Home Blog Page 948

प्याज की बढ़ती कीमतों के पीछे का खेल

प्याज की कीमतों में हालिया बढ़ोतरी साथ ही सरकारी संस्थानों की ओर से आयी प्रतिक्रियाओं अर्थ-व्यस्था और कारोबार पर मौज़ूदा परिप्रेक्ष्य में पड़ताल करने की ज़रूरत है। देश के जानकार लोग समझते हैं कि प्याज की कमी अचानक नहीं आयी है। सितंबर से नवंबर के बीच हुई ज़ोरदार बारिश से देश के सबसे बड़े प्याज उत्पादक राज्य महाराष्ट्र के प्याज के खेतों में पानी भर जाने से फसल को बहुत नुकसान हुआ। इसलिए महाराष्ट्र भर की अनाज मंडियों में प्याज की फसल (खरीफ) की पैदावार कम होने के संकेत मिले और इसमें कमी आयी।

विडंबना यह है कि इसी दौरान विपरीत विचारधारा वाले राजनीतिक दलों की महाराष्ट्र में चुनाव पूर्व के गठबंधन और परिणामों के बाद अपने अपना गणित बैठाने में लगे रहे। अगर प्याज की खरीद और वितरण की योजना उसी समय बनाते और इसमें अधिक ध्यान देते इससे फसल पैदावार करने वालों की आजीविका बच जाती साथ ही प्याज के दाम भी आसमान नहीं छूते। शहरी लोगों को सस्ती प्याज खरीदने के लिए पर्याप्त समय मिला और बहुत से लोगों को यह पता भी था कि आने वाले समय में प्याज की िकल्लत हो सकती है, जिससे इसके दामों में इज़ाफा मुमकिन है। दुर्भाग्य से, आम आदमी की चिन्ता वास्तविक मुद्दे पर यह होनी चाहिए कि किस तरह से उत्पादक के साथ ही उपभोक्ताओं को भी सरकारों की ओर से संकट में डाल दिया गया है।

राजनीतिक दल चुनावी घोषणा-पत्र में किसानों के कल्याण के लिए लम्बे दावे करते हैं। न्यूनतम आय, किसानों का कर्ज़ माफ करना और बेहतर पारिश्रमिक का वादा हर दलों द्वारा किया जाता है। किसानों की समस्याओं के स्थायी समाधान को शामिल करने के लिए, किसी भी राजनीतिक दल ने उपाय नहीं किये हैं। वर्तमान परिदृश्य में देखें तो महाराष्ट्र के अधिकांश किसान, जिनकी फसलों को नुकसान हुआ था, उन्होंने कई सरकारी व गैर-सरकारी संगठनों से कर्ज़ लिया हुआ था। सरकार के ही अनुमान के अनुसार, प्याज की खरीफ की फसल 30-40 प्रतिशत खराब हो गयी। वास्तविक नुकसान इससे भी •यादा हो सकता है; क्योंकि सरकारी सर्वेक्षण में अपनायी जाने वाली कार्यप्रणाली में ऐसे किसान छूट जाते हैं, जो सरकार की एजेंसियों के तय मापदंडों में फिट नहीं बैठते हैं।

महाराष्ट्र में एक छोटा किसान भी 12 हज़ार से 18 हज़ार रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से पट्टा लेता है और इसमें सिंचाई का खर्च भी अलग हो सकता है। चूँकि पट्टे के पैसे का भुगतान अग्रिम करना होता है। इसलिए एजेंटों को कमीशन भी देना पड़ता है। अगर 25-30 प्रतिशत ही फसल खराब हो गयी, तो किसान कर्ज़ की भरपाई उस फसल की पैदावार से नहीं कर सकता है। किसान फसल के खराब हो जाने के बाद जो कर्ज़ भरते हैं, तो कभी-कभी ब्याज की राशि मूल राशि से भी •यादा हो जाती है। फसल के नुकसान के कारण अन्य मौसम के बाद एक बार कर्ज़ जमा करते हैं और कभी-कभी ब्याज का बोझ मूल राशि से अधिक हो जाता है।

कुछ राज्यों में किसान कर्ज़ माफी की घोषणा सरकारें करती हैं पर इसका फायदा पहुँचने वालों की संख्या सीमित रहती है। कर्ज़ माफी के नाम पर खर्च की जाने वाली राशि को सिंचाई नेटवर्क और फसल कटाई के बाद के ज़रूरी ढाँचे के तौर पर लगाया जाना चाहिए। मसलन, इस साल प्याज के मामले को लें जहाँ पर इसकी फसल खराब हो जाने से कटाई के बाद वहाँ पर किसान के पास कुछ पैदावारी का विकल्प नहीं रहता। कम पानी के चलते फसल की कमज़ोर पैदावार या फिर बहुत •यादा पानी भर जाने के कारण पैदा होने वाली फसल को खरीद एजेंसियाँ लेने से इन्कार कर देती हैं। ऐसे मामले में किसान सिर पर हाथ रखकर विलाप करने को मजबूर होता है। नीति निर्माताओं को चाहिए कि वे कृषि कार्यों से जुड़े लोगों के कृयाण के लिए ऐसी व्यवस्था बनाएँ, ताकि इस तरह की स्थिति में अच्छे से निपटा जा सके।

तहलका से बात करते हुए महाराष्ट्र के किसान और शेतकारी संगठन के पूर्व अध्यक्ष गुनवंत पाटिल ने कहा कि सरकार या तो फसल बचाने के लिए काम करे या फिर बाज़ार से भी एकदम अलग हो जाए। शहरी उपभोक्ताओं के विरोध की आशंका के बीच सरकार किसानों के मामले में लूट-खसोट की तरह खेलती है। ‘जब कीमत में गिरावट होती है, तो किसानों को भारी नुकसान होता है। लेकिन सरकार उस वक्त चुप बैठी रहती है। ठीक इसके विपरीत जब इनके दाम आसमान छूने लगते हैं, तो सरकार वहीं ची•ों विदेशों से खरीदकर बाज़ार को मुहैया कराती है। हर कोई जानता है इसमें बिचौलिया कमायी करता है, जो किसी को भी स्वीकार नहीं करना चाहिए। किसानों के लिए कोई अतिरिक्त कमायी का साधन नहीं है। अपनी प्रति एकड़ लागत को पूरा करने में सक्षम नहीं हैं, भले ही हमें अपेक्षाकृत अधिक कीमत मिले; क्योंकि पैदावार ही कम हुई है। हमारी फसल को ग्रेडिंग और छँटाई के बाद खरीदा जाता है और अधिक नमी के कारण खरीदार लेने से इन्कार कर देते हैं। इस प्रकार हमारी प्रति एकड़ आय कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा निर्धारित औसत आय से भी काफी कम रहती है। अगर मौसम की मार से फसल प्रभावित होती है, तो ऐसा लग सकता है कि किसान प्रति किलोग्राम पैदावार के हिसाब से नुकसान झेलता है।’

वर्तमान के जो हालात हैं, वे माँग और आपूर्ति के अनुकूल नहीं है। महाराष्ट्र के किसान पछले 80 साल से इससे जूझ रहे हैं। हमारे विरोध के बाद समस्या पर बात हो रही है और राजनीतिक दलों ने प्याज की कीमतों के चलते सत्ता तक खो दी है; लेकन इस सबके बावजूद किसी ने दीर्घकालीन समाधान खोजने और उनके लागू करने के प्रयासों पर गम्भीरता से ध्यान नहीं दिया है। किसान एक उत्पादक है; लेकिन वह बाज़ार के खेल से वािकफ नहीं है। उसे भविष्य में उसकी कीमत के रुझानों के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है। प्याज रखे रहने से खराब हो जाती है, इसलिए उनको बाज़ार में बेचना उनकी मजबूरी भी होती है; क्योंकि भंडारण के लिए उनके पास गोदाम जैसी व्यवस्था नहीं होती है।

उत्तर प्रदेश के भारतीय किसान यूनियन के एक वरिष्ठ नेता धर्मेंद्र मलिक के अनुसार, कीमतों में अचानक तेज़ी आ जाने से व्यापारी वर्ग को ही फायदा होता है। उन्होंने कहा कि वस्तुओं की ऑन-लाइन ट्रेडिंग की शुरुआत ने मूल्य निर्धारण तंत्र को परेशानी में डाल दिया है। चूँकि कमोडिटी अधिनियम में वस्तुओं की डिलीवरी अनिवार्य नहीं है, वर्चुअल लेन-देन किसानों के संकट को बढ़ा दिया है। ऑनलाइन ट्रेडिंग से बाज़ार में कृत्रिम चीज़ों की भरमार से इसकी दरों में व्यापक बदलाव दिखता है। आगे ऐसी ट्रेडिंग की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए; क्योंकि चीज़ों की कीमतों का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। किसानों के संकट के पीछे भारतीय कमोडिटी बाज़ार की अनियमितता को •िाम्मेदार कहा जा सकता है। दुनिया के अन्य हिस्सों में सरकार द्वारा तय न्यूनतम मूल्य पर निश्चित प्रीमियम तय करके ही व्यापारी को दिया जाता है। लेकिन हमारे देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय है, साथ ही उसी दौरान बाज़ार में वही चीज़ क्या भाव बिक रही, इसकी जाँच करने की व्यवस्था नहीं है।  उन्होंने कहा कि व्यापारियों को होने वाले मुनाफे के लिए निगरानी प्रणाली होनी चाहिए। पिछले पाँच वर्षों में कर सुधारों के डिजिटलीकरण और रोल आउट के बावजूद, बिचौलिये छोटे किसानों से माल लेकर मुनाफा कमा रहे हैं। जब हम लोग •यादा पैदावार होने का सामना करते हैं, तो फिर तो वह चीज़ बेहद सस्ते दाम में बेचनी पड़ती है। ऐसी स्थिति में सरकार की ओर से कई सहयोग नहीं मिलते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों में प्याज की पैदावार होती है और यह फसल दिसंबर अंत और जनवरी तक बाज़ार में आ जाएगी। वहीं केंद्र सरकार ने जो अभी प्याज आयात करने के आदेश दिये हैं, वह भी उसी वक्त आएगी, ऐसे में आवक बढ़ जाएगी। फिर किसान को मजबूरन आयातित प्याज सस्ती मिलने के चलते न्यूनतम दरों पर बेचना होगा। क्या राजनीतिक दल इसकी व्याख्या कर सकते हैं?

8 जनवरी को ग्रामीण भारत बंद

120 से अधिक किसान संगठनों का एक छत्र संगठन अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ने 8 जनवरी, 2020 को किसानों की माँगों को लेकर केंद्र सरकार की उदासीनता और निष्क्रियता के विरोध में ‘ग्रामीण भारत बंद’ का आह्वान किया है। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के वरिष्ठ नेता अविक साहा ने बताया कि वस्तुओं के निर्यात और आयात पर सरकार के आकस्मिक फैसलों ने वैश्विक बाज़ार में भारत के िखलाफ धारणा बना दी है। इस तरह किसानों के उत्पादों के आयात-निर्यात के मौकों ने हमारे किसानों को नुकसान पहुँचाया है।

साहा ने कहा कि पहले हमें यह स्वीकार करना होगा कि कोई समस्या है, इसके बाद ही समाधान के बारे में सोचने पर विचार किया जा सकता है। उन्होंने खेद जताया कि सरकार यह मानती है कि कोई समस्या ही नहीं है। सरकार की इस बेरुखी ने अर्थ-व्यवस्था को गिरा दिया है। इस समस्या का समय रहते निदान ज़रूरी है अन्यथा बहुत देर हो जाएगी।

ब्रिटेन चुनाव में लेबर पार्टी पर भारी पड़े कंजर्वेटिव बोरिस जॉनसन

चार साल में तीसरी बार हुए आम चुनाव में ब्रिटेन की जनता ने आिखर कंजर्वेटिव पार्टी के बोरिस जॉनसन को चुन लिया है। संसद के निचले सदन हाउस ऑफ कॉमन्स की 650 सीटों के लिए हुए चुनाव में जनता ने कंजर्वेटिव पार्टी को 364 सीटों के साथ ज़बरदस्त बहुमत दे दिया।

तकरीबन एक सदी के बाद त्योहारों वाले दिसंबर महीने में ब्रिटेन में चुनाव हुए। ऐसा इससे पहले 1923 में हुआ था, जब दिसंबर में चुनाव कराये गये थे।

इसका असर चुनाव प्रचार में भी दिखा। मुख्य मुकाबला कंजर्वेटिव टोरी पार्टी और वाम लेबर पार्टी के बीच था। पहले लग रहा था कि दोनों में कड़ी टक्कर होगी; लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भले लेबर पार्टी ने 203 सीटें जीतीं, कंजर्वेटिव पार्टी 364 सीटों के साथ ज़बरदस्त बहुमत पाने में सफल रही। चूँकि बोरिस जॉनसन ने चुनाव में ‘गेट ब्रेक्जिट डन’ अर्थात् ब्रेक्जिट का नारा दिया था और जनता ने उन्हें पूर्ण बहुमत देकर ब्रिटेन में फिर ब्रेक्जिट का रास्ता साफ कर दिया है। चुनाव प्रचार के दौरान ही साफ हो गया था बोरिस जॉनसन पहली बार ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पद के लिए चुने जाने की आकांक्षा के साथ जनता के बीच पहुँचे हैं। अभियान में जॉनसन ने ब्रेक्जिट के अपने नारे को बार-बार दोहराया। इसका चुनाव परिणाम में उन्हें लाभ मिला। चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में ही साफ हो गया था कि ब्रिटेन की जनता ने बोरिस जॉनसन के साथ जाने का फैसला कर लिया है। एक सर्वे में यह सामने आया कि देश के 60 फीसदी से ज्यादा मतदाता जॉनसन के ब्रेक्जिट नारे से वािकफ थे।

