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लॉकडाउन में महिलाओं पर विकट आॢथक मार

पूरी दुनिया में फैली महामारी कोविड-19 ने महिलाओं को विकट आॢथक संकट में डाल दिया है। अगर हम केवल भारत की बात करें, तो यहाँ अधिकतर कामकाजी महिलाएँ, खासतौर पर निचले तबके की महिलाएँ बहुत परेशान हैं। इनमें अधिकतर वे महिलाएँ हैं, जो कहीं कोई नौकरी करती थीं या घरों से ही छोटा-मोटा काम करती थीं। भारत की मध्यम और निम्न वर्गीय महिलाओं की आॢथक कमर तो करीब साढ़े तीन साल पहले हुई नोटबन्दी ने ही काफी तोड़ दी थी, अब बचे-खुचे सुकून को इस महामारी ने नष्ट कर दिया। इस लॉकडाउन में लाखों महिलाओं का रोज़गार छिन जाने के कारण उनकी परेशानी इतनी बढ़ गयी है कि वे अब किसी भी हाल में नौकरियाँ पाना चाहती हैं। सबसे ज़्यादा परेशान वे महिलाएँ हैं, जिनके घर वालों की न तो बहुत अच्छी नौकरी थी और न बहुत अच्छी कमायी। इनमें अधिकतर ऐसी हैं, जो या तो लोगों के घरों में जाकर काम करती थीं या फिर चार-पाँच हज़ार से लेकर 10 हज़ार महीने तक की ही नौकरी करती थीं।

बेरोज़गार हुई महिलाओं की व्यथा

गुजरात में रहने वाली दीपा सिंह कहती हैं कि वह और उनके पति एक कम्पनी में नौकरी करते थे। जब से लॉकडाउन हुआ है, तबसे दोनों लोग घर पर बैठे हैं। उनके घर में दो ही लोग कमाने वाले हैं। एक बूढ़ी बीमार सास और तीन बच्चों तथा मियाँ-बीवी का खर्च हम दोनों की सेलरी से ही चलता था; लेकिन अब करीब चार महीने से नौकरी न होने के कारण बहुत मुश्किल में फँसे हुए हैं। अगर ऐसा ही रहा, तो एक दिन ऐसा आयेगा कि भूखों रहने की नौबत आ जाएगी। यहीं रहने वाली कुसुम कहती हैं कि उनके पति ऑटो रिक्शा चलाते थे, जिससे उनका गुज़ारा नहीं होता था, इसलिए उन्होंने घर बैठे सिलाई का काम शुरू कर दिया था। जबसे लॉकडाउन हुआ है न तो उनके पति का काम चल रहा है और न ही उनका। दो बच्चे हैं, दोनों प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं। स्कूल वाले हर महीने की फीस वसूल रहे हैं। जो कुछ जमा पूँजी थी, वह भी धीरे-धीरे खत्म हो गयी है। अब घर की आॢथक हालत खराब होने लगी है। दिल्ली में रहने वाली ङ्क्षरकी कहती हैं कि अपने दो बच्चों के साथ वह किराये के मकान में रहती हैं। पाँच साल पहले उनके पति एक दुर्घटना में चल बसे थे। तबसे बच्चों को पालने के लिए वह नौकरी कर रही थीं। मगर लॉकडाउन होते ही उनकी नौकरी चली गयी। अब वह विकट परेशान हैं। कई जगह नौकरी की तलाश में जा चुकी हैं। मगर कम्पनियों से यही जवाब मिल रहा है कि अभी उनके पुराने लोगों के लिए ही काम नहीं है। अगर कहीं कोई नौकरी मिल भी रही है, तो कोई भी छह-सात हज़ार से ज़्यादा वेतन देने को तैयार ही नहीं है।

जमा पूँजी खत्म, चढ़ रहा कर्ज़

महिलाओं की आदत होती है कि वे कुछ-न-कुछ बचत ज़रूर करती हैं। उनकी यह बचत कई बार घर में ज़रूरत के समय काम आती है। लेकिन लॉकडाउन में घर के कमाऊ लोगों की कमायी कम होने या नौकरी चले जाने के कारण महिलाओं की बचत पर घर के खर्चों का काफी बोझ बढ़ा है। रियाना नाम की एक महिला कहती हैं कि उनके पति उन्हें हर महीने एक हज़ार रुपये बैंक में जमा करने को देते थे। इसके अलावा उन्हें जो घर खर्च मिलता था, उसमें से वह हज़ार-पन्द्रह सौ रुपये हर महीने बचा लेती थीं। इस तरह उनके पास हर महीने करीब डेढ़े से दो हज़ार रुपये जुड़ जाते थे। पहले नोट बन्दी में उन्हें बड़ी मुश्किल हुई और जैसे-तैसे उन्होंने अपने पास घर की गुल्लक में जोड़े हुए 11 हज़ार रुपये बदलवाये। लेकिन इस बार तो उनकी बचत पर सीधा असर पड़ा है। क्योंकि उनके पति तीन महीने से घर पर बैठे हैं, जिससे उन्हें वेतन नहीं मिल रहा है। ऐसे में उन्हें हर महीने मिलने वाला पैसा तो मिलना बन्द हो ही गया, उनकी बचत भी घर में खर्च हुई है। किराये पर रहने वाली संजू कहती हैं कि उनके पास तो कोई बड़ी सम्पत्ति या ज़मीन भी नहीं है। उनके पिता एक गरीब आदमी थे, इसलिए मेरी शादी भी एक ऐसे घर में हुई, जिसमें कमाने-खाने के लिए नौकरी का ही सहारा था। मेरे पति एक कपड़ा फैक्ट्री में कटिंग मास्टर थे, अब वहाँ काम न होने के कारण उनकी नौकरी जा चुकी है। मकान मालिक किराया छोडऩे को राज़ी नहीं है। हम तीन महीने से किराया नहीं दे पाये हैं। मकान मालिक हर रोज़ पैसे माँगता है। मेरे कान के कुण्डल भी गिरबी पड़ चुके हैं। हमारे पास और कोई साधन नहीं है। बहुत परेशानी में हैं, समझ नहीं आ रहा कि क्या करें? मेरी सरकार से विनती है कि हम जैसे लोगों को काम की व्यवस्था करे; ताकि पैसे की तंगी से बचा जा सके और कर्ज़ा उतारा जा सके।

ऐसी अनेक महिलाएँ हैं, जो लॉकडाउन के बाद आॢथक तंगी से गुज़र रही हैं। इनमें अधिकतर वे हैं, जिनके परिवार की माली हालत पहले ही बहुत अच्छी नहीं थी। लेकिन अब और ज़्यादा खराब हो गयी है। मुश्किल यह है कि अभी भी अधिकतर उद्योग धन्धे, कम्पनियाँ और संस्थान बन्द हैं। अगर कुछ खुल भी रहे हैं, उनमें पहले से काम करने वाले सभी लोगों के लिए काम ही नहीं है। उसमें भी महिलाओं के लिए तो काम की पहले से ही कमी है।

एक डर, जो नहीं जा रहा

वहीं घरों में काम करने वाली महिलाओं की समस्या तो और बढ़ गयी है। क्योंकि ज़्यादातर लोग अब घरों में खुद काम करने लगे हैं। इसका कारण उनकी कमायी का घटना भले ही न हो, क्योंकि घरों में काम वाली बाई रखने वाले अधिकतर लोग पैसे वाले ही होते हैं; लेकिन कोरोना वायरस के संक्रमण का डर उनके मन में ज़रूर है। जिसके चलते अनेक लोग अपने घरों में काम करने वाली बाइयों को हटा चुके हैं और अभी काम पर बुलाने से डर रहे हैं। रईस परिवार से आने वाली बबिता शर्मा ने बताया कि उनके घर में काम करने के लिए हमेशा से दो नौकरानी रहीं हैं; एक साफ-सफाई करने वाली और दूसरी खाना बनाने वाली। कोरोना वायरस के चलते उन्होंने पहले दो महीने तो दोनों को ही छुट्टी दे दी और अब दो नौकरानियों में एक को, जो साफ-सफाई करती है; काम पर वापस बुलाया है। मगर अभी खाना बनाने वाली बाई को नहीं बुला रहे हैं; क्योंकि अभी कोरोना वायरस का खतरा टला नहीं है। इसी तरह मधु कौशिक भी कोरोना वायरस के डर से अपने घर में काम करने वाली बाई को छुट्टी दे चुकी हैं। उनका कहना है कि कोरोना वायरस एक छूत की बीमारी है। ईश्वर न करे, अगर रास्ते में आते-जाते उनके घर में काम करने वाली बाई संक्रमित हो जाए, तो वह उनके परिवार में भी संक्रमण फैला सकती है। वैसे भी सरकार और स्वास्थ्य मंत्रालय की गाइडलान यही कहती है कि हमें सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना चाहिए। ऐसे में रिस्क क्यों लेना? काम तो खुद भी कर सकते हैं। लेकिन अगर इस महामारी के चपेट में कोई आ गया, तो लेने के देने पड़ जाएँगे।

रिसर्च पेपर लिखने वाली केवल 34 फीसदी महिलाएँ

कोविड-19 के तेज़ी से फैलने के कारण विश्व भर में उच्च शिक्षा में विभिन्न यूनिवॢसटीज में रिसर्च करने वाली छात्राओं की संख्या में तेज़ी से गिरावट आयी है। बीएमजे ग्लोबल हेल्थ द्वारा रिसर्चर पर किये गये एक अध्ययन के मुताबिक, कोरोना वायरस के संक्रमण फैलने के बाद जनवरी, 2020 से जून के पहले सप्ताह तक कोविड-19 को लेकर 1,445 पेपर्स पर रिसर्च करने वालों पर अध्ययन किया गया; जिसमें पाया गया कि रिसर्च पेपर लिखने वाली छात्राओं/महिला लेखकों में से केवल 34 फीसदी ने ही भाग लिया। इसकी वजह जानने के लिए पिन्हो गोम्स और उनकी टीम ने कुछ कारण भी बताये हैं।

उनका मानना है कि कोविड-19 एक ऐसा विषय है, जिसके बारे में महिलाओं के मुकाबले पुरुषों का अध्ययन ज़्यादा है। इसका एक कारण महिलाओं पर परिवार के बोझ का बढऩा भी है। क्योंकि बाहर रहने वाले पुरुष से लेकर बच्चे तक घरों में कैद हैं, जिसके चलते महिलाओं पर घरेलू काम का बोझ बढ़ा है। यह इस वजह से भी हुआ है, क्योंकि अधिकतर लोगों को उनके घरों में काम करने वाले लोगों को महामारी के चलते छुट्टी देनी पड़ी है। इसी के चलते महिलाओं को रिसर्च पेपर लिखने के लिए समय कम मिला। रिसर्च संस्थानों पर हाल ही में किये गये इस अध्ययन के मुताबिक, कोरोना वायरस के चलते बीते कुछ महीनों के दौरान रिसर्च पेपर लिखने वाली छात्राओं की संख्या में तेज़ी से कमी आयी है और कोरोना वायरस के संक्रमण के फैलने के बाद अब तक केवल एक-तिहाई छात्राओं ने रिसर्च पेपर लिखे हैं, जिनकी संख्या महज़ 34 फीसदी है। अध्ययन में यह भी कहा गया है कि रिसर्च पेपर न लिखने वाली इन छात्राओं में वरिष्ठ मानी जाने वाली अनेक महिला लेखक भी हैं। रिसर्च प्रोफेशनल न्यूज में यूनिवॢसटी ऑफ ऑक्सफोर्ड की रिसर्चर छात्राओं की मौज़ूदगी के बिना रिसर्च पेपर लिखे जाने में निश्चित तौर से कमी मानते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अगर इसे देखें, तो महिलाओं द्वारा लिखे रिसर्च पेपर को यूनिक मानकर खास महत्त्व दिया जाता है। क्योंकि महिलाओं की उपस्थिति की वजह से रिसर्च का डाटा बेस हाई रहता है। इसके अलावा रिसर्च पेपर में महिलाओं की भारीदारी भी पुरुषों की तरह ही ज़रूरी है। महिलाओं का रिसर्च पेपर न लिखना एक चिन्ता का विषय है, जिसे सरकारों और रिसर्च संस्थानों को गम्भीरता से लेना चाहिए और महिलाओं को इसके लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।

