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बढ़ती बेरोज़गारी पर युवाओं का आक्रोश

भारत 2020 में सबसे युवा देश होगा, क्योंकि यहाँ अनुमान के मुताबिक दुनिया की 65 फीसदी आबादी 35 वर्ष से कम उम्र की है। सबसे ज़्यादा युवा आबादी होने के बावजूद देश की जनसांख्यिकीय विभाजन के आधार पर देखें, तो  शिक्षा, कौशल की कमी के चलते देश में बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ रही है। उदाहरण के तौर पर रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड (आरआरबी) की निकाली नौकरी के विज्ञापन से समझा जा सकता है। इसमें 35000 नॉन टेक्निकल के लिए विज्ञापन निकाला गया था, जिममें ग्रेजुएट और अंडर ग्रेजुएट कैटेगरी वालों के लिए मौके थे और ग्रुप-डी में एक लाख माके थे, जिनको सितंबर 2019 में पूरा किया जाना था, लेकिन अब तक इनको भरा नहीं जा सका है। ये सभी पद अब भी लम्बित हैं। बता दें कि इन दोनों परीक्षाओं के लिए आवेदन करने वालों की कुल अभ्यर्थियों संख्या 2.41 करोड़ है। देश में सरकार के पास कामगारों की कमी और आवेदन करने वालों की बड़ी तादाद से बेरोज़गारी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। अब देश का युवा बेचैन हो रहा है और सड़कों पर उतरकर वह आक्रोश भी व्यक्त करने लगा है।

इस दौरान सरकार ने रेलवे मंत्रालय में निवेदन करने वाले अभ्यर्थियों से 1000 करोड़ रुपये जुटाये, जो सामान्य श्रेणी से 500 रुपये, आरक्षित श्रेणी से 250 रुपये आवेदन शुल्क के तौर पर लिए गये। इसमें सरकार को लगभग कुल मिलाकर 1,000 करोड़ की कमाई हुई। यह केंद्र सरकार के रूखेपन की स्थिति खेदजनक है। हालात केवल यही नहीं हैं कि महज़ पैसा लिया जा रहा है, बल्कि आवेदन करने वालों में बड़ी संख्या में पीएचड़ी, एमबीए, स्नातक अन्य डिग्री हासिल करने वाले बेरोज़गार शामिल हैं। श्रम विभाग के हाल के आँकड़ों पर नज़र डाले, तो वर्तमान में देश में बेरोज़गारी दर 6.1 फीसदी है, जो पिछले 45 वर्षों की तुलना में सबसे ज़्यादा है। कुल मिलाकर वर्तमान में देश में 10 करोड़ लोग (युवा) बेरोज़गार हैं। ऐसा लगता है सरकार लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में अपनी जवाबदेही से बच रही है। वह युवाओं के लिए जो मौके हैं, उनकी भरपाई नहीं कर रही है। वर्तमान में केंद्र सरकार के 22 लाख से अधिक पद रिक्त हैं। इतनी बड़ी तादाद में खाली पदों को भरने के लिए केंद्र के साथ ही राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है। आर्थिक मंदी के इस दौर में कृषि संकट, चौतरफा विभाजन की राजनीति, बहिष्कार, साम्प्रदायिकता की राजनीति, समाज से निष्कासित लोग और उग्र राष्ट्रवाद जैसे मुद्दे हावी हैं। ऐसी परिस्थिति में सबका विकास (सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास) की राजनीति के आगे राष्ट्रवाद का लेप चढ़ा दिया जाता है, जिससे लोगों में भय, असुरक्षा और असंतोष पनप रहा है। इससे बेरोज़गारी बढऩे के साथ ही लोगों में सामाजिक दूरियाँ भी बढऩे लगी हैं, जिन्हें अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता।

देश के वर्तमान हालात के नज़रिये से देखें, तो नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) को लेकर विरोध-प्रदर्शन और नाराज़गी चल रही है। इस विरोध को एनडीए सरकार के सामाजिक विभाजन करने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है, जिसमें लोगों को धार्मिक आधार बाँटने की कोशिश करार दिया जा रहा है। एनआरसी पर एनडीए सरकार ने साम्प्रदायिक आधार पर वोटों के लिए ध्रवीकरण की कोशिश की है। धार्मिक समुदाय को निशाना बनाकर भाजपा शासित राज्यों में विरोध प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक सम्पत्ति को नष्ट करने के लिए दमनकारी पुलिस बल प्रयोग के िखलाफ भी लोगों का गुस्सा उबाल पर है। भारत के सभी धर्मों और वर्ग के लिए इस दमनकारी कार्रवाई के िखलाफ खुलकर नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए सड़क पर उतर रहे हैं। लोग सरकार की ओर से की गयी कार्रवाई और कानून का विरोध कर रहे हैं। गौर करने वाली बात यह है कि इन प्रदर्शनों में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा, राष्ट्रीयगान, भारत के संविधान की प्रस्तावना को एक साथ मिलकर युवाओं के बीच पढ़ते सुना जा सकता है। संविधान की प्रस्तावना के तहत नागरिकों के लिए समानता का अधिकार, आपसी भाईचारा, न्याय की माँग कर रहे हैं। लोकतांत्रिक तरीके को अपनाते हुए विविधता में एकता ही भारत की आत्मा है। यदि सरकार जनता की भावनाओं पर ध्यान नहीं देती है, तो राष्ट्र की एकता खतरे में पड़ सकती है। इस प्रकार भारत में एक व्यक्ति के शासन को समाप्त करने का विकल्प शुरू हो जाएगा।

सच बोलो और मारे जाओ

पेरिस स्थित रिपोट्र्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) ने जब अपना वल्र्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स-2019 जारी किया है। इसमें दिखाया गया कि पत्रकारिता करने में स्वतंत्रता के क्षेत्र में भारत की रैंकिंग 180 देशों में 140 के कमज़ोर स्तर पर पहुँच गयी है, फिर भी इसे हल्के में लिया गया। इस इंडेक्स के बाद 29 अक्टूबर, 2019 को जारी कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट (सीपीजे) का 2019 ग्लोबल इम्पुनिटी इंडेक्स आया और फिर 23 दिसंबर, 2019 को दो पत्रकारों- गीता सेशु और उर्वशी सरकार की जारी एक अध्ययन रिपोर्ट सामने आयी- गेटिंग अवे विद मर्डर्स। हाल के वर्षों में भारत में पत्रकारिता एक खतरनाक पेशा बन गया है और मीडियाकर्मियों को ज़मीन हड़पने, भ्रष्टाचार, शैक्षिक भ्रष्टाचार और रेत, पत्थर, शराब, लकड़ी और पानी टैंकर और तेल जैसे मािफया गिरोहों द्वारा की जाने वाली अवैध गतिविधियों की खोजी रिपोट्र्स के लिए जान गँवानी पड़ी है।

साल 2014 से 2019 की अवधि के दौरान पत्रकारों पर कम-से-कम 198 गम्भीर हमले दर्ज किये गये और इनमें से 36 अकेले 2019 में हुए। इनमें से छ: हाल के हैं, जो नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर विरोध प्रदर्शन के दौरान हुए हैं। कम-से-कम 40 पत्रकार मारे गये, जिनमें से 21 में उनके पत्रकारिता कार्य से सम्बन्धित होने की पुष्टि की गयी। पत्रकार गीता शेशु और उर्वशी सरकार के अध्ययन को ठाकुर फाउंडेशन की तरफ से वित्त पोषित किया गया था; उन्होंने जाँच के लिए 63 मामलों को चुना। इस खोजी पत्रकारिता करते हुए वे हमलों के शिकार भी हुए और इनमें हमलावरों को सज़ा की दर शून्य थी।

इसमें पाया गया कि जिन 63 मामलों का अध्ययन किया गया, उनमें केवल 25 मामलों में एफआईआर दर्ज की गयी। इनमें से 18 में एफआईआर दर्ज होने के बाद मामले आगे नहीं बढ़े हैं। आरोप पत्र तीन मामलों में दायर किये गये थे; लेकिन इसके बाद प्रक्रिया ठप हो गयी। केवल चार मामलों में से एक में ट्रायल शुरू हुआ है।

अधिकांश जान गँवाने वाले पत्रकारों के मामले छोटे शहरों और गाँवों से जुड़े हुए थे। यह पत्रकार क्षेत्रीय मीडिया के साथ संवाददाता या स्ट्रिंगर के रूप में काम करते थे। वे भ्रष्टाचार, कारोबारियों की गैर-कानूनी गतिविधियों, शक्तिशाली राजनेताओं, पुलिस और सुरक्षा बलों की गैर-कानूनी गतिविधियों के प्राथमिक समाचार संग्रहकर्ता, पत्रकार और संदेशवाहक हैं। शक्तिशाली अपराधी गिरोह राजनीतिक संरक्षण से कानून की धज्जियाँ उड़ाते हैं; जबकि कानून-प्रवर्तक और नागरिक प्रशासन इस आपराधिक गतिविधि में या तो उदासीन हैं या खुद इसमें सहभागी है।

व्यापक भ्रष्टाचार और अनियमिताओं और देश भर में बड़े पैमाने पर रेत खनन जैसी गैर-कानूनी गतिविधियाँ पर रिपोट्र्स राजनीतिक सत्ता, आपराधिक एजेंटों और जटिल कानून लागू करने वाले अधिकारियों के संगठित नेटवर्क से खूनी प्रतिशोध को आमंत्रित करती हैं। 29 अक्टूबर, 2019 को जारी किये गये सीपीजे का 2019 ग्लोबल इंपुनिटी इंडेक्स में ऐसे देशों पर प्रकाश डालता है, जहाँ पत्रकार मारे जाते हैं और उनके हत्यारे मुक्त हो जाते हैं। 31 अगस्त, 2019 को समाप्त हुए 10 साल की सूचकांक अवधि के दौरान, दुनिया भर में 318 पत्रकारों की उनके काम के लिए हत्या कर दी गयी। इनमें से 86 फीसदी मामलों में अपराधियों पर सफल मुकदमा नहीं चलाया गया। सीपीजे ने पिछले साल 85 फीसदी मामलों में पाया कि आरोपियों को अपराधमुक्त कर दिया गया।

पिछले कई वर्षों से भारत सबसे अधिक पत्रकार मृत्यु की श्रेणी वाले देशों में एक है। इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स ने पत्रकारों के लिए भारत को आठवें सबसे खतरनाक देश के रूप में सूचीबद्ध किया है। इसमें पत्रकार गौरी लंकेश की गोली मारकर बेरहमी से हत्या करने की घटना का ज़िक्र किया गया है। रिपोट्र्स विदाउट बॉर्डर्स ने कहा है कि भारत में पत्रकार कट्टरपंथी राष्ट्रवादियों के ऑनलाइन ज़हरीले प्रचार अभियानों के निशाने पर हैं, जिसमें उन्हें अपमानित किया जाता है और यहाँ तक कि शारीरिक प्रतिशोध की धमकी भी दी जाती है।

