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जम्मू में वकीलों की हड़ताल जारी महीने भर से कामकाज ठप

जम्मू में पिछले एक महीने से वकील हड़ताल पर हैं। रजिस्ट्री को राजस्व विभाग में शिफ्ट करने के विरोध में एक महीने से चल रही वकीलों की इस हड़ताल ने अदालती कामकाज पूरी तरह ठप कर दिया है और लोगों को भी बड़ी मुसीबत झेलनी पड़ रही है। उधर जम्मू के जाने-माने सामजिक कार्यकर्ता सुकेश खजूरिया ने इस हड़ताल को गैर-कानूनी बताते हुए इस मामले में सर्वोच्च न्यायलय के प्रधान न्यायाधीश को पत्र लिखकर दखल देने की गुज़ारिश की है।

हड़ताल को लेकर 3 दिसंबर को जम्मू बार संघ के जनरल हाउस की जो बैठक हुई, उसमें हड़ताल को अनिश्चितकालीन करने का ऐलान कर दिया गया। इसके बाद सम्भावना जतायी जा रही है कि यह मामला लम्बा खिंच सकता है और लोगों की मुसीबत बढ़ सकती है; क्योंकि उनके सभी मामलों की सुनवाई एक महीने बन्द पड़ी है।

‘तहलका’ से फोन पर बातचीत में जम्मू बार संघ के अध्यक्ष अभिनव शर्मा ने कहा कि जब तक उनकी माँग पूरी नहीं हो जाती, तब तक उनकी कामछोड़ हड़ताल जारी रहेगी। उन्होंने कहा कि हड़ताल को अब अनिश्चितकालीन कर दिया गया है। रजिस्ट्री को राजस्व विभाग में शिफ्ट पर हमारा सख्त विरोध है।

वकीलों के कामकाज ठप करने से अदालतों में चल रहे मामलों की सुनवाई बुरी तरह प्रभावित हुई है। सिर्फ सरकारी वकील ही मामलों को लेकर कोर्ट में पेश हो रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक, अकेले निचली अदालतों में लंबित मामलों की संख्या 62,500 के आसपास है। यह हड़ताल होने से इन मामलों में करीब एक महीने से सुनवाई नहीं हो रही क्योंकि सिर्फ सरकारी वकील ही काम पर हैं। सिविल सोसायटी से भी वकील मिल चुके हैं; लेकिन अभी तक कोई हल नहीं निकला है। हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से भी मुलाकात हुई; लेकिन मामला किसी नतीजे पर नहीं पहुँचा। वकीलों का साफ कहना है कि जब तक उनकी माँग पूरी नहीं हो जाती, तब तक उनकी हड़ताल जारी रहेगी। हड़ताल को अब अनिश्चितकालीन कर दिया गया है। वकीलों की हड़ताल पहली नवंबर से शुरू हो गयी थी। उप-राज्यपाल प्रशासन ओर वकीलों के बीच यह गतिरोध एक महीने से बना हुआ है। जे एंड के बार एसोसिएशन, जम्मू के वकीलों की जनरल हाउस बैठक भी बेनतीजा रही। वकीलों की हड़ताल अब आगे ङ्क्षखच जाने से जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट और उसके अधीन्स्थ अदालतों में कामकाज पहली नवंबर से ठप पड़ा है। हड़ताल जम्मू डिवीजन में है।

इस हड़ताल से सबसे •यादा काम जिन निचली अदालतों में ठप पड़ा है, उनमें पैसेंजर कोर्ट, इलेक्ट्रिीसिटी कोर्ट, चीफ ज्यूडिशियल मैजिस्ट्रेट, एक्साइज कोर्ट, रेलवे कोर्ट, प्रथम मुंसिफ कोर्ट, प्रथम एडीशनल कोर्ट मुंसिफ, द्वितीय मुंसिफ कोर्ट, तृतीय मुंसिफ कोर्ट, सब रजिस्ट्रार, मैट्रिमोनियल कोर्ट, डिस्ट्रिक्ट सेशन जज, फस्र्ट एडीशनल सेशन कोर्ट, एंटीकरप्शन कोर्ट, फस्र्ट प्रिंसिपल एंटी करप्शन जज, सेकेंड एडीशनल सेशन जज, एनआईए कोर्ट, सीबीआई कोर्ट, एमएसीटी अदालत, कंज्यूमर कोर्ट और उसके अपीलेंट कोर्ट शामिल हैं। इसके अलावा सिटी जज, ट्रैफिक मोबाइल और ट्रैफिक एडीशनल मोबाइल मजिस्ट्रेट और उसके अपीलेंट कोर्ट शामिल हैं। यदि हड़ताल से प्रभावित लोगों, जिनके मामले कोट्र्स में फँसे हैं; की बात की जाए तो यह आँकड़ा करीब एक लाख बैठता है। लोगों का कहना है कि अदालतें तो खुली हैं, मगर वकील न मिलने से दिक्कत पेश आ रही है। वो लोग सबसे •यादा दिक्कत झेल रहे हैं, जिनके ट्रैफिक पुलिस ने चालान काटे हुए हैं। जो लोग इन चालानों, जिनमें कुछ बहुत भारी भरकम हैं; को कोर्ट में चुनौती देना चाहते हैं। लेकिन वकील न मिलने से फँसे हुए हैं। ज़ाहिर है हड़ताल का मामला लम्बा खिंचने से उन्हें जुर्माना भरने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।

वकीलों की माँगें

वकीलों की एक माँग यह है कि जानीपुर हाई कोर्ट परिसर को फॉरेस्ट लैंड बाहू रैका में शिफ्ट न किया जाए। हड़ताली वकीलों की बात में तर्क  यह है कि अगर हाईकोर्ट परिसर का निर्माण होगा, तो इससे फॉरेस्ट लैंड पर हज़ारों की संख्या में पेड़ों की बलि देनी होगी, जो गलत है। सिर्फ हाई कोर्ट भी शिफ्ट हुआ, तो वकीलों को काफी दिक्कत होगी; क्योंकि एक ही दिन में कुछ केसों के लिए वकील •िाला कोर्ट में पेश होते है, तो कुछ के लिए हाई कोर्ट में। ऐसे में वकीलों के लिए जानीपुर से बाहु क्षेत्र तक दिन के दिन पहुँचना सम्भव नहीं हो पायेगा।

माना जा रहा है कि राज्यपाल प्रशासन हाई कोर्ट परिसर शिफ्ट न करने पर तो सहमति जता सकता है। ज़मीनों की रजिस्ट्री अधिकार राजस्व विभाग से न्यायपालिका को दिये जाने पर सरकार का रुख साफ है और लगता नहीं वह इससे पीछे हटेगी।

बार संघ के वरिष्ठ सदस्यों ने भी रजिस्टरी के अधिकार कोर्ट से लेकर राजस्व विभाग को सौंपने और कोर्ट को जानीपुर से रैका में शिफ्ट करने के विरोध में हड़ताल पर जाने का समर्थन कर दिया है। बार संघ अध्यक्ष अभिनव शर्मा का कहना है कि मुख्य न्यायाधीश ने बार को अवगत करवाया था कि जानीपुर से कोर्ट को रैका में स्थानांतरित करने का कोई निर्णय नहीं किया गया है।

वैसे महीने के शुरु में पीएमओ में मंत्री जितेंद्र सिंह एक कार्यक्रम के सिलसिले में जम्मू में थे। उनसे वकीलों की हड़ताल को लेकर जब पूछा गया, तो उन्होंने साफ कह दिया कि कोई गलतफहमी में न रहे। केन्द्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में सभी केन्द्रीय कानून लागू होंगे। सिंह के इस बयान से सरकार का रुख साफ है कि वह इस ज़मीन की खरीद-फरोख्त और अन्य दस्तावेज़ की रजिस्ट्री करने का अधिकार राजस्व विभाग के पास ही रहेंगे।

यह हड़ताल गैर-कानूनी : खजूरिया

वकील जहाँ हड़ताल को लेकर दृढ़ दीखते हैं, वहीं जम्मू के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता सुकेश खजूरिया ने इस हड़ताल को गैर-कानूनी बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश एसए बोबड़े को पत्र लिखकर इस मामले में हस्तक्षेप करने के लिए एक पत्र भेजा है। खजूरिया ने अपने पत्र में कहा है कि जम्मू के आन्दोलनकारी वकीलों ने उच्च न्यायालय के साथ-साथ अधीनस्थ न्यायालयों और यहाँ तक कि वादियों और आम जनता दोनों के कोर्ट प्रवेश के स्थानों को अवरुद्ध कर दिया है।

इससे आम लोगों की न्याय तक पहुँच अवरुद्ध हुई है। खजूरिया ने सीजेआई को लिखे पत्र में कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि वकील हड़ताल पर नहीं जा सकते; क्योंकि इससे न्याय बाधित होता है। उन्होंने कहा कि यह काफी चौंकाने वाली बात है कि एक महीने बीत चुकने के बावजूद जे एंड के उच्च न्यायालय ने हड़ताल को अवैध घोषित करने के लिए कोई कार्यवाही नहीं की है। उन्होंने कहा कि वकीलों और प्रशासन के इस गतिरोध का नुकसान आम जनता को हो रहा है और जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय कोई हस्तक्षेप नहीं कर रहा। खजूरिया ने सीजेआई से आग्रह किया है कि वे इस मामले में हस्तक्षेप करें, ताकि जनता के लिए न्याय जल्दी सुलभ हो सके। खजूरिया ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों ने अपने विभिन्न फैसलों में यह स्पष्ट किया है कि वकीलों की हड़ताल और अदालती काम का बहिष्कार अवैध है और इसकी बढ़ती प्रवृत्ति को रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाये जाने चाहिए। ‘तहलका’ से बातचीत में खजूरिया ने सेवानिवृत्ति कैप्टेन हरीश उप्पल बनाम केन्द्र सरकार मामले में आये फैसले का उदहारण दिया, जिसमें कोर्ट ने कहा कि वकीलों को हड़ताल पर जाने या बहिष्कार का आह्वान करने का कोई अधिकार नहीं है; यहाँ तक कि टोकन हड़ताल पर भी नहीं। हाँ, वे विरोध यदि आवश्यक हो, तो केवल प्रेस स्टेटमेंट और टीवी इंटरव्यू देकर, बैनर और तिख्तयाँ लेकर, काले या सफेद या किसी भी रंग की हाथ में पट्टी बाँधकर या कोर्ट परिसर से दूर रहकर शांतिपूर्ण विरोध मार्च निकाल सकते हैं। उनकी हड़ताल से किसी भी रूप में कोर्ट के कामकाज में बाधा नहीं आनी चाहिए। खजूरिया के मुताबिक, जम्मू के वकीलों की हड़ताल से वास्तव में नागरिक, जिनके मामले कोर्ट में हैं, भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत मौलिक अधिकार की गारंटी से वंचित हो रहे हैं। खजूरिया ने तेहेलका से बातचीत में कहा- ‘मैंने सीजेआई को लिखे पत्र में ताम बिन्दु उठाते हुए उनसे हस्तक्षेप का आग्रह किया है।’

नसीहत पर भारी फितरत

बढ़ते भ्रष्टाचार पर कड़ी फटकार लगाते हुए मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सांकेतिक भाषा में कहा- ‘प्रशासनिक शुचिता का अर्थ है अधिकारियों की पारदर्शिता और उसकी सार्थकता तभी है जब लोग इस बात को महसूस करें।’ साफ सुथरा प्रशासन देने का वादा कर सत्ता में पहुँचे गहलोत का यह सोच स्वाभाविक थी। पुलिस अधीक्षकों की कांफ्रेस कॉन्फ्रेंस को सम्बोधित करते हुए गहलोत यह कहते हुए िफक्रमंद नज़र आये कि ‘पुलिस अपनों से ही पैसे ले रही है। जब मातहतों से ही पैसे लोगे, तो वे इसकी भरपाई जनता से ही करेंगे? उन्होंने परवशता जताई कि किसी को निलम्बित नहीं करना चाहते, लेकिन करना पड़ता है। गहलोत के उम्मीदों के इस तकाजे के पीछे अधिकारियों की भ्रष्ट्राचार में बढ़ती संलिप्तता थी। क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट सुलगती सचाइयों से रू-ब-रू कराती है कि सरकार चलाने वाली ब्यूरोक्रेसी यानी अफसरशाही में भ्रष्टाचार अब अपराध या शर्म का विषय नहीं रहा। बल्कि यह अफसरों के अधिकार का हथियार बन गया है। भ्रष्ट्राचार की विषबेल को सबसे •यादा फलने-फूलने का अवसर पिछली वसुंधरा सरकार में मिला। भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी अशोक सिंघवी इसकी अजीम मिसाल गिने जाएँगे। इस मिसाल को वसुंधरा सरकार की सबसे शर्मनाक घटना कहा जाएगा कि तत्कालीन मुख्यमंत्री ने उन्हें बचाने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया। उनके मुस्तकबिल पर बेचैनी तब तक बनी रही, जब तक कि दागी होने के बावजूद सिंघवी को पदोन्नति नहीं बख्श दी गयी। इसके लिए होली की छुट्टियों के बावजूद सचिवालय खुलवाया गया और उनकी पदोन्नति के आदेश जारी करवा दिये गये।

प्रश्न है कि भष््रटाचार से मुक्ति का दावा कैसे ज़ोर पकड़ेगा जब ऐसे दागी अफसर बहाल किये जाएँगे। लेकिन कहावत है कि जिसे मैला चाटने की आदत पड़ गयी हो, वह तो •िान्दगी कपट कुण्ड में ही तलाशेगा। बेशक वसुंधरा सरकार ने सिंघवी को इंदिरा गाँधी पंचायती राज संस्थान के महानिदेशक के पद पर बिठा दिया; लेकिन क्या वो बाज़ आये? अब सिंघवी मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में फँस गये हैं और अदालत ने उनकी तलबी के वारंट जारी कर दिये हैं। इसकी वजह कानून-कायदों में अधूरेपन का वो काँटा भी है कि आरोपी अधिकारी को अपराध सिद्ध नहीं होने तक बर्खास्त नहीं किया जा सकता। इसी के चलते सिंघवी को बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जा सका।