822 किलो गांजे की खेप के साथ एक गिरफ्तार, ट्रक भी जब्त

नशा तस्करों के खिलाफ हरियाणा की  मेवात पुलिस को बड़ी कामयाबी हाथ लगी है। पुलिस ने एक आरोपी को 822 किलो गांजा के साथ गिरफ्तार किया, जबकि दूसरा आरोपी फरार हो गया। फिलहाल पुलिस ने ट्रक व गांजा को कब्जे में लेकर आरोपी के खिलाफ मामला दर्ज कर जांच शुरू कर दी है।
पुन्हाना के उपपुलिस अधीक्षक विवेक चौधरी ने बताया कि रविवार शाम को पुलिस को सूचना मिली की एक ट्रक भारी मात्रा में गांजा भरकर पिनगवां की ओर आ रहा है। खुफिया सूचना के अनुसार, पिनगवां थाना प्रभारी चंद्रभान की अगुवाई में शाह चोखा नहर पुल के पास नाकाबंदी की गई। उसी दौरान पुन्हाना की तरफ से ट्रक नंबर आरजे-14-जीजे-5944 आया। जिसे पुलिस ने रुकने का इशारा किया। ट्रक चालक ने भागने की नीयत से सामने खड़ी पुलिस टीम को देखकर ट्रक को नाका से पहले ही अंदर एक गांव की ओर मोड़ दिया।
पुलिस को शक हुआ, जिससे ट्रक का पीछा किया। पुलिस गाड़ी आती देख ट्रक रोककर उससे  दो युवक कूदकर गांव फलेंडी की तरफ भागे। पुलिस ने पीछा कर एक युवक को दबोच लिया। दूसरा अधेंरे का फायदा उठाकर फरार हो गया। पकड़े गए युवक की पहचान साहिल पुत्र अब्बास निवासी सारे कलां जिला अलवर राजस्थान के तौर पर हुई।
डीएसपी विवेक चौधरी ने बताया कि ट्रक मे रखे कुल 26 प्लास्टिक की बोरियों को खोलकर देखा तो पाया कि उनमें 822 किलो 350 ग्राम गांजा बरामद हुआ।  पुलिस ने आरोपियों के खिलाफ थाना पिनगंवा में मुकदमा दर्ज करके जांच शुरु कर दी है। आरोपी साहिल से पूछताछ की जा रही है।

गलवन में चीन और भारत की सेनाएं पीछे हटीं, ‘बफर जोन’ बनाया, शांति की पहल

तनाव के बीच लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर गलवन में भारत और चीन ने सोमवार को सकारात्मक रुख दिखाते हुए अपनी-अपनी सेना पीछे की है और दोनों पक्षों के सैनिकों के बीच एक ”बफर ज़ोन” बना दिया गया है।

जानकारी के मुताबिक बातचीत के एक लंबे दौर के बाद चीन की सेना की सेना गलवन घाटी में कमसे कम डेढ़ किलोमीटर पीछे हटी है, जबकि उसने वहां से अपने कुछ तंबू भी हटा लिए हैं। पता चला है कि दोनों देशों के सैन्य अधिकारियों के बीच तीन चरणों की कमांडर स्तर की बातचीत के अलावा भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल की चीन के विदेश मंत्री वांग यी के साथ बातचीत हुई है, जिसके बाद यह फैसला किया गया। दोनों ने क्षेत्र में शांति बनाये रखने पर एक जैसा रुख दिखाया।

चीन के विदेश मंत्रालय ने एक ब्यान जारी करके कहा है -”शांति स्थापित करने के लिए अग्रिम मोर्चे पर कुछ कदम उठाए गए हैं, और सैनिकों को हटाने की प्रक्रिया शुरू हुई है।” याद रहे पिछले महीने १५ तारिख को भारत और चीन के सैनिकों के बीच खूनी भिड़ंत हो गयी थी जिसमें भारत के २० सैनिकों के शहीद होने की जानकारी सेना की तरफ से दी गयी थी। चीन के कितने सैनिक इस झड़प में मरे, इसका आजतक सही-सही खुलासा नहीं हो पाया है, जबकि कुछ रिपोर्ट्स में चीन के ४० से ज्यादा सैनिक मरने की बात कही गयी थी।

अब ताजा घटनाक्रम यह है कि लगातार बातचीत का बेहतर नतीजा निकला है और दोनों देशों ने अपनी-अपनी सेनाएं पीछे करने का फैसला किया है। चीन की तरफ से गलवन में उस स्थल से अपने तंबू हटाने की रिपोर्ट्स भी हैं। साथ ही वहां दोनों पक्षों के सैनिकों के बीच एक ”बफर ज़ोन” बना दिया गया है।

यह स्थान एलएसी पर झड़प वाली जगह से पेट्रोल पॉइंट १४ है, जहां से चीनी सेना डेढ़ किलोमीटर पीछे हटी है। भारतीय जवान भी पीछे आ गए हैं। रिपोर्ट्स में बताया गया है कि चीनी सैनिकों ने गलवान नदी के मोड़ से हटना शुरू कर दिया है और अस्थायी ढांचों और तंबूओं को हटाया है। यह भी कहा गया है कि यह प्रक्रिया सिर्फ गलवान घाटी तक में सीमित है।
याद रहे तीन दिन पहले पीएम नरेंद्र मोदी ने अचानक लेह इलाके का दौरा किया था और भारतीय सैनिकों को संबोधित किया था। उन्होंने बिना नाम लिए चीन की विस्तारवादी नीति पर प्रहार किया था और कहा था-  ”विस्तारवाद की उम्र खत्म हो गई है। यह विकास का युग है। इतिहास गवाह है कि विस्तारवादी ताकतें या तो हार गईं या वापस लौटने को मजबूर हो गईं।”

कोरोना का कहर कहें या डर कि जनता सामान को जमा करने में लगी है

जैसे –जैसे कोरोना का कहर देश में लोगों के बीच डर बढा रहा है, वैसे- वैसे लोगों में इस बात की चिंता हो रही है। कि अगर कोरोना के बढने का सिलसिला ऐसी ही जारी रहा ,तो देश में मंहगाई बढ सकती है और आवश्यक खाद्य वस्तुओं का टोटा पड सकता है।लोगों के बीच ये बात आम हो चुकी है कि कोरोना कहर और चीनी युद्ध होने की संभावना को लेकर देश में तमाम चीजों की दिकक्त हो सकती है। ऐसे में अब लोगों ने बाजारों से सामान लेकर में घर में जमा करना शुरू कर दिया है।वहीं व्यापारियों ने भी जमा खोरी शुरू कर दी है।इस समय देश के गांवों में ब्रांडेड कंपनियों के सामान और खाद्य पदार्थो का टोटा देखा जा सकता है। तहलका संवाददाता ने उत्तर –प्रदेश, मध्य-प्रदेश और दिल्ली के व्यापारियों से बात की तो उन्होंने बताया कि सरकार के तमाम दावे कर रही है । कि किसी प्रकार की कोई दिक्कत जनता को नहीं होगी । फिर भी जनता सामानों को जमा करने में लगी है। दालों के दामों में बढोत्तरी को लेकर लोगों में ये संदेश साफ गया है कि कोरोना का कहर रूक नहीं रहा है और कहीं फिर से कोई व्यापक स्तर पर लाँकडाउन लागू ना हो जाये। मौजूदा दौर में हालात ये है कि कोई कुछ भी कहे पर आम जन मानस अंदर से हिला है और डरा भी है कि कहीं कोई कोरोना के कारण संकट ना आ जाये ।इस बारे में व्यापारी सुरेश गुप्ता का कहना है कि सरकार की नीतियों में स्पष्टता का अभाव है जिसके कारण देश में चारों ओर असमंजस का वातावरण है कि कहीं कोई महगांई की मार जनता को परेशान में ना डाल दें इसके कारण जनता सामानों को जमा कर रही है। कहीं कोई दो महीनें के लिये तो कोई चार महीनों के लिये । दिल्ली के थोक व्यापारी राकेश यादव का कहना है कि सरकार की नीतियों को लेकर जनता और व्यापारी दोनों ही गुमराह है, क्योंकि सरकार कहती है कि नवम्बर तक  गरीब जनता को अनाज फ्री दिया जायेगा। ऐसे में जनता का एक तबका ये समझता है कि देश में कोरोना का संकट है, तो ऐसे में मध्यम वर्गीय तबका अपने आप को असुरक्षित मानकर अपनी हैसियत के मुताबिक सामान को जमा कर रही है। सबसे चौकानें वाली बात ये सामने आयी है कि रेलों के ना चलने से सामानों का संकट गहराता जा रहा है। व्यापारी कौशल दास का कहना है कि अगर रेलों को अब ना चलाया गया तो वो दिन दूर नहीं जब गांवों में बडी और ब्रांडिड कंपनियों का सामान ना के बराबर देखने को मिलेगा। अभी भी नामी –गिरामी कंपनियों का सामान बाजारों से गायब है। जो एक मंहगांई का कारण बन सकती है।

कहीं खसरा न बन जाए खतरा

बच्चे वोट बैंक वाली सूची में शामिल नहीं हैं, लिहाज़ा उनकी समस्याओं को राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा-पत्र में अधिक तरजीह नहीं दी जाती है। बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा व कल्याण से जुड़े कार्यक्रमों, नीतियों पर अक्सर गम्भीर चर्चा, विश्लेषण का क्षेत्र व जगह बहुत ही कम नज़र आती है। कोविड-19 महामारी के कारण दुनिया भर में करीब आठ करोड़ बच्चों को बचपन में लगाये जाने वाले सामान्य वैक्सीन (टीका) से भी वंचित रहना पड़ रहा है।

कोविड-19 के चलते विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का नाम जानने वालों की संख्या में आज पहले की तुलना में इजाफा ही हुआ होगा, विश्व स्वास्थ्य संगठन कोविड-19 को लेकर रोज़ लोगों तक सूचनाएँ पहुँचाने व दुनिया की जनता को इस बारे में अपडेट करने का काम भी कर रहा है। लेकिन क्या लोगों को यह जानकारी है कि डब्ल्यूएचओ ने ही आठ करोड़ बच्चों वाली जानकारी दी है। इसी डब्ल्यूएचओ ने बताया है कि इस महामारी ने कम-से-कम 68 मुल्कों में टीकाकरण कार्यक्रम को बाधित किया है। एक वर्ष से कम आयु के आठ करोड़ बच्चे इन मुल्कों में रहते हैं। डिब्ल्यूएचओ, यूनिसेफ और गावी, वैक्सीन एलांइस ने विश्व को आगाह किया है कि कोविड-19 विश्व भर में ज़िन्दगियों को बचाने वाली टीकाकरण सेवाओं में बाधा डाल रहा है तथा अमीर व गरीब मुल्कों में डिप्थीरिया, खसरा और पोलियो जैसी बीमारियों का खतरा लाखों बच्चों की ज़िन्दगी पर मँडरा रहा है। मार्च से दुनिया भर में बाल्यावस्था सम्बन्धित नियमित टीकाकरण बाधित हुआ है।

डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक डॉ. टैड्रोस अदनोम ग्रेयसस का कहना है कि टीकाकरण जन स्वास्थ्य के इतिहास में रोग रोकथाम के लिए शक्तिशाली व मूलभूत औज़ारों में से एक है। कोविड-19 महामारी के कारण बाधित हुए टीकाकरण कार्यक्रम से वैक्सीन से निवारण योग्य खसरा सरीखे रोगों में दशकों से हुई प्रगति पर खतरा मँडरा रहा है। कोरोना से कई बीमारियों के रोकथाम अभियान को काफी नुकसान पहुँचा है। यूनिसेफ की कार्यकारी निदेशक हेनरीइटा फोरे ने इस संदर्भ में कहा- ‘हमारे पास खसरा, पोलियो और हैज़ा रोकथाम के लिए प्रभावशाली वैक्सीन हैं। जबकि हो सकता है कि हालात के मद्देनज़र कुछ टीकाकरण प्रयासों को अस्थायी तौर पर रोकाना पड़े। उन टीकाकरण को (जहाँ तक सम्भव हो), जल्द ही फिर से शुरू करना चाहिए; क्योंकि हम एक महामारी की दूसरी महामारी से अदला-बदली नहीं कर सकते।’

