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संकट में श्रमिकों का सहारा

कोरोना महामारी के संकटकाल में शहरों से मजबूरी में घर लौटे करोड़ों प्रवासी मज़दूरों के लिए मनरेगा सहारा बन रहा है। इसमें गाँवों के दिहाड़ी मज़दूरों को जून में पिछले साल के मुकाबले 84 फीसदी ज़्यादा काम मिला है। मनमोहन सिंह सरकार के ज़माने की यह योजना न सिर्फ रोज़गार देने वाली, बल्कि ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को भी गति देने वाली साबित हो रही है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, देशभर में जून के महीने औसतन 3.42 करोड़ लोगों को रोज़ाना काम करने की पेशकश की गयी है; जो पिछले साल के इसी महीने के मुकाबले 83.87 फीसदी ज़्यादा है।

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार, बीते मई महीने में औसतन 2.51 करोड़ लोगों को मनरेगा के तहत काम मिला; जो कि पिछले साल के इसी महीने के औसत आँकड़े 1.45 करोड़ के मुकाबले 73 फीसदी अधिक था। इस प्रकार मई में मनरेगा के तहत रोज़गार में 73.1 फीसदी का इज़ाफा दर्ज किया गया।

अब जून में मनरेगा की स्कीम के तहत रोज़ाना काम करने वालों की औसत संख्या 3.42 करोड़ हो गयी है; जबकि पिछले साल इसी दौरान रोज़ाना औसतन 1.86 करोड़ लोगों को काम मिला था। मज़दूरों को मज़दूरी का भुगतान सीधे उनके बैंक खाते में होने लगा है और इस स्कीम के लिए आवंटित राशि में से करीब 31,500 करोड़ रुपये राज्यों को जारी किया जा चुका है। मनरेगा के तहत चालू वित्त वर्ष 2020-21 में कुल बजटीय आवंटन 61,500 करोड़ रुपये था; लेकिन 17 मई को वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने इस योजना के लिए 40,000 करोड़ रुपये अतिरिक्त आवंटित करने की घोषणा की है। यह राशि आत्मनिर्भर अभियान के तहत सरकार की तरफ से घोषित किये गये 20 लाख करोड़ रुपये के आॢथक पैकेज का हिस्सा है। मज़दूरों के ग्रामीण इलाकों में पलायन को देखते हुए सरकार ने यह फैसला किया, ताकि लोगों को रोज़गार मिल सके।

मानव दिवस के रूप में रोज़गार की गणना

मनरेगा के तहत रोज़गार की गिनती को मानव दिवस के रूप की जाती है। इसके मुताबिक, एक दिन में जितने लोगों को काम मिलता है, वह उतने मानव दिवस होते हैं। इस प्रकार जून में औसतन यह आँकड़ा 3.42 करोड़ मानव दिवस रहेगा। पिछले साल इसी महीने में इस योजना के तहत रोज़ाना औसतन 1.86 करोड़ लोगों को काम मिला था।

हुनरमंद और पढे-लिखे भी कर रहे काम

रोज़ी-रोटी की दरकार और परिवार का पेट पालने के लिए लोग कुछ भी करने को तैयार हैं। मजबूरी में श्रमिक हों, अकुशल मज़दूर या हुनरमंद, सबको मनरेगा में ही आसरा नज़र आ रहा है। दिल्ली, मुम्बई जैसे मेट्रो शहरों से लौटे कामगार अपनी कारीगरी का जलवा दिखाने वाले हुनरमंद अब गाँव में फावड़ा और गैंती पकडक़र दो जून की रोटी का जुगाड़ कर रहे हैं। इसमें कई तो स्नातक यहाँ तक कि स्नातकोत्तर डिग्री धारी युवक भी शामिल हैं। पढ़े-लिखे और हुनरमंद पहले तो तसला उठाने, फावड़ा चलाने में संकोच कर रहे थे; लेकिन समय की मार ने यह करना भी उनको सिखा दिया। इस काम में पारदॢशता भी है, पूरा पेमेंट आपके खाते में आता है और समय पर मिल भी जाता है।

मनरेगा में क्या-क्या होता है काम

इस योजना के तहत चैक डैम, नहर की खुदाई, तालाब की खुदाई एवं सिल्ट सफाई, गाँवों में पौधारोपण के लिए गड्ढों की खुदाई, नालों की सफाई, कच्चे रास्तों का निर्माण, नालों एवं नालियों की कीचड़ की सफाई का काम कराया जाता है।

राजस्‍थान : 60 दिन में 60 हज़ार से 38 लाख मज़दूर

महामारी के दौर में राजस्‍थान के मज़दूरों के लौटने के बाद लोगों की नौकरियाँ जाने से मनरेगा में मज़दूरों की संख्या में बड़ा इज़ाफा हुआ है। प्रवासी श्रमिकों के राजस्थान लौटने पर उनको काम देने के मामले में गहलोत सरकार टॉप पर है। 15 अप्रैल से 10 जून के बीच राज्य में मनरेगा मज़दूरों की संख्या 38 लाख पहुँच गयी हैं; जबकि प्रदेश में 15 अप्रैल तक मनरेगा में काम करने वालों की संख्या महज़ 60 हज़ार थी। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक, राजस्थान की सरकार ने 49 लाख लोगों को मनरेगा से जोड़ा है।

मनरेगा को भाजपा बनाम कांग्रेस न बनाएँ : सोनिया

कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने कहा कि यूपीए सरकार की प्रमुख योजना मनरेगा से लॉकडाउन के दौरान गरीबों का बहुत भला हुआ है। जबकि भाजपा वर्षों तक इसका मज़ाक उड़ाती रही है। एक अखबार में लेख के ज़रिये सोनिया ने कहा कि वह सरकार से कहना चाहती हैं कि यह राष्ट्रीय संकट का समय है, राजनीति करने का नहीं। मनरेगा कांग्रेस बनाम भाजपा का मसला नहीं है। सरकार के पास मनरेगा के रूप में एक ताकतवर प्रणाली है। कृपया ज़रूरत की घड़ी में देश के लोगों की मदद के लिए इसका इस्तेमाल करें। उन्होंने कहा कि इस योजना ने इन वर्षों में अपनी अहमियत साबित कर दी है। यहाँ तक कि पिछले छ: साल में एक विरोधी सरकार में भी इसकी अहमियत बनी रही।

सोनिया ने लिखा कि मौज़ूदा सरकार इस योजना को बदनाम करती रही, इसे नज़रअंदाज़ करती रही। लेकिन अनिच्छा से ही सही उसने इस पर भरोसा किया। सोनिया ने कहा कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मनरेगा संसद की तरफ से पारित कानून के तहत लागू हुआ है। मनरेगा योजना सिविल सोसायटी के ज़रिये वर्षों के संघर्ष का नतीजा है। यह हमारे घोषणा-पत्र में 2004 में शामिल हुआ था और इसे 2005 में कानूनी रूप दे दिया गया। महामारी के इस संकटकाल में कृपया इसे कांग्रेस बनाम भाजपा का रंग न दें।

विफलताओं का जीता-जागता स्मारक

मेरी राजनीतिक सूझबूझ कहती है कि मनरेगा कभी बन्द मत करो, क्योंकि मनरेगा आपकी विफलताओं का जीता-जागता स्मारक है। आज़ादी के 60 साल के बाद आपको लोगों को गड्ढे खोदने के लिए भेजना पड़ा; यह आपकी विफलताओं का स्मारक है और मैं गाजे-बाजे के साथ इस स्मारक का ढोल पीटता रहूँगा। दुनिया को बताऊँगा ये गड्ढे क्यों खोद रहे हो? क्योंकि ये उन 60 साल के पापों का परिणाम है।

नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री (2015 संसद में)

रोज़गार के लिए अतिरिक्त आवंटन

सरकार ने कोविड-19 संकट के बीच उद्योग को राहत के लिए कर्ज़ चूक के नये मामलों में दिवाला कार्रवाई पर एक साल के लिए रोक लगा दी है। इसके अलावा अपने घरों को लौट रहे प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार के लिए मनरेगा के तहत 40,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त आवंटन किया गया है।

नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री

अब काम तीन गुना बढ़ा

पहले मनरेगा का पैसा मज़दूरों को नहीं मिलता था; जबकि आज उनके खाते में जाता है। यूपीए सरकार में 21.4 फीसदी काम होता था; जबकि आज 67.29 फीसदी काम हो रहा है।

रविशंकर प्रसाद, केंद्रीय सूचना

प्रसारण एवं कानून मंत्री

न्यूनतम मज़दूरी 182 से 202 रुपये की

कोरोना वायरस की वजह से अपने राज्यों को लौटे श्रमिकों को रोज़गार के लिए मनरेगा के तहत 40,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त आवंटन किया गया है। यह बजट में आवंटित 61,000 करोड़ रुपये की राशि के अतिरिक्त है। देशभर में मनरेगा मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी 182 रुपये से बढ़ाकर 202 रुपये कर दी गयी है। इसके साथ ही 2.33 करोड़ प्रवासी श्रमिकों को पंचायतों में काम दिया जाना है।

निर्मला सीतारमण, केंद्रीय वित्त मंत्री

तंज के साथ तारीफ

(ट्विटर पर मोदी का मनरेगा की आलोचना वाला वीडियो शेयर करके) प्रधानमंत्री ने यूपीए काल में सृजित मनरेगा स्कीम के लिए 40,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बजट देने की मंज़ूरी दी है। मनरेगा की दूरदर्शिता को समझने और उसे बढ़ावा देने के लिए हम उनके प्रति आभार प्रकट करते हैं।

राहुल गाँधी, कांग्रेस नेता

प्रवासी मज़दूरों को सीमित लाभ होगा

सरकार दावा कर रही है कि नये मनरेगा कार्यों से प्रवासी मज़दूरों को मदद मिलेगी, लेकिन यह काम उन मज़दूरों को अधिक दिया जाएगा; जो गाँवों में रहें। प्रवासी मज़दूरों के लिए लाभ बहुत सीमित होगा। मोदी सरकार ने प्रवासी मज़दूरों के मुद्दे को बहुत ही गलत तरीके से हैंडल किया।

पी. चिदंबरम, पूर्व वित्त मंत्री,

कांग्रेस नेता

गरीब के खाते में हर माह डालें पैसे

हर गरीब के बैंक खाते में अगले छ: महीने तक हर महीने 7500 रुपये डाले जाने चाहिए। मनरेगा के तहत साल में 100 दिन के बजाय 200 दिन काम दिया जाए। एमएसएमई क्षेत्र के लिए तुरन्त एक पैकेज घोषित किया जाए। साथ ही सरकार मज़दूरों को उनके घर लौटाने के लिए इंतज़ाम करे।

सोनिया गाँधी, कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष

गर्भवती हथिनी की मौत ने संवेदनशीलों को झकझोरा

तरक्की के नाम पर इंसानों द्वारा प्रकृति से किये जा रहे खिलवाड़ की कीमत इंसानों को तो चुकानी पड़ ही रही है, बेज़ुबान जानवरों को भी चुकानी पड़ रही है। लेकिन जब प्रकृति कुपित होती है, तो इंसान को उसका कोप झेलना आसान नहीं होता। आजकल कोरोना वायरस जैसी महामारी और उसके बीच में एक के बाद कई आपदाओं ने इस बात का फिर से अहसास करा दिया है। लेकिन फिर भी इंसान सुधरने का नाम नहीं लेता।

विकास के नाम पर जंगलों को काटकर जंगली पशु-पक्षियों के प्राकृतिक आवासों को मानव ने इस तरह से मिटाया है कि वो अक्सर इंसानी बस्तियों में नज़र आते हैं। असल में जंगली पशु-पक्षी इंसानी बस्तियों में नहीं आते, बल्कि इंसान उनकी बस्तियों में घुस चुके हैं। कभी विकास के लालची इंसानों ने पैसे के लाचल में, तो कभी शिकार के शौक में जंगली पशुओं को हमेशा निशाना बनाया गया। इंसान के इस लालच और शौक का खामियाजा महज़ कुछ चुनिंदा जानवरों ने ही नहीं, बल्कि विशालकाय हाथी से लेकर समुद्री जीवों तक ने भुगता है। लेकिन अगर यही जानवर इंसानों की बस्तियों में घुस आएँ, तो हाहाकार मच जाता है और अमूमन उन्हें मार दिया जाता है। लेकिन ऐसे मामलों को और इंसानों पर इंसानों के अत्याचार को राजनीतिक लोग और कुछ तथाकथिक समाजङ्क्षचतक दो नज़रों से देखते हैं। यानी इन पीडि़त लोगों या पीडि़त जानवरों से सरोकार नहीं होता या जिसमें इनका स्वार्थ निहित होता है, उनके मामले में खामोशी साध लेते हैं और जहाँ इन्हें राजनीतिक या आॢथक नुकसान हो रहा हो या किसी विशेष मुद्दे से ध्यान भटकाने का खेल करना हो, वहाँ यह इस कदर रुदाली रोना रोते हैं कि मानों आसमान फट गया हो। खैर, हमारा मानना यह है कि पीडि़त कोई भी हो, उसके साथ सभी इंसानों की संवेदनाएँ होनी ही चाहिए। मई के आखरी हफ्ते में देश के सबसे शिक्षित और विकसित प्रदेशों में शुमार केरल के पलक्कड़ में गर्भवती हथिनी के अनानास में पटाखे खिलाकर मारे जाने की घटना ने खूब सुॢखयाँ बटोरीं। इस पर सियासी बयानबाज़ी भी हुई। लेकिन इस दरमियान किसी भी सरकार की ओर संवेदनशीलता नहीं दिखी; न ही किसी ने ऐसे कदम उठाये, जिससे आगे इस तरह की घटनाएँ न हों। हाँ, शोर खूब मचाया।

विश्व पर्यावरण दिवस पर भी केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर प्रकृति से जुड़ी रिपोर्ट की बजाय राजनीतिक बयानबाज़ी करते ज़्यादा नज़र आये। उन्होंने एक रिपोर्ट के हवाले से कहा कि पिछले 10 साल में 750 से अधिक बाघों की मौत हो चुकी है। वन विभाग के अधिकारियों की रिपोर्ट के मुताबिक, जंगली हथिनी भोजन की तलाश में गाँव तक पहुँच गयी। इससे लोगों में खौफ होना स्वाभाविक है। वहाँ पर जंगली सूअरों के लिए पहले से ही बम रखने जैसी घटनाएँ आम हैं। पर गर्भवती हथिनी, जो भूखी थी; गलती से सम्भवत: लोगों पर भरोसा करके उसने पटाखों से भरा अनानास खा लिया, जो उसके मुँह में ही फट गया। इससे वह दर्द से कराह उठी। बावजूद इसके उसने किसी इंसान या उनके घर को नुकसान नहीं पहुँचाया। वह सीधे नदी में चली गयी। इसके बाद तीन दिन तक वह बिना खाये-पीये वहीं पानी में ही रही और अपने पेट में पल रहे जूनियर जम्बो समेत पानी में ही दम तोड़ दिया।

इस दर्दनाक मौत के बाद भी क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि इसके बाद किसी भी जंगली जानवर के साथ हैवानियत नहीं होगी? शायद नहीं। इंसानी फितरत ऐसी हो चुकी है कि वह जंगली जानवरों से बड़ा जानवर बन चुका है। वह एक तरह से ऐसे पशुओं के खून का प्यासा बन गया है। लेकिन पशुओं के प्रति संवेदनशील होने की ज़रूरत है। पढ़े-लिखे लोगों से बेहतर तो वे आदिवासी हैं, जो जंगलों को बचाने के लिए अपनी जान की बाज़ी तक लगा देते हैं। जंगलों से प्रेम करते हैं। जानवरों से प्रेम करना जानते हैं। अगर हम भी समय रहते नहीं चेते, तो आने वाले समय में हाथी, तेंदुए और बाघ जैसे पशु भी इतिहास के पन्नों में ही दर्ज हो जाएँगे।

हथिनी की पोस्टमार्टम रिपोर्ट

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में कहा गया है कि हथिनी की मौत की असल वजह पानी में डूबना है। रिपोर्ट में कहा गया है, जबड़ों में लगी चोटों के बाद घाव सड़ते गए। यह चोट संभावित रूप से पटाखों की वजह से लगी थीं। इससे जंगली पशु को असहाय दर्द और पीड़ा हुई और वह लगभग दो हफ्तों तक कुछ भी खाने-पीने में असमर्थ हो गयी।

अत्यधिक दुर्बलता और कमजोरी के कारण पानी में डूबकर उसकी मौत हो गई। रिपोर्ट में कहा गया है कि शव के अंदर से किसी तरह की गोली या धातु नहीं मिली है। पोस्टमार्टम थिरुविझामकुन्नु वन में किया गया। मन्नारकाड़ वन प्रभाग ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट के हवाले से पुष्टि करते हुए कहा कि हथिनी दो महीने की गर्भवती थी। उसके दोनों तरफ के जबड़ों को भी नुकसान पहुँचा था।

एक गिरफ्तार

गर्भवती हथिनी की मौत के मामले में केरल में वन विभाग के अधिकारियों ने विभिन्न धाराओं के तहत केस दर्ज किये जाने के बाद तीन आरोपियों में से एक को गिरफ्तार किया है। बाकी दो की तलाश की जा रही है। साइलेंट वेली फॉरेस्ट की दो माह की गर्भवती हथिनी ने वेल्लियार नदी में 27 मई को जान गँवा दी थी।

क्या कहा था मेनका ने?

गर्भवती हथिनी की मौत को लेकर भाजपा सांसद मेनका गाँधी ने कहा था कि यह हत्या है। मल्लापुरम ऐसी घटनाओं के लिए कुख्यात है। यह देश का सबसे हिंसक राज्य है। यहाँ लोग सडक़ों पर ज़हर फेंक देते हैं, जिससे एक साथ 300 से 400 पक्षी और कुत्ते मर जाएँ। केरल में हर तीसरे दिन एक हाथी को मारा जाता है। केरल सरकार ने मल्लपुरम मामले में अब तक कार्रवाई नहीं की है। ऐसा लगता है, वह डरी हुई है।

एक सवाल के जवाब में मेनका गाँधी ने कहा था कि केरल में लगभग 600 हाथी क्रूरता का शिकार होकर दम तोड़ चुके हैं। केरल में सरकार और वन्यजीव विभाग के साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता है। वे कोई कार्रवाई नहीं करते हैं। वहाँ के मंदिरों में हाथियों की टाँगें तोड़ दी जाती हैं। उन्हें मारा-पीटा जाता है और भूखे रखा जाता है। इस क्रूरता की वजह से अब तक 600 हाथी दम तोड़ चुके हैं।

मेनका से माफी माँगने को कहा

केरल के नेता प्रतिपक्ष रमेश चेन्निथला ने भाजपा सांसद मेनका गाँधी को एक गर्भवती हथिनी की मौत के मुद्दे पर मलप्पुरम ज़िले के खिलाफ उनकी आपत्तिजनक टिप्पणी पर विरोध जताया।

कांग्रेस नेता ने पत्र में कहा कि आपके गैर-ज़िम्मेदाराना बयान ने मल्लपुरम ज़िले और उसके लोगों को अपमानित करने वाले अभद्र भाषणों को हवा देने के लिए जगह दी है। इस ज़िले को अपराध के केंद्र के रूप में चित्रित करने के लिए बयान को वापस लें और माफी माँगें। साथ ही उन्होंने भाजपा पर इस मुद्दे का राजनीतिकरण करने का भी आरोप लगाया।

उन्होंने कहा कि कृपया ध्यान दें कि हथिनी की मौत पलक्कड़ ज़िले में हुई है, मल्लपुरम में नहीं; जहाँ पर समुदाय विशेष को लोगों को बदनाम करने की कोशिश की गयी। आपकी पार्टी के कुछ साथियों ने तो यहाँ तक आरोप लगाने की कोशिश की कि यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना वायनाड में हुई है।

क्योंकि इस निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व राहुल गाँधी करते हैं। इस तरह की दुर्भाग्यपूर्ण घटना का राजनीतिकरण करने का प्रयास दु:खद है। लेकिन केरल के प्रबुद्ध समाज से इस तरह की ओछी राजनीति को कोई समर्थन नहीं मिलेगा।

केरल की छवि खराब करने का प्रयास : विजयन

भाजपा की सियासत से खिन्न केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने मामले में कुछ केंद्रीय मंत्रियों और नेताओं पर केरल की छवि खराब करने का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा कि संवेदनशील मामले में राज्य और ज़िले विशेष को निशाना बनाकर जिस तरह की बयानबाज़ी की गयी, वह किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार नहीं हो सकती है। सोशल मीडिया में पोस्टमार्टम रिपोर्ट में हथिनी की गर्भवती होने की जानकारी मिलने के बाद लोगों का गुस्सा फूट पड़ा था। इसके बाद केरल सरकार ने जाँच के लिए वन विभाग की विशेष जाँच टीम गठित की। वन विभाग ने हथिनी की मौत के मामले में वन्यजीव संरक्षण कानून की धाराओं के तहत मामला दर्ज किया है। तीन संदिग्धों से पूछताछ की गयी है और एक को गिरफ्तार कर लिया गया है। मामले में केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने भी संज्ञान लिया और घटना को बेहद दु:खद बताते हुए आरोपियों पर सख्त कार्रवाई करने को कहा।

सीबीआई जाँच के लिए याचिका

केरल में गर्भवती हथिनी की मौत का मामला अब देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया है। शीर्ष अदालत में एक याचिका के ज़रिये कोर्ट की निगरानी में हथिनी की मौत मामले की जाँच सीबीआई से या विशेष जाँच दल (एसआईटी) से कराने की माँग की गयी है। यह याचिका अधिवक्ता अवध बिहारी कौशिक ने दायर की है। याचिका में कहा गया कि जिस तरह गर्भवती हथिनी की पटाखे से भरे अनानास को खाने से मौत हुई है; वह भयानक, दु:खद, क्रूर होने के साथ-साथ अमानवीय कृत्य है। इसलिए मामले में सुप्रीम कोर्ट को तत्काल दखल देना चाहिए। याचिका में यह भी कहा गया कि यह घटना अपनी तरह की पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी इसी तरह की घटनाएँ सामने आ चुकी हैं। केरल के कोल्लम ज़िले में अप्रैल, 2020 में एक और हथिनी की मौत हो गयी थी।

मेनका गाँधी के खिलाफ मामला दर्ज

हथिनी की मौत के मामले में भाजपा सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री मेनका गाँधी के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है। उनके खिलाफ यह मामला हथिनी की मौत के मामले में उनके दिये गये बयान को लेकर दर्ज किया गया है। मेनका के खिलाफ केरल पुलिस को सात शिकायतें मिली थीं, जिनके आधार पर पुलिस ने आईपीसी की धारा-153 (विभिन्न समूहों के खिलाफ शत्रुता बढ़ाना) के तहत मामला दर्ज किया गया है। इस धारा के तहत दंगा भडक़ाने के इरादे से भडक़ाऊ बयान देने का मामला बनता है। इसी मुद्दे पर विरोध जताने के लिए कुछ हैकरों ने मेनका गाँधी के एनजीओ की वेबसाइट भी हैक कर ली थी।

हर साल 100 हाथियों की मौत

एलीफैंट टास्क फोर्स के चेयरमैन प्रोफेसर महेश रंगराजन के अनुसार, पशुओं और मानव संघर्ष के अलावा कई अन्य कारणों से हर साल लगभग 100 हाथियों को मार दिया जाता है। उन्होंने बताया हाथियों के दाँत की तस्करी भी इसका बड़ा कारण है।

माफिया हाथियों को मारकर उनके लाखों की कीमत वाले दाँतों की तस्करी करते हैं। भारत में हाथी को लुप्तप्राय जाति के तौर पर वर्गीकृत किया गया है। वन विभाग से जुड़े अधिकारियों और विभिन्न रिपोट्र्स के अनुसार, भारत में अब महज़ 25 से 30 हज़ार हाथी ही बचे हैं।

ऑस्ट्रेलिया में मार दिये हज़ारों ऊँट

दुनिया के सबसे बड़े जंगल अमेजन में लगी भयावह आग से न जाने कितने जंगली पशु, पक्षी मौत के मुँह में समा गये। यह खबर ज़्यादा पुरानी नहीं है। यह घटना तब हुई, जब अमेजन के जंगल महीनों तक जलते रहे।

इसी तरह ऑस्ट्रेलिया में सरकार के आदेश पर हज़ारों ऊँट महज़ इसलिए मार दिये गये क्योंकि वो ज़्यादा पानी पीते हैं और इंसानों के लिए पानी का संकट पैदा कर रहे हैं। ऐसे कितने ही जानवर इंसानों के स्वार्थ की भेंट हर रोज़ चढ़ते हैं।

अवनि बाघिन को क्यों मारा था?

