहार के मुजफ्फरपुर के तिलहर की रहने वाली हैं शिवांगी सिंह। इन्होंने अपनी पढ़ाई डीएवी पब्लिक स्कूल बखरी से की है। 2010 में उन्‍होंने सीबीएसई से 10वीं की परीक्षा 10 सीजीपीए से पास की थी। इसके बाद साइंस स्‍टूडेंट के तौर पर उन्‍होंने 12वीं की पढ़ाई

पूरी की। शिवांगी ने स्कूली पढ़ाई के बाद सिक्किम मणिपाल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से बीटेक की डिग्री हासिल की। इसके बाद 2017 में जयपुर के मालवीय नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमएनआइटी) में एमटेक की पढ़ाई के लिए एडमिशन भी ले लिया; लेकिन इसी बीच सेलेक्‍शन एसएसबी में हो गया। और नेवी में सब लेफ्टिनेंट के रूप में चयनित हुईं। शिवांगी ने कन्नूर के एझीमाला में भारतीय नौसेना अकादमी (आईएनए) में नैवल ओरिएंटेशन कोर्स किया।

ट्रेनिंग लेने के बाद उन्हें नेवी की पहली महिला पायलट के रूप में चयनित की गयीं। शिवांगी  जून, 2018 में वाइस एडमिरल एके चावला के नेतृत्त्व में औपचारिक तौर पर नेवी में कमीशंड हुई थीं। प्रशिक्षण के बाद शिवांगी कोच्चि में डोर्नियर ट्रेनिंग स्क्वाड्रन आईएनएएस  550 (लाइंग फिश) से डॉर्नियर कन्वर्जन कोर्स पूरा करने के लिए चली गयी थीं। शिवांगी ने अपनी सफलता का श्रेय अपने माता-पिता को दिया। पिता हरि भूषण सिंह सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल और माँ प्रियंका गृहिणी हैं। बचपन में ही जब उसने अपने घर के पास एक हेलीकॉप्टर उड़ते दखा था, तभी से मन में पायलट बनने का सपना संजो लिया था। उसने ठाना था कि एक दिन फाइटर पायलट ज़रूर बनेंगी।

मन के मौसम पर क्या पाबंदी?

बाहर झमाझम बारिश हो रही है। अठखेलियाँ करतीं बूँदे अपने घर से बाहर निकल आयी हैं और मौसम बदलने की आहट दे रही हैं। मैं परीक्षा भवन में नये फूलों की तरह खिले चेहरों की निगरानी में तैनात हूँ…यह मानकर कि मेरी नज़र इन पर टिकी रहने तक ही ये ईमानदार हैं—‘नज़र हटी, दुर्घटना घटी’ की तर्ज पर! मन में सवालों का अंबार लगा है— क्या हर ओर नज़र रखकर ही ईमानदारी सुनिश्चित की जा सकती है? चाहे घर हो या राजनीति!

सामने ग्राहम फर्मेलो की किताब ‘द यूनिवर्स स्पीक्स इन न बर्स’ रखी है। कौन जाने यूनिवर्स किस भाषा में क्या कहती है? पर फिर भी बावरा मन जानना चाहता है कि ग्राहम फर्मेलो क्या सोचते हैं इस विषय पर? नियमानुसार इस तयशुदा व्यवस्था में किताबें पढऩा भी मना होता है, मानना भी होगा, पर मन ललचाता है किताब को देखकर! वैसे तो नहीं जैसे पद देखकर पाने के लिए किसी भी हारे या जीते प्रत्याशी का करने लगता है और वो शोर मचाने लगता है कि कोई तो खरीद लो, कई बार खरीदार मिल जाता है, कई बार बेचारे प्रत्याशी को कोई खरीदने वाला नहीं मिलता और उसे कुछ बरस तक इंतज़ार करना पड़ता है। मन को रोकना पड़ता है मुझे….’ मन के मते ना चालिए, मन के मते अनेक’ और फिर नज़र टिक जाती है, इन नन्हे-मुन्ने चेहरों पर, थोड़े डरे, थोड़े घबराये, अपनी उम्मीदों से लड़ते हुए और किसी अनजाने लक्ष्य के लिए नज़र टिकाये हुए ये अपने जीवन की इस छोटी-सी परीक्षा में टिके हुए हैं।

पर मेरे मन का सवाल वहीं टिका हुआ है। हर एक की ईमानदारी को किसी सहारे की ज़रूरत क्यों? क्या हर जीवन एक विक्रम है, जिस पर ईमान का बेताल टिककर उसे हर वक्त पूछता और चेताता रहे कि तुझे वही करना चाहिए, जो सही है? यह बेताल तो भीतर रहता है न! फिर यह विवेक भीतर से क्यों नहीं आता। इस सवाल ने खलबली मचायी हुई है। राजनीति में जिस तेजी से खरीद-फरोख्त बढ़ी है और विचारधारा को ताक पर रखकर खरीदे जाने और बिकने की होड़ मची है, उसने इस सवाल को और बड़ा कर दिया है। यहाँ नैतिकता का सवाल बेमानी हो जाता है। आप सही हैं या गलत, आपकी विचारधारा से हमारी सहमति है या नहीं, यह अलग सवाल है पर हर दल पहले अपनी विचारधारा की लड़ाई लड़ता था और उसी विचारधारा को लेकर जनता के सामने जाता था। जनता उसकी विचारधारा और उसकी सही-गलत छवि, मान्यताएँ और दलगत मान्यताओं के आधार पर उसे वोट देती थी। पर अब तो बहुत अजीब-सा तूफान मचा है चारों ओर। कौन, किसे खरीदेगा और कौन कब किसके हाथों बिक जाएगा? इसका सम्बन्ध अब तो न विचार से हैं न विचारधारा से! जनता कन्फ्यूज्ड है और मैं भी कि आिखर वोट किसे दिया था! व्यक्ति को, दल को, विचार को या विचारधारा को? सब गड्डमड्ड हो गया है।

तो क्या ईमानदारी सुनिश्चित करने के लिए ही होटल में बंद किया जाता है? ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ की तर्ज पर? कहीं चॉपर लाकर अपने विधायकों को सुरक्षित जगह पर पहुँचाना और कहीं होटलों में बन्द कर उनकी उपस्थिति सुनिश्चित करना ही उनकी नैतिकता को बचाने का मानदंड बन गया है।

लोकतंत्र में बेईमानी को पहचानने के लिए जनता को केन्द्र माना जाता था और पद को लोभ, लालच और स्वार्थ से परे रखकर लोक कल्याण की भावना को केन्द्र में रखकर इसकी परख की जाती थी। गाँधी जी ने लोकतंत्र और राजनीति का सूत्र देते हुए कहा कि राजनीति लाखों पद दलितों को सुन्दर जीवन यापन करने के योग्य बनाने, मानवीय गुणों का विकास करने, स्वतन्त्रता, समानता, बंधुत्व को प्राप्त करने के लिए किया जाने वाला प्रयास है और यह कार्य केवल साधुओं द्वारा ही किया जा सकता है। लीजिए हो गयी ना समस्या! गाँधी जी ने राजनीति में दखल देने के लिए साधुता को अनिवार्य शर्त माना, पर उसके लिए उन्होंने निगरानी में रखकर साधुता बचाने की शर्त तो नहीं रखी! वैसे भी सुना है कि नंगे-बच्चे लोग सडक़ पर जब अपने अधिकारों के लिए उतरते हैं और समाज को बदलने की कोशिश करते हैं, तभी मौसम बदलता है। होटलों में बन्द करके, जिनसे बहुमत प्रमाणित करना-कराना पड़े, वे दुनिया को कैसे बदलेंगे! मुक्तिबोध ने लिखा था- ‘जो है उससे बेहतर चाहिए/पूरी दुनिया को साफ रखने के लिए मेहतर चाहिए।’ पर इस विचार के साथ तो लोग अब राजनीति में आते ही नहीं, वे तो शासक बनने आते हैं। लोकतंत्र इसी शासकीय व्यवस्था के प्रतिरोध में जन्मा था और अब लोकतंत्र राजतंत्र होना चाहता है। इतना गड्डमड्ड कैसे हो गया सब?