अगर मौज़ूदा वक्त में बच्चों को तय समय सीमा में टीकाकरण सेवाएँ मुहैया नहीं करायी गयीं। अगर बच्चे उनसे वंचित रह रहे हैं, तो इसकी बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। कोविड-19 ने 68 मुल्कों में टीकाकरण कार्यक्रम को प्रभावित किया है। 38 मुल्कों में पोलियो अभियान को रोक दिया गया है और 27 मुल्कों में खसरा अभियान निलंबित कर दिया गया है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, खसरे से सम्बन्धित टीकाकरण का अभियान सबसे अधिक बाधित हो गया है। गौरतलब है कि बीते साल खसरे के टीकाकरण के विरोध में कई मुल्कों में अभिभावकों ने प्रदर्शन किये थे। इस कारण भी इसके अभियान में रुकावट आयी थी, जिसके चलते विश्व भर में खसरे के मामले बढ़े थे। इस दौरान तकरीबन 1,40,000 लोगों की मौत हो गयी थी; जिनमेें बच्चे अधिक थे। टीकाकरण सेवाएँ बाधित होने के कई कारण हैं। कुछ अभिभावक मूवमेंट सीमित होने के कारण घरों से बाहर निकलने को अनिच्छुक हैं। कुछ जानकारी की कमी होने के कारण और उनके मन में कोविड-19 वायरस के संक्रमण से सक्रंमित होने का डर भी बैठा हुआ है। और बहुत-से स्वास्थ्य कार्यकर्ता यात्रा पर पांबदियों के चलते उपलब्ध नहीं हैं या कोविड-19 के मरीज़ों की देखरेख में उनकी ड्यूटी लगी हुई है। यही नहीं, सुरक्षात्मक उपकरणों की कमी भी बाधा डालने वाले कारणों में से एक है। कोरोना से बचने के लिए सुरक्षात्मक उपकरणों की कमी के कारण टीकाकरण कार्यकर्ता भी पाबंदियों के दौरान टीकाकरण करने जाने से डर रहे हैं। यही नहीं लॉकडाउन के कारण वैक्सीन भी तय शेड्यूल में निर्धारित जगहों पर नहीं पहुँच रही हैं। यूनिसेफ ने इस पर अपनी चिन्ता जतायी है। कमॢशयल उड़ानों की संख्या भी कम हो गयी है और चार्टड प्लान की उपलब्धता भी सीमित ही है। यूनिसेफ ने इस समस्या को कम करने के लिए सरकारों, निजी सेक्टर, उड्यन उद्योग आदि से मदद की अपील की है कि इन जीवन रक्षक वैक्सीन के लिए िकफायती कीमतों पर माल ढुलाई वाली जगह खाली रखी जाए। यूनिसेफ का यह भी कहना है कि बच्चों को दिये जाने वाले टीकाकरण की उपलब्धता में पहले से ही असमानता थी, जिसे कोरोना संक्रमण ने और अधिक बढ़ा दिया है। दरअसल कोविड-19 ने बच्चों की दुनिया को प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों ही तरह से प्रभावित किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार, हर दो सेकेंड में एक बच्चे के साथ दुव्र्यवहार होता है; कोरोनाकाल में उनके साथ प्रताडऩा बढ़ गयी है।

बढ़ते संकट को रोकना ज़रूरी

ग्लोबल प्रिजन ट्रेंड रिपोर्ट, 2020 के अनुसार, संक्रमणकाल में दुनिया भर की जेलों में क्षमता से अधिक बंदियों की हालत दयनीय है, जिसमें बड़ी संख्या बच्चों की भी है। डिफेंस फॉर चाइल्ड इंटरनेशनल संगठन के अनुसार, बच्चों को हिरासत में लेना उनके खिलाफ संस्थागत हिंसा है। संकटकाल में ये हिंसा बढ़ती है जिसे रोका जाना समय की आवश्यकता है। भारत में यूनिसेफ की प्रतिनिधि डॉ. यास्मीन अली हक का कहना है- ‘इबोला संकट के हमारे अनुभव बताते हैं कि छोटे बच्चों के साथ हिंसा, दुव्र्यवहार और उपेक्षा होने की सम्भावना अधिक होती है। क्योंकि परिवार ज़िन्दगी से संघर्ष करने में व्यस्त रहते हैं, जिसका उन पर आजन्म प्रभाव पड़ता है।’ भारत की बात करें, तो महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा आपातकालीन सेवा घोषित किये गये चाइल्डलाइन-1098 ने बताया है कि अपै्रल में दो सप्ताह के लॉकडाडन के दौरान परेशान बच्चों के द्वारा की गयी कॉल की संख्या में 50 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गयी।

कोविड-19 के तहत ज़रूरी सेवाओं के रूप में बाल संरक्षण सेवाओं को नामित करने की तत्काल आवश्यकता है। प्रतिक्रिया में मानसिक स्वास्थ्य और मनोसामाजिक सहायता और वैकल्पिक देखभाल व्यवस्था सहित महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण और बाल संरक्षण सेवाओं का प्रावधान शमिल होना चाहिए। सबसे कमज़ोर बच्चों को, जिनमें प्रवासी और अनाथ बच्चे भी शमिल हैं; सुरक्षा निश्चित करने के लिए ये सेवाएँ सभी के लिए उपलब्ध होनी चाहिए।

ऑनलाइन प्रताडऩा

चाइल्ड वाइज संगठन का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान बच्चों को डराने-धमकाने की ऑनलाइन घटनाएँ बढ़ी हैं, पर सिर्फ 52 फीसदी अभिभवाकों ने ही बच्चों से ऑनलाइन सुरक्षा पर बात की। दरअसल कोरोना महामारी के कारण दुनिया के अधिकांश मुल्कों में काफी दिनों से स्कूल बन्द हैं। करोड़ों बच्चे घरों में ही बन्द हैं और घर पर ही रहकर ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं। ऑनलाइन पढ़ाई बच्चों के लिए नया खतरा भी बनती जा रही है। 30 मुल्कों में 60 फीसदी बच्चों को साइबर प्रताडऩा, गेमिंग डिसऑर्डर, ऑनलाइन अश्लील व्यवहार, फर्ज़ी खबरों व अन्य कई तरह की दिक्कतों को सामना करना पड़ रहा है। एक अनुमान कहता है कि ऐसे करीब एक अरब बच्चे हैं। एक अध्ययन के अनुसार, 60 फीसदी बच्चों में ऑनलाइन खतरों का पता चला है। 45 फीसदी बच्चे ऑनलाइन बुलिंग का शिकार हुए हैं। 39 फीसदी बच्चों ने ऐसा महसूस किया कि उनकी प्रतिष्ठा को चोट पहुँची है। 29 फीसदी बच्चों को ऑनलाइन अश्लील व हिंसक सामग्री प्राप्त हुई। 28 फीसदी बच्चों को साइबर घमकी मिली। यही नहीं, 13 फीसदी बच्चों में गेम खेलने का नशा पैदा हो गया। सात फीसदी बच्चों में सोशल मीडिया डिसऑर्डर के लक्षण नज़र आये। विश्व में कोविड-19 संक्रामक बीमारी होने के कारण सामाजिक दूरी, शारीरिक दूरी बनाये रखने पर अधिक ज़ोर दिया जा रहा है; लिहाज़ा शून्य सम्पर्क पर अधिक फोकस है। ऑनलाइन, डिजिटल साधन अपनाने के लिए सभी को प्रोत्साहित किया जा रहा है। यूनेस्को की रिपोर्ट के मुताबिक, स्कूल में पढऩे वाले 50 फीसदी बच्चों के पास कम्प्यूटर नहीं है। लेकिन जिनके पास कम्प्यूटर है, उनके स्क्रीन टाइम में अनियमित रूप से बढ़ोतरी देखी गयी है।

साइबर खतरे

कोविड-19 के कारण साइबर खतरों में इज़ाफा हो रहा है। कई शोध इस ओर इशारा करते हैं कि साइबर प्रताडऩा से आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती है। कोविड-19 महामारी ने जहाँ दुनिया के देशों को यह अहम संदेश दिया है कि उन्हें अपने स्वास्थ्यगत ढाँचे में अहम सुधार व स्वास्थ्य सेवाओं, व्यवस्था को बेहतर बनाने वाले बिन्दु को प्राथमिकता देने की ज़रूरत है; वहीं यह संकट दुनिया को यह संदेश भी दे रहा है कि महामारी, महासंकट के वक्त बच्चों की ज़िन्दगी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से कैसे प्रभावित होती है। गरीब, निम्न आय वाले मुल्कों के बच्चों, वंचित तबकों के बच्चों, दुर्गम स्थानों पर रहने वाले बच्चों पर तो गहरा असर पड़ता है।

भारत के सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की हालिया रिपोर्ट स्टेट ऑफ इंडिया एनवायरमेंट इन फिगर 2020 में कहा गया है कि 22 वर्षों में पहली बार वैश्विक गरीबी स्तर बढ़ेगा। विश्व की कुल आबादी का 50 फीसदी हिस्सा या तो लॉकडाउन में है या कनटेनमेंट जोन में है। पिछले कुछ महीनों से इनकी कमायी नहीं हुई है। जिसकी वजह से आने वाले कुछ महीनों में दुनिया भर के चार से छ: करोड़ लोगों को बेहद गरीबी में जीना पड़ेगा। क्योंकि वे अपनी कमायी का साधन खो चुके हैं। भारत में भी एक करोड़ 20 लाख गरीब जुड़ेंगे, जो दुनिया में सबसे अधिक हो सकते हैं। कोविड-19 महामारी दुनिया में गरीबी के स्तर को बढ़ायेगी, तो उससे बच्चों के स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा, विकास पर असर पडऩा स्वाभाविक है। इंटरनेशनल ब्यूरो फॉर चिल्ड्रेन राइट ने अपील की है कि नीति निर्माताओं को कोरोना संक्रमण से निपटने की योजनाओं में बच्चों के अनुभवों और दृष्टिकोणों को शमिल करना चाहिए।

विज्ञान की अमूर्त दुनिया और विवेक

कोविड-19 से सम्बन्धित तथ्यों को लेकर, जिस प्रकार के असमंजस की स्थिति है, उससे हममें से कई ङ्क्षककर्तव्यविमूढ़ हैं। अनेक लोगों को मीडिया, अपनी सरकारों और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे संगठनों के माध्यम से प्रचारित करवाये जा रहे अनेक तथ्यों पर संदेह हो रहा है। लेकिन हम प्राय: उन्हें सार्वजनिक मंचों पर रखने में संकोच महसूस कर रहे हैं।

अनेक बुद्धिजीवियों का कहना है कि वे समझ नहीं पा रहे हैं कि जो चीज़ें उनके सामने विज्ञान के हवाले से परोसी जा रही हैं, उन पर वे कैसे सवाल उठाएँ। इसका मुख्य कारण है कि हमने अकादमिक विशेषज्ञता को सहज-विवेक और अनुभवजन्य ज्ञान के साथ अन्योन्याश्रित रूप से विकसित करने के लिए कोई संघर्ष नहीं किया है। हम भूल चुके हैं कि विवेक को खरीदा नहीं जा सकता और अनुभव की प्रमाणिकता को खण्डित नहीं किया जा सकता, जबकि विशेषज्ञता अपने मूल रूप में ही बिकाऊ होती है और कथित विशुद्ध विज्ञान मनुष्यता के लिए निरर्थक ही नहीं, बल्कि बहुत खतरनाक साबित हो रहा है।

2007 का एक प्रसंग याद आता है। यह प्रसंग इसलिए अधिक प्रासंगिक है, क्योंकि इसका एक पक्ष कोविड-19 के भय को अपनी कथित मॉडलिंग से अनुपातहीन बनाने वाले इम्पीरियल कॉलेज से जुड़ा है; जबकि दूसरे का नाम कोविड के दौर में अपने शोध-पत्रों के लिए बार-बार समाचार-पत्रों में आ रहा है।

इम्पीरियल कॉलेज, लंदन के प्रोफेसर डेविड ङ्क्षकग उन दिनों ब्रिटेन की सरकार के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार थे। वे उन दिनों आनुवंशिक रूप से परिवर्तित खाद्यान्न (जीएम फूड) को ब्रिटेन सरकार द्वारा स्वीकृत करवाने के लिए प्रयासरत थे। जबकि ब्रिटेन में अनेक लोग इसका विरोध कर रहे थे। विरोध करने वालों कहना था कि वे अपने अनुभव से यह महसूस कर सकते हैं कि खाद्यान्न में किया गया आनुवंशिक फेरबदल न सिर्फ उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल रहा है, बल्कि यह पर्यावरण और जैव-विविधता के लिए भी खतरनाक है। जबकि ङ्क्षकग का कहना था कि विज्ञान से यह प्रमाणित हो चुका है कि परिवर्तित खाद्यान्न, गैर-परिवर्तित प्राकृतिक खाद्यान्न की तुलना में अधिक सुरक्षित हैं तथा जीएम (परिवर्तित) तकनीक ने दुनिया की बढ़ती आबादी का पेट भरने का एक सफल तरीका पेश किया है।

ब्रिटेन के पत्रकारों ने जब लोगों की चिन्ताओं को उठाया, तो डेविड ङ्क्षकग बिफर गये। उन्होंने विज्ञान पर सवाल उठाने के लिए मीडिया संस्थानों को खरी-खोटी सुनायी। उनका कहना था कि विज्ञान किसी भी समाज के (सुन्दर) भविष्य के निर्माण का संस्कार है। जिस हद तक हम वैज्ञानिकों और विज्ञान के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हैं, उससे समाज के अपने स्वास्थ्य का पता लगता है।