पिछले आठ महीनों में भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़े गये अफसरों के नाम और ओहदे पर गौर करें, तो यह बात बुरी तरह चौंका सकती है कि अफसर जितना कद्दावर रहा, उसके भ्रष्ट कारनामे उससे कहीं •यादा कद्दावर निकले। इसे भी संयोग ही कहा जाएगा कि बुधवार 4 सितंबर को जिस दिन मुख्यमंत्री गहलोत भ्रष्टाचार पर फटकार लगा रहे थे? एन उसी वक्त भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो की टीम खनन विभाग के संयुक्त सचिव बंसीधर कुमावत को चार लाख की रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार कर रही थी। कुमावत की जाँच में एसीबी को बेशुमार दौलत ही नहीं मिली। नाथद्वारा और जयपुर में सत्रह भूखण्डों के दस्तावेज़ भी मिले। सूत्रों का कहना है कि ज़मीनों से लगाव, तो इनकी भ्रष्ट मानसिकता की पारम्परिक पूँजी ही रहा। कुमावत जहाँ भी रहे, उन्होंने ज़मीन की जमकर खरीद-फरोख्त की। सबसे बड़ी बात तो यह रही कि मौका, माहौल और मददगार इनके मनमािफक ही रहे। भ्रष्टाचार के बारे में कहा जाता है कि एक बार का दुस्साहस हमेशा बड़े दुस्साहस को दावत देता है। करीब 47 महीने पहले खनन महकमे में 45 हज़ार करोड़ का ज़बरदस्त घोटाला हो चुका था। तब भी कुमावत बाल-बाल बचे थे। लेकिन इससे सबक लेने की बजाय उन्होंने अपने हौसले को ही हवा दी।

अचरज नहीं होना चाहिए कि ब्यूरोक्रेसी का जलाल मटियामेट करने के अफसाने महिला अधिकारियों ने भी कम नहीं गढ़े। अगर आदिवासी क्षेत्रीय विकास निगम की वित्तीय सलाहकार भारती राज के कारनामे टटोले जाएँ, तो इस पहेली का खुलासा हो जाएगा कि राज्य सरकार द्वारा आदिवासियों के विकास के लिए अकूत धन खर्च करने के बावजूद भी वे भूखे और बदहाल •िान्दगी क्यों बसर कर रहे हैं? पिछले दिनों एसीबी की कार्रवाई में भारती राज के घर से एक करोड़ की नकदी और विदेशी करेंसी बरामद की गयी। भारती राज के पास बेहिसाब दौलत मिली है। दिलचस्प बात है कि भारती राज पिछले 10 साल में 21 देशों की यात्रा भी कर चुकी है। भ्रष्टाचार से कमाये गये पैसों के बूते पर? उनके पास 500 वर्ग गज के भूखण्ड के अलावा 30 मं•िाला होटल के कागज़ात भी मिले हैं। बहरहाल भारती राज निलंबन पर चल रही है। अगर कानूनी लफ्ज़ों की बुनावट को उधेड़ें, तो भारती मुश्किल परिस्थितियों से परे है। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि करप्ट ब्यूरोक्रेसी, जिस तरह नये कुबेरों के समाज की रचना कर रही है, उसके बाद सत्यनिष्ठा को रौंदने में क्या कसर रह जाएगी? सवाल है कि हर रोज़ भ्रष्टाचार के तालाब का कोई-न-कोई घडिय़ाल पकड़ा जाता है। लेकिन इससे कोई नसीहत क्यों नहीं लेता? अलबत्ता इस छापे में जिस तरह के खुलासे हुए उन्होंने पूरे सूबे को अचम्भित कर दिया।

सेवानिवृत्त अतिरिक्त मुख्य सचिव उमराव सालोदिया का भी करोड़ों की ज़मीन की धोखाधड़ी में बेनकाब होना चकित करता है। जयपुर के जंतर-मंतर को वैश्विक धरोहर में शामिल करने का यश लूट चुके सालोदिया अपने सेवाकाल में तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के सर्वाधिक भरोसेमंद अफसरों की पाँत में गिने जाते थे। इन्होंने स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति ली थी। चर्चा यह भी चली थी कि सालोदिया राजनीति के क्षेत्र में तकदीर आजमाएँगे। लेकिन सालोदिया सुॢखयों में आये, तो ज़मीनों की भारी धोखाधड़ी के मामलों को लेकर? भ्रष्टाचार के खेल के पीछे पैसों की उगाही ही नहीं, स्त्री किलोल के धत्कर्म भी छिपे हैं। दूर तक सनसनी फैलाने वाला यह सनसनीखेज मामला सचिवालय में गृह विभाग के अनुभाग अधिकारी राकेश कुमार मीणा के गिरेबान पर हाथ डालने पर उजागर हुआ। राकेश मीणा तबादले की उजरत में महिला कर्मचारियों से अस्मत माँगता था। मीणा के फोन को सर्विलांस पर रखने के बाद एसीबी को कई अश्लील संवाद सुनने को मिले। युवाओं को कुशल तकनीशियन बनाने के लिए सरकार की कौशल विकास योजना तो गड़बडिय़ों से भरी पड़ी है। एक औचक निरीक्षण में योजना कागज़ों में ही चलती पायी गयी? सवाल है कि अफसरों ने किस तरह करोड़ों रुपये अपनी जेबों में ठूँस लिये। जाँच में न तो नियोक्ता मिला और न ही प्रशिक्षु? सवाल है फिर किसको मिली नौकरी?

बड़ी सम्भावना तो भारी-भरकम छात्रवृत्ति घोटाला खुलने की है। िफलहाल तो निगरानी दस्ता इनकी कुंडली खंगालने में जुटा है। सरकार अगर कुटिल ब्यूरोक्रेट्स पर खास निगरानी रखे, तो शायद कन्धों पर बैठे भ्रष्टाचार के बेताल को भगाया जा सकता है। लेकिन पारदर्शिता का बसंत बड़ी मुश्किल से आता है।

ट्रांसपोर्ट महकमा कितना बेखौफ?

कहावत है कि झूठ, झाँसा और झमेला हमेशा आगे चलते हैं। परिवहन महकमे के अफसर और मातहत इन तीनों तिलंगों को हमेशा साथ लेकर चलते हैं। हर मौके पर भ्रष्टाचार की मलाई चाटने वाले इन अफसरों को पकडऩा सबसे असम्भव ही कहा जाता है। अलबत्ता कोई इत्तेफाक ही हो जाए, तो बात अलग है। यह इत्तेफाक गुरुवार 29 अगस्त को कोटा के बल्लोप डाबी ङ्क्षरग रोड, पर तब हुआ जब महकमे का दस्ता लाठियाँ मार कर ट्रक चालकों से वसूली में जुटे हुए थे। जिस समय इंस्पेक्टर चंद्रशेखर शर्मा वसूली की अपनी दुस्साहसी ड्यूटी में जुटा हुआ था। खाद्य मंत्री रमेश मीणा का उधर से गुज़रना हुआ। लेकिन ट्रकों की लम्बी कतार के कारण मंत्री जी को अपना कािफला वहीं रोक देना पड़ा। मंत्री जी जब लम्बी प्रतीक्षा से ऊब गये, तो माजरा जानने के लिए उन्होंने ट्रक वालों से पूछताछ की। ट्रक चालकों का कथन चौंकाने वाला था- ‘साब! हमें रोककर ट्रांसपोर्ट महकमे वाले जबरन वसूली कर रहे हैं? हतप्रभ मंत्रीजी आगे बढक़र नाके पर पहुँचे, तो इंस्पेक्टर एक हाथ में नोटों की गड्डी थामे हुए था, तो दूसरे हाथों में ट्रक चालक का गिरेबान। लेकिन जैसे ही उसे लगा कि वो मंत्रीजी से रू-ब-रू है? फौरन नोटों की गड्डी झाडिय़ों में फेंकता हुआ मंत्रीजी के पाँव पकडऩे को लपका।’ लेकिन मंत्रीजी ने कहाँ उसे बख्शना था? किन्तु यह तो हर रोज़ का िकस्सा है।

भारत क्यों बना सोने की तस्करी का हब?

एक ताज़ा रिपोर्ट में भारत को दुनिया में सोने की तस्करी का सबसे बड़ा हब बताया गया है। इसके लिए तमाम गैर-कानूनी रास्ते अिख्तयार किये जाते हैं। इसके लिए मानवाधिकारों का हनन, भ्रष्टाचार का रास्ता अपनाकर अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका से भारत होते हुए अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में पहुँचाया जाता है।

28 नवंबर, 2019 को ‘इंपैक्ट’ में ‘अ गोल्डन वेब : भारत कैसे दुनिया में सोने की तस्करी का हब बना’ शीर्षक से प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में हर साल करीब 1,000 टन सोना तस्करी के ज़रिये लाया जाता है। वास्तविक आँकड़ा इससे भी अधिक हो सकता है। कुछ फर्ज़ी कागज़ात से भी आयात करते हैं।

इंपैक्ट के कार्यकारी निदेशक जोआन लेबर्ट के अनुसार, ‘भारत में सोने का कारोबार इस बारे में विफल रहा है कि जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि सोने के आयात में अवैध तरीका नहीं अपनाया गया है। दुनिया-भर में भारत स्वर्ण विनिर्माण केंद्र की भूमिका अदा कर रहा है, इसलिए सोने की आपूर्ति में होने वाली कमज़ोरियों को दूर करने के ज़रूरी कदम अवश्य उठाने होंगे।

 इंपैक्ट के शोध से पता चलता है कि दुनिया के सोने का एक-तिहाई हिस्सा भारत से होकर गुज़रता है, जो दुनिया के सोने के विनिर्माण क्षेत्र का केंद्र है। सोने के आभूषणों के निर्यात में वृद्धि के साथ भारत दुनिया के व्यापारिक केंद्र में प्रमुख केंद्र बन गया है। सोने की आपूर्ति में अवैध तरीके जैसे सामान के साथ उत्तरी अमेरिका समेत दुनिया के बाज़ार में पहुँचाया जाता है। रिपोर्ट में तीन प्राथमिक कारक बताये हैं, जिनकी वजह से तस्करी की जा रही है :-

टैक्स ब्रेक : गोल्डडोर, जिसे बिना रिफाइन किया हुआ सोना भी कहते हैं; 2013 में भारत के रिफाइनरी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने टैक्स ब्रेक की शुरुआत की। इससे व्यापारियों को करों की कम दरों से लाभ पहुँचाने की बात कही थी। टैक्स ब्रेक के बाद 2012 में जहाँ गोल्डडोर का आयात 23 टन हुआ था, वह 2015 में बढक़र 229 टन हो गया।

फर्ज़ी दस्तावेज़ : उत्पादक देशों से आयातित सोने में अचानक तेज़ी से वृद्धि दर्ज की गयी, इसमें आपूर्ति करने के लिए •यादा सख्त कानूनी प्रक्रिया नहीं है। व्यापार के आँकड़ों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि कुछ देशों की तुलना में भारत में अधिक सोने का आयात डोमिनिकन गणराज्य और तंजानिया के साथ किया जा सकता है; जहाँ पर बनिस्बत घाना के फर्ज़ी दस्तावेज़ का इस्तेमाल किया जाता है। डोमिनिकन गणराज्य की बात करें, तो 2014 से 2017 के बीच यहाँ से 100.63 टन बिना रिफाइन किया हुआ सोना आयात किया गया। बाकी देशों से कितना किया गया, इसका कोई हिसाब-किताब नहीं है।

मिलीभगत : रिफाइंड सोने की तस्करी मुख्य रूप से संयुक्त अरब अमीरात से भारत में हो रही है; जबकि अफ्रीका के ग्रेट लेक्स क्षेत्र के रिफाइनरों की पहचान देश के प्रमुख व्यापारियों के साथ अवैध सोने का व्यापार किया जाता है। इस तरह गैर-कानूनी, मानवाधिकारों का उल्लंघन कर मिलीभगत के ज़रिये अफ्रीका और दक्षिण अफ्रीका से सोना भारत पहुँचकर अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में पहुँच रहा है।

कस्टम (सीमा शुल्क) विभाग से मिली जानकारी के मुताबिक, भारतीय कस्टम अधिकारियों ने 1197.7 किलोग्राम सोना अप्रैल-जून 2019 के बीच तस्करी का पकड़ा गया। पिछले साल इसी दौरान पकड़े गये ऐसे सोने से यह 23.2 फीसदी •यादा है। उद्योग के अधिकारियों ने एजेंसी को बताया कि जुलाई के बजट में सोने के आयात शुल्क ढाई फीसदी की बढ़ोतरी की गयी, जिसके बाद 12.5 फीसदी हो गया। इसके बाद से सोने की तस्करी में और इज़ाफा देखा गया है। कर में इज़ाफा होने के चलते मध्य-पूर्व के देशों से सोने की तस्करी बढ़ी है। तस्करी ने अवैध विदेशी मुद्रा लेन-देन को बढ़ावा दिया है।

भारत में चालू खाते के घाटे को कम करने के लिए आयात की जाने वाली धातुओं पर 10 फीसदी का शुल्क लगाया था, जिसके बाद 2013 से सोने की तस्करी का खेल शुरू हुआ। ग्रे मार्केट ऑपरेटर्स यानी दुनिया में किया जाने वाला सोने की तस्करी का व्यापार, जिसमें लेन-देन कैश में किया जाता है। 2017 में सोने की तस्करी को तब और बढ़ावा मिला, जब भारत ने बुलियन पर 3 फीसदी बिक्री कर लगा दिया।

2018-19 के वित्तीय वर्ष में सीमा-शुल्क अधिकारियों ने 4,058 किलोग्राम (4 टन) सोना ज़ब्त किया, जो एक साल पहले 3,223.3 किलोग्राम, जबकि 2012-13 में 429.17 किलोग्राम ज़ब्त किया गया था। तस्करी के धन्धे में शामिल ऑपरेटर बाज़ार की कीमत से सस्ते दाम में सोना बेचते हैं; क्योंकि वे बुलियन डीलर को 15.5 फीसदी कर देने से बच निकलते हैं। वल्र्ड गोल्ड काउंसिल ने कहा है कि 2018 में 95 टन सोने की तस्करी भारत में की गयी थी। हालाँकि भारत की एसोसिएशन ऑफ गोल्ड रिफाइनरीज एंड मिंट्स और अन्य उद्योग निकायों ने कहा कि वास्तविक आँकड़ा इसके दोगुना से भी अधिक हो सकता है।

आमतौर पर तस्करी का सोना किलो बार के रूप में लाया जाता है, फिर इसको ज्वेलरी या सिक्के बनाने के लिए पिघलाया जाता है। सोने की बढ़ती कीमतों के साथ इसकी तस्करी का खेल और •यादा शुरू हो गया है।

इंपैक्ट के शोध से पता चला है कि दुनिया का एक-तिहाई सोना भारत से गुज़रता है; जो दुनिया के सोने के विनिर्माण क्षेत्र का केंद्र है। अपने सोने के आभूषणों के निर्यात में वृद्धि के साथ भारत दुनिया के अग्रणी स्वर्ण व्यापारिक केंद्रों में से एक बन गया है। उत्तरी अमेरिका सहित कई देशों से तस्करी के ज़रिये भारत में सोना पहुँचता है और फिर यहाँ से अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में फैल जाता है।

