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अब तो समझें साफ-सफाई का महत्त्व

जबसे कोरोना वायरस का आतंक फैला है, सरकारों और डॉक्टरों द्वारा हम सबको सलाह दी जा रही है कि दिन में बार-बार हाथ धोएँ, घर में साफ-सफाई रखें। मुँह को ढककर रखें, सेनेटाइजर का इस्तेमाल करें। 2014 और 2015 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाथ में झाड़ू उठाकर खुद सफाई अभियान चलाया और स्वच्छ भारत की देशवासियों को सीख दी, तो लोगों उनकी इस मुहिम के अलग-अलग मतलब निकाले। इतने बड़े और गरिमामयी पद पर आसीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का उस समय चाहे जो भी उद्देश्य रहा हो, लेकिन उन्होंने हम सब देशवासियों को साफ-सफाई से रहने की हमारी परम्परा याद दिला दी। आज जब कोरोना वायरस के डर से हम लोग घरों में बन्द हैं और साफ-सफाई से रहने की कोशिश कर रहे हैं, तब हमें सोचना होगा कि साफ-सफाई का जीवन में उतना ही महत्त्व है, जितना कि जीवित रहने के लिए हवा, पानी और भोजन का। आज जब कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया के लोगों को भयभीत कर रखा है, तब सबकी समझ में आने लगा है कि साफ-सफाई का जीवन में कितना ज़्यादा महत्त्व है?

हम पर हर रोज़ होता है वायरस का हमला

अधिकतर लोग शायद बात नहीं सोचते हैं कि उन पर हर रोज़ कितने वायरस हमला करते हैं? लेकिन इस पर सभी को विचार करने की ज़रूरत है। डॉक्टर धवल कहते हैं कि हवा में, पानी में, घर में, बाहर में और यहाँ तक कि हमारे खाने-पीने में हज़ारों तरह के कीटाणु मौज़ूद होते हैं। यह कीटाणु हवा के द्वारा, पानी के द्वारा, भोजन के द्वारा और बाहरी अटैक के द्वारा, जैसे मच्छर, खटमल या अन्य परजीवी के काटने से हमारे शरीर में बड़ी आसानी से प्रवेश कर जाते हैं। इनमें कुछ तो हमें फायदा पहुँचाते हैं, लेकिन अधिकतर नुकसान ही पहुँचाते हैं। यदि हवा, पानी और भेजन शुद्ध हो, तो इनमें मौज़ूद कीटाणुओं में अधिकतर फायदा पहुँचाने वाले होते हैं; मगर इनमें थोड़ी भी खराबी आने यानी इनके दूषित होने से इनमें भी नुकसान पहुँचाने वाले कीटाणु पनपने लगते हैं। वहीं परजीवियों के काटने से शरीर में पहुँचने वाले कीटाणु केवल नुकसान ही पहुँचाते हैं। नुकसान पहुँचाने वाले सभी प्रकार के कीटाणुओं को विषाणु और रोगाणु बोलते हैं। इन्हें ही वायरस कहा जाता है। यह इंसानों को ही नहीं, बल्कि हमारे आसपास रहने वाले जानवरों को भी बहुत नुकसान पहुँचाते हैं। डॉक्टर धवल कहते हैं कि कुछ वायरस तो पालतू जानवरों के द्वारा ही हम इंसानों में फैलते हैं। इसलिए हम सबको जितना अधिक-से-अधिक हो सके साफ-सफाई से रहना चाहिए। अन्यथा बीमारियाँ हमें कभी नहीं छोड़ेंगी। यही वजह है कि हर इंसान को बचपन से ही साफ-सुथरा रहने के लिए प्रेरित किया जाता है।

हर छोटी-बड़ी बीमारी का कारण है वायरस

डॉ. मनीष बताते हैं कि चेहरे पर छोटे से छोटा दाग हो, सर्दी-जुकाम हो या कोई बड़ी-से-बड़ी बीमारी; सबका कारण वायरस संक्रमण है। कभी-कभी जब अचानक शरीर सुस्त होने लगता है। उस समय अगर कोई थकान या भूख कारण न हो, तो तुरन्त समझ लेना चाहिए कि शरीर पर कोई वायरस अटैक कर चुका है। ऐसे में अधिकतर लोग लापरवाही कर जाते हैं और देखते-देखते बीमार पड़ जाते हैं। जबकि जैसे शरीर में सुस्ती महसूस हो, हल्का-फुल्का व्यायाम करना शुरू करने के अवाला कुछ पौष्टिक भोजन करना चाहिए, ताकि शरीर में उस वायरस से लडऩे की क्षमता पैदा हो सके। अगर फिर भी आराम न मिले, तो तुरन्त योग्य डॉक्टर को दिखाना चाहिए। डॉक्टर मनीष कहते हैं कि ज़रूरी नहीं है कि शरीर सुस्त होने के साथ ही कोई बीमार पड़ जाए। किसी के बीमार पडऩे के कई स्थितियाँ होती हैं। इन स्थितियों को लोग नहीं समझते। लोगों की तो छोडि़ए कई डॉक्टर भी नहीं समझते। मसलन अगर दो लोग एक ही जगह पर एक ही तरह के वायरस की चपेट में आते हैं, तो जो व्यक्ति शरीर से ज़्यादा मज़बूत होगा, वह देर से बीमार पड़ेगा या हो सकता है कि अगर वायरस बहुत ताकतवर न हो, तो अच्छी हेल्थ वाला व्यक्ति बीमार न भी पड़े। लेकिन जो कमज़ोर व्यक्ति होगा, वह जल्द और ज़रूर बीमार पड़ जाएगा। दूसरी स्थिति यह है कि कुछ वायरस ऐसे भी होते हैं, जिनके अटैक के कई साल बाद बीमारी का पता चलता है। ऐसे वायरस अधिकतर खतरनाक बीमारियाँ पैदा करते हैं। जैसे टीवी, कैंसर, दमा, नज़ला, किसी अंग की खराबी आदि। ये बीमारियाँ हमेशा धीरे-धीरे शरीर में पनपती रहती हैं, जिन पर शुरू में किसी का ध्यान नहीं जाता और बाद में स्थिति बहुत खराब हो जाती है। इसलिए हर आदमी को अपने स्वास्थ पर पूरा ध्यान देना चाहिए और शरीर की जाँच भी कराते रहना चाहिए।

क्यों ज़रूरी है नियमित सफाई?

अगर ज़िन्दगी को बेहतर तरीके से जीना है, तो हर एहतियात से सुरक्षा ज़रूरी है। यह सुरक्षा केवल सड़क पर चलने किसी चोट से खुद को बचाने से ही नहीं हो जाती। इसके लिए लगातार साफ-सफाई की भी ज़रूरत है। यह साफ-सफाई शरीर, कपड़ों, घर, दफ्तर, वाहन और आसपास के स्थानों पर भी होनी चाहिए और नियमित होनी चाहिए। अन्यथा हमें बीमार पडऩे से कोई नहीं रोक सकता। डॉक्टर मनीष कहते हैं कि कुछ बीमारियाँ एक-दूसरे के सम्पर्क में आने से फैलती हैं। कोरोना भी इन्हीं बीमारियों में से एक है। ऐसे में ज़रूरी है कि नियमित अपनी और अपने घर की नियमित साफ-सफाई रखने के अलावा यदि कोई बीमार है, तो उसके सम्पर्क में आने से बचा जाए।

कहाँ-कहाँ पनपते हैं वायरस?

अक्सर लोग घर या दफ्तर में सफाई करते समय कुछ ऐसी जगहों को साफ करना भूल जाते हैं, जहाँ अधिक वायरस पनपते हैं। इतना ही नहीं कुछ लोग तो ऐसी जगहों को महीनों साफ नहीं करते। इनमें बेड, अलमारी के नीचे के स्थान, स्टोर रूम, सीढिय़ाँ, ग्रिल, खिड़की, दरवाज़े, किचिन, घर या दफ्तर की दीवारें, सोफे, कुॢसयाँ, रज़ाई-गद्दे, बेड, स्लिप, बैग, जूते, घड़ी, सिलेंडर, बर्तनों का स्टैंड, वाहनों की सीट, अपने टॉमी के खाने-पीने के बर्तन, चिडिय़ों के लिए रखा गया पानी का बर्तन और न जाने कितनी ही चीज़ें तथा जगहें शामिल हैं, जिन्हें हर रोज़ अधिकतर लोग साफ नहीं करते। जबकि हर चीज़ और हर जगह की नियमित सफाई कितनी ज़रूरी है, इस बात का अहसास या तो बीमार पडऩे के बाद होता है या आज कोरोना वायरस के फैलने के बाद हो रहा है। लेकिन समझदार वो लोग हैं, जो पहले से ही साफ-सफाई रखते हैं।

गर्म पानी और नीम के पत्तों से मारें वायरस

डॉक्टर धवल कहते हैं कि अगर आपको कभी सर्दी, खाँसी, बदन दर्द या बुखार महसूस हो, तो कम-से-कम सर्दियों में गर्म पानी से नहाएँ। जहाँ तक सम्भव हो, नहाने से पहले गुनगुने सरसों के तेल से शरीर की मालिश करें और फिर अच्छे साबुन से या साबुन न हो तो नीम या कीटनाशक किसी पौधे के पत्ते पानी में उबालकर उस पानी में सादा पानी मिलाकर नहाएँ। इसके अलावा गर्मियों में भी बहुत ठंडे पानी से न नहाकर सादा पानी से नहाएँ। अगर अधिक तबीयत खराब हो, तो भी नहाने से बचने की कोशिश न करें। बहुत मजबूरी हो, तो भी गर्म पानी में साफ कपड़ा भिगोकर प्रतिदिन उससे बदन ज़रूर पोंछें।

केवल नहाने भर से साफ नहीं होता शरीर

डॉक्टर धवल कहते हैं कि केवल नहाने भर से शरीर साफ नहीं होता। शरीर को साफ रखने के लिए नाखून, बाल भी काटने ज़रूरी होते हैं। खासतौर से शरीर के गुप्त स्थानों पर से बालों को हटाना बहुत ज़रूरी होता है। इसके अलावा शरीर के हर अंग की नियमित सफाई ज़रूर करनी चाहिए। व्यायाम या शारीरिक और मानसिक मेहनत का काम करना ज़रूरी है। जहाँ तक सम्भव हो धूल और प्रदूषण वाली जगहों से बचना चाहिए और अगर ऐसा सम्भव न हो, तो ऐसी जगहों पर जाने से पहले शरीर को कपड़ों के ज़रिये ढँक लेना चाहिए।

शारीरिक और मानसिक रोगों का एक कारण गन्दगी भी

डॉक्टर धवल कहते हैं कि यह तो हम सभी जानते हैं कि अगर लम्बा जीवन जीना है, तो साफ-सफाई से रहना ज़रूरी हो जाता है। क्योंकि गन्दगी से न केवल तमाम रोग शरीर में लग जाते हैं, बल्कि मानसिक तनाव और दुर्बलता भी बढ़ती है। डॉक्टर धवल कहते हैं कि बहुत कम लोग जानते हैं कि गन्दा रहने से आदमी का दिमाग ठीक से काम नहीं करता है। वह आलसी, बीमार, सुस्त, कमज़ोर, चिड़चिड़ा या फिर पागल-सा होने लगता है। इसका कारण यह है कि शरीर साफ न रहने से शरीर में रक्त का संचार सही तरह से नहीं होता है। इसके अलावा कई रोगाणु, विषाणु शरीर में घर कर लेते हैं, जो गन्दे रहने वाले इंसान को धीरे-धीरे बीमार करने लगते हैं।

चीन को चैन नहीं लेने देंगे विकसित देश

दुनिया भर में कोरोना वायरस फैलाने के संदेह से घिरे चीन को विकसित देश अब घेरने लगे हैं। क्योंकि इस जानलेवा वायरस की वजह से पूरी दनिया में करीब दो लाख से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि लाखों लोग इसकी चपेट में अब भी हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पक्के तौर पर कमर कसे बैठे हैं और माना जा रहा है कि मौका आते ही वह चीन को सबक सिखाएँगे। वहीं जापान और जर्मनी भी चीन से खार खाये बैठे हैं। इन दिनों चीन जितने आराम से पूरी दुनिया को आफत में डालकर व्यावसायिक गतिविधियाँ चला रहा है, उसे पूरी दुनिया देख रही है। सम्भव है कि हालात सामान्य होने तक ये देश चीन पर दबाव कम बनाएँ, पर यह तय है कि ये देश चीन को अब चैन नहीं लेने देंगे।

डोनाल्ड ट्रंप पहले ही कोरोना वायरस को चीनी वायरस बोल चुके हैं। अब जर्मनी, इटली, कनाडा, ब्रिटेन, अमेरिका आस्ट्रेलिया, जापान और भारत चीन के खिलाफ खड़े हो चुके हैं। जर्मनी तो चीन को 149 बिलियन यूरो का बिल भी भेज चुका है। जर्मनी ने चीन को यह बिल अपने यहाँ कोरोना पीडि़तों के इलाज में खर्च और हुए नुकसान की भरपाई के आधार पर भेजा है। यही नहीं जर्मनी ने चीन को जल्द-से-जल्द इस बिल का भुगतान करने को कहा है। वहीं, इटली भी चीन की तरफ आँखे तरेर रहा है। अमेरिका भी चीन को परिणाम भुगतने की चेतावनी दे ही चुका है। इसके अलावा ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया, जापान भी चीन से बदला लेने की फिराक में हैं। कई यूरोपीय देश भी चीन को ही कोरोना वायरस फैलाने के लिए ज़िम्मेदार मान रहे हैं। इधर, जर्मनी ने चीन को भेजे 149 बिलियन यूरो के बिल में कोरोना वायरस से पीडि़त लोगों के इलाज के खर्च के अलावा 27 बिलियन यूरो टूरिज्म, 7.2 बिलियन यूरो फिल्म इंडस्ट्री और जर्मन एयरलाइंस तथा 50 बिलियन यूरो छोटे व्यावसायिक नुकसान की भरपाई को शामिल किया है।

क्या चीन के शोधछात्र की गलती से फैला वायरस?