मेडिकल साइंस की दुनिया की सबसे पुरानी और प्रमुख पत्रिका द लान्सेन्ट के प्रधान सम्पादक रिचर्ड होर्टन ने ‘द गाॢजयन’ के 11 दिसंबर, 2007 अंक में इस प्रसंग पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए डेविड ङ्क्षकग की आलोचना की थी। रिचर्ड होर्टन ने उस समय जो कहा था, वह आज अधिक प्रासंगिक है। होर्टन ने लिखा था कि डेविड ङ्क्षकग को एकपक्षीय, सर्वसत्तात्मक नज़रिये से विज्ञान को नहीं देखना चाहिए। उन्हें यह समझना चाहिए कि विज्ञान प्रयोगों और समीकरणों की किसी अमूर्त दुनिया में मौज़ूद नहीं है। विज्ञान लोकतांत्रिक बहस की अराजकता का हिस्सा है।

हमने बाद में भारत के अनुभव से भी पाया कि परिवर्तित खाद्यान्न किस प्रकार खाने वालों के स्वास्थ्य और पर्यावरण व जैव विविधता के लिए तो खतरा हैं ही, वो किसानों को भी बर्बाद कर देते हैं। पिछले वर्षों में भारत में हज़ारों किसान बीटी कॉटन बीजों के कारण आत्महत्या करने पर मज़बूर हो गये। भारत व अन्य देशों में जीएम खाद्यान्न के दुष्प्रभावों के कारण इनके उत्पादन पर प्रतिबन्ध है। ब्रिटेन में भी सरकार ने प्रोफेसर ङ्क्षकग की बात नहीं मानी। वहाँ भी परिवर्तित खाद्यान्न आज तक प्रतिबन्धित है। विज्ञान ज्ञान के सतत् विकास का एक चरण है। या कहें कि आज उपलब्ध ज्ञान के घनीभूत रूप का एक नाम है। यह एक तरह से ज्ञान का व्यवहारिक पक्ष है। बहसों और विमर्शों से ही सुन्दर, कल्याणकारी विज्ञान का विकास हो सकता है।

विज्ञान का जन्म और विकास भी वैसे ही हुआ है, जैसे कभी धर्म का हुआ था। धर्म भी अपने समय में उपलब्ध सर्वोत्तम ज्ञान का घनीभूत रूप था। वह भी अपने समय के ज्ञान का व्यावहारिक पक्ष था। समस्या तब पैदा होती है, जब इनका प्रयोग शक्तिशाली तबका अपना हित साधने के लिए करने लगता है। यही धर्म के साथ हुआ था, यही आज विज्ञान के साथ हो रहा है।

दुनिया के कुछ सबसे अमीर लोग व संस्थाएँ विज्ञान की नयी-नयी खोजों के सहारे मनुष्य जाति को अपने कब्ज़े में लेना चाहती हैं। कोविड-19 के भय को अनुपातहीन बनाने में भी इन्हीं से सम्बद्ध संस्थाओं की भागीदारी सामने आ रही है।

धर्म या विज्ञान के समर्थन और विरोध का सवाल नहीं है। ऐसा कौन होगा, जो खुद को अधाॢमक कहना चाहेगा? ऐसा कौन होगा, जो स्वयं को अवैज्ञानिक कहना चाहेगा? लेकिन हम पंडा-पुरोहित, सामंतों-राजाओं से धर्म की मुक्ति के लिए लड़े हैं और हममें से कुछ ने नास्तिक कहलाने का खतरा उठाया है। कुछ ने धर्म से पीछा छुड़ाने के लिए खुद को सत्य का खोजी, तो कुछ ने आध्यात्मिक कहना पसन्द किया। कुछ लोग धर्म और अन्धविश्वासों में विज्ञान की तलाश करते हैं। मसलन, कुछ लोग कोविड-19 का इलाज गौमूत्र में तलाश रहे थे। यह मूर्खता हो सकती है, और इस तरह की हरकतों के मानवद्वेषी निहितार्थ भी होते हैं। लेकिन धर्म में विज्ञान की तलाश करना उतना बुरा नहीं है, जितना कि विज्ञान को धर्म बनाने की कोशिश करना। आप देखेंगे, जो लोग गौमूत्र से कोविड-19 का इलाज ढूँढ रहे थे, वे ही लॉकडाउन के दौरान सडक़ों पर डण्डा लेकर सबसे पहले विज्ञान का पालन करवाने निकले थे। जैसे धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल हुआ है, वैसे ही आज विज्ञान का राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है। मेरे एक सम्पादक मित्र ने कहा कि वह विज्ञान पर आस्था रखते हैं, इसलिए इस विषय पर मेरा लेख प्रकाशित करने में उन्हें थोड़ा संकोच हो रहा है। मैं उन्हें कहना चाहता हूँ कि आस्था से अधिक अवैज्ञानिक चीज़ कोई और नहीं है। हम विज्ञान की ओर इसलिए आये थे कि यह हमें विवेक और तर्क पर आधारित सत्य की खोज के लिए प्रेरित करेगा। अगर विज्ञान से हम आस्था ग्रहण कर रहे हैं, तो ज़रूर कोई भारी गड़बड़ है।

मनुष्यता की रक्षा के लिए हमें विज्ञान की मुक्ति के लिए संघर्ष छेडऩा चाहिए। खुद को विशुद्ध वैज्ञानिक सोच का कहना, कट्टर धार्मिक कहने के समान है। आज जब विज्ञान धर्म बनने लगा है, तो हमें दुनिया को सुन्दर बनाने के उसके दावों पर संदेह करना ही होगा।

भारत का एक उदाहरण 

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) खडग़पुर ने अपने संकाय सदस्यों को कहा है कि ऐसे किसी विषय पर न लिखें, न बोलें, जिसमें सरकार की किसी भी मौज़ूदा नीति या कार्रवाई की प्रतिकूल आलोचना होती हो। संस्थान ने अपने अध्यापकों को यह छूट दी है कि वे विशुद्ध वैज्ञानिक, साहित्यिक या कलापरक लेखन कर सकते हैं; लेकिन उन्हें इस प्रकार का लेखन करते हुए यह ध्यान रखना है कि उनका लेखन किसी भी प्रकार से प्रशासनिक मामलों को नहीं छुए।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दुनिया के उन प्रमुख संस्थानों में शुमार है; जिसके अध्यापकों को विज्ञान विषयक विशेषज्ञता के लिए जाना जाता है। भारत समेत, दुनिया के कई देशों में इन दिनों ऐसे प्रतिबन्ध लगे हुए हैं, जो आम लोगों के अनुभवजन्य ज्ञान और विवेक को ही नहीं, कथित विशेषज्ञों (मसलन, आईआईटी के उपरोक्त अध्यापकों) को भी सवाल उठाने से रोक रहे हैं। इसलिए मुख्य सवाल यह है कि किसके पक्ष का विज्ञान, किसके पक्ष की विशेषज्ञता, किसके पक्ष की पत्रकारिता को रोका जा रहा है? ईश्वर और धर्म की ही तरह विज्ञान और विशेषज्ञता की निष्पक्षता पर सिर्फ वही भरोसा कर सकते हैं; जो या तो उससे लाभान्वित हो रहे हों, या फिर मूर्ख या तोतारटंत हों।

हम सभी को सोचना होगा कि कोविड-19 के बहाने विमर्श और बहसों पर जिस समय रोक लगायी जा रही थी, जिस समय विशेषज्ञता और विज्ञान के नाम पर करोड़ों लोगों को बेरोज़गारी, भूख और बदहाली की ओर धकेला जा रहा था, उस दौरान हमारी ज़िम्मेदारी क्या थी? क्या हमने उसे पूरा किया है? अभी भी अवकाश है। क्या हम अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने का इरादा रखते हैं?

(लेखक असम विश्वविद्यालय के रवींद्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज में प्राध्यापक हैं और सबाल्टर्न अध्ययन तथा आधुनिकता के विकास में दिलचस्पी रखते हैं। डॉ. रंजन अनेक चर्चित पुस्तकें लिख चुके हैं और करीब दो दशक तक मीडिया संस्थानों में सेवाएँ दे चुके हैं।)

विधायकों की खरीद-फरोख्त का खेल, राजस्थान में हो गया फेल

विपक्ष की साजिश नाकाम करने के बाद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का चेहरा ही सारी कहानी कह रहा था। उनके चेहरे पर रंगों की सुनहरी आभा उतर आयी थी। 19 जून का दिन उनके लिए सबसे अभिमानास्पद दिन था। पिछले तीन महीनों से राज्य सभा चुनावों को लेकर अनहोनी की आशंकाओं के दहकते उफान को उन्होंने पत्रकारों के सामने अपने सिर पर पानी की बोतल उड़ेलते हुए धो डाला। उन्होंने कहा कि यह कांग्रेस की विचारधारा की जीत है। सभी विधायकों को बधाई! जिन्होंने भाजपा के लुभावने के प्रयासों के बावजूद हमारा समर्थन किया। हमने उन्हें विफल किया, जिन्होंने धनबल के आधार पर लोकतंत्र के खिलाफ साजिश रची। राजस्थान में अपनी ताकत के बूते तय दो सीटें जीतीं।

प्रदेश में राज्यसभा की तीन सीटों के चुनाव के लिए मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की बाड़ाबंदी सफल रही। कांग्रेस और सहयोगी दलों का एक भी वोट नहीं घटा। कांग्रेस के दोनों प्रत्याशी वेणुगोपाल और नीरज डांगी जीत गये, जबकि भाजपा के राजेन्द्र गहलोत तो जीत गये, किन्तु घोड़े के व्यापार की घात में चुनावी रेसकोर्स में उतारे गये ओंकारसिंह लखावत हार गयेे। निर्दलीय विधायकों की खरीद-फरोख्त के झंझावातों के बीच आस्तीनें चढ़ाती भाजपा के प्रतिपक्षी नेता राजेन्द्र सिंह राठौड़ आिखर सार्वजनिक इज़हार करते नज़र आये कि राज्य सभा चुनाव पूरा अंकगणितीय खेल है; लेकिन हमने अपना दूसरा उम्मीदवार खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा कि ऐसा पहली बार हुआ कि सरकार विपक्ष से डर गयी। यह हमारी रणनीति की सफलता है। भाजपा ने क्या वाकई निर्दलियों को रिझाने के लिए बड़े हौसले से तुरूप का पत्ता खेलते हुए सिक्कों की खनक दिखायी थी? राठौड़ इस बात की बडी बेबाकी से तस्दीक करते नज़र आते हैं। विश्लेषकों का कहना है कि मौका देखकर हमला करना भाजपा की पुरानी आदत है। लेकिन गहलोत को भी जादूगर यों ही तो नहीं कहा जाता। इससे पहले कि भाजपा पासे बिछाकर गोटियाँ मारने का दाँव चलती, गहलोत अपना काम कर चुके थे। 4 जून की दोपहर बाद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सत्ता पक्ष और समर्थन दे रहे विधायकों से फोन पर संक्षेप में बातचीत की। गहलोत ने कहा कि हमें राजनीतिक नियुक्तियों के बारे में चर्चा करने की ज़रूरत है। कृपया कल शाम तक बंगले पर पहुँचे; हम आवश्यक मंत्रणा करेंगे। मुख्यमंत्री गहलोत के इस रहस्यमय संदेश की खबर प्रदेश के भाजपा नेताओं को भी लगी। उत्सुक भाजपा नेताओं ने अपने सूत्रों से वजह जानने के लिए फोन भी किये, लेकिन सभी विधायकों ने अपने-अपने होंठ सिल लिये थे। 21 जून की शाम को सभी विधायक और मंत्री बैठक में शिरकत के लिए स्वाभाविक ढंग से मुख्यमंत्री निवास पर पहुँचे। मुख्यमंत्री ने सभी से एक-एक करके मुलाकात करते हुए कहा कि आपको यहाँ से सीधे होटल भिजवाने की व्यवस्था कर दी गयी है। अब राज्यसभा चुनावों तक वहीं रहना है। अपना ज़रूरी सामान मँगवा लें। सभी को पुलिस संरक्षण में होटल पहुँचाया गया।

