Home Blog Page 864

भारत के खास मंदिरों का अनसुलझा रहस्य!

कुछ रहस्य ऐसे हैं जिन्हें सुलझाना मुश्किल है। जवाबों के अभाव इन परिग्रहों को अधिक पेचीदा बना देते हैं। यहाँ, हम कुछ प्रमुख मंदिरों पर नज़र डालते हैं और पता लगाते हैं कि उनके बीच क्या चीज साझी (एक जैसी) है?

पहले तो यह जान लिया जाए कि इन प्रमुख मंदिरों में कौन-कौन से मंदिर प्रमुख हैं? तो हम बता दें कि भारत में यूँ तो अनेक प्रसिद्ध और प्रमुख मंदिर हैं, लेकिन यहाँ हम आठ प्रमुख मंदिरों- केदारनाथ, कालाहस्ती, एकम्बरनाथ- कांची, तिरुवन्नामलाई, तिरुवनायकवल, चिदंबरम् नटराज, रामेश्वरम् और कालेश्वरम् (उत्तर-भारत) की बात करेंगे।

इन सभी प्रमुख मंदिरों के बीच क्या सामान्य है? आओ इसका अनुमान लगाएँ। यदि आपका उत्तर है कि वे सभी शिव मंदिर हैं, तो आप केवल आंशिक रूप से सही हैं। यह वास्तव में देशांतर है, जिसमें ये मंदिर स्थित हैं। वे सभी 79ए देशांतर में स्थित हैं। जो आश्चर्यजनक और बहुत शानदार बात  है, वह यह है कि कैसे सैकड़ों किलोमीटर अलग-अलग स्थानों के इन मंदिरों के वास्तुकार बिना जीपीएस और उपकरणों के इतनी सटीक लोकेशंस के साथ सामने आये।

  1. केदारनाथ 79.0669ए
  2. कालाहस्ती 79.7037ए
  3. एकामरनाथा- कांची 79.7036ए
  4. तिरुवन्नामलाई 79.0747ए
  5. तिरुवनायकवल 78.7108ए
  6. चिदंबरम नटराज 79.6954ए
  7. रामेश्वरम् 79.3129ए
  8. कालेश्वरम् (उत्तर-भारत) 79.9067ए

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में ऐसे शिव मंदिर हैं, जो केदारनाथ से रामेश्वरम तक एक सीधी रेखा में बने हैं। आश्चर्य है कि हमारे पूर्वजों के पास क्या विज्ञान और तकनीक थी, जिसे हम आज तक नहीं समझ पाए? उत्तराखंड के केदारनाथ, तेलंगाना के कालेश्वरम्, आंध्र प्रदेश के कालाहस्ती, तमिलनाडु के आकाशेश्वर, चिदंबरम् और अन्त में रामेश्वरम मंदिर 79ए ई 41′ 54″ देशांतर के भौगोलिक सीधी रेखा में बनाये गये हैं।

ये सभी मंदिर प्रकृति के पाँच तत्त्वों में लिंग की अभिव्यक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसे हम आम भाषा में पञ्चतत्त्व कहते हैं। पञ्च तत्त्व यानी पाँच तत्त्व- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और अंतरिक्ष। इन पाँच तत्त्वों के आधार पर इन पाँच शिव लिंगों को बनाया गया है। इनमें प्रत्येक मंदिर किसी-न-किसी तत्त्व का प्रतिनिधित्व करता है। जैसे- तिरुवन्नकवल मंदिर पानी का प्रतिनिधित्व करता है। तिरुवन्नामलाई में आग का प्रतिनिधित्व करता है। कालाहस्ती में हवा का प्रतिनिधित्व करता है। कांचीपुरम् में पृथ्वी और ठंड का प्रतिनिधित्व करता है और चिदंबरम मंदिर में अंतरिक्ष यानी आकाश का प्रतिनिधित्व करता है।

कुल मिलाकर ये पाँचों मंदिर वास्तु-विज्ञान-वेद के अद्भुत मेल का प्रतिनिधित्व करते हैं।

इन मंदिरों में भौगोलिक रूप से भी एक विशेषता पायी जाती है। इन पाँचों मंदिरों को योग विज्ञान के अनुसार बनाया गया था और एक दूसरे के साथ एक निश्चित भौगोलिक संरेखण (एक रेखा) में रखा गया है।

निश्चित रूप से कोई विज्ञान होगा, जो मानव शरीर को प्रभावित करता होगा। इन मंदिरों का निर्माण लगभग 4,000 साल पहले किया गया था, जब उन स्थानों के अक्षांश और देशांतर को मापने के लिए कोई उपग्रह तकनीक उपलब्ध नहीं थी। सवाल यह है कि तो फिर पाँच मंदिरों की स्थापना इतनी सटीक कैसे हुई?

केदारनाथ और रामेश्वरम् के बीच 2383 किलोमीटर की दूरी है। लेकिन ये सभी मंदिर लगभग एक ही समानांतर रेखा में आते हैं। आिखरकार हज़ारों साल पहले जिस तकनीक के साथ इन मंदिरों को एक समानांतर रेखा में बनाया गया था, वह आज तक एक रहस्य है। श्रीकालाहस्ती मंदिर में टिमटिमाते दीपक से पता चलता है कि यह वायु लिंग का प्रतिनिधित्व करता है।

तिरुवनिका मंदिर के भीतरी पठार में पानी का झरना जल-लिंग का प्रतिनिधित्व करता है। अन्नामलाई पहाड़ी पर विशाल दीपक अग्नि-लिंग का प्रतिनिधित्व करता है। कांचीपुरम में रेत का स्वयंभू लिंग धरती लिंग का प्रतिनिधित्व करता है और चिदंबरम का निराकार लिंग स्वर्ग (आकाश) अर्थात् ईश्वर के तत्त्व के रूप में प्रस्तुत होता है।

श्रीकालहस्ती मंदिर में टिमटिमाते दीप वायु-लिंग के श्वसन, तिरुवनयाकवल मंदिर के अन्तरतम गर्भगृह में पानी के झरने मंदिर के जल तत्त्व से रिश्ते को इंगित करते हैं। वार्षिक कार्तिक दीपम (अन्नामलाई पहाड़ी पर विशाल दीप का प्रज्ज्वलन) अन्नामलैयार के प्रकट होने को अग्नि के रूप में दर्शाता है। कांचीपुरम में रेत का स्वयंभू लिंग पृथ्वी के साथ शिव के जुड़ाव को दर्शाता है; जबकि चिदंबरम् में निराकार स्थान (आकाश) स्वामी के निराकार या कुछ नहीं के साथ सम्बन्ध को दर्शाता है।

अब और अधिक आश्चर्य की बात यह है कि ब्रह्मांड के पाँच तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करने वाले पाँच लिंगों को एक समान पंक्ति में सदियों पहले स्थापित किया गया था। वास्तव में हमें अपने पूर्वजों के ज्ञान और बुद्धिमत्ता पर गर्व होना चाहिए कि उनके पास वह उन्नत विज्ञान और तकनीक थी, जिसे आधुनिक विज्ञान भी अभी तक प्राप्त नहीं कर पाया है। यह माना जाता है कि यह केवल पाँच मंदिर ही नहीं हैं, बल्कि इस पंक्ति के कई और मंदिर भी हैं, जो केदारनाथ से रामेश्वरम् तक सीधी रेखा में स्थित हैं। इस लाइन को ‘शिव शक्ति आकाश रेखा’ भी कहा जाता है। ऐसा लगता है कि कैलाश के पूरे मंदिर को 81.3119ए ई क्षेत्र में आने वाले क्षेत्रों में निर्मित किया गया है! हालाँकि इसका सही उत्तर तो केवल ब्रह्माण्ड ही जानता है…

क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि महाकाल और शिव ज्योतिॄलगम् के बीच क्या सम्बन्ध है?

उज्जैन से शेष ज्योतिॄलगों की दूरी भी दिलचस्प है। देखिए-

उज्जैन से ओंकारेश्वर 111 किमी

उज्जैन से त्र्यंबकेश्वर  555 किमी

उज्जैन से नौसेश्वरा    555 किमी

उज्जैन से भीमाशंकर 666 किमी

उज्जैन से सोमनाथ    777 किमी

उज्जैन से केदारनाथ  888 किमी

उज्जैन से काशी विश्वनाथ       999 किमी

उज्जैन से मल्लिकार्जुन           999 किमी

उज्जैन से बैजनाथ     999 किमी

उज्जैन से रामेश्वरम्   1999 किमी

कैसे लोगों ने लगभग एक ही देशांतर पर हज़ारों मील दूर (केदारनाथ और रामेश्वरम के बीच 2383 किलोमीटर की दूरी पर) मंदिरों का निर्माण किया है? एक रहस्य बना हुआ है। बिना किसी कारण सनातन धर्म (अब जिसे हिन्दू धर्म कहते हैं) में कुछ भी नहीं था। उज्जैन को पृथ्वी का केंद्र माना जाता है। सनातन धर्म में हज़ारों वर्षों से केंद्र के रूप में, उज्जैन में सूर्य और ज्योतिष की गणना के लिए एक मानव निर्मित उपकरण भी लगभग 2050 साल पहले निर्मित किया गया है। …और जब लगभग 100 साल पहले ब्रिटिश वैज्ञानिक ने पृथ्वी की काल्पनिक रेखा का निर्माण किया था, तो उसका मध्य भाग उज्जैन ही था। आज भी वैज्ञानिक सूरज और अंतरिक्ष के बारे में जानने के लिए उज्जैन आते हैं। वास्तव में कुछ रहस्य ऐसे होते हैं, जिन्हें हल करना मुश्किल होता है और उत्तरों की कमी इन बातों को और पेचीदा बना देती है!

बेआबरू हुआ मुजरा

गुलाबी शहर (जयपुर) की सुरमई शाम में गुल, गुलाल और चंपई उजालोंं से लुकाछिपी करती यह अलबेले दिन गुज़रते जाते हैं। इन्हीं दिनों में कुछ त्योहार आते और चले जाते हैं। इस बार की होली भी कुछ ऐसे ही आयी और चली गयी। इस बार होली पर पूरा कलेक्ट्रेट परिसर रंगों की फागुनी छटा पर झूम रहा था। नृत्यांगनाएँ भी मस्त नग़्मों पर थिरक रही थी। जलसे में आला अफसरों के अलावा शहर की रसूखदार हस्तियाँ भी मौज़ूद थीं और इस एहतराम के साथ मौज़ूद थी कि उन्हें सलीकेदार तवायफों का मुजरा देखने को मिलेगा। लेकिन जैसे ही गीत और संगीत की महिफल शुरू हुई, फूहड़ता का माहौल बनने लगा। भेद खुलने में देर नहीं लगी कि नृत्यांगनाएँ चाँदपोल बाज़ार की महिफलों की ज़ीनत नहीं थी। महिफल में मुजरे के नाम पर परोसी जा रही फूहड़ता को लेकर नाराज़गी इतनी बढ़ी कि पूरी महिफल उदास हो गयी। बाद में आयोजकों ने माफी माँगी और िकस्सा खत्म हो गया। अलबत्ता एक नयी कहानी बेपरदा हुई कि मनोरंजन का यह नशा बेनूर हुए चाँदपोल बाज़ार की उन तवायफों ने रचा था, जो अब चौक की सीढिय़ाँ चढक़र रसिकों को रिझाने के लिए मोहल्लाई मंचों पर पहुँच गयी थीं। लेकिन इन तवायफों की भी अपनी एक मजबूरी, अपनी एक कहानी है। मगर आज परम्पारागत कोठों पर एक ऐसी नस्ल काबिज़ हो चुकी है, जो नफासत और तहज़ीब का नकली हिजाब पहनकर महिफल कल्चर का सुनहरा फरेब रचने की कोशिश में जुटी हैं। गुलाबी शहर की इस महिफल में भी ऐसी ही तवायफों को बुलाया गया था। हालाँकि चाँदपोल चौक की इन तवायफों ने राई-दुहाई देने की भी कोशिश की कि मल्लिका-ए-तरन्नुम के नाम से मशहूर नूरजहाँ को भी लाहौर की बदनाम हीरा मंडी से लाया गया था। अपने पेशे की पाकीज़गी की रहनुमाई में एक ‘नाच घर’ की संचालक माया मल्लिका का कहना था कि नरगिस की माँ जद्दनबाई बनारस की दालमंडी की मशहूर तवायफ थीं। यहाँ तक कि सायरा बानो की माँ नसीम भी कभी दिल्ली के रेड लाइट एरिया जीबी रोड की तवायफ थीं। कुल मिलाकर शिकायतों का लब्बोलुआब यह था कि आज बदलते दौर में लोग हमें नाच गर्ल कहते हैं, तो इसमेें बुरा क्या है?

