Home Blog Page 760

मुद्रास्फीति की वापसी

भारत में मुद्रास्फीति अक्टूबर, 1974 में सर्वाधिक 34.7 फीसदी और मई, 1976 में 11.3 फीसदी के निचले स्तर को छू चुकी है। अब 2020 की बात करें, तो इससे पहले और 2019-20 की पहली छमाही के दौरान 4 फीसदी के लक्ष्य से नीचे थी, जबकि दूसरी छमाही के दौरान मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी दर्ज की गयी और और जनवरी, 2020 में यह पिछले 68 महीनों के दौरान सर्वाधिक उच्च स्तर 7.6 फीसदी पर पहुँच गयी।

आरबीआई ने मुद्रास्फीति की पुष्टि की

संकट के इस दौर में चेतावनी भरी मुद्रास्फीति की पुष्टि भारतीय रिजर्व बैंक ने की है। 25 अगस्त, 2020 को जारी अपनी वार्षिक रिपोर्ट में आरबीआई ने बताया कि भारत में दिसंबर, 2019 से फरवरी, 2020 के दौरान, मौद्रिक मुद्रास्फीति ने मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) के लिए अनिवार्य मुद्रास्फीति की तय सीमा को पार कर दिया।

मुद्रास्फीति के अन्त: वर्ष वितरण में भी फर्क देखा गया, जबकि साल की दूसरी छमाही के दौरान खाद्य मुद्रास्फीति में वृद्धि देखी गयी।

सन् 2019 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने दावा किया था कि महँगाई पूरी तरह से नियंत्रण में है। महँगाई को लेकर हमारी सरकार पर कोई सवाल नहीं उठा सकता है। सन् 2014 के बाद से महँगाई दर में कोई तेज़ी नहीं आयी है। यह सन् 2009 से 2014 (यूपीए के दौरान) पर था, जब आवश्यक वस्तुओं की कीमतें दो अंक में थीं।

माँग-आपूर्ति में अवरोध

आरबीआई की रिपोर्ट यह साबित होता है कि अप्रैल, 2020 के बाद खाद्य कीमतों में इज़ाफा हुआ है, जो मुद्रास्फीति बढऩे का अहम कारक कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए लगाये गये एक राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के कारण आपूर्ति में अवरोध रहा।

खाद्य कीमतों में भारी वृद्धि ने भारत की खुदरा मुद्रास्फीति को नवंबर में 5.54 फीसदी तक पहुँचा दिया, जो पिछले 68 महीने के उच्च स्तर पर यानी 7.60 फीसदी तक पहुँच गयी; जबकि इसी अवधि में थोक मूल्य आधारित मुद्रास्फीति 2.59 फीसदी बढ़ गयी। सकल घरेलू उत्पाद के निराशाजनक परिणाम के अनुमानों के साथ ये आँकड़े सरकार के महँगाई न होने के लम्बे दावों को भी खोखला साबित कर रहे हैं।

सब्ज़ियों की कीमतें आसमान पर

2019-20 की पहली छमाही के दौरान 4 फीसदी के लक्ष्य के नीचे रहने के बाद दूसरी छमाही के दौरान मुद्रास्फीति बढ़ गयी और जनवरी, 2020 में 7.6 फीसदी पहुँचने के साथ पिछले करीब साढ़े पाँच साल के उच्च स्तर पर पहुँच गयी। सितंबर से दिसंबर, 2019 तक खरीफ की फसल-अवधि के दौरान बेमौसम बारिश से हुए नुकसान और दक्षिण-पश्चिम मानसून (एसडब्ल्यूए) में भी बारश के साथ चलते फसलों को नुकसान हुआ; साथ ही सब्ज़ियों की आपूर्ति में भी बाधा हुई, जिससे कीमतें आसमान पर पहुँच गयीं।

2019-20 में पूरे वर्ष के लिए मुद्रास्फीति औसतन 4.8 फीसदी दर्ज की गयी, जो पिछले एक साल की तुलना में 136 आधार अंक (बीपीएस) ज़्यादा रही। सितंबर, 2019 से मुद्रास्फीति में वृद्धि के साथ 2019-20 की दूसरी छमाही के दौरान महँगाई की मार का आसर दिखा, जिसमें मुद्रास्फीति 103 बीपीएस से अगले तीन महीने में 133 बीपीएस तक पहुँच गयी।

दूसरी छमाही के दौरान स्थिति उलट गयी और खाद्य मुद्रास्फीति के शीर्ष पर रही, जिसमें भोजन और ईंधन की कीमतों को छोडक़र स्थिति नियंत्रण में रही। फरवरी, 2019 से फरवरी, 2020 तक ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी ने मुद्रास्फीति को कम कर दिया था; लेकिन मार्च, 2020 में इस पर दबाव बढ़ गया।

खाद्य और पेय पदार्थ

अप्रैल, 2019 में खाद्य और पेय पदार्थों की कीमतों में मुद्रास्फीति 1.4 फीसदी से बढक़र दिसंबर, 2019 में 12.2 फीसदी पर पहुँच गयी। परिणामस्वरूप कुल मुद्रास्फीति के योगदान में जहाँ 2019-20 से एक साल पहले 9.6 फीसदी था, वह बढक़र 57.8 फीसदी हो गया। दक्षिण-पश्चिम मानसून (एसडब्ल्यूएम) की शुरुआत में लगभग एक सप्ताह की देरी, इसके बाद वापसी में काफी देरी (39 दिनों तक) के बाद हालात और खराब हो गये, जिससे खाद्य व पेय पदार्थों की कीमतों में भारी इज़ाफा दर्ज किया गया। इसके अतिरिक्त चक्रवाती तूफान और बेमौसम बारिश के कारण दिसंबर-जनवरी 2019-20 के दौरान खरीफ फसलों की, मुख्य रूप से सब्ज़ियों और दालों की आपूर्ति बाधित हुई, जिससे काफी नुकसान हुआ। इससे अचानक से अनाज, दूध, अण्डे, मांस और मछली और मसालों जैसी वस्तुओं की कीमतों में भारी उछाल देखा गया। जनवरी-मार्च, 2020 के दौरान सर्दी के दिनों में सब्ज़ियों की कीमतों में मामूली राहत मिली।

सब्ज़ियों की कीमतों में कमी रहने के बहुत-से कारण रहे। खाद्य और पेय पदार्थों ने 2019-20 के दौरान समग्र खाद्य मुद्रास्फीति के हिसाब से अच्छा नहीं कहा जा सकता। सब्ज़ियों को छोडक़र खाद्य मुद्रास्फीति 2019-20 (सब्ज़ियों सहित 6.0 फीसदी) में औसतन 236 बीपीएस कम हो गयी। फसलों को हुए नुकसान के चलते ऐतिहासिक सब्ज़ियों की महँगाई दिसंबर, 2019 में ऐतिहासिक स्तर पर 60.5 फीसदी के उच्च स्तर को छू गयी।

सब्ज़ियों में प्याज की कीमतों ने जून, 2019 से ही बाज़ार में हाहाकार मचा दिया, जिसकी वजह मंदी और विपरीत हालात बने; क्योंकि सूखे जैसी स्थिति के कारण रबी की फसल में पैदा होने वाली प्याज की आवक कम होने से बाज़ार में इसकी कमी से यह महँगी हो गयी।

फसलों को नुकसान

सितंबर-अक्टूबर, 2019 के दौरान बेमौसम बारिश ने महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के प्रमुख उत्पादक राज्यों में खरीफ की फसल वाली प्याज को नुकसान पहुँचाया, जिससे सितंबर, 2019 से कीमतों में तेज़ी आयी। इसके अलावा बारिश की वजह से खरीफ फसल वाली प्याज को खराब कर दिया।

दिसंबर, 2019 में प्याज की महँगाई दर 327.4 फीसदी पर पहुँच गयी। सितंबर, 2019 में थोक व्यापारियों और खुदरा विक्रेताओं पर स्टॉक होल्डिंग की सीमा लागू करते हुए आपूर्ति का 850 डॉलर प्रति टन का न्यूनतम निर्यात मूल्य (एमईपी) लागू कर दिया। इसके अलावा सरकार ने 1.2 लाख टन के प्याज आयात करने की घोषणा नवंबर-दिसंबर, 2019 में तुर्की, अफगानिस्तान और मिस्र से की, ताकि कीमतों के दबाव को कम किया जा सके।

आलू की कीमतों में भी साल भर (सितंबर, 2019 और फरवरी, 2020 तक) की वृद्धि हुई, मुख्य रूप से बेमौसम और अधिक बारिश के कारण। इससे तैयार फसलों को नुकसान तो पहुँचाया ही साथ ही बाज़ारों में आपूर्ति बाधित हुई। नतीजतन नवंबर, 2019 में 7 महीनों के लगातार अपस्फीति के बाद जनवरी, 2020 में आलू की कीमत मुद्रास्फीति 63 फीसदी के उच्च स्तर पर पहुँच गयी। टमाटर की कीमतों के मामले में मई, 2019 में मुद्रास्फीति 70 फीसदी पर पहुँच गयी। दिसंबर, 2019 तक उच्च दोहरे अंकों में महाराष्ट्र में देरी से पैदावार और कर्नाटक में फसलों को नुकसान की वजह से प्रमुख आपूर्तिकर्ता राज्यों- कर्नाटक, महाराष्ट्र और हिमाचल प्रदेश से आवक नहीं हो सकी। हालाँकि नवंबर, 2019 से फरवरी, 2020 के दौरान टमाटर की कीमतें सामान्य मौसमी पैटर्न के अनुरूप रहीं। लेकिन अब टमाटर फिर से बहुत महँगा हो चुका है।

अनाज़ की कीमतें

अनाज और उत्पादों की कीमतों में भी 2019-20 के दौरान देखा गया कि इनकी कीमतों में लगातार बढ़ोतरी हुई। कीमतों में अप्रैल, 2019 में 1.2 फीसदी से जनवरी-मार्च, 2020 के दौरान लगभग 5.3 फीसदी की वृद्धि हुई। गेहूँ के मामले में वर्ष के दौरान मुद्रास्फीति में औसतन 6.5 फीसदी की वृद्धि हुई। उच्च स्तर पर खरीदारी के चलते आयात भी सीमित (2019-20 में 31.4 प्रति फीसदी कम) हुआ। जनवरी, 2019 में गैर-पीडीएस चावल की कीमतें सकारात्मक मूल्य दबाव और प्रतिकूल आधार प्रभाव के कारण अक्टूबर, 2019 में अपस्फीति के 11 महीनों में ऊपर आ गयीं, जिनकी जनवरी, 2020 में मुद्रास्फीति का स्तर 4.2 फीसदी पर पहुँच गया।

दूध के दाम बढ़े

दूध और इसके उत्पादों की कीमतें भी साल भर माँग के चलते बढ़ीं। दूध की खरीद की कीमतों में वृद्धि के कारण अमूल और मदर डेयरी जैसी प्रमुख दुग्ध सहकारी समितियों ने खुदरा दूध की कीमतें प्रति लीटर दो बार- मई और फिर दिसंबर, 2019 में बढ़ा दीं। इसके बाद दुग्ध सहकारी समितियों द्वारा इसी तरह की बढ़ोतरी की गयी अन्य राज्यों में वर्ष के दौरान दूध और उत्पादों की कीमतों में इज़ाफा किया गया। चारे की उपलब्धता कम होने के कारण उत्पादन की लागत में वृद्धि हुई है, जिसके चलते खुदरा कीमतों में इज़ाफा दर्ज किया गया। मार्च, 2020 में दूध की महँगाई दर 6.5 फीसदी पर पहुँच गयी।

दालों की कीमतों ने छुआ आसमान

मई, 2019 में 29 महीने के लम्बे समय तक अपस्फीति की समाप्ति के साथ दालों की कीमतों में इज़ाफा सन् 2019-20 की शुरुआत से हुआ। पर्याप्त पैदावार के बावजूद, 2018-19 के दौरान आयात में पर्याप्त गिरावट (54 फीसदी) दर्ज की गयी। इसके अतिरिक्त दालों के उत्पादन में गिरावट के तमाम अनुमानों को देखते हुए 2019-20 के दौरान आयात में लगभग 14.6 फीसदी की बढ़ोतरी होने के बावजूद, मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी हुई। प्रोटीन युक्त वस्तुओं, जैसे कि अण्डा, मांस और मछली में मुद्रास्फीति औसतन 4.5 फीसदी और 9.3 फीसदी रही; जो कि पिछले छ: वर्षों में सबसे अधिक थी। इसके साथ ही 2019-20 के दौरान कुल खाद्य मुद्रास्फीति का 13.7 फीसदी रही। मांस और मछली की कीमतों की वजह इनके लिए ज़रूरी बीज जैसे कि मक्का और सोयाबीन आदि की कीमतें भी बढ़ीं। इसी तरह सितंबर, 2019 से जनवरी, 2020 के दौरान अण्डे की कीमतों में वृद्धि देखी गयी। हालाँकि कोविड-19 के प्रकोप और प्रसार के साथ फरवरी-मार्च, 2020 के दौरान पोल्ट्री की खपत कम हो गयी और कीमतों में भारी कमी आयी।

चीनी और मिष्ठान

अन्य प्रमुख खाद्य पदार्थों में चीनी और मिष्ठान और तेल और वसा ने भी समग्र खाद्य मुद्रास्फीति को बढ़ाया। इससे पहले के उच्च कीमतों के मामले में हालाँकि बाद में घरेलू उत्पादन में गिरावट को दर्शाता है।

मसालों के दाम में भी उछाल

मसाले की कीमतें, विशेष रूप से सूखी मिर्च और हल्दी के उत्पादन में कमी के कारण इनकी कीमतों में काफी उछाल दर्ज किया गया।

आरबीआई की रिपोर्ट के मुताबिक, मुद्रास्फीति के अन्य संकेतक और 2019-20 के दौरान औद्योगिक श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित सेक्टोरल सीपीआई मुद्रास्फीति दिसंबर, 2019 में बढक़र 9.6 फीसदी (73 महीने में उच्चतम) पर पहुँच गयी। इसकी मुख्य वजह आवास और भोजन की कीमतों में इज़ाफा रहा। कृषि श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक और ग्रामीण मज़दूरों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर मुद्रास्फीति हुई, जिसमें आवास घटक नहीं है। पिछले वित्त वर्ष के दौरान उसमें भी वृद्धि हुई और यह क्रमश: 11.1 फीसदी व 10.6 फीसदी तक पहुँच गयी। दिसंबर, 2019 में (72 महीनों में सबसे अधिक) से पहले भोजन की कीमतों में नरमी रही थी।

अस्थिरता का माहौल

आरबीआई की रिपोर्ट कहती है कि वित्तीय बाज़ारों में बढ़ी अस्थिरता का असर मुद्रास्फीति पर भी पड़ता है। खाद्य और ईंधन की कीमतों का झटका सभी घरों की मुद्रास्फीति की उम्मीदों को प्रभावित कर सकता है, जो प्रकृति व संवेदनशीलता के अनुकूल नहीं है। इसलिए मौद्रिक नीति को मूल्य आंदोलनों पर निरंतर सतर्कता बरतनी होगी, खासकर ऐसी स्थिति में जब सामान्यीकृत मुद्रास्फीति के हालात बनते हैं।

सक्रिय दृष्टिकोण की ज़रूरत

केंद्र सरकार के लिए यह इंतज़ार करने और देखने का समय नहीं है; क्योंकि आम आदमी के सब्र का इम्तिहान कभी भी टूट सकता है। सरकार को माँग-आपूर्ति की खाई को पाटने के लिए सक्रिय दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत है और जमाखोरों के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए; जो कोरोना वायरस जैसी महामारी द्वारा उत्पन्न अनिश्चितता का फायदा उठाते हैं। केंद्र सरकार इसे ईश्वर का काम कहकर नहीं बच सकती; क्योंकि तथ्य यह है कि उच्च बेरोज़गारी और स्थिर माँग के साथ उच्च मुद्रास्फीति न केवल अर्थ-व्यवस्था, बल्कि सामाजिक ताने-बाने को भी नुकसान पहुँचा रही है।

जीडीपी की चिन्ता

31 अगस्त, 2020 को सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन के राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी किये गये सकल घरेलू उत्पाद का अनुमान भी चिन्ता का बड़ा सबब है, जो पहली तिमाही अप्रैल से जून 2020-21 तक का है। रिपोर्ट के अनुसार, 2020-21 की पहली तिमाही में निरंतर कीमतों पर जीडीपी का अनुमान 26.90 लाख करोड़ रुपये है, जबकि 2019-20 की पहली तिमाही में 35.35 लाख करोड़ रुपये की तुलना में 23.9 फीसदी का संकुचन दिखा। वहीं पिछले वर्ष इसी दौरान यह 5.2 फीसदी रहा। 2020-21 की पहली तिमाही के लिए लगातार कीमतों पर बेसिक मूल्य पर त्रैमासिक सकल मूल्य 25.53 लाख करोड़ रुपये का अनुमान है, जबकि 2019-20 की पहली तिमाही में 33.08 लाख करोड़ रुपये के मुकाबले, 22.8 फीसदी का संकुचन दिखा।

वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में जीडीपी का मूल्य 38.08 लाख करोड़ रुपये अनुमानित है, जबकि 2019-20 की पहली तिमाही में 49.18 लाख करोड़ रुपये था, जो 2019-20 में 8.1 फीसदी वृद्धि की तुलना में 22.6 फीसदी था। 2020-21 में वर्तमान मूल्य पर आधार मूल्य में सकल मूल्य को जोडक़र 35.66 लाख करोड़ रुपये अनुमानित है, जबकि 2019-20 में 44.89 लाख करोड़ रुपये था, यानी इसमें 20.6 फीसदी का संकुचन दिखा।

