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क्या विलुप्त होने की ओर हैं हाथी?

प्रवासी प्रजातियों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के परिशिष्ट-1 में एशियाई हाथी को शामिल करने के भारत के प्रस्ताव को सर्वसम्मति से 20 फरवरी, 2020 को गाँधीनगर में प्रवासी प्रजाति (सीएमएस) पर आयोजित 13वें सम्मेलन में स्वीकार कर लिया गया है। सवाल यह है कि संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के परिशिष्ट-1 में हाथियों को शामिल करने का प्रस्ताव क्यों महत्त्वपूर्ण है?

यह इसलिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि परिशिष्ट-1 में वो प्रजातियाँ सूचीबद्ध की जाती हैं, जिनके विलुप्त होने का खतरा होता है। और परिशिष्ट-2 में वे प्रजातियाँ होती हैं, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय सहकारी संरक्षण के प्रयासों से बचाये जाने की ज़रूरत होती है। केंद्र सरकार ने भारतीय हाथी को राष्ट्रीय धरोहर पशु घोषित किया है। भारतीय हाथी को वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम-1972 की अनुसूची एक में सूचीबद्ध करके सर्वोच्च कानूनी सुरक्षा प्रदान की है।

सीएमएस सम्मेलन की अनुसूची एक में भारतीय हाथी रखे जाने से अब पूरे भारत में हाथियों के प्रवास के प्राकृतिक आग्रह को पूरा किया जा सकेगा। इससे हमारी भावी पीढिय़ों के लिए लुप्त होने की ओर अग्रसर इस प्रजाति के संरक्षण को बढ़ावा मिल सकेगा। नेपाल, बांग्लादेश, भूटान और म्यांमार में छोटी आबादी का अंत:संक्रमण और यहाँ पर इनकी तादाद का विस्तार हो सकेगा। इससे अपने प्रवासी मार्गों के कई हिस्सों में मानव के साथ हाथी संघर्ष को कम करने में भी मदद मिलेगी।

2017 में हाथियों की गिनती के अनुसार, विश्व कुल हाथियों की तादाद का 55 फीसदी हिस्सा भारत में है, जिनकी संख्या 27,312 है। 1986 से एशियाई हाथियों, जिसमें कि भारत में पायी जाने वाली प्रजातियाँ सबसे ज़्यादा हैं; को अब इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने रेड लिस्ट में सूचीबद्ध किया है। यह रेड लिस्ट लुप्तप्राय प्रजाति के लिए बनायी जाती है। भारत की बात करें, तो कर्नाटक में 6049 हाथी हैं, जो कि यहाँ के अन्य राज्यों की अपेक्षा सबसे ज़्यादा तादाद है। इसके बाद असम दूसरे नम्बर पर है। 2002 के अनुसार, असम में हाथियों की संख्या 5,246 से बढ़कर 2017 में 5,719 हो गयी है। लेकिन अब इस राज्य में घटते वन क्षेत्र के कारण इनको गम्भीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। नीलगिरि बायोस्फीयर रिजर्व के साथ कर्नाटक का बाँदीपुर राष्ट्रीय उद्यान दक्षिणी भारत में सबसे बड़ा संरक्षित क्षेत्र है और भारत में जंगली हाथियों का सबसे बड़ा निवास स्थान भी है। पिछली बार की गयी गिनती के अनुसार, कर्नाटक में 6049 हाथी हैं। काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान सहित असम का कार्बी आंगलोंग और मोरा धनसिरी नदी क्षेत्र जंगली हाथियों का सबसे बड़ा आवास का क्षेत्र है। यहाँ उनकी संख्या 5719 है। भारत में हाथियों के संरक्षण के लिए सबसे बड़ा और लोकप्रिय हाथी पर्व काजीरंगा में ही आयोजित किया जाता है। एनामुडी को हाथी पर्वत के रूप में जाना जाता है। यह केरल की सबसे ऊँची चोटी है और इसे दक्षिण भारत का एवरेस्ट कहा जाता है। चोटी एराविकुलम राष्ट्रीय उद्यान के दक्षिणी क्षेत्र में स्थित है और केरल में यहीं पर बड़ी संख्या में हाथी हैं। केरल में 5706 हाथी हैं। तमिलनाडु में भी जंगली हाथियों की अच्छी-खासी तादाद है। एक रिपोर्ट के अनुसार तमिलनाडु में 2761 हाथी हैं। लेकिन यहाँ ये हाथी विशेष क्षेत्र अनामलाई, श्रीविल्लिपुत्तुर और कोयंबटूर में ही पाये जाते हैं। अन्नामलाई टाइगर रिजर्व, कोझिकामुधि कैम्प आवास है, जो अनामीलाई हिल्स में काफी लोकप्रिय है।

भारतीय जंगली हाथी भुवनेश्वर के पास स्थित चंदका वन्यजीव अभयारण्य की प्रमुख प्रजाति है। ओडिशा के पूर्वी घाट और चंदका वनजीव अभ्यारण्य में 1976 से बड़ी संख्या में जंगली हाथी निवास करते हैं। मेघालय में 1754 हाथी हैं। मेघालय की गारो हिल्स और खासी हिल्स पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों, सरीसृपों, हाथियों और हूलॉक गिबन (बंदरों की एक प्रजाति) सहित कई बड़े जंगली पशुओं का आवास स्थल है।

उत्तराखंड का राजाजी नेशनल पार्क और जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क, दोनों घने हरे जंगल हैं और हाथियों और बाघों दोनों को आकॢषत करते हैं। लेकिन ये जंगल जंगली हाथियों की आबादी के लिए सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। उत्तराखंड में 1839 हाथी हैं। अरुणाचल प्रदेश में हाथियों की आबादी 1614 है। अरुणाचल प्रदेश की हिमालयी तलहटी में कामेंग हाथी रिजर्व जंगली हाथियों के लिए स्थापित किया गया है। कामेंग अभ्यारण्य में 377 हाथियों के अलावा तेंदुए, लाल पांडा और सींगबीलों की 4 प्रजातियाँ हैं।

झारखंड जंगली पशुओं के लिए भारत का एक और लोकप्रिय राज्य है, जो अपनी कोयला खदानों और हाथियों के प्रजनन के लिए जाना जाता है। यहाँ हाथियों की संख्या 679 है। नागालैंड राज्य लुप्तप्राय प्रजातियों का आवास है। इस पूर्वोत्तर भारतीय राज्य में जंगली हाथियों के 30 फीसदी आवास स्थल हैं और यहाँ हाथियों की कुल संख्या 446 है। छत्तीसगढ़ राज्य मध्य भारत में 247 जंगली हाथियों का घर है। उत्तर प्रदेश का दुधवा राष्ट्रीय उद्यान एक तराई क्षेत्र है और यहाँ पर हाथियों की संख्या 232 है। दुधवा का तराई का पारिस्थितिकी तंत्र बड़ी संख्या में लुप्तप्राय प्रजातियों के अनुकूल है। मयूरझरना एलीफेंट रिजर्व और पश्चिम बंगाल का डुआर्स क्षेत्र तराई डुआर सवाना और हरित क्षेत्र में 194 हाथियों का बड़ा झुण्ड पाया जाता है। कर्नाटक का बांदीपुर नेशनल पार्क और नीलगिरी बायोस्फीयर रिजर्व के साथ दक्षिण भारत में सबसे बड़ा संरक्षित क्षेत्र है और भारत में जंगली हाथियों का यह सबसे बड़ा निवास स्थान है।

एशियाई हाथी यानी भारतीय हाथी भोजन और आश्रय की तलाश में राज्यों से लेकर दूसरे देशों तक लम्बी दूरी का सफर तय करते हैं। कुछ हाथी तो एक स्थान पर ही रहते हैं, जबकि अन्य नियमित रूप से हर साल या समय के हिसाब से विशेष इलाकों में प्रवास करते हैं। प्रवास चक्रों में ये स्थान बदलते रहते हैं और प्रवासी आबादी का अनुपात क्षेत्रीय आबादी के आकार के साथ-साथ उनके आवास की सीमा, क्षरण और ज़रूरतों पर निर्भर करता है। एशियाई हाथियों के संरक्षण में जो मुख्य चुनौतियाँ सामने आती हैं, उनमें अधिकांश इनका सीमा क्षेत्र, निवास स्थानों का खत्म होना या सीमित होते जाने के साथ-साथ मानव-हाथी संघर्ष, अवैध शिकार और अवैध व्यापार हैं।

भारत में प्राकृतिक रूप से एशियाई हाथियों या भारतीय हाथियों के रहने के लिए सबसे बढिय़ा स्थान हैं। इसलिए यहाँ पर हाथियों के संरक्षण को बढ़ावा देने की उम्मीद रखी जाती है। सीएमएस कनवेंशन सेंटर के परिशिष्ट-1 के तहत कहा गया कि दुनिया भर के देशों की प्रजातियों को भारत लाकर इनके प्राकृतिक प्रवास की व्यवस्था

की जाए। वन्यजीव के एडीजी सौमित्र दास गुप्ता कहते हैं कि जब इस प्रस्ताव को रखा गया, तो सम्मेलन में इसे सर्वसम्मति से स्वीकार कर

लिया गया। सरकारी सूत्रों के अनुसार, 2016 से 2018 के बीच असम में जंगली हाथियों ने 149 लोगों को मौत के घाट उतारा और 3,546 घरों और 1,880 हेक्टेयर फसलों को नुकसान पहुँचाया गया। पिछले साल जून में असम के एक वन अधिकारी ने राज्य के वन विभाग को स्थानीय लोगों द्वारा लादेन नाम का एक हाथी घोषित करने के लिए कहा था। बदमाशों ने संदेह जताया कि उन्होंने 2016 से गोलपारा वन प्रभाग के आसपास और 363 वर्ग किलोमीटर के गाँवों में 37 लोगों को मार दिया है।

अवैध शिकार और व्यापार

शिकारी एशियाई हाथियों में नर हाथी को ही निशाना बनाते हैं और इन्हीं का अवैध व्यापार अधिक किया जाता है। अपने दाँतों के लिए मशहूर इस विशाल पशु का शिकार न हो, तो इनकी तादाद बढऩे की उम्मीद की जा सकती है। दाँतों के लिए एशियाई हाथियों का अवैध शिकार कुछ देशों में खतरा बना हुआ है।

हालाँकि, ज़्यादातर अवैध हाथी दाँत वर्तमान में एशियाई हाथियों के बजाय अफ्रीकी स्रोतों से आते हैं। व्यापार के लिए जंगली हाथी भी ले जाए जाते हैं- मुख्य रूप से पर्यटन उद्योग के लिए थाईलैंड ले जाया जाता है।

हाथियों की ट्रेन या वाहन की टक्कर होने, बिजली का करंट लगने, गड्ढों में गिरने और ज़हर देने से होने वाली मौतों से उन्हें बचाने के लिए हाथी कॉरिडोर बनाने हेतु समन्वय समिति का गठन किया गया है।

ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए रेलवे, वन विभाग और असम पॉवर डिस्ट्रीब्यूशन कम्पनी लिमिटेड के कर्मचारियों को व्हाट्स एप ग्रुप के माध्यम से प्रभावी सूचना का आदान-प्रदान किया जाने लगा है। वन विभाग ने भी एंटी डेप्रीडेशन स्क्वॉयड, सौर-ऊर्जा चालित बिजली की बाड़ लगाने और जंगली हाथियों को मानव बस्तियों से दूर रखने के लिए प्रशिक्षित हाथियों की तैनाती की है।

सरकार ने पशुओं के झुण्डों की आवाजाही के लिए तकनीक का भी इस्तेमाल करना शुरू किया है, जिसमें सेंसर वाले बैरियर लगाये गये हैं, जो ग्रामीणों व वन अधिकारियों के मोबाइल एप से जुड़े हुए हैं; ताकि उनको समय रहते ट्रैक किया जा सके। जुलाई में नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ की स्थायी समिति ने केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय ने राज्य सरकारों को सलाह जारी कर कहा कि संरक्षित क्षेत्रों के पास बड़ी संख्या में लोगों के इकट्ठा होने से रोकने के लिए सीआरपीसी की धारा-144 को बढ़ावा दिया जाए। यह निर्णय इसलिए लिया गया, क्योंकि यह पाया गया कि जब भी कोई वन्यजीव संघर्ष की स्थिति पैदा होती है, तो लोग भारी संख्या में इकट्ठे हो जाते हैं, जिससे अक्सर आपात हालात पैदा हो जाते हैं।

भारत, वियतनाम और म्यांमार ने अपने-अपने जंगली हाथियों के झुण्डों के संरक्षण के लिए वन्य क्षेत्र पर कब्ज़ा करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। लेकिन म्यांमार में हाथी अब भी हर साल लकड़ी उद्योग या अवैध वन्यजीव व्यापार में उपयोग किये जाते देखे जाते हैं। दुर्भाग्य से हाथियों को पकडऩे के लिए बेहद क्रूर तरीका अपनाया जाता है, जिससे इनकी मौत भी हो जाती है। अब न केवल तरीकों में सुधार करने के लिए प्रयास किये जा रहे हैं, बल्कि जंगली पशुओं को बचाने के लिए कैप्टिव प्रजनन को प्रोत्साहित किया जा रहा है।

महाद्वीप की संस्कृति और धर्म में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए हाथी एशिया में सदियों से पूजनीय रहे हैं। वे क्षेत्र के वनों को बनाये रखने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन उनका निवास स्थान सिकुड़ रहा है और एशियाई हाथी अब लुप्तप्राय होने की कगार पर पहुँच रहे हैं।

तेज़ी से बढ़ती मानव आबादी के सामने, एशियाई हाथियों का निवास स्थान उससे कहीं ज़्यादा तेज़ी से सिकुड़ रहा है और जंगली हाथियों की आबादी कम होती जा रही है। जंगल कम होने से हाथी मुश्किलों में पड़ रहे हैं। साथ ही बढ़ती मानव बस्तियों के चलते इनके सदियों पुराने रास्ते बन्द होते जा रहे हैं।

बड़े निर्माणों से अस्तित्व पर खतरा

बड़ी विकास परियोजनाओं, लगातार विस्तृत होती मानव बस्तियों और पौधरोपण बहुत धीमी गति से होने के चलते हाथियों के प्रवास स्थान तेज़ी से कम होते जा रहे हैं।

हाथियों को उन्मुक्त जीवन जीने देने के लिए पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा शुरू किया गया प्रोजेक्ट एलीफेंट राज्यों के द्वारा किये जा रहे वन्यजीव प्रबन्धन प्रयासों को वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान कर रहा है। इस परियोजना का उद्देश्य हाथियों की आबादी, उनके आवास और प्रवास गलियारों की सुरक्षा प्रदान करना है; जिससे उनके प्राकृतिक आवास में हाथियों की आबादी के लिए दीर्घकालिक अस्तित्व को सुनिश्चित किया जा सके।

प्रोजेक्ट एलीफेंट के अन्य लक्ष्यों में हाथियों की पारिस्थितिकी और प्रबन्धन के अनुसंधान का समर्थन करना भी है। इस काम में लगे लोग स्थानीय लोगों के बीच संरक्षण के बारे में जागरूकता पैदा कर रहे हैं, बन्दी हाथियों के लिए बेहतर पशु चिकित्सा देखभाल प्रदान कर रहे हैं।

यह परियोजना मुख्य रूप से 16 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों- आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, मेघालय, नागालैंड, ओडिशा, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में कार्यान्वित है। इस खास परियोजना के तहत निम्नलिखित मुख्य गतिविधियाँ शामिल हैं :-

मौज़ूदा प्राकृतिक आवासों और हाथियों के बने प्रवासी मार्गों की पारिस्थितिक बहाली।

हाथियों के संरक्षण और भारत में जंगली एशियाई हाथियों की आबादी संरक्षण के लिए वैज्ञानिक और नियोजित प्रबन्धन का विकास करना।

महत्त्वपूर्ण निवासों में मानव-हाथी संघर्ष के खात्मे के लिए ज़रूरी तरीके और जागरूकता के उपाय इसके साथ ही उनकी गतिविधियों के लिए किये जाने वाले तरीके।

शिकारियों से जंगली हाथियों के संरक्षण और अप्राकृतिक कारणों से होने वाली मौत के बचाव के उपाय करना।

हाथियों के प्रबन्धन से सम्बन्धित मुद्दों पर अनुसंधान।

सार्वजनिक शिक्षा और जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन।

इको-डेवलपमेंट।

पशु चिकित्सा देखभाल।

हाथी पुनर्वास व बचाव केंद्र।

तेज़ी से घट रहे हाथी

डाउन टू अर्थ में काॢतक सत्यनारायण शोध के हवाले से भारत के हाथियों को लेकर एक चिन्ताजनक भविष्य की ओर इशारा किया है। इसमें दावा किया गया है कि आज की तारीख में भारत में केवल 27 हज़ार से अधिक जंगली हाथी रह गये हैं, जो एक दशक पहले करीब 10 लाख हुआ करते थे। शोध के अनुसार, जंगली हाथियों की तादाद में 98 फीसदी की कमी हो गयी है। यह विशालकाय पशु न केवल भारत के पर्यावरणीय इतिहास का एक अभिन्न अंग रहा है, बल्कि कई देशी संस्कृतियों को आकार देने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है।

भारत में बहुत से धर्मों में जीवन को महत्त्व दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि आत्मा जानवरों और पौधों में भी है। हालाँकि, आज भारत ने अपने वन्यजीवों के साथ यह अन्तरंग सम्बन्ध खो दिया है; क्योंकि तेज़ी से अर्थ-व्यवस्था के विकास ने इसका खात्मा कर दिया है। एशियाई हाथियों की वर्तमान स्थिति से इस परिवर्तन को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।

हाथियों का भारत की संस्कृति और परम्पराओं में एक विशेष स्थान रहा है। इन्हें एक तरफ सफर के लिए शाही सवारी के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है, तो दूसरी ओर युद्ध के दौरान भी इनका इस्तेमाल किया जाता रहा है। अब ऐसा लगता है कि यह मानव मित्र पशु चित्रकला तक सीमित रह जाएगा। हालाँकि, सबसे महत्त्वपूर्ण भगवान गणेश के रूप में एक देवता के तौर पर हाथी ही है। देश में 70 फीसदी से अधिक लोगों के लिए हाथी का अपना धाॢमक महत्त्व है।

अगर ऐसा तो कोई भी यह माना जा सकता है कि भारत के हाथी उच्च स्तर की सुरक्षा में बेहतर जीवन का बिता रहे हैं। लेकिन यह पूर्णत: सत्य नहीं है, क्योंकि आज हाथी काफी असुरक्षित हैं। हालाँकि भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 में सूचीबद्ध प्रजातियों में हाथियों को सर्वोच्च दर्जा दिया गया है। दुर्भाग्य से ज़मीनी स्तर पर हालात अलग ही तस्वीर पेश करते हैं। यह जानकर निराशा होती है कि आज भारत में जिन हाथियों की तादाद कभी लाखों में हुआ करती थी, वे आज केवल हज़ारों में बचे हैं। हालाँकि, सुखद यह है कि भारत हाथियों की अधिकतर प्रजातियों के लिए अहम निवास स्थान है और यहाँ दुनिया में एशियाई हाथियों की 50 फीसदी से अधिक आबादी निवास करती है। लेकिन उनकी स्थिति संकटमय होती जा रही है, क्योंकि हाथियों के निवास के अनुकूल वन्य क्षेत्र सिकुड़ते जा रहे हैं। आज भारत में हाथी निवास स्थानों की कमी और अंगों की तस्करी के लिए अवैध शिकार के अलावा तमाम इंसानी प्रताडऩाओं और दबाव जैसे खतरों का सामना कर रहे हैं। आजकल अखबारों में जंगली हाथियों की मौतों के बारे में खबरें आना आम बात हो गयी है। इतना ही नहीं, उनके साथ बेरहमी से पेश आने की घटनाएँ काफी देखने-सुनने को मिलती हैं।

बन्दी हाथी

1995 में स्थापित वन्यजीव एसओएस ने भारत में ऐसी प्रजातियों को बचाने के लिए 2010 में हाथियों के लिए काम करना शुरू किया। परियोजना के शुरुआती प्रयासों में पूरे भारत में बन्दी बनाकर रखे गये हाथियों पर ध्यान केंद्रित किया गया था, जो अपने मालिक के ज़रिये दुव्र्यवहार या क्रूरता का सामना कर रहे थे। हाथियों पर नियंत्रण पाकर उन्हें अपने पास रखने को आसानी से भारत के सांस्कृतिक इतिहास के साथ जोड़ दिया जाता है और यह आमतौर पर स्वीकार्य भी है। हालाँकि यह सांस्कृतिक कथा पूरे भारत से होने वाले हाथियों के अवैध व्यापार की दु:खद कहानी को बयाँ करती है।

अफ्रीका से उलट अपने देश में बन्दी बनाकर हाथियों का अवैध शिकार इसकी प्रजातियों के अस्तित्व के लिए एक गम्भीर खतरा बन गया है। जंगली हाथी कुछ लोगों के लिए महज़ एक हाथी हो सकता है, जो आगे अपनी नस्ल को बढ़ा सकता था, साथ ही इस प्रजाति को सम्बल दिये जाने में योगदान दे सकता था; लेकिन हाथियों का बचा रहना कितना महत्त्वपूर्ण है, यह बहुत कम लोग जानते हैं।