तवायफों का रुतबा

कोई 300 साल बीते, जब तवायफें राजा, नवाबों की दिलरुबा, उस्ताद, रहनुमा, दार्शनिक और दोस्त हुआ करती थीं। मुजरा फूल की पंखुडिय़ों पर शबनम के कतरे की तरह होता था। जिसकी पेशबन्दी के लिए बड़ी नज़ाकत और शायस्तगी की दरकार होती थी। मुजरे की महिफलों से सजे कोठे हिना, बेला और जूही की खुशबू में रचे-बसे होते थे। पिशवाज़ पहने तवायफों की काली पलकें शरमाकर धीरे-धीरे उठती थीं, तो अच्छे-अच्छे लोग दिल थामकर बैठ जाते थे। ठुमरी के बोल गूँजते थे- ‘तीखे हैं नैनवा के बान जी धोखा ना खाना…।’ ज्यों-ज्यों रात शबाब पर आती नृत्य की गति तेज़ होती चली जाती। पाँवों के घुघरुओं के साथ हँसी की झनकार भी खनक उठती…। इसके बाद नाच शुरू होता, तो पता ही नहीं चलता कि रात कब बीत गयी? कुछ दौर गुज़रा मुजरे की यह महफिल रईसों और सेठों के लिए भी सजने लगी।

19वीं शताब्दी में जयपुर में नामवर हुई तवायफें ठेठ वेश्याएँ नहीं थीं। तवायफों के लिए सबन्दर्य सम्बन्धी धारणाएँ उस वक्त भी आज की तरह ही थीं। चंचल चितवन, अलसायी नशीली आँखें, कटीली भँवें, कुलीन नैन-नक्श, हया में डूबी चितवन, भरे हुए होठ और गदराया हुआ यौवन, बल खाती नागिन सरीखी जुल्फें, अनार जैसी गालों की लालिमा, सुराही सी गर्दन, पतली कमर… तवायफों का शास्त्रीय संगीत, उर्दू-हिन्दी शायरी और लोकगीतों में गहरा दखल होता था। उस दौर में मुल्क में सर्वधर्म समभाव और अनेकता में एकता वाली कोई जगह थी, तो वह थी तवायफ का कोठा। लेकिन कोठे पर भी एक रोक थी। वहाँ फिरका नहीं था, तबका था; एक तहज़ीब थी; मनोरंजन का एक सलीके वाला ठीया था। कोठे की सीढिय़ाँ चढऩे वाले को शुरफा (कुलीन) तो होना ही चाहिए था। यानी कोठों में दाखिले की इजाज़त उन्हीं को मिलती थी, जो रईसज़ादे हुआ करते थे। इन छैल-छबीलों की ज़रूरतों को पूरा करनेे के लिए हाज़िर जवाबी और शे’रो-शायरी की समझ ज़रूरी थी। अब वह दौर शायद नहीं रहा। अब शे’रो-शायरी, ठुमरी, दादरा, लोकगीतों की जगह फिल्मी गानों ने ले ली, जिनमें फूहड़ता आती जा रही है और शास्त्रीय नृत्य की जगह भौंडे नाच ने ले ली।

मुजरा क्या है?

कत्थक सरीखे शास्त्रीय नृत्य-गीतों में रचा-बसा नृत्य  मुजरा है, जो कौशल भारत में मुगल हुकूमत की देन माना जाता है। 16वीं से 19वीं शताब्दी के बीच मुजरा सौन्दर्य और संस्कृति का प्रतीक माना जाता था। मनोरंजन का यह साधन केवल राजा-नवाबों के लिए ही था। इसमें सादगी और सालीनता मुनासिब थी। जयपुर कत्थक नृत्य का प्रसिद्ध केंद्र रहा है। कत्थक नृत्य की दो ही शैलियाँ मानी जाती हैैं-  जयपुर और लखनऊ। यही वजह रही कि मुजरा भी जयपुर और लखनऊ में ही ज़्यादा परवान चढ़ा। तवायफों में एक तबका देवदासियों सरीखा होता था। मंदिरों में नृत्य गायन से सम्बद्ध होने के कारण इन्हें ‘भगतण’ कहा जाता था। समाज में इनको आदर की दृष्टि से देखा जाता था। मुजरा ठुमरी और गज़ल गायकी से सम्बद्ध होने के कारण शास्त्रीय नृत्य कत्थक पर आधारित होता था। मुजरा परम्परागत रूप से महिफलों की प्रस्तुति होती थी। इन्हें कोठा भी कहा जाता था। घरानों से जुड़ा हुआ मुजरा बेटी को माँ की विरासत के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता था। इन घरानेदार तवायफों को कुलीन वर्ग में विशेष सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। इन्हें कला और संस्कृति का विशेषज्ञ माना जाता था। मुजरेवालियों में डेरेदारनियाँ बहुत ऊँचे दर्जे की तवायफें मानी जाती थीं। डेरेदारनियाँ किसी एक की पाबन्द होकर रहती थीं। जिसकी हो गईं उसके लिए और उसके दोस्तों के दिल बहलाव के लिए नाचती-गाती थीं। तहज़ीब, सलीकामंदी और शे’रो-शायरी में उनका कोई सानी नहीं होता था। इनके कोठे और हवेलियाँ शिष्टाचार और कला के केंद्र माने जाते थे।

महिफलों का दौर

तब चाँदपोल बाज़ार हुस्न की खुशबू से महकता था। घुँघरुओं की झंकार के साथ उठता सुरीला आलाप भोर में ही जाकर थमता था। कला, संस्कृति और नाच-गाना जयपुर के शासक महाराजा रामसिंह के ज़माने में खूब परवान चढ़ा। चाँदपोल बाज़ार रातों को जागता था और दोपहरी में ऊँघता था। शाम होते ही सफेद अंगरखा, चूड़ीदार पाजामा और सफेद तुर्रेदार टोपी पहनकर, पान की गिलोरियाँ चबाते खुशबुओं से सराबोर चौक की तरफ बढ़ते रईसज़ादों को पहचानना मुश्किल नहीं था। तवायफ लालन, खैरन और मुन्ना लश्कर वाली के कोठे सबसे ज़्यादा आबाद रहते थे। रईसज़ादों में भी पूरी ठसक होती थी। कोठों की सीढिय़ाँ भी ऐसे ही तय नहीं की जाती थीं। पहले कोठों पर रईसज़ादों के पैगाम पहुँचते थे। पैगाम पहुँचने के साथ ही शुरू हो जाती थी, कोठों पर उनकी अगवानी की खास तैयारियाँ। झाड़फानूसों की रोशनियाँ तेज़ कर दी जातीं। तवायफ खुर्शीद शराब के घूँट लेकर ठुमरी छेड़तीं- ‘कोयलिया मत कर पुकार, करेजवा में लगे कटार…’ तो कोठे पर गहरा सम्मोहन पसर जाता था। उस ज़माने में गोहरजान का कोठा सबसे ज़्यादा सरसब्ज़ था। गोहर की पोती शहनाज़ आज भी जीवित हैं। शहनाज़ बताती हैं कि उस ज़माने में पिशवाज़ पहनकर सलमे सितारों की टोपी लगाने वाली गोहरज़ान का बड़ा नाम हुआ करता था। जयपुर रियासत के वज़ीरेखास उनके खास मुरीद हुआ करते थे। शहनाज़ बताती हैं कि गोहरज़ान की ठुमरी- ‘तीखे हैं नैनवा के बान जी धोखा ना खाना…’ बेहद खास हुआ करती थी। बनियानी की भी अपने ज़माने में गज़ब चर्चा थी। राग भैरवी में पिरोई उनकी ठुमरी- ‘बालम तौरे रस भरे नैन…’ पर नवाब फैयाज़ खाँ इस कदर रीझे कि नथ उतराई का सौदा कर बैठे। नतीजतन घर-बार ही बिक गया। कहते हैं कि तवायफ बिब्बो कासगंज वाली मुजरा करने बैठतीं, तो लगता था जैसे आसमान से अप्सरा उतर आयी हो? महाराजा माधोसिंह के ज़माने में तवायफ मैना वज़ीरन का सबसे ज़्यादा रुतबा था। तवायफ फिरदौस को सुनने के लिए तो उनके मुरीदों की कतार लगी रहती थी। उस दौर में गली-मोहल्लों में होने वाली सरगोशियाँ और मशहूर िकस्सों से कोठों की कहानी लोगों तक पहुँचती थी। कहा जाता है कि वह बेहद सुनहरा दौर था, जब महिफलों के दरीचों से निकलकर तवायफों की खनकदार, सोज़दार आवाज़ चाँदपोल की राहदारियों में गूँजती थी, तो लोग थमकर रह जाते थे।