2018 में महाराष्ट्र के यवतमाल में एक जंगली बाघिन अवनि को गोली मार दी गयी और वह सिर्फ इसलिए कि वह उस क्षेत्र में रह रही थी, जिसके आसपास अनिल अंबानी की रिलायंस को ज़मीन बेच दी गयी थी। जनवरी, 2018 में मोदी सरकार ने अनिल अंबानी के रिलायंस ग्रुप को सीमेंट फैक्ट्री लगाने के लिए यवतमाल के जंगल का 467 हेक्टयर क्षेत्र दे दिया था। इलाके में बाघिन अवनि के खौफ के खात्मे के लिए न सिर्फ उसे मार डाला, बल्कि उसके दो शावकों की भी मार दिया गया; ताकि उद्योगपति की ज़मीन की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।

मुनाफे की भेंट चढ़ते जंगली जानवर

भारत के सबसे ज़्यादा घने और अनछुए जंगलों में छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य का नाम लिया जाता है। हाथी, भालू जैसे न जाने के कितने जानवरों का डेरा यहाँ है। पर इस जंगल की ज़मीन के नीचे कोयला दबा हुआ है; जिस पर उद्योगपति गौतम अडानी की नज़र है। यह जंगल मुम्बई से भी बड़ा है और इसका क्षेत्रफल एक लाख 70 हज़ार हेक्टेयर में फैला है। इसके पारसा ब्लॉक में खनन की अनुमति दे दी गयी है। 842 हेक्टेयर वन क्षेत्र के करीब एक लाख पेड़ काटे जा रहे हैं, पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता बताते हैं कि जहाँ परसा कोल ब्लॉक है, वह हाथियों का विचरण क्षेत्र है।

सीमा पर गतिरोध क्यों? भारत-चीन के लिए सैन्य संघर्ष कोई विकल्प नहीं

साल 2017 में करीब 73 दिन तक चले डोकलाम गतिरोध के बाद भारतीय और चीनी सैनिकों की सीमा पर जुड़ी किसी घटना पर इतने विस्तार से चर्चा नहीं की गयी है; जैसा कि 5 मई, 2019 को हुआ था। इस घटना में झड़पें शामिल थीं। जब लद्दाख क्षेत्र में पैंगोंग त्सो झील क्षेत्र में दोनों पक्षों के 250 सैनिकों की उपस्थिति थी और जिसमें चीन के सैनिकों की ओर से अत्यधिक आक्रामक व्यवहार दिखाया गया। ऐसी ही एक और घटना 9 मई को सामने आयी थी।

इस बार सिक्किम में नाथू ला दर्रा क्षेत्र के पास झड़प हुई, जिसके परिणामस्वरूप दोनों पक्षों के कम-से-कम 10 सैनिक घायल हो गये। इसके परिणामस्वरूप चीन के सैनिकों ने कई तम्बू लद्दाख में खड़े कर दिये और पैंगोंग त्सो क्षेत्र और गालवान घाटी में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के साथ अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ा दी। यह दर्शाता है कि चीनी टकराव की गतिविधियों को समाप्त करने के लिए तैयार नहीं थे।

ज़ाहिर है यह एक चिन्ताजनक व्यवहार था, जिसका जवाब भारतीय सैनिकों ने इसी मुकाबले के बिल्डअप के साथ दिया था। इस बात के संकेत थे कि चीन के इरादे इस बार पवित्र नहीं थे। चूँकि दोनों पड़ोसी देशों की कोई निर्धारित सीमा नहीं है, उनके सैनिकों के बीच आमने-सामने इस 3500 किलोमीटर लम्बी एलओसी, जो दुनिया की सबसे लम्बी सीमा है; पर यह कोई असामान्य गतिविधि नहीं है। चीनी सेना के भारतीय क्षेत्र में कई बार घुसने की आधिकारिक रिपोट्र्स आयी हैं। चीनी सैनिकों ने पैंगोंग त्सो क्षेत्र में गश्त (ड्यूटी) पर भारतीय सैनिकों को हाल के दिनों में कई बार ज़बरदस्ती रोक लिया गया। फिर यह भी एक सत्य है कि दशकों से यहाँ और कहीं भी दोनों देशों के सैनिकों के बीच एक भी गोली नहीं चलायी गयी है।

वॉशिंगटन डीसी में द हेरिटेज फाउण्डेशन के एक रिसर्च फेलो जेफ स्मिथ के एक आकलन, जो सामरिक मामलों के लिए समर्पित एक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका द डिप्लोमैट में छपा; जिसमें कहा गया है- ‘बड़े पैमाने पर अधिकांश मामलों में जहाँ चीनी और भारतीय सीमा के गश्ती दल आमने-सामने मिलते हैं, वे ध्वज समारोह में शामिल होते हैं और शान्ति से एक-दूसरे को सलामी देकर आयोजन करते हैं। लेकिन हमेशा नहीं। हाल के वर्षों में लम्बे खिंचे कई गतिरोध ने मीडिया का ध्यान आकॢषत किया है और इसने राजनीतिक स्तर पर गर्मी पैदा की है। साल 2013 में चीनी सेना ने उत्तरी लद्दाख में डेपसांग घाटी में एलएसी के पास एक भारतीय नागरिक पोस्ट के निर्माण पर आपत्ति जतायी थी। इससे लद्दाख 21 दिन तक गतिरोध बना रहा। अगले साल चुमार के पास दक्षिणी लद्दाख में तब 16 दिन तक गतिरोध बना रहा, जब चीन ने एलएसी के निकट भारत के जल सिंचाई चैनल के निर्माण को रोकने का प्रयास किया। यह तब हुआ, जब 2014 के सितंबर में राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा तय थी। इस घटना ने यात्रा की अहमियत को निश्चित ही कम आँकने में मदद की।

सबसे गम्भीर गतिरोध डोकलाम पठार पर 2017 की गॢमयों में बना, जब भारतीय सैनिकों ने एक चीनी सैन्य निर्माण दल को विवादित क्षेत्र में एक सडक़ का भूटान के विवादित क्षेत्र तक विस्तार करने से रोकने के लिए हस्तक्षेप किया। भारत तब तक मैदान में डटा रहा, जब तक कि दोनों देश आपसी समझौते से पीछे नहीं हट गये। डोकलाम संकट का नतीजा 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच वुहान शिखर सम्मेलन के रूप में हुआ; जिसमें अधिक स्थिर द्विपक्षीय सम्बन्ध दिखे।

दिलचस्प बात यह है कि विशेषज्ञों का मानना है कि क्षेत्र में तनाव उस स्तर तक बढऩे की सम्भावना नहीं है, जब सैन्य संघर्ष अपरिहार्य हो जाए। चेन्नई इंटरनेशनल सेंटर (जैसा द हिन्दू ने उद्धृत किया) के आयोजित एक हालिया वेबिनार को सम्बोधित करते हुए पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन ने निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किया- ‘सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हर एक झड़प को दूसरे युद्ध की शुरुआत के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। दोनों पक्षों ने बड़े पैमाने पर राजनीतिक मापदण्डों और मार्गदर्शक सिद्धांतों का पालन करने की कोशिश की, जिसे हम 2005 में सहमत हुए थे। जब तक कि सीमा विवाद को अंतिम रूप से समाप्त नहीं कर दिया जाता, तब तक हम किसी-न-किसी तरह की समस्या का सामना करेंगे।’

उनकी राय में, दोनों एशियाई दिग्गजों में से कोई भी एक संघर्ष नहीं चाहता है; जो ज़ाहिर तौर पर उन्हें उस भूमिका से अलग नहीं होने देगा। यह उन्हें वर्तमान शताब्दी में निभाने के लिए इतिहास ने सौंपी है; जिसे एशियाई सदी के रूप में व्याख्यायित किया जाता है। चीन में भारत के एक पूर्व राजदूत, विजय गोखले, जो देश के विदेश सचिव के रूप में जनवरी में सेवानिवृत्त हुए थे; ने एक अन्य अवसर पर कहा- ‘मुझे विश्वास है कि 2017 के बाद (जब डोकलाम गतिरोध के मद्देनज़र भारत-चीन सम्बन्ध तनावपूर्ण थे) दो शिखर सम्मेलनों ने कुछ हद तक समझ और विश्वास पैदा किया है। हालाँकि इसका मतलब यह नहीं है कि हमने हर समस्या को हल कर दिया है। दो नेता दो बैठकों में हर समस्या का समाधान नहीं कर सकते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि उन्होंने जो विश्वास पैदा किया है, वह किसी हादसे को होने से रोकेगा।

सभी ने कहा कि चीन का बुरा व्यवहार बिना कारण के नहीं हो सकता है और वह भी ऐसे समय में जब चीन कोरोना वायरस, जिसके कारण एक वैश्विक स्वास्थ्य आपातकाल पैदा हुआ है; के वास्तविक स्रोत की खोज के बीच अकेला एक छोर पर खड़ा है। ऐसा माना जाता है कि यह 194-राष्ट्र विश्व स्वास्थ्य सभा में अपनी नाराज़गी व्यक्त करने का चीनी तरीका था; जिसमें एक भारतीय प्रतिनिधि- केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन को 22 मई को 34 सदस्यीय विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यकारी बोर्ड में एक अध्यक्ष के रूप में चुना गया।

डब्ल्यूएचओ के कार्यकारी बोर्ड में भारतीय प्रतिनिधि की अध्यक्षता होने से बीजिंग की बेचैनी को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की कोविड-19 विषाणु की उत्पत्ति के बारे में चिन्ता की पृष्ठभूमि के खिलाफ देखा जाना चाहिए। चीन के वुहान शहर में सबसे पहले कोरोनो वायरस ने कैसे लोगों की ज़िन्दगी लेनी शुरू की, यह जानने की माँग करने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प सहित दुनिया भर के नेताओं के बयान आ रहे हैं। यह भी कि इसके लिए चीन के खिलाफ क्या कार्रवाई की जाए।

इस सम्बन्ध में कार्रवाई बीजिंग ने की थी। यह माना जाता है कि चीन परेशान करने वाले इन घटनाक्रमों के माध्यम से भारत को एक और संदेश देना चाहता था। भारत और अमेरिका विभिन्न क्षेत्रों में एक-दूसरे के करीब आने से चीन बहुत चिन्तित है; जो अंतत: एशिया में चीन के मुकाबले भारत की स्थिति को मज़बूत कर सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अमेरिका चाहता है कि चीन के अपने पड़ासियों के साथ टकराव वाले व्यवहार, खासकर दक्षिण चीन सागर, ताइवान और हॉन्गकॉन्ग जैसे मुद्दों के सम्बन्ध में भारत एक सक्रिय और संतुलित भूमिका निभाये। हालाँकि, इसका मतलब यह नहीं है कि भारत इस क्षेत्र में अमेरिकी योजना के अनुसार अपने पत्ते खेलेगा।

डोकलाम गतिरोध जैसी स्थितियों को आराम से सँभालने के लिए अमेरिका के साथ सम्बन्ध विकसित करना एक बात है। लेकिन भारत चीन के साथ भी अपने सम्बन्धों को महत्त्व देता है। दोनों पड़ोसियों के बीच एक समृद्ध द्विपक्षीय व्यापार है, जो कि 2017-18 में 89.6 बिलियन डॉलर रहा। हालाँकि इसमें व्यापार घाटा चीन के पक्ष में 62.9 बिलियन डॉलर तक पहुँच गया। साल 2017 में भारत और चीन के बीच द्विपक्षीय व्यापार 84.5 बिलियन डॉलर था।

हालाँकि 2019 में उनके द्विपक्षीय व्यापार में गिरावट आयी है और कोविड-19 की वजह से इसे और अधिक नुकसान हो सकता है। लेकिन भविष्य में एक बार फिर से उनके व्यापार की मात्रा बढऩे की उज्ज्वल सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है।

एक अनुमान के अनुसार, वुहान शिखर सम्मेलन के बाद से भारतीय समुद्री उत्पादों के निर्यात में 10 गुना वृद्धि हुई है, जो 2019 में एक बिलियन डॉलर तक पहुँच गया है। जबकि कृषि उत्पाद जैसे गैर-बासमती चावल, रेपसीड (खाद्य तेल), मछली, तम्बाकू के पत्ते आदि ने चीनी बाजारों तक पहुँच बनाई है। यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया जा रहा है कि भारतीय उत्पादों जैसे भिंडी, सोयाबीन, गोजातीय मांस और डेयरी वस्तुओं का भी बड़े पैमाने पर चीन को निर्यात किया जाए।

इसलिए आॢथक और सामरिक मजबूरियाँ, भारत और चीन को हमेशा किसी भी अनुपात के सीमा तनाव को कम करने का रास्ता खोजने के लिए बाध्य करती हैं। जबकि वे सीमा झड़पों जैसे घटनाक्रमों से अपनी आॢथक वृद्धि को गम्भीर नुकसान की अनुमति नहीं दे सकते। माना जाता है कि चीनी भविष्य की सुपर पॉवर बनने के अपने सबसे बड़े सपने को साकार करने के लिए कोई भी बलिदान देने के लिए तैयार हैं। हालाँकि तथ्य यह भी है कि अमेरिका और अन्य प्रमुख शक्तियाँ चीन को इस उद्देश्य को प्राप्त करने से रोकने के लिए कुछ भी जो कर सकती हैं, करेंगी। क्योंकि यह एशिया में शक्ति संतुलन को खतरनाक रूप से प्रभावित कर सकता है; जो शेष दुनिया के लिए भी एक असहज संदेश होगा।

(लेखक द ट्रिब्यून के पूर्व सहायक सम्पादक और दिल्ली में राजनीतिक स्तम्भकार हैं।)

बन्दरों को मारें या न मारें!

केरल के पलक्कड़ ज़िलेे में मई के आखरी हफ्तेे जब एक गर्भवती हथिनी की मौत पर केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी और भाजपा सांसद मेनका गाँधी ने केरल सरकार से लेकर कांग्रेस नेता राहुल गाँधी को खूब निशाने पर लिया। उससे कुछ दिन पहले ही मोदी सरकार के वन और पर्यावरण मंत्रालय ने पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश की 91 तहसीलों में निजी भूमि पर बन्दरों को मारने की खुली छूट दे दी। यह दिलचस्प है कि बन्दरों को भगवान हनुमान से जोडक़र देखा जाता है और इसी कारण हिमाचल में 2008 में भाजपा की तत्कालीन प्रेम कुमार धूमल सरकार ने बन्दरों को मारने की जगह उनकी नसबन्दी का फैसला किया था।

मोदी सरकार ने हिमाचल में बन्दरों को मारने को लेकर बाकायदा अधिसूचना जारी की है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने वन्यजीव (संरक्षण) कानून, 1972 की धारा-62 को लागू करते हुए यह अधिसूचना जारी की है। इसमें बन्दरों को इंसानी जीवन के लिए खतरा माना गया है।

यहाँ यह दिलचस्प है कि हिमाचल में भी भाजपा की ही सरकार है, और इतने बड़े इलाके में बन्दरों को मारने की इजाज़त के खिलाफ न तो मेनका गाँधी की तरफ से कोई बयान आया और न स्मृति ईरानी की तरफ से। हाँ, पशु-प्रेमियों ने ज़रूर इसे पशुओं से क्रूरता करार दिया है। हालाँकि बन्दरों के उत्पात से परेशान किसानों और आम लोगों ने इस फैसले को सही बताया है।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि हाल के वर्षों में बन्दरों ने इस पहाड़ी सूबे में फसलों की जमकर तबाही की है। यही नहीं हज़ारों लोग बन्दरों के हमले में घायल भी हुए हैं। अब किसानों की माँग को देखते हुए रीसस मकाक प्रजाति के बन्दरों को मारने की मंज़ूरी मोदी सरकार ने दे दी है। हालाँकि केवल निजी भूमि में ही नुकसान करने पर बन्दरों को मारने की मंज़ूरी दी गयी है।

प्रदेश में कुल 169 तहसीलें/उप तहसीलें हैं। इनमें से 91 में बन्दर को वॢमन (हिंसक पशु) घोषित कर दिया गया है। अर्थात् प्रदेश के कुल 12 ज़िलों में से 11 ज़िलेे इसके तहत आएँगे। ज़ाहिर है यह एक बड़ा क्षेत्र है और सरकार के इस निर्णय से बड़े पैमाने पर बन्दरों की शामत आ सकती है। वैसे प्रदेश में पहले भी बन्दरों को वॢमन घोषित किया जा चुका है और ज़्यादा असर वाले कुछ चुनिंदा इलाकों में उन्हें मारने का प्रस्ताव केंद्र को भेजा गया था।

हिमाचल किसान सभा, जो बन्दरों को लेकर सख्त रुख दिखाती रही है; के अध्यक्ष कुलदीप सिंह तँवर कहते हैं कि बड़े पैमाने पर किसान खेती छोड़ चुके हैं। क्योंकि नुकसान का दायरा ही इतना बड़ा है। उनके मुताबिक, पिछले वर्षों में राज्य में बन्दरों ने खेती का बहुत नुकसान किया है। यही कारण है कि सभा माँग करती रही है कि प्रदेश से बन्दरों का आयात किया जाए। क्योंकि दूसरे देशों में इनकी माँग रही है। तँवर कहते हैं कि यदि ऐसा किया जाता है, तो लोगों को बहुत राहत मिलेगी।

अब केंद्र सरकार के केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने हिमाचल को लेकर जारी अधिसूचना के मुताबिक, निजी भूमि पर बन्दर को मारने के तुरन्त बाद नज़दीक के वन अधिकारी-कर्मचारी को इसकी जानकारी देनी ज़रूरी होगी। केंद्र की यह अधिसूचना हिमाचल सरकार के वनों से बाहर के क्षेत्रों में रीसस मकाक बन्दरों की अत्यधिक संख्या हो जाने और उनसे बड़े पैमाने पर खेती के नुकसान के अलावा इंसानों पर घातक हमलों को लेकर भेजी रिपोर्ट के बाद आयी है।

वन भूमि पर बन्दरों को मारने पर अभी भी सख्त पाबन्दी रहेगी। वैसे हिमाचल में बन्दरों को पहले भी वॢमन घोषित किया जाता रहा है। इसी साल फरवरी तक लागू एक अधिसूचना से पहले भी बन्दरों को शिमला नगर निगम और 38 तहसीलों में वॢमन घोषित किया गया था। इसकी मियाद 20 दिसंबर, 2018 तक रही थी।

बन्दर यूँ ही शहरी और आबादी वाले इलाकों में नहीं आ गये हैं। जंगलों को तबाह कर चुके इंसान ने कभी यह नहीं सोचा था कि एक दिन यह बन्दर और यहाँ तक कि तेंदुए भी आबादी के इलाकों में आकर उनका जीना हराम कर देंगे। जंगल बचे नहीं और वहाँ जो कुछ उनके खाने के लिए था, वह भी इंसानों ने तबाह कर दिया।

हिमाचल में कुल 3243 पंचायतें हैं। इनमें से 547 पंचायतें बन्दरों की समस्या का सामना कर रही हैं। फसल ही नहीं, फलों (बागबानी) का भी बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ है। कई जगह किसानों ने खेती करना छोड़ दिया है।

‘तहलका’ का अध्ययन बताता है कि पिछले वर्षों में प्रदेश में बन्दरों को चोरी से ज़हर देकर मारने की दर्ज़नों घटनाएँ हुई हैं। नवीनतम घटना शिमला के मशहूर पर्यटक स्थल कुफरी की है। वहाँ इसी साल 17 मई को महासू पीक में मरे हुए नौ बन्दर मिले थे।

वन्य जीव विभाग के अधिकारी स्वीकार करते हैं कि शहर (शिमला) में बन्दरों की मौत ज़हरीला पदार्थ खाने से होती रही है। वॢमन घोषित होने के बाद कुछ लोग इन्हें खाने की चीज़ों में ज़हर दे रहे हैं, जो उनकी मौत का कारण बन रहा है। एक वन मण्डल अधिकारी ने नाम न छपने की शर्त पर बताया कि बन्दरों के मरने पर पहले भी उनके सैंपल मेरठ भेजे गये थे; जिनमें ज़हर की पुष्टि हुई थी।

इससे पहले 20 अक्टूबर, 2019 को भी राजधानी शिमला में बड़े पैमाने पर बन्दरों को मारने का मामला सामने आया था। तब मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने भी इस पर चिन्ता जतायी थी। राजधानी के बैनमोर, जाखू, संजौली और छोटा शिमला में दर्जनों बन्दरों की मौत हो चुकी है। कई बन्दर जंगली इलाके में मरे पड़े मिलते हैं; तो कई रिहायशी इलाकों में घरों की छतों पर और कॉलोनियों में।

बैनमोर से भाजपा की पार्षद किमी सूद ने इसकी शिकायत मुख्यमंत्री हेल्पलाइन पर की थी। पार्षद स्वीकार करती हैं कि उनके वार्ड में ही 200 से ज़्यादा बन्दर मर चुके हैं। इसी तरह जाखू की पार्षद अर्चना धवन भी स्वीकार करती हैं कि उनके वार्ड में भी कई बन्दर मरे हुए मिलते रहे हैं।

खेती बचाओ संघर्ष समिति के पदाधिकारी ओम प्रकाश भूरेटा और कुलदीप सिंह तँवर ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा कि प्रदेश में किसानों की आजीविका को जंगली जानवरों से गम्भीर खतरा पैदा हुआ है। कई किसानों ने फसल उगाना बन्द कर दिया है, जो उनके जीविका के लिए महत्त्वपूर्ण है। उनके मुताबिक, प्रदेश की करीब 66  लाख की इंसानी आबादी में बन्दर आबादी तीन लाख से भी ज़्यादा है। यह बन्दरों की सबसे बड़ी सघनता है और प्रति 19 लोगों के मुकाबले एक बन्दर का अनुपात है; जिसे बहुत चिन्ताजनक कहा जाएगा।

जानकार बताते हैं कि प्रदेश में बन्दर कृषि के लिए गम्भीर खतरा रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में मानव-वन्यजीव संघर्ष में खतरनाक रूप से वृद्धि हुई है और एक उचित प्रबन्धन योजना के अभाव में यह समस्या भविष्य में और बढऩे वाली है। उन्हें दूसरी जगह शिफ्ट करने या बसाने का विकल्प देखना चाहिए। भूरेटा और तँवर कहते हैं कि बन्दरों और जंगली जानवरों के इस खतरे से किसानों को बचाने के लिए कोई गम्भीर ज़मीनी कोशिश नहीं होती है, तो कृषि पर कोई भी खतरा राज्य के लोगों की लम्बे समय तक खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा बन जाएगा। हिमाचल में करीब 2301 पंचायतें जंगली जानवरों से प्रभावित रही हैं। हमीरपुर, काँगड़ा, सोलन, सिरमौर, मण्डी, ऊना, कुल्लू और शिमला की अधिकांश पंचायतों में कृषि पर जंगली जानवरों का खतरा रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, हिमाचल में फसलों की क्षति के 53 फीसदी नुकसान के ज़िम्मेदार अकेले बन्दर हैं; जबकि 23 फीसदी नुकसान के लिए जंगली सूअर। हाल के दशकों में प्रदेश में वन माफिया ने जंगलों का बड़े पैमाने पर नुकसान किया है। अतिक्रमण से भी जंगलों का आकार सिकुड़ा है। अवैध रूप से सैकड़ों बीघा भूमि पर आज भी लोगों का नाजायज़ कब्ज़ा है। बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई वन माफिया ने की है, जिससे पर्यावरण को ज़बरदस्त नुकसान पहुँचा है। पारिस्थितिक असंतुलन का एक और बड़ा कारण पिछले दशकों में बड़े बाँध, सीमेंट कारखाने और अन्य परियोजनाओं को भी जाता है। इन्होंने वन्यजीवों को भी बेघर किया है।

एक अध्ययन में यह पाया गया था कि बन्दर स्टरलाइजेशन के बाद ज़्यादा हिंसक हुए हैं। शिमला के बन्दर प्रदेश के अन्य बन्दरों के मुकाबले ज़्यादा हिंसक पाये गये हैं। शिमला में डस्टबिन की गन्दगी भी बन्दरों के इंसानों पर हमले का कारण मानी जाती है। बन्दर खाने के लिए डस्टबिन जुट जाते हैं। जब कोई पास से गुज़रता है, तो वो उस पर हमला कर देते हैं। इसे देखते हुए शिमला में कुछ क्षेत्रों में डस्टबिन को कम भी किया गया है।

बन्दर पकड़ो, 1,000 रुपये पाओ

हिमाचल में सरकार ने बन्दरों की बढ़ती आबादी से तंग आकर उनकी नसबन्दी का भी फैसला किया था। एक बन्दर पकडऩे के लिए अब 1,000 रुपये देने का प्रावधान है, जो पहले क्रमश: 500 और उसके बाद 700 रुपये किया गया था। बन्दर पकडऩे का यह अभियान इसलिए शुरू किया गया था, ताकि उनकी नसबन्दी की जा सके। एक सरकारी अनुमान के मुताबिक, हिमाचल भर में करीब 3.20 लाख बन्दर हैं। हिमाचल में बन्दरों की नसबन्दी के लिए आठ केंद्र हैं। प्रदेश सरकार के वन विभाग के वेबसाइट के मुताबिक, बन्दरों की नसबन्दी का अभियान चलाने के बाद प्रदेश भर में 2017-18 तक 1,40,882 (72707 बन्दर/68175 बन्दरिया) की नसबन्दी की गयी थी। हालाँकि एक अनुमान के मुताबिक, फरवरी, 2020 तक यह आँकड़ा करीब 1.59 लाख था। वैसे कुल संख्या के हिसाब से देखा जाए, तो यह संख्या कम नहीं है; लेकिन इसके बावजूद बन्दरों की संख्या लगातार बढ़ी है। कुछ जानकार आरोप लगते रहे हैं कि नसबन्दी का यह अभियान एक तमाशे से ज़्यादा कुछ नहीं है। क्योंकि ज़मीन पर इसका कोई असर नहीं दिखता। राष्ट्रीय ज्ञान विज्ञान समिति के वरिष्ठ पदाधिकारी ओम प्रकाश भूरेटा कहते हैं कि सरकार के नसबन्दी के इन आँकड़ों पर कोई भरोसा नहीं करेगा। क्योंकि यह सही हैं ही नहीं; न ही इस कवायद का कोई लाभ है।

एक संगठन, जो करता है बन्दरों की सेवा

जहाँ बन्दरों को मारने के लिए केंद्र सरकार ने अधिसूचना जारी की है, वहीं एक सामजिक संगठन है, जो बन्दरों को मारने के तो सख्त खिलाफ तो है ही, उन्हें भोजन उपलब्ध करवाने के लिए बाकायदा टीमें भेजता है।

यह संगठन है- ध्यान फाउण्डेशन। योगी अश्विनी के मार्गदर्शन में फाउण्डेशन देश भर में गायों, कुत्तों, ऊँटों सहित बन्दरों और अन्य जानवरों को खिलाने और उनके पुनर्वास में लगा हुआ है। फाउण्डेशन के कार्यकर्ता मोहित शर्मा ने ‘तहलका’ को बताया कि बन्दरों के लिए संगठन कई स्थानों पर भोजन का इंतज़ाम करता है। इनमें वृन्दावन, दिल्ली, हैदराबाद, देहरादून, अयोध्या के अलावा हिमाचल, खासकर शिमला भी शामिल हैं।

उनके मुताबिक, हिमाचल में प्रमुख रूप से शिमला के जाखू हनुमान मंदिर क्षेत्र में सैकड़ों बन्दरों को संगठन पिछले चार साल से लगातार रोज़ाना भोजन का इंतज़ाम कर रहा है। मोहित के मुताबिक, उन्हें रोज़ मक्की और केला खिलाया जाता है। उनका दावा है कि प्रतिदिन संगठन द्वारा दिये जा रहे भोजन से अपनी भूख मिटाकर संतुष्ट होने के बाद बन्दरों द्वारा पर्यटकों या स्थानीय लोगों पर हमला करके नुकसान पहुँचाने की घटनाओं में बहुत कमी आयी है।

उन्होंने बताया कि यहाँ तक कि लॉकडाउन अवधि के दौरान भी नियमों का पालन करते हुए निर्बाध रूप से बन्दरों को भोजन दिया गया है, जो कि जारी है। उनके मुताबिक, बन्दरों को मक्का की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए फाउण्डेशन द्वारा दो से तीन महीने का स्टॉक भेजा जाता है; ताकि बर्फबारी के दौरान उनके खाने की कमी न पड़े। क्योंकि उस समय रास्ते बन्द होने से दूर से भोजन मँगाने में दिक्कत आती है। ध्यान फाउण्डेशन के मार्गदर्शक योगी अश्विनी का इस मुद्दे पर कहना है कि बन्दरों को मारने का फैसला बिलकुल गलत है। उन्होंने कहा कि हम इस फैसले का सख्त विरोध करते हैं। योगी अश्विनी के मुताबिक, आज यह निरीह जीव पूरी तरह मनुष्य पर निर्भर है। मनुष्य के लालच ने उसके लिए न तो जंगल छोड़े और न खाने के लिए फलों से लदे पेड़। भूख से परेशान यह जीव अब शहरों में नज़र आते हैं। जहाँ या तो वो दुर्घटना का शिकार होते हैं या उन्हें मार दिया जाता है।