कांग्रेस को खड़ा करने की कवायद

कांग्रेस को दोबारा खड़ा करने की प्रक्रिया आखिर शुरू हो गयी है। लम्बे समय के बाद कांग्रेस संगठन में बड़े पैमाने पर फेरबदल किया गया है। नयी कांग्रेस कार्यसमिति बनायी गयी है और महासचिवों के स्तर पर भी बड़ा फेरबदल किया गया है। कई पुराने नेताओं का कद घटा दिया गया है; जबकि युवाओं को अधिक अवसर दिये गये हैं। राहुल गाँधी के समर्थक अहम पद पाने में सफल रहे हैं; जबकि प्रियंका गाँधी को उत्तर प्रदेश के प्रभारी का पूरा ज़िम्मा दे दिया गया है। संसद के सत्र से पहले कांग्रेस की यह कोशिश मोदी शासित केंद्र सरकार के खिलाफ लामबन्द होने का संकेत देती है।

हाल में पार्टी अध्यक्ष को चिट्ठी लिखने वाले नेताओं में से कई का कद घटा दिया गया है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने संगठन चलाने और संचालन में अपनी मदद के लिए जिस विशेष समिति का गठन किया, उसमें ए.के. एंटनी, अहमद पटेल और अंबिका सोनी शामिल हैं। संगठन से जुड़े मामलों में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की मदद के लिए विशेष समिति में के.सी. वेणुगोपाल, मुकुल वासनिक, रणदीप सुरजेवाला भी शामिल होंगे। एक अन्य महत्त्वपूर्ण फैसले के तहत गुलाम नबी आज़ाद, अंबिका सोनी, मोतीलाल वोरा, मल्लिकार्जुन खडग़े को महासचिव पद से हटा दिया गया है।

वैसे पार्टी में फेरबदल की ज़रूरत काफी समय से महसूस की जा रही थी; क्योंकि आम कार्यकर्ताओं का मानना है कि राहुल को पार्टी अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी सँभालकर पूरी तरह संगठन को मज़बूत करने में जुट जाना चाहिए। पार्टी की युवा इकाई में पदाधिकारी रहे रमन सिंह का कहना है कि आज की तारीख में राहुल ही पूरे विपक्ष में ऐसे नेता हैं, जिनका राष्ट्रव्यापी आधार है। रमन ने कहा- ‘जिन 23 वरिष्ठ नेताओं की चिट्ठी को पार्टी के बीच विद्रोह बताया जा रहा है, वह भाजपा की शरारत है। यह विद्रोह नहीं, बल्कि कांग्रेस को मज़बूत करने की ज़िक्र है। मोदी के नेतृत्व में सरकार बहुत से मोर्चों पर जिस तरह फेल हुई है, उससे आम आदमी में अब तेज़ी से नाराज़गी उभर रही है।

राहुल गाँधी को पार्टी की कमान सँभालकर पूरी ताकत से मोदी सरकार के खिलाफ राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू करना चाहिए। कांग्रेस के भीतर बेचैनी का सबसे बड़ा कारण अगले लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी को बहुत मज़बूती से दोबारा खड़ा करने की चिन्ता है। पार्टी के किसी भी राज्य स्तर के नेता या ज़मीनी स्तर पर छोटे कार्यकर्ता से बात कर लो, वह आपको कहेगा कि हमें किसी भी सूरत में अगला चुनाव नहीं हारना है। अगर ऐसा हुआ, तो पार्टी बिखर जाएगी। चुनाव में जीत को पार्टी के कार्यकर्ता सबसे बड़ी खुराक मानते हैं। दिल्ली में कांग्रेस के एक पूर्व विधायक ने कहा- ‘आप याद करें, तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद अचानक कांग्रेस को राष्ट्र स्तर पर कितनी तबज्जो मिलनी शुरू हो गयी थी। इन चुनावों के बाद भाजपा ने विधानसभा का कोई चुनाव नहीं जीता है। लेकिन कांग्रेस उस माहौल को बनाकर नहीं रख पायी। हालाँकि इसके यह मायने नहीं हैं कि कांग्रेस का अस्तित्व ही खत्म हो गया है। भाजपा भी पाँच साल सत्ता में रहने के बाद सन् 2004 और सन् 2009 में लगातार दो लोकसभा चुनाव हारी थी। लिहाज़ा कोई ऐसी बात नहीं है कि कांग्रेस के लोग निराशा होकर घर बैठ जाएँ। भाजपा ने कांग्रेस की हार को लेकर जैसा दुष्प्रचार किया है, वो उसके अपने भीतर के डर को उजागर करता है। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में जो जज़्बात पार्टी नेताओं के भीतर उठे थे और जैसी तल्खी उभरी थी, वह अब धीरे-धीरे कम हो रही है और पार्टी के भीतर सभी नेता इस घटना को समझने की कोशिश कर रहे हैं।

पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं, जिनसे इस संवाददाता की बात हुई है, उससे यही नतीजा निकलता है कि आने वाले समय में पार्टी एक मज़बूत दल के तौर पर उभरेगी। इन नेताओं के मुताबिक, संगठन के भीतर संवाद की प्रक्रिया जारी है। एक वरिष्ठ नेता ने कहा- ‘अध्यक्ष के चुनाव से पहले विस्तृत तौर पर संगठन को लेकर सुझाव मिलेंगे और इन सबको नज़र में रखते हुए भविष्य की तैयारी की जाएगी।’

कांग्रेस की अहम बैठकों में जिस तरह अब तमाम वरिष्ठ नेता दिखने लगे हैं, उससे ज़ाहिर होता है कि पार्टी के भीतर तल्खी को काम करने की आलाकमान के स्तर पर कोशिश हुई है। गुलाम नबी आज़ाद जैसे कांग्रेस के समर्पित और वफादार नेता अब फिर बैठकों में दिखने लगे हैं और अपने सुझाव दे रहे हैं। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक, जिसमें 23 बड़े नेताओं के पत्र बम्ब ने बड़ी हलचल पैदा की थी, के बाद संसद के मानसून सत्र की तैयारी के लिए सोनिया गाँधी के नेतृत्व में 8 अगस्त को हुई पार्टी के संसदीय रणनीति समूह की बैठक में अच्छा माहौल देखने को मिला और आज़ाद सहित तमाम नेताओं ने खुलकर अपने सुझाव रखे। कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता चाहते हैं कि देश भर में राज्यों में मज़बूत और ज़मीनी नेताओं को पार्टी की प्रांतीय बागडोर देकर आने वाले एक साल के भीतर पार्टी को खड़ा किया जाए। एक नेता ने कहा कि इसके बाद प्रदेश कार्यकारिणी और ज़िला स्तर की नियुक्तियों में देरी न हो और तमाम लोगों को ज़िम्मेदारियाँ बाँटकर संगठन को तेज़ी से सक्रिय किया जाए। इन नेताओं का कहना है कि उन राज्यों में भी संगठन को मज़बूत करने के लिए तेज़ कदम उठाये जाएँ, जहाँ सहयोगी दलों की सरकारें हैं। एक वर्तमान सांसद ने नाम न छापने की शर्त पर कहा- ‘हम हमेशा दूसरे दलों के पिछलग्गू की भूमिका में नहीं रह सकते। हम देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी रहे हैं और आज भी कांग्रेस का देश भर में एक बड़ा समर्थक वर्ग है। मोदी सरकार के खिलाफ नाराज़गी का ग्राफ बढ़ता जा रहा है और कांग्रेस ही उसका सबसे बेहतर और जनता की हितों की रक्षा वाला श्रेष्ठ विकल्प है। लिहाज़ा संगठन को पहले राज्यों में मज़बूत किया जाना और अपने स्तर पर विधानसभा चुनावों में पूरी ताकत से हिस्सा लेना बहुत ज़रूरी है।’

कांग्रेस के भीतर उतर प्रदेश में पार्टी को दोबारा खड़ा करने की कोशिशों और इसके नतीजों से उत्साह है। प्रियंका गाँधी की सक्रियता और विपरीत हालात में भी लगातार दो बार पार्टी टिकट पर विधायक बन चुके अजय कुमार लल्लू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने से भले कुछ पुराने नेताओं में अपने अलग-थलग पडऩे को लेकर बेचैनी है, यह बात सभी मान रहे हैं कि इतने वर्षों से ध्वस्त पड़े संगठन में अब कुछ जान आयी है और पार्टी कार्यकर्ता उत्साहित दिखने लगे हैं।

हाल के महीनों को देखें, तो योगी सरकार के निशाने पर बसपा और सपा से ज़्यादा कांग्रेस या कह लीजिए प्रियंका गाँधी रही हैं। प्रियंका ने प्रदेश से जुड़े हर उस मसले को उठाया है, जो योगी सरकार को परेशान कर सकता है। बसपा तो हाल के महीनों में भाजपा की समर्थक जैसी भूमिका में दिखने लगी है। सपा भी उतनी सक्रिय नहीं है, जितनी प्रियंका गाँधी हैं। यह भी आरोप हैं कि भाजपा उत्तर प्रदेश कांग्रेस के उन नेताओं को कथित रूप से शह दे रही है, जो प्रियंका गाँधी के आने से अपनी हैसियत को लेकर परेशान हैं। भले जब उनके पास अवसर था, तो उन्होंने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मज़बूत करने के लिए कुछ नहीं किया हो। पार्टी के भीतर नेता मानते हैं कि प्रियंका जैसी सक्रियता ही कांग्रेस को उत्तर प्रदेश की कठोर राजनीतिक ज़मीन पर दोबारा खड़ा कर सकती है। योगी सरकार कांग्रेस की सक्रियता से कितनी परेशान है, इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि प्रियंका गाँधी की तरफ से अध्यक्ष बनाये गये अजय कुमार लल्लू के खिलाफ इन महीनों में दर्ज़नों मामले बना दिये गये हैं और उन्हें पार्टी के सरकार विरोधी कार्यक्रमों में जाने से भी रोका जाता है।

उत्तर प्रदेश कांग्रेस के लिहाज़ से बहुत ही अहम राज्य है। दशकों से कांग्रेस वहाँ सत्ता से बाहर है और उसका संगठन लचर हो चुका है। सन् 2009 में पार्टी ने लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में अचानक 22 लोकसभा सीटें जीतकर सबको चौंका दिया था। हालाँकि इससे यह तो ज़ाहिर हो ही गया था कि कांग्रेस ज़्यादा कोशिश करे, तो सूबे में फिर खड़ी हो सकती है। उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस ने प्रशांत किशोर को अपना रणनीतिकार बनाया था, तो उन्होंने एक आंतरिक सर्वे करके पार्टी आलाकमान को यह सुझाव दिया था कि प्रियंका गाँधी को इस चुनाव में मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया जाए। लेकिन कांग्रेस इसकी हिम्मत नहीं जुटा पायी। अब कांग्रेस खुद प्रियंका को आगे कर रही है, तो उत्तर प्रदेश के कांग्रेस संगठन में सक्रियता भी दिखने लगी है।

अध्यक्ष पद का मसला

कांग्रेस में अध्यक्ष पद की लड़ाई इस बात को लेकर है नहीं है कि राहुल गाँधी अध्यक्ष बनें या न बनें। लड़ाई इस बात को लेकर है कि जो भी अध्यक्ष बने वो पूरा वक्त संगठन को समर्पित करे। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता चाहते हैं कि भले राहुल गाँधी अध्यक्ष बनें, वो पूरा समय संगठन को दें और पूरी ताकत के साथ मोदी सरकार के खिलाफ खड़े हों। पार्टी नेताओं के मुताबिक, वरिष्ठ 23 नेताओं ने जो पत्र लिखा था, उसमें गाँधी परिवार का विरोध नहीं था, अपितु नेता पूरे समय वाला अध्यक्ष चाहते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि कांग्रेस के भीतर अनुभवी नेताओं की कमी नहीं है। लेकिन इन सबकी एक समस्या समान है। किसी भी नेता का अखिल भारतीय स्तर का कद नहीं है। ऐसे में कांग्रेस में स्वाभाविक रूप से अध्यक्ष के तौर पर राहुल गाँधी का ही नाम सामने आता है। हाँ, राहुल गाँधी को अध्यक्ष बनकर युवा और अनुभवी नेताओं की एक मज़बूत टीम बनानी पड़ेगी और खुद को पूर्णकालिक अध्यक्ष के तौर पर मैदान में उतरना पड़ेगा।

पार्टी के भीतर एक वर्ग प्रियंका गाँधी को भी अध्यक्ष के रूप में देखता है; लेकिन ज़्यादातर नेताओं का मानना है कि राहुल गाँधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने के लिए सबसे बेहतर विकल्प हैं। सीडब्ल्यूपी के सदस्य रह चुके जम्मू-कश्मीर के एक कांग्रेस नेता ने कहा कि राहुल को अध्यक्ष बनकर चार वरिष्ठ नेताओं को कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर अपनी टीम बनानी चाहिए, जिसमें युवा नेताओं से लेकर वरिष्ठ नेताओं का मिश्रण हो और सबको राज्यों में संगठन को दोबारा खड़ा करने की जबावदेही वाली ज़िम्मेदारी सौंपी जाए। हालाँकि पार्टी में एक ऐसा छोटा वर्ग भी है, जो कहता है कि किसी गैर-गाँधी को अध्यक्ष बनाकर आजमाना चाहिए। यह वर्ग यह तर्क देता है कि इससे गाँधी परिवार के पार्टी को अपने तक सीमित रखने के विरोधियों के आरोपों से भी कांग्रेस को मुक्त होने में मदद मिलेगी। यह नेता कहते हैं कि पहले भी ऐसा हुआ है। हालाँकि ज़्यादातर कांग्रेस नेता मानते हैं कि भाजपा ही सबसे ज़्यादा गाँधी परिवार का विरोध करती है और दुष्प्रचार करके परिवार को बदनाम करती है। जनता में गाँधी परिवार के प्रति हमेशा भरोसा रहा है, क्योंकि उसे कांग्रेस और गाँधी-नेहरू परिवार की पृष्ठभूमि पता है। एक वरिष्ठ नेता ने कहा- ‘भाजपा अपनी नाकामियाँ छिपाने के लिए नेहरू से लेकर इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी जैसे दिवंगत नेताओं को कोसती है। इन सभी नेताओं ने समर्पण से देश के लिए काम किया और मुश्किल वक्तों में देश को सँभाला और विकास की बड़ी योजनाएँ लायीं। ऐसी विरोधी पार्टी भाजपा को खुश करने के लिए कांग्रेस को गाँधी परिवार से बाहर जाने का रिस्क क्यों लेना चाहिए?’

‘तहलका’ की जानकारी बताती है कि आने वाले समय में अध्यक्ष पद के लिए बाकायदा चुनाव करवाने की तैयारी पार्टी में चल रही है। एआईसीसी का अधिवेशन जब भी होगा, उसमें नया अध्यक्ष चुना जाएगा। गाँधी परिवार चाहता है कि यदि कोई भी चुनाव लडऩा चाहता है, तो ऐसा किया जाए। ऐसे में हो सकता है चुनाव में एक से ज़्यादा प्रत्याशी हों। यह भी हो सकता है कि राहुल गाँधी या अन्य कोई भी जो चुना जाए, वह सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना जाए।

कांग्रेस में यह सोच ज़रूर बन रही है कि पार्टी का नेता आक्रामक हो और वह सरकार की बखिया उधेड़ सके। संगठन में जान फूँक सके। कांग्रेस के भीतर वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि मोदी सरकार के खिलाफ हमला करने का यह सबसे बेहतर समय है; क्योंकि उसकी लोकप्रियता गलत नीतियों के कारण नीचे जा रही है। इन नेताओं के अनुसार मोदी के नेतृत्व में भाजपा जनता के बीच अब तक की सबसे बड़ी अलोकप्रियता का सामना कर रही है और कांग्रेस के लिए यह खुद को एक मज़बूत विकल्प के रूप में जनता के सामने करने का सबसे उपयुक्त अवसर है। पार्टी के एक नेता ने कहा- ‘लेकिन इसके लिए आपको बहुत ज़्यादा संगठित होना पड़ेगा। देश भर में संगठन को अपने नेता के पीछे खड़ा होना पड़ेगा, ताकि भाजपा के कांग्रेस या गाँधी परिवार पर हमले के वक्त लोगों को हमारे ही कैम्प में खामोशी न मिले। और सबसे ज़्यादा ज़रूरी यह कि हमारे पास एक ऐसा अध्यक्ष होना चाहिए, जो मैदान में पूरी ताकत से सरकार की चूलें हिला सके।’

कांग्रेस में भविष्य की सम्भावनाएँ

पार्टी के भीतर हलचल के बावजूद भविष्य में संगठन के स्वरूप को लेकर एक सोच विकसित हो रही है। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, नेतृत्व में इस बात को लेकर चिंता है कि पार्टी के आम कार्यकर्ता में कांग्रेस के भविष्य को लेकर चिन्ता पनप रही है, जो कुछ हद तक निराशा में भी बदल रही है। पार्टी में गाँधी परिवार के नजदीकी कुछ बड़े नेता अब यह सोचने लगे हैं कि संगठन में बड़े पैमाने पर फेरबदल किया जाना आवश्यक हो गया है। राज्यों में नये और मज़बूत नेताओं को अध्यक्ष बनाने की ज़रूरत है, ताकि राज्य इकाइयाँ सक्रिय हो सकें; एक यह भी विचार पार्टी में उभर रहा है। कुछ कद्दावर नेताओं, जो अपने राज्यों को बेहतर जानते हों और संगठन के स्तर पर भी माहिर हों; उन्हें राज्यों में अध्यक्ष बनाया जाए, ताकि सन्देश जाए कि आलाकामन पार्टी को पुनर्जीवित करने में जुट गया है। कुछ वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि राज्यों में पार्टी को अपने स्तर पर ज़िन्दा करना होगा। यह भी विचार है कि युवा और वरिष्ठ नेताओं को संतुलित आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर अहम ज़िम्मेदारियाँ दी जाएँ और उनकी जवाबदेही सुनिश्चित की जाए। साथ ही महिला नेताओं का प्रतिनिधित्व भी बढ़ाया जाए। यह भी एक विचार है कि यदि राहुल गाँधी अध्यक्ष बनते हैं, तो उन्हें सुझाव देने और राजनीतिक दाँवपेच में माहिर करने के लिए अशोक गहलोत जैसे बड़े कद के दो कार्यवाहक अध्यक्ष भी बनाये जाएँ। इसके अलावा देश के सभी बड़े मुद्दों के विशेषज्ञों की एक मज़बूत टीम बनायी जाए, जो मोदी सरकार के कमज़ोर पहलुओं को लेकर उसके खिलाफ आक्रामक प्रचार कर सकने वाले मसौदे तैयार करे। पार्टी के बीच एआईसीसी अधिवेशन के बाद बड़े पैमाने पर मोदी सरकार के खिलाफ देशव्यापी अभियान शुरू करने का भी विचार है, जिसे लघु रणनीतिक विराम देते हुए अगले लोकसभा चुनाव तक जारी रखा जाये। पार्टी में एक विचार यह भी है कि अध्यक्ष के चुनाव के बाद पहले कांग्रेस से जुड़े रहे कद्दावर नेताओं को वापस पार्टी में लाने की मुहिम शुरू की जाए। इन नेताओं में एनसीपी प्रमुख शरद पवार, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस जगनमोहन रेड्डी और अन्य नेता शामिल हैं। नेता यह भी चाहते हैं कि यदि राहुल अध्यक्ष बनते हैं, तो भी सोनिया गाँधी पार्टी अभिभावक के रूप में सक्रिय रहें और यूपीए की अध्यक्ष भी बनी रहें। हालाँकि यह नेता अध्यक्ष के तौर पर राहुल गाँधी को पूरी शक्ति देने के हक में भी हैं।