वैसे लेबर नेता जेरेमी कॉर्बिन ने ही चुनाव जीतने की स्थिति में तीन महीने के भीतर ब्रेक्जिट का नया ड्राफ्ट तैयार करने, यूरोपीय संघ से उसे पास करवाने और अगले तीन महीने में ब्रिटिश जनता से उस पर जनमत संग्रह (रेफरेंडम) का वादा किया था। लेकिन वे बोरिस जॉनसन की तरह इस पर स्पष्ट नहीं थे। जनता के मन में कॉर्बिन को लेकर दुविधा थी क्योंकि इस पर वे अपनी स्थिति साफ नहीं कर पा रहे थे। जनता की दुविधा को समझते हुए बोरिस जॉनसन ने प्रचार में अपना आक्रमण जेरेमी कॉर्बिन पर साधे रखा।

पिछले चार साल में तीसरी बार हो रहे चुनाव से ब्रिटेन की जनता भी ऊब चुकी थी। प्रचार में ही जाहिर हो गया था कि ब्रिटेन की जनता चुनाव में ब्रेक्जिट को लेकर जनादेश देने जा रही है। जनता का फैसला बोरिस जॉनसन के हक में रहा।

जॉनसन ने साफ कर दिया था कि वे सत्ता में आये तो नयी संसद में आधिकारिक रूप से ‘विड्रॉल समझौता’ कहे जाने वाली ब्रेक्जिट डील को पास करवा लेंगे और 31 जनवरी को यूके को यूरोपीय संघ से निकाल लेंगे। अब जबकि वे चुनाव जीत चुके हैं, उनकी कोशिश रहेगी 2020 के अंत तक वे स्वतंत्र रूप से यूरोप, अमेरिका और दूसरे अहम साझेदारों के साथ नये व्यापारिक समझौते करें। विपक्ष को भले संदेह हो और लेबर जेरेमी कॉर्बिन कह रहे हों कि एक साल क्या अगले सात साल तक में ये समझौते पूरे नहीं हो सकते। लेकिन बोरिस ऐसा कर लेते हैं, तो फिर एक बार बिना किसी डील के ब्रिटेन के ईयू से बाहर निकलने की स्थिति बन सकती है।

चुनाव नतीजों में कंजरवेटिव पार्टी को बहुमत के आँकड़े, 326, से 30 सीटें •यादा मिली हैं। जीत के बाद पीएम बोरिस जॉनसन ने कहा है कि उन्हें अब एक नया जनादेश मिला है जिससे वह ब्रिटेन को यूरोपीय यूनियन से अलग करने वाले ब्रेक्जिट को लागू कर सकेंगे। याद रहे मार्ग्रेट थैचर की 1987 की जीत के बाद से जॉनसन की कंजरवेटिव पार्टी की यह सबसे बड़ी जीत है। इसके उलट लेबर पार्टी की हालत 1930 के बाद से सबसे अधिक खराब हुई है। ‘ब्रेक्जिट’ को लेकर ब्रिटेन में 2016 में जनमत संग्रह हुआ था, जिसके बाद आश्चर्यजनक रूप से देश की राजनीति ठंडी-सी पड़ गयी थी। देश में करीब चार साल में तीसरी बार आम चुनाव हुए थे।

 इन चुनाव परिणामों के बाद वहाँ के मुस्लिमों को लेकर भी बातें शुरू हो गयी हैं। ब्रिटिश-मुस्लिमों का कहना है कि नयी जॉनसन सरकार के अन्दर उनके समुदाय को अपने भविष्य की चिन्ता है। यूके की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बोरिस पर व्यक्तिगत रूप से इस्लामोफोबिया के आरोप लगते रहे हैं और इसी क्रम में ब्रिटेन में ब्रिटिश-मुसलमानों के स्थान को आश्वस्त करने के लिए मुस्लिम काउंसिल ऑफ ब्रिटेन (एमसीबी) ने प्रधानमंत्री जॉनसन से मुलाकात की है।

 मुस्लिम काउंसिल ऑफ ब्रिटेन के महासचिव हारून खान ने कहा कि जहाँ एक ओर सत्तारूढ़ कंजरवेटिव अपनी जीत का जश्न मना रही है, वहीं दूसरी ओर देश भर में मुस्लिम समुदाय में एक स्पष्ट डर दिखायी दे रहा है। उन्होंने कहा कि हमारी सत्तारूढ़ पार्टी और राजनीति में कट्टरता की चिन्ताओं के साथ हमने चुनाव प्रचार अभियान में प्रवेश किया था और अब सरकार पहले से ही इस्लामोफोबिया की शिकार है। हारून खान ने यह भी कहा कि जॉनसन को एक बार फिर भारी मतों के साथ सत्ता पर काबिज होने का मौका मिला है और हम प्रार्थना करते हैं कि वह पूरे ब्रिटेन के लिए कार्य करेंगे।

ब्रेक्जिट की परिभाषा

ब्रेक्जिट दो शब्दों के मेल से बना है –  ब्रिटेन + एक्जिट। अर्थात् ब्रेक्जिट का सीधा-सा मतलब है- ब्रिटेन का यूरोपियन यूनियन (ईयू) से बाहर आना। चुनाव से पहले पूरी दुनिया में इस बात को लेकर असमंजस था कि क्या ब्रिटेन ईयू में रहेगा या नहीं।  बोरिस जॉनसन की पार्टी की जीत से साफ हो गया है कि वह ब्रिटेन को यूरोपियन यूनियन से अलग कर देंगे। ब्रिटेन जब 2008 में अर्थ-व्यवस्था मंदी की मार में फँसा तब देश में ब्रेक्जिट जैसा विचार आया था। देश में महँगाई और बेरोज़गारी से त्राहि-त्राहि मचने लगी। इसके  समाधान और अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिशें चल रही थीं। तब यही महसूस किया गया कि यूरोपियन यूनियन उसे इस संकट से बाहर निकलने में कोई मदद नहीं कर रहा।

फिर यूनाइटेड किंगडम इंडिपेंडेंस पार्टी (यूकेआईपी) ने 2015 में हो रहे चुनाव के दौरान यह मुद्दा उठाया। उसने भी कहा कि यूरोपीय यूनियन ब्रिटेन की आर्थिक मंदी को कम करने में कोइ रोल अदा नहीं कर रहा। उनका कहना था कि इससे ब्रिटेन की स्थिति लगातार खराब हो रही है। आर्थिक मंदी को कारण मानते हुए कहा गया कि  ब्रिटेन को हर साल यूरोपियन यूनियन के बजट के लिए नौ अरब डॉलर अदा करने पड़ते हैं। इस कारण ब्रिटेन में बिना रोक-टोक के लोग बसते हैं। फ्री वीजा पॉलिसी से ब्रिटेन को बड़ा नुकसान हो रहा है। जून 2016 में ब्रिटेन को ईयू से बाहर निकालने के समर्थकों का तर्क था कि ऐसा करके ही ब्रिटेन को उसके पुराने औपनिवेशिक-काल वाले वैभवशाली दर्जे पर लौटाया जा सकता है। ब्रिटिश हुकूमत ने एक समय जिस तरह करीब-करीब आधे विश्व में अपने व्यापारिक सम्बन्धों और औपनिवेशिक शासन के ज़रिये राज किया था, ब्रेक्जिट समर्थकों ने उस वैभव को अपने तर्क का आधार बनाया। वैसे यह माना जाता है कि ब्रिटेन ब्रेक्जिट में यूरोपियन यूनियन से बाहर आकर भी अपने हितों को एक सीमा तक ही ऊपर रख पाएगा। भारत के साथ भी व्यापारिक समझौते करते समय भी ब्रिटेन कमोवेश अपने हित के हिसाब से फैसले नहीं कर पाएगा। ऐसा अमेरिका, यूरोप आदि के मामले में भी होगा।

ग्लोबल ब्रिटेन बनाने के अपने इरादे को पूरा करने के लिए ब्रिटेन को भारत की तरफ देखना होगा। गौरतलब है कि ब्रेक्जिट रेफरेंडम के बाद नवंबर, 2016 में उस समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री टेरीजा मे ने भारत दौरे में साफ कर दिया था। साल 2016 में ब्रिटेन भारत के उत्पादों का पाँचवाँ सबसे बड़ा निर्यातक था, जो कि कुल भारतीय निर्यात का केवल 3.3 फीसदी था। इसके विपरीत भारत का 16 फीसदी निर्यात यूरोपीय संघ में हुआ, जो कि ब्रिटेन के मुकाबले कई गुना •यादा है। वैसे ईयू खुद 2007 से भारत के साथ एक ट्रेड डील करने की प्रक्रिया में है; हालाँकि यह अभी अधर में ही है।

चुनाव में 15 भारतीयों की रिकॉर्ड जीत

ब्रिटेन की संसद के निचले सदन- हाउस ऑफ कॉमन्स में इस चुनाव में भारतीय मूल के रिकॉर्ड 15 सांसद चुने गये हैं। दिलचस्प यह है कि सन् 1892 के बाद भारतीय मूल के सांसदों की हाउस ऑफ कॉमन्स में यह सबसे बड़ी संख्या है। वैसे भारतीय मूल के जो प्रत्याशी चुने गये उनमें 14 देश के दो बड़े दलों, कंज़रवेटिव और लेबर पार्टी, के टिकट पर चुने गये। दोनों ही दलों से 7-7 भारतीय जीते हैं। कंज़रवेटिव और लेबर पार्टी के अलावा एक भारतीय लिबरल डेमोक्रेट्स पार्टी के टिकट पर जीता है। गौरतलब है कि 2017 के चुनाव में इससे चार कम अर्थात् 12 भारतीय मूल के सांसद

हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए चुने गये थे। वैसे पिछले चुनाव में जीते 12 भारतीय मूल के सांसदों ने अपनी सीटें बरकरार रखीं और उन्हें जनता ने दोबारा चुन लिया। तीन नये चेहरे आये हैं। सदन के लिए पहली बार चुने जाने वालों में गगन मोहिंद्रा, क्लेयर कूटिन्हो और नवेंद्रू मिश्रा हैं। गोवा मूल की कोटिन्हो ने 35,624 मतों के साथ सुर्रे ईस्ट सीट पर जीत दर्ज की। महिंद्रा ने हर्टफोर्डशायर साउथ वेस्ट सीट पर जीत दर्ज की जबकि नवेंद्रू मिश्रा स्टॉकपोर्ट से जीते। आज से 127 साल पहले 1892 में फिन्सबरी सेंट्रल से भारतीय मूल के दादाभाई नौरोजी पहले सांसद बने थे। अब यह आँकड़ा 15 पर जा पहुँचा है।

इस चुनाव में कंजरवेटिव पार्टी से 25 भारतीय मूल के प्रत्याशी मैदान में उतरे थे जिनमें से 7 जीतने में सफल रहे जबकि लेबर पार्टी ने 13 भारतीयों को टिकर दिया था, जिनमें से 7 जीते। लिबरल डेमोक्रेट्स ने 8 भारतीयों को मैदान में उतारा, जिनमें से एक ही जीत पाया। नतीजों के मुताबिक, कंजरवेटिव पार्टी से दो भारतवंशी पहली बार सांसद बने। इनमें गगन मोहिंद्रा (हार्टफोरशायर साउथ वेस्ट) और क्लेयर कुटिन्हो (सरे ईस्ट) शामिल हैं। पार्टी से पाँच सांसद दोबारा जीते, जिनमें प्रीति पटेल (विटहैम), आलोक शर्मा (रीडिंग वेस्ट), शैलेश वारा (कैम्ब्रिजशायर नॉर्थ ईस्ट), सुएला ब्रेवरमैन (फेयरहैम) और ऋषि सुनाक (रिचमंड यॉर्कशायर) हैं। बोरिस जॉनसन की पिछली सरकार में प्रीति पटेल गृह सचिव थीं, जबकि आलोक शर्मा के पास अंतर्राष्ट्रीय विकास जैसा महत्त्वपूर्ण विभाग था।

उधर, सुनाक राजस्व विभाग में मुख्य सचिव थे। लेबर पार्टी से नवेंदु मिश्रा पहली बार चुनाव जीते। वो स्टॉकपोर्ट से चुने गये हैं। इसके अलावा छ: सांसद पुन: इस पार्टी से विजयी हुए, जो वीरेंद्र शर्मा (एलिंग साउथहॉल), तनमनजीत सिंह धेसी (स्लोघ), सीमा मल्होत्रा (फेल्थहैम एंड  हेस्टन), प्रीत कौर गिल (बॄमघम एजबेस्टन), लिसा नंदी (विगॉन) और वेलेरी वाज (वॉल्सल साउथ)। लिबरल डेमोक्रेट्स से जीतने वाली मुनीरा विल्सन शामिल हैं।

मुस्लिम बोरिस की जीत से चिन्ता में

बहुत हैरानी की बात है कि ब्रिटिश-मुस्लिम बोरिस जॉनसन की जीत से ब्रिटेन के मुस्लिम कुछ •यादा खुश नहीं हैं। नयी सरकार में समुदाय अपने भविष्य को लेकर चिन्ता में हैं। बोरिस पर कथित रूप से इस्लामोफोबिया के आरोप लगते रहे हैं। नतीजों के तुरन्त बाद ब्रिटेन में ब्रिटिश-मुसलमानों के स्थान को सुनिश्चित करने के लिए मुस्लिम काउंसिल ऑफ ब्रिटेन (एमसीबी) ने प्रधानमंत्री जॉनसन से मुलाकात की।

अस्पतालों से नहीं छूटा फर्ज़ीवाड़े का चस्का!