रस कपूर का गुरूर

जयपुर में नाच-गानों का यह सुनहरा दौर रस कपूर के साथ शुरू हुआ और अमीर उमरावों के पराभव के साथ ही खत्म हो गया। जयपुर के जौहरी बाज़ार का काँच महल आज भी रस कपूर की याद ताज़ा कर देता है। काँच महल के शीशों पर धूल की परतें जम गयीं। खिड़कियों के रंगीन शीशे दरक चुके हैं। पायल की झंकार की बजाय अब यहाँ चमगादड़ों की चीं-चीं सुनाई देती है। तख्त और तावयफों के रसीले िकस्सों की शुरुआत रस कपूर से ही शुरू हुई, तो जयपुर के इतिहास में एक-से-एक दिलफरेब कहानियाँ रिसने का सिलसिला शुरू हो गया। इन्हीं कहानियों में एक प्रेम-कथा भी है। इस प्रेम-कथा का अन्त इतना भयानक हुआ कि उस समय के लोगों के रूह काँप गयी और सुनने वाले आज भी सहम जाते हैं। उस ज़माने में कलाकारों का ठौर-ठिकाना गुणीजन खाना कहलाता था। यहीं की नृत्यांगना रस कपूर को प्रेयसी बनाकर महाराजा जगत सिंह ने रियासत में तूफान ला दिया था। प्रसिद्ध हवा महल निर्माता महाराजा सवाई प्रताप सिंह की मृत्यु के बाद जयपुर के राजा बने उनके पुत्र जगत सिंह पर रस कपूर का जादू इस कदर छाया कि राजकाज भूलकर उसी के मोहपाश में बँध गये। रस कपूर जौहरी बाज़ार में वर्तमान फल मण्डी स्थित शीशमहल में रहती थीं। गुणीजन खाने की पारो बेगम सेे रस कपूर ने नृत्य व गायन सीखा; इसके बाद वह दरबार की संगीत महिफलों में जाने लगीं। जगत सिंह ने रस कपूर को महिफल में पहली बार देखा और वे उसकी अनुपम सुन्दरता पर मर-मिटे। एक समय ऐसा आया, जब रस कपूर जो कहतीं, वही रियासत में होता। वह महाराजा के साथ सिंहासन पर दरबार में बैठने लगीं और उसे सामंतों की जागीरी के फैसले करने का अधिकार मिल गया। महाराजा जगत सिंह ने अपने जन्मदिन पर रस कपूर के लिए हवामहल में रस विलास महल भी बनवा दिया। महाराजा ने लोकनिंदा की परवाह नहीं की और प्रेयसी को अपने साथ हाथी के होदे पर बिठाकर नगर में फाग खेलने निकल गये। सामंतों ने कई तरह के आरोप लगाकर रस कपूर को नाहरगढ़ िकले में कैद करवा दिया। इतिहासकार आनंद शर्मा के मुताबिक, वर्ष 1818 में अंग्रेजों सेे सन्धि के बाद जगत सिंह को दुश्मनों से कुछ राहत मिलने लगी थी, तब राजमहल के शत्रुओं ने षड्यंत्र रचकर जगत सिंह की हत्या करवा दी। जगत सिंह की मृत्यु पर अंतिम दर्शन के लिए रस कपूर वेश बदलकर नाहरगढ़ िकले से निकल भागीं और गेटोर श्मशान में जगत सिंह की धधकती चिता में कूद गयीं। लेकिन कहते हैं कि रस कपूर की प्रेतात्मा आज भी नाहरगढ़ के िकले में भटकती है।

डांस बार की कहानी

अब बड़े-बड़े लोग, बिगड़े हुए साहबज़ादे डांस बारों में जाते हैं। आज देश में अनगिनत डांस बार अवैध चल रहे हैं। इतना ही नहीं, इन डांस बारों में नशे के अवैध कारोबार से लेकर सेक्स रैकेट के अनैतिक धन्धे भी खूब फल-फूल रहे हैं। इतने पर भी न तो सरकारें इन डांस बारों पर शिकंजा कसती हैं और न ही इनमें चल रही अवैध गतिविधियों का अंत होता है।

उजड़ गये कोठे

चाँदपोल बाज़ार और रामगंज बाज़ार के कोठे अब उजड़ चुके हैं। अब यहाँ न सुर सधते हैं और न घुँघरू बँधते हैं। मुजरा कोठों की देहरी लाँघकर दबंगों की महिफलों में पहुँच गया है। गज़ल का सोज़, संगीत के साज़ और मखमली आवाज़ का प्रतीक मुजरा अब बीते ज़माने की बात हो चला है। लेकिन फन, हुस्न और हुनर का यह अनोखा मेल न जाने कहाँ बिखर गया? झाड़-फानूसों, कंदीलों और फूलों से सजे कोठे ही गुम हो गये, तो मुजरों की असली महक कैसे मिलेगी? वीरान कोठों और लुप्त होते मुजरे की जगह जयपुर में डांस क्लब चलाने वाली अनीसा फातिमा बहुत कुछ कह देेती हैं। वह कहती हैं- ‘लोग मुजरा देखना चाहते हैं, तो हम वो भी करते हैं। लेकिन अब लोगों की ज़्यादा ख्वाहिश-ओ-फरमाइश कूल्हे उचकाने और सीना उछालने वाले नाच-गाने देखने सुनने की होती है। यानी नाम मुजरे का, और नाच-गाना फिल्मी! फिर घुँघरू बाँधकर तबले की थाप पर थिरकने से क्या फायदा? फिर मुजरे की समझ राजा-रजवाड़ों में होती थी। आम आदमी तो फिल्मी नग़्में सुनना चाहता है।’ नग़्मा का कहना है- ‘तवायफें तराशी हुई औरतें होती थीं; जिन्हें रईस-नवाब अपने लिए तैयार करवाते थे। उनमें तहज़ीब होती थी। अब वो बात कहाँ?’ एक बुजुर्ग तवायफ तनूजा सीधा सवाल करती है- ‘सलवार दुपट्टा पहनकर मुजरा किया जा सकता है क्या? नहीं किया जा सकता। मुजरे के लिए चाहिए, साँचेे में ढला बदन और खास पिशवाज़।’ 65 वर्षीय बानो बेगम कहती है- ‘अब तो सब कुछ बदल चुका है। नरगिस और सायरा जैसी कुछ तवायफेंहैं, जिन्होंने आज भी परम्परागत मुजरे को बचाये रखा है। राजा-महाराजा इस मामले में बेहद सख्त हुआ करते थे। मजलिस में परम्परागत लिबास ही न हो, तो काहे का मुजरा?’ मुजरे की चमक लौटाने की कोशिश में जुटीं जोहराबाई साफ कहती है- ‘मुझे कोठा बन्द करना कुबूल है, लेकिन मुजरे की चमक मैली करना मंज़ूर नहीं। मुजरा तो कला है। हम इस परम्परा को बनाये रखना चाहते हैं। पैसे की खातिर कला के साथ कोई छेड़छाड़ क्यों?’

डांस गर्ल

तवायफों का नया चेहरा है- ‘डांस गर्ल’। आधुनिकता की ताल पर फिट बैठने के लिए जयपुर में कतार से खुल गये ‘नाच घर’ इसी की देन है। मुजरे के नाम पर नाक-भों सिकोडऩे वाली इन नाच बालाओं का कहना है कि लोग अब मुजरा नहीं, जिस्म देखना चाहते हैं। इसलिए हमने भी अपने आपको उनकी पसन्द के अनुरूप ढाल लिया है। नाच गर्ल मधुबाला कहती है- ‘शादी-ब्याह जैसे समारोहों में हमारी अच्छी-खासी माँग होती है। लोग इ•ज़त से हमें बुलाते हैं। हमारा नाच-गाना देखते हैं। हमें मनचाही उजरत (नज़राना) मिल जाती है और क्या चाहिए?’ इस कारोबार से जुड़े लोगों का कहना है कि असल में नाच घरों नेे जयपुर में मनोंरंजन की नयी दुनिया रच दी है। कम-से-कम तवायफों की इस नयी नस्ल को न तो अब जिस्म बेचने की मजबूरी है और न ही पिशवाज़ पहनकर मुजरा करने के लिए ग्राहकों का इंतज़ार करना पड़ता है। मुमताज मानती है- ‘हमें दुबई तक के पैगाम आते हैं। हम वहाँ प्रोग्राम के लिए जाती भी हैं। लेकिन इस सवाल पर मुमताज चुप्पी साधती नज़र आयीं कि क्या नाच घरों ने जयपुर से खाड़ी देशों तक देह-व्यापार का रैकेट बना दिया है?

एक तवायफ ने अपना नाम उजागर नहीं करने की शर्त पर बताया कि नाच-गाने का धन्धा एक बदनाम पेशा है। इसलिए कोई भी, कुछ भी आरोप लगा देता है। लेकिन कुछ डांस ग्रुप अगर ऐसा करते हैं, तो इसके लिए सबको ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। उन्होंने कहा- ‘हसरतों के नाच में अपनी बर्बादी देखने वाले लोग हैं, तो ऐसे लोगों की भी कमी नहीं, जो प्रतिष्ठित तरीके से डांस ग्रुपों का कारोबार कर रहे हैं।’

आभासी दुनिया में ध्यान, स्वयं के लिए चिकित्सा विधान

हमेशा कि तरह ही ऑफिस में पूरा दिन काम करने के बाद हिमा घर लौट रही थी। उसने बस में अन्दर कदम रखा और जल्द ही एक आरामदायक सीट उसे मिल गयी। वह उस सीट पर चुपचाप बैठी बस के सभी लोगों को देख रही थी। इन घंटों के दौरान उसने मुश्किल से ही किसी के चेहरे पर मुस्कान देखी। बस में सवार सभी लोगों के चेहरे मुरझाये हुए से थे। किसी के चेहरे पर थकान और चिन्ता, तो किसी के चेहरे पर त्याग कर देने वाली छवि थी।

हिमा बहुत ही बातूनी है, परन्तु इस पूरी यात्रा के दौरान वह बिल्कुल चुपचाप बैठी रही और उसके चेहरे से ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे वह गुप्त रूप से खुद को किसी ऐसे मिशन के लिए तैयार कर रही है, जो कि नामुमकिन है। यात्रा शुरू हुई। हिमा ने अपनी आँखें बन्द कीं और कुछ ही सेकेण्ड में वह अपने गंतव्य पर पहुँच गयी। प्रकृति ने उस पर उदारतापूर्वक अपने सभी इनामों की बौछार कर दी। यहाँ सब कुछ युवा और खुशी से नाचता हुआ प्रतीत होता है और उसका रोमांस अपने चरम पर होता है। कोमल घास उसे नरम ब्लेड पर शारीरिक ग्लानिमय पहना हुआ पहनावा फेंकने को कहती है और वह कायाकल्प शुरू कर देती है।

एक बड़ा गूदेदार फल उसका ध्यान खींचता है। फल का मीठा-पोषक गूदा उसके मन-मस्तिष्क के अन्दर विचारों के प्रत्येक भँवर को शान्त करता है। विदेशी पत्तेदार हाथ उसके गाल सहलाते हैं और वह उन सावधान हाथों में अपना चेहरा डूबो देती है। इस बीच सुखदायक हवा उसकी आँखों और पलकों पर तितलियों की तरह चुम्बन-सा देती है। नरम फूल की कलियाँ धीरे से उसके होठों को छूती हैं और कुछ क्षणों के बाद उसे चक्कर व नशे में छोड़ देती है।

एक सुन्दर लता की सुगन्ध उसके शरीर को लपेटती है और वह अपनी पीठ पर प्यारी-सी गुदगुदी के साथ इलाज के लिए उनके सामने आत्मसमर्पण कर देती है। बाद में जब झरना अपनी धीमी गति से उसके पैरों को धोता है, तब वह स्वर्ग का परम् आनन्द प्राप्त करती है। फिर वह शान्त रोमांस को गले लगाती है, गुदगुदाती है और गहरी नींद में खो जाती है।

फिर समय हस्तक्षेप करता है। बस के पहिये अपनी गति को कम करते हैं और पड़ाव के लिए तैयार हो जाते हैं। फिर वह परिस्थिति को समझती है, धीरे से आँखें खोलती है। खड़ी होती है। अपने दुपट्टे को समायोजित करती है और बस से उतरकर अपने घर की ओर बढ़ती है। यह उसका नियमित अभ्यास है। वह स्वर्गीय निकायों, पहाड़ की चोटियों, आसमान, समुद्र, बेड और क्या कुछ नहीं पाती है, अपने इस आभासी दौरे में। वहाँ कोई लॉजिक या नियम नहीं है। वह ऑक्सीजन की पूॢत करने वाले मास्क के बिना चाँद पर टहल सकती है; धूम्रकेतुओं को पकड़ सकती है; उनसे बात कर सकती है; यहाँ तक कि उन्हें किसी और दिशा में ले जा सकती है। वह समुद्र के साफ-सुथरे क्रिस्टल जैसे पानी की गहराइयों मे रंग-बिरंगी मछलियों के साथ नाच सकती है। उसकी स्कर्ट शरारती हवा से बह रही है; आसमान में बिना पंखों के उड़ भी सकती है। कोई नियम नहीं! कोई तर्क नहीं!! वाह!

