Home Blog Page 803

सनातन धर्म का दर्शन कराती अति सुंदर घड़ी

ऐसा माना जाता है कि दुनिया में सबसे पुराना सनातन धर्म ही है। इस बात के अनेक प्रमाण भी मिलते हैं। आजकल लोग इसी को हिन्दू धर्म कहने लगे हैं। हालाँकि हिन्दू नाम के किसी भी धर्म का किसी भी धर्म-ग्रन्थ में न तो ज़िक्र है और न ही इस शब्द का पहले कहीं इस्तेमाल हुआ है। खैर, सनातन धर्म की नींव कब पड़ी? इसका तो पता ठीक-ठीक नहीं चलता, लेकिन इस धर्म की बुनियाद काफी मज़बूत और ब्रह्माण्ड की संरचना पर आधारित है। सनातन धर्म का दर्शन कराती एक ऐसी घड़ी भी है, जिसमें समय के अंकों की जगह कुछ शब्दों लिखा गया है। इन शब्दों के अपने-अपने अर्थ हैं। तहलका ने इसके बारे में जानने के प्रयास में यह रोचक जानकारी आप तक भी पहुँचाने की कोशिश की है :-

12:00 बजने के स्थान पर आदित्य लिखा हुआ है, जिसका अर्थ यह है- सूर्य 12 प्रकार के होते हैं।

1:00 बजने के स्थान पर ब्रह्म् लिखा हुआ है, इसका अर्थ यह है- ब्रह्म् (ईश्वर) एक ही होता है। यानी एको ब्रह्म् द्वितीयो नास्ति।

2:00 बजने की स्थान पर अश्विन और लिखा हुआ है, जिसका तात्पर्य यह है कि अश्विनी कुमार दो हैं। एक- नासत्य और दूसरे- दस्त्र।

3:00 बजने के स्थान पर त्रिगुण: लिखा हुआ है, जिसका तात्पर्य है कि गुण तीन प्रकार के हैं- सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण।

4:00 बजने के स्थान पर चतुर्वेद लिखा हुआ है, जिसका तात्पर्य है कि वेद चार होते हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।

5:00 बजने के स्थान पर पंचप्राणा लिखा हुआ है, जिसका तात्पर्य है कि प्राण पाँच प्रकार के होते हैं- प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान।

6:00 बजने के स्थान पर षड्र्स लिखा हुआ है, इसका तात्पर्य है कि रस छ: प्रकार के होते हैं- मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त और कषाय।

7:00 बजे के स्थान पर सप्तॢष लिखा हुआ है, इसका तात्पर्य है कि सप्त यानी सात ऋषि हुए हैं- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।

8:00 बजने के स्थान पर अष्ट सिद्धियाँ लिखा हुआ है। इसका तात्पर्य है कि सिद्धियाँ आठ प्रकार की होती हैं- अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, इशित्व और वशित्व।

9:00 बजने के स्थान पर नव द्रव्याणि अभियान लिखा हुआ है। इसका तात्पर्य है कि निधियाँ नौ प्रकार की होती हैं- पद्य निधि, महापद्य निधि, नील निधि, मुकुंद निधि, नंद निधि, मकर निधि, कच्छप निधि, शंख निधि और खर्व या मिश्र निधि।

10:00 बजने के स्थान पर दश दिश: लिखा हुआ है। इसका तात्पर्य है कि दिशाएँ 10 होती हैं- पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य, उत्तर, ईशान, ऊध्र्व और अधो।

11:00 बजने के स्थान पर रुद्रा लिखा हुआ है। इसका तात्पर्य है कि रुद्र 11 प्रकार के हुए हैं- कपाली, ङ्क्षपगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिर्बुध्न्य, शम्भु, चण्ड, और भव।

गुप्तदान की नयी परिभाषा : निलंबित भोजन

‘कर्म करो फल की चिन्ता मत करो’ हमारा अधिकार केवल अपने कर्म पर है; उसके फल पर नहीं। यह श्रीमद्भगवद्गीता का बहुत ही खूबसूरत और ऐसा सार है, जो इंसान को उसकी विवशता और निरीह होने की हकीकत के दर्शन कराता है। लेकिन फिर भी लोग मोह नहीं छोड़ते और यहाँ तक कि बहुत-से लोग तो दूसरों को लूटकर खाने की फिराक में लगे रहते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में यह भी लिखा है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। यह तो संसार एवं विज्ञान का धारण और एक तय नियम है। इसलिए उन्मुक्त हृदय से श्रद्धापूर्वक एवं सामथ्र्य के अनुसार, दान एक बेहतर समाज के निर्माण के साथ-साथ स्वयं हमारे भी व्यक्तित्व निर्माण में सहायक सिद्ध होता है और सृष्टि के नियमानुसार उसका फल तो कालांतर में निश्चित ही हमें प्राप्त होगा। भारत में दान करने की प्रथा युगों-युगों से चली आ रही है। शास्त्रों के अनुसार, दान कई प्रकार के होते हैं। जैसे- धनदान, अन्नदान, वस्त्रदान, विद्यादान और अभयदान। माना जाता है कि ये सभी दान इंसान को पुण्य का भागीदार बनाते हैं।

परन्तु यहाँ एक अनोखे दान की बात कर रहे हैं, जो एक प्रकार गुप्त दान ही है। शास्त्रों के अनुसार, किसी भी वस्तु का दान करने से मन को सांसारिक आसक्ति यानी मोह से छुटकारा मिलता है। हर तरह के लगाव और भाव को छोडऩे की शुरुआत दान और क्षमा से ही होती है। आयु, रक्षा और सेहत के लिए तो दान को अचूक माना जाता है। जीवन की तमाम समस्याओं से निजात पाने के लिए भी दान का विशेष महत्त्व है। दान करने से ग्रहों की पीड़ा से भी मुक्ति पाना आसान हो जाता है। वेदों में लिखा है कि सैकड़ों हाथों से कमाना चाहिए और हज़ार हाथों से दान करना चाहिए। गुप्त दान के ज़रिये हम न केवल धर्म का ठीक-ठीक पालन कर पाते हैं, बल्कि जीवन की तमाम समस्याओं से भी निकल सकते हैं। आज वैश्विक महामारी कोरोना संक्रमण के दौरान गुुप्त दान या अन्य दान अवश्यंभावी हो जाता है। क्योंकि इस महामारी के मद्देनज़र लॉकडाउन की परिस्थितियों में कई लोग परेशान और भुखमरी के कगार पर पहुँच गये हैं। कई लोग रोज़गार खत्म होने से मानसिक तनाव में आ गये हैं। उनकी इस हालत को देखते हुए गुप्त दान का महत्त्व बढ़ जाता है। क्योंकि भारत में सामाजिक धाॢमक परम्पराओं और मान्यताओं के अनुसार, ‘गुप्त दान’ का विशेष महत्त्व शास्‍त्रों में बताया गया है। कहा गया है कि देवी-देवताओं का आशीर्वाद उन लोगों को प्राप्त होता है, जो अपने जीवन में गुप्त दान करते हैं। कभी भी उस दान का फल नहीं मिलता, जो दूसरों को बताकर किया जाता है।

मेरा भी मानना है कि प्रकट रूप से जो दान किया जाता है, उसकी तुलना में गुप्त दान का कई गुना ज़्यादा फल मिलता है। गुप्त दान बिना किसी कर्मकाण्ड के किया जा सकता है। इतिहास में ऋषियों ने गुप्त दान की प्रशंसा करते हुए बताया है कि अपनी सामथ्र्यनुसार गरीब को यह दान करने से पुण्य मिलता है। इस दान का साक्षी सिर्फ भगवान होता हैं। इसके बारे में किसी को कुछ नहीं बताया जाता। पत्नी-पति को और पति-पत्नी को भी इसके बारे में जानकारी नहीं देते।

भारत में आमतौर पर दानवीर धन, जेवर आदि सबकी नज़र बचाकर यह दान करते हैं। दान करते समय वे मन-ही-मन ईश्वर को प्रणाम करते हैं। इसके अलावा कुछ लोग चुपचाप मुट्ठी में रखकर कोई भी चीज़ किसी सुपात्र को देकर आगे बढ़ जाते हैं। वे दान लेने वाले को अपना परिचय नहीं देते और न कोई संकल्प लेते हैं। गुप्त दान ईश्वर को बहुत प्रिय है। यहाँ मैं मेरे एक परिचित द्वारा भेजी गयी कथा का वर्णन करना चाहूँगा, जिसने मुझे यह लेख लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। कहानी इस प्रकार है- ‘नॉर्वे के एक रेस्तरां के कैश काउंटर पर एक महिला आयी और कहा कि पाँच कॉफी, एक निलंबित। उसने पाँच कॉफी के पैसे दिये और चार कप कॉफी ले गयी। एक भोजनालय पर एक और आदमी आया उसने कहा कि चार भोजन (पैकेट), दो निलंबित। उसने चार थाली का भुगतान किया और दो पैकेट लेकर चला गया। उसके बाद एक और आया और उसने आदेश दिया- 10 कॉफी, छ: निलंबित। उसने 10 कॉफी का भुगतान किया और चार कॉफी ले गया। थोड़ी देर के बाद एक बूढ़ा आदमी जर्जर कपड़ों में काउंटर पर आया और उसने पूछा कि कोई निलंबित कॉफी है? काउंटर पर मौज़ूद महिला ने कहा- ‘हाँ’ और उसने उस बूढ़े आदमी को एक कप गर्म कॉफी दे दी। कुछ समय बाद एक और दाढ़ी वाला आदमी अन्दर आया और उसने पूछा- एनी सस्पेंडेड मील्स? तो काउंटर पर मौज़ूद आदमी ने उसे गर्म खाने का एक पार्सल और पानी की बोतल दे दी।’ अपनी पहचान न कराते हुए और किसी के चेहरे को जाने बिना भी अज्ञात गरीबों, ज़रूरमन्दों की मदद करना महान्कार्य है और सही मायने में मानवता है।

बहरहाल इस कहानी ने मुझे यह लेख लिखने के लिए प्रोत्साहित किया, ताकि मैं भारतीय लोगों की सोई हुई दान की प्रवृत्ति को जगा सकूँ। उल्लेखनीय है कि यह अच्छा कार्य यूरोप के एक देश नॉर्वे में हो रहा है और अब दुनिया के कई यूरोपियन देशों में फैल रहा है। अगर दुनिया के देश इस तरह की परम्परा का पालन कर रहे हैं। तो हमारी तो परम्परा ही हर प्रकार के दान करने की रही है। तो क्यों न हम इस आधुनिक युग में एक नयी परम्परा की शुरुआत करते हुए इस कोरोना-काल में लोगों की मदद इस गुप्त दान के माध्यम से करें। क्यों न हम भी इस स्तर तक बढ़ें कि बिना किसी भेदभाव और पहचान के हम किसी भूखे को कम-से-कम एक समय का भोजन ही करा सकें। भारत में आज इस प्रकार के निलंबित भोजन (खाना, चाय आदि) की प्रथा की भावनाओं को जागरूक करना चाहिए। क्योंकि यह नि:स्वार्थ सेवा है, वह भी बिना किसी को जताये-बताये। दान पाने वाले को भी नहीं।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक सम्पादक हैं।)

मज़दूरों के पलायन से हो रहा बड़ा नुकसान

संसाधनों और मज़दूरों के अभाव में देश की अर्थ-व्यवस्था दिन-ब-दिन चरमराती जा रही है। इस समय देश में छोटे-बड़े शोरूमों और फैक्ट्रियों में मज़दूरों का अभाव इस कदर है कि उनका काम तक चालू नहीं हो पा रहा है। वजह साफ है- कोरोना वायरस का डर और सरकार की लचर व्यवस्था। पहले लॉकडाउन और अब अनलॉक के बीच जो भी हालात हैं, वो किसी से छिपे नहीं हैं। देश के व्यापारियों और फैक्ट्री मालिकों का कहना है कि देश की अर्थ-व्यवस्था को पटरी में लाने के लिए मज़दूरों का सहयोग बहुत ज़रूरी है।

लॉकडाउन के दौरान कोरोना के कहर से जो शहरों से मज़दूरों के पलायन की गति रही है, उससे व्यापारिक गतिविधियिों काफी क्षति हुई है। क्योंकि मज़दूर बड़े ही कष्ट में अपने घर पहुँचे हैं; अब मज़दूरों को शहरों में कोरोना के बढ़ते प्रकोप से डर लग रहा है। यही वजह है कि मज़दूर शहरों में आने से कतरा रहे हैं। कुछ मज़दूर शहरों में रोज़ी-रोटी कमाने को आना चाहते हैं, तो अब आने के लिए उन्हें पविहन संसाधन नहीं मिल पा रहे हैं। उनको यह आशंका भी सता रही है कि अगर कोरोना वायरस के चपेट में आ गये, तो तमाम परेशानियों के अलावा जान का जोखिम भी है। इस मामले में व्यापारियों और फैक्ट्री मालिकों का कहना है कि सरकारी सूझबूझ की कमी के कारण आज व्यापारिक गतिविधियाँ चरमरा रही हैं और अर्थ-व्यवस्था पटरी से उतर रही है। क्योंकि शहरों में कोरोना वायरस कहर थमने का नाम ही नहीं ले रहा है, जिसके कारण लोगों में का खौफ है।