जयपुर के चांदपोल इलाके में रहने वाली गीताबाई एक निजी अस्पताल मेें अपने 65 वर्षीय पिता कस्तूरचंद को दिखाने आयी थी। अस्पताल ने उनके पिता केा नि:शुल्क इलाज देने के नाम पर पीठ में एक छोटा-सा चीरा लगा दिया। लेकिन अस्पताल ने वो किया, जिसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। अस्पताल ने भामाशाह स्वास्थ्य बीमा योजना के नाम पर किडनी की पथरी और पाइप डालने का 26 हज़ार रुपये का भारी-भरकम क्लेम उठा लिया। जबकि कोई ऑप्रेशन हुआ ही नहीं था। यह अस्पताल प्रबन्धन की दोहरी घात थी। पहली कारस्तानी मरीज़ की जान के साथ खिलवाड़। दूसरी, स्वास्थ्य योजना के साथ धोखाधड़ी! यह घटना और ऐसी अनगिनत घटनाएँ बेशक मौज़ूदा कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में हो रही है। लेकिन पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के दौरान भी फर्ज़ी क्लेम के खेल में कोई कमी नहीं रही।

देश प्रदेश में सरकारी योजनाओं में घोटालों के बवंडर पहले भी उठते रहे हैं। लेकिन दो वर्ष तक सुलगते रहने के बाद फर्ज़ीवाड़े का बम फटा तो हडक़ंप मच गया कि निजी अस्पताल मरीज़ों के भामाशाह स्वास्थ्य कार्ड पर न सिर्फ मोटी रकम डकार रहे थे। बल्कि मरीज़ों की •िान्दगी भी खतरे में डाल रहे थे। पूर्ववर्ती वसुंधरा सरकार विधानसभा चुनाव के चंद महीने पहले ही सितम्बर 2018 में एक हज़ार करोड़ की भामाशाह डिजिटल योजना लायी थी। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना अधिनियम के तहत चयनित 98 लाख परिवारों को इस योजना का लाभ देना था। भाजपा सरकार ने पहली और दूसरी किश्त के रूप में 33 लाख परिवारों केा 630 करोड़ रुपये बाँटे थे। लेकिन निजी अस्पतालों ने इस योजना को कमाऊ अल्फाज़ के साथ मंत्रसिद्ध कर लिया कि ‘थोड़ी पैनल्टी चुकाओ, फिर बीमा कम्पनियों के करोड़ों डकारो!’ तो फर्ज़ीवाड़े का परनाला रिसने में कहाँ देर थी। नतीजतन भामाशाह योजना जाँच के दायरे में तो आ गयी। लेकिन आयोजना विभाग की जवाबदेही में खामोशी के चलते योजना ठप कर दी गयी। इस मामले में सरकार की ज़ुबान खुली तो एक नये खुलासे के साथ कि ‘प्रदेश में केन्द्र सरकार की आयुष्मान योजना और पूर्ववर्ती भाजपा सरकार की भामाशाह योजना का विलय कर नयी योजना शुरू की जाएगी। इस नयी योजना का नाम ‘आयुष्मान भारत महात्मा गाँधी राजस्थान स्वास्थ्य बीमा योजना’ रखा गया। बताते चलें कि आयुष्मान योजना को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पिछले कार्यकाल में देश भर में लागू किया था। लेकिन प्रदेश की वसुंधरा सरकार ने भामाशाह येाजना संचालित होने का तर्क देकर इसे लागू नहीं किया था। चिकित्सा मंत्री रघु शर्मा का कहना था कि राजस्थान में अब दोनों योजनाएँ एक साथ चलेंगी। पहले योजना में पात्र परिवारों की संख्या एक करोड़ थी। अब नयी योजना में इनकी संख्या बढक़र एक करोड़ 60 लाख हो जाएगी। इस फेरबदल की ज़रूरत का मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने यह कहकर खुलासा किया कि ‘भामाशाह योजना में जमकर भ्रष्टाचार हो रहा  था। निजी क्षेत्र के कई अस्पताल जमकर धाँधली कर रहे थे। इसे रोकने का एकमात्र यही विकल्प था। लेकिन फर्ज़ीवाड़े का खून मुँह लगा चुके निजी क्षेत्र के अस्पतालों को यह बदलाव रास नहीं आया। नतीजतन भामाशाह कार्ड के इलाज पर सरकार और निजी अस्पतालों के बीच जंग ठन गयी है। सरकार ने बेशक कह दिया कि किसी भी निजी अथवा सरकारी अस्पताल में भर्ती होने वाले मरीज़ का बीमा क्लेम पहले की तरह पास किया जाएगा। लेकिन निजी अस्पतालों ने कार्ड धारकों को दो-टूक मना कर दिया है कि हमें ऐसे कोई आदेश नहीं मिले हैं; इसलिए इलाज नहीं करेंगे। अलबत्ता प्रदेश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एसएमएस अस्पताल के अधीक्षक डॉक्टर आर.एस. मीणा ने ज़रूर कहा कि इलाज पहले की तरह ही मिलेगा।

हमें सरकारी आदेशों की कॉपी मिल चुकी है। किन्तु प्राइवेट हॉस्पिटल एंड नॄसग सोसायटी के सचिव विजय कपूर का कहना है कि हमें न तो कम्पनी और न ही सरकार से इलाज जारी करने के आदेश मिले हैं। फिर क्लेम का पैसा भी तो समय पर नहीं मिलता। इसलिए रोक दिया गया है। अब दीगर बात है कि 12 दिसंबर रात्री 12 बजे से भामाशाह कार्ड का बीमा करने वाली न्यू इंडिया कम्पनी का टर्न ओवर पूरा हो चुका है। लेकिन सरकारी अधिकारियों का दावा है कि टीपीए के माध्यम से तीन माह तक क्लेम जारी रखा जाएगा।’ हालात जो भी हो िफलहाल तो सेहत के दुश्मन पूरी तरह ढिठाई पर उतारू है।

बदहाली के आँगन में सिसकती शिक्षा

प्रदेश की कांग्रेस सरकार क्या शिक्षा के महकमे को प्रयोगशाला बनाने पर तुली हुई है? शिक्षा पर अपने हठयोग की शुरुआत शिक्षा मंत्री गोविंद सिंह ने जिस शिद्दत से करते हुए उसे पार्टी की विचारधारा से जोडऩे में कोशिश की, अगर उसका चौथाई हिस्सा भी स्कूलों की निगहबानी और गुणबत्त्ता में लगाया होता, तो उनकी इतनी फज़ीहत नहीं होती? मंत्री की लचर चाल से फायदों की तरफ टकटकी लगाये निजी क्षेत्र के स्कूलों की उम्मीदों में तो उफान आ गया। लेकिन सरकारी स्कूल हर उम्मीद से बेदखल हो गये। वरिष्ठ पत्रकार आनंद चौधरी कहते हैं- ‘बच्चों के भविष्य का निर्माण करने वाले स्कूलों में, जो खुद नींव के पत्थर हैं; में न दीवारे हैं, न छत, बैठने की व्यवस्था… कंगूरे तो दूर की बात है। बच्चे पढऩा चाहते हैं, माता-पिता पढ़ाना चाते हैं। तभी धूल-धूप और बारिश में भी बच्चे स्कूल आते हैं। पथरीली ज़मीन पर काँटो के बीच फूलों की तरह मुस्कुराते हुए ‘ककहरा’ पढ़ते हैं।’ गाँव गुबार की कंटीली झाडिय़ों में चल रहे 167 स्कूलों का तो कोई भवन ही नहीं है। जहाँ पाखंड सिर चढक़र बोलता है। वहाँ कोई विकल्प सूझता भी तो नहीं। अन्यथा इन्हीं गाँवों में पंचायत और पटवार भवन तकरीबन बन्द से पड़े हैं। क्या स्कूल वहाँ नहीं चलाये जा सकते? शैक्षिक दायित्व के मामले में प्रपंच तो पिछली सरकार ने भी कम नहीं रचा।

राजे सरकार का मगरूरियत में रचा-बसा बयान था कि उनके बदलाव और प्रयासों से राजस्थान शिक्षा के क्षेत्र में दूसरे नम्बर पर आ गया। लेकिन बेहतर होता कि पिछली सरकार के शिक्षा मंत्री देवनानी दो के आगे सिफर रखकर बोलते। वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी कहते हैं कि स्कूलों की ड्रॉप आउट दर कहीं अधिक है। आधार भूत ढाँचा काफी कमज़ोर है। निजी स्कूलों की मनमानी जारी है। रहा सवाल गुणावत्ता का? तो इस फेहरिश्त में राजस्थान आिखरी पायदान पर है। वरिष्ठ पत्रकार विनोद मित्तल कहते है- ‘बच्चों और शिक्षकों के अनुपात में भारी असमानता है।’ यह सच भी है प्रदेश में 1547 स्कूल तो ऐसे हैं, जहाँ दस से भी कम बच्चे है। 40 स्कूलों में बच्चे तो हैं, लेकिन शिक्षक नहीं। सबसे खराब हालत जयपुर, जोधपुर और नागोर, बाड़मेर •िालों की हैं, जहां 25 से भी कम बच्चे हैं। जबकि 58 स्कूल तो ऐसे हैं, जहाँ एक भी बच्चा नहीं है। लेकिन वहंा तैनात दो दो शिक्षक पगार पा रहे है। पिछले दिनों उदयपुर जिले के खैरवाड़ा गाँव के स्कूल में हैरान करने वाला हादसा हुआ। जिस स्कूल को एक दिन पहले ही मज़बूत घोषित किया था। अचानक उसकी दीवार गिरी और तीन बच्चों की मौत हो गयी। ग्रामीण बस प्रदर्शन करके ही रह गये। शिक्षा शास्त्रियों ने इसे हादसा नहीं, परिजनों के सपनों की हत्या की संज्ञा दी। लेकिन सरकार तो बेखयाली के सन्निपात से नहीं उबर पायी? शिक्षा मंत्री तो वहाँ ढाढस बँधाने तक नहीं गये। राज्य में 25 से कम नामांकन वाले 8968 स्कूल हैं। इसे गज़ब ही कहा जाएगा कि, भरतपुर •िाले के नदबई के मरहमपुर स्कूल में एक कमरे में आठ कक्षाएँ चलती है। शिक्षा विभाग की ताज़ा रिपोर्ट को पढ़े तो, 29842 स्कूलों में तो बिजली ही नहीं है। इनमें 25 हज़ार 412 स्कूल तो प्राथमिक स्तर के है। खुद शिक्षा मंत्री गोविंद सिंह डोटासरा के गृह •िाले के 738 स्कूलों में बिजली नहीं है। ऐसे घुप्प अँधेरे वाले स्कूलों में क्या तो बच्चे पढ़ते होंगे? और क्या शिक्षक उन्हें पढ़ा पाते होंगे। पड़ताल इस बात की तस्दीक करती है कि सरकारी स्कूलों में ज्ञान, विज्ञान दोनों का ही अर्जित करना मुश्किल है। वैज्ञानिक बनाने की तो पहली सीढ़ी ही टूटी हुई है। सीनियर सेकेंडरी स्कूलों में विज्ञान संकाय तो हैं, लेकिन लैब बिना क्या करें? विज्ञान प्रयोगशाला किसी संदूकनुमा बक्से में भी हो सकती है? यह नज़ारा तो राजस्थान के स्कूलों में ही नज़र आएगा। राज्य सरकार की डाइस रिपोर्ट के अनुसार, प्रदेश में 9 हज़ार स्कूल एकल शिक्षकों के भरोसे चल रहे हैं। शिक्षकों से वीरान पड़े स्कूलों की समस्या तो और भी विकट है। शिक्षक नहीं होंगे तो बच्चे पढ़ेंगे कैसे? प्रदेश की स्कूली शिक्षा में शिक्षकों के 58 हज़ार खाली पदों की तस्दीक तो सरकारी आँकड़े भी करते हैं। पूर्ववर्ती सरकार में भर्तियों की औपचारिकता ही पूरी हुई। अन्यथा शिक्षकों की सूरत तक नज़र नहीं आयी। सरकार का ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ नारा बस लुभावना लगता है। अन्यथा हालत यह है कि लड़कियाँ प्राथमिक स्तर तक की तो शिक्षा ले रही है। लेकिन आगे रास्ता बन्द है। आिखर ऐसा क्यों है कि सरकार इस पुण्य काम के लिए भामाशाह वृत्ति के सेठ साहूकारों की बगलें झाँकनी पड़ती है। कम्प्यूटर तो सैलून का कारोबारी भी रखने लगा है। लेकिन अधिकांश स्कूली बच्चों ने कम्प्यूटर का नाम भर सुना है; लेकिन देखा नहीं है। स्कूल उच्च माध्यमिक स्तर तक के हो? लेकिन बच्चों के बैठने के लिए टाट पट्टी तक न हो? इससे बड़ी शर्मिन्दगी सरकार के लिए और क्या होगी। ताज़ा खबर और ताज़ा तरकारी की तासीर एक सी होती है। यह जिस्म में खून का दौरा बढ़ा देती है। राजस्थान का स्कूली सच भी इतना ही सनसनीखेज़ है कि हकीकत सुनकर ही जिस्म में सिहरन पैदा होने लगती है। वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी पूरी शिक्षा व्यवस्था पर ही तंज कसते नज़र आते हैं कि शिक्षा का ढाँचा बेशक सरकार तय करती है। कॉलेज भी खोलती है; लेकिन नौकरी का वादा तो सिर्फ वादा ही रहता है। उच्च शिक्षा का मंत्रालय केन्द्र में है राज्य में भी है। लेकिन ठेका तो यूजीसी को दे रखा है। इनमें कितने लोग हैं, जो भारतीय संस्कृति से गहरा जुुुड़ाव रखते हैं। दरअसल, उच्च शिक्षा को जब तक बाज़ारवाद की तर्ज पर चलाया जाता रहेगा। यही नतीजे देखने को मिलेंगे। यह एक चौंकाने वाली हकीकत है कि ज्ञान में अँगूठाछाप पूरी रफ्तार से बढ़ रहे हैं। ये लल्लू छाप छात्र ऐसे होते हैं, जिन्हें अंग्रेजी साहित्य स्नातकोत्तर करने के बाद भी नौकरी के लिए ठीक से अर्जी लिखनी नहीं आती। शोध ग्रन्थों की हकीकत समझें तो दिल बेचैन रहता है कि कोई इन्हें पढ़ता क्यों नहीं?

