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पाप पर पर्दा

इस पखवाड़े ‘तहलका’ की आवरण कथा एक ऐसी भयावह घटना पर है, जो उत्तर प्रदेश के हाथरस ज़िले में घटी। इस घटना में 19 वर्षीय दलित युवती के साथ उच्च जाति के युवकों ने कथित तौर पर सामूहिक दुष्कर्म किया और उससे क्रूरता की तमाम हदें पार कर दीं, जिससे दो सप्ताह बाद उसकी दर्दनाक मौत हो गयी। इस घटना ने पूरे देश को आक्रोश से भर दिया। पुलिस ने जल्दबाज़ी में आधी रात को शव का परिजनों के बगैर दाह संस्कार कर डाला और पीडि़त परिवार को सुरक्षा के नाम पर घर में कैद कर दिया गया। इसे लेकर देश के हर संवेदनशील व्यक्ति ने सवाल उठाने शुरू कर दिये। अब मामले की जाँच सीबीआई को सौंप दी गयी है। निस्संदेह यह एक भयावह हत्या थी। हालाँकि युवती से दुष्कर्म को लेकर अलग-अलग जानकारियाँ सामने आयी हैं। लडक़ी पर 14 सितंबर को उसके गाँव के चार लोगों ने हमला किया था, यह बात पीडि़त युवती ने जीवित रहते दी, जिसमें उसने कहा कि उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म हुआ। उत्तर प्रदेश पुलिस ने हमले के 11 दिन बाद लिये गये नमूनों के आधार पर फॉरेंसिक रिपोर्ट का हवाला देते हुए दावा किया कि लडक़ी से दुष्कर्म नहीं हुआ।

विशेष जाँच दल (एसआईटी) ने मृतक दलित लडक़ी के परिजनों के आरोपों की सत्यता का पता लगाने के लिए नार्को-पॉलीग्राफ टेस्ट का प्रस्ताव दिया, जिससे पुलिस को व्यापक आलोचना झेलनी पड़ी। पीडि़त लडक़ी के दु:खी भाई ने ठीक ही कहा कि आरोपियों और पुलिसकर्मियों पर इस तरह का परीक्षण किया जाना चाहिए, न कि पीडि़त परिवार पर। भाई का आरोप है कि यह दुष्कर्म की घटना को दूसरा मोड़ देने की कोशिश है। पीडि़त के अस्पताल में भर्ती होने के 11 दिन बाद लिये गये नमूनों के आधार पर आयी फॉरेंसिक रिपोर्ट कि ‘दुष्कर्म नहीं हुआ’ से ही किसी अंतिम नतीजे पर पहुँच जाना मामले की जाँच को हास्यास्पद बनाने जैसा है। यह दावा भी तर्कसंगत नहीं लगता है कि यह वास्तव में साम्प्रदायिक सद्भाव को बिगाडऩे की साज़िश थी। पुलिस ने अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ राजद्रोह के आरोप के साथ-साथ प्राथमिकी दर्ज की है, जिसमें कहा गया है कि वास्तव में यह राज्य में जाति-आधारित दंगे छेडऩे और राज्य तथा राज्य सरकार की छवि को धूमिल करने का षड्यंत्र था।

इसके बाद साज़िश और राजद्रोह के आरोपों के साथ कई मामलों का दर्ज किया जाना कहानी को बदलकर मोडऩे की व्यर्थ कोशिश दिखती है। सरकार ने आरोप लगाया कि एक साम्प्रदायिक संगठन के सदस्यों ने विरोध-प्रदर्शन के माध्यम से सरकार को उखाड़ फेंकने की साज़िश रची थी। लेकिन षड्यंत्र के इन आरोपों की पोल राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की नवीनतम रिपोर्ट भी खोलती है। ये आँकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि सन् 2019 में महिलाओं के खिलाफ अपराधों के सबसे ज़्यादा मामले उत्तर प्रदेश में सामने आये हैं, जो कि देश के हर राज्य से कहीं अधिक हैं।

फिलहाल उत्तर प्रदेश सरकार के खिलाफ लोगों की ज़बरदस्त नाराज़गी के बाद ही घटना की जाँच सीबीआई को सौंपी गयी है; भले ही दबाव के चलते प्रदेश सरकार को ही इसकी सिफारिश करनी पड़ी थी। सरकार को अपनी छवि को बहाल करने के लिए पीडि़त और उसके परिवार के प्रति दया दिखानी चाहिए और निष्पक्ष रूप से सच के साथ खड़ा होना चाहिए।

सरकार का ज़िम्मा पीडि़त परिवार को न्याय दिलाने का होना चाहिए, न कि उसे आरोपियों को बचाने की भूमिका में दिखना चाहिए। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सीबीआई को जाँच सौंपने के फैसले से ही ज़ाहिर हो जाता है कि उनकी अपनी गठित की गयी एसआईटी से उसे इस गम्भीर मामले में सरकार की निष्पक्ष छवि दिखाने में मदद नहीं मिली है। ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश सरकार का अपनी ही पुलिस पर भरोसा नहीं है; लेकिन वह नहीं चाहती है कि कुछ निहित स्वार्थ जातीय संघर्ष और हिंसा भडक़ाने के अपने परोक्ष उद्देश्यों के लिए झूठ फैलाएँ।

बैंक कर सकते हैं आत्मनिर्भर भारत का निर्माण

कोरोना वायरस के संक्रमण के बाद लोगों के रोज़गार-स्वरोज़गार चले जाने या निजी उद्योग-धन्धों में नुकसान होने के चलते सभी की आर्थिक दशा खराब हो चुकी है। ऐसे में इन दिनों अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए गरीब से अमीर तक, सभी के लिए बैंक आर्थिक मदद का काम कर रहे हैं, ताकि वे दोबारा आर्थिक तौर पर मज़बूत हो सकें।

नुकसान की भरपाई के लिए प्रधानमंत्री मोदी 21 लाख करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा कर ही चुके हैं और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण भी बैंकों से आत्मनिर्भर भारत अभियान को बल देने की बात कह चुकी हैं। इसके तहत कृषि एवं संबद्ध क्षेत्र, सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उधमों, ग्रामीण क्षेत्र में िकफायती आवास आदि के लिए नीतिगत उपायों के ज़रिये भी अर्थ-व्यवस्था को मज़बूत बनाने की पहल की जा रही है।

स्टेट बैंक ने योनो डिजिटल प्लेटफॉर्म के तहत किसान ई-स्टोर खोला है। इस ई-स्टोर में बीज, पौधा संरक्षण, पौधा पोषण, कृषि से संबंधित विविध उत्पाद, कीटनाशक, फफूँदनाशक, कृषि जैव उत्पाद, नीम का तेल, ऑर्गेनिक उत्पाद, संवर्धक, छिडक़ाव व बुवाई यंत्र आदि ऑनलाइन एवं सस्ती दर पर उपलब्ध हैं।

स्टेट बैंक किसानों के लिए मंडी, मित्र और कृषि गोल्ड लोन भी दे रहा है। मंडी में किसानों की गैर-बैंकिंग ज़रूरतों को पूरा किया जा रहा है। किसानों को बिना बिचौलिये के बाज़ार उपलब्ध कराया जा रहा है। पूर्ति और नपंता प्लेटफॉर्म से जुड़े किसान इनकी खरीददारी के लिए बैंक से ऋण भी ले सकते हैं। यह प्लेटफॉर्म समय पर किसानों को बाज़ार में चल रहे फसलों के भाव, प्रबंधन, बीमा, कृषि तकनीकी समस्याओं का समाधान, कोल्ड स्टोरेज आदि की जानकारियाँ भी उपलब्ध करा रहा है।

योनो पम्पकार्ट, एग्रोस्टार (भारत का पहला तकनीकी स्टार्टअप) और स्कामेटवेदर प्लेटफॉर्म भी उपलब्ध कराता है। किसान कृषि उपकरण खरीदने के लिए इस प्लेटफॉर्म का उपयोग कर रहे हैं। एग्रोस्टार किसानों की कृषि से जुड़ी समस्याओं का समाधान पेश करता है। इस प्लेटफॉर्म पर मिस्डकॉल या एप के ज़रिये किसान समस्याओं का समाधान पा सकते हैं, वहीं स्कामेटवेदर पर मौसम सम्बन्धी जानकारी उपलब्ध है।

बैंक एमएसएमई कारोबारियों को सम्पत्ति के एवज़ में ऋण, गाँवों में पेट्रोल पम्प डीलरों एवं अन्य डीलरों को ऋण, वेयरहाउस में रखे अनाजों के बदले ऋण, मिलों के लिए ऋण, शिक्षा ऋण, दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए वैयक्तिक ऋण, गाँवों में क्लीनिक खोलने के लिए डॉक्टर प्लस ऋण, स्कूल या महाविद्यालय खोलने के लिए ऋण उपलब्ध करा रहे हैं। किसान कॉर्पोरेट टाईअप के ज़रिये कृषि उत्पादों को सीधे कॉर्पोरेट्स को बेच रहे हैं। इसमें उन्हें स्थानीय मंडी जाने की ज़रूरत नहीं, जिससे ढुलाई और भाड़े पर होने वाला खर्च बच रहा है। बैंक किसानों को ज़मीन खरीदने, एग्री क्लीनिक खोलने, पोली हाउस बनाने, कम्बाईन्ड हार्वेस्टर खरीदने, पशुपालन, मछलीपालन, मशरूम की खेती करने, कुक्कट पालन, सूअर पालन, हार्टीकल्चर, बकरीपालन, सेरीकल्चर, भेड़ पालन, मधुमक्खी पालन, ट्रैक्टर, पम्पसेट व पाइपलाइन खरीदने आदि के लिए भी ऋण दे रहे हैं।

कोरोना-काल में प्रधानमंत्री मुद्रा लोन योजना (पीएमएमवाई) के अंतर्गत सरकार ने 1,500 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है, जिसके तहत  शिशुओं, किशोरों और तरुणों के लिए तीन प्रकार के ऋण दिये जाते हैं। शिशु मुद्रा ऋण लेने वाले करीब तीन करोड़ लाभार्थियों को कम ब्याज दर पर 50 हज़ार रुपये तक का ऋण कम ब्याज दर और आसान शर्तों पर दिया जाता है। किशोर योजना के तहत स्वरोज़गार शुरू करने वाले व्यक्ति को 50 हज़ार रुपये से पाँच लाख रुपये तक, जबकि तरुण योजना के तहत कारोबार शुरू करने के लिए 5 लाख से 10 लाख रुपये तक का ऋण ज़रूरतमंदों को दिया जाता है। राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (सांख्यिकी मंत्रालय) के वर्ष 2018 में जारी सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, देश में करीब 6 करोड़ लघु उद्योग हैं, जिनमें 12 करोड़ से अधिक लोग कार्यरत हैं। अधिकांश लघु उद्योग प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण से चल रहे हैं, जिससे 3.5 करोड़ से अधिक लोग रोज़गार पा रहे हैं।

बैंक अपने से ग्रामीणों को जोडऩे, महिला सशक्तिकरण करने, प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण या सरकारी योजनाओं का लाभ सीधे ग्रामीणों को देने, डिजिटल लेन-देन को बढ़ावा देकर ग्रामीणों की पहुँच दुनिया के बाज़ारों तक करने, बिचौलियों की भूमिका को खत्म करने का काम कर रहे हैं। देश में लगभग 1.30 लाख से अधिक बैंक शाखाओं का नेटवर्क है। प्रधानमंत्री जनधन योजना की मदद से लगभग 40 करोड़ लोग बैंक से जुड़े चुके हैं। बैंक, ग्रामीणों को वित्तीय रूप से साक्षर भी बना रहे हैं। बैंक देश को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन आत्मनिर्भरता का भाव समाज में भी उत्पन्न होना चाहिए, क्योंकि आत्मनिर्भर भारत के निर्माण के लिए सरकार के साथ-साथ समाज के सभी वर्गों का सहयोग आवश्यक  है।

सियासत की भेंट चढ़ रहीं बेटियाँ

भारत के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के हाथरस ज़िले के बूलागढ़ी गाँव में 14 सितंबर को सामूहिक दुष्कर्म की शिकार बनी 19 साल की एक दलित युवती वाला दर्दनाक, गम्भीर मामला अब काफी तूल पकड़ चुका है। ज़िला प्रशासन, पुलिस का व्यवहार इस मामले में कितना अमानवीय व असंवेदनशील रहा है, यह पूरा मुल्क जानता है। 29 सितंबर को पीडि़ता की दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में मौत हो गयी। परिवार की इच्छा के खिलाफ आधी रात को पुलिस ने पीडि़ता का अंतिम संस्कार कर दिया। दाह संस्कार के वक्त वहाँ परिवार का कोई भी सदस्य मौज़ूद नहीं था। माँ अपनी बच्ची का चेहरा देखने के लिए गिड़गिड़ाती रही, पुलिस से कहती रही कि शव को एक बार घर ले जाने दें, लेकिन प्रशासन, पुलिस ने इस गमगीन मौके पर भी उनकी एक नहीं सुनी और शव को जबरन जला दिया।

कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, आप, भीम आर्मी ने इस वीभत्स घटना व राज्य सरकार ने जिस तरह से इस मामले के प्रति लापरवाही व असंवेदनशीलता का जो परिचय दिया, उसे मुद्दा बनाया और योगी की उत्तर प्रदेश सरकार को महिला सुरक्षा व दलित सुरक्षा के सवाल पर कटघरे में खड़ा कर दिया। प्रदेश सरकार ने इस मामले में जो क्रूरता दिखायी, उसे लेकर आमजन में भी असंतोष है और विपक्षी दल तो हमलावर हो ही गये हैं। यह बात दीगर है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने सर्वोच्च अदालत में दायर एक हलफनामा में पीडि़ता की फॉरेंसिक रिपोर्ट की कॉपी भी लगायी है। इसके मुताबिक, पीडि़ता के साथ दुष्कर्म नहीं हुआ है। शारीरिक हमले के ज़रूर सुबूत मिले हैं, जिसमें उसकी गर्दन और पीठ पर चोट के निशान पाये गये हैं।