अच्छा एक बात यह भी है कि हम कह सकते हैं कि इसके िखलाफ कड़े कानून बनाने चाहिए और सख्ती से उसका पालन होना चाहिए। अक्सर डंडे के ज़ोर पर नीति और नियम बनाये जाने की रणनीति का हम सब कहीं जाने-अनजाने समर्थन करते ही रहे हैं। पर क्या उससे कुछ बदल जाता है। पहले ही कानूनों की कमी है क्या? समस्या यह है कि एक बनी-बनायी व्यवस्था के तहत हम सभी शब्दों को रट तो लेते हैं, पर उनके भीतर नहीं उतर पाते। पर प्रकृति तो हमें नियमितता और अनुशासन भी सिखाती है। अगर सूरज निकलने से मना कर दे या चाँद या हवा बहने से मना कर दे, तो क्या होगा हमारा? प्रकृति जब-जब उच्छृंखल हुई है, केवल तबाही हुई है। तो फिर उस प्रकृति का सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अंश, जिसे मनुष्य कहा जाता है, वह इतना गैर-अनुशासित और सीमाहीन कैसे होता जा रहा है? जब हमें आज़ादी मिलती है, तो हम सब उसकी सीमाओं को परिभाषित नहीं कर पाते, बल्कि उच्छृंखल, सीमाहीन हो जाते हैं। कहीं इसका सम्बन्ध हमारी शिक्षा व्यवस्था की खामियों से नहीं है। सोचा जाना चाहिए- हमारी शिक्षा व्यवस्था हमें शब्दों को रटाती तो है; पर उसका अर्थ नहीं समझाती। ‘तोतोचान’ जापान के तोमोए स्कूल में पढ़ती थी। उसके हेडमास्टर थे— श्री सोसाकु कोबायाशी। द्वितीय विश्वयुद्ध में तोमोए जलकर समाप्त हो गया। ऐसे में स्कूल कैसे बनायें? और पढ़ेगा कौन? जैसे सवाल एक बड़ा सवाल था; पर उससे भी ज़रूरी था हेडमास्टर साहब द्वारा दिया गया प्यार और संरक्षण से बनाया गया माहौल। वे मानते थे कि सभी बच्चे स्वभाव से अच्छे होते हैं। उनके अच्छे स्वभाव को उभारने, सींचने और सँजोने, विकसित करने की ज़रूरत है। स्वाभाविकता मूल्यवान है। चरित्र यथा सम्भव स्वाभाविकता के साथ निखरे।

बच्चों को पूर्व निश्चित खाँचों में डालने की कोशिश न करें। उन्हें प्रकृति पर छोड़ो। उनके सपने तुम्हारे सपनों से कहीं अधिक बड़े हैं।’ (तोतोचान पुस्तक से उद्धृत)

क्या ये तोतोचान के हेडमास्टर साहब का सूत्र हमें भविष्य की सही दिशा नहीं देता? आज हमारी शिक्षा पद्धति किसी भी चरित्र निर्माण पद्धति को प्रस्तावित नहीं करती, बल्कि एक अन्धी दौड़ में भागते हुए कुछ नौकरियों की दावेदारी करने लायक न्यूनतम डिग्री देने की घोषणा करती है। एक छोटे-से सेमेस्टर में •यादा-से-•यादा रटकर एक परीक्षा पास करने-भर को मूल्यांकन की बेहतरीन प्राविधि मान लिया गया है; जिसका उद्देश्य केवल पैसा और पैसा, •यादा पैसा-भर है। ‘दैहिक, दैविक, भौतिक ताप तीनों ही हम पर हावी हैं। ऐसे में अगर राजनीति को करियर मानकर जाने वाला आदमी अगर धन और बल देखकर उसकी ओर खिंचा चला जाता है, तो कहीं इसका दोष मूल में भी ढूँढना होगा। राजनीति को चरित्र निर्माण की जिस पाठशाला कहकर गाँधी जी ने हमें राजनीति का पाठ पढ़ाया था, वह आज एक बड़े बदलाव की माँग कर रही है। जन-नायकों, जन-प्रतिनिधियों की भूमिका संदिग्ध है। जनता के अधिकारों पर विस्तार से विचार की ज़रूरत है। लोकतंत्र की जिस परिभाषा में जाति, धर्म से हटकर सर्वधर्म समता की बात कही जाती है, उस नीति-निर्देशिका पर बल दिये जाने की ज़रूरत है। आज हमें ठहरकर सोचना चाहिए कि यश और अर्थ में से हटकर हम चरित्र की जिस गिरावट की ओर बढ़ रहे हैं, उसका असर अन्य जगहों पर भी दिखाई दे रहा है; सिर्फ राजनीति में ही नहीं, समाज के हर तबके में, हर ओर।

जो भी हो, पर मेरा विश्वास है कि होटलों में बन्द करके ईमानदार बनाने की मुहिम नहीं चलायी जा सकती, चाहे बात किसी भी दल की हो। अच्छा बहुत हुआ, वापस आयें न बारिश की बूँदों की तरफ। इन बूँदों को भी बादल ऐसे ही रोक लें तो? लो रुक ही गयीं बँूदें! लगता है, इन पर भी निगरानी बिठा दी गयी है—चलो घर के भीतर, जब कहा जाए, तब निकलना। ऐसे अविश्वास से मौसम बदल सकेगा और बदलेगा भी तो कब तक? बैठे ठाले परीक्षा भवन में सोच रही हूँ। अब पढ़ तो नहीं सकते, यहाँ पर मन के मौसम पर क्या पाबंदी? आप भी सोचिए कि जिस लोकतंत्र की लड़ाई और अपना संविधान पाने की लड़ाई हमने लड़ी थी, वहाँ से कहाँ आ गये हम?

सडक़ हादसों में 70 फीसदी मौतों का कारण है सिर में चोट

देश में वर्तमान में हो रहे सडक़ हादसों में हर साल करीब 1600 सैन्यकर्मी अपनी जान गँवा रहे हैं। यह आँकड़ा सेना की करीब दो बटालियनों के बराबर आंका गया है।’ बाताते हैं कर्नल हेल्थ ऑफ हैडक्वार्टर मुम्बई, गुजरात एंड गोवा सब एरिया श्रीनिवास।

न्यूरोलॉजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया (एनएसआई) की ओर से मुम्बई में रोड सेफ्टी पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में इस गम्भीर विषय पर चर्चा की गयी। एशियन-ऑस्ट्रेलियन कांग्रेस ऑफ न्यूरोलॉजिकल सर्जन्स न्यूरो ट्रामा कमेटी के चैयरमैन व सवाई मानसिंह अस्पताल, जयपुर के न्यूरोसर्जन डॉ. विरेंद्र डी. सिन्हा के अनुसार भारत में सिर में चोट की वजह से करीब 70 फीसदी मौतें होती हैं, जो कि विश्व में सर्वाधिक हैं। भारत में दुर्घटनाओं के दौरान सिर में चोट लगने से छ: में से एक की मौत हो जाती है, जबकि अमेरिका में यह आँकड़ा 200 में से एक है। दरअसल, सिर में चोट लगने के कारण ट्रामैटिक ब्रेन इंजरी (टीबीआई) होने का खतरा सबसे •यादा होता है। यदि दुर्घटना के बाद गोल्डन अवर यानी एक घंटे के भीतर घायल व्यक्ति को अस्पताल पहुंचाया जाना चाहिए।

‘मगर अफसोस इस बात का है कि हमारे देश में करीब 24 फीसदी मरीज ही इस अवधि में अस्पताल पहुँच पाते हैं। चिन्ताजनक बात ये है कि देश में दुर्घटना के समय फस्टऐड नहीं मिलने की वजह से ही सडक़ हादसों में से 20 प्रतिशत लोगों की मौत हो जाती है। डॉ. सिन्हा अफसोस के साथ अपनी बात पूरी करते हैं। एनएसआई के चेयरमैन व चेन्नई के न्यूरो सर्जन डॉ. के. श्रीधर ने सिर में चोट के उपचार में न्यूरो सर्जन्स की कमी पर चिन्ता ज़ाहिर करते हुए कहते हैं- ‘भारत में 132 करोड़ की आबादी पर महज़ तीन हज़ार न्यूरो सर्जन्स हैं। इस लिहाज़ से लगभग 40 लाख की आबादी पर एक न्यूरो सर्जन है, जबकि अमेरिका में तीन हज़ार की आबादी पर एक न्यूरो सर्जन है।’