असल में पीएच.डी के तो अधिकांश अभ्यार्थी तो ऐसे मिलेंगे, जिन्होंने कक्षा का मुँह तक नहीं देखा होगा। अलबत्ता अगर समझें तो किसी जुगाड़ में लगे छात्र राजनीति के दलदल में ज़रूर मुगालते में रहते हैं। वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी कहते हैं कि आज उच्च शिक्षा तो हमारे ज्ञान का सबसे बड़ा अपमान बन गयी है। व्यावसायिक शिक्षा का इससे कोई सम्बन्ध ही नहीं है। जानकार लोगों का कहना है कि कोई 4 साल में पीएच.डी कर लेगा तो उसका शोध ग्रन्थ कैसा होगा? डिग्री के लिए शोध लिखवाना और पास करवाना तो बड़ा कारखाना बनने की डगर पर चल पड़ा है। यकीनन इसे कड़वा सत्य ही कहा जाएगा कि न ही हम अपनी स्कूली शिक्षा से मुतमईन हैं ओर न ही उच्च शिक्षा को फंदेबाज़ी की केंचुल से मुक्त कर पाये हैं। शिक्षा शास्त्रियों का कहना है कि राजनेताओं के खैरात बांटने के गौरवपूर्ण इतिहास को देखते हुए तो शिक्षा के कायाकल्प की कहीं कोई उम्मीद नज़र नहीं आती।

निजी स्कूलों के नियम भी निजी

राजस्थान के सरकारी स्कूल हर तरह बदनसीबी का अभिशाप भोग रहे हैं। इनकी बदहाली पर सरकारी हािकम घडिय़ाली आँसू तो बहा सकते हैं; लेकिन इससे बदहाली तो नहीं खत्म होती। राजनेताओं को अपने सियासी समर्थक जुटाने, बढ़ाने और पालने से ही फुरसत नहीं मिलती? यह नज़ारा उन्हें टीस नहीं देता कि एक तरफ धूप, ताप और मौसम की मार सहते बच्चे पढ़ते नज़र आते हैं, तो दूसरी तरफ भव्य अट्टालिकाओं वाले ए.सी युक्त स्कूलों में इसी प्रदेश के नौनिहाल अशर्फी लाल की तरह पढ़ रहे हैं।

सरकारी स्कूलों पर हज़ार नियम लागू होते हैं। लेकिन निजी स्कूल इन कायदे कानूनों को फूँक में उड़ा देते हैं। मनमानी फीस, स्टेशनरी, महँगी यूनिफार्म और निजी परिवहन व्यवस्था निजी स्कूलों की अपनी ही होती है। सरकार लाख चाहकर भी इन पर अंकुश नहीं लगा सकती है। हर निजी स्कूल का कर्ताधर्ता किसी न किसी राजनीतिक दल की छतनार सरीखी छत्रछाया में मस्त है। यह पूछे जाने पर कि आप सरकारी कायदों की नाफरमानी क्यों करते हैं? इस सवाल पर जवाब के बजाय वो बेशरमी से दाँत दिखा देते हैं। सरकारी स्कूलों को मेवे की तरह गटकने वाले निजी स्कूलों के मालिकों की हेकड़ी का पता तो तभी चल जाता है, जब शिक्षा विभाग के हाकिम उनके आगे पूँछ दबाये खड़े रहते हैं। निजी स्कूलों ने तो बात बात पर पैसा बटोरने के रिकॉर्ड ही तोड़ दिये हैं। इन स्कूलों में कुछ फीसदी गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने का नियम है। लेकिन इन नियमों को सुनता कौन है? कांग्रेस जब विपक्ष में थी तो इन्हंी मुद्दों पर बिलखती थी। अब उसने भी ‘देखेंगे’ का आलाप शुरू कर दिया है। निजी स्कूल प्ले ग्रुप की नक्शेबाज़ी से कितनी रकम ऐंठ रहे हैं? सुनेंगे तो साँसे थम जाएँगी। निजी स्कूलों की मनमानी की हद तो देखिए कि सीबीएससी स्कूलों में आठवीं कक्षा तक उनका खुद का ही पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है। यह कितना बड़ा कमाऊ धन्धा है? राज्य सरकार के मान्यता प्राप्त निजी स्कूल भी इसी कुण्ड में डुबकी लगा रहे हैं। यह सिस्टम एक तरह से स्कूल संचालकों और प्रकाशकों के बीच कुबेर बनने का स्मार्ट ब्रिज नहीं तो क्या है?

सिद्धू की होगी राजनीतिक बहाली!

क्या नवजोत सिंह सिद्धू की पंजाब की कैप्टेन सरकार में वापसी हो रही है? राहुल और प्रियंका गाँधी के नज़दीकी माने जाने वाले सिद्धू इंतज़ार में हैं कि कब उनकी अमरिंदर सिंह सरकार में बहाली या संगठन में बड़े पद पर ताजपोशी होती है। जानकारी है कि सिद्धू दिल्ली के ज़रिये अपनी ‘वापसी’ की कोशिश कर रहे हैं।

चर्चा है कि आम आदमी पार्टी (आप) और भाजपा दोनों उन्हें अपने साथ जोडऩे की कोशिश कर रहे हैं जिसके बाद कांग्रेस में उनकी पद बहाली को लेकर चर्चा शुरू हुई है। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पिछले एक महीने में आम आदमी पार्टी ने सिद्धू को अपने साथ जोडऩे के लिए उनसे सम्पर्क साधने की कोशिश की है।

भाजपा छोडक़र जब सिद्धू एक मोर्चे से जुड़े थे तब उनके ‘आप’ के साथ जाने की ही सबसे ज़्यादा सम्भावना देखी जा रही थी। लेकिन सिद्धू ने विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस की ज़्यादा सम्भावनाएँ देख सिद्धू ने पार्टी में आने का फैसला किया था। उनके साथ भाजपा की अमृतसर से विधायक रहीं, उनकी पत्नी नवजोत कौर सिद्धू भी कांग्रेस में आ गयी थीं।

पिछले विधानसभा चुनाव में सिद्धू ताकतवर नेता के रूप में उभरे थे। वे मुख्यमंत्री पद के भी दावेदार माने गये, लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने कैप्टेन अमरिंदर सिंह को ही इस पद पर बिठाया, क्योंकि पूरा चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ा गया था। मुख्यमंत्री न बन पाने वाले सिद्धू हालांकि उपमुख्यमंत्री बनाए गए और उन्हें अच्छा महकमा भी मिला। लेकिन धीरे-धीरे उनकी सीएम अमरिंदर से बिगड़ती चली गयी। भले खुले रूप से नहीं, सिद्धू अमरिंदर सरकार को लेकर ऐसे ब्यान देने लगे, जिससे साफ संकेत गया कि वे मुख्यमंत्री से नाराज़ हैं। इसके बाद दोनों में कड़बड़ाहट इतनी बढ़ी कि अमरिंदर ने मंत्रियों के महकमों को बदलने के बहाने सिद्धू को अपेक्षाकृत ‘कम महत्त्व वाला’ महकमा थमा दिया।

सिद्धू महकमों की इस बदली से इतने खफा हुए कि उन्होंने नये महकमे का •िाम्मा लेने से ही मना कर दिया। बाद में उन्होंने इसी साल 20 जुलाई को मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। यह कहा जाता है कि इस्तीफे के बाद वे आज तक पंजाब सचिवालय ही नहीं गये।

वैसे तकनीकी रूप से सिद्धू अभी भी पंजाब सरकार में मंत्री हैं, क्योंकि उनके ‘इस्तीफे’ को लेकर, कहा जाता है, कोर्ई फैसला मुख्यमंत्री ने नहीं किया है। उनकी पोजीशन को लेकर एक तथ्य यह भी है कि वे चूँकि रिकॉर्ड में अभी भी मंत्री हैं, उन्हें एक मंत्री को मिलने वाले तमाम भत्ते अभी भी जारी होते हैं। हालाँकि, यह अभी पता नहीं कि सिद्धू यह भत्ते लेते हैं या नहीं।

इस बनवास के दौरान सिद्धू को पार्टी आलाकमान विधानसभा और दूसरे चुनावों में प्रचार के लिए इस्तेमाल करती रही है। सिद्धू अपने मुहावरों के लिए मशहूर हैं। चुनाव प्रचार से लेकर क्रिकेट की कमेंट्री तक में वे इन मुहावरों और जुमलों को बहुत बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल करते रहे हैं, जिससे वे जनता में बहुत लोकप्रिय भी हैं।

अब जबकि सिद्धू को आप और भाजपा दोनों अपने साथ जोडऩे की कोशिश कर रहे हैं, सिद्धू की कांग्रेस सरकार में बहाली की चर्चा भी तेज़ हो गयी है। उनके समर्थक चाहते हैं कि सिद्धू को मुख्यमंत्री नहीं, तो उप मुख्यमंत्री का पद तो दिया ही जाना चाहिए।

दिलचस्प यह है कि कांग्रेस में सिद्धू के सक्रिय रहते और उनके पीएम और भाजपा पर सीधे हमलों से नाराज़ उनके िखलाफ लगातार बोलने वाली भाजपा भी पिछले एक-दो महीनों से उनके िखलाफ नहीं बोल रही। कारण यह है कि भाजपा आलाकमान मानती है कि कांग्रेस से नाराज़ होने पर सिद्धू, हो सकता है ‘घर वापसी’ करना चाहें। यहाँ यह भी एक बहुत महत्त्वपूर्ण राजनीतिक तथ्य है कि उनके साथ ही कांग्रेस में आयीं उनकी पत्नी नवजोत कौर आजकल कांग्रेस के गतिविधियों में सक्रिय नहीं दिख रहीं। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, मई, 2019 के लोकसभा चुनाव में नवजोत कौर चंडीगढ़ से कांग्रेस टिकट चाहती थीं। लेकिन उन्हें पार्टी की तरफ से टिकट नहीं दिया गया।

कहते हैं खुद सिद्धू ने इसकी कोशिश की थी। सिद्धू को चूँकि राहुल गाँधी के करीब माना जाता है, उस समय उनके कांग्रेस अध्यक्ष होने के कारण सभी को लगता था, कि नवजोत कौर को टिकट मिल जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और बाद में खुद सिद्धू ने पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह से तल्खी के चलते अपना मंत्री पद छोड़ दिया।

यह माना जाता है कि पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह नहीं चाहते सिद्धू को उप मुख्यमंत्री बनाये जाए। आलाकामन अमरिंदर को नाराज़ नहीं करना चाहती; लेकिन साथ ही यह भी नहीं चाहती कि सिद्धू पार्टी से चले जाएँ। ऐसे में उन्हें सरकार या राजनीतिक स्तर पर बहाल करने का फैसला हो सकता है। कांग्रेस के पास इस बात की जानकारी है कि आप और भाजपा दोनों सिद्धू को डोरे डाल रहे हैं।

अमरिंदर की सिद्धू के प्रति तल्खी का एक कारण यह भी है कि पंजाब कांग्रेस में दो दर्जन से •यादा विधायक मुख्यमंत्री से नाराज़ हैं और इनकी अगुआई सिद्धू कर रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सिद्धू पंजाब की राजनीति में जमे हुए नेता हैं। उनकी लोकप्रियता भी कम नहीं।

अमृतसर से चार बार सांसद बनने वाले सिद्धू की सिख होने के नाते पंजाब की राजनीति पर मज़बूत पकड़ है। खासकर युवाओं पर उनकी खासी पकड़ मानी जाती है। सभी चुनाव वे बड़े अंतर से जीतते रहे हैं। अमृतसर में 2014 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा ने उनका टिकट काटकर अरुण जेटली (अब दिवंगत) को अमृतसर से टिकट दिया था, लोगों ने इससे नाराज़ होकर कांग्रेस को वोट दिये थे, जिससे जेटली को बहुत बुरी हार झेलनी पड़ी थी। यह माना जाता है कि उस समय सिद्धू के समर्थकों का वोट बैंक जेतली के िखलाफ कांग्रेस के उम्मीदवार अमरिंदर सिंह (अब सीएम) के पक्ष में चला गया था।

आम आदमी पार्टी (आप) ने 2014 के लोकसभा चुनाव में जिस तरह पाँच सीटें जीती  थीं, उससे सम्भावना बनी थी कि यह पार्टी पंजाब में अपने पाँव जमा सकती है। इसके बाद 2016 में जब विधानसभा चुनाव आये तो ‘आप’ ने कोशिश की कि भाजपा छोड़ चुके सिद्धू उसके साथ आ जाएँ। लेकिन दुविधा में फँसे सिद्धू ‘आप’ में नहीं गये। उस चुनाव से पहले जनता का मूड देखने से लगता था कि आप इस चुनाव में आश्चर्यजनक नतीजे दे सकती है।

लेकिन पार्टी में दिल्ली के नेताओं के हस्तक्षेप के चलते स्थानीय नेतृत्व को जिस तरह ‘आप’ ने किनारे लगाया, उससे पार्टी की सम्भावनाओं को बड़ा झटका लगा। ‘आप’ के लिए उस चुनाव में कितनी सम्भावना बन गयी थी, यह इस बात से ज़ाहिर हो जाता है कि चुनाव में वह सत्तारूढ़ अकाली दल को पीछे धकेलते हुए, दूसरे नम्बर की पार्टी बन गयी। कमी यही रह गयी कि आप के पास कोई मज़बूत नेतृत्व कर सकने वाला नेता नहीं था।