एक हाथी किसी की भी कैद में प्रतिकूल और तनावपूर्ण परिस्थितियों का सामना करता है, जिससे एक तरह से उसका शारीरिक और मानसिक शोषण होता है। बन्दी हाथी नियमित रूप से स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं, जैसे- पैरों में सडऩ, गठिया, सिर पर गहरी चोटों और कुपोषण के शिकार पाये जाते हैं। ऐसे हाथियों से बहुत काम लिया जाता है और एक बार जब उनकी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ बाधक बनती हैं, तो उनको मार दिया जाता है। हाथियों को कैद में रखकर उसकी नस्ल को आगे बढ़ाना बेहद मुश्किल है। क्योंकि इसके लिए दूसरे को पकडऩा होगा और वह इस व्यापार के मुताबिक नहीं होगा।

पिछले एक दशक के दौरान ऐसे 25 से अधिक हाथियों को बचाया गया है। देश में पहली बार वन्यजीव एसओएस ने उत्तर प्रदेश के मथुरा में एक हाथी संरक्षण और देखभाल केंद्र (2010) और एक हाथी अस्पताल (2018) की स्थापना की। इन सुविधाओं से समस्याओं या बीमारियों से जूझ रहे हाथियों के जीवन को दूसरा मौका मिलता है। इसके साथ-साथ हाथियों के संरक्षण और इस शानदार प्रजाति को बचाने को लेकर लोगों को संवेदनशील बनाने के लिए शैक्षिक दौरे भी आयोजित किये जाते हैं।

प्रोजेक्ट एलीफेंट की गणना के अनुसार, 2018 में भारत में 2,454 बन्दी हाथी थे। इस संख्या में कमी आने की सम्भावना भी जतायी गयी, क्योंकि हाथी की आयु और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम-1972 के तहत हाथियों को बन्दी बनाये रखने, हाथियों के बच्चों को पकडऩे या कैद में रखने पर पाबन्दी लगायी जा चुकी है।

अधिकांश महावत पशु चिकित्सा सहायता तक पहुँच नहीं पाते हैं। ऐसे में इलाज के अभाव में हाथियों को लगीं सामान्य चोटें अक्सर बड़ी हो जाती हैं। विशेष रूप से पैर की चोटें हाथियों के लिए घातक साबित होती हैं। इस प्रकार हाथियों के जीवन की स्थितियों में सुधार करना बेहद ज़रूरी है। इसे ध्यान में रखते हुए वन्यजीव एसओएस अपनी मोबाइल पशु चिकित्सा इकाई के माध्यम से समस्याओं से जूझने वाले हाथियों के लिए चिकित्सा सहायता मुहैया करवा रहा है। यह सेवा महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और केरल जैसे राज्यों में जंगली और बन्दी दोनों तरह के हाथियों के लिए प्रदान की जा रही है। बन्दी बनाये गये हाथियों के महावत तक पहुँचना भी उनके जीवन को बेहतर बनाने में एक महत्त्वपूर्ण घटक हो सकता है। लेकिन अक्सर जानवरों को रखने वाली जगह के तौर पर चीज़ें खुलकर सामने नहीं आ पातीं या उनसे सामना नहीं हो पाता। वन्यजीव एसओएस विभिन्न राज्यों के हाथी रखवालों के साथ भी हाथ मिला रहा है, ताकि वे अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए हाथियों के मानवीय प्रबन्धन के बारे में जान सकें।

मानव-हाथी संघर्ष (एचईसी) एक ऐसी समस्या है, जिससे दुनिया भर में हाथियों के अस्तित्व का खतरा पैदा होता है। 2018 से वन्यजीव एसओएस टीम छत्तीसगढ़ के महासमुंद और बलौदाबाज़ार में एचईसी को कम करने के लिए काम कर रही है, जहाँ पर 19 हाथियों के एक झुण्ड ने पास के वन भूमि में स्थायी तौर पर शरण ली हुई है।

गाँवों और फसलों के निकट हाथियों के झुण्ड के पहुँचने पर ग्रामीणों को पहले से सतर्क करने के लिए एक चेतावनी प्रणाली बनायी गयी है। टीम एचईसी से बचने और हाथियों के संरक्षण में भाग लेने के लिए आवश्यक तरीकों के प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए दो ज़िलों में सभी समुदाय के लोगों के साथ बड़े पैमाने पर काम कर रही है।

इन कार्यशालाओं के माध्यम से आठ गाँवों के 90 से अधिक ग्रामीणों ने स्वैच्छिक मित्र दल का हिस्सा बनने के लिए स्वेच्छा से हिस्सा लिया। एचईसी की स्थिति को आदर्श बनाया जा सकता है, जिससे दोनों के लिए अस्तित्व का खतरा नहीं होगा और भारत में हाथी भी सुरक्षित रह सकेंगे।

आज जैसे-जैसे हमारी भौतिक दुनिया तेज़ी से बदल रही है, हाथी के साथ हमारे सम्बन्धों को प्रतिबिम्बित करने और मज़बूत बनाने के लिए कुछ समय देना बेहद ज़रूरी है। भारत में हाथियों का संरक्षण और उनका कल्याण हमें समग्र नीतियों को विकसित करने के लिए आईना दिखाता है, जो अन्य जानवरों के लिए भी काम करने को प्रेरित करता है। भारत में हाथियों के बचे रहने का मतलब होगा कि देश अपनी जैव विविधता के अस्तिव को बचाये हुए है।

ग्रेट इंडियन बस्टर्ड

ग्रेट इंडियन बस्टर्ड एक ऐसी अनूठी, अद्भुत, लुप्तप्राय प्रजाति की चिडिय़ा है, जिसके लिए सीमाएँ मायने नहीं रखती हैं। इनका ठिकाना ऐसी जगह पर है, जहाँ से दो देशों की सीमाएँ मिलती हैं। भारत-पाकिस्ताान सीमा क्षेत्र में ही इनका शिकार भी किया जाता है। सीएमएस के परिशिष्ट-1 में ऐसी प्रजातियों को शामिल किये जाने के बाद अंतर्राष्ट्रीय संरक्षण निकायों, मौज़ूदा अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और समझौते द्वारा अब सीमा पार करने में इनकी सुरक्षा और सहयोग करना ज़रूरी हो सकेगा।

इस तरह का कदम उठाये जाने के बाद शिकार और अन्य मानव प्रेरित मृत्यु दर जोखिमों के खिलाफ सीमा सुरक्षा संरक्षण प्रयासों और प्रजातियों के संरक्षण में मदद मिलेगी। द ग्रेट इंडियन बस्टर्ड एक गम्भीर रूप से लुप्तप्राय प्रजाति का पक्षी है, जिसकी तादाद करीब सौ-डेढ़ सौ के आसपास ही बची है। यह चिडिय़ा भारत के राजस्थान में थार रेगिस्तान तक सीमित हो गयी है। पिछले 50 वर्षों (छ: पीढिय़ों) के भीतर इनकी संख्या में 90 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी है। आगे भी इनके घटने की आशंका है।

लगातार कम होते जा रहे वन

अंतर्राष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन वल्र्ड वाइड फंड फॉर नेचर, जो वन संरक्षण के क्षेत्र में काम कर रहा है; के अनुसार, मानव आबादी बढऩे के साथ ही पर्यावरण पर मानव जाति के अतिक्रमण के चलते उष्णकटिबंधीय एशिया में हाथियों के लिए उनका वन्यक्षेत्र लगातार घट रहा है। वर्तमान मेें दुनिया भर के मनुष्यों की लगभग 20 फीसदी आबादी इन्हीं एशियाई हाथियों के आवास स्थल के आसपास निवास करती है। तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या के कारण एशियाई हाथियों का निवास स्थान (जंगल) उतनी ही तेज़ी से सिकुड़ रहे हैं। इसके चलते जंगली हाथियों की आबादी कम होने के साथ-साथ उनके छोटे-छोटे अलग-थलग झुण्ड बनते जा रहे हैं। लोगों को बसाने के लिए प्राचीन प्राकृतिक मार्गों को खत्म करके वहाँ बस्तियाँ बनायी जा रही हैं। बड़ी विकास परियोजनाएँ, जैसे- बाँध, सड़कें, खदानें और औद्योगिक परिसर बढऩे, पौधरोपण न होने और मानव बस्तियों का विस्तार होने से हाथियों के निवास स्थान छोटे-छोटे टुकड़ों तक सीमित हो गये हैं और लगातार घटते जा रहे हैं।

इसके चलते हाथियों के झुण्डों के फसलों तथा गाँवों में घुसने की घटनाएँ भी बढ़ रही हैं। वे मानव सम्पत्ति को नुकसान करने के अलावा कभी-कभी लोगों की जान भी ले लेते हैं। बदले में ग्रामीण ऐसे हाथियों को मार डालते हैं। विशेषज्ञ पहले से ही इस तरह के टकराव को एशिया में हाथियों की मौत का प्रमुख कारण मानते हैं। एक और बड़ी चुनौती यह है कि भारत में जंगल तेज़ी से कम हो रहे हैं। बढ़ती मानव आबादी के साथ-साथ अतिक्रमण करके लोग घर बनाये जा रहे हैं, जिससे हाथियों के ऐतिहासिक आवासों का खात्मा होता जा रहा है।

हाथी जैसे बड़े शाकाहारी पशु अपने शरीर के हिसाब से 5-10 फीसदी के बराबर भोजन का प्रतिदिन उपभोग करते हैं। इनके झुण्डों को बनाये रखने के लिए ज़रूरी है कि भोजन के तौर पर पर्याप्त वनस्पति हो, साथ ही बड़े-बड़े घास के मैदान भी ज़रूरी हैं। हालाँकि, जंगलों के सिकुडऩे का सीधा मतलब है कि इनके लिए ज़रूरी भोजन की उलब्धता में कमी है। इसी वज़ह से हाथी जंगलों से बाहर निकलने को मजबूर होते हैं और फसलों को खाने लगते हैं। इस प्रकार वे अपना पेट भरने के चलते फसलों पैरों से रौंदकर नुकसान पहुँचा जाते हैं, जिसकी वजह से उनका सामना लोगों से संघर्ष के तौर पर होता है। यह अक्सर मनुष्यों और हाथियों दोनों के लिए जानलेवा साबित होता है। क्योंकि मनुष्यों के हमले या भगाने की प्रक्रिया से हाथियों में ङ्क्षचघाड़ जैसी त्वरित प्रक्रिया होती है, जिससे वे आक्रामक हो जाते हैं और फिर तबाही मचाना शूरू कर देते हैं।

कुछ देशों में सरकारें हाथियों के द्वारा किये गये फसलों के नुकसान की भरपाई के लिए मुआवज़ा प्रदान करती हैं। लेकिन आबादी वाले इलाकों के पास हाथियों को हटाने या फिर खत्म किये जाने का वन्यजीव अधिकारियों पर राजनीतिक दबाव होता है। ऐसे में हाथियों को खतरा ही है। ज़ाहिर है कि जैसे-जैसे मानव आबादी बढ़ेगी, मानव-हाथी संघर्ष भी बढ़ता जाएगा। इसलिए ज़रूरी है कि समय रहते सरकार हाथियों की सुरक्षा के लिए आवश्यक कदम उठाए।