याद दिला दिया जाए कि अलीगढ़ के आईजी का मीडिया में छपे एक बयान के मुताबिक, हाथरस निवासी युवती की मेडिकल रिपोर्ट में रेप की पुष्टि नहीं हुई है। दरअसल उत्तर प्रदेश प्रशासन, पुलिस का पूरा ज़ोर यह साबित करने पर है कि पीडि़ता के साथ दुष्कर्म नहीं हुआ था, लिहाज़ा उसके आला अधिकारी बार-बार फॉरेंसिक रिपोर्ट का हवाला देकर इस वीभत्स मामले का पूरा विमर्श ही बदलने की फिराक में हैं। मगर उनकी सोच पर तरस आता है कि क्या उन्हें इस संदर्भ में कानून में हुए बदलाव की जानकारी नहीं हैै।

दुष्कर्मियों के खिलाफ है कानून

दुष्कर्म सम्बन्धी कानून में 2013 में बदलाव हुआ था। इस बदलाव के पीछे 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में एक पैरा मेडिकल छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार वाली घटना से उपजा जनाक्रोश है। 13 दिन बाद गम्भीर अंदरूनी चोटों के चलते निर्भया की मौत हो गयी थी। पूरे देश में लोग सडक़ों पर उतर आये और बलात्कार के कानूनों को और अधिक कड़ा बनाने की माँग करने लगे। 2013 में क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट ऑडिर्नेस आया। फिर संसद में यह पारित किया गया। दुष्कर्मियों को फाँसी का प्रावधान हुआ।

इसके अलावा इस कानून के मुताबिक अब यह ज़रूरी नहीं है कि किसी युवती से उसकी इच्छा के खिलाफ शारीरिक सम्बन्ध बनाने को ही दुष्कर्म की संज्ञा दी जाए। सिर्फ छूना भी दुष्कर्म माना जाता है। इसके अलावा मरने से पहले दिये गये बयान को किसी भी तरह झुठलाया नहीं जाता। इस मामले में लगता है कि उतर प्रदेश सरकार को समझ ही नहीं आ रहा है कि वह अपनी गलतियों का क्या करे? 30 सितंबर को मुख्यमंत्री योगी ने पीडि़ता के साथ हुई हैवानियत की जाँच एसआईटी से कराने का ऐलान किया और देश को बताया गया कि राज्य सरकार इस मुद्दे पर अति गम्भीर है और एसआईटी सात दिन के भीतर अपनी रिपोर्ट सौंप देगी। लेकिन 7 अक्टूबर को जो रिपोर्ट सौंपनी थी, उसकी तारीख 10 दिन और आगे बढ़ा दी गयी है। इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इस सूबे में एसआईटी का तय समय सीमा के तहत रिपोर्ट जमा नहीं करने का रिकॉर्ड रहा है।

सरकार ने पीडि़ता के परिवार को 25 लाख रुपये की मदद, आवास व नौकरी देने का वादा किया। यह भी कहा है कि पुलिस संजीदगी से काम कर रही है। 4 ओरोपियों को पकड़ लिया गया है। दोषी युवकों के विरुद्व फास्ट ट्रैक अदालत में मुकदमा चलेगा। सीबीआई मामले की जाँच करेगी। अब प्रदेश सरकार ने सर्वोच्च अदालत में कहा कि वह हाथरस मामले में हर तरह की जाँच को तैयार है। हलफनामे में कहा गया है कि चाहे वह सीबीआई की जाँच हो या फिर सर्वोच्च अदालत की निगरानी में सीबीआई की जाँच हो, प्रदेश सरकार सच को सामने लाने के लिए हर तरह से तैयार है। यही नहीं प्रदेश सरकार की तरफ से जनता को यह भी बताया जा रहा है कि हाथरस के मामले के बहाने उत्तर प्रदेश में अमन-चैन बिगडऩे व दंगे कराने की साजिश भी रची गयी। पुलिस ने पीएफआई संगठन के चार लोगों को, जो हाथरस जा रहे थे, गिरफ्तार भी कर लिया है। पुलिस का दावा है कि इनके पास से मोबाइल व लैपटॉप भी मिला है और विदेशी फंड से यहाँ दंगे कराने की साजिश रची गयी। ज़ाहिर है कि अब लोगों का ध्यान इस मुद्दे से भटकाने के लिए उनका फोकस दंगा कराने वाले बिन्दु की ओर धकेल दिया जाएगा। मुख्य मुद्दा महिलाओं की सुरक्षा का है। उतर प्रदेश में हाथरस और बलरामपुर में गैंगरेप पर फिल्म अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने अपने इंस्टाग्राम पर लिखा है- ‘हममें से हरेक को क्रूरता के इन कृत्यों के लिए अपना सिर शर्म से झुका लेना चाहिए।’

उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ बढ़ रहे अपराध

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट 2019 के अनुसार, सन् 2012 से लेकर सन् 2019 तक देश भर में दुष्कर्म के करीब 2.66 लाख मामले दर्ज किये गये। देश में महिलाओं के प्रति अपराध 7.3 फीसदी (पिछले वर्ष की तुलना में) तक बढ़ गये हैं। 2019 में रोज़ाना औसतन दुष्कर्म के 88 मामले दर्ज किये गये। 2019 में कुल 32,033 दुष्कर्म के मामले दर्ज किये गये। इनमें से 11 फीसदी मामले दलित बालिकाओं और महिलाओं से जुड़े हुए थे। गौरतलब है कि बीते सन् 2019 में राजस्थान में सबसे अधिक दुष्कर्म यानी 6,000 ऐसे मामले दर्ज किये गये।

उत्तर प्रदेश में 3,065 दुष्कर्म के मामले सरकार के पास दर्ज हैं। जब कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी व प्रियंका गाँधी ने हाथरस के मुद्दे पर योगी सरकार पर हमला बोला तो भाजपा के नेताओं ने कहा कि उन्हें तो राजस्थान में बाराँ ज़िले में दो युवतियों के साथ हुए यौन शोषण, बलात्कार के खिलाफ प्रदर्शन करने के वास्ते वहाँ जाना चाहिए; लेकिन वे वहाँ नहीं जाएँगे। क्योंकि वहाँ तो कांग्रेस की सरकार है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस मामले में कहा था कि हाथरस की तुलना बाराँ से नहीं की जा सकती। अफसोस है कि राजनीतिक दलों के प्रवक्ता, नेता उस राज्य का बलात्कार बनाम इस राज्य का बलात्कार, इस राजनीतिक दल की सरकार बनाम उस राजनीतिक दल की सरकार आदि के संाचों में बलात्कार/महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों में बाँटकर देखने लगते हैं। यह खतरनाक सोच है।

यही नहीं, राजनीतिक दल सत्ता पाने के लिए जाति, धर्म का कार्ड खेलने में गुरेज नहीं करते और अक्सर दागी लोगों को टिकट दे देते हैं। वे अपने बाहुबल, धनबल से जीतकर विधानसभा, लोकसभा में पहुँच जाते हैं। जन प्रतिनिधि कहलाते हैं, लेकिन क्या वे वास्तव में इसके हकदार हैं? राजनीति अपराधियों की शरणस्थली का काम करती है। कई मर्तबा जनता का गुस्सा, पीडि़ता की कानूनी लड़ाई ऐसे अपराधियों को जेल में पहुँचाने का काम करती है। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं है। महिलाओं के प्रति अपराधों की दर्ज संख्या के पीछे पुलिस की एक ही दलील सुनायी देती है कि आम जनता अब जागरूक हो रही है और अपराध दर्ज कराती है। लेकिन अहम सवाल यह भी है कि बीते दो दशकों में इन मामलों में सज़ा की दर 24-27 फीसदी तक ही क्यों सिमटी हुई है? महिलाओं को जल्द इंसाफ दिलाने व अपराधियों को सज़ा दिलाने के लिए मुल्क में फास्ट ट्रैक अदालतों का गठन किया गया है। संसद में पूछे गये एक सवाल के जवाब में केंद्र सरकार ने बताया था कि 31 मार्च, 2019 तक देश भर में 581 फास्ट ट्रैक अदालतें गठित की जा चुकी हैं। लेकिन हालात यह हैं कि इसके बावजूद बीते 10 वर्षों में दुष्कर्म के मामले 31 फीसदी बढ़ गये हैं। निर्भया मामले के बाद केंद्र सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए निर्भया फंड का गठन किया। केंद्र सरकार यह फंड राज्य सरकारों को महिलाओं की सुरक्षा के लिए देती है। लेकिन राज्य सरकारें महिलाओं की सुरक्षा के प्रति कितनी गम्भीर हैं और यह मुद्दा उनके लिए कितना महत्त्व रखता है, इसके लिए यह जानना ज़रूरी है कि राज्य सरकारें इस फंड का कितना इस्तेमाल करती हैं। तकरीबन सभी राज्यों में इस फंड का पूरा इस्तेमाल नहीं हुआ यानी जो राशि उनके पास है, उनमें से अधिकांश राशि महिला सुरक्षा पर खर्च ही नहीं की गयी। हरियाणा ने इस राशि का सबसे अधिक इस्तेमाल किया है। बलात्कार को लेकर कानून कड़े बना दिये गये; लेकिन सज़ा की दर बहुत ही कम है। आखिर क्यों? सरकार, जाँच एजेंसियों को इस बिन्दु पर गम्भीरता से काम करना चाहिए। इस प्रक्रिया में जहाँखामियाँ हैं, उन्हें दूर करना चाहिए, ताकि पीडि़त महिलाओं को पूरा इंसाफ मिले और दोषियों को कड़ी-से-कड़ी सज़ा।

समाज में यह संदेश साफ जाता नज़र आना चाहिए कि प्रशासन, पुलिस और सरकार निष्पक्ष होकर काम कर रही है, न कि किसी दबाव में। आज सरकार को, पुलिस को और प्रशासनिक अधिकारियों को हाथरस घटना से कई सबक लेने की ज़रूरत है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा होगा?

हाथरस कांड – रंजिश और प्रशासनिक चूक का नतीजा

हाथरस की घटना को लेकर जो सियासी खेल खेला जा रहा है, वो कतई स्वस्थ लोकतंत्र के हित में नहीं है। लेकिन इतना ज़रूर है कि हाथरस में युवती से सामूहिक दुष्कर्म और हत्या ने 2012 के दिल्ली के निर्भया केस और 2019 के तमिलनाडु के पशु चिकित्सक केस की याद दिला दी है और बता दिया है कि महिला सुरक्षा के नाम पर देश में धरातल पर कुछ भी नहीं बदला है। मौज़ूदा शासन-प्रशासन के सिस्टम में तामाम खामियाँ हैं। ऐसे में दोषी और निर्दोष को बचाने और फँसाने की जुगत में कुछ लोग माहिर होते हैं, जो सारे मामले को कहीं-से-कहीं तक ले जाते हैं; जैसे कि अब हो रहा है। दलित युवती से कथित रूप से सामूहिक दुष्कर्म और हत्या का मामला दबता जा रहा है। पीडि़त परिवार को न्याय दिलाने पर अब मानो शासन-प्रशासन गौर ही नहीं कर रहा है। हाथरस के लोगों ने तहलका संवाददाता को बताया कि जिस प्रकार दलित युवती किशोरी कुमारी (बदला हुआ नाम) को न्याय दिलाने की जगह सियासत हो रही है, गाँव में होने वाला आगामी प्रधान का चुनाव है। प्रधान के चुनाव को लेकर हाथरस के चंदपा क्षेत्र में राजनीति और जातीय समीकरण का गुणा-भाग लगाया जाता है और जातिवाद के हिसाब से काफी लॉबिंग होती है। हाथरस के निवासी रूपकुमार का कहना है कि यह मामला सोची-समझी राजनीति का हिस्सा है, जिसके तहत मामले को तूल दिया गया है। अगर रात्रि के समय शव का दाह संस्कार वो भी पुलिस प्रशासन द्वारा नहीं किया गया होता, तो इतना हो-हल्ला नहीं होता। वहीं कुछ लोग कह रहे हैं कि दलित उत्पीडऩ को दबाने के कारण यह बवाल हुआ है। वहीं प्रदेश सरकार कह रही है कि आपसी सौहार्द को बिगाडऩे व दंगा भडक़ाने की साजिश की जा रही है, जिसके लिए विदेशों से फंडिंग भी हो रही है। कुछ भी हो, लेकिन मौज़ूदा सिस्टम पर कई प्रश्नचिह्न लगे हैं।

बताते चलें जब 16 दिसंबर, 2012 को दिल्ली के द्वारका-मुनिरका रोड पर निर्भया मामले से नाराज़ होकर पूरा देश निर्भया के दोषियों को फाँसी की सज़ा को दिलाने के लिए सडक़ों पर उतरा था, जिसकी गूँज से संसद तक हिल गयी थी। तब निर्भया कानून और निर्भया फंड का प्रावधान भी किया गया था, जिसका 2013 का केंद्रीय बजट 100 करोड़ रुपये था, अब यह राशि बढक़र 300 करोड़ रुपये हो गयी है। निर्भया के दोषियों को जब फाँसी हुई,तब लगा था कि दुष्कर्म जैसी घटनाएँ अब शायद कम होंगी; लेकिन ऐसा नहीं हुआ।   सन् 2019 में तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद की पशु चिकित्सक की सामूहिक दुष्कर्म के बाद जलाकर हत्या कर देने की घटना ने भी सभी को अंदर तक झकझोर दिया। तब पुलिस एन्काउंटर में सभी अपराधियों के मारे जाने पर लोगों को उम्मीद जगी कि अपराधियों में खौफ पैदा होगा, पर कम से कम उत्तर प्रदेश में तो अपराधियों के हौसले बढ़े ही हैं।

