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तीर्थ यात्री कैसे ले जाएँ गंगाजल?

हरिद्वार, प्रयाग और वाराणसी देश के नामी तीर्थ स्थल हैं। गंगा के किनारे बसे नगरों में ये प्रमुख हैं। जब भी इन जगहों की यात्रा पर लोग निकलते हैं, तो आस-पड़ोस और रिश्तेदारों से लोग शुभकामनाएँ देते हैं, साथ ही यह अनुरोध करते हैं कि उनके लिए थोड़ा-सा गंगाजल ज़रूर लेते आयें। गंगा में प्रदूषण लगातार दशकों में फैलता रहा है। हालाँकि एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) केंद्र और राज्य सरकारें प्रदूषण खत्म करने की कोशिशें ज़रूर गिनाती है। लेकिन प्रदूषण है कि खत्म ही नहीं हो रहा। यह माना गया है कि प्लास्टिक बहुत घातक है। इसके फँस जाने से नालों, नहरों और नदियों में प्रवाह थम जाता है। सलाह दी जाती है शहरों का सीवेज ट्रीट करके ही नदी में डाला जाए और फैक्टरियों का गंदा रासायनिक पानी भी कायदे से ट्रीट किया जाए। नदी में पॉलीथिन, प्लास्टिक के बने जार, बोतलों को जाने से रोका जाए। कुल मिलाकर नगरों में प्रशासन और नमामि गंगे ने एक मुहिम ज़रूर छेड़ी है, पर शासकीय काम धीरे-धीरे ही होते हैं।

पिछले दिनों स्वीडन के राजा कार्ल गुस्ताफ फोल्के ह्यूबट्र्स और रानी सिल्विया ने उत्तराखंड की यात्रा की। उन्होंने ऋषिकेश और हरिद्वार में प्रदूषण से गंगा को मुक्त करने की प्रदेश सरकार के इरादे की तारीफ की। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने तो कहा कि यूरोप में राइन नदी की सफाई में 25 साल लगे थे। यहाँ गंगा जल्दी ही प्रदूषण मुक्त हो जाएगी।

इरादा बहुत अच्छा है। पर शर्त यह है कि असलियत को ज़मीन पर अमल में लाया जाए। गंगा स्वच्छता अभियान हरिद्वार-ऋषिकेश में महीने में औसतन दो बार ज़ोर तो पकड़ता ही है। हर की पौड़ी, कुम्भ मेला क्षेत्र और गलियों तक इसे सक्रिय देखते हैं। जो दूकानदार प्लास्टिक के बने बर्तन, बोतल और कैन आदि सजाकर बैठे होते हैं। अधिकारी, कर्मचारी वो सब दो-एक दूकानों से उतार लेते हैं। साथ में आये फोटो-ग्राफर तस्वीर ले लेते हैं और स्वच्छता अभियान की तस्वीरें स्थानीय और देहरादून के अखबारों में छपने के साथ ही खत्म हो जाता है। गंगा पहले की तरह प्रदूषित रहती है। हर की पौड़ी के एक दूकानदार अजय ने बताया कि उनकी और उनके परिवार की सात-आठ दशक से दूूकान यहीं है। लेकिन वे समझ नहीं पाते कि प्रदूषण मुक्त गंगा को करने में प्लास्टिक के बर्तनों के िखलाफ प्रशासन, नमामि गंगे आदि क्यों अभियान छेड़ते हैं। परम्परा है कि स्नान के बाद तीर्थयात्री अपने साथ गंगाजल ले जाते हैं। वे इसलिए अपनी सुविधा के लिए पात्र खरीदते हैं। वे गंगा में उसे फेंकते नहीं। फिर कभी प्रशासन ने प्लास्टिक के पात्रों का विकल्प हमें कभी नहीं सुझाया। एनजीटी ने अपनी बात में प्लास्टिक के कैन पर सहमति ज़रूर जतायी है; लेकिन प्रशासन दूकानदारों को परेशान करता है। व्यापारियों-दूूकानदारों के प्रतिनिधिमंडल, •िालाधिकारी, मेलाधिकारी से मिलते हैं; पर उनकी समस्या का कोई निदान नहीं हो पाता। हालाँकि एनजीटी ने 2 जुलाई, 2015 के अपने आदेश में लिखा है कि पूरे हरिद्वार और इसके चारों और आसपास भी प्लास्टिक का इस्तेमाल न किया जाए; क्योंकि इसका समुचित निस्तारन नहीं होता। यह शहर ही नहीं राज्य की सेहत के लिए भी हानिकारक है। लोग इसे इधर-उधर फेंकते हैं, जिससे नाले बंद हो जाते हैं, सीवेज प्रणाली में बाधा होती है। जानवर भी इसे खाकर अस्वस्थ होते हैं। एनजीटी ने सुझाया कि प्लास्टिक की प्लेट, चम्मच, ग्लास, बोतल, पालिथिन की बजाय पेपर बोर्ड का इस्तेमाल हो। गंगाजल के लिए प्लास्टिक केन का इस्तेमाल करें। लेकिन प्रशासन और नमामि गंगे के लोग उसे भी मंज़ूर नहीं करते और विकल्प भी नहीं सुुझाते। लगातार प्लास्टिक वस्तुओं के दूकानदार, व्यापारी, उत्पादन संगठन हरिद्वार और उत्तराखंड प्रशासन से पूछ रहे हैं कि तीर्थयात्री जब गंगाजल ले जाना चाहते हैं, तो प्लास्टिक की बजाय दूसरी किस वस्तु के बने टिकाऊ पात्र उन्हें उपलब्ध कराये जा सकते हैं? वे यह भी जानकारी चाहते हैं कि क्या हर की पौड़ी और कुम्भ मेला क्षेत्र में प्लास्टिक की बनी बोतलों, जारों, डिब्बों और कैन आदि बेचने पर कोई शासनादेश या निर्देश जारी हुआ। प्लास्टिक से बनी वस्तुओं के विकल्प में क्या शासन ने कभी कोई सलाह ज़रूरी समझी? जिसका उपयोग करके तीर्थयात्री को अपने साथ गंगाजल ले जाने में सहयोग किया जा सके। मातृसदन से जुड़े रहे बुजुर्ग संत शिवानंद ने बताया कि अभी ज़्यादा साल नहीं बीते, सिर्फ पाँच-छ: दशक पहले तक तमाम तीर्थयात्री और साधु-संत विभिन्न तरह के कमंडल और कलश का उपयोग गंगा-जल रखने में करते हैं। तीर्थयात्री भी गंगा का पवित्र जल रखने के लिए वे तरह-तरह के पात्र अपनी पसंद और आय के अनुरूप लेते थे। यहाँ तक कि जैन साधु भी कमंडल का उपयोग करते हैं। कमंडल कई तरह के होते हैं। ये मिट्टी के नारियल के खोल से और दक्षिण भारत में होने वाले कमंडलतरू पेड़ के बनते हैं। पहले ये पीतल और काँसा मिलाकर बनने वाली धातु से भी बनते थे। कमंडल बनाने में कुम्बी की लकड़ी का भी उपयोग होता है, जिससे बंदूकों के कुंदे, घरों में स्तम्भ आदि बनते हैं। कमंडल और कलश, गगरी आदि पीतल के और काँसे के बनते भी रहे हैं। जो मठों, मंदिरों और कुछ पुराने घरों में आज भी दिखते हैं। इन धातुओं में लकड़ी और मिट्टी से बने ऐसे पात्रों को फिर से बनाना चाहिए। जिन्हें तीर्थयात्री इस्तेमाल में लें सकते हैं। अपनी जेब और आवश्यकता के अनुरूप पात्र लेकर गंगाजल लेकर जा सकते हैं। सरकार को ऐसे पात्रों को बनाने के लिए उद्योगपतियों को प्रोत्साहित करना चाहिए।