तमाम आरोपों-प्रत्यारोपों के बाद अब यह बात सामने आ रही है कि चीन के वुहान शहर में सेना के लिए काम कर रही एक गोपनीय लैबोरेटरी में एक शोध छात्र की गलती से कोरोना वायरस लीक हुआ था। हालाँकि इस बात को चीन अभी तक छिपा रहा है। लेकिन दुनिया के सामने अब चीन की हरकतें सामने आने लगी हैं। क्योंकि चीन की ही कई रिपोर्टों से ज़ाहिर होने लगा है कि हो-न-हो यह जानलेवा वायरस चीन की ही साज़िश का नतीजा है। यही वजह है कि अमेरिका के अलावा दुनिया के कई ताकतवर देश अब चीन से निपटने की भूमिका में दिखने लगे हैं। इसका कारण कोरोना वायरस की वजह से इन सभी देशों के नागरिकों की जान जाना और हर तरह से बेइंतिहा नुकसान होना है।

साबित हुई चीन की गलती, तो भुगतने होंगे परिणाम

कोरोना वायरस से दुनिया भर में फैली तबाही से जहाँ पूरी दुनिया चीन पर नज़र रखे हुए है, वही यूरोप और अमेरिका चीन से आर-पार के मूड में हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कह चुके हैं कि अगर कोरोना वायरस के लिए चीन ज़िम्मेदार निकला, तो इसके परिणाम उसके लिए ठीक नहीं होंगे। इतना ही नहीं, वे चीन के वुहान शहर में जाँच टीम भेजने की पूरी तैयारी किये बैठे हैं। वहीं, ब्रिटेन और दुनिया के करीब डेढ़ दर्जन शक्तिशाली देश चीन की ओर संदेह की नज़रों से देख रहे हैं। पिछले एक महीने से अमेरिकी खुफिया एजेंसियाँ यह जानने की कोशिश कर रही हैं कि क्या चीन ने कोरोना वायरस जानबूझकर फैलाया है? अगर यह बात साबित हो जाती है, तो ट्रंप की धमकी को हकीकत में बदलते देर नहीं लगेगी। अमेरिकी राष्ट्रपति कह चुके हैं कि उन्होंने कोरोना वायरस को लेकर चीनी अधिकारियों से बहुत पहले बात की थी कि अमेरिकी जाँच टीम अन्दर (वुहान शहर में बनी लैबोरेटरी तक) जाना चाहती है, ताकि पता लगा सके कि वुहान में क्या हो रहा है? लेकिन वे (चीनी सुरक्षा अधिकारी) हमारा स्वागत करने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने कहा है कि चीन यह ठीक नहीं कर रहा है। अगर वह इसका ज़िम्मेदार निकलता है, तो इसके नतीजे उसे ही भुगतने होंगे। यही नहीं, ट्रंप डब्ल्यूएचओ और चीन पर मिलीभगत का आरोप तक लगा चुके हैं और उन्होंने डब्ल्यूएचओ को दिये जाने वाले फंड पर रोक लगा दी है।

अमेरिका का साथ देंगे कई देश

अगर यह साबित हो गया कि कोरोना वायरस फैलने के पीछे चीन की साज़िश है, तो अमेरिका उसके विरुद्ध युद्ध नीति अपना सकता है। अगर ऐसा होता है, तो अमेरिका का साथ कई देश देंगे और हो सकता है कि चीन को इसके भयंकर परिणाम भुगतने पड़ें। शायद यही वजह है कि चीन कोरोना वायरस के फैलने वाले स्थान वुहान शहर में जाँच टीमों को आने की अनुमति नहीं दे रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति ने ही नहीं, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रो ने भी चीन पर ही संदेह जताया है। इससे तमाम पीडि़त देशों की शंकालु नज़रें चीन की तरफ और उठने लगी हैं। अमेरिका के बार-बार कहने पर भी चीन अपने को निर्दोष साबित करने की भरसक कोशिश कर रहा है।

एफडीआई नियम हुए कड़े

यूरोपीय संघ द्वारा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के नियम कड़े किये जाने के बाद यूरोपीय संघ के कई सदस्य देशों ने इन नियमों का कड़ाई से पालन शुरू कर दिया है। नियम कड़े करने से पहले ही यूरोपीय संघ अपने सदस्य देशों को चेतावनी दे चुका था कि वे अपने यहाँ एफडीआई नियमों को सख्त बनाएँ, अन्यथा उन्हें बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है।

यह नियम चीन व्यापारिक गतिविधियों पर अंकुश लगाने और उसके बारगेन हंटिंग को रोकने के लिए लागू किये जा रहे हैं। फिलहाल जर्मनी, फ्रांस, इटली, स्पेन, आस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका, भारत समेत अनेक देश एफडीआई नियमों को सख्त कर रहे हैं। इटली पहले ही गोल्डन पॉवर लॉ पेश कर चुका है, जिसके अनुसार संवेदनशील क्षेत्रों में विदेशी निवेश पर अंकुश लगाने की बात की गयी है। इसके अलावा विदेशी व्यापार, मुख्य रूप से चीन के व्यापार को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं। ऑस्ट्रेलिया ने भी अस्थायी रूप से विदेशी अधिग्रहण के नियमों को कड़ा कर दिया है।

कनाडा ने अपने विदेशी निवेश नियम को और सख्त बना दिया है, जिसमें चीन को प्रमुख रूप से चिह्नित किया गया है। वहीं जापान भी चीन से बेहद नाराज़ है और चीन से व्यापारिक गतिबिधियाँ कम करने हेतु कदम उठा लिये हैं। जापान अपने व्यापारियों को चीन से उद्योग-व्यापार खत्म करने को कह चुका है। ब्रिटेन ने कम्प्यूटर हार्डवेयर, क्वांटम टेक्नोलॉजी और सैन्य हथियारों आदि के अधिग्रहण पर सख्ती दिखायी है। अमेरिका में विदेशी निवेश समिति (सीएफआईयूएस) किसी विदेशी कम्पनी से हर खरीद की जाँच कर रही है। अब भारत ने भी एफडीआई नियमों पर कड़ा रुख अपनाना शुरू कर दिया है। इतना ही नहीं, अधिकतर देश अपने यहाँ चीन के लोगों के व्यवसायों को खत्म करने की रणनीति पर भी विचार कर रहे हैं।

विरोध कर रहा चीन

इधर, यूरोपीय संघ द्वारा एफडीआई नियमों को सख्त करने के बाद भारत ने जैसे ही एफडीआई नियमों को सख्त किया, चीन ने भारत की ओर आँखें तरेरनी शुरू कर दीं। हालाँकि चीन दबी ज़ुबान से यूरोपीय देशों का भी विरोध कर रहा है, लेकिन भारत को लक्ष्य करते हुए हाल ही में उसने कहा कि एफडीआई नियमों को सख्त करना विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के सिद्धांतों और मुक्त एवं निष्पक्ष व्यापार के विरुद्ध है। चीन ने कहा है कि हम उम्मीद करते हैं कि भारत यह भेदभाव वाली नीति से दूर रहेगा और अलग-अलग देशों के निवेश से एक जैसा बर्ताव रखेगा। चीन ने यह भी कहा है कि चीनी निवेश भारत में उद्योग के विकास और रोज़गार सृजन का समर्थन करता है। इसलिए भारत को उसके प्रति पहले जैसा व्यवहार रखना चाहिए। चीन के इस संदेश में एक तरह से पहले की तरह धमकी भी छिपी है। मगर ऐसे समय में भारत को डरने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि चीन के खिलाफ लगभग पूरी दुनिया उठ खड़ी हुई है।

चीन के पास कौन-सा रास्ता?

अगर चीन अमेरिका के साथ-साथ यूरोपीय और एशियाई देशों के कोप से बचना चाहता है, तो उसे सभी देशों से माफी माँगनी चाहिए। साथ ही जाँच में ज़िद्दी अमेरिका का सहयोग करना चाहिए। यदि चीन ऐसा नहीं करता है, तो उसकी तरफ दुनिया का संदेह और बढ़ता जाएगा। हाल ही में अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने चीन पर सलाह दी थी कि वह कोरोना वायरस को लेकर जानकारी छिपाने की वजाय दुनिया के सभी देशों से बातचीत करे। उन्होंने कहा कि अगर चीन अपने वादे के मुताबिक, वास्तव में कोरोना वायरस की जाँच में सहयोग करना चाहता है, तो उसे सभी देशों और उनके वैज्ञानिकों को यह जानने का मौका देना चाहिए कि संक्रमण कैसे शुरू हुआ और यह किस तरह दुनिया में फैला?

प्रकृति की ओर लौटते लोग

बदलाव प्रकृति में ही नहीं, बल्कि मानव की प्रवृत्ति में भी निहित है। कई बार इंसान समय की माँग को देखते हुए बदलाव करता है, तो कई बार उसे विपरीत परिस्थतियों के आगे मजबूर होकर बदलाव करना पड़ता है। इस बार भी कोरोना वायरस के भयंकर प्रकोप के चलते लोग जीवन मूल्यों को बदलने के लिए विवश होते दिख रहे हैं। घरों में रहने को मजबूर लोग इसे प्रकृति से छेड़छाड़ का परिणाम मानकर परम्परागत जीवन मूल्यों से जुडऩे पर अब चर्चा करने लगे हैं। कुछ लोग सामान्य ग्रामीण जीवन की ओर लौट भी रहे हैं। इससे जीवन साधारण सही, पर सम्भव है कुछ सुरक्षित हो सके।

प्रकृति से जुडऩे में ही फायदा

कोरोना वायरस के भय से लोगों में यह संदेश गया है कि प्रकृति से छेड़छाड़ और उसके उजाड़ से आिखरकार मानव समाज को ही इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा। इसलिए अगर जीवन चाहिए, तो प्रकृति से जुड़कर रहना होगा। ग्रामीण क्षेत्र में लौटना पड़ेगा। लोग ऐसा कर भी रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि रोज़ी-रोटी के लिए पिछले दिनों दूर-दराज से दूसरे राज्यों और शहरों में बसे अधिकतर लोग अपने घरों की ओर पलायन कर चुके हैं और अब शहर आना नहीं चाहते। लॉकडाउन से पहले ही दिल्ली से अपने गाँव लौट चुके रवि चौहान कहते हैं कि उन्होंने बहुत अच्छा किया, नहीं तो वह बुरी तरह फँस जाते। फिलहाल तो वह अपने घर पर आराम से हैं। हालाँकि घर पर सिवाय खेती-बाड़ी के पैसा कमाने के बहुत अच्छे संसाधन नहीं हैं, लेकिन वे सुरक्षित हैं। जीवन रहेगा, तभी कुछ कर पाएँगे। अगर सब सही रहा, तो शहर में फिर नौकरी कर लेंगे। मगर यहाँ खेतों में भी काम है। इसलिए उनके पास कुछ तो काम है ही।

इसी तरह विनायक राजहंस, जो कभी मीडिया संस्थान में नौकरी करते थे; अब गाँव में जाकर बस गये हैं। विनायक आजकल फेसबुक पर ‘प्रकृति की ओर लौटो’ नाम से एक कॉलम भी लिख रहे हैं, जिसका उद्देश्य लोगों को यही बताना है कि प्रकृति की सुरक्षा में ही मनुष्य की सुरक्षा निहित है।

यहाँ बताना ज़रूरी हैं कि पिछले डेढ़ दशक से आधुनिक जीवनशैली छोड़कर कई विदेशी जंगलों में आदिवासियों की तरह जीवन जी रहे हैं। इन लोगों के बारे में पिछले समय से काफी चर्चा भी रही है। ये सभी लोग अच्छे-खासे पैसे वाले हैं, लेकिन जंगल में रहते हैं और मोबाइल फोन आदि का इस्तेमाल भी नहीं करते। इनका कहना है कि अगर इंसानों को बचना है, तो प्रकृति से जुड़कर आदिवासियों की तरह रहना होगा।

शहर नहीं लौटना चाहते कई श्रमिक

जो लोग लॉकडाउन के समय में परेशानी उठाकर अपने-अपने घरों को लौटे हैं, उनमें बहुत-से लोग अब शहरों की ओर लौटना नहीं चाहते। इनमें अधिकतर लोग ऐसे हैं, तो अब शहरों में आने से साफ-साफ मना कर रहे हैं। हरियाणा की एक कम्पनी में नौकरी करने वाले देवेंद्र कुमार और उनके तीन साथी लॉकडाउन के बाद मकान मालिक द्वारा निकाल दिये गये। ऐसे में ये लोग अपने घर (उत्तर प्रदेश) लौटने को मजबूर थे। इन लोगों ने जब घर जाना चाहा, तो रास्ते में पुलिसकर्मियों से पिटाई भी खायी और भूखे-प्यासे खेत-खलियानों से होकर करीब साढ़े चार सौ-पाँच सौ किलोमीटर पैदल चले, जिसमें इन लोगों को पाँच दिन से अधिक का समय लगा। जान जोखिम में डालकर अपने घर लौटने वाले ये लोग बताते हैं कि जीवन का सबसे बुरा वक्त उन्होंने देखा। मन में कई बार आ रहा था कि अब ज़िन्दा नहीं पहुँच पाएँगे, पर हम लोगों ने हिम्मत नहीं हारी और चलते रहे। सड़क पर चले, तो पुलिस ने पीटा। इसलिए खेतों और रेल की पटरियों को रास्ता बनाया।

देवेंद्र ने बताया कि वे चार साथी थे और उन्हें रास्ते में तीन लोग उनके क्षेत्र के और मिल गये थे, जिससे उनकी हिम्मत बँधी रही और वे छटे दिन अपने घर पहुँचे। उन्होंने बताया कि घर पहुँचकर वे बेहोश हो गये थे और फिर कई दिन बीमार रहे। उनके पैर भी सूज गये थे।

लॉकडाउन खुलने के बाद वापस नौकरी पर लौटने के बारे में पूछने पर देवेंद्र कहते हैं कि अब वह कभी नौकरी करने बाहर नहीं जाएँगे, भले ही उनका जीवन अभावों में गुज़र जाए। देवेंद्र कहते हैं कि अगर उनकी मृत्यु हो जाती, तो उनके बूढ़े माँ-बाप और बच्चे तो जीते-जी मर जाते।

घरवापसी को उताबले हैं शहरों में फँसे लोग

रोज़गार के लिए अनगिनत लोग अपना गाँव, कस्बा या शहर ही नहीं, बल्कि राज्य तक छोड़ देते हैं। दिल्ली में ऐसे लोगों की भरमार है, जो दूसरे राज्यों से आकर यहाँ रहते हैं। शिवा भी दिल्ली में रहते हैं और आजकल लॉकडाउन के चलते यहीं फँसे हुए हैं। शिवा कहते हैं कि लॉकडाउन खुलते ही वे अपने घर चले जाएँगे। घर पर उनके छोटे भाई-बहिन और माता-पिता हैं। इसलिए वे अपनी ज़िन्दगी खतरे में नहीं डाल सकते। वहीं बिहार के रहने वाले सतीश पाण्डेय कहते हैं कि अब वह अपने शहर में ही नौकरी करेंगे, भले ही पैसा कम मिले। अब वह इतनी दूर नहीं रहेंगे। अगर उन्हें अपने शहर में नौकरी नहीं भी मिली, तो अपना ही कोई छोटा-मोटा काम करेंगे। लेकिन अब घर जाएँगे, तो दिल्ली नहीं आएँगे। यहाँ पर अगर उन्हें कुछ हो जाए, तो कौन देखेगा? ऐसे ही अनेक लोग हैं, जो दिल्ली में छोटे-मोटे धन्धे करते थे; अब अपने गाँव लौटने का इंतज़ार कर रहे हैं। मयूर विहार फेस-3 में किराये पर रहने वाला राजा नाम का एक युवक मोमोज बेचने का कार्य करता था।

लॉकडाउन के बाद से घर पर बैठा है। राजा का कहना है कि अब जल्दी से उसका काम नहीं चलने वाला, इसलिए लॉकडाउन खुलते ही वह गाँव चला जाएगा। क्योंकि यहाँ मकान का किराया देने के अलावा उसे खोमचा लगाने की जगह का किराया और एक लड़के को वेतन देना होता है। अब उसका काम चौपट पड़ा है, ऐसे में मकान का किराया और नौकरी पर साथ रखे लड़के का खर्चा उसे ही भरना पड़ता है, जिसे वह बहुत दिनों तक वहन नहीं कर सकता। इससे तो अच्छा है कि गाँव में जाकर रहे और वहीं कुछ करे।

शहरों में बढ़ेगी दिक्कत

बाहर के शहरों में काम करने वाले करोड़ों लोग लॉकडाउन परेशान तो हैं ही, कोरोना वायरस से भी भयभीत हैं। लोगों में इस भय और भूखों मरने की स्थिति ने उन्हें अपने-अपने घर लौटने को मजबूर कर दिया है। लाखों लोग पलायन कर भी चुके हैं और लाखों लोग लॉकडाउन खुलने का इंतज़ार कर रहे हैं। इन लोगों में अधिकरतर मज़दूर और छोटे-मोटे काम करने वाले लोग हैं। हालाँकि केंद्र सरकार ने ‘जो जहाँ है, वहीं रहे’ वाली नीति अपनाते हुए लोगों को एक राज्य से दूसरे राज्य न जाने की हिदायत दी है। लेकिन जो लोग किसी भी कीमत पर अपने घरों को लौटना चाहते हैं, उन्हें रोकना इतना आसान भी नहीं होगा।

ऐसे में यह साफ है कि आने वाले समय में बड़े शहरों, खासकर दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों में मज़दूरों और छोटे-मोटे काम करने वालों की भारी तादाद में कमी होने वाली है। इससे इन शहरों की चरमरायी आॢथक व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पडऩा तय है। क्योंकि अधिकतर संस्थानों को चलाने में श्रमिक वर्ग महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इतना ही नहीं शहरों में फल-सब्ज़ी बेचने से लेकर अन्य छोटे-मोटे स्वरोज़गार करने वाले भी पलायन कर जाएँगे, तो न केवल दैनिक उपभोग की वस्तुएँ कम मिलेंगी, बल्कि महँगी भी बिकेंगी।