बाड़ेबन्दी की सुगबुगाहट तक से बेखबर अचकचाये से विधायक जिस समय होटल पहुँच रहे थे, मुख्य सचेतक महेश जोशी एसीबी के डायरेक्टर जनरल से शिकायत कर रहे थे कि कर्नाटक, गुजरात और मध्य प्रदेश में भी चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने के लिए विधायकों को 25 करोड़ तक के ऑफर दिये जा रहे हैं। जोशी ने ऐसे तत्त्वों को चिह्नित कर उनके खिलाफ कार्रवाई की माँग करते हुए सूचना दी कि जयपुर में इस साजिश के तहत एक बड़ा कैश ट्रांसफर किया (पैसा भेजा) गया है। कांग्रेस में अचानक मची इस अफरातफरी की क्या वजह रही? जोशी ने हालात पर स्पष्टीकरण करते हुए कहा कि राजस्थान में भाजपा के पास जितने विधायक हैं, उसके हिसाब से वह एक ही सीट जीत सकती है; फिर दो प्रत्याशी क्यों खड़े किये गये? उन्होंने अंदेशा जताया कि क्या दूसरे प्रत्याशी को जिताने के लिए भाजपा जोड़-तोड़ नहीं करेगी? राजस्थान में कांग्रेस के चुनाव पर्यवेक्षक रणदीप सुरजेवाला ने दो टूक कहा कि भाजपा का जनमत में विश्वास नहीं है। उसका चरित्र ही चीरहरण करने का रहा है। इस पूरे मामले को लेकर विधानसभा में प्रतिपक्ष नेता राजेन्द्र राठौड़ काफी उग्र नज़र आये। तंज करने के अंदाज़ में उन्होंने कहा कि काग्रेस को अपने ही विधायकों के सम्भावित विद्रोह और आंतरिक गुटबंदी से मजबूर होकर यह कदम उठाना पड़ रहा है।

हालाँकि इस घटनाक्रम पर भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया आर-पार की भाषा बोलते नज़र आये। उन्होंने कहा कि दिल्ली के लोगों को इतनी फुरसत कहाँ हैं कि अनावश्यक मुद्दों को तवज्जो देने में समय गँवायें? लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि जब दो पारम्परिक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी एक ही मेज़बानी का आनन्द लेते हुए उसकी सीमाओं में दखलंदाज़ी करें, तो कोई हिन्डोले (झूले) में तो बैठा नहीं रह सकता। फिर यह तो कांग्रेस की सरहदों में भाजपा द्वारा तम्बू लगाने की कोशिश हो रही थी। भारतीय लोकतंत्र का विराट और रहस्यमय रसायन अनोखे तरीके से बदलाव के अनर्थकारी अंधड़ों का रुख मोड़ता रहा है। मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार को औंधा कर चुके अनिश्चितता के अपशकुनी गिद्ध ने पिछले दिनों राजस्थान की गहलोत सरकार की मुँडेर पर बैठने की कोशिश तो की, लेकिन चोंच मारने से पहले ही उसके डैने (पंख) उमेठ दिये गये। राजस्थान में राज्यसभा चुनाव के दौरान जो कुछ घटा, वह सूबे की मरुस्थलीय राजनीति में पहली बार था। इससे पहले देश ऐसे नज़ारे पिछले कुछ वर्षों में गोवा, कर्नाटक, उतराखण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और मध्य प्रदेश में देख चुका था। अब तक आयाराम-गयाराम की निर्लज्ज सियासी संस्कृति से दूर रहे राजस्थान में इसकी दस्तक राज्य सभा चुनावों में सुनायी दी।

एक नेता ने कहा कि दरअसल विधायकों की खरीद-फरोख्त का षड्यंत्र बड़े ही अनगढ़ और भदेस ढंग से बुना गया था। नतीजतन इसका रिसाव होते देर नहीं लगी कि भाजपा उप मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट केा रिझाकर सत्ता हथियाने की कोशिश में जुटी है। भाँडा फूटने के बाद बेशक साजिश के गिद्ध चोंच बन्द कर चुके थे; लेकिन मिमियाने से अब भी बाज़ नहीं आ रहे हैं कि अपने विधायकों पर ही भरोसा नहीं तो भाजपा पर तोहमत क्यों? सियासत के इस नामाकूल दौर में सयाने िकस्म के राजनीतिक योद्धा को क्या करना चाहिए था? इस मामले में गहलोत को किसी गर्वीली चेतावनी की दरकार नहीं थी। इतना अनुभव उनके पास उपलब्ध था, जिससे वह अपनी समझ और फैसलों पर गर्व कर पाते। नतीजतन विधायकों की बाड़ाबन्दी करते हुए दो टूक लफ्ज़ों में कह दिया कि सरकार के खिलाफ खुला षड्यंत्र रचकर विपक्ष के लोग विधायकों की खरीद-फरोख्त का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने खुफिया एजेंसियों की खबरों का हवाला देते हुए कहा कि जयपुर में दिल्ली से बड़ा कैश पहुँचा है। इस षड्यंत्र में केंद्र और राज्य के लोग शामिल हैं। विधायकों को खरीदने के लिए 35-35 करोड़ रुपये तक ऑफर किये गये हैं। इन आरोपों में कितना दम है? सूत्र इस खेल में केंद्रीय जल संसाधन मंत्री शेखावत की तरफ इशारा करते हैं। सूत्रों का कहना है कि इस पूरी कवायद में भाजपा नेताओं ने पूरी सावधानी बरती; ताकि इस बात की भनक भी न लगे कि पायलट कांग्रेस को धत्ता बताने जा रहे हैं। लेकिन प्रलय का खेल खेलने वाले इतिहास से गुफ्तगू नहीं कर पाये। नतीजतन शिद्दत से रचा गया फरेब कई गुना गम्भीरता से ध्वस्त हो गया कि भाजपा के पास एक ही सीट जीतने लायक विधायक थे और उसने प्रत्याशी दो खड़े किये। ज़ाहिर है कि भाजपा दूसरे प्रत्याशी को जिताने के लिए कांग्रेस में तोड़-फोड़ का जाल बुन चुकी थी। इससे पहले कि भाजपा की काठ की हाँडी चूल्हे चढ़ती, भाँडा फूट चुका था। बहरहाल भाजपा अपने हज़ार हाथों से सच छिपाने और भरमाने में जुटी है। लेकिन सच अँधेरे में नहीं छिपाया जा सकता। इसलिए भाजपा नेता गुलाब चंद कटारिया और प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया कूटनीतिक करवट लेते नज़र आये कि झूठे आरोपों के लिए कांग्रेस को कानूनी कार्रवाई भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। सूत्रों का कहना है कि करोड़ों लो, इस्तीफा दो’ की तस्दीक बड़े कैश ट्रांसफर के लिंक से हो चुकी थी। ऐसे में अब तो सब कुछ भाजपा को भुगतना था।

बहरहाल ताकत दिखाने की बाज़ीगरी में सचिन पायलट कहाँ खड़े थे? बेशक वह कहते नहीं अघाते कि बेवजह भ्रम फैलाया जा रहा है। किसी को चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है। बहुमत किसके पास है? सबको पता है। तो फिर पत्रकार रेणु मित्तल की इस बात को, जो उन्होंने एक खबरिया चैनल में मुख्यमंत्री गहलोत पर बरस-बरस कर कही; भाजपा तो केवल थाह ले रही थी। लेकिन गहलोत सचिन पायलट के विरुद्ध कहानियाँ गढऩे में जुटे हैं। सूत्रों का कहना है कि अगर लोकतंत्र में प्रश्नों का चिरंतन आयोजन ज़रूरी है, तो इस सवाल का जवाब भी होना चािहए कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा में लाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले भाजपा नेता जफर इस्माइल के साथ सचिन पायलट की गुप्त मंत्रणा का क्या मतलब था? एक खबरिया चैनल के उस दावे का क्या मतलब था, जिसमें कहा गया था कि सचिन पायलट अपने कुछ विधायकों को लेकर मानेसर जाने वाले थे। होटल बुक हो चुका था; लेकिन ऐन मौके पर विधायक ही बिदक गये। पायलट अपने बंगले में खास एकांत क्यों चाहते थे कि अपने स्टॉफ को छ: दिन के लिए छुट्टी पर भेज दिया। जयपुर का वह भाजपा सांसद कौन था? जिसके पास दिल्ली से वैन में भारी रकम पहुँची। लेकिन भनक लगने पर रकम दूसरे स्थान पर उतारी गयी।

सूत्र कहते हैं कि कांग्रेस की सरकार गिराने और अपने साथ बड़ी संख्या में विधायक ले जाने के बाद पायलट को केंद्र में कद्दावर मंत्री बनाने का प्रलोभन था। लेकिन पायलट की मंशा राजस्थान के मुख्यमंत्री बनने की थी। पायलट चाहते थे कि पुन: चुनाव लडक़र विधायक बनें और भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री बना दे। लेकिन भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने साफ इन्कार कर दिया। सूत्रों का कहना कि बावूजद इसके पायलट तैयार हो गये, तो इसलिए कि एक तो वह गहलोत को मुख्यमंत्री नहीं देखना चाहते थे। दूसरा उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाये जाने के कारण आलाकमान को सबक देना चाहते थे। लेकिन गहलोत की चतुराई और चौकस निगाहों ने शतरंज की बिसात को ऐसा उलटा कि भाजपा आइंदा शायद ही फिर उसे बिछाने की सोच पाये। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अव्वल तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस छोडक़र शामिल हुए सिंधिया गुट के 22 विधायकों का भविष्य आज भी अधर में है; जिसे देखते हुए राजस्थान का कोई भी विधायक जोखिम उठाने को तैयार नहीं था। दूसरा, अगर पायलट ने कांग्रेस छोड़ी भी, तो वह भी भाजपा में उसी तरह गुम हो जाएँगे जैसे समंदर में बुलबुले की कोई बिसात नहीं होती। बहरहाल राज्यसभा में चुनावों में मिली जीत के बाद अब गहलोत कांग्रेस की राजनीति का सबसे महत्त्वपूर्ण चेहरा हो गये हैं। गहलोत ने यह साबित कर दिया है कि मैनेजमेंट में उनसे बेहतर खिलाड़ी फिलहाल दूसरा कोई नहीं। विश्लेषक कहते हैं कि राजनीति को जो समझते हैं, वे जानते हैं कि उनके हर कदम का अपना कोई मतलब होता है। विश्लेषक गहलोत के एतिहाती कदमों पर गालिब का एक शे’र में पिरोते हुए कहते हैं-

‘तेरे वादे पर जिये हम, तो ये जान झूठ जाना,

कि खुशी से मर न जाते अगर एतबार होता।’

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले बगावत के सुर

वर्तमान निर्वाचित बिहार विधानसभा का कार्यकाल दिसंबर, 2020 में समाप्त हो जाएगा। इसके दो महीने पहले चुनाव सम्बन्धी प्रक्रिया शुरू होनी है। इसलिए अंदाज़ा है कि अक्टूबर-नवंबर में बिहार के विधानसभा चुनाव होंगे। हालाँकि चुनाव आयोग ने अभी मतदान की तारीखों की घोषणा नहीं की है, लेकिन बिहार में चुनावी हलचल होने लगी है।

अमित शाह तो बिहार में वर्चुअल रैली भी कर चुके हैं। इसके लिए उन्होंने पूरे बिहार में जगह-जगह 72,000 एलईडी भी लगवाये। शाह की इस रैली में तकरीबन 144 करोड़ का खर्चा हुआ। हालाँकि लॉकडाउन में मज़दूरों की दुर्दशा पर ध्यान न देने के बाद उनकी इस वर्चुअल रैली की लोगों ने जमकर निंदा की। और चीन द्वारा भारतीय सैनिकों पर हमले के बाद तो बिहार के लोगों का गुस्सा इतना बढ़ गया कि लोगों ने कई जगह एलईडी भी तोड़ डाले।

वहीं नीतीश कुमार की गाड़ी पर ईंट-पत्थर फेंके गये। इसका मतलब साफ है कि बिहार के लोग मौज़ूदा भाजपा-जद(यू) की गठबन्धन सरकार से खुश नहीं हैं।  इससे यह तो तय है कि सुशासन बाबू यानी नीतीश पहले की अपेक्षा लोगों के प्रिय नहीं रहे और उनकी धूमिल हुई है।

ऐसे में उनका फिर से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन होना थोड़ा मुश्किल है। लेकिन क्या उन्हें हराना इतना आसान होगा? क्योंकि शराबबन्दी करके नीतीश अधिकतर महिलाओं की समर्थन हासिल कर चुके हैं। लेकिन लॉकडाउन में मज़दूर वर्ग की उन्होंने काफी उम्मीदें भी तोड़ीं, जिससे न केवल गरीब, बल्कि मध्यम वर्ग और उनके पक्ष में खड़ा एक सम्पन्न तबका भी नीतीश के खिलाफ हो गया है।

सवाल यह है कि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) प्रमुख लालू प्रसाद यादव के जेल में जाने और हिंदुस्तान अवाम मोर्चा (हम) प्रमुख जीतनराम मांझी का प्रभाव कम होने के बाद अब कौन ऐसा है, जो जनता दल (यूनाइटेड) यानी जद(यू) प्रमुख और बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उर्फ सुशासन बाबू को टक्कर दे सके? क्योंकि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव में फूट डालकर, सरकार गिराकर भाजपा के साथ जद(यू) का गठबन्धन करके सरकार बनाने वाले सुशील मोदी जिस तरह सुशासन बाबू के समकक्ष रहकर इस बार बिहार के मुख्यमंत्री बनने के सपने देख रहे थे, उनके वो सपने तो चकनाचूर होते नजर आ रहे हैं।