ऐसी गम्भीर स्थित से जूझने के लिए िफलहाल महाराष्ट्र में करीब 300 तथा अकेले मुम्बई के सरकारी व प्राइवेट मेडिकल कॉलेज तथा हॉस्पिटल्स में लगभग 150 न्यूरो सर्जन्स हैं। रोड सेफ्टी के सचिव व हिन्दुजा हॉस्पीटल, मुम्बई के न्यूरो सर्जन डॉ. केतन देसाई बताते हैं कि विश्व में सडक़ हादसों में लगभग पाँच करोड़ से अधिक लोग सामान्य चोटों का सामना करते हैं, जबकि कई चोटों के कारण •िान्दगी-भर के लिए अपाहिज हो जाते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, सिर में चोट से होने वाली मौत का आँकड़ा चिन्ता जनक है। साल 2018 में कुल हादसों में से 35.2 फीसदी यानी एक लाख 64 हज़ार 313 हादसे दोपहिया वाहनों के हुए हैं, जिनमें 31.4 फीसदी अर्थात् 47 हज़ार 560 लोगों की मौत हो गयी, जबकि 1 लाख 53 हज़ार 585 लोग घायल हुए। इन हादसों में करीब 70 फीसदी की मौत सिर में चोट की वजह से होती है। देश में सडक़ हादसों की वजह से सर्वाधिक मौत का शिकार 18 से 35 वर्ष आयुवर्ग के युवा हो रहे हैं। वर्ष 2018 में हुए कुल हादसों में 48 फीसदी यानी कुल 72 हज़ार 737 युवाओं (18 से 35 वर्ष आयुवर्ग) की मौत हुई, जो कि देश के लिए गम्भीर चिन्ता का विषय है। सडक़ परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के मुताबिक, वर्ष 2018 में सडक़ हादसों के मामले में 199 देशों में से भारत विश्व में नम्बर वन है। यहाँ सडक़ हादसों में 0.46 फीसदी की दर से बढ़ोतरी दर्ज की गयी। देश में वर्ष 2018 में 4 लाख 67 हज़ार 44 सडक़ दुर्घटनाओं में एक लाख 51 हज़ार 417 लोगों की मौत हुई, जबकि 4 लाख 69418 लोग घायल हुए। उन्होंने कहा कि भारत में रोजाना 1280 हादसों में 415 लोगों की मौत हो जाती है, यानी हर घंटे 53 हादसों में 17 लोगों की जान गँवानी पड़ रही है। यदि बात महाराष्ट्र व राजस्थान की कि जाए तो महाराष्ट्र में साल 2018 में 35717 हादसों में 13261 जने मौत का शिकार हुए हैं, जबकि राजस्थान में 21743 सडक़ हादसों में 10320 लोगों को जान गँवानी पड़ी। दुनिया के कम-मध्यम और मध्यम आय वाले देशों में भले ही इन देशों में दुनिया के लगभग 60 प्रतिशत वाहन हैं लेकिन इनमें सडक़ हादसों की संख्या का आँकड़ा 93 प्रतिशत है।

इंटरनेशनल रोड सेफ्टी कॉन्फ्रेंस के चैयरमेन डॉ. बीके मिश्रा के अनुसार, देश में सडक़ दुर्घटनाओं के परिणामस्वरूप लगभग 1.51 लाख लोग हर साल मरते हैं। सभी सडक़ हादसों में आधे से अधिक असुरक्षित सडक़ उपयोगकर्ता यानी पैदल यात्री, साइकिल चालक और मोटरसाइकिल चालक मौत का शिकार होते हैं।

रोटरी क्लब के डिस्ट्रिक गर्वनर हरदीप सिंह तलवार न बताया कि सडक़ दुर्घटनाओं में अधिकांश देशों के जीडीपी का 3 प्रतिशत खर्च होता है। एनएसआईसे जुड़े व मुम्बई के ग्लोबल हॉस्पीटल के न्यूरो सर्जन डॉ. सुरेश सांखला का मानना है कि देश-भर में इमरजेंसी नम्बर एक ही होना चाहिए। हमारे देश के हर राज्य में अलग-अलग एम्बुलेंस नम्बर हैंं; जबकि विदेशों में एक ही इमरजेंसी नम्बर होता है। िफल्म अभिनेत्री दिव्या जगदाले कहती हैं कि इन आँकड़ों को देखकर मैं भी बुरी तरह से घबरा गयी हूँ युवाओं कोरोड सेफ्टी को लेकर सतर्कता बरतने बहुत ज़रूरत है। सडक़ दुघर्टना के तुरन्त बाद घायलों को दिये जाने वाले प्राथमिक उपचार के बारे में वीडियो के ज़रिये जानकारी देते हुए बॉलीवुड एक्टर व कोरियोग्राफर विकास सक्सेना एवं आरजे देवांगना कहते हैं कि रोड सेफ्टी के बारे में जानकारी देना यह हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए, इसके चलते ही इस तरह की दुर्घटना हो मैं कमी आएगी।

…तो शायद ही आज हरिद्वार होता!

वर्ष 2018 में मशहूर पर्यावरणविद्, इंजीनियर, वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी सानंद (प्रोफेसर जी. डी. अग्रवाल) को गंगा की अविरलता के लिए आन्दोलन करना भारी पड़ा और उन्हें अपनी जान गँवानी पड़ी। उत्तराखंड में लोहारीनाग-पाला और भैरोंघाटी में बनने वाली जल विद्युत परियोजनाओं के वे िखलाफ थे। उन्होंने कुछ वैज्ञानिकों के साथ मिलकर गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए रिपोर्ट तैयार कर सरकार को दी थी, पर वे स्वयं इसका उत्तर नहीं पा सके।

पर्यावरणविद्, धर्माचार्य और चिंतक ऐसा मानते हैं कि बिजली पैदा करने के लिए गंगा और सहायक नदियों पर बाँध परियोजनाएँ उचित नहीं हैं। इन परियोजनाओं के कारण पर्वतीय क्षेत्रों के वनों का नुकसान हो रहा है। जानकारों का कहना है कि उत्तराखंड में बांध और बिजली परियोजनाओं की मार उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, चमोली, पिथौरागढ़, टिहरी •िालों पर पड़ी है। नदियों को जिन सुरंगों के माध्यम से बाँधों तक पहुँचाया गया है, वे कई किलोमीटर तक लम्बी हैं और कच्चे पहाड़ों को खोदकर बनायी गयी हैं। भागीरथी घाटी का क्षेत्र अतिसंवेदनशील होने के कारण वहाँ बड़े निर्माण करना उचित नहीं है। गीता प्रेस के विशेषांक गंगा अंक में प्रकाशित लेख ‘गंगा के अस्तित्व को देवभूमि के 450 बाँधों से खतरा’ में कहा गया है कि कुछ बाँध जैविक विविधता वाले 2200 से 2500 मीटर के शीर्ष पर्वतों पर स्थित हैं। ये क्षेत्र मूल रूप से हिमनद और संवेदनशील पर्यावरण के लिए सघन क्षेत्र में आता है। इस क्षेत्र में वर्षा होने पर भारी संख्या में पर्वतों से भू-स्खलन और रेत गिरने का संकट पैदा होता रहता है, जिससे हिमालयीय हिमनद पीछे खिसकने को विवश होते हैं। ऐसे में ये बाँध इस क्षेत्र में तबाही का तांडव मचाते हैं, जैसा कि उत्तराखंड में वर्ष 2013 की केदारनाथ त्रासदी के रूप में सामने आ चुका है।

प्रकृति से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि इस त्रासदी का मूल कारण हिमालय जैसे संवेदनशील पर्वत पर गंगा नदी पर बाँध बनाने के लिए पहाड़ों का कटना, सुरंगें निकालना, जल-विद्युत परियोजनाएँ और वनों का कटना है। टिहरी बाँध के कारण उस भू-भाग में अनेक प्रकार की वनस्पति और दुर्लभ जड़ी-बूटियाँ खत्म हो गयीं। इसके अलावा अन्य कई कारणों से पर्यावरण पर भी प्रतिकूल असर पड़ा। पर्यावरणविद् विमल भाई आज की जीवन शैली को पर्यावरण विरोधी मानते हैं। वे कहते हैं कि ‘प्रकृति सहती रहती है लेकिन जब स्थितिया हद पार कर जाती हैं, तो वह प्रतिक्रिया व्यक्त करती हैं। उत्तराखंड में गंगा ने रौद्र रूप दिखाया और मकान, वाहन, पशु, इंसान सबको बहाकर ले गयी। हमने नदी को तबाह किया और फिर नदी ने किसी को नहीं बख्शा।’ इसलिए बाँध जैसी बड़ी योजनाओं पर विस्तार से चर्चा और चिंतन करके प्रकृति-सम्मत समाधान आज के समय की माँग है। अगर टिहरी बाँध टूटता है, तो केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय के एक दस्तावेज़ के अनुसार, नुकसान इस तरह हो सकता है-

गंगा अंक में प्रकाशित ‘अगर टिहरी बाँध टूटा तो’ जानकारी में अमेरिकी भूकंपवेत्ता प्रोफेसर ब्रने के हवाले से कहा गया है कि यदि उनके देश में यह बाँध होता, तो इसे कदापि अनुमति न मिलती; क्योंकि यह बाँध भारतीय विशेषज्ञों ने तैयार किया है, रिएक्टर स्केल पर 9 की तीव्रता का भूकम्प ही सहन कर सकता है। इससे अधिक तीव्रता का भूकम्प आया तो यह धराशायी हो जाएगा। इस बाँध के टूटने पर समूचा आर्यावर्त, उसकी सभ्यता नष्ट हो जाएगी। हरिद्वार और ऋषिकेश का तो नामोनिशाँ ही न बचेगा।’

शास्त्रों में नदियों को विराट पुरुष की धमनियाँ कहा गया है; माने नदियों के प्रवााह को अध्यात्म की यात्रा के संकेत के तौर पर लिया गया है। विद्वानों की मानें तो गंगा की पापनाशक क्षमता के पीछे गंगा का अखण्ड जल-प्रवाह है। प्राचीन भारतीय संस्कृति इस पक्ष का समर्थन नहीं करती कि गंगा के पावन जल-प्रवाह को किसी भी अकृत्रिम ढंग से बाधित किया जाए। लोक हित में गंगा का अखण्ड जल-प्रवाह की कल्याणकारी है। नदी को ज्योति, इस ओर पवित्रता की धारा में देखा गया है।

