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पतंजलि का कोविड-१९ की दवा ईजाद करने का दावा, नाम रखा ‘कोरोनिल’

देश में कोविड-१९ के मामले बढ़कर ४,४०,२१५ होने के बीच पतंजलि के योग गुरु बाबा रामदेव ने मंगलवार को दावा किया है कि वायरस की दवा खोज ली गयी है। उन्होंने पतंजलि में तैयार वायरस की आयुर्वेदिक दवा ”कोरोनिल” की घोषणा की और इसका पूरा वैज्ञानिक विवरण भी बताया।

हरिद्वार में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में रामदेव ने ”कोरोनिल” लांच करते हुए दावा किया है कि यह कोरोना के इलाज में मुफीद दवा है। रामदेव ने कहा – ”इस दवाई को बनाने में सिर्फ देसी जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल हुआ है, जिसमें मुलैठी-काढ़ा और अन्य शामिल हैं”।

रामदेव ने इस मौके पर दावा किया कि उनकी तैयार की दवा का सौ फीसदी रिकवरी रेट है और डेथ रेट जीरो है। उन्होंने कहा – ”भले ही लोग अभी हमसे इस दावे पर सवाल करें, हमारे पास हर सवाल का जवाब है। हमने सभी वैज्ञानिक नियमों का पालन किया है”। रामदेव ने कहा कि कोरोनिल का २८० कोरोना रोगियों पर सफल परीक्षण किया गया है। दवा को पूरे रिसर्च के साथ तैयार किया गया है औऱ इसके अच्छे रिजल्ट आ रहे हैं।

प्रेस कांफ्रेंस में पतंजलि के सीईओ आचार्य बालकृष्ण ने कहा – ”पतंजलि के सभी वैज्ञानिकों, एनआईएमएस यूनिवर्सिटी के डॉक्टर और सभी डॉक्टरों को बधाई।  आपका प्रयास आज साकार हो रहा है। आयुर्वेद अब अपने अतीत के वैभव को प्राप्त कर शक्ति संपन्न बनेगा। मानवता की सेवा में विनम्र प्रयास पूरा होने की खुशी आप सब से साझा करते हुए अत्यंत हर्ष का अनुभव हो रहा है।”

रामदेव ने दावा किया कि ”उनकी दवा से तीन दिन के अंदर ६९ फीसदी मरीज रिकवर  (नेगेटिव) हो गए हैं। दवा के जरिए सात दिन में १०० फीसदी मरीज ठीक हुए हैं”। उन्होंने कहा कि देश और दुनिया जिस क्षण की प्रतीक्षा कर रहे थे, आज वो समय आ गया है। कोरोना की पहली आयुर्वेदिक दवा कोरोनिल तैयार हो गई है। इस दवा से हम कोरोना की हर तरह की जटिलता को नियंत्रित कर पाए हैं”।

सांसद प्रज्ञा सिंह कार्यक्रम में बेहोश होकर गिर पड़ीं

मध्य प्रदेश के भोपाल में एक प्रदर्शनी के दौरान भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह बेहोश होकर गिर पड़ीं। मंगलवार सुबह खड़े होने के बाद उन्हें बेहोशी हुई जिसके बाद उन्हें तत्काल कुर्सी पर बैठाया आया। फिलहाल वे कार्यक्रम स्थल से रवाना हो गयी हैं।

दरअसल भोपाल में भाजपा कार्यालय में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पुण्यतिथि के मौके पर कार्यक्रम का आयोजन था। सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर इसी सिलसिले में वहां उपस्थित थीं। जब से एक प्रदर्शनी  तो अचानक उनकी तबीयत बिगड़ गई और कार्यक्रम स्थल पर बेहोश होकर गिर गईं।

ठाकुर जब बेहोश हुईं उस समय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे। बताया गया है कि काफी देर खड़े रहने की बजह से उन्हें चक्कर आया। फिलहाल कार्यक्रम स्थल से वे रवाना हो गईं हैं।

बेहोश होने के बाद नीचे गिर जाने से घबराए लोगों ने उन्‍हें उठाकर कुर्सी पर बैठाया।

गौरतलब है कि ३० मई को भोपाल में प्रज्ञा सिंह ठाकुर के ”लापता” होने के पोस्टर लगे मिले थे। हालांकि, प्रज्ञा सिंह स्वास्थ्य संबंधी समस्या के कारण पिछले काफी समय से दिल्ली में भर्ती थीं। उन्होंने वीडियो संदेश के जरिए कहा था कि उनकी हालत ठीक नहीं है।

आज के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि जम्मू कश्मीर में धारा ३७०  खत्म करने का श्यामा प्रसाद मुखर्जी का सपना पूरा हो गया है। अब मुखर्जी के सपनों का भारत बनेगा। उन्होंने कहा – ”प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत आत्मनिर्भर बनेगा”।

सुप्रीम कोर्ट ने पुरी रथ यात्रा पर अपना फैसला पलटा, दी सशर्त इजाजत

सुप्रीम कोर्ट ने ओडिशा के पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकालने की अब अनुमति दे दी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि स्वास्थ्य मुद्दों के साथ बिना समझौता किए और मंदिर समिति, राज्य और केंद्र सरकार के समन्वय के साथ रथ यात्रा आयोजित की जाएगी। बता दें कि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 18 जून को हुई सुनवाई में पुरी में 23 जून को होने वाली रथयात्रा को कोरोना महामारी के कारण रोक लगा दी थी। शीर्ष अदालत ने कहा था कि अगर यात्रा की इजाजत दी तो भगवान जगन्नाथ भी हमें माफ नहीं करेंगे।
इसके बाद शीर्ष कोर्ट के फैसले को लेकर करीब 10 पुनर्विचार याचिकाएं लगाई गई थीं। जिस पर सुनवाई करते हुए सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने फैसले को पलटते हुए जगन्नाथ रथ यात्रा को कड़ी शर्तों के साथ निकालने की अनुमति दे दी है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने नए आदेश में कहा कि अगर ओडिशा सरकार को लगता है कि कुछ चीजें हाथ से निकल रही हैं तो वो यात्रा पर रोक लगा सकती है।
इससे पहले 18 जून को सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस एस ए बोबडे ने कहा था, ‘यदि इस साल हमने रथ यात्रा की इजाजत दी तो भगवान जगन्नाथ हमें माफ नहीं करेंगे। महामारी के दौरान इतना बड़ा समागम नहीं हो सकता है।’ पीठ ने ओडिशा सरकार से यह भी कहा कि कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए राज्य में कहीं भी यात्रा, तीर्थ या इससे जुड़े गतिविधियों की इजाजत न दे।

देश में कोरोना से मरने वालों की संख्या १३,६११ हुई

देश में सोमवार सुबह तक कोरोना मरीजों की अब तक की कुल संख्या बढ़कर ४,१६,५६० हो गयी है। इनमें से २,३४,८७५ लोग स्वस्थ हो चुके हैं। वायरस से मरने वालों की कुल संख्या अब १३,६११ हो गयी है। उधर कोविड-१९ से जूझ रहे दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन की तबीयत में प्लाजमा थेरेपी के बाद सुधार की खबर है।

स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक रविवार को १४ हजार से ज्यादा नए मरीज सामने आये हैं जबकि इन २४ घंटों में १६,४६१ लोग ठीक हो गए हैं। देश में कोरोना से स्वस्थ होये लोगों का प्रतिशत ५६ फीसदी से ज्यादा है। पिछले २४ घंटों में २७८ लोगों की जान गयी है जिससे कुल मौतों की संख्या अब तक १३,६११ हो गयी है।

फिलहाल सबसे ज्यादा मरीज अभी भी महाराष्ट्र से ही आ रहे हैं जबकि वहां अब तक ६१७० लोगों की जान गयी। राजधानी दूसरे नंबर पर है जहां २१७५ मौतें हुई हैं जबकि गुजरात तीसरे नंबर है जहां १६६४ लोगों की जान जा चुकी है। दिल्ली में संक्रमित लोगों की संख्या ६० हजार के करीब पहुंच गयी है।

इस बीच कोरोना से जूझ रहे दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन की तबीयत में प्लाजमा थेरेपी के बाद सुधार की खबर है। उनका बुखार काम हुआ है और सुधार जारी रहने पर उन्हें जल्दी ही आईसीयू से वार्ड में शिफ्ट किया जा सकता है। जैन के बेहतर इलाज के लिए सरकारी और निजी अस्पतालों की टीम स्टैंड बाय पर है। दिल्ली में कोरोना को लेकर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने रविवार को भी एक उच्च स्तरीय बैठक की जिसमें तय किया गया कि संक्रमण की पुष्टि होने पर सभी को पहले कोरोना सेंटर जाना होगा। जिनके घरों में आइसोलेशन की व्‍यवस्‍था है और जटिल बीमारी नहीं है, उन्‍हें होम आइसोलेशन में रखा जा सकता है।

सेना या सड़क- भारत की उलझी प्राथमिकताएं, अधूरी तैय्यारी

आज भारत अपनी सरजमीं पर कोरोना से और अपनी उत्तरी सरहदों पर कोरोना के पितामह चीन से जूझ रहा है। कोरोना की उलझती, बिखरती जंग की तरह चीन के साथ इस सैन्य लड़ाई में भी भारत की आधी-अधूरी, बिखरी तैय्यारी की हालत जाहिर हो रही है।

उत्तर में चीन के बुलंद, बेसब्र हौसलों व मंसूबों के पीछे उनका सशक्त सैन्य बल और साथ ही में तिब्बत के सेक्टर में उनका संचार प्रणाली (कम्युनिकेशन सिस्टम) व सड़कों व हवाई आधारिक संरचना (इन्फ़्रस्ट्रक्चर) है। भारत- चीन की लगभग 4000 किमी लंबी पहाड़ी सीमा पर अपना बल बनाए रखने के लिए चीन ने सालों में खास तैय्यारी करी ली है। आज उनके पास इन दुर्गम पहाड़ी इलाकों में सड़कें, 5 हवाई अड्डे और लगभग 3.5 लाख का सैन्य बल है जिसे वे 48 घंटे के अंदर-अंदर किसी भी इलाके में सक्रिय कर सकते हैं।

यह एक सत्य है कि भारत सेना और सड़क, दोनों मामलों, में चीन से पीछे है। हमारी सेना लगभग एक कतार में पूरी सीमा पर खींची हुई है और औसतन 3:1 के आँकड़े से चीन के सिपाहियों की तादाद हमें पिछाड़ती है।

सड़कें कमी अगर हमें खलती थी तो ये बात चीन के लिए भी एक रोधक का काम करती थी- दुश्मन की फौज के पास भी कोई क़ीमती लक्ष्य नहीं था ना हीं कोई जरिया जिस से वो घुसपैठ कर आसानी से भारत की आबादी वाली इलाकों तक पहुंच सके।

सैन्य रणनीति में कौन सी चीज़ पहले होनी चाहिए और कौन सी उसके बाद, यह भी उतना ही महत्व रखती है जितना की सैन्य ताकत , बात है सही प्राथमिकताओं की। आज एक तरफ़ सरकार सियाचिन के पास  डबरूक- शयोक- दौलत बेग ओल्डी (DSDBO) सड़क बनने पर अपनी पीठ थपथपा रही रही और दूसरी तरफ़ चीन के अतिक्रमण पर एक सुसज्जित, अनुकूल सैन्य बल की साफ़ नज़र आती कमी को छुपा रही है। कहीं उत्तरी इलाकों में क्या भारतीय सरकार ने सेना से पहले सड़क तैयार कर कहीं बैल के आगे गाड़ी बांधने का काम तो नहीं किया? ये समझने के लिए कुछ अतीत के फ़ैसलों की शृंखला पर नज़र डालनी पड़ेगी।

भारत का ब्रहमास्त्र:

भारत अपनी सीमा मुख्यतौर पर पाकिस्तान और चीन के साथ सांझा करता है। भारत के तीन स्ट्राइक कोर हैं जो पाकिस्तान के साथ हमारी 3323 km लंबी सीमा रेखा पर केंद्रित हैं पर आश्चर्यजनक बात ये है कि भारत की कोई भी स्ट्राइक कोर चीन के खिलाफ, पहाड़ी इलाकों में प्रहार या रक्षा के लिए ख़ास तौर पर निर्धारित या तैय्यार नहीं है!