हालाँकि आभासी दुनिया में कुछ भी लागू नहीं होता है और समय उसी तरह से अपनी भूमिका निभाता है। अब उसका समय असली दुनिया यानी अपने घर की ओर यात्रा शुरू करने का है। उसका मस्तिष्क उसे घर के पास आने के तर्क के साथ ज़मीनी यात्रा शुरू कर देता है।

जिस समय वह वाहन से नीचे उतर रही होती है, अपने आपको आभासी दुनिया से जुड़े सारे तारों से खुद को दूर कर लेती है और अपनी पहचान में पूरी तरह से वापस आ जाती है। उस जीवन का सामना करने के लिए, जो कि इतना प्यारा तो नहीं है, लेकिन ताॢकक है। लेकिन वह उस खूबसूरत आभासी दुनिया में प्रवेश क्यों करती है? इससे वह क्या हासिल कर रही है? आभासी दुनिया की प्यारी मिठास और कोमलता उसके विचार बिन्दु पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है। वह वहाँ फँस सकती है। वह वापस आने से मना कर सकती है। वह ताॢकक और अताॢकक दुनिया के बीच उलझ भी सकती है। लेकिन शुक्र है कि ऐसा कभी नहीं हुआ; जबकि अल्पकालिक आभासी दुनिया का प्रभाव कल्पना से परे था। आप इस पूरी प्रक्रिया को ‘मी-टाइम थैरेपी’ कह सकते हैं। जो कि ध्यान का एक अजीब तरीका तो है, लेकिन मन को शान्ति और उसके चेहरे पर संतोष पहुँचाने में आश्चर्यजनक रूप से परिणाम देता है।

उस रोज़ के सफर का वक्त उसके खुद के लिए एकमात्र मी-टाइम होता है और वह इस वक्त को कभी भी, किसी के भी साथ, बल्कि अपने विचारों में भी; साझा नहीं करती। इस मी-टाइम थैरेपी के समय उसके सामाजिक व पारिवारिक सम्बन्धों में से भी कोई उसके विचार में नहीं आता। यह मैडिटेशन थैरेपी उसकी सारी कौन? कब? कहाँ? कैसे? और क्यों? जैसी चिन्ताओं को क्षीण कर देती है। जो कि उसकी भावनाओं की भयंकर लहरों को साफ-गहरी, लेकिन खामोश झील में परिवर्तित कर देती है। यह एक प्रकृतिकृत चीज़ है, जो उसे उसके घर के और दफ्तर के कर्तव्यों को पूरा करने में मदद करती है। इस आभासी दुनिया का केवल एक घंटा उसे उसके दिन के 23 घंटों को आराम से बिताने के लिए तैयार कर देता है।

एक विचार करके देखें… आप ऐसे स्थान पर जाएँ, जहाँ आप अपनी मर्ज़ी से कुछ भी कर सकने में सक्षम हैं। अपनी मर्ज़ी के अनुसार ब्रह्मांड का मार्ग-दर्शन करने वाले एकमात्र व्यक्ति हैं। जहाँ आप बड़ी लापरवाही से झूठ बोलते हुए पकड़े जाने से डरते नहीं हैं। जहाँ आप अपने कपड़े खराब कर सकते हैं; बदल सकते हैं और पुन: आरम्भ कर सकते हैं। यह कोई बुरा सौदा नहीं है। गुड लक!

कुछ छोटे बदलाव, बीमारी से बचाव

पानी कम पीने और अस्वस्थ जीवनशैली के कारण शरीर में कुछ ऐसे अपशिष्ट पदार्थ बच जाते हैं, जो पेशाब के ज़रिये पूरी तरह बाहर नहीं निकल पाते, तब वे किडनी में ही एकत्रित होते जाते हैं और पथरी का रूप ले लेते हैं। शुरू पथरी छोटे कणों के रूप में होती है। उनमें से बहुत से कण तो पेशाब के साथ बाहर आ जाते हैं। जो कण अंदर जमा होते रहते हैं तो उनका आकार बढ़ जाता है।

पथरी भी कई तरह की होती है। कैल्शियम ऑक्सलेट, कैल्शियम फास्फेट, यूरिक एसिड और सिस्टेन। कैल्शियम आक्सलेट के स्टोन अधिक होते हैं। कई लोगों को यूरिन इंफेक्शन की शिकायत अधिक रहती है या पेशाब नली बन्द होने की। ऐसे मरीज़ों को पथरी की आशंका अधिक होती है। कुछ बातों को समझकर अगर हम अपनी जीवनशैली में सुधार ले आयेँ, तो हम पथरी से अपना बचाव कर सकते हैं :-

नमक का सेवन करें कम

जो लोग सोडियम का अधिक सेवन करते हैं, उनकी किडनी कैल्शियम को अधिक एब्जार्ब करती हैं, जिससे पेशाब में कैल्शियम की मात्रा बढ़ जाती है। सोडियम अधिकतर डिब्बाबन्द भोजन सामग्री में, जंक फूड, नमक, रेडी-टू-ईट भोजन और चाइनीज फूड में होता है। भोजन में नमक का सेवन कम करें और जंक फूड, चाइनीज फूड और डिब्बाबन्द भोजन से परहेज़ करें। भोजन में धनिया, नींबू, लहसुन, अदरक, करी पत्ता, काली मिर्च का प्रयोग करें।

पशुओं से प्राप्त होने वाले प्रोटीन से बचें

गाय, भैंस के दूध और उनसे बने उत्पाद का सेवन कम करें। इनमें प्यूरीन नामक तत्त्व होता है, जो पेशाब में यूरिक एसिड की मात्रा को बढ़ा देता है। इनके अधिक सेवन से पेशाब से अधिक कैल्शियम निकलने लगता है। मीट में भी प्यूरीन प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है। इसके अतिरिक्त चुकंदर, ब्रोकली, भिंडी, पालक, शकरकंद, ब्लैक टी, टमाटर, चाकलेट, सोयाबीन में ऑक्सलेट की मात्रा अधिक होती है, इनका सेवन भी कम कर दें। अगर आप कैल्शियम सप्लीमेंट लेते हैं, तो डॉक्टर से परामर्श करें।

अच्छा नहीं ज़्यादा विटामिन-सी

विटामिन-सी की अधिक मात्रा भी पथरी के खतरे को बढ़ाती है। विटामिन-सी खट्टे रसेदार फलों में अधिक होता है। विटामिन-सी सप्लिमेंट भी डॉक्टर से पूछ कर लें।

अन्य बदलाव जीवन शैली में

पेशाब को लम्बे समय तक न रोकें।

अगर अधिक पसीना आता हो, तो पेशाब कम आता है। पेशाब कम आने से पेशाब के ज़रिये बाहर निकलने वाले पदार्थ किडनी में जमा हो जाते हैं, इससे पथरी बनती है। पानी अधिक पीयेंं।

कोल्ड ड्रिंक्स, पैक्ड जूस, चाय-काफी का सेवन कम-से-कम करें।

अगर आप पानी कम पीते हैं, तो हर सप्ताह एक गिलास पानी की मात्रा बढ़ाएँ, ताकि पानी पीने की आदत में सुधार आ सके।

पथरी कौन-सी है, उसी आधार पर अपना आहार निर्धारित करें। डॉक्टर से पूछकर अपना डाइट चार्ट बनवाएँ।

100 वर्ष जीवन कैसे पाएँ?

एक प्रसिद्ध कहावत है- अपना आज सँभालो, आपका कल सुरक्षित हो जाएगा। आज बूँद-बूँद घड़ा भरो, कल वह घड़ा आपके काम आयेगा। जवानी सँभालकर रखो, बुढ़ापा सँवर जाएगा। 100 वर्ष जीने वालों के सर्वेक्षण से पता चला कि उन्होंने जवानी में भरपूर स्वास्थ्यवर्धक पौष्टिक भोजन किया, व्यायाम किया और चिन्तामुक्त जीवन बिताया।

जो लोग आलसी नहीं हैं, वे हर समय उत्साह से भरे रहते हैं। जो किसी-न-किसी कार्य में संलग्न रहते हैं, वे प्राय: दीर्घजीवी होते हैं। वैसे तो मृत्यु और जीवन का समय निश्चित है। इसे घटाना-बढ़ाना किसी के बस में नहीं। लेकिन जीवन को सुन्दर बनाना, सफर को सुहावना और आनन्दमय बनाना तो आपके बस में है।

कोई भी बीमारी अकस्मात् नहीं आती। पहले उसका कारण एवं जड़ बनती है, तभी वह पनपती है। बीमारी कभी अपने आप नहीं आती। उसे हम निमंत्रण देते हैं, तभी वह आ घेरती है।

यह प्रकृति के अनुसार ही है कि जीवेम् शरद-शतम्। चलता हुआ आदमी और दौड़ता हुआ घोड़ा कभी बूढ़ा नहीं होता। आप सोयें, तो सुहाने विचार लेकर; जागें, तो सुनहरे सपने लेकर; जीयें, तो ज़िन्दादिली एवं खुशमिज़ाजी एवं खुशदिली के साथ। मन का बुढ़ापा ही तन का बुढ़ापा लाता है। मानसिक थकान से ही शारीरिक थकान आती है। मानसिक परेशानियाँ शरीर को जर्जर और खण्डहर बना देती हैं। भोजन खाते वक्त प्रसन्न मन से एवं डूबकर खाना चाहिए। हम महँगी दवा तो खा सकते हैं, परन्तु पौष्टिक भोजन नहीं खा सकते। हम सब कई बार रात का रखा भोजन प्रात: गर्म करके खाने के आदी हैं। इससे हमारी सेहत पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि 12 घण्टे में भोजन में रासायनिक एवं जैविक क्रियाएँ सम्भावित हैं।

चिड़चिड़ा स्वभाव, बात बात में झुँझलाना, क्रोधित होना, मीन-मेख निकालना एक भयंकर रोग है। इससे जितनी जल्दी हो सके, छुटकारा पा लेना चाहिए अन्यथा जल्दी बीमारियाँ शुरू हो सकती हैं। हमेशा सुखद विचार, सुन्दर कल्पनाएँ व उत्तम व्यवहार बनाये रखें। तन मन, घर परिवार, मित्र परिचित, सभी आपसे प्रसन्न रहेंगे। मधुर बोलें। कड़वी बात किसी के मुँह पर मत कहें। विनम्र एवं प्रसन्न रहने की आदत डालें।

वैज्ञानिकों का कथन है कि यदि कुविचार दिमाग में आयेँ, तो उनका विपरीत प्रभाव शरीर की कोशिकाओं पर ज़रूर पड़ता है। इसी प्रकार प्रसन्न मानसिक स्थिति का शरीर कोशिकाओं पर उचित एवं ठीक प्रभाव पड़ता है। बातूनी व्यक्तियों की अपेक्षा शान्तचित्त वाले व्यक्ति दीर्घजीवी होते हैं। यह शोध का परिणाम है, अत: शान्त एवं प्रसन्न रहें और दीर्घजीवी बनें।

(स्वास्थ्य दर्पण) नीतू गुप्ता एवं विजेन्द्र कोहली

किताबों की दुनिया

पहले जो भीड़ पुस्तक मेले में दिखती थी, अब क्यों नहीं दिखती?

