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क्या जंग का मैदान बन रहा है जेएनयू?

5 जनवरी को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) ने फिर सुॢखयाँ बटोरीं, जब देश के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान के अन्दर नकाबपोश आततायियों की भीड़ ने कहर बरपा दिया। भीड़ ने हॉस्टल में तोडफ़ोड़ की, छात्रों और प्रोफेसरों की पिटाई की; लेकिन किसी ने उन्हें रोका नहीं। करीब दो घंटे चली इस गुण्डागर्दी में जेएनयू छात्र संघ की अध्यक्ष आईशी घोष समेत कई छात्र और शिक्षक गम्भीर रूप से घायल हो गये।

दक्षिणपंथी भीड़ के इस आतंक ने देश भर को सदमे में डाल दिया और जानी मानी हस्तियों ने इस घटना की काफी निंदा की। पुलिस की उपस्थिति के बावजूद एक हिंसक भीड़ के इस कृत्य, वह भी राजधानी के बीचों-बीच, ने एक धर्म-निरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत में विश्वास करने वालों के भरोसे को गहरी चोट पहुँचायी है। इस वर्ष छात्रों द्वारा किया गया विरोध-प्रदर्शन पूरी तरह से अलग है। साल 2016 में, इसे भाजपा को दरकिनार करने के लिए एक राजनीतिक तमाशे के रूप में देखा गया था; लेकिन 2019 में अभूतपूर्व विवादों ने छात्र समुदाय को सडक़ों पर आने और अपना स्थान बनाने के लिए प्रोत्साहित किया।

भयावह हिंसा के लिए गुण्डों पर शिकंजा कसने के बजाय, दिल्ली पुलिस ने 4 जनवरी को एक सर्वर रूम में सुरक्षा गार्ड पर हमले और तोडफ़ोड़ के सम्बन्ध में दर्ज एफआईआर में आईशी घोष और 19, जिनमें छात्र और प्रोफेस्सर शामिल हैं, को नामजद कर लिया। छात्र नेता आईशी घोष ने अदालत में अपनी शिकायत में कहा था कि बाहरी लोगों और एबीवीपी से जुड़े छात्रों की भीड़ ने उन्हें डराने और मारने की कोशिश करने की साज़िश रची थी।

घोष ने कहा कि यह एक संगठित हमला था। उन्होंने यह भी दावा किया कि वह उनपर हमला करने वालों को पहचान सकती है, जिन्होंने उसे छड़ से मारा था। घोष ने आरोप लगाया कि परिसर के सुरक्षा गार्ड और हमलावरों के बीच सांठगाँठ थी। उन्होंने कहा कि हमलावरों के विश्वविद्यालय में घुसने पर सुरक्षा से जुड़े लोग परिसर से हट गये थे।

छात्र नेता ने कुलपति जगदीश कुमार के इस्तीफे की माँग करते हुए दावा किया कि वह कुलपति का पद सँभालने में असमर्थ हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि जगदीश कुमार भाजपा नेतृत्व के आदेश पर काम कर रहे हैं। घोष ने इस बात से इन्कार किया कि उन्होंने एबीवीपी के सदस्यों पर हमले का नेतृत्व किया। उन्होंने कहा कि एबीवीपी के नेतृत्व में किया गया हमला सुनियोजित था और इसका उद्देश्य छात्रों के असंतोष की आवाज़ को कुचलना था।

राष्ट्रीय राजधानी पुलिस, जो केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन काम करती है, अभी भी इन हमलावरों को लेकर अँधेरे में है। अभी तक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है। वीडियो के आधार पर और कुछ छात्रों और सोशल मीडिया के उन्हें पहचानने जैसे ठोस सबूत होने के बावजूद, दिल्ली पुलिस ने गुण्डों की गिरफ्तारी की पहल नहीं की या इसके प्रति कोई दिलचस्पी ही नहीं दिखायी।

क्या कहता है विपक्ष?

विपक्ष ने आरोप लगाया कि हमलावरों की भीड़ एबीवीपी के लोगों की थी। उन्होंने विश्वविद्यालय के अन्दर हिंसा को नियंत्रित करने में दिल्ली पुलिस की निष्क्रियता पर भी सवाल उठाया। तहलका संवाददाता को पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने देश में भय और हिंसा का माहौल बनाने के लिए भाजपा को ज़िम्मेदार ठहराया। हिंसा के अगले दिन यूनिवर्सिटी कैम्पस पहुंचे खुर्शीद ने कहा कि भाजपा इस मुद्दे को अपनी साम्प्रदायिक राजनीति से जोडऩा चाहती है; लेकिन कहा कि देश में अल्पसंख्यकों को दबाने के लिए उनकी हिन्दुत्व की विचारधारा का असली चेहरा जनता को पता है। खुर्शीद ने कहा- ‘भाजपा ने विकास का झूठा वादा किया। यहाँ तक कि कुछ लोग इसके झाँसे में आ भी गये। वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने कहा कि जेएनयू हिंसा में सरकार को यह आश्वासन देना चाहिए कि ऐसा फिर कभी नहीं होगा। लेकिन अभी तक एक भी केन्द्रीय मंत्री ने ऐसा नहीं कहा है।’

क्या कहते हैं प्रत्यक्षदर्शी

एमए प्रथम वर्ष की राजनीति विज्ञान की छात्रा मनीषा शुक्ला बताती हैं कि यह तीसरी बार था, जब नकाबपोश पुरुष और महिलाएँ 5 जनवरी को फिर से कैम्पस में प्रवेश कर रहे थे। कुछ गुण्डे साबरमती हॉस्टल पहुँचे और छात्रों को रॉड, हथौड़े और डंडे से पीटना शुरू कर दिया। हमले से बचते हुए, कुछ पुरुष छात्र छात्राओं के विंग में चले गये, लेकिन भीड़ वहाँ भी पहुँच गयी।

मनीषा ने दावा किया कि छात्र रो रहे थे और यह देखकर घबराये हुए थे कि हमलावर उन पर हमला करने के लिए तेज़ाब और अन्य पदार्थ लेकर आये हैं। उन्होंने कहा कि गुण्डे हम पर गालियों की बौछार कर रहे थे। मेरे कुछ दोस्तों ने यहाँ तक कहा कि हमले के दौरान उनका यौन उत्पीडऩ किया गया था।

इसी तरह ज्योति, जो एमए द्वितीय वर्ष की छात्रा है और जिनका वीडियो भीड़ के हमले के ठीक बाद सोशल मीडिया पर सामने आया था; ने कहा कि सशस्त्र गुण्डे शायद पिछले दिन की घटनाओं के कारण भी बेखौफ थे और उसने उन्हें छात्रों पर आतंक फैलाने के लिए प्रेरित किया था।

उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय ने इस वर्ष 1-5 जनवरी के बीच शीतकालीन सत्र के लिए अपनी पंजीकरण प्रक्रिया निर्धारित की थी। 4 जनवरी को दोनों समूहों के बीच हाथापायी शुरू हो गयी जब एक छात्र ने प्रशासन के  बन्द करने के बाद वाईफाई को बहाल करने की कोशिश की।

आश्चर्य की बात यह थी कि भीड़ ने जेएनयू में एक दृष्टिबाधित शोध छात्र सूर्य प्रकाश पर भी दया नहीं दिखायी। उन्हें भी भीड़ की हिंसा का खामियाजा  भुगतना पड़ा। भीड़ के बार-बार आग्रह के बावजूद, उन्हें साबरमती हॉस्टल के अन्दर लोहे की छड़ और लाठी से पीटा गया।

तहलका से घटना को साझा करते हुए प्रकाश ने कहा कि मैं अपने कमरे में काम कर रहा था। जब भीड़ वहाँ पहुँची, तो उन्होंने दरवाज़े पर ज़ोर से लात मारी। इससे ऊपर का काँच ज़मीन पर गिर गया था और इसके कुछ टुकड़े मुझे भी लगे थे।

उन्होंने कहा कि मैंने तुरन्त 100 नम्बर पर कॉल किया; लेकिन पुलिस ने कहा कि मुझे पहले कुछ चोट लगनी चाहिए। तभी वे मुझे बचाने आएँगे। शोध छात्र ने कहा कि तबसे मुझे 8763772… और 8754325… जैसे अज्ञात नम्बरों से अनावश्यक कॉल आ रही हैं। यहाँ तक कि मैंने पुलिस को नम्बरों के बारे में सूचित किया; लेकिन उन्होंने मुझे राष्ट्र विरोधी बताते हुए और यह कहकर मेरी मदद करने से इन्कार कर दिया कि वे मेरे पिटने के बाद ही जाँच शुरू करेंगे।

स्थानीय लोगों को किया परेशान

5 जनवरी की जेएनयू की घटना ने न केवल कई छात्रों को बहुत बुरी तरह घायल कर दिया, बल्कि कई स्थानीय लोग जो कैम्पस के आसपास रहते हैं, वे भी उतने ही भयभीत थे। भीड़ ने आतंक से बचने के लिए महिला छात्रों को आश्रय देने वाले स्थानीय लोगों पर हमला किया। भीड़ ने इन लोगों के दरवाजे तोड़ दिये और भीतर जाने की कोशिश की। उन्होंने स्थानीय लोगों को भी चेतावनी दी कि यदि वे उस क्षेत्र में शान्ति से रहना चाहते हैं, तो असहाय छात्रों की मदद न करें।

तहलका संवददाता ने जेएनयू के उत्तरी गेट के बाहर पास के घरों का दौरा किया, और कुछ मालिकों से बात की, जिन्होंने सशस्त्र भीड़ को उनकी सम्पत्ति को नष्ट करने के लिए दोषी ठहराया है।

50 साल की उम्र के एक स्थानीय निवासी ने टूटे हुए गेट की ओर इशारा करते हुए अपना नाम न छपने की शर्त पर बताया कि जब मैंने रात में नारे सुने, तो मैं अपने बेटे के साथ बाहर आया और हमने देखा कि कुछ छात्र रो रहे थे। मैंने उन्हें साँत्वना देने की कोशिश भी की। वे बहुत डरे हुए थे। मैं और बेटा उनमें से कुछ को घर के अन्दर ले गये।

उन्होंने कहा कि जैसे ही भीड़ ने उन छात्रों के बारे में सुना जो घर के अन्दर थे, तो उन्होंने हमारे घर पर पत्थर फेंकना शुरू कर दिया और हमारे साथ दुव्र्यवहार किया। हम चुप रहे, क्योंकि मेरे बेटे ने मुझे बताया कि वे हमें धमकाने के लिए पत्थर, लोहे की छड़ और लाठी लिये हुए हैं। बाद में करीब आधे घंटे के बाद भीड़ मौके से भाग गयी।

दक्षिणपंथी समर्थक

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) समर्थकों ने एकजुटता दिखाने के लिए जेएनयू के बाहर रैली की। प्रदर्शनकारियों ने खुद को निर्दोष बताया और हिंसा के लिए वामपंथियों पर उँगली उठायी।

एबीवीपी के साथ एकजुटता दिखाने वाले कवि मंजूषा रंजन ने जेएनयू के छात्रों को शैक्षिक केंद्र को युद्ध क्षेत्र में बदलने के लिए ज़िम्मेदार ठहराया। इसी प्रदर्शन का हिस्सा रहीं एक पूर्व सेना अधिकारी की पत्नी ने कहा कि हम अपने देश के कल्याण के लिए कुछ भी कर सकते हैं। सरकार हमें सुनने के लिए है; लेकिन ये देश-विरोधी हमारे देश को एक युद्ध के मैदान में बदलने में सफल नहीं होंगे।

सत्तारूढ़ भाजपा ने भी एबीवीपी का समर्थन करते हुए कहा कि इस पैमाने पर हमला करना उनके लिए सम्भव नहीं था। पार्टी के कई नेताओं ने वामपंथी छात्रों पर दोषारोपण किया और कहा कि वे हर अवसर पर परेशानी पैदा करने के लिए बेताब थे। हालाँकि, कई वीडियो साक्ष्य ने साबित किया कि उस रात मास्क पहनकर छात्रों से मारपीट करने वाले एबीवीपी के कई जाने-माने चेहरे थे। लीक हुए व्हाट्सएप समूह की बातचीत में भी एबीवीपी के छात्रों की साँठगाँठ, हमले की योजना आदि के बारे में विस्तार से पता चला। हमलावर को हमले के वक्त दक्षिणपंथी नारे देश के ‘गदेरों को गोली मारो सा… को’ लगाते हुए भी सुना गया था, जो इस विश्वास को पुष्ट करता था कि वे एबीवीपी के थे।

समर्थन में बॉलीवुड

अभिनेता तापसी पन्नू, स्वरा भास्कर, ऋचा चड्डा, मोहम्मद जीशान अयूब खान, वरुण धवन, सिद्धार्थ मल्होत्रा, फरहान अख्तर और निर्देशक अनुराग कश्यप, अनुभव सिन्हा, विशाल भारद्वाज सहित बॉलीवुड के सितारों की बड़ी संख्या ने जेएनयू छात्रों का समर्थन किया। वे देश भर के कई शहरों में प्रदर्शनकारियों के साथ शामिल हुए।

इससे पहले, अभिनेता मोहम्मद जीशान अय्यूब खान ने इस संवाददाता से बात करते हुए कहा कि यह पूछने में समय बर्बाद न करें कि यह या वह सेलिब्रिटी चुप क्यों है। इसके बजाय, एक साथ खड़े हों। यह मत भूलो कि हज़ारों लोग सडक़ों पर निकल आये हैं।

हमले में गम्भीर रूप से घायल आईशी घोष के साथ एकजुटता व्यक्त करने के लिए मेगा स्टार दीपिका पादुकोण जेएनयू पहुँचीं, तो लोगों को सुखद आश्चर्य हुआ। सुनील शेट्टी, शत्रुघ्न सिन्हा, ज़ोया अख्तर, दिया मिर्ज़ा, राहुल बोस, अली फज़ल, सुधीर मिश्रा, सौरभ शुक्ला, स्वानंद किरकिरे सहित बॉलीवुड के कई और सितारों ने भी जेएनयू के छात्रों के साथ एकजुटता व्यक्त की और केंद्र से तत्काल कदम उठाने का आग्रह किया और माँग की कि दोषियों की पहचान करें और कानून का शासन बहाल किया जाए।

जेएनयू के छात्रों पर हुए बर्बर हमले ने भारतीय शहरों में लाखों नागरिकों को बड़ी संख्या में सडक़ों पर उतरने के लिए मजबूर किया है। देश भर से रिपोट्र्स आयीं, कई जाने-माने कॉलेजों और विश्वविद्यालयों ने भी हमले के पीडि़तों के लिए न्याय की माँग करते हुए विरोध-प्रदर्शन में हिस्सेदारी की। जेएनयू के वीसी के निष्कासन के लिए माँग ज़ोर पकड़ रही है; जो छात्रों पर हमले को रोकने और जाँच में कोई पहल करने में बुरी तरह विफल रहे हैं।

आयुर्वेदिक हेपेटाइटिस थैरेपी से हेपेटाइटिस बी तथा सी का इलाज सम्भव

आज जहाँ आधुनिक चिकित्सा विज्ञान अति गम्भीरावस्था में पहुँच चुके रोगियों को उपचार देने से हाथ खड़े कर देता है, ऐसे में 4000 वर्ष पुरानी भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद की कारगरता आज भी बरकरार है। दिल्ली के 47 वर्षीय राज जैन ने एक संवाददाता सम्मेलन में बताया कि कुछ वर्ष पूर्व उनका एक ऑप्रेशन हुआ था, जिसके बाद उनको संक्रमित रक्त चढ़ाने से हेपेटाइटिस सी का संक्रमण हुआ और पीलिया रोग हो गया। देश के बड़े-से-बड़े हस्पतालों में इलाज करवाया गया लेकिन मर्ज़ बढ़ता ही गया।