इससे गंगाजल का प्रदूषण कुछ तो थमेगा। सरकार की कोशिश है कि अगले कुम्भ तक गंगा में प्रदूषण काफी हद तक कम हो जाए। उत्तराखंड में गंगोत्री से गंगा का उद्गम स्थल है और वह स्थान साफ रहे, इसलिए से एनजीटी के आदेशों पर अमल की शुरुआत तो हो गयी है। उत्तराखंड गंगा और उसकी सहायक नदियों का भी उद्गम स्थल है। इसलिए यहीं से देश के बड़े हिस्सों में प्रवाहित होने वाली मंदाकिनी, अलकनंदा, यमुना नदियों के जल को सुरक्षित तरीके से प्रवाहित करने की विशेष •िाम्मेदारी यहाँ की जनता, उसकी प्रतिनिधि सरकार और यहाँ के प्रशासनिक अधिकारियों की है। ऋषिकेश और हरिद्वार दो ऐसे तीर्थस्थल हैं, जहाँ से गंगा में प्रदूषण की शुरुआत हो जाती है। उत्तर प्रदेश के विभिन्न नगरों से कई तरह के प्रदूषणों से दूषित गंगा कोलकाता के पास हुगली से मिलती हुई समुद्र में मिल जाती हैं। तकरीबन ढाई हज़ार किमी से भी लम्बी यात्रा करती है गंगा।

ऐसी जीवनदायिनी गंगा को साफ रखना खासा बड़ी चुनौती है। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिया। नमामि गंगे संस्थान की स्थापना की। अब विभिन्न राज्य सरकारों उनके प्रशासनिक अधिकारियों और जनता-जनार्दन का दायित्व है कि वे मिलकर गंगा को प्रदूषण मुक्त करें।

न हन्यते! चला गया हिन्दी सिनेमा का ‘जेंटलमैन’

150 से ज़्यादा हि’दी फिल्मों में अभिनय करने के अलावा, मराठी, हिन्दी और गुजराती के 40 नाटकों में शीर्ष भूमिकाएँ निभाने वाले डॉ. श्रीराम लागू की असल पहचान सिनेमा के लिए नहीं, बल्कि मराठी रंगमंच के साथ उनके जुड़ाव के लिए होती है। लागू के नाटक ‘नटसम्राट’ के आधार पर नाना पाटेकर अभिनीत ‘नटसम्राट’ िफल्म बनी और खूब चर्चित रही। वहीं गुजराती में भी इसका िफल्मांकन हुआ। इसमें ‘रामायण’ की सीता दीपिका चिखलिया ने प्रमुख भूमिका निभायी।

वैसे यह बहुत बाद की बात है। श्रीराम लागू के अभिनय का चरमोत्कर्ष ‘घरौंदा’, ‘किनारा’, ‘इनकार’, ‘इंसाफ का तराज़ू’, ‘मेरे साथ चल’, ‘सामना’, ‘वो आहट : एक अजीब कहानी’, ‘दौलत’, ‘साजन बिना सुहागन’, एक दिन अचानक’ और ‘एक पल’ जैसी िफल्मों में देखने को मिलता है। एक और िफल्म याद आती है- ‘लावारिस’, जिसमें बेसहारा बालक (अमिताभ बच्चन) को पाल-पोसकर बड़ा करने वाले मवाली के रूप में उन्होंने जिस कदर जज़्बाती अदाकारी की, वह देखने लायक है। हिन्दी सिनेमा के यही ‘जेंटलमैन’ डॉ. श्रीराम लागू 92 साल की उम्र में दुनिया से चले गये। उनका आकस्मिक अवसान बरसों तक िफल्मी सिनेमा के दीवानों और िफल्मी सितारों कचोटता रहेगा।

पाठक सवाल कर सकते हैं कि मराठी और हिन्दी सिनेमा के मशहूर एक्टर, डॉ. लागू को हम जेंटलमैन क्यों कह रहे हैं? जबकि उन्होंने बतौर खलनायक दर्जनों भूमिकाएँ निभायी हैं और अपने अभिनय से दर्शकों को न सिर्फ मंत्रमुग्ध किया, बल्कि रोमांचित भी किया है। तो इसका जवाब है कि डॉ. लागू िकरदार निभाते वक्त चाहे साधु दिखेें या शैतान, उनके व्यक्तित्व की समग्र पहचान संत सरीखी थी। एक सभ्य, सुसंस्कृत इंसान, जिनके लिए रंगमंच और कला-संस्कृति की दुनिया सबसे बड़ी थी। हालाँकि अन्ना हजारे के आंदोलन का समर्थन करने को उनकी राजनीतिक चेतना का उदाहरण भी माना जा सकता है।

अब इस बात पर कौन यकीन करेगा कि मराठी थिएटर के असली ‘नटसम्राट’ माने गये डॉ. लागू पहली बार भावे स्कूल, पुणे में मंचित नाटक में अभिनय करते हुए बेहद नर्वस हो गये थे। वे इस कदर डरे हुए थे कि उन्होंने कह दिया था- ‘बाबा रे बाबा, अब कभी एक्टिंग नहीं करूँगा!’ सच यह है कि लागू तब बहुत कम उम्र के थे और उन्हें एक्टिंग करने के लिए अध्यापकों द्वारा कहा गया था, जबकि वे तैयार नहीं थे। तब उन्हें कहाँ पता रहा होगा कि अदाकारी की डोर के साथ •िान्दगी जो जुड़ गयी है, वह आिखरी साँस तक टूटेगी नहीं।

मास्टर दीनानाथ, ग्रेटा गरबो, नानासाहब पाठक, इंग्रिड बर्गमैन, मामा पेंडसे, केशवराव दाते, नोरमा शियरर पॉल मुनि, स्पेंसर ट्रेसी और लॉरेन ओलिवर सरीखे देशी-विदेशी कलाकारों से डॉ. लागू ने प्रेरणा हासिल की और उनके अभिनय की बारीिकयों को अदाकारी में भी उतारा।

मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई के दौरान उनकी अभिनय प्रतिभा में और निखार आया। ईएनटी में पीजी करने के बावज़ूद लागू ने तय कर लिया था कि •िान्दगी को अभिनय की राह पर आगे बढ़ाना है। वे मेडिकल प्रैक्टिस करते रहे और साथ में अभिनय क्षेत्र से जुड़े रहे। ‘प्रोग्रेसिव ड्रामेटिक एसोसिएशन’ के साथ रुचि को विस्तार दिया।

16 नवंबर, 1927 को महाराष्ट्र के सतारा में जन्मे श्रीराम लागू को इस फन में महारत हासिल थी कि कैरेक्टर को रूह में किस तरह उतारकर जिया जाता है। भले वे सम्माननीय नागरिक का िकरदार निभा रहे हों या फिर छिछोरे मवाली का; वे जानते थे कि दर्शक को आपके निजी जीवन से नहीं, बल्कि अभिनय से मतलब होता है।

