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कोरोना वायरस : कितने तैयार हैं हम

ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) के डॉक्टरों ने अप्रैल के पहले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखी, जिसमें उन्होंने पीपीई, मास्क और कोरोना से निबटने के अन्य संसाधनों की कमी का ज़िक्र किया। देश की 130 करोड़ की आबादी है और कोरोना के इस शोर के बीच यह भी एक चौंकाने वाला तथ्य है कि भारत के अस्पतालों में एक लाख व्यक्तियों के लिए सिर्फ 3.69 वेंटिलेटर उपलब्ध हैं। सबसे चौंकाने वाला सच यह है कि यह रिपोर्ट फाइल किये जाने तक भारत में कोरोना की जाँच के लिए महज़ 10 फीसदी संदिग्धों के ही टेस्ट हो पाये हैं। भारत में चिन्ता की बात यह है कि यहाँ सक्रमितों की बड़ी संख्या अब सामने आने लगी है।

इन सब तथ्यों के बीच बहुत-से विशेषज्ञ इस चिन्ता में हैं कि आने वाले 20-25 दिन में भारत में कोरोना के पॉजिटिव मामलों की संख्या बढ़ सकती है। स्टेज तीन की स्थिति से बचने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने 21 दिन के लॉकडाउन का जो फैसला किया, उसका आपसी दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग) के स्तर तक तो नतीजा अच्छा रहा, लेकिन देश में 10 अप्रैल तक टेस्ट/स्क्रीनिंग का औसत बहुत कम था, जो संकेत करता है कि जैसे-जैसे टेस्ट सुविधाएँ उपलब्ध होंगी और टेस्ट की संख्या बढ़ेगी, कोरोना पॉजिटिव के ज़्यादा मामले सामने आते दिखेंगे।

वेंटिलेटर भले बहुत आपात स्थिति (आईसीयू) में ही ज़रूरत में आते हैं, लेकिन दुनिया ने देखा कि अमेरिका जैसे विकसित दश में भी जब कोरोना के मामले अचानक आसमान छूने लगे, उसकी स्वास्थ्य सुविधा चरमराती दिखी। उसके पास वेंटिलेटर की संख्या भले भारत के मुकाबले कहीं बेहतर (एक लाख व्यक्ति के लिए औसतन 48 वेंटिलेटर) स्थिति में थी, लेकिन यह भी पर्याप्त नहीं थी। ऐसे में कल्पना की जा सकती है कि भारत को कितने सुधार की ज़रूरत है।

यह साफ है कि कोरोना के खिलाफ लड़ाई अभी और लम्बी चलनी है। एकदम स्थितियाँ बेहतर हो जाएँगी, इसकी सम्भावना ज़्यादा नहीं दिखती। ऐसे में सरकार कोरोना के हॉट स्पॉट क्षेत्रों में लॉकडाउन को आगे बढ़ायेगी ही। ऐसा क्षेत्र विस्तृत हो सकता है।

जानकार कह रहे हैं कि भारत में कम-से-कम अप्रैल अन्त या मई मध्य या और आगे तक बहुत सावधानी बरतने की ज़रूरत रहेगी और लॉकडाउन अभी लम्बे समय तक चल सकता है। कुछ देशों में कोरोना का दबाव घटने के बाद उसका दूसरा अटैक देखने को मिला है। भारत में तो अभी हज़ारों-हज़ार लोगों का टेस्ट ही नहीं हुआ है और यह भी मालूम नहीं है कि इनमें से संक्रमित लोगों ने और कितने लोगों को संक्रमित कर दिया है। इनमें से बहुत से कोरोना से माइल्ड प्रभावित हो सकते हैं और दो हफ्ते में खुद ही स्वस्थ हो सकते हैं, लेकिन जिनका वायरल लोड ज़्यादा है, उन्हें बेहतर स्वास्थ्य सुविधा की ज़रूरत रहेगी। भारत में एक अनुमान के मुताबिक अंतर्राष्ट्रीय फ्लाइट्स बन्द होने (15 मार्च) से पहले हज़ारों की संख्या में एनआरआई, विदेशी और अन्य जन भारत आये हैं। इनमें से ज़्यादातर का कोरोना टेस्ट हुआ ही नहीं है।

आशंका है कि इनमें से जो कोरोना से पीडि़त थे, उन्होंने बड़ी संख्या में अन्य को भी संक्रमित किया है। भारत में घरेलू उड़ानें भी 24 मार्च को जाकर बन्द हुई थीं और इस दौरान बड़ी संख्या में लोग देश के दूसरे हिस्सों में गये। उस समय तक एयरपोट्र्स पर स्क्रीनिंग बुखार चेक करने तक ही सीमित थी। विशेषज्ञों का कहना है कि विदेश से आने वालों में बहुत में भारत पहुँच जाने के कुछ दिन बाद कोरोना के लक्षण दिखे।

इस पर सर गंगा राम अस्पताल में फेफड़ों के सर्जन अरविंद कुमार कहते हैं कि भारत कोरोना वायरस संक्रमण प्रसार के तीसरे चरण में है, जिसमें संक्रमण समुदाय के स्तर पर फैलता है। अरविंद कहते हैं- ‘अब हम तीसरे चरण में हैं, जो बहुत बड़ा है। सिर्फ सैकड़ों-हज़ारों लोगों का संक्रमित होना ही समुदाय के स्तर पर संक्रमण नहीं है। कई ऐसे लोगों के संक्रमित होने के मामले भी आये हैं, जिन्होंने न तो देश-विदेश यात्रा की, न किसी संक्रमित व्यक्ति के सम्पर्क में आये हैं। लिहाज़ा बहुत सावधानी की बहुत ज़रूरत है।’

भारत के कमोवेश सभी विशेषज्ञों का मानना है कि भारत पर से खतरा अभी नहीं टला है। उनके मुताबिक मामले की सम्पूर्णता की जानकारी के लिए बड़े पैमाने पर जाँच करने की ज़रूरत है। सेंटर फॉर डिजीज डायनेमिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी (सीडीडीईपी) के निदेशक और फेलो रमणन लक्ष्मीनारायण कहते हैं कि यदि हम चाहते हैं कि सही तस्वीर दिखे, तो हमें तेज़ी से जाँच का दायरा बढ़ाना होगा।

यहाँ यह गौर करने लायक बात है कि भारत में संक्रमितों की संख्या घट नहीं रही, बल्कि मामले बढ़ रहे हैं। इसका सबसे कारण यह है कि देश में अब संदिधों के टेस्ट में तेज़ी लायी जा रही है। टेस्ट किट भी बेहतर उपलब्ध होनी शुरू हुई हैं, जो कुछ घंटे में ही रिपोर्ट दे देती हैं। जैसे-जैसे इन तत्काल नतीजे वाली किट की उपलब्धता बढ़ेगी, कोरोना पीडि़तों की संख्या में भी इज़ाफा होगा।

यह देखा गया है कि मार्च के आिखर के बाद कोरोना से देश में मौतों में बहुत इज़ाफा हुआ है। यदि तुलना की जाये, तो दुनिया के कुछ ज़्यादा कोरोना प्रभावित देशों में संक्रमित लोगों की संख्या और हुई मौतों के औसत में भारत में औसत ज़्यादा है। ऐसे में खतरे को समझने की ज़रूरत है।

दक्षिण कोरिया से हमें सबक लेना होगा। वहाँ मामले सामने आते ही लोगों को आइसोलेट करने का काम शुरू हो गया। बहुत काम लोगों को पता होगा कि वहाँ शुरू में ही हर रोज़ करीब 15,000 लोगों के टेस्ट किये जाने लगे। एक महीने से काम समय में ही यह संख्या साढ़े चार लाख के पार पहुँच गयी। इसका लाभ यह हुआ कि बड़ी संख्या में लोगों को मरने से बचा लिया गया। इसके विपरीत अमेरिका और ब्रिटेन में ऐसा नहीं हुआ, जहाँ मरने वालों की संख्या हम सबके सामने है।

भारत को लेकर भी यही चिन्ता जतायी जा रही है। ज़्यादातर विशेषज्ञ यह मान रहे हैं कि भारत में दूध, सब्ज़ी और फलों का जो वितरण रेहडिय़ों आदि में भारत के कई सूबों में होता है, उससे भी लापरवाही होने पर संक्रमण फैलने का खतरा है। लिहाज़ा विशेषज्ञ लगातार लोगों को सलाह दे रहे हैं कि दूध के पैकेट, सब्ज़ियों और फलों के साथ-साथ हाथों को अच्छी तरह धोना बहुत ज़रूरी है और यह सामान खरीदते हुए हाथों में ग्लब्स पहनना और चेहरे पर मास्क लगाकर रखना भी आवश्यक है। साथ ही खरीदारी के दौरान एक-दूसरे से डिस्टेंस बनाकर रखना भी ज़रूरी है। हाथ साबुन से धोना ही बेहतर बताया गया है।

सर्जन अरविंद कुमार कहते हैं कि हम दूसरे देशों में मरने वालों की भारत के साथ तुलना तो नहीं कर सकते, लेकिन यह सच है कि भारत में मामले और मरने वालों की संख्या बढ़ रही है। उनके मुताबिक, अभी हमारे यहाँ संख्या बढ़ रही है, वह भी लॉकडाउन के दौरान। हमें बहुत ज़्यादा सतर्क रहने की ज़रूरत है। बहुत से जानकार भारत में लॉकडाउन को खत्म करने के पक्ष में कतई नहीं हैं। उनका कहना है कि इससे पिछले एक महीने में जो हासिल किया है, वह बर्बाद हो सकता है। उनके मुताबिक, घरों में रहना कोरोना के फैलने से बचने और इससे संक्रमित होने से बचने का सबसे बेहतर उपाय है। जानकार कह रहे हैं कि भारत में लॉकडाउन में भी भारतीयों ने कुछ स्तर तक लापरबाही बरती है। लेकिन लॉकडाउन के नतीजे अच्छे रहे हैं। ज़्यादा अनुपात में लोग घरों में रहे हैं।

इसका एक दूसरा फायदा यह भी है कि चूँकि देश में अभी अस्पतालों की संख्या कोरोना के मरीजों का बड़ा बोझ सहने की स्थिति में नहीं है, घर पर रहकर लोग बड़ा योगदान दे सकते हैं। इनमें से बहुत ऐसे होंगे जो कोरोना से हलके (माइल्ड) प्रभावित होंगे और खुद ही स्वस्थ हो जाएँगे। हाँ, ज़्यादा आशंका होने पर लोगों को तुरन्त सम्बन्धित नम्बरों पर जानकारी देने की सलाह दी जा रही है। अब ज़्यादातर विशेषज्ञ कोरोना जाँच में तेज़ी लाने पर ज़ोर दे रहे हैं। उनका कहना है कि ऐसा नहीं होने पर भीतर ही भीतर कोरोना संक्रमितों की बड़ी संख्या बन जाएगी, जो बाद में एक विस्फोट के रूप में भारत में सामने आने का खतरा पैदा हो जाएगा। डॉक्टर डांग लैब के संस्थापक निदेशक डॉक्टर नवीन डांग का इस मसले पर कहना है कि अगर जाँच में तेज़ी नहीं लायी गयी, तो लॉकडाउन का पूरा उद्देश्य ही बर्बाद हो जाएगा।

विशेषज्ञ कह रहे हैं कि यदि भारत में अब लॉकडाउन या अन्य प्रतिबन्धों को हटाया जाता है, तो यह भयंकर भूल हो सकती है। इसका कारण यह है कि मामले अभी बढ़ रहे हैं, ऐसे में अगर लॉकडाउन हटता है तो संक्रमित लोगों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि होने का खतरा पैदा हो जाएगा।

हिमाचल के कांगड़ा के पालमपुर सिविल अस्पताल में ब्लॉक मेडिकल ऑफिसर (बीएमओ) डॉ. केएल कपूर कहते हैं कि कोविड-19 महामारी के मामले में हमने देश में संक्रमितों की संख्या को लॉकडाउन के दूसरे हिस्से में बढ़ते देखा है। इसका भले कोई कारण हो, इस समय लॉकडाउन को तोडऩा नुकसानदेह हो सकता है। यह तभी हटना चाहिए, जब संक्रमित लोगों की संख्या में कमी आनी शुरू हो जाए; जो कि अभी फिलहाल नहीं है। उनके मुताबिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लॉकडाउन की घोषणा से संक्रमण फैलने से रोकने में बहुत मदद मिली है; और यदि इसे हटाया जाता है, तो इससे जो हासिल हुआ है, वो हम खो देंगे। गौरतलब है कि हिमाचल में कोरोना से मौत का पहला मामला कांगड़ा ज़िले में ही आया था।

भारत में वेंटिलेटर की संख्या की स्थिति निश्चित ही बेहद चिन्ताजनक है। सरकार भी इससे वािकफ दिखती है। लिहाज़ा वो वेंटिलेटर की अपनी क्षमता बढ़ाने की कोशिश कर रही है। रेलवे के स्वामित्व वाली इंटीग्रल कोच फैक्ट्री (आईसीएफ) ने मशीनों को रिवर्स इंजीनियर करने का प्रयास किया है और निजी क्षेत्र के कार निर्माता भी अनुभव न होने के बावजूद वेंटिलेटर बनाने में जुट गये हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार ने समुदाय स्तर तक कोरोना के फैलने की तैयारि‍याँ शुरू कर दी हैं। भारत में महिंद्रा, मारुति, रिलायंस जैसी कम्पनियाँ वेंटिलेटर का उत्पादन शुरू कर चुकी हैं, ताकि आपात स्थिति में कमी को किसी हद तक पूरा किया जा सके। जानकारों के मुताबिक, कार कम्पनियों के पास उत्पादन के लिए ज़रूरी कई संसाधन पर्याप्त मात्रा में हैं। इन कार कम्पनियों ने उन कम्पनियों से समझौता किया है, जो पहले से वेंटिलेटर का निर्माण कर रही थीं।

हालाँकि, वेंटिलेटर को लेकर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष और हृदय रोग विशेषज्ञ के.के. अग्रवाल कहते हैं कि अभी तक के भारत के रिकॉर्ड के मुताबिक, कोरोना के सिर्फ 20 फीसदी मरीज़ ही गम्भीर अवस्था में पहुँचे हैं। इनमें बुजुर्ग ज़्यादा हैं या अन्य कारणों से कमज़ोर लोग रोग इसकी चपेट में आ रहे हैं। इन 20 फीसदी में भी सिर्फ 3 से 5 फीसदी को ही वेंटीलेटर की ज़रूरत पड़ती है। हालाँकि वे कहते हैं कि अगर कोरोना का संक्रमण भारत में कम्युनिटी स्तर तक फैलता है, तो मरीज़ों की संख्या तेज़ी से बढ़ सकती है और तब ज़्यादा वेंटिलेटर की ज़रूरत पड़ेगी। लेडी हाॄडग कॉलेज और हॉस्पिटल के निदेशक एन.एन. माथुर का कहना है कि इटली और स्पेन के मुकाबले भारत में आईसीयू में भर्ती या वेंटिलेटर पर रखे गये मरीज़ों की संख्या फिलहाल तो न के बराबर है। भारत में महामारी अभी सामुदायिक संक्रमण स्तर पर नहीं है और देश में तमाम तरह के वायरस का लम्बा इतिहास होने के कारण सम्भवत: हमारा शरीर इससे लडऩे में ज़्यादा मज़बूत है। उन्होंने कहा कि स्वास्थ्यकर्मियों के लिए निजी सुरक्षा उपकरण अभी की तादाद के हिसाब से तो पर्याप्त हैं, लेकिन आँकड़ों में तेज़ी से इज़ाफा होगा तो संकट पैदा हो सकता है।

चीन की पीपीई किट

खतरे के बढ़ते दायरे के बीच भारत भी तैयारी कर रहा है। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक भारत के पास कोरोना वायरस के संक्रमण के इलाज में स्वास्थ्यकर्मियों के इस्तेमाल में आने वाले निजी सुरक्षा उपकरणों (पीपीई) की संख्या 387473 हो गयी थी। इससे टेस्ट का दायर बढ़ेगा और संक्रमित लोगों के सामने आने और उनके इलाज सम्भावना बढ़ गयी है। अप्रैल के पहले हफ्ते भारत को चीन से 1.7 लाख पीपीई किट मिलीं। स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि देश में भी निर्मित 20 हज़ार पीपीई की आपूर्ति के बाद इन्हें राज्यों को भेजने का काम शुरू हो चुका है। देश में 10 अप्रैल तक इन पीपीई की उपलब्धता 387473 थी। मंत्रालय के मुताबिक, देश में ही बने दो लाख एन95 मास्क भी अस्पतालों को मुहैया कराये गये हैं और उपलब्धता के बाद इनकी संख्या बढ़ायी जा रही है। अन्य स्रोतों से मिले इस श्रेणी के 20 लाख मास्क पहले ही अस्पतालों को भेजे जा चुके हैं।

वेंटिलेटर की उपलब्धता

भारत निश्चित ही वेंटिलेटर की उपलब्धता के मामले में बहुत पीछे है। एक लाख आबादी पर अमेरिका में 48 जनों, जर्मनी में 34, इटली में 12.5, फ्रांस में 12, स्पेन में 9, ब्रिटेन में 7 जबकि भारत में महज 3.69 वेंटिलेटर उपलब्ध हैं। संख्या की बात करें तो भारत में मार्च की आिखर तक 48 हज़ार, जर्मनी में 25 हज़ार, अमेरिका में 1.60 लाख, ब्रिटेन में सिर्फ 9 हज़ार, फ्रांस में 5 हज़ार वेंटिलेटर उपलब्ध थे। इस समय यूरोप और अमेरिका में 9.60 लाख वेंटिलेटर की माँग है। भारत में फिलहाल कुछ निजी कम्पनियाँ वेंटिलेटर बनाने में जुट गयी हैं। सामान्य वेंटिलेटर की कीमत भारत  डेढ़ लाख रुपये बैठती है।

चिन्ता की बात

भारत में सबसे बड़ी चिन्ता डॉक्टरों का बड़े पैमाने पर कोरोना से संक्रमित होना है। यह रिपोर्ट फाइल किये जाने के समय तक देश भर में करीब 90 डॉक्टर कोरोना से संक्रमित हो चुके हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो कैंसर अस्पतालों में काम कर रहे हैं।  इनके अलावा नर्सिंग और पैरा मेडिकल के भी संक्रमण की चपेट में आने के काफी मामले सामने आये हैं। लिहाज़ा यह ज़रूरी हो गया है चिकित्सा जगत के इन हीरो को उचित उपकरण और रक्षा कवच उपलब्ध करवाये जाएं।

शव का अंतिम संस्कार

भारत में कोरोना से पीडि़त की मौत के बाद दाह संस्कार के मामले में भी बहुत खराब स्थितियाँ देखने को मिली हैं। कई गाँवों से यह खबरें आयी हैं कि वहाँ ग्रामीणों ने कोरोना मरीज़ का दाह संस्कार वहाँ के समशान घाट पर करने देने की इजाज़त नहीं दी। इसमें कोइ दो राय नहीं कि कोरोना संक्रमित की मौत के बाद उसके दाह संस्कार में बहुत ज़्यादा सावधानी बरतने की ज़रूरत होती है। अस्पताल में भी जब डॉक्टर कोरोना संक्रमित की जाँच करते हैं तो उनके पास पूरे संसाधन होते हैं। ऐसे में सुझाव है कि बहुत सावधानी से अंतिम संस्कार किया जाये। बहुत लोग वहाँ न जुटें। और जो शव दाह के लिए गये हैं वे हाथ, मुँह आदि को कवर रखें। हाँ, स्थानीय लोगों को इसमें सहयोग करना चाहिए, विरोध नहीं, क्योंकि शव का अंतिम संस्कार तो किया ही जाना है।