नौकरों पर निर्भरता में आयी कमी

अगर आपके घर नियमित काम करने वाला नौकर किसी दिन नहीं आये, तो सम्भव है कि आप खुद ही अपना काम करने को मजबूर होंगे। लेकिन यदि वह कभी न आये और उस समय आपको दूसरा नौकर न मिले, तब तो आपको अपना काम करना ही पड़ेगा; खासतौर पर वह काम, जिसे न करने पर आपको नुकसान उठाना पड़े। लॉकडाउन के बाद ऐसा देखने को मिल रहा है।

अनेक लोग, जिनके घरों में आया (मेड), चपरासी, सफाईकर्मी नियमित आते थे; अब नहीं आ पा रहे हैं। ऐसे में लोग खुद अपना काम कर रहे हैं। घरों के कार्य ही नहीं, व्यासायिक कार्य भी बहुत-से लोगों को अब खुद करने पड़ रहे हैं। बड़े किसानों के साथ भी यही हो रहा है। यह बात अच्छी भी है, क्योंकि हर राज्य के बड़े किसान, खासकर पंजाब के तकरीबन 80 फीसदी किसान खुद से काम नहीं करते थे। दरअसल, बड़े स्तर पर खेती-बाड़ी होने के चलते इन किसानों को मज़दूरों और बँटाईदारों पर निर्भर रहने की आदत रही है। इन मज़दूरों में कुछ तो नौकरी पर रख लिये जाते हैं, लेकिन अधिकतर मज़दूर फसल पकने और जुताई, बुआई, निकाई-गुड़ाई करने के दौरान दिहाड़ी मज़दूरी पर बुलाने पड़ते हैं। लेकिन इस बार रबी की फसलें कटने के दौरान ही लॉकडाउन हो गया।

लॉकडाउन के चलते बड़े किसानों को मज़दूर नहीं मिल रहे हैं। ऐसे में कई बड़े किसानों ने अपना काम खुद ही करना शुरू कर दिया है। एक समय था जब पंजाब के किसान अपने हाथ से खेती करते थे। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से सिख परिवारों के अधिकतर लोग या तो विदेश चले गये या कोई व्यवसाय करने लगे या सरकारी नौकरियाँ करने लगे। ऐसे में घर में संख्या कम होने के चलते बचे हुए लोग खेती मज़दूरों से करवाने लगे। इन मज़दूरों में 90 फीसदी उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और दूसरे राज्यों के होते हैं। ये वे मज़दूर हैं, जो काम के समय ही पंजाब और दूसरे राज्यों में जाते हैं और ठीकठाक पैसा कमाकर अपने राज्यों को लौट जाते हैं। इस बार लॉकडाउन के चलते उनका काम पर लौटना नामुमकिन ही है, ऐसे में बड़े किसान, खासकर सिख खेती का काम खुद ही करने लगे हैं।

लॉकडाउन में मज़दूरों को भुगतान एक कानूनी दायित्व

क्या सभी श्रमिकों को मज़दूरी देने के लिए सरकार के नियोक्ताओं को जारी किये गये निर्देश आपदा प्रबन्धन अधिनियम और महामारी रोग अधिनियम के दायरे में आते हैं या ये एक वैधानिक कानून के तहत आते हैं?

हम पाठकों की जानकारी के लिए सूचना यहाँ संकलित कर रहे हैं। जीतेंद्र गुप्ता, एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड, सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया और आनंद गोपालन, पार्टनर, टीएस गोपालन एंड को ने इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर प्रकाश डाला है। हाल ही में भारत सरकार और राज्य सरकारों ने नियोक्ताओं का आह्वान किया है कि वे एक औद्योगिक प्रतिष्ठान के स्थायी कर्मचारियों को ही नहीं, बल्कि संविदाकॢमयों और अंतर्राज्यीय प्रवासी कामगारों को भी लॉकडाउन की अवधि का भुगतान करें। मानवीय आधार पर कर्मचारियों को वेतन देने की आवश्यकता के बारे में कोई दो राय नहीं हो सकती है। केंद्र्र सरकार ने आपदा प्रबन्धन अधिनियम 2005 (डीएमए, 2005) के प्रावधानों को लागू करने वाली लॉकडाउन की घोषणा की जिसे 14 अप्रैल को और 19 दिन के लिए आगे बढ़ाया गया है। राज्य सरकारों ने महामारी रोग अधिनियम, 1897 (ईडीए) के प्रावधानों को लागू करते हुए कुछ नियमों को लागू किया है और कुछ मार्गदर्शन / निर्देश जारी किये हैं।

कानूनी प्रावधान

आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 को क्रमश: राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण और राज्य आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण स्थापित करने और आपदा प्रबन्धन पर एक एकीकृत कमान रखने के लिए लागू किया गया था। राष्ट्रीय कार्यकारी समिति और राज्य कार्यकारी समिति की शक्तियों को अधिनियम में सूचीबद्ध किया गया है। अधिनियम के प्रावधानों को पढऩे से पता चलता है कि कर्मचारियों को काम नहीं करने के बावजूद किसी आपदा के दौरान निजी नियोक्ताओं को वेतन देने के लिए राज्य या केंद्र्र सरकार के पास शक्तियों को निहित नहीं किया गया है। अधिनियम का कार्य समितियों को आपदाओं में क्षतिपूॢत को पूरा करने के लिए योजना बनाने का अधिकार देता है। 1897 में तत्कालीन बॉम्बे (अब मुम्बई) में ब्यूबोनिक प्लेग के प्रसार को रोकने के लिए महामारी रोग अधिनियम बनाया गया था। अधिनियम का उद्देश्य महामारी रोगों के प्रसार को रोकना है।

अधिनियम के तहत केंद्र्र और राज्य दोनों सरकारों के पास महामारी को नियंत्रित करने के लिए उपाय करने की शक्तियाँ हैं। अधिनियम की धारा-2 निम्नलिखित विशेष शक्तियों के साथ राज्यों को निर्देशित करती हैं- ‘उपाय करने के लिए और सार्वजनिक सूचना से इस तरह के अस्थायी नियमों को जनता या किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के देखे जाने के लिए निर्धारित करना चाहिए, क्योंकि यह आवश्यक होगा। इस तरह की बीमारी या इसके फैलने का प्रकोप और किस तरीके से और किसके द्वारा किया गया पैसा (यदि कोई हो, तो मुआवजा सहित) को निर्धारित किया जा सकता है।’

अधिनियम का भाग-2 इसके लिए पर्याप्त है और यह केवल सरकार को इस तरह के रोग या इसके प्रसार को रोकने के उपायों को निर्धारित करने में सक्षम बनाता है। वहीं निश्चित रूप से एक निजी नियोक्ता को मज़दूरी का भुगतान करने के लिए निर्देशित करने की शक्ति सरकार को देता है।

छँटनी

सामान्य कानून में एक नियोक्ता बिना वेतन के कर्मचारियों की छँटनी कर सकता था। इस तरह की स्थिति के उपाय के तौर पर औद्योगिक विवाद अधिनियम में प्रावधान किये गये, जिसमें छँटनी की स्थिति में मुआवज़े के भुगतान करने की बात कही गयी है। विधायिका ने अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए औद्योगिक विवाद अधिनियम में ‘ले ऑफ’ शब्द जोड़ा और कुछ असाधारण परिस्थितियों में ऐसा किये जाने पर मुआवज़े का भुगतान अनिवार्य किया गया; जबकि कुछ अन्य परिस्थितियों में छँटनी को प्रतिबन्धित कर दिया।

धारा-2 ले ऑफ शब्द को परिभाषित करती है। इसके अनुसार, यदि कोई नियोक्ता किसी प्राकृतिक आपदा के कारण या इससे जुड़े किसी अन्य कारण से किसी कर्मचारी का रोज़गार जारी रखने में असमर्थ है, तो वही ले ऑफ छँटनी की परिभाषा में आयेगा। ऐसे में औद्योगिक विवाद अधिनियम (आईडी एक्ट) की धारा-25(सी) में 50 फीसदी के बराबर मुआवज़े का भुगतान छँटनी हुए व्यक्ति को करना नियोक्ताओं के लिए अनिवार्य किया गया है। आईडी अधिनियम की धारा-25(एम) में पूर्व अनुमति लेने के लिए 100 से अधिक श्रमिकों वाले औद्योगिक प्रतिष्ठान की आवश्यकता होती है। हालाँकि, अगर प्राकृतिक आपदा के कारण छँटनी हो तो ऐसी अनुमति अनिवार्य नहीं है।

छँटनी पर मुआवज़ा

औद्योगिक विवाद अधिनियम-1947 एक विशेष कानून है, जो प्राकृतिक आपदा या अन्य जुड़े कारणों की स्थिति में हुई छँटनी में मुआवज़े के भुगतान को अनिवार्य करता है। इस विशेष कानून में मुआवज़े के रूप में मिल रही मज़दूरी के 50 फीसदी के बराबर के भुगतान को अनिवार्य किया गया है। इसलिए सरकार के विभिन्न दिशा-निर्देश / परिपत्र सर्वोत्तम रूप से सलाह हो सकते हैं, न कि एक अनिवार्यता। सरकार को इस कानूनी स्थिति का मूल्यांकन करने की आवश्यकता होगी।

तर्कहीन दृष्टिकोण

इसके अलावा सरकार के पूर्ण वेतन देने के लिए जारी किया गया निर्देश कर्मचारियों के लिए एक उपहार जैसा है; केवल इसलिए नहीं कि यह उन्हें काम किये बिना मिला है। सरकार के इन निर्देशों से वास्तव में कर्मचारियों को अधिक वेतन मिलता है, जितना कि वे आमतौर पर कमाते थे। उदाहरण यह दर्शाता है कि एक कर्मचारी, जो देश की अर्थ-व्यवस्था या अपने नियोक्ता को योगदान नहीं करता है; सामान्य रूप से होने वाली कमाई से अधिक कमाता है।

वैश्विक उदाहरण

लॉकडाउन के उद्योगों पर बोझ को देखते हुए दुनिया भर की सरकारों ने नियोक्ताओं की सहायता के लिए उपाय किये हैं। डेनमार्क ने घोषणा की है कि वह 75 फीसदी वेतन बिलों को कवर करेगा। कनाडा ने मज़दूरी सब्सिडी योजना लागू की है। इंग्लैंड ने सब्सिडी प्राप्त करने के लिए औसत कमाई का 80 फीसदी प्रदान किया है। मलेशिया 4000 आरएम (ङ्क्षरगिट) से कम आय वाले कर्मचारियों को तीन महीने के लिए 600 आरएम प्रति माह की मज़दूरी सब्सिडी प्रदान कर रहा है।

ऑस्ट्रेलिया ने जॉबकीपर वेतन सब्सिडी योजना तैयार की है। नीदरलैंड ने 20 फीसदी या उससे अधिक के राजस्व में कमी की सम्भावना वाली कम्पनियों के लिए 90 फीसदी तक श्रम लागत के मुआवज़े को कवर करने वाला एक पैकेज आवंटित किया है; जबकि न्यूजीलैंड ने कोविड-19 के चलते गम्भीर रूप से प्रभावित होने वाले नियोक्ताओं के लिए 12 सप्ताह की मज़दूरी सब्सिडी का भुगतान किया है।

भविष्य का रास्ता

ऐसे में लॉकडाउन की स्थिति में सरकार को क्या करना चाहिए? इसका सीधा-सा जवाब है कि भारत सरकार को लॉकडाउन के दौरान भुगतान किये गये वेतन के प्रति नियोक्ताओं को सब्सिडी देने की योजना शुरू करने की आवश्यकता होगी।

इस योजना को औद्योगिक प्रतिष्ठान द्वारा अॢजत लाभ और एक महीने के लिए मज़दूरी बिल से जोड़ा जा सकता है। इस तरह की योजना के अभाव में निजी नियोक्ताओं, विशेष रूप से छोटे और मध्यम उद्योगों से जुड़े नियोक्ताओं को ये कठिनाइयाँ दिवालिया होने जैसी स्थिति की तरफ ले जा सकती हैं।

अर्थ-व्यवस्था के लिए प्रोत्साहन या पुनरुद्धार योजना तैयार करते समय सरकार को लॉकडाउन अवधि के लिए मज़दूरी लागत को कम करने पर विचार करना चाहिए। अगर सम्पूर्णता में नहीं, तो कम से कम हिस्सों में (चरणवद्ध रूप से ) यह किया जा सकता है। यदि किसी भी कारण से सरकार लॉकडाउन का विस्तार करने का निर्णय करती है, तो उसे मज़दूरी का बोझ वहन करना चाहिए और पूर्ण मज़दूरी के भुगतान के लिए कोई सलाह नहीं देनी चाहिए। क्योंकि ऐसा करने के लिए उसके पास अधिकारों का अभाव है।

बार-बार पूछे जाने वाले सवाल और उनके जवाब

क्या कोई नियोक्ता कोविड-19 के कारण लॉकडाउन की अवधि के लिए मज़दूरी का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी है?

गृह सचिव, गृह मंत्रालय, भारत सरकार ने आदेश संख्या दिनाँक 29 मार्च, 2020 (रेफ : 40-3 / 2020-डीएम-आई (ए) के तहत राज्य/केंद्र शासित प्रदेशों के अधिकारियों को आवश्यक कार्रवाई करने और आवश्यक जारी करने का निर्देश दिया। इसके मुताबिक, उनके ज़िला प्रशासन/पुलिस अधिकारियों को यह सुनिश्चित करने को कहा गया कि सभी नियोक्ता, जो चाहे उद्योग या दुकानों में या वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों में हों; अपने श्रमिकों को मज़दूरी का भुगतान नियत तारीख पर अपने कार्य स्थल पर और बिना किसी कटौती के करेंगे। उस अवधि के दौरान भी जब उनके प्रतिष्ठान लॉकडाउन के कारण बन्द रहे हैं। इसके अलावा श्रम और रोज़गार मंत्रालय, भारत सरकार ने 20 मार्च, 2020 के अपने पत्र को रद्द कर दिया है। सार्वजनिक / निजी प्रतिष्ठानों के सभी नियोक्ताओं को सलाह दी है कि वे अपने कर्मचारियों की छँटनी न करें; विशेष रूप से कैजुअल और कॉन्ट्रेक्ट पर रखे गये कर्मचारियों की, और न ही उनका वेतन कम किया जाये। यदि कोई श्रमिक छुट्टी लेता है, तो उसे इस अवधि के लिए मज़दूरी में किसी कटौती के बिना ड्यूटी पर माना जाये। और यदि रोज़गार के स्थान को कोविड-19 के चलते निष्क्रिय बना दिया जाता है, तो भी ऐसी इकाई के कर्मचारियों को ड्यूटी पर माना जाएगा। कुछ राज्यों जैसे हरियाणा में निदेशक, उद्योग, वाणिज्य, हरियाणा ने दिनाँक 27 मार्च, 2020 के एक आदेश पत्र में सभी औद्योगिक और वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों को अपने कर्मचारियों को वेतन हस्तांतरित  करने की सलाह दी है।

क्या गृह मंत्रालय के दिनाँक 29 मार्च, 2020 के आदेश बाध्यकारी हैं या सिर्फ  एक सलाह? यदि बाध्यकारी हैं, तो किस कानूनी प्रावधान के तहत?