व्यापारियों का कहना है कि सरकार ने तो आदेश जारी करके हमसे कह दिया कि दुकानें खोलें; लेकिन सरकार ने हमारी समस्याओं पर गौर ही नहीं किया। सही मायने में इस समय व्यापारी वर्ग खुद ही अर्थ-व्यवस्था से जूझ रहा है; क्योंकि लॉकडाउन के दौरान व्यापार पूरी तरह से ठप रहा है। अब जो हल्का-फुल्का अनलॉक हुआ है, तब दुकानों पर ठीक से ग्राहक नहीं आ रहे हैं। वहीं मज़दूरों के अभाव में दिल्ली की  40 से 50 फीसदी बड़ी दुकानें, शोरूम और मॉल तक नहीं खुल पा रहे हैं। इसके चलते व्यापारियों पास पैसे का लेन-देन न के बराबर है। सदर बाज़ार दिल्ली के व्यापारी नेता राकेश यादव ने बताया कि केंद्र सरकार ने जो 20 लाख करोड़ का जो राहत पैकेज दिया है, अगर उसमें व्यापारियों को राहत देती, तो व्यापारी अपने व्यापार को खड़ा कर लेता। लेकिन दुर्भाग्य से सरकार कुछ भी मदद देने का तैयार नहीं है। उनका कहना है कि व्यापारियों में आपसी तालमेल है, सो वे अपने बलबूते पर काम कर रहे हैं। लेकिन व्यापारियों का कहना कि लॉकडाउन के दौरान जो लेन-देन था, वह व्यापारियों ने फिलहाल आपसी सहमति से रोक दिया है। अब व्यापारी भी नये सिरे से आपस में भी नकद व्यापार करना चाहते हैं। इससे छोटे और बड़े, दोनों तरह के व्यापारियों को व्यापार में समस्या आ रही है; जिसके कारण दिल्ली के कनॉट प्लेस का पालिका बाज़ार और कई बड़े शोरूम बन्द हैं। सरोजनी नगर बाज़ार का भी यही हाल है। क्योंकि छोटे और बड़े व्यापारियों के बीच पैसे का लेन-देन सुचारू नहीं हो पा रहा है।

दिल्ली की झिलमिल में टेप और डोरी का काम करने वाले फैक्ट्री मालिक राकेश जैन का कहना है कि उनकी फैक्ट्री में 16 मज़दूर काम करते थे; लेकिन आज एक भी नहीं है। क्योंकि जो मज़दूर लॉकडाउन के दौरान गाँव गये, वे अब यहाँ आने को राज़ी नहीं हैं। ऐसे में फैक्ट्री बन्द है, जबिक फैक्ट्री के बुनियादी खर्चे बिना आमदनी के हो रहे हैं। इससे हमारा दोहरा नुकसान हो रहा है। अब जैन को आशंका यह सता रही है कि कहीं कोरोना-काल यूँ ही चलता रहा, तो कारोबार जगत लडख़ड़ाने लगेगा।

नरेला में गैस चूल्हे की फैक्ट्री चलाने वाले विनोद तिवारी ने बताया कि सरकार फैक्ट्री वालों पर कोई भी ध्यान नहीं दे रही है, जिसके चलते फैक्ट्रियाँ बन्द करने की नौबत आ गयी है। गैस चूल्हा और उसका सामान बनाने वाले नरेन्द्र शर्मा ने बताया कि जब तक देश में मज़दूरों का पलायन नहीं रोका जाएगा, तब तक फैक्ट्रियों की हालत सुधरने वाली नहीं है। उन्होंने बताया कि दिल्ली-एनसीआर से लगभग 20 से 25 लाख मज़दूरों का पलायन हुआ है; जिनमें ज़्यादातर मज़दूर प्रतिदिन एक से दो हज़ार रुपये कमाने वाले रहे हैं। ऐसे में मज़दूरों की कमायी तो बन्द हुई ही है, वहीं दूसरी ओर व्यापारियों और फैक्ट्री वालों के काम के साथ-साथ और आय भी प्रभावित हुई है। इससे पैसा का आदान-प्रदान रुका है, जो अर्थ व्यवस्था के चरमराने का प्रमुख कारण है। ऐसे में व्यापारियों की माँगों पर गौर करते हुए सरकार को मज़दूरों की शहर-वापसी के लिए कारगर कदम उठाने होंगे; अन्यथा समस्या गहराती जाएगी। आॢथक मामलों के जानकार सचिन का कहना है कि कोई भी व्यवस्था हो, अगर उसमें किसी छोटे या बड़े की उपेक्षा या अनदेखी की जाएगी, तो परिणाम किसी भी हाल में सही नहीं निकलेंगे। आज देश में सरकारी की नीतियों में यही सब साफ छलक रहा है। क्योंकि शहरों में जो लोग प्रतिदिन दिहाड़ी काम और मज़दूरी करके कमा रहे थे, उनकी कमायी आज पूरी तरह से बन्द है। जो लोग अपने गाँव चले गये, उनका तो रोज़गार भी चला गया। गाँवों में तो ठीक से कोई कमायी का ज़रिया भी नहीं है। वे लोग अब अपनी जमा-पूँजी से जीवन-यापन कर रहे हैं; लेकिन ऐसा आिखर कब तक चलेगा? ऐसे में सरकार को अब कोई कारगर कदम उठाने होंगे, जिससे वे फिर से काम कर सकें। फरीदाबाद और गुरुग्राम से जो वाहन चालक दिहाड़ी मज़दूरी के तौर पर स्कूली बसों को चलाते थे या अन्य वाहनों को चलाकर रोज़ी-रोटी कमाते थे, फिलहाल बन्द हैं। सरकार की नीतियों के कारण उनकी माली हालत लडख़ड़ाती जा रही है। फरीदाबाद में कपड़ों के काम लगे ड्राइवरों- सुशील और सुरेश तोमर ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान काम बन्द होने के बाद उन्हें ऐसे निकाला गया था, जैसे कोरोना वायरस का कहर सब कुछ तबाह कर देगा; अब काम के लिए जाते हैं, तो ऐसे देखते हैं कि हम ही कोरोना वायरस को लेकर उनके पास गये हों। रोज़ी-रोटी का साधन छिनने से मामला गम्भीर हो गया है।

सरोजनी नगर मार्केट के अध्यक्ष अशोक रंधावा का कहना है कि अजीब विडम्बना है कि एक ओर तो सरकार कह रही है कि महामारी में लोग सावधानी बरतें, सोशल डिस्टेसिंग का पालन करें और दूसरी ओर कह रही है कि व्यापारिक गतिविधियों को सुचारू किया जाए। सरकार जान-बूझकर अनजान बनी हुई है और अपनी कमी को छिपाने के लिए लोगों का ध्यान इधर-उधर बँटा रही है; जबकि सच्चाई यह है कि हर स्तर पर सरकार असफल हुई है। क्योंकि एक तो वह मज़दूरों को सुविधाएँ नहीं दे पायी है और न ही उनका पलायन रोक पायी है, जिसके कारण यह दुर्गति हो रही है। अर्थ-व्यवस्था के जो सही मायने में खैवनहार हैं, उनको कोई सहूलियत नहीं दी जा रही है; जबकि जब देश का व्यापारी कमाता है, तो सरकार को कर (टैक्स) के रूप में देता है; राष्ट्रीय कोष में इज़ाफा करता है। ऐसे में जब देश में कोई आपदा विपत्ति आती है, तो सरकार को भी व्यापिरयों व आम नागरिकों को बिना भेदभाव के सहायता मुहैया करानी चाहिए। पर वह ऐसा नहीं कर रही है, जिससे देश की अर्थ-व्यवस्था लडख़ड़ा रही है और से गिने-चुने लोगों के हाथों में जा रही है।

हाशिये पर शिक्षा

विश्वभर में कोविड-19 से संक्रमित मरीज़ों की संख्या बढ़ रही है,ऐसी परिस्थितियों में स्कूली छात्रों के अभिभावकों की चिन्ताओं ने भी विश्वव्यापी मुद्दे का रूप ले लिया है। यूनेस्को का अनुमान है कि कोविड-19 के कारण विश्व के करीब 190 देशों में किये गये लाकडॉउन के चलते शैक्षणिक संस्थानों के बन्द होने का करीब 154 करोड़ छात्रों पर गम्भीर असर हुआ है। इतने बड़े पैमाने पर शैक्षणिक सस्थाओं के बन्द होने से छात्रों की शिक्षा व कुशलता पर अभूतपूर्व असर देखा जा रहा है, विशेषतौर पर हाशिये पर रहने वाले तबकों के बच्चों पर जो कि अपनी शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, सुरक्षा सम्बन्धी ज़रूरतों के लिए मुख्यत: स्कूलों पर ही अश्रित हैं। इस समय  दुनिया भर की सरकारों, शिक्षण संस्थान व अभिभावकों के बीच यह बहस ज़ोरों पर है कि ऐसे समय में जब कोविड-19 का कोई कारगर उपचार नहीं है, तो ऐसे समय में बच्चों की पढ़ाई शुरू करने के लिए स्कूल कॉलेज कब खोले जाएँ? कोरोना से सबसे प्रभावित मुल्क अमेरिका सहित ब्रिटेन, चीन, कनाडा जैसे मुल्कों में अभिभावकों ने ऐसे हालात में स्कूल खोलने के खिलाफ मुहिम शुरू की है।

विद्याॢथयों की उपस्थिति हुई कम

गौरतलब है कि यूरोप के कई देशों ने मई मध्य-जून में स्कूल खोलने की पहल की मगर वहाँ हाज़िरी बहुत कम देखने को मिली। उन देशों ने स्कूल तो खोले मगर नियम-कायदों के साथ। जैसे कि न्यूजीलैंड में भी स्कूल खुल गये हैं और यहाँ बच्चों को सामाजिक दूरी व बार-बार हाथ धोने की सलाह दी गयी है। ऑस्ट्रेलिया में स्कूलों में बच्चों के अभिभावकों को जाने की इजाज़त नहीं दी गयी है। जर्मनी के स्कूलों में बच्चों को खुद का कोरोना टेस्ट करने के लिए कोरोना जाँच किट उपलब्ध करवायी जा रही है। वियतनाम के स्कूलों में टेम्परेचर चेक के बाद केवल मास्क लगाकर ही अन्दर जाने दिया जाता है। जापान के स्कूलों में तो फेसशील्ड या मास्क अनिवार्य कर दिया गया है। सिंगापुर में सब बच्चों को थर्मामीटर के ज़रिये बुखार नापकर ही क्लास में जाने की अनुमति है। चीन के हैंगजाउ में जब स्कूल खुले तो बच्चों को मास्क के साथ ही सामाजिक दूरी के लिए खास डिजाइन के हैड-गियर पहनाये गये। स्कूल के बाहर वेलकम बैक भी लिखा हुआ था। बच्चे मास्क के साथ ही साथ सेनिटाइजर व गारवेज बैग के साथ स्कूलों में नज़र आये। डेनमार्क में जब स्कूल खुले, तो बच्चों की संख्या बेहद कम थी। स्विजरलैंड में अभिभावकों पर बच्चों को स्कूल से कुछ दूर छोडऩे की शर्त रखी गयी। नीदरलैंड में स्कूलों में डेस्क के चारों और प्लास्टिक की शील्ड लगायी गयी। आस्ट्रेलिया के न्यू साउथवेल्स में सप्ताह में एक दिन स्कूल आने का नियम बनाया गया। ब्रिटेन में भी जब स्कूल खुले तो कम उपस्थिति देख स्कूल प्रशासन हैरान रह गया और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को अभिभावकों से स्कूल में बच्चों को भेजने की अपील तक करनी पड़ी। वहाँ जून में स्कूल खोलने के सरकारी फैसले से अधिकांश अभिभावक नाखुश नज़र आये और इसके विरोध में अभिभवकों ने सोशल मीडिया पर मुहिम छेड़ दी। फेसबुक पर इस मुहिम ने तेज़ी पकड़ी। ‘जून-टू-सून’ हैशटैग के साथ बच्चों के जूतों तक की तस्वीरें पोस्ट की गयीं। एक ब्रिटिश महिला का यह बयान गौरतलब है- ‘बच्चों और बूढ़ों को जब घर में रहने की सलाह दी गयी है, तो स्कल खोलना वाजिब नहीं है। बच्चे अर्थ-व्यवस्था का हिस्सा नहीं हैं, तो उनकी ज़िन्दगी का खतरा क्यों मोल लें?’ जहाँ तक भारत का सवाल है, यहाँ भी अभिभावक अपने बच्चों को कम-से-कम आने वाले दो-तीन महीनों तक स्कूल भेजने के पक्ष में नहीं हैं। स्पेन में सितंबर तक स्कूल बन्द हैं। लेकिन अपवाद के तौर पर कुछ छात्र-छात्राओं के लिए कक्षाएँ लगायी जा रही हैं।

