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रंग ला रही हैं वन आवरण बढ़ाने की हिमाचल सरकार की योजनाएँ

पहाड़ी सूबे हिमाचल में वन विभाग की शुरू की गयी योजनाएँ, जहाँ प्रदेश के हरित आवरण में बढ़ोतरी करने में सफल हो रही हैं, वहीं स्थानीय लोगों को आजीविका देने में भी बड़ा रोल अदा कर रही हैं।

सरकारी सूत्रों के मुताबिक, हिमाचल में हरित आवरण में वृद्धि के लिए विशेष पौधरोपण अभियान चलाया जा रहा है। राज्य में 2018 में 9785 हेक्टेयर भूमि में 88,53,532 पौधे इस पहाड़ी राज्य में रोपे गये थे। साल 2019 में प्रदेश में 9785 हेक्टेयर वन भूमि पर 88,53,532 पौधे रोपे गये। इस वर्ष पौधरोपण अभियान के तहत करीब 7499 हेक्टेयर वन भूमि पर 65,34,217 पौधे रोपित किये गये।

वर्तमान में राज्य के भौगोलिक क्षेत्र का दो-तिहाई भाग वन के अंतर्गत है, जो लगभग 55,673 वर्ग किलोमीटर बनता है। हालाँकि, पिछले एक दशक में आर्थिक गतिविधियों में वृद्धि ने वन उपज बढ़ाने की ज़रूरत महसूस करायी है। इन आर्थिक गतिविधियों के चलते वन भूमि उद्योग और आवासीय ज़रूरतों के गम्भीर दबाव में आयी है। अब राज्य का लक्ष्य हरित क्षेत्र को कम-से-कम 50 प्रतिशत तक बढ़ाना है।

सूत्रों ने बताया कि प्रदेश में पहली बार वनों की आग के लिए संवेदनशील क्षेत्रों में व्यापक प्रचार अभियान चलाया जा रहा है, जिसके अंतर्गत विभिन्न माध्यमों से लोगों को वनों को आग से बचाने के लिए जागरूक किया जा रहा है। वनों की आग की रोकथाम और प्रतिरक्षण के लिए नया मैनुअल बनाया गया है। इसके अतिरिक्त भारतीय वन सर्वेक्षण की सैटेलाइट पर आधारित फायर अलर्ट एसएमएस सेवा से प्रदेश के नागरिकों को जोडक़र एक रैपिड फोरेस्ट फायर फोर्स का गठन किया गया है, ताकि वनों में आग की सूचना का तुरन्त पता चले और उचित कार्रवाई की जा सके।

स्कूली विद्यार्थियों में वन और पर्यावरण संरक्षण की भावना जागृत करने के उद्देश्य से वन मित्र योजना शुरू की गयी हैै। इसके अंतर्गत विभिन्न जमा दो स्कूलों को एक निर्धारित वन क्षेत्र आवंटित किया जा रहा है, जिसमें विद्यार्थियों के माध्यम से पौधे लगाने व उनकी देख-रेख का कार्य किया जाएगा। साल 2018-19 में इस योजना के अंतर्गत 228 स्कूल और 164.30 हेक्टेयर भूमि का चयन किया गया और 166830 पौधे रोपित किये गये। इस वित्त वर्ष के दौरान 146 स्कूलों और 131.5 हेक्टेयर भूमि का चयन किया गया है और 130100 पौधे लगाने का लक्ष्य रखा गया है। वन विभाग इको पर्यटन को प्रोत्साहन देने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। इको पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए मंडी ज़िले के जंजैहली क्षेत्र को 18.18 करोड़ रुपये आवंटित किये गये हैं। यह राशि ट्रेकिंग के रास्तों, वन विश्राम गृहों, जन सुविधाओं और वन चौकियों के सुधार पर खर्च की जाएगी। केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने मनाली व नाचन में प्राकृतिक उद्यानों और पैदल रास्तों के विकास के लिए तीन-तीन करोड़ रुपये की धनराशि प्रदान की है। इसके अलावा प्रदेश में इको पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए 25 स्थानों पर कैम्पिंग साइट्स शुरू की गयी हैं।

प्रदेश के छ: जि़लों के 18 वन मंडलों और 61 वन परिक्षेत्रों में जापान अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एजेंसी (जिका) की वित्तपोषित 800 करोड़ रुपये की हिमाचल प्रदेश वन पारिस्थिकी प्रबन्धन एवं आजीविका सुधार परियोजना कार्यान्वित की जा रही हैं। वन क्षेत्र को बढ़ाने और स्थानीय लोगों को वनों पर आधारित आजीविका के अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से चलायी जा रही इस योजना के अंतर्गत पिछले वर्ष 11.58 करोड़ रुपये खर्च किये गये। इस वर्ष इस परियोजना पर लगभग 29.71 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है।

वनों के प्रवंधन में स्थानीय लोगों को सक्रिय रूप से जोडऩे के लिए सामुदायिक वन संवद्र्धन योजना आरम्भ की गयी है। इसके अंतर्गत गाँवों के पास खाली वन क्षेत्र पर न केवल पौधरोपण किया जाएगा, बल्कि लोग भूमि एवं और संवद्र्धन के कार्य भी करेंगे। प्रदेश सरकार ने एक अन्य योजना वन समृद्धि-जन समृद्धि भी शुरू की है, जिसका उद्देश्य जंगली जड़ी-बूटियों को बेचने और निजी ज़मीन से इनके उत्पादन को बढ़ावा देकर रोज़गार के अवसर पैदा करना है।

इस योजना के अंतर्गत जड़ी-बूटी संग्रह करने वाले स्थानीय निवासियों का समूह बनाकर दोहन के पश्चात् उनका रख-रखाव, मूल्य संवद्र्धन और विपणन के लिए व्यवस्था की जा रही है। योजना में जड़ी-बूटी पर आधारित औषधि निर्माण के उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए 25 प्रतिशत तक अनुदान देने का प्रावधान किया गया है। साथ ही व्यक्तिगत निजी उद्यमी को भी जड़ी-बूटी व्यापार सम्बन्धी प्रोत्साहन राशि देने का प्रावधान भी किया गया है। वर्तमान में यह योजना सात जि़लों में लागू की जा रही है, जहाँ स्थानीय लोगों के समूह बनाये गये हैं और 45.825 लाख रुपये खर्च किये गये हैं। इस वर्ष इस योजना के लिए 200 लाख रुपये आवंटित किये गये हैं।

प्रदेश सरकार ने एक अन्य नयी योजना ‘एक बूटा बेटी के नाम’ की शुरुआत की है, जिसका उद्देश्य नवजात कन्या के नाम पर पौधे रोपित कर लोगों को वनों के महत्त्व और बालिकाओं के अधिकारों के प्रति जागरूक करना है। पूर्व प्रधानमंत्री और भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी को उनकी 95वीं जयंती पर श्रद्धांजलि के रूप में हिमाचल के मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर ने प्रीणी में ‘एक बूटा बेटी के नाम’ योजना शुरू की। इस योजना के तहत नवजात कन्याओं के जन्म के समय उनके परिवारों को बेबी किट के साथ पांच पौधे भेंट किये जाएँगे। यहाँ यह बताना दिलचस्प है कि वाजपेयी का हिमाचल से विशेष लगाव था और इसे अपना दूसरा घर कहते थे। वे अक्सर हिमाचल के प्रीणी की यात्रा करते थे। मुख्यमंत्री ने ‘एक बूटा बेटी के नाम’ का लोगो भी जारी किया।

चीड़ की पत्तियाँ आग का मुख्य कारण बनती हैं। इन पत्तियों को इकट्ठा करने और वन भूमि से हटाने के लिए एक नयी नीति तैयार की गयी है। इसके अतंर्गत चीड़ की पत्तियों पर आधारित उद्योग लगाने के लिए पूँजी निवेश पर 50 प्रतिशत अनुदान (अधिकतम 25 लाख रुपये) देने का प्रावधान किया गया है। वन भूमि से लैन्टाना (एक प्रकार का खरपतवार) को हटाने के लिए विशेष प्रयास किये जा रहे हैं। पिछले वर्ष 4567 हेक्टेयर क्षेत्र से लैन्टाना हटाया गया, जबकि इस वर्ष 5000 हेक्टेयर क्षेत्र से लैन्टाना हटाने का लक्ष्य रखा गया है।

हिमाचल प्रदेश ने राज्य के वन क्षेत्रों में पेड़ की कटाई सहित अवैध गतिविधियों की जाँच के लिए वन विभाग के एक विशेष पुलिस स्टेशन वन थाना की स्थापना की है। इसके साथ ही हिमाचल प्रदेश यह पहल करने वाला मध्य प्रदेश के बाद देश का दूसरा राज्य बन गया है। विशेष वन पुलिस थानों का उद्देश्य शिकारियों के िखलाफ निवारक और दंडात्मक उपाय करके समृद्ध वन आवरण का संरक्षण करना है। विशेष वन पुलिस थानों में विधिवत् प्रशिक्षित अधिकारी हैं, जो जाँच कार्य में पारंगत हैं।

महाराष्ट्र सरकार में 64 फीसदी मंत्री दागी

महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे सरकार में 27 मंत्रियों के िखलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इसका मतलब यह है कि 64 फीसदी मंत्रियों के िखलाफ आपराधिक मामले लम्बित हैं।

महाराष्ट्र मंत्रिमंडल में 26 कैबिनेट और 10 राज्य मंत्री हैं, जिनमें एनसीपी नेता अजीत पवार भी शामिल हैं, जिन्होंने उप मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। महाविकास आघाड़ी सरकार में शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस शामिल हैं। 29 दिसंबर को शपथ लेने वाले 36 मंत्रियों में 10 कैबिनेट मंत्री और चार राज्य मंत्री एनसीपी के, आठ कैबिनेट और चार राज्यमंत्री शिवसेना के और आठ कैबिनेट और दो राज्यमंत्री कांग्रेस के शामिल हैं। इसके साथ ही मंत्रिमंडल में अब एनसीपी के 12 कैबिनेट मंत्री और चार राज्यमंत्री, शिवसेना के 10 कैबिनेट मंत्री और चार राज्यमंत्री हैं, जबकि कांग्रेस के 10 कैबिनेट मंत्री और दो राज्यमंत्री हैं।

राज्य में अब मुख्यमंत्री, उद्धव ठाकरे सहित 43 मंत्री हैं। महाराष्ट्र में अधिकतम 43 ही मंत्री हो सकते हैं। मंत्री परिषद् का आकार विधायकों की कुल संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता है। राज्य विधानसभा की उल सदस्य संख्या 288 है। महाराष्ट्र में 27 मंत्रियों ने अपने िखलाफ आपराधिक मामले घोषित किये हैं, जो कि पूरे मंत्रिमंडल का 64 फीसदी बनता है। इसी तरह 18 मंत्रियों ने चुनाव के समय दायर अपने हलफनामों में खुद के िखलाफ गम्भीर आपराधिक मामले घोषित किये हैं। हिसाब लगाया जाए, तो यह पूरी मंत्रिमंडल का 43 फीसदी है।

महाराष्ट्र इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स ने महाराष्ट्र राज्य विधानसभा के 43 में से 42 मंत्रियों के खुद भरे शपथ पत्रों का विश्लेषण किया है।  महाराष्ट्र इलेक्शन वॉच के राज्य समन्वयक शरद कुमार के अनुसार, चूँकि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने कोई चुनाव नहीं लड़ा है, उनकी पृष्ठभूमि विश्लेषण के लिए उपलब्ध नहीं है।

सम्पत्ति की बात करें, तो विश्लेषण के मुताबिक, 42 मंत्रियों की औसत सम्पत्ति 21.95 करोड़ रुपये है। सबसे अधिक सम्पत्ति घोषित करने वाले शीर्ष तीन मंत्री हैं- पलुस  कडग़ाव निर्वाचन क्षेत्र से जीते कदम विश्वजीत पतंगराव हैं, जिन्होंने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा था। उनके पास 154 करोड़ रुपये (1,54,75,74,096) चल और 62 करोड़ रुपये (62,07,66,139 रुपये) की अचल सम्पत्ति थी। इस तरह कुल 216 करोड़ की सम्पत्ति के साथ वे सूची में सबसे ऊपर हैं।