कांग्रेस के दो ध्रुव

कांग्रेस के बीच वर्तमान में एक बहुत दिलचस्प स्थिति है। इसमें दो मज़बूत ध्रुव हैं और दोनों ही कांग्रेस से पार्टी-निष्ठा रखते हैं। इनमें एक का नेतृत्व सोनिया गाँधी करती हैं, दूसरे का उनके पुत्र राहुल गाँधी। सोनिया के साथ पुराने और आजमाये हुए नेता हैं और राहुल के साथ कांग्रेस की युवा पीढ़ी के नेता। पहले यह तो होता था कि कांग्रेस में गाँधी परिवार के समर्थक होते थे और जो थोड़े बहुत बचते थे, वे पार्टी में गैर-गाँधी की बात करते थे। लेकिन हाल के महीनों में कांग्रेस में स्थिति बदलकर गाँधी बनाम गाँधी की हो गयी है। सोनिया गाँधी के साथ पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी, अंबिका सोनी, शक्तिशाली राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल, गुलाम नबी आज़ाद, पी. चिदंबरम, अमरिंदर सिंह, सुमन दुबे, अशोक गहलोत, सुशील कुमार शिंदे, मल्लिकार्जुन खडग़े, कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा और वीरप्पा मोइली जैसे वरिष्ठ नेता हैं। जबकि राहुल गाँधी के साथ सचिन पायलट, के.सी. वेणुगोपाल, सुष्मिता देव, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश भगेल, जयराम रमेश, रणदीप सुरजेवाला, अजय माकन और गौरव गोगोई जैसे नेता हैं। इसके अलावा राहुल गाँधी की टीम में कुछ प्रोफेशनल भी हैं, जो सोनिया गाँधी की टीम में नहीं। इनमें सोशल मीडिया समन्वयक निखिल अल्वा (पार्टी की नेता रहीं मार्गरेट अल्वा के बेटे), पूर्व निवेश बैंकर आईआईएम स्नातक अलंकार सवाई, रणनीतिक सलाहकार सचिन राव, ऑक्सफोर्ड के पढ़े कौशल किशोर विद्यार्थी के अलावा राजीव गाँधी के ज़माने में दूर संचार में सी-डॉट प्रणाली लाने वाले सैम पित्रोदा जैसे लोग हैं। यहाँ एक बहुत ही दिलचस्प बात यह है कि कुछ वरिष्ठ या युवा कांग्रेस नेता ऐसे हैं, जो सोनिया और राहुल दोनों के बराबर करीबी और भरोसेमंद हैं। इनमें प्रमुख हैं- ए.के. एंटनी, जयराम रमेश और के.सी. वेणुगोपाल। दरअसल राहुल गाँधी के सबसे भीतरी सॢकल में जो प्रोफेशनल हैं, वरिष्ठ नेताओं की चिढ़ उनसे ही है। यह राजनीतिक लोग नहीं है और राहुल के साथ बदली हुई आधुनिक राजनीति करना चाहते हैं। वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि यह लोग मोदी और शाह जैसे नेताओं से पार नहीं पा सकते और कच्ची राजनीति करते हैं। वरिष्ठ नेताओं को यह भी लगता है कि राहुल गाँधी पूरी तरह कांग्रेस का ज़िम्मा लेते हैं, तो उनके यह साथी वरिष्ठ नेताओं को किनारे करने की मुहिम छेड़ सकते हैं। यही कारण है कि पार्टी के भीतर तठस्थ नेता यह कोशिश कर रहे हैं कि राहुल गाँधी अध्यक्ष का ज़िम्मा सँभालें और वरिष्ठ नेताओं को साथ लेकर कांग्रेस की अनुभव और युवा जोश की एक मज़बूत टीम बनाएँ। इसमें कोई दो-राय नहीं कि राहुल गाँधी ने पिछले दो-ढाई साल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा सरकार के खिलाफ दम पर लोहा लिया है। उन्हें इसमें वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं साथ न के बराबर मिला है। राहुल के अध्यक्ष के नाते तीन राज्य विधानसभा चुनाव जीतने के बाद इन नेताओं का रुख कुछ बदला था; लेकिन उसके बाद वे खामोश होकर बैठ गये। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के 50 ही सीटों के आसपास सिमट जाने से इन वरिष्ठ नेताओं को यह बात कहने का अवसर मिल गया कि अपने युवा सलाहकारों के बूते राहुल पार्टी को बड़ा चुनाव नहीं जिता सकते। बहुत-से लोग राहुल की इस हिम्मत को दाद देते हैं कि चुनाव में पार्टी की हार के बाद उन्होंने इस्तीफा देने की नैतिकता दिखायी, जो आज की राजनीति बिरली चीज़ हो गयी है। हालाँकि कुछ अन्य उनके इस्तीफे को मैदान छोडक़र भागने की संज्ञा देते हैं। हालाँकि हाल के राजस्थान संकट के दौरान राहुल गाँधी की एक ही एंट्री ने सचिन पायलट वाला मसला हल करवाकर यह भी साबित किया कि एक नेता के गुण उनमें हैं, और पार्टी का एक मज़बूत वर्ग उनका समर्थन करता है। अब देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस का अध्यक्ष कौन बनेगा? लेकिन कांग्रेस के ज़्यादातर नेता और छोटे कार्यकर्ता तो यही मानते हैं कि यह राहुल गाँधी ही होंगे।

कहीं भारत को युद्ध के लिए मजबूर तो नहीं कर रहा चीन!

29 और 30 अगस्‍त की रात को चीन की सेना (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) ने भारतीय सीमा में घुसपैठ की दूसरी कोशिश की। इस घुसपैठ की कोशिश में भारतीय सेना और चीनी सेना के बीच झड़प हुई। हालाँकि इस झड़प में कोई घायल हुआ या नहीं, इसकी आधिकारिक जानकारी नहीं मिली। रक्षा मंत्रालय की ओर से एक बयान जारी कर यह भी कहा गया था कि चीनी सेना ने सैन्य गतिविधियाँ कीं, लेकिन भारतीय सेना ने उनकी इस गतिविधि का अंदाज़ा लगाते हुए उसे नाकाम कर दिया।

भारत-चीन सीमा पर गतिविधियों वाली कुछ खबरों के मुताबिक, चीनी सेना भारतीय सीमा पर नज़रें गड़ाये बैठी है और घुसपैठ की कोशिशें कर रही है। मगर इस बार भारतीय सेना ने चीन को मुँह की खिलाने की ठान ली है। अनेक जानकारों का कहना है कि चीन भारत को युद्ध के लिए उकसा रहा है। सवाल यह है कि क्या चीन से युद्ध की सम्भवानाएँ ठीक हैं? विदेश मंत्री एस जयशंकर ने लद्दाख की स्थिति को 1962 के संघर्ष के बाद सबसे गम्भीर बताया है।

बता दें कि कोर कमांडर लेवल पर चीन से भारत की 30 अगस्त तक करीब पाँच-छ: बार बातचीत हुई। हर बार की बातचीत में दोनों देश पहले जैसी स्थिति को वापस लाने पर राज़ी हुए; लेकिन चीन ने एक बार भी अपना वादा नहीं निभाया और सीमा पर सैन्य संख्या में लगातार बढ़ोतरी करता रहा है। इसी साल 15 जून को भारत-चीन के सैनिकों के बीच झड़प हुई थी। इस झड़प में हमारे 20 जवान शहीद हो गये थे, जबकि चीन के भी सैनिकों के मारे जाने की खबरें आयी थीं। झगड़ा चीन की सेना द्वारा भारतीय सीमा में घुसपैठ का था। चीन के साथ सैन्य स्तर की बातचीत हो रही थी कि पूर्वी लद्दाख में दोनों देशों के सैनिकों के बीच हालात बिगड़ गये। इसकी वजह चीनी सैनिकों द्वारा पैंगॉन्ग त्सो (झील) के दक्षिणी किनारे पर भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की कोशिश थी। जब भारतीय सैनिकों ने उन्हें रोकने की कोशिश की, तो उन्होंने हमला कर दिया। भारतीय सैनिक निहत्थे थे, मगर फिर भी पीछे नहीं हटे और शत्रु फौज का डटकर मुकाबला किया। हालाँकि केंद्र सरकार ने चीन की सेना द्वारा घुसपैठ से इन्कार किया और चीन ने भी शान्ति और बातचीत से विवाद सुलझाने की बात कही। मगर चीन एक शातिर शत्रु देश है, जिसकी नज़रें भारत के गलवान, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश आदि क्षेत्रों पर पूरी तरह टिकी हुई हैं।

बता दें कि चीन से भारत की सीमारेखा करीब 4057 किमी लम्बी है, जो पाँच भारतीय राज्यों से मिलती है। चीन चाहता है कि वह इन राज्यों में तबाही मचाकर रखे और भारत की वो भूमि अपने कब्ज़े में ले ले, जिसकी वजह से भारत पर आक्रमण करना आसान नहीं है। मगर इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि चीन खामोश बैठा है और शान्ति चाहता है। क्योंकि चीनी सेना लगातार भारतीय सीमा में घुसपैठ की कोशिश में है। अभी कुछ दिन से चीन की सेना सीमा पर लगातार हरकतें कर रही है।

भारतीय सेना के प्रवक्ता कर्नल अमन आनंद ने हाल ही में बताया था कि चीन की सेना ने पूर्वी लद्दाख गतिरोध पर सैन्य और राजनयिक बातचीत के ज़रिये बनी पिछली आम सहमति का उल्लंघन करके भारतीय सेना को उकसाने के लिए सैन्य अभियान चलाया। उन्होंने यह भी कहा था कि भारतीय सेना बातचीत के माध्यम से शान्ति और स्थिरता बनाये रखने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन देश की रक्षा करने के लिए भी उतनी ही प्रतिबद्ध है। वहीं चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ बिपिन रावत ने कहा है कि अगर सैन्य और कूटनीतिक स्तर पर प्रयास नाकाम होते हैं, तो सेना का विकल्प खुला है। इसके संकेत भी साफ हैं कि अगर चीन भारत को युद्ध के लिए मजबूर करता है, तो वह पीछे नहीं हटेगा।

अँधेरे में घुसपैठ करते हैं चीनी सैनिक

भारतीय सेना की ओर जारी एक बयान में कहा गया है कि चीनी सैनिक अँधेरे का फायदा उठाकर भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की कोशिश करते हैं। हालाँकि उनकी हर कोशिश को भारतीय सैनिक नाकाम कर देते हैं। हाल ही में सैन्य सूत्रों के हवाले से जानकारी मिली कि हाल ही में बड़ी संख्या में पैंगॉन्ग झील के दक्षिणी किनारे पर चीनी सैनिक इकट्ठे हुए, वे पश्चिम की ओर बढ़ रहे थे। ऐसा कहा गया है कि वे इस भारतीय क्षेत्र पर कब्ज़ा करना चाहते थे। सूत्रों का तो यहाँ तक कहना है कि चीनी सेना की मौज़ूदगी इस क्षेत्र में बनी हुई है। हालाँकि भारतीय सेना बड़ी संख्या में यहाँ तैनात है।

सीमा पर चीन ने बनाये हेलीपैड

चीन के भारत के खिलाफ षड्यंत्रों का खुलासा सैटेलाइट से अब तक मिली तस्वीरों से भी हुआ है। वह आक्रामक तरीके से हर तरफ से भारत को घेरने की नीचतापूर्ण कोशिशों में जुटा है। ओपन सोर्स सैटेलाइट तस्वीरों से खुलासा हुआ है कि चीन की सेना चीन के दो विवादित और संवेदनशील सीमा क्षेत्रों- डोकलाम तथा सिक्किम सेक्टर्स के पास ट्राइ जंक्शन पर एक स्ट्रक्चर बना चुकी है, जो हेलीपैड जैसा लगता है। एक ओपन सोर्स इंटेलिजेंस एनालिस्ट ने अपने ञ्चस्रद्गह्लह्म्द्गह्यद्घड्ड नाम के ट्विटर पर इन तस्वीरों में दिखाया है, जिसमें ट्राई जंक्शन के नज़दीक संदिग्ध हेलीपैड का निर्माण करना दिख रहा है। यह नाकु ला (नाकु पास) और डोका ला (डोका पास) से केवल 100 किलोमीटर दूर है। इंटेलिजेंस एनालिस्ट ने ट्वीट किया है कि पीएलए का संदिग्ध हेलीपैड इन्फ्रास्ट्रक्चर भारत, चीन, भूटान के ट्राई-जंक्शन डोकलाम क्षेत्र को लेकर जारी जाँच के दौरान दिखा। बताया जा रहा है कि चीनी सेना इन संदिग्ध हेलीपैड को ज़मीन से हवा में मार करने वाली मिसाइलों को तैनात करने के लिए बना रही है।

चीन जानता है जाँबाज़ है भारतीय सेना

चीन इस बारे में अच्छी तरह जानता है कि भारतीय सेना बहुत ही जाँबाज़ है। पिछली बार जब चीनी सैनिकों ने भारतीय सेना के 20 निहत्थे सैनिकों पर हमला किया था, तब वे निहत्थे होकर भी उनसे भिड़ गये और चीन के तकरीबन 47 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। हालाँकि इस झड़प में 20 भारतीय जवान शहीद हो गये। लेकिन भारतीय सेना ने कई बार चीन की घुसपैठ को नाकाम कर दिया है। सबसे बड़ी बात यह है कि चीनी सेना से भारतीय सैनिकों की जितनी बार भी झड़प हुई है, हर बार चीनी सेना ने ही अतिक्रमण की है, जबकि भारतीय सैनिकों ने आज तक चीन की सीमा में किसी भी तरह की घुसपैठ नहीं की है और न ही सीमा पर कोई आपत्तिजनक सैन्य गतिविधि चलायी है। इस बार खबरें हैं कि पूर्वी लद्दाख में जाँबाज़ भारतीय सैनिकों ने चीनी सैनिकों के मंसूबों को विफल करते हुए पैंगॉन्ग झील के दक्षिणी किनारे पर ऊँचाई वाले इलाके को अपने नियंत्रण में ले लिया है। निष्क्रिय पड़े इस क्षेत्र पर भारत के नियंत्रण से भारतीय सेना को यहाँ जंग का रणनीतिक लाभ मिलेगा।

लगातार धमकियाँ दे रहा चीन

हाल ही में छपे ग्लोबल टाइम्स के सम्पादकीय में अखबार के सम्पादक हू जिजिन ने भी भारत के खिलाफ कार्रवाई की धमकी दी है। हू ने इस सम्पादकीय में आरोप लगाया है कि भारत चीन के प्रति आक्रामक रुख अपना रहा है। हू ने चीनी सेना का हौसला बढ़ाते हुए भारत की जवाबी कार्रवाई को गुण्डों वाला व्यवहार बताया है। उसने चीनी आक्रामकता के खिलाफ भारत की प्रतिक्रिया को स्टंट बताते हुए ट्वीट करके लिखा है कि भारत को हमेशा लगता है कि चीन उकसावे पर समझौता करेगा। स्थिति को अब और गलतफहमी में न समझा जाए। यदि पैंगॉन्ग झील में संघर्ष होता है, तो इसका अन्त केवल भारतीय सेना की हार से ही होगा। हर बार

की तरह हूल देते हुए हू ने अपने सम्पादकीय में चीनी सेना को ताकतवर बताते हुए लिखा कि अगर भारत प्रतिस्पर्धा में शामिल होना चाहता है, तो चीन के पास उसकी तुलना में ज़्यादा हथियार और सैन्य क्षमता है। हू ने धमकी दी है कि अगर भारत सैन्य प्रदर्शन करता है, तो चीन उसे 1962 में हुए नुकसान की तुलना में ज़्यादा नुकसान पहुँचाने को मजबूर होगा। हू ने यह भी लिखा है कि अगर भारत चीन से युद्ध करता है, तो अमेरिका भी उसकी कोई मदद नहीं करेगा। इतना ही नहीं हू ने कम्युनिस्ट पार्टी की चीनी सरकार से अनुरोध किया है कि वह चीन की ओर से भी सैन्य कार्रवाई करे। वैसे बता दें कि चीन भारत को कई महीनों से गीदड़ भभकी दे रहा है और लगातार धृष्टता करने के बावजूद धमकियाँ दे रहा है। जबकि भारत एक ताकतवर शेर की तरह शान्त है।

रूस और तेहरान गये थे राजनाथ

इधर सीमा पर चीनी सेना के फिज़ूल की अनैतिक गतिविधियों और चीन से लगातार बढ़ रहे तनाव के मद्देनज़र देश के रक्षा मंत्री राजनाथ 4 सितंबर को रूस से लौटकर तेहरान भी गये थे। उनके दोनों देशों के दौरे का मकसद चीन और पाकिस्तान को उनकी नापाक हरकतों के खिलाफ सबक सिखाना माना जा रहा है। रक्षामंत्री की इस यात्रा से बौखला गया है।

हालाँकि भारत कभी भी सीमा विवाद पर गलतियाँ नहीं करता, इस बात का परिचय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने चीनी रक्षा मंत्री वेई फेंगही से रूस में बातचीत करके दिया है। लेकिन चीन ने इसके बाद जारी बयान में कहा है कि वह अपनी एक इंच ज़मीन नहीं छोड़ेगा। उसने भारत पर झूठा आरोप लगाते हुए यह भी कहा कि भारत सीमा पर विवाद बढ़ाना

चाहता है। इधर राजनाथ सिंह ने फ्रांस को भारत में रक्षा क्षेत्र में निवेश का सौदा दिया है।

क्या युद्ध चाहते हैं शी जिनपिंग

आये दिन भारतीय सेना को हूल देने की कोशिश करने और भारतीय सैनिकों से मुँह की खाने पर चीनी सेना को जिस तरह से उसके राष्ट्रपति शी जिनपिंग की आलोचना का शिकार होना पड़ा, उससे तो यही लगता है कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत से युद्ध चाहते हैं। बताया जा रहा है कि शी जिनपिंग चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी के उस कमांडर से बहुत नाराज़ हैं, जिसने पैंगांग के दक्षिणी इलाके में अपनी सेना का नेतृत्व किया था। जिनपिंग चीनी सेना से इतने नाराज़ हैं कि जल्द ही सेना में बड़े बदलाव कर सकते हैं। सूत्रों की मानें तो सेना के साथ ही अन्य कानून प्रवर्तक एजेंसियाँ भी उनके निशाने पर हैं। बता दें कि शी जिनपिंग कभी हार नहीं मानने वाले ज़िद्दी नेता के तौर पर उभरे हैं। शी जिनपिंग की कूटनीति भी बहुत शातिराना िकस्म की है। वह एक ऐसे राजनेता हैं, जिन्होंने एक तरफ अपने देश में हमेशा के लिए सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया है, तो दूसरी तरफ दूसरे देशों को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल किया है।

युद्ध हुआ तो क्या होगा?