आखिर में स्थिति यह हुई कि जिगर भी सिकुड़ गया तथा पेट में पानी भरने से पेट फूल गया। ऐलोपथिक डॉक्टरों ने इसे सिरोसिस ऑफ लिवर तथा ऐसाइटिस रोग बताकर यह कह दिया की इसका पूरी दुनिया में कोई इलाज सम्भव नहीं है। फिर उन्हें आयुर्वेदिक चिकित्सक डॉक्टर हरीश वर्मा का पता चला और उनका इलाज शुरू किया। डॉक्टर वर्मा की दवाइयों से दो सप्ताह के भीतर फूला हुआ पेट ठीक हो गया तथा पानी भरना बन्द हो गया। जहाँ एक बूँद पानी की अन्दर नहीं जाती थी, वहाँ अब राज जैन पूरा खाना खाती है तथा सैर भी करती है।

डॉक्टर हरीश वर्मा से जब उनकी दवाइयों के बारे में पूछा गया, तो उन्होने बताया कि हेपेटाइटिस सी का संक्रमण होने से रोगी को अत्यन्त थकावट महसूस होती है तथा पीलिया रोग हो जाता है। यदि उसका ठीक ढंग से इलाज न किया जाए, तो रोगी का जिगर सिकुड़ जाता है तथा सिरोसिस रोग हो जाता है। इस रोग को आयुर्वेद के प्राचीन गन्थों में यकृद्धाल्योदर कहा गया है। सिरोसिस के बाद रोगी को जलोदर यानी ऐसाइटिस हो जाता है तथा कभी-2 लिवर में कैन्सर भी हो जाता है। आजकल खून की जाँच करके हेपेटाइटिस सी का पता शुरुआती अवस्था में ही लगाया जा सकता है।

डॉक्टर वर्मा ने कहा कि मैंने आयुर्वेद के प्राचीन चिकित्सा ग्रन्थों के आधार पर ही आयुर्वेदिक हेपेटाइटिस थैरेपी ईज़ाद की है। इस थैरेपी के दौरान तीन प्रकार की जड़ी बूटियों के समूह एक ही समय पर दिये जाते हैं।

 प्रथम समूह मेंं भूमी-आँवला, गिलोय, कालमेघ आदि दिये जाते हैं जो कि रक्त में वायरस के स्तर को कम करते हैं। दूसरे समूह में पुनर्नवा, भृंगराज, मकोय आदि दिये जाते हैं, जो कि जिगर की क्षतिग्रस्त कोषिकायों को नया बनाते हैं।  तीसरे समूह में मूली, अपामार्ग, अर्क, चिरायता आदि दिये जाते हैं, जो कि जिगर में से विजातिय द्रव्यों को निकालकर जिगर की कार्यक्षमता को बढ़ाते हैं। बकौल डॉक्टर वर्मा हेपेटाइटिस सी के रोगियों के लिए आयुर्वेदिक हेपेटाइटिस थैरेपी ऐलोपेथिक दवाइयों इन्टरफिरोन तथा रिबावाइरिन’ के मुकाबले में बहुत ही सस्ती है तथा उनका शरीर पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पडता। डॉक्टर वर्मा ने कहा अब तक आयुर्वेदिक हेपेटाइटिस थैरेपी से हेपेटाइटिस ए, बी, सी तथा सिरोसिस के हज़ारों रोगियों को लाभ हुआ है।

आईसीएमआर जैसी संस्थाओं की भूमि-आँवला, कालमेघ, गिलोय कुटकी आदि पर रिसर्च करके उन्हें पेटेन्ट कर लेना चाहिए अन्यथा यह जडी बूटियाँ भी नीम और हल्दी की तरह विदेशियों के हाथ में चली जाएँगी।

जंग होगी या टलेगी!

मध्य पूर्व फिर सुॢखयों में है, लेकिन खराब खबरों के लिए। अमेरिका और ईरान में तनाव चरम पर है। अमेरिका ने ईरान के टॉप कमांडर कासिम सुलेमानी को जब मार गिराया और ईरान ने बदले में ईराक स्थित अमेरिकी ठिकानों पर मिसाइल दागे तो साफ हो गया कि यह तनाव किसी भी वक्त एक युद्ध में बदल सकता है। ज़ाहिर है इस तनाव को लेकर दुनिया भर में चिन्ता है, और बहुमत चाहता है कि शान्ति बहाल हो जाए। हालाँकि िफलहाल तनाव कम हो गया है और उम्मीद की जा रही है कि अब युद्ध नहीं होगा। लेकिन फिर भी वाक्युद्ध जारी है, जिससे फिर तनाव पैदा हो सकता है।

पिछले साल जुलाई में जब ईरान ने कहा था कि उसने अमेरिकी खुिफया एजेंसी सीआईए के 17 जासूसों को पकड़ा है और उन्हें फाँसी दे दी है, तभी यह तय हो गया था कि दोनों देशों के बीच पिछले कुछ महीनों से पक रहा तनाव अब और गम्भीर रुख ले सकता है। ऐसा नहीं कि अमेरिका और ईरान के बीच यह तनाव कुछ ही महीनों या कुछ वर्षों पुराना हो। यह तनाव तो कई दशक से पक रहा है। इस तनाव ने दुनिया भर को चिन्ता में डाल दिया है। बीते साल ही इसकी आहट मिल गयी थी, लेकिन किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि नया साल शुरू होते ही मध्य पूर्व ही नहीं खाड़ी में भी युद्ध के बादल मँडराने लगेंगे। ईरान ने ऐसी धमकी भी दी है कि दुबई और इज़रायल को भी निशाने पर लिया जाएगा। ज़ाहिर है थोड़ा-सा भी मामला गड़बड़ हुआ, तो पूरी दुनिया की शामत आ जाएगी।

िफलहाल तो मध्य पूर्व (मिडल ईस्ट) में हालात खराब होते दिख रहे हैं। इसकी शुरुआत इस साल तब हुई, जब अमेरिका ने ईरानियन रिवोल्‍यूशनरी गार्ड के मेजर जनरल और कमांडर कासिम सुलेमानी को एक ड्रोन हमले में मार गिराया। सुलेमान की हत्या ने ईरान में तूफान ला दिया। सुलेमानी के बारे में ईरान में यह माना जाता है कि वे ईरान में देश के राष्ट्रपति हसन रूहानी से भी ज़्यादा लोकप्रिय थे।

साल 2018 में बाकायदा एक सर्वे में यह सामने आया था कि सुलेमानी रूहानी से कहीं ज़्यादा लोकप्रिय हैं। यह सर्वे और किसी ने नहीं, बल्कि ईरान की ही एक पोलिंग एजेंसी ने कराया था; जिसमें ईरान की 83 फीसदी जनता ने अपना मनपसंद नेता माना था। ऐसे सुलेमानी की मौत ने मानों ईरान में बज्रपात कर दिया। ईरान ने इसका बदला लेने की चेतावनी देने में देर नहीं की। ईरान के धार्मिक नेता खामनेई तो उसे ‘क्रान्ति का ज़िन्दा शहीद’ कहते थे।

सुलेमानी सरकार के वफादार थे और इतनी लोकप्रियता के बावजूद उन्होंने हमेशा कहा कि उनकी ईरान का राष्ट्रपति बनने की कोई इच्छा नहीं। वे समानांतर सरकार भी नहीं थे; लेकिन फिर भी वे देश के हीरो थे। उनके एक वाक्य ने उन्हें देश का हीरो बना दिया था। यह था अमेरिका को दी चेतावनी। इसमें सुलेमानी ने कहा था- ‘ट्रम्प ने युद्ध शुरू किया, तो उसे खत्म हम करेंगे।’ अमेरिका के प्रति उनकी नफरत अपने देश में उनकी सबसे बड़ी ताकत थी। यह कहा जाता है कि सुलेमानी के शव की पहचान उनके हाथ में पहनी अँगूठी से की गयी थी।

सुलेमानी की मौत के बाद ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खामनेई ने ब्रिगेडियर जनरल इस्माइल गनी को रिवॉल्यूशनरी गाड्र्स का नया कमांडर तैनात किया है। गनी यह पद सँभालने से पहले रिवॉल्यूशनरी गाड्र्स के डिप्टी कमांडर थे। गनी अब देश की सेनाओं के प्रमुख के रूप में नियुक्त हो गये हैं।

ईरान की धमकी

अमेरिकी हमले, जिसमें सुलेमानी और कई अन्य अधिकारियों की मौत हो गयी; के बाद ईरान ने इसका बदला लेने की धमकी दी। इसके बाद, ज़ाहिर है, पूरी दुनिया में चिन्ता की लहर दौड़ गयी। ईरान ने बगदाद में दो अमेरिकी सैन्य ठिकानों पर 22 मिसाइलें दागीं। इसके बाद ट्रम्प ने कहा कि ईरान पर और कड़े प्रतिबन्ध लगाये जाएँगे और उसका परमाणु शक्ति बनने का सपना पूरा नहीं होगा। ईरान ने दावा किया कि इसमें 80 लोग मारे गये हैं, लेकिन अमेरिका ने इसे गलत करार दिया। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने बाकायदा एक सन्देश में कहा कि ईरान का दावा झूठा है।

लेकिन यह मानना गलत होगा कि ईरान चुप बैठ जाएगा। बगदाद में अमेरिकी दूतावास ने अपने नागरिकों से तत्काल ईराक छोड़ देने को कहा। अमेरिका की इस एडवाइजरी के बाद ईराकी तेल कम्पनियों के अमेरिकी कर्मचारी वापस लौटने शुरू हो गये। भारत ने भी ऐसी ही सलाह अपने नागरिकों को दी। ब्रिटिश विदेश मंत्री डोमिनिक राब ने अपने नागरिकों को कहा कि वे ईराक से लौट आएँ।  ब्रिटेन ने मध्य-पूर्व में अपने सैन्य अड्डों पर भी सुरक्षा बढ़ा दी। ब्रिटेन को अमेरिका का सैनिक भागीदार माना जाता है और उसके ईराक में 375 से ज़्यादा सैन्य अधिकारी हैं। इस तनाव के बीच इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ग्रीस का दौरा बीच में छोडक़र अपने देश लौट आये। ईरान धमकी दे चुका है कि इस्राइल पर भी हमला किया जाएगा। लिहाज़ा देश की सेना को हाई अलर्ट पर रखा गया है।

बहुत से विशेषज्ञ मानते हैं कि वर्तमान तनाव से हालात बिगड़ सकते हैं। इसका कारण सुलेमानी को लेकर ईरान के लोगों का प्यार है। वे उनकी मौत से बहुत विचलित हैं और इसका मनोवैज्ञानिक दबाव ईरान सरकार पर है। भले कुछ दिन से मामला शान्त दिख रहा है; लेकिन भीतर ही भीतर क्या पाक रहा है, इसे कुछ नहीं कहा जा सकता है। ईरान के जवाबी हमलों से इज़राइल पर भी असर पड़ेगा। अमेरिका का इतिहास रहा है कि वह दूसरे देशों की धरती पर अपने दुश्मनों से लड़ता है। ईरान चूँकि अमेरिकी कार्रवाई को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद की संज्ञा दे चुका है, वह चुप बैठने वाला नहीं है और बगदाद में उसने अमेरिकी हिकानों पर मिसाइलों से जो हमला किया था, वह उसकी पुनरावृत्ति कर सकता है। या किसी और ठिकाने या देश (अमेरिकी मित्र देश) को अपना निशाना बना सकता है।

ऑब्‍जरवर रिसर्च फाउंडेशन के प्रोफेसर हर्ष वी पंत का कहना है कि हो सकता है कि ईरान अमेरिका से सीधी लड़ाई से बचे; लेकिन वह आने वाले समय में अमेरिका के  समर्थकों या मित्र सेनाओं को निशाना बना सकता है। पंत कहते हैं कि बड़े युद्ध के बारे में नहीं किया जा सकता, लेकिन सीमित युद्ध की सँभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। पंत कहते हैं- ‘हो सकता है कि िफलहाल खाड़ी युद्ध की तरह हालात खराब न हों; लेकिन एक सीमित दायरे के युद्ध की बहुत ज़्यादा सम्भावनाएँ हैं। यदि ऐसा हुआ, तो इसका भी व्यापक असर होगा।’

ईरान के लिए अमेरिका से बड़े स्तर का टकराव लेना इसलिए सम्भव नहीं दिखता कि उसकी अर्थ-व्‍यवस्‍था लगभग डाँवाडोल हालत में है। वहाँ रिफॉर्मिस्‍ट काफी दबाव में हैं। लेकिन इसके बावजूद ईरान-अमेरिका तनाव िफलहाल जल्दी खत्म होने वाला नहीं है। अमेरिका लम्बे समय से अपने हाथ खींचे हुए था; लेकिन अब उसने ईरान के िखलाफ कार्रवाई कर दी है तो ईरान भी चुप नहीं बैठ सकेगा।

ईरान और अमेरिका के बीच इस तनाव का सबसे ज़्यादा नुकसान ईराक को झेलना पड़ सकता है, जो एक तरह से दोनों के बीच घुन की तरह पीस रहा है। सच यह है कि ईराक अमेरिका और ईरान के बीच नया युद्ध क्षेत्र बन गया है। ईराक में अंदरूनी राजनीति बहुत तनाव भरी है; क्योंकि जनता सरकार के िखलाफ पिछले लम्बे समय से विरोध-प्रदर्शन कर रही है। शिया-सुन्‍नी का टकराव वहाँ पहले से है। जानकार मानते हैं कि अपने नेता सद्दाम हुसैन की मौत के बाद ईराक अब तक का सबसे बड़ा दबाव झेल रहा है।

ईरान-अमेरिका के बीच तनाव का इतिहास है पुराना

ईरान और अमेरिका के बीच तनाव का इतिहास पुराना है। करीब 40 साल पहले जब 1979 में ईरानी क्रांति का आरम्भ हुआ। उस समय ईरान के सुल्तान रेज़ा शाह पहल्वी को हटाने की योजना बनी। यह दिलचस्प है कि सुलतान को इससे करीब 18 साल पहले अमेरिका की सहायता से ही ईरान का ताज मिला था।

अपने काल में शाह अमेरिका के प्रति काफी नरम तो रहे; लेकिन उनकी छवि एक अत्याचारी शाह की रही। इसका नतीजा यह हुआ कि राण के धार्मिक गुरु शाह के िखलाफ लामबंद हो गये। आिखर 1979 में शाह को भागकर अमेरिका शरण लेनी पड़ी। इसके साथ ही धर्म गुरु अयातोल्लाह रूहोलियाह खोमिनी कई धार्मिक संगठनों और कट्टरवादी छात्रों के उनके साथ आने से बहुत ताकतवर हो गये और ईरान में इस्लामिक रिपब्लिक कानून लागू कर दिया गया।

कुछ ही समय बाद नवंबर में ईरान की राजधानी तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर हमला हो गया, जिसमें 66 लोगों को बन्धक बना लिया गया। बाद में कुछ को तो छोड़ दिया गया; लेकिन 52 लोग लम्बे समय तक दूतावास में ही बन्धक बनाकर रखे गये। अमेरिका ने इसे विएना सन्धि के िखलाफ बताया और सैनिक कार्रवाई से बन्धकों को छुड़ाने की नाकाम कोशिश की। उलटे इस कार्रवाई में आठ अमेरिकी सैनिक और एक ईरानी की मौत हो गयी। इन बन्धकों को  डेड़ साल बाद जाकर छुड़ाया जा सका।