योगी अश्विनी ने कहा कि अपने आस-पास के परिवेश में रहने वाले जीव जन्तुओं की रक्षा का दायित्व मनुष्य का है। जानवरों को खाना खिलाना वेदों में निर्धारित मनुष्य के पाँच बुनियादी कर्तव्यों में से एक है। आज मानव, मनुष्यता को भूलकर बन्दरों को हिंसक पशु करार देकर मारने के लिए बिजली के झटके, पत्थर, बन्दूक और ज़हर का उपयोग कर रहा है। एक जानवर को भोजन और आश्रय की आवश्यकता होती है। बन्दरों को मारने की इस प्रकार की घोषणा मानवता के विरुद्ध है। एक तो भू-माफिया ने सभी कानूनों का उल्लंघन करके वन भूमि को हड़प लिया है और ऊपर से वही लोग जानवरों को मारने जैसी नीतियों को बढ़ावा दे रहे हैं; ताकि और अधिक ज़मीनों को हड़पा जा सके। उनके मुताबिक, ये माफिया हिंसक हैं; न कि बन्दर। किसी भी जानवर को यदि अपने प्राकृतिक वातावरण से भोजन प्राप्त है और उसके बच्चे सुरक्षित हैं; तो वह संतुष्ट है। लेकिन मनुष्य ने उसके उस आश्रय को हड़प लिया है। इसके लिए तो उन्हें नहीं मारा जा सकता। विश्व भर में जीव-जन्तुओं की रक्षा के प्रयास किये जाते हैं और संरक्षण के कानून भी हैं और उनका पालन भी किया जाता है। उनके लिए संरक्षित वनों के साथ-साथ आरक्षित क्षेत्र को रेखांकित किया जाता है, जिसमें उनका प्राकृतिक रहन-सहन होता है। यदि वो उस क्षेत्र से बाहर आते हैं, तो ही उनको मारने के आदेश दिये जाते हैं। जानवरों की ऐसी ज़बरदस्त हत्या कहीं भी स्वीकार नहीं है। यह तो केवल आसुरिक वृत्ति है।

बन्दरों को मारने से प्रकृति की ईकोलॉजिकल कड़ी तो टूटेगी ही, साथ ही उनकी पीड़ा एक नकारात्मक कर्म की प्रतिक्रिया के रूप में उन्मुक्त होकर उस स्थान और मानव-जाति के लिए भी विनाशकारी सिद्ध होगी और ये जीव भी बदले की भावना से मनुष्य को चोट या घातक नुकसान पहुँचा सकते हैं। इस प्रकार की उथल-पुथल से पर्यटन और प्रान्त और देश की छवि पर भी दुष्प्रभाव पड़ेंगे।

50 लाख रुपये से ज़्यादा का मुआवज़ा

क्या आप विश्वास करेंगे कि हिमाचल में पिछले आठ साल में करीब 55 लाख रुपये की राशि सरकार को लोगों को उस मुआवज़े के रूप में देनी पड़ी है; जो बन्दरों के हमलों में घायल हुए या जिनकी जान ही चली गयी। अकेले 2013-14 में यह राशि 24,24,969 रुपये, जबकि 2012-13 में 15,18,560 रुपये लोगों को मुआवज़े के रूप में देने पड़े। इस तरह बन्दरों के हमलों की घटनाएँ सरकारी खजाने पर भी भारी पड़ी हैं। इन वर्षों में प्रदेश भर में इंसानों पर बन्दरों के हमलों की 4500 से ज़्यादा घटनाएँ हुई हैं। इंदिरा गाँधी मेडिकल अस्पताल कॉलेज (आईजीएमसी), शिमला में साल 2015 में बन्दरों से काटने के 430, साल 2016 में 626, साल 2017 में 649, 2018 में 742 और 2019 में 631 मामले सामने आये।

दोयम दर्जे से मुक्ति

अधिकार मिलने की बेइंतहा खुशी के बारे में किसी वंचित से बेहतर भला कौन जानता होगा? यह ठीक वैसे ही है, जैसे बंदिश से आज़ादी। इसी वर्ष 24 मई को केंद्र सरकार की अधिसूचना के बाद जम्मू सम्भाग के दो लाख से ज़्यादा लोग जैसे निहाल हो गये। अब ये लोग न केवल राज्य के विधानसभा, बल्कि स्थानीय निकाय और अन्य चुनावों में भी मतदान कर सकेंगे और चुनाव लड़ भी सकेंगे। यह इनके लिए पहला अनुभव होगा। अभी तक इनको केवल लोकसभा चुनाव लडऩे और उसी में मतदान करने का अधिकार था। लाभान्वित लोगों में तत्कालीन पश्चिमी पाकिस्तान से आये शरशार्थी, गोरखा और पंजाब से आये वाल्मीकि-दलित आदि हैं। जम्मू-कश्मीर में धारा-370 और 35-ए के खत्म होने के बाद इनकी नागरिकता का मार्ग प्रशस्त हो गया था। प्रभावित लोगों को पूरी उम्मीद थी कि जल्द ही उन्हें राज्य की नागरिकता मिल जाएगी, जिसके लिए वे लगभग 70 साल से इंतज़ार कर रहे थे। इन लोगों के पास देश की नागरिकता तो थी, लेकिन राज्य सरकार की नहीं। इससे राज्य सरकार की योजनाओं के लाभ से ये वंचित थे। पीडि़त लोग इससे बड़ी दुश्वारी और ज़िल्लत महसूस करते थे कि वे जिस राज्य में वर्षों से रह रहे हैं, वहाँ की सरकार उन्हें अपना नागरिक नहीं समझती। आज़ादी के बाद भी अब तक ऐसा न होना विडम्बना की बात रही; लेकिन अब जैसे कोहरा छँट गया है।

जम्मू सम्भाग के गाँव हीरानगर निवासी सुरेश कुमार कहते हैं कि हमारे लिए तो मानो देश अब आज़ाद हुआ है। अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के बाद हम निराश्रित लोग साँस भले ही आज़ादी की फिज़ा में ले रहे थे; लेकिन हम उस राज्य के नागरिक नहीं थे, जहाँ हमारे पुरखे आज़ादी के बाद जान बचाकर सिर छिपाने के लिए सुरक्षित ठिकाने पर आ गये थे। नहीं आते तो मारे जाते। घर, ज़मीन-ज़ायदाद, भाईचारा, संस्कृति सब कुछ पीछे छूट गया। एक शून्य रह गया। उसी में रहने की मजबूरी। एक दंश जो दशकों से रहा, पर शायद अब नहीं रहेगा।

पीडि़त लोगों से बाचतीत के आधार पर यह यकीनी तौर पर कहना सम्भव लगता है कि काफी उम्मीद है कि दिन बहुरेंगे और इनकी ज़िन्दगी खुशहाल होगी। पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर रिफ्यूजी एसोसिएशन के लाखों लोग भी अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। आज़ादी के सात दशक बाद भी बड़ी तादाद में काफी लोग कैम्पों में रहने को मजबूर हैं। इनकी बस्तियों के नाम अब कैम्पों के नामों पर ही हैं। आज़ादी से पहले सियालकोट-जम्मू रेल मार्ग था; अब यह नहीं रहा। लिहाज़ा पुराने रेलमार्ग पर लोगों को अस्थायी तौर पर बसा दिया गया। दस्तावेज़ में अब भी उनका पता पुरानी रेल पटरी ही दर्ज है। क्वार्टर और कैम्प अब कुछ पक्के मकानों में तब्दील हो गये हैं। लेकिन ज़मीन अब भी यहाँ रहने वाले लोगों के नाम नहीं है।

संगठन के अध्यक्ष राजीव चुन्नी कहते हैं कि हमें तो सरकार शरणार्थी नहीं, बल्कि विस्थापित मानती है। चूँकि हम देश आज़ाद होने से पहले महाराजा हरिसिंह के समय से राज्य के नागरिक हैं। हम जिस मुज़फ्फराबाद (अब पाकिस्तान) में रहते थे, उसका बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्ज़े में है। हमें भी अपना सब कुछ छोडऩा पड़ा। अच्छी-खासी ज़मीन-ज़ायदाद वाले बेघर हो गये। आज़ादी के सात दशक बाद अब भी हमारे लोग कैम्पों में रहने को मजबूर हैं। ऐसे 39 कैम्पों में लोग बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित हैं।

इनमें भौर कैम्प, सिंबल कैम्प, चट्ठा कैम्प और गोल गुजराल कैम्प सरीखे नाम हैं। सरकारी दस्तावेज़ों में पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर के 31,619 परिवार पंजीकृत हैं। इनमें 26,319 परिवार पुराने जम्मू-कश्मीर में, जबकि बाकी देश के अन्य हिस्सों में रहते हैं। एसोसिएशन राजनीतिक प्रतिनिधित्व चाहती है। राज्य विधानसभा में पाक अधिकृत कश्मीर की 24 सीटें प्रस्तावित हैं। एसोसिएशन इनमें से एक-तिहाई सीटें चाहती है; ताकि वह अपने लोगों के हितों की रक्षा कर सके। चुन्नी कहते हैं कि सीटों के आरक्षण लिए उन्होंने तत्कालीन केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला से बात की। लेकिन उन्होंने ऐसा किया, तो एक विशेष समुदाय के लोग उनका जीना मुहाल कर देंगे।

ऐसी ही मंशा राज्य सरकारों की रही। नतीजतन हमारे लोग हर क्षेत्र में पिछड़ते ही चले गये। आज भी हमारे वर्ग के ज़्यादातर लोग मेहनत मज़दूरी करके घर चला रहे हैं। सभी के पास रोज़ कुआँ खोदने और पानी पीने जैसी स्थिति है। किसी के पास पक्का काम नहीं है। सरकारी नौकरियों का प्रतिशत बहुत कम है। एक बड़ा वर्ग शिक्षित नहीं है, तो भला सरकारी नौकरी की बात करना ही उनके लिए बेमतलब जैसा होगा।

जम्मू-कश्मीर में धारा-370 और 35-ए हटने के बाद पश्चिमी पाकिस्तान से आये लोगों को कुछ उम्मीद जगने लगी थी। केंद्र की 24 मई की अधिसूचना ने बता दिया कि हम लोग अब देश के बाद राज्य के भी नागरिक हो गये हैं। अब राज्य विधानसभा में इन्हें भी वोट डालने का हक होगा। स्थानीय निकाय चुनावों में वह हिस्सा ले सकेंगे। राज्य सरकार की नौकरियों में इनका भी हिस्सा होगा। अब ये दूसरे दर्जे के नागरिक नहीं, बल्कि उनके समान हो गये, जो इन्हें हिकारत से शरणार्थी के तौर पर देखा करते थे। शराणार्थी का पेबन्द तो अब भी रहेगा, न जाने कितने बरसों तक इसे झेलना होगा!

70 साल से ज़्यादा समय के इंतज़ार के बाद लाखों लोगों की यह हसरत पूरी हुई। आज़ादी के बाद हम लोगों को इस हक के लिए लम्बा संघर्ष करना पड़ा। धरना-प्रदर्शन से लेकर गिरफ्तारियाँ तक देनी पड़ीं, दर-दर की ठोकरें खानी पड़ीं, पिटाई खानी पड़ी। यह सब सब जब खाने को रोटी नहीं, पहनने को कपड़े नहीं और रहने को घर तक नहीं; बावजूद इसके हमने हिम्मत नहीं हारी। वेस्ट पाकिस्तान रिफ्यूजी एक्शन कमेटी के चेयरमैन लाभा राम गाँधी कहते हैं कि बदलाव की इस बयार से उम्मीद भरोसे में बदलने लगी है। सब कुछ बहुत जल्द नहीं होने वाला। लेकिन अब लगता है कि सात दशक के लम्बे इंतज़ार के बाद दिन फिरने वाले हैं।

जम्मू सम्भाग के गाँव सम्पूर्णपुर कुलियान के सेना से सेवानिवृत्त 62 वर्षीय राम सिंह कहते हैं कि इस गाँव में अब के पश्चिमी पाकिस्तान से आये करीब 70-80 परिवार हैं। वह बतातें कि उनके पिता थोड़ ू राम परिवार के साथ किसी तरह जान बचाकर गाँव सुर्खपुर से आये थे। उन्होंने दर-दर की ठोकरें खायीं, मगर रहने का सुरक्षित ठोर बड़ी मुश्किल से मिला। सब कुछ पीछे रह गया था। यहाँ सब कुछ नया था। राम सिंह कहते हैं कि वह तो कोशिश कर फौज़ में भर्ती हो गये, लेकिन सभी के भाग्य में ऐसा कहाँ था। लोग अब भी तंगहाली में रहने को मजबूर हैं। उनकी पेंशन से गुज़ारा नहीं हो पाता; लिहाज़ा उन्हें भी काम करना पड़ता है। दो बेटे राकेश और मुकेश हैं। राकेश ने 12वीं और मुकेश 10वीं तक पढ़ाई की है। केंद्र की अधिसूचना के बाद हम भी राज्य के नागरिक हो गये हैं। अब हम भी राज्य के नागरिक हो गये हैं।

गाँव रामबाग के 60 वर्षीय मोहन लाल धारा-370 और 35-ए हटाने के सरकार के फैसले को बहुत अच्छा मानते हैं। वह कहते हैं कि इससे हमारी राज्य की नागरिकता का रास्ता खुला। मैट्रिक तक पढ़े मोहन लाल के दो भाई- मनोहर लाल और घनश्याम भी हैं। सभी की आॢथक हालत खराब है। हैंडलूम के काम से परिवारों का गुज़ारा मुश्किल से होता है। वह कहते हैं कि मांदल गाँव से उनके पिता मेला राम यहाँ आये थे। उनकी ज़िन्दगी भी तंगहाली में गुज़र गयी और हमारी भी लगभग वैसे ही गुज़र रही है। बेटियों की शादी कर चुके मोहन लाल कहते हैं कि ज़्यादातर लोगों के पास पूरे दस्तावेज़ नहीं हैं। इनके नियम सरल बनाने चाहिए, ताकि सभी प्रभावित लोग सरकारी योजनाओं का लाभ उठा सकें। रामबाग में उनके वर्ग के 30-35 घर हैं और ज़्यादातर के पास मज़दूरी के अलावा कोई काम नहीं है; वह भी रोज़ नहीं मिलती। ऐसे में यहाँ के लोगों की मुश्किलों का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

हीरानगर के सुरेश कुमार (52) भी शरणार्थी होने की पीड़ा झेल रहे हैं। उनका जन्म इसी गाँव में हुआ है। वे बताते हैं उनके दादा अच्छर दास अन्य परिवारों के साथ आये थे। तब उनके पिता जनक राज 14 साल के थे। मेरे दादा मेरे पिता को और पिता मुझे पुरानी बातें बताते रहते थे। वह आजीविका के लिए कुछ काम करना चाहते थे। लेकिन इसके लिए पैसा चाहिए था; जो था ही नहीं। बैंक आदि से कर्ज़ मुश्किल था। हमारे नाम यहाँ कोई ज़ायदाद आदि भी नहीं थी, जिसे गिरवी रखकर कर्ज़ लिया जा सके। ऐसे में किसी अन्य ने कर्ज़ अपने नाम से लिया। उसी कर्ज़ से उन्होंने गाँव में छोटी-सी दुकान खोल ली। फोटो स्टेट मशीन से किसी तरह घर चला रहे हैं। बेटा नौवीं में और बेटी 12वीं में है। राज्य की नागरिकता मिलने के बाद शायद उन्हें नौकरी मिल जाए। वे कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर की किसी भी सरकार ने कभी नहीं चाहा कि हमें राज्य की नागरिकता मिल जाए। अब अधिसूचना जारी होने के बाद हम पक्के तौर पर राज्य के नागरिक हो गये हैं। हमारे लिए यह बहुत बड़ी बात है, क्योंकि हम बरसों से इसके लिए संघर्ष कर रहे थे।

गाँव हमीरपुर के जोगेंद्र लाल (65) की आॢथक हालत कुछ ठीक मानी जा सकती है। उन्होंने शिक्षा का महत्त्व समझा और अमृतसर से टीचर ट्रेनिंग का कोर्स कर लिया। तब राज्य में नौकरियाँ थीं। लेकिन वह इसके लिए पात्र नहीं थे। क्योंकि नौकरी के लिए राज्य की नागरिकता ज़रूरी थी, जो उनके पास नहीं थी। वह कहते हैं कि अगर उनके पास नागरिकता का अधिकार होता, तो उन्हें सरकारी नौकरी मिल गयी होती। खैर; जो भाग्य में लिखा होता है, वही मिलता है। जोगेंद्र लाल के एक बेटे और बेटी तो पोस्ट ग्रेजुएट हैं। एक बेटे संदीप कुमार और बेटी ज्योति बाला ने अंग्रेजी में एमए कर रखा है।

गाँव मीरन साहब, तहसील आरएसपुरा (जम्मू) के सामाजिक कार्यकर्ता ओमप्रकाश खजूरिया काफी सक्रिय हैं। वह कहते हैं कि जब तक पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर के लोगों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिलता, तब तक स्थिति में ज़्यादा बदलाव होने की उम्मीद नहीं है। वह कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों का राज्य से पलायन दु:खदायी घटना है। हम उनके दु:ख को समझते हैं। उन्हें रातोंरात अपना सब कुछ छोडक़र विस्थापित होना पड़ा था। केंद्र सरकार उनकी यथासम्भव मदद कर रही है; लेकिन विस्थापित तो हमारे लोग भी हैं। क्या हमें मदद की दरकार नहीं है? हम भी घर से बेघर हुए हैं। हमें वह कुछ नहीं मिला है, जिसके हम भी हकदार हैं।

कृषि विभाग से निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए सुचवंत सिंह कहते हैं कि पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर के लाखों लोग अपने कई अधिकारों से वंचित हैं। बहुत-से लोग आॢथक तौर पर सम्पन्न थे। लेकिन उनसे मुआवज़े के तौर पर यहाँ सरकार ने जो वादा किया था, उन्हें वह भी नहीं मिला। प्रभावित लोगों के पंजीकरण भी बहुत-सी खामियाँ रह गयीं। पंजीकरण के समय जो परिवार प्रमुख मौके पर नहीं आ सके, वह परिवार पंजीकृत नहीं हो सका। लोग अब भी कैम्पों में रहने को मजबूर है। ज़्यादातर लोग छोटा-मोटा काम करने को मजबूर है। राजनीतिक प्रतिनिधित्व को वह कारगर मानते हैं। वह कहते हैं हमारी आबादी को देखते हुए 24 में से 8 सीटें तो मिलनी ही चाहिए। जब तक हमारे लिए सीटें आरक्षित नहीं होतीं, तब तक हमारे लोगों की उपेक्षा होती रहेगी। राज्य की नागरिकता का अधिकार हमारे पास पहले से है। हमें विधानसभा में भी प्रतिनिधित्व चाहिए।

केंद्र से मदद

पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर के विस्थापितों के लिए बहुत पहले 25 लाख रुपये मुआवज़ा देने की बात तय हुई थी; इसे बाद में 30 लाख करके देने का भी किया गया। लेकिन मिला कुछ नहीं। केंद्र में भाजपा सरकार के गठन के बाद फिर से प्रभावित लोगों के मुआवज़े के लिए बात चली। केंद्र सरकार ने इसके लिए 2,000 करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की। इसमें प्रत्येक परिवार साढ़े पाँच लाख रुपये की मदद दी जानी थी। इस एक मुश्त मदद की योजना से विस्थापित ज़्यादा खुश नहीं थे; बावजूद इसके उन्होंने इसे मंज़ूर किया। 20,000 लोगों ने इसके लिए आवेदन किया। जानकारी के मुताबिक, अब तक करीब 18 हज़ार परिवार इसका लाभ ले चुके हैं। इसी तरह पश्चिमी पाकिस्तान रिफ्यूजी लोगों को भी यह राशि मिलनी थी; लेकिन पात्रता के लिए दस्तावेज़ की कमी के चलते अभी किसी को लाभ नहीं मिला है। इस लाभ की पात्रता के लिए पहले 1951 और 1957 की मतदाता सूची में नाम होना ज़रूरी बताया गया है। इनका तर्क यह रहा है कि अगर सूचियों में नाम होता, तो शायद वे भी अब तक राज्य की नागरिकता हासिल कर चुके होते। बाद में इसे 1971 और 1975 की मतदाता सूची को जोड़ दिया गया। इन सूचियों में प्रभावितों के नाम है। माना जा सकता है कि ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को इसका लाभ मिल जाएगा। इस बार इसकी प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी, मगर लॉकडाउन की वजह से काम रुक गया है। उम्मीद है स्थिति सामान्य होने के बाद यह प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। प्रभावितों को यह राशि मिलने की उम्मीद है; जिसके लिए वे पात्रता रखते हैं।

वादों का इंतज़ार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह संसद में कह चुके हैं कि जम्मू-कश्मीर के विकास को नये आयाम दिये जाएँगे। पैकेज के तौर पर हज़ारों करोड़ रुपये केंद्र ने दिये भी; लेकिन वे उस अंतिम ज़रूरतमंद तक नहीं पहुँच सके, जिस तक पहुँचने चाहिए। चुनिंदा राजनीतिक लोगों ने इसका अनुचित लाभ लिया। अब ऐसा नहीं हो पायेगा। क्योंकि सरकार सीधे इस पर नज़र रखेगी। हर व्यक्ति को इसका लाभ मिलेगा। कोई इससे वंचित नहीं रहेगा। गृह मंत्री अमित शाह ने तो स्पष्ट कहा कि न केवल कश्मीर, बल्कि जम्मू का भी कायाकल्प किया जाएगा। करीब छ: माह के दौरान अब तक विकास के कोई काम नहीं हुए हैं। पश्चिमी पाकिस्तान रिफ्यूजी और पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर के लाखों प्रभावितों की दशा जस-की-तस है। आधे से ज़्यादा लोग बड़ी मुश्किल से दो जून की रोटी मुश्किल से जुटा पा रहे हैं। ये लोग आॢथक बदहाली के दौर से गुज़र रहे हैं। इनके रोज़गार के लिए बड़े स्तर पर काम करने की ज़रूरत है। इसके अलावा कैम्पों को कस्बों या आदर्श गाँवों में बदलना होगा। इन्हें नया नाम देने की ज़रूरत है। कैम्पों के नाम से लगता है जैसे कि हमेशा रिफ्यूजी या शरणार्थी के तौर पर इन्हें जाना जाएगा। गृह मंत्री अमित शाह ने वादा किया है कि जम्मू-कश्मीर में विकास के नये आयाम से पाकिस्तान के कब्ज़े वाले क्षेत्र के लोग यहाँ आने को लालायित हो जाएँगे। क्या ऐसा सम्भव जान पड़ता है? उनके वादे को प्रतीक के तौर पर समझा जा सकता है। लोगों को अब इंतज़ार है। यह इंतज़ार कितना लम्बा होगा? यह देखने की बात है।

पाकिस्तान के कब्ज़े वाला हिस्सा हमारा

पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर एसोसिएशन के अध्यक्ष राजीव चुन्नी कहते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। इस नाते कहा जाता है कि पाकिस्तान के कब्ज़े वाला हिस्सा हमारा है। पहले की सरकारें भी इसे दोहरा चुकी हैं। वर्तमान केंद्र सरकार इसे ज़्यादा मज़बूती से कह रही है। गृह मंत्री अमित शाह लोकसभा में इसे भारत में जोडऩे की भरोसा दे चुके हैं। चुन्नी की राय में भविष्य में यह कब होगा? कोई नहीं जानता है। लेकिन हम भी पाकिस्तान के  कब्ज़े वाले हिस्से को अपने भारत देश का अंग मानते हैं। काश ऐसा हो जाए, तो हमारे से ज़्यादा खुशी और किसे होगी? जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक हम लोगों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व तो मिलना चाहिए। शेख अब्दुल्ला से लेकर महबूबा मुफ्ती तक किसी भी सरकार ने नहीं चाहा कि हम राजनीति में आगे बढ़ें। हमारा राजनीति में हिस्सा हो। राज्य विधानसभा की 24 सीटें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के नाम पर खाली छोड़ी जाती हैं। हम पाकिस्तान के कब्ज़े वाले हिस्से के लोगों के अधिकारों का हनन नहीं करना चाहते; लेकिन अपने हिस्से की माँग करते हैं। 70 साल में हम लोगों की आबादी कई गुना बढ़़ गयी है। उसके हिसाब से हम एक-तिहाई मतलब आठ सीटें चाहते हैं। मौज़ूदा स्थिति में हमारा पक्ष रखने वाला कोई नहीं है। इस माँग के लिए हम लोग वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं। अगर केंद्र सरकार हमारे समुदाय के लाखों लोगों का सच में ही हित चाहती है, तो हमें यह अधिकार मिलना ही चाहिए। राज्य के सभी लोगों के साथ एक समान व्यवहार होना चाहिए। यह कागज़ों में ही नहीं, बल्कि धरातल पर भी दिखना चाहिए। हमारे ज़्यादातर लोग आॢथक तौर पर कमज़ोर हैं। आधे से ज़्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। उनके पास शिक्षा नहीं है। बिना शिक्षा के अगली पीढिय़ाँ कैसे आगे बढ़ेंगी? साथ ही रोज़गार के ज़्यादा मौके पैदा करने होंगे। बता दें कि चुन्नी लोकसभा में भी अपनी िकस्मत आजमा चुके हैं।

दस्तावेज़ की कमी से नहीं मिल रहा लाभ

पश्चिमी पाकिस्तान रिफ्यूजी एक्शन कमेटी के चेयरमैन लाभा राम गाँधी कोई डेढ़ दशक से लोगों के अधिकारों के लिए सक्रिय हैं। शरणाॢथयों को उनके अधिकार दिलाने के लिए वह हर तरह का संघर्ष करते रहे हैं। वह कहते हैं कि वर्ष 2006 में हम लोगों ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर क्रमिक अनशन किया। करीब नौ माह तक ऐसा सिलसिला चलता रहा। राज्य सरकारों का रवैया शुरू से ही हमारे खिलाफ था। किसी भी सरकार ने नहीं चाहा कि हम अपने अधिकार हासिल कर सकें। जम्मू मुख्यालय, श्रीनगर और दिल्ली तक न जाने कितनी बार अधिकारों के लिए हमने अपनी आवाज़ बुलंद की; लेकिन आश्वासनों के अलावा कभी कुछ नहीं मिला। केंद्र सरकार की साढ़े पाँच लाख रुपये के आॢथक मदद एक अच्छा कदम है। लेकिन बहुत-से लोगों के पास पूरे दस्तावेज़ नहीं हैं। ये वे लोग हैं, जो लोग आज़ादी के बाद से यहाँ रह रहे हैं। ये लोग तो यहाँ के नागरिक हो ही गये हैं; लेकिन बिना ज़रूरी दस्तावेज़ के उन्हें सरकारी योजनाओं के लाभ में मुश्किल आने वाली है। हम प्रयास कर रहे हैं कि सभी पात्र लोगों को योजनाओं का लाभ मिले इसके लिए यहाँ हर सम्भव कोशिश हो रही है। हमें केंद्र सरकार पर पूरा भरोसा है कि हमारे साथ न्याय होगा। राज्य की नागरिकता मिलने के बाद अब प्रभावित लोग सरकारी नौकरियाँ कर सकेंगे। ज़्यादातर लोग आजीविका के लिए छोटा-मोटा काम करते हैं। पक्का काम तो बहुत कम लोगों के पास है। जहाँ-जहाँ बुनियादी सुविधाओं की कमी है, उन्हें पूरा कराने पर ज़ोर दिया जाएगा। शिक्षा को बढ़ावा दिया जाएगा। बैंक आदि से कर्ज़ लेकर लोग स्वरोज़गार कर सकें, इसके लिए कोशिश की जाएगी। अब शुरुआत हो गयी है। आने वाले समय में अच्छे नतीजे देखने को मिलेंगे। उन्हें लोगों का समर्थन भी खूब मिल रहा है। प्रभावित लोगों ने बताया कि उनके (लाभा राम के) नेतृत्व ने उन्हें बहुत हौंसला दिया है। वह उनके दु:ख-दर्द को अच्छी तरह समझते हैं। केंद्र सरकार के धारा-370 और 35-ए हटाने को फैसले को वह ऐतिहासिक मानते हैं। इससे लाखों लोगों का भविष्य उज्जवल होगा। नागरिकता मिलने के बाद वह स्थानीय निकाय के अलावा विधानसभा चुनाव भी भी िकस्मत आजमा चुके हैं। लाभा राम लोकसभा चुनाव में भी उतर चुके हैं; लेकिन सफल नहीं हो सके।