2013 में यू.पी.ए  सरकार ने एक माउंटेन स्ट्राइक कोर का गठन शुरू किया था जो 2017 तक तैय्यार होनी थी और जरूरत पड़े तो 2017-22 के पांच साल में बचा हुआ गठन जा सकता था। ब्रह्मास्त्र के नाम से जाने जानी वाली इस 90 हज़ार सैनिकों कोर का मुख्य उदेश्य होना था उत्तरी इलाकों में (मुख्यतौर पर चीन) में घातक प्रहार की क्षमता रखना। स्ट्राइक कोर कभी भी स्वदेशी सरजमीं पर अपना जौहर नहीं दिखाती। सोच साफ थी उत्तर के पहाड़ी इलाकों में कोई भी अपने मंसूबे बढ़ाए तो उसके जवाब में 90 हज़ार सैनिकों कि एक सुसज्जित भारतीय  माउंटेन स्ट्राइक कोर जो समय और जरूरत होने पर रौंदते हुये आगे बढ़ा सके।

2019 में जहां एक तरफ इस एम.एस.सी ने ‘हिम-विजय’ जैसी सैन्य अभियस कर चाइना के कान खड़े कर दिये, वहीँ बात चल पड़ी इस स्ट्राइक कोर की रूप रेखा बदलने की या फिर कहिए ठंडे बस्ते में डालने। कारण बताए गए की इसके रखरखाव पर बहुत खर्च होगा, सेना नए सैलानी भर्ती नहीं कर सकती, इस नयी कोर को असले से लैस करने के लिए सेना के असले के कोश खत्म हो रहे हैं। ये भी कहा गया कि भारतीय सेना में आधे से ज्यादा पैसा वेतन और रख रखाव पर खर्च होता है। इन्हीं बातों के चलते ब्रहमास्त्र ठंडे बस्ते में चला गया।

देखने और सोचने की बात है कि 2019 में भारत ने अपनी सेना पर जी.डी.पी का 2.4% खर्च किया था जबकि पाकिस्तान ने अपने जी.डी.पी का 4% खर्च किया था। उसी साल चीन का सैलानी बजट भारत से तीन गुना ज़्यादा था। रखरखाव की बात भी करें तो ऐसा कौनसा सरकारी महकमा है- रेल से लेकर एयर इंडिया तक, जहां वेतन और रख रखाव पर आधे से ज्यादा खर्च नहीं होता है ? इन आँकड़ों और बातों की आड़ में देश की सुरक्षा की नज़रंदाज़ी किसी भी तरह की दूरदृष्टि का प्रमाण नहीं है।

सड़क:

दूसरी तरफ भारत ने पिछले 20 सालों से चल रहे सड़क निर्माण को बहुत ज़ोर शोर से बढ़ा लिया है। 255km लंबी डबरूक- शयोक- दौलत बेग ओल्डी मार्ग के निर्माण को जहां भारत की एक कामयाबी माना जा रहा है, वहीँ सवाल खडे होते हैं कि बिना किसी खास स्ट्राइक कोर के, ये सड़क हमारी ताकत बढ़ाती है या दुश्मन की? हमारे पास माउंटेन स्ट्राइक कोर न होने के कारण चीन के अंदर तक कब्जा करने कि शक्ति नहीं है और अगर चीन की सेना बार्डर के इस पार तक पहुँच गया तो हमारी बनाई सड़क ही हमारे लिए खतरा साबित होगी और 10-12 घंटे में चीन हमारे शहरों में आ खड़ा होगा !

देश की सुरक्षा जैसे मामले में छींटाकशी ठीक नहीं लेकिन सत्ता के गलियारों से यह बातें चलीं है कि माउंटेन स्ट्राइक कोर से किसी भी कॉर्पोरेट घराने का कोई भला नहीं होने वाला लेकिन सड़क बनाने के यंत्र और तंत्र में बहुत सी निजी कंपनियों की हिस्सेदारी और रुझान चलता है। क्या इसी कारण एन.डी.ए सरकार ने माउंटेन स्ट्राइक कोर को आधे रास्ते में ही ठंडे बस्ते में डाल दिया? हमारी सरकार क्यूँ सैनिकों के एक छोटी संख्या के पीछे देश कि सुरक्षा से समझौता कर रही है? सेना के बारे में रख रखाव के तथ्य रख स्ट्राइक कोर ठंडे बस्ते में डालने वाले देश कि बाहरी ताकतों से प्रेरित हैं। खर्च के बहाने अपनी क्षमता को कम कर लेना शायद बुद्धिमानी नहीं और माउंटेन स्ट्राइक कोर को नकार कर सड़क शायद चीन के लिए बिछाने का काम भी कोई तीक्षण बुद्धि का काम नहीं है !

दिशा:

मोदी सरकार ने हर क्षेत्र में श्रमशक्ति (मैनपावर) से ज्यादा टेक्नोलॉजी पर ज़ोर दिया है और यही सोच सैन्य बल से जुड़े फैसलों पर भी लागू हो रही है। जब बात आमने सामने की लड़ाई हो तो सैन्य बल, इंसानी ताक़त और संख्या ही काम आते हैं। टेक्नोलॉजी हमारे सैन्य बल हो हटाए क्यों? क्या वो उसके साथ, उसे सशक्त नहीं कर सकती? ड्रोन की मदद से इलाकों पर नज़र रखी जा सकती है पर जब आमना-सामना करना हो तो सैनिक को मैदान में उतारना ही पड़ेगा और इस सच्चाई से हम अपनी आंखें मूँद नहीं सकते।

आज वो 90 हजार की एम.एस.सी तैयार होती तो भारत के सभी जवाब, सीमा पर फ़ौज के और टेबल पर राजनयिक, सभी अलग होते। आज 90 हजार भी नहीं, अगर मात्र  30 हजार ही तैयार होते तो भी गलवान वादी में चीन ने जो हिमाक़त करी है, वो ना करता। आज हमारे सैनिक सीमा पर दुश्मन से और देश में अदूरदर्शि नियत और नीति से लड़ रहे हैं। आज हालात ये हैं कि ना केवल चीन, पर नेपाल भी भारत के सामने छाती चौड़ी करे खड़ा है। चीन के उकसाने पर आज नेपाल अपनी संसद में आने वाले भारतीय इलाकों को अपने नक्शे में दिखा रहा है और भारत अपने राजनयिक दांत पीस रहा है।

दो आक्रामक पड़ोसी पर भारत का दोहरा नज़रिया- एक तरफ़ आँख खोल रखी है और दूसरे की तरफ़ आँख बंद कर रखी है। पाकिस्तान, जिसके मुक़ाबले में हम अपने आप को उच्चस्तरीय मानते हैं, जिसके दुश्मनी-वजूद से हमारी राजनीति और क्रिकेट चलता है, उसी पर ही हमारा मीडिया, राजनीतिक और सैन्य संवाद केंद्रित रहता है। चीन, जो दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य ताक़तों में से एक है, जो हमारी सरज़मीं पर आर्थिक और सैन्य घुसपैठ खुले आम कर रहा है , उस पर हमारा हर संवाद और कदम भ्रम में धूमिल हैं। पाकिस्तान को हम घर में घुस कर मारेंगे पर चीन को अपने घर में घुसने से रोकने की तैय्यारी तक में हम अपने आँखें और जेबें बंद कर रहे हैं?

समय है दोनो आँखें खोलने का और राष्ट्र सुरक्षा व राष्ट्रहित सुनिश्चहित करने का।

नरेंद्र मोदी इज एक्चुअली सरेंडर मोदी : राहुल गांधी

चीन से हाल की सैन्य झड़प, जिसमें देश ने अपने २० जांबाज खो दिए, के बाद देश भर में जहां गुस्से की ज्वाला धधक रही है, वहीं बहुत सी अस्पष्ट स्थितियों को लेकर उठ रहे सवालों के बीच विपक्ष, विशेषकर कांग्रेस, लगातार सरकार और पीएम मोदी से सवाल पूछ रही है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अब एक ट्वीट करके पीएम नरेंद्र मोदी को ”सरेंडर मोदी” (आत्मसमर्पण करने वाले मोदी) कहा है।

सरकार ने पिछले दो दिन में अपनी तरफ से चीन से रिश्तों और सैन्य गतिरोध के अलावा हाल के घटनाक्रम को लेकर अपनी तरफ से सफाई दी है और पीएम मोदी ने भी कहा है कि न तो किसी ने हमारी किसी पोस्ट पर कब्ज़ा किया है, न कोई हमारी सीमा घुसा है, लेकिन वस्तुस्थिति को लेकर कुछ पूर्व सेना अफसरों और जानकारों के विरोधाभासी बयानों से स्थिति उलझी हुई है।

राहुल पीएम मोदी पर चीन के आगे ”समर्पण” कर उसे भारतीय क्षेत्र देने का आरोप लगा चुके हैं। उनका आज का ट्वीट उनकी ट्वीटर टीम के सरेंडर मोदी (Surender Modi) लिखना नरेंद्र मोदी से जानबूझकर जोड़ने की कोशिश लगती है, या टाइपो हुआ है, यह तो पता नहीं, लेकिन इस तरह उन्होंने पीएम पर चीन के मामले में कटाक्ष करने की कोशिश की है। दरअसल अंगरेजी शब्द सरेंडर की स्पेलिंग में दो आर आते हैं, इसलिए यह सवाल उठा है।

शनिवार के कांग्रेस ने बेहद हमलावर रुख अपनाते हुए कहा था कि ”मोदी ने भारतीय क्षेत्र में चीनी अतिक्रमण के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है”। कांग्रेस का यह ब्यान पीएम मोदी के सर्वदलीय बैठक के बाद इस ब्यान के बाद आया था जिसमें मोदी ने कहा था कि ”चीनी सैनिकों ने भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ नहीं की है, न किसी पोस्ट पर कब्ज़ा किया है”। राहुल ने इसके बाद उनसे पूछा था कि ”अगर वह जमीन चीन की थी, जहां भारतीय जवान शहीद हुए तो हमारे सैनिकों को क्यों मारा गया? उन्हें कहां मारा गया”?