लेबर्ट के मुताबिक, भारत को अगर सोने के अवैध कारोबार का केंद्र कहा जाए, तो गलत नहीं होगा। इसके तार पूरी दुनिया में फैल गये हैं, जिसमें गैर-कानूनी या गलत तरीका अपनाकर सोने की आपूर्ति की जाती है। अधिकारियों और मंत्रालय को इसको सोने की तस्करी थामने के लिए सख्त कदम उठाने चाहिए, ताकि सोने के व्यापार में व्याप्त गड़बडिय़ों को खत्म किया जा सके। लेबर्ट कहते हैं कि भारत से जो भी सोने की ज्वेलरी खरीदे, उसे यह ज़रूर पूछना चाहिए कि सोना कहाँ से मँगवाया? ताकि स्पष्ट हो सके कि यह कहीं तस्करी के ज़रिये तो नहीं लाया गया।

इंपैक्ट ने भारत के स्वर्ण उद्योग से जुड़ी संस्थाओं से उनकी सोने की आपूर्ति में सही तरीका अपनाये जाने को कहा है। सोने के व्यापारियों, रिफाइनर और ज्वैलर्स की •िाम्मेदारी है कि वे अपनी सप्लाई चेन में किसी भी गड़बड़ी वाला तरीका न अपनाएँ, बल्कि अगर गैर-कानूनी तरीके से ऐसा कोई करता है, तो आगे आकर उसके िखलाफ रिपोर्ट भी दर्ज कराएँ।

इंपैक्ट का मानना है कि सोने की तस्करी से निजात पाने के लिए भारत को अपनी टैक्स दरों को लेकर ज़रूरी कदम तत्काल उठाने चाहिए, ताकि जो भी इस धन्धे में शामिल हैं, वे हतोत्साहित होकर सीधे रास्ते पर आ जाएँ। इसके अलावा सभी कारीगर सोने के आयात के लिए ज़रूरी टैक्स व सीमा पर निगरानी बढ़ाने के अलावा सभी ज़रूरी कदम उठाये जाएँ, ताकि अवैध तरीके के जाल को बेनकाब किया जा सके।

मध्य प्रदेश के आदिवासियों के संवैधानिक अधिकार और कांग्रेस का भ्रामक वादा

मध्य प्रदेश में दिसंबर, 2018 में जब कांग्रेस की सरकार बनी थी, तो उस सरकार से मध्य प्रदेश के आदिवासियों को काफी उम्मीदें थीं। लेकिन वे उम्मीदें अब धुँधली हो रही हैं।

विधानसभा चुनाव 2018 के दौरान कांग्रेस ने अपने वचन पत्र में आदिवासियों से वादा किया था कि आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जाएगी एवं संविधान में प्रदत्त पाँचवीं अनुसूची, पेसा कानून 1996, वनाधिकार कानून 2006 का पालन किया जाएगा। ये सभी बातें कांग्रेस के वचन पत्र में पेज 24 एवं 25 पर लिखी हुई हैं। वचन-पत्र के इन्हीं वादों पर मध्य प्रदेश के आदिवासियों ने कांग्रेस को दिल खोलकर वोट दिया और सरकार बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। वर्तमान में कांग्रेस के 31  आदिवासी विधायक हैं, जो उसके कुल (115) विधायकों के एक चौथाई से भी •यादा हैं।

विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने मध्य प्रदेश के आदिवासियों से वादा तो कर दिया कि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनेगी, तो संविधान की पाँचवीं अनुसूची, पेसा कानून 1996, वनाधिकार कानून 2006 का पालन होगा, लेकिन ऐसा कतई प्रतीत नहीं हो रहा है कि आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को देने/दिलाने के लिए मध्य प्रदेश कांग्रेस सरकार द्वारा कोई पहल अभी तक की गयी हो। उलटे सरकार बनने के बाद से मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों का मखौल ही उड़ा रही है।

26 जनवरी, 1950 को लागू संविधान में स्थापित पाँचवीं अनुसूची के स्पष्ट प्रावधानों को राज्य मंत्रालय और राजभवन ने ही मानने से इन्कार कर आदिवासियों के साथ आज़ादी के समय से ही छलावा करते आ रहे हैं। पाँचवीं अनुसूची में राज्य के राज्यपाल को मंत्रीमंडल की सलाह के बिना अपने विवेक से आदिम-जाति मंत्रणा परिषद् की सलाह लेकर आदिवासियों से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण विषयों पर कार्यवाही के अधिकार रहे हैं, जिसकी पुष्टि करते हुए भारत के तत्कालीन सॉलीसीटर जनरल गुलाम वाहनवती ने भारत सरकार के गृह मंत्रालय को दिनांक 21 अप्रैल, 2010 को स्पष्ट अभिमत प्रेषित किया, लेकिन उसके बाद भी राज्यों के राज्यपाल आदिवासियों से सम्बन्धित किसी भी विषयों पर अपनी भूमिका निर्धारित नहीं कर पाये। प्रदेश के आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को कुचलते हुए पाँचवीं अनुसूची के उल्लंघन का यह अन्तहीन सिलसिला चलता रहा; लेकिन प्रदेश के आदिवासियों को अपने संवैधानिक अधिकारों को लेकर तब एक रौशनी नज़र आयी, जब विधानसभा चुनाव 2018 से कुछ महीने पूर्व ही जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) संगठन के संरक्षक एवं आदिवासी युवा नेता डॉ. हिरालाल अलावा ने पाँचवीं अनुसूची को मुद्दा बनाकर प्रदेश के समस्त आदिवासी बहुल क्षेत्रों में ‘आदिवासी अधिकार रैली’ निकाली एवं प्रदेश की 80 विधानसभा सीटों पर चुनाव लडऩे का ऐलान किया। देखते-ही-देखते आदिवासी अधिकार रैली को प्रदेश के सभी आदिवासी क्षेत्रों में भरपूर समर्थन मिला।

डॉ. अलावा के नेतृत्व में निकाली गयी आदिवासी अधिकार रैली में हर जगह आदिवासियों की उमड़ती भीड़ को देखकर प्रदेश की दोनों प्रमुख पार्टियाँ- भाजपा और कांग्रेस के लिए सिरदर्द का कारण बनने लगा। कांग्रेस और भाजपा ने तमाम अपवादों एवं शर्तों के साथ डॉ. अलावा को अपने-अपने खेमे में शामिल करने की पूरज़ोर कोशिश की; लेकिन सफलता कांग्रेस को मिली। कांग्रेस ने पाँचवीं अनुसूची, पेसा कानून 1996, वनाधिकार कानून 2006 समेत डॉ. अलावा की सभी शर्तेें मंज़ूर अपने खेमें में मिला लिया, जिसका फायदा कांग्रेस पार्टी को हुआ और प्रदेश के आदिवासी बहुल 75 प्रतिशत विधानसभा सीटें जीतकर कांग्रेस प्रदेश में सरकार बनाने में सफल हो गयी। मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के उपरांत मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह ने ट्विटर/फेसबुक पर डॉ. अलावा को धन्यवाद दिया था और कहा था कि डॉ. अलावा का कांग्रेस से जुडऩे के कारण कांग्रेस को आदिवासियों का भरपूर समर्थन मिला।

लेकिन यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि कांग्रेस का आदिवासियों एवं डॉ. अलावा से किया गया वादा शुरू से ही भ्रामक और झूठा था और सिर्फ आदिवासियों के वोट पाने के लिए कांग्रेस ने इतना बड़ा झूठ बोला। या फिर कांग्रेस यदि उस वादे को पूरा करने का इरादा रखती तो पाँचवीं अनुसूची के पालन के लिए राज्यपाल को अधिसूचना जारी करने हेतु पत्र लिखती एवं पाँचवीं अनुसूची के प्रावधानों के अनुसार अनुसूचित क्षेत्रों में कार्य करती।  क्योंकि पाँचवीं अनुसूची से अधिसूचित अनुसूचित क्षेत्र में पाँचवीं अनुसूची, पेसा कानून, वनाधिकार कानून समेत सभी नियमों के पालन कराने या अनुसूचित क्षेत्रों में शान्ति एवं सुशासन के लिए विनियम बनाने यानी नियंत्रित करने या दिशा-निर्देश जारी करने की शक्तियाँ राज्यपाल को प्रदान की गयी हैं। यानी विधायिका शक्ति राज्यपाल के पास है, जबकि कार्यपालिका शक्ति राज्य सरकार के हाथों में होती है।

लेकिन सच्चाई यह है कि प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनाने के एक साल बाद भी आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों, पाँचवीं अनुसूची, पेसा कानून 1996, वनाधिकार कानून 2006 समेत तमाम वादों पर अमल नहीं कर सकी है। उलटे उक्त कानूनों का उल्लंघन कर रही है, जिससे प्रदेश के आदिवासियों में कांग्रेस के प्रति आक्रोश उभर रहा है और आदिवासी खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। यदि हम पाँचवीं अनुसूची की बात करें, तो 1956 में मध्य प्रदेश के पुनर्गठन के बाद से ही संविधान की पाँचवीं अनुसूची की अवहेलना की जा रही है। 1956 में पुनर्गठित मध्य प्रदेश में जनजातीय सलाहकार परिषद् (ट्रेवल एडवायडजरी काउन्सिल) के लिए अधिसूचित त्रुटिपूर्ण, असंवैधानिक नियमों में राज्य के मुख्यमंत्री को जनजातीय सलाहकार परिषद् का अध्यक्ष बनाकर राज्य शासन के द्वारा विचार के लिए विभिन्न विषयों को सलाहकार परिषद् में प्रस्तुत किये जाने एवं राज्यपाल को सलाह देने के बजाय उन विषयों पर राज्य शासन की मंशा के अनुरूप निर्णय लेने की असंवैधानिक कार्यवाहियाँ निरंतर की जाती रही हैं।

जबकि पाँचवीं अनुसूची के भाग-ख की धारा-4 की उपधारा (3) में प्रावधान किया गया है कि राज्यपाल जनजातीय सलाहकार परिषद् के (क) सदस्यों की संख्या को, उनकी नियुक्ति की और परिषद् के अध्यक्ष तथा उसके अधिकारियों और सेवकों की नियुक्ति की रीति; (ख) उसके अधिवेशनों के संचालन तथा साधारणतया उसकी प्रक्रिया को, और (ग) अन्य सभी आनुषंगिक विषयों को, यथास्थिति, विहित या विनियमित करने के लिए नियम बना सकेगा। भाग-ख की धारा-4 की उपधारा (1) में प्रावधान किया गया है कि ऐसे प्रत्येक राज्य में, जिसमें अनुसूचित क्षेत्र है, एक जनजाति सलाहकार परिषद् स्थापित की जाएगी, जो 20 से अनधिक सदस्यों से मिलकर बनेगी, जिसमें शक्ति के अनुरूप निकटतम तीन-चौथाई उस राज्य की विधानसभा में अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधि होंगे; परन्तु यदि उस राज्य विधानसभा में ऐसे प्रतिनिधियों से भरे जाने वाले स्थानों की संख्या जनजाति सलाहकार परिषद् में ऐसे प्रतिनिधियों से भरे जाने वाले स्थानों की संख्या से कम है, तो शेष स्थान उन जनजातियों के अन्य सदस्यों से भरे जाएँगे।

उक्त प्रावधानों से स्पष्ट है कि मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने भी संविधान के पाँचवीं अनुसूची की अवहेलना कर गैर-संवैधानिक ढंग से ‘आदिम-जाति मंत्रणा परिषद्’ का गठन किया है, जिसके अध्यक्ष (मुख्यमंत्री) से लेकर अन्य कई सदस्य गैर-जनजाति वर्ग से हैं एवं परिषद् का गठन राज्यपाल द्वारा न की जाकर मध्य प्रदेश सरकार द्वारा किया गया है। आदिम-जाति मंत्रणा परिषद् के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष समेत सभी सदस्य अनुसूचित जनजाति वर्ग से होने चाहिए। साथ ही पाँचवीं अनुसूची से अधिसूचित मध्य प्रदेश के 89 ट्राइबल ब्लॉकों के लिए आदिम-जाति मंत्रणा परिषद् से सलाह लेकर राज्यपाल के द्वारा सभी फैसले लेने का प्रावधान है। जबकि 89 ट्राइबल ब्लॉकों के लिए सभी फैसले राज्य सरकार कैबिनेट के द्वारा किया जा रहा है, जो सर्वथा असंवैधानिक है। पाँचवीं अनुसूची के भाग-ख की धारा-4 की उपधारा (2) में प्रावधान किया गया है कि जनजाति सलाहकार परिषद् का यह कर्तव्य होगा कि वह उस राज्य की अनुसूचित जनजातियों के कल्याण और उन्नति से सम्बन्धित ऐसे विषयों पर सलाह दें, जो उसको राज्यपाल द्वारा निर्दिष्ट किये जाएँ।

लेकिन सच्चाई यह है कि सरकार गठन के एक साल पूरा होने एवं आदिम-जाति मंत्रणा परिषद् के गठन के लगभग तीन महीने पूरे होने के बावजूद अभी तक मंत्रणा परिषद् की एक भी बैठक आयोजित नहीं की गयी है, जिससे स्पष्ट है कि प्रदेश सरकार आदिवासियों के कल्याण और उन्नति के लिए इस तरह का कोई फैसला नहीं लेना चाहती। 27 नवंबर, 2019 को मध्य प्रदेश कैबिनेट द्वारा प्रस्ताव लाया गया कि पाँचवीं अनुसूची से अधिसूचित क्षेत्रों में सामान्य व्यक्ति को अपनी ज़मीन का डायवर्जन करने के लिए कलेक्टर की अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं है; जबकि डायवर्जन नीति के उल्लंघन पर सज़ा के प्रावधान को भी हटाया गया है। मध्य प्रदेश कैबिनेट का उक्त प्रस्ताव संविधान की पाँचवीं अनुसूची का खुलेआम उल्लंघन है। उक्त प्रस्ताव को लाने के लिए ज़रूरी था कि आदिम-जाति मंत्रणा परिषद् के सदस्य राज्यपाल को सलाह दें, उसके उपरांत यदि राज्यपाल को लगे कि उक्त प्रस्ताव आदिवासियों के हित में है, तो वे राज्य सरकार को ऐसा प्रस्ताव लाने की सहमति दे सकते हैं।  रेत खनिज की खदान नीलामी प्रक्रिया में भी म.प्र. सरकार ने राज्य 89 ट्राइबल ब्लॉकों में पाँचवीं अनुसूची एवं पेसा कानून 1996 का उल्लंघन करके नीतियाँ बनायी हैं। 26 नवंबर, 2019 से रेत खनिज की खदान नीलामी की प्रक्रिया राज्य में प्रारम्भ हो गयी है। मध्य प्रदेश के 89 ट्राइबल ब्लाक संविधान की पाँचवीं अनुसूची के तहत अधिसूचित हैं, जिनमें पेसा कानून 1996 के प्रावधान भी लागू हैं।