गौरी लंकेश हत्याकांड मामले में विशेष जाँच दल (एसआईटी) ने नवंबर, 2018 में 18 व्यक्तियों के िखलाफ 9,235 पन्नों की चार्जशीट दायर की। हालाँकि, इस मामले में बहुत अधिक समय लगने की सम्भावना है; क्योंकि षड्यंत्रकारियों को दो तर्कवादियों की पहले की हत्याओं से जोड़ा गया है और उनके पास इस मामले को खत्म करने की तैयारी कर रहे वकीलों की एक बड़ी फौज है।

26 मार्च, 2018 को 24 घंटे के भीतर योजनावद्ध हिट-एंड-रन मामलों में तीन भारतीय पत्रकारों की हत्या कर दी गयी। मध्य प्रदेश में शक्तिशाली रेत माफिया की जाँच कर रहे न्यूज वल्र्ड के संदीप शर्मा की हत्या कर दी गयी थी। वहीं दैनिक भास्कर के पत्रकार नवीन निश्चल की बिहार में 26 मार्च, 2018 को हत्या कर दी गयी। दूरदर्शन के अच्युतानंद साहू भी 30 अक्टूबर, 2018 को नक्सलवादियों और सुरक्षा बलों के बीच मुठभेड़ के दौरान क्रॉसफायर में शहीद हो गये।  गीता शेशू और उर्वशी सरकार के पत्रकारों की हत्या और हमलों पर किये गये अध्ययन में पाया गया कि हमलावरों या आरोपियों पर दोष सिद्ध होने का प्रतिशत करीब-करीब शून्य है, जिसका कारण राजनीतिक सत्ता और कानून-प्रशासन के बीच अक्सर रहने वाली बहुत मज़बूत साँठगाँठ है और यही ताकतें जाँच से जुड़े अधिकारियों के साथ मिलकर मामलों को कमज़ोर करा देती हैं। अन्य मामलों में जाँच एजेंसियाँ या तो उदासीन हैं या सह-अपराधी। इससे नतीजतन मामलों में सज़ा की दर बेहद कम है। साल 2010 के बाद से उनके पेशे से जुड़े काम के कारण पत्रकारों की मौतों के 30 से अधिक मामले सामने आये हैं। इनमें से केवल तीन मामलों में दोष सिद्ध किया जा सका।

महिला पत्रकारों पर हमले

महिला पत्रकारों पर हुए हमलों में ऑनलाइन उत्पीडऩ के ज़्यादातर मामले हैं। उन्हें मौत और बलात्कार की धमकियों का सामना करना पड़ा है। भय पैदा करने या अपराध के नज़रिये से उनका पीछा किया गया और उनके निजी डॉटा को ऑनलाइन शेयर किया गया है। उत्पीडऩ की लिंग प्रकृति पर काफी ध्यान केंद्रित किया गया है। रिपोर्ट बताती है कि अक्सर अपनी राय और अपने काम के लिए महिला पत्रकारों को कलंकित किया जाता है या उनका यौन शोषण होता है। गम्भीर और लगातार ऑनलाइन उत्पीडऩ के अलावा इस क्षेत्र में महिला पत्रकारों को ऑफलाइन भी उत्पीडऩ के लिए लक्ष्य किया जा रहा है। साल 2012 में अरुणाचल टाइम्स की सम्पादक टोंगम रीना एक जघन्य हमले में बाल-बाल बच गयीं, जबकि 2017 में गौरी लंकेश को दक्षिणपंथी हिन्दूवादी संगठनों के सदस्यों ने अपनी राजनीति के िखलाफ उनके मज़बूत अभियान के लिए मार दिया।

शिलॉन्ग टाइम्स की संपादक पैट्रिशियन मुकीम के आवास पर पेट्रोल बम से हमले हुए। बस्तर की पत्रकार मालिनी सुब्रमण्यम को प्रताडि़त किया गया। संध्या रविशंकर और एम. सुचित्रा पर अवैध रेत खनन का भंडाफोड़ करने को लेकर हमले हुए। ये तो हमारे सामने गिने-चुने ही उदाहरण हैं, अगर पत्रकारों पर हमले के सभी मामले देखें, तो लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के सिपहसालारों की सुरक्षा को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के अलावा पुलिस प्रशासन पर सीधे-सीधे उँगली उठती है। दु:ख इस बात का है कि पत्रकारों की वीभत्स हत्याओं, उत्पीडऩ, यौन उत्पीडऩ और हमलों के बाद भी न तो केंद्र सरकार ने, न राज्य सरकारों ने, न पुलिस प्रशासन ने और न ही न्यायालयों ने इस ओर खास ध्यान दिया है।

खास बातें

सन् 2014-19 के बीच 40 पत्रकारों की हत्या हुई। इनमें से 21 को पत्रकारिता कार्य के कारण जान गँवाने की पुष्टि की गयी है।

सन् 2010 में 30 से अधिक पत्रकारों की हत्याओं में से केवल एक मामले में दोषी को सज़ा हो सकी।

यह तीन मामले 2011 में मारे गये जेडे, 2012 में राजेश मारे गये मिश्रा और 2014 में मारे गये तरुण आचार्य से सम्बन्धित हैं। चौथे मामले में पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की 2002 में हुई मौत है; जिसमें मुख्य आरोपी डेरा प्रमुख गुरमीत राम रहीम को उम्र कैद की सज़ा देने में पूरे 17 साल लग गये।

रिपोर्ट में कहा गया है कि 2014-19 के बीच की अवधि में पत्रकारों पर हमलों के 198 मामले सामने आये, जिनमें केवल 2019 में 36 मामले शामिल हैं।

इसके अलावा पत्रकारों को गोली मारी गयीं। पैलेट गन से उन्हें अन्धा कर दिया गया। कइयों को ज़बरदस्ती शराब, यहाँ तक कि मूत्र पीने को विवश किया गया या उन पर पेशाब किया गया। लात- घूँसों से मारा गया। उनका पीछा किया गया या उनके घरों पर पेट्रोल बम फेंके गये और कई बार तो उनकी बाइक के पेट्रोल पाइप तक कट दिये गये।

संघर्ष या समाचार घटनाओं को कवर करने वाले पत्रकारों का उत्पीडऩ ने केवल चरमपंथियों, अपाराधियों ने किया, बल्कि धार्मिक गुटों के समर्थकों, राजनीति से जुड़े लोगों, छात्र समूहों, वकीलों, पुलिस और यहाँ तक कि सुरक्षा बलों ने भी किया।

इस क्षेत्र में महिला पत्रकारों पर हमले बढऩे की बात सामने आयी है। उन महिला पत्रकारों पर भी लक्षित हमले हुए, जिन्होंने सबरीमाला मंदिर में प्रवेश की घटना को कवर किया। यह हमले निरन्तर हुए और वीभत्स थे। इस रिपोर्ट में महिला पत्रकारों पर हमलों के 19 व्यक्तिगत हमलों को सूचीबद्ध किया गया है।

हत्याओं और हमलों के आरोपियों में सरकारी एजेंसियाँ, सुरक्षा बल, राजनीतिक दल के सदस्यों, धार्मिक संप्रदायों, छात्र समूह, आपराधिक गिरोह और स्थानीय माफिया तक शामिल हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि 63 मामलों में से केवल 25 मामलों में एफआईआर दर्ज की गयी है, जबकि इनमें से भी 18 मामलों की एफआईआर को आगे नहीं बढ़ाया गया है।

अन्य 18 मामलों में पत्रकारों की शिकायतें तो दर्ज कर ली गयीं, लेकिन किसी भी मामले में एफआईआर दर्ज नहीं की गयी। वहीं तीन मामलों में काउंटर शिकायतें दर्ज की गयी हैं। कुल 12 मामलों में कोई जानकारी ही नहीं है। यहाँ तक कि पीडि़त पत्रकारों को भी नहीं बताया गया कि उन पर हुए हमलों की शिकायत के बाद मामले का क्या हुआ?

राम मंदिर ट्रस्ट और संतों की नाराज़गी

अपने तरकश के आखरी तीर के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव से ठीक तीन दिन पहले संसद में बहुत जल्दबाज़ी की सी हालत में अयोध्या में ध्वस्त की गयी बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर के निर्माण और प्रबंधन के लिए श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट का ऐलान किया था। सरकार की इस घोषणा का सर्वोच्च न्यायालय की रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली संवैधानिक पीठ के 9 नवंबर, 2019 के आदेश के बाद से इंतज़ार था। प्रधानमंत्री मोदी ने सदन को सूचित किया कि ट्रस्ट विवादित 67.703 एकड़ भूमि का अधिग्रहण करेगा और वहाँ एक बाहरी और भीतरी प्रांगण होगा।

उन्होंने यह भी बताया कि उत्तर प्रदेश सरकार ने सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद के निर्माण के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार 5 एकड़ ज़मीन देने को अपनी मंज़ूरी दे दी है। उत्तर प्रदेश सरकार ने राम जन्मभूमि परिसर से लगभग 25 किलोमीटर और ज़िला मुख्यालय से लगभग 18 किलोमीटर दूर, लखनऊ राजमार्ग पर अयोध्या के ही धनीपुर गाँव में सुन्नी वक्फ बोर्ड को पाँच एकड़ ज़मीन देने पर सहमति व्यक्त की थी। अयोध्या के 14-कोसी इलाके के बाहर मस्जिद रखने की संतों की इच्छा योगी सरकार की सबसे बड़ी चिन्ता है।

एक स्वतंत्र ट्रस्ट के गठन के साथ ही सरकार ने श्री राम मंदिर का निर्माण फिर शुरू करने की एक बड़ी शुरुआत कर दी, जो तत्कालीन कांग्रेस सरकार के समय 9 नवंबर, 1989 को नींव रखने के तुरन्त बाद बन्द हो गयी थी। इस घटना में कांग्रेस के राजनीतिक के आधार और जन-समर्थन को बर्बाद कर दिया था और उत्तर प्रदेश में उसके भविष्य पर एक तरह का ग्रहण लगा दिया था। तबसे कांग्रेस ने राज्य में सत्ता का चेहरा नहीं देखा है और इसकी संगठनात्मक ताकत का भी क्षय हुआ है और उसने बड़ा झटका झेला है।

प्रधानमंत्री की संसद में घोषणा के बाद 5 फरवरी, 2020 को गृह मंत्रालय ने विवादित स्थल के आंतरिक और बाहरी प्रांगण सहित अयोध्या में केंद्र सरकार के अधिग्रहित पूरे क्षेत्र के सम्बन्ध में सभी अधिकार, टाइटल और हितों को निर्दिष्ट करते हुए एक अधिसूचना जारी की कि यह सब नवगठित श्री राम जन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट में निहित होंगे। हैरानी की बात है कि ट्रस्ट का पंजीकरण पूर्व अटॉर्नी जनरल और वरिष्ठ अधिवक्ता के परासरन के दक्षिणी दिल्ली निवास पर हुआ, जो 9 नवंबर, 1989 में हुए शिलान्यास समारोह के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के शीर्ष कानूनी सलाहकार थे। आरएसएस और विश्व हिन्दू परिषद् (विहिप) के नेताओं ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद के बगल में प्रस्तावित राम मंदिर की नींव रखी। कांग्रेस सरकार ने वीएचपी नेताओं से लिखित में यह आश्वासन ले लिया था कि वे यह सब विवादित ढाँचे के बाहर करेंगे।