प्रमादी संवत्सर का प्रमाद और कोरोना का कहर

25 मार्च से नव संवत्सर 2077 शुरू हो गया है। ज्योतिष के अनुसार यह प्रमादी संवत्सर है। प्रमाद का मतलब होता है- संकट, विपत्ति, उन्माद, नशा… आदि-आदि। प्रमाद के ये सभी अर्थ आज के समय की समीक्षा करने पर बिल्कुल सच साबित होते दिखाई देते हैं। प्रमाद तो हर किसी में होता है, अगर वह संन्यासी न हो तो। यह प्रमाद स्वाभाविक है। और जहाँ प्रमाद होता है, वहाँ नशा यानी घमंड भी होता है, हम सब आधुनिक होने के साथ-साथ इसी घमण्ड के चलते प्रकृति से खिलवाड़ करने लगे हैं और उसी का नतीजा है- संकट-विपत्ति, जो आज नोवल कोरोना वायरस कोविद-19 के रूप में कहर बनकर मानव जाति पर टूट पड़ी है। वैसे उन्माद हो या प्रमाद, मानवता और मानव-दोनों के लिए हानिकारक हैं। लेकिन अगर इंसान चैतन्य हो जाए, तो शायद इससे बच सकता है; जैसे आजकल हम कोरोना वायरस से लडऩे के लिए चैतन्य अवस्था में आ गये हैं और घरों में कैद हो गये हैं। चेतनता से ज्ञान के चक्षु खुलते हैं और प्रज्ञा की रश्मियाँ बलवती होने लगती हैं। जीवन में हर व्यक्ति को, यहाँ तक कि बुरे से बुरे व्यक्ति को कम-से-कम एक बार प्रकृति यह मौका ज़रूर देती है। लेकिन कभी-कभी यह ज्ञान बुढ़ापे में मिलता है। लेकिन कहा गया है कि जीवन की साँझ होने से एक सेकेंड पहले तक भी अगर यह चेतना जाग गयी, तो प्रायश्चित हो सकता है। यह समय भी हमारे प्रायश्चित का ही है। ज़रूरी नहीं कि हमने कोई बड़ा पाप किया हो, जिसकी सज़ा हमें प्रकृति देने पर आमादा है, लेकिन यह तो तय है कि जाने-अनजाने हमने कई ऐसी भूलें तो ज़रूर की हैं, जिसके चलते हमें आज हमें एक महामारी का सामना करना पड़ रहा है। यहाँ हमारे कुछ ग्रन्थ, कुछ भविष्यवक्ता याद आते हैं, जो हमें बहुत पहले से प्रकृति से छेड़छाड़ के नतीजों से आगाह कर चुके हैं। लेकिन अब यह संयम और धैर्यपूर्वक निष्ठा से चलने का समय है। ज़रूरी है कि हम सब  प्रकृति के संकेतों और वैज्ञानिकों, डॉक्टरों, शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों और संन्यासियों की राय को धारण करते हुए आगे बढ़ेें। मनमानी न करें।

अभी तो ईसवी सन् 2020 यानी विक्रमी संवत् 2077 की शुरुआत भर है। इससे आगे का समय और भी संकट वाला हो सकता है। इसके संकेत हमें मिल चुके हैं। यद्यपि इसके संकेत और सन्दर्भ काल-वेत्ताओं, भविष्य-वक्ताओं, ज्योतिषाचार्यों, पहले के संतों और भारतीय पञ्चाङगविदों ने बहुते पहले ही कर दिये थे। पर हम नहीं जागे।

आज जब कोरोना नाम की महामारी चरम पर है और इसे लेकर आशंकाओं, सूचनाओं और अफवाहों का बाज़ार गर्म है, तब हमें नारद संहिता की ओर देखने की ज़रूरत है। नारद संहिता में एक श्लोक इस प्रकार है- ‘भूपावहो महारोगो मध्यस्याद्र्धवृष्टय / दु:खिनो जन्त्वसर्वेऽसंवत्सरे परिधाविनी।’ अर्थात्- परिधावी नामक संवत्सर में राजाओं में युद्ध होगा, महामारी फैलेगी, बेमौसम असामान्य वर्षा होगी और सभी जीव-जन्तु दु:खी होंगे। आज इस श्लोक की ये चारों भविष्यवाणियाँ सत्य ही तो साबित हो रही हैं। पिछले समय में परिधावी संवत्सर रहा है, जिसमें कई देशों में युद्ध के हालात रहे हैं। अब प्रमादी संवत्सर शुरू होने से पहले से ही बेमौसम विकट बारिश होनी शुरू हो गयी, जो कहीं-कहीं अभी तक भी हो रही है। कोरोना वायरस नाम की महामारी फैल गयी, जिसका कोई तोड़ नज़र नहीं आ रहा और सभी जीव दु:खी हैं। खासतौर पर इंसान भुखमरी, बेरोज़गारी, आर्थिक संकट और महामारी की चपेट में हैं। इस महामारी और बुरे समय के सम्बन्ध में पुराकाल की पुस्तकों में भी उल्लेख मिलता है। इन किताबों में से कई में कहा गया है कि एक महामारी का प्रकोप सवंत्सर 2076 के अन्त में सूर्यग्रहण से होगा।

बृहद्संहिता में उल्लेख मिलता है- ‘शनिश्चर भूमिप्तो, स्कृद रोगे प्रपीडिते जन:’ अर्थात्- जिस संवत्सर के अधिपति शनि महाराज होते हैं, उस वर्ष में महामारियों के प्रकोप से लोग पीडि़त रहते हैं और मरते हैं। आज नोवल कोरोना वायरस के प्रकोप से यही तो हो रहा है। ऐसी ही भविष्यवाणी बृहद् संहिता में भी की गयी है। गीता में भी मनुष्य के विनाश के कई संकेत दिये गये हैं।

अब बात करते हैं नास्त्रेदमस की। नास्त्रेदमस ने अपनी पुस्तक में एक जगह पर लिखा है- एक समय ऐसा आयेगा, जब रास्तों में सूअर की तरह के मुँह वाले लोग दिखाई देंगे। उन्होंने यह भी कहा है कि सन् 2020 में तीसरा विश्वयुद्ध होगा। कई जगह कुछ भविष्यवक्ताओं ने जैविक हथियारों वाले युद्ध के संकेत दिये हैं। अगर आपने महाभारत पढ़ी या देखी हो, तो आपने उसके युद्ध की तबाही तो ज़रूर समझी होगी। बताया जाता है कि महाभारत का युद्ध दुनिया का सबसे बड़ा और भीषण नरसंहार वाला युद्ध था। जानते हैं क्यों? क्योंकि वह जैविक हथियारों वाला युद्ध था। आग्नेस्त्र, ब्रह्मास्त्र, नागपाश और न जाने कैसे-कैसे तबाही मचा देने वाले अस्त्रों का ज़िक्र आया है, जिनके प्रकटीकरण मात्र से लोग मौत के मुँह में समाने लगते थे। इसके अलावा दिखाई देने वाले शस्त्र भी उन दिनों महामारक और संघारक हुआ करते थे। आज के शस्त्रों में तलवार, खंज़र, बन्दूक, रायफल, तोप, टैंक, मिसाइल और बम हैं। जबकि अस्त्र- परमाणु हथियार और जैविक हथियार हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि कोरोना वायरस भी एक जैविक हथियार ही है, जिसे चीन ने ईज़ाद किया है। जो भी यह आज बीमारी के रूप में फैलकर सभी को डराने और चपेट में लेकर मौत के मुँह में पहुँचाने के लिए पर्याप्त है।

खैर, अब बात करते हैं भविष्यवक्ता सिल्विया ब्रॉउन की। सिल्विया ब्रॉउन ने बहुत पहले ही दावा किया था कि वे आत्माओं से बात कर सकती हैं। जब उन्होंने यह कहा था, तब उनका मखौल उड़ाया गया था। लेकिन, आज सिल्विया ब्रॉउन की इस महामारी के बारे में की गयी भविष्यवाणी सच साबित हुई। उन्होंने अपने उपन्यास ‘द आइज़ ऑफ डार्कनेस’ में एक महामारी के बारे में जो भी कहा था, आज साबित हो गया कि वह कोविड-19 के बारे में ही कहा था। 1981 में प्रकाशित उनका यह उपन्यास एक महामारी की ओर संकेत करता है। जिसमें बताये गये लक्षण और समय इस महामारी से मिलते हैं। यह उपन्यास उन्होंने कॉन्सिपिरेसी थ्योरी में लिखा था। दूसरे हैं, अमेरिकी लेखक डीन कून्त्ज़। डीन ने अपने एक उपन्यास में इस हत्यारे वायरस को सीधे-सीधे वुहान-400 कहा है। विचार कीजिए, उन्होंने सदियों पहले उस शहर का नाम तक बता दिया, जहाँ से कोरोना वायरस फैला।

अगर हम फिल्मों की बात करें, तो कई हॉलीवुड और कुछ बॉलीवुड फिल्मों में जैविक युद्ध के संकेत दिये गये हैं। कई ऐसी महामारियों को भी इन फिल्मों में दिखाया गया है, जो छूने मात्र से एक इंसान से दूसरे में फैलती दिखती हैं और महामारी की चपेट में आये लोगों का अन्त भी मौत के अलावा दूसरा नहीं दिखता। फिल्मों में मनुष्यों को छिपने पर मजबूर होने के दृश्य भी दिखाये गये हैं। कुल मिलाकर आज पूरी दुनिया घरों में दुबकी बैठी है। लोगों को यही भय है कि वे इस बीमारी से कैसे बचे रह सकते हैं। फिल्मों में कई महामारियों के जो लक्षण दिये गये हैं, वो भी कोरोना वायरस में मौज़ूद हैं। ऐसे में हमारा कर्तव्य है कि हम इस महामारी से खुद भी बचें, दूसरों को भी बचाएँ; ताकि मानव जाति सुरक्षित रह सके।

घर बैठे काम से बढ़े साइबर हमले के खतरे

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि कोरोना वायरस के चलते पूरे देश में लॉकडाउन की स्थिति हैं। ऐसे में कई लोग घर से अपनी-अपनी कम्पनियों का काम कर रहे हैं। मेरे पड़ोस की दीक्षा नाम की एक लडक़ी एक डाटा एंट्री कराने वाली कम्पनी में नौकरी करती है। वह आजकल घर से ही अपने मोबाइल से कम्पनी का काम करती है। शायद आपको पता हो कि जब आप मोबाइल या लैपटॉप या कम्प्यूटर पर ऐसे काम करते हैं, तो न केवल कम्पनी पर, बल्कि आपके बैंक अकाउंट, ईमेल आईडी, सोशल एक्टिविटीज और आपकी निजी ई-सम्पत्ति पर भी साइबर क्रिमिनल्स की नज़र रहती है।

मतलब यह है कि घरों में रहकर कोरोना से भले ही लोग सुरक्षित हों, लेकिन संस्थानों के सिस्टम पर साइबर हमले के खतरे बढ़ गये हैं। माना जा रहा है कि इससे कम्पनियों के डाटा पर खतरा मँडरा रहा है। क्योंकि कम्पनियों के निजी आँकड़ों को उनके कर्मचारी अपने घर से मोबाइल या लैपटॉप या कम्प्यूटर से एक्सेस कर रहे हैं। ऐसे में ज़ाहिर है कि ऑफिस में मौज़ूद रहने वाले फायरवॉल अथवा सिक्योरिटी सिस्टम घरों में न के बराबर ही होते हैं, जिसके न होने पर साइबर क्रिमिनल्स को डाटा उड़ाने में आसानी हो जाती है।

दरअसल, अगर आपका मोबाइल, लैपटॉप और कम्प्यूटर हैक हो जाता है, तो डाटा करप्ट होने की सम्भावना ज़्यादा रहती है, जिसके चलते कई बार बड़ा नुकसान भी हो जाता है। यह नुकसान कर्मचारी की मेहनत और कम्पनी की सिक्योरिटी का होता है। हालाँकि, साइबर हमले से हुए नुकसान की भरपाई के लिए एसबीआई साइबर डिफेंस बीमा भी मुहैया कराती है, लेकिन क्यों न हम साइबर हमले से बचने के उपायों का इस्तेमाल करें, ताकि इससे बचा जा सके।

जहाँ तक हो सके ऑफलाइन करें काम

साइबर हमला हमेशा ऑनलाइन काम करने पर ही होता है। ऐसे में समझदारी इसी में है कि हम जहाँ तक सम्भव हो सके ऑफलाइन काम करें। ऑफलाइन (इंटरनेट और नेटवॄकग से बिना जुड़े) काम करने से आप किसी भी साइबर क्रिमिनल की पहुँच से दूर और सुरक्षित रहते हैं। इतना ही नहीं, इससे आपके इंटरनेट की भी बचत होती है।

काम भर को रहें ऑनलाइन

साइबर क्राइम का शिकार होने से बचने का यह भी एक बहुत अच्छा और सुरक्षित तरीका होता है कि आप जब ऑनलाइन काम की ज़रूरत हो, तभी अपना इंटरनेट ऑन करें। साथ ही जितनी जल्दी सम्भव हो सके ऑनलाइन काम निपटाने का प्रयास करे, क्योंकि हमेशा इंटरनेट ऑन रखने से साइबर हमले का खतरा बढ़ जाता है। यदि आप अपने डाटा सुरक्षा का बन्दोबस्त कर चुके हैं, तब तो आप जितना चाहें ऑनलाइन रह सकते हैं। वैसे यह बात आजकल शायद सभी जानते हैं कि क्रिमिनल बहुत ही शातिर दिमाग के होते हैं और अच्छी-अच्छी सिक्योरिटी पिन तोडऩे में माहिर होते हैं। ऐसे में सतर्कता और सावधानी में ही आपकी भलाई है।

हैकिंग के दौरान सिस्टम कर दें बन्द

करीब तीन महीने पहले को मेरे एक दोस्त छत्रपाल सिंह का मोबाइल अचानक हैक होने लगा। सभी एप्स ने, यहाँ तक कि कॉलिंग सिस्टम ने काम करना बन्द कर दिया। उस समय उसका इंटरनेट ऑन था। उसने सोचा कि शायद नेटवॄकग समस्या हो; यही सोचकर वह मोबाइल को एक्टिव करने की कोशिश में लगा रहा। छत्रपाल ने बताया कि चार-पाँच मिनट में मेरे फेसबुक अकाउंट पर अपडेट का अलर्ट आया, जिसे मैंने बिना सोचे अपडेट कर दिया। उसके बाद मेरा फेसबुक अकाउंट मेरी मोबाइल स्क्रीन से गायब हो गया। व्हाट्सअप एप ने भी काम करना बन्द कर दिया और मोबाइल ने भी। जब मैंने फेसबुक एप डिलीट करके दोबारा डाउनलोड करके उस पर खुद को सर्च कर एक्टिवेट होने का प्रयास किया, तो मेरा वह फेसबुक अकाउंट नहीं मिला, बल्कि बिना नया अकाउंट बनाये एक नया अकाउंट बन गया। अब मुझे समझते देर नहीं लगी कि मेरे मोबाइल के साथ-साथ मेरी सोशल साइट्स हैक हो चुकी हैं।

छत्रपाल कहते हैं कि मैंने मोबाइल को स्विच ऑफ कर दिया। करीब 10 मिनट बाद खोला पर हैकर के चंगुल से आज़ाद न हो सका। करीब 20-22 घंटे बाद मैं अपना फेसबुक अकाउंट दोबारा एक्टिबेट कर पाया। जब मेरा फेसबुक अकाउंट एक्टिवेट हुआ, तो उसमें एक नयी प्रोफाइल एक्टिवेट थी, जिसे इससे पहले न तो मैंने कभी देखा और अपने से जोड़ा। खैर, छत्रपाल सिंह फेसबुक एडमिन को उसकी ऑनलाइन शिकायत कर दी। जैसा कि आप भी जानते हैं कि आजकल हमारे एन्ड्रायड मोबाइल फोन में हमारी कितनी कीमती जानकारियाँ, डाटा आदि रहता है। ऐसे में हैकिंग को समझने की यह देरी भी महँगी पड़ सकती है।

कहने का मतलब यह है कि छत्रपाल सिंह ने मोबाइल स्विच ऑफ करने में काफी देर कर दी, जिससे उसकी निजी जानकारी चोरी भले ही हुई हो अथवा नहीं, लेकिन साइबर क्रिमिनल तक पहुँच ज़रूर गयी होगी, जिसका भविष्य में कभी भी उसे नुकसान हो सकता है।

सिस्टम हैक होने पर बदल लें पासवर्ड

वैसे तो अपने सिस्टम, डाटा और निजी जानकारी की सुरक्षा के सभी एहतियात बरतें, लेकिन अगर कभी आपका मोबाइल या लैपटॉप या कम्प्यूटर हैक हो जाता है, तो तसल्ली से काम लें और ऊपर बताये गये नियमों का पालन करते हुए पहले सिस्टम को अपने कन्ट्रोल में लें। उसके बाद सबसे पहला काम अपने पासवर्ड बदलने का करें। यदि आप हैकिंग का शिकार हो जाते हैं, तो अपनी सभी साइट्स का पासवर्ड बदल लें। खासतौर पर अगर आप ऑनलाइन बैंकिंग इस्तेमाल करते हैं, तो उसका पासवर्ड तुरन्त बदलें।

कैसा हो पासवर्ड?

जब हम अपने किसी अकाउंट का पासवर्ड बनाते हैं, तो हम अपने या अपने किसी परिचित या अपनी पसन्द की किसी चीज़ के इर्दगिर्द रहकर पासवर्ड तैयार करते हैं। जबकि हमें इससे बचने की कोशिश करनी चाहिए। यदि हम ऐसे पासवर्ड बनाते भी हैं, तो उनके कोडवर्ड को कठिन तरीके से इस्तेमाल करें। इसके अलावा अपने पासवर्ड में ऐसे नाम शामिल करें, जिन नामों पर जल्दी किसी का ध्यान न जाता हो। जैसे किसी अजीब या लोगों के ज़ेहन से उतरी हुई चीज़ का नाम… वगैरह-वगैरह।

समय-समय पर बदलते रहें पासवर्ड

यह बात आपको पहले भी शायद किसी ने बतायी हो कि समय-समय पर अपने सभी अकाउंट्स के पासवर्ड बदलते रहें। यह ज़रूरी भी है। क्योंकि, पासवर्ड बदलते रहने से हैकिंग के खतरे कम हो जाते हैं।

पब्लिक वाई-फाई के इस्तेमाल में है जोखिम

आजकल सरकारों ने कई सार्वजनिक स्थानों पर वाई-फाई सिग्नल लगा दिये हैं। इन जगहों पर आप अपना मोबाइल कनेक्ट करके मुफ्त इंटरनेट का इस्तेमाल कर सकते हैं। ऐसी जगहों पर अधिकतर समय भीड़भाड़ रहती है। इसलिए हम ऐसी जगहों को पब्लिक वाई-फाई एरिया भी कह सकते हैं। लेकिन इन जगहों पर साइबर क्रिमिनल की खासी नज़र रहती है। ऐसे में मुफ्त इंटरनेट के चक्कर में सार्वजनिक वाई-फाई सेवा का इस्तेमाल करना आपको महँगा पड़ सकता है।

मैसेज और ईमेल के ज़रिये होते हैं हमले

आजकल हमारी ईमेल आईडी पर तरह-तरह के प्रलोभन वाली ईमेल आती हैं। इन मेल से आपको सावधान रहना चाहिए और इन मेल को रिपोर्ट स्पैम में शिकायत मोड पर डालकर डिलीट कर देना चाहिए। क्योंकि साइबर अपराधी अक्सर ई-मेल के माध्यम से आपके निजी डाटा और जानकारियों पर फिशिंग हमले करते हैं। मोबाइल पर आने वाले कई मैसेज से भी आप साइबर क्रिमिनल का शिकार हो सकते हैं। इसलिए सावधान रहें।

कीमती डाटा है, तो कराएँ बीमा

आप कितने भी चतुर क्यों न हो, कोई बड़ी बात नहीं कि कब साइबर हैकर आपको शिकार बना लें। क्योंकि हैकर्स काफी एक्सपर्ट होते हैं। आप सोचिए, जब कड़ी साइबर निगरानी में रहने वाले बैंक अकाउंट से भी कई बार अचानक पैसा उड़ जाता है, तो हम-आप कैसे बचे रह सकते हैं? हमारे पास तो सुरक्षा के उतने इंतज़ाम भी नहीं होते। इसका एक कारण यह भी है कि सुरक्षा जितनी मज़बूत की जाती है, हैकर्स उसमें सेंध लगाने के उतने ही नये-नये तरीके ईज़ाद कर लेते हैं। इसीलिए अगर आपके पास कीमती डाटा है, कीमती ई-सम्पत्ति है या अच्छा-खासा बैंक बैलेंस है, तो साइबर बीमा (इंश्योरेंस) करा लेने में ही भलाई है। ऐसा करने से आपकी आईडेंटिटी, डाटा, आईटी, निजी जानकारी की चोरी, मालवेयर अटैक, साइबर एक्सटोर्शन आदि कवर हो जाते हैं, जो हैकिंग से हुए नुकसान की भरपाई कर सकते हैं। ऐसे नुकसानों से बचने के लिए आप कानूनी खर्च, डेटा या कम्प्यूटर प्रोग्राम रि-इन्स्टॉल करवाने के खर्च पर भी बीमा करा सकते हैं।