‘आप’ अब इस कमी को दूर करना चाहती है। उसे लगता है कि सिद्धू इस कमी को पूरा कर सकते हैं। लिहाज़ा वह कांग्रेस से ‘कटे-कटे’ दिख रहे सिद्धू को अपने पाले में लाना चाहती है। इसकी कोशिश शुरू हुई है; लेकिन सिद्धू अभी अनमने से दिख रहे हैं।

वैसे बहुत से राजनीतिक जानकार मानते हैं कि सिद्धू शायद की कांग्रेस छोडक़र जाना चाहेंगे; क्योंकि कांग्रेस में उनके लिए बहुत ज़्यादा सम्भावनाएँ हैं। उन्हें कांग्रेस में अमरिंदर सिंह के बाद मुख्यमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार माना जाता है। 2016 के विधानसभा चुनाव में ही उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की बात उठी थी लेकिन अमरिंदर के रहते ऐसा सम्भव नहीं हुआ।

सिद्धू के लिए सम्भावनाएँ

अभी यह बात आधिकारिक तौर पर नहीं है, लेकिन यह माना जाता है कि यदि सिद्धू की वापसी होती है, तो वे उप मुख्यमंत्री बनाये जा सकते हैं। पंजाब कांग्रेस में उनके विरोधी उन्हें बड़बोला बताते हैं और मानते हैं कि वे अभी यह पद सम्भालने योग्य नहीं। लेकिन उनके समर्थक इसके विपरीत सोचते हैं। उनका तर्क है कि सिद्धू पंजाब की राजनीति में जनता में बहुत लोकप्रिय हैं और कांग्रेस को नयी ऊँचाई तक ले जा सकते हैं। दूसरी चर्चा यह है कि सिद्धू को पंजाब प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष भी बनाया जा सकता है। माना जाता है कि अमरिंदर इससे सहमत नहीं रहे हैं। कांग्रेस में कुछ नेता मानते हैं कि इससे एक तरह से समांतर ताकतवर गट बन जाएगा, जिससे अमरिंदर को सरकार चलाने में दिक्कत आ सकती है। वैसे पंजाब में संतुलन साधने के लिए कांग्रेस ने सिख मुख्यमंत्री होते हुए एक गैर-सिख सुनील जाखड़ को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बना रखा है। ऐसे में अभी कहना कठिन है कि सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की स्थिति में जाखड़ को उप मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है। यह अलग बात है कि अमरिंदर सिंह उप मुख्यमंत्री पद खोलने के िखलाफ माने जाते रहे हैं। यह तो तय है कांग्रेस सिद्धू कांग्रेस को खोना नहीं चाहती। ऐसे में जल्द ही उनकी इसी बड़े पद पर बहाली हो जाए, तो हैरानी नहीं होगी। कांग्रेस में सिद्धू को राजनीतिक रूप से खारिज नहीं करने की सबसे बड़ी बजह यह है कि उन्हें राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी के बहुत नज़दीक माना जाता है। पिछले दिनों प्रियंका गाँधी का बयान भी आया था कि सिद्धू जैसे युवा नेताओं की राजनीतिक प्रतिभा का बेहतर इस्तेमाल पार्टी में होगा।

मुझे जानकारी नहीं : आशा

सिद्धू को लेकर ‘तहलका’ ने पंजाब कांग्रेस के प्रभारी आशा कुमारी से फोन पर बात की। यह पूछने पर कि क्या सिद्धू की सरकार में वापसी हो रही है, आशा ने कहा कि िफलहाल उनकी जानकारी में ऐसी कोई बात नहीं है। आशा ने कहा- ‘पार्टी स्तर पर भी ऐसी कोई चर्चा मेरी जानकारी में नहीं है। फिर भी ऐसा कोइ फैसला पार्टी  आलाकमान ही करेगी। यह पूछने पर कि कुछ पार्टी विधायक मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के िखलाफ हैं, तो उन्होंने कहा कि पंजाब कांग्रेस पूरी तरह एकजुट है। अमरिंदर सरकार बहुत अच्छा काम कर रही है। विरोधी ऐसी बातें उड़ाते हैं; क्योंकि उन्हें पता है कि कांग्रेस सरकार में जनता का पूरा भरोसा बना हुआ है।’ जब उनसे यह पूछा गया कि सिद्धू को लेकर आप और भाजपा दावे कर रही हैं, आशा ने कहा कि विरोधी कुछ भी कहें, इससे क्या फर्क पड़ता है। सिद्धू कांग्रेस के समर्पित नेता हैं।

‘दस्तखत’ से सुलझी टुकड़े-टुकड़े लाश की मर्डर-मिस्ट्री!

दिसंबर महीने की शुरुआत के दूसरे ही दिन, यानी 2 दिसंबर को मुम्बई में समुंदर किनारे एक सूटकेस में किसी शख्स के टुकड़े-टुकड़े शरीर के अंग मिले। लेकिन बरामद टुकड़ों से यह पता लगाया जाना मुुुश्किल था कि वह किस शख्स की छारीर है। क्योंकि उन टुकड़ों को जोडक़र किसी एक व्यक्ति का पूरा शरीर नहीं बनाया जा सकता था।  मुम्बई पुलिस के सामने इस बात का पता लगाने की •िाम्मेदारी थी कि आिखर मारा गया शख्स कौन है? किसने उस शख्स की हत्या की?  क्या वजह थी कि एक इंसान के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर सूटकेस में बंद कर फेंक दिये गये? आखिर क्या वजह थी कि उस शख्स के प्राइवेट पार्ट को काट दिया गया?  पुलिस ने अपना काम स्क्रैच से शुरू किया। आखिर में मुम्बई पुलिस की क्राइम ब्रांच इस बात का पता लगाने में सफल रही कि टुकड़ों-टुकड़ों में बरामद लाश मुम्बई के उपनगर वाकोला में रहने वाले 54 वर्षीय म्यूजिशियन बेनेट रेबेलो की है और इसमें सबसे •यादा झटका देने वाली बात थी वह कि उनकी  हत्या उनकी ही एडेप्टेड बेटी ने की थी अपने प्रेमी के साथ मिलकर। इस मर्डर केस में क्राइम ब्रांच ने अभी तक तीसरी गिरफ्तारी की है। गिरफ्तार किये गये युवक को मुख्य अभियुक्त को मदद करने और उकसाने के आरोप में अरेस्ट किया है। क्राइम ब्रांच यूनिट 5 ने घाटकोपर के असल्फा गाँव से 19 साल के अलीम मियाँ चौस को अरेस्ट किया है। अलीम मियाँ पर मुख्य अभियुक्त आराध्य उर्फ रिया पाटिल का दोस्त है और अपराध में उसके पिता की छारीर को टुकड़ों में काटने की टिप देने, शरीर को काटने के लिए चाकू मुहैया करवाने, शरीर को ठिकाने लगाने और सबूत मिटाने के आरोप हैं। क्राइम ब्रांच के डीसीपी शाहजी ने कहा कि अलीम मियाँ मेन आरोपी का विश्वासपात्र है और बहुत करीबी है। बता दें कि म्यूजिशियन बेनेट रेबेलो की 26 नवंबर को हत्या कर दी थी और फिर दो दिन बाद उसकी शरीर को कई टुकड़ों में काट कर बैग में भाग करके अलग अलग ठिकानों पर फेंकदिया गया था; लेकिन 2 दिसंबर के दिन बेनेट रेबेलो की शरीर से भरा एक बैग माहिम दरगाह के पीछे से बरामद हुआ था। दूसरा सूटकेस पुलिस को 13 दिसंबर को दादर में मिला। क्राइम ब्रांच से जुड़े ऑफिसर्स का कहना है कि इस मर्डर मिस्ट्री को सुलझाना आसान नहीं था; लेकिन एक सिग्नेचर ने काम आसान कर दिया। इस ऑफिसर ने तहलका को बताया कि मृतक बेनेट रेबेलो की छारीर के टुकड़ों को कुछ कपड़ों में लपेटा गया था। इस में एक शर्ट था, जिसकी बदलौत इन्वेस्टीगेशन टीम कुर्ला के एक टेलर तक पहुँची। टेलर ने यह कुबूल कर लिया कि यह शर्ट उसी ने बनायी है। ऑफिसर ने कहा कि हमने टेलर की दुकान से बरामद सैकड़ों डायरियाँ के हज़ारों पेज खंगाले।

क्राइम ब्रांच को एक पेज में ठीक वैसा ही कपड़ा मिला, जो छारीर के शर्ट से मेल खाता था। टेलर से उस शख्स का एड्रेस लेकर क्राइम ब्रांच की टीम उस शख्स को उठा लायी और इन्वेस्टीगेशन शुरू की। इन्वेस्टीगेशन के दौरान शख्स के हावभाव से क्राइम ब्रांच के ऑफिसर्स को यकीन हो गया था कि उन्होंने सिर कटी लाश मर्डर मिस्ट्री सुलझा ली है और कातिल उनके सामने है; लेकिन क्राइम ब्रांच के ऑफिसर्स को तब धक्का लगा जब उस शख्स ने अपने घर से ठीक वही कपड़े और उसी रंग की शर्ट उन्हें सौंपी। क्राइम ब्रांच को उस शख्स को छोडऩा पड़ा और फिर उनकी इन्वेस्टीगेशन उसी मोड़ पर आकर अटक गयी, जहाँ से शुरू हुई थी। इन्वेस्टीगेशन से जुड़े दूसरे ऑफिसर ने तहलका संवाददाता को बताया कि हमारी टेंशन और बढ़ गयी, लेकिन हमने केस को स्लोव करने की •िाद ठान ली थी। इस ऑफिसर ने बताया कि उनकी टीम फिर माहिम पुलिस स्टेशन पहुँची, जहाँ पर शरीर के साथ मिले कपड़े जमा थे। इस बार क्राइम ब्रांच के साथ वो टेलर भी था, जिसने उस शर्ट की सिलाई की थी। क्राइम ब्रांच ने टेलर से शरीर के साथ मिले शर्ट की पूरी नाप लेने को कहा और शर्ट का माप लेने के बाद फिर टेलर से बरामद सैकड़ों डायरियों के हज़ारों पन्नो खँगाले।

हज़ारों पन्ने (पेज) गहनता से खँगालने के बाद उन्हें एक पेज में ठीक वैसा ही माप मिला, जो शरीर के साथ मिले शर्ट से मेल खाता था, लेकिन प्रॉब्लम यहाँ भी थी, क्योंकि इस पेज में डिटेल्स तो थी; लेकिन कपड़े का टुकड़ा नहीं। दूसरे ऑफिसर ने कहा कि पता नहीं क्यों हमें ऐसा इनटूशन हो रहा था कि यह पन्ना (पेज) ही मर्डर मिस्ट्री को सुलझाएगा। इस पेज के आिखरी में एक सिग्नेचर किया हुआ था, जिस से बेनेट नाम समझ आ रहा था। इसके बाद क्राइम ब्रांच के दो युवा कांस्टेबल को फेसबुक और सोशल मीडिया पर बेनेट नाम खँगालने को कहा गया। कांस्टेबल के मुताबिक, फेसबुक और सोशल मीडिया पर हज़ारों बेनेट मिले। फेसबुक पर बेनेट की प्रोफाइल खँगालते वक्त क्राइम ब्रांच टीम को एक प्रोफाइल में पुलिस के बारे में कुछ लिखा हुआ दिखा और उस लेख के आिखरी में सिग्नेचर भी किया हुआ था। बतौर इंस्पेक्टर जब हमनें फेसबुक प्रोफाइल वाले सिग्नेचर को टेलर की बुक के पेज से मिले सिग्नेचर से मिलाया तो वो मैच हो गया। पूरी टीम खुश हो गयी और फिर बेनेट रोबेलो मर्डर मिस्ट्री की कडिय़ाँ मिलती चली गयीं। गौरतलब हो कि क्राइम ब्रांच यूनिट 5 ने बेनेट रेबेलो के मर्डर में उसकी अडॉप्टेड (गोद) ली बेटी आराध्य उर्फ रिया पाटिल और उसके 16 साल के लवर को अरेस्ट किया है, अलीम मियाँ तीसरा आरोपी है। क्राइम ब्रांच ऑफिसर ने कहा कि इस केस में और गिरफ्तारियाँ हो सकती हैं। क्राइम ब्रांच से जुड़े लोग दावा कर रहे हैं कि बेनेट की हत्या के पीछे कई कारण हो सकते हैं। लेकिन एक इंस्पेक्टर के मुताबिक, बेनेट की प्रॉपर्टी और घर को हड़पना मुख्य कारण है; जबकि दूसरा ऑफिसर हत्या के पीछे प्रॉपर्टी एंगल के अलावा बेनेट के उसकी एडोप्टेड बेटी और इस केस में मुख्य आरोपी रिया पाटिल के साथ जबरन शारारिक सम्बन्ध बनाना भी है बता रहे हैं। इंस्पेक्टर ने तहलका संवाददाता से कहा कि रिया ने अपने बयान में इस बात की कबूली दी है।  पुलिस सूत्रों कि मानें तो आने वाले दिनों में मजिस्ट्रेट के सामने आराध्य उर्फ रिया पाटिल का बयान रजिस्टर किया जा सकता है।

आखिर क्यों होती हैं रूह कँपा देनी वाली वारदात

मुम्बई में एक हफ्ते के अंदर दो ऐसी वारदात पेश आयीं, जिनसे मुम्बई सहित देश को स्तब्ध कर दिया। दोनों वारदात हत्या से जुड़ी थीं और अलग-अलग एरिया में हुई थीं। दोनों के कारण भी एक दूसरे से जुदा थे। लेकिन इन वारदात में एक बाद कॉमन थी, वो थी वारदात को अंजाम देने की मोडस ऑपरेंडी। दोनों ही वारदात में हत्या करने के बाद डेड शरीर के टुकड़े-टुकड़े किये गये थे। वैसे ऐसी हैवानियत के कई केस हैं, जिनसे मुम्बई पहले भी दहल चुकी है।