मोदी सरकार ने बार के बहुत सम्मानित सदस्य के परासरन (93) को राम मंदिर ट्रस्ट का नेतृत्व करने के लिए ट्रस्टी के रूप में नियुक्त किया है। बता दें कि उन्होंने अयोध्या विवाद में सर्वोच्च अदालत की पाँच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ के सामने हिन्दू पक्षों के लिए रामलला विराजमान की ओर से बहुत मज़बूत पैरवी की थी। वे राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले में सुन्नी वक्फ बोर्ड और अन्य की तरफ से दायर मुकदमे में बचाव पक्ष के महंत सुरेश दास की ओर से पेश हुए। शीर्ष अदालत के अनुकूल फैसले के तुरन्त बाद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के दो शीर्ष नेता मोहन भागवत और सुरेश भैयाजी जोशी व्यक्तिगत रूप से अपने आवास पर पराशरन से मिलने गये और उनके योगदान के लिए धन्यवाद दिया।

सरकार ने ट्रस्ट में बिहार के एक दलित नेता कामेश्वर चौपाल को भी नामांकित किया, जो 9 नवंबर, 1989 को अयोध्या में राम मंदिर की आधारशिला रखने वाले लोगों में से एक थे। उनके अलावा जगद्गुरु माधवाचार्य स्वामी विश्व प्रसन्नतीर्थ, पेजावर मठ, उडुपी, जगद्गुरु शंकराचार्य ज्योतिषपीठाधीश्वर स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती,  प्रयागराज, उत्तर प्रदेश, युगपुरुष परमानंद महाराज, हरिद्वार, स्वामी गोविंददेव गिरि महाराज, पुणे, दीनेंद्र दास, निर्मोही अखाड़ा, अयोध्या, अनिल मिश्रा, अयोध्या के होम्योपैथिक चिकित्सक और हरिद्वार के परमानंद महाराज सदस्यों में से हैं।

बिमलेन्द्र मोहन प्रताप मिश्र नवगठित ट्रस्ट में अयोध्या के तत्कालीन शासकों के वंशज के रूप में शामिल हैं। सरकार में तीन दशक से अधिक समय तक मंदिर आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले संतों, आरएसएस या विहिप के प्रमुख चेहरों को शामिल नहीं किया, जिससे आन्दोलन के आन्दोलनकारियों में आक्रोश फैल गया। भाजपा नेतृत्व इन संतों और विहिप नेताओं को शान्त करने के लिए परदे के पीछे से प्रबंधन में जुटा है।

अयोध्या के आयुक्त एमपी अग्रवाल ने राम जन्मभूमि के संरक्षक के रूप में तत्कालीन अयोध्या शासक और नव मनोनीत न्यासी, बिमलेन्द्र मोहन प्रताप मिश्रा को पदभार सौंपा। सुप्रीम कोर्ट ने 24 अक्टूबर, 1994 को विवाद के तहत फैज़ाबाद के आयुक्त को जगह का आधिकारिक संरक्षक नियुक्त किया था। उन पर सुरक्षा, स्थल पर यथास्थिति बनाये रखने और भक्तों के अस्थायी मंदिर में धन और अन्य प्रसाद एकत्र करने का ज़िम्मा था। उत्साह से भरे अयोध्या के संत श्रीराम के भव्य मंदिर का शीघ्र निर्माण चाहते हैं और उन्होंने कहा कि राम नवमी को निर्माण शुरू करने का सबसे उपयुक्त समय है। राम मंदिर का एक डिज़ाइन और मॉडल अयोध्या के कारसेवक पुरम में प्रदर्शित किया गया है, जहाँ पिछले दो दशक से अधिक समय से कारीगर मूर्तियों और पत्थरों को तराशने का काम जारी रखे हुए हैं।

भरोसे का अभाव

नये घोषित राम मंदिर ट्रस्ट में मंदिर आन्दोलन के नेताओं की उपेक्षा के सरकारी फैसले से अयोध्या के संत नाराज़ थे। मंदिर आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले संतों में अपनी उपेक्षा से भाजपा नेतृत्व के प्रति ज़बरदस्त गुस्सा उभरा। उन्होंने सरकार के फैसले का विरोध करने वाले संतों की बैठक बुलायी, जिन्होंने इन सभी वर्षों में आन्दोलन का नेतृत्व किया। हालाँकि, बाद में गृह मंत्री अमित शाह के आश्वासन के बाद बैठक को स्थगित कर दिया गया।

मणि राम दास जी की चावनी मंदिर आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र था और इसके 82 साल के महंत रति गोपाल दास विहिप के अध्यक्ष राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष हैं; जो राम मंदिर बनाने के लिए प्रतिबद्ध निकाय है। ट्रस्ट में उनके प्रतिनिधियों के रूप में उनके नाम की सिफारिश की गयी थी; लेकिन सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया।

सरकार के फैसले से सबसे ज़्यादा नाराज़, नृत्य गोपाल दास ने उन विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व किया, जिन्होंने दशकों पुराने राम मंदिर आन्दोलन को गति दी। उन्होंने साधुओं की एक आपात बैठक बुलायी और 6 फरवरी, 2020 को शाम 5 बजे एक प्रेस कॉन्फ्रेंस निर्धारित की; लेकिन आिखरी समय में गृह मंत्री अमित शाह के आश्वासन से यह टल गयी। उन्होंने आश्वासन दिया कि उन्हें ट्रस्ट में जगह भी मिल जाएगी। क्योंकि वर्तमान में वे बाबरी विध्वंस मामले में मुकदमे का सामना कर रहे हैं; जो अगले महीने तक खत्म होने की सम्भावना है। अयोध्या के विधायक वेद प्रकाश गुप्ता, जिन्होंने अन्य स्थानीय नेताओं के साथ आन्दोलनकारी संतों से खराब व्यवहार किया और उन्हें मणि राम चावनी में प्रवेश नहीं करने दिया ने कहा कि हमने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ टेलीकॉफ्रेंसिंग की व्यवस्था करने के बाद महंत निराला गोपाल दास को शान्त करने में कामयाबी हासिल की।

उन्होंने दावा किया कि महंत दास को समायोजित करने के लिए तीन पद खाली हैं। महंत नृत्य गोपाल दास के उत्तराधिकारी, कमल नयन दास ने तहलका संवाददाता को बताया कि वैष्णव समाज को नज़रअंदाज़ कर दिया गया और ऐसे हालात में भरोसा पैदा नहीं हो सकता।

उन्होंने आरोप लगाया कि बसपा के टिकट पर विधानसभा चुनाव लडऩे के बावजूद, बिमलेंद्र मोहन प्रताप मिश्रा जैसे राजनीतिक लोगों को ट्रस्ट में शामिल किया गया और राम मंदिर आन्दोलन का नेतृत्व करने और बलिदान करने वालों को सरकार ने दरकिनार कर दिया। दिगंबर अखाड़े के महंत सुरेश दास ने भी असंतोष व्यक्त किया और अयोध्या के संतों को ट्रस्ट में शामिल नहीं किये जाने का विरोध किया। उन्होंने सवाल किया कि वो कहाँ हैं, जो राम मंदिर के लिए लड़े?

अयोध्या के संत बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में लंबित आपराधिक मुकदमे के कारण न्यास अध्यक्ष नित्य गोपाल दास और विहिप उपाध्यक्ष चंपत राय को ट्रस्ट में शामिल न किये जाने के बहाने को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। वे कहते हैं कि यदि यह कारण है, तो कल्याण सिंह और उमा भारती को राज्यपाल और केंद्रीय मंत्री के पद पर कैसे रखा गया।

मुस्लिम समुदाय में भी असंतोष

उत्तर प्रदेश सरकार के मस्जिद के लिए पाँच एक ज़मीन ज़िला मुख्यालय से लगभग 18 किलोमीटर दूर, राम जन्मभूमि से लगभग 25 किलोमीटर दूर धनीपुर गाँव में दिये जाने से आयोध्या शहर के मुसलमान दु:खी हैं। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक ज़फरयाब जिलानी ने तहलका संवाददाता से कहा कि मस्जिद बनाने के लिए यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को दी गयी भूमि अयोध्या (जिसका नाम पहले फैज़ाबाद था) में नहीं है, जैसा कि पिछले साल 9 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कहा गया था। यूपी सरकार ने पिछले साल दिवाली समारोह के दौरान फैज़ाबाद ज़िले का नाम बदलकर अयोध्या रखने की घोषणा की थी।

उन्होंने कहा कि सभी अदालती दस्तावेज़ों में मुकदमे में अयोध्या फैज़ाबाद का हिस्सा है; क्योंकि अयोध्या फैज़ाबाद का एक छोटा शहर था। इस अयोध्या को केवल एक शहर का नाम देकर और इसकी नगरपालिका सीमा का विस्तार करके नये बनाये गये अयोध्या ज़िले की बराबरी नहीं की जा सकती है। जिलानी ने कहा कि इसका मतलब यह नहीं है कि प्रस्तावित भूमि अभी भी अयोध्या में है। उन्होंने कहा कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी), मुस्लिम समुदाय के साथ-साथ सभी मुस्लिम संगठनों ने बाबरी मस्जिद के लिए वैकल्पिक भूमि स्वीकार करने से इन्कार कर दिया है। हालाँकि, भूमि सुन्नी वक्फ बोर्ड को दी जा रही है। जिलानी ने स्पष्ट किया कि एआईएमपीएलबी इसे अदालत में चुनौती नहीं देगा; लेकिन निश्चित रूप से इसे शीर्ष अदालत के फैसले के िखलाफ प्रस्तावित क्यूरेटिव याचिका का हिस्सा बना सकता है।

उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने शीर्ष अदालत के आदेशों के अनुसार बाबरी मस्जिद के बदले में एक मस्जिद के निर्माण के लिए पाँच एकड़ भूमि आवंटित करने के सरकारी निर्णय पर चुप्पी साध ली। वक्फ बोर्ड के चेयरपर्सन ज़फर फारुकी विदेश चले गये हैं और बोर्ड 24 फरवरी को होने वाली अपनी बैठक में यह तय कर सकता है कि उसे आवंटित ज़मीन बोर्ड को स्वीकार है या नहीं।

साक्षात्कार भाग-2: दो साल में बदल सकती है देश की सूरत

अच्छा, नेशनल चैनल बन्द कर दिया केंद्र सरकार ने, जो डोडापुर में था। वह चैनल तो देश का बड़ा चैनल था। पहले की सरकारों ने कभी रेडियो के चैनल इस तरह बन्द नहीं किये। अब ऐसा क्यों हो रहा है?