अफ्रीका में तीन साल के प्रवास के दौरान डॉ. लागू नाटकों से दूर रहे (अफ्रीका में भी चिकित्सक के तौर पर सक्रिय थे)। इस दौरान उन्हें लगा कि नाटक न करना उनकी •िान्दगी में बहुत गलत चीज़ होना है। इस तरह तो काम नहीं चलेगा। जैसे ही भारत लौटे, उन्होंने तय कर लिया कि दो नावों में पाँव नहीं रखेंगे  और अंतत: साल 1969 में पहले प्यार- थिएटर की तरफ हाथ बढ़ा दिया। उनका यह फैसला कम उम्र में या जोश में आकर लिया गया नहीं था; तब लागू 42 साल के हो चुके थे। ज़ाहिर-सी बात है, बल्कि आज भी यह बात तकरीबन सच ही है कि रंगमंच करके रोज़ी-रोटी की चिन्ता से पूरी तरह मुक्त नहीं हुआ जा सकता; लेकिन उन्होंने जो कुछ तय कर लिया, फिर उससे पीछे कभी नहीं हटे।

डॉ. लागू के शुरुआती शो फ्लॉप रहे; लेकिन ‘नटसम्राट’ की सफलता ने मुश्किलें आसान कर दीं। ‘काचेचा चंद्र’, ‘गिधाडे’, ‘हिमालयाची सावली’, ‘उध्वस्त धर्मशाला’ व ‘सीक्रेट्स’ जैसे नाटकों ने सफलता की राह बुलंद कर दी। साल 1972 में आयी मराठी िफल्म ‘पिंजरा’ में अभिनय याद किया जाता है। वी. शांताराम ने इसको हिन्दी में भी िफल्माया; लेकिन वह बुरी तरह असफल रही। बता दें कि सिने जगत में भी लागू को इसीलिए मौके मिले; क्योंकि वे नाटकों में सफल हो चुके थे। िफल्म ‘घरौंदा’ के लिए लागू को िफल्म फेयर अवॉर्ड से सम्मानित किया जा चुका है। विडंबनापूर्ण तथ्य है कि प्रभावी अदाकारी के बावजूद लागू को सिनेमा में पारम्परिक िकस्म के िकरदार ही मिल रहे थे। उन्होंने इस दबाव के बावजूद चाचा-पिता जैसी भूमिकाएँ चुनीं, फिर भी टाइपकास्ट होने से बचे रहे; क्योंकि एक जैसे रोल में उनके अभिनय का असर डिफरेंट होता था।

लागू मानते थे कि िफल्मों में काम करना स्टेज की तुलना में मुश्किल हो जाता है। थिएटर में तीन घंटे पूरे वक्त तक सक्रिय रहना होता है; जबकि िफल्में टुकड़ों में पूरी का जाती हैं। डॉ. लागू नश्वर संसार को विदा कहते हुए अपने पीछे अभिनेत्री पत्नी दीपा लागू, दो बेटों और एक बेटी को छोड़ गये हैं। उनकी स्मृति में हिन्दी और मराठी सिनेमा के अनगिनत दर्शक लम्बे समय तक शोकाकुल रहेंगे। तहलका परिवार की ओर से भी इस महान् कलाकार ‘जेंटलमैन’ को विनम्र श्रद्धांजलि!

भारतीय हॉकी : डगर आसान नहीं

टोक्यो ओलंपिक के लिए हॉकी मुकाबलों का कार्यक्रम घोषित कर दिया गया है। पुरुष वर्ग में आठ बार की ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता भारत को मौज़ूदा ओलंपिक चैंपियन अर्जेंटीना, विश्व की एक नम्बर की टीम ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, स्पेन और जापान के साथ पूल-ए में रखा गया है।

भारतीय टीम अपना पहला मैच न्यूजीलैंड के साथ 25 जुलाई को खेलेगी। उसका दूसरा मुकाबला 26 जुलाई को ऑस्ट्रेलिया के साथ फिर 28 जुलाई को स्पेन, 30 जुलाई को जापान के िखलाफ होगा। पुरुष वर्ग के क्वार्टर फाइनल मैच दो अगस्त को और सेमी फाइनल चार अगस्त को खेले जाएँगे। फाइनल मैच और कांस्य पदक के मुकाबले छ: अगस्त को होंगे।

महिला वर्ग में भारत को नीदरलैंड, जर्मनी, ग्रेट ब्रिटेन, आयरलैंड और दक्षिण अफ्रीका के साथ गु्रप-ए में रखा गया है। यहाँ भारत का पहला मुकाबला 25 जुलाई को नीदरलैंड के साथ, 27 जुलाई को जर्मनी से, 29 जुलाई को ग्रेट ब्रिटेन से, 31 जुलाई को आयरलैंड और अंतिम लीग मैच पहली अगस्त को आयरलैंड के साथ होगा।

पुरुषों के  ग्रुप ‘बी’ में बेल्जियम, नीदरलैंड, जर्मनी, ग्रेट ब्रिटेन, कनाडा और दक्षिण अफ्रीका की टीमें रखी गयी हैं। इस ग्रुप में पहला मैच नीदरलैंड और बेल्जियम के बीच और दूसरा ग्रेट ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका के बीच 25 जुलाई को और इसी दिन कनाडा और जर्मनी के बीच तीसरा मैच होगा। 26 जुलाई को दक्षिण अफ्रीका और नीदरलैंड की टीमें भिड़ेंगी। 27 जुलाई को ग्रेट ब्रिटेन और कनाडा के बीच मुकाबला होगा, जबकि 28 जुलाई को जर्मनी और ग्रेट ब्रिटेन, बेल्जियम व दक्षिण अफ्रीका और नीदरलैंड व कनाडा के बीच टक्कर होगी। 30 जुलाई को बेल्जियम-कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और जर्मनी व नीदरलैंड और ग्रेट ब्रिटेन भिड़ेंगे। 31 जुलाई को कनाडा-दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी-नीदरलैंड और बेल्जियम व ग्रेट ब्रिटेन के मैच होंगे।

महिला वर्ग के  ग्रुप ‘बी’ में ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना, न्यूज़ीलैंड, स्पेन, चीन और जापान की टीमें हैं। ग्रुप ‘ए’ के मैचों का कार्यक्रम-25 जुलाई : भारत बनाम नीदरलैंड, आयरलैंड बनाम दक्षिण अफ्रीका। 26 जुलाई : ग्रेट ब्रिटेन बनाम जर्मनी; 27 जुलाई : नीदरलैंड बनाम आयरलैंड; दक्षिण अफ्रीका बनाम ग्रेट ब्रिटेन और भारत बनाम जर्मनी; 29 जुलाई : नीदरलैंड बनपाम दक्षिण अफ्रीका, ग्रेट ब्रिटेन बनाम भारत और जर्मनी बनाम आयरलैंड; 30 जुलाई : ग्रेट ब्रिटेन बनाम नीदरलैंड। 31 जुलाई : दक्षिण अफ्रीका बनाम जर्मनी, आयरलैंड बनाम भारत। 01 अगस्त : भारत बनाम दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी बनाम नीदरलैंड और आयरलैंड बनाम ग्रेट ब्रिटेन।