चूँकि गृह सचिव, गृह मंत्रालय, भारत सरकार ने आदेश दिनाँक 29 मार्च, 2020 जारी किया है; इसलिए आपदा प्रबन्धन अधिनियम-2015 (डीएमए) की धारा-10 (2)(एल) के तहत यह सभी सम्बन्धितों के लिए बाध्यकारी है। डीएमए की धारा-10 (2)(आई) राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति को भारत सरकार के सम्बन्धित मंत्रालयों या विभागों, राज्य सरकारों और राज्य अधिकारियों को किसी भी खतरे या आपदा की स्थिति में उनके उठाये जाने वाले उपायों के बारे में निर्देश देने का अधिकार देती है। डीएमए की धारा-51 में किसी के भी किसी उचित कारण के निर्देश का पालन करने से इन्कार करने पर या अवरोध पैदा करने पर सज़ा का प्रावधान करती है। डीएमए की धारा-71 के अनुसार किसी भी अदालत (सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय को छोड़कर) के पास इस तरह के किसी भी निर्देश के सम्बन्ध में कार्यवाही करने का अधिकार क्षेत्र होगा। ऐसे समय तक जब तक गृह मंत्रालय उपरोक्त आदेश को सक्षम न्यायालय या उच्च न्यायालय / सर्वोच्च न्यायालय के ज़रिये संशोधित या अलग नहीं करता, तब तक उक्त आदेश बाध्यकारी और लागू माना जाएगा।

मज़दूरी के भुगतान के उद्देश्य से श्रमिकों के लिए क्या गुंजाइश है?

केंद्र सरकार / राज्य सरकारों द्वारा जारी विभिन्न सलाह और आदेशों के आधार पर वेतन के भुगतान का दायरा नियमित, कैजुअल और कॉन्ट्रेक्ट पर कार्यरत कर्मचारियों तक बढ़ेगा। औद्योगिक विवाद अधिनियम-1947 के तहत परिभाषित कर्मकार- मोटे तौर पर किसी भी उद्योग में कार्यरत किसी भी व्यक्ति (प्रशिक्षु सहित) को किसी भी मैनुअल, अकुशल, कुशल, तकनीकी, परिचालन, लिपिकीय या पर्यवेक्षी के काम में शामिल करेगा; भले रोज़गार की शर्तें अभिव्यक्त या अस्पष्ट भी हों। लेकिन इसमें मुख्य रूप से  प्रबन्धकीय या प्रशासनिक क्षमता में कार्यरत लोग शामिल नहीं होते। कोड ऑन वेजिज एक्ट, 2019 को 08 अगस्त, 2019 को राष्ट्रपति पद की मंज़ूरी मिली। हालाँकि, सरकार को कोड लागू होने की प्रभावी तारीख अभी अधिसूचित करनी है। वेजिज कोड-2019 के तहत सेल्स प्रमोशन कर्मचारियों को बिक्री संवर्धन कर्मचारी (सेवा की शर्तें) अधिनियम-1976 की धारा-2 के खण्ड (डी) में परिभाषित किया गया है। हालाँकि, संहिता प्रशिक्षु अधिनियम-1961 की धारा-2 के खंड (एए) के तहत अपरेंटिस को शामिल नहीं करती है। साथ ही किसी ऐसे व्यक्ति को भी जो निरीक्षक स्तर पर काम कर रहा हो और प्रति माह 15 हज़ार रुपये से अधिक या  समय-समय पर केंद्र सरकार का अधिसूचित वेतन ले रहा हो।

श्रमिकों को भुगतान के उद्देश्य के लिए मज़दूरी की क्या गुंजाइश है?

औद्योगिक विवाद अधिनियम-1947 के तहत मज़दूरी की परिभाषा है- धन के संदर्भ में व्यक्त किये जाने वाले सभी पारिश्रमिक। इसमें रोज़गार की शर्तों को पूरा करने वाले ऐसे श्रमिक को उसके रोज़गार के सम्बन्ध में या ऐसे रोज़गार में किये गये कार्य, जिसमें महँगाई भत्ता शामिल है; आवासीय किराया, बिजली, पानी, चिकित्सा उपस्थिति या अन्य ज़रूरत या खाद्य-अनाज या अन्य चीज़ों की आपूॢत; किसी भी यात्रा रियायत; बिक्री या व्यवसाय या दोनों के प्रचार पर देय कोई कमीशन, जिसमें कोई बोनस शामिल नहीं है; नियोक्ता के किसी भी पेंशन फंड या भविष्य निधि या किसी भी कानून के तहत काम करने वाले के लाभ के लिए भुगतान किया गया कोई योगदान; उनकी सेवा की समाप्ति पर देय कोई ग्रेच्युटी; 2019 की संहिता के मुताबिक मज़दूरी में मूल वेतन, महँगाई भत्ता और सिर्फ रिटेनिंग अलाउंस (बोनस के बिना), किसी भी घर-आवास का मूल्य, नियोक्ता की तरफ से दी जाने वाली कोई पेंशन या भविष्य निधि, यात्रा भत्ता या यात्रा खर्च में रियायत; आवास किराया भत्ता; अदालत / ट्रिब्यूनल की तरफ से जारी कोई आदेश या समझौता; विशेष व्यय, ओवरटाइम भत्ता; कमीशन, ग्रेच्युटी, छंटनी का मुआवज़ा आदि शामिल हैं।

किस तिथि तक मज़दूरी का भुगतान करना आवश्यक है?

एमएचए के आदेश के अनुसार, मज़दूरी का भुगतान नियत तारीख को किया जाना ज़रूरी है। वेतन भुगतान अधिनियम-1936 के तहत निर्धारित 1000 से अधिक / कम-से-कम 1000 कर्मचारियों को नियोजित करने वाले संस्थान के लिए नियत तिथि महीने के 7वें / 10वें दिन होगी।

क्या वेतन कम किया जा सकता है या उसे घटाया जा सकता है?

एमएचए आदेश के अनुसार, मज़दूरी का भुगतान बिना किसी कटौती के नियत तारीख पर किया जाना ज़रूरी है।

क्या कर्मचारियों को लॉकडाउन अवधि के दौरान अनुपस्थित रहने के लिए उनके अॢजत वाॢषक / विशेषाधिकार अवकाश का उपयोग करने के लिए कहा जा सकता है?

यह केवल श्रमिकों की सहमति से किया जा सकता है। कर्मचारियों को उनके अॢजत वाॢषक / विशेषाधिकार का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। अवकाश लेना एक कर्मचारी का विशेषाधिकार है और नियोक्ता उन्हें अॢजत वाॢषक अवकाश को समायोजित करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता है।

क्या आवश्यक उत्पाद उद्योग के तहत लॉकडाउन अवधि से छूट वाली इंडस्ट्री आदि में काम करने वाले कर्मचारी काम में शामिल होने से इन्कार कर सकते हैं?

जब तक उद्योग सुरक्षा और स्वास्थ्य के आवश्यक मानकों को बनाये रखता है, ऐसे छूट वाले उद्योग के श्रमिकों को काम में शामिल होने की आवश्यकता होती है।

क्या कर्मचारियों की छँटनी की जा सकती है या उनकी नौकरी को समाप्त किया जा सकता है?

वर्तमान में विभिन्न दिशा-निर्देश कर्मचारियों की छँटनी करने या उन्हें नौकरी से हटाये जाने के खिलाफ हैं। औद्योगिक विवाद अधिनियम-1947 में किसी प्राकृतिक आपदा या इससे जुड़े किसी अन्य कारण से नियोक्ता को व्यक्ति को रोज़गार देने में विफलता या अक्षमता के लिए प्रावधान है। हालाँकि, उस स्थिति में उसे कानून की उचित प्रक्रिया का पालन करने की आवश्यकता होती है। इसे एक अंतिम उपाय के रूप में माना जा सकता है।

कोरोना वायरस की मार पर पंजाब के किसान भारी

ऐसे समय में जब पंजाब में औद्योगिक और व्यापारिक गतिविधियाँ ठप हैं, कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व की सरकार कोविड-19 महामारी के बीच अर्थ-व्यवस्था के पहिये को चालू रखने के लिए किसानों पर भरोसा कर रही है। यह हमेशा होता है कि जब हम अभूतपूर्व संकट से घिरे होते हैं, मूल भोजन गेहँू, चावल, सब्ज़ियाँ या दालों के मसीहा के तौर पर हमारी नज़र किसानों की ही तरफ जाती है। यह किसान ही हैं, जो तालाबन्दी के इस दौर में हमें ज़िन्दा रहने की खुराक प्रदान कर रहे हैं।

पंजाब में गेहूँ की चल रही खरीद की योजना जिस समझदारी से बनायी गयी और जिस तरह इसे संचालित किया जा रहा है, वह सरकार और अन्य हितधारकों के लिए इसके महत्त्व का पर्याप्त प्रमाण है। विस्तारित लॉकडाउन के कारण 22,000 करोड़ रुपये के आसन्न राजस्व नुकसान का सामना करते हुए, एकमात्र उम्मीद गेहूँ की बिक्री के माध्यम से लगभग 30,000 करोड़ रुपये की कमाई से है; जो सीएम अमरिंदर सिंह के अनुसार, राज्य की अर्थ-व्यवस्था के लिए इस समय एक महत्त्वपूर्ण योगदान है। पिछले महीने 23 अप्रैल तक मण्डियों में कुल 29 लाख टन से अधिक गेहूँ की आवक हो चुकी थी, जिसमें से 27 लाख टन से अधिक की खरीद की गयी है। यह खरीद हर साल सामान्य रूप से होने वाली तारीख पहली अप्रैल के बजाय 15 अप्रैल से शुरू हुई थी। पंजाब ने पिछले साल रिकॉर्ड 182 लाख टन गेहूँ का उत्पादन किया था।

कहावत है कि असाधारण पस्थितियों में असाधारण प्रतिक्रियाओं की आवश्यकता होती है। इस बार गेहूँ की खरीद के संचालन के लिए अवधि पहले के 20 दिन की जगह बढ़ाकर 45 दिन कर दी गयी और इसमें 17 लाख से अधिक किसान 4300 मण्डियों और 26,000 कमीशन एजेंट के ज़रिये जुड़े। मण्डियों की यह संख्या कोविड-19 के पूर्व के काल से 1834 ज़्यादा (दोगुनी से भी ज़्यादा) है।

यह स्थिति पंजाब मण्डी बोर्ड (पीएमबी) के लिए एक बड़ी चुनौती थी, जिसने परेशानी मुक्त खरीद की सुविधा के लिए अब तक बेजोड़ प्रौद्योगिकी को इस्तेमाल किया है। इसके सचिव गतिशील आईएएस अधिकारी और प्रौद्योगिकी प्रेमी रवि भगत ने बताया कि इस बार कोरोना वायरस खतरे के कारण देश भर में प्रचलित अनोखी स्थिति को ध्यान में रखते हुए सभी खरीद व्यवस्थाएँ की गयी थीं। उन्होंने कहा कि इसीलिए ई-टोकन प्रणाली को तैयार किया गया था, ताकि आपसी दूरी के मानदण्डों का सख्ती से पालन हो सके और किसानों की उपज के साथ मण्डियों में भीड़ न जुटे। अब वे कहे जाने पर ही मण्डियों में आ रहे हैं। मण्डियों में संक्रमण को रोकने के लिए हमने अब तक 30,000 लीटर सैनिटाइजर और 2 लाख मास्क वितरित किये हैं। साथ ही 34 अधिकारी एक नियंत्रण कक्ष चला रहे हैं। मण्डियों को अलग-अलग क्षेत्र के हिसाब से विभाजित किया गया है और गेहूँ के प्रत्येक ढेर के बीच पर्याप्त जगह छोडऩा सुनिश्चित किया जा रहा है।

भगत के मुताबिक, स्वच्छता सहित संचालन की नियमित निगरानी सुनिश्चित करने के लिए ड्रोन तैनात किये गये हैं। हमारे लिए मुख्य चुनौती मण्डियों में गेहूँ से लदी ट्रॉलियों के प्रवाह को विनियमित करना था, ताकि आपसी दूरी बनाये रखी जा सके। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना कि जगह साफ रहे, किसानों को सुविधाएँ मिलें और उपज की समय पर खरीद हो।

यहाँ यह बताना भी दिलचस्प है कि भगत ने अब तक 36 एप विकसित किये हैं। इस लेखक ने ज़मीनी स्थिति जानने के लिए संगरूर ज़िले के गाँव उप्पली के एक किसान अमरजीत सिंह चीमा से बात की। उन्होंने कहा कि हम विनियमित खरीद संचालन की सरकार की कोशिशों का समर्थन करते हैं। किसान भी सुरक्षा  प्रोटोकॉल का पालन उतनी ही मुस्तैदी से कर रहे हैं। किसानों को जारी किये गये पास की प्रणाली भी अच्छी तरह से काम कर रही है। चीमा ने बताया कि वे अपनी उपज सुबह मण्डी में ले गये और उसी शाम खरीद के बाद वापस घर लौट आये। किसी भी किसान के लिए सबसे बड़ी राहत परेशानी से मुक्त भुगतान का भरोसा होता है। मैंने 17 एकड़ में गेहूँ बोया था और आधा अब तक बेच चुका हूँ।

मण्डियों में भीड़ को रोकने के लिए एक और महत्त्वपूर्ण उपाय करते हुए पीएमबी ने गाँवों के लॉकडाउन के कारण बन्द पड़े स्कूलों और चावल मिलों को अस्थायी खरीद केंद्रों में तब्दील कर दिया है। भारत-पाक सीमा के अन्दर लगभग 11 किलोमीटर की दूरी पर स्थित फिरोज़पुर ज़िले के गाँव गोहलु का मोर के जगदीश थिंड को इस बार मण्डी जाने के लिए 6 किलोमीटर की दूरी नहीं नापनी पड़ी। उनके मुताबिक, कमीशन एजेंट ने हमारे गाँव के बाहरी इलाके में एक स्कूल के परिसर से हमारी उपज को उठाने की व्यवस्था की। कोरोना वायरस से सुरक्षा के सभी उपायों को बनाये रखा गया।

पंजाब की कृषि अर्थ-व्यवस्था और इस बार आयी परेशानियों को लेकर पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह से बातचीत के प्रमुख अंश :-

इस संकटकाल में केंद्र से पंजाब को कोई मदद मिली?

कैप्टन सिंह- केंद्र से हमें कोई मदद नहीं मिली।

कोरोना वायरस महामारी के प्रभाव के बीच आज राज्य की अर्थ-व्यवस्था के लिए गेहूँ की खरीद कितनी महत्त्वपूर्ण है?

पंजाब की अर्थ-व्यवस्था कृषि प्रधान है, जिसमें गेहूँ और चावल दो प्रमुख फसलें हैं। यह हमारा मज़बूत कृषि आधार है, जिसने भारत को भोजन के मामले में आत्मनिर्भर बनाया है। अनाज की खरीद हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस बार कोविड-19 संकट के कारण यह और महत्त्वपूर्ण हो गया है। सभी स्वास्थ्य सुरक्षा प्रोटोकॉल को सुनिश्चित करते हुए मेगा प्रोक्योरमेंट ऑपरेशन को सुरक्षित रूप से पूरा करने में जिन चुनौतियों का सामना है, वह तो है ही; तथ्य यह है कि अचानक तालाबन्दी से लाखों भारतीय भूखे रह रहे हैं या भूख से मर रहे हैं। अब जो अनाज हम खरीद रहे हैं, वह न केवल राज्य का, बल्कि पूरे देश का पेट भरने में मदद करेगा। पंजाब देश के आवश्यक बफर स्टॉक को सुनिश्चित करने के लिए केंद्रीय पूल के लिए खरीदे गये गेहूँ का लगभग 30-35 फीसदी दे रहा है। यह केवल अर्थ-व्यवस्था के बारे में नहीं है, बल्कि देश के लिए एक सामाजिक ज़रूरत भी है। जहाँ तक पंजाब की अर्थ-व्यवस्था का सम्बन्ध है, उद्योग और व्यापार बन्द होने और राजस्व प्राप्तियाँ- जैसे-जीएसटी, वैट, उत्पाद शुल्क आदि के बहुत कम हो जाने से हमें जो भी सिस्टम पूरा करने के लिए चाहिए, उसमें हमें पैसा लगाना होगा; ताकि हम तत्काल कोविड-19 की चिकित्सा चुनौतियों का सामना कर सकें।

इस साल मण्डियों में कितना गेहूँ के आने की उम्मीद है?

रबी 2019-20 के दौरान हम करीब 18.5 मिलियन मीट्रिक टन गेहूँ की फसल की उम्मीद कर रहे हैं और बाज़ार की आवक लगभग 13.5 मिलियन मीट्रिक टन होने की सम्भावना है। मैं किसानों को आश्वस्त करता हूँ कि भले ही कोरोना संकट के कारण जितनी दिक्कतें हों, गेहूँ के एक-एक दाने की खरीद की जाएगी।

आपकी सरकार यह कैसे सुनिश्चित कर रही है कि किसानों को परेशानी से मुक्त भुगतान मिले?