देखिए, यह आपने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया। दरअसल, मुझे जब आकाशवाणी बुलाया गया था, मेरा चयन हुआ था, तो वह इसी चैनल की शुरुआत के लिए हुआ था। आपको बता दें कि इस चैनल की स्थापना के बाद हम लोगों ने जी-जान लगाकर उसको एक ऊँचाई दी थी। जिस समय नेशनल चैनल स्थापित हुआ था, हम लोग रातभर जागे। तो जो खुशी थी, उसको बयान नहीं किया जा सकता। नेशनल चैनल भारत का सबसे बड़ा चैनल था और उसकी सहूलियत यह थी कि आप उत्तर दक्षिण भारत चले जाएँ या दक्षिण भारत में, जो हिन्दी के जानने वाले हैं वहाँ, वे वहाँ भी हिन्दी के कार्यक्रम सुन सकते थे। दूसरा क्या था कि जैसे अमूमन चैनल रात को 11-12 बजे बंद हो जाते हैं; लेकिन नेशनल चैनल इकलौता ऐसा चैनल था, जिसको हम रात में भी कभी भी सुन सकते थे। तो उसका बन्द होना तो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। पता नहीं क्यों इस सरकार ने ऐसा निर्णय लिया? वहाँ हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी, सभी भाषाओं के कार्यक्रम होते थे। वह एक अकेला ऐसा चैनल था, जो देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों के भी कई राज्यों में प्रसारित होता था। उस चैनल को लोग श्रीलंका, नेपाल, मालद्वीप और पाकिस्तान तक में लोग सुनते थे। हज़ारों चिट्ठियाँ आती थीं, उस ज़माने में। जगह-जगह से लोग तारीफ करते थे हमारे कार्यक्रमों की। अपनी फरमाइशें भेजते थे। यह कोई रुटीन स्टेशन नहीं था, उसके लिए तो दिल्ली स्टेशन है। उसका जो ढर्रा था, वह जैसे बीबीसी के पैटर्न है, ऐसा था। मतलब उसमें रेडियो जर्नलिज्म था। अलग तरीके के कार्यक्रम होते थे। फाइनेंसियल रिब्यू का कार्यक्रम होता था और करेंट अफेयर्स के कार्यक्रम होते थे; तो वह तो एक पूरा दायरा जो है, वह बहुत अलग था। उसका बन्द होना तो एक निहायत दुर्भाग्यपूर्ण है; और अफसोस की बात है कि इस बात के लिए कोई आवाज़ भी नहीं उठी कहीं से। वह तो कम-से-कम एक देश को जोडऩे वाला चैनल था और उसकी स्थापना का उद्देश्य भी इसी के लिए हुआ था। आपको बता दें कि जब इस चैनल का उद्घाटन हुआ था, तो हम लोग रात भर जागे थे। एक खुशी थी। मैं पूरी रात में सोया नहीं था। इतनी खुशी थी कि जब पूरा कार्यक्रम के 2:30 बजे रिकॉर्ड   हो गया, तो रात भर लगा रहा मैं उसमें। क्या था कि देश भर के प्रतिष्ठित लोग उस चैनल पर कार्यक्रम के लिए आते थे। आप सोचिए कि तंदूर कांड दिल्ली में हुआ, तो भाग लेने वाले इंद्र कुमार गुजराल साहब, अटल बिहारी वाजपेयी साहब थे, जो दोनों बाद में देश के प्रधानमंत्री बने; और नवल किशोर शर्मा थे, जो इंदिरा गाँधी की कैबिनेट मंत्री थे और बाद में गुजरात के राज्यपाल बने। इस कार्यक्रम का संचालन एक बहुत बड़े मूर्धन्य पत्रकार थे भारत के, उनका नाम में इस समय भूल रहा हूँ; उन्होंने इसका का संचालन किया था कार्यक्रम। तो यह हमारा स्टैंडर्ड होता था। स्थिति यह थी कि अगर

8:45 बजे कहीं खबर आती थी कि किसी को नोबेल पुरस्कार मिल गया, तो वह हम पहले ही 8:05 बजे ही बता चुके होते थे। तो यह बहुत ही तेज़ चैनल था। पाकिस्तान में सब लोग जानना चाहते थे कि क्या नयी खबरें हैं। इसमें स्पोट्र्स के कार्यक्रम भी हम देते थे। जब हमारा स्पोट्र्स कार्यक्रम शुरू होता था, तो लाखों लोग उसे सुनते थे। तो इसके बहुत श्रोता थे। तब इंटरनेट तो था नहीं। यह मैं सन् 1988 की बात कर रहा हूँ। हमारे यहाँ तो पीटीआई और यूएनआई के टेलीप्रिंटर भी लगे थे। एकदम बिल्कुल ताज़ा-तरीन सूचनाएँ लोगों तक पहुँचाते थे हम। उस समय जब लोग रोज़े रखते थे, तो हिन्दुस्तान से पाकिस्तान तक सुबह-सुबह नेशनल चैनल सुनते थे। उन्हें सारी जानकारी इस चैनल से मिल जाती थी। वह हम लोगों ने शुरू किया, तो भारत के सभी लोग और भारत से बाहर के लोग उसे सुना करते थे। जो देश कार्यक्रम सुना करते थे, उसमें श्रीलंका, नेपाल, पाकिस्तान और मालदीव के लोग शामिल थे। हज़ारों चिट्ठियाँ आती थीं। उस समय यह एक बहुत बड़ी योजना थी नेशनल चैनल की। उसका बहुत बड़ा ट्रांसमीटर नागपुर में तो था ही, 1000 वार्ड का भारत का सबसे बड़ा और तीन और ट्रांसमीटर लगाने की योजना थी- एक पूर्वी भारत में, एक एक उत्तर भारत में और एक दक्षिण भारत में। यह बहुत महत्त्वाकांक्षी परियोजना थी। बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि यह खत्म हो गया। इसका बहुत अफसोस किया जाना चाहिए। क्योंकि इन चीज़ों का हम किसी गणित के सूत्र की तरह आकलन नहीं लगा सकते कि इससे कितने लोगों को फायदा हो रहा था या कितने लोगों का इससे लगाव था।

सुना है जब स्मृति ईरानी एचआरडी मिनिस्टर थीं, तब बिना रिक्तियाँ निकाले कुछ भर्तियाँ कर दी गयीं?ं

नहीं, देखिए हम 2015 तक थे वहाँ, उसके बाद क्या हुआ हमें नहीं मालूम। हम जब थे, तब अरुण जेटली जी एचआरडी मिनिस्टर थे। तब तो कुछ ऐसा नहीं हुआ, बाद में पता नहीं क्या बदलाव आये आकाशवाणी में।

मैंने सुना है कि आपका मन की बात को लेकर कोई विवाद हुआ था? शायद आपने जनता की ओर आया कोई सवाल कर दिया था प्रधानमंत्री से?

नहीं, नहीं; मेरे समय ऐसा कुछ नहीं हुआ था। शुरू में ज़रूर जब यह कार्यक्रम शुरू हुआ था, तो सामान्यतया कुछ चीज़ें होती हैं, जैसे उच्चारण को लेकर, तकनीकी सहयोग को लेकर, जो बतानी ही पड़ती हैं। वो मैंने उनके (प्रधानमंत्री के) अधिकारियों को बता दी थीं और उन्होंने ठीक भी कीं।

आप एक अच्छे शायर/कवि हैं। आपकी ख्याति भी बहुत है। आकाशवाणी में आपका चयन क्या आपके कवि होने के आधार पर हुआ था?

आकाशवाणी में सेवा के दौरान मैंने कभी अपनी कविताओं का रेडियो पर प्रसारण नहीं किया। मैंने इसको नौकरी से बिल्कुल अलग रखा। रही कविता की बात, तो यह कला तो मुझमें बहुत पहले आ गयी थी। अच्छा, आकाशवाणी में मेरा चयन भी इसी आधार पर हुआ था। होता क्या था कि आकाशवाणी में चयन की शर्त ही यह थी कि अभ्यर्थी के पास मास्टर डिग्री के साथ-साथ साहित्य में, विज्ञान में, संगीत में या अन्य किसी विधा में राष्ट्रीय स्तर की उपलब्धि होनी चाहिए। तो मेरा चयन भी इसी आधार पर हुआ था। क्योंकि आकाशवाणी ज्वाइन करने से पहले मैं राष्ट्रीय स्तर पर कवि के रूप में जाना जाने लगा था। मैं सन् 74 में एक तरह से नियमित तौर पर कविता के क्षेत्र में आ गया था। इसका मुझे आकाशवाणी में बहुत फायदा मिला। मैंने इस विधा के नये-नये कलाकारों को खोज-खोजकर मौके दिये? आकाशवाणी में आने के बाद मैंने कई प्रयोग किये। जैसे मैं फिजिक्स का छात्र रहा हूँ, तो मैंने विज्ञान सम्बन्धी कार्यक्रम बहुत कराये, ताकि युवाओं में वैज्ञानिक मानसिकता का विकास हो। दूसरा यह है कि मैं कवि/साहित्यकार भी हूँ, तो कवियों/साहित्कारों को भी मैंने मौके दिये। सोचो कम-से-कम एक दर्जन से ज़्यादा कार्यक्रम मैं करता था। मैं हर महीने आमंत्रित श्रोताओं के लिए तरह-तरह के कार्यक्रम करता था।

कुछ लोग आतुकांत कविताएँ लिखने के नाम पर गद्य की पंक्तियाँ तोड़-मरोड़कर लिख देते हैं। चुटकुलेबाज़ी करते हैं। क्या उसे कविता कहेंगे?

नहीं, देखिए सवाल आतुकांत कविता का नहीं है। सवाल है हास्य-व्यंग्य के नाम पर फूहड़ता परोसने का। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। आतुकांत कविता तो आजकल खूब लिख रहे हैं लोग और अच्छी कविताएँ लिख रहे हैं। मैं भी आतुकांत कविता लिखता-सुनाता हूँ, लालिकले से भी मैंने अपनी आतुकांत कविता पढ़ी है। लेकिन, उसमें संप्रेषणीयता होनी चाहिए, वह लोगों को समझ में आनी चाहिए। अब हर क्षेत्र में कुछ लोग तो ऐसे होते हैं, जो अच्छा काम नहीं कर पाते, मगर ऐसे लोगों की संख्या काफी कम है। ऐसे लोग समझते हैं कि गद्य की एक पंक्ति छोटी और एक बड़ी कर देने से, वह भी जटिल सी; कविता हो जाती है, तो या एक भूल है। बाकी हर विधा में अनेक स्वरूप होते हैं। अब हर बात तो छंद या गज़ल में कही नहीं जा सकती, तो आतुकांत कविता वहाँ बड़ा अच्छा माध्यम बनती है। जैसे अगर हर बात कहानी में कही जा सकती थी, तो उपन्यास की ज़रूरत क्यों पड़ती और अगर उपन्यास में हर बात कही जा सकती तो कहानी और फिर लघु कथा की आवश्यकता क्यों पड़ती?