कोविड-19 का अर्थ-व्यवस्था पर सम्भावित असर और भविष्य की तैयारी

कोविड-19 एक अनिश्चित अन्त की कहानी है। हालाँकि, यह निश्चित है कि इसने व्यवसाय के लिए नयी चुनौतियाँ पेश की हैं, जिनसे निबटने के लिए राजनीतिक और व्यापारिक नेतृत्व से एक व्यावहारिक और परिपक्व दृष्टिकोण की अपेक्षा है। हमें यह भी महसूस करने की ज़रूरत है कि कोविड-19 हमें एक ऐसी स्थिति की तरफ ले जा सकता है, जहाँ व्यवसायों और अर्थ-व्यवस्थाओं को कोविड-19 बाद की स्थिति के लिहाज़ से जागरूक और तैयार रहने की ज़रूरत होगी। रिसर्च नतीजों के आधार पर हमें यह भी महसूस करने की आवश्यकता है कि एक नयी महामारी के फैलने के समय में उपभोक्ता के व्यवहार में विमुखता दिखने लगती है।

01 अप्रैल से नया वित्तीय वर्ष शुरू हो चुका है। नोवेल कोरोना वायरस ने 150 से अधिक देशों में 30 लाख से ज़्यादा लोगों को प्रभावित किया है। यह माना जाता है कि भारत अन्य उन्नत देशों की तुलना में बेहतर तरीके से इससे उबरेगा। यूएनसीटीडी की नवीनतम रिपोर्ट में भविष्यवाणी की गयी है कि मंदी के सबसे कम असर वाली प्रमुख अर्थ-व्यवस्थाएँ चीन और भारत होंगी।

एक बहुराष्ट्रीय पेशेवर सेवा नेटवर्क केपीएमजी ने एक अध्ययन रिपोर्ट सामने रखी है, जो व्यावसायिक परिदृश्य पर दूरदॢशता प्रदान करती है। इस रिपोर्ट में इस महामारी के प्रभाव का विश्लेषण करते हुए लॉकडाउन के बीच भारतीय अर्थ-व्यवस्था की समग्र स्थिति पर कुछ प्रकाश डाला गया है। इसमें कहा गया है कि अगर भारत में कोविड-19 और फैलने से लॉकडाउन बढ़ा और वैश्विक अर्थ-व्यवस्था मंदी के गर्त में गयी, तो इस साल भारत की वृद्धि दर तीन प्रतिशत से नीचे फिसल सकती है। इससे सकल घरेलू उत्पाद में तीन प्रमुख योगदानकर्ता- निजी खपत, निवेश और बाहरी व्यापार; सभी प्रभावित होंगे। ऐसे में वैश्विक मंदी और बढ़ेगी और यह अर्थ-व्यवस्था पर दोहरी मार होगी। क्योंकि घरेलू और वैश्विक माँग, दोनों को इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा। केपीएमजी रिपोर्ट में कहा गया है कि लम्बे समय तक लॉकडाउन आॢथक परेशानियों को बढ़ायेगा। इस परिदृश्य में भारत का विकास तीन फीसदी से नीचे आ सकता है।

रिपोर्ट में केएमएमजी के (भारत में) चेयरमैन और सीईओ अरुण एम. कुमार कहते हैं- ‘कोविड-19 आपूर्ति, माँग और बाज़ार को बड़ा झटका है। वायरस फैलने से रोकने के लिए उठाये गये राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन जैसे कदमों ने आॢथक गतिविधियों में एक ठहराव ला दिया है; जिसका उपभोग और निवेश दोनों पर प्रभाव पड़ता है।’ उनके मुताबिक, इस प्रकोप में कुछ क्षेत्रों को छोड़कर भारतीय कारोबार सम्भवत: मध्यवर्ती आयात पर अपेक्षाकृत कम निर्भरता के कारण वैश्विक आपूॢत शृंखला व्यवधानों से खुद को बचा सकता है और वायरस संक्रमित राष्ट्रों को उसका निर्यात नयी ऊँचाइयाँ छू सकता है।

प्रभाव वाले क्षेत्र

शहरी गतिविधियों के अचानक रुकने से गैर-ज़रूरी सामानों की खपत में भारी गिरावट आयी है। शहरी भारत में लगभग 37 फीसदी नियमित वेतन और वेतनभोगी कर्मचारी अनौपचारिक क्षेत्र (गैर-कृषि क्षेत्र) में हैं और उन्हें अनिश्चित आय स्थिति का सामना करना पड़ेगा। इससे कॉन्ट्रेक्ट वेतन वाले कर्मचारियों की छँटनी से उनमें अशान्ति और क्रय शक्ति की कमी जैसे विपरीत प्रभाव पड़ सकते हैं। अध्ययन में देश के सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों पर कोरोना वायरस प्रभाव का आकलन भी किया गया है। इसका बड़ा असर परिधान और वस्त्र, ऑटो और ऑटो घटक, विमानन और पर्यटन, भवन और निर्माण, रसायन और उर्वरक, उपभोक्ता खुदरा, इंटरनेट, शिक्षा और कौशल, वित्तीय सेवाओं, खाद्य और कृषि, धातु और खनन, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम, तेल और गैस, फार्मास्यूटिकल्स, बिजली, दूरसंचार, परिवहन और रसद आदि सेक्टरों पर पड़ेगा। रेस्तरां के उदाहरण से पता चलता है कि 18 मार्च से रात्रिभोज (डिनर) में 89 फीसदी गिरावट आयी है और आने वाले समय में यह गिरावट 100 फीसदी हो सकती है, जिसके परिणामस्वरूप  रेस्तरां कर्मचारियों की छँटनी हो सकती है। इसके अलावा डॉलर की मज़बूती ने ऋणधारकों को चोट पहुँचायी है। क्योंकि अन्य मुद्राएँ कमज़ोर हुई हैं। आपसी दूरी के नियम से बड़े समारोह रद्द हुए हैं, जिससे खपत में कटौती आयी है। यह रिपोर्ट महामारी के बीच भारतीय अर्थ-व्यवस्था की समग्र स्थिति पर कुछ प्रकाश डालती है। इसका प्रसार रोकने के लिए उठाये गये कदमों, जैसे- 40 दिन से अधिक का राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन और कई राज्यों के पूर्ण लॉकडाउन ने आॢथक गतिविधियों को लगभग ठप कर दिया है। यह स्थिति उपभोग और निवेश दोनों को प्रभावित कर रही है। हालाँकि, मध्यवर्ती आयात पर अपेक्षाकृत कम निर्भरता के कारण कुछ क्षेत्रों को छोड़कर भारतीय कारोबार वैश्विक आपूॢत शृंखला व्यवधान से खुद को बचा सकता है।

केपीएमजी रिपोर्ट में ने भारत के बारे में कहा गया है कि कोविड-19 के दुनिया भर में जल्दी खत्म होने की स्थिति में अप्रैल अन्त से मई मध्य तक भारत की जीडीपी वृद्धि 5.3 फीसदी से 5.7 फीसदी तक दर्ज की जा सकती है। हालाँकि अगर भारत वायरस पर नियंत्रण पा लेता है, लेकिन वैश्विक मंदी रहती है; तो यह विकास दर 4 से 4.5 फीसदी के बीच हो सकती है। रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक आपूर्ति शृंखला व्यवधान के बाजजूद भले ही कुछ क्षेत्र मध्यवर्ती आयात पर अपेक्षाकृत कम निर्भरता के कारण खुद को नुकसान से बचा सकते हों, पर लॉकडाउन का उपभोग क्षेत्र पर सबसे अधिक प्रभाव पडऩे की उम्मीद है। संक्रमित राष्ट्रों का निर्यात प्रभावित हो सकता है।

वहीं शहरी गतिविधि के अचानक रुकने से गैर-ज़रूरी सामानों की खपत में भारी गिरावट आयेगी। अगर लॉकडाउन से आवश्यक घरेलू आपूर्ति प्रभावित होती है, तो यह प्रभाव और भी गम्भीर होगा। इससे आपूर्ति शृंखला प्रतिबन्ध और अपेक्षित श्रम प्रवास वसूली के लिए अन्य बाधाएँ पैदा हो सकती हैं। अप्रैल-जून तिमाही में कपड़ा और परिधान उत्पादन 10 फीसदी घटकर 12 फीसदी रहने की सम्भावना है। रिपोर्ट में कहा गया है कि ऑटो कम्पोनेंट्स की सोॄसग से दुनिया भर में सप्लाई चेन में गड़बड़ी हो सकती है। हालाँकि, यह भी कहा गया है कि भारतीय ऑटो घटक उद्योग मध्यम से दीर्घावधि में आपूर्ति के वैकल्पिक स्रोत के रूप में उबर सकता है।

भारतीय पर्यटन और आतिथ्य उद्योग को लगभग 38 मिलियन और कुल कार्यबल का लगभग 70 फीसदी सम्भावित नुकसान हो सकता है। नये लॉन्च में बड़ी कमी के कारण आवास क्षेत्र कमज़ोर माँग की स्थिति झेल सकता है। पेट्रो तेल की कीमतों में कमी के कारण पेट्रो केमिकल की कीमतें कम रहेंगी। अनिश्चित घरेलू और वैश्विक माँग पर प्रभाव पड़ेगा। इसके अलावा खुदरा वित्त उद्योग, बैंङ्क्षकग और एनबीएफसी क्षेत्र, जो प्रमुख वाहकों में से एक है; पर ऋण वृद्धि के लिए कम-से-कम दो तिमाहियों के लिए प्रभाव पड़ेगा। चूँकि खाद्य और कृषि राष्ट्र की रीढ़ हैं और सरकार की घोषणा में आवश्यक श्रेणी का हिस्सा हैं; लिहाज़ा प्राथमिक कृषि उत्पादन, बीज, कीटनाशक और उर्वरक जैसे कृषि-आदानों के उपयोग पर कम प्रभाव पडऩे की उम्मीद है। हालाँकि, ऐसे में प्रवासी मज़दूरों की गतिविधियों का खास महत्त्व होता है। यह एक तथ्य है कि 2019-20 की तीसरी तिमाही में भारत का वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद छ: साल में सबसे कम हो गया है और अब कोविड-19 ने नयी चुनौतियाँ पैदा कर दी हैं।

कोविड-19 के बाद

हम नये आॢथक हालात के सामने होंगे। सात प्रकार के व्यवसाय परिदृश्य – स्थानीयकरण की ओर जाना, डिजिटल को वास्तविक प्रोत्साहन, नकदी की प्रधानता, अस्थायी लागत मॉडल की तरफ बढऩा, बिल्डिंग सेंसिंग और कंट्रोल टॉवर क्षमताएँ, आपूॢत शृंखला लचीलापन और निर्माण में चपलता आदि केवल भारत तक ही सीमित नहीं होंगे, बल्कि दुनिया को भी प्रभावित करेंगे।

लम्बा और स्वस्थ जीवन कैसे पायें?