इधर, चीन से हर दिन तनाव बढ़ता जा रहा है। स्थिति यह है कि अब युद्ध की सम्भावनाएँ बढ़ती जा रही हैं। हाल ही में चीनी सैनिक भारतीय सैनिकों के सामने हथियारों से लैस होकर आ गये और उन्हें धमकाने लगे। लेकिन भारतीय सैनिकों ने इस तनाव को बहुत बढऩे नहीं दिया। सवाल यह हैं कि अगर चीन से युद्ध होता है, तो क्या होगा? क्या भारत का चीन से अधिक

नुकसान होगा?

चीन की ताकत को देखें, तो भारत उससे कई तरह से कमज़ोर है। क्योंकि इस समय कमज़ोर अर्थ-व्यवस्था और कोरोना वायरस के कहर से जूझ रहा भारत परमाणु और दूसरे हथियारों में भी चीन से कमज़ोर है। दूसरा चीन के पास जैविक हथियार होने की सम्भावना है। इसके अलावा चीन ने पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका जैसे देशों को अपने पक्ष में कर रखा है। अमेरिका द्वारा भारत की मदद की उम्मीद भी उतनी नहीं की जा सकती, क्योंकि अमेरिका ने परदे के पीछे से भारत को हमेशा दबाये रखने की कोशिशें की हैं। रूस ने भी मध्यस्था करने से साफ इन्कार कर दिया है। हालाँकि इससे भारत का पक्ष कमज़ोर नहीं होता, क्योंकि अभी बहुत से देश हैं, जो भारत के पक्ष में खुलकर भले ही नहीं खड़े हैं; लेकिन अगर युद्ध हुआ तो भारत के पक्ष में मैदान में होंगे। लेकिन फिर भी यही कहना उचित होगा कि अगर युद्ध होता है, तो भारत को अपने दम पर इसे जीतना होगा। और इसके लिए केंद्र सरकार को मज़बूती से देश-रक्षा पर ध्यान देना चाहिए, न कि राजनीतिक दाँवपेच में उलझना या देशवासियों को उलझाना चाहिए। क्योंकि भारतीय सेना बहुत मज़बूत है, पर उसे स्वायत्तता मिलनी चाहिए, तो वह दुश्मन को धूल चटा सकती है।

भारत-चीन भिड़े, तो छिड़ सकता है विश्व युद्ध!

यह तय है कि अगर भारत और चीन में युद्ध होता है, तो विश्व युद्ध छिड़ सकता है। इसके कई कारण हैं। एक कारण यह है कि चीन से कई देश खार खाये बैठे हैं और उसे व्यापार में पछाडऩा चाहते हैं। दूसरा कारण यह है कि चीन ने कई देशों के खिलाफ षड्यंत्र रचने का काम किया है। उसने लक्षद्वीप से मात्र 600 किलोमीटर की दूरी पर एक कृत्रिम द्वीप का निर्माण किया है। इतना ही नहीं, चीन दक्षिण सागर में ऐसे कई कृत्रिम द्वीप बना चुका है। वैश्विक नियमों के मुताबिक, किसी देश की समुद्री सीमा उसकी ज़मीनी सीमा के बाद समुद्र में 200 नॉटिकल मील तक मानी जाती है। लेकिन चीन ने कई पड़ोसी देशों के बीच स्थित समुद्र पर कब्ज़ा करने किया है। चीन ने काफी समय से समुद्र के बीच नकली द्वीपों का निर्माण शुरू कर दिया है। उसने इन द्वीपों को बनाने का आसान तरीका चुना है। इस तरह समुद्र पर कब्ज़ा करने के पीछे चीन की मंशा दुनिया की सबसे ताकतवर देश बनने की है। चीन की ताकत बढ़ी भी है। ऐसा नहीं है कि चीन ने यह ताकत दो-चार साल में हासिल की है, ऐसा करने के लिए उसे तकरीबन दो से ढाई दशक लगे हैं। शायद यही वज़ह है कि वह भारत के खिलाफ लगातार हरकतें और शाज़िशें कर रहा है।

‘आये दिन भारत की संप्रभुता पर हमला हो रहा है। आये दिन हमारी सरजमीं पर कब्ज़े का दुस्साहस और देश की धरती पर चीनी घुसपैठ की खबरें आ रही हैं। देश की सेना तो देश की रक्षा कर रही है। सीमा पर सीना ताने खड़ी है। लेकिन देश के प्रधानमंत्री मोदी कहाँ हैं? वह लाल आँख दिखाकर चीन से कब बात करेंगे? चीन को कब करारा जवाब देंगे? देश की ज़मीन से कब्ज़ा कब छुड़वाएँगे? मोदी जी! लाल आँख कहाँ है? चीन की आँखों में आँखें कब डाली जाएँगी?’

रणदीप सिंह सुरजेवाला, कांग्रेस प्रवक्ता

‘चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सन् 1962 के बाद निश्चित तौर पर यह सबसे गम्भीर स्थिति है। यहाँ तक कि 45 साल बाद चीन के साथ संघर्ष में भारतीय सैनिक हताहत हुए हैं। सीमा पर दोनों तरफ से सैनिकों की तैनाती भी अप्रत्याशित है। अगर हम पिछले तीन दशकों से देखें, तो विवादों का निपटारा राजनयिक संवाद के ज़रिये ही हुआ है और हम अब भी यही कोशिश कर रहे हैं। भारत ने चीन से कह दिया है कि सीमा पर शान्ति की स्थापना दोनों देशों में बराबरी के सम्बन्धों पर ही सम्भव है।’

एस जयशंकर, विदेश मंत्री, भारत सरकार

भारत में चीन के खिलाफ पोस्टर वॉर

इधर, भारत के लोगों में चीन के खिलाफ विकट गुस्सा है। कई महीनों से भारत के विभिन्न हिस्सों में चीन के खिलाफ तरह-तरह के अभियान चलाये जा रहे हैं। इसी विरोध के तहत जून में दिल्ली में पंचशील मार्ग पर बने चीनी दूतावास के सामने बोर्ड पर और आस-पास लोगों ने पोस्टर लगाये गये थे। हालाँकि कहा जा रहा है कि चीनी दूतावास के बोर्ड पर से पोस्टर को हटा दिया गया है। बताया जा रहा है कि चीनी दूतावास के आगे हिंदू सेना कार्यकर्ताओं पोस्टर लगाये थे। इसमें एक पोस्टर पर लिखा था- ‘हिंदी-चीनी बाय-बाय’। इसके अलावा भी देश भर में पहले से ही काफी विरोध हो रहा है। इसमें चीन के सामान से लेकर वहाँ के राष्ट्रपति तक के पुतले फूँके गये। भारत में अब भी लोग चीन और चीन के सामान का जमकर विरोध दिखें।

विदेश मंत्री का महत्त्वपूर्ण दौरा

इधर, भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने मॉस्को का दौरा किया है। उन्होंने मॉस्को में चल रही शंघाई कॉपरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन (एससीओ) देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में भाग लिया। मॉस्को में उन्होंने अपने चीनी समकक्ष वाँग यी से बातचीत की। हालाँकि दोनों विदेश मंत्रियों के बीच क्या बातचीत हुई? इसका ब्यौरा अभी नहीं मिल सका है। एक तरफ मॉस्को में जहाँ दोनों विदेश मंत्रियों के बीच बातचीत हुई, वहीं दूसरी तरफ एलएसी पर सैन्य बातचीत में दोनों सेनाओं के बीच ब्रिगेडियर स्तर की बातचीत हुई। इससे पहले दोनों देशों के बीच लेफ्टिनेंट जनरल या कोर कमांडर स्तर की कई राउंड बातचीत हो चुकी है; लेकिन तनाव कम करने में कोई खास प्रगति नहीं हो सकी है।

दोराहे पर कांग्रेस

देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस के लिए शायद यह सबसे अच्छा समय है, और सबसे खराब भी। देश के सबसे मुख्य विपक्षी दल के लिए यह सबसे अच्छा समय इसलिए है, क्योंकि उसके पास सत्तारूढ़ दल को कटघरे में खड़ा करने का सुनहरा अवसर है। इसके कारण हैं- देश की अर्थ-व्यवस्था में चिन्ताजनक गिरावट, राज्यों को जीएसटी संग्रह में कमी के लिए केंद्र से भुगतान नहीं मिलना और कोरोना वायरस महामारी का आज भी तेज़ी से फैलना। इसके अलावा चीन के साथ सीमा पर पाँच महीने से चल रहा गम्भीर तनाव अलग है। लेकिन लगता है कि सरकार को घेरने के बजाय कांग्रेस को अपने भीतर की कलह से ही फुरसत नहीं मिल रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार के बाद राहुल गाँधी के इस्तीफा देने के बाद इन 15 महीनों में पार्टी एक पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं ढूँढ पायी है। सच कहें तो यह काम पार्टी के लिए एक तरह की बड़ी चुनौती बन गया है।

हालाँकि यह भी एक सच है कि जब भी राहुल गाँधी ने सत्तारूढ़ दल को देश के गम्भीर और प्रासंगिक मुद्दों- अर्थ-व्यवस्था, युवाओं को रोज़गार, राष्ट्रीय सुरक्षा आदि पर घेरा है। उन्हें देश के दुश्मनों के साथ खड़ा दिखाने की कोशिश सत्ताधारी दल के नेताओं ने की है। इसमें कोई दो राय नहीं कि एक नेता के तौर पर राहुल गाँधी ने सरकार के खिलाफ मुद्दों पर आधारित आवाज़ बुलंद की है; लेकिन कांग्रेस जनता को इन मुद्दों पर आन्दोलित करने में नाकाम रही है। हाल के चुनावों में पार्टी के आधार का क्षरण हुआ है और युवाओं के बीच इसने प्रासंगिकता खोयी है। ज़ाहिर है इसका सबसे ज़्यादा लाभ भाजपा को मिला है।

हाल ही में कांग्रेस कार्यसमिति की महत्त्वपूर्ण बैठक से एक दिन पहले 23 कांग्रेसियों का पत्र मीडिया में लीक हो गया; जिसमें सामूहिक नेतृत्व के सुझाव की बात है। इससे यह संकेत मिलता है कि पार्टी के कई नेताओं का गाँधी परिवार के नेतृत्व के प्रति मोहभंग हुआ है। इस पत्र का 11 सूत्री एजेंडा 134 साल पुराने इस राजनीतिक दल को देश की लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ एक मज़बूत राष्ट्रीय गठबन्धन के रूप में सुदृढ़ करने की प्रेरणा देता महसूस होता है। साथ ही यह नेता कांग्रेस में एक पूर्णकालिक, प्रभावी, सक्रिय अध्यक्ष चाहते हैं और उनका पार्टी में सीडब्ल्यूसी सहित सभी स्तर पर चुनाव करवाने, पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए सामूहिक संस्थागत नेतृत्व का मॉडल अपनाने और समान विचारधारा के दलों के साथ राष्ट्रीय गठबन्धन तैयार करने पर ज़ोर है। निश्चित ही सामूहिक नेतृत्व की बात नेहरू-गाँधी परिवार के लिए एक संकेत है कि पार्टी आलाकमान के पूर्ण नियंत्रण की अवधारणा बदलनी होगी। आंतरिक लोकतंत्र बहाल करके और राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता वाला अध्यक्ष नियुक्त करके ही पार्टी को ज़मीनी स्तर पर पुनर्जीवित किया जा सकता है। भले ही देर से सही, पार्टी में संगठनात्मक सुधार की माँग की गयी है; लेकिन कोई आत्मनिरीक्षण नहीं हुआ है।

कांग्रेस एनडीए सरकार के खिलाफ धारदार आन्दोलन शुरू करने के बजाय, आलाकमान को पत्र लिखने वाले नेताओं को दण्डित करने में अपनी ऊर्जा बर्बाद कर रही है। कांग्रेस यदि पत्र लिखने वालों और किन्हीं मुद्दों पर अलग विचार रखने वाले नेताओं की निष्ठा पर शक करेगी और उनकी निष्ठा के परीक्षण के चक्कर में फँसी रहेगी, तो खुद को ही नुकसान पहुँचायेगी। कांग्रेस को नहीं भूलना चाहिए कि वो पहले ही पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और महाराष्ट्र में शरद पवार जैसे व्यापक जनाधार वाले नेताओं को खो चुकी है। पार्टी के लिए यह अहंकार और निष्ठा की सोच को परे धकेलने का समय है। देश के एक जवाबदेह राजनीतिक दल के नाते कांग्रेस की ज़िम्मेदारी है कि वह व्यापक संगठनात्मक सुधार करके खुद को सरकार से भिडऩे के लिए तैयार करे; जो एक विपक्षी दल होने के नाते उसका प्राथमिक कार्य है।

गुरुद्वारा श्री बंगला साहिब में मिल रहीं सबसे सस्ती दवाएँ

गुरुद्वारा श्री बंगला साहिब में मेडिकल स्टोर की शुरुआत की गयी है, जिसमें आम रोगों से लेकर कैंसर, हार्ट जैसे गम्भीर रोगों की दवाएँ भी फार्मा (दवा) कम्पनियों के रेट पर उपलब्ध करायी जाती हैं। गुरुद्वारा श्री बंगला साहिब परिसर में ‘बाला प्रीतम दवाखाना’ नाम से यह मेडिकल स्टोर खोला गया है, जो काफी बड़ा है। दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष मनजिंदर सिंह सिरसा ने तहलका संवाददाता को बताया कि इसी 29 अगस्त को इस दवाखाने का शुभारंभ श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के सम्पूर्णत: दिवस के अवसर पर किया गया है। दवाखाना खोलने के पीछे मकसद के बारे में उन्होंने बताया कि कोविड-19 महामारी फैलने से लोग काफी परेशान हैं। गरीबों को पैसों के अभाव में दवाएँ नहीं मिल पा रही हैं। ऐसे में लोगों की दु:खों को देखते हुए दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा बाला प्रीतम नाम से दवाखाना खोलने का फैसला लिया गया। मनजिंदर सिंह सिरसा ने कहा कि गुरुद्वारा श्री बंगला साहिब एक पवित्र स्थल है। यहाँ हज़ारों लोग हर रोज़ मत्था टेकने को आते हैं। इन लोगों में किसी को या बाहर किसी को कोई बीमारी हो, तो वह यहाँ से फार्मेसी के रेट पर दवाएँ ले सकेंगे। इन दवाओं में एक रुपये का भी मुनाफा नहीं लिया जाएगा। उन्होंने बताया कि तमाम दवा कम्पनियों ने खुद गुरुद्वारा कमेटी से सम्पर्क करके कम्पनी रेट पर दवा मुहैया कराने को कहा है।

दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के एक्जीक्यूटिव सदस्य और गुरु हरिकिशन पोली क्लीनिक के चेयरमैन भूपेन्द्रर सिंह भुल्लर ने बताया कि इस दवाखाने में किसी भी राज्य से किसी जाति-धर्म का कोई भी व्यक्ति दवा ले सकता है। अभी दवाखाना सुबह 10 से रात 8 बजे खुलता है। लेकिन ज़रूरतमंदों की बढ़ती संख्या को देखते हुए इसके समय में विस्तार किया जाएगा, ताकि उन्हें कोई परेशानी न हो। उनका कहना है कि दवाखाने के माध्यम से एक ओर मरीज़ों को सस्ती दवा मुहैया करायी जा रही है, तो दूसरी ओर इसमें युवाओं को एक रोज़गार का अवसर मिल रहा है।