इस साल हम नियमों में संशोधन करके किसानों के भुगतान को सीधे बैंक में हस्तांतरित कर रहे थे। लेकिन कोरोना संकट और लॉकडाउन के कारण हम सीधे आढ़तियों के ज़रिये भुगतान करने की प्रणाली वापस लाये हैं। हम सुनिश्चित कर रहे हैं कि खरीद के 48 घंटे के भीतर आढ़तियों को उनका भुगतान हो जाए और उन्हें यह निर्देश दिये हैं कि वे भी 48 घंटे के भीतर किसानों को ई-पेमेंट कर दें।

केंद्र सरकार से आपको क्या मिला? सरकार और क्या खर्च रही है किसानों के लिए?

जैसा कि मैंने बताया कि केंद्र से बिल्कुल कुछ नहीं मिला। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि अभूतपूर्व संकट के इस समय में भी हमें सीसीएल जारी होने के अलावा केंद्र से कोई समर्थन नहीं मिला है। हमने किसानों से मण्डियों में खरीद को कम करने के लिए प्रोत्साहन के रूप में अतिरिक्त बोनस के लिए कहा था, लेकिन वह भी नहीं आया। हम चाहते हैं कि किसान इस समय थोड़ी अधिक अवधि के लिए अपने अनाज का भण्डारण करें और सभी एक ही समय में मण्डियों में न आयें। हमने केंद्र से अप्रैल के बजाय मई में अपनी उपज लाने वालों के लिए 100 रुपये प्रति क्विंटल और उससे अधिक एमएसपी की घोषणा करने के लिए कहा था, लेकिन यह भी नहीं हुआ। बारिश और ओलावृष्टि के कारण किसानों को नुकसान हुआ है। अतिरिक्त खर्च हम पर मास्क, सैनिटाइटर आदि का आया है, लेकिन हम इसे कर रहे हैं।

किसानों की कोई सुनवाई नहीं

यह सच है कि लॉकडाउन में ऑनलाइन के तहत अनाज की बिक्री को बढ़ावा दिया गया है, ताकि किसानों के साथ किसी प्रकार की धाँधली न हो सके और पारदॢशता बनी रहे; लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। किसानों को कई सरकारी केंद्र्रों में या तो रिश्वत देनी पड़ रही है या दलालों के सहारे अनाज बेचने को मजबूर होना पड़ रहा है। इसके एवज़ में दलाल किसानों से जमकर पैसा वसूल रहे हैं।

अगर उत्तर प्रदेश की बात करें, जहाँ पर लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन प्रकिया के तहत किसानों का अनाज, खासकर गेहूँ सरकारी केंद्र्रों पर खरीदा जा रहा है। यहाँ किसानों को कई-कई दिनों के बाद का ऑनलाइन नम्बर मिल रहा है। ऐसे हालात में किसानों को काफी परेशानी का सामना तो करना ही पड़ रहा है, बल्कि रिश्वत देने को मजबूर होना पड़ रहा है। क्योंकि टोकन सिस्टम की प्रकिया में तो किसानों का नम्बर 10 से 15 दिनों के बाद का आ रहा है। मौज़ूदा हालात तो ऐसे हैं कि किसानों की माली हालत काफी खराब है। क्योंकि मज़दूरी और दैनिक कमाई का हरेक ज़रिया पूरी तरह से बन्द है। बाँदा ज़िले के किसान किशनपाल का कहना है कि कभी भी किसी किसान ने सोचा नहीं था कि उनकी ज़िन्दगी में कभी ऐसा दिन भी आएगा कि उनको अपना ही अनाज बेचने में इस कदर दिक्कत होगी। अपना खून-पसीना बहाकर छ: महीने में उगाये अनाज को उन्हें सिफारिश लगाकर, रिश्वत देकर या फिर दलालों के सहारे बेचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। 43 बीघा खेत के मालिक  किशनपाल ने इस बार गेहँू और चने की फसल बोयी थी। अब जब बड़ी मुश्किल से अनाज उठकर घर आया है, तो उसे बेचने में तमाम परेशानियाँ आड़े आ रही हैं। सरकारी केंद्र्रों पर मची धाँधली को लेकर उन्होंने सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया है। किशनपाल कहते हैं कि सरकार के कुछ लोग अपने चहेतों का अनाज जल्दी बिकवाने में लगे हैं, जिसकी वजह से सीधे-सादे किसानों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। उन्होंने बताया कि चने की खरीदारी न होने के कारण उनका परिवार हताश है। क्योंकि उन्होंने फसल की बुवाई के समय पर साहूकार से कर्ज़ लिया था; लेकिन उसकी अदायगी नहीं कर पा रहे हैं।

ललितपुर ज़िले के किसान प्रकाश ने बताया कि बिक्री केंद्रों पर जो टोकन किसानों को दिये जा रहे हैं, वो किसानों के साथ एक प्रकार का धोखा है। क्योंकि मात्र टोकट मिलने से किसानों के साथ न्याय नहीं हो पा रहा है, जिसकी सरकार बात कर रही है। वहीं अनाज बिकने के बाद भी कई दिनों के बाद किसानों को पैसा दिया जा रहा है। किसान नेता जगत सिंह ने बताया कि केंद्र्र सरकार ने देश की आॢथक व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए रबी की फसल को खेत से बाज़ार तक लाने का जो काम किया है, वह सराहनीय है। लेकिन इस प्रक्रिया में किसानों के अधिकारों को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। जैसे किसानों अनाज को आसानी से बाज़ार / बिक्री केंद्रों तक लाने में काफी परेशानी हो रही है। इस प्रक्रिया में उन्हें पुलिस से जूझना पड़ रहा है। उन्होंने बताया कि सरकार आँकड़ेबाज़ी के खेल में माहिर है। वह बस जनता और किसानों को यह बता रही है कि सरकार उनके हित में कितना काम कर रही है। आँकड़ों का खेल यह है कि हर रोज़ यह बताया जा रहा है कि आज 1,000 क्विंटल अनाज खरीदा गया है। लेकिन भुगतान करने में आनाकानी का ब्यौरा नहीं दे रही है।

मध्य प्रदेश के किसानों की अपनी अलग ही व्यथा है। किसानों का कहना है कि कोरोना वायरस के कहर से सारी दुनिया परेशान है। इस हालात में वे पूरी तरह सरकार के साथ है और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन भी कर रहे हैं।  सरकारी और प्राइवेट खरीद केंद्र्रों पर जो सुविधा दी जा रही है, उससे भी किसान को कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन किसानों की व्यथा यह है कि वे अपने अनाज को अपने तरीके से नहीं बेच पा रहे हैं; जैसे कि पहले बेचते रहे हैं। पहले वे ज़रूरत होने पर उसी हिसाब से अनाज बेचते रहे हैं। अब ऐसा नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि इस बार यह कहा जा रहा है कि अगर अभी अनाज नहीं बिक पाया, तो आगे उसे बेचने में दिक्कत आ सकती है। यहाँ के किसानों का यह भी कहना है कि ज़िला और तहसील स्तर पर अनाज खरीदा जा रहा है। लेकिन अनाज को दूर-दूर बने बिक्री केंद्रों पर लाने में काफी भाड़ा लग रहा है। इसके कारण उनको परेशानी हो रही है। सागर ज़िले के रेहली, बंडा और सतना ज़िले के किसान राघव सिंह और पुनीत पाल का कहना है कि किसानों के लिए सरकार कोई अलग से आयोग बनाए, ताकि किसान अपनी बात वहाँ रख सकें। अन्यथा जिस प्रकार किसानों, खासकर छोटे और मँझोले किसानों की हालत काफी दयनीय रही है, उसी तरह आगे भी रहेगी।

दिल्ली में कोरोना वायरस को लेकर जो हालात हैं। इसको लेकर यहाँ की नरेला अनाज मण्डी, जो कि एशिया की बड़ी अनाज मण्डियों में से एक है; में सन्नाटा पसरा हुआ है। नरेला अनाज मण्डी के थोक और फुटकर अनाज की खरीदारी और बिक्री करने वाले व्यापारी रतन जैन का कहना है कि इस महामारी के दौर में व्यापार पूरी तरह से चौपट है। इस बार न तो रबी की फसल में पैदा होने वाले अनाज की कोई आवक है और न ही बिक्री हो रही है; कुल मिलाकर काम बिल्कुल मन्दा पड़ा है। पूरे देश का थोक व्यापार यहीं से होता रहा है, लेकिन इस साल लॉकडाउन के कारण छोटे और बड़े वाहनों का आना-जाना लगभग बन्द-सा है। यहाँ के दूसरे व्यापारी विमल गुप्ता का कहना है कि सरकार की पहल पर नरेला अनाज मण्डी में खरीदारों की कुछ रौनक बढ़ी थी, मगर दिल्ली की आज़ादपुर फल-सब्ज़ी मण्डी में एक व्यापारी की मौत कोरोना वायरस से हो गयी। इसके कारण व्यापारियों में काफी डर बैठ गया है।

बता दें कि नरेला और आज़ादपुर की मण्डियों से प्रतिदिन बड़े पैमाने पर अनाज, फल और सब्ज़ियों की सप्लाई दिल्ली के अलावा आस-पास के राज्यों में होती है। इस बारे में दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का कहना है कि सरकार की पहली प्राथमिकता यह है कि व्यापार के साथ-साथ स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान दिया जाए, जिससे लोगों का जीवन सुरक्षित रहे।

वहीं हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर का कहना है कि किसानों को कोरोना वायरस की समस्या के दौरान यह वचन दिया था कि किसानों के अनाज का एक-एक दाना सरकार खरीदेगी। अपना वादा पूरा करते हुए सरकार किसानों के गेहूँ को 1925 रुपये प्रति क्विंटल के भाव से खरीद रही है। साथ ही किसानों को कोई दिक्कत न हो, इसके लिए अनाज खरीद केंद्र्रों की संख्या पाँच गुना बढ़ायी गयी है। वहीं हरियाणा के किसान राजकुमार सिंह मान का कहना है कि सरकार अपनी तारीफ भले ही कर रही है, लेकिन सच्चाई यह है कि किसान बहुत परेशान हैं। बिक्री केंद्रों पर चने और सरसों की खरीदारी न के बराबर हो रही है। इस बारे में किसान उदित नारायण का कहना है कि सारा देश जानता है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। फिर भी सरकार किसानों की समस्याओं को नज़रअंदाज़ करती है। सरकार किसानों को न ही समय पर फसल बीमा देती है और न ही फसल खराब होने पर मुआवज़ा; जिसके कारण किसान अक्सर परेशान रहते हैं।

कोरोना वायरस फैलाने में नोटों-सिक्कों की भूमिका!

साल 2013-14 में किये गये एक विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन, जिसकी रिपोर्ट जर्नल ‘फ्यूचर माइक्रोबियल’ में 2014 में प्रकाशित हुई; में यह निर्णायक रूप से कहा गया था कि भोजन करने के समय या उससे पहले कागज़ी मुद्रा और सिक्के को हाथ से पकडऩा स्वास्थ्य के लिए बहुत जोखिम भरा हो सकता है। खासकर अस्पतालों की कैंटीन आदि से ऐसा संक्रमण फैलने का बहुत खतरा रहता है। अस्पतालों से बरामद नोटों (कागज़ी मुद्रा) का अध्ययन यह ज़ाहिर करता है कि ऐसे नोट बैक्टीरिया (चमड़ी, नाक, मवाद आदि से जनित) से भरे हो सकते हैं।

साल्मोनेला प्रजाति, एस्चेरिचिया कोली और एस ऑरियस जैसे संक्रमण वाले विषाणु आमतौर पर फूड आउटलेट से नोटों के ज़रिये आ जाते हैं। प्रयोगशाला में ऐसे नोटों की जाँच से पता चला कि मेथिसिलिन प्रतिरोधी एस ऑरियस सिक्कों पर आसानी से जीवित रह सकता है। जबकि ई-कोलाई, साल्मोनेला प्रजातियाँ और वायरस- जिनमें मानव इन्फ्लूएंजा वायरस, नोरो वायरस, राइनो वायरस, हेपेटाइटिस-ए वायरस और रोटा वायरस भी शामिल हैं; हाथ से सम्पर्क में आने से मानव के भीतर प्रवेश कर सकते हैं।

दुनिया भर के 10 देशों के बैंक नोटों और सिक्कों पर किये गये इस अध्ययन में, भारत के बैंक (कागज़ी) नोटों में सबसे बड़ी संख्या एस. ऑरियस आइसोलेट्स की मौज़ूदगी दिखी। यह नोट अस्पतालों से इकट्ठे किये गये थे। इस तरह अस्पतालों से मिली यह कागज़ी मुद्रा रोगजनितों (संक्रमण फैलाने) के सम्भावित स्रोत के रूप में काम कर सकती है।

लम्बे समय तक रहते हैं दूषित तत्त्व

सिक्कों और नोटों में इस्तेमाल किये जाने वाले धातु और इनकी बनावट के बीच अन्तर के कारण, कागज़ के नोट विभिन्न प्रकार के संक्रमणों को कहीं ज़्यादा समायोजित कर सकते हैं, और ये दूषित तत्त्व लम्बे समय तक इनमें बने रह सकते हैं। निष्कर्ष यह कि प्रयोगशाला जाँच से पता चलता है कि बैक्टीरिया नोटों और सिक्कों पर जीवित रहने में सक्षम हैं, और इनके माध्यम से उनके फैलने की क्षमता सम्भव है।

मानव इन्फ्लूएंजा वायरस नोटों पर जमा होने के बहुत दिनों बाद तक जीवित और संक्रामक बने रहने में सक्षम थे। इन्फ्लुएंजा से दूषित हाथ वायरस को अन्य सतहों या वस्तुओं में स्थानांतरित कर सकते हैं। वायरल स्रावों के साथ निष्क्रिय सतहों के सम्पर्क में आने से इन्फ्लूएंजा से हाथ दूषित हो सकते हैं।

यह रोगी की देखभाल के दौरान हाथ की स्वच्छता, अनुसंधान और शिक्षा रणनीतियों के लिए एक गतिशील मॉडल प्रस्तावित करता है। 10 विभिन्न देशों में खाद्य दुकानों से प्राप्त बहुत बड़ी संख्या में नोटों का परीक्षण किया गया। हालिया अध्ययन में नोटों पर फिंगर ट्रांसफर दक्षता पर कम और उच्च सापेक्ष आद्र्रता के प्रभाव का परीक्षण किया गया था। इस अध्ययन में यह पाया गया कि नोटों पर इन्फ्लूएंजा वायरस जीवित रह सकता है।

भविष्य का नज़रिया

नोटों, सिक्के और संक्रमण फैलाने वाले पदार्थों के रोगजनित एजेंट्स के रूप में बढऩे की क्षमता 21वीं सदी में एक बड़ी चुनौती है। यह सम्भव है कि कॉटन नोटों की जगह सब्सट्रेट सामग्री से बने नोट बैक्टीरिया की उपस्थिति को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

कई खाद्य संचालक सफाई पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते हैं और इन फूड हैंडलर्स से मिली मुद्रा अत्यधिक दूषित थी। नतीजतन, मुद्रा में रोगजनितों की उपस्थिति, जैसे कि ई-कोलाई और साल्मोनेला प्रजातियाँ हानिकारक साबित हो सकती हैं। ई-कोलाई और साल्मोनेला एसपीपी अस्वच्छता के संकेतक हैं। नोसोकोमियल संक्रमण के प्रसार में हाथ सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है। हाथों को अल्कोहल से साफ करने की आदत इसमें सुधार कर सकती है और रोगजनित एजेंटों के संचरण को कम कर सकती है। इसके अलावा नोसोकोमियल रोगजनितों के प्रसार को नियंत्रित करने के लिए नियमित सतह कीटाणुशोधन करना महत्त्वपूर्ण है।