भारत में कब खुलेंगे शिक्षण संस्थान

भारत में स्कूल कब खुलेंगे? इसे लेकर बराबर कयास लगाये जा रहे हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय भी इस मुद्दे पर राज्य के मंत्रियों व शिक्षा अधिकारियों के साथ कई बैठकें कर चुका है। एक कयास यह भी लगाया गया कि भारत में जुलाई से स्कूल खुल सकते हैं और अभिभावकों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। अभिभावकों ने किसी राज्य में मामले शून्य होने या टीका आने तक बच्चों को स्कूल नहीं भेजने की मुहिम छेड़ दी है। पैरेंट्स एसोसिएशन के चेंज डॉट आर्ग पर शुरू ऑनलाइन हस्ताक्षर अभियान को कई लाख अभिभावकों का समर्थन मिला है। गौरतलब है कि कोरोना वायरस के संक्रमण की रोकथाम के लिए उठाये गये उपायों के तहत देश भर में 16 मार्च से 1.5 लाख स्कूल बन्द हैं और करीब 25 करोड़ बच्चे स्कूल बन्द होने से प्रभावित हैं। देश में स्कूल कब खुलेंगे? इसे लेकर बेशक अभी तक कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की गयी है; लेकिन देश में जिस तरह से कोविड-19 संक्रमितों का आँकड़ा रोज़ बढ़ रहा है। इसके चलते यह फैसला लेना सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है। हरियाणा के फरीदाबाद में इसी मुद्दे पर बीते दिनों एक ज़िला स्तरीय बैठक बुलायी गयी। इस बैठक में सरकारी व निजी स्कूल प्रबन्धन समिति के सदस्यों और ज़िला शिक्षा अधिकारियों ने हिस्सा लिया। इसका निष्कर्ष यह निकला कि वर्तमान हालात में जुलाई में ज़िले में स्कूल खोलना बुद्धिमत्ता नहीं होगी। फरीदाबाद ज़िले में संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं। ऐसे हालात में अगर स्कूल खोल दिये जाएँगे, तो कोरोना वायरस पर काबू पाना मुश्किल हो जाएगा। बैठक में यह भी साफ कहा गया कि ज़िले के अधिकांश सरकारी व निजी स्कूलों में सामाजिक दूरी की पालन कराना भी एक बहुत बड़ा मसला बन सकता है। मुल्क में सरकारी स्कूलों में एक ही सेक्शन में इतने बच्चे होते हैं कि सामाजिक दूरी वाले नियम का पालन कैसे कराया जाएगा? यह बहुत अहम सवाल है। दरअसल सरकार भी इस मुद्दे पर पसोपेश में है। पैरेंट सर्कल के एक सर्वे में खुलासा किया गया कि अधिकतर अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजने के पक्ष में नहीं हैं। राधिका के दो बच्चे एक निजी स्कूल में पढ़ते हैं। उनका मानना है कि इसमें कोई दो राय नहीं कि स्कूल में जाकर पढऩे से बच्चे का विकास कई तरह से होता है; लेकिन अगर हालात इस पक्ष में नहीं है। ऐसे में बच्चों के हित में हमें कदम उठाने की ज़रूरत है। क्योंकि बच्चों की उम्र यह सब सोचने-समझने और निर्णय लेने की नहीं है। ‘नो वैक्सीन, नो स्कूल’ मुहिम के बीच ही अमेरिका में शीर्ष वैज्ञानिकों की इस मुद्दे पर राय जानी गयी, तो 70 फीसदी वैज्ञानिक सिंतबर-अक्टूबर से पहले स्कूल खोलने के पक्ष में नहीं हैं। उनकी राय में इससे पहले स्कूल-कॉलेज खोलना बच्चों के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। सार्वजनिक संस्थानों को तो खोला जा सकता है; लेकिन बच्चों को खतरे में नहीं डाला जा सकता।

दिशा-निर्देश

राष्ट्र सरकारों, अभिभावकों, शिक्षाविदों, स्कूल प्रबन्धकों, वैज्ञानिकों की राय पर नज़र डालने के अलावा यह जानना भी अहम है कि यूनेस्को, यूनिसेफ, विश्व बैंक और वल्र्ड फूड प्रोग्राम ने फिर से स्कूल खोलने को लेकर दिशा-निर्देश जारी किये हैं। इन दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि स्कूल बन्द करने से अभी तक इस बीमारी के संक्रमण दर को रोकने वाले प्रभाव को जानने के लिए हमारे पास पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं। लेकिन स्कूल बन्द होने से बच्चों की सुरक्षा और पढ़ाई पर जो प्रतिकूल प्रभाव पड़े हैं, उसके दस्तावेज़ हमारे पास हैं। यही नहीं, शिक्षा तक बच्चों की पहुँच में बीते कुछ दशकों में जो प्रगति हासिल की थी, अब उसके खोने की ही खतरा नहीं मँडरा रहा, बल्कि खराब हालात में स्थिति पूर्णतया उलट भी सकती है। यह भी गौर करने वाला बिन्दु है कि बच्चों के लिए स्कूल महज़ पढऩे वाला स्थान ही नहीं होते, बल्कि उन्हें वहाँ पौष्टिक आहार, स्वास्थ्य, साफ-सफाई जैसी सेवाएँ भी मुहैया करायी जाती हैं। मानसिक स्वास्थ्य और मनोवैज्ञानिक सहयोग भी उपलब्ध कराया जाता है। स्कूल जाने से बच्चों की बीच में पढ़ाई छोडऩे की सम्भावना कम होती है; खासकर लड़कियों के मामले में उनकी जल्दी शादी होने के अवसर भी कम हो जाते हैं और स्कूल जाते रहने पर बच्चों को हिंसा से भी संरक्षण मिलता है। दिशा-निर्देश इस पर भी रोशनी डालते हैं कि स्कूल बन्द होने की सबसे अधिक चोट सबसे अधिक संवेदनशील बच्चों को ही लगती है और पिछले संकटों से हम जानते हैं कि जितने लम्बे समय तक वे बच्चे स्कूल से बाहर रहते हैं, उनके फिर से स्कूल लौटने की सम्भावना उतनी ही कम होती है। यूनेस्को की शिक्षा सहायक महानिदेशक स्टेफिना गिनोनी ने एक समाचार एजेंसी को दिये एक साक्षात्कर में बताया था कि कोविड-19 महामारी के कारण स्कूल बन्द करने वाला निर्णय बीच में स्कूल छोडऩे में वृद्धि की सम्भावना, गैर आनुपातिक तौर से किशोर लड़कियों को अधिक प्रभावित करेगा। शिक्षा में लैंगिक फासले को बढ़ायेगा और यौन शोषण, छोटी आयु में गर्भधारण करने और छोटी आयु में जबरन विवाह वाले मामलों में भी बढ़ोतरी भी आयेगी, जिससे सावधान रहने की ज़रूरत है। यूनेस्को ने राष्ट्रों के शिक्षा मंत्रियों को कोविड-19 महामारी के दौरान फिर से स्कूल खोलने के लिए योजना बनाते समय इन दिशा-निर्देशों को ध्यान में रखने की सलाह दी गयी। इसमें नीति सुधार, वित्तीय ज़रूरतों, सुरक्षा नियमों का पालन, भलाई, संरक्षण और सबसे अधिक हाशिये पर रहने वाले बच्चों का विशेष खयाल रखने वाले बिन्दु शामिल हैं। इसके अलावा स्कूल बन्द होने से सबसे अधिक गरीब मुल्कों के बच्चों के बारे में भी पता होना चाहिए। इन मुल्कों के जिन बच्चों को दिन में केवल एक समय का ही भोजन नसीब था; वह स्कूल में ही मिलने वाला भोजन था। लेकिन अब वो भी मिलना निश्चित नहीं रह गया। कोविड-19 के कारण स्कूल बन्द होने से दुनिया भर में करीब 370 मिलियन (3,700 लाख) बच्चे स्कूल में मिलने वाले इस पौष्टिक आहार को नहीं ले पा रहे हैं; जो ऐसे गरीब परिवारों के बच्चों के लिए जीवन-रेखा है।

कोरोनाकाल में टूट गयीं अनेक परम्पराएँ

दशकों के बाद पहली बार सीमित श्रद्धालु ही चारधाम यात्रा कर सकेंगे।

अधिकांश ख्याति प्राप्त मंदिर अभी भी बन्द हैं। अगर मंदिर खुलने भी लगे, तो इनमें आने वाले श्रद्धांलुओं की संख्या कम होगी और शारीरिक दूरी का पालन करना होगा।

इसी 21 जून को पड़े सूर्यग्रहण के दिन इस बार मन्दिरों में पूजा-पाठ के श्रद्धालु नहीं जुटे।

आशंकाएँ बराबर बनी हुई हैं कि इस बार जन्माष्टमी के अवसर पर मथुरा और वृंदावन में पुरानी गहमागहमी बहाल नहीं हो पायेगी। वहाँ की कुञ्ज (गलियाँ) पहले ही सँकरी हैं। इन दिनों लाखों की संख्या में लोग वहाँ पहुँचते हंै। लगभग 150 करोड़ का ‘मथुरा के पेड़े’ का बाज़ार इस बार खाली-सा रहेगा। फूलों का लगभग 55 करोड़ का बाज़ार भी ठण्डा रहेगा।

पिछले लगभग तीन माह की अवधि में किसी राज्य में या ‘इंडिया गेट’ अथवा ‘जंतर मंतर’ पर कोई प्रदर्शन नहीं हुआ। कहीं कोई रैली नहीं हुई।

निर्जला अकादशी पर पहली बार छबीलें नहीं लगीं।

विश्वविद्यालयों में प्रवेश की रौनक बन्द है। अब लाइब्रेरियों में बैठकर पढऩे की इजाज़त भी नहीं है। पाठकों को लाइब्रेरी की पुस्तकों से बिछडऩा तनाव में रखता होगा और लाइब्रेरी की पुस्तकें धूल चाट रही हैं।

इस बार सूरदास और कबीर को भी उनके जन्म दिवस पर ढंग से उनके फरीदाबाद और वाराणसी स्थित स्मारकों पर याद नहीं किया गया। कोई समारोह नहीं हुआ।

इस बार भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून में ‘पाङ्क्षसग आउट परेड’ में कैडेट्स के माता-पिता व अन्य परिजन भाग नहीं ले पाए। पिछले 88 वर्षों से निरंतर चली आ रही परम्परा टूटी है। कुल 333 भारतीय और 90 विदेशी ‘जेंटलमैन’ ‘कैडेट’ इस बार गर्व के इन क्षणों से वंचित रह गये। यह अकादमी 1932 में बनी थी। पहली ‘पाङ्क्षसग आउट’ परेड 1934 में हुई थी। मगर अब ‘कोरोना’ ने गर्व के वो लम्हे छीन लिये हंै।

आसार ऐसे नहीं हैं कि कुरुक्षेत्र का ‘गीता जयंती समारोह’ सूरजकुण्ड का हस्तशिल्प मेला या ‘दिल्ली हाट’ के पुराने नज़ारे जल्दी बहाल हो पायेंगे।

एक ओर माँग थी कि बाज़ारों को कुछ समय के लिए सातों दिन खोला जाए, ताकि दुकानदार अपना खोया हुआ कारोबार फिर से बहाल कर पाएँ। मगर दूसरी ओर पंजाब सरकार ने व कुछ अन्य नगरों में सप्ताह में दो दिन और सरकारी अवकाश के दिन फिर से ‘लॉकडाउन’ आरम्भ कर दिया है।

आशंका है कि कोरोना-ग्रहण का असर आगामी स्वाधीनता दिवस के राष्ट्रीय समारोह पर भी पड़ेगा।

अब कवि सम्मेलनों, मुशायरों, सत्संग-सम्मेलनों आदि की निकट भविष्य में कोई सम्भावना नहीं है।

मुँह का ज़ायका इस कदर बदल गया है कि अधिकांश लोग अब बाज़ार का खाना खाने या घर मँगाने से भी डरने लगे हैं।

‘कैब्स’, ‘ऑटो रिक्शा’ चल रहे हैं, मगर डरे हुए लोग उनका प्रयोग करने से कतरा रहे हैं।

पर्यटन-उद्योग देश भर में ठप है। पर्यटकों की आवाजाही बिल्कुल रुकी हुई है।

इधर मुम्बई से खबर है कि वहाँ ‘प्रोड्यूसर्ज़ गिल्ड ऑफ इंडिया’ ने निर्णय लिया है कि कोरोना अवधि के मध्य निर्माणाधीन फिल्मों में चुम्बन या आलिंगन के दृश्य नहीं फिल्माये जाएँगे; क्योंकि ऐसा आचरण, ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की घोषित नीति का उल्लंघन होगा। यदि कहीं ‘पे्रम-दृश्यों’ का फिल्मांकन किया ही जाना है, तो ऐसा दो खिले फूलों को परस्पर मिलाने आदि के प्रतीकों से भी सम्भव है। दूसरी ओर कलाकारों का एक बड़ा वर्ग इस फैसले को अव्यावहारिक और बेतुका बता रहा है। इस वर्ग की दलील है कि आिखर कथानक को कितना सिकोड़ा या तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है? फिलहाल बहस जारी है। क्या होगा? दोनों पक्ष अभी नहीं जानते।

इन दिनों सोशल मीडिया पर कुछ बुद्धिजीवी अपनी-अपनी ‘थ्योरी’ या मान्यता की स्थापना में लगे हैं। कुछ मोटे-मोटे अभियानों की फेहरिस्त इस प्रकार है :-

‘कोरोना’ को भयावह रूप में प्रस्तुत करने के पीछे ‘बिल गेट्स’ व उनकी लॉबी का हाथ है।

एक अभियान वुहान की प्रयोगशालाओं में चीन द्वारा रचे गये षड्यंत्र के खिलाफ लामबन्द है। उनके अनुसार, चीन इस ‘वायरस’ की तह में है और उसका लक्ष्य अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, भारत और जापान की अर्थ-व्यवस्थाओं को धराशायी करना है। शायद यही कारण है कि चीन अपनी अर्थ-व्यवस्था को शीघ्र ही बहाल करने में समर्थ हो गया है।

एक अभियान के सूत्रधार यह मानते हैं कि ‘कोरोना’ एक सामान्य ‘फ्लू’ सरीखा वायरस है। इसे भयावह रूप में प्रस्तुत करना भी एक नपी-तुली साज़िश है।

एक अभियान प्रबुद्ध स्वराज-नेता योगेंद्र का है। उनका दावा है कि वास्तव में देश में इस समय भी 60 से 90 लाख के बीच में लोग कोरोना-संक्रमित हैं।

इन सभी बौद्धिक-सूत्रधारों का दावा है कि उनके पास इस बात के प्रमाण भी हैं कि इस समूचे ‘कोरोना तंत्र’ का तानाबाना एक षड्यंत्र के तहत रचा गया है।

सत्य क्या है? इसकी तह तक पहुँचने की फुरसत इन बुद्धिजीवियों के अलावा किसे होगी? इनके अपने ‘सत्य’ तयशुदा है और ये उसी दिशा में जा रहे हैं, जिस दिशा में जाना चाहते हैं। वे हमारी जीवनशैली में पिछले कई दशकों से लगातार आ रही गिरावट को भी दोषी नहीं मानते। उन्हें प्रदूषण से भी कोई लम्बी-चौड़ी शिकायत नहीं है। उन्हें अपना ‘एजेंडा’ चलाना है।

शायद इसी को पुराने मुहावरों में ‘मृगतृष्णा’ कहा जाता था या बकौल गालिब-

‘हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,

दिल के खुश रखने को ‘गालिब’ ये खयाल अच्छा है’

विनम्र आग्रह है कि ऐसी कवायदों से मूल मुद्दे पर से ध्यान हटाने का प्रयास न करें। इस वायरस की ‘वैक्सीन’ ईज़ाद करने में भी अरबों का बजट खर्च हो रहा है। कभी-कभी लगता है कि ये लोग ‘सैम्युअल बैकेट’ के नॉट ‘वेटिंग फॉर गोदो’ की तर्ज पर एक ऐेसे महानायक ‘गोदो’ के इंतज़ार में हैं, जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं।

हकीकत यह है कि वैक्सीन यदि बना भी ली, तो उसमें महीनों या वर्षों भी लग सकते हैं। बाद में उसे प्रयोग कराना भी लम्बा खेल है। मूल मुद्दा अभी भी देश को भय, भूख व प्रदूषण से मुक्ति दिलाने का है। इसके लिए कोई ठोस, सर्वमान्य नीति अभी तय नहीं हो पायी है।

बिना टीके के ही खत्म होने के कगार पर है कोरोना वायरस?