ग्रुप ‘बी’ में 26 जुलाई : ऑस्ट्रेलिया बनाम स्पेन, जापान बनाम चीन, न्यूज़ीलैंड बनाम अर्जेंटीना। 27 जुलाई : ऑस्ट्रेलिया बनाम चीन, अर्जेंटीना बनाम स्पेन और जापान बनाम न्यूज़ीलैंड। 29 जुलाई : न्यूज़ीलैंड बनाम स्पेन, जापान बनाम ऑस्ट्रेलिया और अर्जेंटीना बनाम चीन। 30 जुलाई : जापान बनाम अर्जेंटीना, न्यूज़ीलैंड बनाम ऑस्ट्रेलिया। 01 अगस्त : जापान बनाम स्पेन और अर्जेंटीना बनाम ऑस्ट्रेलिया।

रियो ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम का प्रदर्शन अपेक्षाकृत बेहतर रहा था। 1980 के मॉस्को ओलंपिक के बाद भारत पहली बार ‘नॉकआउट’ स्टेज पर पहुँचा था। ग्रुप लीग में भारत ने आयरलैंड को 3-2 से और अंत में स्वर्ण पदक जीतने वाली अर्जेंटीना की टीम को 2-1 से हराया। इसमें बड़ी बात यह थी कि पूरे टूर्नामेंट में अर्जेंटीना को केवल भारत के हाथों ही हार मिली। बाकी सभी मैच उसने जीते। यदि भारत ने कनाडा के साथ 2-2 से ‘ड्रॉ’ खेलने की जगह उसे हरा दिया होता तो तस्वीर और हो सकती थी। इसके अलावा भारत ने जो मैच जर्मनी और नीदरलैंड के साथ 1-2 के समान अंतर से हारे वे भी जीते जा सकत ेथे। नॉकआउट स्टेज पर भी बेल्जियम की भारत पर 3-1 से जीत मैच की असल कहानी नहीं बताती।

इस बार भारत के ग्रुप ‘ए’ में न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, स्पेन, अर्जेंटीना और मेजबान जापान की टीमें हैं। इनमें विश्व की एक नम्बर की टीम ऑस्ट्रेलिया और ओलंपिक चैंपियन अर्जेंटीना के साथ जीतना काफी कठिन होगा। इनके अलावा स्पेन, न्यूजीलैंड और जापान ऐसी टीमें हैं, जिन्हें हराना उतना कठिन नहीं होना चाहिए। अपने ग्रुप में भारत यदि तीसरा या चौथा स्थान भी ले लेता है, तो उसके पास सेमी फाइनल में खेलने का अच्छा अवसर हो सकता है। नॉकआउट में खेलने के लिए भारत को पूल में कम से कम दो टीमों को हराना होगा। पिछले दिनेां में जो प्रदर्शन टीम ने किया है। उससे यह कोई कठिन नहीं लगता पर टीम को अपनी लय बरकरार रखना होगी। कुछ भी हो पर टीम के लिए डगर काफी कठिन है। भारत अपना पहला मैच 1976 की स्वर्ण पदक विजेता टीम न्यूजीलैंड के साथ खेलना है। इन टीमों के बारे में देखा जाए तो ओलंपिक में पहला मैच 1960 के रोम ओलंपिक के दौरान खेला गया था। यहाँ क्लॉडियस के नेतृत्व में गई भारतीय टीम ने न्यूजीलैंड को 3-0 से हराया था। फिर 1968 में जबकि भारतीय टीम के दो कप्तान बनाये गये थे। यह थे गुरबश सिंह और पृथपाल सिंह। मैक्सिको के इस ओलंपिक में भारत अपना पहला ही मैच न्यूज़ीलैंड से 1-2 से हार गया था। यह पहला अवसर था जब भारत 32 साल बाद हॉकी का फाइनल नहीं खेला था।

महिला वर्ग : महिला वर्ग में भारत को कड़ी टक्कर का सामना करना पड़ेगा। उसके पूल में नीदरलैंड, जर्मनी और ओलंपिक चैंपियन ग्रेट ब्रिटेन जैसी टीमों के साथ आयरलैंड और दक्षिण अफ्रीका की टीमें भी हैं। यदि आँकड़ों पर नज़र डालें तो नीदरलैंड, जर्मनी और ग्रेट ब्रिटेन के िखलाफ भारत की जीत की सम्भावना काफी कम है। इस कारण उसे आयरलैंड और दक्षिण अफ्रीका के िखलाफ अच्छी जीत दर्ज करानी होगी। उस स्थिति में वह ‘नॉकआउट’ स्टेज में प्रवेश कर सकती है। पिछले ओलंपिक में भारतीय टीम केवल जापान से 2-2 का ‘ड्रॉ’ खेलकर केवल एक अंक जुटा पायी थी। पांच मैचों में से वह चार हारी थी। ग्रेट ब्रिटेन ने उसे 3-0 से और अर्जेंटीना ने उस पर 5-0 से जीत की थी।

इस बार हालात बदले हैं। इस बार उसके पूल में ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना की टीमें नहीं हैं और अमेरिका को उसने ‘क्वालीफाइंग’ स्तर पर ही हराकर टूर्नामेंट से बाहर करा दिया है। फिर भी टीम के लिए कुछ भी आसान नहीं होगा।

आत्मालोचना के लिए विवश करतीं स्वयं प्रकाश की कहानियाँ

7 दिसंबर, 2019 की सुबह सूरज ने अभी पूरी तरह आँखें खोलीं भी नहीं थीं कि सहसा एक दु:खद सूचना मिली कि हिन्दी के अनूठे, महबूब और मकबूल कथाकार स्वयं प्रकाश नहीं रहे। अभी दो दिन पहले लेखक व एक्टविसस्ट राम प्रकाश ने मुम्बई में उनके गम्भीर रूप से बीमार होने की सूचना दी थी। राम प्रकाश त्रिपाठी ने सरकार से उनकी चिकित्सा के लिए धन मुहैया करवाने की अपील भी की थी।

जिस दिन स्वयं प्रकाश ने इस नश्वर संसार को अलविदा कहा, उससे तीन दिन पहले मुम्बई के एक प्रतिष्ठित अखबार के साहित्यिक सम्पादक हरि मृदुल ने उन्हें देखने के लिए लीलावती अस्पताल चलने की बात की। दुर्भाग्य से उस दिन मैं शहर की दूसरी दिशा में था और मैंने उनसे अगले दिन अस्पताल चलने को कहा। अगले दिन भारत रत्न डॉ. भीमराव आंबेडकर जी का महापरिनिर्वाण दिवस था, ट्रेनों में भयानक भीड़ थी, अस्तु उस दिन जाना नहीं हो सका। उसके अगले दिन उनके निधन की सूचना मिली! मन पश्चाताप और विषाद से भर उठा।

उफ! कभी-कभी वक्त इंसान को एक मौका भी नहीं देता है। चूँकि उनकी अंत्येष्टि मुम्बई में ही हो रही थी, इसलिए हम सात-आठ मित्र सांताक्रुज के विद्युत शवदाह गृह पहुँचे। विद्युत चैम्बर में डालने के पहले उनके पार्थिव शरीर को लोगों के दर्शनार्थ रखा गया। पहली बार उस मृत काया को देखकर यह विश्वास ही नहीं हुआ कि यह शरीर मृत है। शरीर पर इंजेक्शन व ग्लूकोज के नीडल के निशान, सफेद टेप के साथ उभरे थे। हाथ की लालिमा अभी भी बनी हुई थी; लेकिन जब चेहरा देखा तो मन में रुलाई का ज्वार-सा उठा। उनके छोटे भाई, उनकी बहनें और बेटियाँ विलाप कर रहे थे। उस करुण वातावरण में हम सबकी आँँखें आर्द्र हो उठीं। सहसा यह यकीन हो गया कि हम सबके चहेते कथाकार ने इस संसार से सदा-सदा के लिए अपना नाता तोड़ लिया है। अब हमारे पास उनसे बात करने का एक ही ज़रिया रह गया है और वह है- उनका शब्द-संसार, उनके पात्र और पात्रों का दु:ख-दर्द।