इसीलिए आकाशवाणी में मैंने कविता के सात रंग के नाम से एक कार्यक्रम चलाया। उसमें क्या होता था कि मैं कविता की हर विधा के रचनाकारों को बुलाता था। शायरों को भी और कवियों को भी। तो उनमें दूरियाँ घटती थीं।

इसी तरह उर्दू के एक कार्यक्रम में हम एक बुजुर्ग शायर, को एक प्रौढ़ शायर को और एक युवा शायर को एक साथ बुलाते थे। ऐसे बहुत से कार्यक्रम हम चलाते थे। जैसे- सिलसिला, शाम की चाय आदि-आदि।

इन कार्यक्रमों में पद्म विभूषण और इसी तरह की बड़ी-बड़ी हस्तियों को भी बुलाते थे और युवाओं को भी मौके देते थे। बड़ी हस्तियों में सोनल मानसिंह, एक बहुत बड़ी लोकसभा  अध्यक्ष थीं हमारी, वो, बछेंद्री पाल, हरिप्रसाद चौरसिया जैसी हस्तियाँ आती थीं। इसी तरह हमने एक कार्यक्रम चलाया कथा गोष्ठी। इसमें निर्मल वर्मा, मैत्रेयी पुष्पा, राजेंद्र यादव, चित्रा मुद्गल, मतलब जितने बड़े-बड़े नाम आप सोच सकते हो; सबको बुलवाकर हम आम लोगों और नये कलाकारों से जोडऩे की कोशिश करते थे। ऐसे कार्यक्रम तो लगातार साहित्य अकादमी भी नहीं करा पाती।

अब देखिए, हम एक कार्यक्रम चलाते थे जनमंच मंच। इस कार्यक्रम में हम केंद्रीय मंत्रियों, केंद्र के बड़े अधिकारियों को बुलाते थे। इसमें जनता सीधे जन-समस्याओं को उनके सामने रखती थी। तो एक बार क्या हुआ कि कश्मीर में सेव की फसल खराब हो रही थी। तो एक केंद्रीय मंत्री को आकाशवाणी के कार्यक्रम में जैसे ही पता चला, उन्होंने दूसरे दिन ही अपनी टीम हवाई जहाज़ से वहाँ भेजी और करोड़ों रुपये की सेब की फसल बच गयी। इसी तरह उस समय रेलमंत्री से एक कार्यक्रम में मैंने ही कहा कि ट्रेनों में जनरल के दो ही डिब्बे होते हैं, जिससे जनता को बहुत परेशानी होती है। तो उन्होंने उसी समय घोषणा की कि अब से हर ट्रेन में जनरल के चार डिब्बे लगेंगे और तब से हर ट्रेन में जनरल के चार-चार डिब्बे लग गये, जो आज तक चल रहे हैं। तो यह भी हमारी आकाशवाणी दिल्ली की देन है। इसी तरह एक बार हमने दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीली दीक्षित को बुलाया, तो पुरानी दिल्ली में किसी स्रोता ने फोन करते कहा कि वहाँ कई साल से पानी बह रहा है, जिससे बहुत परेशानी होती है। तो वहाँ के लोगों की वह समस्या सात दिन के अन्दर हल हो गयी। मतलब फोनिंग कार्यक्रम के माध्यम से जनता अपने प्रतिनिधियों से सीधे संवाद करती थी। और मेरा मानना है कि अगर सभी चैनलों पर या िफजूल चीखने-चिल्लाने और वाहियात िकस्म की सनसनी फैलाने की बजाय पत्रकार सही तरीके से पत्रकारिता करें, जिसे हम डवलपमेंटल जर्नलिज्म कहते हैं; तो देश का महज़ दो साल में कायाकल्प हो सकता है।

आपने अनेक प्रतिभाओं को मौके दिये। कैसा लगता है?

मैं आकाशवाणी के अपने सेवाकाल में शाम को छुट्टी के बाद कभी सीधे घर नहीं गया। और मैंने कभी छुट्टी भी नहीं ली सिवाय माँ-बाप के गुज़रने के समय के अलावा। दफ्तर से मैं सीधे कार्यक्रमों में जाता था। यह मैंने हमेशा किया है, ताकि नयी-से-नयी प्रतिभाओं की खोज की जा सके। इस तरह मैं अनेक प्रतिभाओं को खोज-खोजकर उभारने का प्रयास करता रहा। आज उनमें कई प्रतिभाएँ नेशनल स्तर पर सम्मानित हैं। अच्छा लगता है।

सही कहा, आप कविता के लिए समय कैसे निकालते हैं?

यह सिलसिला भी चलता रहा। जैसा कि मैंने बताया कि मैं दफ्तर से कभी सीधे घर नहीं गया। इसी तरह कविता के लिए समय निकालकर मेहनत करता रहा और मेरा सौभाग्य रहा कि मैं देश-विदेश में अनेक कार्यक्रमों में कवितापाठ करता रहा हूँ। अभी 22 फरवरी को एक कार्यक्रम में मैंने कविता की 25 विधाओं में रचनापाठ किया था।

आपकी पत्नी ममता किरण जी भी कवयित्री हैं। आप दोनों के बीच में तारतम्य बनता है?

हाँ, तारतम्य बनता है। दोनों अपने-अपने काम पर ध्यान देते हैं। कई कार्यक्रमों में हम दोनों साथ-साथ रचनापाठ करने जाते हैं और कई बार हमें पता ही नहीं होता कि उनका कहाँ कार्यक्रम है? एक बार तो एक ही संस्था ने दोनों को बुलाया और दोनों को ही पता नहीं था इस बात का। वे उर्दू प्रोग्राम में गयीं और मैं हिन्दी प्रोग्राम में; वहाँ जाकर हमें पता चला कि एक ही संस्था ने दोनों को बुलाया है।

मनप्रीत की ऐतिहासिक छलाँग

भारतीय हॉकी टीम के कप्तान मनप्रीत सिंह को 2019 का सर्वश्रेष्ठ हॉकी खिलाड़ी चुना गया है। यह खिताब जिसकी शुरुआत 1999 से की गयी थी; को पाने वाले वे पहले भारतीय खिलाड़ी हैं। इन पुरस्कारों की घोषणा अंतर्राष्ट्रीय हॉकी फैडरेशन (एफआईएच) ने पिछले दिनों की। इस स्पर्धा में उनके मुकाबले विश्व चैंपियन बेल्जियम के विक्टर वेगनेज, आर्थर वान डोरेन और आस्ट्रेलिया के जालेव्स्की व ओकेंडेन भी थे। इनके अलावा उनका मुकाबला ओंलपिक चैंपियन अर्जेंटीना के लुकास विला के साथ भी था। यहाँ आर्थर दूसरे व विलास तीसरे स्थान पर रहे। यह पुरस्कार जीतने के बाद मनप्रीत ने खुशी जाहिर की और कहा कि मैं यह पुरस्कार पूरी टीम को समर्पित करता हूँ। उन्होंने अपने शुभचिंतकों और हॉकी प्रेमियों का भी धन्यवाद किया और साथ ही देश में हॉकी को मिलने वाले समर्थन को भी सराहा।

26 जून 1992 को जलंधर में जन्में मनप्रीत सिंह पवार मई 2017 से भारतीय टीम के कप्तान हैं। हाफ लाइन में खेलने वाले मनप्रीत ने 19 साल की उम्र में पहली आर देश का प्रतिनिधित्व किया। यह साल था 2011 का। उन्होंने 2012 और 2016 की ओलंपिक खेलों मेें भाग लिया। वे 2014 में एशिया के  जूनियर प्लेयर ऑफ  दा ईयर चुने गये। भारतीय हॉकी टीम के पूर्व कप्तान परगट सिंह और मनप्रीत एक ही गाँव मीठापुर के है। उन्होंने अब तक 260 से ज़्यादा मैच खेले हैं।

ओलंपिक 2020: अब पदक दूर नहीं भारत से

ओलंपिक खेल बस कुछ ही दूर हैं। किसी समय हॉकी की दुनिया का बादशाह भारत अब पदक के लिए तरस रहा है। इतिहास पर नज़र डालें या आँकड़ों को देखें तो भारत हॉकी में आठ स्वर्ण, एक रजत और दो कांस्य पदक जीत कर आज भी सबसे आगे है। पर गौर करने की बात यह है कि इन में से छह स्वर्ण पदक 1928 से 1956 के बीच आये। फिर 1960 के रोम ओलंपिक में सोने का रंग बदल कर चाँदी का हो गया। 1964 (टोक्यो) में भारत ने अपनी साख बचायी और सेंटर हाफ चरणजीत सिंह के नेतृत्व में खेल रही भारतीय टीम मोहिंदर लाल के गोल की बदौलत सातवाँ स्वर्ण पदक जीत गयी।

इसके बाद हॉकी गर्त ओर जानी शुरू हो गयी। हॉकी प्रशासन की लाचारी देखिए कि 1968 के मैक्सिको ओलंपिक में गयी टीम के दो कप्तान बनाने पड़े। ये थे गुरबख्श सिंह और पृथिपाल सिंह। यहां यह टीम पहला ही लीग मैच न्यूज़ीलैंड से 1-2 से हारी और सेमीफाइनल में भी आस्ट्रेलिया ने भारत को इतने ही अंतर से हराया। इस प्रकार पहली बार भारत ओलंपिक हॉकी के फाइनल में नहीं था। पर वह कांस्य पदक जीतने में सफल रहा। 1972 के म्युनिक ओलंपिक में भी हालत यही रही। भारत कांस्य पदक लाया। 1976 के मांट्रियल ओलंपिक मेें पहली बार ‘एस्ट्रो टर्फ’ का इस्तेमाल हुआ और पहली बार अजितपाल सिंह के नेतृत्व में वहाँ गयी, भारतीय टीम सेमीफाइनल से भी बाहर हो गयीं। यह वही टीम थी, जिसने एक साल पहले (1975) विश्व कप जीता था।

हॉकी खेल मेें भारत का अंतिम स्वर्ण पदक या पदक 1980 के मास्को ओलंपिक में आया। ध्यान रहे कि हॉकी खेलने वाले लगभग सभी देशों ने इन खेलों का वहिष्कार किया था। यहां भारत ने स्पेन को फाइनल में 4-3 से हटा कर 16 साल बाद यह िखताब अपने नाम किया था।

इस बात को आज 40 साल हो गये। भारत के खेल प्रेमी आज भी टकटकी लगाये उस स्वर्ण पदक की राह देख रहे हैं, जो भारत से यूरोप और अब अमरीकी उपमहाद्वीप (आर्जेंटीना) पहुँच गया है। यूरोप में भी जर्मनी और नीदरलैंड्स को चुनौती देने वाली बैल्जियम की टीम पैदा हो चुकी है। एशिया में भारत और पाकिस्तान को टक्कर देने वाली कोरिया, जापान और मलेशिया की टीमें है। एशियायी खेलों में हॉकी का िखताब जापान ने जीता है।

भारत चौथी रैंकिंग पर

मनप्रीत सिंह ने नेतृत्व में इस बार टोक्या  ओलंपिक में खेलने जा रही भारतीय टीम काफी आस बँधा रही है। आईएचएफ प्रो हॉकी लीग में जिस प्रकार उसने नीदरलैंड्स को लगातार दो मैचों में 5-2 और 3-1 (3-3) से हटाया उसके बाद विश्व कप विजेता बैल्जियम से एक मैच जीता और एक हारा उससे आज भारत विश्व रैंकिंग में चौैथे स्थान पर है। 1980 के बाद यह पहला अवसर है जब भारत इस स्थान पर है। इस बीच कप्तान मनप्रीत को विश्व का सर्वश्रेष्ठ हॉकी खिलाड़ी घोषित किया जाना टीम के मनोबल को बढ़ा रहा है।

नज़र स्वर्ण पदक पर क्यों नहीं?