अमेरिका को इस घटना से बहुत फज़ीहत जैसे स्थिति झेलनी पड़ी। एक तरह से उसके ताकतवर अमेरिका होने के उसके एहसास को बहुत बड़ा धक्का लगा। उस समय जिमी कार्टर अमेरिका के राष्ट्रपति थे। ईरानी रेवोल्यूशन के विद्रोहियों ने अमेरिका में इलाज कर रहे सुलतान शाह की वापसी की माँग की; लेकिन अमेरिका ने इसे खारिज कर दिया। इससे ईरान-अमेरिका में तनाव और गहरा गया। ईरान में अमेरिकी लोगों से खराब व्यवहार हुआ और बहुत को देश से बाहर कर दिया गया। इससे ईरान-अमेरिका के रिश्ते बहुत कटु हो गये। इन 40 वर्षों में अमेरिका इस अनुभव को भूल नहीं पाया है और रह-रहकर ईरान के साथ उसका तनाव बन जाता है। वर्तमान स्थिति भी इन्हीं घटनाओं की एक कड़ी है।

प्रमुख रणनीतिकार थे सुलेमानी

अमेरिकी रक्षा मंत्रालय की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि जनरल सुलेमानी पश्चिम एशिया में ईरानी गतिविधियों के प्रमुख रणनीतिकार थे। यही नहीं अमेरिका उन्हें इस्राइल में भी रॉकेट हमलों का आरोपी मानता था। अमेरिका को सुलेमानी की बहुत देर से तलाश थी। यह माना जाता है कि सुलेमानी को मारने के आदेश सीधे राष्ट्रपति ट्रम्प से आये। अमेरिका मानता था कि सुलेमानी बहुत सक्रियता से ईराक में अमेरिकी सेना और राजनयिकों पर हमले की योजना बना रहा था। अमेरिकी रिपोट्र्स बताती हैं कि सुलेमानी अपनी योजनाओं को पूरा करने के लिए  सीरिया और लेबनान में सदस्यों को सक्रिय कर रहा था। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय (पेंटागन) का कहना है कि जनरल सुलेमानी और उसकी कुर्द फोर्स असंख्य अमेरिकी लोगों, जिनमें सैनिक भी शामिल हैं, की मौत का ज़िम्मेदार था।

कई बार उड़ी मौत की खबर

जनरल सुलेमानी की मौत कई बार उड़ी। लेकिन हर बार यह गलत साबित हुई। साल 1999 में जब सुलेमानी को कुद्स सेना के प्रमुख का ज़िम्मा मिला, तो उसकी बाद कई बार उनकी मौत की अफवाह फैली। साल 2006 में उनकी मौत की खबर उड़ी कि उत्तर-पश्चिम ईरान में एक विमान हादसे में वह मारे गये। ऐसी ही खबर 2012 में फैली जब कहा गया कि सीरिया के दमिश्क में बम धमाके में उनकी मौत हो गयी। यह खबर भी बाद में गलत साबित हुई। तीन साल बाद 20156 में अलप्पो में आईएस के िखलाफ अंग में भी सुलेमानी की मौत हो जाने की खबर झूठी निकली। हालाँकि, अब ईरान ने आधिकारिक रूप से यह स्वीकार कर लिया है कि उनका यह ताकतवर जनरल और रणनीतिकार मारा गया है।

ट्रम्प के लिए समस्याएँ

भले अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ईरान के साथ अपनी खुन्नस पूरे करने को कल्तसंकल्प दीखते हों, अपने ही देश में उनके लिए हज़ार समस्याएँ खड़ी हो रही हैं। वे पहले ही महाभियोग प्रस्ताव का सामना कर रहे हैं और अमेरिकी संसद में उनकी शक्तियों पर अंकुश लगाने की गम्भीर   कोशिश होती दिख रही है। ईरान पर अमेरिकी कार्रवाई के बाद कांग्रेस के निचले सदन प्रतिनिधि सभा ने ईरान के िखलाफ सैन्य कार्रवाई के लिए ट्रम्प के अधिकार सीमित करने वाला एक प्रस्ताव पास किया है, जिससे ईरान पर हमला करने के लिए ट्रम्प को सोचना पड़ेगा। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि ट्रम्प की विरोधी डेमोक्रेटिक पार्टी ने आरोप लगाया कि ईरान पर कार्रवाई से पहले ट्रम्प ने संसद को जानकारी ही नहीं दी। अर्थात् संसद को जानकारी दिये बिना ट्रम्प ने ईरान के जनरल सुलेमानी पर ड्रोन हमले की मंज़ूरी दे दी। निचले सदन में प्रतिनिधि सभा अध्यक्ष नैंसी पेलोसी ने इसके बाद अमेरिकी सांसदों को पत्र लिखा, इसमें यह प्रस्ताव किया गया कि राष्ट्रपति ट्रम्प की सैन्य कार्रवाई का दायरा सीमित कर दिया जाए। नैंसी का कहना था कि ट्रम्प प्रशासन ने ईरान के जनरल सुलेमानी की हत्या की और तेहरान के साथ तनाव बढ़ाकर अमेरिका के अधिकारियों, राजनयिकों और अन्य लोगों जा जीवन खतरे में डाला है। वैसे निचले सदन में चूँकि डेमोक्रेट्स का बहुमत है, 224 में से 194 मत प्रस्ताव के पक्ष में पड़े। हालाँकि, ऊपरी सदन सीनेट में चूँकि रिपब्लिकन का बहुमत है, ट्रम्प को ज़्यादा मुश्किल नहीं आएगी। उनके लिए चिन्ता की यही बात रही कि निचले सदन में उनकी अपनी पार्टी के तीन सांसदों ने भी ट्रम्प के िखलाफ मत किया। ट्रम्प के लिए दूसरी बड़ी समस्या ईराक है, जहाँ जनता अपनी सरकार के िखलाफ हो गयी है। इससे बने दबाव में ईराक के कार्यवाहक प्रधानमंत्री अदेल अब्देल महदी ने अमेरिका से अपने सैनिकों को वापस बुलाने के लिए आवाज़ उठानी शुरू कर दी है। ईराक में सरकार के िखलाफ जनता प्रदर्शन कर रही है। ईरान के जनरल सुलेमानी की अमेरिकी हमले में मौत के बाद ईराकी संसद ने बाकायदा एक प्रस्ताव पारित कर अमेरिका से कहा कि वह अपने सैनिक वापस बुलाये। ट्रम्प के लिए इससे बहुत पेचीदी स्थिति पैदा हो सकती हैं, क्योंकि ईराक से सैनिक हटने की स्थिति में उनके लिए ईरान के िखलाफ कार्रवाई मुश्किल काम बन जाएगी। अभी तक तो वह ईराक को इसके लिए इस्तेमाल कर रहा है। उधर यूरोपीय देश भी अमेरिका-ईरान के बीच बढ़ते तनाव से चिन्तित हैं और शान्ति के लिए दबाव बना रहे हैं।

मारे गये बेकसूर

ईरान-अमेरिका के बीच तनाव का ही असर था कि यूक्रेन के एक विमान में बैठे 176 बेकसूर लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी। दरअसल, अमेरिकी ड्रोन हमले के बाद यूक्रेन का एक जहाज़ तेहरान हवाई अड्डे से उड़ान भरते ही हादसे का शिकार हो गया। ईरान ने शुरू में इसे हादसा ही बताया। लेकिन बाद में खुलासा हुआ कि यह विमान तो ईरानी मिसाइल का शिकार हो गया था। हो सकता है तनाव के लम्हों में ईरान की सेना ने इसे अमेरिका के हमले का कोई हिस्सा मान लिया हो। आिखर ईरान ने दुनिया को सच भी बता दिया और इसे एक मानवीय भूल करार देते हुए यूक्रेन, प्लेन में जान गँवाने वाले लोगों के सभी परिजनों से माफी माँगी। ईरान के विदेश मंत्री मोहम्मद जवाद ज़रीफ ने अपने ट्वीट में कहा- ‘दु:खद दिन! अमेरिकी दुस्साहस के चलते पैदा हुए संकट के समय मानवीय चूक के चलते यह दुर्घटना हुई। हमें गहरा दु:ख है। सभी पीडि़तों के परिवारों और अन्य प्रभावित राष्ट्रों से हमारी माफी और संवेदना।’ सम्भवता दुनिया के इतिहास में यह भी एक अकेली घटना होगी, जो युद्ध के हालात में युद्ध का हिस्सा न होते हुए भी हटी और इतने बड़े पैमाने पर लोगों की जान चली गयी।

भारत पर असर

यह दिलचस्प है कि अमेरिका और ईरान के बीच तनाव बढ़ा, तो ईरान ने भारत को कहा कि वह शान्ति की पहल करे। जबकि इससे पहले अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने आरोप लगाया कि ईरानी कमांडर सुलेमानी भारत में एक हमले के लिए भी ज़िम्मेदार रहा था।

ज़ाहिर है अमेरिका और ईरान दोनों ने इस मसले में भारत को बीच में रखने की कोशिश की लेकिन भारत ने तटस्थ रहना बेहतर समझा। लेकिन इसके यह मायने नहीं कि दोनों देशों के बीच तनाव का भारत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। ईरान से तेल का भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा आयातक है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, भारत अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए करीब 40 फीसदी तेल सऊदी अरब और ईरान से आयात करता है। हालाँकि ईरान में रह रहे भारतीयों की संख्या देखी जाए, तो यह बहुत ज़्यादा नहीं। करीब 4500 भारतीय ईरान में हैं।

युद्ध की स्थिति में भारत के सामने बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा। इससे तेल की कीमतें बहुत बढ़ जाएँगी और भारत के सामने मुश्किल स्थिति बन सकती है; क्योंकि युद्ध में तेल के जहाज़ों का आवागमन बन्द हो सकता है।

इसके अलावा एक और बड़ा कारण है, जो खाड़ी में युद्ध को भारत के हक में नहीं मानता। वह यह है कि खाड़ी देशों में भारत के एक करोड़ से ज़्यादा नागरिक रोज़गार के सिलसिले में रहते हैं। युद्ध हुआ तो भारत के ऊपर उनकी रक्षा का बड़ा ज़िम्मा आ पड़ेगा।

नब्बे के दशक में भी खाड़ी के युद्ध में भी भारत के लिए पेचीदी स्थिति बनी थी। तब ईराक ने कुवैत पर हमला कर दिया था। तब भारत सरकार को भारतीयों की मदद के लिए एक बड़ा रेस्‍क्‍यू ऑपरेशन चलाना पड़ा था। उस समय एयर इंडिया के विमानों ने अरीब दो महीने तक लगातार 490 उड़ानें भरकर पोन दो लाख भारतियों को रेस्‍क्‍यू कर भारत लाया था। इसे दुनिया का सबसे बड़ा और लम्बा चला रेस्‍क्‍यू ऑपरेशन माना जाता है।

भारत वैसे भी वर्तमान में गम्भीर आर्थिक हालात का सामना कर रहा है और पिछले दो-तीन साल में यहाँ रोज़गार की स्थिति बेहद चिन्ताजनक हुई है। लाखों युवाओं का रोज़गार चला गया है और ऐसे स्थिति में यदि खाड़ी देशों से भी भारतीय लौटने को मज़बूर होते हैं, तो भारत में बेरोज़गार की पंक्ति और लम्बी हो जाएगी।

मध्य पूर्व में 18 देश आते हैं और यह ऐसे देश हैं, जहाँ भारतीय बड़ी संख्या में रोज़गार के लिए जाते हैं। इन देशों में सऊदी अरब और यूएई भी शामिल हैं जहाँ बड़े पैमाने पर भारतीय रोज़गार के लिए रह रहे हैं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक इन दो देशों में ही करीब 77 लाख भारतीय रोज़गार कर रहे हैं। इसके अलावा कतर, िफलिस्‍तीन, ओमान, लेबनान, कुवैत, जोर्डन, इज़रायल, मिस्र, साइप्रस, बहरीन, अकरोत्री, ईरान, ईराक, यमन, यूएई, तुर्की, सीरिया भी मध्य पूर्व के देशों में शामिल हैं।

सबसे ज़्यादा भारतीय संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में रोज़गार करते हैं। साल 2018 के सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, वहाँ भारतीयों की संख्या 31,05,486 थी। लेकिन अब एक अनुमान के मुताबिक, वहाँ करीब 38 लाख भारतीय हैं। दूसरे नंबर पर सऊदी अरब आता है, जहाँ 2018 में 28,14,568 भारतीय थे, जो अब करीब 33 लाख हो चुके हैं।

कुवैत में भी बहुत भारतीय हैं, जिनकी संख्या 2018 में 9,29,903 थी, जो अब करीब 10 लाख है। करीब इतने ही भारतीय ओमान में हैं, जबकि कतर में करीब सवा सात लाख भारतीय हैं। इन देशों के अलावा बहरीन में करीब दो लाख भारतीय हैं। ईराक में भारतीयों की संख्या करीब 10 हज़ार है। इज़रायल, जार्डन, यमन, लेबनान, साइप्रस,  मिस्र, तुर्की, सीरिया और िफलीस्‍तीन में भी भारतीय काम करते हैं।

इस तरह यह आँकड़ा एक करोड़ से ज़्यादा बैठता है। युद्ध की स्थिति में इनमें से ज़्यादातर को भारत लौटना पड़ सकता है। ईराक के लिए तो भारत पहले ही सुरक्षा एडवाइजरी जारी कर चुका है। युद्ध की स्थिति में इनमें से करीब 10 लाख तो सीधे-सीधे खतरे की जड़ में आ सकते हैं और उनकी सुरक्षा भारत के लिए बड़ी चिन्ता का विषय बन जाएगा।

हमारी सेना ने दुनिया के शीर्ष आतंकी कासिम सुलेमानी को मारा। उसने आतंकी संगठन हिज्बुल्लाह को उसने ट्रेनिंग दी थी। मिडिल ईस्ट में उसने आतंकवाद को बढ़ाने का काम किया था। वह अमेरिकी अड्डों पर हमले की िफराक में था। अमेरिका को अपनी सैन्य ताकत के इस्तेमाल की ज़रूरत नहीं है, उसके आर्थिक प्रतिबंध ही ईरान से निपटने के लिए काफी हैं। ईरान के मिसाइल हमले में हमें कोई भारी नुकसान नहीं हुआ है और न ही किसी अमेरिकी की मौत हुई है। सिर्फ सैन्य ठिकाने को थोड़ा बहुत नुकसान पहुंचा है। मेरे राष्ट्रपति रहते ईरान परमाणु शक्ति सम्पन्न नहीं हो पाएगा और उसे परमाणु ताकत बनने का अपना सपना छोड़ देना चाहिए। ईरान को परमाणु हथियार रखने की अनुमति कभी नहीं दी जाएगी। अमेरिका के पास कई ताकतवर मिसाइलें हैं, लेकिन हम शान्ति चाहते हैं और उनका इस्तेमाल करना नहीं चाहते। अमेरिका ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो चुका है और उसे पश्चिम एशिया के तेल भण्डार की कोई ज़रूरत नहीं है।

डोनाल्ड ट्रम्प, अमेरिका के राष्ट्रपति

भारत ने अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो से खाड़ी क्षेत्र में पैदा हुए हालात के बारे में चर्चा की है। हमने भारत की चिन्ताओं और भारत के हित के बारे में उन्हें बताया है।

एस. जयशंकर विदेश मंत्री, भारत

यह एक थप्‍पड़ है। हम अमेरिका को इस क्षेत्र से उखाड़ फेंकेंगे।

अयातुल्‍ला अली खुमैनी

ईरान के सर्वोच्‍च धार्मिक नेता

अमेरिका यह जान ले कि मेरे पिता का खून बेकार नहीं जाएगा। ‘घटिया’ राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प मारे गये ईरानी नेता की उपलब्धियों को मिटा नहीं सकता है। डोनाल्ड ट्रम्प के पास हिम्‍मत नहीं है; क्‍योंकि मेरे पिता को एक फासले से मिसाइल से निशाना बनाया गया। अमेरिकी राष्ट्रपति को उनके सामने खड़ा होना चाहिए था। हिज़्बुल्ला नेता हसन नस्रल्लाह मेरे पिता की मौत का बदला ज़रूर लेंगे।

ज़ैनब सुलेमानी, जनरल कासिम सुलेमानी की बेटी (एक टीवी इंटरव्‍यू में)

प्रियंका की सक्रियता से विरोधी बेचैन!