सुरक्षा डिवाइस या सॉफ्टवेयर का करें इस्तेमाल

आजकल बाज़ार में कई तरह की सुरक्षा डिवाइस मिल जाती हैं, उन्हें लगा लें। हालाँकि, अच्छी क्वालिटी की सुरक्षा डिवाइस काफी महँगी भी आती हैं। ऐसे में आप अच्छी कम्पनी के साफ्टवेयर लगवाकर खुद को सुरक्षित कर सकते हैं। इस तरह के सॉफ्टवेयर भी आपको खरीदने पड़ते हैं। कुछ सॉफ्टवेयर मुफ्त में डाउनलोड किये जा सकते हैं, लेकिन ये सुरक्षित नहीं होते, बल्कि कई सॉफ्टवेयर डाउनलोड करना साइबर क्रिमिनल को बुलावा देने जैसा साबित हो सकता है। इसलिए आप पर्सनल डिवाइस पर एप में कीमती और संवेदनशील डाटा स्टोर करते समय आप सिक्युरिटी टूल का इस्तेमाल करें। यह सुरक्षा टूल साइबर क्राइम का पता लगाने में सक्षम होते हैं। यदि आप घर पर काम करते हैं, तो फायरवॉल और एनक्रिप्शन का उपयोग कर सकते हैं।

अर्थ-व्यवस्था को मंदी से उबारने में बैंकों की भूमिका

कोरोना वायरस की वजह से भारतीय अर्थ-व्यवस्था धीरे-धीरे महामंदी की ओर बढ़ रही है। अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी एसएंडपी ने वित्त वर्ष 2020-21 के लिए भारत के विकास अनुमान को कम करके 5.2 फीसदी कर दिया है, जो पहले 5.7 फीसदी था।

एक और प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भी कोरोना वायरस के अर्थ-व्यवस्था पर पडऩे वाले नकारात्मक असर को देखते हुए वित्त वर्ष 2020-21 के लिए भारत की आॢथक वृद्धि दर के अनुमान को घटाकर 5.3 फीसदी कर दिया है, जो पहले 6.6 फीसदी था। मूडीज ने मार्च 2020 में समाप्त हो रहे वित्त वर्ष के लिए भी विकास दर के अनुमान को 5.8 फीसदी से घटाकर 4.9 फीसदी कर दिया है। एक अन्य रेटिंग एजेंसी फिच ने भी वित्त वर्ष 2019-20 के लिए भारत के विकास दर के 4.6 फीसदी पर रहने की सम्भावना जतायी है, जबकि वित्त वर्ष 2020-21 के लिए विकास दर के 5.6 फीसदी और 2021-22 के लिए 6.5 फीसदी रहने का अनुमान लगाया है। देशी ब्रोकरेज कम्पनी यूबीएस सिक्योरिटीज ने भी देशव्यापी लॉकडाउन और महामारी की व्यापकता को देखते हुए वित्त वर्ष 2020-21 के लिए भारत के विकास दर को 5.1 फीसदी से घटाकर 4 फीसदी कर दिया है, जबकि वित्त वर्ष 2019-20 के लिये भारत के विकास दर को 4.8 फीसदी के स्तर पर रहने का अनुमान जताया है।

अर्थ-व्यवस्था पर प्रभाव

कोरोना वायरस की वजह से भारत की घरेलू माँग बुरी तरह से प्रभावित हुई है। आपूर्ति शृंखला बाधित है। सेवा, एमएसएमई और रियल एस्टेट क्षेत्र की हालात खस्ताहाल हैं। अंतर्राजीय और अंतर्राष्ट्रीय कारोबार ठप पड़ चुका है। सेवा क्षेत्र से जुड़े नाई, ब्यूटी पार्लर, पेशेवर, किराना एवं जेनरल स्टोर्स, मेडिकल स्टोर्स, रिक्शा, ऑटो रिक्शा, कैब ड्राइवर, बढ़ई, लोहार, बिजली मिस्त्री, होटल व रेस्तरां, सिक्योरिटी गाड्र्स आदि बेरोज़गार हो गये हैं। एक अनुमान के मुताबिक, लगभग 400 मिलियन लोगों को घर बैठना पड़ा है. देश की करीब 75 मिलियन सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमी (एमएसएमई) लगभग 180 मिलियन लोगों को रोज़गार उपलब्ध कराते हैं, लेकिन आज की तारीख में उनके पास काम नहीं है। भारत में रियल एस्टेट सबसे अधिक रोज़गार उपलब्ध कराने वाला क्षेत्र है, लेकिन निर्माण गतिविधियों के ठप्प पडऩे के कारण निर्माण कार्यों से जुड़े मजदूरों के लिए रोज़ी-रोटी का संकट पैदा हो गया है।

रिटेलर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक, भारत में खुदरा क्षेत्र में लगभग 60 लाख लोगों को रोज़गार मिला हुआ है, जिनमें से तकरीबन 40 फीसदी यानी 24 लाख लोगों की नौकरी आगामी महीनों में जा सकती है। देश भर के सभी मॉलस, सुपर मार्केट्स और अन्य खुदरा दुकानों को 15 अप्रैल तक के लिए बन्द कर दिया गया है। आवश्यक वस्तुओं को छोडक़र अन्य सभी प्रकार के उत्पादों का उत्पादन बन्द है। सूचना और प्रोद्योगिकी समेत दूसरे क्षेत्रों में भी बड़े पैमाने पर कामगारों की नौकरी जाने का खतरा बना हुआ है। हालाँकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कम्पनियों से अपने कर्मचारियों का वेतन नहीं काटने और उनकी छँटनी नहीं करने के लिए कहा है। लेकिन भारी नुकसान की वजह से कारोबारी शायद ही प्रधानमंत्री की बात को अमल में लायें; क्योंकि अनिश्चितता के माहौल में कामगारों को नौकरी से धीरे-धीरे निकाला जाने लगा है। रिटेलर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अनुसार, आगामी 6 महीनों में खुदरा क्षेत्र की कमाई में 90 फीसदी तक की कमी आ सकती है। भारत में 5 लाख से भी ज़्यादा स्टोरस, जैसे- वी-मार्ट, शॉपर्स स्टॉप, फ्यूचर ग्रुप, एवेन्यू सुपरमार्ट्स आदि हैं, जो कोरोना वायरस के कारण बन्द हैं। खुदरा क्षेत्र के अलावा एमएसएमई क्षेत्र, कोर्पोरेट्स, पेशवरों आदि की आय में भी भारी गिरावट आने का अंदेशा है।

राहत देने की पहल

कोरोना वायरस से निपटने के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 26 मार्च को 1.7 लाख करोड़ रुपये प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत देने की घोषणा की है। सरकार की कोशिश है कि 21 दिनों के लॉकडाउन के दौरान कोई भूख से नहीं मरे। इस योजना के तहत डॉक्टर, पारामेडिकल कर्मचारियों आदि का 50 लाख का बीमा किया जाएगा; क्योंकि यह वर्ग अपनी जान को जोखिम में डालकर दूसरों की जान बचा रहा है। लगभग 80 करोड़ गरीब लोगों को अगले तीन महीनों तक 5 किलो गेहूँ या चावल और दाल मुफ्त देने का प्रस्ताव है। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तहत 2,000 रुपये की िकस्त 8.7 करोड़ किसानों के खाते में अप्रैल के पहले पखवाड़े में अंतरित की जायेगी. मनरेगा के तहत दी जा रही मज़दूरी को 182 रुपये से बढ़ाकर 202 रुपये प्रतिदिन किया गया है, ताकि मज़दूरों को आॢथक परेशानी का कम सामना करना पड़े। बुजुर्ग, गरीब विधवा और गरीब दिव्यांग को आगामी 3 महीनों तक 1,000 रुपये दिये जाएँगे। उज्ज्वला योजना के लाभार्थियों को अगले तीन महीनों तक मुफ्त में गैस सिलेंडर देने का प्रस्ताव है। 20 करोड़ महिला जनधन खाताधारकों के खातों में अगले तीन महीनों तक हर महीने 500 रुपये जमा किये जाएँगे, ताकि वे मुश्किल वक्त का सामना कर सकें। कर्मचारी अपने भविष्य निधि खाते से 75 फीसदी या 3 महीनों के वेतन के बराबर पैसों की निकासी कर सकेंगे, जिसे उन्हें वापिस नहीं जमा करना होगा। इससे एक बड़े वर्ग को आॢथक मदद मिलेगी। महिलाओं द्वारा संचालित स्व-सहायता समूह को अब 20 लाख रुपये तक ऋण बिना संपाॢश्वक प्रतिभूति के रूप में दिया जायेगा, जिससे स्व-रोज़गार का दायरा बढ़ेगा। 15,000 रुपये तक मासिक वेतन पाने वाले कर्मचारियों या कामगारों का भविष्य निधि अंशदान अगले तीन महीनों तक सरकार देगी। निर्माण क्षेत्र से जुड़े 3.5 करोड़ पंजीकृत कामगारों को आॢथक मदद देने के लिए 31,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। इसके पहले 24 मार्च को भी सरकार ने एटीएम शुल्क एवं खातों के न्यूनतम बैलेंस को खत्म कर और आयकर व जीएसटी रिटर्न दाखिल करने की अवधि बढ़ाकर लोगों के घाव पर कुछ मरहम लगाया था।

मंदी से उबारने में बैंकों की भूमिका

कोरोना वायरस के साथ लड़ाई में बैंक अहम् भूमिका निभा रहे हैं। देशव्यापी लॉकडाउन होने के बावजूद बैंककर्मी आम लोगों की वित्तीय जरुरतों को पूरा करने के लिए बैंक जा रहे हैं। जबकि उनके संक्रमित होने का खतरा बहुत ही ज़्यादा है; क्योंकि करेंसी या पासबुक में कोरोना वायरस चिपके हुए रह सकते हैं। फिर भी कुछ राज्यों, जैसे- बिहार और उत्तर प्रदेश में पहले की तरह बैंकिंग कामकाज किये जा रहे हैं। बैंकिंग अवधि में बैंककर्मियों को कोई राहत नहीं दी गयी है। भारतीय स्टेट बैंक समेत कई बैंक शाखा के 5 किलोमीटर के दायरे में घर-घर जाकर बैंकिंग सेवा उपलब्ध करा रहे हैं। कोरोना वायरस से जंग जीतने के बाद अर्थ-व्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने की मुख्य ज़िम्मेदारी बैंकों की होगी। कोरोना वायरस के कारण भारतीय अर्थ-व्यवस्था को बहुत ज़्यादा नुकसान पहुँचा है। आॢथक गतिविधियाँ पूरी तरह से ठप पड़ चुकी है।

कारोबार तथा लोगों की मुक्त आवाजाही पर निर्भर क्षेत्र जैसे, यात्री विमानन, नौवहन, होटल, रेस्तरां आदि बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। अंतर्राष्ट्रीय आपूर्ति शृंखला पर निर्भरता के कारण वाहन व दवा उद्योग, मोबाइल, इलेक्ट्रोनिक्स व कम्प्यूटर बनाने वाली कम्पनियाँ भी प्रभावित हुई हैं। इन सभी क्षेत्रों के पुनर्वास के लिए कारोबारियों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने की ज़रूरत है। अधिकांश कामगारों और कारोबारियों का कामकाज बन्द होने या रोज़गार छीन जाने के कारण वे आॢथक रूप से कमज़ोर हो गये हैं। ऐसे लोगों के लिए फिलवक्त बैंकों से लिये गये ऋण की िकस्त एवं ब्याज देना संभव नहीं है। इसलिए, भारतीय रिजर्व बैंक ने 27 मार्च 2020 को मौद्रिक समीक्षा के दौरान सभी मियादी ऋणों पर िकस्त एवं ब्याज चुकाने को 3 महीनों के लिए टाल दिया है। अर्थात् वैसे कर्ज़दार जो ऋण की िकस्त और ब्याज देने में असमर्थ हैं, वे 3 महीनों के बाद िकस्त और ब्याज दे सकते हैं। इसमें पर्सनल लोन भी शामिल है। सनद रहे, 3 महीनों तक िकस्त और ब्याज नहीं चुकाने पर भी ऋण खाते गैर-निष्पादित आस्ति (एनपीए) नहीं होंगे। इसी तरह वॄकग कैपिटल के ऋण की ब्याज अदायगी में भी 3 महीनों की राहत दी गयी है। गौरतलब है कि इस तरह के ऋण मुख्य तौर पर कारोबारी अपने कारोबार को चलाने के लिए लेते हैं। रिजर्व बैंक द्वारा घोषित की गयी राहत का फायदा क्रेडिट कार्ड ग्राहकों को भी मिलेगा। क्रेडिट कार्ड ग्राहक भी खर्च राशि का भुगतान 3 महीनों के बाद कर सकेंगे। माना जा रहा है कि रिजर्व बैंक की इस व्यवस्था से आम आदमी, कारोबारी और बैंक तीनों को सीधे तौर पर फायदा मिलेगा। अगर रिजर्व बैंक यह व्यवस्था नहीं करता, तो बड़ी संख्या में ऋण खाते एनपीए में तब्दील हो जाते, जिससे बैंक और अर्थ-व्यवस्था दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता साथ ही साथ बैंक के कर्ज़दार चूककर्ता बन जाते और बकाया की वसूली के लिए उनके खिलाफ बैंक को कानूनी कार्रवाई करनी पड़ती। ज्ञात हो कि रिजर्व बैंक ने इन प्रावधानों को आवश्यक रूप से लागू नहीं किया है। इससे मानना या नहीं मानना बैंकों पर निर्भर करेगा। वैसे, अनेक बैंकों ने इन प्रावधानों को अमलीजामा पहना दिया है।

बैंक आमतौर पर बचत और मियादी जमा के माध्यम से पूँजी इकट्ठी करते हैं, लेकिन मौज़ूदा समय में बैंकों को और भी ज़्यादा सस्ती पूँजी की आवश्यकता है। कारोबारियों को सस्ती दर पर ऋण मिल सके के लिए केंद्रीय बैंक ने रेपो दर को 75 बेसिस पॉइंट कम किया है साथ ही साथ संवाधिक तरलता अनुपात यानी सीआरआर को भी 4 फीसदी से घटाकर 3 फीसदी कर दिया है. इससे बैंकिंग प्रणाली में 3.74 लाख करोड़ रुपये आने का अनुमान है। यह पूँजी बैंकों को सस्ती दर पर मिल रही है। इसलिए, बैंक मियादी जमा (फिक्स डिपॉजिट) के ब्याज दरों में कटौती कर सकते हैं; क्योंकि अभी मियादी जमा पर ज़्यादा ब्याज देने से बैंकों को नुकसान हो रहा है। बैंक को जमा और ऋण के बीच के स्प्रेड से मुनाफा होता है। ऋण पर मिलने वाले ब्याज से बैंकों की आय होती है, जबकि जमा पर ग्राहकों को ब्याज देने से खर्च। इस प्रकार ऋण पर जमा के मुकाबले ज़्यादा ब्याज दर होने से ही बैंक को मुनाफा हो सकता है। चूँकि बैंक ऋण के ब्याज दरों में कटौती कर रहे हैं, इसलिए नफा और नुकसान के बीच संतुलन बनाये रखने के लिए उन्हें जमा ब्याज दरों में कटौती करनी पड़ेगी। सुकन्या जमा योजना के तहत ब्याज दर का निर्धारण केंद्र सरकार करती है। अभी सरकार राजस्व की कमी से जूझ रही है, इसलिए उसे कल्याणकारी जमा योजनाओं में ज़्यादा ब्याज देना सम्भव नहीं है।

फिलहाल, बैंकों के पास सस्ती पूँजी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है, इसलिए वे आसानी से आमजन और कारोबारियों को सस्ती दर पर ऋण उपलब्ध करा सकते हैं। भारतीय स्टेट बैंक समेत कई बैंकों ने विविध ऋणों के ब्याज दरों में कटौती की है। ऋण सस्ती दर पर मिलने से क्रेडिट ग्रोथ और आॢथक गतिविधियों, दोनों में तेज़ी आने का अनुमान है। इसके अलावा कोरोना वायरस से प्रभावित कम्पनियों के नये मामलों को ऋण शोधन एवं दिवालिया संहिता के तहत राष्ट्रीय कम्पनी विधि न्यायाधिकरण में नहीं लाना होगा, ताकि स्थिति के सामान्य होने पर कम्पनियाँ अपने कारोबार को जारी रख सकें। ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को मज़बूत बनाने के लिए बैंकों द्वारा प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के तहत ज़रूरतमंद लोगों को अधिक-से-अधिक संख्या में ऋण देना होगा; क्योंकि कोरोना वायरस के कारण लाखों लोगों को अपना रोज़गार गँवाना पड़ा है। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत महिलाओं द्वारा संचालित स्व-सहायता समूह को 20 लाख रुपये का ऋण बैंकों द्वारा बड़े पैमाने पर वितरित करनी होगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आत्मनिर्भर बनकर दूसरों को भी रोज़गार मुहैया करा सकें। बैंक दूसरी योजनाओं के माध्यम से भी लोगों को वित्तीय सहायता दे सकते हैं। आॢथक गतिविधियों में तेज़ी लाने के लिए सभी के द्वारा आय अर्जित करना ज़रूरी है। जब लोगों की आय बढ़ेगी तभी माँग और खपत में तेज़ी आयेगी, जिससे उत्पादन में बढ़ोतरी होगी और अर्थतंत्र का पहिया सुचारू रूप से घूमता रहेगा।

निष्कर्र्र्ष

पहले से ही मंदी के दौर से गुज़र रही भारतीय अर्थ-व्यवस्था की कमर कोरोना वायरस ने पूरी तरह से तोड़ दी है। आर्थिक गतिविधियाँ पूरी तरह से ठप पड़ चुकी हैं। लाखों की संख्या में लोगों का रोज़गार जाने की आशंका है. असंगठित क्षेत्र पूरी तरह से तबाह हो चुका है। मज़दूरों एवं कामगारों के लिए भूखों मरने वाली स्थिति है। ऐसे में सरकार द्वारा 1.70 लाख करोड़ रुपये की मदद से कमज़ोर तबके के लोगों की राहत मिलेगी। हालाँकि अर्थ-व्यवस्था को फिर से गुलाबी बनाने के लिए सरकार द्वारा कारोबारियों को भी राहत पैकेज देना होगा। इसके आलावा बड़ी संख्या में रोज़गार सृजित करने और आर्थिक गतिविधियों में तेज़ी लाने के लिए बैंकों को सस्ती दर पर आमजन और कारोबारियों को कर्ज़ भी उपलब्ध कराना होगा।

इस तरह तो अनाज के पड़ जाएँगे लाले

कोरोना वायरस का इलाज न मिलने से दुनिया भर के साथ-साथ भारतीय अर्थ-व्यवस्था पर बुरा असर पड़ रहा है। जैसा कि सभी जानते हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहाँ की अर्थ-व्यवस्था का मुख्य साधन आज भी खेती-बाड़ी है। हमारे देश में कृषि से प्राप्त आय पर न केवल 70 प्रतिशत लोग निर्भर हैं, बल्कि कृषि उत्पादों से सरकार को भी अच्छी-खासी आय होती है। लेकिन इस बार मौसम की मार पडऩे के बाद कोरोना वायरस के डर से किये गये लॉकडाउन ने बची हुई फसलों को काटने का भी मौका किसानों को नहीं दिया। इन दिनों रबी की कई फसलें खेतों में पकी खड़ी हैं और खेतों में ही झडऩे की स्थिति में हैं। इन फसलों में गेहूँ तो प्रमुख है ही, साथ ही सरसों, चना, मसूर, अलसी, अरहर आदि हैं। इतना ही नहीं इस मौसम की सब्ज़ियाँ और फल भी खेतों में खराब हो रहे हैं।

हालाँकि 27 मार्च को लॉकडाउन के नियमों में तब्दीली करके सरकार ने दैनिक उपयोग की वस्तुओं, खासतौर पर खाद्यान्नों के रास्ते खोल दिये, लेकिन अनेक अनाज, सब्ज़ी और फल मण्डियाँ बन्द सी पड़ी हैं और फसलें खेतों में सड़-झड़ रही हैं। इससे न केवल किसानों को बड़ा नुकसान हो रहा है, बल्कि देश के सामने खाद्यान्न संकट भी खड़ा हो रहा है। अगर यही हाल रहा, तो खाद्यान्न निर्यात करना तो दूर, देशवासियों को भी अन्न, फल, सब्ज़ियों के लिए तरसना पड़ेगा।