एक संक्रामक रोग विशेषज्ञ ने दावा किया है कि कोरोना वायरस विनाश के असर के लिहाज़ से एक बाघ से बिल्ली बन चुका है, और बिना वैक्सीन (टीके) के ही अपनी मौत मर सकता है। फोबे साउथवर्थ ने ‘द टेलीग्राफ’ में पॉली क्लीनिको सैन मार्टिनो अस्पताल में संक्रामक रोगों के क्लीनिक के प्रमुख प्रो. माटेओ बासेटी के हवाले से कहा है कि कोविड-19 पिछले महीने से अपना असर खो रहा है और जो मरीज़ पहले इस वायरस से मर जाते थे, वे अब ठीक हो रहे हैं।

प्रो. बासेटी ने कहा कि मेरे पास जो क्लीनिकल (रोगविषयक) धारणा है, वह यह है कि वायरस अपनी तीव्रता खो रहा है। मार्च और अप्रैल की शुरुआत में तस्वीर पूरी तरह से अलग थी। लोग बीमारी के निदान के लिए बड़ी संख्या में बहुत मुश्किल स्थिति में आपातकालीन विभाग में पहुँच रहे थे और उन्हें ऑक्सीजन और वेंटिलेटर की आवश्यकता थी, जबकि कुछ को निमोनिया था। अब पिछले चार हफ्तों में तस्वीर पूरी तरह से बदल गयी है। अब श्वसन पथ में अपेक्षाकृत कम वायरल लोड के मामले हैं, शायद वायरस में एक आनुवंशिक बदलाव के कारण; जो अभी तक वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित नहीं किया गया है। यह मार्च और अप्रैल में एक आक्रामक बाघ की तरह था; लेकिन अब यह एक जंगली बिल्ली की तरह है।

प्रो. माटेओ ने दावा किया कि 80 या 90 वर्ष की आयु के बुजुर्ग मरीज़ भी अब बिस्तर पर उठ बैठे हैं और वह बिना किसी मदद के साँस ले रहे हैं। वही मरीज़ दो या तीन दिन पहले मर गये होते। उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि वायरस का तीव्रता अब कम हो गयी है; क्योंकि हमारी प्रतिरोधक क्षमता वायरस से मुकाबला करती है और लॉकडाउन, मास्क-पहनने, आपसी दूरी के कारण अब हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली बेहतर हुई है। सम्भवत: यह वैक्सीन के बिना ही पूरी तरह से खत्म हो सकता है। हमारे पास कम-से-कम संक्रमित लोग हैं और यह सिलसिला जल्दी ही थम सकता है; क्योंकि वायरस मर रहा है। रदरफोर्ड हेल्थ के एक ऑन्कोलॉजिस्ट और मुख्य चिकित्सा अधिकारी प्रो. करोल सिकोरा ने पहले कहा था कि यह सम्भावना है कि ब्रिटिश जनता की प्रतिरोधक क्षमता उससे ज़्यादा है, जितनी सोची गयी थी, और कोविड-19 खुद से कमज़ोर हो सकता है। हालाँकि एक्सेटर मेडिकल स्कूल के एक वरिष्ठ क्लीनिकल व्याख्याता और इंग्लैंड के पूर्व सार्वजनिक स्वास्थ्य सलाहकार डॉक्टर भरत पंखनिया ने कहा कि कोविड-19 जल्द ही खत्म हो जाएगा, यह विचार अल्पावधि का आशावाद है। उनके मुताबिक, उन्हें नहीं लगता यह इतनी आसानी से खत्म हो जाएगा। उन्होंने कहा- ‘हाँ! यदि उसके पास संक्रमित करने के लिए कोई नहीं है, तो ज़रूर यह मर जाएगा। अगर हमारे पास एक सफल टीका है, तो हम वह कर पाएँगे, जो हमने चेचक के समय   किया था।’

प्रो. बासेटी ने कहा कि अब हम इस बीमारी के बारे में अधिक जानते हैं और इसे रोक सकने में पहले से ज़्यादा सक्षम हैं। बासेटी मानते हैं कि वायरस का असर कम होने का एक कारण आनुवंशिक उत्परिवर्तन भी हो सकता है, जिसने इसे फेफड़ों के नुकसान के मामले में कमज़ोर किया है। उन्होंने कहा- ‘या फिर लोग संक्रमित होने पर  वायरस की छोटी मात्रा ही ग्रहण करते हैं; क्योंकि आपसी दूरी और लॉकडाउन के कड़े नियमों ने लोगों को जागरूक किया और वे बेहतर बचाव उपाय अपनाने लगे हैं। इसके चलते कम लोग बीमार पड़ रहे हैं।’

यहाँ यह भी बताना भी दिलचस्प होगा कि पिछले कुछ दिन से दुनिया भर में कोविड-19 की दवा बनाने के दावे किये जा रहे हैं। कोविड-19 वैक्सीन विकसित करने का दावा करने की दौड़ में आगे चल रही कम्पनियों में एस्ट्राजेनेका, मॉडर्न, फाइजर, जॉनसन एंड जॉनसन, मर्क, सनोफी, बायोनेट और चीन की कैन्सिनो बायोलॉजिक्स हैं।

हालाँकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि नया कोरोनो वायरस अचानक कम रोग क्षमता वाला नहीं हुआ है, जैसा कि एक प्रमुख इतालवी चिकित्सक ने दावा किया है कि कोविड-19 ने अपनी शक्ति खो दी है। एक वर्चुअल प्रेस ब्रीफिंग में डब्ल्यूएचओ एमर्जेंसी के निदेशक माइकल रयान ने कहा कि हमें इसे लेकर असाधारण रूप से सावधान रहने की ज़रूरत है कि कहीं यह संदेश न चला जाए कि वायरस ने अचानक खुद ही अपनी मारक क्षमता खो दी है और वह अब कम घातक रह गया है। उन्होंने कहा- ‘महत्त्वपूर्ण यह है कि वायरस के फैलाव को रोकने और इसे दबाने किये हमने क्या उपाय किये हैं।’

बेरहम बॉलीवुड

वो 10 अक्टूबर, 1964 की बहुत उदास सुबह थी। शानदार कलाकार और दिग्गज निर्देशक गुरुदत्त नींद की ढेर सारी गोलियाँ खाकर हमेशा की नींद सो गये थे। उन्होंने आत्महत्या कर ली थी। वास्तव में करोड़ों लोगों के सपनों की नगरी मुम्बई की सतरंगी दुनिया बॉलीवुड में सब कुछ सतरंगा नहीं है। यहाँ रोज़ हज़ारों सपने टूटते भी हैं। दरअसल सपने टूटने से आगे इस चकाचौंध की दुनिया का एक स्याह पक्ष भी है। सुशांत सिंह राजपूत जैसे कलाकारों का असमय काल के गाल में समा जाना इस स्याह पक्ष से ढेरों सवाल करता है।

अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को लेकर भी कुछ ऐसे ही सवाल उठे हैं, जिनके उत्तर अभी तक कहीं ज़मीन के नीचे दबे हुए हैं। इनमें सबसे गम्भीर यह आरोप है कि बॉलीवुड में सभी को आसानी से टिकने नहीं दिया जाता। प्रतिभा होते हुए भी कुछ लोगों को काम नहीं मिलता और यह कि बॉलीवुड में कुछ गिने-चुने लोगों का कब्ज़ा है, जो कथित रूप से नये और यहाँ तक जमे हुए कलाकारों का भी भविष्य अपने हिसाब से तय करते हैं।

यह आरोप लगा है कि इन ताकतवर लोगों से बाहर आप फिल्म मिलने की कल्पना भी नहीं कर सकते और यदि इन लोगों से आपके रिश्ते बिगड़ जाएँ, तो अपने लिए सुनहरे करियर की उम्मीद नहीं कर सकते। बहुत कम लोग हैं, जो तमाम अवरोधों के बावजूद फिल्म नगरी में अपने बूते टिके रहे हैं।

सबसे पहले बात सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या से ही करते हैं। उनकी आत्महत्या के कुछ घंटे के ही भीतर फिल्म इंडस्ट्री (उद्योग) के दो बड़े नामों अभिनेता और निर्देशक शेखर कपूर और अभिनेत्री कंगना रणौत ने बहुत गम्भीर सवाल उठा दिये। कंगना रणौत ने कहा कि वे भी इस दौर से गुज़री हैं और कुछ लोग उन्हें भी बातचीत के दौरान मनोवैज्ञानिक रूप से आत्महत्या की तरफ ले जाने जैसी कोशिशें करते थे। वहीं शेखर कपूर ने कहा कि वह जानते हैं कि सुशांत सिंह राजपूत को आत्महत्या की तरफ ले जाने वाले लोग कौन हैं?

 सुशांत सिंह राजपूत के आत्महत्या करने के बाद एक बात यह भी सामने आयी है कि कई फिल्में उनके साथ से छीन ली गयींं। आरोप लगाया भी कांग्रेस नेता संजय निरुपम ने है। एक ट्वीट में निरुपम ने कहा- ‘छिछोरे हिट होने के बाद सुशांत सिंह राजपूत ने सात फिल्में साइन की थीं। छ: महीने में उसके हाथ से सारी फिल्में निकल गयी थीं। क्यों? यह आरोप सच है, तो सवाल उठना लाज़िमी है कि फिल्म इंडस्ट्री में वो कौन-सी ताकत है, जो फिल्में छीन लेती है?’

 निरुपम ने तो यहाँ तक कहा कि फिल्म इंडस्ट्री की निष्ठुरता एक अलग लेवल पर काम करती है। इसी निष्ठुरता ने एक प्रतिभावान कलाकार को मार डाला। सुशांत को विनम्र श्रद्धांजलि। वैसे निरुपम ने यह ज़ाहिर नहीं किया कि सुशांत को मिली फिल्मों के क्या नाम थे?

खुद सुशांत सिंह राजपूत का एक वीडियो सामने आया है। यह वीडियो 2017 के आइफा ईवेंट का है। इस वीडियो में सुशांत कह रहे हैं कि नेपोटिज्म यहाँ-वहाँ हर जगह है। सिर्फ बॉलीवुड में ही नहीं। मैं इसका कुछ नहीं कर सकता। भाई-भतीजावाद हो सकता है और इससे कुछ भी नहीं होगा। लेकिन वहीं अगर आप जानबूझकर सही टैलेंट को सामने नहीं आने देते, तो समस्या है। ऐसे में एक दिन इंडस्ट्री का पूरा ढाँचा ढह जाएगा।

यह भी सच है कि युवा सुशांत सिंह डिप्रेशन में चल रहे थे। ऐसा क्या कारण बन गया कि एक सफल अभिनेता डिप्रेशन में चला गया? उनकी मौत के बाद उनके अकाउंट की जो जानकारी सामने आयी है, उससे भी नहीं लगता कि उन्होंने कमज़ोर आॢथक हालात के चलते ऐसा कदम उठाया। उनके अकाउंट में अच्छा-खासा पैसा होने की बात सामने आयी थी।

उनके रिश्तेदारों ने यही कहा कि परिवार पुश्तैनी रूप से ही आॢथक रूप से मज़बूत रहा है। लिहाज़ा उन्होंने सुशांत की मौत की सीबीआई जाँच की माँग की। यह भी ज़ाहिर हुआ है कि उनकी तीन कम्पनियाँ भी चल रही थीं। तो क्या उनकी मौत किसी दबाव का नतीजा है? जो उन पर कोई लोग बना रहे थे और उनकी सफलता के चलते इंडस्ट्री से उन्हें बाहर करना चाहते थे?

उनकी आत्महत्या के बाद सबसे पहले सवाल उठाया जानी-मानी अभिनेत्री कंगना रणौत ने। कंगना ने इंस्टाग्राम पर एक वीडियो शेयर किया। इस वीडियो में रणौत अभिनेता सुशांत की मौत से बेहद दु:खी दिख रही थीं; लेकिन साथ ही बहुत गुस्से में भी थीं।

वीडियो में वह कहती हैं- ‘सुशांत सिंह राजपूत की मौत ने सभी को हिला कर रख दिया है। लेकिन अभी भी कुछ लोग इस तरह की बातें कर रहे हैं कि जिनका दिमाग कमज़ोर होता है, वे लोग आत्महत्या करते हैं। जो बन्दा इंजीनियरिंग में रैंक होल्डर है, उसका दिमाग कमज़ोर कैसे हो सकता है?’ उनकी पिछली कुछ फिल्मों के बारे में उन्होंने लिखा है कि उनका कोई गॉड फादर नहीं है; उन्हें इंडस्ट्री से निकाल दिया जाएगा। जब अभिनेता खुद अपने साक्षात्कार में यह कह रहे हैं कि उन्हें इंडस्ट्री क्यों नहीं अपना रही है? क्या इस हादसे की कोई बुनियाद नहीं है?