हमें भी मिले हमारा हक

गाँव मीरन साहब, तहसील आरएसपुरा (जम्मू) के सामाजिक कार्यकर्ता ओमप्रकाश खजूरिया भी लोगों के अधिकारों के लिए काफी सक्रिय रहे हैं। उनका मकसद पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के लोगों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिलाना है। वह मानते हैं कि जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक यहाँ की स्थिति में बहुत बदलाव होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। कश्मीरी पंडितों के राज्य से पलायन को वह दु:खद घटना मानते हैं। वह कहते हैं कि केंद्र सरकार उनकी यथासम्भव मदद भी कर रही है। लेकिन वह कैम्पों में रह रहे अपने लोगों को भी पीडि़त मानते हैं और कहते हैं कि हमारे लोगों को भी मदद की दरकार है। वह कहते हैं कि हम लोग भी बेघर हुए हैं, जिसके बदले हमें कुछ नहीं मिला है। हमें हमारे वो सभी हक मिलने चाहिए, जिसके हम हकदार हैं।

भारत में लॉकडाउन, पत्रकारिता और गेट्स फाउण्डेशन

दुनिया में जब लॉकडाउन की शुरुआत हुई, तो नागरिकों के दमन की खबरें सबसे ज़्यादा केन्या व अन्य अफ्रीकी देशों से आयीं। उस समय ऐसा लगा था कि भारत का हाल बुरा अवश्य है, लेकिन उन गरीब देशों की तुलना में हमारे लोकतंत्र की जड़ें गहरी हैं। हमें उम्मीद थी कि हमारी सिविल सोसायटी, जो कम-से-कम हमारे शहरों में मज़बूत स्थिति में है; उस तरह के दमन की सम्भावना को धूमिल कर देगी। लेकिन यह सब कुछ बालू की भीत (रेत की दीवार) ही था। आधुनिकता और नागरिक अधिकार सम्बन्धी हमारे नारे सिर्फ ऊपरी लबादे थे।

पिछले दिनों विश्व के प्राय: सभी प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों ने रेखांकित किया है कि लॉकडाउन के दौरान भारत, नागरिक अधिकारों के अपमान में दुनिया में अव्वल रहा। दुनिया भौचक होकर भारत की हालत देख रही है। एक परदा था, जो हट गया है। तूफानी हवा के एक झोंके ने हमें नंगा कर दिया है।

न्यूयार्क टाइम्स ने अपनी 15 फरवरी, 2020 की रिपोर्ट में चीन के लॉकडाउन को माओ-स्टाइल का सामाजिक नियंत्रण बताते हुए दुनिया का सबसे कड़ा और व्यापक लॉकडाउन बताया था। लेकिन भारत में लॉकडाउन के बाद समाचार-माध्यमों ने भी महसूस किया कि चीन और इटली का नहीं, भारत का कोरोना वायरस लॉकडाउन दुनिया में सबसे कठोर है। भारत की संघीय सरकार ने पूरे देश के लिए समान नीति बनायी। जबकि चीन में लॉकडाउन के अलग-अलग स्तर थे। भारत के विपरीत बीजिंग में बसें चल रही थीं। वहाँ लॉकडाउन के एक सप्ताह बाद ही यात्री और ड्राइवर के बीच एक प्लास्टिक शीट लगाकर टैक्सी चलाने की इजाज़त दे दी गयी थी। केवल कुछ प्रान्तों से घरेलू उड़ानों और ट्रेनों की आवाजाही को रोक दिया गया था; वह भी सभी जगह पर नहीं। जबकि भारत में हमने देखा कि न सिर्फ पूरे देश का आवागमन रोक दिया गया, बल्कि कई जगह से पुलिस की पिटाई से होने वाली मौतों की खबरें भी आयीं। बिहार में पुलिस ने लॉकडाउन तोडऩे की सज़ा स्वरूप दो युवकों की गोली मारकर हत्या कर दी।

तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने देश-व्यापी लॉकडाउन शुरू होने से पहले ही अपने राज्यवासियों को चेतावनी दी कि लॉकडाउन तोडऩे वालों को देखते ही गोली मारने का आदेश जारी किया जा सकता है और अगर आवश्यकता पड़ी, तो राज्य में सेना को भी तैनात किया जाएगा। लॉकडाउन की घोषणा होते ही दिल्ली से सटे लोनी से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के विधायक नंदकिशोर गुर्जर ने एक वीडियो जारी करके कहा कि लोनी में बिना पुलिस को बताये और बिना अनुमति लिये अगर कोई बाहर निकले, तो पुलिस ऐसे देशद्रोहियों की टाँगें तोड़ दे। अगर तब भी लोग न मानें, तो उनकी टाँगों में गोली मार दी जाए। क्योंकि ये लोग भी किसी आतंकवादी से कम नहीं हैं; ये लोग देशद्रोही हैं। ये घटनाएँ और बयान सिर्फ बानगी भर हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो अधिकांश प्रशासकों के रवैये में महामारी से लडऩे की संवेदनशीलता की बजाय हिंसक क्रूरता झलक रही थी। उनके इस व्यवहार ने लॉकडाउन को गरीबों के लिए काल-कोठरी में बदल दिया। जैसा कि बाद में वैश्विक अर्थ-शास्त्र और राजनीति पर लिखने वाले भारतीय निवेशक व फंड मैनेजर रुचिर शर्मा ने भी न्यूयॉर्क टाइम्स के अपने लेख में चिह्नित किया कि भारत के अमीरों ने लॉकडाउन को अपनी इच्छाओं के अनुरूप पाया। लेकिन गरीबों के लिए इसकी एक अलग ही दर्दनाक कहानी है। नरेंद्र मोदी को उनकी निरंकुश और हिन्दुत्व केंद्रित कार्यशैली को लगातार कोसते रहने वाला भारत के कथित उदारवादी, अभिजात तबके ने सम्पूर्ण तालाबन्दी के पक्ष में नरेन्द्र मोदी द्वारा घोषित लॉकडाउन के पीछे लामबन्द होने में तनिक भी समय नहीं गँवाया।

दरअसल यह कोई नयी बात नहीं थी। भारत के इस उदारवादी तबके पास सेकुलरिज्म के अतिरिक्तकोई ऐसा मूल्य नहीं रहा है, जिसके बूते वह लम्बे समय तक हिन्दुत्व के बहुआयामी वर्चस्ववाद से लड़ सके। सामाजिक न्याय, सामाजिक बन्धुत्व जैसे मूल्य इस तबके में सिरे से नदारद रहे हैं। यह तबका आधुनिक शिक्षा प्रणाली से अत्यधिक आक्रांत है और औपचारिक शिक्षा के आधार पर विभेदात्मक श्रेणियों को वैधता देने की वकालत करता है। कमोवेश यही हाल राजनीतिक विपक्ष का भी है। कांग्रेस का हिरावल दस्ता तो इसी उदारवादी अभिजात वर्ग का नेतृत्व करता है; जबकि समाजवाद और दलितवाद जैसी विचारधाराओं के पैरोकारों के पास नागरिक अधिकारों को लेकर कोई विश्वदृष्टि नहीं है। यह भी एक कारण रहा कि काम की तलाश में अपने गृह-क्षेत्र से दूर गये मज़दूरों, जिनमें से अधिकांश निरक्षर या बहुत कम पढ़े-लिखे हैं; ने जो अकथनीय पीड़ा झेली है, उसकी नृशंसता से यह उदारवादी वर्ग और मीडिया लगभग असम्पृक्त बना रहा। इतना ही नहीं, उन्होंने इन मज़दूरों को अविवेकी, रोग के वैज्ञानिक आधार को न समझने वाली एक अराजक भीड़ के रूप में देखा; जो सिर्फ उनकी दया की पात्र हो सकती थी। वे इन्हें समान अधिकारों से सम्पन्न नागरिकों के रूप में देखने में अक्षम थे। हमारे पास इससे सम्बन्धित कोई व्यवस्थित आँकड़ा नहीं है कि इस सख्त लॉकडाउन के कारण कितने लोग मारे गये। स्वभाविक तौर पर सरकार कभी नहीं चाहेगी कि इससे सम्बन्धित समेकित आँकड़े सामने आयें, जिससे उसकी मूर्खता और हिंसक क्रूरता सामने आये।

बेंगलूरु के स्वतंत्र शोधकर्ताओं- तेजेश जीएन, कनिका शर्मा और अमन ने अपने स्तर पर इस प्रकार के आँकड़े विभिन्न समाचार पत्रों, वेब पोर्टलों में छपी खबरों के आधार पर जुटाने की कोशिश की है। उनके अनुसार, जून के पहले सप्ताह तक 740 लोग भूख से, महानगरों से अपने गाँवों की ओर पैदल लौटने के दौरान थकान या बीमारी से, दुर्घटनाओं से, अस्पतालों में देखभाल की कमी या अस्पतालों द्वारा इलाज से इन्कार कर देने से, पुलिस की क्रूरता से और शराब की दुकानों के अचानक खुल जाने के कारण मारे जा चुके हैं। इन शोधकर्ताओं द्वारा जुटायी गयी खबरों के अनुसार, 50 लोगों की मौत पैदल चलने के दौरान थकान से हुई, जबकि लगभग 150 लोग इस दौरान सडक़ दुर्घटना और ट्रेन से कटकर मर गये। हालाँकि ये शोधकर्ता अपने संसाधनों की सीमाओं, भाषा सम्बन्धी दिक्कतों और स्थानीय संस्करणों के बहुतायत के कारण सभी प्रकाशित खबरों को नहीं जुटा पाये हैं। लेकिन अगर सभी समाचार-माध्यमों में प्रकाशित खबरों के आधार पर आँकड़े जुटा भी लिये जाएँ, तो क्या वो सच्चाई की सही तस्वीर प्रस्तुत करने में सक्षम होंगे? लगभग दो दशक तक सक्रिय पत्रकारिता के अपने अनुभव के आधार कह सकता हूँ कि कतई नहीं! लॉकडाउन द्वारा मार डाले गये लोगों की संख्या अखबारों में छपी खबरों की तुलना में कई गुना अधिक है। इसे एक उदाहरण से समझें- ‘भारत सरकार ने लॉकडाउन में ढील देकर अपने गाँवों से दूर महानगरों में फँसे कामगारों को घर पहुँचाने के लिए 01 मई से श्रमिक ट्रेनें चलाने की शुरुआत की थी। इन श्रमिक ट्रेनों से महज़ 18 दिन में (9 मई से 27 मई के बीच) 80 लोगों की लाशें बरामद हुईं। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में भी पहुँचा। कोर्ट में सरकार ने कहा कि इनमें से एक भी श्रमिक भूख, दवा की कमी अथवा बदइंतज़ामी से नहीं मरा है; बल्कि मरने वाले पहले से ही किसी बीमारी से पीडि़त थे।’ सरकार चाहे जो कहे, लेकिन यह बात किसी से छुपी नहीं है कि ये मौतें किन कारणों से हुई हैं? ज़ाहिर है कि परेशानी में ही सही ट्रेन का सफर बच्चों को गोद में लेकर गृहस्थी का सामान उठाये हज़ारों किलोमीटर के पैदल-सफर की तुलना में निश्चित ही कम जानलेवा होता है। इन पैदल चलने वालों में हज़ारों बूढ़े-बुज़ुर्ग, महिलाएँ (जिनमें अनेक गर्भवती भी थीं), बच्चे, दिव्यांग और बीमार लोग भी थे। कई दिनों से कम भोजन पर जी रहे या भूखे रह रहे लोगों के न कहीं खाने का ठिकाना, न पीने के लिए पानी का इंतज़ाम, न आराम और सोने का समय और इंतज़ाम; उस पर लगातार सफर। आसानी से समझा जा सकता है कि ट्रेन में सफर के दौरान महज़ 18 दिनों में जिस जानलेवा थकान और बदहवासी ने 80 लोगों से उनका जीवन छीन लिया, उसने पिछले ढाई महीने में पैदल चल रहे लाखों में से कितने लोगों की जान ली होगी? क्या वे उतने ही होंगे, जितने लोगों की मरने की सूचना मीडिया में आयी है?

जब देश भर की स्वास्थ्य सुविधाएँ कथित महामारी के नाम पर बन्द कर दी गयी थीं, तो कितने लोग तमाम बीमारियों और दुर्घटनाओं के कारण बिना इलाज के मरे होंगे? इनकी भी कोई गिनती नहीं हो रही। इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए हमें यह देखना होगा कि पत्रकारिता कैसे काम करती है? ट्रेन में हुई मौतों के आँकड़े मीडिया संस्थानों को कैसे मिले? क्या ये आँकड़े मीडिया संस्थानों ने खुद जुटाये? क्या उनके संवाददाताओं ने अलग-अलग जगहों से इन लाशों के मिलने की खबरें भेजीं? उत्तर है- नहीं।

मीडिया संस्थानों के पास न तो इतना व्यापक तंत्र है कि वो यह कर सकें और न ही वो इसके लिए इच्छुक रहते हैं। हमारे मीडिया संस्थानों का काम राजनीतिक खबरों, राजनेताओं के वक्तव्यों और वाद-विवाद से सम्बन्धित खबरों को जमा करने और प्रेस कॉन्फ्रेंस आदि में कुछ प्रश्न करने तक सीमित रहता है। इसके अतिरिक्तजो कुछ भी प्रसारित होता है, वह सामान्यत: विभिन्न संगठनों द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्तियों या सरकारी अमले द्वारा उपलब्ध करवायी गयी सूचनाओं की प्रस्तुति भर है। वास्तव में स्वतंत्र पत्रकार बरखा दत्त जैसे कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो कोई भी संवाददाता फील्ड में नहीं है। समाचार माध्यम में अपने संवाददाताओं के बीच बीटों (कार्य क्षेत्र) का बँटवारा इस प्रकार करने की परिपाटी है, जिससे कि उनकी मुख्य भूमिका सरकारी विभागों के प्रवक्ता भर की होकर रह जाती है। ज़िला मुख्यालय और कस्बों से होने वाली पत्रकारिता भी ज़िलाधिकारी, पुलिस कप्तान, प्रखण्ड विकास पदाधिकारी या स्थानीय थानों द्वारा उपलब्ध करवायी गयी जूठन से संचालित होती है। बहरहाल ट्रेनों में हुई इन मौतों के आँकड़े रेलवे सुरक्षा बल (आरपीएफ) ने जारी किये। आरपीएफ ने मीडिया संस्थानों को बताया कि इन ट्रेनों में 23 मई को 10 मौतें, 24 मई को 9 मौतें, 25 मई को 9 मौतें, 26 मई को 13 मौतें, 27 मई को 8 मौतें हुईं। सभी मीडिया संस्थानों में ट्रेनों में हुई मौतों से सम्बन्धित आप यही खबर पाएँगे। यहाँ तक कि उन सब खबरों के वाक्य विन्यास, प्रस्तुति आदि सब एक तरह की ही होगी। चूँकि सीआरपीएफ ने 9 मई से 27 मई के बीच हुई मौतों के ही आँकड़े दिये, तो सभी मीडिया संस्थानों ने उन्हें ही प्रसारित किया। आरपीएफ ने एक मई से 9 मई के बीच और 27 मई के बाद श्रमिक ट्रेनों में हुई मौतों के आँकड़े नहीं जारी किये हैं। इसलिए मीडिया संस्थानों के पास यह जानने का कोई साधन नहीं है कि इस बीच ट्रेनों में कितने लोगों की मौत हुई। इसी प्रकार अगर किसी पैदल सफर कर रहे व्यक्तिकी मौत होने पर अगर सम्बन्धित थाना पत्रकारों को सूचित करता है, तो उसकी खबर वहाँ के स्थानीय अखबारों में आ जाती है। अगर कोई थाना पत्रकारों को किसी की मौत की सूचना न दे, तो सामान्यत: वह मौत मीडिया में दर्ज नहीं होती है। कभी किसी पत्रकार को अन्य स्रोत से सूचना मिल जाए और वह प्रकाशित हो जाए; यह अपवाद स्वरूप ही होता है। लॉकडाउन के दौरान तो इसकी सम्भावना नगण्य ही थी। क्योंकि पुलिस की पिटाई के भय से छोटे पत्रकार तो सडक़ पर निकलने की हिम्मत तक नहीं सके। इसलिए कफ्र्यू की तरह सख्त लॉकडाउन के कारण हुई मौतों से सम्बन्धित जो खबरें मीडिया में आ सकीं, वे चाहें जितनी भी भयावह लगें, लेकिन वास्तविक हालात जितने भयावह थे, उसका वो एक बहुत छोटा हिस्सा थीं।

कोविड-19 से अभी तक 7,000 लोगों की मौत को सरकारी आँकड़ों में दर्ज किया गया है। हालाँकि कोविड-19 से हुई मौतों के ये आँकड़े भी संदेहास्पद ही हैं; क्योंकि इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की नये दिशा-निर्देशों के अनुसार इनमें निमोनिया, हृदयाघात आदि से हुई मौतों के आँकड़े भी जोड़ दिये जा रहे हैं। सिर्फ कोविड-19 से मरने वालों की संख्या इससे बहुत कम है। दूसरी ओर लॉकडाउन से अब तक लाखों लोगों की जान जा चुकी है। भारत में मध्य वर्ग के परिवारों द्वारा बड़ी संख्या में सामूहिक आत्महत्याओं का सिलसिला 8 नवंबर, 2016 को प्रधानमंत्री मोदी द्वारा घोषित नोटबन्दी के बाद शुरू हुआ था; जिसमें 2019 तक आते-आते कुछ गिरावट आने के संंकेत मिलने लगे थे। भारत में इन चीज़ों को अलग से देखने के लिए बहुत कम अध्ययन होते हैं। लेकिन जाति की राजनीति के लाभ-हानि का अध्ययन करने वालों के लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि नोटबन्दी के बाद सामूहिक आत्महत्या के लिए विवश होने वाले ज़्यादातर परिवार निम्न-वैश्य परिवारों (वैश्य समुदाय की दो श्रेणियाँ हैं- सामान्य वर्ग में आने वाला उच्च वैश्य और अन्य पिछड़ा वर्ग के अंतर्गत आने वाला निम्न-वैश्य) के थे। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी इसी सामाजिक समूह से आते हैं। वर्ग के आधार पर देखें, तो इनमें से ज़्यादातर मध्यम व उच्च-मध्यम वर्ग के थे; जिनके रोज़गार नोटबन्दी में चौपट हो गये और कर्ज़ बढ़ता गया। लॉकडाउन के उपरांत आॢथक तंगी के कारण मध्य वर्ग के बीच आत्महत्याओं का जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह अगले कितने वर्षों तक जारी रहेगा। यह कोई नहीं जानता।

डब्ल्यूएचओ की प्रेस ब्रीङ्क्षफग की चुनिंदा रिपोॄटग

पिछले चार महीने से डब्ल्यूएचओ कोविड-19 के सम्बन्ध में रोज़ाना प्रेस ब्रीङ्क्षफग करता है। इस वर्चुअल प्रेस ब्रीङ्क्षफग का प्रसारण उसके मुख्यालय, जेनेवा (स्विटजरलैंड) से उसके सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर होता है; जिसमें दुनिया भर से पत्रकार भाग लेते हैं। दुनिया भर के अखबारों और समाचार एजेंसियों का इस कथित महामारी से सम्बन्धित खबरों का मुख्य स्रोत यह प्रेस ब्रीङ्क्षफग ही रही है। भारत समेत अनेक विकासशील और गरीब देशों की सरकारों के मुखिया इस ब्रीङ्क्षफग के दौरान अपनी तारीफ सुनना चाहते हैं। इस ब्रीङ्क्षफग के दौरान संगठन के डायरेक्टर जनरल टेड्रोस अदनोम घेब्रेयसस ने जब-जब भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ की है, तब-तब भारत के समाचार-माध्यमों में प्रसन्नता से खिली हुई खबरें विस्तार से प्रसारित हुई हैं।

30 मार्च को किसी भारतीय पत्रकार (उनका नाम फोन नेटवर्क की गड़बड़ी के कारण ठीक से सुना नहीं जा सका था) ने इस प्रेस ब्रीङ्क्षफग में डब्ल्यूएचओ के पदाधिकारियों से कहा- ‘आपको ज्ञात होना चाहिए कि लॉकडाउन के दौरान भारत अपने प्रवासी मज़दूरों के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाने को लेकर अभूतपूर्व मानवीय संकट देख रहा है। मैं यह जानता हूँ कि आपको किसी देश विशेष पर टिप्पणी करना पसन्द नहीं है; लेकिन यह एक अभूतपूर्व मानवीय संकट है। हमारी सरकार को आपकी क्या सलाह होगी?’

चूँकि इस दौरान भारत में गरीबों-मज़दूरों के ऊपर जिस प्रकार की अमानवीय घटनाएँ घट रही थीं, और उसकी जो छवियाँ सोशल मीडिया के माध्यम से सामने आ रहीं थीं; उन्होंने सबको मर्माहत और चौकन्ना कर दिया था। लाखों की संख्या में मज़दूर (जिनमें महिलाएँ, बच्चे, युवा और बूढ़े सभी शामिल थे) हज़ारों किलोमीटर दूर अपने घरों की ओर पैदल निकल पड़े थे; जिन्हें रोकने के लिए जगह-जगह सीमाएँ सील की जा रही थीं। हज़ारों लोग अलग-अलग शहरों में से अपने गाँवों के लिए निकलना चाह रहे थे। लेकिन पुलिस उन पर डण्डे बरसा रही थी। ऐसा लग रहा था कि कहीं गृह-युद्ध जैसे हालात न पैदा हो जाएँ। डब्ल्यूएचओ के अधिकारी इससे सम्बन्धित प्रश्न आने पर खुद को रोक नहीं पाये। डब्ल्यूएचओ के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर माइकल जे. रयान ने इस प्रश्न के उत्तर में लॉकडाउन का समर्थन किया; लेकिन यह भी कहा कि देशों को अपने विशिष्ट आवश्यकताओं को देखते हुए सख्त या हल्का लॉकडाउन लगाना चाहिए और हर हाल में प्रभावित लोगों के मानवाधिकार का सम्मान करना चाहिए। माइकल रयान के बाद संगठन के डायरेक्टर जनरल डॉ. टेड्रोस ने भी भावुकता भरे शब्दों में कहा कि मैं अफ्रीका से हूँ, और मुझे पता है कि बहुत से लोगों को वास्तव में अपनी रोज़ की रोटी कमाने के लिए हर रोज़ काम करना पड़ता है। सरकारों को इस आबादी को ध्यान में रखना चाहिए। मैं एक गरीब परिवार से आता हूँ और मुझे पता है कि आपकी रोज़ी-रोटी की चिन्ता करने का क्या मतलब है? सिर्फ जीडीपी के नुकसान या आॢथक नतीजों को ही नहीं देखा जाना चाहिए। हमें यह भी देखना चाहिए कि गली के एक व्यक्तिके लिए इसका (लॉकडाउन का) क्या अर्थ है? मेरी यह बात सिर्फ भारत के बारे में नहीं है; यह दुनिया के सभी देशों पर लागू होती है।

विश्व स्वास्थ संगठन के इस बयान को भारतीय मीडिया में कहीं जगह नहीं मिली। लेकिन इस बयान के बाद भारत सरकार सक्रिय हुई और लॉकडाउन के दौरान उठाये गये कथित कदमों को प्रेस ब्रीङ्क्षफग में रखने के लिए डब्ल्यूएचओ पर दबाव बनाया। परिणामस्वरूप 01 अप्रैल, 2020 की प्रेस ब्रीङ्क्षफग में डब्ल्यूएचओ प्रमुख डॉ. टेड्रोस ने भारत सरकार द्वारा जारी किये गये राहत पैकेज के बारे में जानकारी दी। यह वह पैकेज था, जिसे भारत सरकार पाँच दिन पहले (26 मार्च को ही) घोषित कर चुकी थी। टेड्रोस ने कहा कि भारत में प्रधानमंत्री मोदी ने 24 बिलियन अमेरिकी डॉलर (20 लाख करोड़ रुपये) के पैकेज की घोषणा की है; जिसमें 800 मिलियन (8,000 लाख रुपये) वंचित लोगों के लिए मुफ्त भोजन, राशन, 204 मिलियन  (2,040 लाख रुपये) गरीब महिलाओं को नकद राशि हस्तांतरण और 80 मिलियन (800 लाख रुपये) घरों में अगले तीन महीनों के लिए मुफ्त खाना पकाने की गैस शामिल है। इसके अलावा इंडिया टुडे के पत्रकार अंकित कुमार के एक प्रश्न के उत्तर में माइकल रयान ने कहा कि भारत में लॉकडाउन के परिणामों के बारे में कुछ भी कहना जल्दबाज़ी होगी; लेकिन जो जोखिम में हैं, उन पर लॉकडाउन के प्रभावों को सीमित करने के लिए भारत ने बड़ा प्रयास किया है। अगले दिन भारत के सभी हिन्दी-अंग्रेजी समाचार माध्यम इस खबर से अटे पड़े थे कि डब्ल्यूएचओ ने प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ की है और कहा है कि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा कोरोना के खिलाफ उठाये गये कदम अच्छे हैं। अनेक न्यूज चैनलों ने डब्ल्यूएचओ के वक्तव्य की रिपोॄटग करते हुए यहाँ तक कहा कि कोरोना वायरस को कैसे रोका जाए इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी और उनके विशेषज्ञों की एक टीम लगातार काम कर रही है। 21 दिन के लॉकडाउन का फैसला भी प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी इसी टीम की सलाह पर लिया है। प्रधानमंत्री हर रोज़ करीब 17-18 घंटे काम कर रहे हैं। कोरोना वायरस के खिलाफ संघर्ष में विश्व स्वास्थ संगठन भी प्रधानमंत्री मोदी और भारत की तारीफ कर चुका है। ये खबरें समाचार माध्यमों के पास कहाँ से आयी होंगी? यह आसानी से समझा जा सकता है। ये वही मीडिया संस्थान थे, जिन्होंने डब्ल्यूएचओ द्वारा दी गयी मानवाधिकारों का खयाल रखने की सलाह को प्रकाशित करने से परहेज़ किया था।