भुल्लर का कहना है कि जल्द ही इसी तर्ज पर वहाँ भी दवाखाने खोले जाएँगे, जहाँ पर हमारी डिस्पेंसरी हैं। उन्होंने बताया कि यहाँ पर सारी ब्रांडेड और जेनेरिक दवाएँ उपलब्ध हैं। मतलब, दवा की क्वालिटी से कोई समझौता नहीं। यह शुभ काम है और मरीज़ों के लाभ के लिए है। बताते चले देश में दवा का कारोबार एक बड़े मुनाफे के तौर देखा जाता है और दवा कारोबारी इससे मोटा पैसा कमाते हैं, महामारी में तो कई दवा कारोबारियों ने और भी फायदा उठाया है। ऐसे में गुरुद्वारा श्री बंगला साहिब का काम बहुत सराहनीय है और उन धर्म स्थलों तथा धर्म के ठेकेदारों के लिए भी प्रेरणास्रोत है, जो जनहित की बात तो करते हैं, पर जनहित नहीं करते। दूसरी धार्मिक संस्थाओं को भी बिना किसी भेदभाव के ऐसी ही पहल करनी चाहिए, ताकि लोगों को सही मायने में लाभ मिल सके। क्योंकि मौज़ूदा दौर में देशवासी, खासकर गरीब और मध्यम वर्ग के लोग पहले ही अनेक परेशानियों में घिरे हैं। बीमार होने पर उनका काफी पैसा इलाज और दवाओं पर खर्च होता है। ऐसे में इस पहल से उन्हें काफी

राहत मिलेगी। गुरुद्वारा श्री बंगला साहिब में दवा खरीदने आये भुप्पी कपूर ने बताया कि उनके घर में कई लोग अलग-अलग बीमारियाँ हैं, जिससे दवाओं में उनका बहुत पैसा उठ जाता था। लेकिन गुरुद्वारे से दवा खरीदने पर उन्हें काफी राहत मिली है और बचत हो रही है। दवा खरीदने वालों में सविन्दर सहोता ने बताया कि गुरुद्वारे से कोई भी भूखा नहीं जाता है। अब गुरु जी की असीम कृपा से कोई भी गरीब दवा के अभाव के चलते बीमारी से परेशान नहीं रहेगा। दिल्ली के अनेक डॉक्टरों का कहना है कि गुरुद्वारे की इस पहल का सही मायने में बीमार, गरीब लोगों को लाभ होगा; क्योंकि वे बाहर से महँगी दवाएँ नहीं खरीद पाते, जिससे कई बार उनका इलाज नहीं हो पाता। साथ ही इस पहल से दवा कारोबारियों की मनमानी पर भी कुछ हद तक अंकुश लगेगा। उत्तर प्रदेश के चित्रकूट से आये सुनील सिंह ने बताया कि गुरुद्वारे से उन्हें काफी कम कीमत पर दवा मिली है। उन्होंने देश भर के अन्य धार्मिक अनुष्ठानों से आग्रह किया है कि वो भी इस तरह की पहल करें, जिससे आम लोगों को लाभ हो सके। वैसे तो दिल्ली में तामाम मेडिकल स्टोर वाले दवाओं पर 10 से 15 फीसदी तक की छूट देते हैं, लेकिन गुरुद्वारा श्री बंगला साहिब में सीधे दवा कम्पनियों से लिये गये मूल्य पर ही बिना एक पैसे का लाभ कमाये दवाएँ दी जा रही हैं, वह काम बहुत सराहनीय है।

दोहरी चुनौतियों के बीच अँधेरे में अर्थ-व्यवस्था

कहते हैं कि जब भी कोई समस्या आती है तो चारों तरफ से आती है, जिसका अगर समय रहते सामना न किया जाए तो भयानक रूप धारण कर लेती है। कोरोना महामारी से उपजे संकट से भारत में जो दिक्कतें आ रही हैं, उनका केंद्र सरकार, राज्य सरकारों सहित सभी नागरिक सामना कर रहे हैं। चाहे वो स्वास्थ्य के क्षेत्र में हों या बाज़ार के क्षेत्र में हों। लेकिन इस समय देश तीन समस्याओं से जमकर जूझ रहा है। इनमें एक है- कोरोना के लगातार बढ़ते मामले, दूसरी है- भारत की लडख़ड़ाती अर्थ-व्यवस्था, तीसरी है- चीन से निपटने की चुनौती। ऐसे में सरकार अपनी गलतियों पर गौर करे और छोटे-बड़े व्यापारियों को सुविधा दे, जीएसटी में संशोधन करे, किसानों को बढ़ावा दे और उनकी माँगों पर अमल करे, तो अर्थ-व्यवस्था में सुधार हो सकता है।

तहलका संवाददाता ने लडख़ड़ाती अर्थ-व्यवस्था और चीन की चालों पर जानकारों से बात की है, उनका कहना है कि यह कहना बहुत कठिन है कि अर्थ-व्यवस्था को कब तक पटरी पर लाया जा सकता है। पर इतना ज़रूर है कि अगर सरकार अपनी नीतियों में सुधार करे और धैर्य तथा सूझ-बूझ के साथ काम ले, तो आर्थिक सुधार लाया जा सकता है। रहा सवाल चीन की चालों का, तो उस पर चौकसी रखनी होगी। वैसे चीन कभी इतना साहस नहीं कर सकता है कि वह भारत से युद्ध कर सके। क्योंकि हमारे जवान अपना बेहतर शक्ति-प्रदर्शन करके कई बार चीनी सैनिकों को खदेड़ चुके हैं।

अगर हम अपने देश की लडख़ड़ाती अर्थ-व्यवस्था की बात करें, तो कहना गलत नहीं होगा कि केंद्र सरकार ने कुछ गलतियाँ भी की हैं; जैसे कि अचानक लॉकडाउन करना। इससे देश की अर्थ-व्यवस्था पर बड़ा बुरा असर पड़ा है। लेकिन सरकार ने कुछ सुधार भी किये हैं; जैसे कि बैंकों और वित्तीय संस्थानों के माध्यम से तरलता और सरलता लाने के लिए किये गये प्रयास अर्थ-व्यवस्था के लिए मददगार रहे हैं। आरबीआई की रेगुलेटरी पॉलिसी से भी अर्थ-व्यवस्था में मज़बूती आयी है। लेकिन अभी जो खबर आयी कि वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में अर्थ-व्यवस्था में 23.9 फीसदी तक का जो संकुचन हुआ है, उससे देशवासियों के साथ-साथ अर्थशास्त्री भी विस्मित हैं। इस पर भले ही सियासत हो रही हो, पर यह देश का संवेदनशील मुद्दा है। जीडीपी में गिरावट में एक मात्र क्षेत्र कृषि ही लगभग बचा रहा है, जो अब भी 3.4 फीसदी की दर पर है। जीडीपी गिरावट में कोरोना महामारी मूल जड़ में है।

दरअसल मार्च के अंतिम सप्ताह के बाद से मई तक हुए लॉकडाउन से देश के तमाम व्यापारिक संस्थानों के बन्द रहने और पैसे का लेन-देन पूरी तरह से बन्द होने से से अर्थ-व्यवस्था चौपट हुई और जीडीपी में इतनी बड़ी गिरावट आ गयी। लेकिन अनलॉक से बाज़ारों में लौटती रौनक से भी अब लगता है कि अगली तिमाही में भी अर्थ-व्यवस्था पर कोई विशेष सुधार नहीं होगा। लेकिन जीडीपी में गिरावट का आकार कम होगा, जिसकी उम्मीद भी है। आर्थिक मामलों के जानकार सुरेश सिंह का कहना है कि जब भी देश में आर्थिक संकट या मंदी आयी है, तब-तब भारतीय किसानों ने अपनी मेहनत के दम पर भारतीय अर्थ-व्यवस्था को मज़बूती दी है। फिर भी सरकारों ने सदैव किसानों की माँगों और समस्याओं को नज़रअंदाज़ किया है। कोरोना-काल में सम्पूर्ण लॉकडाउन के दौरान किस प्रकार किसानों को परेशानी हुई। उन्हें पुलिस ने भी किया, यह किसी से छिपा नहीं है। किसानों को अपनेअनाज को ही बेचने लिए काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा।

आर्थिक मामलों के एक और जानकार राज के. आनन्द का कहना है कि सरकार ने जब 25 मार्च को लॉकडाउन किया था, तब ही यह सवाल उठा था कि अर्थ-व्यवस्था का क्या होगा? लेकिन तब यह भी बात सामने थी कि बीमारी से जान बचाना ज़रूरी है। जो दूसरे राज्यों में मेहनत-मज़दूरी करके अर्थ-व्यवस्था को सहारा देते रहे हैं, उनको काम देने में सरकार असफल रही और एक ऐसा माहौल बन गया कि मज़दूर अपनी जान पर खेलकर अपने-अपने घर जाने को मजबूर हो गये। ऐसे में सरकार को आगामी आर्थिक संकट से निपटने के लिए सटीक नीति की आवश्यकता है। छोटे कारोबार की सहायता के लिए व्यापक प्रोत्साहन की ज़रूरत है। व्यापारी नेता राकेश यादव का कहना है कि देश में कोरोना महामारी से जो व्यापारियों की दुर्गति हुई है, उससे आर्थिक हालात नाज़ुक हुए हैं। एक दम बाज़ार व उद्योग बन्द होने से लोगों की नौकरी चली गयी, जिससे हाथ में पैसा नहीं रहा और लेने-देन ठप हो गया था। छोटे और बड़े व्यापारियों के सामने फिलहाल उम्मीद जागी है कि इस त्योहारी सीजन में नवदुर्गा, दशहरा और दीपावली के अवसर पर कुछ कमायी हो जाए, तो व्यापारियों के साथ-साथ देश की अर्थ-व्यवस्था सुधर जाए। अन्यथा तो मुश्किल ही है। क्योंकि जिस गति से कोरोना वायरस फैल रहा है, उससे अब व्यापारियों को डर लग रहा है कि कहीं फिर से कोई दिक्कत न हो जाए। इस डर की एक और बड़ी वजह भारत में असंगठित उद्योगों की संख्या को ज़्यादा होना भी है। कोरोना महामारी की मार इन्हीं असंगठित उद्योगों पर सबसे अधिक पड़ी है। इनके पास धन की कमी व आय के साधन कम होने से आगे भी तामाम तरह का संकट और चुनौतियाँ हैं। मौज़ूदा समय में लोग आतंकित और आशंकित हैं, क्योंकि कोरोना वायरस ने आतंक मचा रखा है और आर्थिक संकट ने आशंकाओं के घने बादल खड़े कर दिये हैं। ऐसे में बाज़ारों में रौनक की उम्मीद कम ही है। बाज़ारों में छायी उदासी को लेकर व्यापारी नेता पीयूष कुमार गुप्ता का कहना है कि केंद्र सरकार बड़ी भूल यह कर रही है कि वह सही मायनों में व्यापारियों की समस्याओं का समाधान नहीं कर रही है। जैसे कि जीएसटी को लेकर जो पेच फँसा है, जिसका समाधान नहीं हुआ है। इसके चलते व्यापारियों को तमाम अड़चनों का सामना करना पड़ रहा है और व्यापार लडख़ड़ा रहा है। उनका कहना है कि कोरोना-काल के पहले ही देश में आर्थिक मंदी रही है। सरकार ने कहने को तो आर्थिक सुधार के लिए काम किया है, लेकिन उसमें व्यापारियों की अनदेखी की है; जिससे अर्थ-व्यवस्था फिसलती गयी है।

रही बात चीन की चालों की, तो इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि भारत और चीन के बीच कभी भी परस्पर सौहार्द नहीं रहा है। चीन छल-कपट करता ही रहा है। वैसे चीन ने ही कोरोना का संकट पैदा किया है। चीन ने अपनी चाल से ऐसे समय पूरी तरह अमानवीयता का परिचय दिया है। आज जब सारी दुनिया जीवन के लिए संघर्ष कर रही है, उसने मौके का गलत फायदा उठाते हुए पहले भारत के गलवान और अब लद्दाख क्षेत्र में घुसपैठ करने की कोशिशें की हैं। लेकिन भारतीय सेना ने उसे करारा जबाव दिया है। सदर बाज़ार से व्यापारियों का कहना है कि कोरोना की दस्तक के पहले तो चीन भारत के व्यापार में इस कदर घुसा था कि ज़्यादातर व्यापार उसी पर आश्रित था। अब ऐसे हालात है कि चीन के समान से ही नहीं, बल्कि चीन से ही नफरत हो गयी है। व्यापारियों का कहना है कि पहले की सरकारें और मौज़ूदा केंद्र सरकार का पहला शासनकाल तो चीनी हरकतों और व्यापार के प्रति कभी गम्भीर ही नहीं रहा। कोरोना वायरस ने और सीमा विवाद के बाद सरकार के सख्त तेवर देखने को ही मिल रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ज़रूर आत्मनिर्भर और खिलौना उत्पादन पर बल दिया है, लेकिन इस काम को करने के लिए संसाधन और धन की ज़रूरत होती है।

सर्वविदित है कि देश में काम शुरू करने के पहले कितनी दिक्कतें होती हैं? खासकर उन लोगों को, जो नये सिरे से काम करते हैं। ऐसे में सरकार को रियायत देने के बारे में जानकारी देनी चाहिए। आत्मनिर्भर की बात तो प्रधानमंत्री करते हैं, लेकिन मौज़ूदा दौर में जिस तरीके से काम चल रहा है, क्या उससे बेरोज़गार लोग आत्मनिर्भर हो सकते हैं। चाटर्ड अकाउंटेंट रमेश कुमार का कहना है कि हमारी अर्थ-व्यवस्था 40 साल के सबसे बुरे दौर में है। देश पिछले कई वर्षों से मंदी के दौर से गुज़र रहा था, लेकिन लॉकडाउन की वजह से बिना तैयारी के अचानक बन्द किया गया, जिससे देश में करोड़ों लोगों की नौकरी चली गयी। इसका नतीजा यह हुआ कि अर्थ-व्यवस्था चौपट हो गयी और अब जीडीपी औंधे मुँह गिर गयी, जिससे जल्दी उबर पाना बहुत ही मश्किल है। जीडीपी और अर्थ-व्यवस्था की ऐतिहासिक गिरावट पर कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी ने कहा कि जीएसटी कोई कर प्रणाली नहीं है, बल्कि भारत के गरीबों, किसानों श्रमिकों और छोटे-बड़े व्यापारियों पर हमला है। जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स करार देते हुए उन्होंने कहा कि यह भारत की असंगठित अर्थ-व्यवस्था पर बड़ा हमला है। राहुल गाँधी ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि यह गिने-चुने बड़े उद्योगपतियों की भलाई करने वाली सरकार है।

तहलका संवाददाता को कुछ किसानों ने बताया कि सरकार को अब भी समझना चाहिए कि देश की अर्थ-व्यवस्था में देश के अन्नदाता का बड़ा योगदान है। फिर भी आज का किसान अपने खेती उत्पादों को उचित दामों में नहीं बेच पाता है। इसकी वजह सरकार द्वारा किसानों की अनदेखी है। किसान राहुल का कहना है कि किसानों के लिए जो भी पहल सरकार कर रही है, वो पर्याप्त नहीं है। सरकार को अगर सही मायने में किसान की मदद करनी है, तो प्रदेश स्तर से लेकर ज़िला स्तर तक किसानों के लिए अलग से बोर्ड स्थापित करके देश भर के सभी छोटे-बड़े किसानों की समस्याओं को ठीक से सुनकर उनका समाधान करना होगा।

करोड़ों रुपये का छात्रवृत्ति घोटाला

पंजाब में केंद्र सरकार की योजना पोस्ट मेट्रिक स्कॉलरशिप यानी छात्रवृत्ति (अनुसूचित जाति) वितरण में व्यापक स्तर पर वित्तीय अनियमितताएँ उजागर हुई हैं। राज्य के अतिरिक्त मुख्य सचिव कृपा शंकर सरोज ने व्यापक स्तर पर मामले की जाँच की। अपनी रिपोर्ट में उन्होंने 55 करोड़ रुपये का स्पष्ट घोटाला बताया। 33 पेज की यह रिपोर्ट बताती है कि विभाग के अधिकारियों ने मनमाने तरीके से काम किया। जिन पात्र विद्यार्थियों को यह स्कॉलरशिप मिलनी थी और उससे उन्हें आगे बढऩा था, वे इससे वंचित रह गये।

पात्र लोगों के नाम करोड़ों की राशि आखिर किनके खातों में पहुँच गयी। पात्र, ज़रूरतमंद और आगे की पढ़ाई के लिए सहारा स्कॉलरशिप राशि का गोलमाल करने वाले कौन हैं? निश्चित तौर पर सरकार में बैठे लोग और सामाजिक न्याय, आधिकारिता विभाग के अधिकारी। करोड़ों का खेल छोटे-मोटे अधिकारी अपने बूते नहीं कर सकते। पंजाब में व्यापक स्तर पर करोड़ों का हेरफेर अधिकारियों ने किसकी शह पर किया गया। क्या कभी इसका खुलासा राज्य सरकार की जाँच में हो सकेगा?