अब रविवार को राहुल गांधी ने ट्वीट करके कहा है – ”नरेंद्र मोदी असल में सरेंडर मोदी हैं”। गांधी ने जापान टाइम्स के एक लेख को भी साझा किया है, जिसमें अखबार ने अपने एक लेख में भारत की मौजूदा नीति को ”चीन की तुष्टीकरण वाला” बताया गया है।

राहुल गांधी का ट्वीट –

@RahulGandhi
Narendra Modi
Is actually
Surender Modi

विश्व योग दिवस पर करें योग – रहे निरोग

हर साल की भांति इस साल भी 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर आज देश भर में योग को लेकर तमाम कार्यक्रमों का आयोजन किया गया । जिसमें योगाचार्यो के साथ-साथ आयुर्वेदाचार्यो, होम्योपैथिक चिकित्सकों, एलोपैथिक के डाक्टरों से सहित,राजनैतिक और कलाकारों ने भाग लिया और योग के महत्व पर बल देते हुये कहा कि शरीर- आत्मा के बीच सामंजस्य का अद्भभुत विज्ञान है।योगाचार्य व आर्युवेदाचार्य डाँ दिव्यांग देव गोस्वामी ने बताया कि जो व्यक्ति नियमित योग करता है । उसके पास कभी रोग नहीं भटकता है। उन्होंने कहा कि कोरोना से भी बचाव में भी योग एक सटीक व सरल उपाय है। इस दौरान उन्होंने ताडासन कर योग के फायदे बताते हुये कहा कि इससे लम्बाई बढती है और शरीर और दिमाग संतुलित रहता है।इंडियन हार्ट फाउंडेशन के अध्यक्ष डाँ आर . एन . कालरा ने कहा कि हार्ट रोगियों के साथ –साथ कोई भी ऐसा रोग नहीं है । जिसको योग करके दूर ना किया जा सकें । इसलिये नियमित योग कर निरोग रहने की कला हासिल की जा सकती है। मैक्स अस्पताल के कैथ लैब के डायरेक्टर डाँ विवेका कुमार ने बताया कि तमाम अध्ययनों से ये बात साबित हो चुकी है, कि योग करने से जीवन में संयम और शांति लायी जा सकती है । मधुमेह , मोटापा, तनाव, रक्तचाप जैसी बीमारी को काबू पाया जा सकता है। क्योंकि तमाम बीमारियों की जड मानसिक तनाव है। अगर कोई भी व्यक्ति योग को नियमित रूप से अपनी जीवन शैली में शामिल करता है तो निश्चित रूप से वह स्वस्थ्य रह सकता है।सूचना प्रसारण मंत्रालय के सदस्य राजकुमार सिंह ने योग दिदस पर स्कूली बच्चों के साथ योग को बढावा देते हुये कहा कि अगर स्कूली बच्चे अपनी दैनिक जीवन शैली में योग को शामिल करते है । तो वे तनावपूर्ण जीवन से छुटकारा पा सकते है और हिंसा जैसी प्रवृत्ति से भी । क्योंकि योग में रोग दूर करने की अद्भभुत शक्ति है। आयुष मंत्रालय के सदस्य व ईएनटी डाँ एम. के. तनेजा ने कहा कि योग में वो शक्ति है कि बेहरा भी अगर योग क्रिया को अपनाता है , तो उसको भी काफी लाभ हुआ है। योगाचार्य व आहारविद् विभा सिंह निगम ने बताया कि भौतिक शरीर को मानसिक शरीर से जोडना योग है ।उनका कहना है कि सही खान –पान के साथ – साथ नियमित योग करने वालों को कभी भी कोई बीमारी अपनी चपेट में नहीं ले सकती है। क्योंकि सही खान-पान और योग कर एक दूसरे के पूरक है। योग सदियों पुराना है इसको करने में कोई आधुनिक कला की जरूरत नहीं है। योग हमें जागरूक ही नहीं करता है बल्कि सक्रिय रखता है।जो शरीर और मन के बीच गठजोड स्थापित करता है। योग में तमाम आसनों के बारे में बताया गया है । योग करना बहुत सरल है पर जब योग को अपने जीवन में अपनाना शुरू करें तो किसी योगाचार्य के सहयोग से क्योंकि कई बार योग करने में कुछ लापरवाही और अनदेखी हो जाती है जिससे दिक्कत होती है इसलिये योग को करें योगाचार्य के सहयोग से ।वैसे आजकल देश में योग को लेकर जो जागरूकता को लेकर शिविर और तमाम कार्यक्रम होते है जिसका लाभ लोगों को मिल रहा है।

मजबूरों का आसरा मनरेगा

ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी को कम करने के लिए यूपीए सरकार की प्रमुख कार्यक्रम- महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा), जो मोदी 2.0 सरकार के पहले बजट में ही कटौती किये जाने से धन की कमी की वजह से हाँफ रही थी; अब लॉकडाउन में मानो उसे पंख मिल गये हैं। वास्तव में यह उन प्रवासी कामगारों की मदद करने के लिए दो जून की रोटी के लिए बेहद अहम है, जो सम्मान के साथ काम करके पैसा कमाना चाहते हैं। वे कोविड-19 के खौफ के चलते फिलहाल अपने मूल निवास की ओर लौटने को मजबूर हुए हैं और उनको तत्काल काम की भी तलाश है। 2019-20 के दौरान मनरेगा के लिए कुल 60,000 करोड़ रुपये आवंटित किये गये थे, जो कि 2018-19 के पिछले वर्ष में योजना के लिए निर्धारित 61,084 करोड़ रुपये से भी कम थे।

कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने कहा मनरेगा जैसी क्रान्तिकारी पहल इसलिए की थी; क्योंकि गरीब से गरीब व्यक्ति को भी काम के बदले पैसे की गारंटी मिलती है। इससे वह भूखा न रह सके साथ ही अपने आपको सक्षम बनाये। यह तर्कसंगत है। क्योंकि यह उन लोगों के हाथों में सीधे बैंक खाते में पैसा पहुँचता है।

यह विचार आसान था। ग्रामीण भारत में किसी भी नागरिक को अब काम माँगने का कानूनी अधिकार था और सरकार द्वारा प्रदान की गयी न्यूनतम मज़दूरी के साथ एक साल में 100 दिनों के काम की गारंटी प्रदान की गयी। यह ज़मीनी स्तर पर भी बहुत जल्दी कारगर साबित हुआ। माँग के आधार पर काम का अधिकार कार्यक्रम, अपने पैमाने और वास्तुकला में अभूतपूर्व साबित हुआ, जिससे गरीबी उन्मूलन में भी मदद मिली। मनरेगा के लागू होने 15 वर्षों में लाखों लोग भूख और बदतर होती, ज़िन्दगी से अपने आपको बचाने में कामयाब रहे।

कोविड-19 महामारी और इससे होने वाली तकलीफ ने सरकार को पूरे घेरे में ला दिया है। अभूतपूर्व कठिनाई और पहले से ही मंदी के दौर से गुज़र रही सरकार, यूपीए के प्रमुख ग्रामीण राहत कार्यक्रम पर वापस आने के लिए मजबूर हुई। मुँह से बोलने से ज़्यादा काम की अहमियत कहीं ज़्यादा होती है और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की हाल ही में और इस कार्यक्रम के समग्र आवंटन में एक लाख करोड़ रुपये से अधिक की वृद्धि की तुलना में स्पष्ट रूप से ज़्यादा कुछ नहीं कहा गया है।

मई, 2020 में 2.19 करोड़ परिवारों ने मनरेगा अधिनियम के माध्यम से काम करने की माँग की, जो आठ वर्षों में किसी भी महीने के लिए सबसे ज़्यादा है। शहरों में लॉकडाउन के चलते या कामकाज ठप हो जाने से बेरोज़गार हुए श्रमिक बड़ी तादाद में शहरों और कस्बों से अपने गाँवों में लौटे हैं। ऐसे में रोज़गार से वंचित, असुरक्षित भविष्य का सामना करते हुए करोड़ों लोगों के सामने बड़े पैमाने पर मानवीय संकट खड़ा हो गया है। मनरेगा की अहमियत को कभी कम करके नहीं आँका गया, बल्कि संकट के इस दौर में अब यह कहीं ज़्यादा प्रभावी लग रही है।

2019-20 के बजट में मनरेगा के लिए बजटीय आवंटन में कमी की गयी थी। एक साल पहले यह 2018-19 में इसका बजट 61,084 करोड़ हो गया था; जो 2014-15 में 34,000 करोड़ था। 2014-15 को छोडक़र निरंतर इसके लिए बजट आवंटन में इज़ाफा किया गया था। बजट और शासन की जवाबदेही के गैर-लाभकारी केंद्र के अनुसार, मुद्रास्फीति के लिए समायोजित किये जाने पर आवंटन वास्तव में कम कर दिये गये।

इसमें कुछ शक पैदा होता है कि केंद्र मनरेगा योजना के लिए धन खर्च नहीं हो पा रहा था; क्योंकि जनवरी 2020 तक आवंटित धन का 96 फीसदी से अधिक पहले ही राज्यों द्वारा खर्च किया जा चुका था। पाँच साल में पहली बार मनरेगा के लिए कम बजट आवंटित किया गया था, जो पिछले साल के वास्तविक खर्च के बराबर था। बजट 2019-20 में, मनरेगा को पिछले वर्ष के दौरान 61,084 करोड़ के मुकाबले 60,000 करोड़ रुपये ही आवंटित किये गये थे।

मनरेगा के लागू होने के बाद से वास्तविक व्यय सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए इस योजना के लिए अनुमोदित बजटीय आवंटन से अधिक रहा है। उदाहरण के लिए 2011-12 में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए बजट आवंटन 31,000 करोड़ रुपये था। लेकिन वास्तविक व्यय 37,072.82 करोड़ था। इसी तरह 2012-13 के लिए आवंटन 30,387.00 करोड़ था। लेकिन खर्च 39,778.29 करोड़ था। 2013-14 के दौरान इस योजना को 33,000 करोड़ रुपये आवंटित किये गये थे। लेकिन खर्च 38,511.10 करोड़ रुपये था।

2014-15 के लिए आवंटन 33,000 करोड़ पर स्थिर रहा, जबकि बाद में खर्च 36,025.04 करोड़ दर्ज किया गया। 2016-17 में इस योजना के लिए बजट को 48,220.26 करोड़ तक बढ़ाया गया था, जबकि वास्तविक व्यय 57,946.72 करोड़ हुआ। 2017-18 में एक साल बाद आवंटन घटकर 48,000 करोड़ हो गया। 2018-19 में बजट आवंटन को बढ़ाकर 61,084 करोड़ (संशोधित अनुमान) किया गया था। व्यय विवरण अभी तक इन वर्षों के लिए उपलब्ध नहीं है। लेकिन यह तथ्य कि अधिकांश धनराशि पहले ही समाप्त हो चुकी है, यह दर्शाता है कि फंड की कमी ने योजना को कठिन रूप से प्रभावित किया है।

बजट और शासन की जवाबदेही के गैर-लाभकारी केंद्र के अनुसार, मुद्रास्फीति के लिए समायोजित किये जाने पर आवंटन पर वास्तव में गिरावट आयी थी। यदि बजट प्रावधान रोज़गार की माँग को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, तो सरकार को अधिक धन आवंटित करना होगा। क्योंकि यह एक माँग-संचालित और विधायी कार्यक्रम है। 2018-19 के दौरान 267.96 करोड़ रोज़गार पैदा किये।

ग्रामीण विकास मंत्रालय के लिए समग्र आवंटन में पिछले वर्ष की तुलना में 5,200 करोड़ की वृद्धि हुई है। पिछले वित्तीय वर्ष के लिए कुल आवंटन 1,17,647 करोड़ था, जो कि अंतरिम बजट में प्रस्तावित था। 2018-19 के बजट में यह 1,12,404 करोड़ था। लेकिन तथ्य यह है कि मंत्रालय के लिए आवंटन बजट हर साल वृद्धि हो रही है। पर कुल बजट में इसका हिस्सा 2019-20 में घटकर 4.4 फीसदी हो गया है, जो 2018-19 में 4.7 फीसदी था।

ऐसा कहा जाता है कि कई बार आँकड़े कहानी को नहीं बताते हैं। सरकार ने दावा किया था कि मनरेगा के लिए 61,084 करोड़ रुपये का आवंटन अब तक का सबसे ज़्यादा बजट प्रावधान था। प्रेस सूचना ब्यूरो की एक विज्ञप्ति में दावा किया गया था कि भारत सरकार ने मनरेगा को संशोधित अनुमानों के स्तर पर अतिरिक्त 6,084 करोड़ रुपये आवंटित किये थे। इसने दावा किया था कि यह 2018-19 में योजना को कुल आवंटन 61,084 करोड़ तक पहुँचाता है, जिससे यह अब तक का सबसे अधिक आवंटन है। सरकारी सुधारों के ज़रिये स्थायी आजीविका के लिए मज़दूरी, आय और टिकाऊ सम्पत्ति के ज़रिये गरीबों और ज़रूरतमंदों का जीवन बेहतर सुनिश्चित करने पर ज़ोर दिया गया है।