उत्तर प्रदेश में प्रियंका गाँधी जब नागरिकता कानून विरोधी कानून के प्रदर्शनों के दौरान हुई हिंसा के पीडि़त परिवार से मिलने पहुँचीं, तो बसपा प्रमुख मायावती ने टिप्पणी की कि कांग्रेस महासचिव को राजस्थान के अस्पताल में जान गँवाने वाले बच्चों के परिजनों से भी मिलना चाहिए। उससे पहले ‘भगवा’ को लेकर उनकी टिप्पणी पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तरफ से भी प्रियंका को लेकर ब्यान आया। इसके बाद कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई ने पीएम मोदी के गृह क्षेत्र वाराणसी के संस्कृत कॉलेज के छात्र चुनाव में सभी सीटें जीतकर सबको चौंका दिया।

कांग्रेस के भीतर इन टिप्पणियों को लेकर उत्साह है; क्योंकि पार्टी के रणनीतिकार मानकर चल रहे हैं कि प्रियंका की सक्रियता को नोटिस किया जा रहा है। प्रियंका भले उत्तर प्रदेश की प्रभारी हों, उनकी सक्रियता दिल्ली में भी दिख रही है। नागरिकता कानून विरोधी आन्दोलन के दौरान वे छात्रों के बीच तो गयी ही हैं, ट्वीट के ज़रिये मोदी सरकार पर लगतार हमला भी बोल रही हैं। इससे पहले प्रचार के लिए वे झारखंड भी गयी थीं। देखा जाये तो प्रियंका गाँधी नागरिकता कानून विरोधी आन्दोलन के दौरान राहुल गाँधी के मुकाबले प्रियंका गाँधी कहीं ज़्यादा सक्रिय दिखी हैं। इस सक्रियता के चलते प्रियंका गाँधी को ज़बरदस्त मीडिया अटेंशन भी मिली है, जिससे पार्टी में उत्साह है। यह चर्चा रही है कि यदि राहुल गाँधी नहीं माने, तो कांग्रेस का ज़िम्मा प्रियंका गाँधी के कन्धों पर डाला जा सकता है। लिहाज़ा प्रियंका की इस सक्रियता को इसके पूर्वाभ्यास के रूप में देखा जा रहा है।

तहलका की जानकारी के मुताबिक, प्रियंका गाँधी को िफलहाल उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की ज़मीन मज़बूत करने का ज़िम्मा पार्टी की तरफ से मिला है। उन्हें विधानसभा चुनाव से पहले संगठन को सक्रिय करना है, जो पिछले वर्षों में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुँच चुका है। निश्चित ही उनके आने के बाद उत्तर प्रदेश में मृत पड़ी कांग्रेस में काफी सक्रियता दिखने लगी है और कार्यकर्ताओं में उत्साह है। बहुत ज़्यादा सम्भावना है कि यदि प्रियंका सफल रहीं, तो अगले विधानसभा चुनाव में पार्टी उन्हें यूपी में मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में आगे कर सकती है।

प्रियंका का 10 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी जाना इस बात का संकेत है कि वे सीधे-सीधे बड़े नेताओं से भिडऩे के लिए तैयार हैं। प्रियंका गाँधी की सक्रियता से उत्तर प्रदेश में दूसरे राजनीतिक दलों में बेचैनी दिखने लगी है। हाल में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और बसपा प्रमुख मायावती की उन्हें लेकर टिप्पणियाँ इस बात की गवाह हैं।

यह भी दिलचस्प है कि भाजपा प्रियंका के नाम के साथ गाँधी शब्द का इस्तेमाल नहीं करती बल्कि वाड्रा शब्द ही इस्तेमाल करती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि प्रियंका राबर्ट वाड्रा की पत्नी हैं, कांग्रेस कार्यकर्ता और आम लोग भी उनमें दादी इंदिरा गाँधी की छवि देखते हैं। लिहाज़ा प्रियंका के साथ गाँधी उपनाम का इस्तेमाल ज़्यादा प्रचलित हैं। फिर भी प्रियंका खुद अपने नाम के साथ वाड्रा शब्द का इस्तेमाल करती हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि उत्तर प्रदेश कभी राजनीति के लिहाज़ से कांग्रेस के लिए बहुत उपजाऊ रहा है। लेकिन फिर ऐसा सिलसिला बना कि धीरे-धीरे कांग्रेस चौथे पायदान पर जा पहुँची। बसपा और सपा के हिस्से में उसका ज़्यादातर वोट बैंक खिसक गया। प्रियंका इसी वोट बैंक को वापस लाने की जी-तोड़ कोशिश करने में जुट गयी हैं। वे कितनी सफल होती हैं, यह तो आने वाले महीनों में ही ज़ाहिर हो पाएगा।

उत्तर प्रदेश से बाहर की बात की जाए, तो प्रियंका की सक्रियता युवाओं को साथ जोडऩे की दिख रही है। छात्र आन्दोलन उनकी सक्रियता के केंद्र में दिख रहा है और वे पूरी ताकत से उनका समर्थन कर रही हैं। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर ‘तहलका’ संवाददाता को बताया कि जनवरी के दूसरे हफ्ते जब िफल्म अभिनेत्री दीपिका पादुकोण जेएनयू में आन्दोलनकारी छात्रों के बीच अपनी िफल्म ‘छपाक’ के प्रोमोशन के बहाने पहुँची थीं, तो कांग्रेस के उनके समर्थन में ब्यान के पीछे प्रियंका गाँधी ही थीं। यही नहीं, उन्होंने ही आनन-फानन कांग्रेस शासित राज्यों में दीपिका की िफल्म को टैक्स फ्री करने का सुझाव दिया था, जिसे तुरन्त लागू किया गया। दीपिका के समर्थन के पीछे प्रियंका गाँधी की यह सोच थी कि दीपिका के जेएनयू आने पर भाजपा के विरोध का गलत संदेश युवाओं में गया है।  इसके पीछे तर्क यह रहा कि कहीं भी जाना दीपिका का मौलिक अधिकार है और इसका विरोध कर भाजपा गलत कर रही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि दीपिका का विरोध हिन्दूवादी संगठनों तक ही सीमित रहा और आम लोगों ने इसे लेकर कोई विपरीत टिप्पणी शायद ही की। इसके बाद भाजपा के नेता भी इस मुद्दे पर खुलकर बोलने से परहेज़ करते दिखे।

युवाओं पर प्रियंका गाँधी का फिक्स एक रणनीति के ही तहत है। पिछले दोनों लोकसभा चुनावों में युवाओं का भाजपा, खासकर पीएम मोदी को भरपूर समर्थन मिला है। लेकिन हाल के नागरिकता कानून और एनआरसी के विरोध में हर वर्ग के युवाओं के सामने आने से भाजपा में जो बेचैनी फैली है, प्रियंका उसे भुनाना चाहती हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि युवाओं का उनके प्रति आकर्षण रहा है। इसलिए प्रियंका ने पूरी तरह युवाओं पर फोकस कर दिया है। वे रोज़गार से लेकर देश की खराब आर्थिक हालत पर फोकस कर यह बता रही हैं कि बसे बुरा असर युवाओं पर ही पड़ेगा। इसमें कोई शक नहीं कि रोज़गार की हालत बेहद खराब है और लाखों युवाओं का रोज़गार पिछले दो-तीन साल में चला गया है।

इसके अलावा युवाओं में इस बात को लेकर भी आक्रोश है कि आन्दोलन करने पर उन्हें भाजपा के नेता देशविरोधी, मुसलमानों का विरोध और पाकिस्तान समर्थित आन्दोलन बता देते हैं। उनका मानना है कि नागरिकता कानून और एनआरसी के िखलाफ आन्दोलन में हर धर्म और वर्ग के छात्र शामिल हो रहे हैं। लिहाज़ा इसे मुसलामानों का आन्दोलन बता देना गलत है और छात्रों में इससे गुस्सा बढ़ रहा है। मोदी सरकार के लिए इसे चिन्ता का बड़ा कारण माना जा सकता है। कांग्रेस और प्रियंका गाँधी भी इसे समझ यहीं हैं, लिहाज़ा उन्होंने छात्रों के आन्दोलन पर काफी ज़्यादा फोकस कर रखा है। आन्दोलन को लेकर कांग्रेस पूरी तरह छात्रों के साथ दिख रही है। प्रियंका उत्तर प्रदेश और दिल्ली, दोनों जगह, छात्रों को लेकर बहुत ज़्यादा सक्रिय हो चुकी हैं। ट्वीट से लेकर व्यक्तिगत उपस्थिति को वे सुनिश्चित कर रही हैं, जिससे विरोधियों में निश्चित ही बेचैनी है। उनके प्रियंका पर राजनीतिक आक्रमण वाले बयान ज़ाहिर करते हैं कि प्रियंका की सक्रियता और लोगों से मिल रहे समर्थन से उनमें बेचैनी है। हालाँकि, इस सबके बावजूद प्रियंका के सामने बड़ी चुनौती है। कांग्रेस का भले देश भर में वोट बैंक हो, आजकी तारीख में कांग्रेस को सक्रिय कर भाजपा के मुकाबले लाना कोई छोटी चुनौती नहीं है।

यूपी में प्रियंका की मुश्किलें

यूपी की प्रभारी के नाते प्रियंका की बड़ी चुनौतियाँ हैं। पिछले चार लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने देश के सबसे बड़े लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में क्रमश: 10 (1999), 09 (2004), 21 (2009) और 02 (2014) जीती हैं। साल 1985 में कांग्रेस ने सबसे ज़्यादा 82 (85 में से) और 1977 और 1998 में एक भी सीट नहीं जीती। मई, 2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा फिर सबसे ताकतवर पार्टी के रूप में उभरी, जिससे कांग्रेस जैसे दलों के लिए वोट जुटाना मुश्किल हो गया। उसे सिर्फ एक सीट मिली, जबकि भाजपा को 62, बीएसपी को 10 और एसपी को 5 लोकसभा सीटें मिलीं।

साल 1999 में उतर प्रदेश के विभाजन के बाद उत्तराखंड बना और उत्तर प्रदेश की लोक सभा सीटें 85 से 80 हो गयीं। साल 2014 के लोक सभा चुनाव में, जब ब्रांड मोदी के प्रचंड लहर चली, तो भाजपा 42.30 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 71 सीटें जीत गयी। जाहिर है इस प्रचंड एकतरफा लहर में दूसरों के हिस्से भला

क्या बचता? बसपा को एक भी सीट नहीं मिली और वोट मिले 19.60 फीसदी। सपा को सीटें मिलीं 5 और वोट फीसद रहा 22.20, जबकि कांग्रेस को सीटें मिलीं 2 और उसका वोट प्रतिशत 7.50 रहा। हालाँकि, वह तब सपा-बसपा के मुकाबले बहुत कम सीटों पर लड़ी थी।

अल 2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा को वोट मिले 49.56 फीसदी, जबकि बसपा दूसरे नम्बर पर रही और उसे 19.26 फीसदी वोट मिले। सपा को 17.96 फीसदी वोट मिले। अब अगर कांग्रेस की बात करें, तो उसे महज़ 6.31 फीसदी वोट मिले। वोटों का कुल जोड़ देखें, तो यह थे 54 लाख, 57 हज़ार, 269 वोट। इस लिहाज़ से देखें, तो  उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की चुनौती कोई छोटी नहीं है। क्योंकि सबकी नजर प्रियंका गाँधी पर है, यह ज़िम्मा उनका है कि कोई कमाल करके कांग्रेस को फिर से खड़ा कर दें। इसमें कोई दो राय नहीं है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस में आधार है; लेकिन वो दूसरे दलों की तरफ जा चुका है। प्रियंका उसे वापस कांग्रेस में ला पाती हैं; तभी कांग्रेस को वहाँ नया जीवन मिल सकता है। बहुत से राजनीतिक जानकार मानते हैं कि यह लक्ष्य मुश्किल ज़रूर है, असम्भव नहीं। कांग्रेस का एक सोया समर्थक वर्ग उत्तर प्रदेश क्या देश भर में आज भी है। हवा बनी तो कांग्रेस की लॉटरी निकलते देर नहीं लगेगी। ऐसे ही उभार के चलते 2009 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस 21 सीटें जीत गयी थी। इससे यह तो ज़ाहिर हो जाता है कि जनता में अभी भी कांग्रेस का नाम है और वह उसे वापस भी ला सकती है।

प्रियंका के सक्रियता पर बसपा प्रमुख मायावती का बयान इसलिए भी मायने रखता है कि उनके पास आज जो वोट है वह कांग्रेस से ही छिटक कर वहाँ गया है। इसमें दलितों, पिछड़ों से लेकर मुस्लिम वोट तक शामिल है। प्रियंका की सक्रियता से यह वोट बैंक कांग्रेस की तरफ आ सकता है लिहाज़ा मायावती प्रियंका को चुनौती देती  दिखती हैं। सपा ने भले प्रियंका के िखलाफ कभी कोई बयान नहीं दिया, उनकी सक्रियता से चिन्ता, तो उसमें भी है। सपा के पास भी बड़ा मुस्लिम समर्थक वर्ग है। पिछड़े और यादव भी उसे समर्थन करते हैं। कांग्रेस से दरअसल, यूपी ही नहीं पश्चिम बंगाल तक में परहेज़ रहता है; क्योंकि टीएमसी जैसे दल का जन्म भी कांग्रेस की ही कोख से हुआ है। यह सभी क्षेत्रीय दल जानते हैं कि भाजपा के राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर कांग्रेस जनता को भा गयी, तो उनकी अपनी स्थिति राज्यों में गड़बड़ा जाएगी। यह सभी दल क्षेत्रीय होते हुए भी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उपस्थिति बनाये रखना चाहते हैं। हालाँकि सच यह भी है कि उनकी इस महत्त्वाकांक्षा से लोक सभा चुनाव में वोट का बँटवारा हो जाता है, जो सीधे-सीधे भाजपा को लाभ देता है। यदि 2007 के विधानसभा चुनाव की बात की जाए, तो बसपा को 206, सपा को 97, भाजपा को 51 और कांग्रेस को 22 सीटें मिली थीं। इसी तरह 2012 के चुनाव में सपा को 29.15, बसपा को 25.91, भाजपा को 15 और कांग्रेस को 11.63 फीसद वोट विधानसभा चुनाव में मिले थे और इन दलों को क्रमश: 224, 80, 47 और 28 सीटें मिली थीं।  इसी तरह 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 39.7, बसपा को 22.2, सपा को 22.0 जबकि कांग्रेस को 6.2 फीसद वोटों के साथ क्रमश: 312, 19, 47 और 7 सीटें मिलीं। प्रियंका कैसे इस 6.2 फीसदी जैसे कमजोत आंकड़े को बड़े आंकड़े में तब्दील कर पाती हैं, यही बड़ा सवाल है। उनमें क्षमता है लेकिन इसकी परीक्षा होना अभी बाकी है।

प्रियंका की सक्रियताएँ

यूपी हिंसा में पुलिस फायङ्क्षरग में मारे और घायल लोगों से मिलने मुजफ्फरनगर और मेरठ गयीं।

बिजनौर जाने की कोशिश के दौरान पुलिस ने रोक लिया।

सीएए के विरोध में जेल गये समाजिक कार्यकर्ता एसआर दारापुरी के घर गयीं।

इण्डिया गेट के सामने धरने पर बैठीं।

यूपी में पीडि़तों से मिलने स्कूटर पर बैठीं। उनका चालान भी कटा; क्योंकि  वह बिना हेल्मेट के थीं। उन्होंने पुलिस पर उनसे धक्का-मुक्की करने का आरोप लगाया, जो देश में चर्चा बना।

जेएनयू में छात्र गुटों में झड़प के बाद घायल छात्रों और शिक्षकों का हाल जानने  आधी रात को एम्‍स के ट्रामा सेंटर पहुँचीं।