देखिए, भीड़ तो काफी रहती है। पिछले पुस्तक मेले में भी थी। लेकिन थोड़ा-सा जो फर्क पड़ा है कि छात्र दूसरी चीज़ों में संलिप्त रहने लगे हैं। दिल्ली में इस तरह का माहौल बना हुआ है कि लोग घरों से निकलने में डरते हैं। एक अच्छी चीज़ यह भी है कि अब पुस्तक मेलों में युवा लेखक और युवा पाठक काफी दिखते हैं। हम बहुत-से युवा लेखकों की किताबें प्रकाशित कर चुके हैं। नयी किताबों के पाठक, खासतौर पर युवा पाठक भी बहुत हैं। बहुत-सेे नयी उम्र के बच्चे, जिन्हें नयी चीज़ों को जानने की जिज्ञासा है; किताबें खरीदते हैं। इन युवाओं में हिन्दी के नये लेखकों की किताबों को पढऩे की बहुत ही उत्सुकता है।

कुछ खास किताबें आयी हैं हाल में?

एक नयी किताब रवीश कुमार की आयी है- बोलना ही है। यह किताब अलग ढंग की किताब है। अभी दो किताबें आ चुकी हैं- आधार से किसका उधार और किस ओर; इन किताबों के पाठकों में बड़ी संख्या युवाओं की है। हिन्दनामा किताब के एक महीने में दो संस्करण आये। कृष्ण कल्पित की कविता की किताब आयी। कविता की किताब का महीने भर में दूसरा संस्करण निकालना मुश्किल काम होता है, लेकिन एकदम आया। ऐसे ही अग्नि लेख उपन्यास आया। हमने साहित्येतर विषयों की भी बहुत-सी किताबें निकाली हैं। जिनमें यात्रा वृतांत भी हैं, जैसे- मलय का यात्रा वृतांत, कच्छ का यात्रा वृतांत; ये हमारे लिए खुशी की बात है। हिन्दी को लेकर जो माहौल कई बार बनता है कि हिन्दी की किताबें नहीं पढ़ी जा रहीं या नये पाठक कम हो रहे हैं। यह भ्रम पुस्तक मेले में आने के बाद दूर होता है।

साहित्यक किताबें ज़्यादा बिकती हैं या गैर-साहित्यिक? मसलन इतिहास या प्रेम!

दोनों तरह की किताबें ज़्यादा बिकती हैं। बल्कि कह सकते हैं कि गैर-साहित्यिक किताबों की बिक्री बढ़ी है। पहले साहित्यिक किताबें, जैसे- उपन्यास, कहानी, कविता की किताबों की बिक्री ज़्यादा होती थी। लेकिन गैर-साहित्यिक किताबों की बिक्री खूब हो रही है। कुल मिलाकर दोनों तरह की किताबों की बिक्री लगभग बराबर होती है।

अभी नये कहानीकारों में सबसे ज़्यादा कौन बिक रहे हैं?

कई लेखकों की किताबें खूब बिकती हैं। हालाँकि, मैं काउंटर पर उस तरह से नहीं होता हूँ, इसीलिए पुस्तकों की खपत के बाद ही पता चलता है कि किसकी कितनी माँग है।

लेकिन कुछ तो अंदाज़ होगा, आमतौर पर कौन-सी किताबें ज़्यादा बिक रही हैं?

पिछले दिनों राजस्थान की छात्र राजनीति को लेकर किताब आयी- जनता स्टोर। उसकी बिक्री खूब हो रही है। एक नयी लेखिका सुजाता उनका पहला-पहला उपन्यास- ‘एक बटा दो’ खूब बिका है। यह महिलाओं पर आधारित उपन्यास है। मतलब यह है कि युवा लेखकों पर युवा पाठकों का आकर्षक चल रहा है। आमतौर पर यह माना जाता है कि कविता संग्रह की कम बिक्री होती है और पेपर बैक तो बहुत कम छपते हैं। इधर, हमने केदारनाथ सिंह, धुमिल, विजय बहादुर सिंह जैसे कुछ बड़े लेखकों और कवियों की किताबें निकाली हैं, तो प्रभात, हितेज़ श्रीवास्तव, सुधांशु फिरदौस जैसे नये कवियों की किताबें भी आयी हैं। हमने यह एक प्रयोग किया है। काफी सफलता  भी मिली है। हमने पिछले मेले में कुछ कविता संग्रहों के पेपर बैक संस्करण निकालकर एक और प्रयोग करने की कोशिश की।

आपने बताया कि युवाओं का रुझान युवाओं की तरफ जा रहा है। इससे आपको क्या लगता है?

इसको इस ढंग से देखना चाहिए कि एक जो पहले कहें कि विमल चन्द वर्मा वो अपनी जगह हैं। एक क्लासिक लेखक के रूप में स्थापित हैं। उनकी किताबें पहले भी बिकती थीं और अभी भी बिक रही हैं। लेकिन मेरा यह मानना है कि हिन्दी एक ज़िन्दा भाषा है, जो समय को लेकर बदल रही है। अपने आप को नये समय में ढाल रही है। आप कई बार सुनते हैं हिंग्लिश हो गयी, नयी हिन्दी हो गयी; मैं उसको नहीं मानता हूँ। न तो मैं हिंग्लिश पसन्द करता हूँ, और न ही नयी हिन्दी की बात मानता हूँ। मुझे लगता है कि भाषा अपने आप को नये ढंग से ढालती है। नये पाठक के हिसाब से चलती है और उसमें जो परिवर्तन हो रहा है, उसे हम उस भाषा में परिवर्तन कह सकते हैं। मैं कहता हूँ कि हिन्दी में नयापन आ रहा है। पुस्तक मेलों के लिहाज़ से अगर हम इसको देखें, तो पिछले विश्व पुस्तक मेले में हिन्दी की किताबें कम-से-कम हमारे यहाँ तो बड़े बदलाव के साथ आयीं। हमने अपने यहाँ कम-से-कम तीन-चार सौ पुरानी किताबों के कवर डिजाइन बदले हैं। नये पाठकों को आकर्षित करने के लिए। लेकिन जो नयी किताबें आ रही हैं, उन्हें आप बिल्कुल नये रूप में ही देखेंगे। इसके अलावा आप देखेंगे कि प्रभात रंजन की किताब ‘पालतू बहू’ का कवर बिल्कुल नये ढंग का है। ऐसा कवर शायद आपको अंग्रेजी कि किताबों का भी न मिले। अभी ‘कश्मीरी पण्डित’ किताब देखें। इसके कवर के लिए, फोटोग्राफ के लिए कितनी कोशिश करके अधिकार लिये गये। उसके बाद ये फोटोग्राफ का कवर छपा है। इस पर शायद हम बैठकर इतनी बातें नहीं कर सकते, जितनी किताब को देखकर कर सकते हैं। ‘अग्निलेख’ एक उपन्यास आया है। उसका कवर बिल्कुल अलग ढंग का है। हर एक किताब को देखकर एक डिजाइन और उसके पाठक को देखकर और उस किताब के विषय को देखकर उसकी अपनी एक प्रस्तुति हिन्दी के लिए बिल्कुल अनूठी बात है। इसके लिए पहले या तो हम अंग्रेजी किताबों की नकल करते थे या हम बिल्कुल आसान परम्परागत तरीके अपनाकर काम चलाते थे। अब इन सब चीज़ों से हिन्दी बहुत आगे बढ़ गयी है। किताबों के कवर नये ढंग से आ रहे हैं। किताबों के आकार बदल रहे हैं। पहले केवल दो आकार की किताबें मिलती थीं- एक काउन में और एक डिवाइन में। लेकिन अब कई आकार में किताबें आने लगी हैं। सचित्र किताबों का दौर बीच में खत्म हो गया था। अब इलस्ट्रेटेट किताबें आ रही हैं। कहानी की किताबें चित्रों के साथ आ रही हैं। पहले यह बिल्कुल खत्म हो गया था। दूसरे प्रकाशकों में शायद अभी भी नहीं है।

एक और बात, हिन्दी किताबों में आपको संस्करण का उल्लेख नहीं मिलेगा। वे लिखेंगे- संस्करण : 2019, संस्करण : 2012, जिससे संस्करण का पता ही नहीं चलेगा। हमारी हर किताब में पहला संस्करण मिलेगा और फिर ये 19वाँ संस्करण है या 20वाँ संस्करण; इसका उल्लेख भी मिलेगा। उसकी नैतिकता का पालन हम करते हैं। अनुवादक का नाम हम कवर पर देने की कोशिश कर रहे हैं। कोशिश रही है कि किताब के आर्टिस्ट का नाम, चित्र का नाम भी दिया जाए। जो विश्व के मानकों को सामने रखकर हर किसी को साथ में लेकर चलने की कोशिश हम कर रहे हैं, वह हिन्दी में नया है।

अभी जो विश्वविद्यालयों मेंं, पुस्तकालयों पर जो हमला हो रहा है, उससे प्रकाशकों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

देखिए, जब मैं साधारण आदमी की तरह इन कैम्पस को देखता हूँ, तो साफ देखता हूँ कि छात्रों पर हमले से किताबों की बिक्री पर असर पड़ेगा ही पड़ेगा। हमारे सबसे बड़े पाठक तो छात्र ही हैं। अब जब छात्र दूसरे काम में शामिल हो गये और जब छात्र छात्रावास छोडक़र घर चले गये, तो वह किताबें लेने कैसे आएँगे? इसका असर तो होगा ही। असर है और रहेगा। मैं तो सबसे हाथ जोडक़र निवेदन करूँगा कि छात्र जो हमारे बच्चे हैं, जिसमें मेरा बच्चा भी हो सकता है; आपका बच्चा भी हो सकता है; किसी का भी बच्चा हो सकता है; उनके साथ अपराधी की तरह नहीं, एक अच्छे नागरिक की तरह से व्यवहार करना चाहिए। छात्र देश के कर्णधार हैं; हम सबको इस पर सोचना चाहिए। हर बच्चा किताब खरीद नहीं सकता। जब किसी छात्र को बेहतर माहौल मिलेगा; शान्ति से पढ़ाई करने का मौका मिलेगा; सुरक्षा मिलेगी; उसके बाद ही वह किताब खरीद सकेगा, पढ़ सकेगा।

इस दौर में अनेक तरह की साहित्यिक रचनाएँ हो रही हैं। मसलन दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य, स्त्री विमर्श साहित्य, इस तरह के साहित्य के बारे में आपके प्रकाशन का क्या सोचना है?