मनरेगा मंत्रालय का एक प्रमुख कार्यक्रम है, जो गरीबी जैसी सामाजिक विषमताओं को दूर करने के साथ ही स्थायी और दीर्घकालिक विकास के लिए आधार पेश करती है। वास्तव में मनरेगा ग्रामीण भारत को अधिक उत्पादक, न्यायसंगत और समाज से जुड़ाव के रूप परिवर्तनकारी साबित हो रही है। इसने पिछले तीन वर्षों में में सालाना लगभग 235 करोड़ व्यक्ति दिवस प्रदान किये हैं। इस वर्ष यह स्थायी आजीविका के लिए रोज़गार का टिकाऊ ज़रिया साबित हो सकता है, जो पिछले चार साल में सबसे ज़्यादा खर्च करने का रिकॉर्ड दर्ज किया जाएगा।

सरकार ने दावा किया कि पिछले चार वर्षों में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने गरीबों के लिए स्थायी आजीविका के लिए मनरेगा के संसधान को बदल दिया है। काम के बाद 15 दिनों के भीतर भुगतान का सृजन जहाँ 2014 में केवल 26.85 फीसदी था और उस साल वर्ष बमुश्किल 29.44 लाख सम्पत्तियाँ पूरी हुई थीं। राज्यों के साथ साझेदारी में इन अंतरालों को पाटने के लिए एक व्यवस्थित राष्ट्रव्यापी अभ्यास शुरू किया गया था।

आम बजट में मनरेगा के लिए आवंटन का बढऩा इस कार्यक्रम में लोगों की बढ़ती आस्था का स्पष्ट प्रमाण है। चूँकि टिकाऊ परिसम्पत्तियों के निर्माण को बेहद अहम माना जाता है, इसलिए 60:40 के अनुपात को ग्राम पंचायत स्तर पर अनिवार्य किया गया था; जिसके कारण गैर-उत्पादक परिसम्पत्ति का निर्माण केवल इसलिए हो रहा था। क्योंकि उस ग्राम में अकुशल मज़दूरी पर 60 फीसदी खर्च किया जाना था और पंचायत के हिस्से में 40 फीसदी। पहला बड़ा सुधार ज़िला पंचायत स्तर पर 60:40 के बजाय ज़िला स्तर पर अनुमति देना था, इसके बाद ग्राम पंचायत स्तर पर। इस सुधार के बावजूद समग्र व्यय पर अकुशल मज़दूरी पर व्यय का अनुपात 65 फीसदी से अधिक है। इसने आय पैदा करने वाली टिकाऊ सम्पत्तियों पर ज़ोर दिया है। इसमें लचीलेपन को केवल उन परिसम्पत्तियों को लेने की अनुमति देता है, जो उत्पादक हैं।

प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन (एनआरएम) पर 60 फीसदी से अधिक संसाधन खर्च होते हैं। एनआरएम का काम फसलों की खेती और उपज दोनों के क्षेत्र में सुधार करके किसानों की उच्च आय सुनिश्चित करना है। इसे भूमि की उत्पादकता में सुधार और पानी की उपलब्धता के ज़रिये सम्भव बनाया जा सकता है। एनआरएम के तहत किये गये प्रमुख कार्यों में चेक डैम, तालाब, पारम्परिक जल निकायों का नवीकरण, भूमि विकास, तटबंध, फील्ड बड्स, फील्ड चैनल, पौधरोपण, खाइयाँ आदि शामिल हैं। पिछले 4 वर्र्षोंं के दौरान इस तरह के कामों को शामिल करके 143 लाख हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण किया गया। बड़े पैमाने पर जल संरक्षण, नदी का कालाकल्प और सिंचाई के कामों को मनरेगा के तहत पूरा किया गया है।

पिछले चार वर्षों में इस पर भी ज़ोर दिया गया कि टिकाऊ समुदाय और व्यक्तिगत लाभार्थी अपनी सम्पत्ति बना सकें। इसके लिए बकरियों के बाड़े, गौशालाएँ, 90-95 दिनों के काम, कुओं, खेत तालाबों, गोबर की खाद के लिए गड्ढे, पानी सोखने वाले गड्ढे आदि जैसी व्यक्तिगत लाभकारी योजनाएँ बड़ी संख्या में पिछले 4 वर्षों में हुई हैंै। इनसे वंचितों को वैकल्पिक स्थायी आजीविका तक पहुँच बनाने में मदद मिली है। इसी तरह आँगनबाड़ी केंद्रों (एडब्ल्यूसी) का निर्माण टिकाऊ सामुदायिक सम्पत्ति के निर्माण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास रहा है। एडब्ल्यूसी में पाँच साल के कम उम्र के बच्चों की देखभाल और विकास के लिए एक केंद्र के रूप में कार्य करता है, जहाँ काम करने वाली माताएँ अपने बच्चों को काम की तलाश में छोड़ सकती हैं। लगभग 1,11,000 आँगनवाड़ी केंद्रों का निर्माण किया जा रहा है। सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट के कामों को भी बड़े पैमाने पर किया गया है; जो स्वच्छ गाँवों, उच्च आय और गरीबों के लिए अधिक विविध आजीविका के लिए अग्रणी है। यह सब ग्राम पंचायत स्तर के बजाय ज़िला स्तर पर 60:40 की अनुमति से सम्भव हो रहा है। अकुशल मज़दूरी के प्रति प्रतिबद्धता, टिकाऊ सम्पत्तियों पर ज़ोर देने के बावजूद कम नहीं हुई है, जो आय सृजन और आजीविका में विविधता आयी है।

प्रत्येक वर्ष व्यक्ति दिनों के हिसाब से मज़दूरों का आकलन होता है। 2015-16 से लेकर 2018-19 तक काम की माँग पिछले तीन वर्षों में औसतन 235 करोड़ व्यक्ति दिन के साथ सबसे ज़्यादा रही और यह इस साल पिछले सारे रिकॉर्ड टूटने वाले हैं। ये आँकड़े 2009-10 को छोडक़र लगभग हर साल बेहतर तुलना के साबित होते हैं; क्योंकि गम्भीर सूखे का साल था। महिला एसएचजी के साथ मनरेगा का जुड़ाव, दीन दयाल अंत्योदय योजना-राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (डीएवाई-एनआरएलएम) की गतिविधियाँ भी गरीब घरों की आय की पूरक हैं। मनरेगा श्रमिकों के लिए कौशल विकास के अवसर प्रमाणित ग्रामीण राजमिस्त्री, तकनीशियन या दीन दयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना (डीडीयू-जीकेवाई) और ग्रामीण स्व रोज़गार प्रशिक्षण संस्थान (आरएसईटीआई) के अन्य कौशल कार्यक्रमों से गरीबी से लडऩे में मदद मिलेगी।

गरीबी से बाहर आने के लिए आय के कई स्रोतों के साथ आजीविका की विविधताओं पर ध्यान केंद्रित किया गया है। डीएवाई-एनआरएलएम के तहत महिला स्व-सहायता समूहों के आन्दोलन का विस्तार तीन करोड़ से लेकर लगभग छ: करोड़ सदस्यों तक हो चुका है। इस अवधि के दौरान रोज़गार टिकाऊ सम्पत्ति और स्थायी आजीविका देने के लिए मनरेगा में कई सुधार किये गये। मसलन 15 दिनों के भीतर भुगतान 2014-15 में जहाँ 26 फीसदी था, वह वर्तमान में बढक़र 91 फीसदी हो गया है; जो सुधार को दर्शाता है। इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ नई दिल्ली द्वारा 2018 में मनरेगा के प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन हस्तक्षेप का राष्ट्रीय मूल्यांकन,, एनआरएम कार्यों के कारण आय, लाभ, उत्पादकता, जल तालिका और चारे की उपलब्धता का अध्ययन किया गया। इस मूल्यांकन में 99.5 फीसदी सम्पत्ति बहुत अच्छी या अच्छी या फिर संतोषजनक पायी गयी, जो शासन सुधारों की सफलता के लिए एक मिसाल है।

ऐसा माना जाता है कि इससे व्यक्तियों की आय बढ़ती है। लेकिन बजट आवंटन की तुलना में अधिक व्यय को देखते हुए, कम-से-कम 15 राज्यों में वर्तमान में संतुलन नकारात्मक है। सबसे ज़्यादा नकारात्मक संतुलन राजस्थान में 620 करोड़ रुपये का है। इसके बाद उत्तर प्रदेश का नकारात्मक संतुलन 323 करोड़ रुपये है। महत्त्वाकांक्षी मनरेगा ने ग्रामीण मज़दूरी और आय को बढ़ाया है और ग्रामीण बुनियादी ढाँचे को भी बनाया है और देश की ग्रामीण आबादी को बेहद ज़रूरी रोज़गार प्रदान किये हैं। हालाँकि यह ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को एक प्रोत्साहन प्रदान करने में असमर्थ रहा है, क्योंकि धन आवंटन ने बढ़ती मुद्रास्फीति और बढ़ती माँग के साथ तालमेल नहीं रखा है। क्योंकि श्रम प्रवासन में कमी आयी है, जिसके परिणामस्वरूप गारंटीकृत रोज़गार प्रदान करने के लिए अधिक धनराशि चाहिए।

अब इसकी ज़रूरत फिर महसूस की जा रही है कि मनरेगा एक बार फिर प्रवासी मज़दूरों के लिए एक नयी जीवन रेखा साबित होने जा रही है। क्योंकि उत्तर प्रदेश सरकार ने इस योजना के तहत प्रतिदिन 50 लाख रोज़गार सृजित करने की परियोजना बनायी है। लॉकडाउन के दौरान नौकरियों के नुकसान के कारण उत्तर प्रदेश में प्रवासियों के बड़े पैमाने पर आवाजाही हुई है, जिससे कई राज्य प्रभावित हुए हैं। साथ ही बेरोज़गारों को काम मुहैया कराना उनकी ज़िम्मेदारी बन गयी है।

अकेले उत्तर प्रदेश में मनरेगा के मौज़ूदा कामगारों में 26.3 लाख से लेकर 50 लाख तक की वृद्धि का अनुमान है। हालाँकि इस कथित बीमार योजना ने बीएसपी, एसपी और अब भाजपा के शासन में विभिन्न ग्रामीण विकास परियोजनाओं के लिए आवंटित सार्वजनिक धनराशि को आवंटित करने के लिए बड़े घोटाले और नौकरशाहों की भागीदारी व मिलीभगत से गड़बड़झाले के कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। यहाँ तक कि उच्च न्यायालय ने सीबीआई जाँच की निगरानी भी वर्तमान शासन द्वारा भ्रष्टाचार पर ज़ीरो टॉलरेंस की नीति के बावजूद नौकरशाही के कामकाज में खास बदलाव नहीं देखने को मिला है।

उत्तर प्रदेश में महाराष्ट्र, गुज़रात और पंजाब जैसे समृद्ध राज्यों से अपने मूल गाँवों में प्रवासी श्रमिकों का बड़ी संख्या में आने से आॢथक बदलाव देखने को मिलेंगे। सरकार इस तथ्य से अच्छी तरह से अवगत है कि उसे औद्योगिक, ढाँचागत, रियल एस्टेट और कृषि क्षेत्रों में भारी नुकसान के मामले में आमद का असली खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। प्रवासी श्रमिक उत्पादन, अवसंरचना और औद्योगिक विकास के लिए इन राज्यों की जीवन रेखा का उपयोग करते हैं, जो संकट की वर्तमान स्थिति में बिना भोजन और पैसे के अब अपने अस्तित्व के लिए बेहद कठिन दौर से गुज़रने वाले हैं।

थोड़ा संदेह है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट अनुमान के ऊपर मनरेगा जैसी योजना के लिए 40,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त धनराशि की घोषणा की है। लॉकडाउन के तुरन्त बाद केंद्र सरकार ने पहले ही वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए केंद्रीय सहायता अनुदान की पहली किश्त के रूप में चालू वित्त वर्ष के लिए 1538.29 करोड़ रुपये का भुगतान जारी कर दिया था। हाल ही में घोषित अतिरिक्त विशेष पैकेज के तहत राज्य को पहले के आवंटन की तुलना में लगभग 5800 करोड़ रुपये प्राप्त करने का अनुमान है। राज्य सरकार ने सीधे बैंक हस्तांतरण के माध्यम से मनरेगा योजनाओं के लाभार्थियों के लम्बित वेतन को देने के लिए 225.39 करोड़ रुपये हस्तांतरित किये।