महामारी और वैक्सीन व्यवसाय

मुख्यधारा के मीडिया और उदारवादी-अभिजात तबके की बात छोड़ भी दें, तो भी जन-पक्षधर माने जाने वाले पत्रकारों व अन्य बुद्धिजीवियों में भी लॉकडाउन की इस त्रासदी की जड़ को देखने की उत्सुकता और प्रयास प्राय: नहीं रहा है। इस खेमे का अधिक बल हिन्दुत्व की राजनीति को घेरने पर रहा है; जो उचित है। लेकिन वास्तविक संकट को समझने के लिए उनका यह प्रयास इसलिए अधूरा है। क्योंकि वे इसके वैश्विक संदर्भों को नहीं देख पा रहे हैं। भले ही भारत समेत अनेक देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने लॉकडाउन की घोषणा स्वयं की हो, लेकिन वह उनका स्वयं का सुचिन्तित निर्णय नहीं था, बल्कि एक भेड़चाल थी; जिसके आगे-आगे कुछ अदृश्य ज़रिये चल रहे थे। एक धर्म-ग्रन्थ में ईसा नामक एक गड़रिया करुणा और मानवता का पथ-प्रर्दशक है; लेकिन महामारी का भय दिखाने वाले इन गड़रियों की भूमिका हमें एक अन्धे कुएँ की मुँडेर तक पहुँचाने की थी।

गड़रिया कौन था? इस प्रश्न के उत्तर में तथ्यों की लगभग सभी कडिय़ाँ दुनिया के सबसे अमीर आदमियों में शुमार, परोपकारी व्यवसाय के अगुआ बिल गेट्स की ओर इशारा करती हैं। वास्तव में इन कडिय़ों को देखना भौचक और मानसिक तौर पर अस्त-व्यस्त कर देने वाला अनुभव है। इस ओर देखने पर आप पाएँगे कि बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन (बीएमजीएफ) प्राय: हर जगह मौज़ूद है। चाहे वह कथित महामारी की भविष्यवाणी हो, जर्म-वॉर (रोगाणु युद्ध) का ट्रायल हो, लॉकडाउन जैसे कड़े कदमों की वकालत हो, इन कड़े कदमों के लिए आधार उपलब्ध करवाने वाले अध्ययनों (मॉडलों) की प्रत्यक्ष-परोक्ष फंङ्क्षडग (धनराशि प्राप्त) हो, वैक्सीन (टीका) की खोज हो या निर्माण और व्यवसाय हो। इस कथित महामारी ने डिजिटल इकोनॉमी को बढ़ाने तथा मनुष्य की आज़ादी को सीमित करने व डिजिटल सॢवलांस के लिए मौका उपलब्ध करवाया है। गेट्स फाउण्डेशन इन सभी की प्रक्रिया को तेज़ करने के लिए पहले से ही सक्रिय रहा है। इन चीज़ों का विरोध करने वाली आवाज़ों को दबाने और अविश्वनीय बनाने की कोशिश करने वाले अनेकानेक सुचिन्तित प्रोजेक्टों (योजनाओं) को भी यह फाउण्डेशन चला रहा है। इन कडिय़ों को देखने पर स्वभाविक सवाल उठता है कि गरीबों के स्वास्थ को लेकर चिन्तित दिखने वाले, अनेक गरीब देशों को अनुदान देने वाले, बिहार एक छोटे से गाँव में गरीब की झोंपड़ी में बैठकर उनकी व्यथा सुनने वाले बिल गेट्स के इस रूप को हम कैसे देखें? दुनिया भर में करोड़ों लोग बिल गेट्स में चतुर लोमड़ी और नदी किनारे घात लगाकर बैठे बूढ़े भेडिय़े का चेहरा देखते हैं। इनमें किञ्चित अतिवादी विचारधाराओं के संगठित समूह भी शामिल हैं। बिल गेट्स जब भी अपने सोशल मीडिया एकाउंट्स (खातों) और ब्लॉग्स पर कोविड-19 की भयावहता या वैक्सीन की अनिवार्यता के बारे में कुछ लिखते हैं, तो उन्हें एक षड्यंत्रकारी के रूप में चित्रित करने वाली टिप्पणियों की बाढ़ आ जाती है। आम लोगों के अतिरिक्तबिल गेट्स के इस रूप का संकेत स्वास्थ, पर्यावरण, वैश्विक अर्थ-तंत्र आदि के कई विशेषज्ञ भी करते रहे हैं।

डब्ल्यूएचओ के लिए बिल और मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन का स्थान पिछले कई वर्षों से किसी भी देश की चुनी हुई सरकार से अधिक महत्त्वपूर्ण है। डब्ल्यूएचओ को इस साल तक सबसे अधिक पैसा अमेरिका सरकार से प्राप्त होता था। उसके बाद मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन का स्थान था। तीसरा स्थान ब्रिटेन का था। लेकिन इस साल कोविड-19 के मामले में चीन का पक्ष का लेने के आरोप में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने उसकी फंङ्क्षडग बन्द कर दी है। अब गेट्स फाउण्डेशन डब्ल्यूएचओ का सबसे बड़ा डोनर (दानदाता) है।

मीडिया संस्थानों की कमज़ोरी से अच्छी तरह वािकफ गेट्स फाउण्डेशन का मीडिया मैनेजमेंट पर बहुत बल रहता है। वह मीडिया संस्थानों को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित करने के लिए निरंतर नये-नये तरीके ईज़ाद करता रहा है। अमेरिका के वॉक्स डॉट काम (1श3.ष्शद्व) की स्वास्थ्य संवाददाता जूलिया बेलुज़ ने कुछ वर्ष पहले इस सम्बन्ध में- ‘मीडिया गेट्स फाउण्डेशन से प्यार करता है, लेकिन विशेषज्ञों को इस पर संदेह है’ शीर्षक से एक रिपोर्ट लिखी थी। उन्होंने अपनी पड़ताल में पाया कि शोध-पत्रिकाओं में विशेषज्ञों द्वारा गेट्स फाउण्डेशन की गतिविधियों पर कुछ गम्भीर सवाल उठाये जाते रहे हैं; लेकिन मुख्यधारा की मीडिया में उनकी कोई चर्चा प्राय: नहीं होती। सिर्फ मीडिया ही नहीं, बहुत कम ही विषय-विशेषज्ञ भी इस फाउण्डेशन के खिलाफ बोलने की हिम्मत जुटा पाते हैं। जूलिया बेलुज़ जेनेवा में 19-24 मई, 2014 के दौरान आयोजित वल्र्ड हेल्थ असेंबली (विश्व स्वास्थ सभा) में बतौर पत्रकार शामिल हुई थीं। जब उन्होंने वहाँ आमंत्रित विश्व प्रसिद्ध स्वास्थ विशेषज्ञों तथा अन्य लोगों से फाउण्डेशन के बारे में पूछना चाहा, तो उनमें अधिकांश कन्नी काटने लगे। उन्होंने देखा कि अक्सर लोग इस सम्बन्ध में कोई भी बात ऑन रिकॉर्ड नहीं करना चाह रहे थे। क्योंकि या तो उन्हें मौज़ूदा समय में फाउण्डेशन से फंङ्क्षडग हो रही थी, या फिर वे अतीत में गेट्स के लिए काम कर चुके थे।

फाउण्डेशन पर अपने एक शोध में क्वीन मैरी कॉलेज, लंदन में ग्लोबल हेल्थ की प्रोफेसर सोफी हरमन ने भी पाया था कि इस विषय को नज़दीक से जानने वाला हर आदमी गेट्स फाउण्डेशन को चुनौती देने से डरता है। क्योंकि कोई भी नहीं चाहता कि फाउण्डेशन से मिलने वाली उनकी फंङ्क्षडग बन्द हो। भारत में भी यही हालत है। भारत में सैकड़ों स्वास्थ सम्बन्धी संस्थाएँ गेट्स फाउण्डेशन के अनुदान से चल रही हैं। आई टीवी नेटवर्क और संडे गाॢजयन के एडिटोरिल डायरेक्टर (सम्पादकीय निदेशक) माधव दास नलपत अपने एक लेख में बताते हैं कि भारत में स्वास्थ संवाददाताओं पर फाउण्डेशन की ओर से अपने पक्ष में की जाने वाली खबरों की लगातार बमबारी की जाती है।

आंध्र प्रदेश की मासूम गिनी पिग

बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन द्वारा प्रायोजित संस्था ‘प्रोग्राम फॉर एपरोप्रिएट टेक्नोलॉजी इन हेल्थ’ (पाथ) ने वर्ष 2009 में भारत में आदिवासी और दलित बच्चियों पर सर्वाइकल कैंसर (ग्रीवा कैंसर) के वैक्सीन का कथित तौर पर डेमोनस्ट्रेशन (प्रमाणीकरण/परीक्षण) किया था; जो अमूमन गिनी पिग (चूहों) पर किया जाता है। इस परीक्षण में कई बच्चियों की मौत हो गयी थी।  बाद में जाँच में पाया गया था कि प्रमाणीकरण नाम पर दरअसल नियमों को धता बताकर वैक्सीन का क्लीनिकल ट्रायल (रोग-विषयक परीक्षण) किया जा रहा था। इस मामले में राज्य सरकारों के स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी और भारत की स्वास्थ सम्बन्धी शीर्ष संस्था इंडियन कॉउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की जो भूमिका सामने आयी थी, वह अन्दर तक हिला देने वाली है। सर्वाइकल कैंसर सॢवक्स की लाइनिंग यानी गर्भाशय के निचले हिस्से को प्रभावित करता है। ह्यूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) नामक वायरस से होने वाली यह बीमारी यौन-सम्बन्ध तथा त्वचा के सम्पर्क से फैलती है। ‘पाथ’ को इस वैक्सीन के ट्रायल के लिए ऐसी बच्चियों की आवश्यकता थी, जिन्हें मासिक-धर्म आरम्भ नहीं हुआ हो। उसने इसके लिए सरकारी स्कूलों की छात्राओं व अनुदान प्राप्त सरकारी हॉस्टलों में रह रही 9 से 13 वर्ष की उम्र की बच्चियों को चुना। वैक्सीन के दुष्प्रभावों के बारे में न बच्चियों को बताया गया, न ही उनमें से कई के माता-पिता से सहमति ली गयी। बल्कि इससे सम्बन्धित नियमों का उल्लंघन करते हुए हॉस्टल के वार्डन (छात्रावास के प्रबन्धक) से परीक्षण के लिए निर्धारित फॉर्म पर सहमति ले ली गयी। इनमें कुछ बच्चियों के निरक्षर माता-पिता से कथित तौर पर सहमति ली गयी; उनसे अंग्रेजी में लिखे हुए कागज़ात पर फर्मों द्वारा अँगूठे का निशान ले लिये गये। ये लोग इन कागज़ात को न पढ़ सकते थे और न ही उन्हें बताया गया था कि इनमें क्या लिखा है? इनमें से अधिकांश बच्चियाँ आदिवासी परिवारों की थीं; जबकि कुछ दलित और पिछड़ा वर्ग की थीं। इनमें अधिकांश के परिजन मज़दूरी करके गुज़र-बसर करते थे।

यह परीक्षण तेलंगाना (तत्कालीन आंध्र प्रदेश) के खम्मम ज़िले और गुजरात के वडोदरा ज़िले में किया गया था। खम्मम में सात बच्चियों की परीक्षण के दौरान ही मौत हो गयी थी। इसके अलावा करीब 1200 बच्चियाँ मिर्गी का दौरा, पेट में विकट मर्मांतक पीड़ा, सिर दर्द और मूड ङ्क्षस्वग (बाइपोलर डिसऑर्डर) जैसे साइड इफेक्ट (खराब प्रभाव) का शिकार हुईं। महिला सशक्तिकरण के लिए काम कर रहे ‘सामा’ नामक एक स्वयंसेवी संगठन द्वारा इस मामले में संज्ञान लेने, निरंतर सरकार को पत्र लिखने और जगह-जगह जनसभाएँ करने के बाद इसकी जाँच शुरू हुई। आरम्भ में इसकी जाँच आंध्र प्रदेश के स्वास्थ विभाग ने की; जिसमें बच्चियों की मौत की ज़िम्मेदारी से पाथ को यह कहते हुए बरी कर दिया था कि इन बच्चियों की मौतें अलग-अलग ऐसे कारणों से हुई, जिसे वैक्सीन ट्रायल (टीका परीक्षण) से सीधे तौर पर नहीं जोड़ा जा सकता। जबकि सच्चाई यह थी कि वैक्सीन ट्रायल के दौरान मारी गयी बच्चियों का पोस्ट मार्टम तक नहीं करवाया गया था। बिना पोस्ट मार्टम के यह पता लगाना असम्भव था कि उनकी मौत वैक्सीन से हुई, अथवा नहीं? स्वयंसेवी संगठनों द्वारा निरंतर आवाज़ उठाने पर भारत के स्वास्थ मंत्रालय ने इसकी जाँच के लिए समिति का गठन किया, जिसने पाथ की लापरवाही तथा भारत के संरक्षित जनजातीय समुदायों की लड़कियों को इस परीक्षण में शामिल करने पर सवाल उठाये थे। इस समिति ने 2011 में जारी अपनी रिपोर्ट में पाया कि वैक्सीन ट्रायल के लिए प्रतिभागियों की सहमति लेने के दौरान उन्हें इसके बारे में अच्छी तरह जानकारी नहीं दी गयी थी। न ही ट्रायल करने वाली संस्था ने ऐसे ट्रायलों के लिए बने उचित मानकों का प्रयोग किया था। लेकिन इस समिति ने भी पाथ को मौतों की ज़िम्मेदारी से अलग रखने की हर सम्भव कोशिश की। वर्ष 2011 में इस मामले की जाँच के लिए भारत सरकार ने स्थायी संसदीय समिति (पीएससी) के माध्यम से करने का फैसला किया। 30 अगस्त, 2013 को भारतीय संसद में पेश की गयी समिति की रिपोर्ट में जो तथ्य सामने आये, उससे पाथ की आपराधिक संलिप्तता तो समाने आयी ही, साथ ही भारत की स्वास्थ सम्बन्धी सर्वोच्च शोध तथा कार्यान्वयन संस्था इंडियन कॉउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर), ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) और एथिक्स कमेटी (ईसी) की कार्य प्रणाली भी संदेह के घेरे में आ गयी।

संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में परीक्षण के दौरान मरने वाली लड़कियों का पोस्ट मार्टम करने में विफल रहने के लिए पाथ और आईसीएमआर को दोषी ठहराया। साथ ही समिति ने पाया कि महिलाओं के स्वास्थ्य की रक्षा करने के प्रयास के बजाय पाथ विदेशी दवा कम्पनियों का एक सचेत उपकरण था; जो भारत सरकार को अपने सार्वभौमिक वैक्सीन कार्यक्रम (यूनिवर्सल इम्युनाइज़ेशन प्रोग्राम) में एचपीवी वैक्सीन को शामिल करने के लिए राज़ी करने के लिए लॉबिंग कर रहा था। इसके तहत इस वैक्सीन को निर्धारित अंतराल पर लोगों को दिया जाता; जिसका भुगतान भारत सरकार करती। समिति ने कहा कि इस सम्बन्ध में देश में चिकित्सा अनुसंधान के लिए सर्वोच्च निकाय के रूप में कार्यरत इंडियन कॉउन्सिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) न केवल अपनी अनिवार्य भूमिका और ज़िम्मेदारी निभाने में पूरी तरह से विफल रही है, बल्कि इसने अति उत्साहित होकर पाथ की साज़िशों के मामले में सुचिन्तित फैसिलेटर (सुविधादाता) की भूमिका निभायी। यही नहीं, इसके लिए उसने अन्य सरकारी एजेंसियों के अधिकार क्षेत्रों का उल्लंघन तक किया; जिसके लिए यह कड़ी ङ्क्षनदा और कड़ी कार्रवाई की पात्र है। समिति ने पाया कि आईसीएमआर पाथ को लाभ पहुँचाने के लिए उत्सुक था कि उसने सरकार का अनुमोदन मिलने से पूर्व ही इस वैक्सीन को देश में प्रयोग करने के बारे में करार (एमओयू) पर हस्ताक्षर कर दिये थे। गौरतलब है कि पाथ को धन उपलब्ध करवाने वाले बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन से आईसीएमआर को भी अकूत धन अनुदान के रूप में प्राप्त होता है; जिसमें वैज्ञानिकों के सभा-सेमिनार और ग्लोबल यात्रा-आवास आदि का व्यय भी शामिल रहता है। गेट्स फाउण्डेशन की वेबसाइट्स पर इस आईसीएमआर को मिलने वाले इस दान का ब्यौरा देखा जा सकता है। इसी आईसीएमआर के पास कथित तौर पर कोविड-19 सम्बन्धी नीतियों की कमान है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वैश्विक स्वास्थ से सम्बन्धित नीतियों पर फाउण्डेशन का गहरा प्रभाव रहा है और उसने इस क्षेत्र में अनेक सकारात्मक भूमिकाएँ निभायी हैं। लेकिन समस्या तब पैदा होती है, जब इसके परोपकारी कार्य और व्यापार एक-दूसरे में घुलने-मिलने लगते हैं।

एक निजी संगठन के रूप में गेट्स फाउण्डेशन केवल अपने तीन मुख्य ट्रस्टियों- बिल, मेलिंडा और वॉरेन बफेट के प्रति जवाबदेह है। जनता या विभिन्न देशों के चुने हुए प्रतिनिधियों के प्रति इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। फाउण्डेशन वैक्सीन और दवा निर्माता कम्पनियों (बिग फार्मा) में बड़े पैमाने पर निवेश करता है तथा अनेक पड़तालों में पाया गया है कि इसने सम्बन्धित कम्पनियों को लाभ पहुँचाने वाली नीतियाँ बनायीं और उन्हें आक्रामक ढंग से गरीब और विकासशील देशों पर थोपा। अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि अनेकानेक शाखाओं वाला यह फाउण्डेशन आज इतना विशालकाय हो चुका है कि इसकी गतिविधियों को पड़ताल और निगरानी के दायरे में लाना असम्भव-सा हो गया है। कोविड-19 से सम्बन्धित डब्ल्यूएचओ की उपरोक्तप्रेस ब्रीङ्क्षफ्रग  में 10 अप्रैल, 2020 को स्विटज़रलैंड की एक न्यूज वेबसाइट ‘द न्यू ह्यूमनटेरियन’ के वरिष्ठ सम्पादक और सह-संस्थापक बेन पार्कर ने बिल गेट्स के बारे में एक सवाल पूछा था। डब्ल्यूएचओ के पदाधिकारियों ने उनके प्रश्न का उत्तर जिस तत्परता से दिया, वह तो देखने लायक था ही, साथ ही प्रश्नकर्ता के बारे में पड़ताल से यह भी संकेत मिलता है कि कितने-कितने छद्म रूपों से बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन के पक्ष में खबरों के प्रसारण को सुनिश्चित किया जा रहा है। बेन पार्कर ने पूछा था कि हम बिल और मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन, वैक्सीन और आईडी 2020 नामक एक डिजिटल पहचान परियोजना के आसपास बहुत-सी अफवाहों और कांस्पीरेसी थ्योरी (सम्मेलन सिद्धांत) देख रहे हैं। क्या आप इन नयी भ्रामक सूचनाओं पर नज़र रख रहे हैं तथा इन्हें हटाने के लिए कुछ कर रहे हैं?

इस प्रश्न के उत्तर में माइकल रयान ने कहा कि हम बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन के कृपापूर्वक समर्थन के लिए आभारी हैं। हम निश्चित रूप से उस प्लेटफार्म को देखेंगे, जिसका आपने उल्लेख किया है। हम लगातार भ्रामक सूचनाओं से निपटने के लिए कदम उठा रहे हैं तथा उन्हें हटाने के लिए डिजिटल क्षेत्र की कई कम्पनियों के साथ काम कर रहे हैं।

बेन पार्कर के सवाल पर डॉ. टेड्रोस ने भी अपनी बात विस्तार से रखी और गेट्स की प्रशंसा के पुल बाँध दिये। उन्होंने कहा कि मैं अनेक वर्षों से बिल और मिलिंडा को जानता हूँ। ये दोनों मनुष्य अद्भुत हैं। मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हूँ कि इस कोविड-19 महामारी के दौरान उनका समर्थन वास्तव में बड़ा है। हमें उनसे वह सभी सहायता मिल रही है, जिनकी हमें आवश्यकता है। हमारा साझा विश्वास है कि हम इस तूफान को मोड़ सकते हैं। गेट्स परिवार के योगदान से दुनिया परिचित है। उन्हें प्रशंसा और सम्मान मिलना ही चाहिए। प्रश्नकर्ता बेन पार्कर के बारे में गूगल पर सर्च करने पर पता चलता है कि उनका दुनिया भर में मानवीय संकटों से प्रभावित लाखों लोगों की सेवा में स्वतंत्र पत्रकारिता का संस्थान ‘द न्यू ह्यूमनटेरियन’ मुख्य रूप से बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन के पैसे से चलता है। वह उनका सबसे बड़ा दानदाता है। इसके एवज़ में प्रश्नकर्ता बेन पार्कर ट्वीटर से लेकर अपनी वेबसाइट तक पर बिल गेट्स के पक्ष में कथित फैक्ट चेङ्क्षकग (वास्तविक जाँच) में सक्रिय रहते हैं; ताकि गेट्स परिवार को बदनामी के गर्त से बाहर निकाला जा सके।

गेट्स के खिलाफ जाने वाले तथ्य और संकेत इतने ज़्यादा हैं कि इन्हें देखने वाले लोग स्वाभाविक रूप से किसी डीप स्टेट (राज-व्यवस्था को पर्दे के पीछे से संचालित करने वाली गुुप्त शक्तियाँ) की मौज़ूदगी की कल्पना करने लगते हैं। यही कारण है कि गेट्स पर लगने वाले आरोप न सत्ता की कार्यप्रणाली को नज़दीक से जानने वाले नीति-निर्माताओं को प्रभावित कर पाते हैं, न ही इस प्रणाली में विश्वास करने वाली प्रभावशाली बौद्धिक जमात का विश्वास हिला पाते हैं। बात सिर्फ बिल गेट्स की नहीं है। कथित ‘डीप स्टेट’ सम्बन्धी आरोप एकांगी इसलिए बने रहते हैं, क्योंकि इनमें इसके कर्ताधर्ताओं की विश्व दृष्टि और मनोविज्ञान का अध्ययन शामिल नहीं रहता है। इस डीप स्टेट की मौज़ूदगी अगर है, तो केवल तथ्यों के गणितीय अध्ययन से इसका धुँधला रूप ही सामने आयेगा। अपेक्षाकृत साफ छवियों को देखने के लिए समाज शास्त्र और मनोविज्ञान के उपकरणों और साहित्य की सहज-बोधगम्यता (सामान्य समझ) की आवश्यकता होगी।

सम्भवत: इन उपकरणों से गेट्स जैसे लोगों की छवि मानव जाति की बदहाली से दु:खी एक ऐसे सनकी मसीहा के रूप में दिखेगी, जो मनुष्यों की सबसे बड़ी समस्या उनकी विकराल संख्या को मानता है और सभी दु:खों का समाधान तकनीक के विकास में देखता है। बहरहाल इस लेख में हम यह देखने की कोशिश करें कि किस प्रकार भारत का लॉकडाउन सिर्फ दुनिया का सबसे सख्त लॉकडाउन ही नहीं था, बल्कि कुछ संस्थाओं को सुझाये गये निदान का अंधानुकरण मात्र था। अगर कोई महामारी थी, तब भी भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले गरीब देश के लिए लॉकडाउन जैसा कदम, महामारी की तुलना में बहुत अधिक घातक साबित होने वाला था; जो हुआ भी।

आवश्यकता से अधिक नकल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत 22 मार्च, 2020 को जनता-कफ्र्यू का आह्वान कर अपने इकबाल, विपक्ष की दिशाहीनता और जनता की मासूमियत का लिटमस टेस्ट (रासायनिक प्रयोग) किया था। जिसके शत-प्रतिशत सफल होने के बाद 25 मार्च से भारत में दुनिया का सबसे सख्त और लम्बा लॉकडाउन रहा। दरअसल यहाँ लॉकडाउन नहीं, बल्कि वास्तविक कफ्र्यू था; जिसका संकेत प्रधानमंत्री ने स्वयं अपनी 24 मार्च की उद्घोषणा में ‘कफ्र्यू जैसा’ कहकर दे दिया था।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर अपनी जनता के सामने स्वयं को एक विजनरी विश्व नेता के रूप प्रस्तुत करने की कोशिश करते दिखते हैं। लेकिन सच्चाई यह थी कि थाली-ताली बजाने से लेकर मोमबत्ती जलवाने तक का उनका हर कदम सिर्फ यूरोपीय देशों की नकल था। सिर्फ इन भावनात्मक मामलों में ही नहीं, बल्कि अन्य तकनीकी, वैज्ञानिक और रणनीतिक मामलों में भी भारत सरकार के पास कुछ भी मौलिक नहीं था। सरकार डब्ल्यूएचओ और बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन जैसे संगठनों द्वारा दिये जा रहे निर्देशों का कठपुतली की भाँति पालन कर रही थी। प्रधानमंत्री की कार्रवाइयों में जनता के प्रति जवाबदेही का कोई पुट नहीं था; बल्कि वह सिर्फ विश्व समुदाय द्वारा पीठ थपथापाये जाने के लिए आतुर थे। डब्ल्यूएचओ की मातृसंस्था यूनाइटेड नेसंस की बेबसाइट पर 24 मार्च को प्रकाशित डब्ल्यूएचओ के मार्गदर्शन के अनुसार, ‘पूरे भारत में लॉकडाउन’ शीर्षक से प्रकाशित खबर बताती है कि किस प्रकार भारत ने इस अतिवादी कदम की घोषणा करते हुए अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं को भूलकर सिर्फ डब्ल्यूएचओ के निर्देर्शों का पालन किया। इसी प्रकार 01 मई से देश को ग्रीन और रेड जोन में बाँटने की कवायद भी भारत के नौकरशाहों ने नहीं खोजी थी, बल्कि यह फ्रांस के तीन प्राध्यापकों द्वारा 6 अप्रैल को प्रकाशित गणितीय मॉडल पर आधारित थी; जिसका पालन करने की सलाह वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम की वेबसाइट पर दी गयी थी। इन प्राध्यापकों ने यह मॉडल वुहान के अनुभव को ध्यान में रखते हुए बनाया था। दरअसल इस मॉडल में ग्रीन जोन के बहाने गैर-संक्रमण वाले उन इलाकों को सबसे पहले खोलने की ज़रूरत बतायी गयी थी, जहाँ से लेबर-मार्केट (श्रमिक बाज़ार) को मज़दूर मुहैया हो सकें। प्रवासी मज़दूरों को औद्योगिक महानगरों से वापस अपने घर न लौटने देने की कोशिश भी इसी रणनीति का हिस्सा थी। भारत में इसी मॉडल के अंधानुकरण के आधार पर देश को विभिन्न रंगों के जोन में बाँटने की कोशिश की गयी, जो पूरी तरह असफल रही। लेकिन मोदी के इन कदमों को भारतीय मीडिया और कुछ विदेशी संस्थाओं से खूब प्रशंसा मिली। प्रशंसा करने वालों में डब्ल्यूएचओ के अतिरिक्त सिर्फ बिल गेट्स भी थे; जिन्होंने अप्रैल के दूसरे सप्ताह में पत्र लिखकर मोदी की तारीफ की। गेट्स ने न सिर्फ लॉकडाउन की तारीफ की, बल्कि कहा कि उन्हें खुशी हुई कि भारत सरकार कोविड-19 की प्रतिक्रिया में अपनी असाधारण डिजिटल क्षमताओं का पूरी तरह से उपयोग कर रही है और कोरोना वायरस ट्रैङ्क्षकग, सम्पर्क ट्रेङ्क्षसग और लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं से जोडऩे के लिए सरकार ने ‘आरोग्य सेतु’ डिजिटल एप लॉन्च किया है। हम आपके नेतृत्व और आपकी सरकार के सक्रिय कदमों की सराहना करते हैं।