वाराणसी गयीं। संस्कृत कॉलेज चुनाव में जीते एनएसयूआई पदाधिकारियों से  भी मिलीं।

चुनौतियाँ कम नहीं

राहुल गाँधी के अध्यक्ष रहते तीन विधानसभा चुनाव- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़  जीतकर कांग्रेस ने 2014 के चुनाव में मिली हार की धूल झाडक़र अच्छी शुरुआत की थी, जो 2019 के लोक सभा चुनाव में फिर निराशा में बदल गयी। हालाँकि, भाजपा को भी देखें, तो उसका ग्राफ राज्यों के विधानसभा में नीचे आ रहा है, जो कांग्रेस और प्रियंका के लिए उम्मीद जगाता है। उन्हें टीवी में भी काफी स्पेस मिल रहा है। हालाँकि, 2019 के चुनाव में जिस तरह अमेठी में उनके भाई राहुल गाँधी कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए स्मृति ईरानी से हार गये, उससे कांग्रेस को यूपी में निश्चित ही बड़ा झटका लगा जिससे उबरना अभी बाकी है। हालांकि, महाराष्ट्र और झारखंड जैसे राज्य भाजपा के हाथ से निकल जाने के बाद कांग्रेस में उत्साह तो बड़ा ही है। झारखंड में उसकी सीटें 6 से 16 पहुँच गयीं और महाराष्ट्र में उसके विधायक मंत्री बन गये। दिल्ली में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं और साल के आिखर में बिहार में भी। दोनों ही जगह कांग्रेस के लिए बहुत ज़्यादा सम्भावनाएँ नहीं दिखतीं। दिल्ली में आप मज़बूत दिख रही है, जबकि बिहार में कांग्रेस गठबन्धन का ही हिस्सा भर है, अपना कुछ उसके पास नहीं। दिल्ली में प्रियंका प्रचार करेंगी, इसके संकेत हैं। लोकसभा में भी कुछ गिनी चुनी सीटों पर उन्होंने चुनाव प्रचार किया था। तब कांग्रेस के लिए संतोष की यही बात रही थी कि वोटों के हिसाब से भाजपा के बाद वह दूसरे नम्बर पर रही थी। विधानसभा चुनाव में पहले नम्बर पर आना उसके लिए बहुत मुश्किल दिखता है।

भारतीय नृत्य की विविधताएँ

विविधता में एकता भारत को अद्वितीय बनाती है। इसी तरह देश के नृत्यों के बारे में भी राय है, जिनको प्राचीनकाल से पेश किया जाता रहा है। जब हम मध्य प्रदेश के भीमबेटका की गुफाओं में उतारे गये चित्रों को निहारते हैं, तो नृत्य कला का आभास होता है, जो मूर्तियाँ सिंधु घाटी सभ्यता में मिलती हैं, उनमें भी नृत्य के सबूत मिले हैं। भारत में नृत्य की उत्पत्ति से सम्बन्धित पाठ नाट्य शास्त्र में मिलता है, जिसे ऋषि भरत ने लिखा था।

वर्तमान में राष्ट्रीय स्तर पर देश में मान्यता प्राप्त शास्त्रीय नृत्यों के छ: रूप हैं। ये प्रमुख नृत्य हैं- भरतनाट्यम, कथक, कथकली, मणिपुरी, कुचिपुड़ी और ओडिसी हैं।

भरतनाट्यम : कर्नाटक संगीत की खगोलीय धुनों पर प्रस्तुति, भरतनाट्यम का ताल्लुक तमिलनाडु से है। इसकी उत्पत्ति 1000 ईसा पूर्व से माना जाता है। प्राचीन काल में महिलाओं की प्रस्तुति के  रूप प्राचीन मंदिरों से प्राप्त हुए हैं।

कथकली : यह भी परम्परागत नृत्य है, जिसमें कथा सुनायी जाती है। इसका सम्बन्ध दक्षिण के केरल राज्य से है। इसको सर्वाधिक स्थापित और धार्मिक नृत्य माना जाता है। इसकी उत्पत्ति रामायण और शिव की कहानियों के सुनाने के साथ हुई थी।

कथक : इसकी उत्पत्ति कथा शब्द से हुई है, जिसकी जड़ें उत्तर प्रदेश में हैं। इसे प्रेम का नृत्य कहा जाता है; जिमसें महिला और पुरुष दोनों साथ मिलकर खास अंदाज़ में प्रस्तुति देते हैं।

मणिपुरी : पूर्वोत्तर में हिन्दू देवताओं राधा और कृष्ण के बीच रोमांटिक रिश्ते को बयान करने के लिए मणिपुरी नृत्य किया जाता है, जिसे रासलीला कहा जाता है। यह कला रूप पारम्परिक मणिपुरी वेशभूषा और शृंगार के साथ एक टीम के ज़रिये दर्शाया जाता है।

कुचिपुड़ी : इसे सिर्फ आंध्र प्रदेश का नृत्य नहीं माना जाता है, बल्कि इसकी भगवान को समर्पित एक पूरी धार्मिक प्रक्रिया है, जिसमें पवित्र जल छिडक़ने, अगरबत्ती जलाने और भगवान से प्रार्थना करने जैसे कुछ अनुष्ठान शामिल हैं। इसमें नृत्य के साथ गायन भी शामिल होता है।

ओडिसी : ओडिशा में एक लोकप्रिय नृत्य है, जिसमें इशारों और आंदोलनों (मुद्रा) को दर्शाया जाता है। यह नृत्य प्राचीन मंदिरों से सम्बन्धित मूर्तिकारों और मूर्तियों से प्रेरित हैं।

छाउ : छाउ पश्चिम बंगाल का प्रसिद्ध नृत्य है।  हालाँकि यह नृत्य ओडिशा एवं झारखंड में भी प्रसिद्ध है।

इसके अलावा भारत में और भी लोक परम्परा के नृत्य हैं, जो काफी प्रसिद्ध हैं। कई नृत्यों को भारतीय िफल्मों में भी जगह मिलती रही है।

‘खाकी’ की साख पर सवाल

दिन भर अलवर ज़िले के बहरोड का दौरा करने के बाद शाम को जब पुलिस महानिदेशक भूपेन्द्र यादव ने पुलिस लाइन की सम्पर्क सभा में हिस्सा लिया, तो उनके तंज में सने पहले शब्द थे; कुछ पुलिस कर्मियों ने वर्दी पहन कर लूटने की छवि बना ली है। यह बयान उन्होंने बदमाशों द्वारा बहरोड़ थाने पर हमला कर गैगस्टर पपला को छुड़ा ले जाने पर दिया था। पुलिस को जहाँ बदमाशों से जमकर मोर्चा लेना था, वे जान बचाकर भाग छूटे? घटना का पहलू चौंकाने वाला था। पुलिस ने पहले गैंगस्टर को छोडऩे के लिए पपला के साथियों के साथ जमकर सौदेबाज़ी की । सौदा एक लाख तक पहुँच गया। लेकिन सौदेबाज़ी 15 लाख पर अटक गयी। थाने की चाक-चौबंदी ढुलमुल देखकर उनका मन पलट गया और वे हमला कर पपला को ले भागे। बड़ा सवाल है कि पुलिस दूध की घुली थी, तो बदमाशों की धर पकड़ के लिए कंट्रोल रूम से नाकेबंदी क्यों नहीं की जा सकी? पपला को भगाने की योजना को कारआमद करने वाले हैंडकांस्टेबल विजय और राम अवतार को बेशक बर्खास्त  कर दिया गया। लेकिन बड़ा सवाल है कि उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? अपराधियों से पुलिस की सौदेबाज़ी साबित करने वाली ऐसी घटनाओं का कोई अन्त नहीं है।

यह घटना, जिसे सुॢखयाँ लिखने वालों ने लुटेरी पुलिस करार दिया है; इस अवधारणा को पुख्ता करती है कि थानों पर चस्पा स्लोगन, ‘आमजन का विश्वास और बदमाशों में खौफ’ कोरा झूठ है। इस घटना की आँच भी ठण्डी नहीं पड़ी थी कि हथियारबंद चार लुटेरों ने सीकर के कुंदन कस्बे में क्षेत्रीय बड़ौदा बैंक लूट लिया। लुटेरों ने बैंककर्मियों को मारपीटकर कमरे में बन्द कर दिया और डेढ़ लाख रुपये लूटकर भाग गये। दिलचस्प बात है कि इससे पहले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पुलिस अफसरों की बैठक में बदमाशों पर सख्ती और आमजन से संवेदनशील व्यवहार करने की नसीहत देकर हटे ही थे कि खोह नागोरियन इलाके में पुलिस ने सारी हिदायतें दरकिनार कर आम लोगों की जमकर धुनाई कर दी। इस बर्बर लाठीचार्ज में पुलिस ने पत्रकारों को भी नहीं बख्शा। वरिष्ठ पत्रकार लक्ष्मी प्रसाद पंत कहते हैं कि यह घटनाएँ बताती है कि पुलिस किस अँधेरी गुफा में सोयी हुई है। जिस पुलिस को पेशेवर बनाने का ताना-बाना बुना जा रहा है, उस खाकी वर्दी पर कितने दाग और धब्बे हैं? इस तरह की घटनाएँ यहीं तक सीमित नहीं हैं। जोधपुर के सोशल मीडिया पर हथियारबंद गुण्डों 007 का वायरल मैसेज तो सीधा चुनौती देता है- ‘हमसे न टकराना…।’ वरिष्ठ पत्रकार पंत कहते हैं कि राजस्थान की हवा में घुलता अपराध का ज़हर डराने वाला है। इस सवाल के जवाब में कि सूबे में एक के बाद एक संगीन और गम्भीर अपराध हुए है और राष्ट्रीय स्तर की बहस का हिस्सा भी बने? जीडीपी यादव ने स्वीकार किया कि किसी भी घटना का ज़िक्र किये बिना में स्वीकार करता हूँ कि जैसा होना चािहए कुछ मामलों में वैसी कार्रवाई नहीं हुई।

राजस्थान में ड्रग, हथियार, सट्टा और बजरी माफिया पूरी रफ्तार के साथ बढ़ रहा है। इसको बढ़ावा देने के पीछे सरकारी एजेंसियों का बड़ा हाथ होना बताया जा रहा है। मीडिया विश्लेषकों का कहना है कि माफिया से साँठ-गाँठ कर चलने वाले सरकारी महकमों के कई अफसरकर्मियों को मोटी रकम मिल जाती है। इनके िखलाफ सभी महकमों और प्रदेश की संयुक्त सुरक्षा एजेंसी या अन्य विभागों की टीम का गठन नहीं होना भी बड़ा कारण है। माफिया बेरोज़गारों को मोटी रकम कमाने की लालच देकर अपराध के दलदल में धकेल रहे हैं। भ्रष्टाचार ही तो उन्हें सर्वशक्तिमान बना रहा है। लेकिन डीजीपी भूपेन्द्र सिंह कहते हैं- ‘पुलिस सडक़ पर दिखती है, इसलिए सबसे ज़्यादा भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं।’ लेकिन वे कहते हैं- ‘ऐसा कहना भी गलत है कि पुलिस में सबसे ज़्यादा भ्रष्टाचार है।’ हालाँकि यादव अपने कथन को नये सिरे से भी पकड़ते नज़र आते हैं कि  बस लोगों में पुलिस को लेकर यह धारणा बनी हुई है। डीजीपी के इस मुहावरेदार फलसफे को मान लिया जाए, तो मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार को लेकर बार-बार पुलिस निजाम को फटकार क्यों लगा रहे हैं? अपराध शास्त्रियों का कहना है कि इसे केवल धारणा मान लिया जाए, तो पिछले दिनों टोंक ज़िले के पीपलू, जयपुर के कोटपुतली और जोधपुर के बासनी थानाधिकारियों पर एसीबी की कार्रवाई को क्या कहा जाना चाहिए? जो बजरी माफिया की मुरादें पूरी करने का कवच बने हुए थे। गैंगस्टरों के साथ पुलिस का गठजोड़ क्या ‘वर्दीद्रोह’ की श्रेणी में नहीं आता? डीजीपी यादव कहते हैं- ‘वर्दी द्रोह’ बहुत गम्भीर शब्द है। वर्दी द्रोह पुलिस द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार अथवा गलत कामों के आगे की श्रेणी में आता है। मीडिया विश्लेषक कहते हैं कि …तो फिर हाल ही में एक गैंगस्टर की पार्टी में शिरकत करते पाये गये कोटा पुलिस अधीक्षक के निजी सहायक, गनर समेत डेढ़ दर्जन पुलिसकर्मियों को महज़ मुअत्तिल करके क्यों छोड़ दिया गया? क्यों उन्हें बर्खास्त नहीं किया गया? क्यों यह कारस्तानी ‘गलत कामों से आगे की श्रेणी में शुमार नहीं की गयी? ज़ाहिर है उनकी आगे-पीछे बहाली होनी ही है। लेकिन ‘भरोसे’ का तिलस्म तो टूट ही गया? इन दिनों राजस्थान अवैध हथियारों की तस्करी का सबसे मुफीद ठिकाना बन गया है। इनकी खेप सबसे ज़्यादा सरहदी इलाकों में उतर रही है। जो आगे जाकर क्या गुल खिला सकती है? यह कहने की ज़रूरत नहीं? लेकिन सवाल है कि इस चुनौती का चक्रव्यूह तोडऩे में पुलिस क्यों खम ठोकने की स्थति में नहीं है? वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी कहते हैं- ‘अपराधियों का बेखौफ होना आमजन के विश्वास को तोड़ता है। जब लोगों का भरोसा ही नहीं जमेगा, तो पुलिस का इकबाल तो पस्त होना ही है। एक अध्ययन में कहा गया है कि पुलिस आपराधिक घटनाओं की तफ्तीश और कानून-व्यवस्था दो तरह के कामों में तालमेल नहीं बिठा पा रही है। थानों में तैनात जाप्ता अधिकारी ही जाँच करते हैं और वे ही कानून-व्यवस्था की ड्यूटी करते हैं। इसको लेकर तो हाईकोर्ट भी चिन्ता जता चुका है। लेकिन हुआ क्या? व्यवहार को लेकर तो पुलिस पर अक्सर सवाल उठते रहे हैं। लेकिन बदसलूकी की घटनाएँ है कि थमने का नाम नहीं ले रही है। मीडिया विश्लेषकों का दो टूक सवाल है कि आिखर साधन-सोच की जंज़ीरों से पुलिस कब आज़ाद होगी? यहाँ दिल्ली के सेंटर फोर द स्टडी ऑफ डवलपिंग सोसाइटीज का ताज़ा अध्ययन काफी प्रासंगिक है कि किसी भी पुलिस बल का मूलभूत निवेश उसके लोग और संसाधन होते हैं। लेकिन पुलिस बल आज भी इन दोनों ही मोर्चों पर पटखनी खा रहा है। विश्लेषक महेश भारद्वाज कहते हैं- ‘कानून-व्यवस्था की किसी भी स्थिति के लिए पुलिस को दोषी ठहराना कोई नया चलन नहीं है।  क्योंकि असल में तो पुलिस तंत्र की स्थापना ही कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए की गयी थी। लेकिन भारद्वाज कहते हैं- ‘हालात जो भी हो, आिखर तो पुलिस की इस स्थिति के लिए बराबर ज़िम्मेदार तो पुलिस संस्कृति ही है। सवाल है कि कार्य संस्कृति में बदलाव कैसे होगा? अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक रह चुके योगेन्द्र जोशी कहते हैं- ‘पुलिस की सुस्ती ही अपराधियों को सक्रिय कर देती है। शातिर अपराधियों के विरुद्ध जब तक सख्त कार्रवाई नहीं होगी, उनमें भय कैसे पैदा होगा?