मोदी सरकार द्वारा घोषित वर्तमान आॢथक उपायों में तत्काल मौद्रिक योजना भी शामिल होनी चाहिए, ताकि कम-से-कम प्रवासियों को अपने हाथों में क्रय शक्ति प्राप्त हो, जो माँग पैदा करेगी और अंतत: आपूर्ति को बढ़ावा देगी। इससे अर्थ-व्यवस्था को गति मिलेगी। यह सलाह पूर्व आईएएस नरेंद्र नाथ वर्मा ने दी है, जिनके पास ग्रामीण विकास और एमएसएमई क्षेत्रों के क्षेत्र में बड़ा अनुभव है।

वर्मा एकीकृत औद्योगिक विकास के केंद्र के रूप में नोएडा औद्योगिक क्षेत्र के निर्माण के समय गर्भधारण की योजना और भूमि के अधिग्रहण में सहायक के तौर पर काम कर चुके हैं। 2011 की जनगणना के रिकॉर्ड बताते हैं कि उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश सहित हिन्दी हार्टलैंड राज्य भारत के कुल अंतर्राज्यीय प्रवासियों के 50 फीसदी का योगदान करते हैं। बिहार के साथ ही यूपी 37 फीसदी के साथ प्रवासियों का सबसे बड़ा स्रोत है। इसलिए विशेषज्ञों को लगता है कि हताश प्रवासी मज़दूरों को अचानक अब अचानक फिर से वहाँ लौटने का साहस नहीं करना चाहिए था। हालाँकि अचानक लॉकडाउन के कारण उन्हें कोई और रास्ता नहीं मिला। अब ऐसे परिदृश्य में मनरेगा तुरुप का पत्ता साबित हो सकती है।

भरोसे के लायक नहीं चीन

अपनी किताब ‘चाइनाज इंडिया वॉर’ में सामरिक मामलों के स्वीडिश विशेषज्ञ बर्टिल लिंटनर ने लिखा है कि 1962 की सर्दियों की शुरुआत में कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग ने भारत के खिलाफ युद्ध देश में कमज़ोर हो रही अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए थोपा था। चीन के शक्तिशाली नेता शी जिनपिंग, कोरोना वायरस के बीच उभरी वैश्विक और आंतरिक स्थितियों के कारण आज अपने देश के भीतर ऐसी ही स्थिति का सामना कर रहे हैं। तो क्या वह भी भारत के साथ आक्रामकता दिखाकर माओत्से तुंग की ही राह पर जाने की तैयारी कर रहे हैं? वह भी ऐसी स्थिति में जब आज दुनिया के कई देश चीन के खिलाफ हो गये हैं, जबकि 1962 में दोस्त माने जाने वाले रूस (तब सोवियत संघ) ने भी भारत का साथ न देकर तटस्थ की भूमिका निभायी थी।

बहुत-से ऐसे विशेषज्ञ हैं, जो यह मानते हैं कि चीन वर्तमान हालत में बड़ा नहीं, तो एक सीमित युद्ध भारत के साथ कर सकता है। हालाँकि कुछ अन्य कहते हैं कि युद्ध न तो भारत न ही चीन के लिए अच्छा रहेगा। वैसे ज़्यादातर लोग इस बात पर ज़रूर सहमत हैं कि 1962 का अनुभव बताता है कि भारत को चीन से चौकन्ना रहना चाहिए; क्योंकि वह भरोसे के काबिल नहीं है।

भले पिछले 58 साल में दोनों देशों में दोबारा युद्ध नहीं हुआ। लेकिन इस बार सीमा पर चीन की गतिविधियाँ असाधारण दिखती हैं। साल 1962 का युद्ध इस बात का गवाह है कि भारत के नज़रिये से चीन भरोसे के काबिल देश नहीं है। ज़ाहिर है कि इन हालत में भी भारत को चौकन्ना रहने की ज़रूरत है।

चीन ने 1962 का युद्ध भी अचानक ही नहीं कर दिया था। उसने इसकी तैयारी 1959 से ही कर दी थी, जब दलाई लामा को भारत ने शरण दी थी। लामा ने तब तिब्बत में चीनी कब्ज़े के खिलाफ असफल विद्रोह के बाद वहाँ से भारत में शरण ली थी। आज तिब्बत की निर्वासित सरकार भारत के ही हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला से चलती है। लेकिन सच यह भी है कि चीन ने 1962 युद्ध तब किया था, जब दोनों देशों की फिज़ाँ में हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारे गूँज रहे थे। भारत का इसके बाद चीन पर से भरोसा उठ गया। चीन जब भी भारत को धमकी देना चाहता है, तो वह 1962 के युद्ध की याद दिलाता है। और दुर्भाग्य से भारत में भी चीन का ही अनुसरण करते हुए हमारे राजनीतिक दल, खासकर भाजपा और उसके सहयोगी यही कहते हैं कि भारत अब वो नहीं, जो 1962 में था। लेकिन वे यह बात नहीं कहते कि इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री रहते 1967 में दो बार और 1986-87 में राजीव गाँधी के प्रधानमंत्री रहते एक बार चीन से गम्भीर टकराव के दौरान भारत की जाँबाज़ सेना ने चीन को बुरी तरह खदेड़ दिया था।

साल 1967 में क्रमश: नाथु ला दर्रा और चाओ ला, जबकि 1986-1987 में ऑपरेशन फाल्कन के तहत भारत की सेना ने नामका चू में चीन की सेना के दाँत बुरी तरह खट्टे किये थे। इतिहास में दर्ज है कि इन तीनों मौकों पर चीन की सेना को घुटने टेकने पड़े थे। साल 1967 के टकराव में तो चीन को अपने दर्जनों सैनिक और बंकर खोने पड़े थे।

चीन के भारत से सीमा पर तनाव के मद्देनज़र एक और घटना ध्यान देने के काबिल है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी (पीएलए) और पीपुल्स आम्र्ड पुलिस फोर्स (पीएपीएफ) की प्रतिनिधिमंडल की बैठक में बहुत अहम बात कही। देश के सुरक्षाबलों को उन्होंने निर्देश दिया कि वे सैनिकों की ट्रेनिंग को मज़बूत करें और युद्ध के लिए तैयार रहें।

उन्होंने इसके अलावा शीर्ष पोलित ब्यूरो की स्थायी समिति की बैठक में कहा कि यह ज़रूरी है कि पार्टी की केंद्रीय समिति के केंद्रीकृत और एकीकृत नेतृत्व को मज़बूत किया जाए। शी ने शीर्ष पोलित ब्यूरो की इस बैठक में कहा कि जब तक हमारे पास अडिग विश्वास, मिलकर काम करने का जज़्बा, बचाव और इलाज के वैज्ञानिक तरीके और सटीक नीति है; हम निश्चित तौर पर इस लड़ाई को जीत सकते हैं। बहुत-से जानकार जिनपिंग के बैठक में मिलकर काम करने का जज़्बे की बात कहने को लेकर कहते हैं कि यह चीन में उनके खिलाफ नाराज़गी के संकेत को ज़ाहिर करता है। कोरोना वायरस को लेकर भी चीन में असंतोष की बातें सामने आती रही हैं। यह आरोप लगते रहे हैं कि वुहान में वायरस से मरने वालों की संख्या कहीं ज़्यादा थी; लेकिन चीन ने सही आँकड़ों को दबा दिया है।

हॉन्गकॉन्ग में भी चीन की  प्रति नाराज़गी बढ़ रही है। वहाँ इसी 4 जून को हज़ारों प्रदर्शनकारियों ने तियानमेन चौक नरसंहार की बरसी पर पुलिस की मनाही के बावजूद बड़े पैमाने पर चीन के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन किये। इन प्रदर्शनों में चीनी राष्ट्रीय विधायिका के हॉन्गकॉन्ग क्षेत्र पर लगाये जा रहे नये सुरक्षा कानूनों के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन भी शामिल है।

याद रहे 4 जून, 1989 को चीन के तियानमेन स्क्वायर में लोकतंत्र समर्थक सैकड़ों छात्रों को चीनी सेना ने गोलीबारी करके मार दिया था। ताइवान में भी चीन के खिलाफ माहौल बन चुका है। अमेरिका ने तो हॉन्गकॉन्ग और ताइवान को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करने के लिए हाल में प्रस्ताव तक लाया है।

चीन दोनों पर कब्ज़ा करना चाहता है। जिनपिंग की नीति को ताइवान और हॉन्गकॉन्ग के मामले में चीन में असफल कहने वालों की तादाद कम नहीं। ज़ाहिर है कि ये चीज़ें जिनपिंग के नेतृत्व के लिए संकट बन सकती हैं; जिन्हें कुछ समय पहले आजीवन राष्ट्रपति बनाये रखने का प्रस्ताव चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में पास हो चुका है।

कुछ जानकार तो यह भी कहते हैं कि इस फैसले से भी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में उनके कुछ विरोधियों को यह फैसला रास नहीं आया है। जिनपिंग इस समय करीब 66 वर्ष के हैं और इस फैसले से चीन कम्युनिस्ट पार्टी के कई नेताओं का सर्वोच्च पद पाने का रास्ता भी बन्द हो गया है। इसके अलावा चीन के शिनजियांग प्रान्त में करीब 10 लाख उइगर मुस्लिमों का मसला भी चीन के लिए बड़ी परेशानी की बजह बन गया है। आरोप है कि चीनी सेना ने इन मुस्लिमों को शिविरों में कैद कर रखा है। ऐसी रिपोर्ट पिछले दिनों दुनिया भर के अखबारों में छपी हैं। आरोप है कि उइगर मुस्लिम शिविरों से भाग न सकें, इसलिए उन्हें दो ताले वाले दरवाज़ों में कैद करके रखा जाता है।

चीन में भले जनता पर सरकारी प्रतिबन्ध बहुत कड़े हों, मगर भीतर-ही-भीतर वहाँ लोकतंत्र की चाह बढ़ती जा रही है; खासकर युवा दूसरे देशों की तरह चीन में भी लोकतंत्र चाहते हैं। बेशक निरंकुश शासन इस तरह के विद्रोह को उभरने नहीं देता, लेकिन बहुत से जानकार मानते हैं कि चीन में विद्रोह की चिंगारी सुलग रही है और चीनी नेतृत्व इससे परेशान है। वुहान के वायरस की घटना ने विद्रोह की इस भावना को और मज़बूत किया है।

बर्टिल लिंटनर ने अपनी किताब चाइनाज इंडिया वॉर में लिखा है कि 1962 का युद्ध इसलिए भी था कि चीन भारत को नेहरू के नेतृत्व में विकासशील देशों के अगुआ के तौर पर उभरने से रोकना चाहता था। आज भी कमोवेश यही स्थिति है। चीन में भीतरी असंतोष के पनपने की चर्चा महीनों से चल रही है और भारत दक्षिण एशिया में एक आॢथक शक्ति बनकर उभर रहा है, जहाँ उसे अमेरिका जैसे महाशक्ति से समर्थन हासिल है। चीन इसे हज़म नहीं कर पा रहा है।

भारत के साथ चीन की 3488 किलोमीटर की लम्बी विवादित सीमा है और अलग-अलग हिस्सों में दोनों देशों की सेनाओं के बीच विवाद होता रहता है। इसी 5 मई को लद्दाख में दोनों देशों के सैनिकों के बीच झड़प के बाद दोनों देशों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा से लगते संवेदनशील क्षेत्रों में अपने सैनिकों को जिस तरह बढ़ाया है; वह तनाव को ज़ाहिर करता है। इस तनाव को कम करने के नज़रिये से 6 जून को दोनों देशों के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों की जो बैठक हुई थी, उसमें कुछ खास सामने नहीं आया है।