देश का मौज़ूदा सिस्टम पूरी तरह से लचर होता जा रहा है कि हाथरस जैसी घटनाएँ केवल चर्चा का विषय बनने के कारण अपराधियों में खौफ नहीं है। वीभत्स घटनाओं में पर सियासत किस कदर हावी हो जाती है, इसका बहुत बड़ा उदाहरण हाथरस की यह घटना है। अब हाल यह है कि दलित युवती के साथ जो भी हुआ, उसे पूरी तरह से विवादों के घेरे लाकर खड़ा कर दिया है। क्योंकि पुलिस का कहना है कि फोरेंसिक जाँच में दुष्कर्म की पुष्टि नहीं हुई है। इस मामले आरोपी संदीप ने हाथरस के पुलिस अधीक्षक (एसपी) को पत्र लिखकर अपने आपको बेकुसूर बताते हुए कहा है कि यह सारा मामला ऑनरकिलिंग का है। पुलिस गिरफ्त में मेरे चाचा रवि, रामू लवकुश निर्दोष हैं। उनका इस घटना से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। संदीप ने लिखा है कि घटना के दिन मैं खेत पर था। युवती से मेरी दोस्ती थी, जो मृतक के परिजनों को पसंद नहीं थी। उसने पत्र में लिखा है कि युवती को उसकी माँ और भाई ने मारा है। संदीप ने यह भी माना है कि युवती से उसकी मोबाइल से बातचीत होती थी, जिसकी कॉल डिटेल पुलिस के पास है। हाथरस में पीडि़त पक्ष और आरोपी पक्ष के समर्थन और विरोध में दो विचारधाराओं को लेकर जो हंगामा हुआ है, वो पूरी तरह से साजिश का हिस्सा है। क्योंकि पीडि़त का परिवार तो आज भी अपने घर में पुलिस की निगरानी में है। फिर वे लोग कौन हैं, जो इस मामले को हवा दे रहे हैं। अचानक विदेशी फंडिंग की बात कहाँ से, क्यों और कैसे आ गयी? हाथरस मामला ठाकुर बनाम बाल्मीकि समाज बनता जा रहा है।

कांग्रेस नेता राहुल गाँधी इस घटना को अपने लिए बड़ी ट्रेजडी बता रहे हैं। उन्होंने कहा है कि सच छिपाने के लिए उत्तर प्रदेश प्रशासन दरिंदगी पर उतर आया है। पीडि़त के परिजनों को किसी से मिलने नहीं दिया जा रहा है, उनके साथ मारपीट और बर्बरता की जा रही है। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी का कहना है कि उत्तर प्रदेश सरकार हर मोर्चे पर असफल है, क्योंकि प्रदेश में अपराध बढ़ रहे हैं। कोई सुरक्षित नहीं है। उन्होंने भाजपा पर निशाना साधते हुए कहा कि अपराधियों की दरिंदगी के चलते पीडि़त दलित की बेटी अपनी जान गँवा चुकी है और उसे ही बदनाम करने की साजिश रची जा रही है। जबकि वह न्याय की हकदार है। कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी का कहना है कि हाथरस मामले में हर रोज़ साजिश हो रही है। आरोपियों को बचाये जाने के लिए अन्य लोगों पर मुकदमे दर्ज किये जा रहे हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि प्रदेश सरकार ने एफिडेविट के माध्यम से सार्वजनिक जाँच को भटकाकर अदालत को गुमराह किया है। योगी सरकार जनता के साथ-साथ देश की न्यायपालिका को गुमराह कर रही है। तरह-तरह के षड्यंत्र रचे जा रहे हैं।

वहीं बसपा सुप्रीमो मायावती का कहना है कि हाथरस मामले में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का साम्प्रदायिक दंगा भडक़ाने की साजिश वाला आरोप सही है? या चुनावी चाल है? यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन सरकार को इस समय पीडि़त परिवार को न्याय दिलाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।  इस मामले में हाथरस से लौटकर सचिन सिंह गौर ने बताया कि अगर सही तरीके से पड़ताल की जाए तो यह मामला गरीबी, अशिक्षा, और आपसी खुन्नस का ही निकलेगा। पर इस मामले में जो तूल दिया गया है, उसकी रूपरेखा दिल्ली में सियासतदानों और तथा कथित वुद्धिजीवियों ने तैयार करके माहौल को हिंसक रूप में बदल दिया है।

मृतक युवती के माँ-बाप का कहना है कि आधी रात को जिस तरह अंतिम संस्कार किया गया है, वह पूरी तरह धर्म और संस्कृति के खिलाफ है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का कहना है कि प्रदेश में अराजक तत्त्व उपद्रव करके सरकार को बदनाम कर रहे हैं। लेकिन हम उनकी साजिश को सफल नहीं होने देंगे। कुछ लोग समाज को जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर विभाजित करते रहे हैं। वे षड्यंत्र करके प्रदेश में हो रहे विकास कार्यों को अवरुद्ध करना चाहते हैं। उनका कहा कि इस मामले में दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। स्थानीय प्रशासन से लेकर तमाम एजेंसियाँ जाँच पड़ताल में लगी हुई हैं। सच जल्द ही सामने आ जाएगा। दाह संस्कार को लेकर एससी-एसटी आयोग के पूर्व अध्यक्ष बृजलाल का कहना है कि इस मामले में भीम आर्मी के चंद्रशेखर, आम आदमी पार्टी की नेता राखी विड़लान और कांग्रेस के नेता उदित राज सहित सैकड़ों लोगों ने शव को 10 घंटे तक रोकेे रखा, जिसके कारण मामला तनावपूर्ण होता जा रहा था। आगजनी और हिंसा की प्रबल सम्भावना के चलते मृतक के माँ-बाप से पूछकर ही रात्रि को अंतिम संस्कार किया गया। इस बारे में हाथरस निवासी राजकुमार का कहना है कि ज़रा-सी चूक के कारण यह मामला सियासी बवाल का कारण बन गया है। 14 सितंबर को जब किशोरी के साथ जो कथित मारपीट तथा दुष्कर्म की घटना घटी, अगर तभी स्थानीय पुलिस प्रशासन गम्भीरता से मामले में कार्रवाई करता तो मामला इतना बड़ा नहीं होता। लेकिन परिजन हाथरस अस्पताल से अलीगढ़ अस्पताल फिर दिल्ली के एम्स में ले आये, जहाँ उसे भर्ती नहीं किया गया। फिर सफदरजंग अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहाँ उसकी मौत हो जाती है। राजकुमार का दावा है कि यह सब पीडि़त और आरोपी परिवार की पुरानी रंजिश का नतीजा ही है। देर-सबेर सब सामने आ जाएगा।

एनसीआरबी के आँकड़ों से जानें महिलाओं पर अत्याचार की हकीकत

हाल ही में नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा जारी आँकड़ों से हाथरस में 19 वर्षीय दलित की युवती के साथ हैवानियत की हकीकत को समझा जा सकता है। एनसीआरबी के 2019 के आँकड़ों के मुताबिक, देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध सात फीसदी और बढ़ गये हैं। आँकड़ों के मुताबिक, 2019 के दौरान महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 4,05,861 मामले दर्ज किये गये यानी हर 16 मिनट में भारत में कहीं न कहीं एक महिला से

दुष्कर्म हुआ। रिपोर्ट में चौंकाने वाली बात यह है कि 2019 के दौरान महिलाओं के खिलाफ किये गये अपराधों में पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये गये 4500 आरोपियों में से 60 फीसदी 18-30 आयु वर्ग के थे। यौन अपराध से जुड़े मामलों में ही रिपोर्ट के मुताबिक, सन् 2019 में 528 बच्चे लापता हुए, जिनमें 226 लडक़े और 302 लड़कियाँ थीं। इनमें 356 नाबालिगों- 167 लडक़ों और 189 लड़कियों का पुलिस आज तक पता नहीं लगा सकी।

सन् 2019 में देश में हर दिन 88 दुष्कर्म के मामले दर्ज किये गये। पिछले साल दुष्कर्म के कुल 32,033 मामलों में से 11 फीसदी दलित समुदाय की पीडि़ता थीं। आँकड़ों से पता चलता है कि महिलाओं को नीचा दिखाने के लिए हमले या छेड़छाड़ के मामले 21.8 फीसदी थे। 2018 में 58.8 की तुलना में 2019 में प्रति लाख महिलाओं की आबादी का अपराध दर 62.4 हो गया। नवीनतम आँकड़ों से पता चलता है कि राजस्थान और उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा दुष्कर्म के मामले सामने आते हैं। उत्तर प्रदेश और राजस्थान में दलित समुदायों के खिलाफ उत्पीडऩ में यौन हिंसा में लगातार वृद्धि देखी गयी है। उत्तर प्रदेश में दुष्कर्म के मामलों में से 18 फीसदी पीडि़त दलित महिलाएँ हैं, जबकि राजस्थान में 9 फीसदी पीडि़त महिलाएँ दलित हैं। महिलाओं के खिलाफ अपराध की दर में भी एक वर्ष में 3.5 फीसदी से अधिक की वृद्धि दर्ज की गयी है। एनसीआरबी के आँकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ दर्ज अपराध के मामले 59,853 हैं, जो देश के कुल मामलों का 14.7 फीसदी हैं। राजथान में 41,550 केस दर्ज हुए, जो देश के आँकड़ों का 10.2 फीसदी हैं। इसके बाद महाराष्ट्र में 37,144 यानी 9.2 फीसदी मामले दर्ज किये गये।

असम में महिलाओं के खिलाफ अपराध की उच्चतम दर 177.8 (प्रति लाख जनसंख्या) दर्ज की गयी। इसके बाद राजस्थान (110.4) और हरियाणा (108.5) का स्थान रहा। दुष्कर्म के मामले में राजस्थान में 5,997 मामलों के साथ सबसे ऊपर रहा, इसके बाद उत्तर प्रदेश (3,065) और मध्य प्रदेश में 2,485 मामले दर्ज किये गये। भारत में 2018 में 3,78,236 मामलों की तुलना में 2019 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 4,05,861 मामले दर्ज किये गये।

सन् 2018 में अपराध दर दर्ज 21.2 (प्रति लाख जनसंख्या) से बढक़र 2019 में 22.8 हो गयी है। 2019 के दौरान अनुसूचित जाति की महिलाओं के खिलाफ सामान्य मारपीट के 28.9 फीसदी (13,273 मामलों) मामले दर्ज हुए, जो जातिगत अत्याचार के सबसे ज़्यादा हैं। इसके बाद अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत 9.0 फीसदी (4,129 मामले) केस हुए और 7.6 फीसदी (3,486 मामले) केस दुष्कर्म के दर्ज किये गये। उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति के खिलाफ सबसे ज़्यादा 11,829 मामले दर्ज किये गये, जो देश भर का 25.8 फीसदी हैं।  इसके बाद दूसरे नंबर पर राजस्थान में (6,794 यानी 14.8 फीसदी मामले) और तीसरे नंबर पर बिहार में (6,544 यानी 14.2 फीसदी मामले) दर्ज किये गये। ऐसे मामलों की दर राजस्थान में सबसे अधिक 55.6 (प्रति लाख जनसंख्या) थी, उसके बाद मध्य प्रदेश (46.7) और बिहार (39.5) थी। राजस्थान में भी दलित महिलाओं (554) के खिलाफ सबसे ज़्यादा दुष्कर्म के मामले दर्ज हुए, उसके बाद उत्तर प्रदेश (537) और मध्य प्रदेश (510) का नंबर आता है। दलित महिलाओं के खिलाफ दुष्कर्म की दर केरल में सबसे अधिक 4.6 (प्रति लाख जनसंख्या) थी, उसके बाद मध्य प्रदेश (4.5) और राजस्थान (4.5) दर्ज की गयी। देश में महिलाओं के खिलाफ तमाम कानून और प्रावधान है, पर सब नाकाफी साबित हुए।

वर्मा समिति ने की थी कम्युनिटी पुलिसिंग की वकालत

दिसंबर, 2012 में दिल्ली के निर्भया कांड के बाद महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीडऩ के अपराधियों पर त्वरित मुकदमे और सज़ा दिलाये जाने के लिए जस्टिस वर्मा कमेटी का गठन किया गया। समिति ने 23 जनवरी, 2013 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित मामलों के प्रबंधन में कई सुझाव और सुधार की बात कही। सुझावों में शामिल था कि एक रेप क्राइसिस सेल की स्थापना की जाए। यौन हमले के सम्बन्ध में प्राथमिकी किये जाने पर सेल को तुरन्त सूचित किया जाना चाहिए। सेल को पीडि़त को कानूनी सहायता प्रदान करनी चाहिए। सभी पुलिस स्टेशनों में प्रवेश द्वार और पूछताछ कक्ष में सीसीटीवी होने चाहिए। शिकायतकर्ता को ऑनलाइन एफआईआर दर्ज करने की सुविधा मिलनी चाहिए। अपराध के क्षेत्राधिकार के बावजूद यौन अपराध के पीडि़तों की सहायता के लिए पुलिस अधिकारियों को बाध्य होना चाहिए। पीडि़तों की मदद करने वालों को गलत नहीं माना जाना चाहिए। पुलिस को यौन अपराधों से निपटने के लिए उचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। पुलिसकर्मियों की संख्या बढ़ायी जाए। स्वयंसेवकों को प्रशिक्षण प्रदान करके सामुदायिक पुलिसिंग विकसित की जानी चाहिए। इसके अलावा समिति ने जनप्रतिनिधित्व कानून-1951 में संशोधन की सिफारिश की थी।