यह इस वजह से है, क्योंकि लोगों का असली गुस्सा भाजपा के प्रति तो था ही, लॉकडाउन में सुशील मोदी ने ऊपर से यह और कह दिया कि प्रवासी मज़दूरों को बुलाने के लिए सरकार के पास बसें नहीं हैं। यही वजह है कि जनता के बीच उनकी छवि पहले से और खराब हो गयी। राजद की बात करें, तो महागठबन्धन में शामिल दलों द्वारा लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव को नीतीश के मुकाबिल खड़ा करके देखा जा रहा है। भाजपा छोड़ चुके दिग्गज नेता शत्रुघ्न सिन्हा तो लालू प्रसाद यादव से मिलकर यहाँ तक कह चुके हैं कि तेजस्वी यादव बिहार का भविष्य हैं। वैसे शत्रुघ्न सिन्हा के बयान को हल्के में नहीं लिया जा सकता। वे न केवल अनुभवी नेता हैं, बल्कि बिहार की बड़ी जनसंख्या उन्हें आज भी आदरभाव से देखती है और बिहार के गौरव के रूप में उनकी इ•ज़त करती है। यह बयान देकर उन्होंने एक तरह से बिहार के कम-से-कम 15 फीसदी मतदाताओं को तेजस्वी को अगले मुख्यमंत्री के रूप में देखने पर विचार करने का आह्वान कर दिया था। अब तेजस्वी पूरी तरह सक्रिय भी हो चुके हैं। लेकिन मांझी के महागठबन्धन से अलग होने की खबरें भी ज़ोर पकड़ रही हैं।

लेकिन जनता में तेजस्वी यादव की भी अपने पिता की तरह छवि नहीं है। माना कि वे युवा नेता हैं और युवाओं को उनसे काफी उम्मीदे हैं, लेकिन प्रौढ़ और बुजुर्ग तबका उन पर भरोसा नहीं कर पा रहा है। वहीं युवा वर्ग भी कई खेमों में बँटा हुआ है। शायद यही वजह है कि अब तेजस्वी यादव की नींद भी उचटने लगी है। उनकी नींद उचटाने वाले दो तथ्य हैं। पहला है बिहार के चुनाव का नज़दीक आना और दूसरा है- पप्पू यादव का बढ़ता वर्चस्व।

पहले वाले मामले में वे लॉकडाउन में हो रही मज़दूरों की दशा का रोना रोकर बिहार की जद(यू)-भाजपा सरकार की नीतियों की कमियाँ गिनाने और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी को विलेन बताने की कोशिश करने में लग गये हैं। दूसरी ओर पप्पू यादव की जग प्रशंसा को देखते हुए, वे जनता का और भरोसा जीतने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन वे यह भूल रहे हैं कि पप्पू यादव जिस तरह लोगों को मदद कर रहे हैं, उस तरह किसी नेता ने अभी तक नहीं की है। वैसे पप्पू यादव की बढ़ती लोकप्रियता से न केवल तेजस्वी यादव, बल्कि बिहार के सत्ता पक्षों और बाकी विपक्षी नेताओं में घबराहट बढ़ती जा रही है। यही वजह है कि लॉकडाउन में भीड़ इकट्ठी करने के नाम पर पप्पू यादव के खिलाफ दो बार एफआईआर भी हो चुकी है।

चुनाव आयोग के दिशा-निर्देशों का इंतजार

बिहार विधान सभा के चुनाव लेकर चुनाव आयोग के दिशानिर्देश मिलते ही सभी दल प्रचार-प्रसार शुरू कर देंगे। एक अनुमान है कि बिहार चुनाव पाँच चरणों में सम्पन्न होंगे। मतदान लगभग 20 अक्टूबर के बाद से शुरू होकर नवंबर के पहले सप्ताह में सम्पन्न हो जाएँगे और चुनाव परिणाम 10-11 नवंबर के आसपास तक आ जाएँगे। हालाँकि चुनाव कब-से-कब तक होंगे? यह तो चुनाव आयोग की घोषणा के बाद ही साफ हो पायेगा। लेकिन बिहार में देश के गृह मंत्री और भाजपा नेता अमित शाह की वर्चुअल रैली ने यह साफ कर दिया है कि चुनाव समय पर होंगे। क्योंकि बिहार के निर्वाचन विभाग में भी चहल-पहल बढ़ गयी है। विभागीय आधिकारियों के मुताबिक, राष्ट्रीय निर्वाचन आयोग के भी कार्यालय में सामान्य कामकाज शुरू हो गया है।

चुनाव आयोग जैसे ही दिशा-निर्देश देगा, बिहार में मतदाता सूची में नाम शामिल करने की कार्रवाई शुरू हो जाएगी। वैसे मतदाता सूची में नाम शामिल करने का कार्य जनवरी 2020 में शुरू हुआ था और मतदाता सूची का पहला प्रकाशन हो भी गया था। लेकिन महामारी ने हालात बिगाड़ दिये और लॉकडाउन के चलते बाकी मतदाताओं का भौतिक सत्यापन नहीं हो पाया; जिससे सूची में मतदाताओं के नाम शामिल नहीं किये जा सके, जिस पर अब काम होगा।

विधानसभा चुनाव से पहले विधान परिषद् चुनाव

बिहार विधानसभा चुनाव में 243 सीटों पर मतदान होगा। बिहार में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले होने 6 जुलाई, 2020 को वाले विधान परिषद् (एमएलसी) के चुनाव होने हैं। एमएलसी का चुनाव अब तक हो चुका होता, लेकिन कोरोना वायरस के चलते हुए लॉकडाउन की वजह से इन्हें टाल दिया गया था। वैसे एमएलसी के चुनावों को प्रदेश की सत्ता का सेमीफाइल कहना गलत नहीं होगा। यह चुनाव विधानसभा सदस्यों के द्वारा चुनी जाने वाली एमएलसी की 9 सीटों पर होंगे। ऐसे में सभी दलों के नेता विधानसभा चुनाव से पहले एमएलसी चुनावों में अपनी-अपनी जीत पक्की करने की कोशिश में लगे हैं।

विदित हो कि एमएलसी की जिन 9 सीटों पर चुनाव होने हैं, उनमें से 6 सीटों पर अकेले जनता दल (यूनाइटेड) यानी जद(यू) का कब्ज़ा रहा है, जबकि तीन सीटों पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) काबिज़ रही है। माना जा रहा है कि बिहार वालों का मिज़ाज अब बदला हुआ है, इसलिए दोनों दलों की सीटें कम होने की काफी सम्भावनाएँ हैं। हो सकता है कि इसका फायदा राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस को मिले। ऐसे में अगर भाजपा और जद(यू) एमएलसी के चुनावों में हार जाती है, तो विधानसभा चुनावों के नतीजों पर अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं रह जाएगा। इसीलिए भाजपा और जद(यू), दोनों के लिए यह चुनाव अहम माना जा रहा है। विदित हो कि बिहार के 9 एमएलसी सदस्यों का कार्यकाल 6 मई को ही पूरा हो गया था। इन सदस्यों में नीतीश सरकार में मंत्री अशोक चौधरी और विधान परिषद् के कार्यकारी सभापति रहे मो. हारून रसीद के अलावा पी.के. शाही, सतीश कुमार, सोनेलाल मेहता, हीरा प्रसाद बिन्द,  राधामोहन शर्मा, कृष्ण कुमार सिंह व संजय प्रकाश शामिल हैं।

एमएलसी समीकरण

फिलहाल बिहार में कुल 243 विधानसभा सदस्य (विधायक) हैं, जिनमें जद(यू) के 70, भाजपा के 54 और लोजपा के दो हैं। वहीं विपक्षी दलों में राजद के 80, कांग्रेस के 26 और अन्य दलों के 11 विधायक हैं।

मौज़ूदा समीकरण के हिसाब से एमएलसी की एक सीट के लिए 27 विधायकों की ज़रूरत होगी। इस तरह तीन राजद के तथा कांग्रेस के एक सदस्य का चुना जाना तय है। जबकि जद(यू) को तीन सीटें तब मिलेंगी, जब लोजपा और एक निर्दलीय विधायक के समर्थन उसे मिलेगा। वहीं भाजपा अपने विधायकों के दम पर दो सीटें जीत सकेगी। इस तरह से एमएलसी चुनाव में ही जद(यू) को तीन और भाजपा को एक सीट का नुकसान होने की सम्भावना है, जबकि राजद और कांग्रेस को फायदा मिलने की उम्मीद है। कुछ राजनीतिज्ञों का मानना है कि एमएलसी चुनावों का असर विधानसभा चुनावों पर पड़ेगा। हालाँकि जद(यू), भाजपा, लोजपा, राजद का मानना है कि एमएलसी चुनाव को विधानसभा चुनाव से जोडक़र नहीं देखा जा सकता। सत्ताधारी जद(यू) और भाजपा का तो यहाँ तक कहना है कि बिहार में इस बार फिर एनडीए की सरकार बनेगी।

तेजस्वी की मुश्किलें

बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव चाहते हैं कि वह मुख्यमंत्री बनें। लेकिन उनकी मुश्किल यह है कि महागठबन्धन में शामिल बहुत से नेता उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा मनाने को तैयार नहीं हैं। जबकि राजद पहले ही उनके नाम पर मुख्यमंत्री चेहरा होने की पक्की मुहर लगा चुकी है। लालू परिवार में अभी तेज प्रताप सिंह को लेकर कोई खास फैसला नहीं किया गया है। हालाँकि पहले तेज प्रताप सिंह को विधान परिषद् (एमएलसी) में भेजने के कयास लगाये जा रहे थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

पप्पू यादव बनेंगे रोड़ा

आजकल बिहार के अधिकतर लोगों की पसन्द बन चुके राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव राजद की जीत में खासा रोड़ा बन सकते हैं। क्योंकि जनता में बढ़ते उनके प्रभाव का तोड़ किसी के पास नहीं है। इसका कारण है कि वह दिल खोलकर लोगों की मदद करते हैं। चाहे फिर यह मदद किसी के द्वारा उन पर किये गये अत्याचार के खिलाफ हो या पैसे से। इतना ही नहीं, वे जब तक सांसद रहे, उनके दिल्ली आवास पर हमेशा देश भर से उनके संसदीय क्षेत्र से आये दर्ज़नों मरीज़ रहते थे। उनके खाने और रहने की पूरी व्यवस्था यहाँ तक की अस्पतालों में उनके इलाज के लिए सिफारिश करने में वे कभी पीछे नहीं रहे। यहाँ तक कहा जाने लगा कि पप्पू यादव के आवास को मरीज़ों का आश्रम कहा जाने लगा था। बिहार में भी उन्होंने बाढ़ के दौरान से लेकर लॉकडाउन तक में लोगों की जमकर मदद की।

यादवों की खटपट भी बड़ी समस्या

बिहार में यादव वोटबैंक तीन हिस्सों में बँटा हुआ है। एक, जो बड़ा हिस्सा है, वह लालू प्रसाद यादव की पार्टी की तरफ है। दूसरा हिस्सा पप्पू यादव की तरफ है और तीसरा हिस्सा शरद यादव की तरफ। वहीं पप्पू यादव की दंबग यादवों से भी खटपट रही है। ऐसे में भले ही पप्पू यादव बिहार में खूब लोकप्रिय हो चुके हैं, लेकिन सभी यादव उन्हें पसन्द नहीं करते और न ही वे लोग, जो दबंग हैं। क्योंकि बिहार में दबंगों का आज भी वर्चस्व है। ऐसे में केवल आम लोगों का भरोसा जीतकर चुनाव जीतना आसान नहीं है।

पैर जमाने की कोशिश में ओवैसी

बिहार की सियासत में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी अपने पैर जमाने की कोशिश में हैं। उन्होंने बिहार विधानसभा चुनावों के लिए कमर कस ली है। इसकी तैयारी में बिहार के 22 ज़िलों की 32 सीटों पर अपने प्रत्याशियों की सूची जारी कर दी है। बाकी सीटों पर भी पार्टी अपने उम्मीदवार उतारेगी। एआईएमआईएम ने समान विचारधारा वाले दलों के साथ बिहार में गठबन्धन के भी संकेत दिये हैं। एआईएमआईएम ने जिन 32 सीटों पर अपने उम्मीदवारों की सूची जारी की है, वे मुस्लिम बहुल क्षेत्र हैं। मगर इनमें दो सीटें आरक्षित हैं और बाकी 30 सीटें सामान्य जाति के लिए हैं। विदित हो कि बिहार में ओवीसी की पार्टी एआईएमआईएम के उम्मीदवार कमरुल होदा पिछले साल विधानसभा उप चुनाव में किशनगंज सीट से विजयी हुए थे, जिससे पार्टी का बिहार में खाता खुल गया था। वैसे अगर देखा जाए, तो भाजपा को मुस्लिम वोट मिलने के अच्छे आसार नहीं हैं; ऐसे में दूसरी पार्टियों को भी मुस्लिम वोट कम ही मिलेगा। क्योंकि मुस्लिम मतदाताओं का एक बड़ा तबका ओवैसी की पार्टी के पक्ष में है। माना जा रहा है कि इसका सीधा राजनीतिक नुकसान राजद को उठाना पड़ेगा।