नदी के अखण्ड जल-प्रवाह को इस आख्यान से समझा जा सकता है। वैदिक संस्कृति में गोविन्द चन्द्र पाण्डेय लिखते हैं कि ‘नदियों के जन्म का आख्यान इन्द्र के प्रधान पराक्रम से जुड़ा हुआ है। पौराणिक कथा के अनुसार, वृत्र ने एक समय जल को पर्वत की गुफा में छुपा दिया था और नदियों के प्रवाह को रोक दिया था, जिससे सारा विश्व त्राहि-त्राहि कर उठा। गंगा के जल से देवताओं के यज्ञकर्म और अनुष्ठान सम्पन्न होते थे। इन्द्र ने वृत्र पर अपने वज्र के प्रहार से अवरुद्ध हुई नदियों के जल को फिर से प्रवाहित किया था। गंगा पर बाँध बनाने के सवाल पर वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों और प्रकृति विज्ञानियों के अलग-अलग विचार हैं। कुछ छोटे बाँधों का समर्थन करते हैं, तो कुछ बड़े बाँधों की उपयोगिता बताते हैं। दिल्ली के मौसम वैज्ञानिक डॉ. आनन्द शर्मा छोटे बाँधों के पक्षधर हैं। उनका कहना है कि इससे एक तो पर्यावरण को •यादा नुकसान नहीं होता, दूसरा लोगों का पलायान कम होता है। इसलिए छोटे बाँध ही बनाये जाने चाहिए।

सिंचाई विभाग, उत्तराखंड के चीफ इंजीनियर (मैकेनिकल) एन. के. यादव छोटे बाँधों को ‘रन ऑफ द रिवर’ कहते हैं। इनमें 24 घंटे का पानी स्टोरेज भी नहीं है। उनके अनुसार जल भण्डारण के लिए बड़े डैम ज़रूरी हैं। गंगोत्री से मनेरी तक अविरल गंगा के मुद्दे पर यादव का कहना है कि वहाँ कोई भी डैम नहीं है। वहाँ पर जो प्रोजेक्ट बने हुए हैं रन ऑफ द रिवर हैं। उनका तो यह कहना है कि जो लोग बाँध बनाने का विरोध करते हैं, अगर उनको गंगा की इतनी चिन्ता है और बिजली के पॉवर प्रोजेक्ट नहीं चाहते, तो वे कुटिया बनाकर रहें। बिना बिजली कनेक्षन के रहें, बिना एसी गाडिय़ों के चलें।’ यादव कहते हैं कि जब समय का परिवर्तन हो चुका है, तो उन्हें स्वीकार करना होगा। आज के लिए विद्युत-उत्पादन उतना ही ज़रूरी है, जितना कि अन्न उत्पादन। उन्होंने तर्क दिया कि पहले 1962 तक हमारा देश गेहूँ का आयात करता था; लेकिन आज निर्यात होता है। सिंचाई के साधन बढ़े, फसल बढ़ी और अन्न उत्पादन बढ़ा है। अगर पानी का उपयोग मानव के लिए नहीं होता, तो इसे भी अपरध ही कहा जा सकता है।

राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान रुडक़ी के वरिष्ठ वैज्ञानिक एम.के. गोयल गंगा पर बाँध न बनाने को लेकर मेरे सवाल पर अपना सवाल करते हैं- ‘आप अपने घर की छत पर टैंक क्यों बनाते हो? जब घंटे-दो घंटे ही सरकारी पानी की सप्लाई आये, उस पर निर्भर रहो। लेकिन वे समझाते हैं कि नदियों पर बाँध बनाना उचित है। डॉ. गोयल कहते हैं कि अगर टिहरी बाँध न होता, तो शायद ही आज हरिद्वार होता। वर्ष 2013 की उत्तराखंड में आयी बाढ़ की त्रासदी की समय टिहरी बाँध खाली था; लेकिन पानी का बहाव 26 मीटर तक था। उनका कहना है कि छोटे बाँधों से लाभ नहीं है। खर्च अधिक, विस्थापन अधिक होता है; लेकिन बड़े बाँध एक बार की लागत से बन जाते हैं। तेज़ी से बढ़ती हुई जनसंख्या का हवाला देते हुए उनका कहना है कि जनसंख्या की बढ़ती माँगों की पूर्ति के लिए विकास चाहिए। गंगा की धारा अविरल कैसे रहे? बीच का रास्ता क्या हो? इस पर व्यवस्था के साथ ही विकास होना चाहिए।

ऋषिकेश      80 किमी     63 मिनट     250 मीटर

हरिद्वार 104 किमी    80 मिनट     232 मीटर

बिजनौर 179 किमी    4 घंटे 45 मिनट     17.72 मीटर

मेरठ  214 किमी    7 घंटे 25 मिनट     9.85 मीटर

हापुड़  246 किमी    9 घंटे 50 मिनट     8.78 मीटर

बुलंदशहर     266.5 किमी   12 घंटे 8.5 मीटर

गांगुली का कार्यकाल बढ़ेगा तो बाकी खेल संगठनों का क्यों नहीं?

बीसीसीआई के अध्यक्ष सौरभ गांगुली का कार्यकाल बढ़ाने की तैयारी में है। बोर्ड ने आम बैठक में अपने पदाधिकारियों के कार्यकाल को बढ़ाने के बारे में मंज़ूरी दे दी है। ध्यान रहे सौरभ गांगुली ने 23 अक्टूबर को बीसीसीआई के अध्यक्ष का पद सँभाला था और उन्हें अगले साल यह पद छोडऩा होगा। पर यदि उन्हें कार्यकाल बढ़ाने की छूट मिल जाती है, तो वे 2024 तक इस पद पर रह सकते हैं। बीसीसीआई ने तो यह फैसला ले लिया है, लेकिन देश की सर्वोच्च अदालत की मंज़ूरी के बिना इसे लागू नहीं किया जा सकेगा।

पिछले दिनों बीसीसीआई की बैठक में लोढ़ा समिति की सिफारिशें में बदलाव को मंज़ूरी दे दी गई है। इसके बाद उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों के कार्यकाल में बढ़ोतरी की जा सकेगी। बीसीसीआई इन सभी संशोधनों को सर्वोच्च अदालत की मंज़ूरी के लिए भेजेगी। बीसीसीआई के मौज़ूदा संविधान के अनुसार, यदि पदाधिकारी ने बीसीसीआई या इसकी राज्य इकाई में कुल मिलाकर तीन साल के दो कार्यकाल पूरे कर लिये हैं, तो उसे तीन साल के लिए किसी भी पद पर नहीं लिया जा सकेगा। इस अवधि को ‘कूलिंग’ अवधि का नाम दिया गया है। इन नियमों के तहत गांगुली अगले साल जुलाई तक ही इस पद पर रह पाएँगे। वे पाँच साल तीन महने तक बंगाल क्रिकेट संघ के अध्यक्ष रह चुके हैं। 23 अक्टूबर को वह बीसीसीआई के अध्यक्ष बने। ऐसे में वे इस पद पर वह केवल नौ महीने ही रह पाएँगे।  देखना ज़रूरी है कि आिखर सर्वोच्च अदालत ने इस प्रकार के नियम क्यों लागू किये थे। वे क्या हालात थे, जिनके कारण देश की सर्वोच्च अदालत को बीसीसीआई के काम में दखल देना पड़ा। देश में क्रिकेट ही नहीं, बाकी खेल संगठनों पर इक्का-दुक्का लोगों का कब्ज़ा होकर रह गया था। जो एक बार अध्यक्ष बना व दशकों तक उस कुर्सी को छोड़ता ही नहीं था। सारे खेल संगठन एक-दो लोगों की बपौती बनकर रह गये थे। देश में खेलों का स्तर गिरता जा रहा था और ओलंपिक खेलों में भारत किसी भी टीम स्पर्धा और एथलेटिक्स में बहुत ही खराब प्रदर्शन कर रहा था। इसके अलावा क्रिकेट संघ खुद को देश कानून और नियमों से कहीं ऊपर समझ रहा था। कई स्थानों पर जहां क्रिकेट के अंतर्राष्ट्रीय मैच करवाये गये वहाँ पर ड्यूटी पर तैनात किये गये सुरक्षा कर्मचारियों के बिल बरसों तक नहीं भरे गये। हालात ऐसे थे कि छोटे-मोटे प्रशासनिक अफसर तो इनके काम में दखल तक नहीं दे सकते थे। यह भी आरोप लगे कि मोहाली और धर्मशाला में बने क्रिकेट स्टेडियम नियमों, कानूनों की धज्जियाँ उड़ाकर बनाये गये।