पेसा कानून 1996 में प्रावधान किया गया है एवं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सन् 2013 फैसला दिया गया है, जिसमें वेदांता कम्पनी द्वारा ओडिशा के नियामगिरी पहाड़ से बाक्साइट-खनन मामले में ग्रामसभा की मुख्य भूमिका तय की गयी थी। सुप्रीम कोर्ट के उक्त आदेशों में पाँचवीं अनुसूची के तहत अधिसूचित विकासखण्डों में किसी भी तरह के खनिज खदान के निर्धारण, खनिज खदान के आवंटन, खनिज खदान की नीलामी के पूर्व ग्रामसभा से अनुमति लेने का स्पष्ट प्रावधान है, पर्यावरणीय अनुमति के सन्दर्भ में ग्रामसभा की अनुमति लिया जाना आवश्यक है। मध्य प्रदेश सरकार की वर्तमान रेत नीति में पाँचवीं अनुसूची द्वारा अधिसूचित क्षेत्रों में रेत की खदानों के आवंटन एवं नीलामी में आदिवासी समुदाय की कोई भूमिका राज्य सरकार द्वारा निर्धारित नहीं की गयी है; जबकि विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी ने अपने वचन पत्र के पृष्ठ-14 पर स्थानीय निवासियों/आदिवासियों की समिति बनाकर उन्हें रोज़गार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से गौण खनिज खदानों को स्थानीय-निवासी/आदिवासी समितियों को देने का वादा भी किया गया है।

यदि हम वनाधिकार कानून 2006 की बात करें, तो प्रदेश की कांग्रेस सरकार यहां भी फेल साबित हुई है। कांग्रेस ने अपने वचन-पत्र में लिखा है कि वन अधिकार अधिनियम के अंतर्गत, जिनको पट्टा अभी तक नहीं मिला उन्हें पट्टा दिलवाएँगे और भूमि का मालिकाना हक देंगे। लेकिन सच्चाई यह है कि जयस के संरक्षक एवं कांग्रेस पार्टी से ही विधायक डॉ. हिरालाल अलावा द्वारा मुख्यमंत्री कमलनाथ और राज्यपाल को पत्र लिखकर पाँचवीं अनुसूची, पेसा कानून और वनाधिकार कानून के अनुपालन के लिए अनेक बार पत्र लिखा गया; बावजूद इसके मुख्यमंत्री और राज्यपाल ने इन कानूनों के अनुपालन में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी है। डॉ. अलावा ने अपनी फेसबुक वॉल पर समय-समय पर मुख्यमंत्री एवं राज्यपाल को लिखे पत्र की जानकारी देते रहते हैं, जिसमें हाल ही में 28 नवंबर, 2019; 22 नवंबर, 2019 और 4 नवंबर, 2019 को पाँचवीं अनुसूची, पेसा कानून और वनाधिकार कानून के अनुपालन के लिए उनके द्वारा मध्य प्रदेश के राज्यपाल और मुख्यमंत्री को लिखे गये पत्र की प्रतिलिपि फेसबुक पर पोस्ट की गयी है।  वनाधिकार कानून के तहत आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों को पट्टा देने की बात करें, तो मध्य प्रदेश में लगभग 3.50 लाख से अधिक आदिवासियों/वन-निवासियों के दावे रिजेक्ट किये गये हैं, जिसमें शासन के अधिकारियों की भयानक खामी सामने आयी है।

वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत खारिज दावा-पत्रों के आलोक में 13 फरवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने वन एवं वनभूमि से 11 लाख से अधिक आदिवासी/परम्परागत वन-निवासी परिवारों को बेदखल करने का आदेश जारी किया था, जिसमें 3.50 लाख से अधिक परिवार मध्य प्रदेश के हैं। इस मामले की अगली सुनवाई के दौरान सितंबर माह में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को आदेश दिया कि खारिज किये गये सभी दावों की समीक्षा की जाए एवं सुनिश्चित किया जाए कि जंगलों में परम्परागत रूप से निवास करने वाले आदिवासी एवं वन-निवासी बेदखल न हों एवं अगली सुनवाई की तारीख 24 नवंबर, 2019 मुकर्रर कर दी, जिस पर फैसला आना अभी बाकी है। लेकिन मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार द्वारा उक्त 3.50 लाख रिजेक्ट दावों की समीक्षा अभी तक नहीं हो सकी है, जिससे स्पष्ट है कि 3.50 लाख आदिवासी एवं परम्परागत वन-निवासी परिवारों पर बेदखली की जो तलवार लटकी है, उनके बारे में राज्य सरकार बिलकुल भी गम्भीर नहीं है। इसके अतिरिक्त अन्य मामले भी सामने आये हैं, जिसमें वन विभाग के अधिकारियों ने आदिवासियों/अन्य-निवासियों के राजस्व संहिता में दर्ज ज़मीन पर भी कब्ज़ा करके अवैध ढंग से कार्रवाई तक कर डाली गयी है।

ज़मीन, जंगल और पर्यावरण के मुद्दे पर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विगत 30 वर्षों से कार्य करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अनिल गर्ग के अनुसार, ‘1950 से तत्कालीन शासक मालगुज़ार, ज़मींदार, जागीरदार, महल, इलाके एवं दुमाला से इजमेंट राइट्स के लिए दर्ज जंगल मद, गैर जंगल मद की ज़मीनों को अर्जित करने के कानून बने; इन कानूनों को मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता 1959  में पहले संवैधानिक संशोधन के तहत संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल किया गया। राजस्व विभाग ने ज़मीनों को अर्जित किया एवं उन्हें मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता 1954 एवं भू-राजस्व संहिता 1959 के अध्याय 18 में दखल रहित भूमि वर्णित करके अधिकार, दायित्व आदि निर्धारित किये। 01 अगस्त, 1958 में, 1975 में और 1980 में वन विभाग ने संरक्षित वन अधिसूचना प्रकाशित कर राजस्व अभिलेखों में दर्ज दखल रहित भूमियों को संरक्षित वन, असीमांकित वन, नारंगी वन दर्ज करके लोगों को भूमि से सम्बन्धित अधिकारों से वंचित कर दिया गया। लोगों के विभिन्न सरकारी एवं निस्तारी प्रयोजनों को प्रतिबन्धित कर अपराध मान लिया तथा संसद और विधानसभा द्वारा लोगों के अधिकार के लिए बनाये गये कानूनों एवं संसोधनों को मानने से इन्कार कर लोगों को उनके ज़मीनों से बेदखल कर दिया।’ उपरोक्त सभी तथ्यों से तो यहीं लगता है कि कांग्रेस पार्टी ने मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव से पूर्व आदिवासियों एवं जयस के नेता डॉ. अलावा से झूठा एवं भ्रामक वादा किया, जिसे वह कभी भी पूरा करने का इरादा ही नहीं रखती थी। लेकिन मध्य प्रदेश सरकार को यह समझना चाहिए कि इससे आदिवासी समाज उससे खफा है।

(लेखक म.प्र. समेत देश के तमाम आदिवासी इलाकों में सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय हैं)

मुस्लिम के संस्कृत पढ़ाने पर बवाल क्यों?

जयपुर के करीबी कस्बे बगरू के डॉ. िफरोज़ खान की बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत के सहायक आचार्य पद पर तैनाती उनके लिए मुसीबत बन गयी है। विश्वविद्यालय के संस्कृत विज्ञान संकाय में फिरोज़ की नियुक्त पर उनके धर्म को लेकर मुद्दा बनाया जा रहा है। एक मुस्लिम का संस्कृत प्राध्यापक होना गौरव की बात होनी चाहिए थी। लेकिन इससे उलट यह मुद्दा एक ज़बरदस्त विवाद में और घिर गया है। संस्कृत को सिर्फ हिन्दुओं की विरासत समझने वाले छात्र इस तैनाती से बुरी तरह बौखलाये हुए हैं और प्रदर्शन पर उतारू हैं। प्रदर्शनकारियों की अगुआई करने वाले छात्र नेता चक्रपाणि का कहना है कि धर्म-विज्ञान की बात दूसरे धर्म का व्यक्ति नहीं कर सकता। हम शिक्षक का नहीं, उसकी नियुक्त का विरोध कर रहे हैं।’ विरोध इस कदर बढ़ गया है कि परेशान होकर फिरोज़ खान अपना मोबाइल बन्द कर बैठ गये हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. राकेश भटनागर भले ही कहते रहे कि ‘विश्वविद्यालय, धर्म, जाति, सम्प्रदाय, लिंग आदि के भेदभाव से उठकर सबको अध्ययन अध्यापन के समान अवसर देता है।’ लेकिन प्रदर्शनकारियों के शोर में कुलपति की आवाज़ कहीं सुनाई नहीं देती। विरोध की लपटें इस कदर भडक़ उठी हैं कि हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। डॉ. फिरोज़ खान के पिता संगीतज्ञ रमजान खान अपने बेटे के विरोध पर स्तब्ध है। उनका परिवार फिरोज़ की सुरक्षा को लेकर बुरी तरह आशंकित है; जबकि रमजान की धर्म-निरपेक्ष दिनचर्या चौंकाने वाली है। मुन्ना मास्टर के नाम से लोकप्रिय रमजान खान श्याम प्रभु और गोरक्षा संकीर्तन से अपने दिन की शुरुआत करते हैं। उनके रात्रिकालीन भजनों में उमड़ती भीड़ तो काफी कुछ कह देती है। उनके बेटे फिरोज़ के विरोध की खबर को लेकर पूरे कस्बे में बेचैनी है। रमजान खान की पारिवारिक पृष्ठभूमि तो कट्टर हिन्दूवादियों को भी आत्मचिंतन के लिए प्रेरित कर सकती है। रमजान के परिवार में धर्म, शिक्षा और जीवन शैली का अद्भुत समन्वय है। रमजान के चार पुत्रों, क्रमश: – वकील, शकील, फिरोज़ और वारिस ने संस्कृत विद्यालय में ही शिक्षा ग्रहण की है। उनकी बड़ी बेटी का नाम अनिता है। छोटी बेटी का जन्म दीपावली पर होने के कारण उसका नाम लक्ष्मी रखा गया है। रमजान के पिता मास्टर गफूर संगीत विशारद थे। गौ भक्ति इतनी अटूट कि गो ग्रास के बाद ही भोजन करते थे। रमजान का घर भगवान कृष्ण की तस्वीरों से अटा हुआ है। उन्हें सुंदरकांड और हनुमान चालीसा तो कंठस्थ हैं। उन्होंने श्याम सुरभि वंदना शीर्षक से भजन पुस्तिका भी लिखी है। रमज़ान संस्कृत में शास्त्री की उपाधि से अलंकृत है।

सहायक आचार्य डॉ. फिरोज़ का कहना है कि ‘मैं कुरान को उतना नहीं जानता, जितना संस्कृत साहित्य को जानता हूँ। अपने पिता से प्रेरित होकर मैंने संस्कृत का अघ्ययन किया। लेकिन अध्यापन पर आंदोलन को लेकर बेहद हताश हूँ।’ उनका कहना था कि क्षेत्र के प्रमुख हिन्दू विद्वानों ने मुस्लिम होने के बावजूद मेरे संस्कृत ज्ञान केा लेकर सराहना की है। पिछले 7 नवंबर से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भडक़ रही आन्दोलन की आग थमती नज़र नहीं आ रही है। कुलपति भटनागर के आवास के बाहर छात्रों के धरने के दौरान ‘मिर्ची हवन’ और ‘बुद्धि-शुद्धि के यज्ञ से लेकर रुद्राभिषेक तक किया जा चुका है। रुद्राभिषेक के बाद हनुमान चालीसा का एक सौ आठ बार पाठ भी किया जा चुका है। विश्वविद्यालय में पठन-पाठन पूरी तरह ठप है। विश्वविद्यालय प्रशासन और प्रदर्शनकारी छात्रों के बीच विवाद को लेकर कई दौर की बातचीत हो चुकी है; लेकिन बेनतीजा रही है। कुलपति तो छात्रों के पथराव में घायल होने से बाल-बाल बचे हैं। उधर इस मामले में अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के छात्रों के दखल के बाद मामला तूल पकड़ता नज़र आ रहा है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय प्रशासन को लिखे गये एक पत्र में अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष सलमान इम्तियाज़ का कहना है कि ‘हम इस घटना से अपमानित महसूस कर रहे हैं। अगर डॉ. फिरोज़ के साथ कुछ गलत हुआ, तो हम खामोश नहीं रहेंगे।’ सलमान का कहना था कि उनके जीवन, उनकी आज़ादी और सुरक्षा के बारे में सबसे पहले सोचा जाना चाहिए। बहरहाल हालात में में कोई तब्दीली आयी हो ऐसा नहीं लगता। उधर राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान जयपुर के प्राचार्य अर्कनाथ चौधरी ने फिरोज़ को होनहार विद्यार्थी बताते हुए कहा- ‘बीएचयू में जो भी हो रहा है, उसके पीछे राजनीति के रंग साफ नज़र आते हैं।’ वहीं हिन्दू समाज का अन्य बुद्धिजीवी वर्ग भी डॉ. फिरोज़ खान के पक्ष में खड़ा नज़र आ रहा है। बुद्धिजीवियों का कहना है कि अगर डॉ. फिरोज़ भारतीय संस्कृति और संस्कृत से इतना लगाव रखते हैं, तो यह तो हिन्दुओं के लिए गर्व की बात है। एक मुस्लिम विद्वान के संस्कृत पढ़ाने पर आिखर इतना बवाल क्यों किया जा रहा है? सरकार को इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए और विरोध में उतरे छात्रों को समझाकर शांत करना चाहिए।