पिछले समय से हॉकी में जो नया खून आया है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो सफलता भारत को मिल रही है, उसके बावजूद आज तक किसी अधिकारी या कप्तान का यह बयान नहीं आया है कि वे स्वर्ण पदक जीतेंगे। बस सेमीफाइनल खेलने की बात करते हैं। ओलंपिक में हर मैच फाइनल जितना ही कठिन होता है। यदि आप सेमीफाइनल खेलने में सक्षम है तो उसे जीतने में भी समर्थ हैं। यदि सेमी फाइनल जीता जा सकता है, तो फिर फाइनल क्यों नहीं? बात केवल मानसिकता है। इसके बारे में टीम के कोच रीड को सोचना होगा। भारत ने बहुत से मैच केवल इसलिए हारे हैं। क्योंकि वह जीतने के लिए मानसिक तौर तैयार नहीं था। भारत के युवा और अनुभवी खिलाड़ी हैं, यदि मनदीप सिंह, आकाशदीप, रमनदीप जैसे खिलाड़ी हमला बनाते समय ‘डी’ मेें अपने दिमाग पर पूरा संतुलन रखें तो कोई वजह नहीं गोल न हो सके। इसी प्रकार रूपिंदर पाल, सुरेंद्र कुमार और कोठाजीत सिंह और हरमनप्रीत जैसे डीप डिफेंस के खिलाड़ी विपक्षी हमले के समय शान्त और सतर्क रहें, तो किसी भी हमले को टाला जा सकता है। इनमें विश्वास इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि गोल में पीआर श्रीजेश या कृष्ण पाठक जैसे गोल रक्षक तैनात रहेंगेे। हाफ लाइन शुरू से भारत की ताकत रही है। इसमें कप्तान मनप्रीत के साथ चिंगलेनसाना, हार्दिक सिंह, सुमित और नीलकांत जैसे खिलाड़ी मौज़ूद हो सकते हैं। विरेंद्र लाकड़ा और अमित रोहदास भी रक्षा पंक्ति को मजबूती देने में सक्षम हैं। इस तरह कागज़ पर भारतीय खिलाड़ी किसी भी कमज़ोर नहीं हैं।

इतिहास दोहराना होगा

इस हॉकी टीम पर देश का गौरव वापिस लाने की ज़िम्मेदारी है। 1980 में स्वर्ण पदक जीतने के बाद 1982 की दिल्ली एशियाई खेलों में टीम का प्रदर्शन काफी निराशाजनक था। 1984 के लॉस एंजिलेस ओलंपिक में ज़फा इकबाल के नेतृत्व में गयी टीम ने अमेरीका (5-1), मलेशिया (3-1) और स्पेन (4-3) पर जीत दर्ज की लेकिन आस्ट्रेलिया से 2-4 से हार कर व जर्मनी से 0-0 ‘ड्रा’ खेल कर सेमीफाइनल की दौड़ से बाहर हो गयी। अंत में उसे पाँचवें स्थान पर संतोष करना पड़ा। यहाँ पाकिस्तान से अपना तीसरा स्वर्ण पदक जीता। 1988 के सियोल ओलंपिक में भी कहानी में कोई अंतर नहीं दिखा सोवियत यूनियन जैसी टीम से 0-1 से हारने से शुरूआत करने वाली भारतीय टीम दक्षिण कोरिया को 3-1 से और कनाडा को 5-1 से हराने में तो सफल रही पर ब्रिटेन से 0-3 से हार गयी और जर्मनी के साथ 1-1 से ‘ड्रा’ खेल कर पदक की दौड़ से बाहर हो गयी। क्लासीफिकेशन मैचों में भारत ने अर्जेटीना के साथ 6-6 से ‘ड्रा’ खेला और पेनाल्टी स्ट्रोक्स में 4-3 की जीत दर्ज कर 05वें स्थान के लिए खेलने की भागेदार बनी पर यहाँ पर पाकिस्तान से 1-2 से हार कर छठे स्थान पर चली गयी। इस प्रकार उसने अपना पाँचवाँ स्थान भी खो दिया।

टीम में यह गिरावट 1992 के बार्सिलोना ओलंपिक में भी जारी रही। परगट सिंह के नेतृत्व मेें खेल रही भारतीय टीम अपने पहले ही लीग मैच में जर्मनी से 0-3 से पिट गयी। फिर उसने अर्जेंटीना से 1-3 से और आस्ट्रेलिया से 0-1 से हार क रवह केवल पाँच से आठवें स्थान के मैच खेलने लायक ही रह गयी। इनमें भी वह स्पेन से 0-2 से हार गयी, पर न्यूज़ीलैंड को 3-2 से हरा कर सातवाँ स्थान ही ले पायी।

अटलांटा (1996) का ओलंपिक भारत की रैंकिंग को और नीचे ले गया। इस ओलंपिक से पूर्व भारत एक विवाद में भी घिर गया था। आरोप था कि ओलंपिक क्वालीफाइंग ट्रर्नामेंट में कनाडा को बाहर रखने के लिए भारत और मलेशिया ने जानबूझकर गोल रहित मैच खेला। इस ‘ड्रा’ के कारण मलेशिया की टीम ओलंपिक के लिए क्वालीफाई कर गयी। भारतीय टीम के कोच सेड्रिक डीसूजा इस बात पर सख्त खफा थे। टीम पर भी इसका दबाव था पर यहाँ टीम ने लीग का केवल एक ही मैच हारा वह भी अर्जेंटीना से 0-1 के स्कोर पर। उसने जर्मनी के साथ 1-1 से ‘ड्रा’ और पाकिस्तान के साथ भी 0-0 से ड्रा खेला। उसने दो मैच जीते भी पहला अमेरीका के साथ 4-0 से और दूसरा स्पेन से 3-1 से लेकिन क्लासीफिकेशन मैचों में कोरिया और ब्रिटेन से हारने के बाद भारत की टीम आठवें स्थान पर खिसक गयी।

भारत के लिए सेमीफाइनल मेें प्रवेश का सबसे अच्छा मौका 2000 के सिडनी ओलंपिक में आया था। रमनदीप सिंह के नेतृत्व में भारत ने लीग के दो मैच जीते दो ‘ड्रा’ रहे और वह केवल एक मैच हारे। यहाँ विंडम्बना यह थी कि आस्ट्रेलिया और पोलैंड के िखलाफ दोनों ही मैचों में भारत अंतिम दो मिनट तक जीत रहा था। आस्ट्रेलिया के िखलाफ वह 2-1 से आगे था और पोलैंड के िखलाफ 1-0 से। दोनों ही मैचों में भारत के बाएँ फ्लैक से आगे ‘थ्रू’ पास द्वारा विपक्षी टीमों ने राइट इन की पोजीशन से गोल किए। ऐसा लगता था जैसे एक गोल दूसरे का ‘री प्ले’ हो। यहाँ भारत को सातवाँ स्थान मिला।

अगला ओलंपिक 2004 में ओलंपिक खेलों की जन्मस्थली एथेन्स में हुए। पर यहाँ भी भारत का भाग्या नहीं बदला। यहाँ भारत अपने तीन लीग मैच हार गया। वह नीदरलैंड्स से 1-3 से, आस्ट्रेलिया से 3-4 से और न्यूज़ीलैंड से 1-2 से हारा। अर्जेंटीना के साथ वह 2-2 से बराबर रहा। उसने केवल एक मैच जीता वह भी दक्षिण अफ्रीका से जिसे उसने 4-2 परास्त किया। लीग में उसने 11 गोल किए और 13 खाए इस प्रदर्शन के साथ भारत को फिर सातवें स्थान पर संतोष करना पड़ा।

इस बीच टीम की हालत इतनी खराब हो गयी कि वह 2008 ओलंपिक के लिए क्वालीफाई भी नहीं कर पायी। इसके बाद कई बदलाव हुए और आिखर 2012 के लंदन ओलंपिक में वह खेलने गयी। पर हालात खराब ही थे। यहां उसने अपने सभी लीग मैच हारे। पहले वह नीदरलैंड्स से 2-3 से, फिर न्यूजीलैंड से 1-3 से, जर्मनी से 2-5 से दक्षिण कोरिया से 1-4 से बेल्जियम से 0-3 से परास्त हुए। इतना ही नहीं क्लासीफिकेशन मैच में भी टीम दक्षिण अफ्रीका से 2-3 से हार गयी। इस टूर्नामेंट में भारत ने कुल आठ गोल किये और 20 खाये। यहाँ भारत 12 टीमों में 12वें स्थान पर रहा। इससे पूर्व 1986 के लंदन विश्वकप में भी भारत सबसे निचले स्थान पर था। इतना होने के बाद भी टीम से सुधार हो रहा था कोच बदले गये नये खिलाड़ी आये। टीम ने कुछ अंतर्राष्ट्रीय मुकाबलों में कुछ सफलताएँ हासिल कीं और 2016 के रिये, ओलंपिक में टीम काफी उत्साह से गयी। अब उसके पास खोने को कुछ नहीं था। लीग के पहले मैच में उसने आयरलैंड का 3-2 से परास्त किया। पर जर्मनी से 1-2 हार गयी। फिर उसने अर्जेंटीना को 2-1 से हटाकर आस बँधाई पर नीदरलैंड्स से 1-2 की हार और कनाडा से 2-2 के ‘ड्रा’ ने उम्मीदों पर पानी फेर दिया। इस प्रकार भारत ने पूल के पांच मैचों में  से दो जीते, एक ड्रा किया और दो हारे और सात अंक हासिल कर ग्रुप में चौथा स्थान पाया। इस दौरान उसने नौ गोल किये और नौ ही खाये। पर वह क्वार्टरफाइनल में प्रवेश कर गयी। उम्मीद भी केवल जीत की। लेकिन अंत में रजत पदक विजेता बनी बेल्जियम ने क्वार्टरफाइनल में भारत को 3-1 से हरा कर उसका सपना तोड़ दिया। ध्यान रहे कि इस मैच में पहला गोल भारत ने 15वें मिनट में ही कर दिया था। दूसरे क्वार्टरफाइनल में नीदरलैंड्स ने आस्ट्रेलिया को 4-0 से, अर्जेंटीना ने स्पेन को 2-1 से और जर्मनी ने न्यूजीलैंड को 3-2 से हरा कर अंतिम चार में प्रवेश किया था। इन ओलंपिक खेलों में नया इतिहास बना, जबकि नीदरलैंड्स और जर्मनी सेमीफाइनल से परास्त हो गए। नीदरलैंड्स को बेल्जियम ने 3-1 से और जर्मनी को अर्जेंटीना ने 5-2 से हराया। इस प्रकार 1900 से चली ओलंपिक हॉकी में पहली बार अमेरीकी उपमहाद्वीप की कोई टीम फाइनल मेें पहुंची थी। दूसरी ओर बेल्जियम भी पहली बार ही फाइनल में था। फाइनल में अर्जेंटीना ने बेल्जियम को 4-2 से हरा कर स्वर्ण पदक जीता जबकि नीदरलैंड्स ने जर्मनी को परास्त कर कांस्य पदक पाया। भारत आठवें स्थान पर रहा। 2020 का यह ओलंपिक भारतीय हॉकी के लिए नया अध्याय लिख सकता है। टीम में जोश है और पूरी टीम फार्म में नज़र आ रही है। भारत को अपना पहला मैच न्यूजीलैंड के साथ खेलना है। अगला मुकाबला 236 जुलाई को विश्व चैंपियन आस्ट्रेलिया के साथ, 28 जुलाई को स्पेन के साथ, 30 जुलाई को पिछले विजेता अर्जेंटीना के साथ और 31 जुलाई को मेजवान जापान के साथ होगा।