कंगना के साथ ही जाने-माने अभिनेता-निर्देशक शेखर कपूर ने तो कहा- ‘मुझे मालूम था तुम्हारा दर्द! कौन था ज़िम्मेदार?’ शेखर की यह पोस्ट कई बातों की तरफ इशारा करती दिखती है। खासकर इस परिप्रेक्ष्य में, जिनमें यह खबरें आ रही हैं कि सुशांत इंडस्ट्री के टॉप डायरेक्टर्स के काम नहीं दिये जाने से हताश होने लगे थे। कुछ बड़े बैनर्स के साथ सुशांत के काम करने पर रोक लगानी की खबरें भी विचलित करने वाली हैं। …और यदि यह सच हैं, तो इंडस्ट्री के स्याह चेहरे की तरफ इशारा करती हैं।

सुशांत की मौत ने ऐसे अनसुलझे सवाल अपने पीछे छोड़ दिये हैं; जिनसे पर्दा उठता है, तो वह काफी चौंकाने वाला हो सकता है। पिछले 10 साल में इंडस्ट्री ने अपने कई प्रभाशाली कलाकारों को कुछ ऐसे रहस्यमय तरीके से खो दिया है कि शंका के कई कारण नज़र आते हैं। अनुराग कश्यप के भाई फिल्मकार अभिनव सिंह कश्यप ने फेसबुक पर आरोप लगाया कि अरबाज़ खान और परिवार ने कथित तौर पर 2010 की फिल्म दबंग के बाद उनके करियर का नुकसान किया। फिल्म निर्माता ने यह भी कहा कि निरंतर दबाव ने उनके मानसिक स्वास्थ्य को नष्ट कर दिया। इस पोस्ट में उन्होंने खान परिवार पर और भी कई आरोप लगाये। कश्यप ने सरकार से यह माँग भी की कि तमाम घटनाओं की विस्तृत जाँच शुरू करवाई जाए।

उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा- ‘शान्ति में आराम करें सुशांत सिंह राजपूत… ú शान्ति! लेकिन आपकी लड़ाई जारी है। सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या सबसे बड़ी समस्या है, जो हममें से कई झेल रहे हैं।’

अभिनेत्री कोएना मित्रा ने एक बयान में निर्माता करण जौहर की आलोचना करते हुए कहा कि उनकी राय इंडस्ट्री की दिशा तय नहीं कर सकती। वह यह तय नहीं कर सकते कि कोई व्यक्ति सफल है या नहीं। उन्होंने यहाँ तक कहा कि करण जौहर के पास इस इंडस्ट्री का लाइसेंस नहीं है।

फिल्म इंडस्ट्री को लेकर बहुत पहले से यह आरोप लगते रहे हैं कि इसमें एक सिंडिकेट काम करता है। इसमें नये लोगों, खासकर फिल्मी परिवारों से बाहर के कलाकारों के लिए जगह बनानी बहुत मुश्किल है। उन्हें टिकने नहीं दिया जाता या अपनी शर्तें मनवाने के लिए मजबूर किया जाता है। पिछले वर्षों में जिस तरह बहुत-से प्रतिभाशाली कलाकारों ने आत्महत्या का रास्ता अपनाया है, उसे देखते हुए कई गम्भीर सवाल खड़े होते हैं। सुशांत की आत्महत्या के बाद उनको लेकर कई खुलासे होने लगे हैं। ऐसा लगता है कि जो कलाकार फिल्म इंडस्ट्री में इस कथित सिंडिकेट के शिकार रहे हैं, वे सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को एक मौका मानकर कई तथ्य अपनी तरफ से सामने ला रहे हैं; ताकि कोई जाँच शुरू हो सके। इससे यह तो संकेत मिलता ही है कि कुछ ऐसा रहस्य है, जो फिल्म इंडस्ट्री अपने भीतर समेटे हुए है और जिसके बाहर आने से हंगामा मच सकता है।

एक समय था, जब बॉलीवुड पर अंडरवल्र्ड से रिश्तों को लेकर बहुत आरोप लगते थे; जो अभी भी लगते हैं। यह भी आरोप रहा है कि अंडरवल्र्ड का पैसा बड़े पैमाने पर फिल्मों में कई ज़रियों से इन्वेस्ट होता है। यहाँ तक कि कुछ फिल्मों के थीम अंडरवल्र्ड की रुचि से तय होती है। हाल के वर्षों में कुछ फिल्म कलाकारों के अंडरवल्र्ड की तरफ से आयोजित पार्टियों में जाने के भी वीडियो सामने आये हैं।

फिलहाल सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की जाँच चल रही है। उनकी करीबी रहीं रिया चक्रवर्ती ने जाँच के दौरान पुलिस को बताया कि सुशांत तीन कम्पनियों के मालिक थे। इनमें से एक कम्पनी रिया चक्रवर्ती के नाम पर भी थी। सुशांत ने पहली कम्पनी 2018 में खोली थी; जो एक्सप्लोर्ड ऑगमेंटेड, वर्चुअल रिएलिटी और आॢटफिसियल इंटेलीजेंस पर काम करती है।

इसके अलावा सुशांत की दूसरी कम्पनी का नाम विविड्रेज राइलेटिक्स है। कहा जा रहा है कि सुशांत ने यह नाम रिया के ही नाम पर रखा था। यह कम्पनी मिक्स्ड रिएलिटी और तकनीक के क्षेत्र में ही काम करती है। तीसरी कम्पनी स्वास्थ्य कल्याण और एजुकेशन रिसर्च, इन्टलेक्चुअल  प्रॉपर्टी पर काम करती है।

सुशांत की करीबी रहीं रिया ने जाँच के दौरान पुलिस को यह भी बताया कि वे दोनों जल्द ही एक घर लेने वाले थे और साल के आखरी तक विवाह बन्धन में बँधने वाले थे। रिया ने आत्महत्या से जुड़ी जो बात पुलिस को बतायी, वो यह है कि सुशांत राजपूत सितंबर, 2019 में ‘दिल बेचारा’ फिल्म पूरी करने के बाद ही तनाव से पीडि़त दिखने लगे थे। सुशांत ने इसे नज़रअंदाज़ करना शुरू किया। लेकिन धीरे-धीरे उनकी तकलीफ बढऩे लगी।

जाँच में पुलिस को रिया ने यह भी बताया कि वह खुद सुशांत को डॉक्टर के पास ले गयी थीं और सुशांत का इलाज शुरू कराया। लेकिन सुशांत दवाइयाँ ठीक से नहीं ले रहे थे। कभी-कभी सुशांत एकदम से चुप रहते, तो कभी-कभी उनका अलग ही मूड रहता था। रिया ने बताया कि जब तक वह सुशांत के पास रहीं, तब तक उन्होंने उनका खूब खयाल रखा। लेकिन एक समय के बाद सुशांत ने खुद अकेले रहने की बात की और उन्हें घर भेज दिया। दोनों रूमी जाफरी के निर्देशन में एक फिल्म करने वाले थे; जिसे वासू भगनानी प्रोड्यूस करते।  लेकिन लॉकडाउन के कारण फिल्म की शूटिंग रुक गयी थी। हालाँकि सुशांत अपने फ्यूचर प्राजेक्ट्स को लेकर काफी उत्साहित थे और उस पर काम कर रहे थे। रिया उनके प्रोजेक्ट में भी उनकी सपोर्ट कर रही थीं।

सितारों के बच्चे बनाम अन्य

यह आरोप लगाया जाता है कि फिल्म इंडस्ट्री में स्टार किड होना बहुत बड़ा लाभ माना जाता है। फिल्म इंडस्ट्री पर नज़र दौड़ायी जाए, तो ज़ाहिर होता है कि स्टार किड्स को बहुत आसानी से फिल्में मिल जाती हैं। लेकिन बाहर से आने वाले लोगों/कलाकारों को बहुत ज़्यादा मशक्कत करनी पड़ती है। ऐसा नहीं है कि सभी स्टार किड फिल्मों में सफल हो जाते हैं। बहुत-से ऐसे हैं, जो प्रतिभा नहीं होने से बाहर भी हुए हैं। लेकिन वे कोई और काम इंडस्ट्री में सँभाल लेते हैं।

 इसके विपरीत बाहर से आने वालों को आसानी से िकरदार या फिल्में नहीं मिलतीं। सुशांत सिंह की आत्महत्या के बाद जो बातें सामने आयी हैं, उनसे ज़ाहिर होता है कि जिनकी फिल्में चल निकलती हैं, उनके लिए भी ढेरों परेशानियाँ रहती हैं। सुशांत इसका उदाहरण हैं। उनकी फिल्में चल रही थीं। इसके बावजूद अगर यह आरोप सामने आ रहे हैं कि उनसे फिल्में छीनने की कोशिश हुई है, तो निश्चित ही फिल्म इंडस्ट्री पर गम्भीर सवाल उठते हैं।

यहाँ यह भी आश्चर्य की बात है कि सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद कुछ बॉलीवुड सितारों को सुशांत के जाने पर पर दु:ख जताना और हमदर्दी दिखाना रास नहीं आ रहा है। जबकि बहुत-से कलाकारों ने सुशांत की मौत को जाँच का विषय बताया है। अभिनेता निखिल द्विवेदी और मीरा चौपड़ा (प्रियंका चौपड़ा की चचेरी बहिन) ने बॉलीवुड को फटकार लगते हुए सोशल मीडिया पर एक लम्बी पोस्ट में बॉलीवुड को जमकर कोसा है। मीरा चौपड़ा ने लिखा है- ‘हम ऐसी एक इंडस्ट्री में काम कर रहे हैं, जो बेरहम है। हम सभी को लम्बे समय से पता था कि सुशांत परेशान है; लेकिन किसी ने उसकी मदद नहीं की। उसके दोस्त और करीबी कहाँ है? क्यों किसी ने उसकी मदद नहीं की? उसे प्यार नहीं दिया। उसे काम नहीं दिया; जैसा वह चाहता था। क्योंकि किसी को उसकी परवाह थी ही नहीं। मुझे कहना ही पड़ेगा कि कोई आपकी परेशानी की परवाह यहाँ नहीं करता।’

सुशांत ने क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी पर बनी फिल्म में भी काम किया था। इस फिल्म के निर्देशक अरुण पांडे ने एक इंटरव्यू में बहुत गम्भीर बात कही। पांडे ने कहा- ‘सुशांत बहुत संवेदनशील इंसान थे और उन्हें लगता था कि वह इंडस्ट्री का हिस्सा नहीं हैं। इसका हिस्सा होने के लिए उन्हें मेहनत करनी होगी। अब यह बड़ा सवाल है कि सुशांत को इतनी फिल्में करने के बाद भी क्यों लगता था कि वह इस इंडस्ट्री के हिस्सा नहीं हैं?’

मीरा चौपड़ा ने तो सुशांत से माफी भी माँगी और लिखा- ‘सुशांत! तुम्हारी मौत एक निजी हानि है। जैसे मैं इंडस्ट्री को देखती थी, अब कभी नहीं देख पाऊँगी। हम तुम्हारा साथ देने में नाकाम रहे। यह इंडस्ट्री नाकाम रही। तुम और बहुत कुछ बेहतर पाने लायक थे। मुझे माफ कर देना।’

निखिल द्विवेदी की पोस्ट भी कई सवाल उठाती है। निखिल ने लिखा- ‘बहुत बार फिल्म इंडस्ट्री के दोगलेपन से मुझे चिढ़ होती है। बड़े लोग कह रहे हैं कि उन्हें सुशांत के टच में रहना चाहिए था। क्या बोल रहे हो यार! तुम ऐसा नहीं करते। क्योंकि उसका करियर नीचे जा रहा था। तो अपना मुँह बन्द ही रखो। क्या तुम लोग इमरान खान और अभय देओल या अन्य के टच में हो? नहीं! लेकिन तुम तब उनके टच में थे? जब वे करियर में अच्छा कर रहे थे।’

मीडिया में इन लोगों के चमचे हैं। वे सुशांत के बारे में लिखते हैं कि एडिक्टेड है। संजय दत्त की एडिक्शन तो आप लोगों को खूब क्यूट लगती है। मुझे फोन करके लोग कहते हैं कि तुम्हारा बहुत डिफिकल्ट टाइम है; कहीं ऐसे-वैसे कदम मत उठा लेना तुम। क्यों मुझे ऐसा कहा जाता है? क्यों मेरे दिमाग में डालना चाहते हैं कि आप आत्महत्या कर लीजिए? यह आत्महत्या थी कि प्लांड मर्डर था? सुशांत की गलती यही है कि उन्होंने कहा कि तुम वर्कलेस हो और वह मान गया। वे चाहते हैं कि वे इतिहास लिखें और ये लिखें कि सुशांत कमज़ोर दिमाग का था। वे सच्चाई नहीं बताएँगे। हमें यह डिसाइड करना है कि इतिहास

कौन लिखेगा?                                                    कंगना रणौत, अभिनेत्री

तुम जिस दर्द से गुज़र रहे थे, उसका मुझे एहसास था। जिन लोगों ने तुम्हें कमज़ोर बनाया और जिनके कारण तुम मेरे कन्धे पर सिर रखकर आँसू बहाते थे। उनकी कहानी मैं जानता हूँ। काश पिछले छ: महीने मैं तुम्हारे साथ होता। काश तुमने मुझसे बात की होती। जो कुछ भी हुआ, वह किसी और के कर्म थे; तुम्हारे नहीं।

शेखर कपूर, अभिनेता-निर्देशक

आत्महत्याओं का सिलसिला

फिल्म इंडस्ट्री में आत्महत्याओं का सिलसिला लम्बा है। इनके पीछे अलग-अलग कारण हो सकते हैं; लेकिन यह कड़ी कुछ ज़्यादा ही लम्बी है। आइए, एक नज़र डालते हैं :-