कोरोना के बाद से अमेरिका खुलेआम चीन के खिलाफ खड़ा हो गया है। चीन के विदेश मंत्री तो यहाँ तक कह चुके हैं कि अमेरिका और चीन में शीत युद्ध शुरू हो गया है। इस साल अमेरिका में राष्ट्रपति पद का चुनाव होना है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भरपूर कोशिश कर रहे हैं कि भारत खुलकर चीन के खिलाफ उनका साथ दे। हालाँकि भारत ने अभी तक चीन को लेकर बहुत सँभलकर चलने की लाइन पकड़ी हुई है; जो ठीक भी है। लेकिन कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ट्रंप से जैसी दोस्ती है, उसे देखते हुए भविष्य में भारत का क्या रुख रहता है? यह कहना अभी मुश्किल है।

ट्रंप भारत को जी-7 देशों के समूह में जोडऩे की वकालत कर रहे हैं। हैरानी तो यह है कि बिना भारत के इसका सदस्य बने ट्रंप अपने दोस्त मोदी को इसकी अगली बैठक में शामिल होने का न्यौता दे चुके हैं। ज़ाहिर है दक्षिण एशिया में भारत के सामरिक और आॢथक महत्त्व को समझते हुए ट्रंप यह सब कर रहे हैं। लेकिन कुछ जानकार यह भी कहता हैं कि इसके पीछे उनकी मंशा भारत के नेतृत्व को इस्तेमाल करने की भी हो सकती है। लिहाज़ा भारत को बहुत फूँक-फूँककर कदम उठाने चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं कि चीन से बहुत तनाव होने की स्थिति में रूस के मुकाबले आज की तारीख में अमेरिका भारत के लिए ज़्यादा मददगार साबित हो सकता है। पिछले वर्षों में भारत के अमेरिका से सम्बन्ध एक नए स्थान पर पहुँचे हैं। इसके फायदे और नुकसान दोनों हैं, लेकिन यह तय है कि चीन यदि चीन भारत के साथ तनाव को युद्ध जैसी स्थिति में ले जाता है, तो यह निश्चित है कि अमेरिका भारत के साथ खड़ा होगा। यही नहीं चीन से नाराज़ बैठे देश भी चीन के खिलाफ लामबन्द हो सकते हैं, जिससे चीन के लिए विकट स्थिति बन सकती है।

पंगे करता रहा है चीन 

ऐसा नहीं है कि आज के ताइवान और हॉन्गकॉन्ग ही चीन से परेशान रहे हैं। बहुत पहले से ही चीन ऐसी खुराफातें करता रहा है। तिब्बत इसका एक बड़ा उदहारण है। साल 1949 में चीन ने नूब्रा और झिनजियांग के बीच की सीमा को बन्द करके तेल व्यापार रोक दिया था। चीन ने इस क्षेत्र के तिब्बतियों को 1950 में घुसपैठ करके बहुत परेशान किया था। यहाँ तक की चीन सिक्किम को भी भारत का हिस्सा नहीं मानता।

साल 1962 में भारत के साथ युद्ध में चीन ने अक्साई चिन इलाके को कब्ज़ा लिया और इसके तुरन्त बाद झिनजियांग और तिब्बत के बीच सडक़ निर्माण शुरू करवा दिया। यही नहीं पाकिस्तान के साथ मिलकर चीन ने काराकोरम हाईवे भी बनवाया। इसके जवाब के लिए भारत ने लगभग उसी समय सामरिक रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण श्रीनगर-लेह हाईवे तैयार किया। अब लेह से श्रीनगर की दूरी सिर्फ दो दिन रह गयी; जबकि पहले यह करीब 16-17 दिन थी।

चीन बहुत पहले से ही विस्तारवादी नीति अपनाने वाला देश रहा है। हालाँकि यह भी सच है कि पाकिस्तान के आपरेशन जिब्राल्टर से पैदा किये हालात के बाद हुए 1965 के युद्ध और फिर 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय चीन पाकिस्तान का साथ देने की हिम्मत नहीं दिखा पाया था। तब इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में पाकिस्तान के दो टुकड़े करके भारत ने स्वतंत्र बांग्लादेश का गठन करवाया। इसके अलावा 1999 में कारगिल संघर्ष, जिसे कुछ लोग सीमित युद्ध भी कहते हैं; भी सीधे भारत-पाकिस्तान के ही बीच हुआ और चीन ने इसमें भी कोई दखल नहीं दिया।

लद्दाख का इलाका, जहाँ अब चीन ज़्यादा गतिविधियाँ कर रहा है; में कुछ मुद्दों को लेकर तनाव की स्थिति बनती रही है। लद्दाख को 1979 में दो अलग-अलग ज़िलों कारगिल और लेह में विभाजित कर दिया गया। इसके करीब नौ साल बाद 1989 में बौद्ध और मुस्लिम आबादी में तनाव पैदा हो गया, जिसके नतीजतन वहाँ साम्प्रदायिक दंगे भी हुए। उस समय लद्दाख के लोगों ने माँग की थी कि उन्हें कश्मीर से अलग कर दिया जाए और उन्हें यूटी का दर्जा दिया जाए। उनकी ज़रूरतों, भौगोलिक स्थिति और इच्छाओं का खयाल रखते हुए केंद्र सरकार ने 1993 में सीमित स्वायत्ता के तहत एलएचडीसी का गठन किया।

लद्दाख स्वायत्त हिल डेवलपमेंट परिषद् की स्थापना

चीन के साथ 1962 के युद्ध के समय से ही लद्दाख की सीमा को लेकर विवादों ने पीछा नहीं छोड़ा है। तबसे यहाँ हालात यहाँ पेचीदा रहे हैं और लद्दाख के उत्तर पूर्वी छोर पर भारतीय और चीनी सैन्य बलों की भारी तैनाती रही है। लद्दाख के चुमार जैसे इलाके पिछले कुछ साल में सीमा विवाद को लेकर सुॢखयों में रह चुके हैं।

चीन भले लद्दाख को लेकर शरारतें करता रहा हो, तिब्बत के कम्युनिस्ट नेता फुंत्स्योक वांग्याल लद्दाख को तिब्बत का हिस्सा बताते रहे हैं। हालाँकि साल 2014 में उनके निधन के बाद तिब्बत से ऐसी कोई बात नहीं उठी। अब जबकि चीन से भारत का तनाव चल रहा है और इसके केंद्र में लद्दाख का क्षेत्र है, भारत के धर्मशाला में स्थित तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री लोबसांग सांग्ये ने लद्दाख को भारत का हिस्सा बताया है। यहाँ यह ज़िक्र करना भी ज़रूरी है कि 1959 में तिब्बत छोडक़र भारत आने को मजबूर हुए तिब्बतियों के धाॢमक गुरु दलाई लामा के पीछे चीन के एजेंट हमेशा पड़े रहे हैं।

ताकत का नशा और असंतोष

शी जिनपिंग ही चीन में ऐसे नेता हैं, जिनके पास माओ त्स तुंग जैसी असाधारण शक्तियाँ हैं। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में उनकी ताकत का अहसास इस बात से हो जाता है कि मार्च 2018 में एक सांविधानिक संशोधन किया गया, जिसमें यह प्रावधान कर दिया गया कि जिनपिंग दो बार से ज़्यादा राष्ट्रपति रह सकते हैं। इससे पहले चीन में दो बार से ज़्यादा राष्ट्रपति न बन पाने की बाध्यता थी। इस तरह जिनपिंग के आजीवन राष्ट्रपति रहने का रास्ता साफ हो गया है। बशर्ते वह अपनी तरफ से पद न छोड़ दें या कोई हालात उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर न कर दें।

हालाँकि जिस तरह माओ तसे तुंग को अपनी आॢथक नीतियों के कारण सत्ता गँवानी पड़ी थी, कुछ वैसा ही जिनपिंग को भी आने वाले समय में झेलना पड़ सकता है। पश्चिम के मीडिया में पिछले कुछ समय से यह खबरें लगातार आ रही हैं कि चीन में असंतोष पैदा हो रहा है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी भले जिनपिंग के नेतृत्व में चीन के सुपर पॉवर बनने की तरफ बढऩे की बात जनता को बता रही है; देश की आंतरिक स्थिति इसके विपरीत है।

चीन में सूचनाएँ देश से बाहर देने पर सख्त पाबन्दी है। लेकिन हाल के समय में ऐसी सूचनाएँ, खासकर पश्चिम में पहुँचने लगी हैं; जो यह संकेत देती हैं कि हालात वैसे नहीं हैं, जैसे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी बताती है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने 2010 से 2020 के बीच अपनी अर्थ-व्यवस्था दोगुना करने का लक्ष्य रखा था। लेकिन इस साल ऐसा हो पायेगा, इसकी दूर-दूर तक सम्भावना नहीं दिख रही। कम्युनिस्ट पार्टी लक्ष्य को हासिल करने के लिए चीन को इस साल 5.6 फीसदी की दर से आगी जाना होगा। लेकिन विशेषज्ञ 2.9 फीसदी से ज़्यादा की सम्भावना नहीं मान रहे।

चीन में 2022 में जिनपिंग का वर्तमान कार्यकाल पूरा होगा। वह फिर से राष्ट्रपति बनेंगे या नहीं, इसे लेकर अभी से अटकलें शुरू हो गयी हैं। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर नेतृत्व परिवर्तन पर विचार हो सकता है। यदि ऐसा होना होगा, तो 2021 के शुरू में इसका आभास हो जाएगा। ऐसे में जिनपिंग निश्चित ही दबाव में हैं। सीमा पर तनाव को बहुत से जानकार इन चुनावों से भी जोडक़र देखते हैं।

कोरोना के बाद चीन से विदेशी कम्पनियाँ निकलने लगी हैं। चीन ने हाल के साल में उत्पाद क्षमता को काफी बढ़ा लिया है। लेकिन माँग घटेगी, तो यह क्षमता बैकफायर भी कर सकती है। बड़ी संख्या में लोग बेरोज़गार हो सकते हैं और पहले से पनप रहे सामाजिक असंतोष की चिंगारी भडक़ सकती है। जिनपिंग इस स्थिति के खतरे को समझते हैं। चीन की वहाँ लैब में कोविड-19 वायरस की उत्पत्ति की अटकलों और दुनिया भर में इससे हुई तबाही ने चीन को दुनिया के एक बड़े हिस्से से अलग-थलग करके रख दिया है।

खुद चीन के निजी निवेशकों में जिनपिंग पर से भरोसा कम हुआ है। कोरोना की जानकारी जिस तरह चीन के ही कुछ बुद्धिजीवियों ने चीन से बाहर पहुँचाने की कोशिश की, वैसे ही देश के भीतर असंतोष की खबरें भी बाहर जाने लगीं। चीन के शासकों ने भले इसके खिलाफ दमन की नीति अपनायी है; लेकिन लोग जोखिम उठाकर सूचनाएँ चीन से बाहर भेज रहे हैं।

चीन में कोरोना की जानकारी सबसे पहले दुनिया के सामने लाने वाले डॉक्टर ली वेनलियांग की संदिग्ध हालात में मौत से चीन की जनता में शासन के खिलाफ कई सवाल पैदा हुए हैं। सत्ता के केंद्रीकरण के खिलाफ माहौल बनना जिनपिंग के लिए खतरे की घंटी कही जा सकती है। ऊपर से चीन के मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा वर्तमान शासन व्यवस्था से मुक्ति की कल्पना करने लगा है। विशेषज्ञों के अनुसार, चीन के भीतर पनप रहा असंतोष धीरे-धीरे सामने आ रहा है। शी जिनपिंग के दुर्ग में भी दरार दिखायी देने लगी है। अभी कहना कठिन ही नहीं, बल्कि बहुत जल्दबाज़ी होगी कि जिनपिंग की सत्ता पर से पकड़ ढीली हो रही है। लेकिन संकेत ऐसे ज़रूर हैं कि नेतृत्व कहीं-न-कहीं चिन्तित है।