राकांपा के टिकट पर बारामती से जीते अजीत आनंतराव पवार के पास 75 करोड़ रुपये से अधिक की सम्पत्ति है। इसमें 23,73,41,951 रुपये की चल सम्पत्ति और 51,75,09,116 रुपये की अचल सम्पत्ति शामिल है। एनसीपी के ही राजेश भैया टोपे, जो गनसावंगी से जीते हैं; की कुल सम्पत्ति 53 करोड़ रुपये थी, जिसमें 18,41,14,944 रुपये की चल सम्पत्ति और 35,57,73,372 रुपये की अचल सम्पत्ति शामिल थी। दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस के कदम विश्वजीत पतंगराव के पास बड़ी देनदारियाँ भी हैं। उनकी देनदारी 121 करोड़ रुपये थी। मुम्ब्रा-कालवा से जीतने वाले राकांपा के अवध जितेंद्र सतीश के पास 37 करोड़ रुपये से अधिक की देनदारी है, जबकि कांग्रेस के विजय नामदेवरा वाडेतीश्वर, जो ब्रह्मपुरी से दोबारा जीते हैं; की कुल देनदारी 22 करोड़ रुपये (22,22,66,073 रुपये) थी।

जहाँ तक सबसे ज़्यादा आय वाले शीर्ष तीन मंत्रियों का सम्बन्ध है, एनसीपी के अजीत अनंतराव पवार ने 2018-19 के लिए कुल 3,86,43,721 रुपये की संयुक्त आय (अपनी जमा पत्नी जमा आश्रित) घोषित की। आयकर रिटर्न के मुताबिक, उनकी स्वयं की आय इसी अवधि के लिए 62,48,786 थी। आय का स्रोत व्यवसाय और कृषि है। कांग्रेस के अमित विलासराव देशम की साझी आय 3,26,67,501 रुपये थी, जबकि उनकी अकेले अपनी आय 2,18,10,001 रुपये थी; जो कारोबार और कृषि से 2018-19 के दौरान थी। कांग्रेस के ही कदम विश्वजीत पाटनोरो को 2018-19 की साझी सम्पत्ति 2,35,28,177 रुपये, जबकि व्यवसाय और कृषि से अकेले अपनी 1,21,18,773 रुपये थी।

जब बात मंत्रियों की शिक्षा की आती है, तो 43 प्रतिशत (18) मंत्रियों ने अपनी शैक्षणिक योग्यता कक्षा 8वीं और 12वीं के बीच होने की घोषणा की है, जबकि 22 मंत्री (जो की कुल का 52 फीसदी हैं) स्नातक और उससे अधिक की शिक्षा ग्रहण किये हैं। साथ ही 25 मंत्री (60 फीसदी) 51 से 80 वर्ष के आयु वर्ग में हैं। जब महिलाओं के प्रतिनिधित्व की बात आती है; तो केवल तीन महिला मंत्री ही इस सरकार में हैं।

ये किधर जा रहा देश का नौजवान?

‘मेरा विश्वास युवा पीढ़ी में है, नयी पीढ़ी में है। भारतीय युवा सिंहों की भाँति सभी समस्याओं का हल निकालेंगे। उन्हीं के प्रयत्न और पुरुषार्थ से भारत देश गौरवान्वित होगा।’ युग पुरुष स्वामी विवेकानन्द में भारत की जिस युवा पीढ़ी को लेकर इतना आत्मविश्वास था, उसी युवा पीढ़ी के अनेक युवाओं को उनके बारे में ज़्यादा पता नहीं। 12 मार्च को राष्ट्रीय युवा दिवस स्वामी विवेकानन्द जयंती के रूप में मनाया जाता है और स्कूलों व कॉलेजों में अलग-अलग कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। पिछले वर्ष इसी दिन के उपलक्ष्य में एक चैनल द्वारा दिल्ली में कई युवाओं से पूछा था कि स्वामी विवेकानन्द के बारे में जानते हैं? तो इक्का-दुक्का को छोडक़ार युवाओं के उत्तर हैरान करने वाले थे।

देश के प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के कैम्पस मेें जो हिंसा हुई है, वो शिक्षण संस्थानों पर कलंक लगाने वाली है। कारण जो भी रहे हों, ऐसी हिंसा एक तरफ युवा शक्ति की असहिष्णुता का संकेत है, तो दूसरी तरफ शिक्षा के मूल स्वरूप पर सवाल खड़े करती है। देश के पूर्व राष्ट्रपति स्व. डॉ. अब्दुल कलाम आज़ाद ने जिस युवा शक्ति को राष्ट्र विकास का आधार बताया है और कहा है- ‘जब हमारे पास 25 वर्ष की से कम की आयु वाले 54 करोड़ युवा हैं तो फिर भला हमें सन् 2020 तक एक विकसित राष्ट्र बनने से कौन रोक पाएगा?’ उन्होंने माना कि देश की आर्थिक तरक्की में 50 फीसदी से ज़्यादा युवाओं का योगदान है। इसी युवा शक्ति का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी राष्ट्र निर्माण और राष्ट्र के विकास के लिए आह्वान करते हैं। लेकिन हिंसा की ऐसी घटनाएँ वौद्धिक और संवेदनशील लोगों के सामने कई यक्ष प्रश्न खड़े करती हैं कि क्या देश के विकास का मॉडल और नये भारत का निर्माण हिंसक घटनाओं और भय की नींव से निर्मित होगा? ऐसे में देश के महापुरुषों का स्मरण, उनके आदर्श और मूल्यों पर विचार मंथन प्रासंगिक हो उठता है। युवा शक्ति का ह्रास कैसे होता है? इसका ज्वंलत उदाहरण है निर्मया मामले में दोषियों को दी जाने वाली फाँसी, जिसमें फैसला जा चुका है। एक बार साईं प्रसन्न कुमार के छात्र ने स्व. डॉ. कलाम के दौरे पर उनसे सवाल पूछा था कि बिल गेट्स जैसे लोग जब एड्स से लडऩे के लिए भारत को दान देते हैं, तो आपको कैसा लगता है? चाहे कलाम ने इसका न्यायसंगत उत्तर दिया कि अनेक देश इस रोग से ग्रस्त हैं; लेकिन वहीं अपनी युवा शक्ति के लिए खतरे की घंटी जैसा है कि हम किस दिशा में आगे बढ़े हैं।

प्रसिद्ध विद्वान जे. कृष्णामूर्ति ने हिंसा को अर्ज का एक रूप बताया है। उनके अनुसार, जब ऊर्जा का उपयोग खास ढंग से किया जाता है, तो ऊर्जा आक्रमण का रूप ले लेती है। हमने ऐसे समाज का निर्माण किया है, जो हिंसक है। जिस संस्कृति और परिवेश में हम जीते हैं, वह हमारे प्रयास, संघर्ष, पीड़ा और हमारी भयानक क्रूरता की ही उपज है। कृष्णामूर्ति कहते हैं कि हिंसा का मूल स्रोत ‘मैं’ है यानी अहंकार। जब तक किसी भी रूप में ‘मैं’ का अस्तित्व है, स्थूल या सूक्ष्म किसी भी रूप में, तब तक हिंसा मौज़ूद रहेगी।

हमें यहाँ बुद्ध की युवा शक्ति का ध्यान करना होगा। युवा सिद्धार्थ में आग धधक रही थी। वे समझ गये थे कि इच्छाएँ दु:ख का मूल हैं और इसी का उत्तर पाने को वे जंगलों-पहाड़ों में भटके, अपने को तपस्या और ज्ञान अर्जित करके महात्मा बुद्ध हो गये। शक्ति के धधकने का मतलब हिंसा करना नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त महापुरुष स्व. आचार्य महाप्रज्ञ ने हिंसा और अहिंसा को विराट रूप में समग्रता के साथ व्याख्यायित किया है। अपने एक लेख ‘अहिंसा की आस्था’ में कहते हैं कि आज का पूरा वातावरण ऐसा है कि कोई किसी को सहन नहीं कर पाता। असहिष्णुता ने हिंसा को आगे बढ़ाया है। उन्होंने सुविधावादी मनोवृत्ति और हिंसा का गहरा सम्बन्ध बताया है। वे कहते हैं कि अहिंसा एक शक्ति है, पराक्रम है, एक वीर्य है और आंतरिक ऊर्जा का विकास है। 12 मार्च को जिस युवा संन्यासी की जयंती को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जा रहा है, आज की युवा ब्रिगेड को उन्हें खोजना होगा, जीवन में उतारना पड़ेगा। वर्ष 1893 में शिकागो धर्म संसद को स्वामी विवेकानन्द ने जिस तरीके से सम्बोधित किया था; लोगों से खचाखच भरा हॉल तालियों की गडग़ड़ाहट से गूँज उठा था, अपने अपने स्थान पर खड़े होकर इस युवा संन्यासी की जादूमयी वाणी का अभिवादन करने लगे थे। इस पर उनके भाषण के बाद एक अमेरिकी महिला ने उनकी मंत्रमुग्ध करने वाली ओजस्वी वाणी और विराट व्यक्तित्व बनाने वाली शक्ति का रहस्य पूछा। इसका उत्तर देते हुए स्वामी ने कहा- ‘हाँ! मेरे पास एक ऐसी शक्ति है। मैंने अपने पूरे जीवन में मन में ब्रह्मचर्य के अलावा कोई विचार नहीं आने दिया। विचार सकारात्मक रखे। लोग सांसारिक आकर्षणों के बारे में सोचकर जिस शक्ति को व्यर्थ गँवाते हैं, मैंने उस शक्ति को चेतना के उच्च  स्तर पर लगाया और वाणी में ऐसी ज़बरदस्त शक्ति विकसित की।’ वैद्धिक काल में जो गुरुकुल व्यवस्था थी, उसमें 25 वर्ष तक विद्यार्थी आश्रम में गुरु के पास रहकर ही शिक्षा लेता था। इसके पीछे यही भावना थी कि वह अपनी ऊर्जा शक्ति को जीवन के गहरे संस्कार और अर्थ जानने के लिए लगाये। जीवन की नींव पक्की तो जीवन यात्रा सुखद होती है। हमारे देश में बल्र्ड इकोनॉमिक फॉर्म के मुताबिक, 1.3 करोड़ जनसंख्या 25 से नीचे की है। युवाओं की यह जनसंख्या 2020 तक 34.33 फीसदी हो जाएगी। राष्ट्र निर्माण और राष्ट्र के विकास में इस शक्ति का उपयोग कैसे करना है? यह सबकी चिन्ता और चिन्तन का विषय होना चाहिए।

ज़ोर का झटका धीरे से

साइरस मिस्त्री ने जैसे ही टाटा समूह के अध्यक्ष रतन टाटा को झटका दिया, वैसे ही उच्चतम न्यायालय ने नेशनल कम्पनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) के आदेश पर रोक लगा दी। एनसीएलटी का फैसला साइरस मिस्त्री के पक्ष में था। अगर पूरे मामले पर नज़र डालें तो भारतीय कॉरपोरेट घरानों में यह लड़ाई काफी लम्बी, लेकिन रोमांचक है। इसमें हर चाल की कानूनी पड़ताल अपनी नाटकीयता के साथ ज़बरदस्त है।