 हज़ारों पात्र विद्यार्थियों की स्कॉलरशिप का कोई हिसाब-किताब नहीं है। जिन फाइलों में वितरण का पूरा ब्यौरा था, वे न जाने कहाँ गायब हो गयी है। अतिरिक्त मुख्य सचिव के बार-बार माँगने के बावजूद विभाग के सम्बन्धित अधिकारियों ने उन्हें कुछ नहीं बताया है। मतलब साफ है कि केंद्रीय योजना राशि का सामाजिक न्याय, आधिकारिता और अल्पसंख्यक विभाग सही से वितरण नहीं कर सका। यह गफलत या चूक नहीं, बल्कि सोची-समझी साज़िश के तहत करोड़ों रुपये का हेरफेर किया गया। इसके लिए सम्बन्धित मंत्री साधू सिंह धर्मसोत की ज़िम्मेदारी बनती है। योजना के तहत इस राशि का एक बड़ा हिस्सा शिक्षण संस्थाओं को दिया गया और राशि पात्र विद्यार्थियों तक नहीं पहुँची। अगर योजना का लाभ पात्र तक न पहुँचे, तो दोष योजना का नहीं, बल्कि इसे लागू करने वाले विभाग का है।

रिपोर्ट में विभाग के डिप्टी डायरेक्टर परमिंदर सिंह गिल के अलावा राकेश अरोड़ा, बलदेव सिंह, चरणजीत सिंह और मुकेश भाटिया को बाकायदा नोटिस जारी करके 39 करोड़ रुपये की वित्तीय अनियमितताओं पर स्पष्टीकरण माँगा गया था। मज़ेदार बात यह कि उक्त राशि की फाइलें ही नहीं मिल रही। नोटिस के बावजूद आरोपी अधिकारियों ने अभी तक कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है।

मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने मामले की जाँच का ज़िम्मा मुख्य सचिव विनी महाजन को सौंपा है। उन्होंने कहा है कि राज्य सरकार अपने स्तर पर मामले की जाँच कराने में सक्षम है। विपक्ष राजनीतिक फायदे के लिए बेवजह सीबीआई या किसी केंद्रीय एजेंसी से जाँच की माँग कर रहा है। वह कहते हैं कि मंत्री हो या कोई अधिकारी, जाँच में जो भी दोषी होगा, चाहे वह कोई भी क्यों न हो कड़ी कार्रवाई होगी। पर विपक्षी नेताओं को उनकी बात पर भरोसा नहीं है। उनकी राय में जो मुख्यमंत्री अपने ही अतिरिक्त मुख्य सचिव की रिपोर्ट पर भरोसा न तो इस बात की क्या गारंटी है कि वह मुख्य सचिव की रिपोर्ट पर कार्रवाई करेगा। उन्हें अंदेशा है कि मुख्य सचिव की रिपोर्ट लीपापोती वाली होगी, जिसमें कुछ अधिकारी तो ज़रूर लपेटे में आ सकते हैं, पर विभाग से जुड़े मंत्री तक शायद आँच न पहुँचे।

शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल कहते हैं कि बिना सीबीआई जाँच मामले की गहराई तक नहीं, पहुँचा जा सकता। जब अतिरिक्त मुख्य सचिव की विस्तृत जाँच रिपोर्ट पर कैप्टन कुछ नहीं कर रहे तो स्पष्ट है कि वह मामले को रफा-दफा करना चाहते हैं और आरोपी मंत्री साधू सिंह धर्मसोत को किसी तरह बचाना चाहते हैं। उनकी कथनी और करनी में अन्तर है। कैप्टन तो राज्य में सरकार बनने पर नशा एक माह में खत्म करने का दावा करते थे आज क्या हाल है, नशे का कारोबार बदस्तूर जारी है। राज्य में शराब त्रासदी में 120 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गयी। पूरा विपक्ष घोटाले की जाँच सीबीआई से कराने की माँग कर रहा है तो इसे कराने में क्या दिक्कत है। सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा। राज्य सरकार की जाँच पर उन्हें भरोसा नहीं है। राज्य में स्कॉलरशिप में गड़बडिय़ों के आरोप नये नहीं है। वर्ष 2019 के फरवरी और मार्च के दौरान केंद्र ने पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप (अनुसूचित जाति) के लिए 303 करोड़ रुपये जारी किये। इनमें से 248 करोड़ रुपये वितरण के लिए ट्रेजरी से निकलवाये गये। वैसे तीन साल के दौरान केंद्र ने योजना के तहत 811 करोड़ रुपये जारी किये हैं। विपक्ष तीन साल के दौरान स्कॉलरशिप वितरण की जाँच माँग रहा है, पर फिलहाल मुद्दा 55 करोड़ की जाँच पर ही अटका है।

राज्य में विपक्ष के नेता हरपाल सिंह चीमा के मुताबिक, जब अतिरिक्त मुख्य सचिव की संगीन रिपोर्ट पर मुख्यमंत्री कार्रवाई नहीं कर रहे तो मतलब साफ है, वह भ्रष्टाचार विरोधी नहीं, बल्कि ऐसा करने वालों को संरक्षण दे रहे हैं। आरोपी मंत्री धर्मसोत को नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देना चाहिए था। वह ऐसा नहीं करते, तो मुख्यमंत्री को हटा देना चाहिए था। जब अतिरिक्त मुख्य सचिव की रिपोर्ट पर सरकार गम्भीर नहीं तो मुख्य सचिव की रिपोर्ट पर क्या करेगी। मतलब स्पष्ट है कि जाँच के नाम पर मामले को ठण्डे बस्ते में डालने की तैयारी है। आम आदमी पार्टी करोड़ों रुपये के घोटाले में चुप नहीं रहेगी, बल्कि आरोपियों को सलाखों के पीछे पहुँचाने के सडक़ों पर उतरेगी।

विपक्ष के अलावा कांग्रेस के सांसद और पूर्व कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष रहे प्रताप सिंह बाजवा के विपक्ष की माँग के समर्थन पर कैप्टन उन्हें पहले अपने गिरेबान में झाँकने को कहते हैं। कैप्टन उन्हें याद दिलाते हैं कि वर्ष 2002-2007 के दौरान जब वह (बाजवा) सार्वजनिक निर्माण मंत्री थे, तब उन पर महँगे दाम पर कोलतार खरीदने के आरोप लगे थे। तो क्या विपक्ष की माँग पर उन्हें हटाया गया था? अब वह क्यों अपनी ही पार्टी की सरकार के मंत्री को बर्खास्त करने की माँग कर रहे हैं। बाजवा को तो सरकार के खिलाफ बोलने का मौका चाहिए, वह विपक्ष की भूमिका में आ जाते हैं। भाजपा ने घोटाले की सीबीआई जाँच की माँग पर राज्य में कई स्थानों पर प्रदर्शन किया और मंत्री धर्मसोत के पुतले जलाकर रोष जताया।

स्कॉलरशिप के मामले में घोटाला तो हुआ है, वरना 39 करोड़ रुपये के वितरण की फाइलें गायब नहीं होतीं। क्यों नहीं अधिकारी उनका स्पष्टीकरण देते? दिसंबर, 2019 में स्कॉलरशिप वितरण में गड़बड़ी के आरोपों के चलते तब के मुख्य सचिव करण अवतार सिंह ने 19 दिसंबर, 2019 को डिप्टी डायरेक्टर परमिंदर सिंह गिल समेत कई अधिकारियों को निलंबित कर दिया था। गिल आरोपी मंत्री साधू सिंह धर्मसोत के करीबी माने जाते हैं, लिहाज़ा तीन दिन उनका निलंबन रद्द हो गया था। इसी से स्पष्ट है कि विभाग में गिल का कितना प्रभाव है। सामाजिक, न्याय आधिकारिता और अल्पसंख्यक विभाग में डिप्टी डायरेक्टर रहते गिल का रुतबा बड़ा था। वह बजाय डायरेक्टर बलविंदर सिंह धालीवाल के सीधे मंत्री को रिपोर्ट किया करते थे। अतिरिक्त मुख्य सचिव कृपाशंकर सरोज की 33 पेज की रिपोर्ट में इन्हीं परमिंदर सिंह गिल पर भी आरोप हैं। केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल की मामले की सीबीआई जाँच की माँग पर कैप्टन कहते हैं कि वह (हरसिमरत) तो हर मामले की सीबीआई जाँच की ही माँग करती हैं। वह अपनी पार्टी शिअद की माँग का समर्थन कर रही हैं; लेकिन उन्हें इस जाँच एजेंसी के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है। पंजाब में कई मामले सीबीआई को दिये गये; लेकिन एजेंसी नाकाम रही।

संघ नेता सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर जगदीश कुमार गगनेजा की हत्या हुई। मामले की जाँच सीबीआई के पास गयी; लेकिन एजेंसी सफल नहीं हो सकी। राज्य में बेअदबी के मामलों की जाँच में भी केंद्रीय एजेंसी तह तक नहीं पहुँच सकी। राज्य सरकार ने अपने तौर पर इसकी जाँच करायी और सफलता मिली। सरकार स्कॉलरशिप में वित्तीय अनियमितताओं पर गम्भीर है। मामले की जाँच का ज़िम्मा मुख्य सचिव विनी महाजन को सौंपा गया है। इनकी रिपोर्ट के आधार पर सरकार कड़ी कार्रवाई करने में कोई गुरेज़ नहीं करेगी। सरकार आरोपी मंत्री या अधिकारियों को क्यों बचायेगी? जब यह मामला उसकी प्रतिष्ठा से जुड़ा है। अतिरिक्त मुख्य सचिव सरोज की रिपोर्ट पर कैप्टन कुछ भी नहीं कहते, जबकि उन्हें यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि आखिर उनकी रिपोर्ट में क्या खामियाँ हैं। किसी अधिकारी का सरकार के खिलाफ इस तरह रिपोर्ट देना कोई आसान काम नहीं है। कितने दवाब होते हैं; लेकिन उन्होंने हिम्मत दिखायी और विभाग की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े किये। रिपोर्ट में मंत्री पर सीधे आरोप नहीं है; लेकिन निष्कर्ष के तौर पर बात उन पर ही आकर रुकती है। विभाग में व्याप्क स्तर पर गड़बड़ी हो रही थी, तो क्या वह इससे अनजान थे? या फिर उन्हें सब पता था कि कहाँ क्या हो रहा है? केंद्र चाहे, तो रिपोर्ट के आधार पर मामले की जाँच करने को स्वतंत्र है; लेकिन अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं आया है।

शिरोमणि अकाली दल के एक प्रतिनिधि मंडल ने केंद्रीय समाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत से मुलाकात करके मामले की जाँच सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय से कराने की माँग की। सदस्यों में विधायक पवन कुमार टीनू, सुखविंदर कुमार सुक्खी, बलदेव सिंह खैरा और पूर्व मंत्री गुलज़ार सिंह राणिके थे। सदस्यों के मुताबिक, केंद्र इस मामले के प्रति गम्भीर है। योजना के तहत पैसा पात्र विद्यार्थियों तक पहुँचना चाहिए था; लेकिन बहुत विद्यार्थी इससे वंचित हो गये और बीच के लोगों ने सब गोलमाल कर दिया। विपक्ष का दावा है कि यह घोटाला 55 करोड़ का नहीं, बल्कि इससे कहीं ज़्यादा है। तीन साल के दौरान पंजाब को 811 करोड़ रुपये योजना के तहत मिले हैं। पूरे प्रकरण की केंद्रीय एजेंसी या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश से जाँच करायी जाए, तो निश्चित तौर पर बड़ा घोटाला सामने आयेगा। 55 करोड़ के घोटाले की रिपोर्ट तो केवल 248 करोड़ रुपये के वितरण की ही है।

तीन साल के दौरान राज्य में स्कॉलरशिप का मुद्दा जब तब उठता रहा है। केंद्र राशि के जारी होने की बात कहता, तो राज्य सरकार इससे इन्कार की बात कहती। यह गम्भीर बात है कि जिन पात्र लोगों को इस स्कॉलरशिप के लिए चुना गया है, वह ही इससे वंचित हो जाएँ और उनके नाम पर यह राशि खुर्द-बुर्द कर दी जाए। अतिरिक्त मुख्य सचिव कृपाशंकर सरोज की 33 पेज की रिपोर्ट और विपक्ष की ओर से मंत्री को हटाने और उन पर आपराधिक मामला दर्ज करने की माँग के बावजूद संगीन आरोपों में घिरे सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री साधू सिंह धर्मसोत निश्ंिचत से लगते हैं। वह हर जाँच के लिए तैयार और पूरा सहयोग देने का भरोसा दिलाते हैं। देखना होगा कि मुख्य सचिव कब तक मामले की जाँच रिपोर्ट पेश करती है।

नवनियुक्त मुख्य सचिव विनी महाजन के लिए यह एक चुनौती जैसा काम होगा। पद पर तैनाती के बाद यह उनके सामने सबसे बड़ा काम आया है। क्या वह कृपाशंकर सरोज की तरह दबावों से मुक्त होकर किसी निष्कर्ष तक पहुँच सकेगी? अगर वह ऐसा करने में सक्षम होती है, तो उन्हेंं इसके लिए भी याद किया जाएगा। अगर रिपोर्ट कुछ कमतर या सरोज के विपरीत हुई, तो विपक्ष के पास फिर से यह मुद्दा होगा। कहा जा सकता है कि फिलहाल मुख्यमंत्री ने विपक्ष के विरोध को कुछ कमज़ोर तो कर ही दिया है। जब तक राज्य न चाहे सीबीआई जाँच मुमकिन नहीं है। इस संदर्भ में कैप्टन पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि राज्य सरकार अपने स्तर पर जाँच करने में सक्षम है। सीबीआई को मामला सौंपने की कोई ज़रूरत नहीं है। वह इतना भरोसा दिलाते हैं कि जाँच में आरोप साबित होने वाले को बख्शा नहीं जाएगा, चाहे वह व्यक्ति सरकार के अन्दर का हो या बाहर का कोई नहीं बच सकेगा।

विपक्षी दल स्कॉलरशिप में वित्तीय अनियमितताओं के आरोपों पर पर राजनीति कर रहे हैं। राज्य में भ्रष्टाचार के किसी मामले के उजागर से सरकार की छवि को भी बट्टा लगता है। मामला प्रकाश में आया है, अतिरिक्त मुख्य सचिव ने जाँच कर रिपोर्ट पेश की है। सरकार ने उसे गम्भीरता से लिया है और विस्तृत जाँच का काम मुख्य सचिव को सौंपा है। दोनों अधिकारियों की मामले में मंत्रणा हो चुकी है। वह राज्य की जनता से वादा करते हैं कि जाँच निष्पक्ष होगी और रिपोर्ट में दोषी साबित होने पर शर्तिया कड़ी कार्रवाई होगी। उन्होंने एक तरह से वंचित विद्यार्थियों, उनके परिजनों, विपक्षी दलों समेत पूरे राज्य को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की है कि डरने की कोई बात नहीं है मैं हूँ न! विपक्ष को उन पर भरोसा करना चाहिए और जब तक जाँच रिपोर्ट नहीं आती, तब तक राज्य हित में राजनीतिक बयानबाज़ी न करे तो ही अच्छा होगा, क्योंकि कोई फायदा नहीं जाँच राज्य सरकार अपने ही स्तर पर कराकर दोषियों को दण्डित करेगी।

अमरिंदर सिंह, मुख्यमंत्री (पंजाब)

 

सीबीआई जाँच से डर क्यों?

स्कॉलरशिप में गड़बड़ी तो व्यापक स्तर पर हुई है। आरोपों के सीधे घेरे में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता के अलावा ट्रेजरी विभाग भी है। रिपोर्ट खुलासा करती है कि केंद्रीय योजना की राशि को अमुक-अमुक तरीके से खपाया जा सकता है। सरकार की ओर से एक बार भी बेबुनियाद आरोपों जैसा बयान नहीं आया है। मतलब साफ है कि घोटाला तो हुआ है; पर इसकी जाँच राज्य सरकार आखिर अपने स्तर पर ही क्यों कराना चाहती है? क्यों नहीं अतिरिक्त मुख्य सचिव की रिपोर्ट पर ही कार्रवाई कर दी गयी? उसने जाँच कोई हवा में तो नहीं की है; सुबूत जुटाये गये हैं। अनेक शिक्षण संस्थाओं को योजना के तहत पैसा दिया गया; लेकिन वह पात्र विद्यार्थियों तक तो नहीं पहुँचा। राशि के समय पर मिलने पर अक्सर सरकार की ओर से केंद्र की लेटलतीफी बताया जाता था। केंद्र से पैसा जारी होने में देरी होती रही है। पर जब राशि आ गयी, तो उसे किन खातों में पहुँचा दिया गया? विपक्ष की सीबीआई जाँच की माँग गलत नहीं ठहरायी जा सकती।

राज्य सरकार मानती है कि सब कुछ ठीक है, तो जाँच कराने में कुतर्क क्यों किये जा रहे हैं? सीबीआई जाँच पर कांग्रेस के अलावा सारे विपक्षी दलों को भरोसा है, पर किया क्या जाए? मुख्यमंत्री इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं हैं ।

महिलाओं को मिले पीरियड लीव

एक रुपये में सेनिटरी पैड! जी हाँ। यह सेनिटरी पैड बनाने वाली किसी कम्पनी के विज्ञापन की टैग लाइन नहीं है, बल्कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 74वें स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र के नाम सम्बोधन में इस वाक्य का ज़िक्र किया था। प्रधानमंत्री ने अवाम को बताया कि गरीब बहनों-बेटियों के बेहतर स्वास्थ्य की चिन्ता हमेशा सरकार को बनी रहती है।

बीते कुछ महीनों में देश के 6000 जन-औषधि केंद्रों से एक रुपये में 5 करोड़ सेनिटरी पैड पहुँचाने का बड़ा काम किया है। हाल ही में भाजपा सांसद राकेश सिन्हा ने कहा कि प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम सम्बोधन में सेनिटरी नेपकिन के उल्लेख से चौखट के अन्दर व बाहर जो हिचक थी, वह समाप्त हुई है। उन्होंने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री ने किशोरियों और महिलाओं को सेनिटरी नेपकिन की आवश्यकता की पूर्ति को राज्य की कल्याणकारी योजनाओं में प्राथमिकता के रूप में रेखांकित किया। इसी से प्रेरणा लेकर वह अपने द्वारा विकास के लिए चुने गये दो गाँवों कोंगथोंग (मेघालय) तथा बरेपुरा (बेगूसराय, बिहार), जहाँ सामाजिक व आर्थिक रूप से उपेक्षित लोगों की बड़ी तादाद है; वहाँ छ: हज़ार सेनिटरी नेपकिन भेज रहे हैं। प्रधानमंत्री के 15 अगस्त के सम्बोधन में सेनिटरी पैड का ज़िक्र होने से क्या वास्तव में समाज व कार्य स्थलों पर किशोरियों-महिलाओं के मासिक धर्म (माहवारी / पीरियड) के बाबत जो पूर्वाग्रह / अवधारणा बनी हुई है, क्या वह कम होगी? या उसमें क्रान्तिकारी बदलाव आने की सम्भावना तलाशी जा सकती है?