प्रवासी मज़दूर भी करेंगे मतदान

भाजपा और जद(यू) की मुश्किल यह है कि इस बार प्रवासी मज़दूर, जो अधिकतर चुनावों के दौरान बाहर ही हुआ करते थे, इस बार बड़ी संख्या में मतदान करेंगे। चुनाव आयोग ने एक विशेष अभियान चलाकर इन मज़दूरों का नाम मतदाता सूची में जोडऩे का काम शुरू कर दिया है। बाहर से आये सभी मज़दूरों को मतदाता सूची से जोडऩे के दौरान यह देखा जाएगा कि ये मज़दूर अपने पैत्रिक निवास स्थान में मतदाता सूची में शामिल हैं या नहीं। अगर किसी मज़दूर का नाम मतदाता सूची में नहीं होगा, तब ही उसका नाम जोड़ा जाएगा। विदित हो कि लॉकडाउन के दौरान बिहार के 25 लाख से अधिक प्रवासी मज़दूर राज्य में लौट आये हैं। इतनी बड़ी संख्या किसी भी पार्टी की हार-जीत प्रभावित करने के लिए काफी है।

सोशल डिस्टेंसिंग का होगा पालन बढ़ सकती है बूथों की संख्या

बिहार में फिलहाल 7 करोड़ 18 लाख से अधिक मतदाता हैं। वहीं राज्य में बूथों की संख्या 73,000 है। इस हिसाब से हर बूथ पर 1,000 के आसपास मतदाता मतदान करेंगे। यही नहीं हर बूथ पर मतदाताओं को सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना पड़ेगा। महामारी को देखते हुए बूथों की संख्या बढ़ाने के सवाल पर फिलहाल चुनाव आयोग ने कोई जवाब नहीं दिया है। इस मामले में चुनाव आयोग का कहना है कि वैसे तो लोग अब खुद ही जागरूक हैं, लेकिन कोरोना वायरस को लेकर केंद्र और राज्य सरकार के निर्देशों का पालन कराया जाएगा।

इस बार ईवीएम एम-3 और वीवीपैट से होगा मतदान

इस बार बिहार विधान सभा चुनाव में एम-3 मॉडल की ईवीएम (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) मशीनों से मतदान कराया जाएगा; जिनमें वीवीपैट (वोटर वैरीफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल) का उपयोग किया जाएगा। बिहार के उप मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी बैजू नाथ सिंह के अनुसार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश से एम-3 मॉडल की ईवीएम और वीवीपैट मशीनें मँगवायी जाएँगी।

बता दें कि अक्सर यह देखा जाता है कि हर चुनाव के बाद हारने वाली पार्टियाँ अपनी हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ती हैं और चुनाव में धाँधलेबाज़ी का आरोप लगाती हैं। इसलिए अब निर्वाचन आयोग ने निर्णय लिया है कि ईवीएम एम-3 यानी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन मार्क-3 का इस्तेमाल किया जाएगा। आयोग के सूत्रों के अनुसार, ईवीएम की चिप केवल एक बार ही इस्तेमाल की जा सकती है। इस चिप के सॉफ्टवेयर को न ही पढ़ा जा सकता है और न ही इसे इंटनेट से जोड़ा जा सकता है। अगर कोई इस मशीन को खोलने की कोशिश करेगा, तो यह मशीन छेड़छाड़ करने वाले की फोटो खींचकर खुद बन्द हो जाएगी। इसके अलावा ईवीएम मार्क-3 में 384 प्रत्याशियों की जानकारी रखी जा सकती है।

वहीं, वीवीपैट को ईवीएम के साथ जोड़ा जाता है। इसका काम होता है ईवीएम में दबाये गये बटन वाले चुनाव चिह्न की पर्ची प्रिंट करके बाहर निकालना, जिसे मतदाता देख सकता है।

जेल सुधार से सँवरेगा कैदियों का जीवन

भारत में जेल को संविधान की सातवीं अनुसूची रखा गया है और इसे राज्य का विषय माना गया है। जेल अधिनियम, 1894 के तहत जेल का प्रबंधन, नियम-कायदे, दिशा-निर्देश व प्रशासन राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। केंद्र सरकार का काम जेलों की सुरक्षा को चाक-चौबंद, पुरानी जेलों की मरम्मत व नवीनीकरण, चिकित्सा सुविधाएँ, महिला अपराधियों को सुविधाएँ, व्यावसायिक प्रशिक्षण, जेल उद्योगों का आधुनिकीकरण, जेल कर्मियों को प्रशिक्षण आदि प्रदान करना है।

हमारे देश में केंद्रीय जेल, ज़िला जेल, महिला जेल, खुली जेल आदि जेलें हैं। दो साल से अधिक की सज़ा मिलने पर मुजरिम को केंद्रीय जेल में रखा जाता है। अच्छे बर्ताव वाले मुजिरिमों को खुली जेल में रखा जाता है। भारत में 31 दिसंबर, 2018 तक सक्रिय जेलों की कुल संख्या 1401 थी, जिनमें कुल 3,96,223 कैदी रह रहे थे। नई दिल्ली में तिहाड़ जेल भारत की सबसे बड़ी है, जिसका परिसर दक्षिण एशिया स्थित सभी जेलों से बड़ा है। इसे तिहाड़ आश्रम भी कहते हैं। इसका निर्माण वर्ष 1957 में हुआ था। इस जेल में 5,200 कैदियों को रखा जा सकता है। जेल में एक रेडियो स्टेशन भी है, जिसका संचालन वहाँ के कैदी करते हैं।

भारत में जेलों का इतिहास काफी पुराना रहा है। पौराणिक कहानियों में भी जेलों का ज़िक्र मिलता है। भगवान कृष्ण के माता-पिता को भी जेल में रखा गया था। ईसा मसीह का भी जेल से सम्बन्ध है। मौर्य काल हो या मुगलकाल या फिर आधुनिक काल, सभी कालखंडों में सज़ायाफ्ता मुजरिमों को जेल में रखा जाता था। आज हर देश में नागरिकों के लिए कानून है, जिसका पालन करना अनिवार्य होता है। देश के कानून का उल्लंघन करने वाले को, अगर वह अदालत में साबित होता है; तो मुजरिम करार देकर उसे सुधारने के लिए जेल भेजा जाता है।

जेलों में निरंतर सुधार हो रहे हैं। लेकिन अभी भी इस दिशा में बहुत-से काम करने बाकी हैं। भारत के जेलों में क्षमता से अधिक कैदी हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2015 में भारतीय जेलों में क्षमता से 14 गुना अधिक कैदी बन्द थे। वर्ष 2015 के बाद भी इन आँकड़ों में लगातार बढ़ोतरी देखने को मिली है; लेकिन जेलों की संख्या में कुछ खास वृद्धि नहीं हुई है।

जेलों में बहुत-सी दूसरी विसंगतियाँ व खामियाँ भी हैं। जैसे- स्वास्थ्यवर्धक भोजन एवं स्वच्छ जल की व्यवस्था, सोने, शौचालय एवं स्नानागार की व्यवस्था आदि कई ऐसे मुद्दे हैं, जिनमें सुधार की ज़रूरत है। जेल सांख्यिकी, 2015 के अनुसार, वर्ष 2015 में जेलों में अव्यवस्था के चलते 1,584 कैदियों की मौत हुई थी। जेलों की बदहाली का एक प्रमुख कारण अदालतों में बड़ी संख्या में मामलों का लम्बित होना भी है। 2017 तक देश की अदालतों में लम्बित मामले बढक़र 2 करोड़ 60 लाख से अधिक हो गये थे। एक अध्ययन के अनुसार, देश की जेलों में बन्द लगभग 70 फीसदी कैदियों का जुर्म तक साबित नहीं हो सका है। जेलों में कैदियों की अधिकता के कारण उन्हें पौष्टिक आहार व स्वच्छ वातावरण नहीं मिल पाता, जिससे कुछ कैदी अकाल मृत्यु के शिकार हो जाते हैं।

इन चुनौतियों से निपटने के लिए वर्ष 2002-03 से नयी जेलों के निर्माण, मौज़ूदा जेलों की मरम्मत व नवीनीकरण, जेलों में स्वच्छता व स्वच्छ जल की आपूर्ति आदि कार्य करने पर निरंतर ज़ोर दिया जा रहा है। सरकार जेलों को डिजिटल बनाने की भी कोशिश कर रही है, ताकि इसकी मदद से जेल प्रबंधन, कैदी सूचना प्रबंधन प्रणाली आदि को मज़बूत बनाया जा सके। इससे कैदियों से सम्बन्धित सूचनाओं को एक जगह संग्रहित करने में भी मदद मिलेगी, जिसका उपयोग अपराधों को नियंत्रित करने में किया जा सकता है।

कैदियों को सुधारने के लिए जेल भेजा जाता है। ऐसे में अगर किसी भी वजह से उनके साथ अन्याय हो रहा है, तो उन्हें न्याय मिलना चाहिए। साथ ही अन्याय के कारणों को दूर करने की ज़रूरत है। वॢतका नंदा जेल सुधार को समर्पित ‘तिनका-तिनका’ आन्दोलन के ज़रिये ये कार्य करने की कोशिश कर रही हैं। वॢतका नंदा ने जेल के ऊपर तीन किताबें भी लिखी हैं, जो  कैदियों के जीवन एवं जेल प्रशासन पर केंद्रित हैं। वॢतका यूट्यूब पर नियमित रूप से जेल समाचार अपलोड करती हैं, जिसमें कैदियों विशेषकर महिला कैदियों की समस्याओं एवं उनके द्वारा किये जा रहे कार्यों का विवरण होता है। जेलों में सुधार लाने की कोशिशों के लिए वॢतका को भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ‘नारी शक्ति’ सम्मान से सम्मानित कर चुके हैं। वॢतका को जेल सुधार के कार्यों को दो बार लिम्का बुक ऑफ रिकॉड्र्स में भी दर्ज किया जा चुका है।

वॢतका के जेल समाचारों से पता चलता है कि कैदी कोविड-19 जैसे संकटकाल में बेहतर कार्य कर रहे हैं। वॢतका के अनुसार, केंद्रीय कारागार होशियारपुर तथा केरल, बड़ोदरा, अहमदाबाद, राजकोट जेलों में कैदी बड़े पैमाने पर मास्क और सेनिटाईजर्स बना रहे हैं; जिसकी आपूर्ति जेल के कैदियों, जेलकॢमयों व आम लोगों को की जा रही है। केरल जेल के कैदियों को वहाँ की सरकार ने मास्क और सेनिटाइजर्स बनाने का ऑर्डर दिया है। यह तो बानगी भर है। अमूमन कैदी कारपेंटर, खेती, पिलम्बर, कुम्हारी, सिलाई-बुनाई आदि का काम करते हैं। कई कैदी जेल में उच्च शिक्षा ले चुके हैं।

जेलों की मुख्य समस्याओं में जेलों में क्षमता से अधिक कैदी होना, विचाराधीन कैदियों की अधिक संख्या, बुनियादी सुविधाओं का अभाव, अपराध होना, महिला कैदियों तथा उनके बच्चों की सुरक्षा व्यवस्था का अभाव, जेलकॢमयों की कमी, समुचित कानून व्यवस्था के निर्माण की कमी, प्रत्येक राज्य की जेलों में सुधार के लिए प्रतिबद्ध विभाग के गठन की कमी आदि प्रमुख हैं। इन पर काम करने की ज़रूरत है; ताकि कैदियों को समय पर न्याय मिल सके। जेलों में कैदियों के अंतर्मन को शुद्ध करने के साथ-साथ विभिन्न प्रशिक्षणों की भी ज़रूरत है, ताकि जेल से बाहर निकलने के बाद उन्हें रोज़गार मिल सके। इस दिशा में सरकार और तिनका-तिनका आन्दोलन के माध्यम से वॢतका जेल प्रशासन एवं कैदियों के जीवन में सुधार लाने के लिए शिद्दत से कोशिश कर रही हैं।