टाटा इस लड़ाई में तब खासे अपने जब नेशनल कम्पनी ला ट्रिब्यूनल ने साइरस मिस्त्री को टाटा सन्स के अध्यक्ष पद से हटाने के मामले में सारी याचिकाएँ रद्द कर दीं। साथ ही कम्पनी के बोर्ड में टाटा के नाजायज़ दखल के अरोपों पर ध्यान नहीं दिया। सबको लग रहा था कि अब मुकाबले में बचा ही क्या? लेकिन तभी नेशनल कम्पनी लॉ एपेलेट ट्रिब्यूनल (एनसीएलएटी) का फैसला आया। इसके तहत साइरस न केवल क्यूटिव चेयरमैन एमेरिटूस के रूप में मान्य किया बल्कि टाटा सन्स को पाठलक कम्पनी से प्राइवेट बनाने को गैर-कानूनी और छोटे निवेशकों के लिहाज़ से घातक भी ठहराया। टाटा ने अब देश की सुप्रीम अदालत की एपेक्स कोर्ट का दरवाज़ा खटखटवाया है। उनके अनुसार, एनसीएलएटी के आदेश से टाटा संघ के कामकाज में अफरा-तफरी मच जाएगी। टाटा ट्रस्ट के अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने कभी अपने अधिकारों का बेजा इस्तेमाल नहीं किया। टाटा समूह के अध्यक्ष के साथ ही टाटा ट्रस्ट के ट्रस्टी रेणु ने भी याचिका दायर की। इसमें अपील की गयी है कि एनसीएलएटी के 18 दिसंबर के आदेश को अमल में न आने दिया जाए। पिछले साल 18 दिसंबर के फैसले में एनसीएलएटी में टाटा एनए सूनावाला (टाटा ट्रस्ट के पूर्व ट्रस्टी) और नितिन नोहरिया (ट्रस्ट की ओर से मनोनीत निदेशक) अपने अधिकारों के बेजा इस्तेमाल करने का दोषी माना था। इन पर यह रोक लगायी गयी कि वे ऐसा कोई फैसला न ले, जिसमें निदेशक बोर्ड के बहुतायत सदस्यों की सहमति ज़रूरी होगा आम बैठक बुलायी हो। टाटा ने अपनी याचिका में लिखा है कि एनसीएलएटी में फैसला गलत भूलभरा और रिकॉर्ड के िखलाफ है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट इस पर विचार करें।

टाटा टेलिसर्विसेज ने कहा कि कम्पनी किसी भी विवाद में नेशनल कम्पनी लॉ ट्रिब्यूनल या एनसीएलएटी में कभी साझीदार नहीं थी। फिर भी अपोलो ट्रिब्यूनल में कहा है कि साइरस मिस्त्री को पुनर्बहाल किया जाये, जिन्हें टाटा सन्स के चेयरमैन मद से हटाया गया था। कम्पनी को अपने फैसले की वजहें बताने का भी मौका नहीं दिया गया। इसी तरह एनसीएलएटी ने टाटा सन्स को पब्लिक से प्राइवेट करने को भी गलत बताया।

साइरस मिस्त्री और रतन टाटा के बीच विवाद के कारण अक्टूबर 2016 को मिस्त्री को टाटा सन्स के बोर्ड ने उन्हें इन्कंपीटेंस के आधार पर पद मुक्त किया था। मिस्त्री के परिवार की निवेश कम्पनियों का टाटा सन्स में 18.5 फीसद हैं। बाद में मिस्त्री की कम्पनियों ने एनसीएलएटी में याचिका लगायी, जिसमें यह आदेश आया कि टाटा सन्स में उन्हें एक्जक्यूटिव चेयरमैन के रूप मेें बहाल किया जाए। टाटा सन्स ने टाटा ट्रस्ट का 66 फीसद निवेश है। बाकी निवेश छोटे-मोटे निवेशकों का है। इनमेें टाटा समूह की कम्पनियाँ भी हैं। टाटा का तर्क है कि एनसीएलएटी का फैसला इस आधार पर हुआ कि टाटा सन्स के मालिक दो समूह हैं। जबकि मिस्त्री समूह और टाटा समूह के बीच कोई भागीदारी नहीं है। साइरस मिस्त्री को सिर्फ पेशेवर आधार पर टाटा सन्स में एक्जक्यूटिव चेयरमैन बताया गया था। उन्हें एसपी समूह के प्रतिनिधि तौर पर तो कतई नहीं। मिस्त्री एसपी समूह की पारिवारिक निष्ठा से अलग नहीं हो पा रहे थे, जबकि उनकी नियुक्ति में यह आवश्यक शर्त थी। उन्होंने पद सँभालने के बाद सारे अधिकार अपने हाथों में ले लिए जिसकी वजह से समूह और समूह की कम्पनियों के कई वरिष्ठ अधिकारी अलग-थलग पड़ गये।

इसी तरह जापानी टेलिकॉम कम्पनी डोकोमो को कानूनी तौर पर जो रकम टाटा को चुकानी थी, उसे रोकने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभायी। चँूकि टाटा सन्स की खासियत रही है कि यह व्यावासायिक सम्बन्धों और लेन-देन में बहुत साफ रहा है और डोकोमो के साथ जो कुछ भी हुआ उससे टाटा सन्स का नुकसान भी हुआ और इसकी छवि पर भी असर पड़ा।

टाटा ने मिस्त्री को हटाने के बाद डोकोमो को उनकी सारी बकाया राशि चुका दी। जो भी समझौता दोनों कम्पनियों के बीच हुआ था, उसका पूरा पालन भी किया गया। नेशनल कम्पनी ला एपेलेट ट्रिब्यूनल (एनसीएलएटी) ने टाटा सन्स और साइरस मिस्त्री मामले में हुए अपने फैसले को उचित माना है। यह समीक्षा एनसीएलएटी ने रजिस्ट्ररार ऑफ कम्पनीज की उस याचिका पर दी, जिसमें यह अनुरोध किया गया था कि टाटा सन्स पहले ‘पब्लिक’ कम्पनी थी, जिसे ज़ल्दबाज़ी में प्राइवेट कम्पनी के तौर पर बदल दिया गया। इसमें रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनीज से मदद ली गयी। अपने फैसले में एनसीएलएटी ने ‘अवैध’ शब्द का इस्तेमाल किया है, जिसे हटाने पर रजिस्ट्रार ऑफ  कम्पनीज ने याचिका दायर की थी।

ट्रिब्यूनल (एनसीएलएटी) का इस पर कहना था कि उसने सरकारी संस्था पर कतई कोई टिप्पणी अपने फैसले में नहीं की है। बल्कि जो कुछ हुआ उसका महज़ ज़िक्र है। यानी कम्पनी और उसके निदेशकों ने ज़रूर कुछ किया न कि रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनी ने। रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनीज ने अपनी याचिका में कहा था कि सेक्शन 43ए (2ए) के तहत एक ‘पब्लिक’ कम्पनी खुद को ‘प्राइवेट’ कम्पनी बना सकती है। यह कम्पनीज (एमेंडमेंट एक्ट 2000 के तहत सम्भव है। इसकी सिर्फ सूचना रजिस्ट्रार को देनी होती है। एनसीएलएटी ने अपने फैसले में लिखा है कि टाटा सन्स लिमिटेड ने रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनीज को सूचित किया है कि इसने 43ए (2ए) के तहत खुद को ‘प्राइवेट’ कम्पनी बना लिया है। इस कारण रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनीज को ज़रूरी बदलाव करने पड़े।

अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही एनसीएलएटी इस पूरे मामले पर फिर विचार करेगी। यह सही है कि एनसीएलएटी के फैसले से टाटा की अपनी छवि पर एक धब्बा लगा है। उन पर यह आरोप लगा कि चेयरमैन एमेरिटस खुद मामलों के दखल देते हैं और खुद को वे बोर्ड से ऊपर मानते हैं। एक यह आरोप भी है कि महत्त्वपूर्ण निदेशक जो टाटा ट्रस्ट में हैं, वे इसीलिए बैठक से उठ जाते हैं; जबकि दूसरे, टाटा के निर्देशों के इंतज़ार में बैठे रहते हैं। हालाँकि इस आरोप से टाटा के चेयरमैन एमेरिटस इन्कार करते हैं। लेकिन एक सवाल यह भी है कि एक होल्डिंग कम्पनी में जहाँ छोटे होल्डिंग भी जुडक़र काम कर रहे हैं, तो यह फैसला लेने का काम सिर्फ बड़ी कम्पनियों के पास क्यों? टाटा सन्स में दो-तिहाई शेयर ट्रस्ट के पास हैं। इसे बदलना चाहिए। दूसरी बात यह है कि टाटा सन्स की वैधानिक तस्वीर क्या है? क्या यह भागीदारों की कम्पनी है? यदि ऐसा है, तो इसे छोटे शेयर होल्डर शापूर जी पल्लन जी समूह (एसपी समूह) की भी सलाह लेनी चाहिए। या फिर उनकी जिसमें दोनों ही समूहों का भरोसा हो, जिससे एक एक्जीक्यूटिव चेयरमैन या निदेशक बन सके। एनसीएलएटी की यही सोच लगाती है कि सभी भागीदारों के हितों की रक्षा हो। हालाँकि ट्रिब्यूनल ने अपनी सोच की वजह साफ नहीं की है। लेकिन यह महत्त्वपूर्ण इसलिए है; क्योंकि यह यही उचित भागीदारी है जिस पर सोचा जाना चाहिए। मिस्त्री का कहना रहा है कि छोटे भागीदारों के अधिकारों की रक्षा हो। जिनके पास ज़्यादा शेयर हैं, वे उन्हें दबाकर न रखेें। उनकी भी आवाज़ सुनी जाए। भारतीय कॉरपोरेट के लोकतंत्र में क्या उपयुक्त होगा। इसका फैसला तो आने वाले दिनों में सुप्रीम कोर्ट को लेना है। लेकिन यह ज़रूरी है कि भारतीय कॉरपोरेट की हरियाली से छोटे पौधों की भी देखभाल उचित है, जो एक दिन खिली हुई शोभा बनते हैं।

वादों और सेंधमारी की सियासत

दिल्ली विधानसभा चुनाव की तारीख का ऐलान हो गया है 8 फरवरी को मतदान और 11 फरवरी को चुनाव परिणाम घोषित किये जाएँगे। ऐसे में सियासी दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप के साथ सेंधमारी की प्रक्रिया शुरू हो गयी है। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिला है। इस बार भी आप पार्टी ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने का राग अलापना शुरू कर दिया है। िफलहाल सत्ता पाने की जुगत में कांग्रेेस, भाजपा और आम आदमी पार्टी ने वादों की झड़ी लगी दी है। सेंधमारी प्रक्रिया में तीनों दल लगे हुए हैं। हर रोज़ एक दूसरी पार्टी के नेता दल-बदल करने में लगे हैं। क्या किया जाए सियासी िफतरत ही ऐसी है, जो पाला बदलने में देर नहीं करती है।

70 विधानसभा सीटों वाली दिल्ली में आप पार्टी और भाजपा के बीच चुनाव फँसता नज़र आ रहा है। कांग्रेस पार्टी में शीला दीक्षित के निधन के बाद अभी तक कांग्रेस में दम नज़र नहीं आ रही है। आप पार्टी  के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को 2015 में विधानसभा चुनाव में 70 में 67 सीटों पर रिकॉर्ड तोड़ जीत मिली थी। भाजपा को कुल 3 सीटों पर ही सफलता मिली थी, जबकि कांग्रेस का खाता नहीं खुला था। अरविन्द केजरीवाल इस बार 2020 के विधानसभा चुनाव  में भले ही अपने 5 साल के कार्यकाल के आधार पर वोट मांग कर जीत दावा कर रहें। पर इस बार वो धार आप पार्टी में नहीं दिख रही है। इसकी वजह यह बतायी जा रही है कि केजरीवाल पर भले ही कोई भ्रष्टाचार का कोई आरोप न लगा हो, पर उनके विधायकों की जनता में छवि पहले वाली नहीं है। उन पर छोटे-मोटे आरोप समय- समय पर लगते रहे हैं, लेकिन कोई आरोप सिद्ध नहीं हुआ। मगर कई विधायकों का इस बार चुनाव में टिकट कटा है। ऐसे विधायक टिकट न मिलने पर वो निर्दलीय या किसी दूसरे दल के टिकट पर चुनाव लडक़र आप पार्टी में सेंधमारी करके नुकसान पहुँचा सकते हैं।