दरअसल ऐसे ही कुछ सवाल हमेशा उठते हैं, जब ऐसी कोई खबर सामने आती है। अगस्त महीने में ही ऑनलाइन फूड डिलीवरी कम्पनी जोमैटो ने ऐलान किया कि कम्पनी में अब महिलाओं और ट्रांसजेंडर कर्मचारियों को एक साल में 10 दिन की पीरियड लीव (मासिक धर्म की छुट्टी) मिलेगी। जोमैटो कम्पनी ने इस नियम को पीरियड पॉलिसी का नाम दिया है। जोमैटो कम्पनी के सीईओ दीपिंदर गोयल ने अपने कर्मचारियों को भेजे ईमेल में कहा कि आप पीरियड अवधि वाली लीव को किसी भी शर्म या कलंक के साथ जोडक़र न देखें और इस दौरान कर्मचारी अवकाश लेने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं। सीईओ ने यह भी बताया कि जोमैटो में हम विश्वास, सच्चाई और स्वीकृति की संस्कृति को बढ़ावा देना चाहते हैं। गोयल ने कहा कि जोमैटो समझती है कि महिला और पुरुष अलग-अलग बायोलॉजिकल रियलिटी के साथ पैदा होते हैं। यह जीवन का एक हिस्सा है। यह सुनिश्चित करना हमारा काम है कि हम अपनी ज़रूरतों के लिए जगह बनाएँ। इतना ही नहीं सीईओ ने अपने पुरुष कर्मचारियों के लिए लिखा कि उन्हें कतई शर्मिंदा नहीं होना चाहिए, जब एक महिला सहकर्मी कहती है कि वह पीरियड लीव पर है।

जोमैटो की पीरियड पॉलिसी ने एक बार फिर से पीरियड लीव वाले मुद्दे को बहस का विषय बना दिया है। इस चर्चा में पीरियड लीव दिये जाने के पक्ष व विपक्ष में दलीलें सामने आ रही हैं। दरअसल महिलाओं के बदन को परम्पराओं, धार्मिक मान्यताओं के नाम पर शुचिता के बोझ से इतनी बुरी तरह से दाब दिया गया है कि 21वीं सदी के दूसरे दशक के खत्म होने में महज़ तीन महीने ही बचे हैं और महिलाएँ इनसे मुक्ति पाने के लिए संघर्षरत हैं।

किशारियों / महिलाओं को रजोधर्म के दौरान किन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, इसकी सूची बहुत लम्बी है। इन मुश्किल दिनों में कइयों के पेट में ऐंठन से दर्द होता है; व्यग्रता होती है; जी मिचलाता है; मूड स्विंग आदि होता है।

भारत के कई इलाकों में रजोधर्म के दौरान लड़कियाँ / महिलाएँ रसोई में काम नहीं कर सकतीं, पूजा स्थल पर नहीं जा सकतीं। इसे स्त्री के बदन की शुचिता-अशुचिता से जोडक़र देखने की परम्परा आज भी लोगों के दिल-ओ-दिमाग पर हावी है। समय की माँग है कि रजोधर्म से जुड़ी ऐसी सामाजिक-धार्मिक रूढ़ परम्पराओं के खिलाफ जागरूकता फैले; परिवार, समाज और सरकारी स्तर पर अधिक-से-अधिक चर्चा हो और हम इसके समाधान की ओर अग्रसर हों।

जोमैटो ने पीरियड लीव का ऐलान किया, तो ऐसे अवकाश को लेकर कहा गया कि क्या वास्तव में यह प्रगतिशील, महिला हितेषी कदम है? या प्रतीकात्मक या प्रतिगामी कदम है। वैसे यहाँइस बात का ज़िक्र करना प्रासंगिक है कि जोमैटो से पहले 2018 में मुम्बई की डिजिटल मीडिया कम्पनी कल्चर मशीन ने भी अपनी महिला कर्मचारियों के लिए रजोधर्म के पहले दिन अवकाश देने की नीति की घोषणा की थी। स्पोट्र्स कम्पनी नाइक भी महिला कर्मचारियों को पीरियड लीव वाली सुविधा प्रदान करती है। बिहार राज्य सरकार भी अपनी महिला कर्मचारियों को महीने में दो दिन का ऐसा अवकाश प्रदान करती है। जापान में तो 1947 से ही महिला कर्मचारियों के लिए ऐसे अवकाश वाला प्रावधान है। दक्षिण कोरिया में 2001 से अवकाश दिया जा रहा है।

इंग्लैंड के ब्रिस्टल शहर में महिलाओं को रजोधर्म के दौरान ऑफिस से छुट्टी दी जाती है। वैसे इन दिनों महिलाओं को कार्य स्थलों पर नहीं आने अवकाश देने वाले बिन्दु को लेकर एक वर्ग का तर्क है कि ऐसा करना महिलाओं को अतिरिक्त सुविधा मुहैया कराना है। जब महिलाएँ कहती हैं कि वे पुरुषों से कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चल सकती हैं; उनके बराबर हैं; पुरुषों से कमतर नहीं हैं; तो पीरियड लीव की माँग क्यों करती हैं? उनके पास सिक लीव लेने वाला प्रावधान है, उन्हें उसका इस्तेमाल करना चाहिए।

एक दलील यह भी दी जाती है कि अगर ऐसी लीव को कानून बनाकर अनिवार्य कर दिया जाता है, तो नियोक्ता महिलाओं को नौकरी देने में हिचकेंगे। वे महिलाओं की भर्ती करते समय अपने आर्थिक नुकसान का आकलन भी करेंगे। वैसे महिला कर्मचारियों के लिए पहले से ही सवैतनिक प्रसूति अवकाश देने वाला कानून है। भारत में महिला कर्मचारियों की दर 21 फीसदी है और बीते वर्षों में इसमें वृद्धि होने की बजाय गिरावट ही दर्ज की गयी है। पीरियड लीव का विरोध करने वालों का माननी है कि अगर इस बाबत कोई कानून बन जाता है या कम्पनियों में पीरियड लीव देने का रुझान बढ़ता है, तो हो सकता है कि महिला कर्मचारियों की संख्या में और गिरावट देखने को मिले। महिलाएँ जब विमान उड़ाने में सक्षम हैं; सेना में उन्हें फ्रंट लाइन पर तैनात वाला मुद्दा विचाराधीन है; तो क्या वे रजोधर्म में ऑफिस नहीं आ सकतीं? पीरियड लीव के पक्ष वाले वर्ग का कहना है कि विरोध करने वाले पुरानी मानसिकता के तहत सोचते हैं। महिलाएँ अगर इन खास दिनों में एक या दो छुट्टी ले लेती हैं, तो इसका मतलब यह नहीं कि वे पुरुषों से कमतर हैं। बल्कि उनकी शारीरिक संरचना पुरुषों से भिन्न है। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं निकालना चाहिए कि वे पुरुषों वाले पदों पर तैनात नहीं हो सकतीं। ऐसा सोचना / करना उनकी कार्य क्षमता के साथ नाइंसाफी करना होगा, लैंगिक अन्याय होगा।

उन्हें पीरियड अवकाश देना उनकी ज़रूरत के लिए जगह बनाने जैसा है। और यह सुनिश्चित करने का काम सरकार और कम्पनी का है। उन्हें ऐसी नीतियाँ भी बनानी चाहिए। ज़रूरत वाले अहम बिन्दुओं पर फोकस करते समय यह विकल्प भी सामने आता है कि कामकाजी महिलाओं को पूरा अथवा आंशिक अवकाश लेने, सुविधाानुसार काम करने के घंटे या वर्क फ्रॉम होम वाले विकल्प भी मुहैया कराये जा सकते हैं। एक बात यह भी ध्यान देने की है कि भारत में 90 फीसदी से अधिक महिला श्रमबल असंगठित क्षेत्र में काम करता है, जहाँ एक दिन की छुट्टी लेने पर वेतन काट लिया जाता है; उन महिलाओं को कौन पीरियड लीव देगा? वैसे जोमैटो ने जो पीरियड लीव देने का ऐलान किया, उसकी इस पहल की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा हुई है। जोमैटो कम्पनी कई देशों में अपनी सेवाएँ दे रही है और इसके कुल कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी 35 फीसदी है।

कम्पनी के सीईओ ने कर्मचारियों को इस सूचना हेतु भेजे ईमेल में यह भी कहा कि महिलाएँ / ट्रांसजेंडर जब पीरियड लीव लें, तो उन्हें एचआर विभाग को बताना होगा कि वे वास्तव में काम पर नहीं आ सकतीं। साथ ही आगाह भी किया कि वे इन छुट्टियों का गलत इस्तेमाल नहीं करें। इनका इस्तेमाल अपने पेंडिंग काम करने के लिए नहीं करें, और इन छुट्टियों को बैसाखी के तौर पर उपयोग में न लाएँ। यही नहीं, उन्होंने यह भी बताया कि महिलाएँ / ट्रांसजेंडर पौष्टिक आहार लें और फिटनेस पर फोकस करें, ताकि वे शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ रहें। कामकाजी महिलाएँ व पीरियड लीव वाला मुद्दा तो अहम है ही, पर इसके साथ यह भी जानना ज़रूरी है कि लोगों में रजोधर्म को लेकर कितनी जानकारी है। एक सर्वे बताता है कि करीब 71 फीसदी किशोरियों को रजोधर्म के बारे में तब पता चला, जब पहली बार वे खुद इससे गुज़रीं।

यूनिसेफ का सन् 2014 का एक सर्वे बताता है कि किशोरियों / महिलाओं को मैनस्टुरूल हाईजीन के बारे में जानकारी बहुत ही कम है। तमिलनाडु में 79 फीसदी महिलाएँ पीरियड के दौरान स्वच्छता के बारे में नहीं जानती थीं। यानी इस दौरान खुद को कैसे साफ रखें, उन्हें यह नहीं पता था। यह संख्या उत्तर प्रदेश में 66 फीसदी, तो राजस्थान में 56 फीसदी थी।

एक सर्वे यह भी बताता है कि देश में करीब दो करोड़ 30 लाख लड़कियाँ इसी पीरियड के कारण स्कूल से बाहर हो जाती हैं। कई हज़ार लड़कियाँ पीरियड के दिनों में स्कूल नहीं जातीं। इसकी कई वजहें हैं, मसलन- उन दिनों तबीयत ठीक न रहना, स्कूल में पैड-कपड़ा बदलने की समुचित सुविधा का नहीं होना, आदि। कई मामलों में अभिभावक भी लड़कियों को इन दिनों स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित करने की बजाय घर पर ही रहने तथा आराम करने के लिए दबाव बनाते हैं। देश में स्कूलों में मैनस्टुरूल हाईजीन मैनेजमेंट (एमएचएम) पर काम हो रहा है, ताकि लड़कियाँ रजोधर्म वाली अवधि में स्कूल जा सकें और उनकी पढ़ाई का नुकसान न हो।

इसके साथ ही वे स्वस्थ भी रहें। इन दिनों साफ-सफाई का खास ध्यान रखना होता है। ऐसा नहीं करने से लड़कियों / महिलाओं में प्रजनन प्रणाली संक्रमण, मूत्र मार्ग संक्रमण, हैेपेटाइटिस-बी, सर्वाइकल कैंसर आदि होने का खतरा बना रहता है। ‘स्वच्छ भारत : स्वच्छ विद्यालय’ अभियान के तहत उन्हें इन दिनों ज़रूरी सपोर्ट सिस्टम मुहैया कराने पर ज़ोर रहता है।

इसके साथ ही एमएचएम के तहत लड़कियों / महिलाओं के बीच रजोधर्म को लेकर जागरूकता के स्तर को बढ़ाना भी मकसद है। बेशक एमएचएम आधी दुनिया से सीधे तौर पर जुड़ता है, पर इस पर सभी को ध्यान देना चाहिए; क्योंकि इस आधी दुनिया के स्वस्थ रहने से सामाजिक तथा आर्थिक सशक्तिकरण को आगे बढ़ाने में मदद मिलती है। हो सकता है कि कम्पनियाँ महिलाओं को पीरियड लीव इसलिए भी दे रही हों, ताकि अगले दिन जब वे काम पर लौटें, तो अपनी पूरी कार्य क्षमता, ऊर्जा के साथ अपना योगदान दे सकें। कुल मिलाकर आज निजी कार्य क्षेत्र के प्रबन्धन और सरकार को आपस में मिलकर पीरियड लीव वाले मुद्दे पर काम करने की ज़रूरत है, ताकि पूरे देश में एक जैसी व्यवस्था लागू हो सके। चाहे वह स्वैच्छिक अवकाश हो, आशिंक अवकाश हो या फिर वर्क फ्रॉम होम वाला विकल्प ही क्यों न हो।

फिल्म अभिनेत्रियाँ बनीं राजनीति का मोहरा

आजकल बॉलीवुड फिल्म इंडस्ट्री बड़ी चर्चा में है। ऐसा नहीं कि हाल में इंडस्ट्री से कोई बड़ी लाजवाब फिल्में निकली हैं, बल्कि चर्चा दो अभिनेत्रियों- रिया चक्रवर्ती और कंगना रणौत के कारण ज़्यादा है। शुरुआत उदीयमान अभिनेता बिहार के रहने वाले सुशांत सिंह राजपूत की असमय और संदिग्ध हालत में मौत से हुई। कंगना रणौत ही थीं, जिन्होंने सुशांत की मौत को लेकर सवाल खड़े किये और फिर यह एक बड़ा मुद्दा बन गया। दरअसल इसमें राजनीति घुस गयी, जिसके चलते यह मुद्दा और भी गरमा गया। सुशांत की मौत के कारण का पता लगाना असली मुद्दा था, जो अब भी अनसुलझा ही है। लेकिन ड्रग को आधार बनाकर रिया और उनके साथियों की गिरफ्तारी और कंगना पर खींचतान से मामला दूसरी तरफ ही मुड़-सा गया है। एक तरफ सुशांत की मौत पर सवाल उठाने वाली कंगना खुले रूप से महाराष्ट्र सरकार तथा से उद्धव ठाकरे भिड़ी हुई हैं, तो दूसरी तरफ भाजपा कंगना के सहारे महाराष्ट्र सरकार और कांग्रेस पर निशाना साध रही है।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि बॉलीवुड में कलाकारों की संदिग्ध हालात में होने वाली मौतें एक बड़ा मुद्दा है। हाल के वर्षों में कई कलाकारों ने असमय और संदिग्ध हालात में मौत को गले लगाया है। सुशांत सिंह राजपूत की इन्हीं हालात में हुई मौत के बाद जब इस पर जाँच की देश भर में माँग उठी, तो लगा कि शायद अब कोई चौंकाने वाला सच सामने आयेगा। सीबीआई को इसकी जाँच सौंपी गयी, तो जनता का यह भरोसा पुख्ता हो गया कि अब तो सच सामने आयेगा ही। लेकिन अचानक सुशांत की मौत का मुद्दा कहीं भटक गया और इस पर राजनीति हावी हो गयी।

सुशांत सिंह बिहार के रहने वाले थे, जहाँ इसी साल विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। विपक्ष ने आरोप लगाया कि बिहार के चुनाव को देखते भाजपा इस गम्भीर मुद्दे का राजनीतिकरण कर रही है। महाराष्ट्र पुलिस से जाँच सीबीआई को देने के पीछे भी कारण राजनीति ही बताया गया; क्योंकि आरोप है कि भाजपा केंद्र की एजेंसियों का उपयोग कर महाराष्ट्र में शिव सेना-एनसीपी-कांग्रेस गठबन्धन सरकार को गिराने का षड्यंत्र कर रही है। यह मसला तब पूरी तरह राजनीतिक रंग ले गया, जब हिमाचल प्रदेश से ताल्लुक रखने वाली अभिनेत्री कंगना रणौत खुले रूप से भाजपा के कन्धे पर सवार होकर महाराष्ट्र सरकार और वहाँ के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के खिलाफ खड़ी हो गयीं। इसी दौरान महाराष्ट्र की बॉम्बे नगर पालिका (बीएमसी) ने उनके दफ्तर में नियम तोडऩे का आरोप लगाते हुए तोड़-फोड़ की, जिससे यह मसला पूरी तरह राजनीतिक रंग ले गया है।

पहले बात कंगना की

यह कोई ढकी-छिपी बात नहीं है कि कंगना भाजपा की समर्थक हैं। महीनों से वह भाजपा के समर्थन वाले ट्वीट अपने अंदाज़ में करती रही हैं। अब यह भी चर्चा है, खासकर हिमाचल में; कि वह भाजपा में शामिल हो सकती हैं। एक भाजपा नेता उन्हें भाजपा में शामिल होने का निमंत्रण भी दे चुके हैं। इसलिए आरोप लग रहे हैं कि भाजपा उनकी लोकप्रियता और बात कहने से नहीं डरने वाले व्यक्तित्व को अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल कर रही है, ताकि महाराष्ट्र सरकार को परेशानी में डाला जा सके। जैसी भाषा कंगना इस्तेमाल कर रही हैं, उससे साफ ज़ाहिर है कि इस फिल्म का निर्देशक कोई और है।

जब कंगना के मुम्बई वाले दफ्तर को लेकर बीएमसी ने नोटिस जारी किया, वह हिमाचल के मनाली में थीं। दो साल पहले बीएमसी ने कंगना रणौत को एक नोटिस जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि घर में गलत तरीके से बदलाव किया गया है। बीएमसी का आरोप था कि इसमें नियमों का उल्लंघन किया गया है। तब कंगना ने सीटी सिविल कोर्ट में जाकर स्टे ले लिया था। बीएमसी ने पिछले हफ्ते कैविएट फाइल किया, जिसमें उसने कहा कि स्टे ऑर्डर को रद्द किया जाए और उसे तोडऩे की इजाज़त दी जाए। हालाँकि कंगना का कहना है कि बीएमसी ने उन्हें कभी कोई नोटिस नहीं भेजा है, बल्कि उन्होंने अपने ऑफिस के सारे दस्तावेज़ खुद बीएमसी से पास करवाये थे। उन्होंने दो साल पहले के नोटिस की बात को झूठ बताया और कहा कि कम-से-कम सच बोलने की हिम्मत तो रखो। इतना झूठ किसलिए? कल को आपके साथ भी यही होगा।