यहाँ अगर हम रबी की फसलों, खासकर भोजन का सबसे ज़रूरी माध्यम गेहूँ की बात करें, तो यह चिन्ता का विषय बन जाता है। क्योंकि मार्च के आिखरी सप्ताह में ही गेहूँ की अधिकतर फसल कटने को तैयार हो गयी थी। अप्रैल आते-आते तो देश के हर भाग में गेहूँ की फसल कटने लगती है। लेकिन इस बार 80 फीसदी गेहूँ की फसल खेतों में ही है। कुछ छोटे-मोटे किसानों ने भले ही गेहूँ की कटाई करके फसल उठा ली हो, लेकिन 80 फीसदी गेहूँ अब भी खेतों में ही है, जिसमें अधिकतर गेहूँ कटने को खड़ा है। बड़े किसानों को यह चिन्ता खाये जा रही है कि आिखर उनकी फसल कैसे कटेगी? क्योंकि बड़े खेतों को हाथों से काट पाना आसान नहीं होता है, इसलिए बड़े खेतों से गेहूँ और धान की फसल उठाने के लिए हार्वेस्टर, थ्रेसिंग मशीनों और ट्रैक्टर आदि की मदद लेनी पड़ती है। ऐसे में न तो देश भर के दूर-दराज़ के क्षेत्रों में मशीनें गेहूँ की कटाई के लिए जा पा रही हैं और न ही उनके चालक घरों से निकल पा रहे हैं।

दरअसल अधिकतर हार्वेस्टर और थ्रेसिंग मशीनें पंजाब में हैं। इतना ही नहीं गेहूँ कटाई की इन आधुनिक मशीनों, खासकर हार्वेस्टर के अधिकतर चालक भी पंजाब में ही मिलते हैं। हालाँकि थोड़े-थोड़े पंजाबी लोग (सिख) हर राज्य में बसे हुए हैं। लेकिन उनकी संख्या इतनी कम है कि न तो उनके पास मौज़ूद संसाधन उस जगह की फसलों की कटाई के लिए के पर्याप्त हो पाते हैं और न वे खुद इतना अधिक काम कर सकते हैं, क्योंकि इन सिखों के पास अपनी ही खेती-बाड़ी बहुत होती है। ऐसे में हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र तक पंजाब से गेहूँ कटाई की मशीनें और उनके चालक जाते हैं।

इधर, लेबी (सरकारी गेहूँ खरीद के केंद्र) भी बन्द है। ऐसे में जिन छोटे किसानों ने गेहूँ उठा लिए हैं, उन्हें उसके सही दाम नहीं मिल रहे हैं। क्योंकि हर साल 1 अप्रैल से सरकारी अनाज गोदामों के ज़रिये लेबी खोल दी जाती थीं, जहाँ किसान खुद आकर सरकारी मूल्य पर अपना अनाज बेच दिया करते थे। इन दिनों सरकार गेहूँ की प्रमुखता से खरीदारी करती है। लेकिन इस बार लॉकडाउन के चलते न तो अधिकतर गेहूँ ही कट पाया है और जिन छोटे किसानों ने गेहूँ उठा लिया है, उन्हें पैसे की ज़रूरत के चलते उसे किसी भी हाल में बेचना पड़ रहा है, जिसका फायदा गाँवों से गेहूँ खरीदने वाले छोटे व्यापारी उठा रहे हैं। किसानों ने बताया कि सरकार ने गेहूँ की कीमत 1,9 25 रुपये निर्धारित की है, लेकिन सरकारी खरीदारी न होने के कारण गाँवों में छोटे खरीदारों और दलालों का आना-जाना शुरू हो गया है। ये लोग 1,600 रुपये प्रति क्विंटल की दर से किसानों से गेहूँ खरीद रहे हैं। मजबूरी में किसान इन लोगों के हाथों गेहूँ बेचने को लाचार हैं।

हाल ही में अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव विजू कृष्णन ने कहा कि गेहूँ को मंडियों में ले जाने को लेकर समस्या है। लॉकडाउन में कृषि गतिविधियों को छूट देने की बात महज़ कहने भर की है, सच तो यह है कि किसानों को काफी मुश्किल आ रही है। उन्होंने कहा कि व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए, जिसमें कोई भी फसल खेत से सीधे मण्डी में पहुँच सके।

खेतों में खड़ी गेहूँ की फसल और कटाई की स्थिति जानने के लिए तहलका के विशेष संवाददाता ने किसानों से बातचीत की।  उत्र प्रदेश के बुन्देलखण्ड के किसानों ने कहा कि पता नहीं इस महामारी से कब छुटकारा मिलेगा? एक ओर तो सरकार कह रही है कि किसानों और गरीबों को किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं होगी। अब इससे ज़्यादा परेशानी भी क्या होगी कि खेतों में फसल खड़ी है और उसे उठा तक नहीं पा रहे हैं। सरकार को सोचना चाहिए कि यह कोई एक दिन की मेहनत नहीं है, पूरे छ: महीने की मेहनत है। इसमें लगायी हुई लागत का बड़ा हिस्सा कर्ज़ का है। फसल ही नहीं बचेगी, तो कैसे गुज़ारा होगा। क्या किसानों पर कर्ज़ का बोझ और नहीं बढ़ जाएगा? छोटे किसान, जिनके पास 2-4, 10-20 बीघा खेती है, किसी तरह गेहूँ काटकर उठा भी लेंगे, लेकिन जिनके पास बड़ी खेती है, वे क्या करें? बड़े किसान ते हार्वेस्टर के सहारे ही बैठे हैं। किसानों का जीवन ही कृषि पर निर्भर है।

झाँसी ज़िले के धवाकर गाँव के निवासी चन्द्रपाल सिंह का कहना है कि सरकार ने कोरोना वायरस को लेकर जो सख्ती बरती है, उससे किसी किसान को आपत्ति नहीं है। लेकिन सरकार और पुलिस को तो किसानों की समस्या का खयाल भी रखना चाहिए, ताकि खेतों में खड़ी पकी फसल किसानों के घर तक तो आ जाती। गेहूँ काटने के लिए मशीनें खेतों में नहीं पहुँच पा रही हैं। ऐसे में बड़े किसान क्या करें? अगर दो सप्ताह और ऐसा ही रहा, तो छोटे किसानों का नुकसान तो होगा ही, हर बड़े किसान का लाखों का नुकसान हो जाएगा। उन्होंने कहा कि पहले ही बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि ने किसानों की कमर तोड़ दी है, ऊपर से यह लॉकडाउन। उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार से अपील की है कि वह किसानों की समस्या को जानने के लिए ऐसे अधिकारियों को ज़िम्मेदारी सौपे, जो किसानों की समस्याओं का समाधान हो सकें। क्योंकि जिन किसानों ने थोड़ा-बहुत गेहूँ उठा लिया है, वे बाज़ार बन्द होने के कारण मण्डी में उसे बेच नहीं पा रहे हैं और लेबी भी नहीं खुली हैं। उन्होंने बताया कि इतना ही नहीं किसानों को गेहूँ भरने के लिए वारदाना (बोरियाँ) भी नहीं मिल रहा है। उत्तर प्रदेश के महोबा ज़िले के सुदामा पुरी गाँव के चिंतामन का कहना है कि किसानों को सुनवाई किसी भी पार्टी की सरकार कभी भी नहीं हुई। ऐसा ही हाल इन दिनों है। कोरोना वायरस के चलते किये गये लॉकडाउन से किसानों को न तो मज़दूर मिल पा रहे हैं और न ही फसल कटाई के लिए आवश्यक मशीनें, जिसकी वजह से गेहूँ की फसल पूरी तरह बर्बादी की कगार पर है।  उन्होंने कहा कि कुछ बड़े किसानों को छोड़ दें, तो बाकी के अधिकतर किसान मज़दूरों से या खुद गेहूँ की फसल समय से कटवाकर, उसकी थ्रेसिंग कराकर उठा लेते थे। इस बार न तो पर्याप्त मशीनें मिल रही हैं और न ही मज़दूर। इस बार महामारी के कारण मज़दूर घर से नहीं निकल पा रहे हैं, वहीं कुछ शहरों में ही फँसे हैं। सरकार को एक ठोस नीति के तहत अन्नदाता की समस्या को समझते हुए कोई ठोस पहल करनी चाहिए, ताकि कम-से-कम गेहूँ की फसल कटकर घरों और मण्डियों तक पहुँच सके। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो किसानों के सामने विकट आॢथक संकट खड़ा हो जाएगा।

किसान जनक और बब्लू पाल कहते हैं कि सरकारी खरीदारी बन्द है। किसानों के पास तो पहले ही तंगी रहती है। वे फसल कटते ही बाज़ार में बेचने को मजबूर रहते हैं। इस बार हम जैसे कुछेक छोटे किसानों ने गेहूँ जैसे-तैसे उठा लिया, लेकिन अब लेबी न खुलने की वजह से छोटे  खरीदारी गाँवों में आकर सस्ते दाम में गेहूँ खरीद रहे हैं। जबकि गेहूँ की खरीदारी जब सरकार करती है, तब ये लोग भी थोड़े-बहुत कम दाम करके अनाज खरीदते हैं। लेबी बन्द होने का ये लोग फायदा उठा रहे हैं और किसान हमेशा की तरह लुट रहे हैं।

किसान नेता रामबाबू का कहना है कि सरकार ने अगर इसी तरह खरीदारी में और किसानों को फसल की कटाई करने के लिए छूट देने में देरी की, तो फसल खेत में ही खड़ी-पड़ी रह जाएगी। उस पर अगर बारिश हो गयी, तो किसानों की सारी की मेहनत पर पानी फिर जाएगा। महिला किसान रामवती और सुन्दरी ने बताया कि बुन्देलखण्ड में चैत्र महीना आते ही फसल की कटाई होने लगती है। लेकिन इस बार ऐसी विपदा आ पड़ी है कि कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करें? उन्होंने बताया कि खेती के साथ वह सब्ज़ियाँ भी उगाती हैं, जिन्हें पास के शहरों में ले जाकर बेचती हैं। इस बार न तो वाहन चल रहे हैं और न लोगों को बाहर जाने दिया जा रहा, जिसके चलते वह सब्ज़ी गाँव में ही  औने-पौने दामों में बेच रही हैं।

मज़दूर गयादीन कांछी ने बताया कि उनका पूरा परिवार दिल्ली में मज़दूरी करने यही सोचकर गया था कि मार्च के आिखरी सप्ताह तक अपनी फसल काटने के लिए वह परिवार सहित घर चला जायेगा और फसल काट-बेचकर फिर दिल्ली चला आयेगा। लेकिन अचानक हुए लॉकडाउन वह परिवार को लेकर घर नहीं पहुँच पा रहा है। ऐसे में उसकी पकी फसल खेतों में ही झड़ रही है। गयादीन कांछी ने सरकार से माँग की है कि वह कोरोना वायरस की जाँच करवाकर उसे और उसके परिजनों को दिल्ली से उनके गाँव जाने दे, अन्यथा उसका बड़ा नुकसान हो जाएगा, जिसकी भरपाई साल-दो साल तक नहीं हो सकेगी। गयादीन ने कहा कि अगर ऐसा हुआ, तो वह और उसका परिवार आॢथक तंगी से जूझने लगेगा।

कृषि मंत्री दे चुके हैं राहत का आश्वासन

इधर, केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर किसानों को राहत देने का आश्वासन दे चुके हैं। उन्होंने हाल ही में कहा था कि केंद्र सरकार ने लॉकडाउन के दौरान किसानों को मंडी जाकर अपनी फसल उत्पाद बेचने की मौज़ूदा व्यवस्था में राहत देने का फैसला किया है। फेसबुक पर जारी एक वीडियो के ज़रिये कृषि मंत्री ने कहा कि केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों से आग्रह किया है कि वे ऐसी पहल करें, जिससे अगले तीन महीने किसान अपनी फसल उत्पाद बेचने के लिए मण्डियों तक लाने की जगह अपने-अपने गोदामों से सीधे बेच सकें। उन्होंने यह भी कहा कि किसानों को फसल बेचने में किसी भी तरह की परेशानी नहीं होनी चाहिए। उन्होंने किसानों से भी कहा कि इसके लिए वे इनाम प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। उन्होंने किसानों को आश्वासन दिया कि सरकार की इस पहल से किसानों को अपनी फसल बेचने में कोई परेशानी नहीं होगी।

इतना ही नहीं केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने राष्ट्रीय कृषि बाज़ार (ई-नाम) प्लेटफॉर्म को बढ़ावा देने के लिए तीन नयी सुविधाएँ भी लॉन्च कीं। इस दौरान कृषि मंत्री ने कहा कि कि कोरोना वायरस के संक्रमण के इस दौर में इसकी आवश्यकता है। इससे किसानों को अपनी उपज को बेचने के लिए खुद थोक मण्डियों मजबूर होकर आना नहीं पड़ेगा। वे अपनी कृषि उपज को वेयरहाउस में रखकर वहीं से बेच सकेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि एफपीओ अपने संग्रह से उत्पाद को लाये बिना व्यापार कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि ई-नाम प्लेटफॉर्म को बढ़ावा देने के लिए लॉजिस्टिक मॉड्यूल के नये संस्करण को भी जारी किया गया है, जिससे देश भर के पौने चार लाख ट्रक जुड़ सकेंगे।

कृषि मंत्री तोमर द्वारा लॉन्च किये गये तीन सॉफ्टवेयर मॉड्यूल हैं- (1) ई-नाम में गोदामों से व्यापार की सुविधा के लिए वेयरहाउस आधारित ट्रेडिंग मॉड्यूल, (2) एफपीओ का ट्रेडिंग मॉड्यूल, जहाँ एफपीओ अपने संग्रह से उत्पाद को लाये बिना व्यापार कर सकते हैं और (3) इस जंक्शन पर अंतर्मण्डी तथा अंतर्राज्यीय व्यापार की सुविधा के साथ लॉजिस्टिक मॉड्यूल का नया संस्करण, जिससे पौने चार लाख ट्रक जुड़े रहेंगे। कृषि मंत्री ने कहा कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के मार्गदर्शन में 14 अप्रैल, 2016 को ई-नाम पोर्टल शुरू किया गया था, जिसे अपडेट करके काफी सुविधाजनक बनाया गया है। उन्होंने कहा कि ई-नाम पोर्टल पर 16 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों में पहले से ही मौज़ूद 585 मंडियों को एकीकृत किया गया है। जल्द ही 415 मंडियों को भी ई-नाम से जोड़ा जाएगा, जिससे ई-नाम पोर्टल पर कुल 1000 मंडियाँ हो जाएँगी।

फसलों को कब तक उठाना है ज़रूरी

मौसम के हिसाब से तो अधिकतर रबी की फसलें अब तक खेतों से कटकर घरों या गोदामों तक पहुँच जानी चाहिए थीं। लेकिन इस बार लॉकडाउन के चलते काफी देरी हो रही है। ऐसे में सभी पकी फसलों, खासकर गेहूँ, चना, मसूर, सरसों, अरहर को जल्द-से-जल्द काटकर उठाने में ही फायदा है, अन्यथा किसानों के हाथ कुछ भी नहीं लगेगा। क्योंकि रबी की अधिकतर फसलें पकने के बाद स्वत: ही खेतों में झडऩे लगती हैं। तापमान और फसलों की कटाई के मौसम के हिसाब से देखें, तो अगर 20-21 अप्रैल तक गेहूँ की फसल काटकर नहीं उठायी गयी, तो उपज का बड़ा हिस्सा किसानों के हाथ में नहीं आयेगा, क्योंकि इस समय तक फसल खेत में ही झडऩे लगेगी। बल्कि सरसों, मसूर और अरहर अगर खेतों में खड़ी है, तो वह झडऩे भी लगी होगी। ऐसे में अगर ये फसलें 20-21 अप्रैल के बाद भी खेतों में खड़ी रहती हैं, तो किसानों को नुकसान होने के साथ-साथ लोगों को खाद्यान्न की भी किल्लत भी उठानी पड़ेगी।

किसान इन बातों का रखें ध्यान

कोरोना वायरस के संक्रमण के फैलने के खतरों के मद्देनज़र सरकार ने किसानों अपील की है कि वे कोरोना वायरस से बचाव के सभी तरीके अपनाकर ही फसलों की कटाई करें और इन्हीं सुरक्षा नियमों का पालन करते हुए उन्हें बेचें, ताकि इस महामारी का फैलने से रोका जा सके।

हम बताना चाहते हैं कि फसल काटने से पहले और फसल काटने के बाद या बीच में खाना खाने से पहले सभी किसान और मज़दूर अपने हाथों को अच्छी तरह धो लें। फसल काटने के औज़ार एक-दूसरे से साझा न करें और कटाई करते समय दूरी बनाये रखें। चेहरे को मास्क या कपड़े से ढँककर रखें। कृषि संयंत्रों एवं उपकरणों की नियमित सफाई करते रहें। इसके साथ ही जब फसल बेच रहे हों, तब उचित दूरी और सफाई का विशेष ध्यान रखें।

किसानों पर दोहरी मार

कोरोना वायरस का प्रकोप भारत के किसानों के लिए दोहरी मार लेकर आया है। कृषि क्षेत्र में बेमौसम बारिश ने गहरी मार की, जिसमें गेहूँ की फसल चौपट हो गयी थी और अब कोरोना जैसी  छूत की बीमारी फैलने का मतलब है- ऐसे मौके पर खेत मज़दूरों का नहीं मिलना, जब फसल कटाई के लिए तैयार होती है।

विडम्बना यह है कि यह ऐसे समय में हुआ है जब देश इस बार बंपर फसल की उम्मीद कर रहा था। अब रिकॉर्ड फसल की सारी उम्मीदें धराशायी हो गयी हैं और किसान चिन्तित हैं। बेमौसम बारिश और  कोरोना वायरस के अलावा, कफ्र्यू, लॉकडाउन और फसल बीमा योजना को लेकर हाल ही किये गये निर्णयों से कृषि क्षेत्र के लिए बड़ा संकट पैदा हो गया है।

जो दाँव पर लगा है, वह है- खाद्यान्न उत्पादन यानी देश का अन्न भण्डार; जो अन्न की कमी को पूरा करता है और किसानों आजीविका। वह भी ऐसे समय में जब सभी राज्यों में कृषि क्षेत्र के लिए कर्ज़ माफी की तमाम झूठी घोषणाओं के बावजूद आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं। साल 2019-20 के लिए दूसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार, देश में कुल खाद्यान्न उत्पादन रिकॉर्ड 291.95 मिलियन टन है, जो 2018-19 के दौरान प्राप्त 285.21 मिलियन टन के खाद्यान्न के उत्पादन की तुलना में 6.74 मिलियन टन अधिक है। हालाँकि, 2019-20 के दौरान खाद्यान्न का औसत उत्पादन पिछले पाँच वर्षों  (2013-14 से 2017-18) की तुलना में 26.20 मिलियन टन अधिक है। कृषि, सहकारिता और किसान कल्याण विभाग ने 2019-20 के लिए प्रमुख फसलों के उत्पादन का दूसरा अग्रिम अनुमान जारी किया है। जून से सितंबर, 2019 के मानसून के मौसम के दौरान देश में संचयी वर्षा, लम्बी अवधि औसत (एलपीए) की तुलना में 10 फीसदी अधिक रही है। इस तरह कृषि वर्ष 2019-20 के लिए अधिकांश फसलों के उत्पादन का जो अनुमान लगाया गया है, वह उनके सामान्य उत्पाद से अधिक है।

जब बेमौसम बारिश, ओलावृष्टि और आँधी आने से किसान बहुत चिन्ता में थे, तब 19 फरवरी, 2020 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) और पुनर्वितरित मौसम आधारित फसल बीमा योजना (आरडब्ल्यूबीसीआईएस) को ताकत देने को मंज़ूरी दी; ताकि फसल बीमा योजनाओं के कार्यान्वयन में मौज़ूदा चुनौतियों का समाधान किया जा सके। इसमें पीएमएफबीवाई और आरडब्ल्यूबीसीआईएस की चल रही योजनाओं के कुछ मापदंडों और प्रावधानों को संशोधित करने का प्रस्ताव था। संशोधित योजना का मतलब यह था कि राज्यों / संघ राज्य क्षेत्रों को एनएवाई के वित्त और ज़िला स्तर के मूल्य के स्तर के चयन का विकल्प दिया जाए।

एक अन्य प्रावधान यह था कि पीएमएफबीवाई / आरडब्ल्यूबीसीआईएस के तहत केंद्रीय सब्सिडी को गैर-सिंचित क्षेत्रों / फसलों के लिए 30 फीसदी तक और सिंचित क्षेत्रों / फसलों के लिए 25 फीसदी तक सीमित किया जाए। 50 फीसदी या अधिक सिंचित क्षेत्र वाले ज़िलों को सिंचित क्षेत्र / ज़िला (दोनों पीएमएफबीवाई / आईडब्ल्यूबीसीआईएस ) माना जाएगा। नयी योजना का उद्देश्य राज्यों / केंद्र शासित प्रदेशों के लिए बुवाई, स्थानीय आपदा, मध्य-मौसम की प्रतिकूलता और फसल के बाद के नुकसान में कोइ एक या कई अतिरिक्त जोखिम कवर / सुविधाओं का चयन करने के विकल्प के साथ योजना को लागू करने में सरलता प्रदान करना था।