पहली वारदात दिसंबर के पहले हफ्ते यानी 2 दिसंबर को सामने आयी। मुम्बई के माहिम दरगाह के पीछे समंदर से पुलिस को एक सूटकेस से अनजान आदमी की बॉडी के तीन पाट्र्स बरामद हुए थे। पुलिसिया तफ्तीश में इस बात का खुलासा हुआ था कि जिस शख्स की हत्या करने के बाद टुकड़े-टुकड़े किये गये हैं, वह 52 साल का म्यूजिशियन बेनेट रेबेलो है; जो मुम्बा के वकोला एरिया का रहने वाला है। इस मर्डर मिस्ट्री में बड़ा खुलासा तब हुआ जब मुम्बई क्राइम ब्रांच यूनिट 5 ने मृतक की एडॉप्ट की बेटी आराध्य उर्फ रिया पाटिल और उसके 16 साल के प्रेमी को अरेस्ट किया।  तहलका संवाददाता से बात करते हुए क्राइम ब्रांच से जुड़े इंस्पेक्टर ने दावा किया कि आरोपी रिया ने इस बात की कुबूली दी है कि बेनेट उसके साथ रेप करता था और जब यह बाद उसके नालाबिक प्रेमी को पता चली, तो उन्होंने बेनेट को रास्ते की प्लानिंग की। बता दें कि हत्या करने के बाद रिया और उसके प्रेमी ने बेनेट रेबेलो की लाश के कई टुकड़े कर दिये और फिर सूटकेस में भरकर अलग-अलग ठिकाने पर फेंक दिये थे। यह बात अलग है कि क्राइम ब्रांच को बेनेट की लाश के साथ मिले एक शर्ट ने उनकी करतूत सामने ला दी। वैसे पुलिस का यह भी दावा है कि इस हत्ये के पीछे बेनेट की प्रॉपर्टी हथियाना भी एक मोटिव हो सकता है। इंस्पेक्टर ने कहा कि मर्डर करने के बाद जिस तरह से बॉडी को काटा गया इससे समझ आता है कि आरोपियों की मेंटल कंडीशन ठीक नहीं थी ,बदला लेने की भावना ने उन्हें पागल बना दिया था; लेकिन हमारे पास इनका आरोप सिद्ध करने के लिए पुख्ता सबूत हैं।  वहीं दूसरी और बॉम्बे हाई-कोर्ट में कई संगीन मामलों में पैरवी कर रहे क्रिमिनल लॉयर श्रेयांश मिठारे का कहना है कि ऐसे मामलों में आरोपी मेंटल डिस्टर्ब होता है और वो वारदात को तब तक अंजाम देता है जब तक कि वो पूरी भड़ास नहीं उतार लेता। एडवोकेट मिठारे का तर्क  है कि ऐसे केसेस में पुलिस अक्सर मोटिव साबित नहीं कर पाती। सरकमस्टान्सेस एविडेंस, सपोर्टिव विटनेस, लास्ट सीन-टुगेदर साबित करना पुलिस के लिए आसान नहीं होते, जिस वजह से आरोपी को लिबर्टी मिलती है। ऐसे अपराधों को अंजाम देने वालों की मनोदशा को जानने के लिए तहलका ने मनोविज्ञानिकों से बात की।

मनो-वैज्ञानिकों का मानना है कि ऐसे जघन्य अपराधों को वो लोग ही अंजाम दे सकतें हैं, जो मानसिक बीमार हों और ऐसे लोगों को इस बात का इल्म नहीं होता कि वे क्या कर रहे हैं? मनोविज्ञानिक प्रीति उपाधयाय ने कहा कि ऐसे लोगों के दिमाग में कोई एक बात बार-बार हैमर करती है, जो इन्हें अच्छी नहीं लगती; यह लोग अपनी बात दूसरों के सामने भी ज़ाहिर नहीं करते; लेकिन जब इनको मौका मिलता है तब यह लोग अपने अंदर बने ज्वालामुखी को पूरी तरह बहार निकाल देते हैं और फिर अपनी भड़ास तब तक नकालते हैं, जब तक वो पूरी नहीं होती।  दूसरी वारदात 8 दिसंबर को सामने आयी जब मुम्बई से सटे ठाणे •िाले के कल्याण रेलवे स्टेशन से एक सूटकेस में एक लडक़ी की बॉडी की सिर कटी लाश और कुछ टुकड़े बरामद किये थे। इन्वेस्टीगेशन के दौरान ठाणे क्राइम ब्रांच को पता चला कि टुकड़ा-टुकड़ा लाश 22 साल की प्रिंसी तिवारी की थी। ब्रांच ने इस जघन्य मर्डर को अंजाम देने वाले टिटवाला निवासी अरविन्द तिवारी को अरेस्ट किया है। इन्वेस्टीगेशन में इस बात का खुलासा हुआ कि अरविन्द तिवारी कोई और नहीं, बल्कि मृतक प्रिंसी का पिता ही है और उसने ऑनर किलिंग के चलते अपनी बड़ी बेटी प्रिंसी टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे। दरअसल, प्रिंसी तिवारी गैर धर्म के लडक़े के साथ रिलेशन में थी और यह बाद अरविंद तिवारी को अखरती थी। अरविंद ने बेटी प्रिंसी को इस बाबत कई बार समझाया; लेकिन उस पर कोई असर नहीं हुआ। समाज में बदनामी के डर से अरविन्द तिवारी ने अपनी बेटी प्रिन्सी की न सिर्फ हत्या कि बल्कि उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। मनोविज्ञानिकों का मानना है कि समाज में अपनी इ•ज़त बचाने के लिए बेटी की हत्या करना ऑनर किलिंग कहा जाता है और अपनी इ•ज़त बचाने के लिए ऐसे लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं। प्रीती का तर्क है कि इन लोगों के शरीर केमिकल इनबैलेंस हो गये होते हैं, जिन्हें बैलेंस करने के लिए मैडिटेशन, कॉउन्सिलिंग, थेरिपी की ज़रूरत होती है। वहीं पुलिस का मानना है कि ऐसे केस रेयररेस्ट ऑफ रेयर की श्रेणी में आते हैं और ऐसे केसों में आरोपी को जल्द सज़ा मिल जाती है और कड़ी सज़ा मिलती है। एडवोकेट मिठारे का भी मानते हैं कि ऐसी केसों में आरोपी को सख्त से सख्त सज़ा मिलनी चाहिए। मिठारे का कहना है कि रेयररेस्ट ऑफ रेयर केस में डेथ पेनलिटी हो सकती है; लेकिन प्रॉसिक्यूशन के लिए बहुत मुश्किल होता है यह साबित करना कि केस इस श्रेणी में आता है।  बता दें कि साल 2008 में मुम्बई के मलाड में टीवी एग्जीक्यूटिव नीरज ग्रोवर का सनसनीखेज मर्डर था। इस सनसनीखेज मर्डर में मुम्बई क्राइम ब्रांच ने नीरज ग्रोवर की साथी कन्नड़ िफल्मों की स्मॉल टाइम एक्ट्रेस मारिया सुसाइराज और उसके मंगतेर नेवल ऑफिसर इमाइल जेरोम मैथयू को अरेस्ट किया था।

नीरज की हत्या करने के बाद दोनों ने सम्बन्ध भी बनाये और फिर दोनों ने मिलकर नीरज ग्रोवर की लाश के 300 टुकड़े कर दिये थे। इतना ही नहीं सबूत मिटाने के लिए दोनों ने लाश के टुकड़ों को मुम्बई से दूर जंगल में आग के हवाले कर दिया था। पुलिस ने दावा किया था कि यह रेयररेस्ट ऑफ रेयर केस है; लेकिन कोर्ट में पुलिस का दावा धरा रह गया। मर्डर करने के जुर्म में कोर्ट ने जेरोम को 10 साल और सबूत मिटाने के जुर्म में 3 साल की सज़ा सुनायी, जबकि मरिया सुसाइराज को सिर्फ सुबूत मिटाने के आरोप में 3 साल की सज़ा सुनायी। जेल की सलाखें मरिया सुसाइराज को •यादा वक्त तक नहीं रख सकी और 2 जुलाई 2011 को मरिया सुसाइराज जेल से बाहर आ गयी।  जेल से छूटने के बाद मरिया सुसाइराज ने चीटिंग और धोखाधड़ी का धन्धा शुरू कर दी। मुम्बई, ठाणे और बड़ौदा में मरिया सुसाइराज के िखलाफ करोड़ों रुपये की चीटिंग करने की एफआईआर दर्ज हैं। इनमें एक मामला बड़ोदरा और बाकी के छ: मामले ठाणे और मुम्बई में दर्ज हैं। मरिया सुसाइराज का नाम पुलिस फाइल में मोस्ट वांटेड लिस्ट में दर्ज है। एडवोकेट मिठारे पुलिस पर सवाल उठाते हैं कि इतना सनसनीखेज मर्डर केस रेयररेस्ट ऑफ रेयर होना चाहिए था; लेकिन पुलिस इसमें फेल रही, अन्यथा कातिलों को उम्र कैद ज़रूर होती।

धर्म और आदिवासी

आदिवासियों की संस्कृति और सभ्यता मानवीय इतिहास में सबसे पुरानी मानी जाती है। आरम्भिक काल में उनका किसी भी धर्म से लेना देना नहीं रहा है। वे मुख्यत: प्रकृति की पुजारी और प्रकृति के प्रेमी रहे हैं। हमें ज्ञात है कि हमारा देश 300 वर्षों तक गुलाम रहा। विदेशी शासकों ने हमारे ऊपर शासन किया। पहले मुगल, यहूदी और फिर अंग्रेजों ने हमारे देश में अपना राज किया। जिसमें सबसे अधिक समय तक हमारे ऊपर अंग्रेजों का शासन रहा है। अंग्रेजों ने वैसे तो सीधे तौर पर मन्दिरों पर आक्रमण नहीं कि जिस तरह कुछ मुस्लिम शासकों ने किया। आक्रमणकारियों का मन्दिरों पर आक्रमण का कारण धर्म नहीं होता था। उसका कारण मुख्यरूप से धन लूटना होता था। अंग्रेज शासकों का मन्दिर पर सीधा आक्रमण नहीं करने का एक कारण यह भी रहा कि उनसे पहले 100 वर्ष या उससे अधिक समय तक हमारे ऊपर हूण, यहूदी, मुगल आदि शासकों का शासन रहा। जिसने हमारे मन्दिरों के अकूत खजानों को लूटकर अपनी राजकोष में जमा कर लिया था। उनका सीधा मुकाबला उन शासक वर्गों से था, जिन्होंने पहले ही इन संग्रह स्थानों को खाली कर चूके थे। अंग्रजों ने उन शासकों को परास्त कर सीधा उनसे वह खज़ाना कब्ज़ाया था। अब अंग्रेजों का ध्यान हमारे प्राकृतिक धरोहर की तरफ गया। जहाँ पहले से हमारे आदिवासी लोग रहते थे। जब अंग्रेजों ने हमारे प्राकृतिक खज़ानों को अपने कब्•ो में लेना चाहा, तो ज़ाहिर-सी बात थी की उनका मुठभेड़ वहाँ के आदिवासी समुदायों से होना स्वाभाविक था। लेकिन बाद में जब अंग्रेजों ने वहाँ पर अपना कब्ज़ा जमा लिया, तो वे लोग यहाँ के निवासियों को अपने धर्मों की ओर आकर्षित करना शुरू किया। जिसमें उन्होंने लालच का सहारा लिया। जिस कारण आदिवासियों का आरम्भिक विरोध के बावजूद ईसाई धर्म को स्वीकार किया।

लेकिन मैंने इस सम्बन्ध में कुछ लोगों से बाद करने की कोशिश किया। उन लोंगों ने जो तथ्य बताया वह यह है कि भारत में जब अंग्रेजों का शासन प्रारम्भ हुआ, तब ईसाई धर्म का व्यापक प्रचार प्रसार हुआ। अंग्रेजों के काल में दक्षिण भारत के अलावा पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर में ईसाई धर्म के लाखों प्रचारकों ने इस धर्म को फैलाया। उस दौरान शासन की ओर से ईसाई बनने पर लोगों को कई तरह की रियायत मिल जाती थी। बहुतों को बड़े पद पर बैठा दिया जाता था, साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को ज़मींदार बना दिया जाता था। अंग्रेजों के काल में कॉन्वेंट स्कूल और चर्च के माध्यम से ईसाई संस्कृति और धर्म का व्यापक प्रचार और प्रसार हुआ। मदर टेरसा रोमन कैथोलिक नन थीं। मदर टेरेसा ने भारत में निर्मल हृदय और निर्मला शिशु भवन के नाम से आश्रम खोले जहाँ वे अनाथ और गरीबों को रखती थी। 1946 में गरीबों, असहायों, बीमारों और लाचारों के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। 1948 में स्वेच्छा से उन्होंने भारतीय नागरिकता ले ली और व्यापकर रूप से ईसाई धर्म की सेवा में लग गयी। 7 अक्टूबर, 1950 को उन्हें वैटिकन से मिशनरीज ऑफ चैरिटी की स्थापना की अनुमति मिल गयी। इस संस्था का उद्देश्य समाज से बेखबर और बीमार गरीब लोगों की सहायता करना था। मदर टेरेसा को उनकी सेवाओं के लिए विविध पुरस्कारों एवं सम्मानों से सम्मनित किया गया था।