टीआरपी का खेल – कानून तोडक़र कमायी में लगे कई टीवी चैनल

मुम्बई की एक बेहद संकरी गली। उसमें बेहद गरीबी में रह रहे एक निरक्षर परिवार की खोली; लेकिन भीतर टीवी पर चल रहा अंग्रेजी न्यूज चैनल। यह टीआरपी के लिए पगला गये टीवी चैनलों का नया, लेकिन घिनोना सच है। अभी तक सुशांत सिंह राजपूत की मौत और रिया चक्रवर्ती की गिरफ्तारी के मामले में पत्रकारिता का दम घोटने वाले टीवी चैनलों की बेईमानी की पोल खोलकर मुंबई पुलिस ने टीआरपी को लेकर कई गम्भीर सवाल खड़े कर दिये हैं। इस घोटाले का खुलासा करते हुए मुम्बई पुलिस प्रमुख परमबीर सिंह ने कहा भी कि ऐसा देश के दूसरे हिस्सों में भी हो सकता है।

मुम्बई पुलिस के खुलासे में तीन चैनलों में से चौंकाने वाला जो नाम बताया गया, वो रिपब्लिक टीवी जैसे बड़े चैनल का था। ज़ाहिर है इसके बाद देश भर में बड़ी बहस छिड़ गयी है कि क्या टीआरपी बढ़ाने के लिए खबरों को सनसनीखेज़ बनाने के अलावा इस तरह का कोई घोटाला भी किया जाता है? मुम्बई पुलिस की प्रेस कॉन्फ्रेंस में रिपब्लिक टीवी का नाम सामने आते ही उनके और एक अन्य बड़े मीडिया ग्रुप इंडिया टुडे के बीच एक-दूसरे को विलेन दिखाने की होड़ मच गयी। रिया वाले मामले में इन दोनों चैनलों के बीच पहले से ही टीआरपी की तनातनी चल रही थी। रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक और सर्वेसर्वा अर्नब गोस्वामी ने आनन-फानन अपने टीवी चैनल पर आकर कहा- ‘मुम्बई पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह ने रिपब्लिक टीवी के खिलाफ गलत आरोप लगाये हैं; क्योंकि हमने उनसे सुशांत सिंह राजपूत केस की जाँच को लेकर सवाल किया था। रिपब्लिक टीवी मुम्बई पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह के खिलाफ आपराधिक मानहानि का केस दायर करेगा।’

अर्नब गोस्वामी के चैनल पर जब इंडिया टुडे ग्रुप को लपेटने की कोशिश हुई, तो उसके समाचार निदेशक राहुल कंवल ने पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह का साक्षात्कार करके यह साफ किया कि मुम्बई पुलिस की अभी तक की जाँच में उनके ग्रुप का नाम नहीं। हालाँकि इसके बाद भी दोनों चैनल लगातार इस मसले पर एक-दूसरे से भिड़े रहे। एनडीटीवी सहित अन्य चैनलों पर भी टीआरपी घोटाले की यह खबर खूब चली और बाकायदा इस पर डिबेट हुईं। कुल मिलाकर देश की जनता को यह पता चल गया कि टीआरपी के लिए टीवी चैनल किस हद तक गिर सकते हैं।

जाने-माने पत्रकार और जनसत्ता के संपादक रहे ओम थानवी ने ‘तहलका’ से कहा- ‘रिपब्लिक पकड़ा गया। वरना यह काम और ‘बड़े’ चैनल भी करते आये होंगे। धन्धा है। विज्ञापन बटोरने के लिए टीआरपी चाहिए। वरना चैनल अच्छा है या बुरा, टीआरपी इसका पैमाना नहीं। अक्सर अच्छे चैनलों की टीआरपी कम ही मिलेगी। टीआरपी में बेईमानी एक बात है। फालतू खबरें, झूठी खबरें, कुत्ते-बिल्ली की लड़ाई, गलाफाड़ ऐंकरिंग, हल्ले वाली कथित बहसें आदि भी लोगों का ध्यान खींचने का ‘धन्धा’ हैं। अफसोस यह कि इनके लिए कोई नियामक (रेगुलेटरी) संस्था नहीं है। शायद सुप्रीम कोर्ट ही कभी नियम बनाने का आदेश दे।’

क्या है टीआरपी

टीआरपी अर्थात् टेलिविजन रेटिंग प्वाइंट से पता चलता है कि किसी टीवी चैनल या किसी शो को कितने लोगों ने कितने समय तक देखा, कौन-सा चैनल या कौन-सा शो कितना लोकप्रिय है? उसे लोग कितना पसन्द करते हैं? इससे चैनल की लोकप्रियता तय होती है, जिसकी जितनी ज़्यादा टीआरपी, उसकी उतनी ज़्यादा लोकप्रियता और विज्ञापन। अभी बीएआरसी इंडिया (ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल इंडिया) टीआरपी मापती है। पहले यह काम टीएएम करती थी।

टीआरपी वास्तविक नहीं, बल्कि आनुमानित आँकड़ा होता है। देश में करोड़ों घरों में टीवी चलते हैं। उन सभी पर किसी खास समय में क्या देखा जा रहा है? इसे मापना व्यावहारिक नहीं है। इसलिए सैंपलिंग का सहारा लिया जाता है। कुछ हज़ार घरों में एक उपकरण बैरोमीटर (पीपल्स मीटर) लगाया जाता है। इसके ज़रिये पता चलता है कि उस टीवी सेट पर कौन-सा चैनल, प्रोग्राम या शो कितनी बार और कितनी देर तक देखा जा रहा है। पीपल्स मीटर से मिली जानकारी का एजेंसी विश्लेषण कर टीआरपी तय करती है। जिस चैनल की जितनी ज़्यादा टीआरपी, उसकी उतनी ज़्यादा कमायी। इस मसले पर एक्ससीड स्पेस के सह संस्थापक महेश मूर्ति ने अपने ब्लॉग में लिखा है- ‘प्तञ्जक्रक्कह्यष्ड्डद्व के साथ मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह है कि भारत में यह धाँधली कम-से-कम 30 साल से चल रही है। सिर्फ रिपब्लिक टीवी ही नहीं, बल्कि कई चैनलों ने इसका फायदा लिया है। इस घोटाले का आर्थिक दायरा 25,000 करोड़ (3.5 बिलियन यूएस डॉलर) प्रति वर्ष तक का है।’

महेश ने इस ब्लॉग में अपने व्यक्तिगत अनुभव को भी साझा किया है कि कैसे टीआरपी को लेकर अन्धी दौड़ चल रही है और कैसे इसमें धाँधली होती है।

महेश ब्लॉग में यह भी लिखते हैं- ‘भारत में टीवी चैनल और गैर-डब्ल्यूपीपी एजेंसी समूह डब्ल्यूपीपी से मुक्ति चाहते थे और उन्होंने करीब 5 साल पहले बीएआरसी (बार्क) का  गठन किया था। उनका पहला बड़ा दावा यह था कि वो 12,000 टीएएम साईज़ से नमूना लेंगे। आज उनके पास लगभग 33,000 मीटर लगे घर हैं।’ इस मसले पर वरिष्ठ पत्रकार एसपी शर्मा ने कहा- ‘अब बिल्ली थैले से बाहर आ ही गयी है, तो लगे हाथ मीडिया में इस गन्दगी को साफ कर ही देना चाहिए।’

मुम्बई पुलिस का दावा

मुम्बई पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में दावा किया तीन चैनल पैसा देकर अपने लिए फर्ज़ी टीआरपी जुटा रहे थे। पुलिस कमिश्नर ने दावा किया इस घोटाले में रिपब्लिक टीवी और दो छोटे मराठी चैनल- फक्त मराठी और बॉक्स सिनेमा शामिल हैं। इस मामले में चार लोग गिरफ्तार किये गये हैं। कमिश्नर ने कहा- ‘हमारी क्राइम ब्रांच ने एक रैकेट का पता लगाया है, जो कि फर्ज़ी टीआरपी से जुड़ा है। बार्क नाम की एक एजेंसी टीआरीपी को आँकने का काम करती है। यह एजेंसी टीआरपी को आँकने के लिए देश के अलग-अलग शहरों में बैरोमीटर लगाती है। पूरे दशक में 30 हज़ार बैरोमीटर लगाये गये हैं और लगभग दो हज़ार बैरोमीटर मुम्बई में लगे हैं।’

उन्होंने कहा- ‘बीएआरसी ने हंसा नाम की कम्पनी को बैरोमीटर लगाने का ठेका दिया है। जाँच के दौरान यह बात सामने आयी कि हंसा के कुछ एक्स कर्मचारी, जो कि बीएआरसी के साथ काम करते हैं; इस डाटा को टीवी चैनल से शेयर कर रहे थे। जिन घरों का डाटा शेयर किया गया था उन्हें पैसे देकर कुछ विशेष चैनल चलाने को कहा गया था। जिन घरों को पैसा दिया जा रहा था उनको बोला जाता था कि आप हमेशा एक विशेष टीवी चैनल को ऑन रखें चाहे आप घर में हों या नहीं हों। यह भी पता चला कि निरक्षर लोगों के घर में भी इंग्लिश के चैनल को ऑन करके रखने की डील की गयी थी। हमने हंसा के एक एक्स कर्मचारी को अरेस्ट किया, तो पता चला कि उसके कुछ साथी, जो कि हंसा के लिए काम करते थे; इसमें शामिल हैं। ये लोग चैनल की तरफ से मासिक तौर पर पैसा हाउसहोल्ड्स (मकान वालों) को देते थे और उनसे कुछ विशेष चैनल्स को लगातार चलाने के लिए कहते थे। गिरफ्तार किये गये एक व्यक्ति के बैंक खाते से हमने करीब 20 लाख रुपये ज़ब्त किये हैं और 8.5 लाख रुपये उसके बैंक लॉकर से मिले हैं। बीएआरसी ने जो अपनी विश्लेषणात्मक रिपोर्ट जमा की है, उसमें रिपब्लिक का नाम सामने आया है, जिसके टीआरपी ट्रेंडस पर शक ज़ाहिर किया गया था। जिन लोगों को पैसे दिये गये थे, उन कस्टमर्स ने भी पूछताछ में यह स्वीकार किया कि उनको कुछ विशेष चैनलों को देखने के लिए पैसा दिया गया था। फक्त मराठी और बॉक्स सिनेमा के मालिकों को गिरफ्तार कर लिया गया है। रिपब्लिक टीवी में काम करने वाले लोगों, डायरेक्टर, प्रमोटर के इस फर्ज़ीवाड़े में शामिल होने का शक है। जाँच जारी है।’  फिलहाल यह रिपोर्ट लिखे जाने तक रिपब्लिक टीवी ने सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दे दी है, जबकि मुम्बई पुलिस इस मामले की जाँच कर रही है।

क्या केंद्र में बन रही उत्तर प्रदेश के बँटवारे की योजना?

तीन तलाक, हिन्दुत्व, राम मंदिर, धारा-370, गोरक्षा आदि मुद्दों के नाम पर दोबारा सत्ता में आये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की साख पर अब फिर से आँच आने लगी है। क्योंकि लॉकडाउन में सबसे ज़्यादा परेशानी में घिरे किसान, मज़दूर वर्ग और बेरोज़गार हुए लोग अब भी नहीं उबर पा रहे हैं कि महँगाई ने गरीब और मध्यम वर्ग की कमर तोड़ दी है। उस पर केंद्र सरकार तीन नये कृषि कानून ले आयी है, जिन्हें किसान अपने खिलाफ बता रहे हैं। हालाँकि इन दिनों देश कोरोना वायरस और सीमा पर चीन से तनाव के अलावा अन्य कई मुद्दों पर उलझा है, लेकिन फिर भी वर्तमान सरकार के खिलाफ हर तरफ से आवाज़ें उठने लगी हैं। इसी के चलते सरकार के कुछ पक्षकारों द्वारा मथुरा मंदिर, सुशांत सिंह राजपूत और चीन से विवाद मामलों में जनता को उलझाने की स्थितियाँ भी बनायी जा रही हैं। इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश में बढ़ते अत्याचारों के चलते मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भाजपा की छवि धूमिल होती जा रही है। जैसा कि सभी जानते हैं कि उत्तर प्रदेश केंद्र की राजनीति का गढ़ माना जाता है और 2022 में वहाँ विधानसभा के चुनाव होने हैं।

वहीं स्थिति यह है कि मोदी सरकार के हालात भी तेज़ी से 2011 की मनमोहन सरकार की तरह होते जा रहे हैं, जब पूरे देश में सरकार के खिलाफ अन्ना आंदोलन खड़ा हो गया था। कहा जाता है कि राजनीति अवसर के हिसाब से की जाती है, इन दिनों भाजपा के कुछ नेता इसी अवसर की फिराक में हैं। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आपदाओं में अपने लिए अवसर नज़र आने लगा है। यही वजह है कि बीते जून में योगी सरकार ने अंग्रेजी के कुछ प्रमुख अखबारों के मुखपृष्ठ पर पूरे-पूरे पन्ने के विज्ञापन दिये थे, जिनमें योगी की बड़ी-सी मुस्कुराता हुई तस्वीर लगी थी, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी का चेहरा गायब था।