इसके अलावा राज्य/ यूटी आधार कवर के बिना या दोनों के बिना पीएमएफबीवाई / आईडब्ल्यूबीसीआईएस के तहत विशिष्ट एकल जोखिम / बीमा कवर, जैसे- ओलावृष्टि आदि की पेशकश कर सकते हैं।

राज्यों को निर्धारित समय सीमा से परे सम्बन्धित बीमा कम्पनियों को अपेक्षित प्रीमियम सब्सिडी जारी करने में राज्यों के काफी विलम्ब के मामले में बाद के सत्रों में योजना को लागू करने की अनुमति नहीं है। खरीफ और रबी मौसम के लिए इस प्रावधान को लागू करने के लिए कटऑफ की तारीखों (दोनों पीएमएफबीवाई / आरडब्ल्यूबीसीआईएस) में क्रमश: 31 मार्च और 30 सितंबर होंगी। राज्यों के बीमा कम्पनियों को लागू करने के लिए कटऑफ तारीख से परे उपज डेटा का प्रावधान नहीं होने की स्थिति में, उपज के आधार पर निपटारे का दावा प्रौद्योगिकी समाधान (अकेले पीएमएफबीवाई) के उपयोग के माध्यम से किया गया। योजना के तहत नामांकन सभी किसानों (दोनों पीएमएफबीवाई और आरडब्ल्यूबीसीआईएस) के लिए स्वैच्छिक किया जाना है।

इधर, कांग्रेस ने कहा कि सरकार प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को योजनाबद्ध तरीके से नकारा बनाकर पूरी तरह बन्द करने का प्रयास कर रही है। एलायंस फॉर सस्टेनेबल एंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर (आशा) ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कृषि और किसान कल्याण मंत्री एनएस तोमर, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, गृह मंत्री अमित शाह और नीति आयोग के सदस्य डॉ. रमेश चंद को लिखा है कि पीडि़त किसानों की मदद के लिए आगे आयें। ‘आशा’ स्वयंसेवकों के संचालित संगठनों और व्यक्तियों का एक बड़ा अनौपचारिक नेटवर्क है। इसका उद्देश्य किसानों और उनकी आजीविका की मदद करने के साथ-साथ निर्बाध खाद्य आपूर्ति शृंखलाओं को सुनिश्चित करना है।

भेजे गये नोट में सम्बन्धित अधिकारियों से आर्थिक सहायता पैकेज के साथ कृषि क्षेत्र की सँभाल करने का आग्रह किया गया है। नोट में कहा गया है कि यहाँ तक कि कुछ उपज खुद भी बर्बाद हो सकती हैं और अधिकांश श्रमिकों को इस अतिसाधारण समय के दौरान पर्याप्त काम नहीं मिल सकता है। हालाँकि, सुचारू खाद्य आपूर्ति शृंखलाओं को जारी रखने के लिए, सभी उत्पादों को कटाई के संचालन से लेकर लॉकडाउन अवधि के दौरान उपभोक्ताओं के खरीद के खुदरा बिन्दु तक समय पर यथासम्भव संरक्षित किया जाना चाहिए। सरकार को सडऩे और न सडऩे वाली चीजों लिए अलग-अलग उपाय अपनाने चाहिए। नीचे दी गयी कुछ माँगें ज़मीनी स्तर पर बेहतर प्रवर्तन से सम्बन्धित हैं, जिन्हें लॉकडाउन अवधि के दौरान प्रतिबन्धों के लिए एमएचए दिशा-निर्देशों में पहले ही बताया गया है।

किसानों का उत्पीडऩ नहीं

पहली और महत्त्वपूर्ण माँग है- यह सुनिश्चित करें कि मोर्चे पर तैनात पुलिस (शहर/शहर की सीमाओं, राज्य की सीमाओं और शहरों आदि में) किसी भी किसान/उत्पादकों के खिलाफ हिंसा या उत्पीडऩ का सहारा न ले, जो अपनी उपज-विशेष रूप से फल, सब्जियाँ, दूध, मछली, अंडे आदि को गोदामों/कोल्ड स्टोरेज इकाइयों आदि के लिए ले जा रहे हैं।

इसमें बाद में स्ट्रीट वेंडर शामिल होते हैं, जो शहरी क्षेत्रों के आसपास जाकर समान बेचते हैं। शहरी स्थानों के साथ-साथ ट्रक/ऑटो चालकों के आसपास नियमित अंतराल में पता लगाना, जो इन किसानों को परिवहन सेवाएँ प्रदान करते हैं। पुलिसकर्मियों की ओर से इस तरह के उत्पीडऩ और नासमझी, अति-उत्साही हिंसा के बारे में भारत के विभिन्न हिस्सों से कई खबरें आ रही हैं।

इसके लिए गृह मंत्रालय को सभी राज्यों में पुलिस विभागों के लिए एक विशेष सलाहकार भेजने की आवश्यकता है, जहाँ फ्रंटलाइन कर्मियों को यह समझाने और सराहना करने के लिए तैयार किया गया है कि यह एक आवश्यक सेवा है, जो सभी लॉकडाउन नागरिकों के अस्तित्व और भलाई के लिए जारी है। यह स्पष्ट हो रहा है कि 23 मार्च, 2020 के सरकार के दिशा-निर्देशों में लॉकडाउन प्रतिबन्धों से कुछ वस्तुओं और सेवाओं को छोडक़र ज़मीन पर प्रवर्तनकर्मियों की तरफ से समझा नहीं गया है।

किसानों के लिए आईडी कार्ड

किसानों, ट्रांसपोर्टरों, विक्रेताओं आदि को आवश्यकता होने पर इस अवधि के लिए विशेष आईडी कार्ड या पास और अनुमति जारी की जा सकती है। मसलन, पंचायतें किसानों को ऐसे पास जारी कर सकती हैं। यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है और एक या दो दिन में किया जाना चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए कि आवश्यक खाद्य आपूर्ति बाधित नहीं है; यह महत्त्वपूर्ण है कि मंडियाँ या विनियमित बाज़ार यार्ड चलाये जाएँ।  अलग-अलग गाँवों के लिए अलग-अलग समय अवधि (टाइम स्लॉट) की घोषणा के लिए मानदण्ड निर्धारित किये जा सकते हैं या टोकन सिस्टम ठीक समय अवधि के लिए व्यवस्थित और ऐसे किसानों को आवंटित किये जा सकते हैं; जो उचित आईसोलेशन सुनिश्चित करते हुए मंडी में अपनी उपज बेचने के लिए तैयार हैं।

अतिरिक्त सुरक्षा और स्वच्छता के उपाय भी किये जा सकते हैं। हालाँकि मंडियों को बन्द करने के तीन सप्ताह का नतीजा किसानों के लिए अत्यधिक कष्टकारी होगा और मंडियों को खुला रखना ही उनके हित में होगा। ऐसे व्यापारी, जो मार्केट यार्ड में मौज़ूद होने के कारण वायरस के खतरे से बचना चाहते हैं; उनके पास ई-एनएएम का उपयोग करने का विकल्प है। अगर ज़रूरत हो, तो एफपीओ को एक महीने के लिए कमीशन एजेंट के रूप में कार्य करने की अनुमति दी जा सकती है।

मोबाइल खरीद

लॉकडाउन के इस समय में यह महत्त्वपूर्ण है कि किसानों को बाज़ार मिलना जारी रहे। सरकार भोजन की आपूर्ति शृंखला को सुचारू करना सुनिश्चित कर रही है। इसके लिए, नियमित पीडीएस वस्तुओं के साथ-साथ अन्य खाद्य पदार्थों सहित विभिन्न वस्तुओं के ग्राम स्तर के विकेन्द्रीकृत फार्म गेट खरीद सरकारी एजेंसियों द्वारा किया जाना चाहिए, जहाँ अब भी ग्रामीण स्तर की खरीद (जैसा कि तेलंगाना में हो रहा है) मौज़ूद नहीं है।

कर्नाटक कृषि मूल्य आयोग की की गयी एक गणना से पता चलता है कि यह वास्तव में परिवहन / लोडिंग / अनलोडिंग के पहले चरण में किसानों के साथ खरीद के सामान्य अभ्यास से सस्ता है और दूसरे चरण में खरीद एजेंसियों ने कुछ लागतों को बढ़ाया है। इसे संचालन के एक चरण में लाया जा सकता है और किसान इन लागतों में आंशिक योगदान देने के लिए तैयार हो सकते हैं। खरीद के दिन गाँवों में जाने वाली छोटी टीमों के साथ प्रत्येक वस्तु के लिए निर्दिष्ट उचित औसत गुणवत्ता सुनिश्चित करना मुश्किल नहीं होगा। यह व्यापारियों द्वारा खरीद सुविधाओं के दुरुपयोग को भी रोकेगा यदि इसे सीधे वास्तविक खेती करने वालों के घर द्वार पर किया जाता है।

पंजाब मॉडल

उप मंडी यार्ड प्रणाली, जिसे पंजाब जैसे कई राज्य खरीद सीजन के दौरान उपयोग करते हैं, भविष्य का तरीका बन सकता है। प्रसंस्करण मिलों, गोदामों, पंचायत यौगिकों आदि को इस उद्देश्य के लिए सह-बाज़ार यार्ड के रूप में नामित किया जा सकता है। पीएसीएस को इस खरीद के लिए, महिलाओं के एसएचजी / संघों के साथ जोड़ा जा सकता है; जो उनकी व्यवहार्यता और अधिक कुशल खरीद के लिए दीर्घकालिक उपाय भी बन सकता है। इस आधार पर ऐसी खबरें आ रही हैं कि गुज़रात में कुछ मज़दूर (गन्ना काटने वाले) फँसे हुए हैं और उन्हें सुरक्षित आश्रय और भोजन सीधे देने के लिए सहायता की आवश्यकता है। यह महत्त्वपूर्ण है कि सभी श्रमिक, जो काम करने के लिए उत्सुक नहीं हैं और संक्रमण के खतरे से खुद को बचाना चाहते हैं, उन्हें तुरन्त बचाया जाना चाहिए और उन्हें आश्रय / भोजन प्रदान किया जाना चाहिए।

हालाँकि किसानों के खेत मज़दूरों को संक्रमण से बचाने के लिए पर्याप्त सुरक्षा और देखभाल के साथ अपनी उपज की कटाई करने के कई उदाहरण हैं। इस तरह के काम को लॉकडाउन के तहत नहीं लाया जाना चाहिए; क्योंकि सही समय पर कृषि फसलों की कटाई न होने से (15 अप्रैल से पहले और बाद में) देश में खाद्य आपूर्ति शृंखला बहुत बाधित हो जाएगी। अपने स्तर पर फैसले से किसान और खेतिहर मज़दूर फसल कटाई के काम में शामिल होना चाहते हैं और बशर्ते वे पंचायतों और अन्य लाइन विभागों द्वारा देखरेख के रूप में पर्याप्त सुरक्षा लेते हों, उन्हें इसकी अनुमति दी जानी चाहिए। इस संदर्भ में, राज्य में आलू की कटाई के समर्थन में पंजाब सरकार के विशेष आदेशों को देखा जा सकता है।

किसानों को मुफ्त राशन

लॉकडाउन अवधि के दौरान, यहाँ तक कि उन किसानों के लिए; जो खाद्य उत्पादन में हैं, तक राशन पहुँचाने की आवश्यकता हो सकती है। सरकार को सभी ग्रामीण परिवारों में पीडीएस आपूर्ति से अलग विभिन्न खाना पकाने के राशन से युक्त खाद्य किट के लिए मुफ्त आपूर्ति प्रदान करनी चाहिए। यहाँ केरल मॉडल का पालन करने की आवश्यकता है, जहाँ डोरस्टेप डिलीवरी भी की जा रही है। किसी भी किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) को प्रोत्साहन पैकेज देने की आवश्यकता है जो सदस्यों के साथ-साथ गैर-सदस्यों से खरीद के लिए तैयार है। कुल खरीद का कम-से-कम 50 फीसदी छोटे और सीमांत उत्पादकों से होना चाहिए।

उन एफपीओ को, जिन्होंने पूर्व में सरकार के साथ कभी भी खरीद कार्य किया है, को सीधे यह काम दिया जा सकता है और उन्हें प्रोत्साहन दिया जा सकता है। यही  एकमात्र तरीका जो कोविड-19 पूर्व में निर्बाध रूप से खाद्य आपूर्ति शृंखला चला सकता है। अगर इन उपायों में से कुछ को नहीं किया गया, तो कमी के कारण सप्लाई चेन टूट सकती है। ज़िला कलेक्टरों द्वारा जारी एक विशिष्ट आदेश भी होना चाहिए, जिसमें कृषि सहकारी समितियों और राज्य / केंद्रीय गोदामों को न्यूनतम कर्मचारियों और कुछ बुनियादी सुरक्षा मानदंडों के साथ खुला रखा जाए। इसी तरह एफपीओ को भी ऐसे मानदंडों के भीतर काम करने की अनुमति दी जानी चाहिए।

खराब होने वाले उत्पाद

जल्दी खराब होने वाले उत्पाद (सब्जियाँ, फल, दूध आदि) वाले किसानों को अपनी आपूर्ति को कार्यात्मक आपूर्ति शृंखला तक या कम-से-कम कोल्ड स्टोरेज इकाइयों और अन्य भण्डारण सुविधाओं तक पहुँचाने के लिए विशेष तरीके से प्राथमिकता देनी होगी। इसके लिए एपीएमसी को लॉकडाउन अवधि के लिए अन्य वैधानिक प्रावधानों का उपयोग करते हुए कार्य करना होगा। साथ ही कानून के बिना या जहाँ परिवर्तन आवश्यक हो; खरीदारों द्वारा कुछ राज्यों में भुगतान की दी छूट देनी होगी। इसके अलावा भले ही कुछ खराब होने वाली उपज बेकार चली जाए, सरकार द्वारा शीघ्र हस्तक्षेप के लिए निर्माताओं को एक निश्चित राशि के साथ समर्थन मूल्य देना होगा। इनमें से कुछ उपायों को लागू करते हुए पंचायतें और कृषि / बागवानी / पशुपालन विभाग ऐसे किसानों को अपने उत्पाद और आपूर्ति के साथ जारी रखने के लिए एकमुश्त समर्थन दे सकते हैं। यह शुरुआत में 10,000 रुपये प्रति कृषि परिवार हो सकता है।

सब्जी आपूर्ति शृंखला के लिए, शहरी/अर्ध शहरी क्षेत्रों में वितरण की अन्त तक व्यवस्था की जानी चाहिए। खुदरा बिक्री का बड़ा हिस्सा सरकार द्वारा नामित सब्ज़ी मण्डियों (या कुछ राज्यों में किसान बाज़ार) और साप्ताहिक हाट/सडक़ किनारे के बाजारों में होता है, जो देश भर के विभिन्न इलाकों में स्थापित हैं। इन तंत्रों के लॉकडाउन के दौरान बन्द / अपंग होने की सम्भावना है। वैकल्पिक वितरण तंत्र, अधिमानत: मोबाइल वैन संचालन के माध्यम से तैयार रखा जाना चाहिए, ताकि आपूर्ति शृंखला वितरण के अन्त में रुके न और शहरी उपभोक्ताओं की ज़रूरतों को पूरा किया जा सके। मौज़ूदा अपनी मण्डी एयर किसान बाज़ार आदि में बिक्री कुछ नये मानदंडों के साथ हो सकती है, जहाँ प्लेटफॉर्म एक दूसरे से पर्याप्त दूरी पर या 50 फीसदी प्लेटफॉर्म एक दूसरे से पर्याप्त दूरी के लिए उपयोग किये जा रहे हैं।

अधिक गोदाम, मनरेगा मज़दूरी

अधिक गोदामों और भण्डारण सुविधाओं को निगोशिएबल वेयरहाउस रसीद प्रणाली को मान्यता प्राप्त होने के रूप में अधिसूचित किया जाना चाहिए, ताकि आपात बिक्री को रोका जा सके। तब भी जब उत्पादन ठीक से संग्रहीत किया जा रहा है। ऋण देने वाली एजेंसियों के आत्मविश्वास में सुधार के लिए सरकार द्वारा इस प्रणाली का तत्काल विस्तार करने के लिए एक विशेष ऋण गारंटी निधि स्थापित की जाएगी। एमजीएनआरईजीएस (मनरेगा) मज़दूरी का भुगतान 30 दिन के लिए सभी जॉब कार्ड धारक के खातों में अगले एक महीने के लिए किया जाना चाहिए, ताकि उन्हें पहले किये गये कार्य के भुगतान के आलावा तत्काल भुगतान के लिए कार्य करने की आवश्यकता न हो।

श्रमिकों को कोविड-19 विषाणु के जोखिम से बचाने के लिए एनआरईजीएस कार्यकलापों पर काम करना बन्द कर देना चाहिए। सरकार को अपने स्वयं के निर्देशों का पालन करने के लिए भी यह करना आवश्यक है कि सभी सरकारी और निजी एजेंसियों को अपने कर्मचारियों को वेतन अवकाश दिया जाए और अस्थायी और अनुबंध श्रमिकों सहित लॉकडाउन अवधि के लिए वेतन / वेतन भुगतान किया जाए। पीएम-किसान योजना केवल भूमि-स्वामी किसानों तक सीमित है; भले ही वे वास्तविक किसान न हों। इस योजना में अधिक लाभार्थियों को जोडऩे का यह एक अच्छा समय है, जिसमें पंचायत की पहचान वाले काश्तकार और पशुपालक और भूमिहीन कृषि श्रमिक शामिल हैं। यह तुरन्त शुरू किया जा सकता है।

ऋण अदायगी

यह महत्त्वपूर्ण है कि आरबीआई ने सभी बैंकों को किसान क्रेडिट कार्ड योजना के तहत ऋण पुनर्भुगतान को फिर से तय करने का निर्देश दिया है। लेकिन ब्याज दरें पहले की तरह जारी रहेंगी और पुनर्भुगतान न होना डिफॉल्ट के रूप में माना जाएगा।

लॉकडाउन में गरीबों की मसीहा : सार्वजनिक वितरण प्रणाली

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च को 21 दिन की राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा जिसके बाद केंद्र और राज्य सरकारें यह सुनिश्चित कर रही हैं कि गरीबों को नियमित राशन की आपूर्ति मिलती रहे। तालमेल से काम करते हुए केंद्र और राज्य सरकारों ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 (एनएफएसए) के तहत आने वाले 80 करोड़ लोगों के बीच राशन का वितरण शुरू किया है।

कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए सरकार के दिशा-निर्देशों को ध्यान में रखते हुए, विभिन्न राज्यों ने गरीबों के बीच राशन वितरित करने के लिए विभिन्न तरीकों को अपनाया है। केरल सरकार ने 14250 आउटलेट्स के माध्यम से गरीबों को राशन वितरण शुरू किया। केरल के खाद्य और नागरिक मंत्रालय ने कहा कि अंत्योदय अन्न योजना और प्राथमिकता वाले घरेलू कार्ड धारकों के लिए अनाज वितरित किया जा रहा है। जिन परिवारों के पास कार्ड नहीं थे, उन्हें खाद्यान्न नहीं मिल सकता है; लेकिन यदि परिवार के किसी बड़े सदस्य ने सम्बन्धित रिटेलर को एक हलफनामा प्रस्तुत किया, तो उसे यह सुविधा लॉकडाउन में मिल सकती है।

हलफनामे में परिवार के सदस्यों का आधार नम्बर और फोन नम्बर शामिल होना चाहिए। हाँ, गलत हलफनामा दिये जाने पर खाद्यान्नों के बाज़ार मूल्य का तीन गुना ज़ुर्माना वसूलने का भी आदेश है। दुकानों के सामने भीड़ को रोकने के लिए राज्य सरकार ने राशन वितरण के लिए कार्ड नम्बर प्रणाली तैयार की थी। स्वयंसेवक बुजुर्गों और बीमारों के लिए खाद्यान्न के घरेलू उपयोग में भी मदद करेंगे, जो राशन की दुकानों तक नहीं पहुँच पा रहे हैं। साथ ही राशन के आउटलेट में एक बार में केवल पाँच लोगों को जाने की अनुमति होगी। मंत्रालय ने पुष्टि की कि राज्य के पास तीन महीने के लिए सभी वर्गों को खाद्यान्न वितरित करने के लिए पर्याप्त स्टॉक है।