इसकी वजह थी, बीसीसीआई में तब प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के नेता और नौकरशाह काबिज़ थे। राजनीतिक मंचों पर एक-दूसरे के कट्टर आलोचक क्रिकेट संघ में आते ही समर्थक बन जाते थे। इस तंत्र को तोडऩे के लिए लोढ़ा समिति बनायी गयी थी। इसी समिति ने कुछ सिफारिशें की थीं, जिनको •यादातर खेल संगठनों ने मान लिया, पर बीसीसीआई ने इन्हें इस आधार पर मानने से इन्कार कर दिया कि सरकार से कोई वित्तीय मदद नहीं लेते, इस कारण सरकार इसमें दखल नहीं दे सकती। पर देश की सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि कोई भी खेल संगठन सरकार और देश से ऊपर नहीं है। इस वजह से उसे उन सभी नियमों और कानूनों का पालन करना होगा, जो बाकी खेल संगठन करते हैं। अब यदि बीसीसीआई को अपने पदाधिकारियों का कार्यकाल बढ़ाने की मंज़ूरी मिल जाती है, तो बाकी खेल संगठनों को कैसे रोका जा सकता है। फिर पहले जैसे ही हालात हो जाएँगे, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। लोढ़ा समिति की सिफारिशों के चंगुल से बचने के लिए कुछ खेल संगठनों ने उन्हें ‘ट्रस्ट’ में या ‘फाउण्डेशन’ में तब्दील कर लिया है। अब वहाँ चुनाव नहीं होते ‘ट्रस्टी’ नियुक्त होते हैं। सरकार को इस पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। यह भी देखना होगा कि क्या ये ‘ट्रस्ट’ या ‘फाउण्डेशन’ देश के लिए टीमों का चयन कर सकते हैं? क्या इनकी सिफारिश पर खिलाडिय़ों को किसी प्रकार की वित्तीय सहायता सरकार दे सकती है या नहीं? ये कुछ नये मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान देने की ज़रूरत है।

सचमुच रिटायर होंगे बिग बी!

75 साल से भी ज़्यादा उम्र के एक बुजुर्ग र्काकार हैं अमिताभ बच्चन, जिन्हें बुजुर्ग कह दो, तो सारी दुनिया एक सुर में चिल्लाकर जवाब देती है- बुड्ढा होगा तेरा बाप।

ऐसा होना स्वाभाविक भी है; क्योंकि अमिताभ के पास ऐसी स्फूर्ति, लगन और सकारात्मकता है कि वे वृद्ध होने के फ्रेम में बिलकुल फिट नहीं होते। हालाँकि जब बच्चन खुद कहने लगें कि उन्हें रिटायर हो जाना चाहिए, तो चर्चा होनी स्वाभाविक है। पिछले दिनों अमिताभ बच्चन ने एक सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा कि दिमाग कुछ और सोच रहा है और अंगुलियां कुछ और, यह एक मैसेज है। मुझे रिटायर हो जाना चाहिए।

ब्रह्मास्त्र की शूटिंग के लिए जाने से ऐन पहले उन्होंने ये बात कही। यूँ तो ज़्यादा काम के बोझ से जब दिमाग थक जाए, तो कोई ऐसी बात लिख ही सकता है- इसमें ज़्यादा तर्क वितर्क का स्थान नहीं होता। लेकिन जब बात बच्चन की हो तो बात वहाँ भी निर्क आती है, जहाँ दरअसल कोई बात नहीं होती।

यूँ, ऐसी चर्चा का एक आधार यह भी है कि कुछ अरसा पहले बच्चन को अस्पताल में दािखल होना पड़ा था। उस समय बॉलीवुड के गॉसिपबाज़ों ने अफवाह काफी तेज़ कर दी थी कि मिस्टर बच्चन की तबीयत खराब है और उन्हें िफल्मों में काम न करने की ताकीद दी गयी है। सभी जानते हैं कि मिस्टर बच्चन रेगुलर हेल्थ चेकअप के लिए अस्पताल में दािखल हुए थे। लेकिन गॉसिप के बादशाहों की करामात पर किसका कंट्रोल है। इत्तेफाक कुछ ऐसा रहा कि मिस्टर बच्चन ने ऐसी ही चर्चाओं के बीच सोशल मीडिया पोस्ट भी कर दी। दरअसल, बच्चन स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से लगातार जूझते रहे हैं और यह भी कहा जाता है कि वे काम के आगे सेहत की ज़्यादा परवाह नहीं करते इन सब चीज़ों, तथ्यों और चर्चा के बीच सच किसे माना जाए?

बिग बी के करीबी लोगों का कहना है कि अपने स्वास्थ्य के मद्देेनज़र बड़े बच्चन छोटा-सा ब्रेक लेने की, तो फिर भी सोच सकते हैं; लेकिन यह सम्भव नहीं है कि वह रिटायरमेंट ले लें। ऐसा न करने के पीछे कई कारण हैं, जिनकी चर्चा हम बाद में करेंगे। पहले यही समझ लें कि बच्चन के पास िफलवक्त इतने प्रोजेक्ट हैं कि वे नयी िफल्में न भी साइन करें, तब भी रनिंग प्रोजेक्ट्स पूरे करने, उनकी रिलीज और प्रमोशन में उन्हें कम-से-कम ढाई साल का वक्त लग जाएगा। सभी जानते हैं कि वे बेहद प्रोफेशनल हैं और अपने वादे पर हर हालत में खरे उतरते हैं।

िफलहाल बच्चन के करियर में वह वक्त चल रहा है, जबकि वे सफलता-असफलता, बॉक्स ऑफिस पर करेक्शन के दबाव, स्टारडम, चूहा दौड़ जैसी चीज़ों से ऊपर उठ चुके हैं। वे िफल्मों के टिॢपक मसाला हीरो नहीं रह गये हैं; लेकिन उससे आगे जिस िफल्म में वे होते हैं, उसमें नायक-नायिका से अलग और अहम पहचान उन्हीं की होती है। हर अभिनेता की ख्वाहिश यही होती है कि वह हर फ्रेम से बाहर निकल जाए और जबकि अब अमिताभ बच्चन के जीवन में वही दौर चल रहा है। तब वे यकायक रिटायरमेंट की क्यों सोचने लगेंगे। एक और बात है कि अमिताभ बच्चन को महज़ खुद से चुनौती का सामना करना है। हर नयी िफल्म के साथ उन्हें अपने आपसे सवाल करना होता है कि नयी िफल्म में और नया क्या करना है।

अपनी राजनीतिक रुचियों और कभी मोदी, तो कभी मुलायम (और पूर्व में कांग्रेस) से नज़दीकियों के चलते अमिताभ तरह-तरह की आलोचनाएँ झेलते रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अमिताभ को उनके कथित आत्मकेन्द्रित स्वभाव के ताने मारे जाते रहे हैं और िकस्म-िकस्म के विवादों में घिरना पड़ा है। एक िफल्म पत्रकार से निजी बातचीत में अमिताभ कह भी चुके हैं कि मैं आलोचना के लिए हमेशा तैयार रहता हूँ।

करियर की बात पर लौटें, तो हम पाएँगे कि इन दिनों अमिताभ बच्चन जिन एंबिशस प्रोजेक्ट्स में काम कर रहे हैं, उनमें चेहरे खास है। इसमें उनके साथ इमरान हाशमी और अन्नू कपूर की प्रमुख भूमिकाएँ हैं। वहीं अरसे बाद रघुवीर यादव, सिद्धांत कपूर, रिया व धृतमान चक्रवर्ती भी दिखेंगे। इस थ्रिलर की कथा कुछ दोस्तों की है, जो साइकोलॉजिकल खेल खेलते हुए खास परिस्थितियों में उलझ जाते हैं। शिमला के एक बंगले के बैकड्रॉप में शूट इस िफल्म में अमिताभ बच्चन वकालत छोड़ चुके एक अधिवक्ता का िकरदार निभा रहे हैं। ज़ाहिर है कि इस िकरदार को लेकर अमिताभ काफी उत्साहित हैं। इस िफल्म को लेकर यह सूचना भी मिली है कि अमिताभ क्लाइंमेक्स के एक दृश्य की शूटिंग के लिए डायरेक्टर की कुर्सी सँभाल सकते हैं। ‘गुलाबो सिताबो’, ‘तेरा यार हूँ मैं’, ‘ब्रह्मास्त्र’ जैसे अपकमिंग प्रोजेक्ट्स की चर्चा भी खूब है। ब्रह्मास्त्र में रणबीर कपूर के साथ आलिया भट्ट, मौनी रॉय और हुसैन दलाल अमिताभ के साथ हैं। शाहरुख का कैमियो है। शुजीत सरकार की ‘गुलाबो सिताबो’ में अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना साथ हैं। ‘झुंड’ को लेकर अमिताभ के अलावा, दर्शक भी एक्साइटेड हैं। आँखें के सीक्वल की चर्चा भी है। ‘उयारंधा मणिथन’ (तेरा यार हूँ मैं)  के बारे में काफी बातें हो चुकी हैं।