अनेक रिपोट्र्स बताती हैं कि डब्ल्यूएचओ बिल गेट्स की ऐसी जेबी संस्था बन चुका है तथा गेट्स की दिलचस्पी स्वास्थ्य और वैक्सीन बाज़ार के अतिरिक्त लोगों की डिजिटल ट्रेङ्क्षसग में भी है। अपने पत्र में बिल गेट्स ने जिस कॉन्टैक्ट ट्रेङ्क्षसग एप को लागू करने के लिए मोदी की तारीफ की, उसकी अविश्वसनीयता और इसके माध्यम से लोगों की आज़ादी पर पहरे का संदेह अनेक देशों में व्यक्त किया जा रहा है। कई देशों ने नागरिकों के विरोध के कारण इसे लागू नहीं किया है। जबकि कई देशों ने इस एप को इस प्रकार बनाया है, ताकि आँकड़े केंद्रीकृत रूप से जमा न हों; बल्कि उन्हें इस प्रकार विकेंद्रित रूप से जमा किया जाए; ताकि उन पर सम्बन्धित व्यक्ति का अधिक-से-अधिक नियंत्रण रहे। भारत में इन आँकड़ों पर पूरी तरह केंद्रीय नियंत्रण रखा गया है। इसके बाद 14 मई को मोदी और बिल गेट्स ने वीडियो कॉन्फ्रेंङ्क्षसग के ज़रिये बातचीत की, जिसके बिना आवाज़ के फुटेज भारतीय टी.वी. चैनलों को उपलब्ध करवाये गये। इसलिए हमारे पास यह जानने का कोई साधन नहीं है कि उन दोनों के बीच वास्तव में क्या-क्या बातचीत हुई? राज्य सभा टी.वी. की वेबसाइट पर इस बातचीत का जो ब्यौरा प्रसारित हुआ है, उसमें बताया गया कि उन्होंने कोविड-19 पर वैश्विक प्रतिक्रिया, वैज्ञानिक नवाचार और वैश्विक समन्वय के महत्त्व पर चर्चा की; ताकि वे (भारत और गेट्स फाउण्डेशन) मिलकर इस महामारी का मुकाबला कर सकें।  मोदी ने बिल गेट्स को कहा कि गेट्स फाउण्डेशन कोविड-19 के बाद दुनिया की जीवन शैली, आॢथक संगठन, सामाजिक व्यवहार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के प्रसार के तरीकों में परिवर्तन के विश्लेषण का नेतृत्व करे। भारत अपने स्वयं के अनुभवों के आधार पर इस तरह के विश्लेषणात्मक अभ्यास में योगदान देकर खुश होगा। यह बातचीत दो देशों के बीच की नहीं, बल्कि 140 करोड़ जनसंख्या वाले प्रभुत्वसम्पन्न लोकतंत्र भारत और एक ऐसी संस्था के प्रमुख के बीच की थी, जिसकी गैर-ज़िम्मेदारी और सनक के खिलाफ पिछले एक दशक से अधिक समय से दुनिया भर में आवाज़ें उठ रही हैं। भारत के प्रधानमंत्री द्वारा उपरोक्त बातचीत में बिल गेट्स को कोविड-19 के बाद दुनिया की जीवनशैली, आॢथक संगठन, सामाजिक व्यवहार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के प्रसार के तरीकों में परिवर्तन के विश्लेषण का नेतृत्व  का प्रस्ताव देने के गम्भीर निहितार्थ हैं।

पिछले ही महीने इटली की संसद में सांसद सारा कुनियल ने बिल गेट्स को मानवता का अपराधी बताया है। सारा कुनियल ने आधुनिक राजनीतिक दर्शन के जनक माने जाने वाले ब्रिटिश दार्शनिक थॉमस हॉब्स (5 अप्रैल, 1588 ई. – 4 दिसंबर, 1679 ई.) को उद्धृत करते हुए कहा कि हम लोगों को निश्चित रूप से समझ में आ गया है कि हमें अकेले वायरस से नहीं मरना है। हमें आपके कानूनों की बदौलत गरीबी से पीडि़त, दुर्गति को प्राप्त होने और मरने दिया जाएगा, और (हॉब्स के सर्वश्रेष्ठ शासन के सिद्धांत की तरह) सारा दोष नागरिकों पर मढ़ दिया जाएगा कि उन्होंने स्वयं ही अपनी रक्षा के लिए स्वतंत्रता का हरण करवा लेना पसन्द किया था। कुनियल इटली की राजधानी रोम से सांसद हैं। उन्होंने अपने भाषण के अन्त में अध्यक्ष को सम्बोधित करते हुए कहा कि आप मेरी ओर से प्रधानमंत्री ग्यूसेप कोंट को सलाह दें कि अगली बार जब भी उन्हें परोपकारी बिल गेट्स का फोन आये, तो वह उस कॉल को मानवता के खिलाफ अपराध के लिए सीधे इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट में फॉरवर्ड करें (भेजें)। अगर वह ऐसा नहीं करते हैं, तो हमें बताएँ कि हमें उन्हें किस रूप में परिभाषित करना चाहिए? क्या हम उन्हें एक ऐसे दोस्त वकील के रूप में परिभाषित करें, जो अपराधी से सलाह लेता है? कुनियल ने अपने भाषण में गेट्स फाउण्डेशन द्वारा भारत में गेट्स द्वारा किये गये वैक्सीन परीक्षण का भी ज़िक्र किया। कुनियल के इस भाषण की सोशल मीडिया पर खूब चर्चा हुई है; जिसे दबाने के लिए गेट्स फाउण्डेशन और टेक-जायंट्स (गूगल, फेसबुक, ट्वीटर आदि) के पैसे से संचालित फैक्ट चेङ्क्षकग (तथ्य जाँच करने वाली) संस्थाएँ ज़ोर-शोर से सक्रिय हैं। मैंने एक अन्य लेख में इन संस्थाओं की कार्यप्रणाली के बारे में बताया है। गेट्स के बारे में अगर आप इंटरनेट पर कुछ सर्च करेंगे, तो इन सबके ऊपर दर्ज़नों फैक्ट चेङ्क्षकग संस्थाओं के लिंक आएँगे, जिनमें तथ्यों को चयनित रूप से प्रस्तुत करके गेट्स से सम्बन्धित हर नकारात्मक खबर का खण्डन प्रस्तुत किया गया होगा।

सूचना-तंत्र के डिजिटल होने का यह एक बड़ा खतरा है कि उसे केंद्रीकृत रूप से संचालित किया जा सकता है। यह सरकारी सेंसरशिप और परम्परागत मीडिया-मोनोपॉली की तुलना में कई गुना घातक है। ऐसी फैक्ट चेङ्क्षकग संस्थाएँ अनेक राजनीतिक संगठनों-व्यक्तियों व अन्य निहित स्वार्थों से प्रेरित संस्थाओं के पैसों से चलायी जा रही हैं। हालाँकि ऐसी भी संस्थाएँ हैं, जिनके उद्देश्य किञ्चित जन-पक्षधर हैं। लेकिन प्राय: तकनीकी और आॢथक रूप से उतने सम्पन्न नहीं है कि सर्च इंजनों की फीड में उनके रिजल्ट ऊपर आ सकें। उद्देश्य चाहे जो हो; लेकिन ये संस्थाएँ विचारों, तर्क-प्रणालियों, तथ्यों और भावनाओं के सहज संचरण में बाधक हैं और जानने तथा बोलने जैसे मूलभूत नागरिक अधिकारों के दमन में किसी राज-व्यवस्था द्वारा प्रायोजित सेंसरशिप की तरह ही; बल्कि उससे अधिक ही नुकसानदेह साबित हो रही हैं। कोरोना-काल के बाद की दुनिया में इनका प्रभाव और बढ़ेगा। लेकिन भारतीय मीडिया में इन चीज़ों की कोई चर्चा नहीं है; जबकि पिछले कुछ वर्षों से विभिन्न अफ्रीकी सरकारों के प्रतिरोध के कारण भारत का स्थान बिल मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन, अमेरिकी सरकार की संस्था ‘सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन’ (सीडीसी) आदि की पसन्दीदा प्रयोग स्थली के रूप में ऊपर चढ़ता गया है।

(लेखक असम विश्वविद्यालय के रवींद्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज में प्राध्यापक हैं और सबाल्टर्न अध्ययन तथा आधुनिकता के विकास में दिलचस्पी रखते हैं। डॉ. रंजन अनेक चर्चित पुस्तकें लिख चुके हैं और करीब दो दशक तक मीडिया संस्थानों में सेवाएँ दे चुके हैं।)

हिन्दुत्व : बहिर्मुखी व अंतर्मुखी अवधारणाएँ

हिन्दू-धर्म क्या है? एक धर्म, एक दर्शन, एक संस्कृति या बस जीवन का एक तरीका। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार, सिन्धु घाटी सभ्यता सहित 61 प्राचीन सभ्यताएँ, इतिहास में अलग-अलग समय और क्षेत्रों में अस्तित्व में आयीं और एक को छोडक़र वे उत्कर्ष पर पहुँचीं और क्षीण हो गयीं; जो अब इस चर्चा का विषय हैं।

हर सभ्यता के मूल में एक धारणा और सिद्धांत रहा है और जो केवल एक मत नहीं था, बल्कि उनके आध्यात्मिक कल्याण के अनुकूल होने के लिए एक सिद्धांत या विश्वास था। यह बाहरी अभिव्यक्तियों के साथ-साथ कृत्यों में भी प्रकट होता है। फिर भी इस तरह के सिद्धांत या विश्वास उन विशेष सभ्यताओं को लम्बे समय तक बनाये नहीं रख सकते हैं; इसलिए वे गुमनामी में खो जाते हैं।

जब हिन्दू-धर्म के मूल सिद्धांतों का निष्पक्ष विश्लेषण किया जाता है, तो किसी के लिए हिन्दू-धर्म को परिभाषित करना या पर्याप्त रूप से इसका वर्णन करना असम्भव नहीं, तो मुश्किल ज़रूर लगता है। दुनिया के अन्य धर्मों के विपरीत, हिन्दू-धर्म किसी एक पैगंबर (नबी) का दावा नहीं करता है। यह किसी एक भगवान की पूजा नहीं करता है। यह किसी एक हठधर्मिता की सदस्यता नहीं लेता है। यह किसी एक दार्शनिक अवधारणा में विश्वास नहीं करता है। यह धाॢमक संस्कार या प्रदर्शन के किसी एक समुदाय का पालन नहीं करता है। वास्तव में यह किसी भी धर्म या पन्थ की संकीर्ण पारम्परिक विशेषताओं को सन्तुष्ट करने के लिए प्रकट नहीं होता है। मोटे तौर पर इसे जीवन के तरीके के रूप में वॢणत किया जा सकता है और इससे अधिक कुछ नहीं।

दिलचस्प बात यह है कि हमारे संविधान के तहत एक हिन्दू को किसी ऐसे वर्ग-विशेषके रूप में परिभाषित किया जाता है, जो वीरशैव हो (हिन्दू लिंगायत सम्प्रदाय का एक उप सम्प्रदाय), लिंगायत हो या ब्रह्म प्रार्थना समाज या आर्य समाज या बौद्ध या जैन या सिख हो और जो मुस्लिम, ईसाई, पारसी या यहूदी न हो; एक हिन्दू है। भारत जैसे बहुलतावादी समाज में, जैसा कि पहले कहा गया है; ऐसे कई धाॢमक समूह हैं, जो विविध रूपों में पूजा करते हैं या धर्मों, अनुष्ठानों, संस्कारों आदि का प्रचलन करते हैं। यहाँ तक कि हिन्दुओं के बीच देश या विदेश में रहने वाले अलग-अलग सम्प्रदाय अलग-अलग धाॢमक आस्थाओं, विश्वासों और प्रथाओं का पालन करते हैं। भारतीय मानस-पटल पर युगों से लगातार प्रकृति में देवत्व की समस्या का विचार मंथन होता रहा है, जो कि जीवन के अन्त में आत्मा के सम्मुख आता है। जैसे व्यक्तिगत और सार्वभौमिक आत्मा के बीच अंतर्सम्बन्ध है। भारतीय दर्शन पर अपनी पुस्तक में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा- ‘यदि हम विभिन्न प्रकार के विचारों से सारगॢभत हो सकते हैं और भारतीय विचारों की सामान्य भावना का निरीक्षण कर सकते हैं, तो हम पाएँगे कि इसमें जीवन और प्रकृति की व्याख्या करने का एक तरीका है- अद्वैतवाद। हालाँकि यह प्रवृत्ति इतनी लचीली, जीवन्त व बहुमुखी है कि यह कई रूपों को लेती है और खुद को पारस्परिक रूप से शत्रुतापूर्ण शिक्षाओं में भी व्यक्त करती है।’

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन कहते हैं- ‘इतिहास की सभी क्षणभंगुर शताब्दियों में उन सभी विसंगतियों में, जिसके माध्यम से भारतीय उत्तीर्ण हुए हैं; एक निश्चित (चिह्नित) पहचान दिखायी देती है। इसने कुछ मनोवैज्ञानिक लक्षणों को सहेज रखा है; जो इसकी विशेष विरासत को दर्शाते हैं। भारतीय लोगों की विशेषता के निशान तब तक हैं, जब तक कि उन्हें एक अलग अस्तित्व प्राप्त नहीं हो जाता। भारतीय चिन्तन का इतिहास सशक्त रूप से इस तथ्य को सामने लाता है कि हिन्दू-धर्म का विकास हमेशा चेतना के आधार पर सत्य के लिए मन की अन्तहीन खोज से प्रेरित रहा है कि सत्य के कई पहलू हैं। सत्य एक है; लेकिन बुद्धिमान लोग इसका अलग-अलग वर्णन

करते हैं।’ डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के मतानुसार, हिन्दू सभ्यता को तथाकथित कहा जाता है; क्योंकि इसके मूल संस्थापकों या शुरुआती अनुयायियों ने उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त और पंजाब में सिन्धु नदी प्रणाली ने द्वारा सूखा क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया है। यह तथ्य ऋग्वेद, जो वेदों में सबसे प्राचीन है; में वॢणत है। हिन्दू धर्मग्रन्थ भारतीय इतिहास के इस काल को अपना नाम देते हैं। सिन्धु के भारतीय पक्ष के लोगों को फारसी और बाद में पश्चिमी आक्रमणकारियों द्वारा हिन्दू कहा जाता था। यह हिन्दू शब्द की उत्पत्ति है। हिन्दू-धर्म ने उन लोगों के रीति-रिवाज़ों और विचारों को लगातार आत्मसात किया है, जिनके यह अनुबन्ध आया है और इस प्रकार अपने वर्चस्व और अपने युवास्वरूप को बनाये रखने में सक्षम है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार,  हिन्दू शब्द का मूल रूप से एक क्षेत्रीय महत्त्व था; न कि एक मान्यता का महत्त्व। यह एक अच्छी तरह से परिभाषित भौगोलिक क्षेत्र में निवास निहित है। आदिवासी जनजातियाँ, बर्बर और आधे सभ्य लोगों, सुसंस्कृत द्रविड़ों और वैदिक आर्य सभी हिन्दू थे; क्योंकि वे एक ही माँ के बेटे थे। हिन्दू विचारकों ने इस तथ्य पर ज़ोर दिया कि भारत में रहने वाले पुरुषों और महिलाओं का सम्बन्ध विभिन्न समुदायों से था; जो विभिन्न देवताओं की पूजा करते थे और विभिन्न संस्कारों का अभ्यास करते थे।

हिन्दू-दर्शन के अद्वैत आदर्शवाद को चार अलग-अलग रूपों में व्यक्त किया गया है- 1) अद्वैतवाद, 2) शुद्ध अद्वैतवाद, 3) संशोधित अद्वैतवाद और 4) निहित अद्वैतवाद। यह उल्लेखनीय है कि एक ही वैदिक और उपनिषदीय-ग्रन्थों से समर्थन प्राप्त करने के लिए अद्वैत आदर्शवाद के ये विभिन्न रूप हैं। शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य और माधवाचार्य सभी ने अपनी दार्शनिक अवधारणाओं के आधार पर उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों और श्रीमद्भगवद् गीता के बीच संश्लेषण को माना है।

हालाँकि विभिन्न हिन्दू विचारकों और दार्शनिकों द्वारा दार्शनिक अवधारणाएँ और सिद्धांत कई मायनों में अलग-अलग थे और यहाँ तक कि कुछ (विशेष) में तो एक-दूसरे के साथ संघर्ष करने के लिए प्रकट हुए। वे सभी अतीत के प्रति श्रद्धा रखते थे और वेदों को हिन्दू-दर्शन की एकमात्र नींव के रूप में स्वीकार करते थे। स्वाभाविक रूप से पर्याप्त, यह हिन्दू-धर्म द्वारा अपने प्रयाण के प्रारम्भ से ही महसूस किया गया था कि सत्य कई-पक्षीय था और विभिन्न विचारों में सत्य के विभिन्न पहलू थे; जिन्हें कोई भी पूरी तरह से व्यक्तनहीं कर सकता था। इस ज्ञान ने अनिवार्य रूप से सहिष्णुता और प्रतिद्वंद्वी की बात को समझने और उसकी सराहना करने की इच्छा की भावना को जन्म दिया। इस तरह से महत्त्वपूर्ण दार्शनिक अवधारणाओं के सम्बन्ध में भारत में कई विचार सामने आये हैं; जिन्हें उसी पेड़ की शाखाएँ माना जाता है। जब हम हिन्दू दार्शनिक अवधारणाओं की इस व्यापक व्याख्या पर विचार करते हैं, तो यह महसूस होता है कि हिन्दू-दर्शन के तहत किसी भी धारणा या सिद्धांत को विधर्मी मानने और इसे खारिज करने की कोई गुंजाइश नहीं है। हिन्दू दार्शनिकों द्वारा व्यक्तकिये गये दार्शनिक विचारों, अवधारणाओं और विचारों की विविधता के नीचे, जिन्होंने कुछ दार्शनिक विद्यालयों की शुरुआत की; कुछ व्यापक अवधारणाएँ हैं, जिन्हें बुनियादी माना जा सकता है। इन बुनियादी अवधारणाओं में से पहला वेद की स्वीकृति है, जो धाॢमक और दार्शनिक मामलों में सर्वोच्च है। यह अवधारणा ज़रूरी है कि सभी प्रणालियों का दावा है कि उनके सिद्धांतों को वेद में निहित विचार के एक सामान्य भण्डार से खींचा गया है। हिन्दू शिक्षक इस प्रकार अपने विचारों को आसानी से समझने के लिए अतीत से प्राप्त विरासत का उपयोग करने के लिए बाध्य थे।

अन्य बुनियादी अवधारणाएँ, जो हिन्दू-दर्शन की छ: प्रणालियों के लिए आम हैं; वे सभी महान् विश्व आवर्तन के दृष्टिकोण को स्वीकार करती हैं। निर्माण, रखरखाव और विघटन की लम्बी अवधि, अन्तहीन उत्तराधिकार में एक-दूसरे का पालन करती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि हिन्दू-दर्शन की सभी प्रणालियाँ पुनर्जन्म और पूर्व-अस्तित्व में विश्वास करती हैं। ‘हमारा जीवन सडक़ पर एक कदम है, जिसकी दिशा और लक्ष्य अनन्त में खो गये हैं। इस सडक़ पर मृत्यु कभी भी एक अन्त या बाधा नहीं है; बल्कि नये कदमों की शुरुआत भी इसी में है।’ इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अन्य धर्मों और धाॢमक पन्थों के विपरीत हिन्दू-धर्म दार्शनिक अवधारणाओं के किसी निश्चित देव-समूह से बँधा नहीं है। हिन्दू-दर्शन का अंतिम उद्देश्य जन्मों और पुनर्जन्मों, यानी मोक्ष या निर्वाण के एकांत चक्र से मुक्तिहै; जिसका अर्थ है- अनन्त के साथ व्यक्तिगत आत्मा का पूर्ण अवशोषण और आत्मसात् होना। उसी को प्राप्त करने पर विचारों का बड़ा विचलन होता है। कुछ ज्ञान या ज्ञान के महत्त्व पर ज़ोर देते हैं; जबकि अन्य भक्ति या भक्ति के गुणों का विस्तार करते हैं; और अन्य  लोग सच्चे ज्ञान से प्रेरित भक्ति और मन से कर्तव्यों के प्रदर्शन के सर्वोपरि महत्त्व पर ज़ोर देते हैं। हिन्दू-धर्म के अधिकार क्षेत्र का निर्धारण करने में पारम्परिक परीक्षणों को लागू करना अनुचित होगा। इसे कुछ बुनियादी अवधारणाओं के आधार पर जीवन के तरीके के रूप में सुरक्षित रूप से वर्णित किया जा सकता है।

हिन्दू-धर्म और दर्शन के विकास से पता चलता है कि समय-समय पर सन्तों और धाॢमक समाज सुधारकों ने भ्रष्टाचार और अन्धविश्वास की प्रथाओं को दूर करने का प्रयास किया और इससे विभिन्न सम्प्रदायों का निर्माण हुआ। भगवान बुद्ध ने बौद्ध धर्म शुरू किया। भगवान महावीर ने जैन धर्म की स्थापना की। बासवन्ना (बासावन्ना) लिंगायत धर्म के संस्थापक बने, सन्त ज्ञानेश्वर और सन्त तुकाराम ने वरकारी (वारकरी) पन्थ की शुरुआत की; गुरु नानक देव ने सिख धर्म की नींव रखी; स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की और चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति पन्थ शुरू किया। जबकि अद्वैतवाद रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद की शिक्षाओं के माध्यम से प्रवाहित हुआ; जिसने हिन्दू-धर्म को अपने सबसे प्रगतिशील और गतिशील रूप में बदल दिया। यद्यपि इन सभी सन्तों और धाॢमक  समाज सुधारकों की शिक्षाएँ, अपने-अपने विचारों में ध्यान देने योग्य विचलन हैं; अभी तक सभी के नीचे एक सूक्ष्म अवर्णनीय एकता निहित है, जो उन्हें व्यापक और प्रगतिशील हिन्दू-धर्म के दायरे में रखती है।

क्या हिन्दू अपने मंदिरों में एक ही समूह या देवताओं की पूजा करते हैं? हिन्दुओं के कुछ निश्चित वर्ग हैं, जो मूर्तियों की पूजा में विश्वास नहीं करते हैं। जबकि अन्य जो मूर्तियों की पूजा करते हैं, वे उन मूर्तियों के रूप में भिन्न होते हैं, जिनकी वे पूजा करते हैं। हिन्दू देवालय में वैदिककाल में पूजा करने वाले पहले देवता मुख्य रूप से इंद्र, वरुण, वायु और अग्नि थे। बाद में त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) पूजे जाने लगे। निश्चित रूप से भगवान राम और भगवान कृष्ण ने हिन्दू पन्थों में सम्मानजनक स्थान हासिल किया और धीरे-धीरे हिन्दू समुदाय के विभिन्न वर्गों में बड़ी संख्या में देवताओं को जोड़ा गया। आज हिन्दू देवसमूह बहुत बड़ी संख्या में देवताओं को प्रस्तुत करते हैं, जिन्हें हिन्दुओं के विभिन्न वर्ग पूजते हैं। हिन्दू-धर्म सनातन है और आदिकाल से है। हमारे धर्म को सनातन कहा जाता है; अर्थात् जिसका शाश्वत् मूल्य है- एक, जो न तो समयबद्ध है और न ही अंतरिक्षबद्ध है। इसका कारण यह है कि ऋग्वेद ने अस्तित्व को सनातन धर्म कहा गया है। इसलिए धर्म की अवधारणा हमारे लिए समय से रही है। धर्म शब्द के मूल में ‘ध’ प्रयुक्त होने से यह धारण, आश्रय, निरंतर पोषण की विशेषताएँ दर्शाता है।

महाभारत के कर्ण-पर्व में अध्याय-69 में श्लोक-58 कहता है- ‘धर्म समाज की स्थिरता, सामाजिक व्यवस्था के रख-रखाव और मानव मात्र की सामान्य भलाई और प्रगति के लिए है। इन वस्तुओं की पूर्ति के लिए जो भी कुछ करना चाहता है, वह है धर्म; वह निश्चित है।’ वृहदारण्यक उपनिषद् ने धर्म को सत्य के साथ पहचाना और अपनी सर्वोच्च स्थिति घोषित की- ‘धर्म से बढक़र कुछ भी नहीं है। एक बहुत कमज़ोर आदमी भी धर्म के बल पर एक बहुत मज़बूत आदमी पर विजय पाने की उम्मीद करता है। जैसे कर्ता (राजा) की सहायता से गलत पर हावी होता है। इसलिए जिसे धर्म कहते हैं, वह वास्तव में सत्य है।’

इस पुस्तक ‘गीता रहस्य’ में बाल गंगाधर तिलक ने इस प्रकार कहा है- ‘वेदों को श्रद्धा के साथ स्वीकार करना; इस तथ्य की मान्यता की मुक्तिके साधन या तरीके विविध हैं; और इस सत्य की प्राप्ति कि देवताओं की पूजा करने की संख्या बड़ी है, वास्तव में हिन्दू-धर्म की विशिष्ट विशेषता है।’ यह परिभाषा पर्याप्त रूप से हिन्दू-धर्म की व्यापक विशिष्टताओं को सामने लाती है। हिन्दू-धर्म यह मानता है कि सत्य और मोक्ष के लिए एक से अधिक वैध दृष्टिकोण हैं और यह कि ये अलग-अलग दृष्टिकोण न केवल एक-दूसरे के अनुकूल हैं, बल्कि पूरक भी हैं। इस मुख्य मूल्य ने इसे अपने अमर अस्तित्व के सभी चरणों के माध्यम से बनाये रखा है।

(अगले अंक में- सिन्धु घाटी सभ्यता, एक चित्ताकर्षक अध्ययन)