भाजपा ने जीत को पक्का करने के लिए सेंधमारी शुरू कर दी है। ऐसा लोक सभा चुनाव में आप पार्टी के तीन विधायक कपिल मिश्रा, देवेन्द्र सहरावत और अनिल बाजपेयी भाजपा के समर्थन में दिखे हैं और हाल ही में आप पार्टी के नेता गुगन सिंह ने भाजपा की सदस्यता हासिल कर आप पार्टी को झटका दिया है, गुगन सिंह उत्तर-पश्चिम दिल्ली से लोक सभा का चुनाव लड़ चुके हैं उनको ज़मीनी नेता माना जाता है ऐसे में भाजपा को काफी लाभ मिल सकता है। भाजपा की लोकप्रियता में जो भी इज़ाफा हो रहा है। उसके में मूल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी है। दिल्ली के चुनाव में मुख्यमंत्री को कोई चेहरा नहीं है, जो केजरीवाल को टक्कर दे सकें। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों पर जीत मिली थी, जिसमें 70 विधानसभा में 65 विधानसभा में  की बढ़त मिली थी। वोटो इज़ाफा हुआ है। और आप पार्टी के सातों उममीदारों की बुरी तरह से हार हुई थी। भाजपा नेताओं का कहना है कि इस बार दिल्ली में पार्टी ने काम किया है और लोगों से जुडक़र उनकी समस्याओं का समाधान किया है। रहा सवाल मुख्यमंत्री के नाम का तो वो चुनाव के बाद होगा। प्रधानमंत्री  नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के नाम पर ही चुनाव लड़ा जाएगा। भाजपा के नेता यह मानकर चल रहे हैं कि जिस प्रकार लोकसभा के चुनाव में विधानसभा की सीटों में 56 प्रतिशत वोटों की बढ़त मिली, वो एक शुभ संकेत है। भाजपा दो दशकों से दिल्ली में सरकार बनाने से चूक रही है, वो इस बार  सरकार बनाने की लिए काफी मेहनत कर रही है।

दिल्ली में कांग्रेस पार्टी इस बार चुनाव में इस गुमान है में है कि वो महाराष्ट्र और झारखंड की तरह अपने विधायकों को जिताकर लाएगी, जो सरकार बनाने में अहम् भूमिका निभा सकते हैं। कांग्रेस का मानना है कि दिल्ली में शीला दीक्षित के कद का नेता िफलहाल नहीं है। पर कांग्रेस निरन्तर जनता के बीच में कांग्रेस को मज़बूत करने में लगी है। कांग्रेस के नेता ने बताया कि इस बार दिल्ली में कांग्रेस के चुनाव परिणाम चौंकाने वाले सामने आएँगे। क्योंकि भाजपा और आप पार्टी को जनता देख चुकी है। कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी है, जो सभी को साथ लेकर चलती है। कांग्रेस के दिल्ली में शीला दीक्षित के 15 साल के शासन में जो विकास हुआ है, उसको जनता याद कर रही है। कांग्रेस इसी आधार पर वोट माँगेगी। दिल्ली में नयी पाॢटयाँ भी सपा, बसपा की तरह ताल ठोंक रही है। राष्ट्र निर्माण पार्टी के अध्यक्ष ठाकुर विक्रम सिंह ने बताया कि वह दिल्ली विधान सभा चुनाव में अपने प्रत्याशी उतारेगी। उन्होंने बताया कि दिल्ली और केन्द्र सरकार की नीतियों के कारण विकास कार्य ठप्प है, ऐसे में उनकी पार्टी विकास और भाईचारे के आधार पर वोट माँगेगी। पार्टी के महासचिव डॉ. आनंद कुमार ने बताया कि दिल्ली में लोगों को मूलभूत सुविधाएँ नहीं मिल पा रही हैं। इसके लिए भाजपा, कांग्रेस और आप पार्टी ज़िम्मेदार हैं।

दिल्ली भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी का कहना है कि जो भी आप पार्टी ने जनता को सुविधा देने की बात कहीं है, उसका तीन गुना भाजपा जनता को देगी अगर सरकार बनी, तो और दिल्ली में विकास कार्यों में तेज़ी लाएगी। दिल्ली कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सुभाष चोपड़ा ने कहा कि कांग्रेस पार्टी अगर चुनाव जीत कर आएगी, तो दिल्ली वालों को 600 यूनिट फ्री बिजली देगी और  बुजुर्गों की पेशन 3,000 रुपये केगी और लाडली योजना को लागू करेगी। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का कहना है कि भाजपा के वादे में दम नहीं है; क्योंकि आप पार्टी ने 200 यूनिट बिजली और 20 हज़ार लीटर पानी प्रत्येक माह फ्री देने का वादा किया है। ऐसे में क्या भाजपा 1000 यूनिट बिजली और एक लाख लीटर पानी फ्री देगी? केजरीवाल ने कहा कि इससे यह साफ है कि भाजपा जो बात कर रही है, उसमें दम नहीं है।

बाइक रैली कर भाजपा ने किया चुनावी शंखनाद

दिल्ली में जिस प्रकार नागरिकता संशोधन कानून, जामिया और जेएनयू को लेकर मचे बवाल के बाद सीधे तौर पर इस चुनावी बेला में आम आदमी पार्टी आप, और कांग्रेस के विरोध में भाजपा ने 9 जनवरी विजय संकल्प बाइक रैली निकालकर चुनावी शंखनाद कर पूरी दिल्ली में कांग्रेस और आप पार्टी को जमकर कोसा और कहा कि आप पार्टी और कांग्रेस दिल्ली सहित पूरे देश में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में लोगों को गुमराह कर रही है। जेएनयू,जामिया में वाम दल कांगे्रस आप वाले छात्रों को भडक़ा रहे हैं, जिससे छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ हो रहा है। बाइक रैली को दिल्ली भाजपा कार्यालय पंत मार्ग में सांसद मीनाक्षी लेखी ने झंडा दिखा रवाना किया और कहा कि आप पार्टी ने पाँच साल में कुछ नहीं किया है। कहने को तो यह रैली सामाजिक कार्यकर्ताओं और गैर राजनीतिक दल द्वारा आयोजित की गयी थी। लेकिन रैली पूरी तरह से भगवा रंग में रंगी थी। रैली की अगुवाई दिल्ली भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी ने की खुद बाइक चलाकर पार्टी कार्यकर्ताओं की हौसला अफजाई की उनके साथ बाइक में दिल्ली भाजपा के पूर्व अध्यक्ष विजय गोयल थे। रैली में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गह मंत्री अमित शाह ज़िन्दाबाद के नारे लगाये गये और टुकड़े-टुकड़े के विरोध में नारेबाज़ी की गयी। इस मौके पर प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी ने कहा कि दिल्ली में नागरिकता कानून और जेएनयू को लेकर जो बवाल कांग्रेस और आप पार्टी मचा रही है, उसका जबाव अब जनता दिल्ली विधानसभा चुनाव में देगी। विजय गोयल ने कहा कि अब आप पार्टी की सरकार के दिन गये भाजपा करी सरकार बनते ही दिल्ली वासियों की समस्याओं को दूर कर दिया जाएगा। दिल्ली भाजपा के नेता अमरीश सिंह गौतम ने कहा कि आम आदमी पार्टी ने काम कम किया प्रचार ज़्यादा किया है, जिसको जनता समझ चुकी है। दिल्ली के चुनाव में भाजपा की जीत का परचम लहरायेगा। भाजपा नेता कैलाश गुप्ता ने कहा कि अबकी बार दिल्ली में भाजपा की सरकार; क्योंकि जिस प्रकार देश में भाजपा ने जो ऐतिहासिक काम किये हैं,  विकास किया है, वह दिल्ली में सरकार बनते ही होगा। क्योंकि आप पार्टी आंदोलन से निकली और अन्ना हज़ारे को गुमराह कर आयी है, अब जनता उसको हटाकर ही मानेगी और भाजपा की सरकार बनवाएगी।

भारत में बुलेट ट्रेन अब भी सपना, सबसे आगे निकला चाइना

कहा जाता है कि किसी समय में भारत दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक देश था। इतना ही नहीं हमारे इस देश को सोने की चिडिय़ा भी कहा जाता था। यही कारण है कि भारत पर वर्षों से चौतरफा हमले हुए। अनेक देशों के लोगों ने समृद्धि के लिए भारत का रुख किया। आज भी भारत एक ताकतवर और आधुनिक देश माना जाता है। लेकिन कुछ वर्षों से चाइना भारत को कई क्षेत्रों में पछाड़ चुका है। जैसा कि आजकल कहा जाता है कि चाइना दुनिया में हर तरह से अव्वल रहना चाहता है और इसके लिए चाइना कुछ भी करने को तैयार है। वह हर क्षेत्र में सबसे आगे जाने की हौड़ में है।

हाल ही में चाइना ने बिना ड्राइवर की बुलेट ट्रेन लॉन्च करके दुनिया को चौंका दिया है। यह दुनिया की पहली बगैर चालक के चलने वाली स्मार्ट और हाई स्पीड बुलेट ट्रेन है। इसकी स्पीड बरकरार रखने के लिए इसे रोज़ चलाया जाएगा। बताया जा रहा है कि यह बुलेट ट्रेन 350 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौडऩे वाली इस ट्रेन का नाम ‘रिजुवेनेशन’ रखा गया है। 5जी सिग्नल, वायरलेस चाॄचग और स्मार्ट लाइटिंग के अलावा इस ट्रेन को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से कनेक्ट किया गया है। इस बुलेट ट्रेन में केवल एक व्यक्ति ड्राइव बोर्ड पर होगा, जो किसी आपात स्थिति पर नज़र रखेगा। बताया जा रहा है कि यह विश्व की पहली हाईस्पीड बुलेट ट्रेन है। इसे बीजिंग से झांगजियाकौ के बीच चलाया जाएगा। इस बुलेट ट्रेन को 2022 में बीजिंग और झांगजियाकौ में होने वाले ओलंपिक को ध्यान में रखकर लॉन्च किया गया है। चाइना के अनुसार, इस बुलेट ट्रेन पर पहले परीक्षण का खर्च 56,496 करोड़ रुपये है। चाइनीज रेलवे ने कहा है कि इस आधुनिक ट्रेन में यात्रियों को खूबसूरत सफर के साथ भरपूर आराम रहेगा। चाइना की यह बुलेट ट्रेन बीजिंग से झांगजियाकौ के बीच का 174 किलोमीटर का सफर महज़ 47 मिनट में कर लेगी। इस लम्बी दूरी में इस ट्रेन के 10 स्टापेज हैं। चाइना के विश्वसनीय सूत्रों की मानें, तो 2021 तक चाइना के अन्य कई रूटों पर भी बुलेट ट्रेन दौडऩे लगेगी। माना जा रहा है कि अगर इस ट्रेन का संचालन ठीकठाक रहा तो मध्य सितंबर से शुरू होने जा रहे बीजिंग-शंघाई रेलवे के लिए नयी समय सारणी तैयार की जाएगी।

रोबोट करेंगे ट्रेन की देख-रेख और मरम्मत

चाइना ने दावा किया है कि इस ट्रेन के रखरखाव और मरम्मत का काम रोबोट करेंगे। रोबोट को चाइना द्वारा विकसित ग्लोबल सैटेलाइट से निर्देशित किया जाएगा। चाइना का यह भी कहना है कि यह परियोजना यूएस-विकसित ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम का स्थान ले लेगी।

भारत में हीला-हवाली क्यों?

जैसा कि सभी जानते हैं कि मुम्बई और अहमदाबाद के बीच 508 किलोमीटर के ट्रैक पर मौज़ूदा भारत सरकार ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान 2017 में बुलेट ट्रेन चलाने की योजना बनायी थी। यह योजना भारत सरकार ने जापान की तकनीकी और आर्थिक मदद के ज़रिये तैयार की थी। वैसे तो माना जा रहा है कि अगर भारत में बुलेट ट्रेन दौड़ी तो यह भारत के लिए गौरव की बात होगी। सरकार की मानें तो बुलेट ट्रेन का प्रोजेक्ट 15 अगस्त, 2022 तक पूरा कर लिया जाएगा। लेकिन भारत में जिस गति से काम हो रहा है और जितने अवरोध बुलेट ट्रेन का ट्रैक बिछाने में अब तक आये हैं, उससे तो यही लगता है कि 2022 तक भारत में बुलेट ट्रेन नहीं दौड़ सकेगी। भारत सरकार शुरू में जिस संज़ीदगी और तत्परता से बुलेट ट्रेन के प्रोजेक्ट पर काम किया था, वह अब नहीं दिख रही है। सवाल यह उठता है कि आिखर भारत में बुलेट ट्रेन के प्रोजेक्ट में इतनी हीला-हवाली क्यों हो रही है?