वरिष्ठ पत्रकार राजेश त्रिपाठी कहते हैं- ‘दरअसल पुलिस संस्कृति की असली हकीकत तो पुलिस अपराधियों का गठजोड़ है। यह पुलिस निजाम का सबसे बदसूरत चेहरा है। ऐसे में पुलिस आमजन के बीच भरोसे की खातिर तरसेगी नहीं तो क्या होगा?’ बहरहाल इस गठजोड़ के लिए बुरी खबर हो सकती है कि पुलिस सुपर कॉप ने आपरेशन क्लीन चलाने की ठानी है। पुलिस सुप्रीमों का कहना है कि ऐसे लोगों की फेहरिश्त तैयार की जाएगी, जिनका स्वार्थ सेवाओं पर भारी पड़ रहा है। उनका कहना ठहरे हुए पानी में काई जमने की मानिंद है कि वर्षों से एक ही जगह टिके रहने से स्थानीय स्तर पर सम्बन्ध बन जाते हैं। कई मर्तबा हमें पता ही नहीं चलता है कि रिश्ते निभाने की कोशिश में जुटा शख्स कब अपराध में उतर गया? पुलिस सुप्रीमों का यह बयान अगर एक हलफनामें की तरह है, तो उम्मीद की जा सकती है। लेकिन यह ‘मवाद’ जिस खोल में दबा हुआ है, उसे उधेडऩा आसान नहीं होगा? खासकर उस वक्त जब ‘माफिया’ पूरी दबंगई के साथ कानून के दुश्मन बने हुए हैं और पुलिस का इकबाल ढलान की नयी मंज़िलें नाप रहा है? क्या माफिया मुक्त प्रदेश का दावा किया जा सकता है? एक छोटी मिसाल के तौर पर दिन-दहाड़े शहर में दबंगों की जंग छिड़ी, नतीजतन रणवीर चौधरी सरेआम हलाक हो गया? पुलिस को क्या भनक नहीं लगी? राजधानी के सबसे पोश इलाके प्रताप नगर में एक महिला और उसका मासूम कत्लोगारद का शिकार हो गया? पुलिस क्या ऊँघ रही थी? पूर्व डीजीपी ओमेन्द्र भारद्वाज कहते हैं- ‘अपराधों पर रोकथाम तभी हो पाएगी, जब पुलिस में तबादलों और तफ्तीश में राजनीतिक हस्तक्षेप रुकेगा।’ ऐसे में पुलिस अधिकारी जनसेवक नहीं होकर जनप्रतिनिधि सेवक होकर रह जाता है।

असल में सुरक्षा के दावे होना फरेब है, जिसे पुलिस निजाम जितनी शिद्दत से रचती है। माफिया पूरी दबंगई से उसे ध्वस्त कर देता है। बहरहाल, सरकार माफिया की जन्नतों को नोंचने की जुगत में नज़र आ रही है। मुख्यमंत्री गहलोत ने इसके लिए गृह मंत्रालय के अधिकारियों को अभियान चलाने की हरी झंडी दे दी है। उन्होंने संगठित माफिया पर शिकंजा कसने के लिए स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप और सीआईटी (सीबी) को आदेश दिये है। उसके लिए अफसरों से लेकर कांस्टेबलों को अलग से प्रशिक्षण दिया जाएगा। मीडिया विश्लेषकों का कहना है कि बेशक यह सुकून देने वाली खबर है। लेकिन इस पर एत्तमाद रखना पुलिस निजाम के लिए ज़रूरी होगा। क्योंकि सरकारों के अभियान अक्सर समस्याओं में इज़ाफा कर देते हैं। पुलिस महानिदेशक भूपेन्द्र सिंह प्रदेश में सक्रिय संगठित माफियाओं का खाका खींचते हुए भू-माफिया, बजरी माफिया, मानव तस्कर कोचिंग और भर्ती माफिया से लेकर मिलावटखोर माफिया का ज़िक्र तो करते ही हैं। लेकिन दबंगई के साथ खूनी खेल खेलने के महारथी तथा सोशल मीडिया के ज़रिये ब्लेकमेल करने वाले भी इतनी ही दीदादिलेरी के साथ सक्रिय है। सेवानिवृत्त अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक चंद्र सिंह की मानें तो पुलिस के लिए थानों में बैठे रहने की अपेक्षा गश्त ज़रूरी है। इससे लोगों से सम्पर्क बना रहता है। अपराधों पर नियंत्रण तभी हो पायेगा, जब इत्तला मिलते ही कार्रवाई हो?

अच्छे दिनों की ताक में पाक

ईभारतीय उप महाद्वीप में ईरान के िखलाफ पाकिस्तान को फिर अमेरिका का सहयोग देखने को मिल सकता है। पाकिस्तानी प्रतिष्ठान को अमेरिका को अपने पाले में करने के लिए ऐसे मौके के लिए बेसब्री से इंतज़ार में था। ईरान की प्रमुख सेना कुद्स फोर्स के प्रमुख मेजर जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या से अब लगभग दिवालिया हो चुके पाकिस्तान को उम्मीद है कि उसे अमेरिका को समर्थन मिलेगा और उसे सैन्य और वित्तीय सहायता भी मिल सकेगी।  हालाँकि, इससे लोकतांत्रिक संस्थान अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं। इसी के चलते वर्तमान आर्थिक संकट से उबरने के लिए अमेरिका के करीब होने की तत्परता दिखायी है।

26 जनवरी को जहाँ भारत अपने गणतंत्र के सात दशक पूरे होने का जश्न मनाएगा, वहीं दूसरी तरफ 1971 में दो हिस्सों में बँटा पड़ोसी पाकिस्तान अपनी राष्ट्रीयता के 73 साल पूरे करने पर लोकतंत्र के नाज़ुक मोड़ पर पहुँच गया है।  लंदन में रह रहीं पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की पूर्व पत्नी रेहम खान ने सरकार को लेकर कई खुलासे किये हैं। पाकिस्तान में आम चुनाव से पहले प्रकाशित आत्मकथा में उन्होंने लिखा कि संसद के सदस्य बिना रीढ़ वालों की तरह है। पुस्तक में उन्होंने प्रधानमंत्री इमरान खान का असली चेहरा उजागर किया है। उन्होंने दु:ख ज़ाहिर करते हुए लिखा- ‘हम लोकतंत्र के अंतिम संस्कार को देखते हुए ताली बजा रहे हैं, जबकि यह एक उत्सव मनाने की घटना है। फिर भी वह पाकिस्तान के परिदृश्य के नकली राजनीति में शामिल हो गयीं; लेकिन वह देश के नागरिक समाज की अंतर्रात्मा का प्रतिनिधित्व करती है।’

रेहम खान की लिखी पुस्तक से देश में मुश्किल राजनीतिक परिदृश्य के खेल का पता चलता है कि इमरान खान नेशनल अकांउटेबिलिटी ब्यूरो की शक्तियों को किस तरह कमज़ोर कर रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ और पाकिस्तान मुस्लिम लीग के कई नेता भ्रष्टाचार में सज़ा पा चुके हैं। अभी नवाज़ शरीफ इलाज के लिए लंदन में हैं; पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी और मारी गयी नेता बेनज़ीर भुट्टो के पति भी पहले से ही चिकित्सा उपचार के लिए बाहर हैं। अब नवाज़ शरीफ की बेटी मरियम शरीफ भी इलाज के लिए विदेश जाने के इंतज़ार में है।

पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा के सेवा विस्तार करने पर रोक लगा दी। और आदेश दिया कि इस बाबत कानून और सिस्टम के तहत फैसला लें। हालाँकि बाद में सेवा विस्तार में कटौती करते हुए आंशिक रूप से शीर्ष अदालत ने इमरान सरकार को राहत दे दी। कानून में संशोधन की प्रक्रिया को तब अपनाया गया जब अमेरिका के विदेश मंत्री माइकल पोम्पियो और जनरल कमर जावेद बाजवा के बीच वार्ता हुई। यह वार्ता पश्चिम एशिया में बढ़़ते तनाव को लेकर हुई थी, जिसे पोम्पियों ने अपने ट्विटर हैंडल साझा किया था। इस दौरान ईरान के जनरल कासिम सुलेमानी को मारे जाने के बारे में भी बताया था कि वह अमेरिका के िखलाफ साज़िश रच रहा था।

11 सितंबर 2001 में हुए अमेरिका पर आतंकी हमले से पहले  पाकिस्तान और सऊदी अरब अफगानिस्तान में तालिबान के समर्थक हुआ करते थे, जो रणनीतिक रूप से भारत, ईरान और रूस के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है।

9/11 के बाद पाकिस्तान ने जनरल परवेज़ मुर्शरफ के नेतृत्व में तालिबान और अमेरिका की समर्थन नीति को एकदम उलट दिया और तालिबान के िखलाफ आतंकी युद्ध में शामिल हो गया। इसमें अमेरिका को अपने हवाई अड्डे और परिवहन सहायता की सहायता प्रदान की। पाकिस्तान ने 500 अलकायदा के सदस्य को पकडक़र अमेरिका के हवाले कर दिया था। इसके एवज़ में अमेरिका ने पाकिस्तान को भारी आर्थिक मदद देकर डूब रही अर्थ-व्यवस्था में जान फूँक दी थी। अब 18 साल बाद जनरल बाजवा भी अमेरिका से इसी तरह की मदद और सहयोग की उम्मीद कर रहे हैं।

लोकतंत्र का अंतिम संस्कार

माइकल पोम्पियो के साथ हुई बाजवा की बातचीत पर पाकिस्तान की राजनीति के केंद्र में है। अमेरिकी विदेश मंत्री के साथ बाजवा की हुई इस संवेदनशील मुद्दे पर बातचीत के बाद कई पत्रकार और वक्ता इस पर बयान देने से कतरा रहे है। रेहम खान जो कि राजनीतिक कार्यकर्ता रही हैं, वह कहती हैं कि देश में किसी अन्य की तुलना में बाजवा बेहतर राजनेता साबित हो सकते हैं और इसके लिए उन्हें अपने पूर्ववर्ती परवेज़ मुशर्रफ और ज़िया उल हक की तरह मार्शल लॉ लगाने की भी आवश्यकता नहीं होगी।

सेना में शिखर पर बैठे बाजवा की संसद में भी स्थिति बेहतर है, जहाँ पर निर्वाचित प्रतिनिधियों का उनको समर्थन हासिल है। पाकिस्तान की संसद के उच्च सदन ने सेना के प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा के कार्यकाल को तीन साल और विस्तार दिए जाने को मंज़ूरी दी थी। जनरल बाजवा को प्रधानमंत्री इमरान खान का करीबी माना जाता है, सरकार बीते साल से उनके सेवा विस्तार की कोशिश कर रही थी। पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ने संसद में तीन विधेयक पेश किये जिसमें जल, थल व वायु प्रमुखों के सेवा विस्तार की बात की गयी थी। स्ंासद के निचले संसद ने 29 नवंबर 2019, को सेना प्रमुख जनरल बाजवा की सेवा अवधि बढ़़ाने वाला विधेयक पास कर दिया। जनरल बाजवा बीते साल 29 नवंबर को ही रिटायर होने वाले थे। इमरान खान ने 19 अगस्त, 2019 को एक अधिसूचना जारी कर जनरल बाजवा के सेवा विस्तार को तीन साल  बढ़़ा दिया। हालाँकि पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने इमरान खान के इस आदेश को रद्द कर दिया; बाद में शीर्ष अदालत ने यह सेवा विस्तार 6 महीने बढ़़ाने पर मंज़ूरी दे दी। सरकार ने कुछ विपक्षी पार्टियों को विश्वास में लेकर सैन्य अधिकारियों की सेवानिवृत्ति अवधि जो कि मौज़ूदा समय में पाकिस्तान की नौसेना, वायुसेना और थल सेना की उम्र 60 से बढ़ाकर 63 वर्ष करने का फैसला किया। सांसदों के पैनल में शामिल पाकिस्तान के रक्षा पैनल ने मंज़ूरी दी थी जिसे बाद में सदन के पटल पर रखा गया। पाकिस्तान के रक्षा मंत्री परवेज़ खटक ने तीन बिल- पाकिस्तान सेना संशोधन अधिनियम 2020, पाकिस्तान वायु सेना संशोधन अधिनियम 2020, पाकिस्तान नौसेना संशोधन अधिनियम 2020 पेश किया, जो मुस्लिम लीग-नवाज़ और पीपुल पार्टी के समर्थन से आसानी से पारित हो गए। हालाँकि, जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम फज़ल और जमीयत-ए-इस्लामी ने इन संशोधन अधिनियम का बहिष्कार किया।

पाकिस्तान बार काउंसिल ने वर्तमान सेना प्रमुख के विस्तार को बढ़ाने पर कानून पास किए जाने को लेकर चिन्ता जतायी। इसमें कहा गया कि ‘किसी भी संस्था में विस्तार दिये जाने से संस्था कमज़ोर हो जाती है।’ इससे व्यक्ति विशेष और नीति निर्माता के प्रतिनिधि लोकतंत्र की भावना के िखलाफ जाती है। किसी भी संस्थान में परिवर्तन बेहद अहम होता है और यह संस्था पर संक्रमण करने से बचाने में भी अहम होता है।’ काउंसिल की ओर से कहा गया कि हमें अतीत की गलतियों को नहीं दोहराया जाना चाहिए। हमारा इतिहास शक्तिशाली पदों पर काबिज़ लोगों के सेवा विस्तार से हुए नुकसान के उदाहरण से भरा हुआ हैै। अपने बयान में पीबीसी ने कहा कि असाधारण उपायों को सही ठहराने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तरीके लोकतंत्र के लिए उचित करार नहीं दिए जा सकते। रेहम खान के शब्दों में कहें तो राजनेता लोकतंत्र की हत्या का जश्न मना रहे हैं; क्योंकि इससे रक्षा प्रतिष्ठान को साझा करना सुनिश्चित हो जाएगा, जिससे लोगों की शायद ही कोई भूमिका रहे। हालाँकि इससे देश के भविष्य को नुकसान हो सकता है।

सत्ता के केंद्र में बाजवा

रेहम खान के विश्लेषण के हिसाब से िफलहाल सत्ता के केंद्र में जनरल बाजवा हैं, जिन्होंने यह साबित किया है कि उनकी राजनीतिक प्रवृत्ति जनरल जिया-उल-हक और परवेज़ मुशर्रफ से भी बेहतर है। बाजवा को पाकिस्तानी सरकार की ओर से बिना विरोध किये असीमित शाक्तियां मिली हुई हैं। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के अनुसार, ब्रिटेन ने भारत के धार्मिक आधार पर दो हिस्सों में विभाजित किया था। इस अधिनियम को 18 जुलाई 1947 को मंज़ूरी मिली थी। 1971 में भारत-पाकिस्तान के बीच सैन्य संघर्ष हुआ, जिसमें पाकिस्तान को हार मिली। पूर्वी पाकिस्तान आज़ाद होकर बांग्लादेश के रूप में एक नया देश बना। हालांकि इस बीच, सेना निर्णायक राजनीतिक ताकत बनी रही और पाकिस्तान के बचे हुए पश्चिमी विंग को अलग कर दिया गया। प्रधानमंत्री जुल्िफकार अली भुट्टो ने जिया उल हक को चीफ  ऑफ  आर्मी स्टाफ नियुक्त किया। जिया ने भुट्टो को एक सैन्य त तापलट में शामिल कर लिया और इन्हें जुलाई में मार्शल घोषित किया। बाद में तानाशाह जिया-उल-हक ने भुट्टो को फाँसी पर चढ़ा दिया था।