उबर नहीं पा रहा गुजरात का कपड़ा उद्योग

भारत में 01 जुलाई 2017 को जैसे ही एक देश एक कर के नाम पर गुड्स एंड सर्विस टैक्स यानी जीएसटी लागू हुआ, देश के अनेक उद्योग-धन्धों पर इसका बुरा असर पड़ा। इससे पहले ही नोटबन्दी से विकट मार पड़ चुकी थी। आज साढ़े तीन साल बीत जाने के बावजूद भी अनेक उद्योग-धन्धे इन दो बड़ी चोटों से उबर नहीं पाये हैं। आज सरकार भले ही दावे करे कि सब कुछ ठीक हो गया है, लेकिन यह सच्चाई नहीं है। ठप या ठण्डे पड़ चुके व्यवसायों और उद्योगों में गुजरात का कपड़ा उद्योग भी है। यहाँ कई कम्पनियाँ, खाते और छोटे कारखाने बन्द होने की कगार पर हैं। कामगार मज़दूर रोज़गार के लिए परेशान हैं। कम्पनी और फैक्टरी मालिकों, व्यापारियों, ठेकेदारों और कामगारों में एक निराशा पनपने लगी है। गुजरात के अहमदाबाद में चिरीपाल टैक्सटाइल्स प्रा. लि., अनुनय, सागर, आदि कम्पनियों से लेकर अनेक कम्पनियों का उत्पादन आज आधे के आसपास ही रह गया है। अनुनय के प्रोडक्शन मैनेजर जगदीश भाई ने बताया कि काम की कमी का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता कि एक समय में अनुनय के पास हर माह एक से दो करोड़ का भारत से और पाँच से सात करोड़ का विदेशों से ऑर्डर कम्पनी को मिलता था; लेकिन आज कुल मिलाकर भी एक से तीन करोड़ का ऑर्डर नहीं मिलता। कम्पनी से तकरीबन 40 फीसदी कामगार, जो बाहरी थे; अपने गाँव-शहर चले गये। बहुत मुश्किल समय है। अगर ऐसा ही रहा तो गुजरात में कपड़ा उद्योग बीते समय की बात होने लगेगी। सागर के जनरल मैनेजर राम सिंह ने बताया कि सागर में अब आधा भी काम नहीं बचा है। एक समय था, जब रात-दिन काम करके भी माल की आपूर्ति नहीं हो पाती थी। आज महीने में 15-15 दिन तो काम ही बन्द रहता है। सागर के ही एक ठेकेदार मुकेश भरवाड़ ने बताया कि हमारे पास 30 से 35 लोग काम करते थे। मैं हर महीने लाखों रुपये तनख्वाह में बाँटता था, आज काम इतना कम है कि दो-तीन कारीगर और पाँच-छ: हेल्पर ही रखना मुश्किल हो गया है। एक दूसरी कम्पनी के कारीगर राकेश कुमार मिश्रा ने बताया कि उन्हें कभी इतना काम मिलता था कि वे महीने में कम से कम 16 से 20 रातें भी काम में गुज़ार देते थे; मगर आज 16 से 20 दिन काम भी नहीं मिलता। यहाँ की हालत बहुत खऱाब हो चुकी है। अभी भी हम इसी आस में हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी गुजरात के हैं और इस राज्य की डूबती रोज़ी-रोटी को फिर से अच्छे मुकाम पर ले जाएँगे। कपड़ा उद्योग की हालत आज इस कदर खराब हो गयी है कि बहुत लोग परेशानी में आ गये हैं। मैं हमारे प्रधानमंत्री जी से अनुरोध करूँगा कि वे इस इंडस्ट्री को डूबने से बचा लें। एक कारीगर कुमा ने बताया कि पहले वे ठेकेदारी करते हैं, अब नौकरी करने को मजबूर हैं। नौकरी भी परमानेंट नहीं है उनके पास, जब काम आ जाता है, तब दिहाड़ी के तौर पर करते हैं। एक कामगार राकेश ने बताया कि पहले उन्हें 550 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से कपड़ा कटिंग का काम मिलता था; अब कोई 350 रुपये भी देने को तैयार नहीं होता। इतने पर भी कभी काम मिलता है, तो कभी कई-कई दिन घर में बैठे रहने को हम मजबूर हैं।

बता दें कि कपास के उत्पादन में गुजरात देश भर में पहले स्थान पर आता है। इस राज्य की 16 फीसदी उपजाऊ भूमि पर कपास की ही खेती होती है। इतना ही नहीं, भारत की अर्थ-व्यवस्था में कृषि के बाद कपड़ा उद्योग का सबसे बड़ा योगदान रहा है। गुजरात कपड़ा उद्योग में सबसे अग्रणी भी रहा है और पूरे देश के कपड़ा निर्यात में 12 फीसदी हिस्सेदारी अकेले गुजरात की है। लेकिन जीएसटी लगने के बाद पिछले साढ़े तीन साल से इस क्षेत्र में आयी मंदी से न केवल उद्योगपतियों की, बल्कि कामगारों की भी परेशानी बढ़ी है। इतना ही नहीं गुजरात का आर्थिक विकास भी कपड़ा उद्योग पर बहुत हद तक निर्भर करता है। क्योंकि कपड़ा उद्योग के ठीक-ठाक चलने के दौरान राज्य की 23 फीसदी जीडीपी इसी उद्योग से ही आती रही है। लेकिन अब इसमें गिरावट आयी है; जो अभी थमी नहीं है।

एक समय था, जब भारत के 7वें सबसे बड़े मेट्रोपोलिटन शहर अहमदाबाद को ‘मैनचेस्टर ऑफ इंडिया’ की ख़्याति मिली थी, जो अब तक तो बनी हुई है; लेकिन अगर यही हाल रहा तो अहमदाबाद की यह छवि धूमिल हो सकती है। अब से साढ़े तीन साल पहले इस शहर में तकरीबन 250 यूनिट स्थापित थीं, लेकिन अब इनमें से कई बन्द होने की कगार पर पहुँच चुकी हैं। इतिहास की बात करें, तो 1950 और 60 के दशक में कपड़ा उद्योग के क्षेत्र में अकेले अहमदाबाद ने एक लाख से भी •यादा लोगों को रोज़गार दिया था। इसके बाद से इस उद्योग में बड़ी तेज़ी आयी और 2017 तक अनुमानित आधार पर इस क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या तीन लाख से ज़्यादा हो चुकी थी। मगर अब इसमें गिरावट आने लगी है। 1950-60 के दशक में अहमदाबाद में औद्योगिक उत्पादन का दो-तिहाई उत्पादन कपड़ा और उससे जुड़े उद्योगों से होता था। वहीं कपड़ा उद्योग का सबसे बड़ा हब बन चुका ‘सिल्क सिटी’ यानी सूरत भी आज मंदी के दौर से गुज़र रहा है। 2017 तक इस शहर में सूत काटने की तकरीबन साड़े छ: लाख मशीनें यानी पॉवरलूम थीं। वहीं सूरत और उसके आसपास में करीब 450 कपड़ा उत्पादन (डाइंग और प्रिंटिंग) की इकाइयाँ थीं। इन पॉवरलूम के ज़रिये तकरीबन चार लाख मीट्रिक टन सूत का उत्पादन होता था। आज की तारीख में यहाँ के व्यवसायी और कामगार भी रो ही रहे हैं। पहले इस उद्योग से लगभग 50 हज़ार करोड़ रुपये का सालाना कारोबार होता था। आज अनुमानत: यह 60 से 65 फीसदी ही रह गया है। ये सभी इकाइयाँ कच्चे कपड़ों को अंतिम रूप देती (तैयार करती) हैं। शहर में रोजाना लगभग दो करोड़ मीटर कच्चे कपड़ों (ग्रे टेक्सटाइल) का उत्पादन होता है। सूरत शहर में करीब 150 होलसेल मार्केट हैं और तकरीबन राज्य से कपड़ा निर्यात का 40 फीसदी हिस्सेदारी अकेले सूरत रखता था, जो अब घट रही है। देखने में आया है कि जीएसटी लागू होने के बाद से कपड़ा व्यापारी अब दूसरे कामों तक में हाथ आजमाने को मजबूर हो रहे हैं। रूई और कपड़ों में जीएसटी की दरों को लेकर हज़ारों छोटे और बड़े व्यापारियों ने कई दिनों तक हड़ताल भी की थी। इस उद्योग से बड़े पैमाने पर जुड़े सूरत के पाटीदार समुदाय ने भी केंद्र और राज्य सरकार के िखलाफ हड़ताल आदि की थी; लेकिन सरकार पर कोई भी असर नहीं हुआ और इन व्यापारियों को कोई राहत नहीं मिली। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली से जब इस मामले को लेकर व्यापारी और उद्योपति वर्ग मिला था, तब उन्होंने संसद में इस मामले को उठाने का वादा किया था; लेकिन उठाया नहीं था। इसे लेकर गुजरात के उद्योगपति प्रधानमंत्री कार्यालय को भी पत्र लिख चुके हैं, पर कोई फायदा नहीं हुआ है। समस्या जस की तस है। उद्योग और उत्पादन सब कुछ घट रहा है और बेरोज़गारी बढ़ रही है।

विचारणीय पहलू यह है कि इससे न केवल कपड़ा उद्योग ठप हुआ है, बल्कि सरकार को मिलने वाले कर में भी कमी आयी है। ऐसे में सरकार को समझना चाहिए कि भले ही कर अधिक कर दिया जाये, परन्तु अगर उत्पादन ही घट जाएगा और निर्यात कम हो जाएगा, तो फिर अधिक कर वसूलने से भी उतनी वसूली नहीं हो सकती, जितनी अधिक उत्पादन और निर्यात से हो सकती है। क्या सरकार ऐसा करके चीन का व्यवसाय नहीं बढ़ा रही है? क्या देश में इससे आर्थिक समस्या, बेरोज़गारी और बेकारी नहीं बढ़ रही है? क्या कम रोज़गार अपराध को बढ़ावा नहीं देता? क्या सरकार यह इंतज़ार कर रही है कि यह उद्योग ठप हो जाए? या फिर यह सोच रही है कि यह उद्योग धीरे-धीरे पनप जाएगा? व्यापारी रो-पीटकर बढ़ा हुआ कर देने लगेंगे? या फिर यह इंतज़ार कर रही है कि जब गुजरात के व्यापारी इस उद्योग से काफी दूरी बनाने लगेंगे, तो विदेशी हाथों में इस इंडस्ट्री को सौंपने का सुनहरा अवसर हाथ लग जाएगा? अगर सरकार की इनमें से एक भी सोच है, तो यह बहुत ही ग़लत और घातक है। इससे आिखर देश और देश के लोगों का ही बड़ा नुकसान होगा।

किस शहर में कौन-सा कपड़ा अधिक?

अहमदाबाद : अहमदाबाद सूती वस्त्र उत्पादन का मुख्य केन्द्र है।

सूरत : इस शहर में पॉलिस्टर के कपड़े का उत्पादन सबसे अधिक होता है।

कच्छ : कच्छ हाथ से प्रिंटेड किये कपड़ों के लिए मशहूर है।

जेतपुर : डाइंग और प्रिंटिंग के लिए जेतपुर का नाम अग्रणी है।

आखिर क्यों उछल रहे प्याज के दाम

यह बेहद दयनीय स्थिति है कि एक तरफ बफर स्टॉक में 50 फीसद प्याज सड़ गया है, दूसरी तरफ प्याज के कीमतें लगातार बढक़र उपभोक्ताओं के आँसू निकलवा रही हैं। प्याज के बफर स्टॉक में सडऩे पर तो कोई कुछ नहीं बोल रहा; लेकिन केन्द्रीय खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री राम विलास पासवान इसको प्राकृतिक प्रकोप कह रहे हैं। बाज़ार में प्याज की आसमान छूती कीमतों की वजह जानने के लिए तहलका में स्वतंत्र लेखक ने सबसे अधिक प्याज उत्पादक राज्य महाराष्ट्र के अखिल भारतीय किसान सभा के राज्य महासचिव अजित नवले से बात की।

बातचीत में अजीत नवले ने बताया कि हम पहले से यही बात रखते आ रहे हैं कि प्याज का मामला जो बार-बार आ रहा है। शहरों में ऑफ सीजन में इसकी कीमत बढ़ जाती है। किसान को फिर भी कुछ नहीं मिलता। प्याज का सवाल उत्पादन में कमी का कोई सवाल नहीं है। हमारे देश में जितनी प्याज की ज़रूरत है, हमारे किसान उतना प्याज उगाते हैं। महाराष्ट्र में तीन मौसम में प्याज आती है; जिस कारण बाज़ार में नियमित आपूर्ति करना सम्भव है। लेकिन हम यही बात बार-बार कह रहे हैं कि ये उत्पादन में कमी का मामला नहीं है, बल्कि आपूर्ति-तंत्र में जो धोखाधड़ी का सवाल है। इस आपूर्ति तंत्र में जब तक सरकार हस्तक्षेप नहीं करेगी, यह ऐसे ही चलता रहेगा। इससे किसानों को उसकी मेहनत का अचित दाम नहीं मिलेगा और दूसरी तरफ उपभोक्ताओं की जेब ढीली होती रहेगी। इसमें बिचौलिए मालामाल होते रहेंगे।

महाराष्ट्र में तीन चार •िाले में •यादा प्याज का उत्पादन होता है। उसमें नासिक, नगर और पुणे का कुछ भाग है। जहाँ देश के कुल उत्पादन का 40 प्रतिशत प्याज महाराष्ट्र में उत्पादन होता है। हमारे जितने भी •िाले हैं, उसमें से महज ढाई •िाले में इतनी बड़ी तादाद में प्याज बनती है। हमें यह मालूम है कि जब प्याज का उत्पादन होता है, तो उस समय किसान एक साथ उसको बाज़ार में लेकर आता है। हमारे यहाँ के किसान बहुत ही छोटे भूमिखण्ड वाले किसान हैं। मान लीजिए किसी किसान के पास तीन या चार एक ज़मीन है, तो वह किसान पूरे चार एकड़ में प्याज नहीं लगाता है। वह 15-20 गुट्ठा (गट्ठा) या •यादा-से-•यादा आधे एकड़ में प्याज बोता है। इन छोटे किसानों से यह उम्मीद की जाए कि अपने उत्पादन के लिए खुद बफर स्टॉक बनाये। यह असम्भव है। जब प्याज की फसल पकती है, तो वह उसे सीधे मण्डी में लेकर आता है। नहीं तो उसकी प्याज या तो बारिश के कारण या ओले के कारण खराब हो जाएगी। मण्डी में व्यापारी या बड़े-बड़े स्टॉक करने वाले लोग या उस समय न सिर्फ महाराष्ट्र में उस समय प्याज पूरे देश भर में आपूर्ति की जाती है। वहाँ का स्थानीय व्यापारी प्याज को खरीदकर आपूर्ति करने का काम करते हैं। वहाँ से पूरे देश के बड़े-बड़े बफर स्टॉक करने वाले व्यापारी प्याज खरीदकर इसका स्टॉक करते हैं। महाराष्ट्र में बहुत बड़े-बड़े स्टॉक आपको अधिक नहीं मिलेंगे; थोड़े-बहुत हैं। लेकिन पूरे भारत में इसकी आपूर्ति की जाती है। जहाँ इसका बफर स्टॉक किया जाता है। सीजन के समय ये लोग बहुत कम कीमत पर किसानों से प्याज खरीदते हैं। उसका स्टॉक करते हैं और जैसे ही अब किसानों के पास प्याज नहीं रहता है, तो थोड़ी कमी होती है। ये लोग नियोजित कमी दिखाकर प्याज को स्टॉक से बाज़ार में लाते हैं और मनमानी कीमत उपभोक्ताओं से वसूलते हैं और मुनाफाखोरी कर करोड़ों रुपये कमाते हैं। यह दोनों तरफ लूट मचाते हैं। एक तरफ किसान को लूटते हैं और दूसरी तरफ ग्राहकों को।