हिन्दू-धर्म को समझना 2 – सिन्धु घाटी सभ्यता : एक आकर्षक अध्ययन

हड़प्पा सभ्यता को सिन्धु घाटी सभ्यता के रूप में भी जाना जाता है। माना जाता है कि यह लगभग 3,000 ईसा पूर्व में दक्षिण एशिया के पश्चिमी भाग- समकालीन पाकिस्तान और पश्चिमी भारत में विकसित हुई है। सिन्धु घाटी मिस्र, मेसोपोटामिया, भारत और चीन की चार प्राचीन शहरी सभ्यताओं में सबसे बड़ी थी। 1920 के दशक में भारतीय पुरातत्त्व विभाग ने सिन्धु घाटी में व्यापक खुदाई की; जिसमें दो पुराने शहरों- मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के खण्डहर मिले।

लगभग समकालीन रूप से जब प्राचीन मिस्र के लोग अपने पहले महान् पिरामिडों का निर्माण कर रहे थे और मेसोपोटामिया के लोग स्मारक मंदिरों और आयताकार टीलों या भवनों का निर्माण कर रहे थे। दक्षिण एशिया के हड़प्पावासी बड़े पैमाने पर पकी हुई ईंट से आवास परिसरों का निर्माण कर रहे थे और विस्तृत नहर प्रणालियों को काट रहे थे। प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया के साथ यह दुनिया के पहले बड़े पैमाने पर शहरी कृषि समाजों में से एक था; जो पाँच केंद्रीय शहरों में एक मिलियन से पाँच मिलियन (50 लाख) निवासियों के बीच था। सभ्यता का यह अचानक पतन भले ही तत्कालीन दुनिया के महान् रहस्यों में से एक था।

आज तक हुए भौतिक उत्खनन को छोडक़र, जिसमें अति सुन्दर और अस्पष्ट कलाकृतियाँ मिली हैं; जो छोटी और वर्गाकार खडिय़ा मुहरे हैं और जिन पर मानव या पशुओं के चित्र उकेरे गये हैं और जो चित्रमय शिलालेख आमतौर पर लेखन का एक रूप माना जाता था। हड़प्पा में मिट्टी और पत्थर की गोलियाँ निकलीं, जिन पर 3300-3200 ई.पू. अंकित है; में त्रिशूल के आकार और पौधे जैसे निशान होते हैं। यह बड़ा अनुमान लगाया गया था कि क्या एक वास्तविक लेखन पाया गया था? या जो प्रतीकों के रूप में मिला, उसमें सिन्धु लिपि के समान कोई समानता थी? फिर भी इन खुदाई से सिन्धु घाटी के तत्कालीन निवासियों में सामान्य रूप से ज्ञान और जीवन शैली की जानकारी मिली। लेकिन निवासियों की पहचान के बारे में कोई प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं थी कि वे कौन थे? कहाँ से उनकी उत्पत्ति हुई थी? आदि-आदि।

हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में खराब शुरुआती उत्खनन तकनीक और 19वीं शताब्दी के हड़प्पा के विनाश ने कई अनुत्तरित सवालों को जन्म दिया है। वैज्ञानिक प्रमाणों की यह घोर कमी उनके वामपंथी और इंजीलवादी (ईसाई धर्म) इतिहासकारों के हाथों में एक उपयोगी उपकरण के रूप में आयी थी; जो उनके अनुभवजन्य सिद्धांत को विकसित करने के लिए थी कि प्राचीन भारतीय (आर्य) हड़प्पा के पश्चिम से आये थे; जिसके परिणामस्वरूप पूरी तरह से भ्रामक कथा का निर्माण हुआ।

वामपंथी  सिद्धांतवादी इतिहासकारों के साथ तालमेल बनाये रखते हुए कई दक्षिणी राज्यों में काम करने वाले कुछ द्रविड़ सिद्धांतकारों को प्राचीन भारत की संस्कृति, परम्पराओं और भाषाओं को राज्यों से जोडऩे के लिए इस सिद्धांत को आगे बढ़ाया गया था। उन्होंने मिथक का प्रचार किया कि आर्यों ने द्रविड़ों पर आक्रमण किया, जो हड़प्पा के आसपास के क्षेत्र के मूल निवासी थे और उन्हें आगे दक्षिण में ले गये। चूँकि किसी पुरातात्त्विक या आनुवांशिक डेटा ने इस दावे की पुष्टि नहीं की थी, इसलिए उन्होंने आनुभविक रूप से देशांतर (माइग्रेशन) मिथक का प्रस्ताव रखा; जिसके अनुसार पश्चिम में प्राचीन ईरानी हड़प्पा क्षेत्र में चले गये।

शुरू में पुरातात्त्विक खुदाई में परिपक्व हड़प्पा चरण का पता चला था; जिसमें एक उचित जल निकासी प्रणाली के साथ कीचड़-ईंट और साथ ही पकी हुए ईंट वाले घरों की योजनाबद्ध बस्ती का प्रतिनिधित्व किया गया था। पाँच हड़प्पा पात्रों के साथ एक बेलनाकार मुहर और दूसरी तरफ एक मगरमच्छ का प्रतीक इस जगह से एक महत्त्वपूर्ण खोज है। लाल बर्तन द्वारा प्रस्तुत चीनी मिट्टी (सिरेमिक) उद्योग, जिसमें डिश-ऑन-स्टैंड, फूलदान, छिद्रित जार और अन्य पुरावशेष, ब्लेड, टेराकोटा और शेल, चूडिय़ाँ, बेशकीमती पत्थरों के मोती और ताँबे की वस्तुएँ, पशु मूर्तियों, खिलौना गाड़ी के फ्रेम और टेराकोटा का पहिया, जवानों की आकृतियाँ और मुहर, मिट्टी की ईंट और त्रिकोणीय और मिट्टी के फर्श पर गोलाकार अग्नि वेदियों के साथ अर्पित किये गये पशु बलि गड्ढे भी खुदाई में मिले हैं; जो हड़प्पावासियों की अनुष्ठान प्रणाली के प्रतीक हैं। उत्खनन में कुछ विस्तारित बुर्के मिले हैं, जो निश्चित रूप से बहुत देर के चरण के हैं; शायद मध्यकाल के।

आदिम उत्खनन तकनीकों से निकलने वाले पिछले पुरातात्त्विक निष्कर्षों के पीछे की सच्चाई का अनावरण करने की दृष्टि से और अधिक परिष्कृत तकनीक और उपयुक्त उपकरण उपलब्ध होने के बाद भारत सरकार के विशेषज्ञ पुरातत्त्वविदों ने चार स्थलों हस्तिनापुर (उत्तर प्रदेश, शिवसागर (असम) में धोलावीरा (गुजरात) और आदिचनल्लूर (तमिलनाडु) की ऑनसाइट संग्रहालयों के साथ प्रतिष्ठित साइटों के रूप में विकसित करने के लिए पहचान की।

यह सब राखीगढ़ी के (हरियाणा के हिसार ज़िले में) चौंकाने वाले दृश्यों की अगली कड़ी थी; जिसे अब भारतीय उप महाद्वीप में सबसे बड़े हड़प्पा स्थल के रूप में माना गया है। भारतीय उप महाद्वीप पर हड़प्पा सभ्यता के अन्य बड़े स्थल हैं- हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और पाकिस्तान में गन्निरीवाला और भारत में धोलावीरा (गुजरात)।

राखीगढ़ी में खुदाई का कार्य इसकी शुरुआत का पता लगाने और 6000 ईसा पूर्व (पूर्व-हड़प्पा चरण) से 2500 ईसा पूर्व तक इसके क्रमिक विकास का अध्ययन करने के लिए किया जा रहा है। डेक्कन कॉलेज और हरियाणा सरकार के पुरातत्त्व और संग्रहालय विभाग के साथ संयुक्त रूप से एएसआई के अमरेंदर नाथ द्वारा इस स्थल की खुदाई की गयी थी; जिसमें डेक्कन कॉलेज के स्नातकोत्तर और अनुसंधान संस्थान से प्रोफेसर वसंत शिंदे ने उत्खननकर्ताओं की टीम का नेतृत्व किया था। उस समय सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी (सीसीएमबी), हैदराबाद के नीरज राय और हार्वर्ड स्कूल ऑफ मेडिसिन, बोस्टन, यूएसए से प्रो. डेविड रीच ने प्राचीन डीएनए अध्ययन के लिए जेनेटिक वैज्ञानिकों की टीम का नेतृत्व किया।

उत्खनन ने सिन्धु सभ्यता में एक महत्त्वपूर्ण नयी अंतर्दृष्टि प्रदान की, जिससे पता चला कि हड़प्पा एक गतिशील और जटिल सामाजिक-सांस्कृतिक घटना थी। हालांकि क्षेत्रीय रूप से पृथक थी; फिर भी कुछ सामान्य सामग्री सांस्कृतिक विशेषताओं को साझा करती थी। सिन्धु शहरों में निरंतर अनुसंधान ने वैज्ञानिकों को उनकी वृद्धि, उनकी अर्थ-व्यवस्थाओं और उनके द्वारा विकसित किये गये समाजों की अधिक समझ प्रदान की है। हड़प्पा तकनीक के पहलुओं पर किये गये शोध में हड़प्पा शिल्प कौशल का ज़बरदस्त परिष्कार हुआ, इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण मोहनजोदड़ो में पत्थर की चूडिय़ों से बना है।

हालाँकि सिन्धु घाटी की खुदाई में सैकड़ों कंकाल भी मिले हैं। लेकिन इस क्षेत्र की गर्म जलवायु अन्य प्रारम्भिक सभ्यताओं के इतिहास का पता लगाने में सहायक आनुवंशिक सामग्री को तेज़ी से नष्ट कर रही है। हाल के ज्ञान से वैज्ञानिकों, जिसमें हार्वर्ड विश्वविद्यालय में आनुवंशिकीविद् प्रो. डेविड रीच और भारत के पुणे में डेक्कन कॉलेज में पुरातत्त्वविद् वसंत शिंदे शामिल थे; ने उत्खनन के दौरान पाये गये मानव अवशेषों का विश्लेषण करने के लिए आशाजनक तकनीक का प्रयास करने का फैसला किया। उन्होंने पाया कि आंतरिक कान की भीतरी हड्डी में असामान्य रूप से उच्च मात्रा में डीएनए था; जिससे उन्हें अन्यथा क्षत्-विक्षत् कंकालों में भी प्रयोग करने योग्य आनुवंशिक सामग्री का पता चल सका। इस प्रकार उन्होंने 60 से अधिक कंकालों के टुकड़ों के नमूने लिये, जिनमें कई कठोर हड्डियाँ शामिल थीं। इससे पहले वे एक में से प्राचीन डीएनए निकालने में सक्षम रहे थे। फिर उन्हें अपेक्षाकृत पूर्ण जीनोम को एक साथ टुकड़े करने के लिए नमूनों को 100 से अधिक बार अनुक्रम करना पड़ा।

राखीगढ़ी अनुसंधान परियोजना से पता चलता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता का एक जीन समूह (जीनोम) एक आबादी से है; जो दक्षिण एशियाई लोगों के लिए सबसे बड़ा स्रोत है। शोध लेखक यह भी बताते हैं कि जनसंख्या का पशु चरागाहों या अनातोलियन और ईरानी किसानों से कोई पता लगाने योग्य वंश नहीं है। यह सुझाव देते हुए कि दक्षिण एशिया में खेती पश्चिम से बड़े पैमाने पर प्रवासन के बजाय स्थानीय ग्रामीणों से उत्पन्न हुई। राखीगढ़ी में हड़प्पा कब्रिस्तान से मिले कंकाल से डीएनए के हाल के निष्कर्षों से पता चलता है कि हड़प्पा सभ्यता के लोगों का एक स्वतंत्र मूल था।

यह अध्ययन इस तरह वामपंथी उन्मुख इतिहासकारों के सिद्धांत द्वारा प्रतिपादित प्रायोगिक को नकारता है कि हड़प्पावासी, देहाती या प्राचीन ईरानी किसान वंशावली थे। इन प्रामाणिक निष्कर्षों के बाद उन सभी को अपनी दुकान बन्द करनी होगी। चल रहे शोध का सबसे अच्छा परिणाम यह है कि यह इस बात को तमाम संदेहों से दूर करता है कि इस महान् देश के सभी निवासियों का मूल डीएनए, चाहे उनकी धाॢमक सम्बद्धता, जाति, रंग या निवास स्थान पूर्व, पश्चिम, उत्तर या दक्षिण हो; एक ही है।

इस प्रकार सभी क्षेत्रों के लोगों को एकजुट होने और इस राष्ट्र के विकास में एकजुट होने और एक होने की कोशिश करना और उनके नकारात्मक एजेंडा आधारित सिद्धांतों के आधार पर निहित स्वार्थों के झूठे प्रचार को नकारना समय की अनिवार्यता है।

(अगले अंक में पढ़ें- ‘समान गोत्र विवाह : यह तर्कसंगत है या मात्र एक लत?’)