हमारे यहाँ कुछ प्रसिद्ध कहावतें हैं- ‘प्रसन्न रहो, स्वस्थ रहो।’  ‘परिश्रम से मन और शरीर स्वस्थ रहते हैं।’ ‘अपना आज सँभालो, आपका कल सुरक्षित हो जाएगा।’ ‘आज बूँद-बूँद घड़ा भरो, कल वह घड़ा आपके काम आएगा।’ ‘जवानी सँभाल कर रखो, बुढ़ापा सँवर जाएगा।’ इन कहावतों पर भले ही बहुत कम लोग अमल करते हैं, लेकिन जो इन पर अमल करते हैं, वे वाकई लम्बी और स्वस्थ ज़िन्दगी जीते हैं। 100 वर्ष जीने वालों के सर्वे से पता चला है कि ऐसे लोगों ने जवानी में भरपूर स्वास्थ्य वद्र्धक पौष्टिक भोजन किया, परिश्रम किया, व्यायाम किया और चिन्तामुक्त जीवन बिताया।

आपने देखा होगा कि जो लोग आलसी नहीं हैं, वे हर समय उत्साह से भरे रहते हैं। जो किसी-न-किसी कार्य में संलग्न रहते हैं, वे प्राय: दीर्घजीवी होते हैं। वैसे तो मृत्यु और जीवन का समय निश्चित है। इसे घटाना या बढ़ाना किसी के बस में नहीं। लेकिन जीवन को सुन्दर बनाना, सफर को सुहावना और आनन्दमय बनाना और स्वस्थ रहना तो आपके बस में है।

आर्युवेदाचार्य कहते हैं कि कोई भी बीमारी अकस्मात् नहीं आती। पहले वह इतने कम प्रभाव से आती है कि शुरू में उसका पता तक नहीं चलता। बाद में उसकी जड़ बनती है और धीरे-धीरे वह शरीर में पनपती है। एक सत्य यह भी है कि कोई बीमारी कभी अपने आप नहीं आती, उसे हम निमंत्रण देते हैं; तभी वह हमारे शरीर को आ घेरती है।

अधिक आराम करने से बचें

यह प्रकृति के अनुसार ही है कि जीवेम् शरद:शतम्। चलता हुआ आदमी और दौड़ता हुआ घोड़ा कभी बूढ़ा नहीं होता। इसलिए हमेशा किसी-न-किसी काम में शरीर को उलझाये रहना चाहिए। लेकिन ऐसे कामों में ही, जिनसे शरीर को और हमें नुकसान न हो। शरीर को आराम देने का मतलब है- शरीर के साथ-साथ जीवन के सुखों को क्षीण करना। आप सोच रहे होंगे कि आराम करने से शरीर का कौन-सा नुकसान होगा? तो यह भी जान लीजिए- जब आप ज़रूरत से ज़्यादा आराम करने लगते हैं, तब शरीर की मांसपेशियाँ, नसें, इंद्रियाँ शिथिल पड़ जाती हैं, जिससे शरीर में रक्त का दौड़ान कम होता है। इससे शरीर के विभिन्न अंगों को भरपूर रक्त और पोषक तत्त्व नहीं मिलते, जिसके चलते शरीर कमज़ोर होने लगता है; हड्डियाँ और मांसपेशियाँ अकड़ जाती हैं और कमज़ोरी महसूस होने लगती है। और अधिक विश्राम करने के बाद काम करने की इच्छा शक्ति खत्म हो जाती है। इसके साथ ही धीरे-धीरे शरीर विभिन्न रोगों से घिर जाता है। वहीं, काम न करके हम उत्पादन भी कम करते हैं यानी धन आदि का अर्जन भी नहीं होता। दरअसल, हमारे शरीर की शिथिलता हमें जल्द ही बीमार, बूढ़ा और कमज़ोर बना देती है।

मन के बुढ़ापे से तन का बुढ़ापा

यह भी कही जाती है कि मन का बुढ़ापा ही तन का बुढ़ापा लाता है। यह बात बिल्कुल सही है। जब हमारा मन कमज़ोर या आलसी होता है, तो उसका असर हमारे काम करने की क्षमता पर पडऩे लगता है। दरअसल, मन का आलस  भी शरीर को आराम देने की कोशिशों का ही नतीजा होता है। इसी तरह शारीरिक थकान से मानसिक थकान भी आती है। लेकिन अधिकतर मानसिक परेशानियाँ, तनाव भी मानसिक थकान का कारण बनते हैं, जिससे शरीर थकान महसूस करता है और फिर काम न करने से वह जर्जर और खण्डहर-सा बनने लगता है।

क्या करना चाहिए?

सबसे पहले तो शरीर से भरपूर काम लें, ताकि अच्छी तरह भोजन कर सकें और उसे पचा भी सकें। शरीर जब मेहनत कर चुका होता है, तो उसमें भोजन को पचाने की भरपूर क्षमता होती है। हमेशा प्रसन्न मन से रसास्वादन में डूबकर भोजन करना चाहिए। अक्सर देखा जाता है कि हम पोष्टिक भोजन नहीं करते, लेकिन जब बीमार पड़ते हैं, तो महँगी-से-महँगी दवा खाते हैं। क्यों न पहले से ही पोष्टिक भोजन करें। इसके अलावा जहाँ तक सम्भव हो बासी भोजन न करें। खासतौर पर रात का रखे भोजन को सुबह गर्म करके तो बिल्कुल न खाएँ। इससे न केवल हमारी सेहत खराब होगी, बल्कि भोजन से अरुचि भी पैदा होगी, जिससे हमारी स्वाद ग्रंथियाँ कमज़ोर होने लगेंगी और हमारी भोजन के प्रति अरुचि बढ़ती जाएगी।

इसके अलावा चिड़चिड़ा स्वभाव रखने, बात-बात पर झुंझलाने, बात-बात पर गुस्सा करने, हर चीड़ में कमियाँ निकालने से बचें। क्योंकि यह भी एक प्रकार का रोग है, जिसे मानसिक रोगों की श्रेणी में रखा गया है। अगर ये आदतें आपमें हैं, तो इनसे जितनी जल्दी हो सके, छुटकारा पा लीजिए, अन्यथा अनेक बीमारियाँ आपको घेर सकती हैं। इसके अलावा हमेशा सुखद और अच्छे विचार कीजिए, सकारात्मक और सुन्दर कल्पनाएँ मन में सँजोकर रखिए, हर किसी से उत्तम व्यवहार कीजिए और मधुर बोलिए।

आर्युवेदाचार्यों और वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर दिल-ओ-दिमाग में कुविचार में आयें, तो उनका विपरीत प्रभाव शरीर की कोशिकाओं पर ज़रूर पड़ता है। यह भी कहा गया है कि अगर मन प्रसन्न रहता है, तो  शरीर कोशिकाओं पर अच्छा और स्वास्थ्यवर्धक प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार अधिक बोलने वाले लोगों की अपेक्षा कम बोलने वाले और शान्त रहने वाले लोग ज़्यादा लम्बी उम्र जीते हैं।

गज़लें

है दूर तलक यूँ तो अँधेरा मेरे आगे

1          है दूर तलक यूँ तो अँधेरा मेरे आगे

            है मुझको यकीं होगा उजाला मेरे आगे

            बिटिया तू रसोई से ज़रा दाने तो ले आ

            इक आस में बैठा है परिन्दा मेरे आगे

            बेटे मैं तेरी माँ हूँ ज़रा बोल अदब से

            अच्छा नहीं है ये तेरा लहज़ा मेरे आगे

            लगता है मेरी हार पे वो खुश तो बहुत है

            करता है मगर दुख का दिखावा मेरे आगे

            सजदे में उसी सूर्य के झुकता है मेरा सर

            रखता है जो हर रोज़ उजाला मेरे आगे

2          वो अपने सिवा औरों की सोचा नहीं करते

            कुछ ऐसे शजर भी हैं जो साया नहीं करते

            कायम रहें रिश्ते तो सुकूँ होता है हासिल

            पंछी को कभी बाँध के रक्खा नहीं करते

            सावन में कभी डाले थे जिन पेड़ों पे झूले

            उन पेड़ों को बेदर्दी से काटा नहीं करते

            हम परदानशीनों के तरफदार हैं फिर भी

            आँखों में हया रखते हैं, परदा नहीं करते

            खुशबू तो बिखरने से कभी रुक नहीं सकती

            हर वक्त हवाओं का ही शिकवा नहीं करते

            गिरने दो, सँभलने दो उन्हें खुद ही तो अच्छा

            बच्चों को हर इक बात में टोका नहीं करते

            माँ-बाप का साया जो उठा सर से हमारे

            अब कौन दिलासा दे कि चिन्ता नहीं करते

            तकरीर में ही जोश दिखाते हैं ये नेता

            सरहद पे तो बेटों को ये भेजा नहीं करते

चलो अपना हिन्दोस्ताँ  अब तलाशें

1          वही   खूबसूरत   जहाँ   अब तलाशें

            चलो अपना  हिन्दोस्ताँ  अब  तलाशें

            तआस्सुब, बगावत, न फतवों की बातें

            मुहब्बत की बानी-अज़ाँ अब तलाशें

            शगुफ्ता कली, सुर्ख गुल शाख पर हों

            वो बाद-ए-सबा गुलसिताँ अब तलाशें

            बहुत  हो  गयी  तीरगी  की  हिमायत

            सितारों भरी  कहकशाँ  अब  तलाशें

            जहाँ सूर, तुलसी  हों,  मीरा,  कबीरा,

            हम ऐसा कोई  कारवाँ  अब  तलाशें

2          तुम्हारी नज़र राजधानी गज़ल की

            तुम्हें लोग कहते हैं रानी गज़ल की

            सज़ाकर इसे अपनी पलकों पे रखना

            जो मैं दे रहा हूँ निशानी गज़ल की

            तुम्हारे ही दरिया-ए-दिल में उतरकर

            मुझे देखनी है  रवानी  गज़ल की

            तग•ज़ुल का जिसमें सलीका, हुनर है

            उसी पर हुई मेहरबानी गज़ल की

            मेरा इश्क जब तक अधूरा रहेगा

            अधूरी रहेगी  कहानी गज़ल की

            खिज़ाओं से कह दो चमन में न आएँ

            अभी रुत है छायी सुहानी गज़ल की

            तुम्हीं आबरू, आरज़ू, जुस्तजू हो

            तुम्हीं से है शोहरत पुरानी गज़ल की

            तसव्वुर में ‘सागर’ के आयी है जबसे

            सँवरने लगी ज़िन्दगानी गज़ल की

सआदत हसन मंटो और लघु कथाओं का साम्राज्य

दिग्गज साहित्यकार सआदत हसन मंटो की 11 मई को 108वीं जयंती मनायी जाएगी। इस अवसर पर पंजाब सरकार इस प्रतिभाशाली लेखक को सलाम करते हुए कई कार्यक्रमों का आयोजन कर रही है। मंटो का जन्म 11 मई, 1912 को पंजाब के लुधियाना शहर में हुआ था। वह अपना लेखन उर्दू भाषा में करते थे। ‘बू’, ‘खोल दो’, ‘ठंडा गोश्त’ उनकी चॢचत लघुकथाओं में से हैं। 18 जनवरी, 1955 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

