कठोर अनुशासन और खेल भावना के बिना ओलंपिक में सफलता नहीं

‘खेल भावना’ खेलों का मूलमंत्र है। खेलों का कितना भी व्यवसायीकरण हो जाए पर सम्मान तो ‘खेल भावना’ को ही मिलता है। ‘खेल भावना’ की सैंकड़ों मिसालें हर खेल स्पर्धा में मिलती हैं। क्रिकेट में गारफील्ड सोब्र्स, सुनील गावस्कर, बैडमिंटन में प्रकाश पादुकोण और फुटबाल में इंदर सिंह और जरनैल सिंह, इनके अलावा भी न जाने कितने नाम हैं, जो यहाँ लिए जा सकते हैं। ये ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्होंने खेलों को नये आयम दिये। यहाँ तक कि लोगों ने ‘खेल भावना’ को ज़िंन्दा रखने के लिए अपने ओलंपिक के पदक तक दाव पर लगा दिये। मुकाबला खत्म होने के बार विजेता खिलाड़ी को बधाई देना और विजेता खिलाड़ी का उस बधाई को नम्रता के साथ स्वीकार करना खेलों की एक पुरानी परम्परा रही है। महान् खिलाडिय़ों और आम खिलाडिय़ों में यही अन्तर है। महान खिलाड़ी खेल को खेल की तरह खेलता है, जबकि साधारण खिलाड़ी जीत पर उदण्ड और हार पर मायूस हो जाता है।

पिछले दिनों छ: बार की विश्व विजेता मुक्केबाज़ मैरीकॉम और युवा मुक्केबाज़ निखत ज़रीन के बीच जो कुछ हुआ वह कुछ भी हो पर कम-से-कम खेल भावना तो कतई नहीं थी। विशेष तौर पर ट्रायल मुकाबले के बाद मैरीकॉम से इस तरह के व्यवहार की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। किसी भी खिलाड़ी में इतना अहंकार ठीक नहीं। यदि ओलंपिक के इतिहास पर नज़र डालें, तो हॉकी को छोडक़र देश का कोई बड़ा कारनामा किया हो। इस कारण हम लोग कभी खेलों की विश्व ताकत नहीं माने गये।

भारत 1900 से लगातार इन खेलों में हिस्सा लेता रहा है। हालाँकि, 1900 के पेरिस खेलों में एक अकेले एथलीट नारमन प्रिचर्ड ने भारत का प्रतिनिधित्व किया था और एथलेटिक्स में दो रजत पदक जीते थे, पर वह अलग बात थी। उसके बाद से भारत 26 और ओलंपिक खेलों में भाग ले चुका है; पर उसने केवल 28 पदक जीते हैं। इनमें नौ स्वर्ण, सात रजत और 12 कांस्य पदक है। इन 28 पदकों में से 11 पदक अकेले हाकी में आये हैं। जो नौ स्वर्ण पदक भारत ने जीते। उनमें से आठ हॉकी के और निशानेबाज़ी में आया है, जो अभिनय बिंद्रा ने जीता। 2004 के ऐथन ओलंपिक में राज्यवर्धन सिंह राठौर ने निशानेबाज़ी का रजत जीता। एक रजत हॉकी टीम ने रोम में और दो कांस्य मैक्सिको (1968) और म्युनिक (1972) में जीते। एक रजत विजय कुमार ने लंदन (2012) ओलंपिक में निशानेबाज़ी में और सुशील कुमार ने कुश्ती में जीता। इसके बाद 2016 के रियो ओलंपिक में पीवी सिंह ने भी रजत पदक जीत लिया। हॉकी के दो कांस्य पदकों के अलावा सबसे पहले 1952 के हेल्सिंकी ओलंपिक में केडी जाधव ने कुश्ती का कांस्य पदक हासिल किया। फिर 1996 अटलांटा ओलंपिक मेें लिएंडर पेसे ने टेनिस में कांस्य पाया। 2000 के सिडनी ओलंपिक में कर्णम मलेश्वरी ने भारोश्रोलन में देश को कांस्य पदक दिलाया। 2008 में भारत को एक कांस्य पदक विजेन्द्र सिंह ने मुक्केबाज़ी जीता। इसी ओलंपिक में सुशील कुमार को कुश्ती में कांस्य मिला। बैडमिंटन में कांस्य पदक 2012 के लंदन ओलंपिक में सायना नेहबाल और मुक्केबाज़ी में मैरीकॉम ने और गगन नारंग ने निशानेबाज़ी में जीता। यही पर योगेश्वर दत्त भी कुश्ती का कांस्य पदक जीतने में सफल रहा। 2016 के रियो ओलंपिक में साक्षी मलिक ने कांस्य जीता