 क्या कहते हैं रक्षा विशेषज्ञ?

जिस समय भारत में बुलेट ट्रेन चलाने की योजना को अमलीजामा पहनाने की कवायद चल रही थी, उस समय दिल्ली साइंस फोरम से जुड़े रक्षा विशेषज्ञ डी रघुनंदन ने बुलेट ट्रेन की खूबियों और इससे आड़े आने वाली परेशानियों से अवगत कराया था। उन्होंने कहा था कि भारत में बुलेट ट्रेन को मुनाफे में रखना आसान नहीं होगा। उनके अनुसार, बुलेट ट्रेन को चलाने में काफी खर्चा आता है, जिसके चलते इसका किराया बहुत अधिक रखना होगा, जो हर कोई वहन नहीं कर सकेगा। उनका यह भी कहना है कि अब तक का इतिहास देखें तो बुलेट ट्रेन केवल विकसित देशों में ही सफल हो सकी है, जबकि विकासशील देशों में असफल। डी रघुनंदन का कहना है कि चाइना ने भी बुलेट ट्रेन का 10 बार किराया घटाया है, उसके बाद भी वहाँ का रेलवे विभाग करोड़ों के घाटे में है।

वे कहते हैं कि भारत में इतना किराया देने वाले लोग अभी उतने अधिक नहीं हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि अधिकतर देशों ने अधिक आबादी को कवर करने वाले क्षेत्रों में बुलेट ट्रेन चलायी है, ताकि उसमें अधिक-से-अधिक लोग सफर कर सकें।

कर्ज़ का है सौदा

भारत सरकार ने बुलेट ट्रेन की योजना तो बना ली, लेकिन इसे हकीकत की ज़मीन पर उतारने के लिए हमारा देश मोटे कर्ज़ में डूब जाएगा। केवल मुम्बई और अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन चलाने के लिए तकरीबन 1,08000 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। इस पैसे का एक बड़ा भाग तकरीबन 88,000 करोड़ रुपये भारत सरकार जापान से लेगी। माना जा रहा है कि अगर बुलेट ट्रेन घाटे का सौदा साबित नहीं हुई, तो भी भारत को यह कर्ज़ उतारने में तकरीबन 50 साल लग जाएँगे। हालाँकि, इस रकम पर ब्याज न के बराबर होगा। जिस समय बुलेट ट्रेन के लिए जापान से कर्ज़ लेने की बात चली थी, तब बताया गया था कि 88,000 करोड़ रुपये के बदले भारत को 90,500 करोड़ रुपये चुकाने होंगे। हालाँकि, जिस दिन से बुलेट ट्रेन चल जाएगी, उसके 15 साल बाद से भारत सरकार पैसा चुकायेगी।

अगर भरपूर यात्री मिले, तो नहीं होगा घाटा

जैसा कि रक्षा विशेषज्ञ डी रघुनंदन ने कहा था कि भारत में बुलेट ट्रेन के आड़े सबसे बड़ी समस्या भरपूर यात्रियों द्वारा ट्रेन में यात्रा करने की होगी। क्योंकि इसका किराया वहन करने की क्षमता हर किसी में नहीं होगी। लेकिन वहीं सरकार की मानें तो अगर यात्री बुलेट ट्रेन से सफर करने लगे, तो घाटा नहीं होगा। साथ ही अनेक लोगों को रोज़गार भी मिलेगा और देश की अर्थ-व्यवस्था को सुदृढ़ करने में मदद मिलेगी।

कैसी होगी भारतीय बुलेट ट्रेन?

मुम्बई से अहमदाबाद के बीच की दूरी दो घंटे में तय करने वाली भारतीय बुलेट ट्रेन बीच के 12 बुलेट ट्रेन के स्टेशन्स पर रुकेगी। इसके लिए अलग से ट्रैक बिछाया जा रहा है। इसका रूट अधिकतर जगह एलिवेटेड होगा। वहीं बुलेट ट्रेन 7 किलोमीटर तक समंदर के नीचे चलेगी। बताया जा रहा है कि जापान ही तय करेगा कि इस ट्रेन का ढाँचा कैसा होगा? इसके स्टेशन कैसे होंगे और कहाँ-कहाँ बनाये जाएँगे? इसका रूट कैसा बनाया जाएगा? किस मैटेरियल के पिलर बनेंगे?  बताया जा रहा है कि भारत की पहली बुलेट ट्रेन बांद्रा, कुर्ला, कांप्लेक्स थाने, विरार बोईसर, वापी, बिलिमोरा, सूरत, भड़ौच, वडोदरा, आनंद अहमदाबाद और साबरमती पर रुकेगी। इन स्टेशनों में मुम्बई का स्टेशन अंडरग्राउंड होगा, जबकि बाकी स्टेशन एलिवेटेड।

जापान की तकनीक सबसे सुरक्षित

जैसा कि भारत सरकार ने देश में बुलेट ट्रेन की ज़िम्मेदारी जापान को दी है, उससे एक बात तो तय है कि भारत की बुलेट ट्रेन परिचालन के मामले में खरी उतरेगी। क्योंकि जापान की बुलेट ट्रेन तकनीक काफी सुरक्षित और विकसित मानी जाती है। इसका एक कारण यह भी है कि जापान में कभी कोई बुलेट ट्रेन हादसा नहीं हुआ है। इतना ही नहीं जापान की बुलेट ट्रेन अपने तय समय पर चलती है। बताया जाता है कि जापान में रेलवे के 50 साल के रिकॉर्ड में एक बार सिर्फ 60 सेकेंड की देरी का मामला सामने आया है। अपनी इन्हीं सब तकनीक को जापान अब भारत से साझा करेगा और यहाँ के बुलेट ट्रेन चालक से लेकर बाकी समस्त स्टाफ को ट्रेनिंग भी देगा। इसके लिए बड़ोदरा में हाई स्पीड रेल ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट बनाया जा रहा है। बताया जा रहा है कि इस इंस्टीट्यूट में बुलेट ट्रेन की ऑपरेशंस और मेंटेनेंस के लिए 4000 लोगों को ट्रेनिंग दी जाएगी।

रेलवे नहीं कर पा रहा सुधार

अधिकतर लोगों की भारतीय रेलवे से शिकायत रहती है कि न तो ट्रेनों का परिचालन कभी सही ढंग से होता है और न ही यात्रियों को कोई अन्य सहूलियत ही मिल पाती है। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर भारतीय रेल का परिचालन तक ठीक नहीं है, तो बुलेट ट्रेन की स्थिति कैसे सही रह सकेगी?

भारत में समय पर चल सकेगी बुलेट ट्रेन?

सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत में सरकार द्वारा दिये गये समय पर बुलेट ट्रेन चल सकेगी? यह सवाल इसलिए भी उठता है, क्योंकि अभी तक बुलेट ट्रेन के रास्ते में अनेक अड़चने आ चुकी हैं और अब सरकार भी बुलेट ट्रेन को लेकर खामोश है। इसके अलावा जापान भी एक बार प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने से इन्कार कर चुका है। दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देशवासियों से बुलेट ट्रेन का तोहफा देने का वादा भी कर चुके हैं। ऐसे में यह न केवल प्रधानमंत्री की, बल्कि भारत की गरिमा का सवाल है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि चाइना दुनिया की सबसे आधुनिक बुलेट ट्रेन बनाकर ट्रैक पर दौड़ा चुका है। अब देखना यह है कि भारत सरकार देशवासियों के भरोसे पर कितनी खरी उतरती है?

भारत के सामने ‘बुलेट’ चुनौतियाँ

बुलेट ट्रेन का सपना दिखाना जितना आसान है, इसका प्रोजेक्ट उतना ही कठिन है। क्योंकि बुलेट ट्रेन के रास्ते में भारत सरकार के सामने कई ‘बुलेट’ चुनौतियाँ हैं। इनमें निम्न चुनौतियाँ प्रमुख हैं –

बुलेट ट्रेन के स्टेशन्स और ट्रैक के लिए तकरीबन 1,400 एकड़ ज़मीन की आवश्यकता है। जिस रास्ते को बुलेट ट्रेन के लिए अनुकूल पाया गया है, उसमें खेती की ज़मीन भी आती है। इसके अलावा ज़्यादातर ज़मीन लोगों की निजी सम्पत्ति है। पहले एनएचएसआरसी का लक्ष्य था कि 2018 के अंत तक उपयोग में लायी जाने वाली ज़मीन का अधिग्रहण कर लिया जाएगा, लेकिन बाद में 2019 के मध्य इसमें ब्रेक लगे। इसके अंतर्गत कुल 6,000 ज़मीन मालिकों से समझौता होना था; लेकिन अभी तक तकरीबन 1,000 ज़मीन मालिकों से ही सरकार समझौता कर पायी है। वहीं यह भी कहा जा रहा है कि अधिकतर लोग सरकार द्वारा दिये जा रहे मुआवज़े से संतुष्ट नहीं हैं।

भारत सरकार के इस प्रोजेक्ट के िखलाफ अनेक प्रदर्शन हो चुके हैं और ज़मीन मालिक अदालतों में भी याचिकाएँ डाल चुके हैं। अगर अदालतों में यह मामला चला तो फैसले में समय लग सकता है। हालाँकि, सरकार ने काफी पहले ही 17 गाँवों में भूमि अधिग्रहण के लिए नोटिस जारी कर दिया था; लेकिन सरकार ज़मीन मालिकों से समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करा सकी है।

साक्षात्कार: तेज़ी से असर करने वाली दवा है गज़ल…

राणा साहब बता रहे थे- ‘मैं शायरी छोड़ नहीं सकता है; क्योंकि शायरी तेज़ी से असर करने वाली दवा है। और गद्य होम्योपैथिक की दवा है, जिसका असर धीमे-धीमे होता है!’ (आगे)…तो मुझे भी लगता है कि गद्य लिखना भी कम कठिन नहीं है। अच्छा मुझसे किसी ने पूछा कि आपको गद्य लिखने का शौक कहाँ से पैदा हो गया? तो मैंने कहा कि मेरे पास एक विचार था, जिसको हम गज़ल बनाना चाहते थे। तो हर विचार तो गज़ल के रूप में नहीं कह सकते। तो बाद में मैंने अपनी पत्नी को जो किताब डेडीकेट (समॢपत) की है, तो वह सेंटेंस (वाक्य) हमने पत्नी को समॢपत किया। तो वाक्य यह था कि किताब… ज़िन्दगी फूल है। उसमें मैंने अपनी पत्नी के लिए लिखा- अपनी बीवी रईना के नाम! जिनको मैंने अपनी गुर्बत के दिनों में भी ऐसे रखा, जैसे कोई मुकद्दस किताबों में मोर के पर (पंख) रक्खे जाते हैं। तो मेरे कहने का मतलब यह है कि मैं अपने इस विचार को गज़ल बना नहीं पाया। मगर मैं इस विचार को जाया होने देना भी नहीं चाहता था। तो यहाँ से गद्य लिखने का मुझे शौक पैदा हुआ। तो बहरहाल तो यह खुशी है कि हमारी गज़ल की कोई किताब हो या हमारी नस्र (गद्य) की किताब हो, दोनों वैसे ही बिकती हैं, दोनों को हर तरह के लोग पसंद करते हैं। अच्छा एक बात यह है कि गज़ल कहना बाबा रामदेव के च्यवन प्राश को कैप्सूल में भरने की तरह है। यह बहुत मुश्किल काम है। लेकिन गद्य लिखना बहुत आसान काम है। लेकिन अच्छा गद्य लिखना बहुत दुश्वार काम है। शायर अगर गद्य लिखे, तो बहुत अच्छा गद्य लिख सकता है। लेकिन शायर इतना आसान तलब हो जाता है कि वह सोचता है कि एक शेज्र यहाँ लिखेंगे, उसके बाद एक आगे जाकर कह लेंगे, फिर एक उन्नाव में कह लेंगे, दो कानपुर में कह लेंगे और मुशायरे में जाकर पढ़ देंगे। वो आसान काम है या शायरों को आसान लगता है। अच्छा गद्य में यह है कि अगर हमें आपके ऊपर गद्य लिखना पड़े, कोई लेख लिखना पड़े, तो मुझे कुछ आपके बारे में पढऩा पड़ेगा; आपको जानना पड़ेगा; आपके साथ कुछ वक्त बिताना पड़ेगा, आपको जानना पड़ेगा। कुछ यह है कि आपके जिस्म पर, आपके दिल जो दु:ख की, ज़खम की  खराशें हैं, उन्हें समझना पड़ेगा। अच्छा अगर आप पर कोई नज़म लिखना हो, तो मैं लिख सकते हैं कि मेरा प्यार है सुनील, मेरा यार है सुनील…! ऐसे हो सकता है।

लेकिन मेरा मानना यह है हुज़ूर! कि अच्छी गज़ल कहने के लिए या अच्छा शेज्र कहने के लिए सीखना भी पढ़ता है। पढऩा भी पढ़ता है, चाहे शायर किताबें पढ़े, चाहें चेहरे पढ़े, चाहें ज़िन्दगी को पढ़े या चाहें लोगों को, दुनिया को पढ़े। आप इस पर क्या कहेंगे?