कश्मीर में सशर्त इंटरनेट बहाल

अनुच्छेद-370 हटाये जाने के करीब छ: महीने बाद सरकार ने 25 जनवरी को कश्मीर में पूरी तरह से बन्द मोबाइल इंटरनेट सेवा की 2जी सुविधा को बहाल कर दिया। भले ही इसेचुनिंदा संस्थानों के ज़रिये ब्रॉडबैंड एक्सेस की अनुमति दी गयी थी। इसमें कहा गया था कि वे सरकारी आदेशों का उल्लंघन नहीं करेंगे, लेकिन इसकी सुविधा में में भी कई तरह की पाबंदियाँ लगायी गयी हैं।

कहने को तो घाटी में इंटरनेट सेवा को बहाल कर दिया गया है, लेकिन इस सेवा की सुविधा बेहद सीमित रूप में मिल रही है। लोग अपने ईमेल के अलावा ज़्यादा कुछ एक्सेस नहीं कर सकते हैं। घाटी के एक छात्र लकीक अहमद बताते हैं कि किसी भी वेबसाइट को खोलना संघर्ष करने जैसा है। बड़ी मुश्किल से काई एकाध वेबसाइट खुलती हैं। इससे अच्छा तो यही था कि इंटरनेट सेवा उपलब्ध ही नहीं थी।

अधिकतर वेबसाइटों को खोल भी नहीं सकते हैं या कहें कि सीमित वेबसाइट ही खुल पा रही हैं। 24 जनवरी को जारी एक आदेश के अनुसार, सरकार ने केवल 301 व्हाइट लिस्टेड साइट्स को ही एक्सेस करने के लिए कश्मीर में ब्रॉडबैंड और 2जी इंटरनेट सेवा बहाल की है। बाद में इस सूची में समाचारों की वेबसाइट को भी शामिल किया गया। संशोधित सूची में करीब 60 न्यूज वेबसाइट जिनमें केंद्र शासित प्रदेश के प्रमुख अखबारों की वेबसाइट शामिल हैं। इनमें कश्मीर टाइम्स, डेली एक्सेलसियर, स्टेट टाइम्स, अर्ली टाइम्स, कश्मीर ऑब्जर्वर, ग्रेटर कश्मीर, कश्मीर उज़मा, कश्मीरी इमेज, कश्मीर एज और राइजिंग कश्मीर के साथ-साथ राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुख्यधारा की समाचार वेबसाइट्स भी हैं। घाटी में सिर्फ इन्हीं सूचीबद्ध वेबसाइट के अलावा कोई अन्य साइट नहीं खुलती है। इससे इंटरनेट एक्सेस न कर पाने के अधिकार से लोगों को वंचित करना चिन्ता का विषय बना हुआ है। साइटों को ब्लैकलिस्ट करके और सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाने के बाद सरकार को लगता है कि बाकी इंटरनेट को एक्सेस करना उसके लिए आसान तरीका है। कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार समान लतीफ कहते हैं कि महज़ कुछ सौ साइटों को व्हाइट लिस्ट में डाल दिया गया है, जबकि बाकी इंटरनेट पर प्रतिबन्ध लगा रखा है। इससे इंटरनेट का इस्तेमाल करने का मकसद पूरा ही नहीं होता है। कम-से-कम पत्रकारों के लिए तो सोशल मीडिया समेत सभी ज़रूरी साइट्स एक्सेस करने की अनुमति मिलनी चाहिए।

हालाँकि, लोग पहले से ही वीपीएन (वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क) का उपयोग करके प्रतिबंधित क्षेत्र में एक-दूसरे तक पहुँचने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे एप का कश्मीर में प्रयोग खूब बढ़ा है और लोगों के बीच आम हो गये हैं और लोग उनको इंस्टाल भी कर रहे हैं। लोग अपने सेलफोन के हिसाब से कौन-सा एप उपयुक्त है, उसे सर्च करके अपनी बात एक-दूसरे से साझा कर रहे हैं। इन एप के माध्यम से यूजर किसी भी वेबसाइट जैसे फेसबुक, गूगल, यूट्यूब और कई अन्य प्रतिबंधित वेबसाइट्स को भी आसयानी से एक्सेस कर पा रहे हैं। इससे पहले ही सरकार सतर्क हो गयी और आम लोगों तक ब्रॉडबैंड सेवा की सुविधा शुरू करने की अनुमति प्रदान कर दी। इंटरनेट शुरू किये जाने का सरकारी आदेश जम्मू-कश्मीर सरकार के गृह विभाग में प्रधान सचिव शालीन काबरा की ओर से जारी किया गया, इसमें कहा गया कि इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को ज़रूरीफायरवॉल के ज़रिये व्हाइट लिस्टेड वेबसाइट को खोलें, जिससे लोग सरकार तक भी आसानी से पहुँच सकें। इसके अलावा सभी सोशल मीडिया साइट्स के अलावा आवश्यक सेवाओं जैसे ई-बैंकिंग आदि की सुविधा शुरू कर दी जाएँ।’

सरकार का सोशल साइट्स पर पाबंदी लगाये जाने के पीछे तर्क है कि इससे लोगों को भड़काया जा सकता है। साथ ही सड़कों पर आवाजाही बाधित होने जैसी दिक्कतों का सामना करने की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। आम धारणा है कि सोशल साइट पोस्ट के आह्वान से लोग सड़क पर विरोध-प्रदर्शन के लिए जुट जाते हैं। इसलिए इंटरनेट के ज़रिये ऐसी स्थिति को काबू करने में अहम भूमिका माना जाता है। वसंत और गर्मी के दौरान घाटी में असंतोष की स्थिति रही है। इसलिए आगे जल्द इंटरनेट तक लोगों की पहुँच होना मुश्किल ही लग रहा है। इससे राज्य में एक तरह की विचित्र स्थिति पैदा हो गयी है। शिक्षा के लिए ज़रूरी इंटरनेट के साथ ही अर्थ-व्यवस्था की भी इंटरनेट पर निर्भरता होने से इसका चौतरफा नुकसान हो रहा है।

लोग बिना सोशल मीडिया के भी इंटरनेट एक्सेस करने को तैयार हैं, बशर्ते सरकार उन्हें सभी भरोसेमंद वेबसाइट को खोलने की अनुमति प्रदान करे। इंटरनेट आधुनिक जीवन का अभिन्न अंग है और इस सेवा के बिना जीवन के बारे में सोचना किसी भी शख्स के लिए समझ से परे हो सकता है। यहाँ के एक स्थानीय दैनिक समाचार पत्र के संपादकीय में लिखा कि इंटरनेट पर पाबंदी ‘पुराने समय में वापस जाने जैसा है।’ इस प्रकार इंटरनेट तक पहुँच को अस्वीकार करने का कोई औचित्य नहीं है। ऐसा तो तब और अधिक ज़रूरी हो जाता है, जब इसकी वजहों के पीछे भी तमाम तरह के विवाद हों।

नुकसान के बाद रह जाता है पछतावा

आपने एक नारा खूब सुना होगा, बल्कि हो सकता है कहीं यह नारा खुद भी दिया हो- ‘हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, आपस में सब भाई-भाई’। बहुत अच्छा लगता है, जब हम इस नारे को दोहराते या सुनते हैं। पर सोचिए कि क्या कभी ऐसा हुआ है, जब कहीं दो मज़हबों को मानने वालों के बीच झगड़ा हो रहा हो और किसी भी पक्ष ने इस नारे के बारे में ज़रा भी सोचा हो? इस पर अमल किया हो? इस नारे के महत्त्व को समझने-समझाने की कोशिश की हो? तब हम न केवल इस नारे को, बल्कि इस बात को भी भूल जाते हैं कि हम एक-दूसरे के पड़ोस में या मोहल्ले में या कस्बे या शहर या गाँव में ही रहते हैं। इससे बड़ी बात यह है कि हम सब एक ही देश में रहते हैं। एक ऐसे देश में, जिसे हम विविध संस्कृति, विविध भाषाओं, विविध रंग-रूप वाला देश कहते हैं; अखण्ड कहते हैं। तब हम यह भी नहीं सोचते कि हम आपस में कितना भी लड़ लें, आिखर इसी देश में उतने ही करीब रहेंगे, जितने करीब बसे हुए हैं। सब कहते हैं कि ईश्वर एक है। सब यह भी मानते हैं कि यह दुनिया सदा-सदा के लिए उनकी नहीं है। सब यह भी कहते हैं कि देश सबसे ऊपर है। सब यह भी जानते हैं कि आपस में लडऩे से उनका ही नुकसान होगा। सब यह भी जानते हैं कि आपस की लड़ाइयाँ देश को कमज़ोर करती हैं और सब यह भी जानते हैं कि आपस की कड़ुवाहट आने वाली पीढिय़ों के लिए काँटों का मैदान तैयार कर सकती है। लेकिन जब झगड़ा शुरू होता है, तो सब अन्धे हो जाते हैं। कोई नहीं सोचता कि वह भला कर रहा है या बुरा; बस मार दो या मर जाओ! आिखर क्यों? किसलिए? किसके लिए?