फेसबुकिया प्यार का आपराधिक अन्त

21 जनवरी की दोपहर 2:00 बजे का वक्त था। सिटी पुलिस स्टेशन जयपुर उत्तर में अतिरिक्त पुलिस आयुक्त प्रथम अशोक गुप्ता के कमरे में एक महत्त्वपूर्ण बैठक चल रही थी। मीटिंग में गुप्ता के अलावा उत्तर पुलिस उपायुक्त राजीव पचार, अतिरिक्त पुलिस उपायुक्त सुमित गुप्ता, सहायक पुलिस आयुक्त विजेन्द्र सिंह भाटी ओर आमेर थानाधिकारी राजेन्द्र सिंह चारण आजू-बाज़ू बैठे हुए थे। पिछले कुछ दिनों से जयपुर में पारिवारिक हत्याओं का ग्राफ बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा था। सिर्फ एक महीने में तीन हत्याएँ न केवल चौंकाने वाली थीं, बल्कि लोगों में खौफ पैदा करने वाली भी थीं। एक दिन पहले ही 20 जनवरी की सुबह आमेर के दिल्ली रोड स्थित नयी माता मंदिर के पास एक खूबसूरत युवती की चेहरा कुचली लाश मिली थी। किसी ने बड़ी निर्दयता से उसकी हत्या कर दी थी। शव के पास ही हेलमेट और स्कूटी पड़ी हुई मिली थी। पुलिस ने बहुत कोशिश की कि खून किसने और क्यों किया? लेकिन इसका कोई सूत्र नहीं मिल रहा था। अब तक की जाँच के  आधार पर आगे क्या करना चाहिए? इसी पर विचार विमर्श के लिए मीटिंग बुलायी गयी।

थानाधिकारी राजेन्द्र चारण ने वाकया फिर दोहराया- ‘सोमवार सुबह 9.00 बजे जब मैं अपने दफ्तर में काम कर रहा था; मुझे एक फोन कॉल से इत्तला मिली कि दिल्ली हाईवे पर दाऊजी की छतरी के पास माता मंदिर की झाडिय़ों में एक औरत की खून से लथपथ लाश पड़ी हुई है। उसके पास ही एक स्कूटी खड़ी है। घास में एक हेलमेट भी पड़ा है। फोन करने वाले ने अपना नाम बाबूलाल बताया कि घटना स्थल के पास ही मेरा चाय की दुकान है। उसका कहना था कि सुबह जब वह अपनी दुकान पर पहुँचा, तो यह खौफनाक नज़ारा देखकर वह काँप गया। सूचना मिलते ही मैं दल-बल के साथ सीधा घटनास्थल पर पहुँचा। माता मंदिर के दक्षिण की तरफ घनी झाडिय़ों के बीच एक युवती का क्षत्-विक्षत् शव पड़ा था। उसका चेहरा बुरी तरह कुचला हुआ था। युवती 25 बरस के लगभग थी और दिखने में बहुत खूबसूरत तथा चेहरे तथा वेशभूषा से पढ़ी-लिखी लगती थी। उसके पास में एक स्कूटी खड़ी हुई थी और निकट ही हेलमेट पड़ा हुआ था।’

थाना प्रभारी राजेन्द्र सिंह चारण ने बताया कि पहचान के लिए कोई सूत्र तलाशने के लिए पंजों के बल बैठकर मैंने युवती के चेहरे को गौर से देखा। चेहरा इस कदर कुचला गया था कि वह मांस का वीभत्स लोथड़ा बन गया था। थाना प्रभारी चारण के निर्देशों पर कांस्टेबल सुरेन्द्र ने युवती की जामा-तलाशी ली। लेकिन रुपयों से भरे पर्स के अलावा ऐसी कोई चीज़ नहीं मिली जिससे कि शव की सिनाख्त हो सके। चारण ने इसके बाद अफसरों को इसकी इत्तला दे दी।

ब्लाइंड मर्डर का मामला था। लिहाज़ा पुलिस के लिए एक नयी चुनौती थी। अतिरिक्त पुलिस आयुक्त अशोक गुप्ता, पुलिस उपायुक्त जयपुर उत्तर राजीव पचार, अतिरिक्त पुलिस उपायुक्त सुमित गुप्ता और सहायक पुलिस आयुक्त आमेर विजेन्द्र सिंह भाटी तुरत-फुरत घटनास्थल पर जा पहुँचे। जयपुर के ऐतिहासिक उप-नगर आमेर क्षेत्र में दाऊजी की छतरी के पास का यह इलाका घने जंगल, मंदिर और रमणीयता के लिए जाना जाता है। शहर के कोलाहल से उकताये हुए अनेक लोग वहाँ घूमने जाते हैं। प्रेमियों के लिए तो वह मिलन का चॢचत ठिकाना था।

पुलिस अधिकारियों ने ध्यान से मृतक का चेहरा देखा। अतिरिक्त पुलिस उपायुक्त सुमित गुप्ता भी लाश का मुआयना कर रहे थे। थानाधिकारी चारण ने बताया- ‘सर इसके पास से ऐसा कुछ नहीं मिला कि शव की सिनाख्त हो सके। जिस निर्ममता से चेहरा कुचला गया है। लगता है कोई गहरी रंजिश ही रही होगी?’

घटनास्थल पर अब तक काफी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। सभी ने उसका चेहरा देखा; लेकिन कोई पहचान नहीं सका। ‘मामला अन्तरंग सम्बन्धों का लगता है। लाश पर गहरी नज़र डालते हुए उपायुक्त राजीव पचार ने कहा- ‘लडक़ी विश्वास की डोर में बँधी थी। जिस लडक़े के साथ यहाँ वीराने में पहुँची, लगता है उसी ने इसकी हत्या कर दी।’

अतिरिक्त पुलिस उपायुक्त सुमित गुप्ता ने युवती के गले की तरफ गौर से देखते हुए कहा- ‘लगता है हत्या गला दबाकर की गयी है।’ उन्होंने अन्य अधिकारियों का ध्यान आकर्षित करते हुए कहा- ‘गले पर उँगलियों के निशान साफ नज़र आ रहे हैं। पहले गला दबाकर हत्या की गयी। फिर पहचान छुपाने के लिए बाद में चेहरा कुचला गया है।’ एक पल शव को गौर से देखते हुए उन्होंने उसकी कलाइयों की तरफ इशारा करते हुए कहा- ‘लगता है युवती ने अपने बचाव की पूरी कोशिश की होगी। संघर्ष में खरोंचें तो साफ-साफ नज़र आ रही हैं।’

वारदात में इस्तेमाल किया गया कोई वजनी पत्थर आसपास ही मिल जाना चाहिए। सुमित गुप्ता ने थानाधिकारी चारण पर गहरी नज़र डालते हुए कहा- ‘स्कूटी लडक़ी की हो सकती है। न भी हो, तो इसकी नम्बर प्लेट सिनाख्त का ज़रिया बन सकती है।’ एकाएक कांस्टेबल सुरेंद्र की नज़र किसी चमकती हुई चीज़ पर पड़ी। उसने फौरन टटोला, उसके हाथ में चाबियों का गुच्छा आ गया। सुरेंद्र ने चाबियों का गुच्छा अतिरिक्त पुलिस अतिरिक्त पुलिस आयुक्त अशोक गुप्ता की तरफ बढ़ाया, तो वह चौंक पड़े। ‘की हैंगर’ पर मंगलम अपार्टमेंट, कलवाड़ रोड दर्ज था। अशोक गुप्ता के चेहरे पर हल्की मुस्कान तैर गयी। उन्होंने पुलिस उपायुक्त राजीव पचार को चाबियों का गुच्छा थमाते हुए कहा- ‘यह है इस हत्याकांड की चाबी। मुझे लगता है, यह मर्डर मिस्ट्री खोलने की चाबी साबित होगी?’ अतिरिक्त पुलिस आयुक्त अशोक गुप्ता ने पुलिस उपायुक्त राजीव पचार, अतिरिक्त उपायुक्त सुमित गुप्ता, सहायक पुलिस आयुक्त (आमेर), विजेन्द्र सिंह भाटी और आमेर थाना प्रभारी राजेन्द्र सिंह चारण के नेतृत्व में विवेचना का दायित्व सौंपा। पड़ताल में सहयोग के लिए डीएसपी जयपुर उत्तर की टीम को भी शामिल किया गया। पुलिस ने पंचनामा बनाकर शव पोस्टमार्टम के लिए एसएमएस अस्पताल के मोर्चरी में भिजवा दिया। डॉग स्कवायड सीएफएसएल की टीमें ने सूचना मिलते ही वहाँ पहुँच गयीं। अपने अपने ढंग से अपराध की जड़ें टटोलने वाली उपरोक्त टीमें अपना काम करके लौट गयीं।

युवती की सिनाख्त के लिए शव के पास पायी गयी स्कूटी की नम्बर प्लेट को ज़रिया बनाना पुलिस के लिए काफी कारआमद साबित हुआ। नतीजतन मृतक की पहचान रेशमा मंगलानी के रूप में हो गयी। परिवहन विभाग से मिले ब्यौरे के अनुसार, रेशमा जयपुर के ब्रह्मपुरी स्थित जयसिंह पुरा खोर इलाके की झूले लाल कॉलोनी में रहने वाले सुनील मंगलानी की पुत्री थी। रेशमा की माँ का नाम रेखा मंगलानी था। पुलिस का मंगलानी परिवार तक पहुँची। जैसे ही मंगलानी परिवार को घटना का पता चला, तो घर में कोहराम मच गया। रेशमा की माँ ने बिलखते हुए कहा- ‘जैसी ज़िन्दगी रेशमा जी रही थी, उसके दोस्तों और दुश्मनों की कमी नहीं थी।’ एक पल रुकने के बाद उसने हिचकते हुए कहा- ‘पिछले काफी दिनों से उसके वैवाहिक रिश्तों में भी तनाव था। अब क्या कहूँ? कहीं ऐसा तो नहीं कि अयाज़ ने ही उसकी हत्या कर दी हो?’ अयाज़ कौन? थाना प्रभारी चारण के सवाल पर रेखा फट पड़ी- ‘पति है उसका। पिछले काफी दिनों से अलगाव चल रहा था दोनों में? यह अयाज़ का ही काम हो सकता है।’ पुलिस के लिए रेशमा के मोबाइल कॉल डिटेल खंगालना ज़रूरी था, ताकि पता चल सके कि आिखरी वक्त में उसका सम्पर्क किससे था? अतिरिक्त पुलिस उपायुक्त सुमित गुप्ता ने रेखा मंगलानी से रेशमा का फोन नम्बर लेकर कम्पनी से कॉल डिटेल की सीडीआर हासिल कर ली। कॉल डिटेल में रेशमा रविवार को पूरे दिन अयाज़ के सम्पर्क में थी। सुमित गुप्ता का माथा ठनके बिना नहीं रहा। उन्होंने राजीव पचार से मंत्रणा करते हुए कहा- ‘हमारा टार्गेट यही होना चाहिए। मंगलानी दम्पति की तहरीर पर पुलिस ने मामला भारतीय दण्ड संहिता की धारा-302, 201 के तहत प्रकरण संख्या 36/2020 के तहत दर्ज कर लिया। पुलिस ने अयाज़ की तलाश में घर पर दबिश दी। लेकिन अयाज़ घर पर नहीं मिला। आिखर उसके मोबाइल को सर्विलांस पर लगाने के बाद उसकी लोकेशन गलता गेट पायी गयी। पुलिस ने घेरेबन्दी करते हुए अयाज़ को गलता गेट स्थित सराय मोहल्ला में उसके चाचा के घर से गिरफ्तार कर लिया।

जयपुर के जयसिंह पुरा खोर स्थित झूले लाल कॉलोनी में वीआईपी स्कूल के निकट ही रहते हैं सुनील मंगलानी। मध्यम वर्गीय कारोबारी है- सुनील मंगलानी। उनकी पत्नी रेखा मंगलानी गृहिणी है। रेशमा उनकी इकलौती लडक़ी थी। इकलौती संतान होने के कारण ज़रूरत से ज़्यादा लाड-प्यार ने उसे काफी स्वच्छंद बना दिया था। लडक़ों से दोस्ती करना या उनके साथ घूमना-फिरना उसके मौज़-शौक में शामिल था। माँ ने कभी टोका भी कि बेटी तुम लडक़ी हो। मौज़-शौक तो ठीक है सब कुछ मर्यादा में ही रहकर हो तो अच्छा है। लेकिन रेशमा ने यह कहते हुए माँ की सीख को हवा में उड़ा दिया, माँ जमाना बहुत आगे बढ़ चुका है। जो वक्त के साथ तालमेल नहीं रख सकते, उन्हें आगे चलकर गुज़रा वक्त बहुत याद आता है। मैं जवान हूँ, पढ़ी-लिखी हूँ। मैं नहीं चाहती कि नसीहतों की बेडिय़ों में ज़िन्दगी काट दूँ और आगे चलकर मुझे गुज़रे वक्त को लेकर टसुए बहाने पड़े कि मैं बहुत कुछ बन सकती थी; लेकिन नहीं बन पायी? रेखा मंगलानी समझ गयी कि बेटी नसीहतें समझने की उम्र लाँघ चुकी है। अब उसे कुछ कहना अपना मान-गँवाना है। लेकिन बेटी कों दो टूक कहने से भी नहीं चूकी- ‘मैंने माँ नहीं, सखी बनकर सीख दी; मानना या नहीं मानना, तुम्हारी मर्ज़ी।

माँ की रोक-टोक पर रेशमा ने सीख तो सुन ली। किन्तु बन्धन में रहने की नहीं, बन्धन तोडऩे की। उसको लगा, सम्भवत: उसका बढ़ता जेब खर्च माँ को अखर रहा है। आॢथक रूप से आत्मनिर्भर हो जाएगी, तो उसे रोक-टोक अपने आप खत्म हो जाएगी। रेशमा खूबसूरत थी। अच्छी-खासी पढ़ी लिखी और आधुनिक आचार-व्यवहार वाली लडक़ी थी। नौकरी के लिए उसे कोई खास मशक्कत नहीं करनी पड़ी। उसे जल्दी ही एक फाइनेंस कम्पनी में नौकरी मिल गयी। यह वर्ष 2017 की बात है। घाटगेट स्थित सरायवालों मोहल्ला का रहने वाला अयाज़ अहमद भी उसी फाइनेंस कम्पनी में काम करता था। रेशमा मंगलानी और अयाज़ की मुलाकात फिल्मी अंदाज़ में ही हुई। एक सुबह कुछ अजीब ही इत्तिफाफ हुआ। अयाज़ जैसे ही ऑफिस बिल्डिंग में घुसने को हुआ, तो उसे अजीब नज़ारा दिखायी दिया। पास ही खड़ी मोटर साइकिल की टेक लगाकर दो-तीन शोहदे िकस्म के लडक़े रेशमा को घेरकर छींटाकसी कर रहे थे। अयाज़ को यह बर्दाश्त नहीं हुआ।

अयाज़ मज़बूत कद-काठी वाला लडक़ा था। उसने फब्तियाँ कसने वाले लडक़ों को ललकारा और फिर उनकी अच्छी-खासी धुनाई करके खदेड़ दिया। हाथापाई के दौरान अयाज़ को भी कुछ चोटें आयीं। रेशमा ने उस दिन ऑफिस जाना छोड़ा और अयाज़ के लाख इन्कार के बावजूद उसके क्लीनिक ले जाकर मरहम-पट्टी करवायी। यहीं से दोनों की मुहब्बत का सिलसिला शुरू हो गया। एक ही ऑफिस था और दोनों की वॄकग डेस्क भी आजू-बाज़ू थी। काम का वक्त भी एक ही था। शुरू में अनुराग आँखों से छलकता रहा। दोनों तरफ आग बराबर लगी हुई थी। दिन भर का साथ हो, तो प्यार की ज्वाला धधकने में कहाँ देर थी? आिखर अयाज़ ने ही कदम बढ़ाये- ‘अब तुम्हारे बिना जीना मुश्किल है?’ रेशमा का भी गुबार फूट पडा- ‘मेरा भी यही हाल है। लेकिन तुम मुसलमान, मैं सिंधी? क्या परिवार, मज़हब और समाज हमें मिलने देंगे?’ दोनों के प्यार के चर्चे ऑफिस, घर और समाज में आम हुए तो अयाज़ को अगर परिवार वालों ने घेरा। रेशमा वहीं पिता और माँ रेखा भी बेटी पर बरस पड़ी- ‘क्या कोई और नहीं मिला था? हमारे समाज में लडक़ों की कौन-सी कमी थी?’

रेशमा ने बिफरते हुए कहा- ‘मैने कब कहा माँ! कि हमारे समाज में लडक़ों का अकाल पड़ गया है? लेकिन जैसा लडक़ा मुझे चाहिए, अगर समाज में न हो, तो मैं क्या करूँ? जिस समाज को मेरी भावनाओं की कद्र नहीं; मुझे भी उसकी परवाह नहीं? और हाँ; माँ! तुम कान खोलकर सुन लो। मैं उसी से शादी करूँगी, जिसे मैं चाहूँगी। …मैं समाज छोड़ सकती हूँ, तो घर भी छोड़ सकती हूँ।’

बेटी की धमकी में बागी तेवर साफ नज़र आ रहे थे। ज़माना देख चुकी माँ ने बेटी की आँखें पढ़ ली थीं। उन्होंने झूले लाल के मंदिर में जाकर माथा टेकने में देर नहीं की- ‘दाता! जैसी तेरी मर्ज़ी।’ घाटगेट स्थित सराय मोहल्ला में रहने वाला अयाज़ मोहम्मद भी अपने पिता रियाज़ मोहम्मद का इकलोता बेटा था। सिंधी समुदाय की लडक़ी को शरीक-ए-हयात बनाने का बेटे का फैसला उन्हें भी कुबूल नहीं हुआ। उन्होंने समाज और मज़हब की दुहाई देते हुए बेटे को समझाया। अयाज़ भी पिता रियाज़ अहमद की नसीहतों पर हत्थे से उखड़ गया। उसने भी वही किया, जो रेशमा ने किया- ‘अब्बू! निकाह मेरी ज़िन्दगी का अहम फैसला है। इसे मुझे ही तय करने दीजिए।’ रियाज़ अहमद ने बेटे की आँखों में मनमानी का उमड़ता सैलाब देख लिया था। उन्होंने खुदा की बन्दगी में हाथ उठा दिये। बोले- ‘लेकिन बेटा! एक बात याद रखना अगर यह निकाह हमें कुबूल नहीं, तो नहीं। फिर भी इस घर में तुम्हारी वापसी तो कुबूल है। लेकिन रेशमा की नहीं! यह मेरा आिखरी फैसला है।

यह 24 जुलाई, 2017 की बात है। फैसला हो चुका था। मुहब्बत की दीवानगी भारी पड़ी और दोनों गाज़ियाबाद भाग छूटे। वहाँ जाकर उन्होंने आर्य समाज में शादी रचा ली। रियाज़ अहमद ने तो बेटे की जुदाई को ज़िन्दगी का हिस्सा बना लिया, लेकिन मंगलानी दम्पति दिल को पत्थर नहीं बना सके। इकलौती बेटी का बिछोह ज़्यादा दिन बर्दाश्त नहीं हुआ। उन्होंने बेटी और दामाद दोनों को अपना लिया। गाज़ियाबाद से लौटने के बाद रेशमा के परिजनों की इजाज़त लेकर अयाज़ ने निकाह भी पढ़वा लिया। लेकिन इस निकाह में अयाज़ का परिवार शामिल नहीं हुआ। अलबत्ता अब अयाज़ रेशमा के घर में ही रहने लगा था। इस बीच रेशमा ने कालवाड़ रोड पर स्थित मंगलम सिटी में एक फ्लेट भी खरीद लिया। पिछली अक्टूबर, 2019 में ही रेशमा ने एक बच्चे को जन्म दिया। शादी के बाद कम्पनी ने अयाज़ को डिलेवरी ब्वॉय का काम सौंप दिया था। नतीजतन उसे ज़्यादातर फील्ड में ही रहना पड़ता था। पुलिस ने अयाज़ को अदालत में पेश कर रिमांड पर ले लिया। गिरफ्त में होने के बावजूद जिस तरह अयाज़ बेफिक्र नज़र आ रहा था, पूछताछ में पुलिस अधिकारियों को यह बात संशय में डालने वाली थी। उसकी तोतारटंत जारी थी- ‘भला मैं रेशमा की हत्या क्यों करूँगा? जिस लडक़ी के लिए मैंने अपने परिवार को छोड़ा, मज़हब की परवाह नहीं की? रेशमा से मेरा झगड़ा हो गया था। इसलिए काफी दिनों से हम अलग ही रह रहे थे। पिछले दो दिनों से तो मैं जयपुर में ही नहीं था। अतिरिक्त पुलिस उपायुक्त राजीव पचार की समझ में बात नहीं आ रही थी। अयाज़ दु:ख भी जता रहा था और रो भी रहा था। लेकिन उसकी आँखों में आँसू नहीं थे। कहीं अयाज़ रोने का नाटक तो नहीं कर रहा?

इस पूछताछ में पुलिस आयुक्त उत्तर राजीव पचार को आभास होने लगा था कि अब वह मामले की तह तक पहुँच रहे हैं। उन्होंने अपने शब्दों में तनिक नरमी लाते हुए कहा- ‘ठीक है; लेकिन यह तो मानते हो कि जो हुआ बहुत ही बुरा हुआ। अब अगर मुजरिम कोई और है, तो पुलिस ज़रूर ढूँढ निकालेगी। लेकिन इसके लिए हमें तुम्हारी मदद चाहिए। अब जब तुम कहते हो कि रेशमा के साथ तुम्हारा काफी दिनों से अलगाव चल रहा था। तुम्हें सिर्फ यह बताना है कि कल दोपहर से रात 11 बजे के बीच तुम कहाँ-कहाँ पर थे?’ पचार ने उसका कन्धा थपथपाते हुए कहा- ‘बस, यह बताओ और तुम्हारी छुट्टी।’

‘लेकिन सर, मेरा इस मामले में कोई हाथ नहीं है।’ -अयाज़ ने पुरज़ोर शब्दों में कहा।

अब राजीव पचार को गुस्सा आ गया। उन्होंने भडक़ते हुए कहा- ‘मैं तुमसे भलमनसाहत से पूछ रहा हूँ और तुम झूठ-पर-झूठ बोलते जा रहे हो? अपना दायाँ पाँव कुर्सी की पुश्त पर रखो, और जल्दी करो।’ अयाज़ ने डरते-डरते अपना दायाँ पाँव कुर्सी पर रखा, तो उसके पाँव की तरफ इशारा करते हुए राजीव पचार ने पूछा- ‘बता तेरे इस पाँव पर यह किस चीज़ के दाग है?’ उन्होंने गुस्से से लाल होते हुए कहा- ‘ये दाग हैं? ये दाग सूखे हुए खून के हैं…और उस वक्त के हैं, जब तूने रेशमा का चेहरा पत्थर से कुचलने की कोशिश की थी और खून के छींटे तेरे पाँवों पर भी गिरे थे। बोल तू क्या कहता है?’ दरअसल जब अयाज़ रोने का नाटक कर रहा था, तभी राजीव पचार की नज़रें उसके पाँवों की तरफ चली गयी थीं। उसके दायें पैर पर कुछ दाग थे, जो सिर्फ सूखे खून के ही हो सकते थे। पचार इसी बात से अयाज़ को सच उगलने के लिए मजबूर कर सकते थे। अयाज़ का चेहरा फक पड़ गया। राजीव पचार ने भाँप लिया। पंछी जाल में फँस चुका है। उन्होंने उसके आगे चाबियों का गुच्छा लहराते हुए कहा- ‘जानते हो यह चाबियाँ कहाँ की हैं?’ पीले पड़ते चेहरे को हाथों में थामते हुए अयाज़ नीचे झुकता चला जा रहा था, राजीव पचार का हर शब्द उसे जेहन के हथौड़े की तरह पड़ रहा था- ‘अयाज़ यह चाबियाँ कलवाड़ रोड स्थित मंगलम सिटी में तुम्हारे फ्लेट की हैं। तुमने तयशुदा योजना के तहत रेशमा को फोन कर घर से रामगढ़ मोड़ पर बुला लिया। कल रविवार को दिन भर घूमते रहे। गिले-शिकवे मिटाने का नाटक करते रहे। शाम को उसे फ्लेट पर ले गये। उसे स्ट्रांग बीयर पिलायी और घुमाने का वादा कर उसे आमेर की तरफ ले गये, जहाँ सन्नाटा देखकर रेशमा को नीचे गिरा दिया। फिर निर्ममता से उसका गला घोंटकर मौत की नींद सुला दिया। उसकी पहचान मिटाने के लिए भारी पत्थरों से उसका चेहरा कुचल दिया। इसी आपाधापी में तुम्हारी जेब से फ्लेट की चाबियाँ गिर गयी। पुलिस को चाबियों का यह गुच्छा, मौका-ए-वारदात पर मिल गया। फ्लेट पर रेशमा को लेकर तुम्हारी कल की आवाजाही की पूरी सीसीटीवी फुटेज मिल गयी। फ्लेट पर तुम्हारी मौज़ूदगी की तस्दीक करने वाली बीयर की बोतल पर तुम्हारी उँगलियों के निशान भी मिल गये। बोलो क्या कहते हो? अयाज़ के लिए कहने को अब क्या बचा था? उसने आँसू पोंछते हुए गर्दन उठायी- ‘सर! मैं कुबूल करता हूँ कि मैंने रेशमा का खून किया है। सर मैंने अपनी ज़िन्दगी में और कोई जुर्म नहीं किया। एक बदकार बीवी का पति बने रहकर रोज़-रोज़ मरने से तो एक रोज़ की मौत बेहतर है। अपनी जवानी और खूबसूरती की बदगुमानी में डूबी हुई औरत को घर और पति से मुहब्बत नहीं थी। सोशल मीडिया पर उसके 6,000 फालोअर थे और यह सिलसिला लगातार बढ़ रहा था। पता नहीं, किस-किसके साथ चैटिंग करती थी! फोन पर बातें होती थी, ऐसी ही बातें उसके कद्रदान करते थे। हर रोज़ मेरा दिल और जिस्म इन बातों को देख-सुनकर छलनी होता था। मैंने घुमा-फिराकर बहुत समझाया, लेकिन नहीं मानी। सिर पर अपने शानदार नाज़-ओ-अंदाज़ का जुनून सवार था। कैसे मानती? वह एक ही वक्त में अनेक के दिलों पर राज करना चाहती थी।’

‘फिर, फिर क्या हुआ?’ -पचार ने पूछा।

‘बेटा हुआ तो उम्मीद जगी, अब रेशमा पति और परिवार में मन रमा लगा लेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उसने फिर फिसलन पर पाँव रखने शुरू कर दिये थे। अब उससे अलग रहने में ही मेरी भलाई थी। मैंने कहा कि ठीक है, तुम जैसे चाहो रहो। तलाक कुबूल करो, ताकि मैं नये सिरे से अपनी ज़िन्दगी शुरू कर सकूँ। लेकिन तलाक की बात करने पर वह उलटा मुझ पर चढ़ बैठी। बोली- या तो मेरे साथ रहो, नहीं तो घरेलू हिंसा का मुकदमा दर्ज करा दूँगी? बस, मेरा खून खोल गया। मुझे दो ही विकल्प समझ में आये आत्महत्या या रेशमा की इस दुनिया से विदाई।’

‘फिर क्या हुआ?’ -राजीव पचार ने पूछा।

‘मैंने रिश्तों में खटास मिटाने का ड्रामा रचा। पहले फोन करके उसे रामगढ़ मोड़ पर बुला लिया। वह आयी, तो उसे कॉफी हाऊस ले गया। दिन भर घुमाता रहा। फिर शाम को उसे लेकर मंगलम सिटी के फ्लैट पर चला गया। वहाँ हमने बीयर पी। फिर खाना खाने बाहर चले गये। रेशमा काफी खुश नज़र आ रही थी। मुझ पर मनमानी करने का मौका जो मिल गया था! उसको नशे की ज़्यादा डोज देने के लिए मैंने उसे स्ट्रॉन्ग बीयर पिलायी। दिल्ली रोड स्थित माता मंदिर के पास का इलाका मैंने वारदात के लिए पहले ही चुन रखा था। अब तक रात के नौ बज चुके थे। घुमाने का बहाना करते हुए माता मंदिर ले आया। मौका देखते ही पहले मैंने उसका गला दबा दिया। इस दौरान उसे शायद मेरे इरादों की भनक मिल गयी थी। नतीजतन वह मुझसे उलझ पड़ी। मगर मैंने उसे दबोचकर मार दिया। फिर पहचान मिटाने के लिए पत्थर से उसका चेहरा कुचल दिया। स्कूटी में पता नहीं कैसे पेट्रोल खत्म हो गया था। इसलिए स्कूटी वहीं पर छोडऩी पड़ी। मैं गुस्से और तैंस में हत्या तो कर बैठा। पर बाद में घबराहट होने लगी। पता था देर-सवेर पुलिस आयेगी। इसलिए अब्बू के यहाँ जाने के बजाय चाचा के घर जाकर छिप गया।’ अयाज़ को अपने किये का कोई पछतावा नहीं था। वह यही कहता रहा- ‘मेरी कोई गलती नहीं थी। रेशमा पत्नी-धर्म भूलकर गुनाह के रास्ते पर चल रही थी। मेरी ज़िन्दगी भी ज़हर कर रही थी। उसे मारता नहीं, तो क्या आरती उतारता?’