पढऩे का तो यह है कि आप कभी लखनऊ तशरीफ लाएँगे, तो हमारी लाइब्रेरी देखकर आपका जी खुश हो जाएगा। एक साहब ने एक बार मुझसे पूछा कि यह सब किताबें आपकी पढ़ी हुई है? तो हमने कहा कि नहीं, इससे ज़्यादा किताबें मेरी पढ़ी हुई हैं। भई, लाइब्रेरी में तो महदूद किताबें होंगी न! चार हज़ार हों, पाँच हज़ार हों, छ: हज़ार हों। हो सकता है इसमें कुछ ऐसी किताबें भी हों, जो न पढ़ी हों; लेकिन ऐसी बहुत-सी किताबें ऐसी उसमें नहीं होंगी, जो हमने पढ़ी होंगी। तो एक ज़माने में यह शौक था। अच्छा, लिखने-पढऩे का यह आलम है कि जब हम लिखते हैं, तो पढ़ते नहीं हैं और जब हम पढ़ते हैं, तो हम लिखते नहीं हैं। न लिखने का आलम यह हो जाता है, यह बड़ा दिलचस्प भी है; कि बैंक हमारा चेक वापस कर देता है; क्योंकि बिना लिखे छ:-छ: महीने हो जाते हैं और हम अपने दस्तखत (हस्ताक्षर) करना भी भूल जाते हैं। छ: महीने न लिखें, या एक साल न लिखें; लेकिन जब लिखना शुरू करते हैं, तो फिर लिखते जाते हैं। एक किताब मुकम्मल करें, दो किताबें मुकम्मल करें। वो एक किताब हमारी है जो ‘नये मौसम के फूल’ है, जिसे नीरज अरोड़ा ने छापा था- दिव्यांश पब्लिकेशन में; वो पूरी शायरी की किताब जो है, वो हमने एक महीने में मुकम्मल की थी। जवान भी थे, उस ज़माने में। एक ज़िद-सी हो गयी थी नसीम-ए-शह्र के साथ, वो किसी उस्ताद शायर का शे’र है न!-

हम ज़िन्दगी की ज़ुल्फ सँवारे चले गये

इक ज़िद-सी हो गयी थी नसीम-ए-शह्र के साथ

तो एक दौर था, जब हम खूब कहते थे; लेकिन अब तो हम बहुत कम शे’र कह पाते हैं। बीमीरियों के चलते एक घुटना हमारा खराब हो गया था, नौ-दस साल पहले; उसके बाद एक के बाद एक कई ऑप्रेशन हुए।

एक सवाल यह है कि आपने अपने बचपन में बहुत से करीबी रिश्तों को खोया। गुर्बत में भी शुरुआती ज़िन्दगी जी और उस गुर्बत से आपने अपने परिवार को निकाला। दूसरी तरफ आपने शायरी भी की, खुद को बड़ा शायर बनाया। तो एक तरफ ज़िन्दगी की जद्दोजहद और दूसरी तरफ शायरी, तो दोनों को एक साथ कैसे लेकर चले?

हमारा एक शे’र है-

वो मुफलिसी के दिन भी गुज़ारे हैं मैंने जब

चूल्हे से खाली हाथ तवा भी उतर गया

तो जब हमारा पूरा खानदान पाकिस्तान चला गया, तब मेरे वालिद ने करीब 26 साल ट्रक भी चलाया जीटी रोड पर, तो उस ज़माने में कभी चूल्हा जलता था, कभी नहीं जलता था। तो इन सब परेशानियों से गुज़रते हुए अच्छे हालात तक पहुँचे हैं। तो उसका एहसास यह रहा कि काम खराब नहीं होना चाहिए, वरना दुनिया यही कहेगी कि बाप-दादा ने बनाया और इन्होंने शायरी में सब बर्बाद कर दिया। तो अपनी ज़िन्दगी को हमने रेल की पटरी बना लिया और मेरा कारोबार उस पर से गुज़रता हुआ एक भारी-भरकम इंजन रहा, जबकि मेरी शायरी उस पर से गुज़रता हुआ एक नन्हा-सा बच्चा रहा। सिर्फ टाइमिंग का मैंने फर्क रखा कि जब इस रेल की पटरी पर से कारोबार का इंजन गुज़रता था, तो बच्चा अलग खड़ा रहता था और जब बच्चा गुज़रता था, तो इंजन वहाँ नहीं होता था। नतीजे के तौर पर मैं शायरी भी करता रहा और कारोबार भी चलता रहा। यानी यह भी एहसास था कि हमारे यहाँ 40-50 आदमी काम भी करते हैं, इतने लोगों की रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम ऊपर वाला हमसे करवा रहा है; अगर हमने शायरी की शोहरत में अपने आपको इतना डुबा लिया कि इन लोगों की रोज़ी-रोटी पर असर पड़े, तो यह गलत होगा। वरना एक दौर में िफल्म इंडस्ट्री में भी हमको मौका मिला। अन्नु मलिक यह कहते थे कि आप अगर आ जाओ, तो हम बम्बई को एक नया शायर दे दें। एक िफल्म डायरेक्टर हुआ करते थे- बाबूराम इशारा, जिन्होंने ‘चेतना’, ‘ज़रूरत’, ‘ज़ोरहा’ जैसी िफल्में बनायी थीं। वह बहुत बड़ा टॄनग प्वाइंट था हिंदुस्तानी िफल्मों का; तो वो हमारे बहुत बड़े आशिक थे; वो मुझसे कहते थे कि तुम बम्बई चलो। तो एक तरफ तो यह दुनिया थी, दूसरी तरफ हमारे वालिद साहब थे, जो कहते थे कि बेटा सब तो हमें छोडक़र पाकिस्तान चले गये, तुम हमें छोडक़र मत जाना कहीं। दूसरी बात जब वो बीमार होते थे, तो अक्सर कहते थे कि बेटा मुझे यकीन है कि मेरे न रहने के बाद तुम अपनी माँ और भाई-बहनों को भूखा नहीं रहने दोगे। तो यह ज़िम्मेदारी का जो एहसास था, जो हमे ट्रांसपोर्ट के कारोबार की दुनिया से हमें निकलने नहीं देता था। जब नौजवानी में मैं अपनी अम्मा से कहता था कि हमसे होगा नहीं यह काम, उनसे (पिताजी से) बोलिए कि हमको घर से निकाल दें, हम नहीं करेंगे यह। तो वो हमें समझाती थीं कि भइया! जंजाल अच्छा, कंगाल अच्छा नहीं है। तो फिर हम ज़िन्दगी की भागदौड़ में लग जाते थे काम में। हमारा एक शे’र है कि-

तुझे मालूम है इन फेफड़ों में ज़ख्म आये हैं

तेरी यादों की एक नन्हीं-सी चिंगारी बचाने में

तो कारोबार को बचाने में शायरी के लिए कितना खून थूकना पड़ा और शायरी को बचाने के लिए कारोबार में कितना नुकसान उठाना पड़ा; यह अगर हम लिखें, तो हमारे खयाल से हमारा लिखा खुद हमें शॄमदा करेगा।

यह तो सही कहा हुज़ूर आपने कि शायरी करना खून थूकने के बराबर है। लेकिन…

वो हमारा एक शे’र कि-

मैंने लफ्ज़ों को बरतने में लहू थूक दिया

आप तो सिर्फ यह देखेंगे गज़ल कैसी है

कठोर अनुशासन और खेल भावना के बिना ओलंपिक में सफलता नहीं

‘खेल भावना’ खेलों का मूलमंत्र है। खेलों का कितना भी व्यवसायीकरण हो जाए पर सम्मान तो ‘खेल भावना’ को ही मिलता है। ‘खेल भावना’ की सैंकड़ों मिसालें हर खेल स्पर्धा में मिलती हैं। क्रिकेट में गारफील्ड सोब्र्स, सुनील गावस्कर, बैडमिंटन में प्रकाश पादुकोण और फुटबाल में इंदर सिंह और जरनैल सिंह, इनके अलावा भी न जाने कितने नाम हैं, जो यहाँ लिए जा सकते हैं। ये ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्होंने खेलों को नये आयम दिये। यहाँ तक कि लोगों ने ‘खेल भावना’ को ज़िंन्दा रखने के लिए अपने ओलंपिक के पदक तक दाव पर लगा दिये। मुकाबला खत्म होने के बार विजेता खिलाड़ी को बधाई देना और विजेता खिलाड़ी का उस बधाई को नम्रता के साथ स्वीकार करना खेलों की एक पुरानी परम्परा रही है। महान् खिलाडिय़ों और आम खिलाडिय़ों में यही अन्तर है। महान खिलाड़ी खेल को खेल की तरह खेलता है, जबकि साधारण खिलाड़ी जीत पर उदण्ड और हार पर मायूस हो जाता है।

पिछले दिनों छ: बार की विश्व विजेता मुक्केबाज़ मैरीकॉम और युवा मुक्केबाज़ निखत ज़रीन के बीच जो कुछ हुआ वह कुछ भी हो पर कम-से-कम खेल भावना तो कतई नहीं थी। विशेष तौर पर ट्रायल मुकाबले के बाद मैरीकॉम से इस तरह के व्यवहार की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। किसी भी खिलाड़ी में इतना अहंकार ठीक नहीं। यदि ओलंपिक के इतिहास पर नज़र डालें, तो हॉकी को छोडक़र देश का कोई बड़ा कारनामा किया हो। इस कारण हम लोग कभी खेलों की विश्व ताकत नहीं माने गये।