अमेरिकी नेता पाकिस्तान की ज़रूरत और लालच से भली-भाँति परिचित हैं। करीब 95 फीसदी की आबादी वाले सुन्नी पाकिस्तानियों को शियाओं के प्रति किसी भी तरह का लगाव नहीं है। वे पाकिस्तान से शियाओं को बाहर निकालना चाहते हैं। यह सही है कि औपनिवेश्कि भारत में शिया मुसलमान हिंदुस्तान के बँटवारे के आंदोलन की आज़ादी में सबसे आगे थे और बेरहमी से हत्या के लिए भी चर्चित रहे। अगर उनकी मानें कि अगर तीन लाख बंगाली सुन्नी मुसलमानों और चार लाख महिलाओं को सेना निकाल सकती है तो वे शियाओं को बाहर करने में बिल्कुल नहीं हिचकिचाएँगे। उनके लिए रूस ने अफगानिस्तान में 1979-89 तक कब्ज़ा किया था, उस दौरान काफी अनुदान इकट्ठा किया गया था, जिससे जिया-उल-हक की राजनीतिक शक्ति को बढ़ावा मिला था। आतंकवाद के िखलाफ फ्रंटलाइन स्टेट होने के कारण मुशर्रफ को भी पश्चिमी देशों से आर्थिक मदद  हासिल हुई। पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति मुशर्रफ ने अपनी किताब में कैद किये गये आतंकियों की लेन-देन की बात स्वीकार की, जिसमें उन्होंने लिखा है कि हमने 689 पकड़े गये थे, जिनमें से 369 अमेरिका के हवाले कर दिये। इसके बदले लाखों डॉलर कमाये। हाल ही के दिनों में पाकिस्तान को सैन्य आपूर्ति करने वाला सबसे बड़ा देश चीन है, जिसने अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया है। इमरान खान की अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के साथ मुलाकात 21 जुलाई 2019 को हुई। दोनों देशों ने अपने द्विपक्षीय संबंधो को फिर से स्थापित करने पर सहमति जतायी और पाकिस्तान को फिर से सैन्य सहायता देने के लिए भी अमेरिका ने सहमति दी। अब अमेरिका ने इराक की राजधानी बगदाद में अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर सुलेमानी और उसके साथ अन्य छ: लोगों को मार गिराया है, जिसके बाद पाकिस्तानी सेना और नेताओं को फिर से अपने अच्छे दिनों का इंतज़ार है; क्योंकि इससे उन्हें फायदा मिलने की उम्मीद है।

यह सभी जानते हैं कि आईएसआईएस के िखलाफ लड़ाई में अमेरिका और सुलेमानी कई वर्षों तक सहयोगी रहे।

पानी बचाने के लिए ऊँटों की बलि

क्या इंसान और ऊँट की ज़िन्दगी की अलग-अलग कीमत है? ऑस्ट्रेलिया के एपीआई लैंड्स के एक फैसले की नज़र से देखा जाए, तो जवाब है- हाँ। पानी की कमी से इंसान की ज़िंदगी बचायी जा सके। इसलिए वहाँ के प्रशासन ने 10-12 नहीं 10 हज़ार से ज़्यादा ऊँटों को मारने का फैसला किया है। ऊँटों के गलती यह है कि वे पानी बहुत पीते हैं और ऑस्ट्रेलिया में पानी की भीषण कमी चल रही है। ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय कीट ऊँट प्रबंधन योजना का दावा है कि जंगली ऊँटों की आबादी हर नौ साल में दोगुनी हो जाती है।

यह पहला मौका नहीं है जब ऑस्ट्रेलिया में ऊँटों की शामत आयी हो। दिसंबर 2018 में भी वहाँ करीब 2500 जंगली ऊँटों को इसी कारण से गोलियों से भून दिया गया था। उनकी गलती यह रही कि वे पानी की तलाश में चरते-चरते बाड़ तोडक़र खेतों में घुस गये थे।

ऑस्ट्रेलिया में ऊँट बड़ी तादाद में हैं और एक अनुमान के अनुसार इनकी संख्या करीब 11 लाख है। वहाँ पानी की भी भीषण कमी चल रही है। वैसे सऊदी अरब गोश्त के लिए ऊँटों को ऑस्ट्रेलिया से आयात भी करता है। इसके बावजूद पानी की कमी के कारण ऊँटों पर गाज गिरने वाली है।

अब पानी की इस कमी के कारण जल्द ही दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया के अनंगु पीतजंतजतारा यनकुनितज्जतजरा लैंड्स (एपीआई) में 10 हज़ार से ज़्यादा जंगली ऊँटों को मार देने का आदेश जारी किया गया है। एपीआई के अबॉर्जिनल नेता (आदिवासी नेता) ने यह आदेश जारी किये हैं। आदेश में कहा गया है कि दक्षिण ऑस्ट्रेलिया में हेलीकॉप्टर से कुछ प्रोफेशनल शूटर इन जंगली ऊँटों को मार गिराएँगे, ताकि वहाँ पानी को इंसानों के पीने के लिए बचाया जा सके।

दरअसल, ऑस्ट्रेलिया में गर्मी का कहर पिछले कुछ साल से इस देश के एक बड़े हिस्से को परेशान किये हुए है। वहाँ आज भी जंगलों की आग तने भीषण तरीके से लगी है कि पिछले करीब कुछ समय में वहाँ 63 लाख हेक्टेयर के करीब जंगल जल चुके हैं। सैकड़ों लोगों की जान जा चुकी है और इतनी ही संख्या में घर जल चुके हैं।

आग ने इलाके में तापमान को भी ज़बरदस्त तरीके बढ़ाया है। ऐसा होना नया नहीं है और वहाँ यह पिछले एक दशक से ज़्यादा समय से चल रहा है। तापमान बढऩे से पानी की भीषण िकल्लत पैदा हुई है और इसका खामियाजा पशुओं को भी बड़े पैमाने पर झेलना पड़ा है। जंगलों में आग से भी और पानी की कमी से भी।

हाल में पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में तापमान 50 डिग्री तक पहुँच गया था। क्रिसमस के बाद से लेकर अभी तक करीब 3800 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में भी 1200 ऊँटों को गोली मारनी पड़ी है।

सितंबर से ऑस्ट्रेलिया के कई इलाके आग की चपेट में हैं। पिछले हफ्ते से आग और तेज़ हुई है। इसमें अब तक दर्जनों लोगों की मौत हो चुकी है। पानी की कमी से ही वहां हज़ारों जंगली घोड़ों और ऊँटों (जिन्हें मारने का आदेश अब दिया गया है) की जान गयी है। मध्य और पूर्वी ऑस्ट्रेलिया में गर्मी का कहर फिर शुरू होने से वहाँ वन्य जीवन पर बहुत खराब असर पड़ा है।

ऑस्ट्रेलिया के दक्षिण हिस्से को देखें, तो वहाँ तापमान 45 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच रहा है, जिससे गर्मी असहनीय हो रही है। लेकिन इससे पानी की कमी भी हो रही है। इंसानों को तो मुसीबत झेलनी ही पड़ रही है, बेज़ुबान पशुओं पर तो मानों कहर ही टूट पड़ा है। हाल ही में मध्य ऑस्ट्रेलिया में लगातार बढ़ रही गर्मी और सूखे का के कारण सांता टेरेसा की बस्ती में 40 जंगली घोड़े एक सूखे तालाब के पास मरे हुए मिले थे। यही नहीं बन अधिकारियों को 50 जंगली घोड़ों को गोली मारनी पड़ी।

नया साल शुरू होते ही न्यू साउथ वेल्स में इमरजेंसी लगा दी गयी है और वहाँ पार्क, कैंपिंग ग्राउंड और जंगलों से होकर गुज़रने वाले रास्ते बन्द करने पड़े हैं। नये साल पर वहाँ वकेशंस के लिए आये लोगों को वापस भेज दिया गया है और करीब 250 किलोमीटर क्षेत्रफल का इलाका खाली करवा लिया गया है।

दरअसल, दक्षिण ऑस्ट्रेलिया में ऊँटों को मारने का फैसला लोगों की उस शिकायत के आधार पर ही किया गया है, जिसमें उनका कहना था कि ये जानवर पानी की तलाश में उनके घरों में घुस जाते हैं। यही नहीं ऊँटों में आपस में ही पानी को लेकर ठन जाती है, जिससे उनमें झगड़ा होता है और इसकी कीमत लोगों को अपने घरों के नुकसान के रूप में चुकानी पड़ती है।

इन इलाकों में आदिवासी बड़ी संख्या में रहते हैं। लोगों की शिकायत के बाद ही वहाँ 10 हज़ार ऊँटों को मारने का फैसला किया गया है। आदिवासी नेताओं को चिन्ता है कि ये जानवर ग्लोबल वाॄमग बढ़ा रहे हैं; क्योंकि वो एक साल में एक टन कार्बन डाई ऑक्साइड के बराबर मीथेन का उत्सर्जन करते हैं। साथ ही पानी भी बहुत ज़्यादा पीते हैं।

ऑस्ट्रेलिया को वैसे वन्य जीवों के लिए जाना जाता है। भले वहाँ कंगारू को राष्ट्रीय पशु घोषित किया गया हो, वहाँ कंगारू के अलावा साँप और मकडिय़ाँ भी बड़ी संख्या में पाये जाते हैं। लेकिन यहाँ चूँकि बात ऊँटों की है तो बता दें कि दुनिया भर में सबसे ज़्यादा ऊँट भी ऑस्ट्रेलिया के इस हिस्से में ही हैं।

एक अनुमान के मुताबिक, ऊँटों की संख्या ऑस्ट्रेलिया में 11 लाख से कुछ ज़्यादा है। एक तरह से इन्हें आवारा ऊँट कहा जा सकता है। यह ऊँट आम लोगों के लिए अपनी गतिविधियों से कई मुसीबतें भी लाते हैं। वे उत्पात तो मचाते ही हैं, पानी के लिए लोगों के घरों में भी घुस जाते हैं और वहाँ तोड़-फोड़ भी करते हैं।

यह माना जाता है कि शिकारी न होने और मनुष्यों की आबादी कम होने से उन इलाकों में ऊँटों की संख्या बड़ी तादाद में बढ़ी। लेकिन जब इंसानों की आबादी भी बढ़ी, तो उनमें टकराव जैसी स्थिति बन गयी। चूँकि ऊँट एक ही बार में कई गैलन पानी डकार जाते हैं, इंसानों के लिए वहाँ पानी की भीषण काम पडऩे लगी, जो अब ऊँटों की मौत के रूप में सामने आने लगी है; क्योंकि इंसानों को पानी देना प्राथमिकता बन गया है। मीडिया रिपोट्र्स के मुताबिक, एपीआई के कार्यकारी बोर्ड, जिसने ऊँटों को मारने का आदेश दिया है; का कहना है कि ऊँट पानी के ज़खीरों और खेतों को नुकसान पहुँचा रहे हैं। वे सुरक्षित रखे पानी को खत्म कर रहे हैं। बोर्ड की बैठक में यह कहा गया कि ऊँटों के कारण एक बड़ी आबादी परेशानी महसूस कर रही है।

वैसे ऊँटों को इस बड़े क्षेत्र में एक समय तात्कालिक ज़रूरतों के लिए लाया गया था। काम की क्षमता के कारण। साथ ही ऊँटों को वहाँ के सुनसान क्षेत्रों की स्थिति में जीवित रहने के लिए विशेष क्षमता रखने वाला पशु माना जाता है। लेकिन दीर्घकालीन आधार पर वे अब मुसीबत बन गये हैं। एक अनुमान के मुताबिक, ऊँट ऑस्ट्रेलिया के 33 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में आवारा घूमते हैं। इनमें पश्चिम, दक्षिण और उत्तरी ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वींस लैंड का इलाका भी शामिल है।

ऐसे लोग जो ऊँटों को पालने का व्यवसाय करते हैं, उनका कहना है कि मारने की जगह इन्हें मांस बेचने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए। वैसे सऊदी अरब गोश्त के लिए ऊँटों को ऑस्ट्रेलिया से आयात करता है। वहाँ बड़े पैमाने पर ऊँट भेजे जाते हैं।

मीथेन का उत्सर्जन 

बहुत तादाद में पानी पीने के अलावा ऊँट हर साल सीओ-2 (कार्बन डाई ऑक्साइड) के एक टन के प्रभाव से मीथेन का उत्सर्जन करते हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक, ऊँट जो मीथेन पैदा कर रहे हैं; वह सडक़ों पर चल रही कारों के अलावा चार लाख अतिरिक्त कारों के बराबर की कार्बन डाई ऑक्साइड है, जो पर्यावरण के लिए बहुत नुकसान दायक है। ऊँटों की कमी से ही इस मुसीबत से बचा जा सकता है। जानकार आश्चर्य होगा कि चरायी के नुकसान के साथ ऊँटों से होने वाले कुल नुकसान का आकलन वहाँ एक करोड़ आस्ट्रेलियाई डॉलर लगाया गया है।

वध का विरोध भी

ऐसा नहीं है कि ऑस्ट्रेलिया में ऊँटों को मारने (वध करने) के सभी समर्थक ही हैं। जानवरों के लिए काम करने वाली संस्था एमिमल ऑस्ट्रेलिया ऊँटों को मरने के आदेश की तुलना नरसंहार से कर रही है। उसका कहना है कि ऊँटों को मारने की जगह इसके लिए कोइ ठोस योजना बनायी जानी चाहिए। रॉयल सोसाइटी फॉर दी प्रिवेंशन ऑफ क्रूएलिटी टू एनिमल (आरएसपीसीए) का भी कहना है कि ऊँट प्रबंधन के लिए एक राष्ट्रीय योजना की सख्त ज़रूरत है, ताकि उनका नरसंहार रोका जा सके। जैव प्रणाली के लिए बड़ा मुद्दा बनने के बाद 10 साल पहले ऑस्ट्रेलिया सरकार ने जानवरों पर काबू पाने के लिए उन्हें खाने के लिए मारने की योजना बनायी, ताकि उनकी संख्या में कमी की जा सके। हज़ारों ऊँटों को प्रोजेक्ट के तहत बेचने और मारने के लिए रेटिंग के हिसाब से अलग किया गया।

कुदरत की गोद में पंछियों का मेला

दो उफनते जलाशयों के बीच हरे-भरे बागानों की गोद में रचे-बसे मेनार गाँव का इससे ज़्यादा दिलफरेब अछूता सौंदर्य और क्या होगा कि यहाँ सुर्ख पलाश सरीखे दमकते मुकुलित पंखों से परवाज़ भरते हज़ारों प्रवासी पंछी भोर की धुँध में कपसीले बीजों की तरह फैल जाते हैं। उदयपुर से करीब 45 किलोमीटर दूर मेनार गाँव कुदरत की सुरम्य गोद में बसा है। इसकी शान्त, मनोरम और सुकून भरी आबोहवा देश-देशांतरों के मीलों लम्बे फासले से कुलाँच भरकर आने वाले परिन्दों को पनाह देती है। करीब 150 िकस्म की प्रजातियों के पखेरुओं का रमण स्थल ‘बर्ड विलेज’ के नाम से विश्व में पहचान बनाये हुए है।

यहाँ 9 जनवरी से 12 जनवरी तक बर्ड फेयर भी आयोजित होता है। इस आयोजन का सबसे बड़ा आकर्षण तालाबों के घाट पर बसेरा करने वाले ग्रेट क्रिस्टेबग ग्रेब प्रजाति के पक्षी हैं, जो देशांतरों की लम्बी दूरी तय करके यहाँ आते हैं। इन पखेरुओं को यहाँ का पारिस्थितिकी तंत्र इस कदर रास आया है कि यहीं प्रजनन करने लगे हैं। स्वनिर्मित तालाब भी पक्षियों के लिए पूरी तरह अनुकूल है। यानी कहीं छिछला तो कहीं गहरा है, जो स्वत: ही आदर्श जलीय परिस्थितिकी का निर्माण करता है। उदयपुर से मेनार जाने वाली धूल भरी सडक़ अचानक एक अचम्भे के साथ खत्म हो जाती है और आप अपने आपको विशाल हरे दरवाज़े के सामने खड़ा पाते हैं। इसके आगे हरे-भरे बलूत से दरख्त चंदोबे की तरह लहलहा रहे हैं। झुरमुटों से एक रास्ता जलाशयों की तरफ ले जाता है। टापुओं से अटे इन जलाशयों में कलंगीधारी बत्तख सरीखे पक्षी धीमे-धीमे तैरते नज़र आते हैं।