 स्वयं प्रकाश से वैसे तो कभी मिलना नहीं हुआ, पर उनके पत्र और उनकी भेजी कहानी अभी भी ज्यों-की-त्यों अपनी भौतिक उपस्थिति से हमें चौंकाती और आश्वस्त करती है कि रचनाकार कभी मरता नहीं है। वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति, कबीर, रैदास, सूरदास, मलिक मोहम्मद जायसी, तुलसीदास, मीराबाई, गालिब, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ सबके सब एक साथ हमारे अंतस में बसे हैं। हम सबसे जब-तब संवाद करते हैं। हम उनसे जीवन की ज्योति और जीवन रस पाते रहते हैं।

बात नब्बे के दशक की हैं। मुम्बई के हम कुछ मित्रों ने ‘चिंतन दिशा’ नामक त्रैमासिक पत्रिका शुरू की। वैसे इस शीर्षक से साथी हृदयेश मयंक पाक्षिक पत्रिका की वर्षों से निकाल रहे थे। बाद में उसी पाक्षिक को हम कुछ मित्रों ने एक त्रैमासिक पत्रिका के रूप में निकालने की योजना बनायी। देखते-देखते पहला अंक प्रकाशित हुआ और उसे हम लोगों ने देश के सभी प्रमुख रचनाकारों के पास न केवल भेजा, बल्कि रचनाएँ भेजने की अपील भी की। चिन्तन दिशा के दूसरे अंक के लिए स्वयं प्रकाश ने एक कहानी- ‘उनकी अगली शुरुआत’ भेजी। साथ ही पहले अंक पर उनकी महत्त्वपूर्ण राय भी मिली। प्रशंसा के अलावा कुछ सुझाव भी थे। इस तरह से उनके साथ सन् 1988 से एक आत्मीय व लेखकीय सांस्कृतिक सम्बन्ध जुड़ गया, जो उनके जीवन के अंत तक बना रहा।

स्वयं प्रकाश आठवें दशक के अनूठे कथाकार थे। एक साथ स्वयं प्रकाश, उदय प्रकाश, संजीव, प्रियंवद, शिवमूर्ति और सृंजय आदि रचनाकार साहित्याकाश पर अपनी आभा बिखेरने लगे थे। यह पीढ़ी, दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, काशीनाथ और रवींद्र कालिया के बाद की पीढ़ी थी। स्वयं प्रकाश ने बिना किसी दबाव के अपनी कथा शैली विकसित की। उन्होंने समाज के बदलते रिश्तों की न केवल पहचान की, अपितु उसे अपनी गहरी कलात्मक सृजनशीलता से अभिव्यक्त भी किया। स्वयं प्रकाश की कहानियाँ भारत के निम्न वर्ग का दु:खांत हैं। औद्योगिकीकरण के बाद भारतीय समाज में तेज़ी से विभाजन और पलायन हुआ। देश की एक बड़ी आबादी, जिसमें निम्न और निम्न मध्य वर्ग के ज़्यादातर लोग थे कस्बों, शहरों और महानगरों में जीवन संघर्ष करने लगे।

स्वयं प्रकाश ने इस बदलते और नये श्रम सम्बन्धों को बारीकी से न केवल देखा, बल्कि उसके परिणामों व दुष्परिणामों की द्वंद्वात्मकता को कहानी कला के उत्कृष्ट फॉर्म में रचा भी। उनकी कहानियों के पात्र हमारे आस-पास के ही होते हैं, जिन्हें हम रोज़ देखते हैं और देखकर रह जाते हैं, पर उसे वे अपनी विशिष्ट वर्गीय दृष्टि से एक अनूठा आख्यान बना देते हैं। उनकी कहानियों में व्यक्त गहरी संवेदना न केवल पाठक से तत्काल रिश्ता बना लेती है, अपितु उसे बेहतर मनुष्य होने की माँग भी करती है।

उनकी कहानियों में समाज की विडम्बना इकहरी नहीं है, उसके कई स्तर हैं। वे जहाँ एक तरफ अपनी यथार्थवादी दृष्टि व अभिव्यक्ति से पाठकों को झकझोरते हैं, वहीं दूसरी अपनी संवेदना की चादर से उसके अंत: जगत को अपने घेरे में ले लेते हैं। वे पाठक से आत्मीय रिश्ता बना लेते हैं। उसकी कैिफयत की तासीर मन में अपराध-बोध पैदा करने लगती है। सहसा हमें लगने लगता है कि कहीं हमारा अपरोक्ष सहयोग तो नहीं, इस क्रूरता को बनाये रखने में! यह स्वीकारोक्ति पाठक को अपनी स्थिति तथा समाज की स्थिति के प्रति गहरा असंतोष पैदा कराता है। उसे आत्मालोचना करने को विवश करता है। उसकी इंद्रियों को अधिक विस्तृत और समाजोन्मुख बनाता है। स्वयं प्रकाश की कहानियाँ इस दृष्टि से बड़े सरोकार को हमारे समाने रखतीं हैं। हमारी निष्क्रिय संवेदना को सक्रिय करतीं हैं, उसे मानवीय बनातीं हैं।

स्वयं प्रकाश की कहानियों में बहुत से अन्य कथाकारों की तरह भाषा का खेल नहीं दिखायी देगा। उनकी कहानियों की भाषा सहज होते हुए भी असाधारण बनती चली जाती है। उनका आलोचनात्मक नज़रिया और उसका विट उसे रेटॉरिक होने से बचाता है। यहीं कारण है कि उनकी हर कहानी की भाषा विशिष्ट और अलग होती है। उनकी कहानियों में ज़बरदस्त ह्यूमर ( हास्य) है और यह प्रयोगात्मक नहीं, बल्कि कथा, देश-काल व पात्र से धीरे-धीरे होता है।

स्वयं प्रकाश का लेखक एक खास मोटिव लिए हुए है और वह मोटिव है समाज को प्रगतिशील मूल्यों की तरफ चलने को प्रेरित करना। उसे जड़ता से बाहर निकालना। उसके भीतर छिपे हुई शुभंकर शक्तियों को जागृत करना। वे लगातार हमारे भीतर छिपी आंतरिक क्रूरता से हमें आगाह भी करते हैं और उससे मुक्त होने का संवेदनात्मक विवेक व उद्वेग पैदा करते हैं। स्वयं प्रकाश की कहानियाँ स्वतंत्र भारत के तथाकथित विकास के एक्स-रे हैं। उन्होंने बदले भारत की आर्थिक व सामाजिक ढाँचे से उत्पन्न हुई विसंगतियों की न केवल पहचान की, अपितु शोषित व उत्पीडि़त का मार्मिक वृत्तांत रचकर अपने लेखकीय व सामाजिक कर्म को असर्ट किया।