सिल्क स्मिता : सिल्क की ज़िन्दगी उतार-चढ़ाव वाली रही। वे 80 और 90 के दशक में करोड़ों दिलों पर राज कर रही थीं। प्रसिद्धि मिली; लेकिन परेशान रहने लगीं। एक दिन अपने चेन्नई के अपार्टमेंट में मृत पायी गयीं। सिल्क ने आत्महत्या कर ली थी।

परवीन बॉबी : उनका जीवन रहस्‍यमयी रहा। कामयाबी उनके कदम चूमती थी। लेकिन 22 जनवरी, 2005 को अपने अपार्टमेंट में मृत मिलीं।

जिया खान : यह चुलबुली लडक़ी 2007 में अमिताभ बच्‍चन के साथ नि:शब्‍द फिल्म में दिखी। फिल्मी करियर शुरू हो गया था। करीब 25 साल की उम्र में गजनी जैसी फिल्म में काम किया और 2010 में हाउसफुल भी सुपरहिट रही। वे एक दिन अपने घर में मृत मिलीं। कहा जाता है कि वे निजी ज़िन्दगी में परेशान थीं।

दिव्‍या भारती : दक्षिण भारतीय इस अभिनेत्री ने 19 साल की उम्र में ही घर की बालकनी से गिरकर मौत हुई थी, जिसे आत्महत्या माना गया। फिल्म इंडस्ट्री में वे खूब सफल हो रही थीं। उनकी मौत आज भी एक रहस्‍य है।

प्रत्युषा बनर्जी : सिर्फ 24 साल की प्रत्युषा बनर्जी ने पहली अप्रैल, 2016 को फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली। प्रत्यूषा ने अपने कमरे में ही रस्सी से खुद को लटका लिया था।

शिखा जोशी : एक्ट्रेस शिखा जोशी ने 16 मई, 2015 को मुम्बई के अँधेरी इलाके में चाकू से गला काटकर आत्महत्या कर ली थी। महज़ 40 साल की शिखा ने एम्बुलेंस में जाते समय अपनी दोस्त के मोबाइल पर यह बयान दर्ज करवाया था कि उन्होंने यह कदम काम न मिलने के कारण उठाया है।

सय्यम खन्ना (मोना खन्ना) : बॉलीवुड की संघर्षशील अभिनेत्री ने साल 2014 में आत्महत्या की थी। उन्होंने मुम्बई के वर्सोवा स्थित अपने फ्लैट में फाँसी लगा ली थी। आत्महत्या नोट में उन्होंने लिखा था कि फिल्म इंडस्ट्री में काम नहीं मिलने से वह परेशान हैं और इसलिए ऐसा कदम उठा रही हैं। करियर में उन्होंने दो फिल्मों में काम किया था।

बिदिशा बेजबरूआ : असम की मॉडल और सिंगर बिदिशा ने हरियाणा के गुरुग्राम में खुदकुशी कर ली थी।

नफीसा जोसेफ : टी.वी. एक्ट्रेस और मॉडल नफीसा जोसेफ की मौत किसी राज़ से कम नहीं है। साल 1997 में मिस इंडिया यूनिवर्स का ताज अपने नाम करने वाली नफीसा साल 2004 में महज़ 26 साल की उम्र में फाँसी के फन्दे पर झूल गयीं। नफीसा ने अपने करियर की शुरुआत एक मॉडल के रूप में की थी; लेकिन उन्होंने एक एक्ट्रेस के रूप में भी अपनी पहचान बनायी थी।

कुणाल सिंह : कुणाल का नाम तमिल सिनेमा के लिए जाना जाता था। पहली फिल्म में उनके अपोजिट सोनाली बेंद्रे थीं। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर खूब चली; लेकिन इसके बाद उन्हें लगातार असफलता का मुँह देखना पड़ा। और 7 फरवरी, 2008 को कुणाल अपने मुम्बई स्थित अपार्टमेंट में पंखे से लटके हुए मिले। उन्होंने आत्महत्या क्यों की? यह कोई नहीं जानता।

कुलजीत रंधावा : कुलजीत को बतौर टी.वी. एक्ट्रेस और मॉडल जाना जाता था। खासतौर से टी.वी. सीरीज स्पेशल स्क्वाड और सीएटीएस से उन्होंने पहचान बनायी। साल 2006 में अचानक उनकी मौत की खबर से मॉडलिंग इंडस्ट्री से टी.वी. वल्र्ड तक हैरान रह गये। उन्होंने जुहू स्थित अपने अपार्टमेंट में आत्महत्या कर ली थी। आत्महत्या नोट में उन्होंने लिखा- ‘मैं ज़िन्दगी के दबाव झेल नहीं पा रही हूँ; इसलिए आत्महत्या करने जैसा कदम उठा रही हूँ।’

विजयलक्षमी : साउथ फिल्म इंडस्ट्री की जानी-मानी एक्ट्रेस विजयलक्ष्मी, जिन्हें फिल्मी दुनिया में दूसरी सिल्क स्मिता भी कहते हैं। लेकिन 35 साल की उम्र में ही साल 1996 में उन्होंने ज़हर खाकर जान दे दी थी।

रविशंकर आलोक : बॉलीवुड फिल्म इंडस्ट्री में असिस्टेंट डायरेक्टर और स्क्रिप्ट राइटर रविशंकर आलोक ने नाना पाटेकर की फिल्म ‘अब तक छप्पन’ के लिए भी काम किया था। उन्होंने एक इमारत से कूदकर आत्महत्या कर ली थी। उनके भाई ने कहा था कि काम न मिलने की वजह से वह परेशान चल रहे थे।

राहुल दीक्षित : छोटे पर्दे के मशहूर अभिनेता राहुल दीक्षित ने जनवरी 2019 में खुदकुशी कर ली थी। इनकी भी खुदकुशी रहस्य ही रही।

कुशल पंजाबी : अभिनेता ने 27 दिसंबर, 2019 को फाँसी लगाकर आत्महत्या  कर ली। कुशाल ने 1995 में सीरियल ‘अ माउथफुट ऑफ स्काई’ से करियर की शुरुआत की थी। वह ‘लव मैरिज’, ‘सीआईडी’, ‘कभी हाँ, कभी न’, ‘यह दिल चाहे मोर’, ‘देखो मगर प्यार स’े, ‘सजन रे झूठ मत बोलो’, ‘इश्क में मरजावाँ’ जैसे कई सीरियलों में नज़र आये। उन्‍होंने सलमान खान के साथ फिल्म ‘सलाम-ए-इश्क’, ‘दन दना दन गोल’, अक्षय के साथ फिल्म ‘अंदाज’, रितिक रोशन के साथ फिल्म ‘लक्ष्य’ और अजय देवगन के साथ फिल्म ‘काल’ में भी काम किया था।

प्रेक्षा मेहता : क्राइम पेट्रोल की अभिनेत्री प्रेक्षा मेहता ने महज़ 25 साल की उम्र में आत्महत्या कर ली। इंदौर में अपने आवास पर प्रेक्षा ने पंखे से लटककर जान दे दी। कहा जाता है कि वह डिप्रेशन में चली गयी थीं। उन्होंने मौत से कुछ दिन पहले अपने इंटाग्राम पर लिखा था- ‘सबसे बुरा होता है, सपनों का मर जाना।’

यदि कुछ अपवाद छोड़ दिये जाएँ तो बॉलीवुड में कुछ खानदानों का दबदबा रहा है। कपूर खानदान सबसे प्रसिद्ध है, जिसने फिल्म इंडस्ट्री को कई जाने माने कलाकार दिये। आइए, जानते हैं बॉलीवुड के मशहूर खानदानों के बारे में :-

बॉलीवुड के सबसे सम्मानित और दिग्गज परिवारों में गिना जाता है कपूर खानदान। पृथ्वीराज कपूर से शुरू होकर यह सिलसिला राज कपूर, शम्मी कपूर और शशि कपूर रणधीर कपूर और ऋषि कपूर से होता हुआ करीना कपूर, रणबीर कपूर तक पहुँचा है। इनसे इतर एक और कपूर परिवार है, जिसमें निर्माता रहे सुरिंदर कपूर का परिवार है। उनके तीनों बेटे बोनी कपूर, अनिल कपूर और संजय कपूर फिल्म इंडस्ट्री में जाना-माना नाम हैं। बोनी कपूर ने अभिनेत्री श्रीदेवी (अब दिवंगत) से शादी की थी, जिनकी बेटी जाह्नवी भी बॉलीवुड में पैर जमा रही हैं। अनिल कपूर की दो बेटियाँ- सोनम कपूर अभिनेत्री हैं, जबकि रिया कपूर प्रोड्यूसर हैं। बोनी कपूर की पहली पत्नी मोना से बेटा अर्जुन कपूर है। तीसरा कपूर परिवार शक्ति कपूर का है। उनकी बेटी श्रद्धा कपूर सफल अभिनेत्री हैं। चौथा कपूर परिवार मशहूर अभिनेता जितेंद्र का है। उनके बेटे तुषार कपूर अभिनेता हैं और बेटी एकता कपूर फिल्म इंडस्ट्री और टी.वी. की मशहूर हस्ती हैं। जबकि भांजा अभिषेक कपूर भी फिल्मों में ही है।

वैसे तो अमिताभ बच्चन ने अपने बूते बॉलीवुड में अपनी जगह बनायी; लेकिन आज बच्चन परिवार फिल्म इंडस्ट्री का सबसे मज़बूत परिवारों में से एक माना जाता है। उनकी पत्नी जया भादुड़ी जानी मानी अभिनेत्री हैं; जबकि पुत्र अभिषेक बच्चन अभिनेता हैं। मशहूर अभिनेत्री ऐश्वर्या राय ने अभिषेक से विवाह किया, तो यह परिवार पूरी तरह फिल्मी परिवार हो गया।

खान परिवार का भी फिल्म इंडस्ट्री में दबदबा है। सलीम खान हीरो बने। लेकिन फिर लेखन में कूद गये। शोले जैसी फिल्म सलीम ने जावेद  मिलकर लिखी। उनकी पत्नी सलमा से बेटे सलमान, अरबाज़ और सोहेल खान बड़े फिल्मी सितारे हैं। सलीम की दूसरी पत्नी मशहूर अभिनेत्री हेलन हैं। अरबाज़ ने कलाकार मलाइका अरोड़ा से शादी की थी। लेकिन अब साथ नहीं रहते। अभिनेत्री अमृता अरोड़ा, मलाइका अरोड़ा की छोटी बहन है। सलीम खान की बेटी अलवीरा खान ने अभिनेता अतुल अग्निहोत्री से शादी की, जबकि उनकी मुँहबोली बहन अर्पिता के पति आयुष शर्मा में फिल्मों में काम कर रहे हैं। इस खान परिवार के अलावा मशहूर अभिनेता आमिर खान के पिता ताहिर हुसैन ने बतौर प्रोड्यूसर 1971 में फिल्म कारवाँ से करियर शुरू किया था। इसके बाद उन्होंने कई फिल्में बनायीं। तीसरे खान हैं- शाहरुख खान; जो अपने दम पर इंडस्ट्री में छा गये। उनकी पत्नी गौरी खान हैं। एक और खान परिवार सैफ अली खान है। सैफ की माता मशहूर अभिनेत्री शॢमला टैगोर खान हैं; जबकि उनकी पत्नी करीना कपूर खान भी जानी-मानी अभिनेत्री हैं। अब तो सैफ की पहली पत्नी से बेटी सारा अली खान भी अभिनत्री बन गयी हैं। सैफ की बहन सोहा अली खान भी अभिनेत्री हैं; जबकि उनके पति कुणाल खेमू फिल्मों से जुड़े हैं।

सलीम खान के साथी लेखक रहे जावेद अख्तर का भी परिवार मशहूर है। जावेद की पहली पत्नी कलाकार हनी ईरानी थीं; जिनके बच्चे जोया अख्तर और फरहान अख्तर बॉलीवुड में जमे हुए कलाकार हैं। वैसे जावेद अख्तर के पिता जाँ निसार अख्तर अपने ज़माने के मशहूर गीतकार थे। जावेद की दूसरी पत्नी शबाना आज़मी भी मशहूर अभिनेत्री हैं। कोरियोग्राफर-निर्देशक फराह खान और साजिद खान, हनी ईरानी और डेजी ईरानी के भांजा-भांजी हैं। अभिनेत्री तब्बू भी शबाना की रिश्ते में भांजी हैं।

बलदेव राज चौपड़ा इंडस्ट्री की मशहूर हस्ती रहे। बी.आर. फिल्म्स प्रोडक्शन हाउस का उन्होंने निर्माण किया। बलदेव राज के छोटे भाई यश चौपड़ा मशहूर निर्देशक थे। यश के बेटे आदित्य चौपड़ा निर्देशक हैं। यश चौपड़ा की बहन हीरू से यश जौहर ने शादी की। यश और हीरू के बेटे करण जौहर हैं; जिन्हें फिल्मी परिवारों के बच्चों को लॉन्च करने के लिए जाना जाता है। अब मशहूर अभिनेत्री रानी मुखर्जी भी विवाह करके इस परिवार से जुड़ चुकी हैं।

वैसे खुद रानी मुखर्जी के पिता राम मुखर्जी भी फिल्ममेकर थे। उनकी चचेरी बहिन काजोल मशहूर अभिनेत्री हैं और अभिनेता अजय देवगन से ब्याही हैं। मुखर्जी परिवार का फिल्म इंडस्ट्री में डंका रहा है। मशहूर अभिनेत्री रतन बाई की बेटी शोभना समर्थ अपने ज़माने की लोकप्रिय कलाकार रहीं। शोभना समर्थ की दो बेटियाँ नूतन और तनुजा ने भी खूब नाम कमाया। नूतन के बेटे अभिनेता रहे मोहनिश बहल हैं। तनुजा की दो बेटियाँ काजोल और तनीषा हैं।