राजनीति के जानकार बताते हैं कि इसका  मतलब यही है कि योगी खुद को बड़े नेता के तौर पर पेश कर रहे हैं, ताकि वह 2024 तक केंद्र में मोदी की जगह ले सकें। सम्भवत: इसके पीछे योगी को बड़े चेहरे के रूप में देश भर में पेश करने की मंशा रही हो; क्योंकि अंग्रेजी के प्रमुख अखबार देश भर में जाते हैं और इन अखबारों का पाठक वर्ग बुद्धिजीवियों के अलावा एक खास तबका है, जिसके अधिकतर लोग हाई सोसायटी से ताल्लुक रखते हैं। इससे लगता है कि योगी अपने आपको अब मोदी से अलग एक राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करने की ओर अग्रसर हैं।

सम्भवत: मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से प्रेरित होकर मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बनने की तर्ज पर उत्तर प्रदेश से दिल्ली की ओर कूच का सपना देख रहे हैं। कुछ राजनीतिक जानकार कहते हैं कि योगी की गतिविधियों से लगता है कि वे 2022 के उत्तर प्रदेश चुनाव को जीतने की कोशिश में लग गये हैं और अगर वे यह चुनाव जीते, तो उनकी नज़र केंद्रीय सत्ता पर होगी और वह इसका दावा ठोकने से पीछे नहीं हटेंगे। इससे लगता है कि वह अमित शाह को दूसरे नम्बर के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के रूप मानते हैं और उन्हें हटाकर खुद कम-से-कम देश का दूसरे नम्बर का चेहरा बनना चाहते हैं।

वर्चस्व की यह लड़ाई अब इतनी बढ़ गयी है कि हाथरस में हुई दरिंदगी की घटना इस सियासत के घरे में आ गयी है। अब हाथरस मामला ज़िद और प्रतिष्ठा का सवाल बन चुका है।

सवाल यह है कि क्या यह मान लिया जाए कि मोदी के बाद योगी का केंद्र की सत्ता पर शासन  होगा? क्या वाकई योगी खामोशी से 2024 में केंद्र की सत्ता में आने का दावा ठोकने लगे हैं? हालाँकि उनके करीबियों का तो यहाँ तक कहना है कि जिस प्रकार 2014 में नरेंद्र मोदी ने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए 2014 में किया था, उसी प्रकार योगी आदित्यनाथ 2024 में अपना दावा पेश कर सकते हैं और इसके लिए वह आगे बढ़ते दिख भी रहे हैं।

वैसे तो 2024 तक तो मोदी की गद्दी सुरक्षित  लगती है। लेकिन अगर मोदी की मुसीबतें ऐसे ही बढ़ती रहीं और किसी कारण भाजपा को 2024 में कम सीटें मिलीं, तो मोदी को गद्दी छोडऩी भी पड़ सकती है। क्योंकि छवि खराब होने के चलते भाजपा के सहयोगी दल मोदी के स्थान पर किसी और नेता के नाम पर अड़ सकते हैं। दरअसल भाजपा में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है, जो चाहते हैं कि मोदी कमज़ोर पड़ें, तो उनका नम्बर लगे। इस रेस में योगी सबसे आगे नज़र आ रहे हैं। वह राजनीतिक रूप से देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री हैं और आरएसएस के विश्वसनीय भी। यह भी सर्वविदित है कि उत्तर प्रदेश से होकर ही दिल्ली की गद्दी का रास्ता गुज़रता है। इसीलिए दोनों बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश से ही चुनाव भी लड़े थे, ताकि वह अधिक सांसदों का विश्वास हासिल कर सकें। फिलहाल योगी चाहे जो सोच रहे हों, लेकिन राजनीति के माहिर खिलाड़ी और लोकसभा के चुनावी मैदान में विरोधियों को दो बार तगड़ी पटखनी दे चुके मोदी इतनी आसानी से बाज़ी हाथ से नहीं जाने देंगे। हो सकता है कि वह योगी का इलाज करने के लिए अंग्रेजी की कहावत आउट ऑफ द बॉक्स यानी अलग सोच के हिसाब से चलें। लेकिन यह क्या हो सकता है? राजनीतिज्ञ कहते हैं कि इसका एक हल है, जिस पर काम करने से योगी की महत्त्वकांक्षाओं का मुँहतोड़ जवाब देना आसान होगा। मेरी नज़र में यदि योगी इसी तरह बेकाबू रहे, तो मोदी यह दाँव खेल भी सकते हैं। यह दाँव है- उत्तर प्रदेश का चार हिस्सों में बँटवारा। क्योंकि मोदी के इस एक निर्णय से 80 सीटों वाले महत्त्वपूर्ण प्रदेश के प्रभावशाली मुख्यमंत्री योगी सिमटकर मात्र 25-26 सीटों वाले पूर्वांचल के मुख्यमंत्री बनकर जाएँगे और उनका राजनीतिक प्रभाव तथा कद भी काफी घट हो जाएगा।

इसके अलावा इस एक दाँव से समाजवादी पार्टी (सपा) का भी इलाज हो जाएगा; क्योंकि उत्तर प्रदेश के बँटवारे के खिलाफ सबसे ज़्यादा मुखर सपा ही रही है। परन्तु विभाजन के विरोध के कारण सपा खुद ही सिमट जाएगी। उत्तर प्रदेश में सपा का वोट बैंक भी चार हिस्सों में बँट जाएगा और वह केवल इटावा के आस-पास के चन्द ज़िलों की पार्टी बनकर रह जाएगी। विभाजित प्रदेशों में स्थानीय यादव एक बाहरी प्रदेश के यादवों का नेतृत्व शायद ही स्वीकार करें। यह ठीक वैसे ही होगा, जिस तरह हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों ने कभी एक-दूसरे का नेतृत्व स्वीकार नहीं किया। इतिहास और राजनीतिक आँकड़े कहते हैं कि किसी भी प्रदेश के विभाजन से क्षेत्रीय दल प्रदेश के उसी बँटे हुए हिस्से में सिमट जाते हैं, जहाँ वे सबसे ज़्यादा मज़बूत होते हैं। उदाहरण के तौर पर आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार के बँटवारे के बाद के राजनीतिक परिणाम हमारे सामने हैं। देश में कोई भी ऐसा क्षेत्रीय दल नहीं है, जिसकी दो प्रदेशों में सरकारें रही हों या प्रदेश के बँटबारे के बाद बनी हों। इसलिए अगर उत्तर प्रदेश का बँटवारा होता है, तो हरेक पार्टी 20-22 लोकसभा सीटों वाले छोटे प्रदेश की पार्टी बनकर रह जाएगी। क्योंकि स्थानीय पार्टियों के लिए छोटे प्रदेशों में नये राजनीतिक समीकरणों को साध पाना असम्भव होता है, इसलिए पश्चिम में सपा का एक बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय उसे छोडक़र बसपा, कांग्रेस और रालोद की तरफ चला जाएगा।

बता दें कि राष्ट्रीय लोक दल रालोद तो पहले से ही पश्चिम उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने का मुद्दा उठाता रहा है और बसपा प्रमुख मायावती भी उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में बाँटने की पक्षधर रही हैं। बसपा प्रमुख तो 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले खुद प्रदेश बँटवारे का प्रस्ताव विधानसभा में पास करवा चुकी हैं, इसलिए वह अब चाहकर भी इसका विरोध नहीं कर सकेंगी। रालोद भी प्रदेश के बँटवारे के मामले में सपा के साथ खड़े होने का जोखिम नहीं उठायेगा। क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अधिकतर जनता भी अलग राज्य बनाने की नीति के पक्ष में है, इसलिए इसका नुकसान प्रदेश की दो प्रमुख पार्टियों सपा और बसपा को ही सबसे अधिक होगा।

कुछ समय पहले बिजनौर से बसपा सांसद मलूक नागर ने प्रदेश के बँटवारे के विषय को संसद में उठाकर उत्तर प्रदेश की राजनीति को गरमा दिया है। राजनीतिक दलों में यह चर्चा है कि प्रदेश बँटवारे के मुद्दे को बसपा प्रमुख के इशारे पर ही हवा दी गयी है। उनका कहना है कि जिस दल में बहनजी की मर्ज़ी के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता, उसका एक सांसद बिना आलाकमान की मर्ज़ी के संसद में इतना बड़ा बयान कैसे दे सकता है? राजनीति के जानकार तो यह तक कह रहे हैं कि यह तीर वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इशारे पर चलवाया गया है।

भले ही उत्तर प्रदेश के बँटवारे के लिए कोई बड़ा जन आन्दोलन नहीं हुआ हो, लेकिन प्रदेश की अधिकतर जनता और अधिकतर नेताओं की हमेशा से इच्छा रही है कि उत्तर प्रदेश चार हिस्सों  पूर्वांचल, बुंदेलखंड, अवध प्रदेश और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बँट जाए।

बहरहाल किसी भी प्रदेश का बँटवारा या उसकी सीमाएँ बदलने का काम केवल केंद्र सरकार के ही अधिकार क्षेत्र में आता है। संविधान की धारा-3 के अनुसार, किसी भी राज्य की सीमा में बदलाव या बँटवारे के बिल को केंद्र सरकार राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद संसद में सामान्य बहुमत से पास करवाकर बड़ी आसानी से उस प्रदेश का बँटवारा कर सकती है। इस बिल को सम्बन्धित प्रदेश सरकार को भी समर्थन और अनुमोदन के लिए भेजा जाता है; लेकिन प्रदेश सरकार की राय या समर्थन इसमें कोई खास बाधक नहीं होता। इसलिए अगर मोदी सरकार उत्तर प्रदेश को बाँटने का निर्णय ले ले, तो उत्तर प्रदेश की योगी सरकार चाहकर भी प्रदेश के बँटवारे को नहीं रोक सकेगी। मोदी के लिए इसमें न तो कोई संवैधानिक कठिनाई है और न ही यह बहुत अधिक समय लेने वाली प्रक्रिया है। क्योंकि इसमें संवैधानिक संशोधन करने की भी कोई आवश्यकता नहीं होगी।

प्रदेश के बँटवारे का निर्णय बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम होने के साथ-साथ मोदी सरकार की तमाम विफलताएँ छुपाने वाला कदम हो साबित हो सकता है। इतना ही नहीं मोदी का यह दाँव विपक्षी दलों में भी हडक़म्प मचा सकता है, जिससे उनकी साख फिर से मज़बूत हो सकती है और योगी भी सिमटकर केवल पूर्वांचल के मुख्यमंत्री मात्र रह जाएँगे। इससे उनका 2024 में केंद्रीय सत्ता में आने का सपना भी कमज़ोर पड़ जाएगा। हालाँकि इस बँटवारे का राजनीतिक लाभ भी भाजपा को ही मिलेगा, लेकिन भाजपा में फूट की स्थिति भी पैदा होगी। क्योंकि देश में भाजपा के कम-से-कम मोदी-योगी के नाम पर दो मत अथवा दल हो जाने का खतरा पैदा हो जाएगा। मौज़ूदा केंद्रीय राजनीति को भेदने की कोशिश करके 2024 में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के ख्वाब देखने वाले तमाम दावेदारों को चित्त करने के लिए उत्तर प्रदेश का विभाजन एक ऐसा ब्रह्मास्त्र है, जिससे कई निशाने एक साथ साधे जा सकते हैं। समय की धारा बड़ी तेज़ होती है। अगर मोदी समय की इस धारा का रुख भाँपने में नाकाम रहे, तो 2024 से बाद उनकी हालत भी अपने राजनीतिक गुरु लालकृष्ण आडवाणी की तरह हो सकती है। वैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब ऐसा समय नहीं आने देंगे, क्योंकि वह राजनीति के मजे हुए खिलाड़ी हैं। इसके अलावा उनकी साख योगी से या दूसरे नेताओं से अभी बहुत मज़बूत है।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक है।)

सडक़ों पर आवारगी

इसी साल सितंबर महीने में कस्बा फतेहगंज के एक मोहल्ले की चार नंबर गली में अपने दरवाज़े पर बैठे एक बच्चे पर एक लडक़े ने बाइक चढ़ा दी। बाइक इतनी तेज़ थी कि अगर बच्चा पूरी तरह उसकी चपेट में आ जाता, तो उसकी मौत हो सकती थी। यह बाइकर्स एक 14-15 साल का किशोर था। बाइक दरवाज़े से लगकर दीवार से जा टकरायी, जिससे अपने दरवाज़े के आगे बैठे पाँच-छ: वर्षीय बालक के साथ-साथ बाइकर्स को भी गहरी चोट आयी। हम अक्सर शहरों की गलियों में कुछ नौसिखिये युवकों को बहुत तेज़ी से बाइक लेकर गुज़रते देखते हैं। हैरत की बात यह है कि इनमें से अधिकतर की उम्र कम ही होती है और उनके पास लाइसेंस के नाम पर कुछ भी नहीं होता, न ही ऐसे बच्चों को बाइक चलाने की घर के बड़ों द्वारा ठीक से ट्रेनिंग दी जाती है और न ही उन्हें बाइक चलाने की लिमिट आदि के बारे में बताया जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन किशोरों को वाहन चलाने की अनुमति नहीं होती, फिर भी घर वाले इनके हाथ में बाइक, स्कूटी या कार आदि पकड़ा देते हैं। ऐसे अधिकतर बच्चे बाइक चलाने के शौक में सडक़ों पर दौड़ते फिरते हैं।