तालाबों के घाट भी इस तरह बनाये गये हैं कि पक्षियों की गतिविधियों को देखने निहारने में कहीं कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती। टापुओं से रचे-बसे जलाशय कलरव करते पक्षियों केा किलोल करने की पूरी आज़ादी देते हैं। हालाँकि यहाँ पक्षियों के आने की शुरुआत तो सर्दी की दस्तक के साथ ही हो जाती है। लेकिन जनवरी शुरू होते-होते तो मेनार पक्षियों की विराट कायनात में तब्दील हो जाता है। मुख्य वन्य जीव संरक्षक प्रवीण का कहना है कि इस बार तकरीबन 400 पक्षियों का जमावड़ा लगा। इनमें मुख्य रूप से मार्का टेरिधार, ऐंड शेक, वार हैंडेड गूँज, ग्रेलेग गूँज, ग्रेटा, कारपोरेट, स्नेक बड्र्स, ग्रे फ्रेंकलिन, सेंड पाइपर्स, लेपविंग, बेंगरेलस, पिपिट्स तथा कई तरह के चील, कौवे और कबूतर आदि मुख्य है। प्रवीण बताते है कि पिछले छ: साल से आयोजित किये जा रहे इस उत्सव का मकसद लोगों को मेवाड़-बागड़ की जैव विविधता से परिचित करवाना है। वे कहते हैं कि हमारा लक्ष्य इसे बेस्ट बर्ड वाचिंग डेस्टिनेशन के रूप में स्थापित करना है। इस मौके पर होने वाले मुख्य आयोजनों का ब्यौरा देते हुए कहते हैं कि यहाँ एक हज़ार से अधिक विद्यार्थियों और अतिथियों को ‘बर्ड वाचिंग’ करवायी जाएगी। इसके अलावा नेचर लिटरेचर फेस्टिवल का आयोजन भी होगा। यह ऐसा अनूठा मेला है, जहाँ पक्षियों से अनुराग रखने वाली परिचित-अपरिचित अनेक शिख्सयतें टहलती नजर आएँगी। मेला क्षेत्र को कई परिसरों में बाँटा गया है, जैसे- धरोहर, संगीत-रंगमंच, यात्रा और प्रसंगवश एक प्रांगण चिन्तन का भी है। प्रदर्शनी स्थल पर विश्व भर में पक्षियों पर जारी किये डाक टिकटों की प्रदर्शनी भी लुभाएगी। प्रदर्शनी में छ: प्रजातियों की तितलियों के जीवन चक्र का लाइव प्रदर्शन भी किया जाएगा। हालाँकि, उत्सव की शुरुआत ‘बर्ड रेसिंग’ से होगी। सूत्रों की मानें तो तालाबों में मछलियों के शिकार पर पाबंदी है, ताकि पक्षियों को भरपूर भोजन मिल सके। इसके अलावा चौतरफा फैली हरियाली की वजह से परिन्दे बड़े मज़े में आस-पास के खेतों में चहलकदमी कर लेते हैं।

लेकिन पक्षियों के जीवन का अध्ययन कर चुके विशेषज्ञों का यह कथन बेहद कचोटने वाला है कि क्या हम पक्षियों के संरक्षण का दावा कर सकते हैं? क्या पिछली घटनाओं से हम कोई सबक सीख पाये? आधुनिक जनजीवन और रहन-सहन ने पक्षियों की कितनी प्रजातियों को नष्ट कर दिया? हम कहाँ देख पाये? सवाल है कि आज चील, कौवे या गिद्ध कहाँ और क्यों गायब हो गये? उधर एक भयानक पक्षी त्रासदी के बाद सांभर झील एक बार फिर प्रवासी पखेरुओं का बसेरा बन गयी है। इन दिनों फ्लेमिंग पक्षियों के झुंड यहाँ खास आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं। फ्लेमिंग पक्षियों को किसी तरह का खलल पसन्द नहीं है। शान्त और छिछली झील में इन पक्षियों की जल क्रीड़ाएँ मनमोहक दृश्य उत्पन्न करती है। इन विदेशी पखेरुओं की विशेषता है कि ये अपने परिजनों के साथ रहकर ही भोजन तलाशते हैं। जब फ्लेमिंग आकाश में उड़ान भरते हैं, तो यह दृश्य अद्भुत होता है। जो कम ही देखने को मिलता है। इन दिनों सांभर झील ने फ्लेमिंग पक्षियों के अलावा जलचरों में शालतर, पिपनेरा, जलमुर्गी और टिटहरी समेत 50 से अधिक प्रजातियों आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है। देश-देशातंरों से आने वाले दुर्लभ प्रजाति के प्रवासी पक्षी भारत की तरफ ही रुख क्यों करते हैं? पक्षियों के इस रुझान के बारे में पर्यावरणविदों का कहना है कि अगर भोगोलिक कारणों केा समझे तो भारत की समुद्र तटीय रेखा भी विशाल है। फिर भारत में पर्याप्त मात्रा में उष्णकटिबंधीय जंगल पाये जाते हैं। इसलिए पखेरू इन जंगलों को छोडक़र समुद्र की तरफ क्यों रुख करेंगे? एक और रुझान को समझें तो भारत के उत्तर में विशाल हिमालय है। यहाँ वर्ष भर भयानक ठंड पड़ती है। हिमालय को को पार करना पक्षियों के लिए लगभग असम्भव है। भारत की पश्चिमी सरहदों में थार मरुस्थल है, जो अत्यधिक गर्म है। इस भयंकर मरुस्थल को पार कर दूसरी तरफ जाना भी पक्षियों के लिए असम्भव है। नतीजतन उनका रुख भारत की तरफ ही होता है। भारत में न तो अधिक गर्मी पड़ती है और न ही अधिक सर्दी। यह मौसम पक्षियों को पूरी तरह रास आता है। नतीजन प्रवासी पखेरू बेशक भारत के जंगलों में स्थान बदलते रहते हैं? लेकिन अन्य देशों की तरफ रुख नहीं करते। सबसे दिलचस्प बात है कि विश्व भर के पक्षी बेशक भारत आते हैं, लेकिन भारत का कोई पक्षी अन्य देशों की तरफ उड़ान नहीं भरता।

एम्स में नहीं होती कोताही

चिकित्सा जगत में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की अपनी गरिमा है। आमतौर पर यह धारणा है कि एम्स में इलाज कराना मुश्किल है। फिर भी लोगों का सपना या विश्वास ऐसा है कि लोग अपने परिजनों का इलाज वहीं कराना पसन्द करते हैं। आमतौर पर देखा गया है कि जब लोग इलाज कराते-कराते थक जाते हैं, तो आिखर में एम्स की ओर रुख करते हैं। भला ऐसा क्यों न हो। ऐसा मैं इसीलिए नहीं कह रहा कि मुझे किसी ने बताया है। विगत दिनों वहाँ की व्यवस्था को नज़दीक से देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ। वैसे तो अन्य मामले में मैं कई बार एम्स जा चुका हूँ। पर इतने करीब से देखने समझने का पहली बार अवसर मिला। लेकिन एक बात ज़रूर कहना चाहूँगा कि एम्स सरीखे एक मात्र अस्पताल से हमारी डेढ़ अरब आबादी का इलाज सुनिश्चित नहीं हो सकती है। इसीलिए इस सरीखे और अस्पताल की ज़रूरत है, जिससे आमजन का इलाज सुगम हो सके। एम्स का स्थान दुनिया के 10 अस्पतालों में से एक है। यहाँ इलाज कराने के लिये लम्बी कतार में खड़ा होना पड़ता है। जिस कारण लोगों का धैर्य बोल जाता है। विगत दिनों लगभग एक पखवाड़ा हमें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में गुज़ारना पड़ा। वहाँ पर मुझे कभी भी जाकर चिकित्सक को यह नहीं कहना पड़ा कि देखिए मेरा मरीज़ को ये चाहिए या वो। मरीज़ के इलाज के लिए जो चाहिए वहाँ के चिकित्सक, नर्स, सफाई कर्मचारी हो या अन्य कोई भी प्रशासनिक कर्मचारी सभी का व्यवहार बहुत ही अनुकरणीय है। कभी किसी मरीज़ के परिजन से ऊँची आवाज़ में बात भी नहीं करते हैं, वहाँ के कर्मचारी।

हाँ, वहाँ के सुरक्षा गार्ड को बहुत ही मसक्कत करनी पड़ती है, मरीज़ों के परिजनों का समझाने में कि आप का मरीज़ का इलाज सुचारू ढंग से हो रहा है। आप मिलने के उचित समय पर आइए बीच में आकर अपना व मरीज़ों की चिकित्सा में व्यवधान उत्पन्न करने की कोशिश नहीं कीजिए, जिससे आपके मरीज़ का इलाज व्यवस्थित ढंग से हो सके। ऐसा मैं यूँ ही नहीं कह रहा। वहाँ पर आये मरीज़ गरीब हों या अमीर, एक बार चिकित्सकों के निगरानी में आने के बाद बिना किसी भेदभाव के यथोचित इलाज किया जाता है। वे लोग सभी मरीज़ों का इलाज चिकित्सीय वरीयता के हिसाब से करते हैं। उस दौरान उनके समक्ष एक मरीज़ होता है, न कि अमीर या गरीब। कुछ वर्ष पहले हमारे नज़दीक रेहड़ी-पटरी पर छोले-भटूरे लगाने वाले श्रमिक के सबसे छोटे बेटे को ब्लड कैंसर हो गया था। उस दौरान उस व्यक्ति को लगभग एम्स के नज़दीक छ: महीने रहना पड़ा था। वहीं स्थित धर्मशाला में रुककर उन्होंने अपने बच्चे का इलाज कराया। आज लगभग इस बात को 10 साल हो चुके हैं। वह बिल्कुल तंदुरुस्त है। इस इलाज के लिए उनको किसी पैरवी की ज़रूरत नहीं हुई थी। सरकारी व्यवस्था के अनुरूप जो खर्चा लगना था, लगा। लेकिन आप यह नहीं कह सकते कि वहाँ के किसी चिकित्सक या कर्मचारी ने आपके मरीज़ को चिकित्सा सुविधा न मुहैया करायी हो, जिसके लिये आपको उनसे एक दो होना पड़ा हो। हाँ, एक बात ज़रूर है कि वहाँ पर अपनी बारी आने की लम्बी प्रतीक्षा का इंतज़ार करना पड़ता है। क्योंकि हमारे देश की आबादी के हिसाब से हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह अनुकूल नहीं है। मैं एक व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर ऐसा कह रहा हूँ। क्योंकि मैंने अपने चाचा जी को लेकर पिछले वर्ष से लगातार एम्स का चक्कर लगाये हैं। शुरू में ओपीडी में अपनी बारी आने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ी। लेकिन एक बार इलाज शुरू होने बाद कभी किसी अरचन के सामना नहीं करना पड़ा। लेकिन इससे पहले हमने कई बार राम मनोहर लोहिया और जीबी पन्त अस्पताल के चक्कर काटे हैं। जहाँ से उनका इलाज पहले चल रहा था। वहाँ कई बार चिकित्सकों से उलझना पड़ा था। जीबी पन्त से एम्स को स्थानांतरित करने के बाद आरम्भिक दिनों को छोडक़र कभी भी किसी तरह नहीं झेलना पड़ा। मेरे चाचा जी अब इस दुनिया में नहीं रहे; लेकिन वहाँ पर काम कर रहे चिकित्सकों, नर्सों, कम्पाउंडरों या फिर सफाई कर्मचारियों ने व्यवहार बहुत अच्छा किया, उनकी तत्परता चिकित्सा जगत के लिए मिसाल है। ऐसा यूँ ही नहीं कह रहा हूँ। पिछले दिनों चाचा जी को लेकर जब आपातकालीन विभाग में गया, तो उनकी रोग की गम्भीरता को देखते हुए उनको भर्ती कर लिया गया। आपातकालीन विभाग में मरीज़ के साथ एक परिजन को रहने दिया जाता है। उस दौरान मैंने यह महसूस किया कि चाहे परिजन थककर एक झपकी ले लेते हों, लेकिन वहाँ पर तैनात चिकित्सक या नर्स हर 15 मिनट के बाद आपके मरीज़ के पास आकर उचित चिकित्सा प्रदान करने को तत्पर रहते हैं। दूसरा वाकया यह है कि जब चाचा जी को सघन चिकित्सा की ज़रूरत हुई, तो वरिष्ठ चिकित्सक के परामर्श के महज़ 10 मिनट के अन्दर उनको सीसीयू में स्थानांतरित कर दिया गया। स्थानांतरित करते समय उनके साथ वहाँ के सहायक और एक चिकित्सक सीसीयू तक जाकर मरीज़ की सारी स्थिति को वहाँ के चिकित्सकों को जानकारी दी, जिससे मरीज़ का उचित इलाज हो सके। सीसीयू में परिजनों को साथ रुकने की इजाज़त नहीं है। परिजन प्रतीक्षालय में रुक सकते हैं। आवश्यकता पडऩे पर आवाज़ लगाकर बुलाया जाता है और आपके मरीज़ की उचित स्थिति को समझाया जाता है या फिर आवश्यक सहयोग लिया जाता है। मरीज़ से मिलने का तीन समय निश्चित है, उस समय कोई भी परिजन बारी-बारी से जाकर अपने मरीज़ से मिल सकते हैं। बाकी का काम वहाँ के कर्मचारी करेंगे। यहाँ तक की शौचादि तक करवाने में पूरी तत्परा और बिना मन मलिन किये अपने दायित्व का निर्वहन करते हैं। वहाँ पर सुबह के नाश्ते से लेकर लंच, डिनर तक आवश्यकतानुसार उपलब्ध कराया जाता है। खाने की गुणवत्ता ऐसी कि अगर आपका मरीज़ नहीं खाता है, तो आप उस खाने को चाव से खा सकते हैं। भारतीय श्रमिक वर्ग को तो इस तरह का खाना आम दिनों में मिलना चुनौती है। वहाँ का खाना मरीज़ के अनुकूल और स्वास्थ्यवर्धक होता है।

यह सब देखकर मैं बेहिचक कह सकता हूँ कि अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में इलाज के लिए जाने के बाद आप संयमित रहे। जनसंख्या विस्फोट होने के कारण सभी को वहाँ तक पहुँचना दुरूह है। लेकिन अगर आप वहाँ पहुँच गये, तो मान लीजिए कि चिकित्सक अपने चिकित्सीय प्रशिक्षण के अनुरूप वरीयता के अनुरूप आपके मरीज़ का इलाज करते हैं। वहाँ के चिकित्सक, नर्स, कम्पाउंडर, कर्मचारी मरीज़ के परिजनों से बहुत ही पेशेवर तरीके से व्यवहार करते हैं, जिससे उनके अन्दर की मानवता झलकती है। लेकिन हम ही अपने सम्बन्धी से लगाव के कारण अफरा-तफरी करने लगते हैं। जिससे हम और आप वहाँ बैठे सुरक्षा गार्डों से कई बार ऊल-जुलूल बहस कर बैठते हैं। आप अन्दर जाकर अपने मरीज़ का ही नुकसान करते हैं। अन्दर जाकर आप स्वयं तो कुछ करने से रहे, जो करना है वहाँ के चिकित्सक ही तो करेंगे। क्योंकि आपके साथ बाहर से किस तरह का कीटाणु जाता है, आपको पता नहीं होता है। जिस कारण आपके मरीज़ का नुकसान हो सकता है। इसीलिए वहाँ की व्यवस्था को देखते हुए मुझे यह कहने में परहेज़ नहीं कि आप संयमित रहिए। वहाँ दािखला मिलने के बाद आपके मरीज़ को यथोचित इलाज होता है।