फिल्म इंडस्ट्री के ‘ही मैन’ धर्मेंद्र को कौन नहीं जानता। इस परिवार में हेमा मालिनी दूसरी बड़ी स्टार हैं। धर्मेंद्र के पहली पत्नी प्रकाश कौर से बेटे सन्नी देओल और बॉबी देओल जाने-माने अभिनेता हैं; जबकि हेमा की बेटी ईशा फिल्मों में काम कर चुकी हैं। धर्मेंद्र ने भतीजे अभय भी अभिनेता हैं; जबकि सन्नी देओल ने अपने बेटे करण देओल को भी फिल्मों में उतार दिया है।

राजेश खन्ना ने अभिनेत्री डिम्पल कपाडिय़ा से शादी की और फिल्मी परिवार की शुरुआत हो गयी। उनकी बेटी ट्विंकल खन्ना भी अभिनेत्री बनीं और अब मशहूर अभिनेता अक्षय कुमार की पत्नी हैं। सिंपल कपाडिय़ा और ङ्क्षरकी खन्ना भी इसी परिवार से जुड़ी रहीं।

डेविड धवन और अनिल धवन मशहूर फिल्मकार हैं। डेविड के बेटे वरुण धवन उभरते अभिनेता हैं; जबकि परिवार के रोहित और सिद्धार्थ धवन भी फिल्मों में हैं।

रोशन परिवार भी पीछे नहीं। रोशन लाल नागरथ संगीतकार थे। उनके एक बेटे राकेश रोशन अभिनेता बने; जबकि दूसरे राजेश रोशन संगीतकार। राकेश के बेटे ऋतिक रोशन ने बतौर अभिनेता खूब नाम कमाया है।

बेडिय़ाँ तोड़तीं बेटियाँ

अमेरिकी सेना के 218 साल के इतिहास में पहली बार किसी सिख महिला अनमोल नारंग ने प्रतिष्ठित सैन्य अकादमी से स्नातक की उपाधि हासिल की है। सेकेंड लेफ्टिनेंट नारंग को उम्मीद है कि उनके धर्म और समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के उनके प्रयास अमेरिकियों को सिख धन धर्म के बारे में और सीखने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने मध्य जून में 23 वर्षीय नारंग समेत 1,107 युवाओं को सम्बोधित किया, जो अकादमी के वार्षिक दीक्षांत समारोह में शामिल हुए। समारोह में कोविड-19 महामारी को देखते हुए उपाधि प्राप्त करने वाले अधिकारियों के बीच 6 फीट की दूरी रखी गयी।

इस दीक्षांत समारोह को सम्बोधित करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि प्रतिष्ठित सैन्य अकादमी केवल श्रेष्ठ, सबसे मज़बूत और सबसे बहादुर अधिकारी को यह उपाधि देती है। वेस्ट प्वाइंट अमेरिकी बहादुरी, निष्ठा, समर्पण, अनुशासन और कौशल का प्रतीक है। अकादमी से अन्य सिख भी स्नातक की डिग्री हासिल कर चुके हैं; लेकिन अनमोल यह उपाधि हासिल करने वाली सिख धर्म की पहली महिला अनुयायी हैं, जो अपने धर्म की समस्त परम्पराओं का अनुसरण करती हैं।

रिपोर्ट के अनुसार अनमोल नारंग ने अमेरिकी सेना के ऐतिहासिक बैरिकेडिंग को तोड़ दी है। न्यूयॉर्क टाइम्स रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिकी सेना में 1925 के बाद रंगभेद का प्रभाव बढ़ गया था। सेना के अधिकतर अधिकारी रैंक का पद एक विशेष वर्ग को जाने लगा, जिसके कारण निचले स्तर पर भी उसी वर्ग का वर्चस्व बढ़ता गया। ऐसा लगभग एक सदी से चलता आ रहा है।

लेकिन अब भारतवंशी सिख महिला अनमोल ने अमेरिकी सैन्य अकादमी के इतिहास में उन तमाम बेडिय़ों को तोड़ दिया है, जो अमेरिका जैसे विकसित और खुले विचार वाले देश में बेहद मज़बूती से जकड़ी हुई थी।

नारंग जॉॢजया के सिख परिवार में जन्मीं। उनकी शुरुआती पढ़ाई यहीं हुई। उनका परिवार दो पीढिय़ों से यहाँ रह रहा है। उनके दादा भारतीय सेना में थे। लिहाज़ा वह बचपन से ही आर्मी में करियर बनाना चाहती थीं। जब वह हाईस्कूल में पढ़ती थीं, तो उनका परिवार हवाई में पर्ल हॉर्बर नेशनल मेमोरियल देखने गया था। इसके बाद से ही उन्होंने वेस्ट प्वॉइंट मिलिट्री एकेडमी में अप्लाई करने की तैयारी शुरू कर दी थी।

अनमोल ओकलाहोमा में बेसिक ऑफिसर लीडरशिप कोर्स पूरा करेंगी और इसके बाद उन्हें जनवरी में जापान के ओकीनावा में पहली तैनाती के लिए भेजा जाएगा। अनमोल ने कहा- ‘मैं बहुत उत्साहित हूँ कि मेरा सपना पूरा होगा। यह मेरे लिए फख्र की बात है।’

दादा से मिली प्रेरणा

अनमोल नारंग के दादा भारतीय सेना में जवान थे। अनमोल को बचपन से उनसे ही प्रेरणा मिली। अनमोल के मन में उन्हें ही देखकर सेना में करिअर बनाने की इच्छा जागृत हुई। इसीलिए अनमोल ने दादाजी से प्रेरित होकर ही सैन्य क्षेत्र में कदम रखा और हवाई में पर्ल हार्बर राष्ट्रीय स्मारक की यात्रा के बाद इसके लिए आवेदन किया, जिसमें उन्हें सफलता मिली।

अनमोल ने अमेरिकी जॉॢजया प्रौद्योगिकी संस्थान से स्नातक की पढ़ाई की और उसके बाद वेस्ट प्वाइंट सैन्य अकादमी से परमाणु इंजीनियङ्क्षरग में स्नातक की डिग्री हासिल की। न्यूयॉर्क की एनजीओ सिख कॉलिशन में नारंग ने कहा- ‘मैं अभिभूत हूँ कि इस लक्ष्य तक पहुँचकर मैं अन्य सिख अमेरिकियों को यह दिखा रही हूँ कि किसी के लिए भी करिअर में कोई भी रास्ता चुनना मुमकिन है। यह मेरे लिए एक सपने को पूरा करने जैसा है।

आदिवासियों का जीवन बदलने वाले स्वास्थ्य शिविर

छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों के ग्रामीण बाज़ारों, जिनको हाट-बाज़ारों के नाम से जाना जाता है; ऐसे दूरदराज़ और दुर्गम क्षेत्रों में आयोजित स्वास्थ्य शिविर के ज़रिये ‘स्वास्थ्य सेवा प्रणाली’ नये आयाम गढक़र लोगों को राहत पहुँचा रही है। ब्लड प्रेशर, मलेरिया और शुगर टेस्ट जैसी सुविधाएँ इन शिविरों में प्रदान की जा रही हैं। हर हफ्ते लगने वाले हाट में बड़ी तादाद में लोग जुटते हैं और यहाँ पर बेहद रंगारंग व खुशनुमा माहौल होता है।

राज्य के कोंडागाँव ज़िले में स्थित एनजीओ साथी समाज सेवी संस्था के भूपेश तिवारी ने कहा कि स्वास्थ्य शिविर के ज़रिये स्वास्थ्य और कुपोषण के लिए काम करने को आसानी से पहुँच बनायी जा सकती है।

एक बेहतर पहल

हाट बाज़ार स्वास्थ्य शिविरों के आयोजन के लिए 2011 में रामकृष्ण मिशन के साथ और 2012 में साथी के साथ यूनिसेफ ने भी साझेदारी की। वर्षों से इन शिविरों के माध्यम से कमज़ोर तबके के आदिवासी आबादी तक स्वास्थ्य सुविधाएँ पहुँचायी गयीं, जिससे इनको अपार लोकप्रियता मिली। यह सुविधा बस्तर जैसे इलाके में भी लोकप्रिय हुई, जिसे नक्सलियों का गढ़ माना जाता है। यूनिसेफ के इमरजेंसी ऑफिसर विशाल वासवानी के अनुसार, हाट बाज़ार स्वास्थ्य दिवस अवधारणा हाट बाज़ार टीकाकरण अभियान से सीधी पहुँच होती है; जो पहले ही ऐसे छूटे बच्चों या ज़रूरतमंदों को कवर करने के लिए चल रहा था।

तिवारी ने कहा कि दूरदराज़ के जनजातीय क्षेत्रों में बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच की स्थिति अब भी बहुत बेहतर नहीं है। कई बच्चों को टीकाकरण कवरेज से बाहर रखा जाता है; क्योंकि उनकी माँ उन्हें अपने साथ काम पर ले जाती हैं। साथी के लिए काम करने वाले प्रमोद पोटाई ने कहा कि शुरू में टीकाकरण की दर कम थी, हमें किसी तरह कुल कवरेज (आवृत्त क्षेत्र) सुनिश्चित करना था। ऐसे दुर्गम क्षेत्र में हमें बहुत-सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और कई बच्चों को छोड़ दिया गया। हमारे रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए हाट बाज़ार टीकाकरण दिवस की अवधारणा की शुरुआत की गयी। इसने चीज़ों को आसान बना दिया। उन्होंने कहा कि आदिवासी अपने बच्चों के साथ खरीदने और बेचने के लिए साप्ताहिक बाज़ारों में जाते हैं, हम यहीं पर छूटे हुए बच्चों का भी आसानी से टीकाकरण कर देते हैं।

भूपेश तिवारी ने बताया कि छूट जाने वाले बच्चों के मुद्दे को ध्यान में रखते हुए हाट बाज़ार स्वास्थ्य शिविर शुरू किया गया और टीकाकरण कवरेज की पहुँच 92 फीसदी तक की गयी। धीरे-धीरे यूनिसेफ फंडिंग की मदद से इन शिविरों में ओपीडी सेवाएँ भी शुरू की गयीं। अब एक हाट बाज़ार के लिए हमें किट के साथ लगभग 1,500 रुपये मिलते हैं। हम नारायणपुर ज़िले के नारायणपुर ब्लॉक में पाँच स्थानों पर ऐसे शिविर लगाते हैं, जो लगभग 20 गाँवों को कवर

करता है। साथी की काउंसलर निशा निषाद ने बताया कि चूँकि आदिवासी बहुल इलाकों में ओपीडी सेवाएँ मानकों के अनुरूप नहीं है, इसलिए लोग गुणवत्ता जाँच, दवा और उपचार की माँग करते हैं। इसके बाद जब स्वास्थ्य शिविर शुरू हुए, तो उसका अच्छी प्रतिक्रिया और तारीफ  मिली। साथी के एक अन्य कार्यकर्ता अजय बैद्य ने बताया कि आमतौर पर ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों तक पहुँच के लिए बड़े बाज़ारों को चुना जाता है। लोगों को शिविरों में आकर्षित करने के लिए, तमाम सेवाओं की पेशकश के बारे में घोषणाएँ साउंड सिस्टम के ज़रिये हिन्दी के साथ ही स्थानीय बोलियों के माध्यम से की जाती हैं। शुरू में लोग इस ओर भागे चले आते थे क्योंकि यह इलाके में अपनी तरह की नयी पहल थी। लेकिन अब मरीज़ नियमित रूप से दूर-दराज़ के गाँवों से भी खुद आते हैं। शिविर सुबह 11 बजे से शाम 5 बजे तक लगाये जाते हैं। प्रत्येक शिविर में मरीज़ों की मदद के लिए स्वयंसेवक, परामर्शदाता और पर्यवेक्षक होते हैं।

यूनिसेफ के साझा किये गये आँकड़ों में कहा गया है कि 2014 से अब तक साथी ने इन हाट बाज़ार स्वास्थ्य शिविरों के माध्यम से 6,907 लाभाॢथयों तक पहुँच बनायी है। रामकृष्ण मिशन और साथी दोनों के साथ साझेदारी के तहत यूनिसेफ ने 2012 से अब तक कुल 39,61,800 रुपये के बजट के साथ 1,433 हाट, बाज़ारों में स्वास्थ्य शिविर आयोजित किये। लाभार्थियों की कुल संख्या 23,259 है; जिसमें मुख्य रूप से महिलाएँ और बच्चे शामिल हैं। इस बारे में तिवारी ने कहा कि लोगों के व्यवहार में बदलाव लाने में समय ज़रूर लगता है, लेकिन अब लोग हमारे पास खुद आते हैं।

राज्य सरकार की पहल

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली छत्तीसगढ़ सरकार भी यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रही है कि गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच कमज़ोर जनजातीय आबादी तक हो सके।

इस सम्बन्ध में मुख्यमंत्री हाट बाज़ार क्लीनिक (औषधालय) योजना की शुरुआत 2 अक्टूबर, 2019 को की गयी। यह एक सरकारी पहल है, जिसका मकसद ऐसे जनजातीय क्षेत्रों को लक्षित करना है, जहाँ स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुँच नहीं है। जनसम्पर्क आयुक्त तरन सिन्हा ने कहा कि कई बार आदिवासियों के पास डॉक्टरों की पहुँच के लिए चलने या गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सुविधाओं का विकल्प की कमी होती है।