ऐसे लोग यह नहीं समझते कि उनके ये अनट्रेंड बच्चे खुद की जान हथेली पर लेकर वाहनों को दौड़ाते हैं और दूसरों के लिए भी खतरा बने रहते हैं। इस बारे में कई लोगों ने एक ही बात कही कि उन्होंने कई बार गली-मोहल्ले में पैदल चलते समय पीछे से तेज़ी से आते-जाते वाहनों से एक खौफ महसूस किया है। ये अनट्रेंड और नौसिखिये बाइकर्स भीड़भाड़ वाली जगहों पर भी इतनी तेज़ी से गुज़रते हैं कि चलने वाला खौफ से ही साइड हो जाता है। अभी तीन महीने पहले एक बाइक पर दो नवयुवक इसी तरह पतली सडक़ पर तेज़ी से जा रहे थे, अचानक सामने से कुत्ता आ गया और उससे बचने के चक्कर में बाइक फिसल गयी, जिससे एक युवक का हाथ टूट गया और दोनों को बुरी तरह चोटें आयीं। किसका नुकसान हुआ? किसे परेशानी हुई? इस हादसे में बाइक फिसलकर इतनी दूर गिरी कि अगर कोई और वहाँ होता, तो उसे भी काफी चोट लगती। इतना ही नहीं, बाइक सवारों की जान भी जा सकती थी। क्या यह बात ऐसे आवारा युवकों के माँ-बाप, सगे-सम्बन्धी नहीं समझते। आखिर अपने वे लाड-प्यार के चक्कर में अपने लाडलों के साथ-साथ दूसरों की जान जोखिम में क्यों डालते हैं।

अक्सर देखा गया है कि जो नौसिखिये बाइकर्स इस तरह से अनाप-शनाप बाइक दौड़ाते हैं, उनमें अधिकतर 13 से 19 साल के युवा होते हैं। अगर पूरे देश की बात करें, तो इसके ठीक-ठीक आँकड़े तो नहीं हैं; लेकिन इतना ज़रूर है कि बाइक पर स्टंट करने, अनाप-शनाप वाहन दौड़ाने और बिना सीखे तेज़ी से वाहन चलाने के चलते हर साल हज़ारों युवा दुर्घटना का शिकार होते होंगे। इसके लिए हड्डियों के अस्पताल कुमार हॉस्पिटल में बात करने पर पता चला कि हड्डी के 60 फीसदी मामले सडक़ दुर्घटनाओं से जुड़े आते हैं, जिनमें 12-13 फीसदी वे बच्चे या युवा होते हैं, जो या तो खुद वाहन चला रहे थे, या दूसरे किसी के वाहन की चपेट में आ गये। वाहन चालकों में अधिकतर दुर्घटनाएँ बाइक या स्कूटी से होती हैं। इस मामले की रिपोर्ट थानों में भी कम ही लिखायी जाती हैं। क्योंकि जो लोग वाहन से टकराते हैं, उनमें कई की खुद की गलती होती है और वह पुलिस से बचने की हर सम्भव कोशिश करते हैं। हैरत की बात यह है कि नयी उम्र के बाइकर्स, जिनमें कई की तो उम्र ही नहीं, होती वाहन चलाने की, गलियों या मोहल्ले की और आसपास की सडक़ों पर ही आवारगी करते नहीं घूमते; बल्कि बड़ी सडक़ों पर भी दौड़ जाते हैं। ऐसे बाइकर्स में अधिकतर तो हैल्मेट तक नहीं लगाते। ऐसे युवकों के मुँह अधिकतर कपड़े से बँधे (छिपे) होते हैं।

नहीं कसी जा सकी लगाम

फरवरी, 2018 में राजधानी दिल्ली में एक कार सवार ने लालबत्ती तोड़ते हुए सडक़ पार कर रहे एक युवक को टक्कर मार दी थी, जिससे उसकी दो घंटे के अन्दर ही अस्पताल ले जाते हुए मौत हो गयी। यह कार एक नाबालिग चला रहा था। कार की रफ्तार इतनी अधिक थी कि लालबत्ती के दौरान सडक़ पार कर रहा युवक काफी दूर जाकर गिरा और उसका सिर फट गया। इस घटना के बाद लोगों ने एक बार फिर आवाज़ उठायी थी कि नाबालिग चालकों के घर वालों पर भी कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए, ताकि वे अपने नाबालिग बच्चों के हाथ में वाहन न दें। लेकिन समय बीतने पर जैसे-जैसे मामला ठंडा हुआ, लोग भी खामोश होते गये। आज सब कुछ वैसा का वैसा ही है, लोग बाइकर्स से कुछ कहना पसंद नहीं करते, जो लोग उन्हें इसके लिए कुछ कहना चाहते हैं, उनके कहे को सुनने का बाइकर्स के पास वक्त ही कहाँ होता है, वे तो सेकेंडों में फुर्र हो जाते हैं। यही वजह है, इन नौसिखिये बाइकर्स पर लगाम नहीं लग सकी है। वैसे तो ऐसे मामलों में नाबालिग चालकों की गिरफ्तारियाँ भी हुई हैं और उन्हें बाल सुधार गृह भी भेजा जाता रहा है; लेकिन ऐसे मामलों में अधिकतर किशोरों के परिजनों की कोशिश रही है कि वे जल्द-से-जल्द अपने लाडले की जमानत करा लें, और सम्भव है कि कई मामलों में जमानतें हुई भी होंगी।

रईसज़ादों से नहीं बोलता कोई

वैसे इस मामले में कानून है कि अगर किसी नाबालिग को ट्रैफिक पुलिस वाहन चलाते देखे, तो उस पर अंकुश लगाये। लेकिन वाहनों, खासकर कारों को लेकर सडक़ों पर दौडऩे वाले अधिकतर रईसज़ादे होते हैं, इसलिए पुलिस वाले भी उनसे कुछ नहीं कहते। अगर गलती से कहीं कोई पुलिसकर्मी किसी नाबालिग वाहनचालक या किसी स्टंटबाज़ को पकड़ भी लेता है, तो उसे हिदायत देकर या बहुत हुआ, तो वाहन का चालान काटकर छोड़ देते हैं। इससे नाबालिग वाहन चालकों और स्टंटबाज़ों में पुलिस का खौफ नहीं रहता। वहीं गली-मोहल्लों में तो पुलिस वाले वैसे भी किसी से कुछ नहीं कहते। लोग भी रईसज़ादों को हिदायत देने से बचते हैं।

माँ-बाप की भी नहीं सुनते कुछ बच्चे

ऊपर जिस ज़िक्र की गयी घटना में जिस किशोर ने बच्चे को उसके दरवाज़े पर टक्कर मारी, उसके माँ-बाप से लोगों ने हर्ज़ाना देने की बात कही, तो किशोर की माँ रोने लगी। उसने बताया कि उनका लडक़ा उनकी सुनता ही नहीं है। जब-तब बाइक लेकर निकल पड़ता है। किशोर की माँ ने बताया कि घर में अगर कोई पड़ोस की दुकान से भी उसे कुछ लाने को कह दे, तो भी वह बाइक लेकर जाने की ज़िद करता है। ऐसे कई बच्चे हैं, जो बहुत अच्छे परिवार से नहीं है, पर जैसे ही घर में बाइक या स्कूटी आती है, उनके किशोर और युवा बच्चे दिन-रात उसी पर घूमना पसंद करते हैं।

ऐसा ही एक मामला दीपांशु नाम के किशोर का है। उसके पिता किसी होटल में नौकरी करते हैं और उन्होंने अपने लिए एक सेकेंड हैंड बाइक 2017 में ली थी। उनका किशोर लडक़ा दीपांशु सुबह-शाम बाइक लेकर निकल जाता था। एक दिन वह अपने किसी दोस्त के साथ लंगड़ाता हुआ, पैदल-पैदल बाइक लाया। घर वालों के पूछने पर उसने बताया कि एक दूसरे बाइक वाले ने उसे उसकी साइड में आकर ठोक दिया। इस पर उसके माँ-बाप ने उसे न तो डाँटा और न यह समझाया कि अभी तुम्हारी उम्र बाइक बाहर लेकर जाने की नहीं है। मुझे लगता है कि यही लाड-प्यार और शह बच्चों को बिगाड़ती है, ज़िद्दी बनाती है और वे वाहन लेकर घरों से बाहर निकल जाते हैं, जिससे उनके साथ-साथ दूसरों की जान का खतरा पैदा होता है।

लड़कियाँ अमूमन नहीं चलातीं तेज़ वाहन

आपने देखा होगा कि अधिकतर लड़कियाँ वाहनों को सामान्य रफ्तार से चलाती हैं। लड़कियों को जब तक वाहन चलाना नहीं आ जाता, वे सीखने में भी रुचि रखती हैं और अकेले वाहन चलाने से डरती भी हैं। इसके अलावा बिना काम के भी लड़कियाँ वाहन लेकर बाहर नहीं निकलतीं। हालाँकि 100 फीसदी लड़कियाँ तेज़ वाहन नहीं चलातीं, ऐसा कहना भी शायद ठीक नहीं है। लेकिन अधिकतर लड़कियाँ तेज़ वाहन चलाने से बचती हैं।

जागरूकता की कमी, कार्रवाई में ढील

हमारे देश में हर अपराध या गलती को रोकने के लिए कानून तो हैं; लेकिन कानून का खौफ बहुत-से लोगों में नहीं होता। इसके कई कारण हैं, जैसे पुलिसकर्मी कानून तोडऩे वालों पर तभी सख्ती से पेश आते हैं, जब वो पैसे या वर्ग से कमज़ोर हों। इसके अलावा लोगों में जागरूकता की कमी है। अगर लोगों में भरपूर जागरूकता हो और गलती या अपराध करने वाले को पुलिस तथा कानून का खौफ हो, तो कोई भी गलती करने से पहले डरेगा। कार्रवाई में ढील से लोगों में डर नहीं रहता।

आवारा बाइकर्स से सख्ती से निपटने की ज़रूरत

गलियों, सडक़ों पर अनाप-शनाप वाहन चलाने के चलते होने वाली दुर्घटनाओं को कम करने का एक ही सही तरीका है कि ऐसे बाइकर्स के खिलाफ कठोर-से-कठोर कार्रवाई की जानी चाहिए। अगर ऐसे युवकों और किशोरों के ऐसा करने के पीछे उनके परिजनों की ढील या शह है, तो उन्हें भी इसकी सज़ा ज़रूर मिलनी चाहिए। क्योंकि बिना लाइसेंस के तो वाहन चलाना जुर्म है ही, लाइसेंस मिलने पर भी गलत तरीके से वाहन चलाने, उससे स्टंट करने और तेज़ गति से वाहन चलाने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के लिए कानून है। मोटरयान अधिनियम की धारा-180 के तहत नाबालिग बच्चों को सार्वजनिक जगहों पर वाहन चलाने देना भी जुर्म है। ऐसे अभिभावकों को तीन माह की सज़ा का प्रावधान है। इसके अलावा नाबालिग बच्चों के वाहन चलाते पकड़े जाने पर उनके पिता का ड्राइविंग लाइसेंस भी ज़ब्त हो सकता है। आईपीसी की धारा-88, 89 और 109 सहित कई ऐसी धाराएँ हैं, जो अपराध के लिए प्रेरित करने वालों पर लागू होती हैं। वहीं तेज़ गति से वाहन चलाने पर ज़ुर्माने या सज़ा या दोनों का ही प्रावधान है। लेकिन ट्रैफिक पुलिस की ढिलाई या विनम्रता के चलते अधिकतर लोग, खासतौर से नाबालिग बच्चे और नौसिखिये इससे बचे रहते हैं; इसलिए वे बार-बार जानलेवा गलतियाँ करते हैं।

किसानों को विश्वास में ले सरकार

संसद द्वारा पास किये गये तीन नये कृषि कानूनों- किसान उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवद्र्धन और सुविधा) अधिनियम-2020, मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता अधिनयम-2020 एवं आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनयम-2020 का किसान संगठनों और विपक्ष द्वारा विरोध किया जा रहा है। विपक्ष लगातार सवाल उठा रहा है कि इन नये कानूनों से मंडी व्यवस्था (एपीएमसी) खत्म हो जाएगी। साथ ही इन कानूनों के ज़रिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को खत्म करने की साज़िश रची जा रही है। कांग्रेस शासित राज्यों में इस कानून को रोकने की सम्भावना तलाशी जा रही है, वहीं संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि केंद्र व राज्यों के अधीन विषयों पर राज्य संशोधन या नया कानून तो बना सकते हैं; लेकिन संसद से पारित कानून को लागू करने से मना नहीं कर सकते।

संवैधानिक मर्यादा और कृषि कानून को चुनौती भारत सरकार द्वारा कोविड-19 जैसे वैश्विक महामारी एवं लॉकडाउन के दौरान कृषि से सम्बन्धित लाये गये तीन अध्यादेश संसद में पारित हो गये हैं, जिन्हें राष्ट्रपति ने अपनी मुहर लगाकर कानून भी बना दिया। अध्यादेश लाये जाने, संसद से पास होने एवं राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने की इस आपाधापी में भारतीय संविधान और उसमें दी गयी राज्य सूची, केंद्र सूची एवं समवर्ती सूची के विषयों को लेकर की गयी संवैधानिक व्यवस्था को भुला दिया गया। तीनों कृषि कानूनों के संदर्भ में संवैधानिक व्यवस्था और उसके अतिक्रमण को अब तो मात्र देश की सर्वोच्च अदालत में ही चुनौती दी जा सकती है।

अब इस लड़ाई को लडऩे का एक संवैधानिक तरीका यही हो सकता है कि किसानों द्वारा सडक़ पर लड़ी जा रही लड़ाई के साथ ही केंद्र द्वारा संवैधानिक मर्यादाओं के अतिक्रमण से सम्बन्धित विषय पर अदालत में जाने की सम्भावनाओं पर भी किसान संगठनों को विचार करना चाहिए।