खाद्य जनित प्रकोप को रोकने के लिए एक आवश्यक उपाय खाद्य संचालकों के लिए स्वच्छता प्रशिक्षण है। पैसे के आदान-प्रदान से भोजन के अशुद्ध होने की सम्भावना को इस आधार पर देखा जा सकता है कि भोजन (खाद्य पदार्थ) को कैसे सँभाला और बेचा जा रहा है और इसी आधार पर इसमें बदलाव लाना चाहिए। उपयुक्त और नियमित रूप से हाथ की सफाई, विशेष रूप से शौचालय जाने और पैसे को सँभालने के बाद, यह ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। इसके अलावा भोजन से जुड़े उपकरण इसके दूषित होने से बचाने में बड़ा रोल अदा कर सकते हैं, जो धन और भोजन के आदान-प्रदान के दौरान हो सकते हैं; खासकर तब, जब कार्यकर्ता कार्यों के बीच हाथ नहीं धोते हैं।  आमतौर पर स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के उपयोग किये जाने वाले नोसोकोमियल रोगजनितों जैसे सेल फोन, टॉयलेट पेपर, पेन, स्टेथोस्कोप, पेपर मनी, सिक्के, यूनिफॉर्म, कम्प्यूटर की-बोर्ड, किताबें, पेपर फाइलें और बेड और चादर जैसे उपकरण भी रोग पैदा करने में अहम भूमिका निभाते हैं।

इस संदर्भ में एफएसएसएआई (फूड स्टैंडर्ड एंड सेफ्टी अथॉरिटी ऑफ इंडिया) ने वर्ष 2018 में एक एडवाइजरी जारी की थी, जिसमें सभी राज्यों / केंद्रशासित प्रदेशों के खाद्य सुरक्षा आयुक्तों को बुलाकर सभी नागरिकों में जागरूकता पैदा करने के लिए एक व्यवस्थित अभियान शुरू करने का निर्देश दिया गया था। भोजन और मुद्रा नोटों / सिक्कों की एक साथ हैंडलिंग को हतोत्साहित करने को कहा गया था। क्योंकि यह देखा गया था कि खाद्य संचालकों, खाद्य विक्रेताओं और अन्य लोगों ने नंगे हाथों से एक साथ मुद्रा और भोजन को सँभाला। लिहाज़ा उन्हें दस्ताने आदि का उपयोग करने और मुद्रा को सँभालने के बाद साबुन-पानी से धुलाई की सलाह दी गयी थी। यह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संक्रमण फैलने से बचने के लिए आवश्यक था, क्योंकि असुरक्षा रखने से कई प्रकार की बीमारियाँ पैदा होती हैं।

हाल में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने सम्भावित संक्रामक नोटों को सँभालने के दौरान बड़े पैमाने पर जनता को सावधानी बरतने के लिए आगाह किया है। डब्ल्यूएचओ के एक प्रवक्ता ने एक सवाल के जवाब में कहा कि यह बहुत सम्भव था, क्योंकि पैसे का बार-बार आदान-प्रदान होता है। सभी तरह के बैक्टीरिया और वायरस इस तरह की चीज़ों से आ सकते हैं। इसलिए डब्ल्यूएचओ ने लोगों को सलाह दी कि वे मुद्रा के लेने-देने के बाद अपने हाथों को अच्छी तरह धोएँ और हाथों से अपने चेहरे को छूने से बचें। सम्भव हो तो सम्पर्क रहित भुगतान (ऑनलाइन पेमेंट) अपनायें, जो कि एक बेहतर विकल्प है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने लोगों से सम्पर्क रहित भुगतान का उपयोग करने के लिए ज़ोर देने के बावजूद स्पष्ट किया कि उसने नकदी के उपयोग के बारे में कोई चेतावनी या बयान जारी नहीं किया है। इसके बजाय यह दोहराया गया है कि लोगों को पैसे  सँभालने के बाद अच्छी तरह हाथों को धोना चाहिए, खासकर अगर आप खाना खा रहे हैं या उसे किसी कारण छू रहे हैं।

कोविड-19 इस परिवार (कोरोना) के अन्य वायरस की तरह, मनुष्यों में श्वसन के ज़रिये संक्रमण का कारण बनता है। हालाँकि, ऐसा करने के लिए वायरस को मुँह या नाक के माध्यम से शरीर में प्रवेश करने की आवश्यकता होती है। इसका मतलब है कि संक्रमण का सम्भावित ट्रांसमिशन दूषित बिल या सिक्के को छूने के बाद किसी भी व्यक्ति के अपने चेहरे को छूने से सम्भव है। यह दुनिया भर में देखा गया है कि कोरोना वायरस कई दिन तक तत्त्वों के सम्पर्क में आने वाली सतहों पर संक्रामक रह सकते हैं।

हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि मानव कोरोना वायरस, सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (सार्स) कोरोना वायरस, मिडल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (मर्स) कोरोना वायरस या एंडेमिक ह्यूमन कोरोनविर्यूज (एच5वी ) की तरह धातु, काँच या प्लास्टिक जैसी निर्जीव सतहों पर 9 दिन तक जीवित रह सकता है। हालाँकि कोरोना विषाणु के कागज़ या नोटों और सिक्कों पर अस्तित्व को लेकर कुछ अध्ययन हुए हैं; फिर भी सार्स पर किये गये एक अध्ययन से ज़ाहिर होता है कि कोरोना वायरस प्रेस पेपर पर 72 घंटे और कपड़े पर 96 घंटे तक संक्रामक रहता है।

कोरोना वायरस के बीच संरचनात्मक समानता के आधार पर, यह एक उचित निष्कर्ष लगता है कि नये कोविड-19 के मामले में भी ऐसा ही हो सकता है। इस कारण डब्ल्यूएचओ की सिफारिश है कि सामान्य रूप से पैसे (मुद्रा) के लेन-देन से निपटने के बाद अच्छी तरह हाथ धोना संक्रमण से बचने का बेहतर उपाय है। हालाँकि सम्भावित रूप से संक्रमित मुद्रा के खिलाफ सबसे अच्छा बचाव है- नकदी (मुद्रा) लेने के बाद बिना हाथ धोये किसी भी सूरत में चेहरे को नहीं छूना और भोजन नहीं करना। यह किसी के लिए भी बहुत ही ज़रूरी है कि मुद्रा के लेन-देन के बाद वह बहुत अच्छी तरह अपने हाथों को धो लें।

सतहों पर रोगजनितों की मौज़ूदगी

कई बैक्टीरिया और वायरस सतहों पर जीवित रह सकते हैं। जैसे :-

नोटों पर

कॉटन-आधारित बैंकनोट एक रेशेदार सतह वाले होते हैं, जो बैक्टीरिया के जीवन के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करते हैं और जितने अधिक समय तक एक कागज़ का नोट प्रचलन में रहता है, उतनी ही अधिक सम्भावना इसके दूषित होने की होती है।

दुनिया भर में विभिन्न बैक्टीरिया, खमीर, कवक, अल्सर और आँतों के परजीवी के अण्डाणु को पैसे से अलग किया गया है।

सिक्कों पर

सिक्कों की धातुओं में बड़े पैमाने पर ताँबे की उपस्थिति साधारणतया सिक्कों पर बैक्टीरिया के अस्तित्व को सीमित करती है।

दुनिया भर में विभिन्न बैक्टीरिया, खमीर और कवक को सिक्कों से अलग किया गया है।

अस्पतालों में बेड और कीबोर्ड जैसी सतहों, जिनका हाथों से सीधा सम्पर्क होता है; क्रॉस-ट्रांसमिशन के लिए नोसोकोमियल रोगजनितों और विषाणु के जनक स्थलों के रूप में काम करते हैं।

नोट रोगजनितों के एक सम्भावित स्रोत के रूप में काम कर सकते हैं और अस्पतालों से मिले कागज़ के नोट बड़े पैमाने पर स्टैफिलोकोकस ऑरियस आइसोलेट्स से दूषित थे।

खाद्य जनित प्रकोपों के प्रसार में फेमाइट्स और मुद्रा

साल्मोनेला प्रजातियाँ, एस्चेरिचिया कोली और एस ऑरियस साधारणतया फूड आउटलेट से नोटों में आती हैं।

सलाद, सैंडविच और बेकरी आइटम, जैसे- तैयार खाद्य पदार्थ आदि अक्सर वायरल खाद्य जनित बीमारी के प्रकोप से जुड़े होते हैं।

नोटों और सिक्कों से रोगजनित हस्तांतरण के प्रायोगिक साक्ष्य

प्रयोगशाला सिमुलेशन में सिद्ध हुआ है कि मेथिसिलिन प्रतिरोधी एस ऑरियस सिक्कों और नोटों पर आसानी से जीवित रह सकते हैं।

प्रयोगात्मक मॉडल में सिद्ध हुआ है कि इन्फ्लूएंजा वायरस, नोरोवायरस, राइनोवायरस, हेपेटाइटिस ए-वायरस और रोटावायरस को मनुष्य हाथ से सम्पर्क के माध्यम से प्रेषित करने में सक्षम थे।

निवारण

हाथ धोने और कीटाणुशोधन की तकनीकों में प्रशिक्षण सहित स्वच्छता प्रशिक्षण, नोसोकोमियल और खाद्य जनित प्रकोप को रोकने के लिए एक आवश्यक उपाय है।

हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन को प्रमोट क्यों कर रहे हैं अमेरिकी राष्ट्रपति?

हालाँकि अभी तक कोई मज़बूत, ठोस सुबूत सामने नहीं आये हैं कि एंटी मलेरियल ड्रग हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन कोविड-19 से लडऩे के लिए बेहतरीन ऑप्शन है। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप माहौल को बनाने में सफल रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह ड्रग कोविड-19 के इलाज में महत्त्वपूर्ण है। लेकिन इसके लिए व्यापक पैमाने पर क्लीनिकल ट्रायल रिपोर्ट की अहम दरकार है।

अमेरिकन एफडीए ने हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन का इस्तेमाल मलेरिया, लेपस और रूमेटाइड अर्थराइटिस के इलाज मे करने की अनुमति दी है।

हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीनकोविड-19 के इलाज के लिए अनुमोदित नहीं है। हालाँकि एफडीए ने इस वायरस के इलाज में इस दवा को आपातकालीन स्वीकृति प्रदान की है, लेकिन पूरी तरह से मान्यता प्राप्त करने के लिए इसे अभी भी क्लीनिकल ट्रायल्स पर खरा उतरना होगा।

प्रारम्भिक अध्ययनों से पता चला है कि कोरोना वायरस के लक्षणों को रोकने के लिए हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीनप्रभावी हो सकती है। चीन के एक स्टडी में पाया गया कि क्लोरोक्वीन वायरस को कोशिकाओं में प्रवेश करने से रोकने में सक्षम है, जहाँ यह प्रतिकृति बनाता है और बीमारी का कारण बनता है। चूँकि यह प्रयोग पेट्री डिश में किया गया था, इसलिए यह ज़रूरी नहीं है कि वह मानव शरीर में भी इसी तरह काम करेगा। इसका मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि ये आशाजनक परिणाम वायरस के खिलाफ दवा की प्रभावकारिता के निर्णायक है भी और नहीं भी।

स्टेट्स न्यूज रिपोर्ट का मानना है कि जिस रिपोर्ट का हवाला ट्रम्प दे रहे हैं वह काफी नहीं है, जिसके आधार पर इस दवाई को प्रमोट किया जा सके। वोक्स की रिपोर्ट का लब्बोलुआब भी कुछ इसी तरह है।

तो ट्रंप हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन को क्यों प्रमोट कर रहे हैं? इसकी एक उदार व्याख्या यह होगी कि वह महामारी का हल खोजने के लिए उत्सुक हैं। और क्योंकि मलेरिया और ल्यूपस से लडऩे के लिए दवा पहले से ही एफडीए से अप्रूव्ड है, इसलिए आपातकालीन उपयोग प्राधिकरण के माध्यम से इसे वितरित करना अधिक सरल है; बजाय एक नयी दवा को अप्रूव्ड करने के।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इंफेक्शियस डिजीज के प्रमुख डॉ. एंथनी फौसी का बयान इस तरह है- ‘डेटा वास्तव सब अच्छे व विचारोत्तेजक हैं। …ऐसे मामले सामने आये हैं, जो दिखा सकते हैं कि कोई प्रभाव हो सकता है, और कोई प्रभाव नहीं दिखाने के मामले भी हैं। इसलिए मुझे लगता है कि विज्ञान के संदर्भ में मुझे नहीं लगता कि हम निश्चित रूप से यह कह सकते हैं कि यह काम करता है।

लेकिन द न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट है कि ट्रम्प और उनके कुछ सहयोगियों के पास सोनोफी (स्ड्डठ्ठशद्घद्ब) में निवेश किये गये फंड हैं, जो हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीनके नाम-ब्रांड संस्करण का निर्माण करता है। इसका मतलब है कि अगर दवा की बिक्री बढ़ती है, तो ट्रंप को व्यक्तिगत रूप से फायदा पहुँच सकता है और इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता। अपनी स्टोरी की हेडलाइन में टाइम्स ने ट्रंप द्वारा हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीनके प्रमोशन को लेकर मेडिकल फर्टिनिटी में दो गुटों को लेकर चर्चा की है।

हालाँकि वाशिंगटन पोस्ट का दावा है कि ट्रंप द्वारा हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीनके प्रमोशन को प्रॉफिट से जोडऩा उचित नहीं है; यह फैसला राजनीतिक है। प्रेजिडेंट ट्रंप ने भी कहा है कि स्थिति की माँग को देखते हुए उनका यह फैसला देश के हित में ही है।

पत्रकारिता का संक्रमण काल

कोरोना के दौरान पत्रकारिता पर दोहरी मार दिखी है। एक, नैतिकता की और दूसरी, कोरोना वायरस की चपेट में आने की। दोनों को ही गम्भीर कहा जाना उचित होगा। लेकिन कई चैनलों और अखबारों में केंद्र और राज्य सरकारों या कुछ दल विशेष के हिसाब से रिपोॄटग होती दिखी है। वहीं कुछ चैनलों-अखबारों ने तब्लीगी जमात के लोगों के कोरोना वायरस से मरने और संक्रमित होने की गिनती करते हुए उनका अलग ही वर्ग बना दिया। समाज में वैमनस्य फैलाने का कारोबार भी मीडिया के एक वर्ग में पिछले कुछ साल से खूब फला-फूला है।

ज़मीन पर रिपोॄटग कर रहे पत्रकारों की सेहत पर वैसा ही विपरीत असर होता दिख रहा है, जैसा डाक्टरों और चिकित्साकॢमयों की सेहत पर। मुम्बई में तो एक साथ 53 पत्रकार कोरोना से संक्रमित पाये गये। इसके बाद देश के कुछ और हिस्सों में सरकारों ने पत्रकारों का कोरोना टेस्ट करवाने का फैसला किया।

यह तब है, जब पत्रकारों की आॢथक और सामजिक सुरक्षा का कोई मज़बूत तंत्र है नहीं और वे अकेले ही अपनी जंग लड़ रहे हैं। यही नहीं, बड़ी संख्या में पत्रकारों की नौकरियाँ जाने की खबर परेशान करने वाली है। नौकरी जाने के खिलाफ कई मामलों में पत्रकारों ने अदालतों की भी शरण ली है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि कोरोना वायरस और लॉकडाउन ने मीडिया इंडस्ट्री पर ज़बरदस्त प्रहार किया है और प्रिंट इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित हुआ है। हालाँकि कई संस्थान ऐसे भी हैं, जहाँ पत्रकारों की नौकरी से कोई खेल नहीं किया गया है।

दूसरा पहलू पत्रकारिता में नैतिकता का है। कोरोना और लॉकडाउन की खबरों में भी खूब खेल होता दिख रहा है। कई चैनल और अखबार गैर-भाजपा सरकारों वाले राज्यों को ज़्यादा टारगेट करते दिखे हैं। वहाँ कोरोना के मामलों की संख्या और घटनाओं को लेकर रिपोट्र्स भेदभाव वाली रही हैं। एक और मामला कोरोना की महामारी के बीच तबलीगी जमात और मरकज़ का बना है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मरकज़ से कुछ गलतियाँ हुईं। लेकिन इस मामले में सरकार की एजेंसियों से जो चूक हुई, उसे दो-चार पत्रकारों के अलावा  खबरों में किसी ने उठाना ज़रूरी नहीं समझा।

बहुत से टीवी चैनल और अखबार आज तबलीगी जमात से जुड़े कोरोना के मामलों की अलग श्रेणी में बता रहे हैं। ये चैनल और अखबार मौत और संक्रमण की संख्या के मामले में विदेशियों को अलग वर्ग में दिखाएँ, तो समझ में आता है; लेकिन देश के ही नागरिकों पर दोषी होने का ठप्पा लगाकर इन्हें अलग वर्ग में दिखाना क्या पत्रकारिता के नियमों के खिलाफ नहीं?