प्याज बहुत •यादा सड़ जाता है; यह मैं नहीं मानता। बड़े-बड़े व्यापारी जो बफर स्टॉक रखते हैं, वे इसका हिसाब लगाते हैं। मान लीजिए आप किसानों से चार या पाँच रुपये के हिसाब से खरीदी हुई प्याज की कीमत अगर सौ रुपये मिल जाती है, तो अगर कुछ सड़ती भी है या कुछ बर्बाद भी होती है, फिर भी व्यापारी फायदे में ही रहता है। स्टॉक होल्डर वैज्ञानिक तौर-तरीके के हिसाब से कितना प्याज सड़ गयी है, उस हिसाब से ही व्यापारी बाज़ार में प्याज को लाते हैं। उनकी नीति है कि किस सीजन में किस कीमत में बाज़ार में प्याज लानी है? उससे कम कीमत पर वे बाज़ार में नहीं लाएँगे। वे लोग अस्सी रुपये से सौ रुपये तक बनाये रखेंगे। इसके लिए उनकी आपसी समझ भी है। यह एक नियोजित मामला है। देश को जितनी प्याज की ज़रूरत है, किसान उतना उत्पादन करता है; लेकिन आपूर्ति में घपला है।

किसान सभा इसके लिए बार-बार माँग करती है कि इसके लिए उनको कानून की धमकी देकर या उनको दण्डित करके यह मसला बिलकुल हल होने वाला नहीं है। हम यह कह रहे हैं कि सरकार को वितरण प्रणाली में पुख्ता हस्तक्षेप करना चाहिए। कुछ इस प्रकार की यंत्रणा सरकार को करना चाहिए, जिस प्रकार की बात निर्मला सीतारमण ने अपने भाषण में कही। लेकिन सिर्फ भाषण किया उसमें कुछ हुआ नहीं। पिछली बार स्वर्गीय जेटली जी ने भाषण किया। कुछ हुआ नहीं। कृषि मंत्री हमारे देश में हैं, ऐसा हमारे किसानों को महसूस ही नहीं होता है। किसानों से जाकर अगर पूछेंगे कि कौन है आपका केन्द्रीय कृषि मंत्री? तो उन्हें यह तक नहीं मालूम होता है। सिर्फ वे हमारे प्रधानमंत्री जी का नाम ही बता पाएँगे। निर्मला सीतारमण ने भाषण किया था कि हरेक प्याज उत्पादक गाँव में आप अगर सरकारी गोदाम खड़ा करेंगे। सरकारी अनुदान के चलते आप किसानों को ज़मीन भी देंगे और भण्डारण की भी व्यवस्था करेंगे। अगर वहाँ किसान अपने उत्पादन को भण्डारण कर पाता है, तो यह एक तरीके से किसानों को राहत मिलेगी। जब ऑफ सीजन रहेगी, तो किसानों को दो पैसे •यादा मिलेंगे। फिर सरकार एक सीमा तय कर पाएगी कि ठीक है, ऑफ सीजन है; लेकिन आप 30 या 40 रुपये से ऊपर प्याज नहीं बेचेंगे। जो किसान और ग्राहक दोनों के हित में होगा। यह हस्तक्षेप सरकार की तरफ से होना चाहिए। तब आज की तरह की स्थिति पैदा नहीं होगी।

सरकार की तरफ से कीमत निर्धारण नहीं होना चाहिए। हम किसान सभा कह रही है कि सरकार अपर लिमिट तय न करे। प्याज कोई जीवन आवश्यक चीज़ नहीं है। जो प्याज नहीं खायेगा वह जीवित ही नहीं रहेगा। किसानों पर अत्याचार करेंगे। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। उस पर और निर्बल लादेंगे। आप कहेंगे कि प्याज की कीमत सरकार तय करेगी, सब्ज़ी की कीमत सरकार तय करेगी, सुगर की कीमत सरकार तय करेगी और जो किसानों को सहायता करना है, नहीं करेगी। इस बात का किसान सभा समर्थन नहीं करती है। हम कतई यह नहीं कहेंगे कि प्याज की कीमत पर सरकार हस्तक्षेप करे। हम कह रहे हैं कि जो बिचौलिये, मुनाफाखोर धोखाधड़ी कर रहे हैं। उस व्यवस्था को दुरुस्त कीजिए। सरकार को खुद खरीद के लिए आगे आना चाहिए। जैसे कि पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश में धान या गेहूँ की खरीद होती है। उस तरह से सहायता कीमत सरकार दे। फिर जब बाज़ार में सॉटेज हो तो वह स्टॉक प्याज को बाज़ार में ला सकती है। दूसरी तरफ किसान अपने खेद में ही स्टोर कर पाये। इसकी योजना बनाकर कुछ अनुदान देकर किसानों को सक्षम बनाये, जिससे वह अपने प्याज को स्टोर कर पाये।

हम किसान सभा सबसे पहले किसानों के लिए माँगेंगे कि प्याज के उत्पादन मूल्य को सबसे पहले मानिए। किसानों को स्वामिनाथन आयोग की तर्ज पर आप डेढ़ गुना दाम तय कीजिए। प्याज उत्पादकों को इतना मिलेगा, जो हमारा हक भी है। अगर सरकार प्याज को जीवन आवश्यक वस्तु के दायरे में ला चुकी है। तब उनकी •िाम्मेदारी बनती है कि वे प्याज की न्यूनतम सहायता राशि दे। लेकिन नहीं दे रही है। प्याज की कोई सहायता राशि सरकार ने घोषित नहीं किया है। हम कह रहे हैं कि पहला यह सुनिश्चित कीजिए कि किसानों को इससे नीचे कीमत नहीं मिलेगा। यह रहा न्यूनतम सहायता और अब सरकार अधिकतम कीमत के लिए भी आये और ग्राहकों को राहत देने के लिए खुद स्टोर करे। खुद खरीदें। जैसे कुछ हद तक दिल्ली सरकार कर रही है। केरल सरकार कर रही है। कुछेक स्टोरेज व्यवस्था सरकार बनाये और दूसरी ओर नफाखोरी को ध्वस्त करने के लिए कुछ नियम कायदे भी बनाये; जिसके चलते इस मुनाफाखोरी को रोका जाए।

जहाँ तक महाराष्ट्र सरकार का सवाल है अभी नयी सरकार बनी है, पता नहीं वह क्या करेगी? इससे पहले भाजपा की फणनवीस सरकार ने किसानों के साथ बहुत •यादती की है। जब बहुत दाम गिरे बाज़ार में बहुत •यादा प्याज एक साथ आयी, तो सरकार ने किसानों को रोने के लिए मजबूर किया। उसने किसानों की कुछ मदद नहीं किया और सिर्फ धोषणा की की हम किसानों को एक रुपये प्रति किलो देंगे। वास्तव में एक रुपये प्रति किलो भी सरकार ने नहीं दिया। उसमें बहुत सारी शर्तंे लगायी और किसानों को छोड़ दिया और कोई मदद नहीं किया। जब दाम गिरती है, तो सरकार खड़ी नहीं रहती है। जब दाम बढ़े तो निर्यात पर पाबंदी लगा दी सरकार ने। पहले पूरे निर्यात मूल्य पर लगायी, फिर पूरे निर्यात पर लगायी। इस तरह किसानों को कम कीमत पर बेचने के लिए बाध्य किया। महाराष्ट्र सरकार ने दोनों तरफ से किसानों के साथ धोखाधड़ी की। महाराष्ट्र में 100 रुपये प्याज की स्थिति कभी नहीं बनती है। मुम्बई या कुछ मेट्रोपोलिटन सिटी में 60-70 रुपये तक प्याज की कीमत बढ़ जाती है। महाराष्ट्र की सरकार उस समय ग्राहकों के लिए भी कुछ नहीं करती। न तो व्यापारियों को कम कीमत पर बेचने के लिए कहती है, न ही स्टॉक के निर्धारण के लिए कुछ करती है। किसानों के हित के िखलाफ करती है। यह हमारे महाराष्ट्र का अनुभव है।

गरीबी को समझने का ककहरा

देश में गरीबी है? कितने होंगे गरीब? कितनी दिहाड़ी होनी चाहिए? पहले कभी 20 रुपये रोज़ की बात थी? क्या वाकई महँगाई बढ़ी है?

ये कुछ सवाल हैं, जिनसे भारत देश की बहुसंख्यक जनता रोज़ जूझती है। सत्ता सँभालने वाले नीति आयोग और बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों से सलाह लेते हैं। वे किताबों, फाइलों में अपनी बात तलाशते हैं। केन्द्रीय वित्त मंत्री कहती हैं कि विकास भले कुछ धीमा हुआ हो, लेकिन बाज़ार में न मंदी है और न रोज़गार में कमी। अब नया शिगूफा यह शुरू हुआ है कि कैसे गरीबी की मापजोख की जाए? दिहाड़ी की न्यूनतम दर क्या तय की जाए?

देश में शिक्षा आज भी बदहाल अवस्था में है। देहाती क्षेत्रों में तो प्राइमरी और हाई स्कूल भी बच्चों को करा पाना कठिन हो रहा है। अभी ऊँची शिक्षा में जो नीति है, उसका खासा विरोध पूरे देश में छात्रों ने संसद के बाहर तक जताया है। देश की समस्याएँ, जिन्हें बीतते समय के साथ हल होना था, आज विकराल हो गयी हैं। हर कहीं छोटे-छोटे गुट मािफया बन गये हैं। एक व्यवस्थित प्रणाली का विकास नहीं हुआ। एएसईआर (ग्रामीण) की 2018 की रिपोर्ट में बताया गया है कि कक्षा चार के 50 फीसद ही बच्चे काबिल हैं। किसी व्यवस्थित प्रणाली के न होने से शिक्षा, आहार, स्वास्थ्य, रोज़गार, उद्योग, निर्माण, कृषि आदि क्षेत्रों के लिए नियत राशि का योगदान भी विकास की बुनियाद में नहीं लग पाता। हुनरमंद होने की शिक्षा भी कुछ तक ही पहुँच पाती है। बेरोज़गारी का आँकड़ा आसमान छू रहा है। लेकिन वित्तमंत्री को लगता है कि विकास धीमा ज़रूर है; लेकिन मंदी नहीं है।

पिछले दिनों विश्व बैंक की एक रिपोर्ट आयी है। इसमें साफतौर पर बताया गया है कि गरीबी को जानने का पैमाना यह होना चाहिए कि जिससे यह देखा जाए कि 10वीं पास छात्र ठीक तरह से पढ़-लिख पाता है या नहीं। विद्यार्थी भले ही वह लडक़ा हो या लडक़ी; यदि वह अपने विषय को समझते हुये ठीक-ठाक जवाब नहीं दे पाता, तो ज़ाहिर है उसका पढऩा-लिखना बेकार गया। दरअसल, माना जाता है कि शुरुआती शिक्षा पर ध्यान दिया जाना चाहिए, जिससे आगे चलकर बच्चा अपने परिवार के और समाज के विकास में योगदान कर सके। जिन देशों में शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया, वहाँ एक पूरी जमात पढ़े-लिखे लोगों की विकसित हुई, जो अच्छे श्रमिक भी बने। लेकिन हम अभी इस ओर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। आप देखें कि 70 के दशक में ही लैटिन अमेरिकी देशों, चीन और दक्षिण कोरिया आदि में प्राथमिक शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया। उनकी अर्थ-व्यवस्था भी हमारे देश की तुलना में खासी मज़बूत दिखती है।

हमारे देश में भी नये शिक्षामंत्री जो जाने-माने साहित्यकार हैं; वे नयी शिक्षा नीति जल्द जारी करने को हैं। उनकी शिक्षा नीति किस हद तक लोगों को प्रशिक्षित करेगी कि वे कुशल श्रमिक भी बनें और देश की अर्थ-व्यवस्था भी सुधार सकें। कुशल श्रमिक बनना तभी सम्भव है, जब प्राथमिक शिक्षा, सेकेंडरी शिक्षा में सर्वोच्च अंक आयें और इसके लिए शिक्षा विभाग में बाबुओं की जमात नहीं, बल्कि कुशल और रुचि लेकर बच्चों की विकसित करने की नज़र रखने वाले अधिकारियों की संख्या बढ़े। पूरे देश में बदलाव की धारा बड़ी ज़रूरी है; लेकिन अभी बहुत कुछ होना है। मोटे तौर पर देश में शहरी और ग्रामीण भारत में एक बड़ी खाई भी नज़र आती है। जिसे पाटने का काम नीति आयोग का है। मोटे तौर पर देश में जो आर्थिक-सामाजिक खाई है, उसको जाननेे की कोशिश में देखिए। एक शहरी परिवार है। परिवार में माता-पिता और तीन किशोरियाँ हैं। एक लडक़ी हाई स्कूल में है। मार्च-अप्रैल में परीक्षा है; लेकिन वह अब पढ़ नहीं सकेगी। परीक्षा की बढ़ी हुई राशि जुटा पाने में परिवार असमर्थ है। परिवार के मुखिया की कमाई पहले अच्छी थी। परिवार खुशहाल था। लेकिन अब 10-15 हज़ार भी नहीं जुटा पाते। कोई पैसा देने को राज़ी नहीं। माँ की एक नौकरी है। प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने की। पाँच हज़ार आ जाते हैं। लेकिन कितनी महँगी है पढ़ाई-लिखाई। खाना-पीना। बच्चों पर आधुनिक बदलते भारत की तस्वीर है; पर करें क्या?