स्वयं प्रकाश की कहानियाँ साम्प्रदायिक घृणा और हिंसा (व्यक्त और अव्यक्त) की बड़ी जगह घेरतीं हैं। पार्टिशन, रफीक का पाजामा, क्या कभी किसी सरदार को भीख माँगते देखा है! चौथा हादसा आदि। पार्टिशन या रफीक का पाजामा में एक घृणा और हिंसा तो व्यक्त होती है, पर उससे बड़ी घृणा और हिंसा हमारे भीतर छिपी रह जाती है और हमें अपने मानवीय दायित्व से विमुख करती है। हम अपने-अपने दिलों में एक न दिखाई देने वाला बँटवारा लिये हुए हैं, जो दिखाई देने वाले बँटवारे से ज़्यादा खतरनाक है। साम्प्रदायिक दुर्भावना सदियों पुरानी सामूहिकता को उसकी सांस्कृतिक उपलब्धियों को न केवल नष्ट करती है, बल्कि उसे संदेह के घेरे में ला खड़ा छोड़ती है। हमारी विविधता में एकता के घोष वाक्य को प्रश्नांकित करती है। स्वयं प्रकाश की कहानियों में जातिवाद, बाज़ारवाद, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की जहाँ एक तरफ त्रासदियाँ हैं, वहीं दूसरी तरफ अलक्षित होते समाजवादी सपनों का मार्मिक स्मरण भी है। भूमंडलीकरण का सबसे अधिक घातक प्रभाव हमारे पर्यावरण और आदिवासी समाज पर पड़ा है। ‘बलि’ कहानी इस जटिलता को बड़ी मार्मिकता से व्यक्त करती है।

‘उनकी अगली शुरुआत’ में वे पति-पत्नी की एकरसता को भंग करते हैं और स्त्री के सौन्दर्य को नये दृष्टिकोण से रखते हैं। ‘बदबू’ कहानी में एक भ्रष्ट नेता के बहाने वे समूचे सत्ता तंत्र के चरित्र को उजागर करते हैं।

स्वयं प्रकाश का लेखन बहुआयामी है। उन्होंने प्राय: सभी विधाओं में लिखा है। उनके दर्जन भर कहानी संग्रह हैं उनमें प्रमुख हैं- ‘मात्रा और भार’, ‘सूरज कब निकलेगा’, ‘आसमाँ कैसे-कैसे’, ‘अगली किताब’, ‘आएँगे’ ‘अच्छे दिन भी’, ‘आदमी जात का आदमी’ आदि । इसके साथ-साथ कई उनके कई उपन्यास भी प्रकाशित हुए हैं। उनमें प्रमुख हैं- ‘चलते जहाज़ पर बीच में विनय’, ‘ईंधन’, ‘ज्योति रथ के सारथी’ आदि। निबंध संग्रह – ‘स्वांत: सुखाय’, ‘दूसरा पहलू’, ‘रंगशाला में दोपहर’, ‘एक कहानीकार की नोटबुक’।

रचनाएँ, सेवाएँ एवं सम्मान

रेखाचित्र : हम सफरनामा।

नाटक : फीनिक्स।

स्वयं प्रकाश ने बच्चों के लिए भी विपुल साहित्य रचा। उन्होंने बच्चों की पत्रिका चकमक दुनिया का कई साल तक सम्पादन भी किया।

स्वयं प्रकाश जी को कई सम्मान व पुरस्कार भी मिले, जिनमें प्रमुख सम्मान है- भवभूति सम्मान; प्रमुख पुरस्कार- साहित्य अकादमी पुरस्कार (बाल साहित्य) राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार, वनमाली स्मृति पुरस्कार, सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार आदि।

स्वयं प्रकाश का जन्म 20/01/1947 इंदौर मध्यप्रदेश, शिक्षा- इंदौर और अजमेर राजस्थान,

सेवा – भारतीय नौसेना, भारतीय डाक व तार विभाग, भारतीय जिंक अथारिटी आदि।

क्या हो रहा है हमारी एकता को

भारत एक ऐसा देश है, जिसमें अनेक मज़हबों के लोग रहते हैं। पूरी दुनिया भारत की एकता के आगे नतमस्तक हो जाती है। भारत में कई शहर, कस्बे, गाँव ऐसे हैं, जहाँ मज़हबी एकता चट्टान की तरह मजबूत है। ऐसा ही हमारा शहर बरेली भी है। बरेली में जिस तरह की मज़हबी एकता है, उस तरह की एकता दूसरी जगहों पर बहुत ही कम देखने को मिलती है। इस बात को जानने वाले प्रदेशवासियों के अलावा देश के अनेक लोग आज भी बरेली के भाईचारे की, एकता की, आपसी प्यार की मिसालें दिया करते हैं।

एक समय था, जब सुभाषचन्द्र बोस की फौजों में बरेली के अनेक हिन्दू-मुस्लिम-सिख एक साथ वतन के लिए कुर्बान होने के लिए भर्ती हो गये थे। वहीं अनेक गाँधीवादी चेहरे भी थे, जो पूरी तरह शान्ति के पैरोकार थे, अङ्क्षहसा के पुजारी थे। उन्हीं दिनों चुन्ना मियाँ और पंडित राधेश्याम जैसे लोग भी थे, जिनकी दोस्ती की मिसालें दी जाती थीं। ऐसी ही और भी मिसालें हैं, जिनकी दोस्ती के िकस्से काफी मशहूर हैं।

चुन्ना मियाँ और राधेश्याम के वारिसों ने उस एकता को कायम रखा है, जो दूसरी और तीसरी पीढ़ी के संवाहक हैं। इसी दूसरी पीढ़ी में कुछ एकता के हामी लोगों में मेरे गुरुजी डॉ. उमाकान्त शर्मा भी थे। वे मज़हबी और जातिवादी दायरों को इंसानी िफतरत की उपज और आपसी भेदभाव को महामूर्खता तथा पागलपन कहते थे। मेरे दूसरे गुरु जी रईस बरेलवी घर में कृष्ण और राम की तस्वीरें भी रखते थे। उन्होंने कई गीत-गज़ल लिखे इन महान् चरित्रों पर। इस बात को लेकर उन पर मुस्लिम समुदाय के कुछ कट्टरपंथियों ने एक बार फतवा भी जारी किया और मुकदमा भी; लेकिन •िाला अदालत ने उन्हें यह कहते हुए बरी कर दिया कि एक शायर या बुद्धिजीवी को किसी मज़हब से नहीं बाँधा जा सकता।

हमारी तहज़ीब, हमारी संस्कृति भी यही है; जहाँ हम एक-दूसरे से बेइंतिहाँ मोहब्बत करते हुए मिलजुलकर रहते आये हैं। एक-दूसरे के मज़हबों का सम्मान करते हैं और एक-दूसरे के जश्नों में, त्योहारों में खुशी-खुशी शामिल होते हैं। हमारे देश की नींव भी इसी मज़हबी एकता पर पड़ी हुई है, जिसके चलते एक दौर में टुकड़ों में बँटी रियासतें आज एक अखण्ड देश-भारत के रूप में, एक महाशक्ति के रूप में हमारे सामने हैं। मगर जैसे-जैसे वक्त गुज़रा है, हमारे इस भाईचारे में दरार पड़ी है, जो आज एक खाई का रूप लेती जा रही है। आज सामाजिक रिश्तों में ही नहीं, पारिवारिक रिश्तों में भी दरारें आनी शुरू हो गयी हैं। ऐसा भी नहीं है कि यह दरारें हमारे बीच बहुत लम्बे अंतराल के बाद आयी हैं। हमारे आपसी सम्बन्धों में ज़हर घुलने लगा है।