बता दें खार इलाके में कंगना रणौत का घर डीबी ब्रिज नाम की बिल्डिंग में पाँचवीं मंज़िल पर है। इसमें आठ जगह पर बदलाव किये गये हैं। छज्जा और बालकनी में गलत तरीके से निर्माण का आरोप है। किचिन के एरिया में किये गये बदलाव को भी गलत बताया गया है। इससे पहले बीएमसी ने कंगना रणौत के मुम्बई स्थित मणिकर्णिका फिल्म्स के दफ्तर में कथित अवैध निर्माण गिरा दिया। हालाँकि बाद में बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी। हाई कोर्ट ने ऑफिस में अवैध निर्माण को गिराने में इतनी जल्दबाज़ी करने के लिए बीएमसी से जवाब माँगा।

कंगना के स्टूडियो पर जब कार्रवाई हुई, तब वह मुम्बई में नहीं थीं। मुम्बई लौटते ही कंगना ने खुले रूप से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे पर हमला बोल दिया। उन्होंने मूवी माफिया कहते हुए करण जौहर को खुली चुनौती दे दी। कंगना ने एक ट्वीट में लिखा- ‘आओ उद्धव ठाकरे और करण जौहर गैंग। तुमने मेरे काम की जगह तोड़ी है, अब मेरा घर तोड़ दो। मेरा मुँह तोड़ो, शरीर तोड़ो। मैं चाहती हूँ कि दुनिया साफ-साफ देखे कि तुम लोग पीठ पीछे क्या करते हो। मैं मर जाऊँ या ज़िन्दा रहूँ, तुम लोगों को फिर भी एक्सपोज़ करूँगी।’

कंगना मनाली से जब मुम्बई लौटीं, तो जिस तरह उनके समर्थन में एयरपोर्ट में लोगों और संगठनों का जमाबड़ा किया गया, उससे साफ ज़ाहिर है कि भाजपा उन्हें महाराष्ट्र सरकार खासकर ठाकरे परिवार के खिलाफ लामबंद कर रही है। हालाँकि उनकी मुम्बई की तुलना पीओके से करने से वहाँ लोगों में उनके प्रति गुस्सा भी है। जब कंगना ने सुशांत की मौत का मामला उठाया था, तब उन्हें भरपूर समर्थन मिला था। हालाँकि जबसे उनके विरोध में राजनीति की एंट्री हुई, इसका उनके समर्थक वर्ग पर भी असर पड़ा है। फिलहाल कंगना खुले रूप से राजनीति में कूद चुकी हैं। भाजपा भी एक तरह खुलकर उनका साथ दे रही है। पहले से ही यह चर्चा रही है कि भाजपा किसी भी तरह महाराष्ट्र की सरकार को गिराना चाहती है। अब वह कंगना रूपी मोहरे को ठाकरे परिवार और महाराष्ट्र की गठबंधन वाली सरकार के खिलाफ आगे किये हुए है, भले कंगना भाजपा की राजनीति का औज़ार बनने के आरोपों से मना कर रही हो। आने वाले समय में इस जंग में और दिलचस्प घटनाएँ देखने को मिलेंगी।

रिया और मीडिया का रोल

सुशांत सिंह राजपूत की असमय मौत ने भले देश के लाखों लोगों और उनके प्रशंसकों को गहरा सदमा दिया, पर उनकी मौत भी आखिर में एक बेशर्म राजनीतिक तमाशे में बदल दी गयी। विपक्ष का तो आरोप था ही कि भाजपा सुशांत की दु:खद मौत को राजनीति और बिहार चुनाव के लिए इस्तेमाल कर रही है, इसमें मामले में सबसे शर्मनाक पहलू कुछ टीवी चैनलों का रहा। जिस तरह उन्होंने कोर्ट के किसी फैसले और यहाँ तक कि किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ आरोप-पत्र दायर होने से पहले ही किसी को दोषी और कातिल ठहराने वाली पत्रकारिता की, उससे ढेरों मीडिया के रोल पर गम्भीर सवाल उठे हैं। मीडिया ट्रायल का यह शर्मनाक उदाहरण रहा। अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती की जुलाई में इस मामले में तब एंट्री हुई जब सुशांत के परिवार ने उन पर 15 करोड़ रुपये के कथित हेर-फेर का आरोप लगाया। अगस्त में मीडिया ने एक तरह अपना समान्तर ट्रायल करके रिया को ही सुशांत की हत्या और साज़िश आदि का ज़िम्मेदार या उसका हाथ होने का दोषी बना दिया। लेकिन दुर्भाग्य से एक होनहार युवा अभिनेता की संदिग्ध मौत का यह मामला सितंबर आते-आते ड्रग्स के मामले तक सीमित हो गया। इस मामले में कई लोगों से पूछताछ हुई और 8 सितंबर को रिया को एनसीबी ने गिरफ्तार कर लिया। अब फिलहाल ड्रग्स के मामले में कार्रवाई चल रही है। अब यहाँ यह बड़ा सवाल उभर रहा है कि क्या रिया की ड्रग्स मामले में गिरफ्तारी के बाद सुशांत की मौत का मामला ठण्डा पड़ गया है? टीवी चैनलों ने जिस तरह सुशांत की मौत के मामले और ड्रग्स के मामले का घालमेल किया, वह पत्रकारिता का निकृष्ट उदाहरण है। अब यह रिपोर्ट लिखे जाने तक अनुत्तरित हैं। सुशांत सिंह राजपूत की मौत आत्महत्या ही थी या उनकी हत्या हुई है। आत्महत्या ही है; और क्या इसके पीछे भी उकसावा था? अगर था, तो किसका था? यह भी सवाल है कि सुशांत की मौत के महीने भर बाद जब 25 जुलाई को उनके परिवार ने बिहार की राजधानी पटना की पुलिस के सामने रिया के खिलाफ एफआईआर दर्ज करायी, तो उसमें रिया पर सुशांत के पैसे निकालने और उनके बेटे सुशांत को आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप था। अब ड्रग मामले में रिया की गिरफ्तारी भी हो चुकी; लेकिन इस एफआईआर के मसले अभी भी अनसुलझे हैं। सेशंस कोर्ट ने रिया चक्रवर्ती और उनके भाई शोविक समेत सैमुअल, दीपेश, बासित तथा जैद की जमानत याचिका खारिज कर दी है। इन आरोपों के आधार पर हुई सीबीआई की जाँच में वास्तव में क्या सामने आया है? इसका कोई खुलासा अब तक नहीं हुआ है। देखना है कि आने वाले समय में यह मामला क्या रंग लेता है?

रफाल विमानों के लिए पक्षियों का खतरा

हरियाणा के अंबाला स्थित एयरबेस में देश के पहले पाँच रफाल लड़ाकू विमानों के आगमन के साथ भारतीय वायु सेना (आईएएफ) के महानिदेशक, निरीक्षण और सुरक्षा शाखा ने राज्य सरकार से अंबाला एयरबेस के आसपास कचरे के ढेर की जाँच करने के लिए कहा है। इस कचरे के ऊपर काली चील और कबूतर जैसे पक्षियों के झुण्ड मँडराते रहते हैं और इस तरह वायुयानों के लिए गम्भीर खतरा पैदा हो जाता है।

अंबाला में 29 जुलाई को शामिल रफाल विमानों की सुरक्षा को वायुसेना की सर्वोच्च प्राथमिकता बताते हुए आईएएफ के निरीक्षण और सुरक्षा शाखा के महानिदेशक एयर मार्शल मानवेंद्र सिंह ने हाल में हरियाणा के मुख्य सचिव शेषनी अरोड़ा को पत्र लिखा है। अंबाला में एयरबेस के आसपास पक्षियों की उपस्थिति बहुत अधिक है और टकराने की स्थिति में पक्षी से विमान को बहुत गम्भीर नुकसान पहुँच सकता है।

उन्होंने अपने पत्र में कहा है कि हवाई क्षेत्र में पक्षियों की गतिविधि आसपास के क्षेत्र में कचरे की मौज़ूदगी के कारण है। पत्र में उन्होंने कहा कि इसे कम करने के लिए कई उपायों की सिफारिश की गयी है और अंबाला स्थित एयरफोर्स स्टेशन के एयर ऑफिसर कमांडिंग ने 24 जनवरी, 2019, 10 जुलाई, 2019 और 24 जनवरी, 2020 को एरोड्रम पर्यावरण प्रबन्धन समिति की बैठकों के माध्यम से अंबाला नगर निगम के संयुक्त आयुक्त और अतिरिक्त नगर आयुक्त से इस सिलसिले में मुलाकात की थी। पत्र में कहा गया है कि इससे यह ज़ाहिर होता है कि यह आवश्यक है कि लड़ाकू विमानों की सुरक्षा के लिए बड़े और छोटे पक्षियों को हवाई क्षेत्र से दूर रखा जाए। ऐसे में आईएएफ ने अंबाला हवाई क्षेत्र के आसपास 10 किलोमीटर के एरोड्रम क्षेत्र में चील जैसे बड़े पक्षियों की गतिविधि को कम करने के लिए ठोस अपशिष्ट प्रबन्धन (एसडब्ल्यूएम) योजना को तत्काल लागू करने को कहा है। पत्र में आगे कहा गया है कि इसमें कचरा फैलाने के लिए ज़ुर्माना, कचरा संग्रहण में सुधार और उपयुक्त एसडब्ल्यूएम संयंत्र स्थापित करना शामिल होगा। साथ ही एयरफील्ड के आसपास कबूतर प्रजनन गतिविधि पर प्रतिबन्ध और नियंत्रण की माँग की गयी है। नागरिक प्रशासन से मदद की माँग करते हुए एयर मार्शल मानवेंद्र सिंह ने आगे लिखा है कि यह आवश्यक है कि लड़ाकू विमान की सुरक्षा और वायुसेना की इस विशिष्ट आवश्यकता को पूरा करने के लिए बड़े और छोटे पक्षियों को हवाई क्षेत्र से दूर रखा जाए। एयर मार्शल ने हरियाणा सरकार से स्पष्ट रूप से इस बहुमूल्य राष्ट्रीय सम्पत्ति को बचाने के लिए प्रक्रिया को तेज़ करने के अंबाला के स्थानीय अधिकारियों को निर्देश देने के लिए हस्तक्षेप की माँग की है।

कार्य प्रगति पर है

हरियाणा सरकार ने इस मामले को सबसे ज़रूरी और समयबद्ध मानते हुए शहरी स्थानीय निकाय विभाग को अलर्ट किया है और इसे तुरन्त कार्रवाई करने के लिए कहा है। यहाँ तक कि मुख्य सचिव ने कार्रवाई के लिए शहरी स्थानीय निकाय विभाग को आईएएफ का पत्र भी भेज दिया है। स्थानीय नगर निगम ने उन व्यक्तियों को नोटिस जारी करना शुरू कर दिया है, जो अंबाला आईएएफ स्टेशन के आसपास के क्षेत्रों में कबूतरों का प्रजनन कर रहे हैं और उन्हें अपने पक्षियों को एयरबेस क्षेत्र से 10 किलोमीटर दूर ले जाने के लिए कहा है। हरियाणा के गृह मंत्री अनिल विज, जो शहरी स्थानीय निकाय विभाग का ज़िम्मा भी सँभाल रहे हैं; ने कहा कि उन्होंने सम्बन्धित विभाग से कहा है कि वह इस मसले को गम्भीरता से लें और तेज़ी से कार्य करें; क्योंकि यह राष्ट्रीय महत्त्व का मामला है।

उन्होंने कहा कि चूँकि अंबाला में अभी तक अपना ठोस कचरा प्रबन्धन संयंत्र नहीं है, इसलिए मैंने विभाग को इसके लिए तत्काल निविदाएँ जारी करने का निर्देश दिया है। इसके अलावा शहरी निकाय विभाग को कबूतरों के प्रजनन को प्रभावी ढंग से जाँचने के लिए सख्त निर्देश जारी किये गये हैं और अधिकारियों ने कुछ लोगों को नोटिस भी भेजे हैं। साथ ही ज़िला प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि अंबाला छावनी में पडऩे वाले एयरबेस के आसपास के क्षेत्र में कबूतर प्रजनन के व्यवसाय में शामिल छ: परिवारों को शिफ्ट करने का भी निर्णय किया गया है। यह भी पता चला है कि अभी भी अंबाला छावनी के साथ-साथ अंबाला शहर में बड़ी संख्या में लोग हैं, जो कबूतर प्रजनन के व्यवसाय से जुड़े हैं। इसके अलावा फाइट फ्लाइंग और प्राइवेट ड्रोन उड़ान पर प्रतिबन्ध को एयरबेस क्षेत्र से तीन किलोमीटर से बढ़ाकर चार किलोमीटर करने का भी फैसला किया गया था।

बता दें कि यद्यपि अंबाला का अपना एसडब्ल्यूएम प्लांट एयरबेस से लगभग 10 किलोमीटर दूर पाटवी गाँव में स्थापित किया गया था, यह पिछले कई साल से उपयोग में नहीं था।

पक्षी टकराने की घटनाएँ

कुछ रिपोर्टों के अनुसार, फाइटर जेट की 10 फीसदी दुर्घटनाएँ सिर्फ पक्षी टकराने (बर्ड हिट) से ही होती हैं। भारतीय वायुसेना पक्षी-रोधक राडार और जनशक्ति की कमी के अलावा बहुत ही महत्त्वपूर्ण हवाई ठिकानों के आसपास कचरा जमा होने को समस्या का मुख्य कारण मानती है। अंबाला में भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमान को गम्भीर नुकसान पहुँचाने वाले पक्षी टकराने के उदाहरण दुर्लभ भी नहीं हैं।

उदहारण : जून, 2019 में आईएएफ के जगुआर फाइटर जेट को अंबाला एयरबेस से रुटीन उड़ान भरते समय पक्षी की चपेट में आने के बाद अपना पेलोड गिराना पड़ा था। एयरफील्ड और शहर के बलदेव नगर के आवासीय इलाके के पास ऑफ-लोडेड फ्यूल टैंक और प्रैक्टिस बम, हालाँकि काफी होते हुए भी; से किसी नुकसान की सूचना नहीं मिली थी। अप्रैल, 2019 की शुरुआत में भी जगुआर फाइटर जेट पायलट को अंबाला ज़िले के रोलन गाँव में खाली खेतों में तब दो ईंधन-ड्रॉप टैंकों को नीचे गिराना पड़ा था, जब विमान के एक इंजन को कुछ पक्षियों से टकराने के बाद नुकसान हुआ था। ईंधन टैंक या अन्य भार को तुरन्त हटाने का कदम जेट के वज़न को कम करने के लिए किया जाता है, ताकि आपातकालीन लैंडिंग के लिए इसे सक्षम किया जा सके।

इसी तरह अन्य हवाई ठिकानों पर भी पक्षी टकराने (बर्ड हिट) के मामले नये नहीं हैं। हाल में पड़ोसी राज्य राजस्थान के जोधपुर में भी सुखोई एसयू-30 एमकेआई को पक्षी टकराने से बड़ा नुकसान हुआ था। यह पता चला है कि अकेले जोधपुर में पिछले पाँच साल में 50 से अधिक पक्षी टकराने से जुड़े मामले दर्ज किये गये हैं। ग्वालियर एयरबेस, असम में तेजपुर एयरबेस और पश्चिम बंगाल में हासिमारा एयरबेस में भी लड़ाकू विमानों को कथित तौर पर पक्षी टकराने से नुकसान होने की रिपोट्र्स मिली हैं। आईएएफ पक्षियों को डराने के लिए बंदूकों और पटाखों का उपयोग करता है। हालाँकि यह एक असफल-सुरक्षित तरीका नहीं हो सकता है। भारत सरकार के पास वायुसेना और नौसेना के लिए बर्ड-डिटेक्शन राडार खरीदने की भी योजना है।

अंबाला एयरबेस का महत्त्व

अंबाला भारतीय वायुसेना के अग्रिम पंक्ति के ठिकानों में से एक है, जिसने कारगिल संघर्ष के दौरान सक्रिय भूमिका निभायी थी। लड़ाकू विमान मिराज 2000 को यहाँ तैनात किया गया था। एयरबेस में अन्य लड़ाकू विमान भी हैं, जैसे कि जगुआर स्ट्राइक एयरक्राफ्ट और आवश्यकता के अनुसार, अलग-अलग समय पर मिग-21 बाइसन्स। देश में छ: वायु कमांडों में से अंबाला एयरबेस पश्चिमी वायु कमान में आता है और चीन और पाकिस्तान से सीमाओं पर खतरों से निपटने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण हवाई अड्डों में से एक है।

इस एयरबेस की रणनीतिक लोकेशन के कारण ही बहु-भूमिका वाले रफाल लड़ाकू विमान अंबाला में रखे गये हैं। यह जगह भारत-पाकिस्तान सीमा के सबसे पास है और आपात स्थिति में तत्काल उड़ान भरने और पाकिस्तान के भीतर गहरे लक्ष्यों पर हमला करने के लिए निकटतम दूरी पर है। यही नहीं, अंबाला स्थित वायु सेना हवाई अड्डा चीन के साथ उत्तरी सीमाओं पर किये जाने वाले किसी भी हवाई हमले के लिए भी एक आदर्श प्रारम्भिक केंद्र भी है।

रक्षा बेड़े में शामिल हुआ राफेल

बता दें कि 10 सितंबर को राफेल विमान आधिकारिक रूप से वायुसेना के बेड़े में शामिल हो गया है। इस दौरान अंबाला एयरबेस में आयोजित कार्यक्रम में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के साथ फ्रांस की रक्षा मंत्री फ्लोरेंस पार्ली भी शामिल हुईं।