अनुच्छेद-254 (2) के माध्यम से नये कृषि कानूनों को रोकने की कार्यवाही  केंद्र के तीनों कृषि कानूनों के विरोध को लेकर अनुच्छेद-254 (2) भी अभी काफी चर्चा में है। कांग्रेस शासित राज्यों में कृषि कानूनों को रोकने की सम्भावना तलाशी जा रही है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने कांग्रेस शासित राज्यों के प्रमुखों को केंद्र सरकार के कृषि कानूनों के विरुद्ध भारतीय संविधान के अनुच्छेद-254 (2) के तहत अपने-अपने राज्यों में कानून पारित करने की सलाह दी है।

क्या है संविधान का अनुच्छेद-254 (2)

भारतीय संविधान का अनुच्छेद-254 (2) एक ऐसी स्थिति को संदर्भित करता है, जहाँ किसी भी मामले के सम्बन्ध में एक राज्य विधायिका द्वारा बनाये गये कानून का कोई उपबन्ध, जो कि समवर्ती सूची में आता है; संसद द्वारा बनायी गयी विधि के किसी उपबन्ध के विरुद्ध होता है। ऐसे मामले में राज्य विधायिका द्वारा बनाया गया कानून प्रबल होगा, बशर्ते कि कानून को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखा गया है और उस पर उनकी अनुमति मिल गयी है।

यानी यह अनुच्छेद केवल तभी लागू होगा, जब समवर्ती सूची में शामिल किसी विषय पर एक राज्य का कानून, संसद द्वारा पारित राष्ट्रव्यापी कानून के विरुद्ध होगा। ऐसी स्थिति में यदि राष्ट्रपति राज्य के कानून को अपनी सहमति दे देता है, तो राज्य के कानून को प्रभावी माना जाएगा और उस राज्य में सम्बन्धित केंद्रीय कानून लागू नहीं होगा। राज्यों को यह शक्ति केवल उन्ही मामलों पर उपलब्ध है, जो संविधान की अनुसूची-7 के तहत समवर्ती सूची में शामिल हैं। कानून विशेषज्ञों के अनुसार, यह राष्ट्रपति का विशेषाधिकार है कि वह राज्य विधेयकों पर हस्ताक्षर करें या नहीं और चूँकि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् की सहायता और सलाह पर कार्य करता है, इसलिए राज्य के इस प्रकार विधेयकों का पारित होना अपेक्षाकृत कठिन माना जाता है। हालाँकि यह काफी दुर्लभ स्थिति होगी जब राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह को दरकिनार करते हुए राज्य के कानून को अनुमति देंगे।

किसान चाहते हैं वाजिब दाम

देश में अनेक संकट आते हैं; लेकिन अब खाद्य संकट जैसे हालात नहीं बनते। यह किसानों के मेहनत और अधिक उपज क्षमता के कारण ही सम्भव हुआ है और भारत आज खाद्य संकट जैसी समस्या से उबर सका है। चूँकि किसान पूरी तरह कृषि पर ही निर्भर हैं, इसलिए किसान अपनी उपज का वाजिब दाम चाहते हैं और इस दाम के लिए स्पष्ट कानूनी गारंटी की माँग कर रहे हैं।

किसान के लिए वाजिब दाम क्या होना चाहिए? यह जानना मुश्किल नहीं है। भारत सरकार के पास कृषि सम्बन्धित अनेक संस्थाओं और विभागों का पूरा जाल है। कितना लाभ जोड़ दिया जाए, तो किसान के लिए वाजिब दाम बनेगा; यह सरकार आसानी से तय कर सकती है। इसके लिए कानून बना सकती है।

प्रत्येक वर्ष सरकार कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) के माध्यम से हर उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय करती है। किसान को फसल बोने से पहले बताया जाता है कि फसल पकने के बाद किसान को फसल का कितना समर्थन मूल्य मिलेगा, यानी इससे कम कीमत पर वह फसल नहीं बेची जाएगी। किसान उससे अधिक पर अपनी उपज जहाँ चाहे बेचें, लेकिन उससे कम की बात आये तो सरकार उसे न्यूनतम समर्थन मूल्य के माध्यम से उसकी भरपाई करेगी। लेकिन सरकार इसकी गारंटी नहीं देती। एमएसपी तय करने के बाद सरकार सो जाती है और किसानों की उपज खरीदने को लेकर कोई रुचि नहीं लेती, जिससे हर साल किसानों को अपनी उपज बेचने में काफी नुकसान होता है।

सरकार रबी और खरीफ के लगभग 23 फसलों के लिए हर साल एमएसपी तय करती है। लेकिन खरीदारी सिर्फ धान-गेहूँ की करती है, साथ में कभी-कभार तीसरी फसल की खरीद भी करती है, जो धान-गेहूँ के अलावा 23 फसलों में से कोई एक होगी, जो बाजरा, मक्का, मूँग, सरसों, कपास कुछ भी होगी; लेकिन धान-गेहूँ के अलावा कोई एक ही फसल होगी। सरकार केवल वहीं फसल खरीदती है, जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में देना होता है।

अभी वर्तमान में लगभग 10 से 12 फीसदी किसान ही एमएसपी पर अपनी उपज बेच पाते हैं। इसके बावजूद भी किसान एमएसपी को कानूनी गारंटी बनाने की माँग कर रहे हैं; क्योंकि किसान को डर है कि अभी एमएसपी के तहत खरीदी हो रही है, वह भी बन्द हो जाएगी। यानी एमएसपी नहीं रहेगी, तो उपज का वाजिब दाम भी नहीं

मिल पाएगा। सरकार जिसे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) कहती है, वह किसान के लिए वास्तव में अधिकतम सम्भव / प्राप्त मूल्य है।

किसान इसलिए डरा हुआ है कि अभी तक प्राइवेट मंडी की व्यवस्था नहीं थी, और जो भी उसे एमएसपी मिलती थी, कम-से-कम मिलती तो थी। लेकिन अब प्राइवेट मंडी के आने से सरकारी मंडी समाप्त हो जाएगी और एमएसपी भी नहीं मिलेगी। बिहार राज्य में इस तरह के हालात देखे जा चुके हैं, जब 2006 में सरकारी मंडियों को समाप्त करने के बाद अधिकांश फसलों के लिए किसानों को एमएसपी की तुलना में औसतन कम कीमत प्राप्त हुई। इसीलिए किसान एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) की स्पष्ट कानूनी गारंटी चाहते हैं। यानी सरकार एमएसपी के रेट पर खरीदी के लिए कानून बनाये।

सम्भव है एमएसपी को सरकारी गारंटी बनाना

किसानों का कहना है कि एमएसपी को कानूनी गारंटी बनाने का मतलब यह नहीं कि सरकार सभी चीज़ों को खरीदेगी। इससे देश का नुकसान हो जाएगा। एमएसपी को कानूनी गारंटी बनाने के लिए किसान संगठनों ने बाकायदा ड्राफ्ट तैयार किया है और कर्नाटक सरकार ने भी इस तरह का कानून बनाया है। केंद्र सरकार चाहे, तो इसे लागू कर सकती है।

इस ड्राफ्ट में एमएसपी को कानूनी गारंटी बनाने के लिए किसान संगठनों ने सरकार को चार सुझाव दिये हैं। सरकार आज जितनी खरीद कर रही है, उससे थोड़ी ज़्यादा खरीद कर सकती है; क्योंकि पीडीएस में गेहूँ, चावल के अलावा दाल, तेल, चीनी इत्यादि भी दे सकती है। यानी सरकार दलहन, सरसों, गन्ना इत्यादि की खरीद कर सकती है। इस तरह से सरकार अपनी खरीद को थोड़ा और बढ़ाये। उपज का दाम बाज़ार में कम होने पर सरकार बाज़ार में हस्तक्षेप करके दाम को स्थिर कर सकती है। यानी किसी फसल का दाम उसकी एमएसपी से कम हो गया है, तो सरकार उसकी लिमिटेड खरीद कर सकती है; ताकि उस फसल का दाम ऊपर चढ़ जाए।  सरकार कानून बनाकर यह भी कह सकती है कि किसी के भी द्वारा एमएसपी से नीचे खरीद करना गैर-कानूनी है।  सरकार डिफरेंसियल पेमेंट (खरीद में अन्तर वाला भुगतान ) कर सकती है। इसका मतलब यह है कि अगर किसान को उसकी उपज का एमएसपी रेट नहीं मिलता है, तो सरकार किसान के घाटे की भरपाई करे। यानी किसी किसान को अपनी उपज बेचने में एमएसपी से जितना कम मूल्य प्राप्त हो, तो शेष मूल्य (रकम) की भरपाई सरकार करे। मध्य प्रदेश में ऐसी योजना लागू हुई थी, जिसे भावांतर भुगतान योजना के नाम से जानते हैं।

मध्य प्रदेश में भावांतर का खेल

मध्य प्रदेश सरकार ने 14 अनाजों को एमएसपी के तहत घोषित कर एमएसपी से कम पर खरीदी की अनुमति दी और किसानों के साथ छलावा करते हुए भावांतर का खेल खेला।

विधानसभा में मध्य प्रदेश सरकार ने प्रश्न क्रमांक-841, फरवरी-मार्च, 2018 सत्र में भावांतर योजना से सम्बन्धित जानकारी देते हुए बताया था कि खरीफ 2017 के लिए भावांतर भुगतान योजनांतर्गत दिनाँक 20-2-2018 की स्थिति में 9 लाख 54 हज़ार 281 किसानों को 13 अरब 16 करोड़ 57 लाख 37 हज़ार 762 रुपये का भुगतान किया गया तथा एक लाख 26 हज़ार 278 किसानों को लगभग दो अरब 12 करोड़ 21 लाख 33 हज़ार 871 रुपये का भुगतान किया जाना शेष है। मंडी बोर्ड स्तर पर किये गये आकलन अनुसार, खरीफ 2017 के भावांतर भुगतान योजना अंतर्गत भावांतर राशि के लिए वित्तीय वर्ष 2017-18 में 1651.31 करोड़  रुपये तथा वित्तिय वर्ष 2018-19 में 100 करोड़ रुपये का व्यय होना सम्भावित है।

मध्य प्रदेश सरकार ने एमएसपी घोषित किया, उस पर बोनस भी घोषित किया; लेकिन मंडियों में किसानों से बहुत ही कम दाम पर उपज खरीदे जाने की अनुमति भी राज्य सरकार ने दे दी और इससे किसानों को हो रहे नुकसान की भारपाई के नाम पर भावांतर योजना बताकर किसानों को शासकीय खजाने से भुगतान करना भी बता दिया। राज्य सरकार के इस पूरे खेल में किसानों को ज़बरदस्त हानि पहुँचायी गयी। किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से बहुत ही कम मूल्य का भुगतान अन्तर की राशि यानी भावांतर योजना के तहत किया। (चार्ट देखें) किसानों को सरकार एमएसपी और उस पर स्वयं के द्वारा घोषित बोनस की राशि के बराबर भुगतान नहीं कर पायी, राज्य सरकार ने भावांतर के नाम पर किसानों को एमएसपी एवं बोनस से कम राशि का ही भुगतान किया।

इस प्रकार राज्य सरकार ने वर्ष 2017-18 में किसानों का अनाज मंडियों में ही एमएसपी से कम मूल्य पर खरीदी की व्यापारियों को इजाज़त दे दी जिसके बाद किसानों से लूट का सिलसिला चला। इस सिलसिले के बीच सरकार ने भावांतर मूल्य की घोषणा कर किसानों को राहत के नाम पर सरकारी खजाने से भुगतान तो किया; लेकिन किसानों को एमएसपी रेट देने के बजाय एमएसपी से कम राशि का भुगतान कर किसानों की लूट को कानून सम्मत बताये जाने की लगातार हठधर्मिता अपनायी। तो दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी ने मध्य प्रदेश सरकार की घेराबंदी कर भावांतर योजना को किसानों की लूट बताकर सरकारी खजाने की बरबादी बताया। कांग्रेस पार्टी ने भावांतर योजना से सम्बन्धित यह भी गम्भीर आरोप लगाया कि सरकार ने किसानों के नाम पर बिचौलियों से अनाज खरीद कर बिचौलियों को ही भावांतर राशि का भुगतान किया है। इस तरह के नाम मात्र के बिचौलियों के विरुद्ध ही आपराधिक प्रकरण पंजीबद्ध किया गया।

केंद्र के कानून से मध्य प्रदेश के किसानों को नहीं राहत

मध्य प्रदेश में सरकार द्वारा घोषित एमएसपी से कम मूल्य पर किसानों की उपज कृषि मंडियों में क्रय-विक्रय की गयी, जिस पर राज्य सरकार में मरहम लगाते हुए भावांतर का किसानों को भुगतान किया, लेकिन चुनाव के साथ ही भावांतर की योजना बन्द कर दी गयी एवं किसानों को कम मूल्य पर अपनी उपज बेचने के लिए बाध्य किया। मध्य प्रदेश के किसान इस लूट से पीडि़त रहे हैं। इस लूट का शिकार किसान नहीं होगा, इसकी कोई गारंटी देश की संसद द्वारा पारित उपरोक्त कृषि कानूनों में किसान को नहीं दी गयी है।

मध्य प्रदेश कृषि उपज मंडी अधिनियम-1972 की धारा-36 में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी के सम्बन्ध में बहुत ही स्पष्ट प्रावधान दिये गये हैं, जिनका भी पालन मध्य प्रदेश सरकार ने कभी सुनिश्चित नहीं किया; बल्कि कम मूल्य पर की गयी खरीदी के बदले भावांतर का भुगतान किया। केंद्र सरकार द्वारा लाये गये मौज़ूदा कृषि कानूनों में मध्य प्रदेश मंडी अधिनियम-1972 की धारा-36 की तरह एमएसपी रेट पर खरीद किये जाने के प्रावधान नहीं किये गये हैं और न ही कम मूल्य पर खरीदी करने वाले दावों के विरुद्ध मंडी अधिनियम-1972 की तरह कार्यवाही किये जाने के प्रावधान किये गये।

क्या हो केंद्र सरकार की पहल

मज़बूत संस्थागत व्यवस्था के बिना मुक्त बाज़ार से लाखों असंगठित छोटे किसानों को लाखों का नुकसान हो सकता है, जो उल्लेखनीय रूप से उत्पादक हैं और जिन्होंने महामारी के दौरान भी अर्थ-व्यवस्था को सहारा दिया है। अत: केंद्र सरकार को किसानों सहित विधेयकों का विरोध करने वालों तक पहुँचना चाहिए और उनकी सुधार की आवश्यकता समझते हुए उन्हें विश्वास में लेना चाहिए। एमएसपी को सरकारी गारंटी बनाने के बारे में भी सरकार को विचार करना चाहिए। साथ ही सरकार को बड़े पैमाने पर सरकारी कृषि मंडी (एपीएमसी) प्रणाली के विस्तार के लिए फंड देना चाहिए और भारी केंद्रीकरण का विरोध करने के बजाय राष्ट्रीय किसान आयोग द्वारा अनुशंसित राज्य किसान आयोगों के माध्यम से किसानों को सशक्त बनाने पर ज़ोर देना चाहिए।

दुष्यंत चौटाला को एक विकल्प चुनना होगा – कुर्सी या किसान?