दु:खद है कि यह ज़हर सिर्फ दो-तीन पीढिय़ों के अंतराल में ही भरने लगा है, जो आज कई लोगों के खून में घुल चुका है। यानी हम प्यार और एकता की गाड़ी को दो-तीन पीढ़ी तक भी नहीं चला पाये और उसके चारों पहिये हमने खोलने शुरू कर दिये। क्या वजह है इसकी? क्यों हम नहीं समझ रहे कि हमारे इस तरह बिखरने से, लडऩे से, मनमुटाव से पूरा देश टूट जाएगा। वह देश जिसे हमारे बुजुर्ग प्यार, भाईचारे और एकता की धागों में बाँधकर गये। क्या हम अपनी पीढिय़ों को एक बिखरी हुई, उजड़ी हुई नफरत भरी •िान्दगी देकर जाना चाहते हैं? आज क्यों कुछ लोगों के बहकावे में आकर हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई एक दूसरे से इतनी नफरत करने लगे हैं? आिखर क्यों बदल रही है हमारी िफतरत? क्यों हम इंसान से हैवान होने पर उतारू हैं? क्यों हम एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं? क्या यह सब करके हमारी आने वाली पीढिय़ाँ हमें माफ करेंगी? क्या वे कभी चैन-ओ-अमन से रह पाएँगी? क्या उनका जीवन कभी शुकून से कट सकेगा?

अगर आज हम इन सब सवालों पर विचार नहीं करेंगे, तो हमारा कल न तो सुरक्षित रह सकेगा और न ही आने वाली पीढिय़ाँ चैन-ओ-सूकून से रह सकेंगी। और यह हमारी •िाम्मेदारी है कि हम इंसानियत को •िान्दा रखें, प्यार को •िान्दा रखें।  बुराई से दूर रहकर ऐसे काम करें, जिससे प्रकृति का भी भला हो, मानव जाति का भी भला हो, संसार के समस्त प्राणियों का भी भला हो। हमें सोचना पड़ेगा कि आिखर हम ईश्वर को बाँटने की नाकाम कोशिश में कब तक मज़हबी दीवारों में कैद होकर आपस में लड़ते-झगड़ते और एक-दूसरे से नफरत करते रहेंगे।

क्या हम आसमान बाँट सकते हैं? क्या हम पृथवी के टुकड़े कर सकते हैं? क्या हम हवा, पानी, आग, खुशबू, पक्षियों आदि पर पहरा लगा सकते हैं? जब हम एक ही हवा में मिलकर साँस लेते हैं, एक ही ज़मीन पर रहते हैं, एक ही तरह की जीवनचर्या जीते हैं, एक ही तरह से पैदा होते और मर जाते हैं, तब फिर अलग-अलग सोच के चलते एक-दूसरे के खून के प्यासे आिखर क्यों हो जाते हैं? क्या हम और तरक्की नहीं कर लेंगे, जब मिलकर रहेंगे? क्या दुनिया को हम स्वर्ग नहीं बना सकते? ज़रूर बना सकते हैं। हर मज़हब के अनेक लोग इस काम को कर भी रहे हैं। अन्यथा यह दुनिया आज एक जंग का मैदान ही होती।

हमें सिर्फ इतना ही सोचना और समझना काफी है कि अगर हम चैन-ओ-सुकून से जीना चाहते हैं, तो दूसरों को भी चैन-ओ-सुकून से जीने भी देें। जिस दिन इस बात पर सभी अमल करने लगेंगे, उस दिन हर आदमी इंसान बन जाएगा। सबकी •िान्दगी चैन-ओ-सूकून से गुज़रेगी। जब सभी लोग एक-दूसरे के मज़हब का आदर करेंगे, तब ही मज़हबी दीवारें किसी के लिए भी बाधा नहीं बनेंगी। हम मज़हबी दीवारों में खुद को जितना बन्द कर लेंगे, उतनी ही संक्रीणता हमारे दिलों पर हावी हो जाएगी और हम आपसी अपने ही दुश्मन हो जाएँगे।

आरटीआई कार्यकर्ता अखिल गोगोई के घर छापा

राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने गुरूवार को आरटीआई कार्यकर्ता और किसान नेता अखिल गोगोई, जिन्होंने हाल ही में नागरिकता विरोधी क़ानून के खिलाफ आंदोलन का समर्थन किया था, के असम के गुवाहाटी में आवास पर छापा मारा है। अखिल इस समय गिरफ्तार हैं और उनपर भारतीय दंड संहिता और अवैध (गतिविधियां) रोकथाम कानून की विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया है।

असम में कथित रूप से हिंसा भड़काने के आरोप में जोरहाट में गिरफ्तार किये गए अखिल को एनआईए टीम दिल्ली ले गयी। अखिल कृषक मुक्ति संग्राम समिति (केएमएसएस) के सलाहकार भी हैं और असम पुलिस ने उन्हें १२ दिसंबर को जोरहाट से गिरफ्तार किया था और अब तक वे गिरफ्तार हैं। बाद में उन्हें एनआईए को सौंप दिया गया था। अखिल पर एनआईए ने आईपीसी की धारा १२०बी, १२४ए , १५३ए, १५३बी,  और यूएपीए की धारा १८, ३९ के तहत मामला दर्ज किया है।

अब गुरूवार को एनआईए ने गोगोई के गुवाहाटी के निजारपार आवाज पर छापा मारा है। एनआईए के साथ स्थानीय पुलिस भी थी। काफी देर तक तलाशी अभियान चला। उनपर नागरिकता कानून को लेकर लोगों को ”हिंसा के लिए उकसाने” का आरोप लगाया गया है। नागरिकता संशोधन कानून पर अखिल केंद्र सरकार का विरोध करते रहे हैं।

पूर्व सांसद सावित्री फुले ने कांग्रेस छोड़ी, अब अपनी पार्टी बनाएंगी

भाजपा से कुछ महीने पहले कांग्रेस में शामिल हुईं दलित नेता और पूर्व सांसद सावित्री बाई फुले यह कहकर गुरूवार को पार्टी से बाहर हो गयी हैं कि कांग्रेस उनकी ईवीएम के खिलाफ अभियान चलाने की मांग ”नहीं मान रही”। फुले का यह बहाना दिलचस्प है क्योंकि कांग्रेस इस साल में हे दो बार राष्ट्रपति से मिलकर लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव में ईवीएम को लेकर सवाल उठा चुकी है।
फुले ने गुरूवार को कहा कि वे कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी से मिली थीं और ईवीएम के खिलाफ अभियान चलाने की मंजूरी माँगी थी ”लेकिन उन्होंने यह कहकर इनकार कर दिया कि ईवीएम हमारी सरकार के समय शुरू की गयी थी हम इसका विरोध नहीं करते”।
याद रहे फुले २०१४ में भाजपा टिकट पर बहराइच से सांसद चुनी गई थीं। पिछले साल के आखिर में वे भाजपा छोड़ कांग्रेस में आ गईं थीं। कांग्रेस ने उन्हें बहराइच से टिकट दिया लेकिन वे हार गईं। अब गुरूवार को कांग्रेस से इस्‍तीफा देते हुए फुले ने कहा कि कांग्रेस में उनकी आवाज नहीं सुनी जा रही थी।
फुले ने कहा कि वे अब अपनी ही पार्टी बनाएंगी। वे २०१२ में भाजपा टिकट पर बलहा विधानसभा सीट से भी चुनाव जीत चुकी हैं। उन्हें भाजपा में एक दलित महिला चेहरा माना जाता था लेकिन भाजपा पर गंभीर आरोप लगाते हुए इ कांग्रेस में शामिल हुई थीं।