इस प्रकार देखा जाए, तो हॉकी के 11 पदकों के अलावा भारत ने कुश्ती में पाँच, निशानेबाज़ी में चार, एथलेटिक्स और बैडमिंटन में दो-दो और मुक्केबाज़ी में भी दो पदक जीते हैं। भरोत्तोलन और टेनिस में भारत एक-एक पदक जीत पाया है। रिकॉर्ड के मुताबिक, भारत के नाम एथलेटिक्स के दो पदक हैं, पर ये पदक आज से 120 साल पूर्व 1900 में जीते गये थे। तबसे लेकर आज तक भारत कोई पद किसी स्पर्धा में नहीं जीता है। ट्रैक में केवल मिल्खा सिंह (1960) और पीटी उषा चौथा स्थान लें पाये हैं। इन हालात में किसी भारतीय खिलाड़ी में अहंकार का आना समझ से परे है। बिना अनुशासन कोई टीम या खिलाड़ी विश्व के शीर्ष पर नहीं पहुँच सकता। टेनिस में भी भारत का खराब प्रदर्शन अनुशासनहीनता के कारण हुआ है। जब खिलाड़ी खुद को खेल से बड़ा समझने लग जाए और देश के लिए खेलने की बजाय खुद के अहम के लिए खेलने लगे, तो परिणाम घातक ही होते हैं। इसमें कसूर हमारे खेल संगठनों और खेल मंत्रालय का भी है। नये खिलाडिय़ों पर शोषण की हद तक अनुशासन लादने वाले हमारे खेल संघ कुछ तथा कथित बड़े खिलाडिय़ों के सामने घुटने टेकते नज़र आते हैं। इसकी कई मिसालें हैं। कोई भी खिलाड़ी न तो खेल से बड़ा होता है और न ही देश से इसलिए जब तक खिलाडिय़ों और पदाधिकारियों पर पूरा अनुशासन लागू नहीं होगा, तब तक ओलंपिक खेलों में बड़ी सफलता नहीं मिल सकती। ऐसे देश जिनमें सुविधाओं की भारी कमी है और जिनकी अर्थ-व्यवस्था भारत से कहीं कमज़ोर है वे केवल अपनी मेहनत और अनुशासन के कारण पदक तालिका में भारत में कहीं ऊपर रहते हैं। मिसाल के तौर पर बहमास, आयवरी कोस्ट, फिजी, जार्डन, कोसोनो, और पोरितो रिको। ये देश पदक तालिका में 50 में 54 स्थान के बीच रहे और भारत 67वें स्थान पर।

अनुशासन के मामले में सभी खेलों को क्रिकेट से सीखने की ज़रूरत है। क्रिकेट मुकाबले के दौरान किसी खिलाड़ी की हिम्मत नहीं कि वह अंपायर के किसी फैसले पर कोई प्रतिक्रिया भी ज़ाहिर कर सके, फिर चाहे वह खिलाड़ी दुनिया का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी ही क्यों न हो। इस लिहाज़ से मैरीकॉम ने ट्रायल मुकाबले के बाद अपनी विरोधी खिलाड़ी से हाथ न मिलाकर न केवल एक अनुशासनहीनता का परिचय दिया है। अपितु यह रैफरी और इस खेल का भी अपमान है। जब तक आप खेल ङ्क्षरग से बाहर नहीं आ जाते, तब तक आप खेल के नियमों, कानूनों और रिवायतों का पालन करने के लिए बाध्य हैं। हैरानी की बात है कि आज तक मुक्केबाज़ी फैडरेशन या खेल मंत्रालय ने इस घटना का संज्ञान तक नहीं लिया। इस प्रकार की हरकतों की अनदेखी करने से ये खत्म नहीं होगी, बल्कि बढ़ेंगी। इससे बाकी खिलाडिय़ों को भी ऐसा करने का साहस मिलेगा। ओलंपिक खेल दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं। सभी देश मुकाबलों के लिए तैयार हो रहे हैं। अमेरिका, चीन, ब्रिटेन बगैरा पदक तालिका में चोटी पर पहँुचना चाहते हैं और हमारे खिलाड़ी अनुशासन को मानने को तैयार नहीं। हमारा प्रदर्शन अच्छा हो इसकी कामना हर देशवासी करता है; क्योंकि देश की प्रतिष्ठा दाव पर होती है। अनुशासन को सख्ती से लागू किये बिना खेलों में तरक्की सम्भव नहीं।