राजकमल प्रकाशन हमेशा से समाजोन्मुख प्रकाशन रहा है। हम समाजिक दायित्वों को समझते हुए ही पुस्तकों का प्रकाशन करते हैं। इस समय दलित साहित्य में जो महत्त्वपूर्ण है, मसलन मराठी का दलित साहित्य – अजय पवार से लेकर ओम प्रकाश बाल्मिकी, जय प्रकाश कर्दम तक – सारा श्रेष्ठ दलित साहित्य हमारे राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। स्त्री विमर्श की महत्त्वपूर्ण किताबें राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं। 2020 के पुस्तक मेले में ग्लोरिया स्टाइना की किताब आयी। स्टाइना अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिला-अधिकारों की सबसे बड़ी पैरोकार मानी जाती हैं। इसी तरह आदिवासी विमर्श पर भी पैरियर एलिविन के अनुवादों से लेकर रमणिका गुप्ता की किताब ‘महुआ माझी’ आयी। इसके अलावा वंदना टेडे की सभी किताबें हमारे राजकमल प्रकाशन समूह से ही प्रकाशित हैं।

मैं हमेशा कहता हूँ-  ‘अपनी प्रशंसा के तौर पर नहीं, बल्कि गर्व से कहता हूँ कि हम एक प्रकाशक के दायित्व को समझते हुए हमेशा सामयिक, स्थायित्व, सैद्धांतिक और व्यावहारिक रूप से, प्रासंगिकता को देखते हुए यह कोशिश करते हैं कि उस समय की ज़रूरतों को पूरा करने वाली अच्छी किताबों का प्रकाशन करें और अपना उत्तरदायित्व मानकर करें।’

किस्से सितारों के

रेमो से क्यों खफा हैं वरुण?

कोरियोगाफर और डायरेक्टर रेमो डिसूजा इन दिनों थोड़े तनाव में चल रहे हैं। उनकी नयी फिल्म स्ट्रीट डांसर-3 डी को दर्शकों ने एक दिन भी थियेटर में टिकने नहीं दिया। ज़ाहिर है इसके बाद से ही उनके घटिया निर्देशन पर ढेरों सवाल उठाये जा रहे हैं। फिल्म के हीरो वरुण धवन ने तो एकदम उनके मुँह पर यह बात कह दी है। वरुण के बारे में अब यह कहा जा रहा है कि उन्होंने इसकी स्क्रिप्ट पढ़ते ही इस पर अपना असन्तोष व्यक्त किया था। सिर्फ वरुण ही नहीं, इस फिल्म की यूनिट के कई लोगों का तो यहां तक कहना है कि इतनी सडै़ली स्क्रिप्ट पर भला कोई फिल्म बनाता है! तब रेमो ने वरुण के सुझावों पर कोई ज़्यादा ध्यान नहीं था, पर अब रेमो खुले तौर मान रहे हैं कि वरुण के सुझाव काफी ताॢकक थे। पर इसके बाद भी वह वरुण को मना नहीं पा रहे हैं। उनका गुस्सा है कि शान्त नहीं हो पा रहा है। उन्होंने तो यहाँ तक कह डाला है कि वह रेमो के साथ आगे हरगिज़ काम नहीं करेंगे। वैसे रेमो के इस निर्णय के पीछे उनके पिता और बॉक्स आफिस के चतुर खिलाड़ी डेविड धवन का हाथ बताया जा रहा है। वह इस बात को अच्छी तरह से समझ गये हैं कि वरुण को पटा कर रेमो सिर्फ अपनी फिल्मी नैया पार लगाना चाहते हैं।

असल में बतौर निर्देशक एबीसीडी के बाद से ही रेमो पिट रहे हैं। इसके बाद एबीसीडी-2, फ्लाइंग जट, रेस-3 जैसी फिल्मों ने उन्हें बहुत पीछे कर दिया है। जहाँ तक वरुण का सवाल है, एबीसीडी-2 और स्ट्रीट डांसर की विफलता के बाद पिता की सलाह उन्हें बहुत सटीक लगी है। उनके करीबियों ने उन्हें यह सलाह दी है कि उन्हें लगातार फ्लाप फिल्में स्टारडम की दौड़ में पीछे कर सकते हैं। दूसरी ओर रेस-2 की विफलता ने यह साबित कर दिया था कि रेमो के पास सलमान, अनिल कपूर, वरुण धवन जैसे सितारों को सँभालना की ज़रा भी योग्यता नहीं है। यही वजह है कि वरुण ही नहीं, सलमान, टाइगर जैसे सितारे उनके काम करने से बिदकने लगे हैं। सलमान तो उनसे मिलना भी नहीं चाहते हैं। यही वजह है कि इन दिनों अपनी अगली फिल्म डांसिंग डैड की कास्टिंग करना उनके लिए मुश्किल हो रहा है। ऐसे में वरुण का उनसे यों रूठना उनके लिए परेशानी का नया सबक बन सकता है।

दिशाहीन दिशा

अभिनेत्री दिशा पाटनी की नयी फिल्म मलंग भी दर्शकों को कुछ ज़्यादा प्रभावित नहीं कर पायी। पर हमेशा की तरह इसमें भी उनके बोल्ड लुक की खूब तारीफ हो रही है। वैसे इन दिनों दिशा अपने निजी सम्बन्धों को लेकर भी काफी बोल्ड हुई हैं। पर आलोचक मानते हैं कि इन सब वजहों से दिशा करियर के मामले में काफी दिशाहीन हो गयी हैं। जहाँ तक उनके निजी रिश्तों का सवाल है, सभी जानते हैं दिशा और टाइगर प्रेमी-प्रेमिका के तौर पर मशहूर हैं। पर किसी भी हाल में दोनों इस विषय पर मुँह नहीं खोलना चाहते हैं। इसी बीच यह खबर आयी थी कि फिल्म मलंग की शूटिंग के दौरान अभिनेता आदित्य राय कपूर के व्यक्तित्व ने उनका मन मोह लिया है। इस खबर को एक झटके में खारिज किया जा सकता था, पर हुआ यूँ कि एक खास मौके पर टाइगर का नाम आने पर दिशा ने मुँह बिचका कर जवाब दे दिया। मीडिया ने उनसे टाइगर श्राफ के साथ उनके रिश्तों को लेकर सवाल पूछा था। इस पर दिशा ने थोड़ मुँह बनाकर कहा- ‘ कैसा रिश्ता..’ उनकी भाव-भंगिमा ऐसी थी, मानो यह कहना चाहती हो, कौन टाइगर…? उनसे मेरा क्या नाता…? दूसरी और आदित्य के बारे में पूछे गये सवाल पर वह गद्गद हो उठती हैं। अति घनिष्ठ होकर उसके साथ तस्वीरें भी खिंचवा रही हैं। वैसे इसमें टाइगर का कोई दोष नहीं दिखता। टाइगर ने तो कभी भी इस रिश्ते को कुबूल नहीं किया है। चलो अब दिशा-आदित्य के रिश्ते को ही कुबूल कर लेते हैं, जिसे अपने ताज़ातरीन बातचीत में खुद दिशा ने भी कुबूल किया है।

डिप्रेस हो गये हैं ईशान

अब यह बात किसी से छिपी नहीं है, बड़े भाई शाहिद कपूर की तुलना में भाई ईशान खट्टर ज़रा भी अपना दमखम नहीं दिखा पा रहे हैं। अपनी पिछली दोनों फिल्मों में उन्हें बहुत पिटा हुआ बताया गया। अब इस साल के मध्य तक उनकी दो फिल्में खाली-पीली और सूटेबल बॉय रिलीज होगी। ज़ाहिर है उम्मीदें अब भी बाकी है। मगर फिर भी ईशान इन दिनों ड्रिप्रेशन में हैं। वजह, उनकी प्रिय दोस्त जाह्नवी कपूर उन्हें कुछ ज़्यादा तवज्जो नहीं दे रही हैं। लिहाज़ा उनका मन बेहद बेचैन है। ऐसे में वह कभी अपने जिम का, तो कभी अपने डांस क्लास का समय बदल रहे हैं। यही नहीं, उन्होंने अपने एक पूर्व दोस्त अक्षत रंजन के साथ काफी घनिष्ठ तस्वीरें भी सोशल मीडिया में शेयर की हैं। असल में ईशान स्वभाव से बहुत अस्थिर हो उठे हैं। जाह्नवी से लगातार मिलने की कोशिश कर रहे हैं। किसी तरह से प्लान बनाकर एक ही पार्टी में जाने की कोशिश कर रहे हैं। क्यों अचानक जाह्नवी ने उनसे मुँह फेर लिया है? इस बारे में ज़्यादा कुछ पता नहीं चल रहा है। कोई बता रहा है कि दोनों का रिश्ता बहुत एकतरफा हो गया था। दूसरी खबर है कि अभिनेत्री अनन्या पांडे के साथ ईशान की दोस्ती जाह्नवी को कुछ ज़्यादा पसन्द नहीं थी। गौरतलब है कि ईशान और अनन्या इन दिनों फिल्म खाली-पीली में एक साथ काम कर रहे हैं। इस दौरान दोनों की बढ़ती आत्मीयता को देखते हुए जाह्नवी काफी शीतल हो गयी हैं। न जाने ये मिलेनियल स्टार किड किस तरह का लव गेम खेलते हैं। फिलहाल तो इस लव गेम ने ईशान की नींद हराम कर दी है। पर इससे ईशान के डिस्प्रेस होने की बात समझ में नहीं आती है। इन सब बातों को कैसे सुलझाया जाता है, इसकी शिक्षा तो उन्हें अपने बड़े भाई शाहिद से लेना चाहिए।

सुखी लाला मुम्बई के होकर रह गये

कन्हैयालाल ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे। सम्पन्न परिवार के कन्हैयालाल अभिनेता होने के साथ-साथ एक अच्छे कवि भी थे। नाटक लिखने का भी शौक था। चौथी कक्षा तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद पाठ्य पुस्तकों से उनका जो नाता टूटा, तो वह फिर कभी जुड़ नहीं पाया। लिहाज़ा अपने पुश्तैनी जनरल मर्चेंट की दुकान का थोड़ा बहुत काम सँभालना शुरू किया। इसमें मन नहीं रमा तो आटे की चक्की का काम अनिच्छा से सँभाल लिया। असल में बचपन से ही नाटकों के प्रति गहरे लगाव के चलते ही उनका मन किसी भी काम में नहीं लगता था। यह वह दौर था, जब अभिनय के करियर को बहुत सम्मानजनक दर्जा नहीं मिला हुआ था। लेकिन उनके बाल-हठ के आगे परिवार वालों को झुकना पड़ा और उन्हें आगाहश्र कश्मीरी के नाटक आंख के नशे में तबले वाले की अहम् भूमिका मिल गयी। उन्हें लगा जैसे उन्होंने बहुत बड़ कमाल कर दिया। बस वे नाटकों में अच्छे-खासे व्यस्त हो गये। नाटकों के मंचन के सिलसिले में उन्हें मुम्बई आना पड़ा और फिर वे पूरी तरह से मुम्बई के हो कर रह गये। यहाँ उन्होंने स्वयं का लिखा अपना नाटक 15 अगस्त के बाद का मंचन किया। इस नाटक की वजह से उन्हें जो तारीफ मिली, उसने उन्हें फिल्मों का रास्ता दिखा दिया। फिल्मों में उन्हें छोटी-मोटी भूमिकाएँ मिलने लगीं। पहली बार फिल्म औरत में निभाये गये अपने रोल की वजह से उन्होंने अपने इर्द-गिर्द प्रशंसकों की भीड इकट्ठी कर ली।