हर साल सआदत हसन मंटो के जन्मदिन के आसपास मेरे दिमाग में यह बात आती है कि आज अगर वह जीवित होते, तो वर्तमान उथल-पुथल वाले हालात को देखते हुए कैसा अनुभव करते और क्या लिख रहे होते? बेशक, उन्हें तत्कालीन भयावह मानवीय हालात ने कई छोटी और लम्बी कहानियाँ लिखने के लिए मजबूर किया होगा।

मंटो ने लम्बे समय तक एक बेहतर दुनिया की ओर ले जाने वाली रचनाएँ लिखीं। आज भी बहुत से लोग लघु कथाएँ लिख रहे हैं। जहाँ कुछ-कुछ या सब कुछ लघु कथा से जुड़ रहा है। पाठक पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिये बिना सच्ची और अच्छी कहानियों को बयाँ किया जा रहा है।

मुझे इस बात का बिल्कुल एहसास नहीं था कि आज भी ऐसी बहुत-सी लघु कथाएँ लिखी जा रही हैं, जिनको फ्लैश फिक्शन कहा जाता है। वास्तव में इसकी जानकारी तब मिली, जब मार्च के दूसरे सप्ताह में दिल्ली के लेखिका-कवयित्री जयश्री मिश्रा त्रिपाठी द्वारा आयोजित लेखक मण्डली में शामिल होने का मौका मिला। गुडग़ाँव (गुरुग्राम) के लेखक और कवि सहाना अहमद को सुना और उनकी फ्लैश ​फिक्शन-लघु कथाओं के बारे में जानने का अवसर मिला।

अगर सआदत हसन मंटो को लघुकथा का बादशाह कहा जा सकता है, तो मैं सहाना अहमद को फ्लैश फिक्शन की बेगम कह सकती हूँ।

परम्पराओं पर चोट करतीं लघु कथाएँ

जैसा कि मैंने उल्लेख किया है कि हमारे बीच बहुत-सी लघु कथाएँ लिखी जा रही हैं। दिल्ली के लेखिका, कवयित्री मंदिरा घोष की लघु कथाएँ- ‘ब्रोकन वॉल’ (टूटी हुई दीवार) का विमोचन इसी गर्मी में किया जाना था। लेकिन देश भर में चल रहे लॉकडाउन के कारण इसमें देरी हो गयी। उनके इस नवीनतम कहानियों के संग्रह पर कुछ उद्धृत करने के लिए कहा जाए, तो कह सकते हैं कि ‘कहानियाँ सकारात्मकता का संदेश देती हैं। किसी से बैर नहीं करतीं।

एक पराजित महिला का कोई मुकाबला नहीं…दीवार टूट गयी थी और इस तरह पारम्परिक सीमाएँ भी टूट गयीं।’ लघुकथा के इस संग्रह में आधुनिक माँओं को ध्यान में रखकर लिखा गया है। कहानियों में महिलाओं को आँखों से देखा जाता है। कभी-कभी घर में कैद की स्थिति तो इनमें से कुछ दीवार को तोड़ सकती हैं।’

लॉकडाउन से कुछ हफ्ते पहले जयश्री मिश्रा त्रिपाठी की लघुकथाओं के संग्रह- ‘व्हाट नॉट वर्ड्स – शॉर्ट स्टोरीज सेट इन इंडिया एंड द डायस्पोरा’ का विमोचन किया गया। इसकी कहानियाँ देश में और इसके बाहर उनकी यात्रा के इर्द-गिर्द घूमती हैं। उसे उद्धृत करने के लिए मैंने इन कहानियों को घटनाओं की टेपेस्ट्री  पेश करने के लिए लिखा है कि जो मेरी अपनी मातृभूमि भारत सहित विभिन्न संस्कृतियों की यादों के साथ बुनी है… यहाँ तक कि कैथरिस की भावना है; फिर भी उत्तर मायावी है और भविष्य में बदलना चाह रहे हैं। जवाब की तलाश में समय बीतता जाता रहेगा। हम पल भर के लिए रुक जाते हैं।

अब हालिया खबर आ रही है कि लंदन की लेखिका-कवयित्री दिव्या माथुर को अपने लेखन और कार्यों के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से नवाज़ा जा रहा है। मैं लंदन में उनसे पिछली गॢमयों में मिली थी; साथ में मित्र अचला शर्मा और परवेज़ आलम थे।

वास्तव में यह हमारे लिए खुशी की बात थी कि दिव्या माथुर से मुलाकात हुई, जो बेहद विनम्र और बेदाग छवि की हैं; जिन्होंने साहित्य के लिए काफी योगदान दिया है। बेशक उनके लेखन और पुस्तकों के विशाल संग्रह से इतर यह भी तथ्य है कि उन्होंने लंदन में एक साहित्यिक मंच स्थापित करने में अहम भूमिका निभायी, जहाँ पर कवि और लेखक जुटते हैं।

मैं उनकी रचनाओं और साहित्यिक दुनिया में उनके योगदान को लेकर विस्तार से लिखना चाहती हूँ। लेकिन समय के अभाव में ऐसा सम्भव नहीं हो पा रहा है। इसलिए उनको उद्धृत करना सबसे अच्छा है। मुझे वेबसाइट से उनकी ये पंक्तियाँ मिलीं- ‘मैं एक कवयित्री, कहानीकार और एक उपन्यासकार हूँ; मैंने 17 पुस्तकों का प्रकाशन या सम्पादन किया है। रॉयल सोसायटी ऑफ आट्र्स की एक नामांकित फेलो; मेरा मकसद भारतीय समुदाय की सांस्कृतिक आकांक्षाओं और विचारों के स्तर पर भारत-ब्रिटिश संवाद को वातायन : पोएट्री ऑफ साउथ बैंक के ज़रिये बढ़ावा देना और दूसरों तक पहुँचाना है; जिसकी स्थापना मैंने 2003 में की थी।’

लघु कथा

हम बम्बई छोड़ रहे हैं

हम बम्बई छोड़ रहे हैं। अब हम यहाँ किराया नहीं दे सकते। मकान मालकिन इस महीने फिर 10 प्रतिशत का इजाफा कर रही है। वह ब्लॉन्डी पहनती है और बार-बार डाॄलग जैसे तमाम शब्दों का इस्तेमाल करती है। वह बेइंतहा झूठ बोलती है। यहाँ तक कि हमसे वादा किया था कि हम दरवाज़े पर नेमप्लेट नहीं लगाएँगे।

अहमद और मैं इस पर राज़ी भी थे; क्योंकि यहाँ हमें कोई भी नहीं जानता था कि इस फ्लैट में हम रहते हैं। यहाँ तक कि टॉवर्स में भी कोई नहीं जानता था।

दक्षिण बम्बई में रहना कभी आसान नहीं होता। मुझे पता है कि यह शहर ही सब है। लेकिन मानसून में यहाँ सब कुछ जलमग्न हो जाता है और इधर काम वाली बाई को रखना भी महँगा पड़ता है। मेरे चार बच्चे हैं और वे बीमार पड़ते रहते हैं। …और वह (नौकरानी) हमसे पैसे उधार लेती रहती है। मैंने उससे पूछा कि क्या उसका पति एक रसोइया है? क्योंकि ज़्यादातर नेपाली पुरुष यही काम करते हैं।

‘नहीं, वह पढ़ा-लिखा है!’ -उसने (नौकरानी ने) मुझे झिड़कते हुए अंदाज़ में कहा।

‘उसके पास एक बढिय़ा-सी फार्मेसी की नौकरी है। लेकिन कोई भी रात में दो बजे एक फार्मेसी वाले को पैसे नहीं देता है। है ना!’

वह बोली- ‘एक नौकरानी के काम के अपने भत्ते होते हैं।’

मैं कभी-कभी उसकी ओर देखती हूँ और सोचती हूँ कि वह अपना नाम तक लिखना नहीं जानती है; लेकिन वह पैसे कमाती है, और मैं ऐसा नहीं कर पाती। अहमद मुझसे कहता है कि खुद पर इतना ज़्यादा सख्त होना अच्छा नहीं है।

मैंने उस नौकरानी को इसलिए काम पर रखा, क्योंकि उसने ज़ोर देकर कहा था कि ज़िन्दगी में उसने कभी धूम्रपान नहीं किया है। हालाँकि उसने उस दिन ब्रा तक नहीं पहनी हुई थी। वह नेपाल से है; लेकिन चीनी महिलाओं की तरह दिखती नहीं है। मैंने उससे कभी नहीं पूछा कि उसकी जाति क्या है? और मैंने उसे अपने ही गिलास से कभी पानी पीने से भी मना नहीं किया। लेकिन कल उसने मुझसे पूछा कि क्या यह सच है कि आप मुस्लिम हैं?

‘क्यों इससे कोई दिक्कत है क्या?’

‘नहीं, यह सिर्फ इतना है कि आप बािकयों जैसे नहीं दिखेंगी।’

‘क्यों? आप भी तो एक नेपाली की तरह नहीं दिखती हो।’

इससे वह बेहद खुश लगी। मुझे शक है कि वह काले जादू में है। लेकिन यह मेरे किसी काम का नहीं है। हम बम्बई छोड़ रहे हैं!

लॉकडाउन में क्या कर रहे फिल्मी सितारे?