अधिकतर देखा गया है कि हम आपस में लड़ते समय कुछ भी नहीं सोचते, लेकिन जब हम जी भरकर लड़ लेते हैं और बहुत बड़ा नुकसान उठा लेते हैं, तब पछताते हैं। ऐसे ही कई वािकयात मेरे ज़िहन में हैं। आज एक वािकया से आपको रू-ब-रू कराता हूँ। आपको गोदरा कांड याद होगा। मैं सन् 2011 सेे 2014 के बीच गुजरात के अहमदाबाद शहर में रहा हूँ। मैंने इस घटना की पड़ताल जब करीब से की, तो बड़ी हैरानी हुई। अब वहाँ हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही पक्ष के लोग पछताते हैं कि आिखर इतना बड़ा दंगा उन्होंने क्यो किया? हालाँकि कुछ लोग ऐसे वहाँ अब भी हैं, जो उस कांड को लेकर अपने दिल-ओ-दिमाग में ज़हर लिए घूम रहे हैं, लेकिन अधिकतर लोग उस कांड में ऐसे पिसे कि आज तक पछता रहे हैं। हमारा दुर्भाग्य यह है कि ऐसे चन्द ज़हरीले लोग हमें लड़ाने, मारकाट कराने में बड़ी आसानी से कामयाब हो जाते हैं। गोदरा से शुरू हुए दंगों में भी यही हुआ था। ज़रा-सी बात से झगड़ा शुरू करन वाले लोग, आग लगाने मात्र का ज़रिया थे। लेकिन उस आग में कितने लोग जल गये? कितने घर तबाह हो गये? इस बात से आग लगाने वालों को शायद ही कोई सरोकार हो।

गुजरात में जहाँ-जहाँ गोदरा कांड की आग फैली, वहाँ-वहाँ अनेक लोग आज भी तबाह हैं। कई कॉलोनियाँ, बस्तियाँ आज तक वीरान पड़ी हैं। अहमदाबाद में कुछेक लोगों से मैं मिला, तो पता चला कि जैसे ही तत्कालीन सरकार ने दंगों पर काबू पाने के लिए पुलिस प्रशासन को आदेश दिया, तब पुलिस के हत्थे जो भी चढ़ा, उसे जेल भेज दिया। इस धरपकड़ में दोनों ओर के लोग थे- हिन्दू भी और मुस्लिम भी। यह निष्पक्ष गिरफ्तारियाँ थीं। यह अगल बात है कि बाद में किसी को न्यायालय से ज़मानत मिल गयी और किसी को राजनीतिक ताकतों के दबाव में रिहा कर दिया गया। लेकिन इस दंगे में जो मध्यम और गरीब तबका था, उसे आज तक उसका प्रतिफल भोगना पड़ रहा है। ऐसे ही चार-पाँच परिवारों को मैं जानता हूँ। इनमें से दोनों मज़हबों के दो लोगों के दु:ख और बयान यहाँ साझा करना चाहूँगा। इनमें एक हैं अनुराग मिश्रा। अनुराग मिश्रा एक सामान्य गृहस्थ हैं और अब अपने गाँव (उत्तर प्रदेश) लौट चुके हैं। अनुराग मिश्रा कहते हैं कि अहमदाबाद में उनका अपना घर था। वह जहाँ रहते थे, वह मोहल्ला मुस्लिम बहुल था। सबसे उनके अच्छे सम्बन्ध थे। उनके सभी हिन्दू-मस्लिम पड़ोसी बहुत अच्छे हैं। दंगे की घटना को दोहराते हुए अनुराग मिश्रा काफी गमगीन दिखते हैं। वह बताते हैं कि जब दंगे हुए, तो तीन हिन्दू परिवारों को मुस्लिम परिवारों ने घरों में छिपा लिया और रात के अँधेरे में अपनी टोपियाँ पहनाकर बच्चों समेत सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया। अनुराग मिश्रा कहते हैं कि हमें नहीं पता हमारे घर पर किसने कब्ज़ा किया, किसने नहीं; लेकिन हमारे दिल में मुस्लिमों के लिए और प्यार बढ़ गया। दंगे तो सियासी लोगों के दिमाग की उपज थे, जिससे दोनों ही तरफ के लोगों को बहुत बड़ा नुकसान हुआ।

दूसरे हैं आस मोहम्मद उर्फ लक्की। लक्की बताते हैं कि जब लड़ाई हुई थी, तो वे 12 साल के थे। इस लड़ाई में उनके पिता की मौत हो गयी; लेकिन उन्हें और उनकी माँ को डेढ़ महीने तक श्याम सिंह नाम के उनके पड़ोसी ने अपने घर में छिपकार रखा। मैं उन्हें आज भी अपने सगे चाचा से बढ़कर मानता हूँ। उन्होंने बहुत बड़ा रिस्क लेकर हम लोगों को बचाये रखा। मेरी माँ को तब साड़ी में घूँघट करके हिन्दू रीति के हिसाब से शृंगार करके रहना पड़ा। मेरे पिता की मौत की खबर भी हम लोगों को नहीं दी गयी। हमारे पड़ोसियों और रिश्तेदारों ने सोचा कि या तो हम लोग मोहल्ला छोड़कर भाग गये या मारे गये। जब सारा मामला शान्त हो गया, तब हम लोग अपने घर में रहने पहुँचे। आज हमारे और श्याम सिंह चाचा के घरों में बहुत ही अच्छे रिश्ते हैं और मैं अल्लाह से दुआ करता हूँ कि ऐसा ही एका पूरे देश में कायम हो जाए। सब लोग मिलकर रहें और देश को मज़बूत करें। क्योंकि झगड़ा एक त्रासदी, वीरानापन सा छोड़ जाता है। यह बात मैं अनाथ होकर खूब अच्छी तरह समझ गया हूँ।

ये दो उदाहरण गोदराकांड की साज़िश रचने वालों के मुँह पर ज़ोरदार तमाचे की तरह हैं।

श्रीवास्तव दिल्ली के नए पुलिस प्रमुख

केंद्र सरकार ने एसएन श्रीवास्तव को राजधानी का नया पुलिस कमिश्नर बनाया गया है। गृह मंत्रालय का यह फैसला दिल्ली में हाल की हिंसा में ३९ लोगों की जान जाने और २०० से ज्यादा लोगों के घायल होने और बड़े पैमाने पर संपत्ति के नुक्सान के बाद आया है।
गौरतलब है कि अमूल्य पटनायक को केंद्र सरकार ने एक्सटेंशन दी हुई थी और वे कल सेवानिवृत्त हो जायेंगे। उनकी जगह एसएन श्रीवास्तव को जिम्मा सौंपा गया है। हाल के दंगों के दौरान दिल्ली पुलिस पर ढील बरतने की ढेरों आरोप लगे हैं जिससे उसकी छवि को बड़ा नुक्सान पहुंचा है। यहाँ तक कि कोर्ट का रुख भी पुलिस के प्रति सख्त दिखा है।
श्रीवास्तव शनिवार को अपना पदभार संभालेंगे। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने श्रीवास्तव की नियुक्ति को लेकर शुक्रवार को अपनी मुहर लगा दी है।
इस बीच दिल्ली हिंसा में मरने वालों की संख्या ३९ पहुँच गयी है। करीब २०० लोग घायल हैं। इनमें से बहुतों का अस्पतालों में इलाज चल रहा है और अभी भी कई की हालत गंभीर बताई गयी है।
उधर राजधानी दिल्ली में अब हालत सामान्य होने लगे हैं और सड़कों की वीरानी भी कुछ कम हुई है। दुकानें भी धीरे-धीरे खुलने लगी हैं। हालांकि माहौल में अभी तनाव बना हुआ है।

शेयर बाजार धड़ाम, कोरोना वायरस का इम्पैक्ट  

चीन में शुरू हुए और अब कई देशों में पहुंच चुके कोरोना वायरस का असर दुनिया भर के शेयर बाजार पर दिखा है और शुक्रवार को इसमें बड़ी गिरावट देखी गयी है। भारत, अमेरिका सहित एशिया का शेयर बाजार भारी गिरावट के साथ खुला है।

शुक्रवार को हफ्ते के आखिरी कारोबारी दिन दुनियाभर के बाजारों में जबरदस्त  गिरावट देखने को मिली है। अमेरिका का शेयर मार्केट २००८ के बाद सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है। इससे पहले अमेरिका शेयर मार्केट २००८ की भयंकर मंदी के दौर में सबसे बुरे दौर से गुजरा था। डाउजोंस में एक दिन में सबसे बड़ी १,१९१ अंक की गिरावट दर्ज की गई।

शुक्रवार को जापान का निक्केई ३.०८ फीसदी लुढ़का जबकि हैंगसैंग इँडेक्स १.९८ फीसदी, शांघाई कम्पोजिट इंडेक्स ३,.३ फीसदी नीचे आया। गुरुवार को डाओ जोन्स चार फीसदी से ज्यादा लुढ़का था।

डाउजोंस चार फीसदी टूट गया। आज खुलते ही सेंसेक्स १००० अंक टूट चुका है। निफ्टी २५१.३० अंक लुढ़क चुका है। बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का प्रमुख संवेदी सूचकांक सेंसेक्स के सभी ३० शेयर आज लाल निशान पर कारोबार कर रहे हैं। वहीं निफ्टी ५०  में भी कोई स्टॉक हरे निशान पर कारोबार नहीं कर रहा है। बीएसई का बेंचमार्क इंडेक्स सेंसेक्स ६५८.१९ अंकों की भारी गिरावट के साथ ३९०८७.४७ पर खुला। सुबह खुलते ही यह गिरावट करीब-करीब १००० अंकों तक पहुंच गई।

सेंसेक्स के सभी शेयर लाल निशान पर दिखे जबकि निफ्टी में भी करीब २.५ फीसदी  की गिरावट दिखी। इंडेक्स ११,३८२.०० पर खुला। शुरुआत के पांच मिनट में ही सेंसेक्स १००० अंकों से ज्यादा की गिरावट के साथ ३८,६६१.८१ के ”लो” पर देखा गया था। सेंसेक्स के सभी शेयर लाल निशान पर दिखाई दिए। सबसे ज्यादा गिरावट टेक महिंद्रा और टाटा स्टील के शेयरों में देखने को मिली।
जहाँ तक निफ्टी की बात है तो वहां भी ५० शेयरों में से कोई भी शेयर हरे निशान पर नहीं दिखा। सबसे ज्यादा गिरावट की टेक महिंद्रा, टाटा मोटर्स, टाटा स्टील, वेदांता और बजाज फाइनैंस आदि में दिखी।

उधर वैश्विक बाजार में कच्चे तेल का भाव गुरुवार को चार प्रतिशत से अधिक लुढ़क गया। कारोबारियों को आशंका है कि कोरोना वायरस का असर खासतौर से प्रमुख उपभोक्ता देश चीन से कच्चे तेल की मांग पर पड़ सकता है। अप्रैल डिलिवरी के लिये ब्रेंट कच्चे तेल का भाव ४.२ फीसदी लुढ़ककर ५१.२० डॉलर प्रति बैरल जबकि न्यूयार्क का डब्ल्यूटीआई (वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट) कच्चे तेल का भाव इसी महीने के लिये करीब पांच फीसदी टूटकर ४६.३१ डॉलर पर आ पहुंचा।