एक व्यक्ति ने बताया कि वर्तमान में लगभग सभी राज्यों में धर्म-प्रचारक हैं। कुछ आँकड़ों को बताते हुए उन्होंने बताया कि वर्ष 1971 में अरुणाचल प्रदेश में कुल ईसाई की जनसंख्या एक प्रतिशत थी, जो 2011 में बढक़र 30 प्रतिशत हो गया। वहीं नागालैंड में 93 प्रतिशत, मिजोरम में 90 प्रतिशत, मणिपुर में 41 प्रतिशत और मेघालय में 70 प्रतिशत हो गया है। धन बल के आधार पर ईसाई धर्म का भारत में तेज़ी से विस्तार हुआ है।  सन् 2015 में जनसंख्या के आधार पर हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और जैन धर्म का आँकड़ों को भारत सरकार ने जारी किया। इन आँकड़ों के मुताबिक, सन् 2011 में भारत की कुल आबादी 121.09 करोड़ जारी किया था, जिसमें 2.78 करोड़ ईसाई जो कुल आबादी का 2.3 प्रतिशत है। उनका वृद्धि दर 15.5 प्रतिशत, जबकि सिखों का 8.4 प्रतिशत, बौंद्धों का 6.1 प्रतिशत और जैनियों का 5.4 प्रतिशत जारी किया है। इसके आधार पर भारत में ईसाई जनसंख्या हिन्दू मुस्लिम के बाद सबसे अधिक है। भारत में 96.63 करोड़ हिन्दू हैं, जो कुल आबादी का 79.8 फीसदी है। मुस्लिम 17.22 करोड़ है, जो कुल आबादी का 14.23 फीसदी है। दूसरे अल्पसंख्यकों में ईसाई समुदाय है। एक दशक में देश की आबादी 17.7 फीसदी बढ़ी है। आँकड़ों के मुताबिक, देश की आबादी 2001 से 2011 के बीच 17.7 फीसदी बढ़ी। मुस्लिमों की 24.6 फीसदी, हिन्दुओं की आबादी 16.8 फीसदी, ईसाइयों की 15.5 फीसदी, सिखों की 8.4 फीसदी, बौद्धों की 6.1 फीसदी तथा जैनियों की 5.4 फीसदी आबादी बढ़ी है।

त्रिपुरा के सांसद झरना दास ने बताया इस सरकार का मुख्य उद्देश्य हिन्दू राष्ट्र बनाना है। इसीलिए ये लोग देश का मुख्य समस्या बेरोज़गारी, भुखमरी, शिक्षा को न देकर यह मुद्दा अपना रहे हैं। आदिवासियों में 38 समुदाय हैं, जिनका जीवन शैली प्रकृति की पूजा करना रहा है। पहले की तरह ही उन लोगों को आज भी लालच दिखाकर धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है। उन्होंने बताया कि यह मीडिया को बातना नहीं चाहिए कि आज की राजनीति राजनीति नहीं रह गयी है। वह महज स्वार्थ रह गया है। जिन्होंने हमें वोट दिया है, हम उसके लिए काम नहीं करते हैं। हम सिर्फ अपने लिए सोचते हैं, जबकि हमारा मुख्य दायित्व समाज का है। जिन्होंने हमें अपना प्रतिनिधित्व बनाकर भेजा है, हम उनकी समस्या के लिए तो कुछ करते नहीं अलबत्ता हम उनको आपस में लड़ाने की बात करते हैं। इसीलिए लोगों का आज के समय में राजनीति से विश्वास उठ चुका है।

लगातार बैठना भी बीमारी का सबब

बैठकर •िान्दगी बिताने की जीवन शैली आपके स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हो सकती है। दिन के समय आप जितना कम बैठे या लेटेंगे, उससे उतना ही ज़्यादा आप स्वस्थ जीवन बिता सकेंगे। अगर आप दिन के दौरान खड़े रहते या चलते-फिरते हैं, तो आपको डेस्क पर बैठकर काम करने वालों की तुलना में जल्द मृत्यु का खतरा कम होता है। यदि आप बैठकर जीवन बिताते हैं, तो इससे आपमें मोटापे, टाइप 2 मधुमेह और हृदय रोग का खतरा बढ़ता है साथ ही इससे अवसाद और कुंठित होने की भी आशंका रहती है।

बैठने की जीवन शैली कैसे करती है प्रभावित?

वज़न

चलने से मांसपेशियाँ सक्रिय रहती हैं, जिससे आपके शरीर में वसा और शर्करा को पचाने में मदद मिलती है। यहाँ तक कि आप व्यायाम करते हैं; लेकिन इसके बाद भी बहुत समय बैठने पर बिताते हैं, तब भी आपमें मेटाबॉलिक सिंड्रोम की स्वास्थ्य सम्बन्धी खतरा रहता है।

हाल ही के शोध से पता चला है कि बैठकर जीवन बिताने के खतरों से निपटने के लिए आपको मध्यम-तीव्र िकस्म की गतिविधि में रोज़ाना 60-75 मिनट खर्च करने की ज़रूरत होती है। लम्बे समय तक बैठे रहने वालों में दिल की बीमारी का खतरा भी रहता है। एक अध्ययन में पाया गया है कि जो पुरुष सप्ताह में 23 घंटे से अधिक टीवी देखते हैं, उन्हें दिल की बीमारी से मौत खतरा 64 प्रतिशत ज़्यादा होता है बनिस्बत उन लोगों को जो हफ्ते में 11 घंटे टीवी देखते हैं।

मधुमेह

अध्ययनों से पता चला है कि पाँच दिनों तक बिस्तर पर पड़े रहने से भी आपके शरीर में इंसुलिन रुकावट बढ़ सकती है। शोध बताते हैं कि जो लोग अधिक समय बैठकर बिताते हैं उनमें मधुमेह का खतरा 112 प्रतिशत अधिक होता है।

कूल्हे और पीठ

यदि आप लम्बे समय तक बैठे रहते हैं तो इससे आपके कूल्हे और पीठ जवाब दे सकते हैं। लगातार बैठे रहने से भी आपकी पीठ में तकलीफ हो सकती है, खासकर अगर आप खराब मुद्रा में या एर्गोनॉमिक रूप से डिजाइन कुर्सी या कार्यस्थल पर ज़्यादा समय बिताते हैं। खराब आसन भी रीढ़ की दिक्कत की स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं जैसे रीढ़ का खिसकना, समय से पहले विकार बेहद दर्दनाक साबित हो सकता है।

गर्दन और कन्धे में अकडऩ

यदि आप अपना ज़्यादातर समय कंप्यूटर की बोर्ड पर बिताते हैं, तो इससे आपके गर्दन और कन्धों में दर्द और अकडऩ की समस्या हो सकती है।

कैंसर

ताजा अध्ययनों से पता चलता है कि बैठकर जीवन बिताने वालों में कुछ तरह के कैंसर के खतरे की आशंका बढ़ जाती है, जिनमें फेफड़े, गर्भाशय और पेट के कैंसर शामिल हैं। हालाँकि अब इसके पीछे के कारणों का खुलासा नहीं हुआ है।

बीमारी ही नहीं, मौत का भी सबब

हर साल दुनिया-भर में शारीरिक निष्क्रियता के चलते 30 लाख से अधिक लोग मौत के शिकार (जो सभी मौतों का छ: प्रतिशत) हो जाते हैं। यह गैर-संचारी रोगों से होने वाली मौत का चौथा प्रमुख कारण है। लगातार बैठकर जीवन बिताने की शैली 21-25 प्रतिशत तक स्तन और पेट के कैंसर, 27 प्रतिशत मधुमेह के मामलों और करीब 30 प्रतिशत इस्कैमिक हृदय रोग की वजह बनती है।

खतरों से कैसे बचें?

इंटरनल मेडिसिन के एमडी डॉ. विनय वर्मा ने कुछ आसान से उपाय बताएँ, जिनको आप घर पर या स्वयं अपनाकर बैठकर जीवन बिताने से होने वाली स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के खतरों से बच सकते हैं-

जब आप ठीक-ठाक हों तो छोटी-छोटी चीजों को एक साथ रखने के बजाय अलग-अलग दूर रखें।

टीवी पर टाइमर सेट कर दें, आमतौर पर एक घंटे पहले बन्द करें, ताकि आपको जो आगे का काम करना है, उसे समय पर कर सकें।

मोबाइल फोन पर टहलते हुए बात करें।

अपना पसंदीदा टीवी शो देखने के दौरान खड़े हो जाएँ और कुछ जुदा करें।

बैठकर पढऩे के बजाय आप रिकॉर्ड की गयी पुस्तकों को टहलने के दौरान, सफाई या काम करते हुए सुन सकते हैं।

यदि आप एक कार्यालय में काम करते हैं:

खड़े रहने के दौरान ईमेल या रिपोर्ट पढ़ें।

ई-मेल या मैसेज करने के बजाय सहयोगियों से आप उनसे सीधे जाकर मिलें और उनसे बात करें।

लिफ्ट की बजाय सीढिय़ों का इस्तेमाल करें।

कॉन्फ्रेंस कॉल के लिए स्पीकर फोन का उपयोग करें और कॉल के दौरान कमरे में घूमें।

सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करने के दौरान बैठने के बजाय खड़े हो जाएँ और उतरने से एक स्टेशन पहले उतरकर टहलते हुए जाएँ।

टहलें या साइकिल चलाएँ और कार को घर पर ही छोड़ दिया करें।

लिफ्ट या एस्केलेटर के बजाय सीढिय़ों का उपयोग करें या कम से कम एस्केलेटर का इस्तेमाल करें।

गंतव्य स्थल से एक बस स्टॉप पहले उतरें और बाकी रास्ता पैदल चलें।

आप जहाँ भी जा रहे हैं, वहाँ से दूर अपनी कार को दूर पार्क करें और फिर पैदल जाएँ।

डेस्क से कोई भी चीज़ हटाने के लिए दूर का विकल्प चुनें, ताकि आपको बार-बार उठना और बैठना पड़े।

सर्दी में बचें बीमारियों से

स्वास्थ्य हमारे जीवन की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। क्योंकि जब हम स्वस्थ ही नहीं होंगे, तो दुनिया के सारे सुख, सारे स्वाद हमारे लिए बेकार हो जाएँगे। यह कहना है दिल्ली के एक प्राइवेट अस्पताल में अपनी सेवाएँ दे रहे एमबीबीएस डॉक्टर मनीष कुमार का। उनका कहना है कि जब-जब मौसम बदलता है, किसी भी शरीर को उसके अनुकूल ढलना पड़ता है, जिसमें उसे ढलने में कुछ समय लगता है। लेकिन अगर शरीर में मौसम के अनुकूल ढलने की क्षमता ही न तो या कोई इंसान लापरवाही करे तो, दोनों ही स्थितियों में मौसमी बीमारियाँ शरीर को जकड़ लेती हैं। चाहे फिर सर्दी हो, गर्मी हो या बरसात हो। डॉक्टर मनीष के अनुसार हर इंसान को मौसम के हिसाब से कपड़े पहनने के साथ-साथ मौसम के हिसाब से ही खानपान भी करना चाहिए। वहीं गुजरात में निजी अस्पताल चला रहे बच्चों के डॉक्टर धवल के अनुसार बच्चों को मौसम की मार से सबसे पहले बचाने का उपाय करना चाहिए। डॉक्टर धवल कहते हैं कि बच्चों को बचाने के लिए बच्चों को ही सभी मौसमों से बचाने के उपाय नहीं करने होते, बल्कि उनके आसपास या उनके सम्पर्क में रहने वाले बड़ों को भी इन मौसमी बीमारियों से बचने की ज़रूरत होती है। क्योंकि बड़ों से बच्चों में बहुत जल्दी संक्रमण फैलता है।

सर्दियाँ शुरू हो चुकी हैं। दोनों ही डॉक्टर्स ने सर्दियों में बड़ों और बच्चों को होने वाली बीमारियों की जानकारी के साथ इन बीमारियों से बचने के उपाय भी बताये। साथ ही ये बीमारियाँ कितने प्रकार की होती हैं और इनसे बचने के उपाय क्या हैं? इनका असर किस पर ज़्यादा  पड़ता है? यह भी विस्तार से बताया।

त्वचा सम्बन्धी बीमारियाँ : यह बीमारियाँ काफी आम और खासी परेशानी वाली होती हैं। जैसे ही सर्दियाँ शुरू होती हैं, तकरीबन 60 से 70 प्रतिशत लोगों में त्वचा सम्बन्धी बीमारियाँ होने लगती हैं। बच्चों और किशोरों में ये बीमारियाँ बहुत होती हैं। इन बीमारियों में मुँह और हाथ-पैरों का फटना, शरीर की त्वचा का खुस्क होकर चटकना, त्वचा का खुस्क और रूखा होकर जिस्म से उतरना और हाथ-पैरों में खारिश होना आदि होता है। खारिश में खुजलाने से लाल चकते पडऩा।

इन बीमारियों का अक्सर पहला और मूल कारण होता है- शरीर में पानी की कमी होना। दूसरा कारण होता है बाहरी मौसम यानी सर्द हवा और ठंड से त्वचा में सिकुडऩ होना। सर्दी की इन त्वचा सम्बन्धी बीमारियों से बचने के लिए पानी लगातार पीते रहना चाहिए। साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें, घर की भी और शरीर की भी। बिस्तर आदि को भी साफ-सुथरा रखें तथा उसे धूप में सुखाते रहें। जहाँ तक सम्भव हो शरीर को ढककर रखना चाहिए। सर्दी वाली माश्चराइज क्रीम या सरसों/नारियल का तेल त्वचा पर लगाना चाहिए। सूती कपड़े पहनने चाहिए, अगर ऊनी कपड़ों की ज़रूरत पड़ती है, तो सूती कपड़ों के ऊपर ऊनी कपड़े पहनने चाहिए। अधिक खारिश होने या त्वचा के अधिक चटकने पर डॉक्टर से परामर्श के अनुरूप इलाज कराना चाहिए। बच्चों को जहाँ तक सम्भव हो पूरी तरह से कपड़े पहनाकर रखने चाहिए।