मदद करते-करते आॢथक तंगी में आये प्रकाश राज

कोरोना वायरस के संक्रमण के चलते देश भर में हुए लॉकडाउन के समय में गरीबों की मदद को प्रसिद्ध अभिनेता प्रकाश राज काफी दिन पहले ही अपना खजाना खोल चुके हैं। प्रकाश राज अपने फाउंडेशन के ज़रिये लगातार गरीबों की मदद कर रहे हैं। वे अब तक चुपचाप लोगों की इतनी मदद कर चुके हैं कि उन्हें खुद आॢथक तंगी ने घेरना शुरू कर दिया है। मगर उन्होंने कहा है कि चाहे उन्हें कर्ज़ लेकर गरीब और ज़रूरतमंद लोगों की मदद करनी पड़े, मगर वे उनकी मदद करने से पीछे नहीं हटेंगे। यह बात उन्होंने हाल ही में सोशल मीडिया पर कही थी। इसके अलावा उन्होंने ट्वीट करके लिखा कि उनके वित्तीय संसाधन घटते जा रहे हैं, लेकिन वे लोन लेकर लोगों की मदद करेंगे। उन्होंने कहा कि पैसा तो वह दोबारा कमा सकते हैं, मगर इंसानियत ज़िंदा रहनी चाहिए। उन्होंने बाक़ी सम्पन्न लोगों से भी कहा है कि चलिए साथ मिलकर लड़ते हैं, वापस ज़िन्दगी की ओर आते हैं। वे इन दिनों लगातार मज़दूरों, बेघरों को खाना खिलाने के साथ-साथ ज़रूरी सामान वितरित कर रहे हैं। बता दें कि प्रकाश राज अपनी साफगोई के लिए लोगों के काफी प्रिय बन चुके हैं। वह सच पर इतनी मज़बूती से टिके रहते हैं कि गलत बात पर सरकार को भी लताडऩे में कसर नहीं छोड़ते।

बड़े लोगों से मदद की अपील कर रहे राजपाल यादव

कॉमेडी रोल के लिए मशहूर राजपाल यादव पिछले काफी समय से आॢथक तंगी से गुज़र रहे हैं। अपने करियर की शुरुआत के कुछ साल बाद ही एक फिल्म के निर्माण के चलते उन पर कर्ज़ हो गया था, जिसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। लेकिन उन्होंने हिम्मत कभी नहीं हारी और लगातार कर्ज़ से उबरने के लिए संघर्ष करते रहे। लेकिन फिर भी वे लोगों की मदद करने से पीछे नहीं हटते।

संतों की सेवा में उनका बहुत मन लगता है और वह हर इंसान की इज़्ज़त करते हैं। हालाँकि, अब ऐसा नहीं है कि उन्हें किसी तरह की कोई तंगी है, लेकिन इस संकट की घड़ी में वह बहुत बड़े पैमाने पर तो लोगों की मदद नहीं कर सकते। ऐसे में उन्होंने हाल ही में सोशल मीडिया के ज़रिये रईस लोगों से हाथ जोड़कर गरीबों और दूसरे राज्यों में फँसे लोगों की हर सम्भव मदद करने की अपील की थी। उन्होंने कहा था कि यह (मज़दूर) वर्ग ही आपकी कम्पनियों, संस्थानों को चलाने वाला है। इसलिए इस संकट के समय में इनकी दिल खोलकर मदद करें। पैसे का क्या है, पैसा तो बाद में भी आप लोग कमा लेंगे; लेकिन अगर ज़िन्दगी नहीं बचेगी, तो यह पैसा किसी काम का नहीं रहेगा।

पालघर मॉब लिंचिंग पर बिफरे फरहान अख्तर

मुम्बई के निकट पालघर ज़िले में दो साधुओं और एक ड्राइवर की मॉब लिंचिंग के बाद मौत होने पर पूरे देश में गहमागहमी शुरू हो गयी है। ऐसे में बॉलीवुड भी इससे अछूता नहीं है। इस घटना से क्षुब्ध फरहान अख्तर ने भी झट से एक ट्वीट कर डाला। उन्होंने लिखा कि वह इस हिंसा की कड़ी निंदा करते हैं, जिसने तीन लोगों की ज़िन्दगी छीन ली।

उपद्रवी भीड़ की समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। फरहान के इस ट्वीट की लोग प्रशंसा कर रहे हैं। बता दें कि अभिनेता फरहान अख्तर अपनी साफगोई और बेबाक विचारों के लिए जाने जाते हैं। फरहान के बारे में कहा जाता है कि वह किसी भी गलत बात को बर्दाश्त नहीं करते। पिछले दिनों उन्होंने सीएए (नागरिकता कानून) का जमकर विरोध किया था, जिसके चलते वे सोशल मीडिया पर ट्रोल भी हुए थे और एक आईएएस अधिकारी ने उनके खिलाफ कार्रवाई की माँग भी की थी, लेकिन फरहान अपनी बात पर अडिग रहे।

थाने तक पहुँची अनुराग कश्यप और अशोक पंडित की बहस

पालघर की घटना को लेकर बॉलीवुड के मशहूर डायरेक्टर अनुराग कश्यप और प्रोड्यूसर अशोक पंडित भिड़ गये। दोनों की इस भिड़ंत का कारण अनुराग कश्यप का एक ट्वीट रहा। दरअसल, अनुराग कश्यप ने पालघर की घटना को लेकर एक ट्वीट किया। जिसमें उन्होंने लोगों से अपील की कि इस मुद्दे को धार्मिकता से न जोड़ें। इस ट्वीट पर टिप्पणी करते हुए अशोक पंडित ने कहा कि इस मॉब लिंचिंग में शोएब नाम का व्यक्ति शामिल है। इसके बाद दोनों में ट्वीटर पर इस कदर बहस बढ़ी कि अनुराग कश्यप ने अशोक पंडित के खिलाफ पुलिस थाने में शिकायत कर दी। अब इन दोनों लोगों की लड़ाई का अंजाम क्या होगा, नहीं मालूम। लेकिन इतना बता दें कि फिल्मी दुनिया के लोग भी आम जीवन में आम लोगों की तरह खट्टी-मीठी तकरार करते रहते हैं।

दम से ज़्यादा दम्भ

सारी दुनिया कितनी पागल लगती है।

ईश्वर की रक्षा का दावा करती है।।

मेरे इस मतले का मतलब बहुत सीधा-सा है।     अब लोग ईश्वर (अपने-अपने मज़हब के हिसाब से बताये गये ईश्वर) की रक्षा का दावा करते हैं।  वाकई ये कितने पागल लोग हैं! आज के आधुनिक दौर में भी करोड़ों लोग अपने-अपने मज़हबों के नाम पर, अपने-अपने ईश्वर के नाम पर न केवल ङ्क्षहसा करने को तैयार रहते हैं, बल्कि उनमें अनेक तो ङ्क्षहसा करते भी हैं। इसके पीछे कम-से-कम मरने-मारने पर उतारू लोगों में से किसी की भी अक्ल का कोई रोल नहीं होता, बल्कि केवल पागलपन होता है। अपनी-अपनी मान्यताओं और अपने-अपने ईश्वर यानी अपने मज़हब के द्वारा बताये गये ईश्वर के स्वरूप, नाम आदि की रक्षा के दम्भ का पागलपन! सीधे-सीधे कहें, तो वे इस नश्वर और कोमल शरीर के बल-बूते उस अनादि, अनश्वर, अतुलित, अखण्डित और सर्वशक्तिमान की रक्षा का दम्भ भरते हैं, जिसके ब्रह्माण्ड के एक छोटे-से पिण्ड की छोटी-सी जगह पर बने छोटे-छोटे से घर में रहते हैं।

कोई हैसियत नहीं होने पर भी इतना दम्भ! क्या यह सब आपको हैरानी में नहीं डालता? दम नहीं है, लेकिन दम्भ कूट-कूटकर भरा पड़ा है। यही इंसान की विडम्बना है कि वह खुद को ही सृष्टि का सबसे शक्तिशाली जीव समझ लेता है और इसी भ्रम में वह उस ईश्वर की रक्षा करने का भी दम्भ भरने लगता है, जिसने उसे पैदा किया।

ऐसे मूर्ख लोगों का यह दम्भ ईश्वर की रक्षा तो खैर क्या करेगा, लेकिन उनकी रक्षा ज़रूर करता है, जो इसके सहारे ऐश-ओ-आराम करते हैं। सुख की सत्ताओं पर काबिज़ रहते हैं। ऐसे ही लोगों का शैतानी दिमाग इस सबके पीछे काम कर रहा होता है। क्योंकि उनकी सत्ताएँ लोगों के इसी पागलपन पर टिकी होती हैं; चाहे वह मज़हबी सत्ता हो या सियासी सत्ता। हैरानी होती है कि लोग मज़हबों में बतायी गयी बातों को न मानकर मज़हबों को तख्ती गले में लटकाकर घूमने में विश्वास करते हैं। इसी वजह से आज बिना सोचे-समझे लोग एक-दूसरे को मज़हब को पाखण्ड और तुच्छ समझते हैं। यहाँ तक कि उस एक ही ईश्वर को, जो सबका मालिक है; दूसरे मज़हब में अलग नाम से पुकारे जाने के कारण गालियाँ देते हैं। उसे नष्ट करना चाहते हैं और उसी ईश्वर को अपने मज़हब में दिये गये नाम के आधार पर श्रेष्ठ और सच्चा मानकर उसकी रक्षा का दम्भ भरते हैं। कितनी अजीब बात है? यह तो ऐसे ही हुआ, जैसे कोई अपने पिता को पिता कहे और उन्हें पूजे, लेकिन उसी का दूसरा भाई या बहिन अगर उन्हें पिता की जगह पापा या बापा या अब्बा कहे, तो वह व्यक्ति उन लोगों से झगड़ा करे और कहे कि तुम्हारे पापा-बापा-अब्बा तुच्छ हैं, नीच हैं, वो पिता नहीं हो सकते और अपने ही पिता को गालियाँ दे और अपने भाई-बहिन पर हमला करे।

ऐसे मूर्खों का क्या किया जाए? कबीरदास, साईं बाबा, गुरु नानक देव, संत रैदास, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती और न जाने कितने ही संत-फकीर दुनिया को यही समझाते-समझाते संसार से चले गये; पर लोग नहीं सुधरे। कह सकते हैं कि संसार को जोडऩे वालों से, संसार का भला चाहने वालों से ज़्यादा कामयाब वो लोग रहे, जो संसार को तोडऩा चाहते थे। यही वजह है कि हम आज तक दु:खी हैं। हमें आज तक अत्याचार देखने-सहने पड़ रहे हैं। हम पर आज तक बुरे लोग शासन कर रहे हैं। हम आज तक आज़ाद नहीं हो सके हैं। कुछ लोगों को भले ही लगता है कि वे आज़ाद हैं, दुनिया का हर देश आज़ाद है। पर मैं ऐसा नहीं मानता। क्योंकि न तो मनुष्य कभी आज़ाद रहा है और न रह सकता है। इसका कारण यह है कि उसकी अपनी को स्वतंत्र सोच या तो होती नहीं है और अगर होती है, तो उस पर दूसरों की सोच या दूसरों का विरोध या दूसरों का हस्तक्षेप या दूसरों के प्रतिबन्ध हावी होते हैं। इसी के चलते हम सबको कुछ मज़हबी किताबों और कुछ सत्ता के नियमों से बाँध दिया गया है। क्योंकि जो लोग मज़हबी किताबों या सत्ता के नियमों से बाँधकर रखते हैं, उनकी सत्ता इसी पर टिकी है। क्योंकि वे जानते हैं कि अगर सबको स्वतंत्र कर दिया जाएगा, तो उनके ऐश-ओ-आराम का अन्त हो जाएगा; उनकी सत्ता का अन्त हो जाएगा।