याद दिला दें, हाल में ही अमिताभ बच्चन ने सिनेमा उद्योग में 50 साल पूरे किये हैं। भविष्य रोचक, उत्साह भरे महत्त्वाकांक्षी प्रोजेक्ट्स से भरपूर है…। आप ही बताएँ, क्या मुकद्दर का यह सिकंदर बैक टु पवेलियन हो सकता है। बिलकुल नहीं। हाँ, इस बात की सम्भावना है कि अमिताभ बच्चन कुछ वक्त का ब्रेक ले लें, जैसा वो पहले भी दो बार कर चुके हैं (शहंशाह की रिलीज़ से पहले, चुनाव लडऩे के लिए और एबीसीएल के घाटे में जाने के वक्त पर), ऐसे ही इस बर स्वास्थ्य को सुधारने के लिए। लेकिन यह तय है कि अमिताभ न तो दीर्घकालिक अवकाश पर जाने वाले हैं, न ही सेवानिवृत्ति की योजना बना सकते हैं।

पर्यटन को नयी ऊँचाई देने के लिए िफल्म इंडस्ट्री को बढ़ाने की तैयारी

हिमाचल को उत्तर क्षेत्र में कश्मीर के बाद सबसे खूबसूरत पहाड़ी पर्यटन स्थल माना जाता है। कश्मीर में जब आतंकवाद चर्म पर था, सैलानियों ने तब हिमाचल के कुल्लू, मनाली, रोहतांग, धर्मशाला, शिमला और नारकंडा जैसे मनमोहक प्राकृतिक स्थलों का ही रुख किया था। हालाँकि, अभी भी प्रदेश में ऐसे दर्जनों अनछुए पर्यटक स्थल हैं, जिन्हें विकसित करके प्रदेश में पर्यटन को नये मुकाम पर ले जाया जा सकता है। ऐसे में हिमाचल सरकार ने मुम्बई की िफल्म इंडस्ट्री को प्रदेश के पर्यटन से जोडक़र नया मुकाम हासिल करने की नीति तैयार की है।

प्रदेश सरकार ने िफल्म नीति-2019 को एक अनुकूल वातावरण सृजित करने के लिए तैयार किया गया है, जो न केवल हिमाचल प्रदेश में बड़े पैमाने पर िफल्मों की शूटिंग की सुविधा प्रदान करेगी, बल्कि िफल्म निर्माण के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित गतिविधियों के चहुँमुखी विकास को भी सुनिश्चित करेगी। प्रदेश के मनमोहक स्थलों ने सदैव विख्यात िफल्म निर्माताओं को आकर्षित किया है। इसके बावजूद प्रदेश में अभी भी कई ऐसे अनछुए स्थल हैं, जो मनमोहक, प्राकृतिक, सांस्कृतिक, धरोहर और आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। प्रदेश के कई कलाकारों और रचनाकारों ने िफल्म निर्माण के विभिन्न क्षेत्र में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनायी है। िफल्म नीति-2019 के तहत हिमाचल प्रदेश को िफल्म निर्माण के लिए एक महत्त्वपूर्ण गंतव्य के रूप में विकसित तथा िफल्मों के माध्यम से प्रदेश की सांस्कृतिक, पौराणिक, ऐतिहासिक विरासत और गौरवशाली परम्पराओं को प्रचारित और प्रसारित कर पर्यटकों को आकर्षित किया जाएगा। प्रदेश की प्रतिभाओं को िफल्म निर्माण के सभी क्षेत्रों में प्रगति के अवसर उपलब्ध करवाए जाएँगे। प्रदेश में रोज़गार सृजन के अवसर उपलब्ध करवाए जाएँगे तथा िफल्म उद्योग के माध्यम से अतिरिक्त पूँजी निवेश आकर्षित किया जाएगा।

प्रदेश में िफल्म क्षेत्र के दीर्घकालिक और अर्थपूर्ण विकास के लिए हिमाचल प्रदेश िफल्म विकास परिषद् की स्थापना की जाएगी। परिषद् अपनी वित्तीय शक्तियों को कार्यकारी समिति के माध्यम से उपयोग कर सकता है। कार्यकारी समिति द्वारा िफल्म निर्माताओं को वित्तीय और अन्य प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए मानदण्ड तय किये जाएँगे और योग्यता की जाँच की जाएगी।

प्रदेश सरकार के सूचना और जन सम्पर्क  विभाग में िफल्मों और िफल्म सम्बन्धी  अधोसंरचना के विकास के लिए वित्तीय योजनाओं के लिए िफल्म विकास निधि सृजित की जाएगी। इस निधि के लिए प्रदेश में शराब की प्रत्येक बोतल पर 50 पैसे सैस लगाया जाएगा।

प्रदेश सरकार की तरफ से निजी क्षेत्र में िफल्म निर्माण के लिए आवश्यक अधोसंरचना के सृजन को बढ़ावा दिया जाएगा। निजी क्षेत्र में इस तरह की अधोसंरचना के उपलब्ध होने तक प्रदेश सरकार द्वारा वर्तमान अधोसंरचना की कमियों को दूर किया जाएगा। सूचना और जन-सम्पर्क  विभाग में स्थापित िफल्म सुविधा इकाई चंडीगढ़ और दिल्ली में स्थित निजी िफल्म निर्माताओं के पास उपलब्ध पेशवर उपकरणों की एक सूची तैयार करेगा तथा यह सूची िफल्म निर्माताओं की सुविधा के लिए सृजित किये जाने वाले वेब पोर्टल पर ऑनलाइन उपलब्ध करवायी जाएगी।

प्रदेश में िफल्म सिटी स्थापित करने का प्रयास किया जाएगा, ताकि एक स्थान पर सम्पूर्ण आवश्यक अधोसंरचना उपलब्ध करवायी जा सके। प्रदेश सरकार द्वारा राज्य में िफल्म सिटी स्थापित करने के लिए पट्टे पर भूमि भी प्रदान की जाएगी तथा सहायक अधोसंरचना के सृजन में सक्रिय भूमिका निभायी जाएगी।

जब तक प्रदेश में पूर्ण रूप से क्रियाशील िफल्म सिटी की स्थापना नहीं हो जाती, तब तक प्रदेश सरकार द्वारा राज्य में िफल्म स्टूडियो तथा लैब की स्थापना के लिए बढ़ावा दिया जाएगा। प्रदेश सरकार द्वारा आउटडोर शूटिंग करने वाली इकाइयों के लिए राज्य के विभिन्न भागों में स्थित हवाई पट्टियों तथा हेलिपैड के प्रयोग की सुविधा स्वीकृत की जाएगी। सूचना एवं जन-सम्पर्क विभाग में स्थापित िफल्म सुविधा इकाई राज्य में िफल्मों की शूटिंग से सम्बन्धित सभी स्वीकृतियाँ प्रदान करने के लिए एकल खिडक़ी तंत्र के रूप में कार्य करेगी तथा प्रदेश में िफल्मों में निर्माण और निर्माण-उपरान्त सम्बन्धित उपलब्ध सुविधाओं के साथ-साथ शूटिंग स्थलों की जानकारी का प्रसार करेगी। राज्य की संस्कृति और यहाँ प्रचलित भाषाओं में विद्यमान सम्भावनाओं और शक्ति से भलीभाँति परिचित है, इसलिए क्षेत्रीय भाषाओं में िफल्म निर्माण को प्रभावशाली रूप से बढ़ावा दिया जाएगा। प्रदेश सरकार गुणात्मक िफल्में बनाने वाले व्यक्तियों को सम्मानित करने के लिए िफल्म विकास निधि से पोषित वार्षिक िफल्म पुरस्कार शुरू करेगी। इसके तहत प्रदेश में 50 प्रतिशत शूटिंग वाली हिन्दी और स्थानीय भाषाओं की िफल्मों पर पुरस्कार के लिए विचार किया जाएगा। प्रदेश में आउटडोर शूटिंग करने वाली िफल्म इकाइयों को हिमाचल प्रदेश राज्य पर्यटन विकास निगम के होटलों में रहने पर कमरों के किराये में 30 प्रतिशत छूट प्रदान करने का प्रस्ताव भी रखा गया है।

राज्य में बन्द पड़े सिनेमाघरों को पुन: खोलने के लिए बढ़ावा दिया जाएगा, जिसके लिए हिमाचल प्रदेश िफल्म विकास परिषद् की सलाह पर ऐसे सिनेमा घरों को अधिकतम 25 लाख रुपये की राशि वित्तीय प्रोत्साहन के रूप में प्रदान की जाएगी। सिनेमा घरों को प्रदेश में उद्योग का दर्जा दिया जाएगा। प्रदेश सरकार द्वारा सिनेमाघरों में जन सुविधाओं के विस्तार तथा सिनेमा घरों को लोकप्रिय बनाने के लिए एक नयी योजना आरम्भ की जाएगी।