चंडीगढ़ में जनसत्ता से एक साल पहले ही जुड़ी युवा पत्रकार तमन्ना अख्तर कहती हैं कि देश में अब पत्रकार बहुत दबाव में काम करने लगे हैं। सच लिखने पर उनकी नौकरी चली जा रही है। देश को आज जब साम्प्रदायिक ताकतों से लडऩे के लिए मज़बूत पत्रकारिता की ज़रूरत है। लेकिन दुर्भाग्य से पत्रकार या तो सत्ता के साथ बैठे दिख रहे हैं या जो विरोध कर रहे हैं, उन्हें ठिकाने लगा दिया जा रहा है।

वह कहती हैं कि एक पत्रकार होने के नाते मुझे मौलिक अधिकारों में कहने का जो अधिकार मिला है, वह राजनीतिक दबाव का शिकार हो गया है। इससे पत्रकारिता अपनी महत्ता और ताकत खो रही है। बहुत से ऐसे लोग इस प्रोफेशन में हैं, जो सच सामने लाने की जगह फेक न्यूज फैला रहे हैं। यदि कोई सच में भारत के मूल सिद्धांतों का पालन करे, तो वह मुख्य धारा के मीडिया की जगह स्वतंत्र मीडिया को ज्वाइन करना चाहेगा। इसका कारण मुख्यधारा के मीडिया का एक तरफा होना है, जिसका एक कारण राजनीतिक दबाव और मीडिया को प्रचारतंत्र के रूप में इस्तेमाल करने में बढ़ती दिलचस्पियॉँ हैं।

तबलीगी जमात के मामले में कई तरह की नकारात्मक खबरें आयीं, जिन्हें मीडिया के एक वर्ग को खूब प्रचार मिला। पुलिसकर्मी पर थूकने वाली खबर झूठ निकली। वह एक पुरानी खबर है, जो मुम्बई की है। इसी तरह कोरोना फैलाने के लिए खाने के बर्तन जूठे करने की खबर भी झूठी निकली। वह वीडियो बोरा समुदाय की है, जो खाने के बाद जूठन चाटते हैं। उनके धर्मगुरु कहते हैं कि अनाज का एक भी दाना बर्बाद नहीं करना चाहिए। खैर, जैसे ही ये झूठी खबरें मीडिया में चलीं, नफरत ब्रिगेड ने सोशल मीडिया में भी खूब ज़हर फैलाया।

उत्तर प्रदेश के मेरठ, सहारनपुर, देहरादून आदि की घटनाओं का सच भी सामने आ गया। इनमें थूकने, काटने, नॉनवेज के लिए जमातियों के खाना फेंकने, एक-एक जमाती के 25-25 रोटी खाने जैसी आश्चर्यजनक खबरें थीं; जो वास्तव में जाँच के बाद गलत निकलीं। लेकिन मीडिया के एक वर्ग ने इन्हें बिना जाँचे-परखे खूब चलाया और नफरत फैलायी।

पत्रकारिता में अनैतिकता का एक और मामला मीडिया में कोरोना के संक्रमितों और मरने वालों की संख्या बताने में दिखा। मीडिया के एक वर्ग ने तबलीगी जमात से जुड़े लोगों का अलग ही वर्ग बना दिया। यह वैसा ही था, जैसे अपराध की किसी खबर में यह कहा जाये कि हिन्दू चोर या मुस्लिम चोर ने घर में सेंध लगायी। इस तरह मीडिया के इस वर्ग ने उन लोगों की राजनीति साधने की कोशिश की, जो कोरोना जैसी महामारी को भी हिन्दू-मुस्लिम में बाँट देना चाह रहे थे।

वैसे गलतियाँ तबलीगी जमात के कारकूनों से भी हुईं। नियमों का पालन न करने से लेकर पत्रकारों को धमकाने तक के मामले सामने आये। इसके बाद न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) को कहना पड़ा कि भारत में कोविड-19 के मामलों को बढ़ाने वाले तबलीगी जमात की रिपोॄटग करने पर पत्रकारों को धमकियाँ और गालियाँ दी जा रही हैं। ऐसे धाॢमक प्रचारकों और उपदेशकों को न्यूज चैनलों/पत्रकारों को धमकी देने और आक्षेप करने से बाज़ आना चाहिए।

निष्पक्ष पत्रकारों पर खतरे

पत्रकार होते हुए भी चरणचाटु बन गये लोगों की भीड़ में अब कुछ ही अनोखे बचे हैं। वे सत्ता की छोटी, लेकिन हानिकारक चट्टानों से रोज़ भिड़ते हैं; सच लिखते हैं। लेकिन इनमें कई ऐसे हैं, जिनके पास अगले दिन अखबार में छपी रिपोर्ट देखने के लिए अखबार खरीदने भर के पैसे भी नहीं होते हैं।

यदि पिछले कुछ वर्षों में पत्रकारों पर हमलों की घटनाओं का अध्ययन करें, तो हम देखेंगे कि निचले स्तर पर पत्रकार इसके ज़्यादा शिकार हुए हैं। इन पत्रकारों को स्थानीय ठेकेदारों, सियासी लोगों और गुण्डों ने मारा-पीटा और सताया यहाँ तक कि जान से भी मार दिया है। कहीं-कहीं सरकारी तंत्र ने भी इन्हें खूब सताया है। संसाधनों की कमी के अलावा ये पत्रकार आॢथक रूप से मज़बूत नहीं होते और बहुत दबावों का सामना उन्हें करना पड़ता है।

द ट्रिब्यून के जम्मू-कश्मीर में वरिष्ठ पत्रकार रहे एस.पी. शर्मा कहते हैं कि अब पत्रकारिता मिशन नहीं रह गया। रोज़गार के बढ़ते दबाव ने पत्रकारिता को भी एक आम नौकरी की तरह बना दिया है। वे कहते हैं- ‘इसका कारण आॢथक असुरक्षा का दबाव भी है और शारीरिक असुरक्षा का भी। जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में काम करते हुए तो वैसे भी चुनौतियाँ बहुत ज़्यादा हो जाती हैं। इसके अलावा राजनीति का दबाव अब पत्रकारिता को खत्म कर रहा है।’

यह भी एक सच्चाई है कि हमारा देश तेज़ी से पत्रकारों के लिए असुरक्षित बनता जा रहा है। लेकिन साथ ही यह भी सही है की पत्रकारिता में अब बहुत अवगुण आ गये हैं और पीत पत्रकारिता असली वाली पत्रकारिता पर हावी हो गयी है। महिला पत्रकारों के लिए भी अब मुश्किल दौर है। राजनीति में जमे लोग समाज के अपराधियों को संरक्षण देते हैं और जो पत्रकार उनकी नकाब उतारने के जुर्रत करता है, उसे कोई-न-कोई रास्ता दिखा दिया जाता है। या तो मालिकों से मिलकर उसे निकलवा दिया जाता है या फिर दूसरी तरह से उससे निबट लिया जाता है। हालाँकि, कुछ मीडिया संस्थान इसके अपवाद भी हैं।

द इंडियन एक्सप्रेस में जम्मू में काम कर चुकीं अनुजा खुशु कहती हैं- ‘महिलाओं के लिए तो स्थितियाँ और भी भयावह हुई हैं। ऐसा पहले भी था, लेकिन अब स्थिति बहुत खराब हो चुकी है। सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ भद्दी टिप्पणियाँ होती हैं और कार्यस्थल पर भी बहुत से दबाव वे झेलती हैं।’

हाल में सोशल मीडिया पर पत्रकारों के खिलाफ तमाम तरह के दुष्प्रचार का चलन बढ़ा है। इसके पीछे कोई ईमानदार लोगों की टोली नहीं है, बल्कि राजनीति के ही लोग हैं। वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता ने हाल ही में कहा था- ‘पत्रकारिता बहुत जोखिम और चुनौतियों वाला पेशा हो गया है। लेकिन पत्रकारों को निष्पक्ष रहना चाहिए और किसी भी रूप से चरमपंथियों और उनकी विचारधारा का समर्थन नहीं करना चाहिए। दुर्भाग्य से राजनीतिक दलों और संस्थानों में मीडिया के प्रति दुर्भावना को बढ़ावा देने का चलन बढ़ा है, जिससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगा है।’

कुल मिलाकर देखा जाए, तो शायद यही कारण हैं कि पहले पत्रकारिता में आने की जो दिलचस्पी युवाओं में दिखती थी, पिछले दो दशकों में इसमें काफी कमी आयी है। हाल के वर्षों में पत्रकारिता पढ़ा रहे संस्थानों को अपेक्षाकृत कम छात्र मिल रहे हैं। अपना नाम न छपने की शर्त पर दिल्ली के एक निजी कॉलेज में पत्रकारिता विभाग के प्रमुख ने कहा- ‘राजनीति में गुण्डागर्दी का बोलबाला हो गया है। टीवी के चलन से शोहरत और पैसे के लिए युवा पत्रकारिता में आने लगे थे। लेकिन पिछले दो-तीन साल में इस क्षेत्र से उनकी रुचि घटी है।’

भटकाव के रास्ते पर पत्रकारिता

देश में पत्रकारिता के बदलते रंग पर बहुत से सवाल हाल के वर्षों में उठने शुरू हुए हैं। कभी समाज की पीड़ा को अपनी पीड़ा बना लेने का जूनून अब पत्रकारिता में खत्म हो गया है। यह नये ज़माने की पत्रकारिता है। व्यवस्था से टक्कर लेने का दौर गुज़र गया। अब व्यवस्था से मित्रता की पत्रकारिता है। पत्रकारिता के लिए यह खौफ और चाटुकारिता का दौर है। इसमें ईमानदार पत्रकार परेशानी झेलने के साथ-साथ खौफ का दंश झेल रहे हैं और चाटुकार आनन्दमय जीवन जी रहे हैं।

 देश में दर्जनों ऐसे पत्रकार हुए हैं, जिन्होंने पत्रकारिता को बेज़ुबानों की ज़ुबान बनाया और सत्ता की खूँखार तोपों के सामने बेखौफ खड़े रहे। सभी पत्रकार ऐसा नहीं कर पाते। हाल के वर्षों में यह साबित हुआ है कि अब सत्ता का खौफ के अलावा सुखमय जीवन की इच्छा इस पेशे में उतरे अधिकतर लोगों पर हावी हो चुकी है। लेकिन सत्ता की गलत नीतियों का प्रतिकार सबके बस की बात भी नहीं। इमरजेंसी में भी हुआ था। इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका इसका उदाहरण हैं। इंदिरा गाँधी से मित्रता होते हुए भी इमरजेंसी का जैसा विरोध एक अखबार का मालिक के नाते गोयनका ने किया था, पत्रकारिता जगत में वैसे उदाहरण बिरले ही मिलते हैं।

जाने-माने पत्रकार रवीश कुमार, पुण्य प्रसून वाजपेयी, दीपक दुआ, अभिसार शर्मा तो पत्रकारिता के बदलते स्वरूप के खिलाफ बहुत मुखर रहे हैं। रवीश कुमार टीवी में पत्रकारों के चरित्र के चीखने-चिलाने वाले व्यक्तियों के रूप में बदल जाने से वे बहुत आहत दिखते हैं। वह कहते हैं- ‘अब सरोकार की पत्रकारिता नहीं रही। इस देश में दर्जनों गम्भीर मुद्दे हैं। नौकरियों की समस्या है। किसानों की दिक्कतें हैं। भ्रष्टाचार है और भी बहुत कुछ है। लेकिन पत्रकार क्या कर रहे हैं? वे हिन्दू-मुस्लिमवाद में फँस गये हैं। वे भारत-पाकिस्तान की जंग करवा रहे हैं। वे वह काम कर रहे हैं, जो राजनीतिक दल उनसे करवाना चाहते हैं।’

घटनाएँ और हालत देखकर लगता है कि देश की जड़ से जुड़ी पत्रकारिता का प्राइम टाइम गुज़र चुका है। व्यवस्था में दुष्ट आत्माओं को चुभन देने वाले पत्रकार अब बिरले ही बचे हैं और जो बचे हैं, वे भी सत्ता और ताकत की दुष्ट आत्माओं का कोप झेल रहे हैं। शब्दों के कटाक्ष से व्यवस्था पर हथोड़े जैसी चोट करना अब दुर्लभ हो गया है।

एक ज़माना था, जब पत्रकारिता दबी-कुचली आवाज़ों को जोश देने और उठाने का बहुत मज़बूत औज़ार था। तब पत्रकार व्यवस्था की कैंची के शिकार बेज़ुबानों की भी आवाज़ थे।

हालाँकि, आज जब सवाल कर सकने की हिम्मत रखने वाली पत्रकारिता मुश्किल काल में घिरी है, तब कुछ पत्रकार भी हैं, जिन्होंने अपनी और बेज़ुबानों की आवाज़ बनाये रखने की मज़बूत हिम्मत दिखायी है। लेकिन चिन्ता की बात यह भी है कि व्यवस्था से टक्कर लेने वाली पत्रकारिता का दौर संक्रमणकाल से गुज़र रहा है। सत्ता की खूँखार तोपों के सामने बेखौफ खड़े रहने की हिम्मत अब अधिकतर पत्रकार नहीं कर पाते।

इसका सबसे खराब नतीजा यह भी निकला है कि भारत में पत्रकार और पत्रकारिता समाज की नज़रों में कमतर होते जा रहे हैं। अब अधिकतर पत्रकार आम जनता से जुड़े पत्रकार नहीं रहे और उनका काम सत्ता के कदमों में बैठने का हो गया है। अब पत्रकारिता की हालत देखकर आमजन यह महसूस नहीं करता है कि कोई चैनल या अखबार अब उनकी आवाज़ बन सकता है।

आज पत्रकारिता के नाम पर शोर मचाते पत्रकार ही टीवी चैनलों पर दिखते हैं। अखबारों की हालत भी कुछ बहुत बेहतर नहीं। इनमें बहुत से राजनीतिक दलों की ढाल या उनकी आवाज़ बन गये हैं। जनता से तो मानो इन्हें कोई सरोकार ही नहीं रहा। इनकी खबरों का हर पहलू राजनीति से जुड़ा होता है। पत्रकारिता के इस भीषण शोर में असली पत्रकारिता की मुखर आवाज़ शान्त है। मानो यह आवाज़, जिससे सत्ताएँ खौफ खाती थीं; कहीं शून्य में विलीन हो गयी है।

सत्ता की निष्ठुर चट्टानों से भिड़कर गलत को गलत कहने की जुर्रत करने वाले पत्रकार अब बहुत ही बिरले रह गये हैं। खासकर बड़े शहरों में ऐसे पत्रकारों का अभाव है। उनसे तो छोटे शहरों, कस्बों में पत्रकारिता कर रहे पत्रकार फिर भी बेहतर हैं। लेकिन ये पत्रकार बिल्कुल निचले स्तर पर खड़े हैं, जो आमजन की आवाज़ तो हैं, पर अँधेरी गलियों में पड़े हैं।

दूरसंचार संकट से बढ़ेंगी दुश्वारियाँ

दूरसंचार विभाग के मुताबिक, टेलिकॉम कम्पनियों पर उसके 1.47 लाख करोड़ रुपये बकाया हैं, लेकिन वे ‘स्व-मूल्यांकन’ कर आंशिक भुगतान कर रही हैं। फिलवक्त, मामला अदालत में है. मामले में सर्वोच्च न्यायलय ने साफ तौर पर कहा है कि कम्पनियों को बकाया, ब्याज और दंड शुल्क 24 अक्टूबर के फैसले के मुताबिक 1.47 लाख करोड़ रुपये चुकानी होगी। दूरसंचार कम्पनियाँ भारती एयरटेल और वोडाफोन-आइडिया, जो सरकार के सबसे बड़ी बकायादार हैं; की संयुक्त बकाया राशि लगभग 89,000 करोड़ रुपये है।

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का असर

देनदारी की एक बड़ी राशि दूरसंचार कम्पनियों जैसे, रिलायंस कम्युनिकेशंस, टाटा टेलीसर्विसेज, एस्सार, एस्कोटेल, बीपीएल, एयरसेल आदि को चुकाना था, जो बन्द हो चुकी हैं। इसलिए सर्वोच्च न्यायलय के फैसले का सबसे ज़्यादा प्रभाव भारती एयरटेल और वोडाफोन-आइडिया पर पड़ेगा। इन कम्पनियों की वित्तीय स्थिति पहले से ही खस्ताहाल है। चालू वित्त वर्ष की दिसंबर तिमाही में वोडाफ़ोन-आइडिया को 6,439 करोड़ रुपये का घाटा हुआ था, वहीं सितंबर तिमाही में इसे 50,992 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था, जबकि भारती एयरटेल को चालू वित्त वर्ष की दिसंबर तिमाही में कर का भुगतान करने के बाद 3,388 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है, जबकि कम्पनी को पिछले साल की समान अवधि में 86 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ था।

एजीआर क्या है?