मौके नहीं गँवाना चाहते विकी

दिग्गज स्टंट डायरेक्टर श्याम कौशल के बेटे अभिनेता विकी कौशल इन दिनों फिल्मी चर्चा के ध्रुवतारे हैं। वह खुद भी मानते हैं कि मीडिया इन दिनों उनकी हर बात को नोटिस कर रहा है। इधर नयी फिल्म- ‘भूत पार्ट-वन : द हांटेड शिप’ के प्रमोशन में मशगूल विकी के मुताबिक, एक वक्त में एक से ज़्यादा फिल्मों में व्यस्त रहने से कई बातें थोड़ी बिगड़ जाती हैं। वह कहते हैं- ‘इस समय मैं पूरी तरह से अपनी नयी फिल्म भूत को लेकर क्रेजी हूँ। यह एक हॉरर फिल्म है। हॉरर फिल्म का मुख्य आकर्ज़ण उसका रहस्य होता है। मुझे लगता है इस फिल्म के राइटर-डायरेक्टर भानुप्रताप सिंह ने बहुत अच्छी तरह से सँभाला। वह नये हैं, पर उनके काम करने के तरीके से मैं बहुत ज़्यादा खुश हूँ। वैसे भी मैं शुरू से ही बिल्कुल अलग-थलग फिल्मों में काम करना चाहता हूँ। इसके बाद की मेरी अगली फिल्मों से भी आपको इसका पता चल जाएगा।’

उनकी इस बात की सच्चाई पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं। भूत के बाद वह अपनी अगली फिल्म सरदार उधम सिंह की बाकी की शूटिंग तेज़ी से पूरी करेंगे। यह फिल्म सम्भवत: 2 अक्टूबर को रिलीज़ होगी। इसके बाद करण जौहर की तख्त और फिर मेघना गुलज़ार की मानेक शाह के फ्लोर पर जाने की बारी है। विकी बताते हैं- ‘मैं किसी भी फिल्म के विषय और अपने िकरदार को लेकर ज़्यादा चिन्तित रहता हूँ। यही वजह थी कि उरी के ठीक बाद मैंने सुजीत सरकार की फिल्म सरदार उधम सिंह को झट से साइन कर लिया था। मौका था, तो इसके कुछ महत्त्वपूर्ण दृश्यों की शूटिंग भी मैंने कर डाली। मैं बहुत सोच-समझकर अपने डायरेक्टर का चयन कर रहा हूँ, जिसमें सुजीत दा जैसे वरिष्ठ और अनुभवी निर्देशकों के साथ भूत के भानुप्रताप जैसे नये निर्देशक भी शामिल हैं। तख्त में करण जौहर के साथ काम करने को भी मैं अहम मानता हूँ।’

इसके साथ ही वह अपने महिला मित्रों की वजह से भी खूब चर्चा में हैं। इन दिनों कैटरीना कैफ के साथ उनकी आत्मीयता को खूब हाइप किया जा रहा है। कई मौकों पर उन्हें साथ देखा जा रहा है। सलमान खान के प्रशंसकों को यह बात थोड़ी नागवार गुज़र रही है। ज़ाहिर है विकी ऐसे किसी सवाल का जवाब देने से बचते हैं। उनका वक्तव्य होता है- ‘मैंने कभी इस बात से इन्कार नहीं किया कि कैट मेरी अच्छी दोस्त हैं। पर मीडिया है कि हमारी दोस्ती को अपने ढंग से पेश कर रहा है। मैं कहाँ तक अपनी सफाई दूँ। वैसे भी इस समय मेरा सारा ध्यान अपनी फिल्मों पर है। मुझे बहुत अच्छे मौके मिल रहे हैं। मैं उन्हें हरगिज़ मिस नहीं करना चाहता हूँ।’

124 साल में पहली बार टले ओलंपिक खेल

कोरोना वायरस के भय से न केवल कामकाज पर, बल्कि खेलों पर भी असर हुआ है। इस खतरनाक वायरस के चलते कई अंतर्राष्ट्रीय खेल टल गये हैं। इनमें कुछ प्रमुख भी थे।

आईओसी ने कोरोना वायरस के चलते ओलंपिक खेलों को एक साल के टाला है। अब यह बात इतिहास में दर्ज हो गयी है कि ओलंपिक खेलों को 124 साल बाद टाला गया है। इससे पहले 1940 में जब जापान के टोक्यो को पहली बार ओलंपिक खेलों की मेज़बानी मिली थी, तब  चीन से युद्ध की वजह से उन्हें रद्द करना पड़ा था। बताया जा रहा है कि 124 साल के इतिहास में तीन बार ओलंपिक खेलों को रद्द किया जा चुका है; लेकिन टाला पहली बार गया है। इससे पहले प्रथम विश्व युद्ध के चलते 2016 में बर्लिन में आयोजित होने वाले ओलंपिक खेलों को रद्द करना पड़ा था। वहीं, 1940 में  टोक्यो में आयोजित होने वाले 1944 में लंदन में होने वाले ओलंपिक खेलों को रद्द करना पड़ा था।

अमेरिका के यूजीन में सन् 2021 में 6 से 15 अगस्त होने वाली वल्र्ड एथलेटिक्स चैंपियनशिप को टाला जा चुका है। यह चैंपियनशिप अब सन् 2022 में होगी। यह फैसला टोक्यो ओलंपिक टलने और उनकी नयी तारीख आने के बाद लिया गया है। बता दें कि टोक्यो गेम्स इसी साल 23 जुलाई से 8 अगस्त तक होने थे, जो कि सन् 2021 तक टाल दिये गये हैं।

वल्र्ड एथलेटिक्स ने ओलंपिक की नयी तारीखों का स्वागत किया है। उसने कहा है कि इससे खिलाडिय़ों को ट्रेनिंग और स्पर्धा के लिए पर्याप्त समय भी मिल जाएगा। वल्र्ड एथलेटिक्स ने साथ ही कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन से इस बारे में चर्चा करने को कहा है। बता दें कि बॄमघम में सन् 2022 में 27 जुलाई से 7 अगस्त तक कॉमनवेल्थ गेम्स भी होने हैं।

भारत को झटका

इधर, फेडरेशन (सीजीएफ) ने भारत को बड़ा झटका दिया है। दरअसल, सीजीएफ ने सन् 2022 में बॄमघम के कॉमनवेल्थ गेम्स में कॉमनवेल्थ गेम्स में शामिल होने के लिए भारत के खिलाडिय़ों की संख्या को सीमित कर दिया है। यहाँ तक कि सीजीएफ ने इन खेलों के निर्धारित कार्यक्रम में भारत का ज़िक्र शूटिंग और तीरंदाज़ी में किया ही नहीं है। सीजीएफ ने पैरास्पोट्र्स समेत 31 खेलों में खिलाडिय़ों की भागीदारी सुनिश्चित की है, जिसमें शूटिंग और तीरंदाज़ी जैसे भारत के खास खेलों में भारत का ज़िक्र ही नहीं है। सीजीएफ ने 15 खेलों में भारतीय दल की भागीदारी का कोटा मात्र 109 निर्धारित किया है। सीजीएफ ने यह भी तय किया है कि इन खेलों में 45,00 से अधिक खिलाड़ी भाग नहीं ले सकेंगे।

टोक्यो में सम्भव मैराथन और रेस वॉक

कोरोना के चलते ओलंपिक गेम्स के टलने के बीच कुछ खेलों के स्थान भी लगभग तय ही माने जा रहे हैं। मैराथन और रेस वॉक का आयोजन टोक्यो (जापान) में हो सकता है। बताया जा रहा है कि इन खेलों की तैयारी पर जापान अब तक करीब 12.6 अरब डॉलर खर्च कर चुका है। इन खेलों का कुल अनुमानित खर्च करीब 25 अरब डॉलर है। इन खेलों में 11 हज़ार से अधिक खिलाड़ी भाग ले सकते हैं।

इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं

दुनिया में ऐसा कोई धर्म नहीं, जो मानव सेवा की सीख न देता हो। कहा भी गया है कि नर सेवा ही नारायण सेवा है। यही बात हमारे कई संतों ने भी समझायी है। लेकिन मेरा मानना है कि इस दुनिया को भले ही एक ही ईश्वर ने बनाया है; भले ही एक ही धरती पर अरबों लोग रहते हैं; भले ही सबकी मूलभूत ज़रूरतें एक जैसी हैं; भले ही सब एक ही तरह पैदा होते और एक ही तरह मरते हैं; लेकिन दुनिया के सभी लोग न तो कभी भी एक मत हुए हैं और न कभी एकमत हो सकेंगे। क्योंकि हर किसी के जीने के अपने-अपने तरीके हैं। हर किसी का अपना विचार है। हर किसी ने अपने हिसाब से ईश्वर के स्वरूप का बखान किया है और अपने-अपने मतानुसार चन्द किताबों में से किसी एक या कुछ को चुना है, जिन्हें धर्म-ग्रन्थ का नाम दे दिया है। लेकिन दु:ख इस बात का होता है कि हमने इन धर्म-ग्रन्थों की आड़ लेकर मज़हबी दीवारें खड़ी कर दी हैं और असल झगड़े की जड़ यही है।

दरअसल, अब हम इन धर्म-ग्रन्थों की पूजा करते हैं। इनमें क्या सही और क्या गलत बताया गया है? इससे हमारा कोई सरोकार नहीं! मतलब हमें इंसान बनाने की सीख देने वाले धर्म-ग्रन्थों की बात हम नहीं मानते। आिखर क्यों? क्या हम इन धर्म-ग्रन्थों की पूजा करके या इन्हें सीने से चिपकाकर फिरते रहने से इंसान बन सकते हैं? यह ठीक वैसे ही नहीं होगा, जैसे किसी पागल को राजसी वस्त्र पहना दिये जाएँ और उसे राजा समझ लिया जाए।

याद रखिए, अगर आज हम सभी जीव-जन्तुओं में श्रेष्ठ हैं, तो उसका कारण हमारी बुद्धि, हमारा ज्ञान है। अगर ईश्वर ने हमें बुद्धि नहीं दी होती, तो हम भी एक जानवर के सिवाय कुछ नहीं होते। हालाँकि, यह पशुता ही है कि हम एक-दूसरे से नफरत करते हैं। झगड़ा करते हैं। वह भी किस बात पर? या तो जातिवाद को लेकर, या गरीबी-अमीरी का भेद करके या मज़हबों की आड़ लेकर; जिसका कारण बनते हैं- अलग-अलग धर्मों के नाम पर बनाये गये मन्दिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे, स्पूत, सिनेसाँग और मज़ार आदि। ये धर्म-स्थल झगड़े का उतना बड़ा कारण नहीं हैं, लेकिन हम एक-दूसरे के धर्म और धर्म-स्थल को तुच्छ और अपने धर्म का विरोधी मानते हैं। जबकि हम यह भूल जाते हैं कि सभी धर्म-स्थल उस एक ही परमात्मा, उस एक ही ईश्वर की उपासना का साधन मात्र हैं। वही ईश्वर, जिसे हमने अपनी-अपनी भाषा में अलग-अलग नामों से जाना और माना है। सभी धर्मों ने भी यही कहा है कि ईश्वर एक है और उसके अलावा कोई दूसरी शक्ति पूरे ब्रह्माण्ड में हीं है। मगर हमारे मन की आँखों पर तो परदा पड़ा हुआ है। यही वजह है कि हम भटके-लड़ते फिर रहे हैं। कई लोग तो अपने ही धर्म के लोगों से भेदभाव करते हैं। कहीं यह भेदभाव सम्पत्ति के अन्तर से पनपता है, तो कहीं-कहीं जातिवाद के नाम पर पनपता है। कभी सोचा है कि अगर हम जितना समय, पैसा, दिमाग मज़हबी भेदभाव बढ़ाने, एक-दूसरे को नीचा दिखाने, एक-दूसरे को गिराने में लगाते हैं, अगर उतना सबकुछ हम एक-दूसरे की भलाई में, एक-दूसरे मदद करने में, प्रकृति के उत्थान में लगाएँ, तो मानव जातिके साथ-साथ समस्त प्राणियों का भला होगा। सभी खुशहाल होंगे। सबका जीवन सरल, सुगम और सफल हो जाएगा।