इसलिए वे हमें भ्रमजालों में फाँसे रहते हैं और उन बुरे लोगों की क्रूर सत्ता खत्म नहीं हो पाती। दुनिया में अमन-चैन कायम नहीं हो पाता। लोग एक-दूसरे के हितों की रक्षा नहीं कर पाते। लेकिन अगर ऐसा करना है, तो सबसे पहले तो हम सबको यह सत्य पूरे मन से स्वीकार करना होगा कि ईश्वर एक ही है, जो हम सबका पिता है और पूरे ब्रह्माण्ड का वही एक मालिक है। यकीन मानिए, दुनिया भर के तमाम झगड़े, ज़िन्दगी के तमाम दु:ख, तमाम ङ्क्षहसक वारदात, डर, वैमनस्य, घृणा, युद्ध, अभद्रता, शोषण सब खत्म हो जाएँगे और अमन, चैन, सुख कायम हो जाएगा। फिर कोई दु:खी नहीं होगा। फिर कोई किसी से शिकायत नहीं करेगा। फिर कोई किसी की हत्या नहीं करेगा। फिर कोई किसी पर अत्याचार नहीं करेगा। और अगर कोई अत्याचारी होगा भी, तो उसका लोगों द्वारा इतना विरोध हो सकेगा कि उसे अपनी बुराइयों को छोडऩा ही पड़ेगा। इसके लिए सबसे पहला काम यही करना होगा कि हमें ईश्वर की रक्षा का दम्भ छोड़कर अपनी औकात में रहकर उसे एक और सर्वव्यापी मानकर अच्छाई के रास्ते पर चलना होगा।

हमें मानना होगा कि पूरी दुनिया में हर प्राणी उसी की संतान है और धरती की प्रत्येक वस्तु पर जितना हमारा अधिकार है, उतना ही दूसरों का भी है। हमें इस बात को हमेशा मन में रखकर चलना होगा कि कल हम नहीं होंगे, इसलिए जिस तरह हमारे बुजुर्गों ने हमें धरती और उसकी प्राकृतिक सम्पदा सौंपी है, हमें भी उसे सुरक्षित भावी पीढिय़ों को सौंपकर जाना होगा। यह हमारा उत्तरदायित्व है। ऐसा करने से शायद ईश्वर हम सबकी रक्षा करे। तमाम विपत्तियों से, कोरोना और उस जैसी तमाम महामारियों से।

कुपवाड़ा में २ आतंकी ढेर, एलओसी पर पाक फायरिंग में दो सैनिक शहीद, करनाह में एक जवान की हाथ में गोला फटने से गयी जान

कश्मीर में लॉक डाउन के बावजूद आतंकी घटनाएं जारी हैं। कुपवाड़ा जिले में शनिवार को सुरक्षा बलों ने २ आतंकी ढेर किये जबकि पिछले १२ घंटे में वहां कुल ४ आतंकी मारे गए हैं। उधर एलओसी पर पाक की गोलीबारी में दो सैनिक शहीद हो गए जबकि एक की करनाः सेक्टर में हाथ में घपला फटने से मौत हो गयी।

कुपवाड़ा जिले के हंडवाड़ा इलाके के छंजमुल्लाह में एक मुठभेड़ में सुरक्षाबलों ने दो आतंकियों को मार गिराया। यह मुठभेड़ दोपहर करीब २ बजे शुरू हुई थी और तीन घंटे तक चली। जानकारी मिलने के बाद आतंकियों को घेर लिया गया। दोनों तरफ से हुई गोलीबारी में दो आतंकी मारे गए।

इससे पहले पुलवामा जिले के डंगरपोरा इलाके में भी आतंकवादियों से मुठभेड़ में सुरक्षाबलों ने करीब १० घंटे चली गोलीबारी के बाद २ आतंकियों को मार गिराया जबकि अन्य की तलाश जारी है। इस साझे आपरेशन में सीआरपीएफ के अलावा ५५  आरआर बटालियन के जवान शामिल रहे।

मुठभेड़ के दौरान जवानों ने उस घर को मोर्टार से उड़ा दिया जहां आतंकियों ने कब्जा कर रखा था और सुरक्षाबलों पर गोलीबारी कर रहे थे। उधर मुठभेड़ स्थल पर पत्थरबाजों इक्कट्ठे हो गए जिन्हें भगाने के लिए सुरक्षाबलों को बल प्रयोग करना पड़ा। इसमें पांच लोग घायल हुए हैं। जानकारी के मुताबिक दो लोगों को गोली लगी है, हालांकि, अभी इसकी पुष्टि नहीं हुई है।

पाक की फायरिंग
इस बीच कश्मीर के उड़ी सेक्टर में नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर पाकिस्तान की तरफ से की गयी भीषण गोलाबारी में तीन जवान गंभीर रूप से घायल हो गए थे। उन्हें इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती किया गया था लेकिन दो ने शनिवार सुबह दम तोड़ दिया। उनकी पहचान हवलदार गोकर्ण सिंह और नायक शंकर एस के रूप में हुई है।

इसके बाद दोपहर में उत्तरी कश्मीर के कुपवाड़ा इलाके के करनाह सेक्टर में एक सैनिक उस समय शहीद हो गया जब उसके हाथ में हथगोला फूट गया। इस सैनिक की पहचान नायक जोगेंद्र सिंह के रूप में हुई है।

मज़दूरों की मजबूरी : कंक्रीट मिक्सर में जा रहे थे घर, पुलिस ने पकड़ा

कोरोना वायरस के चलते किये गये लॉकडाउन में फँसे मज़दूर भूख-प्यास के चलते अब छटपटाने लगे हैं। ये लोग कोई एक परेशानी नहीं झेल रहे हैं। अगर ये जहाँ हैं, वहाँ रहें, तो भूखे मरें। ऊपर से इन पर मकान का किराया और बढ़ रहा है। बाहर निकलें, तो पुलिस के डण्डे खाएँ। अधिकतर सरकारें भी मज़दूरों की मदद के लिए बिल्कुल सामने नहीं आ रही हैं। पहले तो जो लोग भीड़ बनकर निकल गये, उनमें अधिकतकर जैसे-तैसे अपने घर पहुँच गये। लेकिन अब जो फँसे हुए हैं, वे अपने घर जाने की जुगत निकाल रहे हैं। इसी तरह की जुगत यानी कोशिश में उत्तर प्रदेश के 18 मज़दूर महाराष्ट्र से लखनऊ जा रहे थे। कोई साधन नहीं मिला, तो ये लोग कंक्रीट मिक्सर टैंक में ही अंदर छिपकर बैठ गये। लेकिन मध्य प्रदेश की पुलिस इन्हें इंदौर में धर-दबोचा।
देखने वाली बात यह है कि पुलिस ने मज़दूरों को उनके घरों तक पहुँचाने की बजाय इंसानियत का काम कर रहे टैंकर चालक के ख़िलाफ़ ही रिपोर्ट दर्ज कर ली और टैंकर को थाने में खड़ा कर लिया। दोपहर तक तो मज़दूरों को भी थाने में ही रखा गया। उसके बाद की सूचना नहीं दी गयी। इस मामले में इंदौर के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बताया है कि उक्त मज़दूर कंक्रट मिक्चर टैंक में भरकर महाराष्ट्र से लखनऊ जा रहे थे। पुलिस ने एफआईआर दर्ज करके टैंकर को थाने में खड़ा कर दिया है। सभी लोगों से पूछताछ की जा रही है।
सवाल यह है कि आख़िर राज्य सरकारें मज़दूरों की समस्याओं को ध्यान में क्यों नहीं रख रही हैं? और अगर कोई मज़दूर अगर मुसीबत में घर जा भी रहा है, तो पुलिस उसकी मदद की बजाय उसे तंग क्यों कर रही है? क्या वे देश के नागरिक नहीं हैं? यहाँ प्रवासी मज़दूरों और टैंकर में बैठने की अनुमति देने वाले तथा टैंकर चालक की भी ग़लती ही कही जाएगी। क्योंकि अगर एक दम गोल और बन्द टैंक में इन लोगों को कुछ हो जाता, तो उसकी ज़िम्मेदारी किसकी होती? क्योंकि यह एक ऐसा टैंकर है, जिसमें इंसान का दम भी घुट सकता है। इसकी सम्भावना तब और अधिक हो जाती है, जब इसमें कई लोग एक साथ घुसे हों।

इतिहास में पहली बार अप्रैल में एक भी कार नहीं बिकी

वैश्विक महामारी कोरोना वायरस से यूं तो हर सेक्टर ठप हो गया है सिवाय मेडिकल सेक्टर के। इसमें भी सबसे ज्यादा प्रभावित सेक्टर की बात करें तो वह ऑटो सेक्टर है। इतिहास में पहली बार वित्तीय वर्ष के पहले महीने यानी अप्रैल में ही किसी भी कंपनी की कोई भी कार नहीं बिकी है। यानी इस सेक्टर की कमाई शून्य रही है। इससे सीधे और परोक्ष रूप से करोड़ों लोग जुड़े हुए हैं, जो बुरी तरह से प्रभावित हैं।

अब लाॅकडाउन 3.0 में कुछ रियायत के चलते कहीं-कहीं काम की शुरुआत की जा रही है, पर खौफ बरकरार है। कम्पनियों का कहना है कि महामारी के चलते उत्पाद न के बराबर हुआ है और बिक्री तो शून्य पर आ गई है। थम चुकी अर्थव्यवस्था को सरकाने के लिए सरकार ने प्रतिबंधों में रियायत दी है। वाहन उद्योग की संस्थाओं ने सरकार से ऑटो सेक्टर को पूरी तरह से चालू करने की मांग की है। एक अनुमान के मुताबिक, वाहन उद्योग को रोजाना औसतन 2,300 करोड़ रुपये के कारोबार का नुकसान हो रहा है।

मारुति सुजुकी और हुंडई समेत देश की टॉप कार निर्माता कंपनियों ने बताया कि लॉकडाउन के चलते अप्रैल में उनका कोई वाहन नहीं बिका। इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी पूरे एक महीने के दौरान कंपनियों का एक भी वाहन न बिका हो। महामारी पर रोकथाम के लिए देशभर में 25 मार्च से लॉकडाउन लागू है। इसके कारण वाहन कंपनियों का उत्पादन और बिक्री नेटवर्क पूरी तरह से बंद है। इस दरमियानप कंपनियां कुछ वाहनों का निर्यात ही कर पाईं हैं।

मारुति सुजुकी इंडिया ने बताया कि घरेलू बाजार में अप्रैल 2020 में उसने एक भी वाहन की बिक्री नहीं की। हालांकि, बंदरगाहों के खुलने के बाद कंपनी ने मूंदड़ा बंदरगाह से 632 कारों का निर्यात किया है। इस दौरान सभी सुरक्षा दिशा-निर्देशों का पालन किया गया। हुंडई मोटर्स भी चेन्नई स्थित विनिर्माण संयंत्र से मात्र 1,341 वाहनों का निर्यात किया गया।