योजना के तहत आधुनिक साउंड सिस्टम, एयर कंडीशनिंग, जेनरेटर सेट, फॉल्स सिलिंग, फर्नीचर बदलने तथा व्यापक तौर पर नवीनीकरण से सम्बन्धित कार्य करने के लिए राज्य माल और सेवा कर पर 50 प्रतिशत प्रतिपूर्ति प्रदान की जाएगी। हिमाचल प्रदेश में एक या एक से अधिक सिनेमा सक्रीन वाले मल्टीपलैक्सों की स्थापना को बढ़ावा देने के लिए सात वर्षों तक राज्य माल एवं सेवा कर पर 75 प्रतिशत प्रतिपूर्ति प्रदान की जाएगी। इसी प्रकार नये सिनेमाघरों को पाँच वर्षों तक राज्य माल एवं सेवा कर पर 75 प्रतिशत प्रतिपूर्ति प्रदान की जाएगी। प्रदेश सरकार द्वारा प्रदेश में मल्टीपलैक्स तथा सिनेमा घर से वंचित स्थानों पर यदि भूमि उपलब्ध हो, तो मल्टीपलैक्स तथा सिनेमा घर स्थापित करने के लिए पट्टे पर भूमि प्रदान की जाएगी। ‘कलाकार प्रोत्साहन योजना’ के तहत देश के प्रतिष्ठित संस्थान में ललित कलाओं तथा इससे सम्बन्धित अन्य कोर्सेज में चयनित होने वाले प्रदेश के प्रतिभावान बच्चों तथा युवाओं को बढ़ावा दिया जाएगा। इन बच्चों तथा युवाओं को िफल्म विकास निधि द्वारा 75 हजार रुपये का एक मुश्त अनुदान प्रदान किया जाएगा।

हिमाचल में पर्यटन की अपार सम्भावनाएँ हैं और हमारा लक्ष्य इन्हें सामने लाकर सैलानियों को यहाँ खींचना है। देश-भर में हिमाचल ही एक ऐसा राज्य है, जहाँ साल-भर में इसकी आबादी से भी •यादा सैलानी आते हैं। अनछुए प्राकृतिक स्थलों को बिना पर्यावरण को नुकसान पहुँचाये सैलानियों तक लाने में िफल्म इंडस्ट्री बहुत बड़ा रोल अदा कर सकती है। इसलिए यह योजना तैयार की गयी है।

जयराम ठाकुर, मुख्यमंत्री, हिमाचल प्रदेश

क्या है योजना?

हिमाचल में िफल्म का 75 प्रतिशत भाग शूट करने पर िफल्म निर्माताओं और निर्माण घरानों को हिमाचल प्रदेश िफल्म विकास परिषद् की सलाह के अनुसार अधिकतम 50 लाख रुपये का अनुदान प्रदान किया जाएगा। प्रदेश की किसी भाषा में सामाजिक मुद्दों पर लघु िफल्म बनाने पर भी हिमाचल प्रदेश िफल्म विकास परिषद् की सलाह के अनुसार अधिकतम 10 लाख रुपये का अनुदान प्रदान किया जाएगा; बशर्ते िफल्म का 75 प्रतिशत भाग हिमाचल प्रदेश में शूट किया गया हो। देश में व्यापक तौर पर दर्शकों के लिए न्यूनतम तीन िफल्मों का निर्माण करने वाले हिन्दी और अंग्रेजी िफल्म निर्माताओं को िफल्म का 50 प्रतिशत भाग प्रदेश में शूट करने पर हिमाचल प्रदेश िफल्म विकास परिषद् की सलाह के अनुसार अधिकतम 2 करोड़ रुपये का अनुदान प्रदान किया जाएगा। िफल्म में उपयोग की गयी सम्पूर्ण आउटडोर शूटिंग के 50 प्रतिशत भाग का हिमाचल प्रदेश में शूट किया जाना िफल्म की आभार सूची में प्रदर्शित होना अनिवार्य है। यदि हिन्दी और अंग्रेजी िफल्म में उपयोग की गयी सम्पूर्ण आउटडोर शूटिंग का 50 प्रतिशत भाग हिमाचल प्रदेश में शूट किया गया हो और िफल्म के प्रमुख कलाकारों में न्यूनतम तीन कलाकार प्रदेश से हो तो हिन्दी और अंग्रेजी िफल्म निर्माण के लिए िफल्म निर्माता और िफल्म निर्माण घरानों को 25 लाख रुपये की अतिरिक्त सहायता या हिमाचली कलाकारों को दिये गये वास्तविक वेतन में से जो भी कम हो, प्रदान किया जाएगा। इसके अतिरिक्त हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में सामाजिक मुद्दों पर लघु िफल्म बनाने पर भी हिमाचल प्रदेश िफल्म विकास परिषद् की सलाह के अनुसार अधिकतम 10 लाख रुपये का अनुदान प्रदान किया जाएगा, बशर्ते िफल्म का 75 प्रतिशत भाग हिमाचल प्रदेश में शूट किया गया हो।

पैसे ने तोड़ दीं मज़हब की दीवारें

कबीर दास ने कहा है- ‘‘हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना। आपस में दोउ लड़ी-लड़ी  मुए, मरम न कोउ जाना।।’ अर्थात् हिन्दू कहते हैं कि हमें राम प्रिय हैं और तुर्क (मुसलमान) कहते हैं रहमान। दोनों ही (मूर्ख) आपस में लड़-लडक़र मर रहे हैं। लेकिन (ईश्वर क्या है? कौन है? इसका) मर्म कोई नहीं जानता। कबीर दास जी ने सच ही कहा है। आिखर हम लोग जिन मज़हबों के खूँटों से एक दायरे में बँधे हैं, वे दायरे क्या ईश्वर ने बनाये हैं? नहीं। क्योंकि अगर ईश्वर ऐसा करता, तो हम सबको मज़हब के हिसाब से शारीरिक रूप और सोच देकर ही पैदा करता। फिर हमें दुनिया में आने के बाद अपने को मज़हब के हिसाब से भेष नहीं बनाना पड़ता। बाना नहीं पहनना पड़ता। इससे भी बड़ी बात कि फिर कोई अपना मज़हब नहीं बदल पाता और न ही किसी भी हालत में मज़हब की ये दीवारें कभी टूटतीं। इंसानियत और प्यार की पैरवी संत कभी नहीं करते और न ही सबको एक ईश्वर होने की शिक्षा देते।

मैंने जीवन में कई ऐसे मामले देखे, पढ़े और सुने हैं, जब मज़हब की दीवारें बड़ी आसानी से टूटी हैं। ऐसे ही एक वाकये का •िाक्र आज मैं कर रहा हूँ। यह वाकया उत्तर प्रदेश के बरेली से तकरीबन 30-31 किलोमीटर दूर गौंटिया नामक एक गाँव का है। वहाँ पर सरकारी जूनियर हाई स्कूल में सभी मज़हबों और जातियों के बच्चे पढ़ते थे। उसी में सुमित चौहान और हसीना पड़ते थे। दोनों ने एक-दूसरे को कब पसन्द कर लिया, कब एक-दूसरे से प्यार कर बैठे? किसी को पता ही नहीं चला। दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे और दोनों ने साथ ही स्नातक में पहुँच गये। कहते हैं कि इश्क और मुश्क छिपते नहीं। हुआ भी वही। बात कॉलेज से निकली और दोनों के घर तक पहुँच गयी।

आिखर वही हुआ, जिसकी अमूमन लोग कल्पना करते हैं; हसीना का कॉलेज छूट गया। यूँ कहें कि उसे घर में ही कैद कर दिया गया। इधर, हसीना के कॉलेज न पहुँचने से सुमित परेशान रहने लगा, उसने खाना-पीना भी त्याग-सा दिया। उधर, हसीना ने तो बिलकुल ही खाना-पीना त्याग दिया। समस्या मज़हब की दीवारें थीं। हसीना के परिवार की तरफ से तो सिर्फ यही बात थी। सुमित के परिवार वालों को इससे बहुत अधिक मतलब भी नहीं था। जब कई दिन तक हसीना कॉलेज नहीं पहुँची, तो सुमित उसके घर पहुँच गया। लेकिन जैसे ही हसीना के घर वालों ने उसे देखा, आगबबूला हो गये और उसे खरी-खोंटी सुनाने लगे। दो-एक परिजनों ने उसे मज़हब का हवाला देकर हसीना से दूर हो जाने की हिदायत दी। हसीना की माँ शकीला इस मामले में कुछ नहीं बोल रही थीं। उन्हें अपनी बच्ची हसीना से बहुत प्यार था और वे उसकी हर खुशी पूरी करने की हमेशा ही कोशिश में रहती थीं। उन्होंने अंदर जाकर अपनी बेटी से बात की और जानना चाहा कि क्या वह एक हिंदू परिवार में जीवन गुज़ार पायेगी? हसीना ने हाँ में जवाब दिया। उन्होंने उसे हर अनहोनी से आगाह भी किया, पर हसीना ने साफ शब्दों में कह दिया कि यदि सुमित उसे नहीं मिला, तो वह मर जाएगी। उन्होंने कहा कि अल्लाह ने हर इंसान को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक जीने का हक दिया है। अल्लाह बड़ा कारसाज है, उसकी मर्ज़ी होगी, तो तुझे सुमित ज़रूर मिल जाएगा। हसीना की बड़ी भाभी ने इस बात का समर्थन किया। हसीना की माँ शकीला बाहर आयीं, तो सुमित और हसीना के बड़े भाई शहवाज़ में बहस चल रही थी। शकीला ने अपने बेटे को डाँटा और सुमित को बात करने के लिए घर में ले गयीं। उन्होंने सुमित से पूछा कि वह हसीना के लिए क्या कर सकता है? सुमित ने सीधा जवाब दिया वह उससे प्यार करता है और करता रहेगा। उसे ये धर्म-मज़हब का चक्कर समझ में नहीं आता। उसे पूरी दुनिया भी छोड़ दे, तो भी वह हसीना को नहीं छोड़ेगा। उसके बाद उन लोगों में पता नहीं क्या बातें हुईं? पर, थोड़ी देर बाद सुमित वहाँ से चला गया। कुछ दिन बाद ऐसा लगा मानो न सुमित को हसीना से मतलब है और न हसीना को सुमित से। हसीना के घर वाले उसके लिए घर ढूँढने लगे। सुमित चुपचाप कॉलेज जाता रहा। परीक्षा के दिन आ गये। हसीना को उसके घर वाले परीक्षा देने भी नहीं भेजना चाहते थे; लेकिन उसकी माँ और भाभी के समझाने पर उसे परीक्षा देने जाने दिया गया।