कहानी लद्दाख की

क्या आपको मालूम है कि जिस लद्दाख क्षेत्र में आज चीन अपनी गतिविधियाँ तेज़ कर रहा है, उस लद्दाख पर चीन ही नहीं, तिब्बत भी अपना अधिकार जताता रहा है। लद्दाख तिब्बत, भूटान, चीन, बाल्टिस्तान और कश्मीर के साथ कई संघर्षों के बाद 19वीं सदी से 5 अगस्त, 2019 तक कश्मीर का ही हिस्सा रहा। इतिहास के पन्ने उठाकर देखें, तो पता चलता है कि 19वीं शताब्दी में जब जम्मू-कश्मीर के डोगरा राजवंश के शासकों ने लद्दाख को हासिल किया, उससे बहुत पहले से लद्दाख का इतिहास 2,000 साल से भी पुराना है। हिमालय और काराकोरम पर्वत शृंखला के बीच बसे इस भूभाग पर समय-समय पर ताकतवर रहे तमाम देशों की नज़र रही है। बात शुरू करते हैं 17वीं सदी के अन्त से। उस समय जब तिब्बत से लद्दाख का विवाद चला, तो उसने खुद को भूटान के साथ जोड़ लिया। साल 1834 में महाराजा रणजीत सिंह के सिपहसालार जनरल ज़ोरावर सिंह ने लद्दाख को डोगरा वंश की लड़ाई लड़ते हुए जीता। साल 1842 में लद्दाख की तरफ से विद्रोह हुआ; लेकिन इसे कुचल दिया गया। इस तरह लद्दाख डोगरा और फिर जम्मू-कश्मीर का हिस्सा बन गया। तब लद्दाख के शासक नामज्ञाल वंश को स्तोक की जागीर दी गयी और उन्हें वज़ीर-ए-वज़ारत की पदवी से नवाज़ा गया। साल 1850 के बाद लद्दाख में ब्रिटिश हुकूमत के साथ-साथ यूरोप ने भी दिलचस्पी दिखानी शुरू की। ब्रितानी हुकूमत ने 1885 में लेह में मोरावियन चर्च के मिशन का हेडक्वार्टर स्थापित किया। साल 1947 में जब बँटवारे के बाद भारत स्वतंत्र हुआ, उसके बाद कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने 1948 में पाकिस्तानी कबीलाइयों ने लद्दाख के कारगिल और जंसकार में घुसकर इस हिस्से पर कब्ज़े की कोशिश की तो महाराजा के आग्रह पर प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की तरफ से भेजे गये भारतीय सैनिकों ने महाराजा की मदद की और कबीलाइयों को वहाँ से खदेड़ बाहर किया। महाराजा ने इससे प्रभावित होकर जम्मू-कश्मीर का भारत में सशर्त विलय कर दिया। इस तरह लद्दाख भारतीय जम्मू-कश्मीर का हिस्सा बन गया। अगस्त 1995 में केंद्र में कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार ने लद्दाख को जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा ही रखते हुए कुछ हद तक स्वायत्त बनाने के लिए वहाँ लद्दाख हिल डेवलपमेंट कॉउंसिल (एलएएचडीसी) स्थापित कर दी; जिसकी 30 सीटों के लिए चुनाव की व्यवस्था की गयी। साल 2019 में 5 अगस्त को भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार ने जम्मू कश्मीर राज्य को तोड़ते हुए लद्दाख को उससे अलग करके केंद्र शासित प्रदेश (यूटी, बिना विधानसभा) का दर्जा दे दिया।

जब भारत से हारा था चीन

बेशक चीन से धोखा मिलने पर हुए 1962 के युद्ध में भारत को भीतर तक झकझोर देने वाली शिकस्त मिली थी, इसके सिर्फ पाँच साल बाद ही भारत ने दो बार चीन के दाँत बुरी तरह खट्टे किये थे। ऐसा माना जाता है कि भारत के सैनिकों की इस जाँबाज़ी का ही असर है कि चीन इसके बाद भारत से पंगा लेने की हिम्मत नहीं कर पाया। यह तब की बात है, जब लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद में मृत्यु के बाद इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बने एक ही साल हुआ था।

साल 1967 में भारत का चीन के साथ जो संघर्ष हुआ, उसमें चीन के सैनिक बड़े पैमाने पर मारे गये थे। यह एक ऐसा संघर्ष था, जिसका नतीजा यह हुआ कि उसके बाद जब भी कभी भारत के साथ चीन का तनाव बना, कभी भी उसमें गोली का इस्तेमाल नहीं हुआ। यह संघर्ष दो बार हुआ। पहली बार रणनीतिक रूप से बहुत अहम नाथू ला दर्रे में। करीब 14,200 फीट ऊँचाई पर स्थित नाथू ला दर्रा तिब्बत-सिक्किम सीमा पर है; जिससे होकर पुराना गैंगटोक-यातुंग-ल्हासा ट्रेड रोड (व्यापार मार्ग) गुज़रता है। साल 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान चीन के कहने पर भारत ने जेलेप ला दर्रा खाली कर दिया था। लेकिन नाथू ला दर्रे पर आज तक भारत का कब्ज़ा है। इसके बाद नाथू ला दर्रे को लेकर चीन भारत के साथ टकराव करने लगा। कुछ समय बाद ही यह दोनों देशों के सैनिकों के बीच धक्का-मुक्की में बदल गया।

इसके बाद 6 सितंबर, 1967 को भारत ने एक बड़ा फैसला किया। धक्का-मुक्की की एक घटना के बाद भारतीय सेना ने नाथू ला दर्रे से सेबू ला दर्रे के बीच तार बिछाने का फैसला किया। यह ज़िम्मा 70 फील्ड कम्पनी ऑफ इंजीनियर्स और 18 राजपूत बटालियन की टुकड़ी को सौंपा गया। चीन ने इसका काम रोकने को कहा। लेकिन भारतीय सैनिकों के ऐसा करने से मना करने पर गम्भीर तनाव बन गया और कुछ घंटे के बाद चीन के सैनिकों ने मशीन गन से गोलीबारी शुरू कर दी। अचानक हुए इस घटनाक्रम से भारत के सैनिक हक्के-बक्के रह गये। भारत के सैनिक शहीद भी हुए, जिससे भारतीय सैनिकों में गुस्सा भर गया। तब तक भारत के करीब 70 सैनिक, जिसमें कुछ अधिकारी भी शामिल थे; शहीद हो चुके थे। इसके बाद भारत ने ज़बरदस्त जवाबी हमला किया। 1962 के युद्ध की जीत के गुरूर से भरे चीन को इसकी कतई उम्मीद नहीं थी। सेबू ला और कैमल्स बैक क्षेत्र में अपनी ताकतवर रणनीतिक स्थिति का लाभ लेते हुए भारतीय सैनिकों ने आर्टिलरी शक्ति का इस्तेमाल कर चीनी सैनिकों के होश उड़ा दिये। चीन के कई बंकर ध्वस्त हो गये और एक अनुमान के मुताबिक, 400 से ज़्यादा चीनी सैनकों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।

लगातार तीन दिन भारत के सैनिक मोर्चे पर डटे रहे और चीन के हवाई हमले की धमकी के बावजूद भारत ने अपना इरादा नहीं बदला। लेकिन चीन की हिम्मत पस्त हो गयी और उसे फायङ्क्षरग रोकनी पड़ी। चीनियों को बड़े पैमाने पर मारे गये अपने सैनिकों के शव ले जाने पड़े। इस दौरान वहाँ हमारे सैनिक भारत माता की जय के नारे लगते रहे। लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा और लेफ्टिनेंट जनरल सैम मानेकशॉ जैसे वरिष्ठ सैनिक अफसरों की उपस्थिति में शवों की अदला-बदली हुई। हालाँकि चीन ने कुछ ही दिन बाद पहली अक्टूबर को फिर गुस्ताखी की। इस बार चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने चाओ ला क्षेत्र में भारत के सैनिकों को ललकारने की कोशिश की। लेकिन गोरखा राइफल्स और जैक राइफल्स ने चीन को फिर सबक सिखाया; जिसके बाद चीन शान्त होकर बैठ गया।

इन दो घटनाओं के बाद 1987 में फिर चीन ने भारत के साथ फिर भिडऩे की गुस्ताखी की। तब राजीव गाँधी देश के प्रधानमंत्री थे। यह वो समय था, जब राजीव गाँधी श्रीलंका में तमिल संघर्ष (एलटीईई) पर फोकस किये हुए थे। चीन 1986 से ही सीमा पर छिटपुट पंगे ले रहा था। संघर्ष की शुरुआत तवांग के उत्तर में समदोरांग चू रीजन में 1986 में ही हो गयी थी। चीन से निपटने के लिए उस समय के सेना प्रमुख जनरल कृष्णास्वामी सुंदरजी के नेतृत्व में ऑपरेशन फाल्कन की रूपरेखा तैयार हुई। साल 1987 में नामका चू में चीन ने झड़प की। उस समय भारतीय सेना नामका चू के दक्षिण में उपस्थित थी। हालाँकि भारत की एक टीम समदोरांग चू में भी पहुँच गयी। समदोरांग चू के भारतीय इलाके में चीन ने अपने तम्बू गाड़ दिये थे। भारत ने चीन को अपने क्षेत्र में लौट जाने के लिए कहा; लेकिन चीन ने लड़ाई की तैयारी के लिहाज़ से अपने सैनिकों का वहाँ बड़े पैमाने पर जमावड़ा कर लिया। चौकन्ने भारत ने भी इसके बाद वहाँ सेना को तैनात कर दिया। ऑपरेशन फाल्कन की योजना बनी और तवांग से आगे सडक़ नहीं होने के कारण 1986 में सेना प्रमुख बने जनरल सुंदरजी ने जेमीथांग में एक ब्रिगेड को एयरलैंड करवाया। रूस ने भारत को हैवी लिफ्ट एमआई-26 हेलीकॉप्टर कुछ महीने पहले ही दिये थे। भारत की सेना ने हाथुंग ला पहाड़ी पर स्थिति साध ली, जहाँ से समदोई चू और तीन और पहाड़ी इलाकों पर नज़र रखनी सुगम थी। ये ऊँची जगहें थीं; जिसे जंग में लाभकारी पोजीशन (एडवांटेज) माना जाता है।

ऑपरेशन के तहत लद्दाख के डेमचॉक और उत्तरी सिक्किम में भी भारत ने टी-72 टैंक उतार दिये गये; जिसने चीनी सेना के होश फाख्ता कर दिये। कहा जाता है कि चीन पर ज़बरदस्त दबाव बनाते हुए करीब 6.70 सैनिकों की बड़ी फौज वहाँ जुटा ली। चीन के हौसले पस्त हो गये और लद्दाख से लेकर सिक्किम तक चीनियों ने घुटने टेक दिये। चीन के खिलाफ इस रणनीतिक सैन्य जीत का लाभ उठाते हुए राजीव गाँधी सरकार ने बड़ा राजनीतिक फैसला करते हुए 20 फरवरी, 1987 को चीन की आँखों की किरकिरी बने रहने वाले अरुणाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया। यह घटनाएँ ज़ाहिर करती हैं कि चीन ये सबक याद करते हुए भारत के खिलाफ बहुत सोच-विचार करके ही संघर्ष की सोचेगा। इसके बाद भारत-चीन के बीच साल 2017 में डोकलाम में भी तनाव बना।