भारत 1900 से लगातार इन खेलों में हिस्सा लेता रहा है। हालाँकि, 1900 के पेरिस खेलों में एक अकेले एथलीट नारमन प्रिचर्ड ने भारत का प्रतिनिधित्व किया था और एथलेटिक्स में दो रजत पदक जीते थे, पर वह अलग बात थी। उसके बाद से भारत 26 और ओलंपिक खेलों में भाग ले चुका है; पर उसने केवल 28 पदक जीते हैं। इनमें नौ स्वर्ण, सात रजत और 12 कांस्य पदक है। इन 28 पदकों में से 11 पदक अकेले हाकी में आये हैं। जो नौ स्वर्ण पदक भारत ने जीते। उनमें से आठ हॉकी के और निशानेबाज़ी में आया है, जो अभिनय बिंद्रा ने जीता। 2004 के ऐथन ओलंपिक में राज्यवर्धन सिंह राठौर ने निशानेबाज़ी का रजत जीता। एक रजत हॉकी टीम ने रोम में और दो कांस्य मैक्सिको (1968) और म्युनिक (1972) में जीते। एक रजत विजय कुमार ने लंदन (2012) ओलंपिक में निशानेबाज़ी में और सुशील कुमार ने कुश्ती में जीता। इसके बाद 2016 के रियो ओलंपिक में पीवी सिंह ने भी रजत पदक जीत लिया। हॉकी के दो कांस्य पदकों के अलावा सबसे पहले 1952 के हेल्सिंकी ओलंपिक में केडी जाधव ने कुश्ती का कांस्य पदक हासिल किया। फिर 1996 अटलांटा ओलंपिक मेें लिएंडर पेसे ने टेनिस में कांस्य पाया। 2000 के सिडनी ओलंपिक में कर्णम मलेश्वरी ने भारोश्रोलन में देश को कांस्य पदक दिलाया। 2008 में भारत को एक कांस्य पदक विजेन्द्र सिंह ने मुक्केबाज़ी जीता। इसी ओलंपिक में सुशील कुमार को कुश्ती में कांस्य मिला। बैडमिंटन में कांस्य पदक 2012 के लंदन ओलंपिक में सायना नेहबाल और मुक्केबाज़ी में मैरीकॉम ने और गगन नारंग ने निशानेबाज़ी में जीता। यही पर योगेश्वर दत्त भी कुश्ती का कांस्य पदक जीतने में सफल रहा। 2016 के रियो ओलंपिक में साक्षी मलिक ने कांस्य जीता

इस प्रकार देखा जाए, तो हॉकी के 11 पदकों के अलावा भारत ने कुश्ती में पाँच, निशानेबाज़ी में चार, एथलेटिक्स और बैडमिंटन में दो-दो और मुक्केबाज़ी में भी दो पदक जीते हैं। भरोत्तोलन और टेनिस में भारत एक-एक पदक जीत पाया है। रिकॉर्ड के मुताबिक, भारत के नाम एथलेटिक्स के दो पदक हैं, पर ये पदक आज से 120 साल पूर्व 1900 में जीते गये थे। तबसे लेकर आज तक भारत कोई पद किसी स्पर्धा में नहीं जीता है। ट्रैक में केवल मिल्खा सिंह (1960) और पीटी उषा चौथा स्थान लें पाये हैं। इन हालात में किसी भारतीय खिलाड़ी में अहंकार का आना समझ से परे है। बिना अनुशासन कोई टीम या खिलाड़ी विश्व के शीर्ष पर नहीं पहुँच सकता। टेनिस में भी भारत का खराब प्रदर्शन अनुशासनहीनता के कारण हुआ है। जब खिलाड़ी खुद को खेल से बड़ा समझने लग जाए और देश के लिए खेलने की बजाय खुद के अहम के लिए खेलने लगे, तो परिणाम घातक ही होते हैं। इसमें कसूर हमारे खेल संगठनों और खेल मंत्रालय का भी है। नये खिलाडिय़ों पर शोषण की हद तक अनुशासन लादने वाले हमारे खेल संघ कुछ तथा कथित बड़े खिलाडिय़ों के सामने घुटने टेकते नज़र आते हैं। इसकी कई मिसालें हैं। कोई भी खिलाड़ी न तो खेल से बड़ा होता है और न ही देश से इसलिए जब तक खिलाडिय़ों और पदाधिकारियों पर पूरा अनुशासन लागू नहीं होगा, तब तक ओलंपिक खेलों में बड़ी सफलता नहीं मिल सकती। ऐसे देश जिनमें सुविधाओं की भारी कमी है और जिनकी अर्थ-व्यवस्था भारत से कहीं कमज़ोर है वे केवल अपनी मेहनत और अनुशासन के कारण पदक तालिका में भारत में कहीं ऊपर रहते हैं। मिसाल के तौर पर बहमास, आयवरी कोस्ट, फिजी, जार्डन, कोसोनो, और पोरितो रिको। ये देश पदक तालिका में 50 में 54 स्थान के बीच रहे और भारत 67वें स्थान पर।

अनुशासन के मामले में सभी खेलों को क्रिकेट से सीखने की ज़रूरत है। क्रिकेट मुकाबले के दौरान किसी खिलाड़ी की हिम्मत नहीं कि वह अंपायर के किसी फैसले पर कोई प्रतिक्रिया भी ज़ाहिर कर सके, फिर चाहे वह खिलाड़ी दुनिया का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी ही क्यों न हो। इस लिहाज़ से मैरीकॉम ने ट्रायल मुकाबले के बाद अपनी विरोधी खिलाड़ी से हाथ न मिलाकर न केवल एक अनुशासनहीनता का परिचय दिया है। अपितु यह रैफरी और इस खेल का भी अपमान है। जब तक आप खेल ङ्क्षरग से बाहर नहीं आ जाते, तब तक आप खेल के नियमों, कानूनों और रिवायतों का पालन करने के लिए बाध्य हैं। हैरानी की बात है कि आज तक मुक्केबाज़ी फैडरेशन या खेल मंत्रालय ने इस घटना का संज्ञान तक नहीं लिया। इस प्रकार की हरकतों की अनदेखी करने से ये खत्म नहीं होगी, बल्कि बढ़ेंगी। इससे बाकी खिलाडिय़ों को भी ऐसा करने का साहस मिलेगा। ओलंपिक खेल दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं। सभी देश मुकाबलों के लिए तैयार हो रहे हैं। अमेरिका, चीन, ब्रिटेन बगैरा पदक तालिका में चोटी पर पहँुचना चाहते हैं और हमारे खिलाड़ी अनुशासन को मानने को तैयार नहीं। हमारा प्रदर्शन अच्छा हो इसकी कामना हर देशवासी करता है; क्योंकि देश की प्रतिष्ठा दाव पर होती है। अनुशासन को सख्ती से लागू किये बिना खेलों में तरक्की सम्भव नहीं।

यादगार होगा जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल-2020

विश्व भर में जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल (जिफ) अब अपनी विशिष्ठ पहचान बना चुका है। 12 वर्षों से जिफ लगातार प्रगति की ओर है। जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ट्रस्ट और आर्यन रोज़ फाउण्डेशन की ओर से आयोजित जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ( जिफ) का आगाज़ इस वर्ष 17 से 21 जनवरी को आयनॉक्स सिनेमा हॉल, जी.टी. सेन्ट्रल में आयोजित होने जा रहा है। वहीं जयपुर शहर में आयोजित होने वाले जिफ में प्रदर्शित होने वाली फिल्मों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। यह जिफ की एक बड़ी उपलब्धि है कि यहाँ दुनिया भर में सबसे अधिक संख्या में िफल्मों का चयन होता है। या यूँ कहें, यहाँ होता है विश्व की िफल्मों का उच्चतम चुनाव।

14 देशों की 54 िफल्मों का चयन

जयपुर इंटरनेशनल िफल्म फेस्टिवल में दिखाई जाने वाली िफल्मों की दूसरी लिस्ट (सूची) जारी की गयी। जहाँ पहली लिस्ट में 65 देशों से आयी 219 िफल्में चुनी गयी हैं, वहीं दूसरी लिस्ट में 14 देशों की 54 िफल्मों का चयन किया गया। 98 देशों से आयी कुल 2411 िफल्मों में से यह िफल्में चुनी गयी हैं। कॉम्पिटीटिव िफल्में रहीं 21, जिसमें 4 फीचर फिक्शन िफल्म, 1 डॉक्यूमेंट्री फीचर िफल्म, 2 डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट िफल्म, 11 शॉर्ट फिक्शन, 1 एनिमेशन िफल्म, 1 एड िफल्म और 1 सॉन्ग शामिल हैं। चुनी गयी डेस्कटॉप िफल्में हैं 33, जिसमें 2 एनिमेशन शॉर्ट िफल्में, 2  डॉक्यूमेंट्री फीचर फिल्में, 6 डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट फिल्में, 13 फीचर फिक्शन फिल्म और 10 शॉर्ट फिक्शन फिल्में शामिल हैं।

यू.के., यू.एस., ऑस्ट्रेलिया, चीन, स्विट्जरलैण्ड, स्पेन, रशिया, ईरान, अर्जेन्टीना, पोलैंड, ब्राजील, ग्रीस, बुल्गारिया, फ्रांस के अलावा इस बार सर्बिया, चिली और कोस्टारिका जैसे देशों की िफल्में भी जुड़ी हैं।

राजस्थान के लोगों के लिए यह बहुत खुशी और गर्व की बात है कि आगामी वर्ष 2020 में जनवरी माह में होने वाले जयपुर इंटरनेशनल िफल्म फेस्टिवल में राज्य की कई िफल्में प्रदर्शित होंगी। राजेश सेठ के निर्देशन में बनी शॉर्ट फिक्शन िफल्म वेटिंग टिल टुडे दिखाई जाएगी। राहुल सूद निर्देशित शॉर्ट फिक्शन िफल्में- पापा नहीं मानेंगे और मज़ार-ए-लैला मजनूँ फेस्टिवल में दिखाई जाएँगी। डॉ. हेमा उडावत के निर्देशन में बना चार मिनट लम्बा सॉन्ग (गीत) करीब दिखाया जाएगा। राजस्थान से राजेश सोनी निर्देशित शॉर्ट फिक्शन िफल्म सबक और पूर्णिमा कौल की डॉक्यूमेंट्री िफल्म हौसले की उड़ान दिखायी जाएगी। वहीं, राजस्थान की राजधानी जयपुर पर बनी िफल्म अलबेलो जयपुर का भी जिफ में प्रदर्शन होगा। जानना खास है कि चन्दन सिंह ने 5 मिनट की यह शॉर्ट िफल्म बनायी है।

गुलाबी शहर की ख़ूबसूरती दिखाती है िफल्म अलबेलो जयपुर

फिल्म अलबेलो जयपुर गुलाबी शहर की खूबसूरती को गुलाबी रंग के लैंस से दिखाती है। चन्दन सिंह शेखावत के निर्देशन में बनी यह िफल्म हाइपर लैप्स और टाइम लैप्स जैसी खास तकनीकों का उपयोग करते हुए शहर के 365 दिनों को महज़ 4 मिनट 39 सेकेंड में दिखाती है। अलबेलो जयपुर आपको गुलाबी शहर की अनूठी लोक कला और संस्कृति के कई रंग दिखाती है, जिसे देख किसी को भी इस शहर से प्यार हो जाएगा। चन्दन सिंह शेखावत बताते हैं कि वह शुरू से विजुअल स्टोरी टैलिंग में रुचि रखते हैं, और िफल्म उनके लिए खुद को बयाँ करने का एक ज़रिया है।

ट्रैफिक नियमों के बारे में जागरूक करेगी डोंट ड्रिंक एंड ड्राइव

तेज़ी से बढ़ रही सडक़ दुर्घटनाओं को ध्यान में रखते हुए विनोद सैम ने िफल्म बनायी है, जिसका नाम है- डोंट ड्रिंक एंड ड्राइव। यह एक विज्ञापन िफल्म है, जो लोगों को ट्रैफिक नियमों के बारे में जागरूक करती है। िफल्म राहुल प्रकाश (पुलिस उपायुक्त, यातायात जयपुर) के सहयोग से बनायी गयी है, जिसमें राजस्थान के जाने-माने गायक रवीन्द्र उपाध्याय ने अभिनय भी किया है।

डूबी का प्रदर्शन होगा ख़ास

िफल्म में ऑस्कर विजेता रेसुल पुकुट्टी ने की है साउंड डिजाइनिंग

िफल्म डूबी का जिफ में प्रदर्शन होना खास है। िफल्म के लेखक और निर्देशक हैं- कैथ गोम्स, वहीं िफल्म में को-प्रोड्यूसर हैं मार्क बशैट। खास बात यह है कि मार्क बशैट को पिछले साल जिफ के मंच से ही इंट्रोड्यूस किया गया था। वहीं िफल्म में साउंड डिजाइन दिया है रेसूल पुकुट्टी ने, जो स्लमडॉग मिलिनेयर िफल्म में साउंड डिजाइनिंग के लिए ऑस्कर अवॉर्ड अपने नाम कर चुके हैं। पुकुट्टी पद्म श्री, बेस्ट ऑडियोग्राफी के लिए नेशनल िफल्म अवॉर्ड और बाफ्टा अवॉर्ड भी हासिल कर चुके हैं।