जिस दिन आिखरी पेपर था, उस दिन न हसीना अपने घर नहीं लौटी। उसके घर वालों ने उसे बहुत तलाशा, पर कहीं नहीं मिली। आिखर थाने में रिपोर्ट लिखायी। दूसरे दिन पता चला कि हसीना और सुमित ने कोर्ट में शादी कर ली है और अब वह सुमित के घर पर ही है। पुलिस ने इस मामले में दखल देने से मना कर दिया; लेकिन हसीना का बयान ज़रूर लिया और उलटे पाँव लौट गयी। हसीना के घर वालों ने इसी दौरान सुमित का घर देखा। ज़मींदार परिवार था उसका।  हसीना के परिजन थोड़ा-बहुत दबे भी इस बात से पर गुस्सा करते हुए, हसीना से रिश्ता तोडऩे की बात कहकर लौट आये। एक साल बाद ही सुमित-हसीना को एक बेटी हुई। हसीना पूरी तरह इस परिवार में घुलमिल गयी। यह कहानी लम्बी है। पर सुमित आगे चलकर ग्राम प्रधान बन गया और फिर दोनों परिवार एक-दूसरे के यहाँ आने-जाने भी लगे। दोनों मज़हबों से सम्बन्धित त्योहार भी सब मनाने लगे। तीन-चार साल में सभी ऐसे हिल-मिल गये मानों दोनों में कोई अन्तर, कोई भेदभाव ही नहीं था। लोग दोनों के प्यार की मिसालें देने लगे। मज़हब की दीवारें टूट गयीं। न किसी से कोई शिकवा-शिकायत, न दुश्मनी, न मज़हब की तकरार। अब तो सुमित-हसीना भी अधेड़ होंगे। उनकी यह मिसाल अब कितने लोगों को पता होगी? मालूम नहीं।

शिव सेना अब नागरिकता बिल के ‘विरोध’ में

लोकसभा के इतर नागरिकता बिल पर शिवसेना ने अब अपना रुख बदल लिया है। बिल को कल राज्य सभा में पेश किया जाना है और इससे पहले शिव सेना नेता और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने मंगलवार को कहा कि जब तक चीजें स्पष्ट नहीं हो जाती, हम बिल का समर्थन नहीं करेंगे।

ठाकरे ने कहा – ”अगर कोई भी नागरिक इस बिल की वजह से डरा हुआ है तो उनके शक दूर होने चाहिएं। वे भी हमारे नागरिक हैं, इसलिए उनके सवालों के भी जवाब दिए जाने चाहिएं।” याद रहे लोकसभा में बिल के पास होने से पहले भी शिवसेना ने इसका विरोध किया था और कहा था उनके कुछ सुझाव हैं और यदि इन्हें माना गया तो हे पार्टी इसका समर्थन करेगी। हालांकि, सदन में बिल पेश होने के बाद पार्टी सांसदों ने इसका समर्थन किया था।

यही नहीं शिवसेना मुखपत्र ”सामना” में भी बिल की आलोचना करते हुए सवाल उठाए गए थे कि क्या हिंदू अवैध शरणार्थियों की ‘चुनिंदा स्वीकृति’ देश में धार्मिक युद्ध छेड़ने का काम नहीं करेगी। साथ ही पार्टी ने केंद्र पर विधेयक को लेकर हिंदुओं और  मुस्लिमों का ‘अदृश्य विभाजन’ करने का आरोप लगाया था। उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली पार्टी ने यह भी कहा कि विधेयक की आड़ में ‘वोट बैंक की राजनीति’ करना देश के हित में नहीं है।

अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग ने नागरिकता बिल को ‘गलत दिशा में उठाया गया खतरनाक कदम’ बताया

अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग ने भारत के नागरिकता संशोधन बिल को गलत दिशा में उठाया गया खतरनाक कदम करार दिया है। अमेरिका की तरफ से कोइ आधिकारिक ब्यान तो भारत के बिल पर नहीं आया है लेकिन धार्मिक स्वतंत्रता केंद्रीय आयोग (यूएससीआईआरएफ) ने यह बिल भारत के दोनों सदनों में पास होने की स्थिति में भारत के गृह मंत्री अमित शाह के खिलाफ अमेरिका से प्रतिबंध लगाने की मांग की है।

उधर भारत के विदेश मंत्रालय ने एक ब्यान में कहा है कि ”इस संस्थान का जो ट्रैक रिकॉर्ड रहा है, उससे वह चौंके नहीं हैं। फिर भी वह उनके इस बयान की निंदा करते हैं”। विदेश मंत्रालय ने कहा – कि यूएससीआईआरएफ की ओर से जिस तरह का बयान दिया गया है, वह हैरान नहीं करता है क्योंकि उनका रिकॉर्ड ही ऐसा है। ये भी निंदनीय है कि संगठन ने जमीन की कम जानकारी होने के बाद भी इस तरह का बयान दिया है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने कहा कि यूएससीआईआरएफ ने जो बयान दिया गया है वह सही नहीं है और न ही इसकी जरूरत थी। ये बिल उन धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देता है जो पहले से ही भारत में आए हुए हैं। भारत ने ये फैसला मानवाधिकार को देखते हुए लिया है। इस प्रकार के फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए, ना कि उसका विरोध करना चाहिए।

एक ब्यान में यूएस कमिशन फॉर इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम ने कहा कि ”लोकसभा में नागरिकता संशोधन बिल पास होने को लेकर वह काफी चिंतित है। अगर नागरिकता संशोधन बिल दोनों सदनों में पास हो जाता है तो अमेरिकी सरकार को गृह मंत्री अमित शाह और अन्य मुख्य नेताओं के खिलाफ प्रतिबंध लगाने पर विचार करना चाहिए।”

गौरतलब है कि यह बिल सोमवार रात लोकसभा में पास किया गया है और अब राज्य सभा में पेश किया जाएगा। गृह मंत्री अमित शाह ने बिल पेश करते हुए स्पष्ट किया था  कि मोदी सरकार में किसी भी धर्म के लोगों को डरने की जरूरत नहीं है क्योंकि इस बिल से पड़ोसी देशों में उत्पीड़न झेल रहे अल्पसंख्यकों को राहत मिलेगी।

हालांकि, अमेरिकी आयोग ने कहा कि ”बिल में धर्म का जो आधार दिया गया है, उसे लेकर वह बेहद परेशान है”। आयोग ने आरोप लगाया कि ”बिल मुस्लिमों को छोड़कर बाकी प्रवासियों के लिए नागरिकता पाने का रास्ता खोलता है यानी नागरिकता के कानूनी दायरे का आधार धर्म को बना दिया गया है”।

बयान में आयोग ने ”इसे गलत दिशा में उठाया गया खतरनाक कदम” करार दिया है और साथ ही नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजेन्स (एनआरसी) पर भी टिप्पणी की है।  आयोग ने कहा – ”हमें डर है कि भारत सरकार भारतीय नागरिकता के लिए एक रिलीजन टेस्ट करा रही है जो लाखों मुस्लिमों से उनकी नागरिकता छीन लेगा। ब्यान में कहा कि ”एक दशक से भी ज्यादा समय से भारत सरकार उसके बयानों और सालाना रिपोर्ट्स को नजरअंदाज करती रही है”।

आयोग के ब्यान में कहा गया है कि ”यह भारत के धर्मनिरपेक्षता के समृद्ध इतिहास और भारतीय संविधान के उस प्रावधान के खिलाफ है जिसमें धर्म को आधार बनाए बिना कानून के सामने सभी को समानता के अधिकार की गारंटी दी गई है।”

वैसे भारत साफ़ कहता रहा है कि किसी दूसरे देश को उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार नहीं और इसे स्वीकार नहीं करेगा। धरा ३७० ख़त्म करने पर भी उठे विवाद पर सरकार ने यही स्टैंड लिया था।