राष्ट्रीय राजधानी में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली दिल्ली सरकार ने एनएफएसए  के तहत आने वाले लाभार्थियों के एक वर्ग को डोर-टू-डोर राशन वितरण सेवाएँ शुरू करने की सम्भावना है। खाद्य और आपूर्ति विभाग अपने दरवाज़े पर वरिष्ठ नागरिकों, विधवाओं, अलग-अलग दिव्यांग और समाज के कमज़ोर वर्गों को गेहूँ, चावल और चीनी जैसे सूखे राशन भेजने की योजना पर काम कर रहा है। दिल्ली सरकार 70 लाख से अधिक लाभार्थियों को मुफ्त में राशन के वास्तविक हकदार को अप्रैल महीने का 1.5 गुना वितरण कर रही है। खाद्य और आपूर्ति विभाग की वेबसाइट पर उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार, 17 लाख से अधिक परिवारों के 71, 08, 074 सदस्य खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत आते हैं। राष्ट्रीय राजधानी में 2011 उचित मूल्य की दुकानें हैं। दिल्ली सरकार ने लगभग 10 लाख गरीब लोगों से भी पूछा गया है कि जिनके पास ऑनलाइन आवेदन करने के लिए राशन कार्ड नहीं है, उन्हें अपने आधार कार्ड के माध्यम से लाभ प्राप्त करने की अनुमति देने की भी योजना बना रही है। आप सरकार इन नये लाभार्थियों के लिए विशेष केंद्र स्थापित करने की योजना भी बना रही है।

उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने पीडीएस नेटवर्क के माध्यम से राज्य में 1.94 करोड़ राशन कार्ड धारकों और अंत्योदय योजना के 35,843 लाभार्थियों को खाद्यान्न वितरित किया है। वर्तमान में राज्य में 3.33 करोड़ राशन कार्ड धारक हैं और 71 लाख के करीब अंत्योदय योजना लाभार्थी हैं। राशन कार्ड धारकों को गेहूँ दो रुपये प्रति किलोग्राम और चावल तीन रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से मिलता रहेगा। उत्तर प्रदेश सरकार ने पहली अप्रैल को मनरेगा और अंत्योदय योजना के तहत श्रम विभाग के साथ पंजीकृत लोगों को मुफ्त राशन वितरित करना शुरू किया। उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव ने सभी ज़िला अधिकारियों को यह सुनिश्चित करने के लिए कहा है कि राशन वितरण करते समय निर्धारित नियमों के अनुसार सामाजिक भेद बनाये रखा जाए।

गुजरात सरकार ने राज्य भर में 17,000 सरकार की अनुमोदित उचित मूल्य की अनाज की दुकानों के माध्यम से अंत्योदय परिवारों को मुफ्त अनाज और राशन वितरण शुरू किया है। राज्य सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना के तहत चिह्नित किये गये मज़दूरों और गरीब परिवारों को मुफ्त राशन प्रदान करेगी। राज्य में 66 लाख ऐसे परिवारों से करीब 3.25 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन दिया जाएगा।

तमिलनाडु सरकार राज्य भर में सभी चावल कार्ड धारकों को मुफ्त राशन आइटम वितरित कर रही है। राज्य सरकार 15 किलोग्राम चावल, एक किलोग्राम चीनी, तेल और दाल वितरित कर रही है। लोगों की भीड़ से बचने के लिए, एक टोकन आधारित वितरण प्रणाली का पालन किया जा रहा है। राज्य सरकार चावल परिवार कार्ड धारकों को ईपीएस की 1,000 रुपये की नकद सहायता भी उनके दरवाज़े पर वितरित कर रही है। टोकन भी उन्हें राशन लेने के लिए दिये जाते हैं।

उधर, महाराष्ट्र सरकार ने कहा कि राशन कार्ड धारकों के लिए केंद्र ने वादा किया था कि पाँच किलो मुफ्त चावल उचित मूल्य की दुकानों पर अनाज का नियमित कोटा खरीदने के बाद ही वितरित किया जाएगा। खाद्य और नागरिक आपूर्ति मंत्री छगन भुजबल ने कहा कि महाराष्ट्र सरकार ने अप्रैल, मई और जून के लिए राशन की दुकानों पर खाद्यान्न का नियमित कोटा पहले ही वितरित करने का फैसला किया था और केंद्र के पैकेज के तहत चावल के वितरण के लिए चावल का भण्डारण तीन महीने के खाद्यान्न के साथ किया था। इसके अलावा राज्य में दो लाख से अधिक राशन कार्ड धारकों ने अप्रैल से नियमित रूप से खाद्यान्न का कोटा खरीदा।

तेलंगाना राज्य में पहली अप्रैल को शुरू किये गये 87.54 लाख सफेद राशन कार्ड धारकों के बीच प्रति व्यक्ति 12 किलो चावल वितरित किये गये हैं। करीब 17000 राशन दुकानों के माध्यम से चावल वितरित किया जा रहा है। गड़बड़ी रोकने के लिए सरकारी दिशा-निर्देशों के अनुसार, राशन दुकान के डीलरों को निर्देश दिया गया है कि वे अपनी दुकानों पर कम-से-कम 3 फीट की दूरी पर माॄकग करें और ग्राहकों के लिए हैंडवाश या सैनिटाइजर भी उपलब्ध कराएँ। इसी प्रकार अधिकांश राज्य पीडीएस के माध्यम से गरीबों और दैनिक वेतन भोगियों को राशन वितरण की प्रक्रिया में हैं।

एनएफएसए के तहत आने वाले लगभग 80 करोड़ लोगों को पीडीएस के माध्यम से मासिक राशन मिलता है। पात्र गृहस्थी खाद्यान्न प्राप्त करने की हकदार हैं, जैसे- गेहूँ, चावल और मोटे अनाज। अधिनियम के तहत पात्रता के अनुसार, अंत्योदय अन्न योजना (एएवाई) परिवारों को प्रति माह प्रति परिवार 35 किलोग्राम खाद्यान्न प्राप्त करने के लिए पात्र हैं; जबकि प्राथमिकता वाले घरों (पीएचएच) के लाभार्थियों को प्रति व्यक्ति प्रति माह 5 किलोग्राम खाद्यान्न प्राप्त करने के लिए पात्र हैं। पीडीएस के तहत प्रति माह एक किलोग्राम प्रति एएवाई परिवार की सब्सिडी वाली चीनी का वितरण भी किया जा रहा है।

इन वर्षों में पीडीएस देश में खाद्य अर्थव्यवस्था के प्रबन्धन के लिए सरकार की नीति का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। पीडीएस केंद्र और राज्य सरकारों की संयुक्त जिम्मेदारी के तहत संचालित होता है। भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के माध्यम से केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को खाद्यान्न की खरीद, भण्डारण, परिवहन और थोक आवंटन की ज़िम्मेदारी दी है। राज्य के भीतर आवंटन, पात्र परिवारों की पहचान, राशन कार्ड जारी करना और उचित मूल्य की दुकानों (एफपीएस) के कामकाज की निगरानी सहित संचालन की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों के साथ होनी है। पीडीएस के तहत वर्तमान में वितरण के लिए राज्यों को गेहूँ, चावल, चीनी और केरोसिन जैसे जिंसों को आवंटित किया जा रहा है। कुछ राज्य पीडीएस आउटलेट्स जैसे दालों, खाद्य तेलों, आयोडीन युक्त नमक, मसालों आदि के माध्यम से बड़े पैमाने पर उपभोग की अतिरिक्त वस्तुओं को वितरित करते हैं। इन 80 करोड़ लाभार्थियों को राहत देने के लिए भारत सरकार ने 26 मार्च को पीएम गरीब कल्याण योजना के तहत अगले तीन महीनों के लिए प्रति व्यक्ति 5 किलोग्राम खाद्यान्न और एक किलो दाल प्रति परिवार मुफ्त में प्रदान करने का फैसला किया। इन लाभार्थियों को अगले तीन महीनों के लिए अपने मासिक कोटे के अलावा अतिरिक्त मुफ्त राशन मिलेगा, जिसका अर्थ है- लाभार्थी अगले तीन महीनों के लिए प्रति माह 12 किलो अनाज प्राप्त करने का हकदार होगा। पीएम गरीब कल्याण योजना के तहत पाँच किलो मुफ्त और रियायती दरों पर 7 किलो अनाज राशन दुकानों पर उपलब्ध होगा। एफसीआई पूरे देश में गेहूँ और चावल की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित कर रहा है। एफसीआई के अनुसार, यह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (5 किलो प्रति महीना और प्रति लाभार्थी के तहत न केवल खाद्यान्न की आवश्यकता को पूरा करने के लिए पूरी तरह से तैयार है, बल्कि अगले तीन महीने के लिए 81.33 करोड़ लोगों को पाँच किलो प्रति व्यक्ति की आपूर्ति सहित कोई भी अतिरिक्त माँग प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत तैयार है। एफसीआई ने पुष्टि की कि वह ज़्यादातर रेल से पूरे देश में गेहूँ और चावल की आपूर्ति की गति बढ़ाकर खाद्यान्न की बढ़ती माँग को पूरा करने में सक्षम है। एफसीआई ने बताया कि कुल 69 रैक को लोड किया जा रहा है, जो 1.93 लाख मीट्रिक टन (एलएमटी) खाद्यान्न भण्डार में भरा हुआ है। लॉकडाउन के दिन यानी 24 मार्च को एफसीआई ने राज्यों से 13.36 एलएमटी की अनुमानित मात्रा लेकर 477 रेक चलाये हैं।

किसानों और मज़दूरों के लिए मुसीबत बना लॉकडाउन

कोरोना वायरस के खौफ से देश भर में एक दिन का जनता कफ्र्यू रहा और उसके बाद से 21 दिन का लॉकडाउन, जिसे हम एक तरह से कफ्र्यू भी कह सकते हैं; चल रहा है। इस लॉकडाउन से भले ही हमने महामारी की तरह फैल रहे कोरोना वायरस को तेज़ी से फैलने से रोका हो, पर किसानों और मज़दूरों के लिए मुसीबत बन चुका है। हालाँँकि, इस वायरस से संक्रमित मरीज़ लगातार बढ़ रहे हैं। इधर, इस लॉकडाउन के चलते पैदल चलने वाले करीब दो दर्ज़न लोगों के साथ-साथ भूख से कई लोगों की जान जा चुकी है। वहीं पुलिस की पिटाई और पुलिस द्वारा मदद के वीडियो भी सामने आ रहे हैं। पुलिस के ये दो चेहरे हमेशा से रहे हैं; संकट के समय में भी और सामान्य दिनों में भी। जो भी हो, हालात तो ठीक नहीं हैं। देश भर में कहीं लोग कोरोना वायरस से मर रहे हैं, कहीं भूख से, तो कहीं अत्याचार से। ये तीनों ही स्थितियाँ ठीक नहीं हैं; न वर्तमान के लिए और न ही भविष्य के लिए।

निर्दोष लोगों पर अत्याचार की कहानी

वैसे तो पुलिस अत्याचार की वीडियो और फोटो पूरे देश से आ रही हैं, लेकिन अगर उत्तर प्रदेश की बात करें, तो कहीं पुलिस फरिश्तों की तरह बाहर से आने वाले लोगों की मदद कर रही है, तो कहीं-कहीं कुछ पुलिसकर्मियों का वही अत्याचारी चेहरा भी दिख रहा है। हालाँकि, कई तथ्य सरकार छिपाने की कोशिश कर रही है। लेकिन सोशल मीडिया का ज़माना है, इसमें काफी कुछ स्वत: ही उजागर हो जाता है। हाल ही में पुलिस प्रशासन और अधिकारियों का एक क्रूर चेहरा और सामने आया है, जिसमें बाहर से आये मज़दूरों पर वैक्सीन का छिडक़ाव किया जा रहा है। यह वैक्सीन कीटों को मारने वाली बतायी जाती है। जब यह बात फैलने लगी तो कुछ अधिकारियों ने खेद जताते हुए अपनी गलती पर पर्दा डाल दिया। वहीं सरकार ने इन अधिकारियों और पुलिसकर्मियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। इन दिनों हमारे सामने ऐसे कई वीडियो आ रहे हैं, जिनमें पुलिस के दो रूप दिख रहे हैं। एक तरफ फरिश्ता पुलिस है, जो लोगों की मदद करती दिख रही है; तो दूसरी तरफ ऐसे क्रूर पुलिसकर्मी हैं, जो मजबूर लोगों पर इस संकट के समय में भी अत्याचार करने से नहीं चूक रहे।

पहुँच से दूर राशन

प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ घरों में बन्द मजबूर और गरीब लोगों को कई तरह की मदद का आश्वासन दे चुके हैं। लेकिन लोगों तक सरकारी मदद ठीक से नहीं पहुँच पा रही है। राशन दुकान वाले उसी ठसक और नखरे से बिना किसी की परेशानी समझे राशन बाँटने में औने-पौने कर रहे हैं। गौटियाँ गाँव के शिवपाल ने बताया कि उनके परिवार में पाँच सदस्य हैं। पहले उन्हें साढ़े तीन किलो राशन और आधा किलो चीनी दी जाती थी। अब भी उतना ही मिला है। पहले वे मज़दूरी करके घर चला लेते थे, अब तो मज़दूरी भी नहीं मिल रही है। इतने से राशन में उनके परिवार का गुज़ारा कैसे हो सकता है? शिवपाल ने बताया कि हमारे गाँव के कुछ लोग अच्छे हैं, जो ज़रूरत पर मदद कर देते हैं, उधार भी दे देते हैं। लेकिन इस समय तो सभी मुसीबत में हैं। नगला गाँव के सेवाराम ने बताया कि वे दूध का काम करते हैं। अब पुलिस दूध बाँटने नहीं जाने देती है। खेतों में होकर चोरी छिपे थोड़ा-बहुत दूध बेच आते हैं, लेकिन उसके भी पैसे नहीं मिल पा रहे हैं। ऐसे में गुज़ारा करना मुश्किल हो गया है। सुना है योगी जी मनरेगा मज़दूरों के खातों में पैसे भेज रहे हैं। मगर हम क्या करें, हमारी तो सरकार न किसानों में गिनती करती है और न मज़दूरों में, जबकि परेशानी हमें भी बहुत हो रही है। गाँवों में दूध बेचने शहर जैसा फायदा नहीं मिलता।

बीमार लोगों की बढ़ गयी परेशानी

लॉकडाउन के चलते जो लोग बुजुर्ग हैं, बीमार हैं और जिनकी तबीयत अचानक खराब हो जा रही है, वो लोग इलाज के लिए तरस रहे हैं। ऐसे लोगों को अस्पतालों तक ले जाने में ही बहुत परेशानी हो रही है। अगर कोई कैसे भी अस्पताल तक पहुँच जा रहा है, तो कोरोना वायरस के डर से डॉक्टर उससे कन्नी काट रहे हैं। वे मरीज़ को देखने से भी कतरा रहे हैं, खासतौर से उन मरीज़ों को छूने से बच रहे हैं, जिन्हें सर्दी-खाँसी हो रही है। इस बारे में एक डॉक्टर संतोष (बदला हुआ नाम) ने कहा कि आप मीडिया वाले यह तो देखते हो कि हम मरीज़ को नहीं देख रहे, पर यह नहीं देखते कि हमारे पास कोरोना वायरस से बचाव वाली किट और मास्क तक नहीं हैं। ऐसे में अगर हम किसी कोरोना वायरस से पीडि़त के सम्पर्क में आ गये, तो हम ही नहीं हमारा बाकी का स्टाफ और हमारे परिजन भी कोरोना की चपेट में आ जाएंगे। कौन ज़िम्मेदारी लेगा इसकी? हालाँँकि डॉक्टर की बातों में सच्चाई है; लेकिन ऐसे में वे मरीज़ जो दूसरी सामान्य बीमारी की चपेट में हैं, इलाज से वंचित हो रहे हैं। ऐसे अधिकतर मरीज़ झोलाछाप डॉक्टरों के सहारे हैं। एक यह भी सच्चाई है कि दूसरे तरह के मरीज़ों के अस्पताल न पहुँचने में उत्तर प्रदेश पुलिस भी अपनी भूमिका निभा रही है। कुछ पुलिस वाले तो पहले लोगों से परेशानी पूछ भी लेते हैं, मगर कुछ तो सीधे डंडे से बात करते हैं। जब भी कोई व्यक्ति घर से निकल रहा है, कुछ पुलिस वाले बिना कारण और परेशानी जाने ही डंडा दिखा रहे हैं। यही वजह है कि कुछ लोग पुलिस के खौफ से घर से नहीं निकल रहे हैं। ऐसे में कई मरीज़, जो पहले से किसी और बीमारी से पीडि़त हैं, या तो डॉक्टर की लिखी पुरानी दवा किसी तरह मेडिकल स्टोरों से मँगाकर उसी के सहारे जी रहे हैं या फिर झोलाछाप और छोटे डॉक्टरों के सहारे हैं। इस दौरान जिन लोगों की अचानक तबीयत खराब हुई, उनमें भी अधिकतर को समय पर सही इलाज नहीं मिल सका है। कुछ मरीज़ जो अस्पतालों में भर्ती थे, उनके परिजनों को अस्पतालों से भगा दिया गया और जो तीमारदार अस्पतालों में फँसे रह गये, उन्हें दवा के पैसे जुटाने के साथ-साथ खाने तक लाले पड़े रहे हैं।

गाँवों के बाहर कैम्प

उत्तर प्रदेश सरकार ने अधिकतर गाँवों की सीमाएँ सील कर दी हैं। कहीं-कहीं कैम्प लगा दिये गये हैं, जहाँ बाहर से आने वाले गाँव के लोगों को ठहरा दिया गया है। इन कैम्पों में ठहराये गये लोगों से मिलने उनके परिजनों को भी नहीं जाने दिया जा रहा है। शुरू में तो बाहर से आने वाले लोगों को गाँवों में घुसने ही नहीं दिया जा रहा था। बाद में कैम्प का इंतज़ाम किया गया। अगर कोई जानकार या रसूखदार बाहर से आया, तो उसे पुलिस वालों ने गाँवों में जाने दिया। गाँवों में आने वाले अनेक लोगों की जाँच भी नहीं की गयी।

चोरी-छिपे काटने पड़ रहे गेहूँ

गाँवों की आजीविका अधिकतर खेतों पर निर्भर है। पहले से बेमौसम बारिश, ओलावृष्टि और तेज़ हवा से फसलें खराब हो गयीं, अब बची हुई गेहूँ की फसल पककर तैयार है, लेकिन कटे कैसे? एक तरफ मज़दूर नहीं मिल रहे, दूसरी तरफ पुलिस गाँव से बाहर पहरा दिये हुए है। अगर पुलिस से कहो कि फसल कैसे काटेंगे, तो जवाब मिलता है कि जान प्यारी है या फसल देख रहे हो? ऐसे में किसानों की हर तरह से आफत है। अगर गेहूँ की फसल समय पर नहीं उठी, तो किसान पूरी तरह बर्बाद हो जाएँगे।

फसल खेतों में ही खराब हो जाएगी और किसानों के हाथ में एक दाना भी नहीं आयेगा। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, कुछ किसान चोरी-छिपे और कुछ किसान परेशानी समझ रहे सहयोगी पुलिसकर्मियों द्वारा दी गयी छूट के चलते गेहूँ की फसल काट पा रहे हैं।

महँगी हो गयी मज़दूरी

वैसे तो अधिकतर किसानों को मज़दूर मिल ही नहीं रहे हैं। लेकिन अगर कहीं कोई मज़दूर मिल भी रहा है, तो वह मज़दूरी अधिक माँग रहा है। गौटिया गाँव के एक किसान हरिराम ने बताया कि वे घर में अकेले कमाने वाले किसान हैं। उन्होंने अपने पूरे 8 बीघा खेत में गेहूँ बोया था। पहले तो बारिश और ओले पडऩे से फसल खराब हो गयी और अब मज़दूर नहीं मिल रहे हैं। एक-दो लोग रात में काम करने को तैयार भी हुए, तो 7-7 सौ रुपये माँग रहे हैं। गेहूँ की फसल इतने की निकलेगी भी नहीं, जितनी मज़दूरी चली जाएगी। बहुत परेशान हूँ। क्या करूँ? समझ नहीं आ रहा है।

अफवाहों ने फैला रखा है खौफ

ग्रामीण क्षेत्र में कोरोना से भय का माहौल बन चुका है। अफवाहों ने इस खौफ को और भी बढ़ा दिया है। यहाँ तरह-तरह की अफवाहें फैली हुई हैं। मसलन, अगर एक जगह कई लोग इकट्ठे हो जाएँगे, तो कोरोना पकड़ लेगा और सबको तड़पा-तड़पाकर मार देगा। दूसरी अफवाह- बाहर से जो लोग आ रहे हैं, वे शहरों से कोरोना ला रहे हैं। तीसरी अफवाह- मुँह पर कपड़ा बाँधकर नहीं रखा या मास्क नहीं लगाया, तो कोरोना हो जाएगा। चौथी अफवाह- खासी-जुकाम कोरोना के लक्षण हैं। पाँचवीं अफवाह- कोरोना चीन ने छोड़ दिया है और अब हमारे घरों में घुस रहा है, दरवाज़े बन्द रखो। छठी अफवाह- एक-दूसरे को छूने से कोरोना फैल जाता है। सातवीं अफवाह गोमूत्र पीने और चेहरे पर गोबर लगाने से कोरोना नहीं होता। आठवीं अफवाह है कि कोरोना से मौतें हो रही हैं, अगर कोई मर जाए, तो उसे हाथ मत लगाओ।

इसके साथ ही सरकार द्वारा सकारात्मक प्रचार का नतीजा यह है कि काफी लोग यह भी कह रहे हैं कि साफ-सफाई से रहने और घरों में रहने से कोरोना से बचा जा सकता है। मगर फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में अफवाहें उड़ रही हैं। लोग वहम का जीवन जी रहे हैं। यह सूचनाओं और समझदारी की कमी का भी नतीजा है।

राहत सामग्री के बहाने निजी प्रचार!