अयाज़ अभी न्यायिक अभिरक्षा में है।

आसान नहीं दिल्ली भाजपा अध्यक्ष की डगर

दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को नये तरीके से सँभालने और जनाधार बढ़ाने के लिए भाजपा आलाकमान ने उत्तरी दिल्ली नगर निगम में महापौर रहे आदेश गुप्ता को दिल्ली की बागडोर सौंपी है। लेकिन उनके लिए यह डगर आसान नहीं है। क्योंकि दिल्ली भाजपा में गुटबाज़ी चरम पर है। इसी गुटबाज़ी के चलते दिल्ली भाजपा अध्यक्ष पर चुने जाने से उन वरिष्ठ नेताओं को नज़रअंदाज़ किया गया है, जो सालों-साल से इसी उम्मीद में पार्टी की सेवा कर रहे थे कि उनको एक दिन पार्टी में दिल्ली प्रदेश की ज़िम्मेदारी मिल सकती है। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। ऐसे में पार्टी के वरिष्ठ नेता अपने आपको उपेक्षित मान रहे हैं। ऐसे हालात में आदेश गुप्ता को पार्टी कार्यकर्ताओं और वरिष्ठ नेताओं के साथ तालमेल करना काफी मुश्किल भरा होगा। दूसरी बात आदेश गुप्ता दिल्ली की सियासत में कोई चॢचत चेहरा नहीं रहे हैं। मगर कहा जाता है कि सियासत में नफा-नुकसान देखकर ही फैसले लिये जाते हैं। आदेश गुप्ता मूल रूप से उत्तर प्रदेश के कन्नौज के रहने वाले हैं। वह छात्र राजनीति और संगठन से जुड़े रहे हैं। इसका लाभ उनको मिला है। बताते चलें कि सम्भावित 2022 के मार्च-अप्रैल में दिल्ली नगर निगम में चुनाव हैं। दिल्ली में उत्तर प्रदेश के लाखों की संख्या में वैश्य समाज के लोग रहते हैं। ऐसे में सीधे तौर पर वोटरों के तौर पर वैश्यों को भाजपा के पक्ष में साधने का प्रयास किया गया है। दिल्ली की राजनीति में विरोधी दलों के बीच यह भी मैसेज दिया गया है कि भाजपा व्यापारी वर्ग को अपने साथ खुश रख सकती है। नवनियुक्त आदेश गुप्ता के व्यापारी वर्ग में अच्छा-खासा तालमेल है।

माना जा रहा है कि दिल्ली में भाजपा से वैश्य समुदाय नाराज़ चल रहा है और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का राजनीति में उदय होने से भाजपा का पारम्परिक मतदाता और दानदाता केजरीवाल के साथ खड़ा हो गया है। ऐसे में भाजपा के लिए वैश्य समुदाय को हर हाल में साधना चुनौती बन गया है। बताते चलें कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को वैश्य समुदाय से बड़ी उम्मीदें थीं कि वह भाजपा के साथ होगा। पर चुनाव परिणामों से भाजपा हार के कारण सकते में आ गयी। आदेश गुप्ता के सामने अगर सही मायने में कोई चुनौती है, तो वे हैं 2022 के दिल्ली नगर निगम में आम आदमी पार्टी (आप) के मुखिया अरविंद केजरीवाल। क्योंकि आम आदमी पार्टी का जनता में लोकप्रियता का ग्राफ लगातार बढ़ता ही जा रहा है। ऐसे में भाजपा का सीधा मुकाबला आप से होगा। मौज़ूदा दौर में दिल्ली की सियासत में आप का एक तरफा दबदबा है। दरअसल भाजपा में सही मायने में आप का कोई काट नहीं दिख रहा है। भले ही आप मुफ्त की ही राजनीति करके जनता को खुश करने का प्रयास कर रही है। जनता को तो सुविधाएँ चाहिए, उसे और क्या चाहिए? भाजपा का आलाकमान से लेकर पदाधिकारी और कार्यकर्ता भली-भाँति जनता से परिचित हैं कि अगर आप की मुफ्त वाली सियासत यूँ ही चलती रही, तो आगामी चुनावों में काफी दिक्कत हो सकती है। क्योंकि दिल्ली में बसों में जो यात्रा महिलाएँ कर रही हैं और बिजली-पानी को जो सुविधाएँ लोगों को मिल रही हैं, उससे दिल्ली वाले काफी खुश हैं। दिल्ली वालों का अपना मिजाज़ है कि जब सुविधाएँ और विकास आसानी से मिल रहा हो, तो क्यों दूसरा नेता चुनें? यह बात दिल्ली विधानसभा चुनाव में जनता ने आप को जिताकर जता दी है। ऐसे में अब भाजपा के सामने सही मायने में आप ही चुनौती है।

 आदेश गुप्ता को भले ही ज़मीनी नेता न माना जाता हो, पर उनकी संगठन और पार्टी आलाकमान में अच्छी पकड़ मानी जाती है और वह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के करीबी माने जाते हैं। तहलका के विशेष संवाददाता ने आदेश गुप्ता से पूछा कि वह पार्टी में गुटबाज़ी कैसे निपटेंगे और वरिष्ठ नेताओं के साथ कैसे तालमेल बिठाएँगे? तो उन्होंने कहा कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ काम किया है। उनके अनुभवों का लाभ लिया जाएगा और कार्यकर्ता तो पार्टी की रीढ़ हैं। उनको मज़बूत करेेंगे और पार्टी को भी। रहा सवाल पार्टी में गुटबाज़ी का, तो पार्टी में कोई गुटबाज़ी नहीं है। क्योंकि जिस पार्टी में निचले स्तर का कार्यकर्ता भी ऊँचे स्तर पर जा सकता है, तो वहाँ पर गुटबाज़ी नहीं हो सकती है। उन्होंने बताया कि इस समय पूरी दुनिया कोरोना वायरस जैसी महामारी से जूझ रही है। उस पर भी काम करना है।

बताते चलें कि दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष मनोज तिवारी का कार्यकाल नवंबर, 2019 में पूरा हो गया था; तबसे दिल्ली भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर कई नामों पर चर्चा थी। लेकिन आलाकमान 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव तक किसी नये चेहरे पर दाँव लगाना नहीं चाहती थी। दिल्ली विधानसभा का चुनाव मनोज तिवारी के नेम और फेम पर ही लड़ा गया था।

चुवाव में भाजपा को सम्भावित जीत तो नहीं मिल सकी, फिर कोरोना की दस्तक के कारण भापजा दिल्ली में किसी नये नाम पर मुहर नहीं लगा पा रही थी। पार्टी सूत्रों का कहना है जैसे-जैसे पार्टी में अध्यक्ष के नाम को लेकर नये-नये नामों पर चर्चाओं और अटकलों का दौर चल रहा था, वैसे-वैसे पार्टी में गुटबाज़ी भी बढ़ती जा रही थी। इन्हीं तमाम अटकलों को विराम देते हुए अन्त में आदेश गुप्ता के नाम पर ही मुहर लगा दी गयी।

साइकिल के स्वदेशी कारखाने का बन्द होना दु:खद

1947 में जब भारत आज़ाद हुआ था, तब यहाँ आज के आधुनिक युग की कल्पना भी नहीं की गयी थी। हाँ, कुछेक आधुनिक बदलाव की हवा ज़रूर चल रही थी। पर भारत की अधिकतर अर्थ-व्यवस्था बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, रब्बा और पालकी पर ही सवार थी। हालाँकि इन दिनों तक अनेक रईस घरानों की शान कार पर सवार होकर अलग दिखती थी, रेलगाड़ी भी लोगों के लिए तेज़ गति से चलने वाली एक अजूबा ही थी। लेकिन भारत की अर्थ-व्यवस्था की गाड़ी साइकिल पर सवार होकर ही आगे बढ़ी थी और इसे तब और मज़बूती मिली, जब भारत में साइकिल बनाने का कारखाना खुला।

आज आज़ादी के जब 73 साल पूरे होने को हैं, तब प्रगतिशील आत्मनिर्भर भारत की अर्थ-व्यवस्था का छोटा पहिया बन चुकी इसी साइकिल का एक अध्याय इतिहास का हिस्सा बनने के कगार पर है। यह अध्याय है- एटलस साइकिल का; जिसके सभी प्लांटों का बन्द होना इसकी बानगी है। भारत की एक मज़बूत और विदेशी साइकिल कम्पनियों को भारत में न घुसने देने वाली साइकिल निर्माता कम्पनी एटलस ने विश्व साइकिल दिवस यानी 3 जून, 2020 को साहिबाबाद में अपना अंतिम कारखाना बन्द कर दिया। लगभग 69 साल पहले 1951 हरियाणा के सोनीपत में जब एटलस साइकिल का कारखाना शुरू हुआ था, तब किसी के पास साइकिल होना बड़ी बात होती थी। बचपन में जब हम दादा-दादी, नाना-नानी के िकस्सों में कहीं-कहीं जब साइकिल का ज़िक्र सुनते थे, तो साइकिल किसी हवाई जहाज़ से कम नहीं लगती थी। उन दिनों मन में एक सपना होता था कि हम भी बड़े होकर साइकिल चलाएँगे। किस कम्पनी की? यह दिमाग में आते ही एटलस का नाम अनायास मन-मस्तिष्क पर उभर आता था। लेकिन स्टॉकहोम के नोबेल म्यूजियम की दीवारों पर चमकने वाली एटलस साइकिल अब इतिहास बन चुकी है। करोड़ों भारतीयों के ज़िन्दगी और करियर का अहम हिस्सा रही एटलस साइकिल की अहमियत वही लोग बता सकते हैं, जिनके क्षेत्र में आज भी साइकिल ही सफर का सबसे बेहतरीन संसाधन है। म्यूजियम क्यूरेटर की दीवार पर टंगी एक काले रंग की साइकिल आज भी लोग बड़े गौर से देखते हैं। यह साइकिल एटलस कम्पनी की ही है और भारत के जाने-माने अर्थशास्त्री तथा सन् 1998 में नोबेल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन की है। दरअसल इस साइकिल को अमत्र्य सेन के नोबेल पुरस्कार की अहम साथी कहें, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पश्चिम बंगाल में इसी साइकिल पर सवार होकर उन्होंने काफी समय तक गरीबी, असमानता और पिछड़ेपन पर अध्ययन किया। ऐसी ही कितनी सफलता की कहानियाँ हैं, जिनका सफर साइकिल से ही तय हुआ है।

क्यों बन्द हुआ साहिबाबाद कारखाना?

एटलस साइकिल के साहिबाबाद स्थित तीसरे और आिखरी कारखाने पर जब ताला लगा, तो पूरे देश में इसे लेकर तमाम तरह की चर्चाएँ होने लगीं। लेकिन सरकार ने इस ओर कोई ध्यान देने की ज़हमत नहीं उठायी। वह भी तब, जब उद्योगों को बचाने के लिए 20 लाख करोड़ के आॢथक पैकेज की घोषणा सरकार कर चुकी है। यह बात यहाँ इसलिए भी कहना ज़रूरी है। क्योंकि एटलस कम्पनी के मालिक कम्पनी के आॢथक तंगी से गुज़रने का हवाला दे रहे हैं। इसके लिए उन्होंने बाकायदा कारखाने के गेट पर एक नोटिस भी लगाया है, जिस पर लिखा गया है- ‘हमें अपने हर दिन के संचालन के लिए फंड जुटाने में परेशानी हो रही है। हम कच्चा माल खरीदने में भी असमर्थ हैं। मौज़ूदा संकट में प्रबन्धन फैक्ट्री चलाने की स्थिति में नहीं है।’

बजट आने पर होगा उत्पादन

एटलस के साहिबाबाद कारखाने के बन्द होने से हुए हंगामे के बीच कम्पनी की प्रबन्ध समिति ने इसे दोबारा शुरू करने की बात कहनी शुरू कर दी है। इस सिलसिले में श्रम विभाग के उपायुक्त राजेश मिश्रा कम्पनी के प्रबन्धकों और श्रमिकों के साथ बैठक भी कर चुके हैं। इस बैठक में कम्पनी प्रबन्धकों ने आश्वासन दिया कि सोनीपत में बन्द हो चुके एटलस कारखाने की ज़मीन बेचकर धन जुटाने के बाद साहिबाबाद स्थित कारखाने को दोबारा चालू किया जा सकेगा। कब तक एटलस कारखाने की सोनीपत वाली ज़मीन बिकेगी और कब यह कारखाना शुरू होगा? इस बात की पुष्टि तो अभी नहीं की गयी है; लेकिन ज़मीन बेचने की प्रक्रिया जून में ही शुरू की जाने की उम्मीद है। वहीं कम्पनी को श्रमिकों का पूरा वेतन घर बैठे देना पड़ेगा। कब तक? अभी यह भी तय नहीं है। क्योंकि इस सिलसिले में उप आयुक्त के साथ कम्पनी प्रबन्धकों और श्रमिकों की अगली बैठक इसी 23 जून को होगी, जिसमें कई मामलों पर स्पष्टीकरण की उम्मीद है। इस मामले को ज़िला प्रशासन ने भी अपने संज्ञान में लिया है और एडीएम प्रशासन ने कम्पनी की बैलेंस शीट माँगी है। कम्पनी प्रबन्धकों का कहना है कि फिलहाल सिर्फ कारखाने में उत्पादन का काम रोका गया है; उसे बन्द नहीं किया गया है।

कब बिक सकती है ज़मीन?

किसी कम्पनी की ज़मीन बेचने के लिए उस कम्पनी को सभी साझेदारों, निवेशकों और राष्ट्रीय कम्पनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) से अनुमति की आवश्यकता होती है। एटलस के सीईओ एनपी सिंह ने कहा है कि एटलस कम्पनी का उत्पादन ले-ऑफ प्रक्रिया के तहत को रोका गया है, जो कि सही है। क्योंकि यह आॢथक तंगी की वजह से करना पड़ा है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि सोनीपत वाली कम्पनी से उनका कोई मतलब नहीं है। वहाँ जो उनकी ज़मीन है, उसे बेचने के लिए एनसीएलटी से अनुमति के लिए प्रार्थना पत्र दिया हुआ है। इस पर जून में ही स्पष्टीकरण की उम्मीद है। अगर इस ज़मीन को बेचने की एनसीएलटी ने अनुमति दी, तो कम्पनी ऐसा करेगी। बिना अनुमति के कुछ भी नहीं किया जा सकता।

एटलस की कामयाबी का इतिहास

जानकी दास कपूर ने 1951 में एटलस नाम से साइकिल बनाने के एक कारखाने की शुरुआत एक टिन शेड में की थी। यह वह दौर था, जब साइकिल किसी के लिए भी आवाजाही का सुलभ, सस्ता और बेहतरीन माध्यम होती थी। हालाँकि गरीबों की पहुँच से तब साइकिल बहुत दूर हुआ करती थी। फिर भी पहले साल ही इस कारखाने में बनी एटलस की 12,000 साइकिल भारत में बिकी थीं। यही वजह रही कि टिन शेड से शुरू हुआ यह कारखाना एक साल के अंदर ही 25 एकड़ ज़मीन में फैल गया। इसके बाद एटलस साइकिल पर सवार इस कारखाने ने देखते-ही-देखते दुनिया भर में अपना नाम कमा लिया और सन् 1958 में एटलस कम्पनी ने साइकिलों की पहली खेप विदेश को निर्यात की। आज जब यह कम्पनी में सामान्य साइकिल से अत्याधुनिक साइकिलों का निर्माण कर रही थी, तब इसका बन्द होना भारत के लिए एक बड़ा झटका इसलिए भी है, क्योंकि यह एक पूर्णतया स्वदेशी कम्पनी है। अगर इसका इतिहास खंगाले, तो एटलस कम्पनी पर कई किताबें लिखी जा सकती हैं। लेकिन संक्षेप में कुछ बिन्दुओं को देखने पर पता चलता है कि सन् 1978 में एटलस कम्पनी ने भारत की पहली रेसिंग साइकिल लॉन्च की। यही नहीं सन् 1982 में दिल्ली एशियन गेम्स में यह कम्पनी साइकिल की आधिकारिक सप्लायर थी। सन् 2003-4 से एटलस कम्पनी पर संकट के बादल मँडराने शुरू हुए। इसके तकरीबन 10 साल बाद कम्पनी ने अपना 2014 में मध्य प्रदेश के मलनपुर स्थित एक कारखाना बन्द कर दिया। इसके बाद 2018 में सोनीपत स्थित कारखाने को बन्द किया गया। और अब कम्पनी के साहिबाबाद स्थित आिखरी कारखाने को कम्पनी ने बन्द कर दिया। एटलस साइकिल का यह कारखाना ऐसे समय में बन्द हुआ है, जब दुनिया के कई देशों में एटलस साइकिल का निर्यात होता है। इससे भी बड़ी बात यह है कि एटलस साइकिल ने अभी तक किसी विदेशी साइकिल कम्पनी का भारत में दाँत नहीं गढऩे दिया है।

कई कम्पनियों पर पड़ेगा प्रभाव

एटलस साइकिल के कारखाने के बन्द होने से उन कई कम्पनियों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा, जो साइकिल के पार्ट बनाकर एटलस को सप्लाई करती हैं। इसमें टायर-ट्यूब उद्योग, बैङ्क्षरग उद्योग के अलावा साइकिल में उपयोग किये जाने वाले अन्य कई उद्योग हैं। क्योंकि ज़ाहिर है हर साल एक करोड़ से अधिक साइकिल बनाने वाली एटलस कम्पनी करोड़ों के साइकिल पार्ट आयात भी करती होगी।

उत्पादन में आयी लगातार बढ़ोतरी

कोरोना वायरस के चलते इन दिनों भले ही साइकिल की बिक्री में कुछ कमी आयी हो, लेकिन तमाम इंजन वाहनों की संख्या बेतादाद बढऩे के बावजूद साइकिल के उत्पादन और बिक्री में कमी नहीं आयी। इसका कारण यह भी है कि एटलस कम्पनी साइकिल की दुनिया में एक भरोसेमंद नाम है। बहुत कम साइकिल बनाने से शुरू किये गये एटलस साइकिल के कारखाने में साल दर साल उत्पादन बढऩे का एक सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि सन् 2010-11 में तकरीबन डेढ़ करोड़ साइकिल हर साल यहाँ से बनकर निकलती थीं। साइकिलों की बिक्री बढऩे का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब कई विदेशी कार कम्पनियाँ तक साइकिल बनाने लगी हैं।

पर्यावरण की दोस्त और मुसीबत की साथी

भारत में लॉकडाउन होने पर कितने ही मज़दूरों की साथी बनी साइकिल की कीमत तो कोई उन्हीं से पूछे कि इस मुसीबत की घड़ी में उन्हें साइकिल मिलना कितने हर्ष की बात रही होगी। साइकिल का महत्त्व हरियाणा से बिहार करीब 1400 किलोमीटर अपने पिता को ले जाने वाली 15 साल की ज्योति बता सकती है, जिसके पिता ने 500 रुपये उधार लेकर एक पुरानी साइकिल खरीदी। साइकिल का महत्त्व एक विकलांग बेटे का वह मजबूर बाप बता सकता है, जिसे बड़ी शॄमदगी के साथ बेटे की खातिर साइकिल चुरानी पड़ी। या फिर वे अनगिनत परिवार बता सकते हैं, जिन्हें छोटे-छोटे बच्चों के साथ पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर का सफर तय करना पड़ा। आज जब पूरी दुनिया के पर्यावरणविद् कह रहे हैं कि पर्यावरण को बचाने और प्रदूषण को कम करने के लिए जितना मुमकिन हो साइकिल से सफर कीजिए। आज जब डॉक्टर सलाह देते हैं कि साइकिल चलाना सेहत के लिए लाभदायक है। आज जब पूरी दुनिया में अनेक अमीर भी साइकिल चलाने लगे हैं। दुनिया भर में अनेक लोग साइकिल से कार्यालय तक जाने लगे हैं, तब भारत में एटलस साइकिल के कारखाने का बन्द होना काफी दु:खद है।

साइकिल का आविष्कार

आज की युवा पीढ़ी में बहुत से लोग नहीं जानते होंगे कि साइकिल का आविष्कार सन् 1839 में स्कॉटलैंड में एक लुहार के हाथों हुआ था। इस लुहार का नाम था- किर्कपैट्रिक मैकमिलन। वैसे यूरोपीय देशों में 18वीं शताब्दी के उतराद्र्ध में साइकिल का विचार पनपने लगा था, जिसका अविकसित मूर्तरूप सन् 1816 में लकड़ी की साइकिल के रूप में पेरिस के एक कारीगर के द्वारा अस्तित्व में सामने आया, जिसे हॉबी हॉर्स कहा गया। इससे पहले साइकिल का एक अधूरा या कहें कि अपूर्ण रूप चलन में था और उसे बच्चों की बेङ्क्षरग गाड़ी की तरह पाँवों की तरह दोनों पाँवों से खिसकाना पड़ता था; जिसके चलते साइकिल का यह आविष्कार न तो चर्चा में था और न ही इसका उपयोग बहुत लोग करते थे। इसके बाद पैडल का आविष्कार सन् 1865 में पैरिस निवासी लालेमे ने किया। उन दिनों पैडल को क्रैंको कहा जाता था और इस यंत्र को वेलॉसिपीड। तब इसे चलाने वाले को बेहद थकावट हो जाती थी। इसलिए बहुत-से लोग इसे बोन शेकर यानी हाड़तोड़ कहते थे। कुछ भी हो साइकिल का आविष्कारक किर्कपैट्रिक मेकमिलन को ही माना जाता है। जब मैकमिलन ने इसे पैरों से चला सकने लायक बनाया, तो इसका उपयोग बढऩे लगा और साइकिल चर्चा में आने लगी। मैकमिलन ने पहले इसका नाम वेलोसिपीड रखा। उसके बाद इसे बायसडक़ल या बाइसिकिल कहा जाने लगा।

ऐसा माना जाता है कि साइकिल के शुरुआती स्वरूप की रूपरेखा सन् 1817 में जर्मनी के बैरन फॉन ड्रेविस ने तैयार की थी। तब यह लकड़ी से बनायी गयी थी और इसका नाम ड्रेसियेन रखा गया था। बताया जाता है कि यह साइकिल एक तेज़ चाल से चलने वाले पैदल व्यक्ति की तरह ही चल पाती थी, जिसकी रफ्तार 15 किलोमीटर प्रति घंटा थी। शायद इसीलिए इसका उपयोग कम ही लोग करते थे। कुछ प्रमाण यह भी कहते हैं कि सन् 1763 में ही फ्रांस के पियरे लैलमेंट ने पैरों से घसीटे जाने वाले एक साधन की खोज की थी, बाद में इसी का रूप सुधरता गया और साइकिल हमारे अस्तित्व में आयी। इसके बाद इसकी माँग बढ़ती गयी और इंग्लैंड, फ्रांस तथा अमेरिका ने इसे यात्रा के सुलभ साधन के रूप में विकसित कर दिया। साइकिल की पहला सही रूप सन् 1872 में में सामने आया, जिसे चलाने बहुत मुश्किल या बोझिल नहीं रह गया था। इसमें लोहे की पतली पट्टी के तानयुक्त दो पहिये लगाये गये थे। इसमें आगे का पहिया 30 इंच से 64 इंच तक के व्यास का और पिछला पहिया 12 इंच के व्यास का होता था। इसमें क्रैंकों के अतिरिक्त गोली के बैङ्क्षरग और ब्रेक भी लगाये गये थे, जिससे इसे चलाना बहुत मुश्किल नहीं था। भारत के आॢथक पहियों में साइकिल के पहिया भी एक अहम पहिया था। आज़ादी के बाद से अगले कई दशक तक यहाँ की यातायात व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा साइकिल ही रही है। जब मोटरसाइकिल का चलन बढ़ा, तो साइकिल का चलन कम होता दिखा; लेकिन फिर भी आज भी लाखों लोगों के पास साइकिल ही वाहन का एक मात्र निजी साधन है।

आॢथक मंदी की वजह से उत्तर प्रदेश की प्रसिद्ध एटलस साइकिल कम्पनी में उत्पादन बन्दी की खबर बेहद चिन्ताजनक है। इससे हज़ारों मज़दूरों के सामने रोज़ी-रोटी का संकट पैदा हो गया है। बेरोज़गारी के इस दौर में ये गरीब अब कहाँ जाएँगे? भाजपा की गलत नीतियों की वजह से अब एक और बन्दी शुरू।

अखिलेश यादव, सपा अध्यक्ष

विश्व साइकिल दिवस के मौके पर साइकिल कम्पनी एटलस की गाज़ियाबाद फैक्ट्री बन्द हो गयी है। सरकार के प्रचार में तो सुन लिया कि इतने पैकेज, इतने एमओयू (मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग), इतने रोज़गार। लेकिन असल में तो रोज़गार खत्म हो रहे हैं। फैक्ट्रियाँ बन्द हो रही हैं।

प्रियंका गाँधी, कांग्रेस महासचिव

ऐसे समय में जबकि लॉकडाउन के कारण बन्द पड़े उद्योगों को खोलने के लिए आॢथक पैकेज आदि सरकारी मदद देने की बात की जा रही है, तब यूपी के गाज़ियाबाद स्थित एटलस जैसी प्रमुख साइकिल फैक्ट्री के धन अभाव में बन्द होने की खबर चिन्ताओं को बढ़ाने वाली है। सरकार तुरन्त ध्यान दे, तो बेहतर है।

मायावती, बसपा प्रमुख