गाँव का एक परिवार। परिवार में बुजुर्ग माता-पिता। घर में एक नौजवान और उसकी पत्नी। गोद में एक बच्चा। एक लडक़ी और लडक़ा। दोनों बच्चे प्राइमरी में पढ़ते थे। गाँव में ही। लेकिन बड़ी मुश्किल से सातवीं तक पढ़ पाए। घर में बस इतनी खेती, जिससे गुज़र-बसर हो जाए। जब कहीं कोई मज़दूरी का काम पड़ता है, तो पूरो परिवार जाता है। नौजवान को काम मिलता है, पर पैसा अटकता है। दाल-चावल के अलावा बाकी सब तो खरीदना ही पड़ता है। पढऩा-लिखना बन्द। मदद के लिए बड़ी-बड़ी बात बोलने वाले आते हैं। पर कोई कुछ नहीं करता।

शहरी भारत और ग्रामीण भारत की ये दो तस्वीरें हैं। आज़ादी के 72 साल बाद भी भारतीय समाज की बेचारगी कि इन तस्वीरें का उभरना ठीक नहीं है। सरकारी विज्ञापनों में अलबत्ता खुशहाल भारत, शिक्षित भारत स्चच्छ भारत की रंगबिरंगी मनमोहक तस्वीरें दिखती हैं, घोषणाएँ होती हैं; लेकिन भारत के आम नागरिक के चेहरे पर दु:ख, हताशा के ही भाव क्यों दिखते हैं? इस पक्ष प्रश्न का जवाब बड़ा कठिन है। पक्ष और विपक्ष ज़रूर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करते हैं। लेकिन समस्या के निदान पर दोनों को कहीं एक होना ही होगा।

यूनेस्को की किसी एजेंसी ने भी भारत में गरीबी की पड़ताल की है और खासी चिंता जताई है। गरीब देशों की संख्या में भारत का स्तर और भी नीचे •यादा आता जा रहा है। देश में जिस तरह स्वच्छता अभियान की जागरूरता कुछ तो बढ़ी। उसी तरह ज़रूरत है कि शिक्षा, स्वास्थ्य अभियान की; न केवल शहरों, बल्कि गाँवों में भी। गाँवों मेें ठीक शिक्षा प्रसार होने पर ही बदलते भारत को मज़बूत प्रतिभाशाली श्रमिक ताकत हासिल होगी। देश एक मज़बूती पा सकेगा।

इंस्टीट्यूट ऑफ  इकोनॉमिक ग्रोथ की एक रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा के समुचित विकास से भ्रष्टाचार के मामलों में भी कुछ कमी हुई है। महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी योजना का ठीक तरह से ग्रामीण इलाकों में विकास किया जाना चाहिए, जिससे गाँव-गाँव में जल संचय के लिए साफ तालाब बनें, अच्छी सडक़ें, स्कूल और अच्छे घर बनें और गाँवों में ही गौशालाएँ हों। इससे न केवल गाँव के गरीबों के सामने काम के मौके बनेंगे, बल्कि उनका पारिवारिक जीवन स्तर भी सुधरेगा।

जीवन स्तर सुधरता है आमदनी से। आमदनी हो इसमें सक्रियता दिखाने का काम पंचायत और उसके मुखिया का है। निर्देश देने और नज़र रखने के लिए पूरा एक प्रशासनिक तंत्र है, जो विकसित है। ज़रूरत है इस तंत्र को इतना काबू में रखा जाए, जिससे सिर्फ सपने न दिखाये जाएँ, बल्कि ज़मीन पर विकास हो और जनता भी खुशहाल हो।

केन्द्र सरकार का श्रमेव जयते और श्रम कानून किसका?

वर्तमान में केन्द्र सरकार के नारे और श्रम सुधार के नाम पर किये जा रहे बदलाव से बाबा नागार्जुन की पंक्तियाँ बरवस याद आ गयी :-

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?

कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है?

मैं ऐसा इसीलिए कह रहा हूँ, क्योंकि सत्तापक्ष के लोग ऐसा कह रहे हैं कि श्रम कानून में सुधार कर वे ‘समाज के तमाम वो वर्ग, जो अब तक न्यूनतम मज़दूरी के दायरे से बाहर थे; खासकर असंगठित क्षेत्र के मज़दूर। फिर चाहे वो ठेला चलाने वाले हों, सिर पर बोझा ढोने वाले हों, खेतिहर मज़दूर हों, घरों में सफाई-पुताई करने वाले हों, ढाबे पर काम करने वाले हों, घरों में काम करने वाली महिलाएँ हों या पॉस कॉलोनियों या संस्थानों में पहरेदारी कर रहे सिक्योरिटी गार्ड हों। नया श्रम कानून बनने के बाद हर वर्ग के मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी का अधिकार मिल जाएगा।’ इसलिए सरकार ने वेजेज कोड बिल को पास कर दिया है। सरकार का कहना है कि यह कानून पुराने पड़ चुके कानून की जगह लेगा, जिससे हर वर्ग के मज़दूरों का हित सधेगा। इसीलिए श्रम कानून में बदलाव का सरकार का फैसला ऐतिहासिक है। पास किये गये बिल में 32 श्रम कानूनों को चार कोड्स में समाहित किया जा रहा है, जिसमें मिनिमम वेजेज एक्ट, पेमेंट ऑफ वेजेज एक्ट, पेमेंट ऑफ बोनस एक्ट और एक्वल रैम्यूरेशन एक्ट को शामिल किया गया है। लेकिन अधिकांश श्रमिक संगठन नये श्रम कानून का विरोध कर रहे हैं।

श्रमिक संगठनों का मानना है कि इस तरह का श्रम कानून में परिवर्तन मज़दूरों के नहीं, मालिकों के हित में है। जिसे श्रमिक संगठन कॉर्पोरेट सेक्टर को फायदा पहुँचाने के तौर पर देख रहे हैं। अब हम देखते हैं कि इस बिल का विरोध कर रहे मज़दूर संगठनों का क्या कहना है और वे इसका विरोध क्यों कर रहे हैं? सेन्टर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियन के महासचिव तपन सेन ने जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि भाजपा सरकार अपने कॉर्पोरेट बॉस को मौज़ूदा श्रम कानून की जगह श्रम सुधार के नाम पर पुन: भुगतान करने में शीघ्रता दिखा रही है। साथ ही चार लेबर कोड लाकर मौज़ूदा श्रम कानून में प्रदत्त मज़दूरों के अधिकार और प्रावधानों को खत्म कर रही है। इसीलिए भाजपा सरकार इस कानून को वापस ले। वहीं ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के महासचिव अमजीत कौर और न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव के महासचिव गौतम मोदी ने कहा कि भाजपा सरकार श्रम सुधार के नाम पर जिस श्रम कानून को बदलने की कोशिश कर रही है, वह श्रमिकों के अहित में है। इसीलिए श्रमिक संगठनों की माँग है कि बिल को वापस लिया जाए। नेशनस एलांयस आप जर्नलिस्ट और दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट के अध्यक्ष एस.के. पांडे और महासचिव सुजाता मधोक ने बताया कि इस कोड बिल के तहत सबसे पहले तो वॢकंग जर्नलिस्ट एक्ट 1955 को खत्म किया जा रहा है। साथ ही वेज बोर्ड के प्रावधानों को भी खत्म किया जा रहा है। वैसे ही पहले मालिकों ने तमाम पत्रकारों को ठेके पर ला दिया है। इस कोड के ज़रिये वे मालिकों के इस कृत्य पर मोहर लगा दिया है। अब मज़दूर अपना हक माँग ही नहीं सकता है।

सरकार पक्ष का दावा है कि कई बार श्रमिकों को उनका वेतन और पारिश्रमिक महीने के अन्त में नहीं मिलता है। कई बार तो दो-तीन महीने तक नहीं मिलता है, जिससे उनके परिवार वाले लोग परेशान हो जाते हैं। सभी को न्यूनतम मज़दूरी मिले और वह मज़दूरी समय पर मिले। यह हमारी सरकार की •िाम्मेदारी है; जिसे हम इस बिल के ज़रिये सुनिश्चित कर रहे हैं। मासिक वेतन वाले को अगले महीने की सात तारीख, साप्ताहिक काम करने वालों को सप्ताह के आिखरी दिन और दिहाड़ी पर काम करने वालों को उसी दिन वेतन मिले। यही इस बिल का प्रावधान है।

वहीं लगभग सभी श्रमिक संगठनों का मानना है कि 178 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से न्यूनतम वेतन यानी मासिक 4628 रुपये मिलेगा। लेकिन श्रमिक संगठनों की माँग है कि न्यूनतम वेतन 18000 रुपये हों। लेकिन सरकार इसे एक चौथाई पर लेकर आ रही है। हमारी माँगे मानने की बजाय वो नेशनल मिनिमम वेज फिक्स करने की कोशिश कर रही है। लेकिन सरकार का दावा है कि फ्लोर वेज त्रिपक्षीय वार्ता के ज़रिये तय किया जाएगा। साथ ही आम लोगों के सुझाव को भी इसमें शामिल किया जाएगा। लेकिन श्रमिक संगठनों का दावा है कि सरकार ने कोडिफिकेशन की प्रक्रिया में त्रिपक्षीय वार्ता को तवज़्ज़ों नहीं दी है। श्रमिक संगठनों का कहना है कि जिन कोड पर थोड़ी बात हुई थी। उस पर भी उनके किसी पक्ष को स्वीकार नहीं किया गया।

श्रमिक संगठन एक स्वर में कह रहा है कि सरकार यह प्रयास कर रही है कि मालिक जो सुविधा माँग रहे हैं, वह सुविधा उन्हें दी जा रही है। मज़दूरों का आज का अधिकार कि वह अपने श्रमिक संगठनों के माध्यम से शिकायत दर्ज कर सकते हैं। उससे यह अधिकार छीना जा रहा है। यह न सिर्फ श्रमिकों के िखलाफ है, बल्कि उन पर हमला है। ऑक्युपेशनल सेफ्टी, हेल्थ कोड पर अभी आरम्भिक स्तर पर चर्चा हो रही थी। अभी जबकि वह चर्चा आगे भी नहीं बढ़ी है। वेज कोड के ज़रिये वेज को केलकुलेट करने का क्राइटेरिया बदल रहे हैं। 15वीं इंडियन लेबर कॉन्फ्रेस में जो क्राटेरिया बनाया गया था। उसे नज़रअंदाज किया गया है। इस पर सुप्रीम कोर्ट में पूर्व में एक मामला आया था, जिसमें माँग किया गया था कि इंडियन लेबर कॉन्फ्रेस में जो क्राटेरिया तय किया गया था, उसमें 25 प्रतिशत और जुडऩा चाहिए; जिससे वो परिवार की शिक्षा और अन्य ज़रूरतों को पुरा कर सके। उसी को आधार मानकर सातवें वेतन आयोग ने 18,000 रुपया केलकुलेट किया था। जबकि श्रमिक संगठनों ने 26,000 रुपये की माँग की थी। लेकिन उस कमिटी ने 21,000 रुपये मान लिये थे। हमने सभी श्रमिकों के लिये 18,000 रुपये माँगे। उसकी जगह सरकार ने उसे 5,000 रुपये से भी नीचे ला दिया है। सरकार की इस तरह की दोहरी नीति समस्त कार्यबल को बाहर फेंकने का तरीका है।

इसी तरह इस वेज कोड में फिक्ड टर्म इंप्लायमेंट आ गया है, जिससे वेज कभी फिक्स ही नहीं हो पाएगा। क्योंकि आपने कह दिया है कि आप पाँच घंटे, पाँच दिन या 10 दिन के लिए काम लिया है; उतने का ही कॉन्ट्रेक्ट होगा, तो वेज कैसे केलकुलेट होगा। ऑक्यूपेशनल सेफ्टी हेल्थ को लेकर 13 कानून थे, उसे मिलाकर एक जगह ला दिया गया है और उसमें साफतौर पर इंगित किया गया है कि 10 कर्मचारी होने पर ही लागू होगा। इसका सीधा-सा अर्थ है कि 93 प्रतिशत कार्यबल इससे बाहर हैं। जो लोग दिहाड़ी मज़दूर या कॉन्ट्रेक्ट वर्कर हैं, वह इससे बाहर हैं। सरकार को करना यह चाहिए था कि जो मज़दूर कानून से बाहर हैं, उसके लिए कानून लाए। लेकिन हुआ उलटा है, जो मज़दूर इस कानून के तहत अन्दर सुरक्षित थे, वह असुरक्षित हो गये और जो असुरक्षित थे वह असुरक्षित ही रहेंगे। यह झूठ बोला जा रहा है कि सभी को सेफ्टी और सिक्योरिटी मिल जाएगा। श्रमिकों पर स्वास्थ्य सम्बन्धी खतरे आने वाला है। क्योंकि आप बीड़ी उद्योग के मज़दूर, पत्थर तोडऩे वाले मज़दूर, एटोमिक एनर्जी या न्यूक्लियर प्लांट में काम करने वाले मज़दूर, खादान में काम करने वाले मज़दूर, बिजली प्रोडक्शन में काम करने वाले मज़दूर या सीवर में काम करने वाले मज़दूरों की एक साथ तुलना नहीं कर सकते हैं। इन सब की दिक्कतें अलग-अलग हैं और उनसे फैलने वाली बीमारियाँ और उसका इलाज अलग-अलग है; जिसमें सरकार ने वर्क  कंडीशन और वेलफेयर दोनों को अलग कर दिया है। इसीलिए यह कोड बहुत ही हानिकारक है।

कोड फॉर इंडस्ट्रीयल रिलेशन

जिसमें सरकार ने सीधा-सीधा श्रमिक संगठनों पर हमला बोला है। केन्द्रीय श्रम मंत्री संतोष कुमार गंगवार ने राज्य सभा में बताया कि नये कानून में प्रावधान है कि मजदूरों को हड़ताल करने के लिये कम-से-कम 14 दिन पहले अनुमति लेना अनिवार्य होगा। सरकार ने प्रस्तावित इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड बिल में ट्रेड यूनियन एक्ट 1926, इंडस्ट्रीयल इम्पलायमेंट (स्टेंडिंग ऑडर) एक्ट 1946, इंडस्ट्रीयल डिस्प्यूट एक्ट 1947 को मिलाकर केन्द्र सरकार ने केन्द्रीय श्रम कानूनों के लिये चार लेबर कोड लाया है।

जिसमें श्रमिकों के हड़ताल का अधिकार छीन लिया है। साथ हीं साथ हड़ताल से पहले होने वाले गतिविधियों पर भी नकेल कसा गया है। इसमें कहा गया है कि 50 प्रतिशत लोग लीव लेकर भी हड़ताल करते हैं तब भी उसे हड़ताल मानेंगे और उसके खिलाफ कारवाई करेंगे। अगर आप समूह में प्रबंधक के पास जायेंगे, उसे भी व्यवधान माना जायेगा। उसकी भी इजाजत नहीं दी जायेगी। इस तरह श्रमिक संगठनों को खत्म करने पर आमादा हैं। जिससे से श्रमिक अपनी अधिकारों की आवाज बुलंद न कर सके।

इस कोड बिल के तहत महिलाओं के लिये भी नुकसान होने जा रहा है। जोखिम भरे उद्योगों में महिलायों को काम करने की इजाजत दी जायेगी। फैक्ट्री और खादान में रात्री की पारी में काम करने की इजाजत पहले ही दे दी गई थी। अब कोड में डालकर इसको सुनिश्चत किया जा रहा है। इसके साथ ही मौजूदा सोशल सेक्यूरीटी के प्रावधानों को समाप्त करने की साजिश रची जा रही है।

इन तमाम तथ्यों को देखते हुये कहा जा सकता है कि श्रमेव जयते के नाम पर मोदी सरकार श्रमिकों के अधिकारों को छीन कर श्रमिकों के साथ हास्यास्पद उपहास करने जा रही है। इसी बाबा नागार्जुन की यह पंक्तियाँ किसकी है जनवरी किसका अगस्त है? कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है? बहुत ही विचारनीय है।

धुएँ की गिरफ्त में दिल्ली

आज कल काला धुआँ और धुन्ध ने समाज को आपातकालीन हालत में ला दिया है एक ओर राष्ट्रीय हरित न्याधिकरण और सुप्रीमकोर्ट कोर्ट इसके लिए बार-बार चिंता जाहिर करते हुए निर्देशन जारी कर रही है दूसरी तरफ दिल्ली और केंद्र की सरकारें हमेशा की तरह राजनैतिक नफा- नुकसान के हिसाब लगाने में ही व्यस्त है।