स्कॉलर्स के लिए है खास मौका

गुलाबी नगरी के सिने-प्रेमियों के लिए तो वर्ष 2020 खास होगा ही, सिनेमा स्कॉलर्स के लिए भी यह एक विशेष अवसर होने जा रहा है। जयपुर इंटरनेशनल िफल्म फेस्टिवल ट्रस्ट और आर्यन रोज़ फाउण्डेशन की ओर से आयोजित जयपुर इंटरनेशनल िफल्म फेस्टिवल (जिफ) का आगाज़ आगामी वर्ष 17 से 21 जनवरी को आयनॉक्स सिनेमा हॉल (जी.टी. सेन्ट्रल) में आयोजित होने जा रहा है। जहाँ आयनॉक्स सिनेमा हॉल में 69 दुनिया भर से आयीं 240 िफल्मों का प्रदर्शन होगा, वहीं शहर के क्लॉक्स आमेर होटल में सिनेमा से जुड़ी विविध चर्चाएँ होंगी। िफल्मों के लगातार प्रदर्शन के साथ ही िफल्मकार, निर्माता, निर्दशक और सिनेमा से जुड़े ख़ास लोग सिने जगत की बारीिकयों पर बात करेंगे।

समाज पर सिनेमा के प्रभाव को समझने के लिए जिफ का अभिनव प्रयास

यह जयपुर इंटरनेशनल िफल्म फेस्टिवल का 12वाँ संस्करण है। जिफ की ओर से विश्व की सबसे बड़ी और सिक्योर िफल्म लाइब्रेरी बनने जा रही है, जिसके अन्तर्गत जिफ की ओर से इस मर्तबा एक अभिनव प्रयास किया जा रहा है। इस कोशिश का मकसद है- सिनेमा पर आधारित संस्थागत रिसर्च या शोध को बढ़ावा देना। 17 से 21 जनवरी को होने वाली िफल्मों की स्क्रीनिंग में छात्र-छात्राओं को हिस्सा लेना होगा, उन्हें िफल्में देखनी होंगी और सुबह, दोपहर तथा शाम को अपनी उपस्थिति दर्ज करनी होगी।

टॉप 4 रहे छात्रों को मिलेगी स्कॉलरशिप

इस मुहिम के अन्तर्गत जिफ की ओर से रिसर्च के लिए एक लाख रुपयों की स्कॉलरशिप दी जाएगी। इस क्रम में एक परीक्षा आयोजित होगी, जिसमें वे ही रिसर्च स्कॉलर्स हिस्सा ले सकेंगे, जिन्होंने फेस्टिवल के दौरान िफल्में देखी हों। परीक्षा में टॉप पर रहने वाले 4 छात्रों को जिफ की ओर से स्कॉलरशिप अवॉर्ड होगी।

नि:शुल्क ले सकते हैं हिस्सा

सभी छात्र जयपुर इंटरनेशनल िफल्म फेस्टिवल में नि:शुल्क हिस्सा ले सकते हैं। स्कॉलरशिप के लिए अधिकतम 100 रजिस्ट्रेशन्स लिए जाएँगे। पहले आओ पहले पाओ के आधार पर स्कॉलर्स को चुना जाएगा। इच्छुक छात्र-छात्राएँ रजिस्ट्रेशन की जानकारी myjiffindia@gmail.com पर अपने नाम, क्लास और कॉलेज के नाम के साथ भेज सकते हैं।

इतना ही नहीं, मास कम्यूनिकेशन, सिनेमा और एनिमेशन के स्टूडेंट्स के लिए जिफ 2020 में हिस्सा लेना नि:शुल्क रहेगा।

सिनेमा से जुड़ी रिसर्च को बढ़ावा देने का प्रयास।

जिफ की ओर से दी जाएगी एक लाख की स्कॉलरशिप।

केवल िफल्म, पत्रकारिता और एनिमेशन के विद्यार्थी ले सकते हैं हिस्सा।

जेल के डर से बढ़ा भाईचारा

मज़हब एक ऐसी नशीली दवा है, जिसे बिना चखे ही लोग नशे में चूर हो जाते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि मज़हब की सीख भले ही हमें याद न रहे; उस पर अमल भी हम न करें; पर उसका नशा दिल-ओ-दिमाग पर तारी रहता है। मेरा मानना है कि अपने मज़हब की शिक्षाअ पर जो जितना कम अमल करता है, वह खुद को मज़हब का उतना ही बड़ा ठेकेदार मानता है। ऐसे लोगों की वजह से कई बार झगड़े या दंगे तक हो जाते हैं और समाज की शान्ति भंग हो जाती है। ऐसे लोगों से समाज में कितनी दिक्कत होती है, यह बात आज सभी को समझने की ज़रूरत है।

ऐसे ही झगड़ों-दंगों की अनेक घटनाएँ हमारे देश में जब-तब देखने, सुनने, पढऩे को मिल जाती हैं। उत्तर प्रदेश के कैथल क्षेत्र के एक गाँव की ऐसी ही घटना मुझे याद आ रही है, जो इसी तरह के मज़हब के ठेकेदारों के चलते घटी। इस गाँव में एक पंडित और एक मुल्ला अपने-अपने मज़हबी स्थलों के पीठाधीश थे। अपने मज़हब को सबसे अच्छा कहना और दूसरे मज़हबों को गलत ठहराना दोनों की आदत थी। दोनों ही के अपने-अपने समर्थक थे। एक दिन मस्जिद के सामने से पंडित जी का एक कट्टर समर्थक गुज़रा। सॢदयों के दिन थे, सुबह का समय था। वहाँ मस्जिद के सामने मुल्ला जी अपने कुछ समर्थकों के साथ अलाव के आगे बैठे हुए इस्लाम की तारीफ में मशरूफ थे। जिस समय पंडित जी का समर्थक वहाँ से गुज़र रहा था, उसके कानों में मुल्ला जी के ये शब्द पड़े- ‘इस्लाम दुनिया का सबसे अच्छा मज़हब है।’ बस फिर क्या था, पंडित जी का समर्थक पलट पड़ा और बोला- ‘मुल्ला जी अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना बहुत आसान है। आपका मज़हब तो तब अच्छा माना जाएगा, जब आप कुछ पुण्य का काम करना शुरू कर दोगे। हमारे  धर्म से बड़ा दुनिया का कोई धर्म नहीं।’ बस, फिर क्या था दोनों ओर से बहस शुरू हो गयी। दोनों ओर के अनेक समर्थक एक जगह जमा हो गये और एक-दूसरे के मज़हब को बुरा-भला कहने लगे। झगड़ा शुरू हो गया और इतना बड़ा कि दोनों ही मज़हबों के लोग आमने-सामने आ गये और देखते-ही-देखते झगड़ा शुरू हो गया। दोपहर होते-होते गाँव में दोनों ओर के कई लोग घायल हो गये। सूचना मिलने पर पुलिस भी गाँव में आ गयी और किसी तरह दोनों पक्षों को धमकाकर माहौल को शान्त कराया। इस झगड़े में एक बात सबसे बुरी हुई, वह यह कि गाँव के ही एक पढ़े-लिखे बुजुर्ग भगवंत सिंह का सिर फूट गया। भगवंत सिंह दोनों ही मज़हब के लोगों को समझाने का प्रयास कर रहे थे। भगवंत सिंह को दोनों ही मज़हबों की काफी जानकारी थी और इंसानियत ही उनका सबसे बड़ा मज़हब था। दोनों ही मज़हबों के लोग उनका सम्मान करते थे और उनकी बात मानते थे। उनका रिकॉर्ड था कि किसी से कभी भी उनकी तू-तू, मैं-मैं तक नहीं हुई। गाँव के कई झगड़े उन्होंने सुलझाये थे, पर आज उनका सिर फूट गया। हालाँकि किसी भी पक्ष का इरादा यह नहीं था।

इधर, थानाध्यक्ष भी पढ़े-लिखे थे। अमूमन देखा जाता है कि पढ़े-लिखे लोग न तो किसी मज़हब की कट्टरता को स्वीकार करते हैं और न ही किसी मज़हब की बुराई करना-सुनना पसंद करते हैं। थानाध्यक्ष की आदत भी ऐसी ही थी। उन्होंने दोनों ओर से पूरे मामले को सुनना शुरू किया। जैसे ही उनके सामने मामले की तस्वीर साफ हुई, उन्होंने पंडित-मुल्ला समेत दोनों ओर के 10-10 लोगों को थाने ले जाकर बन्द कर दिया। मज़े की बात यह थी कि बड़े-से एक ही बैरक में दोनों पक्षों के लोगों को बन्द किया गया। साथ ही हिदायत यह दे दी कि अगर दोनों ओर से किसी ने एक-दूसरे से ज़रा भी धर्म को लेकर बात की या एक-दूसरे से झगडऩे की कोशिश की, तो पेड़ से बाँधकर मारूँगा। दोनों पक्षों के लिए यह शामत सी जान पड़ी, इसलिए चुपचाप बैरक में ही बैठ गये। बीच-बीच में दोनों पक्ष यह ज़रूर कहते रहे कि साहब, हमारी गलती नहीं है। पर थानाध्यक्ष ने किसी की भी एक नहीं सुनी। दोनों मज़हबों के लोग अपने-अपने पक्ष को छुड़ाने आये, पर गिरफ्तार लोगों को रिहा नहीं किया गया। दोपहर से शाम हो गयी, शाम से रात के 11 बज गये। गाँव के लोग सब परेशान होकर वापस चले गये। इतना ही नहीं रात को किसी को खाना भी नहीं दिया गया। रात के 12 बजे के करीब मुल्ला जी के तरफ के एक हिरासती ने कहा कि साहब! बहुत तेज़ भूख लगी है, खाना खिला दो। थानाध्यक्ष ने कडक़ आवाज़ में कहा- ‘क्यों लडक़र पेट नहीं भरा?’ बैरक में फिर एक लम्बी चुप्पी छा गयी। थानाध्यक्ष ने गाँव में भी छ:-सात पुलिस वाले तैनात कर दिये थे, ताकि फिर कोई झगड़ा न कर सके। हिरासत में लिये गये सभी लोग रात को बैरक में ही सो गये। सुबह हो गयी। भगवंत सिंह थाने में पहुँचे और थानाध्यक्ष से दोनों पक्षों को छोडऩे की गुज़ारिश करने लगे। थानाध्यक्ष को सारा वाकया मालूम था, इसलिए उन्होंने बड़े सम्मान से भगवंत सिंह को बैठाया और चाय पिलायी। फिर उन्हें लेकर बैरक की ओर गये। और चिल्लाकर कहा कि देख रहे हो इनको? पहचानते भी हो कि नहीं? यह वो इंसान हैं, जिनका सिर आप लोगों ने फोड़ दिया, फिर भी ये आप लोगों को रिहा कराने आये हैं। तुम लोगों को शर्म आनी चाहिए। एक रात के लिए मैंने तुम लोगों को एक ही बैरक में बन्द रखा, सब एक-दूसरे के पास सो गये, कोई लडक़र नहीं मरा। मगर एक गाँव में अलग-अलग घरों में रहकर एक-दूसरे के खून के प्यासे रहते हो। कैसे इंसान हो? क्या यही सिखाता है आपका मज़हब? कौन-से मज़हब में लिखा है दूसरे मज़हब को बुरा कहना? कौन-सा मज़हब खून बहाने की सीख देता है? अब तुम लोगों को जेल भेजूँगा। बस इतना सुनते ही कोई रोने लगा, कोई पैर पडऩे लगा। पंडित जी और मुल्ला जी भी हाथ जोडक़र गिड़गिड़ाने लगे। थानाध्यक्ष ने कहा- माफी भगवंत सिंह जी से माँगो। सब उनसे माफी माँगने लगे। खैर, थानाध्यक्ष ने यह हिदायत देते हुए सबको छोड़ दिया कि आइंदा अगर लड़े तो सीधे जेल भेजूँगा। इसके बाद उस गाँव से मज़हबी झगड़े की कोई खबर नहीं सुनी।