बीते 14 साल से सर्वोच्च न्यायालय में समायोजित सकल आय (एजीआर) में शामिल राजस्व के घटकों को लेकर विवाद चल रहा है। दूरसंचार कम्पनियों का कहना है कि इसमें केवल लाइसेंस और स्पेक्ट्रम शुल्क को शामिल किया जाए, लेकिन सरकार इसमें उपभोक्ता शुल्क, किराया, लाभांश, पूँजी बिक्री पर मिलने वाले लाभांश आदि को भी शामिल कर रही है, जिसके कारण दूरसंचार कम्पनियों की देनदारियाँ बढ़ गयी हैं।

बकाया के भुगतान में देरी

16 मार्च तक वोडाफोन ने 3500 रुपये का भुगतान किया है, वहीं एयरटेल 18,004 करोड़ रुपये का भुगतान कर चुकी है। इसी तरह टाटा टेली सर्विसेज ने 2,197 करोड़ रुपये का भुगतान किया है। दूरसंचार विभाग द्वारा टाटा टेली सर्विसेज पर 13,823  करोड़ रुपये की देनदारी है। भारती एयरटेल पर लाइसेंस शुल्क और स्पेक्ट्रम उपयोग शुल्क समेत कुल 35,586 करोड़ रुपये का सांविधिक बकाया है। अन्य प्रमुख बकायेदारों में बीएसएनएल, एमटीएनएल आदि हैं, जिनकी वित्तीय स्थिति पहले से ही बहुत ज़्यादा खराब है।

दिवालिया होने के कगार पर वीआईएल

वोडाफोन आइडिया लिमिटेड (वीआईएल) पर 53,038  करोड़ रुपये का वैधानिक बकाया है, जिसमें 24,729 करोड़ रुपये का स्पेक्ट्रम बकाया और 28,309 करोड़ रुपये का लाइसेंस शुल्क शामिल हैं; जिसका भुगतान करने में कम्पनी असमर्थ है। इसके आलावा कम्पनी को लगातार घाटा हो रहा है।

ग्राहक आधार और समायोजन की समस्या

वीआईएल में वोडाफोन की 45.39 फीसदी हिस्सेदारी है। दुनिया भर में वोडाफोन समूह का ग्राहक आधार 30 सितंबर 2019 तक 62.5 करोड़ था, जिसमें उसके संयुक्त उद्यम एवं सहायक इकाइयाँ भी शामिल थीं। यह ग्राहकों की संख्या के हिसाब से दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी दूरसंचार कम्पनी है। वोडाफोन लंदन की कम्पनी है, जिसका नेटवर्क विश्व के 24 देशों में है। वोडाफोन का लगभग 50 फीसदी ग्राहक आधार भारत में है, जहाँ इसका गठबन्धन आदित्य बिड़ला समूह के साथ है और यह वोडाफोन-आइडिया के नाम से जाना जाता है। भारत में इसका ग्राहक आधार लगभग 33.6 करोड़ है। इस प्रकार दिवालिया होने की स्थिति में वोडाफोन समूह का आकार भारती एयरटेल, जिसका ग्राहक आधार 41 करोड़ है और रिलायंस जियो, जिसका ग्राहक आधार 36.9 करोड़ है से कम हो जाएगा। समस्या वोडोफोन-आइडिया के ग्राहकों का समायोजन भारती एयरटेल, रिलायंस जियो, बीएसएनएल और एमटीएनएल के द्वारा किये जाने में भी है। क्योंकि इसके लिए इन कम्पनियों को अपनी तकनीकी क्षमता बढ़ानी होगी और इसके लिए उन्हें भारी-भरकम पूँजी की ज़रूरत होगी। लेकिन मौज़ूदा समय में वे गम्भीर वित्तीय संकट के दौर से गुज़र रहे हैं।

वित्तीय संकट का कारण प्रतिस्पर्धा भी

वोडाफोन आइडिया के वित्त वर्ष 2018-19 के रिपोर्ट में कहा गया है कि वित्तीय संकट के कारण कम्पनी के लिए परिचालन एक बड़ी चुनौती बन गयी है, जिसका कारण प्रतिस्पर्धा बताया जा रहा है। आज भारत में दूरसंचार सेवा दुनिया में सबसे सस्ती है। टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) के मुताबिक, जून 2016 से दिसंबर, 2017 के बीच देश में मोबाइल डाटा की दरों में 95 फीसदी की विकट गिरावट दर्ज की गयी। अब मोबाइल डाटा 11.78 रुपये प्रति गीगाबाइट (जीबी) के औसत कीमत में उपलब्ध है। मोबाइल कॉल की दरें भी 60 फीसदी गिरकर करीब 19 पैसे प्रति मिनट हो गयी हैं।

टैरिफ होगा और महँगा

माना जा रहा है कि एजीआर पर सर्वोच्च न्यायलय के ताज़ा फैसले के बाद दूरसंचार कम्पनियाँ विविध सेवाओं की टैरिफ में आने वाले दिनों में और भी ज़्यादा बढ़ोतरी करेंगी। टैरिफ में वृद्धि का सिलसिला शुरू भी हो गया है। वोडाफोन-आइडिया, एयरटेल और रिलायंस जियो ने हाल ही में अपने टैरिफ में बढ़ोतरी की है। एक अनुमान के मुताबिक, दूरसंचार कम्पनियाँ टैरिफ में यदि 10 फीसदी की बढ़ोतरी करती हैं, तो उन्हें अगले तीन साल में 35 हज़ार करोड़ रुपये का राजस्व मिल सकेगा। इसलिए माना जा रहा है कि दूरसंचार कम्पनियाँ आने वाले दिनों में 15 से 20 फीसदी टैरिफ में बढ़ोतरी सकती हैं, ताकि वे अपने घाटे को कम कर सकें। दूरसंचार नियामक ट्राई ने भी दूरसंचार कम्पनियों द्वारा की जाने वाली टैरिफ बढ़ोतरी में किसी भी तरह के हस्तक्षेप से मना कर दिया है। ऐसे में दूरसंचार सेवाओं का महँगा होना तय माना जा रहा है।

ऊँची टैरिफ दर बनाम 5जी सेवा 

दिलचस्प है कि एक तरफ दूरसंचार कम्पनियाँ दूरसंचार सेवाओं को महँगा करने की बात कह रही हैं, तो दूसरी तरफ सरकार 2020 के अन्त तक भारत में 5जी सेवा लाना चाहती है। भारत को डिजिटल देश बनाने की बात भी कही जा रही है। आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि भारत 5जी स्पेक्ट्रम के ज़रिये वैश्विक बाज़ार में अपनी धाक जमा सकता है। आर्थिक समीक्षा में यह भी कहा गया है कि 5जी के ज़रिये उपभोक्ताओं को बेहतर दूरसंचार सेवाएँ मिल सकेंगी। 5जी का फायदा चिकित्सा, शिक्षा, मनोरंजन आदि क्षेत्रों में भी देखने को मिलेगा, यह बात भी आर्थिक समीक्षा में कही गयी है।

रिलायंस जियो को फायदा

सम्भावना है कि मौज़ूदा परिवेश में सर्वोच्च न्यायलय के फैसले से सबसे ज़्यादा फायदा रिलायंस जियो को मिलेगा। क्योंकि यह वित्तीय रूप से बेहद ही मज़बूत कम्पनी है। अभी तक सिर्फ इसी ने एजीआर का पूरा बकाया, जो 60 हज़ार करोड़ रुपये था; का भुगतान किया है। आज न तो भारती एयरटेल और न ही एमटीएनएल व बीएसएनएल आदि कम्पनियाँ इसका मुकाबला कर सकती हैं। क्योंकि इनकी वित्तीय स्थिति बहुत ही ज़्यादा खराब है।

एनपीए में होगी बढ़ोतरी

दूरसंचार कम्पनियों पर भारतीय स्टेट बैंक का सबसे ज़्यादा कर्ज़ है। स्टेट बैंक ने दूरसंचार कम्पनियों को 29000 करोड़ रुपये का फंड बेस्ड और 14000 करोड़ रुपये का नॉन-फंड बेस्ड कर्ज़ दिया है। अगर दूरसंचार कम्पनियाँ अपने बकाया का भुगतान नहीं कर पाती हैं, तो 14000 करोड़ रुपये की गारंटी भी फंड बेस्ड कर्ज़ में तब्दील हो जाएगी, जिससे दूरसंचार क्षेत्र को स्टेट बैंक द्वारा दिया गया कुल कर्ज़ 43 हज़ार करोड़ रुपये का हो जाएगा। साफ है कि दूरसंचार क्षेत्र का मौज़ूदा संकट बैंकों के लिए भी बड़ा संकट साबित हो सकता है।

राजकोषीय घाटे में कमी की सम्भावना नहीं

यह भी कहा जा रहा है कि अगर एजीआर का भुगतान दूरसंचार कम्पनियाँ कर देती हैं, तो राजकोषीय घाटा जीडीपी का 3.5 फीसदी रह सकता है। गौरतलब है कि संशोधित अनुमान में इसके जीडीपी के 3.8 फीसदी रहने का अनुमान लगाया गया था। हालाँकि यह सम्भव प्रतीत नहीं होता, क्योंकि वोडाफोन-आइडिया के दिवालिया के होने के बाद बैंकों का यह खाता एनसीएलटी में चला जाएगा। आईबीबीआई पोर्टल के अनुसार, चालू वित्त वर्ष की दिसंबर तिमाही में आईबीसी के तहत वसूली फीसदी की दर बहुत ही कम रही है। अत: यह कहना एक गलत संकल्पना ही है कि एजीआर की पूरी वसूली हो जाएगी।

बेरोज़गारी में इज़ाफा 

मौज़ूदा संकट के कारण वोडाफोन-आइडिया के बहुत सारे ग्राहक एयरटेल या जियो का दामन थाम रहे हैं। वोडाफोन-आइडिया से बड़ी संख्या में कर्मचारी निकाले भी गये हैं। कर्मचारियों की छँटनी का दौर अभी भी चल रहा है। बीएसएनएल और एमटीएनएल के 50 फीसदी से अधिक कर्मचारियों ने स्वैच्छिक रूप से नौकरी छोड़ दी है। इसके बाद से इन दोनों कम्पनियों की हालात इतनी ज़्यादा खराब हो गयी है कि वे अपने ग्राहकों को सामान्य सेवाएँ भी नहीं दे पा रही हैं। लोगों के इंटरनेट कनेक्शन कई महीनों से खराब हैं। फिर भी इसे ठीक नहीं किया जा रहा है।

बजट में दूरसंचार क्षेत्र की उपेक्षा

किसी भी देश के आॢथक विकास में दूरसंचार क्षेत्र की अहम् भूमिका होती है। बावजूद इसके बजट में दूरसंचार क्षेत्र की उपेक्षा की गयी है। दूरसंचार क्षेत्र पहले से संकट के दौर से गुज़र रहा है। वर्तमान सरकार को चाहिए था कि वह कोई बीच का रास्ता निकालकर लोगों को बेरोज़गार होने से बचाती। लेकिन ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सरकार का ध्यान इस ओर नहीं है। मौज़ूदा संकट की वजह से टैरिफ भी महँगे हो रहे हैं, जिसकी मार आम लोगों पर पडऩे लगी है। आज बहुत सारी महत्त्वपूर्ण सेवाओं के सुचारू संचालन में डेटा का इस्तेमाल किया जा रहा है। कोरोना महामारी के कारण फिलहाल सभी स्कूल बन्द हैं। ऐसे में जूम एप की मदद से शिक्षक बच्चों को पढ़ा रहे हैं। मीटिंग एवं इंटरव्यू वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये आयोजित की जा रही है। लोग स्काई एप और व्हाट्स एप के ज़रिये अपने मित्रों और परिवार से जुड़े हुए हैं। हालाँकि टैरिफ के महँगे होने से लोगों को ज़रूरी सेवाओं के मिलने में परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। मोबाइल उद्योग को प्रोत्साहन देने के लिए बजट में कुछ प्रावधान किये गये हैं, लेकिन इन्हें पर्याप्त नहीं माना जा सकता है। दूरसंचार कम्पनियों को राहत देने के लिए विवाद से विश्वास योजना का भी आगाज़ किया गया है। लेकिन अभी तक इस संदर्भ में अपेक्षित परिणाम नहीं निकले हैं।

इधर, कोरोना वायरस के कारण सरकार को 3 मई तक देशव्यापी लॉकडाउन करना पड़ा है। लाखों लोगों को अपने रोज़गार या स्व-रोजगार से हाथ धोना पड़ा है। पैसे नहीं होने के कारण लोग एक-दूसरे से जुड़े रहने के लिए मोबाइल का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। प्रतिकूल स्थिति में सरकार को दूरसंचार कम्पनियों को वैलिडिटी बढ़ाने के लिए और कहना पड़ा है, जबकि उसे दूरसंचार कम्पनियों को टैरिफ दर कम करने के लिए निर्देश देना चाहिए था। साथ ही उनकी समस्याओं का समाधान करने के लिए पहल करनी चाहिए थी। अगर सरकार बजट में दूरसंचार कम्पनियों और दूरसंचार क्षेत्र के लिए राहत का प्रावधान करती, तो कोरोना संकट के दौर में आम लोगों के लिए मुश्किलें नहीं पैदा होतीं।

निष्कर्ष

दूरसंचार क्षेत्र की मौज़ूदा स्थिति को देखने से लगता है कि आगामी वर्षों में देश में तीन दूरसंचार कम्पनियाँ रह जाएँगी। निजी कम्पनियों में रिलायंस जियो एवं भारती एयरटेल और सरकारी कम्पनियों में बीएसएनएल। बहरहाल, प्रतिस्पर्धा के नहीं रहने से दूरसंचार कम्पनियों की मनमानियाँ बढ़ जाएँगी। सस्ती सेवाओं का दौर भारत में खत्म होना शुरू भी हो गया है। इससे आम लोगों की खरीद क्षमता में भी कमी आने की आशंका है, जिससे माँग और खपत में कमी आ सकती है। इससे अर्थ-व्यवस्था की वृद्धि दर भी धीमी हो सकती है। ताजा घटनाक्रम से विदेशी निवेश एवं भारत की साख पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। वोडाफोन-आइडिया के दिवालिया होने की स्थिति में बड़ी संख्या में लोगों के बेरोज़गार होने की सम्भावना है।

बैंकों के एनपीए में बढ़ोतरी होना भी तय है। साथ ही बदले परिवेश में भारत को डिजिटल देश बनाने की संकल्पना को साकार करने में भी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।