चिकित्सीय लापरवाही: बच्चे के अंधा पैदा होने पर 76 लाख का मुआवजा

15 साल बाद महाराजा अग्रसेन अस्पताल में जन्मे बच्चे के अंधेपन में बरती गई लापरवाही पर देश की शीर्ष अदालत ने परिवार को 76 लाख रुपये का मुआवजा देने का निर्देश दिया है। मामले में चिकित्सीय लापरवाही की भी पुष्टि की।
जस्टिस यू यू ललित और इंदु मल्होत्रा ​​की पीठ ने अस्पताल के साथ-साथ  बाल रोग विशेषज्ञ और नेत्र रोग विशेषज्ञ को चिकित्सा लापरवाही का दोषी ठहराया। इस मामले में डॉक्टरों ने जिम्मेदारी नहीं निभाई। वे प्री-टर्म बेबी की  रेटिनोपैथी ऑफ प्रीटैरिटी (आरओपी) की जाँच करने में विफल रहे, जिसके कारण उनका नवजात पूरी तरह से अंधा पैदा हुआ।
अदालत ने 2005 में पैदा हुए बच्चे के मेडिकल रिकॉर्ड को साझा नहीं करने के लिए अस्पताल को भी फटकार लगाई, जबकि उसके माता-पिता ने दो साल बाद तक इलाज के लिए अन्य डॉक्टरों से संपर्क किया और चक्कर लगाए।
तीन महीने से अधिक समय तक नवजात को चिकित्सीय परीक्षण के लिए अस्पताल ले गए, लेकिन डॉक्टरों ने जांच तक नहीं की।
पीठ ने 76 लाख रुपये का मुआवजा दिया, जिसमें से 60 लाख रुपये बच्चे की शिक्षा, कल्याण और जीविका के लिए दिए जाएंगे। मां को उनकी देखभाल करने वाले के लिए 15 लाख रुपये और मुकदमेबाजी में खर्च 1 लाख रुपये दिए।
सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग के उस आदेश को बरकरार रखा कि यह चिकित्सकीय लापरवाही का मामला था।

नेता वो नहीं जो हिंसा का नेतृत्व करे : जनरल रावत

देश भर में नागरिकता क़ानून और एनआरसी को लेकर हो रहे विरोध प्रदर्शनों के बीच सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने गुरूवार को यूनिवर्स्टीज में हो रहे प्रदर्शनों पर सवाल खड़ा किया है। जनरल रावत ने कहा, ”नेता वे नहीं हैं जो हिंसा करने वाले लोगों का नेतृत्व करते हैं।” गौरतलब है कि आजकल जनरल रावत को देश का पहला चीफ आफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) बनाये की चर्चा जोरों पर है, हालांकि सरकार की घोषणा का अभी इंतजार है।

राजधानी दिल्ली में एक कार्यक्रम में जनरल रावत ने देशभर में (नागरिकता विरोधी) प्रदर्शनों और इस दौरान हुई तोड़फोड़ पर कहा – ”नेता वे नहीं जो हिंसा करने वाले लोगों का नेतृत्व करते हैं। छात्र विश्वविद्यालयों से निकलकर हिंसा कर रहे हैं। हिंसा भड़काना नेतृत्व करना नहीं है।”

कार्यक्रम में सेना प्रमुख ने कहा कि नेता वे नहीं जो लोगों को गलत दिशा में ले जाए। उन्होंने कहा – ”हाल के दिनों में हमने देखा है कि किस तरह बड़ी संख्या में छात्र कॉलेजों और विश्वविद्यालयों से निकलकर आगजनी और हिंसा करने के लिए लोगों और भीड़ का नेतृत्व कर रहे हैं। हिंसा भड़काना नेतृत्व करना नहीं।”

अपने भाषण में सेना प्रमुख ने किसी ख़ास यूनिवर्सिटी का नाम नहीं लिया। हालांकि देश में नागरिकता क़ानून और एनआरसी को लेकर जारी विरोध और विश्वविद्यालयों में प्रदर्शन पर सख्त प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि नेतृत्व क्षमता वह नहीं है जो लोगों को गलत दिशा में लेकर जाती हो। ‘आज हम सब बड़ी संख्या में विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में छात्रों की अगुआई में कई शहरों में भीड़ और लोगों को हिंसक प्रदर्शन करते देख रहे हैं। यह नेतृत्व क्षमता नहीं है।”

नेतृत्व पर अपने विचार बताते हुए हुए सेना प्रमुख ने कहा – ”यह आसान नहीं बल्कि बहुत मुश्किल काम है। सेना प्रमुख बिपिन रावत ने कहा कि लीडरशिप एक मुश्किल काम है क्योंकि जब आप आगे बढ़ते हैं तो बड़ी संख्या में लोग आपको फॉलो करते हैं। यह दिखने में सामान्य लगता है, लेकिन यह बहुत-बहुत मुश्किल काम है क्योंकि आपके पीछे एक बहुत बड़ी भीड़ है।”

इस मौके पर जनरल ने सीमा पर मुश्किल हालत में भी देश की सेवा की सराहना की और कहा कि आज हम खुद को ठंड से बचाने के लिए कई तरह के गर्म कपड़े पहने हुए हैं, इसे देखते हुए मैं अपने अन जवानों को श्रद्धा जताना चाहता हूं जो सियाचिन में सॉल्टोरो रिज और अन्य ऊंचाई वाले स्थनों पर सीमा की सुरक्षा के लिए खड़े रहते हैं, जहां तापमान माइनस से भी ४५ डिग्री तक नीचे रहता है।

पाक ने तोड़ा युद्धविराम, २ सैनिक खोए

पाकिस्तान की तरफ से जम्मू कश्मीर की सीमा पर युद्धविराम की और घटना हुई है। इसमें एक भारतीय जवान शहीद हो गया  हालांकि, भारतीयसेना की जवाबी कार्रवाई में दो पाकिस्तानी सैनिक ढेर हो गए।

जानकारी के मुताबिक गुरूवार दोपहर पाकिस्तान ने नियंत्रण रेखा पर सीज़फायर का उल्लंघन किया। सीमा के उसपार से मोर्टार की जबर्दस्त फायरिंग की गयी। इस फायरिंग में सेना का एक सूबेदार शहीद हो गया। हालांकि भारतीय सेना ने इसका मुहंतोड़ जवाब दिया और पाकिस्तान के दो सैनिकों को ढेर कर दिया। पाकिस्तान ने इन सैनिकों के मरने की पुष्टि की है।

इस घटना पर पाक ने एक ब्यान जारी किया है जिसमें उसने कहा भारत के उरी सेक्टर की दूसरी ओर पाकिस्तान के कब्जे वाले देवा सेक्टर में भारत की ओर से हुई गोलीबारी में उसे दो जवान शहीद हुए हैं। इन जवानों के नाम पाकिस्तान ने नायब सूबेदार कंदेरो और सिपाही अहसान बताए हैं।

पाकिस्तान की ओर से उरी सेक्टर में नियंत्रण रेखा के पास गोलीबारी की गयी। पिछले देर रात मोर्टार और आर्टिलरी फायर किए गए। इस फायरिंग में सेना के एक सूबेदार शहीद हो गए। भारत ने पाकिस्तान को करारा जवाब देते हुए उसके भी दो सैनिक मार गिराए।