हरियाणा में किसानों की पार्टी जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) राज्य में चल रहे किसान आंदोलन में उनसे अलग खड़ी है। वह सरकार में भागीदार हैं और इसके नेता दुष्यंत चौटाला राज्य के उप मुख्यमंत्री होने के अलावा प्रमुख मंत्रालय सँभाल रहे हैं। एक तरह कुर्सी है और दूसरी तरफ किसान। लगभग दो माह के आंदोलन में पार्टी ने कुर्सी को किसान से ज़्यादा महत्त्व दिया है। यही वजह है कि किसान दुष्यंत और उसकी पार्टी से बेहद खफा हैं। किसान सिरसा स्थित उनके आवास को घेरने पहुँचे, तो पुलिस ने बल प्रयोग कर किसी तरह उन्हें रोक तो लिया; लेकिन उनके प्रति कसक अब भी उनके दिलों में है।

हरियाणा में भारतीय किसान यूनियन के अग्रज नेता गुरनाम सिंह चारुणी कहते हैं कि जेजेपी तो किसानों की ही पार्टी है, उसे तो आंदोलन में हमारे साथ खड़ा होना चाहिए था। पार्टी को विधानसभा चुनाव में ग्रामीण क्षेत्रों से ही वोट मिले थे। मतलब किसानों ने उन्हें (दुष्यंत चौटाला को) और उनकी पार्टी को जिताया; लेकिन वह आज कहाँ खड़े हैं? उन्हें कुर्सी के अलावा कुछ नज़र नहीं आ रहा, किसान आंदोलन उनके लिए कुछ नहीं। वह अपरोक्ष तौर पर किसानों के साथ भले हों, लेकिन परोक्ष तौर पर तो सरकार के साथ ही हैं।

किसानों के मुताबिक, दुष्यंत के परदादा देवीलाल किसानों के प्रभावशाली नेता रहे हैं। वह इस वर्ग के सच्चे हितैषी रहे और पद की कभी परवाह नहीं की; लेकिन उन्हीं के परपोते दुष्यंत विरासत को सँभालने का दावा तो करते हैं; लेकिन सत्ता का मोह नहीं छूट रहा। देवीलाल के नाम पर वोट लिये, सरकार बनायी और फिर किसानों की पीठ में छुरा घोंप दिया। इससे तो पंजाब में शिरोमणि अकाली दल ने अच्छा काम किया। कम-से-कम केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने किसानों के हित में इस्तीफा तो दिया। वहाँ पूरी पार्टी किसानों के साथ तो खड़ी है, यहाँ किसानों की पार्टी जेजेपी किसानों के दुश्मन के तौर पर सरकार के साथ खड़ी है। जेजेपी के कई नेता अपरोक्ष तौर पर किसान आंदोलन का समर्थन कर चुके हैं; लेकिन वह अभी खुलकर सामने नहीं आ रहे।

इसके विपरीत इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) आंदोलन में किसानों के साथ है। एकमात्र विधायक वाली पार्टी के नेता अभय चौटाला कहते हैं अब वक्त आया है, लोग समझ रहे हैं कि देवीलाल की विरासत कौन आगे बढ़ा रहा है? हमारी पार्टी असल में किसानों की पार्टी है। जब-जब किसानों के हितों पर कोई चोट करेगा, हम उनके साथ खड़े होंगे। हमारी जड़ें किसान और कमेरे वर्ग में हैं। हम उनसे अलग अपने निजी स्वार्थ लेकर नहीं चल सकते।

राज्य में भाजपा सरकार केवल जेजेपी पर ही पूरी तरह निर्भर नहीं है, उसे निर्दलीय विधायकों का समर्थन भी है। ऐसे ही निर्दलीय विधायक रणजीत सिंह केबिनेट मंत्री हैं। किसान चाहते हैं कि रणजीत सिंह भी सरकार से इस्तीफा देकर उनके आंदोलन से जुड़ें। किसानों के हक में आवाज़ बुलंद करने वाली जजपा विधायक नैना चौटाला ने किसान आंदोलन पर पूरी तरह से चुप्पी साध रखी है।

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कुमारी शैलजा के मुताबिक, केंद्र सरकार के कृषि क्षेत्र के कानून क्रान्तिकारी नहीं, बल्कि किसान की बर्बादी करने वाले हैं। इससे किसान का हित नहीं, बल्कि अहित होने वाला है। हरियाणा और पंजाब के किसानों को पता है कि उसका गेहूँ और चावल भविष्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं बिकने वाला है। वह मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की तरह औने पौने दामों पर बिकेगा। दोनों राज्यों की यही तो नकदी फसलें हैं, इनका हाल भी अन्य प्रदेशों जैसा होगा, तो किसान की हालत क्या होने वाली है? इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

स्वराज इंडिया पार्टी किसान आंदोलन के साथ सीधी जुड़ी हुई है। संस्थापक योगेंद्र यादव की राय में किसान नये कानूनों को लेकर किसी भ्रम में नहीं हैं। उन्हें भरोसा हो चुका है कि ये उनके हित में नहीं है। वरना कोई कारण नहीं था कि उन्हें आंदोलन करना पड़ता। वे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं और हर ज़िम्मेवार व्यक्ति को उनका साथ देना चाहिए। पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा किसान आंदोलन को सही कदम बताते हैं। उनकी राय में आंदोलन की सबसे बड़ी माँग है, न्यूनतम समर्थन पर उत्पाद सरकारी खरीद की लिखित गारंटी। केंद्र सरकार यह क्यों नहीं कर रही? फिलहाल यही सबसे बड़ा मुद्दा है, जो सुलझ नहीं रहा। कांग्रेस ने सबसे पहले इस मुद्दे को उठाया और किसानों के समर्थन में् आ जुटी।

भाजपा वाले हमारी पार्टी पर इस मुद्दे पर राजनीति करने और किसानों को गुमराह करने का आरोप लगा रहे हैं। किसानों को गुमराह कैसे किया जा सकता है। क्या वह अपना भला-बुरा नहीं सोच सकता। उसे पता है कि भविष्य में क्या होने वाला है। पंजाब और हरियाणा का किसानों को गेहूँ और चावल जैसे उत्पाद सरकारी भाव पर बेचने में मुश्किल आयेगी। आत्मनिर्भर भारत के आदर्श सूत्र पर इस समय देश का अन्नदाता अपने को कॉर्पोरेट घरानों पर निर्भर समझ रहा है। वह केंद्र सरकार पर निर्भर रहना चाहता है, ताकि उसका उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर हाथों हाथ बिक जाए और मिली रकम से वह देनदारी निपटाने, घर खर्च और आगे की फसल की तैयारी कर सके।

यूरोपीय देशों की तर्ज पर नरेंद्र मोदी सरकार देश में ओपन मार्केट प्रणाली लागू करना चाहती है, ताकि यहाँ का किसान उन देशों के किसानों की तरह खुशहाल हो सके। पहले यह जान तो लिया जाए कि क्या यूरोपीय देशों के किसान खुशहाल हैं भी? हैं तो उनकी खुशहाली के पीछे की वजह क्या है? वहाँ की सरकारें कृषि क्षेत्र में क्या-क्या प्रयोग करती है?

यूरोपीय देशों में किसान पूरी तरह से सरकारों पर ही निर्भर है। सरकार उन्हें व्यापक स्तर पर अनुदान देती है, जिससे वहाँ का किसान का कुछ हद तक खुशहाल कहा जा सकता है। पर हमारे यहाँ ऐसी कोई बात नहीं। अनुदान का सवाल कहाँ उठता है। प्राकृतिक आपदा में पूरी फसल चौपट होने पर भी सरकार इतना नहीं देती कि खर्च ही पूरा हो जाए। भगवान भरोसे किसान फिर नयी फसल की तैयारी करता है। विश्व में कहीं भी ओपन मार्केट पूरी तरह से सफल नहीं है। आंशिक तौर पर कुछ देशों में अपवाद स्वरूप ऐसा है, तो इसका कारण वहाँ की कम आबादी और प्रचुर मात्रा में संसाधनों का होना है। पर हमारे यहाँ आबादी का 70 फीसदी वर्ग खेती या इससे जुड़े कामों पर निर्भर है। इतने संसाधन भी नहीं कि ओपन मार्केट सफल हो सके। बिना इसको जाने-समझे हमारे यहाँ ओपन मार्केट सिस्टम लागू करने के लिए हड़बड़ी में तीन कृषि अध्यादेश लाकर एक तरह से हडक़ंप-सा मचा दिया है। यह सच है कि कृषि को ओपन मार्केट लाइन पर डालने का विचार नरेंद्र मोदी सरकार का नहीं है। यह विचार कांग्रेस सरकार का है, जो कभी हिम्मत नहीं जुटा सकी। अब वही कांग्रेस इसका खुलकर विरोध कर रही है।

तीन नये कृषि कानूनों से अन्नदाता वर्ग में बेसहारा होने की बात कैसे घर कर गयी? इसका एकमात्र कारण केंद्र सरकार का न्यूनतम समर्थन मूल्य पर उत्पाद खरीदने की गारंटी न देना है। किसान गारंटी ही तो माँग रहा है, ताकि पहले की तरह उसका उत्पाद सरकारी रेट पर बिक जाए। उसे सडक़ों पर आकर आंदोलन करने, पुलिस की लाठियाँ खाने, रेलवे ट्रैक पर लेटकर रातें बिताने, भूखे प्यासे रहकर सरकार को कोसने और नेताओं के पुतले जलाने की ज़रूरत ही नहीं है। धान, मक्का, बाजरा और खरीफ की अन्य फसलें तैयार हैं। किसानों के पास कटाई से लेकर खाद्यान्न को मंडियों में ले जाकर बेचने जैसे काम हैं। पर बावजूद इसके वे आंदोलनरत हैं, तो इसकी वजह न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी न देना है।

फैसला समय आने पर

उप-मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला के इस्तीफे और सरकार से समर्थन वापस लेने का दबाव बनाया जा रहा है; लेकिन पार्टी की और से किसान आंदोलन पर कोई खास टिप्पणी नहीं की गयी है। दुष्यंत कह चुके हैं कि जब लगेगा कि किसान का उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं खरीदा जा रहा है, वह पद छोडऩे और सरकार से अलग होने में समय नहीं लगाएँगे। वह कहते हैं कि किसान का उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदा जा रहा है, फिर दिक्कत कहाँ है। वे मज़बूती से कहते हैं कि समर्थन मूल्य से कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी है; वह रहेगा।

प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री समेत कई केंद्रीय मंत्री इसे स्पष्ट कर चुके हैं। कुछ राजनीतिक पार्टियाँ किसानों को गुमराह करने का प्रयास कर रही हैं, जिससे आंदोलन इतना आगे बढ़ गया है। वह (जयंत) किसानों के साथ हैं, उनके हिमायती हैं; उनकी पार्टी किसानों की पार्टी है और वो उनसे अलग नहीं जा सकती। जहाँ तक पद छोडऩे की बात है, तो वह समय अभी नहीं आया है। उन्हें और पार्टी को लगेगा कि सरकार ने नये कानूनों के माध्यम से किसानों से समर्थन मूल्य छीन लिया है, तब वह उचित फैसला लेंगे।

दुविधा की स्थिति

किसान आंदोलन की वजह से जेजेपी की स्थिति साँप-छछूंदर जैसी हालत हो गयी है। न उगलते बने, न निलगते। वह किसानों के साथ होती है, तो सत्ता जाती है और सत्ता में रहती है, तो किसान उसकी खिलाफत करते रहेंगे। एक तरफ कुर्सी है, तो दूसरी तरफ किसान; जो पार्टी के लिए बड़ा वोट बैंक है। अभी तक तो पार्टी ने किसान को दरकिनार कर कुर्सी को ही ज़्यादा महत्त्व दिया है। राजनीति के जानकारों की राय में दुष्यंत को कोई जल्दी नहीं है। वह प्रतीक्षा करो और देखो वाली नीति पर चल रहे हैं। लेकिन यह ऊहापोह की ऐसी स्थिति कहीं उनके और पार्टी के लिए भविष्य में घातक साबित न हो! जिस पार्टी की नींव ही किसान और कमेरे वर्ग पर टिकी है, वह इनके आंदोलन से अलग कैसे रह सकती है? इसे राजनीतिक मजबूरी ही कहा जाएगा।