आज के दौर में जब हर साल कोई-न-कोई नयी बीमारी पैदा हो रही है, क्या हमें अस्पताल बनाने की ज़रूरत नहीं है? क्या हमें डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक और शिक्षाविद् पीढिय़ाँ तैयार करने की ज़रूरत नहीं है? आज कोरोना के भय से न केवल पूरी दुनिया के लोग घरों में कैद हैं, बल्कि हमें धाॢमक स्थलों को भी बन्द करना पड़ा। आज अगर इस महामारी से कोई लड़ रहा है, तो वे हैं डॉक्टर। आज अगर कोई धर्म-स्थल मानवसेवा कर पा रहा है, तो वो हैं अस्पताल। क्या हमने कभी विचार किया है कि ये धर्म-स्थल हमारी भावनाओं को संतुष्ट करने, शान्ति प्रदान करने और ईश्वर को याद करने के संसाधन मात्र हैं। ईश्वर ने तो हमें खुद के साथ-साथ निर्बलों की रक्षा और मदद करने का भी आदेश दिया है। अगर आपने किसी भी धर्म-ग्रन्थ को कभी पढ़ा हो, तो इस बात को ज़रूर पढ़ा होगा कि ईश्वर ने हम इंसानों को कर्म करने के लिए पैदा किया है। अगर हम कर्म नहीं करेंगे, तो हमारा जीवन नरक बन जाएगा। इसी तरह अगर हम खुद की रक्षा नहीं करेंगे, तो हम मर जाएँगे। हम पर न केवल जीव-जन्तु हमला कर देंगे, बल्कि अनेक बीमारियाँ हमें तड़पा-तड़पाकर मार देंगी। हमारी भलाई केवल अपनी मदद और अपनी स्वयं की रक्षा करने में ही नहीं है, बल्कि दुनिया भर की मुसीबतों से मिलकर लडऩे में भी है। हमारी ज़िन्दगी का मोल और महत्त्व भी तभी है, जब हम एकजुट होकर आगे बढ़ें। एक-दूसरे की मदद करें। एक-दूसरे के काम आएँ। इसीलिए कहा भी गया है कि दुनिया में इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं। इतिहास गवाह है कि जहाँ-जहाँ और जब-जब लोग स्वार्थ, घृणा और लोभ में आकर एक-दूसरे के बैरी हुए हैं; एक-दूसरे से नफरत करने पर आमादा हुए हैं; तब-तब मानव जाति का विनाश हुआ है या समूल नाश हुआ है।

मानव जाति अगर आज सुरक्षित रह सकी है या पूरी दुनिया पर शासन कर सकी है, तो उसके पीछे की वजह एक साथ मिलकर मोहब्बत से रहना ही है। इतिहास के पन्ने पलटने पर पता चलता है कि जब मानव जंगलों में भटकता था, तब भी उसने जंगली जानवरों से बचने और भोजन की व्यवस्था के लिए समूह में रहना शुरू किया था। बाद में वह बस्तियों में रहने रहा और इस तरह आज मनुष्य विजयी है। मगर एक हारा हुए विजेता की तरह। क्योंकि अब मनुष्य आपस में लडक़र मरने पर आमादा है। मेरा एक शे’र है-

‘ज़मीं बाँटी, खुदा बाँटा, ज़ुबाँ-मज़हब सभी बाँटे

मगर इंसान खुद ही बँट गया ये ही हकीकत है’

बांद्रा में जुटे मजदूरों पर लाठीचार्ज, घर भेजे जाने की कर रहे थे मांग

ऐसे वक्त में जब पूरा महाराष्ट्र कोरोना को लेकर बुरी तरह प्रभावित है आज मुंबई उपनगर के बांद्रा स्टेशन के बाहर जामा मस्जिद के पास अचानक हजारों की संख्या में लोग इकट्ठे हो गए जिसके चलते पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा।

ऐसा ही नजारा मुंबई ठाणे से सटे मुंब्रा में भी दिखाई दिया। इस बात की खबर फैलते ही मुंबई और आसपास के इलाकों में तनाव फैल गया है, कई इलाकों में कई घंटों से जाम लगा है।

रहने और खाने की दिक्कत के चलते घर लौटना चाहते हैं प्रवासी मजदूर

दरअसल, मजदूरों को आज लॉकडाउन ख़त्म होने की उम्मीद थी। जिसके चलते वह मुंबई उपनगर के बांद्रा स्टेशन पर इक्कठा हो गए थे। कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए लागू देशव्यापी लॉकडाउन को तीन मई तक बढ़ाने की पीएम नरेंद्र मोदी द्वारा घोषणा करने के कुछ ही घंटे बाद बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर यहां मंगलवार को सड़क पर आ गए थे और मांग कर रहे थे कि उन्हें उनके गांव जाने के लिए परिवहन की व्यवस्था की जाए। ये सभी प्रवासी मजदूर दिहाड़ी हैं।

कोरोना वायरस प्रसार को रोकने के लिए पिछले महीने लॉकडाउन लागू होने के बाद से दिहाड़ी मजदूर बेरोजगार हो गए हैं। इससे उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। हालाँकि अधिकारियों और एनजीओ ने उनके खाने पीने की व्यवस्था की है, लेकिन उनमें से अधिकतर मजदूर पाबंदियों के चलते पैदा हो रही दिक्कतों की वजह से अपने ‘देस’ वापस जाना चाहते हैं। इनमें ज्यादातर उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासी मजदूर शामिल हैं । इतनी बड़ी भीड़ एक साथ जमा होने के बाद भीड़ को हटाने के लिए पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा। हालांकि कुछ लोगों का दावा है कि लोकल लीडरान और पुलिस हस्तक्षेप के बाद वे वहां से चले गए।

पुलिस और सरकार सवाल के घेरे में!

बांद्रा को हॉटस्पॉट घोषित किया जा चुका है। ऐसे में इतनी बड़ी संख्या में यहां पर लोगों का जुटना चिंताजनक तो है ही साथ साथ भीड़ का जुटना महाराष्ट्र सरकार और पुलिस की प्रशासनिक कार्यक्षमता पर भी सवाल खड़ा करता है। सवाल यह भी है कि आखिर इतनी बड़ी संख्या में लोगों के जुटने की जानकारी जुटाने में पुलिस नाकामयाब क्यों हो गई?

सवाल तो यह भी है कि आखिर लोगों के सामने ऐसी क्या मजबूरी हुई कि वो इतनी बड़ी संख्या में एक जगह इकट्ठा हो गए? क्या सरकार और प्रशासन इनके लिए भोजन का प्रबंध करने में नाकामयाब रही है? सबसे ज्यादा प्रभावित मुंबई में इतनी बड़ी लापरवाही कैसे हुई?

आदित्य ठाकरे ने पल्ला झाड़ा! पीएम मोदी पर साधा निशाना।

इस मामले में महाराष्ट्र सरकार में मंत्री आदित्य ठाकरे ने ट्वीट कर कहा, ‘जिस दिन से ट्रेनों को बंद किया गया है, उसी दिन से राज्य ने ट्रेनों को 24 घंटे और चलाने का अनुरोध किया था ताकि प्रवासी मजदूर घर वापस जा सकें। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे जी ने भी इस मुद्दे को पीएम मोदी के साथ हुए वीडियो कॉन्फ्रेंस में उठाया था और साथ ही साथ प्रवासी मजदूरों के लिए एक रोडमैप बनाने का अनुरोध किया था।’

महाराष्ट्र सरकार में सहयोगी के तौर पर जुड़ी एनसीपी के सीनियर लीडर नवाब मलिक ने कहा कि महाराष्ट्र सरकार अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह पूरी तरह से कर रही है। वह इन लोगों के खाने-पीने का पूरी तरह बंदोबस्त कर रही है। यह अलग बात है कि यह लोग झूठे मैसेज और अफवाहों के चलते गलतफहमी का शिकार बन गए। मुंबई में 20 से 40 लाख मजदूर हैं जिन्हें जाने की इजाजत नहीं दी गई है ।वे यही रहेंगे सरकार उनका ध्यान रख रही है।

विपक्ष ने घेरा महाराष्ट्र सरकार को

वहीं पर विपक्ष ने आज महाराष्ट्र सरकार को घेरने की कोई कसर नहीं छोड़ी। बीजेपी नेता किरीट सोमैया और पूर्व एजुकेशन मिनिस्टर विनोद तावड़े ने इसे सरकार की बड़ी नाकामयाबी बताया।

किरीट सोमैया कहते हैं यदि सरकार उन्हें समय पर राशन व रहने की व्यवस्था करें इस तरह से नहीं करेंगे। सबसे बड़ा सवाल पुलिस की नाकामयाबी का है जब इतने लोग स्टेशन के बाहर जमा हो रहे थे तो वहां की लोकल पुलिस क्या कर रही थी?

एक पूर्व एमएलए जीशान सिद्दीकी बताते हैं कि ये लोग जिन घरों में रहते हैं वो इतने छोटे हैं कि उसमें रहना मुश्किल है। एक छोटे से कमरे में 8 से 10 लोग रह रहे हैं। वह किस तरह की सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करेंगे ?उन्हें यह लगता है यहां रहने से बेहतर है अपने गांव में चले जाए ।कम से कम उन्हें इतनी जगह तो मिलेगी और अपने परिवार के साथ तो रहेंगे। हालात यह है कि 1 दिन के भोजन के बाद उन्हें दूसरे दिन के भोजन के लिए तरसना पड़ता है।न नौकरी है न ही पैसे का कोई दूसरा जरिया। इसलिए वह चाहते हैं कि उन्हें पैदल जाना पड़े अपने गांव चले जाएंगे।

आईसीएमआर की स्टडी में बड़ा खुलासा हुआ, चमगादड़ के सैंपल में कोरोना मिला

भारत में चमगादड़ों के सैंपल में कोरोना पाया गया है। सात राज्यों में इसे लेकर आईसीएमआर ने परीक्षण किया था जिससे यह बड़ा खुलासा हुआ है।

आईसीएमआर ने इसे लेकर जो अध्ययन किया था उसमें यह बात सामने आई है। पहले भी यह आशंका जताई जाती रही है कि मानव में कोरोना का विषाणु चमगादड़ से आया है। चीन में इसे लेकर यह कहा गया था जहाँ जानवरों का व्यापार बड़े पैमाने पर होता है। इसे बाद आईसीएमआर ने इसे लेकर अध्ययन किया।

यह अध्ययन आईसीएमआर ने भारत के सात राज्यों में किया। उनके सैंपल लिए गए और उनका अध्ययन किया गया। अब आईसीएमआर के वैज्ञानिकों ने कहा है कि चमगादड़ के इस सैंपल में कोरोना के वायरस (विषाणु) मिले हैं।

आज जबकि कोरोना ने दुनिया भर में तबाही मचा राखी है, इसे बहुत बड़ी खोज कहा जाएगा। वो भी तक जब चीन पर यह आरोप लग रहे हैं कि कोरोना परिवार का कोविड-१९ वायरस उसके वारफेयर कार्यक्रम का हिस्सा है। ऐसे में आईसीएमआर का खुलासा दुनिया के वैज्ञानिकों के लिए बहुत अहम है।