देश और दुनिया के तमाम अध्ययन द्दद्म4द्मह्म् स्रद्मह्य बद से बदतर बया कर रही है कि काला धुआँ कैसे लोगों को तबाह कर रही है परन्तु सरकार यह तथ्य साबित करने में पूरी ताकत लगा रही है कि इस हालत के लिए उसकी सरकार दोषी नहीं है बल्कि पड़ोसी पंजाब के किसानों ने शाजिसन यह हालत पैदा किया है और वे ही कृषि उपज को जलाकर धुआँ दिल्ली की ओर भेज रही है जिससे हमारे राज्य के लोगों की जान जोखिम में आ गया है। इस लिए पूरा दोष उनका है हमारा नहीं। लेकिन प्रदुषण का तांडव फैलाने और इस हालत को खतरनाक स्थिति तक ले जाने वाले लाखों मोटर वाहनों को निर्वाध्य चलने के लिए न सिर्फ छोड़ दिया गया है जो जिन्दा समाज को मौत की सायें में जीने को मजबूर कर रहा है। बात इतनी भर नहीं है विगत तीन दशको के दौरान तमाम पार्टियों की सरकारें इन्हें फलने, फूलने और चलने के लिए शहरवासियों के पैसे को उन्ही सार्वजनिक ढांचा द्गह्यड्ड निवेश करती रही है जो उनके उपभोग के लिए के लिए है।

भारत का राजनैतिक नेतृत्व शायद इस मायने में अकेला उदाहरण है जो ऐसे मौकों को भी जनता के हितकारी अवसर में बदलने में दृष्टिहीन साबित होती है बल्कि लोकतंत्र की डीगें हांकते हुए अपना भोददापन उजाकर करता है और दुनिया के कई मुल्क ऐसे  संकट के काल को अपने समाज के लिए अवसर में बदलते हुए।

वर्ष 2015 में पेरिस का एफिल टावर दिखाई देना मुश्किल हो गया था। क्योंकि शहर में वायु-प्रदूषण की बढ़ती गहनता ने वायु की पारदर्शिता को खत्म कर दिया था, इससे थोड़ी दूरी पर देखना और दिखाना आसान नहीं रह गया था। पेरिस-वासियों के लिए यह एक डरावना दृश्य था। उन्होंने बीजिंग, दिल्ली तथा दूसरे शहरों के बारे में ऐसी खबरें सुन रखी थीं, लेकिन खुद उनके शहर में उनके साथ ऐसा हादसा होगा, कभी सोचा नहीं था। इसका प्रभाव पेरिस के आसपास के शहरों तक फैल गया। फ्रांस के पर्यावरण और स्वास्थ्य मंत्री ने बुजुर्गों, गर्भवती महिलाओं, सांस की बीमारी से पीडि़त व्यक्तियों और छोटे बच्चों को इस प्रदूषित वायु से बचने के लिए सतर्क किया। सरकार ने साइकिल शेयरिंग, इलेक्ट्रिक कार और सार्वजानिक परिवहन के इस्तेमाल का आग्रह किया तथा शहर में सम-विषम योजना लागू कर दी गयी7यह तीसरी बार है जब पेरिस में ऐसी आपातकालीन स्थिति का सामना करना पड़ा है। इसके पूर्व 1997 और 2014 में ऐसी ही हालत पैदा हुई थी। तब से नगर निकाय के द्वारा आपातकालीन उपाय के तौर पर सम-बिषम, कार-फ्री दिवस और सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल की अपील की जाती रही है।इसके बावजूद शहर में वायुप्रदूषण, सडक़-जाम और सडक़-दुर्घटनाओं में कोई दीर्घकालिक सुधार होता हुआ नहीं दिख रहा था। इस बार जब पुन: ऐसी हालत हुई और पेरिस के मेयर ऐनी हिडैल्गो ने आपातकालीन उपाय के रूप में वही पुराना तौर-तरीका लागू किया, तब फ्रांस के इकोलॉजी मिनिस्टर सेगोलेने रॉयल ने इसका सार्वजनिक विरोध किया और कहा कि एक लम्बी योजना के वगैर शहर के परिवहन, वायु-प्रदूषण, सडक़-जाम और दूसरी समस्याओं  से निजात पाना संभव नहीं है। ऐनी हिडैल्गो वास्तव में ‘रियल ट्रांसपोर्ट पालिसी’ लागू करने में विफल रही हैं, इसीलिए पुराने कार्यक्रम को बार-बार दुहरा रही हैं। ज्ञातव्य है कि पेरिस की मेयर सुश्री ऐनी हिडैल्गो और फ्रांस की इकोलॉजी मंत्री सुश्री सेगोलेने रॉयल दोनों ही वहां की सोशलिस्ट पार्टी की सदस्या हैं,लेकिन इस मुद्दे पर दोनों एक-दूसरे के खिलाफ खड़ी हैं। पेरिस की मेयर ने कहा कि इकोलॉजी मंत्री इसे राजनीतिक रंग दे रही हैं, जब कि इकोलॉजी मंत्री का कहना था कि मेयर अपनी असफलता को ढंकने की कोशिश में लगी हैं।

इन दोनों के बीच बहसों के बावजूद पेरिस के लोगों का दवाब इतना बढ़ गया कि दोनों को एक साथ आना पड़ा। पेरिस आजकल जहां इस तात्कालिक समस्या से निजात पाने के लिए सक्रिय है, वहीँ दूरगामी प्रभाव वाली योजनाओं पर भी वहां तीव्रता से काम शुरू कर दिया गया है।

पेरिस को लोग ‘रोशनी का शहर’ भी कहते हैं।शहर की वास्तुकला में इसकी झलक मिलती है, खासकर शहर के मुख्य हृदय स्थल में। शहर में प्राकृतिक रोशनी अबाधरूप से आती रहे, इसके लिए बहुमंजिली इमारतेंबनाने पर रोक है।लेकिन ‘एफिल टावर’ इसका अपवाद है। शहर में ‘खुली सार्वजनिक जगह’ इस शहर के खुलेपन का हरदम एहसास कराती है जिसे ‘ पेरिस स्क्वायर्स’ के रूप में याद किया जाता रहा है। वहां हरी घास, खुली हवा और रोशनी हर नगर-वासी के लिए सुलभ रही हैं। कालान्तर में मोटर-वाहन इन ‘सार्वजनिक स्थानों’ को अपने कब्जे में लेते गए और ‘खुले सार्वजनिक स्थान’ लुप्तप्राय होते गए।

इस राजनैतिक संघर्ष और जन-दबाव ने पेरिस के मेयर को नई और स्थाई विकास की योजनाएं लागू करने को मजबूर किया और अवसर भी दिया।उन्होंने तत्काल विलुप्त हो चुके  ‘पेरिस स्क्वायर्स’ में से सात को ‘रिक्लेम पब्लिक स्पेस’ और सडक़ों पर लोकतांत्रिक हक के लिए पद-पथिक-पेरिस योजना की शुरुआत की। उन्होंने पेरिस स्क्वायर्स के पुन: जनोन्मुख विकास के लिए चौंतीस मिलियन डॉलर का प्रावधान किया और तत्काल प्रभाव से इस काम की शुरुआत भी करवा दी।सातों स्क्वायर्स पद-पथिकों और साइकिल चालकों की सुविधानुकूल विकसित होंगे, जहां आराम से संवाद के लिए फर्नीचर और मूलभूत जरूरतें उपलब्ध होंगी। इस इलाके की डिजायन ऐसी होगी कि मोटर-गाड़ी का प्रवेश वर्जित होगा। पद-पथिक-पेरिस के सन्दर्भ में कहा गया है कि यह समय शहर में कारों के प्रवेश और इस्तेमाल पर पुन: विचार करने का है और शहर के विकास में नागरिकों के गुणवत्तापूर्ण जीवन का समावेश तथा पेरिस के सार्वजनिक स्थानों पर उनके हक की बहाली का है। हमारे नये राजनैतिक कार्यक्रम का मुख्य आधार शहरी गतिशीलता और सामुदायिक स्थान हैं। इससे पेरिस में 180 डिग्री का बदलाव आएगा और शहरी जीवन जीवन्त होगा।

दी डिपार्टमेंट ऑफ रोड एंड मोबिलिटी ने पेरिस की सार्वजनिक जगहों में नये बदलाव के लिए लगातार अभियान चला रखा है। शहर के अन्दर 185 एकड़ में बनी सडक़को साइकिल चालकों, पद-पथिकों के लिए छोड़ दिया है, जहां गाडिय़ों की पार्किंग पर रोक होगी। नए विचार के अनुसार शहर के सार्वजनिक स्थानों की  री-डिजायन का काम जोरों से चल रहा है। इसके कारण ऑटोमोबाइल ट्रैफिक में 25 प्रतिशत की गिरावट और कारों के मालकियाना में 37 प्रतिशत की कमी आयी है। अभी शहर के अन्दर कारों की गति 50 किलोमीटर प्रति घंटा है। इसके कारण दूसरे वाहनों के लिए पब्लिक स्पेस शेयर करने के लिए सडकें सामान्यतया सुरक्षित नहीं हैं। इसलिए स्थानीय निकाय ने पूरे शहर में कारों की गति 20 किलोमीटर प्रति घंटा कर दी है। यह योजना स्थानीय निकाय के नए दृष्टिकोण का अंग है, जिसके तहत आधुनिक सडक़ों पर मोटर-वाहनों के एकाधिकार और दबदबा को समाप्त कर दिया गया है और इसके स्थान पर सडक़ों पर सबको समान अधिकार की परिपाटी लागू की गई है। इन सडक़ों पर चलते हुए विशेष अनुभूति का एहसास होता है। प्रशासन सर्वे के माध्यम से लगातार  तथ्य और आंकड़े जमा कर रहा है ताकि इसमें निरन्तर सुधार और बदलाव लाया जा सके तथा इस योजना के विस्तार में इससे मदद ली जा सके। इन ढांचागत सुधारों के कारण सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करने वालों की संख्या में इजाफा हो गया है। आरंभ और अंतिम यात्रा की दूरी और परेशानी समाप्त होने से सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करना सुगम हो गया है। यही वजह है कि आजपेरिस एक अग्रगामी चिन्तक के  रूप में रास्ता दिखाने वाला शहर बनता जा रहा है।

दिल्ली सरकार ने तीसरी बार सम-विषम योजना लागू की। इसका कारण यह है कि किसी भी क्षेत्र में आपातकालीन हथियार बार-बार इस्तेमाल  नहीं किया जा सकता, नहीं तो इसके महत्व और अनुशासन की  धार खत्म हो जाती है। वर्तमान सरकार ने अभी तक समाज और देश के सामने जो संदेश दिया है, उससे इस बात की कतई पुष्टि नहीं होती है कि कार और मोटर-वाहन शहर के लिए समस्या हैं और वे शहर के निवासियों को उससे मुक्ति दिलाना चाहते हैं। इस सरकार के मुखिया और इनका पूरा नेतृत्व बराबर कार और मोटर-वाहनों के हितों के साथ खड़े दिखते हैं। इन्होंने अपने पूरे चुनाव-प्रचार में बीआरटी के खिलाफ मुहिम चलाई और सरकार में आने के बाद उसे तोडऩे का निर्णय लिया और उत्सव मनाया। सम और विषम योजना में कारों की विभिन्न श्रेणियों के अन्दर छूट मिली हुई है, जिसकी अच्छी-खासी संख्या है। सरकार का कोई भी राजनैतिक नेतृत्व खुद को मिसाल के तौर पर एक रॉल मॉडल के रूप में पेश नहीं करता, बल्कि इससे बचने के हर उपक्रम को जायज और दूसरों की तुलना में सही साबित करने की होड़ में लिप्त दिखता है। सरकार के द्वारा अभी तक लिए गए निर्णय और पहल से कम से कम परिवहन के क्षेत्र में कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिल रहा जिससे भविष्य के लिए भी भरोसा मिल सके। इसके विपरीत इन्होंने सार्वजनिक परिवहन और साइकिल के ढांचागत विकास के लिए जो घोषणाएं की हैं, उनमें से कुछ वास्तविक रूप से होता हुआ नहीं दिख रहा है और सीधे-सीधे कार और मोटर-वाहनों के हितों को साधने वाले हैं। एक ताजा मिसाल, विकासपुरी से वजीराबाद तक पद-पथिकों, साइकिल और रिक्शा चालकों के लिए अलग लेन बनाने की योजना थी। इस मार्ग पर मुख्यमंत्री कई बार कई फ्लाईओवर मार्ग का उद्घाटन कर चुके हैं, लेकिन आज तक योजना के तहत मंजूर और शर्त के रूप में रखा गया पद-पथिकों, साइकिल और रिक्शा चालकों की सहूलियत के लिए बनने वाले ढांचा का कहीं भी नामोनिशान नहीं दिखता है, न ही इसकी कोई खोज-खबर लेता हुआ दिखता है। दूसरा किस्सा दिल्ली में बनाए जाने वाले दो नए बीआरटी कॉरिडोरों का है। सरकार ने घोषणा की है कि दो-मंजिले फ्लाईओवर का निर्माण होगा, जिसकी एक मंजिल कारों के लिए होगी और दूसरी मंजिल पर बाकी गाडिय़ांचलेंगी और इसी के एक लेन में बीआरटी बसें भी चलेंगी। जाहिर है, अभी सतह पर बसों के स्टॉप तक पहुंचने के लिए सुविधा का अभाव झेल रहे लोग यह कैसे भरोसा करें कि दूसरी मंजिल के फ्लाईओवर पर बने  बस स्टॉप पर पहुंचने का सपना साकार होगा। क्या यह वास्तव में दिल्ली के लोगों के लिए बनाई जा रही योजना है या कुछ खास जनों की सुविधा के लिए बनाई जा रही योजना ? बसों की खरीद, बसों में सीसीटीवी कैमरा, किराये की साइकिल, शेयरिंग साइकिल,नये बस डिपो का निर्माण- यह सब जरूरी कार्य हो सकते हैं। लेकिन इससे जरूरी काम जिसे पहले करना है, जिसकी  अनुपस्थिति में इस सब का चलना नामुमकिन है- वह है इनके अनुकूल ढांचा बनाना और वाहनों के बढ़ते ग्राफ पर अंकुश लगाना ताकि  पद-पथिकों, साइकिल और रिक्शा चालकों के लिए रास्ता बनाया जा सके और उनका हक पुन: बहाल किया जा सके। सडक़ की डिजायन समाज की जरूरत को परिलक्षित करे, न कि कुछ लोगों की। अभी तो दूर-दूर तक रोशनी नहीं दिखती है।