स्वास्थ्य शिविर की पहल की शुरुआत बस्तर से की गयी और अब यह पूरे राज्य में पहुँच रही है। मार्च 2020 तक लगभग 26,357 हाट, बाज़ार क्लीनिक आयोजित किये गये हैं और 91 लाख से अधिक लोग स्वास्थ्य लाभ से जोड़े गये हैं। इन शिविरों से लगभग 8 लाख रोगियों को लाभ मिला है। छत्तीसगढ़ का लगभग 44 फीसदी भाग वनों से घिरा है और राज्य की 31 फीसदी आबादी आदिवासी है; जिनमें कुपोषण दर सबसे ज़्यादा है। उप-स्वास्थ्य केंद्र एडका (नारायणपुर का एक गाँव) की सहायक नर्स/मिडवाइफ (उपचारिका)नीलमणि दत्ता ने कहा कि आदिवासी बहुल इलाकों में जागरूकता की कमी के कारण कुपोषण एक गम्भीर मुद्दा है। भूपेश तिवारी ने कहा कि इसकी मुख्य वजह लोगों के खानपान में आहार की विविधता का नहीं होना है। अक्सर गर्भवती महिलाएँ कुपोषित और एनीमिक होती हैं, और इस तरह कम वजन वाले शिशुओं को जन्म देती हैं। कुपोषण की समस्या से निजात पाने के लिए साथी अपने काम करने वाले क्षेत्रों में किचन गार्डन (शाक वाटिका) की अवधारणा को लोकप्रिय बनाने पर भी काम कर रही है।

अखरोट का स्वाद

हमें देर हो रही है, पति ने सुबह 8.30 बजे कन्धों से हिलाते हुए मुझे जगाने के अपने चौथे प्रयास में ज़ोर से मेरे कान के पास आकर कहा। मैंने अपनी एक आँख खोली और अपनी आरामदायक जयपुरी रज़ाई में दुबकने से पहले उन पर एक नज़र डाली। मेरे पति ने दीर्घ श्वास भरते हुए कहा कि डॉक्टर अपाइंटमेंट कैंसल कर देंगे। मैं पलटी और फिर और ज़्यादा गहरे से बिस्तर में सिमट गयी।

वर्षों की अनिद्रा और नतीजतन रोज़ नींद की गोली ने कुछ ऐसा कर दिया है कि मैं  भोर होते ही सो पाती हूँ। वास्तव में हम एक प्रसिद्ध मनोचिकित्सक से मिलने के लिए आज सुबह 9.30 बजे इलाज के परामर्श के लिए जाने वाले थे। मेरे पति की तरह मेरे लिए चिन्तित उनके एक दोस्त ने डॉक्टर से अपॉइंटमेंट तय करवायी थी और हमारे ही साथ जाने वाला था। जैसे ही पति वहाँ से गये, मैं अलसायी आँखों के साथ लगभग लहराते हुए उठी। मैं सीधे वाशरूम में घुसी और वस्त्र बदलकर जैसे ही बाहर पहुँची, कार झटके से सामने आ खड़ी हो गयी।

मैं तुम्हें एक रहस्य बताऊँगी। बहुत कुछ है कि मैं अपनी अनिद्रा पर व्यथित होने का दिखावा करती हूँ, मुझे यह पसन्द है। रात मेरी है, जो मर्ज़ी मैं करूँ! पढऩा, लिखना, संगीत, कविता, कल्पना की उड़ानें, यह आनन्द से भरपूर है।

कार रुकी, हम क्लीनिक के भीतर पहुँचे, जहाँ डॉक्टर के जूनियर ने हमारा स्वागत किया। जैसे ही हम बैठे और प्रारम्भिक जानकारी दी। उसने कहा- ‘पृष्ठभूमि बताएँ।’ आयु, पेशा, रोग की हिस्ट्री जैसी तमाम जानकारियाँ दर्ज कर ली गयीं, तब मेरे पति ने गला खँखारते हुए कहा- ‘वह तब गुस्सा हो जाती हैं, जब मैं वाहन चलाते हुए फोन पर बात करने लगता हूँ या जब संगीत की ध्वनि बहुत ऊँची होती है।’ जूनियर लिखते हुए बुदबुदाया- ‘इसमें कुछ भी गलत नहीं।’ अपनी बात पर ज़ोर देने के लिए मेरे पति ने दोहराया- ‘वह तनाव से पीडि़त हैं, जब भी मैं थोड़ा तेज़ गाड़ी चलाता हूँ। वह बेचैन हो जाती हैं।’ जूनियर ने उनकी तरफ सख्ती से देखते हुए कहा- ‘तेज़ ड्राइविंग कुछ लोगों को तनाव में ला सकती है। यह सामान्य बात है।’

मेरे पति ने अपनी बात जारी रखी- ‘वह पार्टियों और शादियों में शामिल होना पसन्द नहीं करतीं।’ जूनियर ने लिखना बन्द कर दिया और मेरे पति को आँख मारते हुए देखा- ‘इसमें कुछ भी गलत नहीं है; कुछ लोग ऐसे होते हैं।’ मैंने कुछ दया भाव से अपने पति की तरफ देखा। कुछ भी उनके हिसाब से नहीं जा रहा है। मैं उनके कान में कहना चाहती थी कि वह हमारे डॉक्टर के पास जाने से पहले बहादुर बनें और कुछ संयम रखें। इस तरह यह यह सिर्फ अप्रिय विवरण भर था। भावुकतापूर्ण कथा सत्र कहीं और होगा; लेकिन मैंने खुद को रोक लिया। ज़ाहिर है, बेचारे मेरे पति ने डॉक्टर से इस अपॉइंटमेंट को अपने लिए एक अवसर के रूप में देखा, ताकि वह अपनी सनक-भरी सोच को स्थापित कर सकें। अपनी सारी परेशानियों की तुलना करने के लिए उन्हें कोई भी छोटा कारण चाहिए था। यहाँ तक कि कोइ जूनियर भी। उन्होंने बहुत बहादुरी से अपनी बात कहनी जारी रखी- ‘बच्चे जब आपस में झगड़ते हैं, तो वह बहुत परेशान हो जाती हैं।’ इस बार हम दोनों ने ही उनकी तरफ क्रोध भरी निगाह से देखा। जैसे ही डॉक्टर ने हमें अपने चैंबर में बुलाया, मेरे पति तुरन्त नीचे बैठ गये।

डॉक्टर ने हमें बैठाया और अपना ध्यान मेरी तरफ किया। रिकॉर्ड किये गये विवरण को पढऩे के बाद उन्होंने मुझसे पूछा- ‘आप क्या करती हैं?’ मैंने जवाब दिया- ‘मैं कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस की प्रमुख हूँ।’ डॉक्टर ने कहा- ‘वो क्या होता है?’ मैंने विस्तार से ब्रांड मैनेजमेंट के बारे डॉक्टर को बताना शुरू किया; लेकिन मेरी बात बीच में काटकर बोले- ‘सब लिफाफेबाज़ी (बकवास) है जी।’ मैंने सवालिया निगाह से उनकी तरफ देखा, वह मेरी बीमारी या मेरे पेशे पर निर्णय सुना रहा था? उसने कहा- ‘ठीक है, हम यहाँ कोई भी ब्रांड मैनेजमेंट नहीं करते हैं।’ इस बार भौचक्का रहने की मेरी बारी थी (निश्चित रूप से, उससे यह यह उम्मीद नहीं थी। क्या वह डॉक्टर नहीं था?)। उसने कहना जारी रखा- ‘हम जिस पर विश्वास करते हैं और अभ्यास करते हैं, वह शुद्ध विज्ञान है।’ (निश्चित ही, और मैं चाहती थी कि वह अपनी साइंस से मुझे स्वस्थ करे; न कि कॉरपोरेट मैनेजमेंट, जिसमें मुझे निद्रा रोग दिया था।) अब तक मेरे पति एकदम शान्त बैठे थे, और इससे मैं उलझन में थी।

यहाँ कोई ब्रांड प्रबन्धन नहीं, मनोचिकित्सक ने दोहराया। शायद मुझे सहज करने के लिए! मैं हलके से मुस्कुरायी; बिना यह जाने कि मुझे क्या कहना चाहिए? वह मेरी ओर झुक गया और एक ऊँगली हिलायी- ‘हम जो अभ्यास करते हैं वह शुद्ध विज्ञान है; सूर्य के प्रकाश जैसी शुद्ध।’ ज़रूर! मैंने अपना सिर हिलाते हुए जल्दी से उसे आश्वस्त करने की कोशिश की।

मेरे पास कोई जादुई इलाज नहीं है। (मैं विज्ञान के व्यक्ति से किसी भी जादू की उम्मीद नहीं कर रही थी। मैं आँखों से ही उसकी बात को सहमति दी।) उसने मुझे चेताया और शायद चुनौती दी कि मैं विदेश में इलाज करवा लूँ- ‘कोई इलाज नहीं, यहाँ नहीं; विदेश में नहीं।’ मैं अपनी कुर्सी ठिठककर बैठी रह गयी; पराजित सी! देखो, मैं वह हूँ, जिसे मदद की ज़रूरत है। …मैं कहना चाहती थी, यह मेरे बारे में नहीं होना चाहिए।

पूरे सत्र के दौरान, मनोचिकित्सक ने मेरे पति को नज़रअंदाज़ कर दिया था, जो अब तक अपनी शिकायतों को रखने की कोशिश कर रहे थे। यह महसूस करते हुए कि अप्वाइंटमेंट जल्द ही खत्म होने वाला था, वह अन्दर ही अन्दर घुट रहे थे। यह सिर्फ अनिद्रा नहीं थी; जिससे इलाज की मुझे ज़रूरत थी। मुझे स्पष्ट रूप से एक पेशेवर से बात करने की सख्त ज़रूरत थी; ताकि वह मुझे उस ठप्पे से बाहर निकाल सके, जिसमें मुझे समाज विरोधी संज्ञा दे दी गयी थी। मेरे खिलाफ उसके सामाजिक कार्यों या शादियों में शामिल नहीं होने या रिश्तेदारों से नहीं मिलने पर क्रोध जताने का कभी वांछित असर नहीं हुआ था; उलटे इसके विपरीत ही हुआ था। मैं पूरी ताकत लगाऊँगी और जाने से मना कर दूँगी।

अब यदि मनोचिकित्सक मेरे लम्बे समय तक पीडि़त होने की मेरे पति की शिकायतों का समर्थन करता है, तो निश्चित रूप से मेरे पास अपने तरीकों की त्रुटि को देखने और उन्हें दूर करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। जैसे ही पति के मुँह से मेरी शिकायतों का पिटारा निकला, उनकी आवाज़ तब तक नहीं रुकी जब तक सब कुछ कह नहीं दिया- ‘डॉक्टर साहब! वह बहुत जल्दी तनाव में आ जाती हैं। अगर मैं तेज़ी से गाड़ी चलाता हूँ, या अगर लडक़े लड़ रहे होते हैं।’ अब तक मुझे एहसास हो गया था कि यह उनके लिए भी अच्छा नहीं रहेगा। मैं मुस्कुराते हुए, अपनी बाहों को बाँधते हुए इत्मीनान से आराम की मुद्रा में कुर्सी पर बैठ गयी, जैसे कोई अच्छा निश्चिन्त दर्शक बैठता है। मनोचिकित्सक ने मुडक़र मेरे पति को अविश्वास से देखा, उनकी नज़र मेरे पति को डगमगा देने के लिए काफी थी। उसकी ओलती बन्द ही हो गयी, जब मनोचिकित्सक ने कहा- ‘क्या आपको पता है कि बाहर (विदेश में) वे बहुत समझदार हैं? यही कारण है कि वे किसी को भी अकेले नहीं जाने देते, सिवाय रोगी को डॉक्टर के पास परामर्श लेने के जाने के। वे ध्यान नहीं भटकाते। यहाँ तो कोई भी मरीज़ के साथ-साथ चल सकता है।’ जब मैं इस सारी बातचीत का आनन्द ले रही थी, उसका जूनियर भीतर आया और उसे अन्य मरीज़ों के साथ अप्वाइंटमेंट की याद दिलायी। अनिच्छा के साथ उन्होंने मेरे पति को छोड़ हमारी तिकड़ी के तीसरे सदस्य, हमारे दोस्त को देखा। राहत से भरे मेरे कमज़ोर पड़ गये पति ने अपने माथे का पसीना पोछने के लिए जेब से रूमाल निकाल लिया। उसके बाद उनके मुँह से एक शब्द नहीं निकला।

डॉक्टर ने मेरे दोस्त की तरफ रुख किया- ‘तुम क्या करते हो?’ दोस्त ने जवाब दिया- ‘मैं जीवन कौशल प्रशिक्षक हूँ।’ उन्होंने कहा- ‘हाँ, बहुत खुशी हुई। लेकिन इसका क्या फायदा? आप अपने दोस्त को कोई भी जीवन कौशल प्रदान करने में सक्षम नहीं हैं; वह सो नहीं सकती।’ यह कहते डॉक्टर ने मेरी तरफ इशारा किया। मेरी मित्र ने अपनी शॄमदगी छिपाने की कोशिश की; लेकिन समझदारी दिखाते हुए कोई जवाब नहीं दिया। उन्होंने हमें कुछ और व्याख्यान दिये, मेरे लिए कुछ नुस्खा लिखा और हमें विदा कर दिया। जब हम घर लौटे, तो मेरे पति बहुत शान्त और हतोत्साहित थे। जिसे उन्होंने आसान समझ लिया था, वो अखरोट उनके लिए बहुत कठोर साबित हुआ था। और यह तो पत्नी को वश में करने के लिए उनकी तुरुप का पत्ता था; लेकिन अफसोस वह मौका चूक गये थे।

‘इतनी चिन्ता मत करो, दवा काम करेगी, यह कहकर मैंने उन्हें खुश करने की कोशिश की, मन-ही-मन हॢषत होते हुए कि मेरी रातें अभी भी सुरक्षित थीं; लेकिन मेरी असामाजिक गतिविधियाँ बगैर सज़ा के जारी रह सकती हैं। घर पर अब मेरे खिलाफ कम ही युद्ध होंगे और मेरी खोई नींद मेरी मानसिकता को ग्रहण लगाने के लिए जल्द ही वापस आने वाली नहीं थी। मेरे दयनीय पति का सम्भवत: एक ज़्यादा बड़े अखरोट से सामना हो गया था! एक मनोचिकित्सक से मदद की उन्हें शायद मुझसे ज़्यादा ज़रूरत थी।