डोकलाम का एक हिस्सा सिक्किम में भारतीय सीमा से सटा है। चीन वहाँ सडक़ निर्माण करना चाहता है। भूटान भी इस इलाके पर अपना दावा जताता है और अभी तक वह भारत के साथ रहा है। भारत का भूटान को सैन्य और राजनयिक सहयोग रहा है; जबकि चीन से भूटान के कोई राजनयिक सम्बन्ध तक नहीं है। डोकलाम में 73 दिन तक तनाव रहा। सैनिकों की धक्का-मुक्की भी हुई। बाद में 9 सितंबर, 2017 को दोनों पक्षों में महज़ तीन घंटे में यह विवाद सुलझ गया।

सैन्य शक्ति : भारत बनाम चीन 

भारत और चीन महाशक्ति माने जाते हैं। दोनों ने समय के साथ खुद को सैन्य और सामरिक दृष्टि से ताकतवर करने की कोशिश की है। देखते हैं कि हरेक क्षेत्र में दोनों देशों की क्या स्थिति है? सबसे पहले बात करते हैं दोनों देशों के रक्षा बजट की। अमेरिका के बाद दुनिया में चीन का ही रक्षा बजट सबसे ज़्यादा है। इस समय चीन का रक्षा बजट 179 अरब डॉलर के करीब है। इसके मुकाबले फरवरी में पेश किये बजट के गणित में रक्षा क्षेत्र का खर्चा करीब 70 अरब डॉलर है; जो चीन से कहीं कम और जीडीपी का महज़ 2.1 फीसदी है। थल सेना की बात करें, तो भारत के पास जवानों की संख्या 14.44 लाख है; जबकि 21 लाख रिजर्व सैनिक भी भारत के पास हैं।

चीन के पास 21.83 लाख सैनिक हैं। हालाँकि उसकी रिजर्व ताकत 5.10 लाख जवान ही हैं। इसके बाद बात नौसेना की शक्ति की। भारत के पास एक युद्धपोत है, जबकि 18 विमान वाहक युद्धपोत हैं। भारत के पास 10 विध्वंसक युद्धपोत हैं; जबकि लड़ाकू युद्धपोतों की संख्या 15 है। इसके अलावा 135 गश्ती युद्धपोत भी हैं। भारत के पास 20 लघु जंगी जहाज़ के अलावा 14 पनडुब्बियाँ, 295 समुद्री बेड़े भी हैं। भारत के पास 22 मंज़िल की इमारत जैसा ऊँचा आईएनएस विक्रमादित्य युद्धपोत है, जिसमें कामोव-31, कामोव-28, हेलीकॉप्टर, मिग-29के लड़ाकू विमान, ध्रुव और चेतक हेलिकॉप्टर, 30 विमान और एंटी मिसाइल प्रणालियाँ तैनात हैं; जो एक हज़ार किलोमीटर के बड़े दायरे में दुश्मन के लड़ाकू विमान और युद्धपोत को धवस्त करने की क्षमता रखते हैं। इसके अलावा आईएनएस चक्र-2 भी है, जो नाभिकीय ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बी है। चीन की बात करें, तो उसकी नौसेना में भारत की तरह एक युद्धपोत है; जबकि विमान वाहक युद्धपोत 48, विध्वंसक युद्धपोत 35, लड़ाकू युद्धपोत 51, गस्ती युद्धपोत 220, छोटे जंगी जहाज़ 35, पनडुब्बियाँ 68 और 714 समुद्री बेड़े हैं। अब बात वायुसेना ताकत की। भारत की वायुसेना में करीब 1.40 लाख सैनिक हैं। हमारे पास 1700 एयरक्राफ्ट हैं, 900 कॉम्बैट एयरक्राफ्ट, 10 सी-17 ग्लोबमास्टर एयरक्राफ्ट और फ्रांस से आने वाले 36 राफेल फाइटर जेट जुडऩे वाले हैं। हाल ही में भारत ने स्वदेशी विमान तेजस की दूसरी स्क्वाड्रन वायुसेना में शामिल की है। इस स्क्वाड्रन को फ्लाइंग बुलेट्स का नाम दिया गया है। वायुसेना ने हल्के लड़ाकू विमान तेजस को एचएएल से खरीदा है। उधर चीन के पास दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी वायुसेना है और उसके पास 3.25 लाख के करीब सैनिक हैं। इसके अलावा चीन के पास 2800 मेन स्ट्रीम एयरक्राफ्ट, 1900 कॉम्बैट एयरक्राफ्ट, 192 एडवांस्ड लॉन्चर, ज़मीन से हवा में मार करने वाले एस-300 मिसाइल भी हैं। भारत की वायुसेना को चीन से बेहतर माना जाता रहा है। मिराज-2000, मिग-29, सी-17 ग्लोबमास्टर मालवाहक विमान और सी-130जे सुपर हरक्यूलिस मालवाहक विमान, सुखोई-30 लड़ाकू विमान, चिनूक हेलिकॉप्टर और राफेल जुडऩे से भारत की वायुसेना शक्ति बहुत मज़बूत है। भारत के पास राडार को भी फेल कर सकने वाली ब्रह्मोस जैसी मारक मिसाइल भी है। जहाँ तक एयरपोट्र्स की बात है, भारत के पास कुल 346 हवाई अड्डे हैं। इसके अलावा 1719 मर्चेंट मरीन, 13 पोर्ट और टॢमनल्स और 52.10 करोड़ लेबर फोर्स है। इसके मुकाबले चीन के पास 507 एयरपोट्र्स हैं, 4610 मर्चेंट मरीन, 22 पोर्ट और टर्मिनल्स और 80.67 करोड़ लेबर फोर्स है। इन आँकड़ों में समय-समय पर बढ़ोतरी होती रहती है। लिहाज़ा उपरोक्त आँकड़ों में भी हो सकती है।

देश के मान-सम्मान और स्वाभिमान पर किसी तरह की चोट को मोदी सरकार बर्दाश्त नहीं करेगी। भारत और चीन लगातार सैन्य और कूटनीतिक रूप से सम्पर्क में लगे हुए हैं। अब तक का परिणाम सकारात्मक रहा है। लेकिन मैं सभी को आश्वस्त करना चाहता हूँ कि मोदी सरकार में भारत की अखण्डता और गरिमा पर कोई समझौता नहीं होगा। हम किसी के मान-सम्मान पर न चोट पहुँचाते हैं और न अपने मान-सम्मान और स्वाभिमान पर चोट बर्दाश्त कर सकते हैं; यह हमारा चरित्र रहा है। विपक्ष को भी मैं कहता हूँ कि भारत-चीन मामले पर हमें ज़्यादा समझाने की कोशिश मत कीजिए।

राजनाथ सिंह, रक्षा मंत्री

भारतीय सैनिक सीमावर्ती क्षेत्रों, खासकर चीन से लगती सीमा पर हमेशा शान्ति बनाये रखते हैं। हमारी उत्तरी सीमाओं पर इन्फ्रास्‍ट्रक्‍चर क्षमताओं का तेज़ी से विकास हो रहा है। दोनों पक्षों ने स्थानीय स्तर पर बातचीत के ज़रिये मामले को सुलझाया है। सैनिकों के बीच हुई झड़प की दोनों घटनाओं का मौज़ूदा घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों से कोई सम्बन्ध नहीं है।

मनोज मुकुंद नरवणे, सेना प्रमुख

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीनी सैनिकों के लद्दाख में घुसने के बाद भी चुप रहे हैं। मोदी इस मामले से गायब दिख रहे हैं। खबरें हैं कि चीनी सैनिक लगातार सीमा के अन्दर आ रहे हैं; लेकिन सरकार इस पर खामोशी ओढ़े हुए है। प्रधानमंत्री मोदी को इस पर चुप्पी तोडऩी चाहिए।

राहुल गाँधी, कांग्रेस नेता

प्रवासियों के दु:खों की अन्तहीन दास्ताँ

प्रसिद्ध नाटककार विलियम शेक्सपियर ने ‘हेमलेट’ में लिखा है कि दु:ख जब आते हैं, तो वे अपने साथ और बहुत-सी समस्याएँ लाते हैं। यह बात प्रवासी मज़दूरों की दुर्दशा पर चरितार्थ होती है; जिनका लॉकडाउन से शुरू हुआ दु:ख अनलॉक के पहले चरण में भी जस-का-तस दिखता है। कई परिवारों ने अपनी जान और आजीविका खो दी। ऐसे में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस राष्ट्रीय संकट से निपटने में खामियों की मीडिया रिपोर्टों पर स्वत: संज्ञान लिया; यह देखते हुए कि केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से प्रवासी श्रमिकों के मामले में बहुत-सी कमियाँ रहीं और काफी चूक भी हुई। शीर्ष अदालत को दो बार हस्तक्षेप करना पड़ा। पहले उसने केंद्र और राज्यों को फँसे हुए प्रवासी कामगारों को तुरन्त मुफ्त परिवहन, भोजन और आश्रय प्रदान करने के लिए कहा और फिर उन्हें घर वापस करने और लॉकडाउन के उल्लंघन को लेकर उनके खिलाफ दायर किये गये आपराधिक मामलों को खत्म करने के लिए 15 दिन की समय सीमा तय की। एक अभूतपूर्व कष्ट आत्मनिरीक्षण का संदेश देता है।

आधिकारिक दावों के अनुसार, लगभग 60 लाख प्रवासी श्रमिक ट्रेनों से पहले ही अपने घर लौट चुके हैं। कई मज़दूरों और उनके परिवारों के अपनी जान खो देने, प्रवासियों के पैदल या साइकिल से बिना भोजन-पानी के अपने घर लौटने के वायरल वीडियो इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि वास्तव में कहीं बहुत भयंकर चूक हुई। यह इस कड़वी वास्तविकता को सामने लाता है कि इस तरह की चुनौतियों से निपटने के लिए केंद्र और राज्य कितने असहाय थे। रिपोर्टों से पता चलता है कि 9 और 27 मई के दौरान प्रवासी श्रमिकों के लिए चलायी जा रही श्रमिक ट्रेनों में करीब 80 लोगों की जान चली गयी। क्या इन लोगों की उन बीमारियों के कारण जान गयी, जो इनको थीं? तथ्य यह है कि इनमें से कई लोगों की जान बचायी जा सकती थी, यदि अधिकारियों ने इन गरीब प्रवासियों के लिए यात्रा, भोजन और पानी का प्रबन्ध किया होता; जो सिर पर अपना बचा-खुचा सामान उठाकर अपनी पत्नियों, जिनमें से कुछ गर्भवती थीं और नंगे पाँव बच्चों के साथ सडक़ों पर पैदल चलने को मजबूर हो गये।

‘तहलका’ के इस अंक की कवर स्टोरी संकट में फँसे प्रवासियों के लिए रामबाण साबित हुई मनरेगा पर है; जो इस बात का संकेत देती है कि एक योजना परेशानी में कैसे जीविका दे सकती है। खुशी की बात यह है कि केंद्र ने इस योजना के लिए बजट आवंटन बढ़ा दिया है। हालाँकि विपक्षी कांग्रेस ने इस बात को भुनाने की कोशिश की कि यह यूपीए का प्रमुख कार्यक्रम था। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की इस घोषणा के बाद बयानबाज़ी की जंग भी छिड़ गयी है कि उनका राज्य एक पलायन आयोग का गठन करेगा और जो भी राज्य उत्तर प्रदेश के मज़दूरों को लेना चाहेंगे; उन्हें इसकी अनुमति लेनी होगी। मनसे प्रमुख राज ठाकरे ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया जताते हुए कहा है कि प्रवासी श्रमिकों को महाराष्ट्र सरकार से अनुमति लेनी होगी और उस उद्देश्य के लिए पंजीकरण कराना होगा। लेकिन यह राजनीति करने का समय नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्यों को स्पष्ट संदेश दिया है कि उनकी (मज़दूरों की)  देखभाल करना आपके हाथ में है। एक राष्ट्रीय संकट से निपटने के लिए एकजुट प्रतिक्रिया की आवश्यकता है; जबकि राजनीति और एक-दूसरे पर दोषारोपण बाद में किये जा सकते हैं।