खाँसी-जुकाम : सर्दी लगने से अधिकतर लोगों को खाँसी-जुकाम हो जाता है। इसके चलते फेफड़े सर्दी से जकड़ जाते हैं। ऐसे में बच्चों को निमोनिया होने का खतरा सबसे ज़्यादा  होता है। खाँसी होने से सबसे ज़्यादा तकलीफ दमा और नज़ला के रोगियों को होती है। इन रोगों से बुजुर्ग ज़्यादा पीडि़त होते हैं। इन बीमारियों से बचने के लिए भी सबसे पहले सर्दी से बचाव करें। जिन लोगों को दमा या नज़ला या पुरानी खाँसी है, वे गर्म पानी ही पीएँ। वैसे तो सभी को गर्म पानी का लगातार सेवन करना चाहिए। ठण्डे खाद्य पदार्थ खाने से परहेज करें। बच्चों को बिलकुल भी ठण्डी ची•ों खाने में न दें। साथ ही यदि बच्चों में निमोनिया का असर हो रहा है, तो तुरन्त उसकी छाती, गले और तलवों की बच्चों वाला बाम लगाकर गर्म कपड़े से सिकायी करें। जल्द ही आराम न मिलने पर डॉक्टर को दिखाएँ। धूल और धुएँ से बचें। सम्भव हो तो धूप में हर रोज़ कुछ समय बिताएँ।

हृदय सम्बन्धी बीमारियाँ : बढ़ती सर्दी के साथ-साथ हृदय सम्बन्धी बीमारियाँ भी बढऩे लगती हैं। यह बीमारियाँ खासतौर पर बुजुर्गों के साथ उन लोगों को ज़्यादा होती हैं, जिनका कोलेस्ट्रोल बढ़ा हुआ होता है। ऐसे में साँस लेने में तकलीफ के साथ-साथ हृदय में दर्द हो सकता है। यहाँ तक कि खून का दौड़ान कम होने से रोगी को हृदयाघात या पक्षाघात भी हो सकता है। ऐसे लोगों को सर्दियों में भी सामान्य तापमान में रहना चाहिए। यदि सुविधा हो तो दिन में एक से तीन बार, जैसा सम्भव हो; गर्म पेय जैसे- चाय-कॉफी आदि पीते रहना चाहिए। पूरी सर्दी गर्म पानी पीना चाहिए। डॉक्टर से इलाज कराना चाहिए।

हाइपोथर्मिया यानी अल्पताप : अल्पताप की बीमारी तभी होती है, जब सर्दियों में शरीर का ताप सामान्य से नीचे तकरीबन 34 डिग्री सेल्सियस से नीचे चला जाए। इस बीमारी में व्यक्ति के हाथ-पैर ठंडे पडऩे लगते हैं। साँस लेने में तकलीफ होने लगती है, हृदय की गति भी बढ़ जाती है और रक्तचाप कम हो जाता है। इस स्थिति में खून जमने से व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है। इस बीमारी से बचाव के लिए मरीज़ को गर्म जगह पर पूरी तरह ढककर रखें। उसकी हथेलियों, पैर के तलवों को अपनी हथेली से रगडक़र गर्म करें। गर्म पेय पिलाएँ और डॉक्टर को दिखाएँ।

टॉन्सिलाइटिस यानी तोंसिल्लितिस : टॉन्सिलाइटिस या तोंसिल्लितिस बीमारी को भले ही कम लोग नाम से जानते हों, लेकिन यह बीमारी अधिकतर बच्चों में और कुछ हद तक बड़ों में भी पायी जाती है। यह बीमारी गले में सर्दी बैठने से होती है तथा इसमें दोनों ओर गले में ही सूजन आती है। इससे खाने-पीने में काफी तकलीफ होती है। इसके अलावा गर्दन में दोनों ओर दर्द भी होता है, जिससे कई बार रोगी को तेज बुखार हो जाता है। यह एक तरह का वायरल संक्रमण से होता है। इससे बचने के लिए सर्दी से पूरी तरह बचाव, खासतौर से गले का सर्दी से बचाव ज़रूरी है। ऐसे में गर्म भोजन तथा गर्म पानी का ही सेवन करें। गले की सिकायी करें। अधिक तकलीफ होने पर डॉक्टर से इलाज कराएँ।

बेल्स पाल्सी यानी फेसियल पेरालिसिस : यह बीमारी खून की कमी वालों के अलावा बुजुर्गों और प्रौढ़ लोगों को जल्दी होती है। इस बीमारी में व्यक्ति का मुँह टेंढ़ा हो जाता है, आँखों से पानी आने लगता है, ज़ुबान लडख़ड़ाने लगती है। इस बीमारी में आँख, कान खराब हो सकते हैं। इसका कारण यह है कि कान के पास से सेवेंथ क्रेनियल नस गुजरती है, जो तेज ठंड होने पर सिकुड़ जाती है। इसी के चलते यह बीमारी होती भी है। अधिक समय तक सर्दी में रहने से, खासतौर पर तेज़ सर्द हवा में रहने से भी यह बीमारी हो जाती है। इसका पहला उपाय सर्दी से बचाव ही है। यदि यह बीमारी किसी को हो जाए, तो उसे तुरन्त डॉक्टर के पास ले जाएँ।

कब्ज : वैसे तो सर्दियों में किसी को जल्दी कब्ज की बीमारी होती नहीं है, परन्तु यदि किसी को हो जाए, तो यह खून की पेचिस में भी बदल सकती है। इस बीमारी में पेट में ऐंठन/मरोड़ की समस्या हो जाती है। ऐसा खानपान बिगडऩे के अलावा पेट में सर्दी बैठने के चलते भी होता है। इस बीमारी में भी सर्दी से बचने के अलावा अपच या अधिक तैलीय खानपान से बचना चाहिए। हर रोज जितना सम्भव हो सके गर्म पानी पीना चाहिए। बीमारी ठीक न होने पर डॉक्टर से इलाज कराना चाहिए।

सिरदर्द : यह समस्या भी सिर में सर्दी अधिक लगने से होती है। ऐसे में सिर को टोपा-मफरल आदि से ढककर रखें। सिरदर्द होने पर बाम आदि से सिर की हल्के हाथ से मालिश करने के बाद सिर ढककर थोड़ा आराम कर लें। साथ ही गर्म पेय, खासतौर से गर्म दूध का सेवन करें। जहाँ तक सम्भव हो गर्म पानी पीएँ। जहाँ तक सम्भव हो पेन किलर लेने से बचें। यदि दर्द दो-चार घंटे तक रहे तो डॉक्टर को दिखाएँ।

छोटी-सी लापरवाही भी ले सकती है जान

एम्स के हृदय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर राकेश यादव का कहना है कि सर्दी के मौसम में मधुमेह (शुगर) रोगी और उच्च रक्तचाप (हाई ब्लड प्रेशर) से पीडि़त मरीज़ों को काफी एहतियात बरतना चाहिए। ऐसे मरीज़ों को सुबह-सुबह की सैर से बचना चाहिए। क्योंकि मधुमेह एक ऐसी बीमारी है, जो साइलेंट किलर है। इसमें मरीज़ के शरीर में दर्द नहीं होता है। ऐसे में मरीज़ को घातक हृदयाघात होने की सम्भावना बढ़ जाती है। इसलिए सर्दी में ऐसे मरीज़ विशेष सावधानी बरतें। चक्कर आने और घबराहट होने पर तुरन्त ब्लड प्रेशर की जाँच करवाएँ और किसी क्वालीफाई डॉक्टर से अपना इलाज करवाएँ।

वहीं इंडियन हार्ट फाउण्डेशन के अध्यक्ष डॉक्टर आर.एन. कालरा का कहना है कि हृदय रोग के मामले सॢदयों के मौसम में ज़्यादा आते हैं। इसकी मुख्य वजह है जागरूकता का अभाव; जैसे- मोटापा, हाई कोलोस्ट्रॉल और मानसिक तनाव। इन बीमारियों के कारण लोगों में ब्लड प्रेशर बढऩे लगता है, जो आसानी से लोग पहचान नहीं पाते हैं। लेकिन ये रोग शरीर के हर अंग को क्षति पहुँचाते रहते हैं, जिसके कारण हृदय को ज़्यादा काम करना पड़ता है और धीरे-धीरे यही हृदय रोग का कारण बन जाता है। ऐसे में बचाव के लिए नियमित व्यायाम करें, तनाव से बचें, तले हुए खाद्य पदार्थों के सेवन से बचें और खाने में नमक का सेवन कम-से-कम करें।

मैक्स के कैथलैब के डायरेक्टर व हृदय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि कहने को तो सर्दी का मौसम बड़ा हैल्दी माना जाता है, परन्तु इस मौसम में ही ज़रा-सी लापरवाही काफी घातक हो सकती है। क्योंकि सर्दी में दिल की धमनियों में सिकुडऩ होने के कारण, खासतौर से हृदय रोगियों को हृदयाघात होने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। डॉक्टर विवेका ने बताया कि महिलाएँ भी ज़्यादातर लापरवाही की वजह से बाएँ हाथ के दर्द, जबड़े में खिंचाव और सीने में दर्द को नज़रअंदाज़ कर जाती हैं; जो हृदय रोग के लक्षण हो सकते हैं। अगर इन लक्षणों को पहचानकर समय पर उपचार करवाएँ, तो निश्चित तौर पर हृदय रोग जैसी बीमारी से बचा जा सकता है।

मौसमी चटर्जी की बेटी की मौत आकस्मिक या साज़िश?

गुज़रे ज़माने की जानी मानी बॉलीवुड एक्ट्रेस मौसमी चटर्जी की बेटी पायल डिकी सिन्हा की बीते दिनों लम्बी बीमारी के बाद मौत हो गयी। 45 साल की पायल दो साल से टाइप-1 डायबिटीज से लड़ रही थीं और 2018 से ही कोमा में थीं।

चटर्जी फैमिली के नज़दीकियों से मिली खबर के अनुसार, मौसमी चटर्जी और उनके हस्बैंड जयंत मुखर्जी उनकी बेटी पायल की मौत के लिए उसके हस्बैंड डिकी सिन्हा को ही ज़िम्मेदार मानते हैं। उनका कहना है कि डिकी सिन्हा ने साज़िश के तहत उनकी बेटी की हत्या की है।

सूत्रों के मुताबिक, मौसमी चटर्जी ने सितंबर, 2019 में मुम्बई के खार पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज करवाई थी, जिसकी कॉपी तहलका के पास मौजूद है। अपनी इस एफआईआर में मौसमी चटर्जी ने आशंका जतायी थी कि उनकी बेटी पायल को उसका पति डिकी सिन्हा सोची-समझी प्लानिंग के तहत उसे मौत की ओर धकेल रहा है।

अपनी एफआईआर में मौसमी चटर्जी ने दामाद डिकी सिन्हा पर यह भी आरोप लगाये हैं कि डिकी ने धोखे से पायल से शादी की। शादी से पहले डिकी ने खुद को असम के बड़े घराने का मेंबर बताया था और खुद को मल्टीनेशनल कम्पनी का मुलाजिम; जबकि शादी के बाद पता चला कि उसका बैकग्राउंड उसकी बातों से मेल नहीं खाता था।

इतना ही नहीं मौसमी चटर्जी ने एफआईआर में यह भी लिखा है कि डिकी दहेज के लिए पायल को टॉर्चर करता था और अपनी बेटी की खुशियों की खातिर उन्होंने समय-समय पर मोटी रकम डिकी को दी। यहाँ तक कि डिकी की डिमांड पूरी करने के लिए उन्होंने अपना पाँच करोड़ रुपये की कीमत का फ्लैट महज दो करोड़ रुपये में एक को-ऑपरेटिव बैंक के पास गिरवी रख दिया था, जो बाद में िकश्त न भर पाने की वजह से बैंक ने ज़ब्त कर लिया।

गौरतलब हो कि मौसमी चटर्जी और उनके पति जयंत मुखर्जी ने 22 नवंबर, 2018 को बॉम्बे हाई कोर्ट में याचिका दायर करते हुए आरोप लगाये थे कि डिकी ने कथित तौर पर पायल का फिजियोथेरेपी ट्रीटमेंट रोकने के साथ-साथ अस्पताल से आयी हेल्पर्स को काम से हटा दिया है और यह सब डिकी साज़िश के तहत कर रहा है।

अपनी इस याचिका में मौसमी चटर्जी और जयंत मुखर्जी ने कोर्ट से अनुरोध किया था कि उन्हें उनकी बेटी पायल की देखभाल की ज़िम्मेदारी दी जाए।

बता दें कि खार पुलिस स्टेशन में दी एफआईआर में मौसमी चटर्जी ने डिकी पर आरोप लगाए हैं कि डिकी के टॉर्चर की वजह से उनकी बेटी मरने पर आमादा थी, जिस वजह से उसने इन्सुलिन लेनी बन्द कर दी थी और उसकी हालत बिगड़ती गयी, जिससे वह कोमा में चली गयी।

इस मसले पर तहलका संवाददाता ने मौसमी चटर्जी के वकील श्रेयांश मिठारे से कांटेक्ट किया; लेकिन उन्होंने ‘नो कमेंट’ कहते हुए िफलहाल किसी भी तरह की प्रतिक्रिया देने से मना कर दिया। बता दें कि खार पुलिस ने डिकी सिन्हा के िखलाफ आईपीसी की धारा 498 (ए) और 506 के तहत केस रजिस्टर किया था। खार पुलिस ने पायल की मेडिकल रिपोर्ट भी जाँच के लिए जे.जे. हॉस्पिटल रेफर की थी।

खार पुलिस स्टेशन के सीनियर पीआई गजानन कबदुल्ले ने कहा कि पायल का क्या इलाज चल रहा था, उसके लिए रिपोर्ट भेजी है; लेकिन उसका पायल की मौत के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है।