कोरोना वायरस (कोविड-19) के मद्देनज़र देश भर में लॉकडाउन के दौरान तरकरीबन हर राज्य की सरकार लोगों को राहत सामग्री मुहैया करा रही है। इस बीच इन राहत सामग्री के पैकेट्स पर राजनीतिक हित साधने की कोशिशें हो रही हैं। यही कोशिश पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमङ्क्षरदर सिंह और हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर भी कर रहे हैं। एक तरफ जहाँ पंजाब में बाँटे जा रहे राहत सामग्री के बैगों पर कैप्टन अमङ्क्षरदर सिंह की तस्वीर लगी है, तो दूसरी ओर हरियाणा में बाँटे जा रहे सैनिटाइजर की बोतलों पर मनोहर लाल खट्टर की। दोनों सरकारों की इस आत्म प्रचार की मुहिम की कड़ी निंदा हो रही है।

पंजाब सरकार 15 लाख बैग लोगों को राहत देने के लिए बाँट रही है, जिसके लिए सरकारी खज़ाने से 70 करोड़ रुपये खर्च किये गये हैं। प्रत्येक बैग में 10 किलो गेहँ का आटा, दो किलो दाल और दो किलो चीनी है। यह सब सामग्री एक बैग में पैक है, जिस पर कैप्टन अमङ्क्षरदर सिंह की एक तस्वीर छपी हुई है। इस बैग पर तस्वीर के ऊपर लिखा है- ‘कोविड-19 से निपटने के लिए पंजाब सरकार का छोटा-सा प्रयास।’ इन बैगों से 15 लाख परिवारों तक पहुँचाने का लक्ष्य रखा गया है, जो कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएफ) के तहत कवर नहीं है।

लॉकडाउन के समय राहत सामग्री बाँटना निस्संदेह एक अच्छा और सराहनीय प्रयास है, लेकिन इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि यह सब राजनीतिक फायदे के लिए किया गया जा रहा है। बता दें कि इन दिनों पंजाब में कांग्रेस की सरकार है। यह वही पार्टी है, जिसने भाजपा-अकालीदल की पंजाब सरकार के शासनकाल में सरकारी एम्बुलेंस पर लगी पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल की तस्वीरों का जमकर विरोध किया था और चुनाव में बड़ा मुद्दा बनाया था।

अब मुसीबत के समय में खुद कांग्रेस सरकार में मुख्यमंत्री कैप्टन अमङ्क्षरदर सिंह राहत बैग पर अपनी तस्वीर लगाकर लोगों तक पहुँचा रहे हैं। यही कहानी पंजाब के पड़ोसी राज्य हरियाणा की भी है। यहाँ लोगों को हरियाणा सरकार द्वारा जो सैनिटाइजर की बोतलें दी जा रही हैं, उन पर मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर और उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला की तस्वीरें लगी हुई हैं। जब यह मामला भाजपा सरकार की ङ्क्षनदा का विषय बनने लगा, तो मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने ट्वीट किया कि सैनिटाइजर पर मेरी तस्वीर का मामला मेरी जानकारी में आया है। कोरोना वायरस जैसी आपदा के समय में जब समाज एकजुट होकर लड़ रहा है, तब ऐसे विषय पर चर्चा करने का कोई औचित्य नहीं है। इस प्रकार के कार्यों को मैं उचित नहीं समझता। सतर्क रहें, सुरक्षित रहें।

वहीं हरियाणा के गृहमंत्री अनिल विज ने कहा कि न तो मैंने इसे देखा है और न ही मेरे पास इस बारे में कोई जानकारी है कि इसे बनाया किसने है? मुझे इस विषय मे कोई जानकारी नही है।

इधर, राहत बैगों पर छपी कैप्टन अमङ्क्षरदर सिंह की तस्वीर पर पंजाब विधानसभा में विपक्ष के नेता और आप विधायक हरपाल सिंह चीमा ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। उन्होंने कहा है कि मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के सभी सहयोगी पिछले तीन वर्षों से सभी मोर्चों पर विफल हो रहे हैं और अब वह कोविड-19 मामले से लाभ लेने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने सरकार पर गाँवों में राहत सामग्री के वितरण में भेदभाव का भी आरोप लगाया है। चीमा का कहना है कि राज्य सरकार द्वारा बड़ी संख्या में ज़रूरतमंद परिवारों को अनदेखा किया जा रहा है। चीमा ने कहा कि जहाँ विपक्षी विधायकों को घर से बाहर जाने की अनुमति तक नहीं है, वहीं कांग्रेस के मंत्री और विधायक अपने समर्थकों को मुख्यमंत्री की तस्वीर लगी राहत सामग्री के बैग बाँटने में लगे हुए हैं। यह कोई सामाजिक सेवा नहीं है, बल्कि करदाताओं के पैसों से खरीदी गयी सामग्री के ज़रिये महामारी के समय में भी मुख्यमंत्री के द्वारा खुद का ही प्रचार है। शिरोमणि अकाली दल ने भी मुख्यमंत्री कैप्टन अमङ्क्षरदर सिंह की तस्वीर वाले बैग बाँटने को बहुत दुर्भाग्यपूर्ण कहा है।

शिरोमणि अकाली दल के नेता दलजीत सिंह चीमा ने कहा कि हमारे पास इतना समय नहीं है कि हम इस बहुमूल्य समय में लोगों तक पहुँचाने वाले सभी ज़रूरी सामान के पैकेटों पर मुख्यमंत्री की तस्वीर लगाकर उसे नष्ट करें। हमें विभिन्न वस्तुओं पर मुख्यमंत्री की तस्वीर लगाने के बहुत-से मौके मिलेंगे, लेकिन अभी के हालातों मे ऐसा करना सही नहीं है। उन्होंने कहा कि इस तत्काल ज़रूरत के समय में राहत सामग्री के बैगों और सैनिटाइजर पर मुख्यमंत्री की तस्वीर छापने का मतलब समय की बर्बादी करना है। ऐसा करने से केवल यह स्पष्ट होता है कि सरकार का इरादा लोगों कि मदद करना नहीं, बल्कि मदद के नाम पर राजनीति करना है।

खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री भारत भूषण आशु ने इस मामले पर सफाई देते हुए कहा कि कोविड-19 राहत बैग सामग्री में अन्तर करने के लिए मुख्यमंत्री की तस्वीर लगाना ज़रूरी है, क्योंकि पीडीएस के द्वारा भी राज्य में आटा-दाल  का वितरण किया जा रहा है। डीसी मुख्यमंत्री राहत कोष से जारी किये गये धन से राशन वितरित कर रहे हैं। इसलिए भी कोविड-19 राहत सामग्री पर तस्वीर ज़रूरी है, ताकि इसका उपयोग पीडीएस के तहत न हो। यदि सभी सामग्री एक ही जैसे पैकेट में बाँटे जाएँगे, तो कोई भी व्यक्ति गोलमाल कर पीडीएस के तहत इस सामग्री के बिल बढ़ा सकता है।

डिस्टिलेरी द्वारा निर्मित हैंड सेनिटाइज़र के साथ नेताओं के चित्र सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं। कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने अपने ट्वीटर पर हैंड सैनिटाइजर की तस्वीरें पोस्ट कर कहा- ‘आदरणीय खट्टर जी और दुष्यंत जी! कोरोना वायरस की वजह से बने हुए संकट के समय भी आप सस्ती राजनीति और स्व-प्रचार से परे नहीं देख सकते।’ वहीं कोविड-19 की वजह से हैंड सैनिटाइजर की बढ़ती माँग को देखते हुए खट्टर सरकार ने कुछ डिस्टिलेरीस को सैनिटाइजर का निर्माण करने को कहा है।

इधर, नवनिर्वाचित राज्यसभा सदस्य दीपेंद्र हुड्डा ने हरियाणा में भाजपा-जेजेपी सरकार पर आरोप लगाया कि कोविड-19 महामारी के चलते सोशल मीडिया पर हैंड सैनिटाइजर की बोतलों पर मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर और उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला की तस्वीरों का इस्तेमाल कर वह सत्ता का फायदा उठाने की कोशिश कर

रही है। हुड्डा ने कहा- ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल के दौरान भी राज्य के ये नेता अपने राजनीतिक उद्देश्य के लिए इसका फायदा उठाने में व्यस्त हैं। सैनिटाइजर की बोतलों पर खट्टर और चौटाला के लेबल लगाने के निर्णय से लोगों तक सैनिटाइजर पहुँचने में देरी हुई। खासतौर से तब, जब लोग सैनिटाइजर की कमी की गम्भीर समस्या से जूझ रहे थे।’ उन्होंने यह भी कहा कि मेरे पास विश्वसनीय सूचना है कि सैनिटाइज़र बनाने वालों को उसकी बोतलों पर इन तस्वीरों के स्टीकर लगाने के लिए मजबूर किया गया और उन्हें धमकी भी दी गयी कि यदि वे ऐसा नहीं करेंगे, तो उनके स्टॉक नहीं उठाये जाएँगे। वो भी खासतौर पर तब, जब इस समय प्रींटिग प्रेस भी बन्द थी। सरकार के इस दबाव कि वजह से तीन से चार दिन की देरी हुई।’

हुड्डा ने कहा कि जब से यह संकट हमारे देश मे आया, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे देश को इस महामारी के विरुद्ध एक-साथ खड़े होने को कहा है। आप कांग्रेस पार्टी और मेरी अपनी प्रतिक्रिया देख सकते हैं। हम सरकार का साथ देने, संसाधन जुटाने, लोगों में जागरूकता फैलाने में और सरकार द्वारा जारी किये गये प्रत्येक दिशा-निर्देश का अनुकरण करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन स्वास्थ्य आपातकाल के दौरान इस प्रकार का राजनीतिक प्रचार सही नहीं है। बीजेपी-जेजेपी सोचते हैं कि यह कोई स्वास्थ्य आपातकाल नहीं, बल्कि कोई राजनीतिक रैली है। वे इस स्वास्थ्य आपातकाल के बाहर राजनीतिक लाभ देख रहे हैं। हैंड सैनिटाइजर के बाद अब राजनेताओं की तस्वीरें मास्क पर चिपकायी जाएँगी? कांग्रेस के एक नेता ने ट्वीट कर एक हैंड सैनिटाइजर की तस्वीर टैग की, जिस पर खट्टर और दुष्यंत की तस्वीर थी। राज्यसभा सदस्य ने कहा कि खुद की तरक्की के लिए बीमारी का सहारा लेना राजनीति का कुरूप चेहरा है। उन्होंने सवाल उठाया कि क्या नेताओं कि तस्वीरें फेस मास्क पर भी होंगी? दीपेंद्र ने ट्वीट कर कहा- ‘यह सैनिटाइजर की बोतलों के ज़रिये लोगों को भाजपा और जेजेपी की असंवेदनशीलता वर्षों तक याद रहेगी। यह समय राजनीति करने का नहीं है, बल्कि सेवा का है।

भारत में अल्पसंख्यक कौन और हिन्दुओं को सुरक्षा की आवश्यकता क्यों?

जब गृह मंत्री अमित शाह ने ज़ोर देकर कहा कि नरेंद्र मोदी सरकार तब तक नहीं रुकेगी और जब तक देश में सभी शरणार्थियों को सीएए के तहत नागरिकता नहीं दी जाती है, तब तक विपक्षी दल इसे मज़ाक ही मान ले रहे थे। उन्होंने स्पष्ट किया कि नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के कारण एक भी व्यक्ति नागरिकता नहीं खोयेगा। पश्चिम बंगाल में एक रैली में ‘और अन्याय नहीं’ अभियान शुरू करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि विपक्ष अल्पसंख्यकों को डरा रहा है।

मैं अल्पसंख्यक समुदाय के प्रत्येक व्यक्ति को आश्वस्त करता हूँ कि सीएए केवल नागरिकता देता  है, लेता नहीं है। यह आपकी नागरिकता को प्रभावित नहीं करेगा।

इससे एक प्रासंगिक सवाल उठता है कि अल्पसंख्यक कौन है? फरवरी में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (एनसीएम) को अल्पसंख्यक शब्द को पुनर्भाषित करने की माँग करने वाले एक अभ्यावेदन पर तीन महीने के भीतर जवाब देने का निर्देश दिया। यह अभ्यावेदन 15 महीने से आयोग के समक्ष लम्बित था। यह समझना मुश्किल है कि आयोग इतने लम्बे समय से अभ्यावेदन को क्यों दबाये बैठा था? राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 की धारा-2 (सी), जिसके तहत एनसीएम का गठन किया गया था, अधिनियम के प्रयोजनों के लिए केंद्र सरकार के अधिसूचित समुदाय के रूप में अल्पसंख्यक को परिभाषित करती है।

केंद्र सरकार ने दो सूचनाओं, एक 1993 में और दूसरी 2014 में जारी हुई; के माध्यम से छ: धार्मिक समुदायों- मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी और जैन को भारत में अल्पसंख्यक के रूप में अधिसूचित किया। एनसीएम का वास्तव में यह तय करने में कोई बस ही नहीं था कि कौन अल्पसंख्यक है और कौन नहीं?

संविधान में परिभाषित नहीं अल्पसंख्यक

लगभग सत्तर साल पहले लागू हुआ भारत का संविधान देश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और उन्नति के लिए विशेष मौलिक अधिकार प्रदान करता है। हालाँकि, संविधान में अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है, फिर भी अनुच्छेद-29 और 30 से साझे रूप से अनुमान लगाया जा सकता है कि यह शब्द मुख्य रूप से धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को संदर्भित करता है।

साल 1958 में सुप्रीम कोर्ट ने केरल शिक्षा विधेयक के संदर्भ में जानना चाहा कि क्या अल्पसंख्यक समुदाय वह है, जो संख्यात्मक रूप से 50 फीसदी से कम है? इसके बाद न्यायालय ने टिप्पणी की कि भले ही उस प्रश्न का उत्तर पुष्टि के रूप में दिया गया हो, एक अन्य सवाल यह है कि किसका 50 फीसदी? भारत की सम्पूर्ण जनसंख्या का या राज्य की जनसंख्या का? जो संघ का हिस्सा है। -यह प्रश्न अनुत्तरित रह गया था। साल 1971 के डीएवी कॉलेज के मामले में यह कहा गया था कि धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों को केवल उस विशेष कानून के सम्बन्ध में निर्धारित किया जाना है, जिसे लागू करने की माँग की गयी है। दूसरे शब्दों में, यदि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम जैसे केंद्रीय कानून को चुनौती दी जाती है, तो ऐसे मामले में अल्पसंख्यक को पूरे भारत की जनसंख्या के संदर्भ में देखना होगा; किसी एक राज्य की नहीं।

टीएमए पाई मामले में शीर्ष अदालत के 2002 के फैसले ने अनुच्छेद-30 के तहत अल्पसंख्यक की परिभाषा की जाँच की और एक दिलचस्प निष्कर्ज़ पर पहुँचे कि चूँकि भारत में राज्यों का पुनर्गठन भाषाई आधार पर हुआ था, इसलिए धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को राज्यवार माना जाता है।

भारत के प्रमुख न्यायविदों में से एक, वरिष्ठ अधिवक्ता फली एस. नरीमन ने 2014 में एनसीएम का 7वाँ वार्षिक व्याख्यान देते हुए टिप्पणी की कि टीएमए पाई में फैसला अल्पसंख्यकों के लिए एक अनसुलझी मुसीबत थी।

इस सबके माध्यम से एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अधिकार से अल्पसंख्यक अधिकार बहुत व्यापक हैं। साल 2004 के संवैधानिक संशोधन बिलों में अल्पसंख्यकों के पुनर्निर्धारण का व्यापक रूप से विरोध किया गया था और इसे इसलिए खत्म (लैप्स) होने दिया गया, क्योंकि इससे अल्पसंख्यकों के अधिकारों में कई विसंगतियाँ और विकृतियाँ उत्पन्न होतीं।

बाल पाटिल मामले में 2005 का फैसला, धार्मिक अल्पसंख्यकों और भाषाई अल्पसंख्यकों को अलग तरह से मानता है। यह टीएमए पाई मामले के फैसले से सहमत था कि भाषाई अल्पसंख्यकों की पहचान भारत के एक विशेष राज्य के भीतर उनकी आबादी के आधार पर की जानी चाहिए, क्योंकि राज्यों को मूल रूप से भाषाई आधार पर पुनर्गठित किया गया था। दूसरी ओर, न्यायालय ने माना कि राज्य स्तर पर उनकी जनसंख्या के आधार पर धार्मिक अल्पसंख्यक दर्जे का आकलन  भारत की अखंडता और धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के खिलाफ होगा। नतीजतन, राष्ट्रीय स्तर पर छ: धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यक के अर्थ में आते हैं।

भारत में अल्पसंख्यक कौन है? (घटनाक्रम)

26 जनवरी, 1950 अल्पसंख्यकों के लिए विशेष मौलिक अधिकारों के साथ भारत का संविधान लागू हुआ।

अनुच्छेद-29 : अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण

(1) भारत के क्षेत्र में रहने वाले या हिस्से जिसकी अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति है, में रहने वाले नागरिकों को उसके संरक्षण का अधिकार होगा।

(2) किसी भी नागरिक को राज्य के अनुरक्षित किसी भी शैक्षणिक संस्थान, जो राज्य निधियों से सिर्फ धर्म, जाति, भाषा या इनमें से किसी एक आधार पर सहायता प्राप्त है;  में प्रवेश से वंचित नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद-30 : शिक्षण संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के लिए अल्पसंख्यकों का अधिकार

(1) सभी अल्पसंख्यक, चाहे वे धर्म या भाषा के आधार पर हों; उन्हें अपनी पसन्द के शैक्षिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा।

(2) राज्य शिक्षण संस्थानों को सहायता देने में किसी भी शिक्षण संस्थान के खिलाफ इस आधार पर भेदभाव नहीं करेगा कि वह अल्पसंख्यक के प्रबन्धन के अधीन है, चाहे वह धर्म या भाषा पर आधारित हो।

22 मई, 1958 – केरल शिक्षा विधेयक, 1957 में भारत के संविधान के अनुच्छेद-143 (1) के तहत संदर्भ, सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य लोगों के बीच निम्नलिखित प्रश्न पर विचार किया- ‘क्या केरल शिक्षा विधेयक का कोई प्रावधान अनुच्छेद-30 (1) के तहत भारत के संविधान का उल्लंघन करता है?’ इसके जवाब के दौरान, शीर्ष अदालत ने चर्चा की कि- ‘अल्पसंख्यक क्या है? यह एक ऐसा शब्द है, जिसे संविधान में परिभाषित नहीं किया गया है। यह कहना आसान है कि अल्पसंख्यक समुदाय का अर्थ एक ऐसा समुदाय है, जो संख्यात्मक रूप से 50 फीसदी से कम है। लेकिन सवाल का पूरी तरह से जवाब नहीं मिला है, सवाल के एक भाग का अभी तक उत्तर दिया जाना है। अर्थात् 50 फीसदी क्या? क्या यह भारत की पूरी आबादी का 50 फीसदी या संघ के एक राज्य का 50 फीसदी हिस्सा?’

सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि इस सवाल कि क्या इस बिल ने धारा-30 (1) का उल्लंघन किया? बिल खुद इसी आधार पर है कि केरल में जो अल्पसंख्यक हैं, वो इस धारा-30 (1) के तहत प्रदत्त अधिकारों के हकदार हैं। कोर्ट ने आगे कहा- ‘साफ कह रहे हैं, इस सवाल का जवाब देने के लिए हमें यह पूछने की ज़रूरत नहीं है कि अल्पसंख्यक समुदाय का मतलब क्या है या इसे कैसे निर्धारित किया जाए?’

5 मई, 1971 में डीएवी कॉलेज आदि बनाम पंजाब राज्य और अन्य में यह कहा गया था- ‘धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों को केवल उस विशेष कानून के सम्बन्ध में निर्धारित किया जाना है, जिसे लागू करना है। यदि यह राज्य विधानमंडल है, तो इन अल्पसंख्यकों को राज्य की जनसंख्या के सम्बन्ध में निर्धारित किया जाना है।’

12 जनवरी, 1978 को अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की परिकल्पना गृह मंत्रालय के प्रस्ताव में की गयी थी, जिसमें विशेष रूप से उल्लेख किया गया था कि ‘संविधान में प्रदत्त सुरक्षा उपायों और लागू कानूनों के बावजूद, अल्पसंख्यकों में असमानता और भेदभाव की भावना बनी रहती है। धर्मनिरपेक्ष परम्पराओं को बनाये रखने और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार अल्पसंख्यकों के लिए प्रदान किये गये सुरक्षा उपायों को लागू करने के लिए सबसे अधिक महत्त्व देती है और यह स्पष्ट विचार है कि सभी के प्रवर्तन और कार्यान्वयन के लिए प्रभावी संस्थागत व्यवस्था की तत्काल आवश्यकता है। संविधान में अल्पसंख्यकों के लिए केंद्र और राज्य के कानूनों में और सरकारी नीतियों और प्रशासनिक योजनाओं में समय-समय पर दी गयी सुरक्षा प्रदान की गयी है।’

1984 को अल्पसंख्यक आयोग को गृह मंत्रालय से अलग कर दिया गया और कल्याण मंत्रालय के नये सृजित मंत्रालय के अधीन रखा गया।

30 मार्च, 1988 को भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय के प्रस्ताव संख्या-  ढ्ढङ्क १२०११/२/८८ ष्टरुरू के तहत जनवरी 1978 के गृह मंत्रालय के मूल प्रस्ताव के खंड-2 और 3 को संशोधित किया गया और देश के भाषाई अल्पसंख्यकों पर अल्पसंख्यक आयोग के अधिकार क्षेत्र को हटा दिया गया।

17 मई, 1992 को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 अधिनियमित किया गया था। अधिनियम-2 (सी) इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए अल्पसंख्यक को परिभाषित करता है, जिसका अर्थ है- ‘केंद्र सरकार का अधिसूचित समुदाय।’ इस प्रकार, केवल केंद्र सरकार अधिनियम के तहत एक समुदाय को अल्पसंख्यक के रूप में अधिसूचित कर सकती है।

18 दिसंबर, 1992 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के संकल्प संख्या 47/135 की अपनायी गयी राष्ट्रीय या जातीय, धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों से सम्बन्धित व्यक्तियों के अधिकारों की घोषणा में कहा गया है- ‘राज्य की ज़िम्मेदारी है कि वह अपने सम्बन्धित क्षेत्रों के भीतर अल्पसंख्यकों की सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई पहचान और उनके राष्ट्रीय या जातीय अस्तित्व की रक्षा करेगा और उस पहचान को बढ़ावा देने के लिए स्थितियों को प्रोत्साहित करेगा।’

17 मई, 1993 को पहला वैधानिक राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (एनसीएम) स्थापित किया गया था।

23 अक्टूबर, 1993 को भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय की जारी एक राजपत्र अधिसूचना में पाँच धार्मिक समुदाय- मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी अल्पसंख्यक समुदायों के रूप में अधिसूचित किये गये थे।

31 अक्टूबर, 2002 को टीएमए पाई फॉउंडेशन और अन्य बनाम कर्नाटक सरकार और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सवाल- भारत के संविधान के अनुच्छेद 30 में अभिव्यक्त अल्पसंख्यकों का अर्थ क्या है? का यह जवाब दिया- ‘भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को संविधान के अनुच्छेद-30 के तहत अभिव्यक्त अल्पसंख्यक के तहत कवर किया जाता है। चूँकि, भारत में राज्यों का पुनर्गठन भाषाई आधार पर किया गया है; इसलिए अल्पसंख्यक के निर्धारण के उद्देश्य से इकाई राज्य होगी, न कि सम्पूर्ण भारत। इस प्रकार धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों, जिन्हें अनुच्छेद 30 में सम्मिलित किया गया है; को राज्‍यवार माना जाना चाहिए।’

11 नवंबर, 2004 को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग (एनसीएमईआई)  अधिनियम लागू हुआ।

2 (डीए)- अल्पसंख्यकों के लिए शैक्षिक अधिकार का अर्थ है अल्पसंख्यकों के अधिकारों को उनकी पसन्द के शैक्षिक संस्थानों को स्थापित और प्रशासित करना।

2 (एफ)- इस अधिनियम के तहत अल्पसंख्यक का अर्थ है- केंद्र सरकार की तरफ से अधिसूचित समुदाय।

2 (जी)- अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान का अर्थ है- एक महाविद्यालय या एक शैक्षणिक संस्थान जिसकी स्थापना अल्पसंख्यक या अल्पसंख्यक करते हैं।

23 दिसंबर, 2004 को संविधान (103वाँ संशोधन) विधेयक, 2004 और एनसीएम (निरसन) विधेयक, 2004 लोकसभा में पेश किया गया। विधेयकों को सामाजिक न्याय और अधिकारिता विभाग से सम्बन्धित संसदीय स्थायी समिति के पास भेजा गया, जिसने 21 फरवरी, 2006 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। संशोधन विधेयक ने संवैधानिक स्थिति के साथ अल्पसंख्यकों के लिए एक नया राष्ट्रीय आयोग स्थापित करने का प्रस्ताव किया।

इस विधेयक को कथित तौर पर खत्म (लैप्स) होने दिया गया, क्योंकि अगर सरकार विधेयक के माध्यम से आगे बढऩे का प्रयास करती, तो उसे अल्पसंख्यकों को फिर से परिभाषित करना पड़ता। एक प्रस्ताव जिसका मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों और अन्य अल्पसंख्यकों की तरफ से समान रूप से विरोध किया जा रहा था। अल्पसंख्यक समुदायों के नेताओं और इस कदम का विरोध करने वाले विशेषज्ञों ने तर्क दिया कि अल्पसंख्यकों की एक राज्य-विशिष्ट परिभाषा से अल्पसंख्यक अधिकारों में विकृतियाँ आयेँगी।

कई पूर्वोत्तर राज्यों और पंजाब में सिख बहुसंख्यक समूह घोषित किये गये हैं और परिणामस्वरूप संवैधानिक रूप से स्वीकृत अल्पसंख्यक अधिकारों से वंचित थे। इसका परिणाम कई अन्य विसंगतियों के रूप में होता है। जैसे ईसाई छात्र अन्य राज्यों में अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए अयोग्य हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें वहाँ अधिवास अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त नहीं होगा। इन सभी समस्याओं को देखते हुए मंत्री एआर अंतुले ने कथित तौर पर आश्वासन दिया था कि धार्मिक अल्पसंख्यकों की परिभाषा में कोई बदलाव नहीं होगा।

08 अगस्त, 2005 को भारत के बाल पाटिल और एएनआर बनाम भारत संघ और अन्य के जैन समुदाय ने केंद्र सरकार को जैन समुदाय को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक अधिनियम, 1992 की धारा-2 (सी) के तहत अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित करने के लिए एक मानदंड/ निर्देश जारी करने की माँग की। उस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा- ‘टीएमए पाई फाउंडेशन केस में 11 न्यायाधीश की बेंच ने कहा था कि भाषाई और धार्मिक दोनों आधारों पर अल्पसंख्यकों के दावे एक इकाई के रूप में प्रत्येक राज्य होंगे। भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन अधिनियम के तहत देश को पहले ही वर्ष 1956 में पुनर्गठित किया जा चुका है। राज्य के भीतर भाषा के आधार पर भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए भिन्न तरीके समझ आते हैं। लेकिन अगर धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों के लिए समान अवधारणा को प्रोत्साहित किया जाता है, तो पूरे देश, जो पहले से ही विभिन्न विभाजनकारी ताकतों के कारण वर्ग और सामाजिक संघर्षों से पीडि़त है; आगे धार्मिक विविधताओं के आधार पर और विभाजन झेलने को मजबूर हो सकता है। धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक दर्जे के इस तरह के दावे संवैधानिक गारंटी के हिस्से के रूप में विशेष सुरक्षा, विशेषाधिकार और लाभ प्राप्त करने वाले लोगों के विभिन्न वर्गों की उम्मीद में वृद्धि करेंगे। इस तरह की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करना संवैधानिक लोकतंत्र की धर्मनिरपेक्ष संरचना के लिए एक गम्भीर झटका है।’

सुप्रीम कोर्ट ने एनसीएम अधिनियम की धारा-2 (सी) के तहत एक अधिसूचना जारी कर जैनियों को एक धार्मिक अल्पसंख्यक के रूप में अधिसूचित करने के लिए केंद्र सरकार को निर्देशित करने की जैन समुदाय की प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया।

27 जनवरी, 2014 को केंद्र सरकार ने जैन समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित कर दिया।

10 नवंबर, 2017 को अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने 23 अक्टूबर, 1993 की अधिसूचना को संविधान के विपरीत और अति-विवादास्पद घोषित करने के लिए

डब्ल्यूपी (सी) 1064/2017 दायर की थी, लेकिन राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग में जाने की बात कहकर इसे वापस ले लिया और 17 नवंबर, 2017 को एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। एनसीएम ने कथित तौर पर 15 महीने तक उनके प्रतिवेदन का जवाब नहीं दिया।

11 फरवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की दायर रिट याचिका डब्ल्यूपी (सी) 94/2019 पर सुप्रीम कोर्ट का विचार था कि एनसीएम को याचिकाकर्ता के 17 नवंबर, 2017 को दायर प्रतिवेदन पर विचार करना चाहिए और तीन महीने की अवधि के भीतर उचित आदेश पारित करना चाहिए। एक बार जब यह कवायद पूरी हो जाती है, तो याचिकाकर्ता उस तरह के उपायों का लाभ उठाने के लिए स्वतंत्र होगा जैसा कि उसे कानून में उपलब्ध है। याचिकाकर्ता ने कथित रूप से निम्नलिखित प्रार्थनाओं के साथ रिट याचिका दायर की थीं :-

क) यह निर्देशित और घोषित किया जाए कि एनसीएम अधिनियम 1992 का  अनुछेद-2 (सी) मनमाना, अनुचित और अपमानजनक होने के कारण भारत के संविधान की धारा-14, 15 और 21 के तहत अमान्य और निष्क्रिय है।

ख) निर्देशित और घोषित करें कि अल्पसंख्यक समुदाय पर 23 अक्टूबर, 1993 की अधिसूचना-1993 6एसओ नम्बर- 816 (ई) एफ, नम्बर- 1/11/93-एमसी (डी)8 मनमानी, अनुचित और अपमानजनक होने के कारण भारत के संविधान के अनुच्छेद-14, 15, 21, 29 और 30 के तहत अमान्य और निष्क्रिय है।

ग) सरकार को अल्पसंख्यकों को परिभाषित करने और उनकी पहचान के लिए दिशा-निर्देश देने के लिए निर्देशित करें। ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि केवल उन धार्मिक और भाषाई समूहों, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से गैर-प्रमुख और संख्या के आधार पर कम हैं, अनुच्छेद-29 और 30 के तहत गारंटीशुदा  अधिकारों और संरक्षण का लाभ ले सकते हैं।

घ) प्रार्थना के विकल्प में (सी) निर्देशित और घोषित करें कि केवल भारतीय नागरिकों के धार्मिक और भाषाई समूह, जो सामाजिक रूप से आर्थिक और राजनीतिक रूप से गैर-प्रमुख हैं और संख्यात्मक रूप से उस सम्बन्धित राज्य की कुल जनसंख्या का एक फीसदी से अधिक नहीं हो सकते हैं, संविधान के अनुच्छेद-29, 30 के तहत गारंटीशुदा  अधिकारों और सुरक्षा का लाभ लें।

भारतीय संदर्भ में अल्पसंख्यकों का अर्थ है- अल्पसंख्यक धर्म, यानी मुस्लिम, ईसाई, जैन, सिख आदि। एससी, एसटी, ओबीसी अल्पसंख्यक में नहीं हैं। वे अल्पसंख्यक जातियाँ भी नहीं हैं। वे मुख्यत: हिन्दू धर्म से सम्बन्धित हैं और हिन्दू हैं।

इसका अर्थ है- ‘एक जातीय, नस्लीय, धार्मिक या अन्य समूह, जिसकी समाज में एक विशिष्ट उपस्थिति होती है; ऐसे समूह-जिनके पास कम शक्ति या समाज के भीतर अन्य समूहों के सापेक्ष प्रतिनिधित्व हो-व्यवहार में अल्पसंख्यक जातीय, धार्मिक या भाषाई समूह हैं, जो उत्पीडऩ के काफी और न्यायसंगत भय में ‘बहुसंख्यक’ समूह के बीच रहते हैं।

एक समूह की अल्पसंख्यक स्थिति का एक अच्छा परीक्षण यह है कि राष्ट्रीय मीडिया और अंतर्राष्ट्रीय राय सहित दुनिया उनके उत्पीडऩ को कैसे मानती है? यदि उनसे क्रूरता हुई है और कोई इसकी परवाह नहीं करता है, तो वे स्पष्ट रूप से अल्पसंख्यक हैं। उदाहरण के लिए, सूडान के दारफुर क्षेत्र में, अश्वेतों को अरब आतंकित करते हैं। रंगभेद के तहत दक्षिण अफ्रीका के अश्वेतों के साथ भी लम्बे समय से यही स्थिति थे। वे वास्तव में अल्पसंख्यक थे, भले ही वे संख्यात्मक रूप से बहुसंख्यक थे।

यूरोप, अमेरिका, मुस्लिम दुनिया और माक्र्सवादी भूमि में- अल्पसंख्यकों को पता है कि वे वास्तव में कौन हैं? और बहुसंख्यक जानते हैं कि वे कौन हैं? इसमें कोई भ्रम नहीं है कि शक्तिशाली कौन है?

भारतीय परिदृश्य

लेकिन भारत में ऐसा बिल्कुल नहीं है। इसके दो कारण हैं। एक है- बिना किसी श्रेष्ठता के अहसास के जटिल बहुलवाद की पारम्परिक हिन्दू स्वीकृति। दूसरा तथ्य यह है कि कोई भी हिन्दू खुद को ‘बहुमत’ का हिस्सा नहीं मानता है। यह चौंकाने वाली बात है। क्योंकि प्रत्येक हिन्दू खुद को अपनी जाति का हिस्सा मानता है। प्रत्येक हिन्दू अल्पसंख्यक व्यक्ति है। कोई अखण्ड हिन्दू-पहचान नहीं है; प्रत्येक व्यक्ति अपने जाति समूह के प्रति प्राथमिक निष्ठा रखता है। यह कुछ ऐसा है, जैसे- माक्र्सवादी लगातार हिन्दुओं पर आरोप लगाते हैं, लेकिन वे इसे स्वीकार नहीं करते हैं। फलस्वरूप, हिन्दू खंडित हैं। किसी भी हिन्दू से पूछें कि क्या वे एक प्रभावी समूह से सम्बन्धित हैं? आप पायेँगे कि वे सभी, बिना किसी संकोच के महसूस करते हैं कि वे एक पीडि़त समूह से सम्बन्धित हैं; जिसके साथ भेदभाव किया जाता है। निचली जाति के लोगों के पास उत्पीडऩ का इतिहास है, जिसे उन्होंने/उनके पूर्वजों ने भुगता है। ऊँची जाति के लोगों को लगता है कि उनके साथ बुरा व्यवहार किया गया है और वे आरक्षण और इसके चलते अपने अवसर के नुकसान का विरोध करते हैं। इस प्रकार कोई भी हिन्दू किसी बेहतर बहुसंख्यक व्यक्ति के रूप में नहीं घूमता, बल्कि किसी गरीब अल्पसंख्यक मुस्लिम या ईसाई पर हमले की फिराक में रहता है।

हिन्दुओं पर हमले

वास्तव में यह बिल्कुल विपरीत है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह मुस्लिम और ईसाई हैं, जो जानबूझकर हिन्दुओं पर हमला करते हैं। जहाँ तक मैं बता सकता हूँ, हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक दंगे आमतौर पर मुसलमानों के शुरू किये गये प्रतीत होते हैं। और ज़रूरी नहीं कि शारीरिक रूप से हिंसक हों (हालाँकि वे वास्तव में पूर्वोत्तर में हिंसक हैं); ईसाई हर समय हिन्दुओं और उनके गहरी मान्यताओं पर हमला करते हैं। विडम्बना यह है कि जीसस क्राइस्ट के जीवन, उनके कुँवारी माता से जन्म होने आदि के मिथक भी वैसे ही हैं, जैसे पुराने हिन्दू और बौद्ध मिथक हैं।

हिन्दुओं को सुरक्षा की ज़रूरत कहाँ?

इस प्रकार भारत में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं और उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता है। प्रत्येक हिन्दू, लगभग परिभाषा के अनुसार, एक अल्पसंख्यक व्यक्ति है। फिर भी, अविश्वसनीय रूप से, नेहरूवादी स्टालिनवादियों ने इसे व्यवस्थित किया है, ताकि उन क्षेत्रों में भी जहाँ हिन्दू वास्तव में एक संख्यात्मक अल्पसंख्यक हैं, जैसे कि मुस्लिम बहुल जम्मू-कश्मीर, ईसाई बहुल मिज़ोरम और नागालैंड, या माक्र्सवादी बहुल पश्चिम बंगाल और मालाबार में; हिन्दुओं को वैसे कथित ‘अल्पसंख्यक विशेषाधिकार’ नहीं मिलते हैं। जैसे कि मुस्लिमों और ईसाइयों को भारत के अन्य हिस्सों में मिलते हैं। इसलिए भारत में हिन्दुओं पर हमला किया जाता है; उनकी हत्या की जाती है।

जो भी हो; जब तक वे संगठित होकर बदला लेने की कोशिश करते हैं, तब तक पुलिस वहाँ किसी भी हिंसा को रोकने के लिए उपस्थित होती है। हैरानी की बात है कि कोई भी मानवाधिकार कार्यकर्ता उनके बारे में परवाह नहीं करता है और न कोई मीडिया ही उनकी पीड़ा को उजागर करता है। हालाँकि बहुसंख्यक समुदाय के साथ यह गम्भीर शोषण वाली स्थिति है, जिसे स्पष्ट रूप से ‘रिवर्स भेदभाव’ का मामला कहा जा सकता है।

लोग मनमाने तरीके से कर्तव्यों को तो भूल जाते हैं, लेकिन अपने अधिकारों को याद रखते हैं। सभी को अपने कर्तव्यों का ध्यान रखना होगा तभी अधिकारों का सही उपयोग हो पायेगा। प्रत्येक अधिकार के साथ एक ज़िम्मेदारी, हर अवसर के साथ एक दायित्व और हरेक अधिकार के साथ एक कर्तव्य जुड़ा होता है। एक अन्य अमेरिकी लेखक थॉमस पेन ने अपनी पुस्तक ‘द राइट्स मैन’ में उल्लेख किया है कि अधिकारों की घोषणा, पारस्परिक रूप से कर्तव्यों की घोषणा भी है।

एक आदमी के रूप में मेरा जो अधिकार है, वह दूसरे का भी अधिकार है और यह मेरा कर्तव्य बनता है कि हम इसकी गारंटी दें और इसे अपनाएँ। एक राष्ट्रवादी होने के नाते अमेरिका के दिवंगत राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने अपने उद्घाटन भाषण में अपने साथी देशवासियों से कहा- ‘यह न पूछें कि देश आपके लिए क्या कर सकता है? यह पूछें कि आप अपने देश के लिए क्या कर सकते हैं?’ इसी कड़ी में एक इस्लामिक स्कॉलर अल-हाफिज़ बीए मसरी ने कहा- ‘किसी की दिलचस्पी या ज़रूरत किसी दूसरे के अधिकार को खत्म नहीं कर देती।’